७५ अतिदेश

प्रत्यय लगने पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि जो प्रत्यय जैसा नहीं होता है, उसे वैसा मान लिया जाता है। इस मानने को ही अतिदेश करना कहते हैं। यह मानने का कार्य जिन सूत्रों के कारण होता है, उन सूत्रों को हम अतिदेश सूत्र कहते हैं। अतिदेश का अर्थ होता है, एक के धर्म को दूसरे में बतलाना। अतिदेश करने वाले सामान्य सूत्र इस प्रकार हैं - गाङ्कुटादिम्योऽणिन्डित् (१.२.१) - ‘इङ्’ धातु के स्थान पर होने वाले ‘गाङ्’ धातु से, तथा तुदादिगण के अन्तर्गत जो कुट से लेकर कुङ् तक ३६ धातुओं का कुटादिगण है, उस कुटादिगण में आने वाले धातुओं से परे आने वाले, जित् णित् से भिन्न, सारे प्रत्यय, ङित्वत् मान लिये जाते हैं। कुटादि धातु इस प्रकार हैं - १७४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ कुट पुट कुच् गुज् गुड् छुर् स्फुट् मुट् · त्रुट् तुट चुट छुट् जुट् लुट् कुड् पुड् घुट तुड् थुड् स्थुड् स्फुर् स्फुल् स्फुड् चुड् वुड् क्रुड् गुर् डिप् कृड् मृड् कड् नू धू गु ध्रु कु = ३६ जब भी गाङ् या कुटादि धातुओं के बाद जित् णित् से भिन्न प्रत्यय आयें, तब उन्हें डित् प्रत्यय जैसा मान लीजिये, और वही कार्य कीजिये जो कार्य ङित् प्रत्यय लगने पर कहे गये हैं। विज इट् (१.२.२) - तुदादि गण के विज् धातु से परे आने वाले सारे सेट प्रत्यय ङितवत माने जाते हैं। व्यचेः कुटादित्वमनसीति वक्तव्यम् (वार्तिक) - व्यच् धातु से परे आने वाले ‘अस्’ से भिन्न सारे प्रत्यय डिद्वत् होते हैं। विभाषोर्णोः (१.२.३) - ऊर्गु धातु से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्यय विकल्प से डित्वत् माने जाते हैं। __ इन ३९ धातुओं में कोई भी प्रत्यय लगाते समय इन अतिदेशों को सदा ध्यान में रखकर ही कोई भी अङ्गकार्य करें। इस प्रकार धातु में कोई भी ‘आर्धधातुक प्रत्यय जोड़ते समय हमारी दृष्टि में ये तीन बातें एकदम स्पष्ट होना चाहिये १. प्रत्यय सेट है, अथवा अनिट् । जिस धातु में हम प्रत्यय जोड़ रहे हैं, वह धातु सेट है या अनिट् । २. प्रत्यय को देखकर कहीं किसी धातु को धात्वादेश होकर धातु की आकृति तो नहीं बदल रही है ? ३. कहीं किसी अतिदेश सूत्र के प्रभाव से प्रत्यय कहीं कित् जैसा, कहीं ङित् जैसा और कहीं अकित् जैसा तो नहीं मान लिया गया है ? _इन तीन निर्णयों पर ही हमारे सारे अङ्गकार्य आधारित होंगे। सामान्य अङ्गकार्य इस प्रकार हैं - जब प्रत्यय कित्, डित्, गित्, जित्, णित्, से भिन्न हो, __तब इस प्रकार अङ्गकार्य करें सार्वधातुकार्धधातुकयोः - धातु के अन्त में आने वाले इक् को गुण होता है, कित्, डित्, गित्, जित्, णित्, से भिन्न, सार्वधातुक अथवा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। तुमुन्, तव्य, तव्यत्, तृच्, तृन्, आर्धधातुक कृत् प्रत्यय १७५ गुण होने का अर्थ होता है - इ, ई के स्थान पर ए / उ, ऊ के स्थान पर ओ / ऋ, ऋ के स्थान पर अर् तथा ल के स्थान पर अल् हो जाना। asp जैसे - नी + तृच् - ने + तृच् - नेता / हु + तृच् - हो + तृच् - होता / स्वृ + तृच् - स्वर् - + तृच्- स्वर्ता, आदि। छ। पुगन्तलघूपंधस्य च - धातु की उपधा में स्थित लघु इक् के स्थान पर गुण होता है, कित्, डित्, गित् से भिन्न सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। जैसे - लिख् + तृच् - लेख् + तृच् - लेखिता / मिद् + तृच् - मेद् + तृच् - मेदिता / वृष् + तृच् – वर्ष + तृच् - वर्षिता / क्लुप् + तृच् - कल्प् + तृच् - कल्पिता आदि । जब प्रत्यय कित्, डित् हो या किद्वत्, डिद्वत् मान लिया जाये, । तब इस प्रकार अङ्गकार्य करें क्डिति च (१.१.५) - कित्, डित्, गित् प्रत्यय परे होने पर, धातुओं के अन्त में आने वाले इक् को न तो ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण होता है, और न ही उपधा में स्थित लघु इक् को ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से गुण होता है। अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ - अजादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर अङ्ग के अन्तिम इ को इयङ् (इय्) अन्तिम उ को उवङ् (उव्) होता है। ऊर्गु + इता - ऊर्गुत् + इता - ऊर्गुविता। ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च (६.१.१६) - ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज् इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर। व्यच् + इता - विच् + इता = विचिता। वचिस्वपियजादीनाम् किति (६.१.१५) - वच्, स्वप् तथा यज्, वप्, वह, वस्, वद्, वेञ्, हेञ्, श्वि, व्येञ्, धातुओं को सम्प्रसारण होता है, कित् प्रत्यय परे होने पर। अनिदितां हल उपधायाः क्डिति (६.४.२४) - कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर, अनिदित् हलन्त धातुओं की उपधा के ‘न्’ का लोप होता है। ये आगे यथास्थान बतलाये जायेंगे। अब हम धातुओं से सेट् प्रत्यय लगायें -