१० णिनि प्रत्यय

णिनि प्रत्यय सारे धातुओं से नहीं लगता है। णिनि प्रत्यय में ‘चुटू’ सूत्र से ण् की तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से इ की इत् संज्ञा करके तस्य लोपः सूत्र से उनका लोप करके ‘इन्’ शेष बचाइये। इसमें ण् की इत् संज्ञा हुई है अतः यह प्रत्यय णित् है, यह ध्यान रखिये। णित् होने के कारण इसे भी धातुओं में ठीक उसी विधि से लगाया जायेगा, जिस विधि से धातुओं में ण्वुल प्रत्यय लगाया गया है। यथा - आकारान्त धातु - शतं + दा + णिनि / शतं + दा + इन् / ‘आतो युक् चिण्कृतोः’ सूत्र से युक् का आगम करके - शतं + दा + युक् + इन् - शतं दायिन् / प्रथमा एकवचन में - शतं दायी। इसी प्रकार सहस्रं दायी। १०६ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ विशेष - ध्यान रहे कि शतम्, सहस्रम् आदि उपपद नहीं हैं, इसलिये इनकी विभक्ति का लक नहीं हआ है। __ कषाय + ङस् + पा + णिनि / उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - कषाय + पा + इन् / ‘आतो युक् चिण्कृतोः’ सूत्र से युक् का आगम करके - कषाय + पा + युक् + इन् - कषायपायिन् / प्रथमा एकवचन में - कषायपायिन् + सु = कषायपायी। इसी प्रकार क्षीरपायी। इकारान्त धातु - स्थण्डिल + डि + शी + णिनि / उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - स्थण्डिल + शी + णिनि / अचो णिति से ई को वृद्धि करके - स्थण्डिल + शै+ इन् / ‘एचोऽयवायावः’ से आय आदेश करके - स्थण्डिल + शाय् + इन् - स्थण्डिलशायिन् / प्रथमा एकवचन में स्थण्डिलशायी। ऋकारान्त धातु - अवश्यम् + कृ + णिनि / अचो णिति से ऋ को वृद्धि करके - अवश्यं + कार् + इन् / अवश्यंकारिन् / प्रथमा एकवचन में - अवश्यंकारी। अदुपध धातु - ग्रह् + णिनि / ग्रह् + इन् / ‘अत उपधायाः’ सूत्र से उपधा के अकार को वृद्धि करके - ग्राह् + इन् - ग्राहिन् / प्रथमा एकवचन में ग्राही। दर्शनीय + ङस् + मन् + णिनि / उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - दर्शनीय + मन् + इन् / ‘अत उपधायाः’ सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - दर्शनीय + मान् + इन् - दर्शनीयमानिन् - दर्शनीयमानी। .इसी प्रकार अग्निष्टोम + टा + यज् + णिनि से अग्निष्टोमयाजी बनाइये। हन् धातु - कुमार + ङस् + हन् + णिनि / ‘उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - कुमार + हन् + इन् / ‘हो हन्तेणिन्नेषु’ सूत्र से हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व करके - कुमार + घन् + इन् / ‘हनस्तोऽचिण्ण्लो ः’ सूत्र से हन् के न् को त् आदेश करके - कुमार + घत् + इन् - ‘अत उपधायाः’ से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - कुमार + घात् + इन् - कुमारघातिन् - प्रथमा एकवचन में कुमारघाती। __ इसी प्रकार - शिरस् + ङस् + हन् + णिनि / शिरस् शब्द को निपातन से शीर्ष आदेश करके पूर्ववत् - शीर्षघाती बनाइये। पितृव्य + ङस् + हन् + णिनि / ‘उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा ‘सुपो जित् णित् आर्धधातुक कृत् प्रत्यय १०७ धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - ‘हो हन्तेणिन्नेषु’ सूत्र से हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व करके - पितृव्य + घन् + इन् / ‘हनस्तोऽचिण्ण्लो ः’ सूत्र से हन् के न् को त् आदेश करके - पितृव्य + घत् + इन् / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - पितृव्य + घात् + इन् - पितृव्यघातिन् / प्रथमा एकवचन में पितृव्यघाती। इसी प्रकार - मातुलघाती। उदुपध धातु - उष्ण + ङस् + भुज् + णिनि / ‘उपपदमतिङ’ से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - उष्ण + भुज् + इन् - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - उष्ण + भोज् + इन् - उष्णभोजिन् - प्रथमा एकवचन में उष्णभोजी। इसी प्रकार - उष्ट्र + सु + क्रुश् + णिनि / उपपदमतिङ्’ से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - उष्ट्र + क्रुश् + णिनि - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - उष्ट्र + क्रोश् + इन् - उष्ट्रक्रोशिन् - प्रथमा एकवचन में उष्ट्रक्रोशी। इसी प्रकार - ध्वाङ्क्ष + सु + रु+ णिनि = ध्वाङ्करावी।