ण्वि प्रत्यय में ‘चुटू’ सूत्र से ण् की तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इ की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से उनका लोप कीजिये। अब जो अपृक्त व् बचा, उसका वेरपृक्तस्य सूत्र से लोप कर दीजिये। इस प्रकार इस प्रत्यय में कुछ भी शेष नहीं बचता। जित् णित् आर्धधातुक कृत् प्रत्यय ११५ जब प्रत्यय में कुछ भी शेष नहीं बचे, तो कहते हैं, कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया। अनुबन्धों का लोप हो जाने के बाद भी अनुबन्ध अपना फल तो देते ही हैं। इसमें ण् की इत् संज्ञा होने से यह प्रत्यय णित् है, इसलिये इसे धातुओं में ठीक उसी विधि से लगाया जायेगा, जिस विधि से धातुओं में ण्वुल् प्रत्यय लगाया गया है। अर्ध + ङस् + भज् + ण्वि / ण्वि का सर्वापहारी लोप करके - अर्ध + भज् - उपपदमतिङ् से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - अर्ध + भज् / अत उपधायाः से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - अर्ध + भाज् - अर्धभाज् / प्रथमा एकवचन में अर्धभाक्। तुरा + सह + ण्वि / ण्वि का सर्वापहारी लोप करके - तुरा + ङस् + सह् / उपपदमतिङ् से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - तुरा + सह् / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - तुरा + साह - तुरासाह - सहेः साडः सः (८.३.५६) सूत्र से स को षत्व करके - तुराषा / प्रथमा एकवचन में तुराषाट् । प्रष्ठ + ङस् + वह् + ण्वि / ण्वि का सर्वापहारी लोप करके - प्रष्ठ + वह् / उपपदमतिङ्’ सूत्र से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - प्रष्ठ् + वह / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - प्रष्ठ + वाह - प्रष्ठवाह / प्रथमा एकवचन में प्रष्टवाह् + सु = प्रष्ठवाट । इसी प्रकार दित्यवाट् ।