४५ ट प्रत्यय

‘चुटू’ सूत्र से ट् की इत्संज्ञा होकर अ शेष बचता है - कुरुषु चरति इति कुरुचरः। कुरु + डि + चर् + ट / उपपदमतिङ्’ सूत्र से समास करके, ‘कृत्तद्धितसमासाश्च’ से प्रातिपदिक संज्ञा करके ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लुक् करके - कुरु + चर् + अ = कुरुचर / प्रातिपदिक संज्ञा होने के कारण सु विभक्ति लगाकर - कुरुचर + सु = कुरुचरः। __ इसी प्रकार भिक्षां चरति इति भिक्षाचरः / सेनायां चरति इति सेनाचरः / आदाय चरति इति आदायचरः। प्रत्यय के टित् होने का फल - टित् प्रत्यय से बने हुए जो शब्द होते हैं, उनसे स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ् द्वयसज्दघ्नमात्रच्तयप्ठकठकञ्क्वरपः’ सूत्र से डीप् प्रत्यय लगाया जाता है। अतः कित्, डि-त्, जित्, णित्, से भिन्न आर्धधातुक कृत् प्रत्यय १३९ कुरुचर का स्त्रीलिङ्ग कुरुचर + ङीप् = कुरुचरी बनेगा। यशः करोति इति यशस्करी विद्या - यशस् + डस् + कृ + ट / उपपदमतिङ्’ सूत्र से समास करके, कृत्तद्धितसमासाश्च’ से प्रातिपदिक संज्ञा करके सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लुक् करके - यशस् + कृ + अ = कुरुचर - . ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण करके - यशस् + कर् + अ / सकार को ससजुषो रुः सूत्र से रुत्व और ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से विसर्ग करके - यशःकर __ अतः कृकमिकसकुम्भपात्रकुशाकर्णीष्वनव्ययस्य (८.३.४६) - अकार से उत्तर समास में जो अनुत्तरपदस्थ अनव्यय का विसर्जनीय उसको नित्य ही सकारादेश होता है, कृ, कमि, कंस, कुम्भ, पात्र, कुशाकर्णी परे होने पर। इस सूत्र से विसर्ग को सत्व करके यशस्कर/ ‘टिड्ढाणञ्’. सूत्र से डीप् करके - यशस्करी। इसी प्रकार - अहः + कृ + ट से अहस्करः बनाइये। धनुष्करः - धनुस् + कृ + ट / ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण करके - धनुः + कर् + अ - नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य (८.३४५५) - अनुत्तरपदस्थ इस्, उस् के विसर्जनीय को समास विषय में नित्य ही षत्व होता है, कवर्ग, पवर्ग परे रहते। इस सूत्र से विसर्ग को षत्व करके धनुष् + कर - धनुष्करः । इसी प्रकार - अरुः + कृ + ट से अरुष्करः बनाइये।