७२ हल् सन्धि

अब हम धातुओं में तुमुन्, तव्य, तव्यत्, तृच्, तृन्, क्त, क्तवतु, क्त्वा, क्तिन्, प्रत्यय लगायेंगे। ध्यान दें कि ये सारे प्रत्यय तकारादि हैं। यहाँ हम केवल यही विचार करेंगे कि हलन्त धातुओं के बाद, तकारादि प्रत्ययों के आने पर सन्धि किस प्रकार होगी। इसे भलीभाँति जानकर ही हम इन प्रत्ययों में प्रवेश करेंगे। ध्यान रहे कि तकारादि प्रत्ययों के आदि में कभी कभी ‘इट’ का आगम हो जाता है। जो आगे बतलाया जायेगा। यथा - लिख + तव्य - लेख् + इ + तव्य / यहाँ ध्यान दें कि अब ख के बाद प्रत्यय का ‘त’ न दिखकर ‘इ’ दिख रहा है। जब भी अपदान्त हल के बाद अच् आता है, तब कोई सन्धि नहीं होती, अपितु हल् + अच् का संयोगमात्र होता है। अतः लेख् + इ + तव्य को जोड़कर लेखितव्य बना लीजिये। इसी प्रकार - पठ् + इ + तव्य = पठितव्य आदि बनाइये। किन्तु जब प्रत्यय को इट् का आगम नहीं होता है, तब धातु के अन्तिम हल् के बाद प्रत्यय का हल दिखता है। जैसे - रुध् + त / बोध् + तव्य / दह् + क्त्वा, आदि। ऐसी स्थिति में दोनों हलों के मध्य किस प्रकार से सन्धि की जाये, यह जानना अत्यावश्यक है। अतः इस पाठ में तकारादि प्रत्यय परे होने पर होने वाले सन्धिकार्यों का निरूपण किया जा रहा है। ‘त’ झल् भी है और खर् भी है। अतः तकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, वे कार्य प्राप्त होंगे, जो सूत्रों में झल् और खर् को निमित्त मानकर कहे गये हैं। ये कार्य इस प्रकार होंगे - . पहिले हम प्रत्येक वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय वर्षों से अन्त होने वाले धातुओं को तकारादि प्रत्ययों में जोड़ें - क्, ख, ग से अन्त होने वाले धातु खरि च - खर् परे होने पर झल् के स्थान पर चर् होता है। अर्थात् यदि प्रत्यय के आदि में खर् (वर्ग का प्रथम या द्वितीय अक्षर अथवा श, ष, स) हो, तब उसके पहिले वाला वर्ण अपने वर्ग का प्रथमाक्षर (चर्) बन जाता है। अतः तकारादि प्रत्यय परे होने पर क् ख् ग् को खरि च सूत्र से क् बनाइये १५४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ तथा प्रत्यय के त् को कुछ मत कीजिये - शाशक् + ति - शाशक् + ति = शाशक्ति लेलेख् + ति - लेलेक् + ति = लेलेक्ति तात्वङ्ग् + ति - तात्वक् + ति = तात्वक्ति __ च्, छ्, ज् से अन्त होने वाले धातु चवर्गान्त धातुओं के तीन वर्ग बनाइये - १. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् तथा सारे छकारान्त धातु - स्कोः संयोगाद्योरन्ते च (८.२.२९) - संयोग के आदि में स्थित क्, स् का लोप होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - भ्रस्ज् + तुम् / इस धातु के अन्त में स् + ज् का संयोग है। इसके बाद झल् है। अतः झल् परे होने पर इस संयोग के आदि अवयव ‘स्’ का लोप करके - भ्रज् + तुम्। इसी प्रकार - व्रश्च् + तुम् / संयोग के आदि अवयव स्’ का लोप करके - वच् + तुम् । (ध्यान रहे कि यहाँ जो ‘श्’ दिख रहा है, वह ‘स्’ ही है। यह स्’ ही ‘च’ से मिलकर ‘स्तोः श्चुना श्चुः’ सूत्र से श्चुत्व होकर ‘श्’ बन गया है।) व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशांषः (८.२.३६)- व्रश्च्, भ्रस्ज, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज्, छकारान्त तथा शकारान्त धातुओं के अन्तिम वर्ण को ष् होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। __ष्टुना ष्टुः (८.४.४७) - सकार तवर्ग के स्थान पर षकार, टवर्ग होता है, षकार, चवर्ग के योग में। इस सूत्र से ष् के बाद आने वाले ‘त’ को ‘ट’ बनाइये - व्रश्च् + ता - व्रष् + टा = व्रष्टा भ्रस्ज् + ता भ्रष् + टा = भ्रष्टा सृज् + ता - स्रष् + टा = स्रष्टा मृज् + ता - म्रष् + टा = म्रष्टा यज् + ता - यष् + टा = यष्टा प्रच्छ् + ता - प्रष् + टा = प्रष्टा क्रोश् + ता - क्रोष् + टा = क्रोष्टा २. मस्ज् धातु - मस्जिनशोझलि (७.१.६०) - मस्ज् और नश् धातु को नुम् हल् सन्धि १५५ का आगम होता है, झल् परे होने पर। __ मस्जेरन्त्यात् पूर्वं नुम् वक्तव्यः (वा.)- मस्जिनशोझलि से होने वाला नुमागम नुम् मिदचोऽन्त्यात्परः’ से अन्तिम अच् के बाद न होकर अन्तिम अच् के पूर्व होता है। मस्ज् + ता / म स् न् ज् + ता / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से स् का लोप करके - म न् ज् + ता / चोः कुः’ सूत्र से ज् को कुत्व करके - म न् ग् + ता - खरि च सूत्र से ग् को चर्व करके - म न् क् + ता / नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से न् को अनुस्वार करके - मंक् + ता / अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण करके - मङ्क्ता । इसी प्रकार - मङ्क्तुम् । मङ्क्तव्य, आदि। ३. शेष चकारान्त तथा जकारान्त धातु - ध्यान रहे कि हम अभी केवल प्रथम, द्वितीय, तृतीय वर्णों का ही विचार कर रहे हैं। चवर्ग के द्वितीयाक्षर ‘छ्’ को तो हम ष् बना ही चुके हैं। अतः च्, ज् ही बचे। __ चोः कुः (८.२.३०) - व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् तथा छकारान्त धातुओं से बचे हुए जो चवर्गान्त धातु, उनके ‘चवर्ग’ के स्थान पर कवर्ग’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। च, ज् को चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके क्, ग् बनाइये, उसके बाद उन्हें खरि च’ से चर्व करके ‘क्’ बना दीजिये, और प्रत्यय के त को कुछ मत कीजिये। यथा - पच् + ता - पक् + ता = पक्ता त्यज् + ता - त्यग् + ता = त्यक्ता ट्, ठ, ड् से अन्त होने वाले धातु अन्तिम ट् ठ् ड् को खरि च सूत्र से ट् बनाइये। उसके बाद ष्टुना टुः सूत्र से प्रत्यय के त को ट बनाइये। चोकुट + तः - चोकुट + टः = चोकुट्टः लोलुठ् + तः - लोलुट् + टः = ईड् + ते - ईट् + टे = त्, थ्, द् से अन्त होने वाले धातु त् थ् द् को खरि च सूत्र से त् बनाइये । प्रत्यय के त को कुछ मत कीजिये - पापत् + ति - पापत् + ति = पापत्ति मामन्थ् + ति - मामन्त् + ति = मामन्ति __ + लोलुटः + + १५६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अद् + ति - अत् + ति = अत्ति झरो झरि सवर्णे (८.४.६५) - हल से परे जो झर्, उसका लोप होता है, झर् परे होने पर। अतः पूर्व तकार का विकल्प से लोप करके - मामन्ति, मामन्ति। प, फ, ब् से अन्त होने वाले धातु प् फ् ब् को खरि च सूत्र से प् बनाइये। प्रत्यय के त को कुछ मत कीजिये - छोप् + ता - छोप् + ता = छोप्ता जोगुम्फ् + ति - जोगुम्प् + ति = जोगुम्प्ति लालम्ब् + ति - लालम्ब् + ति = लालम्प्ति यह सभी वर्गों के प्रथम, द्वितीय, तृतीय वर्गों का विचार पूर्ण हुआ। वर्ग के चतुर्थ वर्ण से अन्त होने वाले अर्थात् झषन्त धातु झषस्तथो?ऽधः (८.२.४०) - यदि धातु के अन्त में झष् अर्थात् वर्ग के चतुर्थाक्षर हैं, तब उनसे परे आने वाले ‘त’ और ‘थ’ को ‘ध’ हो जाता है। __ यथा - लाल + ति / धातु के अन्त में झए अर्थात् वर्ग का चतुर्थाक्षर है, अतः उसके परे आने वाले ‘त’ को ‘ध’ करके - लाल + धि - झलां जश् झशि (८.४.५३) - अपदान्त झल् के स्थान में जश् होता है, झश् परे होने पर। यथा - लालध् + धि / लालङ्ग् + धि = लालङ्ग्धि / हमने जाना कि जब धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर हो, तब धातुओं के बाद में आने वाले - १. प्रत्यय के त, थ को ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से ‘ध’ होता है। २. और धातु के अन्त में बैठे हुए, वर्ग के चतुर्थाक्षर को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर होता है। दोघ + ता - दोग् + धा = दोग्धा लभ . + ता - लब् + धा = लब्धा रोध् + ता - रोद् + धा . = रोद्धा जाझर्ड्स + ति - जाझर्ग + धि = जाझर्धि जाझर्धि - जाझर्ड्स + ति। यह चवर्गान्त है, अतः पहिले ‘चोः कुः’ से कुत्व करके अथात् ‘झ’ को कवर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ’ बनाकर - जाझर्घ + ति - अब ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - जाझध् + धि हल सन्धि १५७ / अब झलां जश् झशि’ सूत्र से घ् को जश्त्व करके - जाझर्ग + धि - जाझग्छि । न्, म्, से अन्त होने वाले धातु नकारान्त, मकारान्त धातुओं में अर्थात् अनुनासिकान्त धातुओं में प्रत्यय जोड़ने के पहिले यह निर्णय अवश्य कीजिये कि जो तकारादि प्रत्यय आप धातु में लगाने जा रहे हैं, वह तकारादि प्रत्यय कहीं कित् डित् तो नहीं है ? क्योंकि तकारादि प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं - १. कित् डित् तकारादि प्रत्यय, जैसे - क्त, क्तवतु, क्तिन् आदि। २. कित् डित् से भिन्न तकारादि प्रत्यय, जैसे - तुमुन्, तव्य, तृच्, आदि। बहुत सावधानी से पहिचानिये, कि जो तकारादि प्रत्यय आप लगाने जा रहे हैं, वह तकारादि प्रत्यय कित् ङित् तकारादि प्रत्यय है अथवा कित् ङित् से भिन्न तकारादि है। यदि नकारान्त, मकारान्त धातुओं अर्थात् अनुनासिकान्त धातुओं से लगा हुआ तकारादि प्रत्यय, कित् ङित् है, तब हमें सन्धि करने के पहिले अङ्गकार्य करने वाले दो सूत्रों को सामने रखकर ही सन्धि करना चाहिये। १. अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति (६.४.३७) - अनुदात्तोपदेश मन्, हन्, गम्, रम्, नम्, यम् धातु / भ्वादिगण का वन् धातु, तथा तनादिगण के तन्, सन्, क्षण, क्षिण, ऋण, तृण, घृण, वन्, मन् धातु, इन १६ धातुओं के अन्तिम अनुनासिक वर्गों का लोप हो जाता है, झलादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर। यथा - हन् + तः = हतः गम् + तः = गतः मन् + तः = मतः रम् + तः = रतः २. अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति (६.४.१५) - इन १५ धातुओं के अलावा जितने भी अनुनासिकान्त धातु हैं, उनकी उपधा को, झलादि कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। शम् + क्त - शाम् + त - शां + त - शान् + त = शान्तः वम् + क्त - वाम् + त - वां + त - वान् + त = वान्तः जिन धातुओं को यह लोप या उपधादीर्घ कार्य प्राप्त हो, उसे पहिले कर लें। उसके बाद ही इन अनुनासिकान्त धातुओं में, सन्धि करें। जहाँ ये कार्य नहीं प्राप्त हैं, वहाँ सीधे सन्धि कर लीजिये। १५८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ सन्धि इस प्रकार कीजिये नश्चापदान्तस्य झलि (८.३.२४) - जब पद के अन्त में नहीं, अपितु अपद के अन्त में न्, म आयें, तो उन्हें अनुस्वार होता है, यदि उन न, म के बाद आने वाला व्यञ्जन झल् हो, अर्थात् वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय, अथवा चतुर्थ व्यञ्जन हो अथवा श, ष, स, ह, हो। यथा - मन् + ता / हन् + ता / शाम् + तः / गम् + ता / दाम् + तः / वाम् + तः / गम् + तुम् / रम् + तुम् / नम् + तुम् / आदि को देखिये। इनमें मन्, हन्, गम् आदि तो ‘धातु’ हैं और ता, तः, तुम् आदि ‘प्रत्यय’ है। जब ये दोनों जुड़ जायेंगे तभी ‘सुप्तिङन्तं पदं’ सूत्र से इनका नाम ‘पद’ होगा। अभी तो ये पद नहीं हैं, अपद हैं। __इन अपदों के अन्त में स्थित नकार, मकार, अपदान्त नकार, मकार हैं और इनसे परे झल् है । ऐसे अपदान्त नकार, मकार को ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से अनुस्वार होता है। जैसे - __मन् + ता = मंता / हन् + ता = हंता / गम् + ता = गंता / यम् + ता = यंता / रम् + ता = रंता / शाम् + त = शांत / वाम् + त = वांत / दाम् + त = दांत / आदि। अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः (८.४.५८) - अनुस्वार को परसवर्ण होता है, यय् परे होने पर। यय् का अर्थ होता है, श् स् ष् ह को छोड़कर सारे व्यञ्जन। परसवर्ण - परसवर्ण का अर्थ होता है, अपने आगे आने वाले वर्ण के समान, उसी स्थान का वर्ण बन जाना। जैसे - मंता = मन्ता / हंता = हन्ता / गंता = गन्ता / यंता = यन्ता / शांत = शान्तः / वांत = वान्तः / दांत = दान्तः / गं + तुम् = गन्तुम् / रं + तुम् = रन्तुम् / नं + तुम् = नन्तुम् ।। य, व्, से अन्त होने वाले धातु यकारान्त, धातुओं के ‘य’ का लोपो व्योर्वलि’ सूत्र से लोप कीजिये। जैसे - जाहय् + ति = जाहति / जाहय् + तः = जाहतः / जाहय् + थः = जाहथः आदि। शकारान्त धातु शकारान्त धातुओं के ‘श्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र हल् सन्धि १५९ से ‘ए’ बनाइये और प्रत्यय के त को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ट बनाइये - क्रुश् + तः - क्रुष् + टः = क्रुष्टः विश + तः - विष + टः = विष्टः षकारान्त धातु धातुओं के ‘ए’ को कुछ मत कीजिये। केवल प्रत्यय के ‘त’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके ‘ट’, बनाइये - द्विष् + तः = द्विष्टः कृष् + तः = कृष्टः शोष् + ता = शोष्टा पोष् + तुम् = पोष्टुम् सकारान्त धातु इन्हें कुछ भी नहीं होता। वस् + ता = वस्ता। वस् + तव्य = वस्तव्य। इसी प्रकार - घस् + ता = घस्ता। घस् + तुम् = घस्तुम् । घस् + तव्य = घस्तव्य। हकारान्त धातु १. न धातु - नहो धः (८.२.३४)- नह के ‘ह’ को ‘ध्’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - नह् + ता - नध् + ता / प्रत्यय के त, थ को ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से ध बनाकर - नध् + धा / धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर ध् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके - नद् + धा = नद्धा। इसी प्रकार - नह + तुम् = नद्धम्। नह् + तव्यत् = नद्धव्यम्।। २. दकारादि हकारान्त धातु, जैसे - दुह्, दिह आदि - दादेर्धातोर्घः (८.२.३२) - यदि धातु के आदि में ‘द’ हो और अन्त में ‘ह’ हो, तब ऐसे दकारादि हकारान्त धातुओं के ‘ह’ को ‘घ्’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में । दोह् + ता - दोघ् + ता/ प्रत्यय के त को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ध बनाकर - दोघ् + धा / धातु के अन्तिम घ् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ग् बनाकर - दोग् + धा = दोग्धा। दोह् + ता - दोघ् + धा - दोग् + धा = दोग्धा दह् + ता - दध् + धा - दग् + धा = दग्धा देह + ता - देय् + धा - देग् + धा = देग्धा १६० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ३. द्रुह् ,मुह्, स्नुह्, स्निह् धातु - वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् (८.२.३३) - द्रुह, मुह, ष्णुह, स्निह्, धातुओं के ह के स्थान पर विकल्प से घ और द आदेश होते हैं, झल् परे होने पर और पदान्त में। ‘ह’ को ‘घ’ बनाने पर - द्रोह् + ता - द्रोच् + धा - द्रोग् + धा = द्रोग्धा मोह + ता - मोघ् + धा - मोग् + धा = मोग्धा स्नेह + ता - स्नेच् + धा - स्नेग् + धा = स्नेग्धा स्नोह् + ता - स्नोच् + धा - स्नोग् + धा = स्नोग्धा . ‘ह’ को ‘द’ बनाने पर - द्रोह् + ता / द्रोढ् + ता / धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘द’ होने पर - प्रत्यय के त को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ध बनाकर - द्रोढ् + धा / प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ‘ढ’ बनाकर - द्रोढ् + ढा - ढो ढे लोपः (८.३.१३) - ढ् के बाद ढ् आने पर, पूर्व वाले ढ् का लोप होता है। इस सूत्र से पूर्व ढ् का लोप करके - द्रो + ढा = द्रोढा। इसी प्रकार - द्रोह + ता - द्रोढ् + धा - द्रोढ् + ढा = द्रोढा मोह् + ता - मोठ् + धा - मोठ् + ढा = मोढा स्नेह् + ता - स्नेढ् + धा - स्नेढ् + ढा = स्नेढा स्नोह् + ता - स्नोढ् + धा - स्नोद + ढा = स्नोढा र ४. सह्, वह् धातु - सह् + ता / हो ढः से ह को ढ् बनाने पर - सढ् + ता / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - सद् + धा / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुत्व करके - सढ् + ढा / ‘ढो ढे लोपः’ से पूर्व ढकार का लोप करके - स + ढा / अब ‘सहिवहोरोदवर्णस्य’ सूत्र से लुप्त ढकार के पूर्ववर्ती ‘अ’ को ‘ओ’ बनाकर ‘सोढा’ बनाइये। इसी प्रकार, वह् + ता से वोढा’ बनाइये। ५. शेष हकारान्त धातु - __ हो ढः (८.२.३१) - धातुओं के अन्त में स्थित ह’ को ‘ढ’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। ऊपर कहे हुए धातुओं के अलावा जितने भी हकारान्त धातु बचे, उनके ‘ह’ हल सन्धि १६१ को हो ढः’ सूत्र से ‘द’ बनाइये - लिह - लेह् + ता - लेट् + ता / प्रत्यय के ‘त’ को ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से ‘ध’ करके - लेट् + धा / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध्’ को ष्टुत्व करके - लेट् + ढा - ‘ढो ढे लोपः’ से पूर्व ढकार का लोप करके - ले + ढा = लेढा। इसी प्रकार - रोह् + ता - रोढ् + धा - रोठ् + ढा = रोढा मेह + ता - मेढ् + धा - मेढ् + ढा = मेढा लुप्त ढकार के पूर्व में अण् होने पर - लिह् + क्त / लिट् + ध / लिद + ढः / लि + ढ / इसे देखिये। यहाँ लुप्त ढकार के पूर्व में ‘इ’ है। द्रलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः (६.३.१११) - ढ् और र् का लोप होने पर, उन लुप्त द और र् के पूर्व में स्थित जो अण् अर्थात् अ, इ, उ, उन्हें दीर्घ होता है। अतः इस अण् का ‘ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः’ सूत्र से दीर्घ करके - लि + ढ = लीढः । यह हलन्त धातुओं में तकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। प्रथमा एकवचन में ‘सु’ विभक्ति लगाने पर होने वाली सन्धि अपृक्त एकाल् प्रत्ययः (१.२.४१) - एक अल् (वर्ण) वाले प्रत्ययों को अपृक्त प्रत्यय कहा जाता है। इसलिये प्रथमा एकवचन का सु = स् प्रत्यय, एक अल् वाला प्रत्यय होने से, अपृक्त प्रत्यय है। । हल्ल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् (६.१.६८) - हल् के बाद आने वाले, अपृक्त प्रत्ययों का लोप हो जाता है। यथा - मधुलिह् + स् = मधुलिह / रेष् + स् = रेष्। __ अब ध्यान दीजिये कि यहाँ स् का लोप होने के बाद, जो शब्द बचे हैं, वे अब ‘सुप्तिङन्तं पदं’ सूत्र के अनुसार ‘सुबन्त पद’ हैं और इनके अन्त में आने वाले ‘हल्’ अब ‘पदान्त हल्’ हैं। संयोगान्तस्य लोपः (८.२.२३) - यदि पद के अन्त में संयोग हो, और उस संयोग के आदि में स् या क् न हों, तब उस संयोग के अन्तिम वर्ण का लोप हो जाता है, पदान्त में तथा झल् परे होने पर। जैसे - युज् + क्विन् - प्रत्यय का सर्वापहारी लोप होकर - युज् । प्रथमा में सु विभक्ति लगाने पर - ‘युजेरसमासे’ सूत्र से नुम् का आगम करके - यु नुम् ज् + सु - ‘हल्ड्याब्भ्यो १६२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से सु का लोप करके युन्ज् / ‘संयोगान्तस्य लोपः’ सूत्र से ज् का लोप करके - युन्। रात्सस्य (८.२.२४) - रेफ से परे आने पर संयोगान्त स् का ही लोप होता है, अन्य वर्गों का नहीं। यह सूत्र संयोगान्तस्य. सूत्र का नियमन करता है। यथा - ऊ + सु / ऊ + स् - स् का लोप करके - ऊर्जू। अब यहाँ संयोगान्तस्य लोपः से ज् का लोप प्राप्त है, किन्तु रात्सस्य सूत्र कहता है कि रेफ से परे आने पर संयोगान्त स् का ही लोप होता है, अन्य वर्गों का नहीं। अतः ज् का लोप नहीं होगा - ऊर्ज़ - __चोः कुः (८.२.३०) - व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् तथा छकारान्त धातुओं से बचे हुए जो चवर्गान्त धातु, उनके ‘चवर्ग’ के स्थान परं ‘कवर्ग’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - वाच - वाक् । ऊर्ज़ - ऊर्ग। झलां जशोऽन्ते (८.२.३९) - पदान्त झल् के स्थान पर जश् होता है। जश्त्व होने का अर्थ होता है - वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ व्यञ्जनों को उसी वर्ग का तृतीय व्यञ्जन बना देना। वाक् - वाग् । वाऽवसाने (८.४.५६) - अवसान अर्थात् अन्त में स्थित झल् को विकल्प से चर् होता है। चर्व का अर्थ होता है - वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ व्यजनों को उसी वर्ग का प्रथम व्यञ्जन बना देना। ऊर्ग, ऊ । वाक्, वाग् । स्कोः संयोगाद्योरन्ते च (८.२.२९) - यदि पद के अन्त में संयोग हो, और उस संयोग के आदि में स् या क् हों, तब उस संयोग के आदि में स्थित स्’ ‘क’ का लोप हो जाता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। शाखावृश्च् = शाखावृच्।। . ध्यान रहे कि यहाँ जो ‘श्’ दिख रहा है, वह स्’ ही है। यह स्’ ही ‘च’ से मिलकर स्तोः श्चुना श्चुः’ सूत्र से श्चुत्व होकर ‘श्’ बन गया है। व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः (८.२.३६) - व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मज. यज. राज. भ्राज. छकारान्त तथा शकारान्त धातओं के अन्तिम वर्ण कोष होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - शाखावृच् - शाखावृष् / विराज् - विराष् । वाऽवसाने सूत्र से विकल्प से जश्त्व और चर्व करके - विराट, विराड् । शाखावृट, शाखावृड्। __ हो ढः (८.२ः३१) - धातुओं के अन्त में स्थित ‘ह’ को ‘ढ्’ होता है, झल् = त, थ, ध, स परे होने पर तथा पदान्त में। मधुलिह् = मधुलिढ् - दादेर्धातोर्घः (८.२.३२) - यदि धातु के आदि में ‘द’ हो और अन्त में ‘ह’ हल् सन्धि १६३ हो, तब ऐसे दकारादि हकारान्त धातुओं के ‘ह’ को ‘घ्’ होता है, झल् = त, थ, ध, स परे होने पर तथा पदान्त में। यथा - कामदुह् - कामदुघ् - एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः (८.२.३७) - जिन एकाच धातुओं के अन्त में वर्ग के चतुर्थाक्षर ‘झष्’ अर्थात् झ्, भ, घ, द, ध्, हों, तथा आदि में बश् = ब, ग, द, हों, तो उन्हें ‘एकाच बशादि झषन्त’ धातु कहते हैं। यथा बन्ध्, बुध् आदि। __ यदि धातु एकाच बशादि झषन्त न हों, किन्तु ऊपर कहे गये सूत्रों से ‘ह’ के स्थान पर ढ्, घ् आदि बन जाने से, वे एकाच बशादि झषन्त हो गये हों, जैसे - दुह् - दुघ् आदि, उन्हें भी ‘एकाच बशादि झषन्त’ धातु कहते हैं। __ ऐसे एकाच बशादि झषन्त धातु के आदि में स्थित ब, ग, द, के स्थान पर भी उसी वर्ग के चतुर्थाक्षर भष् = भ, घ, ध, हो जाते हैं, सकारादि प्रत्यय परे होने पर, ध्व शब्द परे होने पर, तथा पदान्त में। कामदुघ् - कामधुघ् - वाऽवसाने सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - कामधुग, कामधुक्। _वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् (८.२.३३) - द्रुह, मुह, ष्णुह, ष्णिह, धातुओं के ह के स्थान पर विकल्प से घ् और ढ् आदेश होते हैं, झल् परे होने पर और पदान्त में। ह के स्थान पर घ् आदेश होने पर - मित्रद्रुह - मित्रद्रुघ् - ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से बश् ‘द’ के स्भान पर भष् ‘ध’ आदेश करके - मित्रद्रुघ् - मित्रधुघ्। वाऽवसाने सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - मित्रधुक्, मित्रघुग। ह् के स्थान पर ढ् आदेश होने पर - मित्रद्रुह् - मित्रद्रुढ़ - पूर्ववत् भष्भाव करके - मित्रधुढ् । वाऽवसाने सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चव करके - मित्रधुड्, मित्रध्रुट ।। नहो धः (८.२.३४) - नह धातु के ह के स्थान पर ध् आदेश होता है, झल परे होने पर तथा पदान्त में। चर्मनह - चर्मनध् - वाऽवसाने सूत्र से विकल्प से जश्त्व तथा चर्व करके - चर्मनत्, चर्मनन्। वा