धातुओं से भाव, कर्म अर्थ में ण्यत् प्रत्यय होता है। किन्तु ध्यान रहे कि ण्यत् प्रत्यय सारे धातुओं से नहीं लगता है। ण्यत् प्रत्यय में ‘चुटू’ सूत्र से ण की तथा ‘हलन्त्यम्’ सूत्र से त् की इत् संज्ञा होकर ‘य’ शेष बचता है। ण् की इत् संज्ञा होने से यह णित् प्रत्यय है। अतः इस प्रत्यय के लगने पर ण्वुल् प्रत्यय के समान ही कार्य होंगे।
ण्यत् प्रत्यय सम्बन्धी कुत्व विधि
चजोः कुघिण्ण्यतोः - (सूत्र ७.३.५२) - निष्ठायामनिट इति वक्तव्यम् (वा) जो चकारान्त और जकारान्त धातु निष्ठा प्रत्यय परे होने पर अनिट् हैं, उन्हें कुत्व होता है, घित् तथा ण्यत् प्रत्यय परे होने पर। (निष्ठा में अनिट् जो चकारान्त, जकारान्त धातु हैं, उनके कुत्व करके बने हुए ण्यत् प्रत्ययान्त रूप पृष्ठ ९४ पर देखें।) उदाहरण - पच् + ण्यत् / ‘अत उपधायाः’ सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके और चकार को कुत्व करके = पाक्यम् । मृज् + ण्यत् / मृजेवृद्धिः से वृद्धि और ‘चजोः कु घिण्ण्यतोः’ से कुत्व करके = मार्यम्। __ पाणि + भ्याम् + सृज् + ण्यत् - ‘उपपदमतिङ्’ से समास करके - ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लुक् करके - पाणि + सृज् + य / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके तथा ज् को कुत्व करके - पाणि + सर्ग + य = पाणिसर्म्य - स्त्रीत्व की विवक्षा में ‘अजाद्यतष्टाप्’ से टाप् प्रत्यय करके - पाणिसठ + टाप् = पाणिसर्या रज्जुः । इसी प्रकार - सम् + अव + सृज् + ण्यत् = समवसर्या रज्जुः । जो चकारान्त और जकारान्त धातु निष्ठा प्रत्यय परे होने पर सेट हैं, उन्हें ‘चजोः कु घिण्ण्यतोः’ सूत्र से कुत्व नहीं होता है। यथा - कूज् + ण्यत् = कूज्यम् / खर्च् + ण्यत् = खर्व्यम् / गर्छ + ण्यत् = गर्व्यम्। परि + व्रज् + ण्यत् = परिव्राज्यम् । ण्यत् प्रत्यय परे होने पर कुत्व के अपवाद - . वञ्चेर्गतौ - (७.३.६३ )- गति अर्थ में वर्तमान जो वञ्चु धातु, उसे कवगदिश नहीं होता। वञ्च् + ण्यत् = वञ्च्यम् । गति अर्थ न होने पर कुत्व होकर - वक्यम्। ण्य आवश्यके - (७.३.६५) - जिन धातुओं को कुत्व प्राप्त है, उन्हें भी कुत्व नहीं होता है, आवश्यक अर्थ में ण्यत् प्रत्यय परे होने पर। अवश्य + अम् + पच् + ण्यत् / उपपदमतिङ्’ से समास करके - ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - ‘अत उपधायाः’ से उपधा के १०२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अ को वृद्धि करके, तथा इस सूत्र से कुत्वाभाव होकर - अवश्यपाच्यम् । अवश्यवाच्यम् / अवश्यरेच्यम् । आवश्यक अर्थ न होने पर कुत्व होकर - पाक्यम्, वाक्यम्, रेक्यम्। विशेष - यहाँ ‘अवश्य’ शब्द का होना जरूरी नहीं है, अर्थ में आवश्यकता होना चाहिये। यजयाचरुचप्रवचर्चश्च- (७.३.६६) - यज्, याच्, रुच्, प्रवच्, ऋच्, इन्हें ण्यत् प्रत्यय परे होने पर, कवगदिश नहीं होता है। m याच् + ण्यत् = याच्यम् । यज् + ण्यत् / अत उपधायाः’ से उपधा के अ को वृद्धि होकर, तथा इस सूत्र से कुत्वाभाव होकर - याज्यम् । इसी प्रकार - प्र + वच् - प्रवाच्यम्। (यह ग्रन्थविशेष की संज्ञा है।) रुच् + ण्यत् / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - रोच्यम्। इसी प्रकार - ऋच् + ण्यत् - अय॑म् । विशेष - १. यद्यपि ऋच् धातु से ‘ऋदुपधात्’ सूत्र से क्यप् प्राप्त है, किन्तु इसी सूत्र के ज्ञापन से ऋच् धातु से ण्यत् प्रत्यय होता है। २. ‘निष्ठायामनिट.’ इस वार्तिक को मानने से यहाँ याच्, रुच, ऋच, धातु सेट होने से प्रत्याख्यात हैं।) त्यजेश्च - (वा. ७.३.६६) - त्यज् धातु यद्यपि निष्ठा में अनिट् है, किन्तु ण्यत् प्रत्यय परे होने पर इसे कुत्व नहीं होता है। त्यज् + ण्यत् / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के अ को वृद्धि होकर - त्याज्यम्। __ अत्यावश्यक - जो योज्यः’ ‘भाज्यः’ आदि शब्द लोक में बिना कुत्व के दिखते हैं, उन्हें णिजन्त धातुओं से यत् प्रत्यय करके बने हुए रूप समझना चाहिये । वचोऽशब्दसंज्ञायाम् - (७.३.६७) - वच् धातु से ण्यत् प्रत्यय परे होने पर, शब्दसंज्ञा अर्थ में वच् धातु को कुत्व होता है। __शब्दसंज्ञा अर्थ होने पर कुत्व होकर - वच् + ण्यत् / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के अ को वृद्धि होकर - वाच् + ण्यत् / ‘चजोः कु.’ से कुत्व होकर - वाक्यम् । शब्दसंज्ञा अर्थ न होने पर, वच् धातु को कुत्व न होकर - वच् + ण्यत् / अत उपधायाः से उपधा के अ को वृद्धि होकर - वाच्यम्। प्रयोज्यनियोज्यौ शक्यार्थे -(७.३.६८) - शक्य अर्थ में प्रयोज्य और नियोज्य शब्द, कुत्व न होकर निपातन से बनते हैं। शक्यः प्रयोक्तुम् - प्रयोज्यः / शक्यो नियोक्तुम् - नियोज्यः । शक्यार्थ न होने पर कुत्व होकर प्रयोग्यः, नियोग्यः रूप बनते हैं।
- भोज्यं भक्ष्ये - (७.३.६९) - भक्ष्य अर्थ में कुत्व न होकर भोज्य शब्द निपातन जित् णित् आर्धधातुक कृत् प्रत्यय लगाने की विधि १०३ से बनता है। भोज्यः ओदनः / भोज्या यवागूः। भोज्य अर्थ न होने पर कुत्व होकर भोग्यः कम्बलः, आदि रूप बनते हैं। ण्यत् प्रत्यय लगाकर निपातन से बने हुए शब्द अमावस्यदन्यतरस्याम् - (३.१.१२२) - अमापूर्वक वस् धातु से काल अधिकरण में वर्तमान होने पर ण्यत् प्रत्यय होता है तथा अत उपधाया से होने वाली वृद्धि का विकल्प से निपातन किया जाता है। सह वसतोऽस्मिन् काले सूर्यचन्द्रमसौ अमावास्या / अमावस्या। छन्दसि निष्टर्यदेवहूयप्रणीयोन्नीयोच्छिष्यमर्यस्तर्याध्वर्यखन्यखान्यदेवयज्या पृच्छ्यप्रतिषीव्यब्रह्मवाद्यभाव्यस्ताव्योपचाय्यपृडानि - (३.१.१२३) - निष्टय॑म् । देवहूयः। प्रणीयः। उन्नीयः। उच्छिष्यम्। मर्यः । स्तम्। ध्वर्यः। खन्यः। खान्यः । देवयज्या। आपृच्छ्यः । प्रतिषीव्यः । ब्रह्मवाद्यः । भाव्यः । स्ताव्यः। उपचाय्यपृडम् । वेद में ये सारे शब्द निपातन से बनते हैं। __आनाय्योऽनित्ये - (३.१.१२७) - आङ्पूर्वक नी धातु से ण्यत् प्रत्यय करके आनाय्यः’ शब्द निपातन किया जाता है। आङ् + नी + ण्यत् - आनाय्यो दक्षिणाग्निः । प्रणाय्योऽसंमतौ - (३.१.१२८) - असम्मति अर्थ अभिधेय होने पर प्र उपसर्गपूर्वक नी धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आय आदेश निपातित होते हैं। प्र + नी + ण्यत् - प्रणाय्यः चौरः । असम्मति का अर्थ है पूजा का अभाव, चोर निन्दित है इसीलिये ण्यत् का विधान किया गया है। यहाँ पर उपसर्गादसमासे’ सूत्र से णत्व हुआ है। व पाय्यसांनाय्यनिकाय्यधाय्यामानहविर्निवाससामिधेनीषु - (३.१.१२९) - पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य और धाय्य शब्द मान, हवि, निवास, सामिधेनी अर्थ अभिधेय होने पर निपातन किये जाते हैं। सम् + नी + ण्यत् - सांनाय्यं हविः = सन्नाय्य नामक हंवि। नि + चि + ण्यत् - निकाय्यः = निवास। डुधाञ् + ण्यत् - धाय्या = एक ऋचा का नाम। माङ् + ण्यत् - पाय्यं मानम् = तौलने के बाँट । क्रतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ- (३.१.१३०) - क्रतु अभिधेय होने पर तृतीयान्त कुण्ड शब्द उपपद होने पर पा धातु से अधिकरण अर्थ में यत् प्रत्यय तथा युक् का आगम निपातन करके कुण्डपाय्य शब्द बनता है और सम् उपसर्गपूर्वक चिञ् धातु से ण्यत् प्रत्यय करके आयादेश निपातन करके संचाय्य शब्द बनता है। १०४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ कुण्डेन पीयतेऽस्मिन् सोम इति कुण्डपाय्यः क्रतुः = वह यज्ञ जिसमें कुण्ड के द्वारा सोम पिया जाता है। सञ्चीयतेऽस्मिन् सोम इति संचाय्यः क्रतुः = वह यज्ञ जिसमें सोम का संचय किया जाता है। क्रतु अर्थ न होने पर कुण्डपानम् और संचेयः ही बनेंगे। __ अग्नौ परिचाय्योपचाय्यसमूह्याः - (३.१.१३१) - अग्नि अभिधेय होने पर परि उपसर्गपूर्वक चि धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आयादेश निपातन करके ‘परिचाय्यः’ शब्द बनता है। इसी प्रकार उप उपसर्गपूर्वक चि धातु से ण्यत् प्रत्यय तथा आयादेश निपातन करके ‘उपचाय्यः’ शब्द बनता है । सम् उपसर्गपूर्वक वह धातु से ण्यत् प्रत्यय करके तथा सम्प्रसारण और दीर्घ निपातन करके ‘समूह्यम्’ शब्द बनता है। परिचीयतेऽस्मिन् परिचाय्यः = वह स्थान, जहाँ यज्ञ की अग्नि स्थापित की जाती है। उपचीयतेऽसौ इति उपचाय्यः = यज्ञ में संस्कार की गई आग । समूह्यं चिन्वीत पशुकामः = पशु की कामना करने वाला समूह्य नामक यज्ञ की अग्नि का चयन करे। चित्याग्निचित्येषु - (३.१.१३२) - अग्नि अभिधेय होने पर चिञ् धातु से कर्म अर्थ में क्यप् प्रत्यय निपातन करके तथा ह्रस्वस्य पिति कृति तुक्’ सूत्र तुक् का आगम करके चित्य तथा अग्निचित्या शब्द बनते हैं। यह क्यप् प्रत्यय यत् का अपवाद है। उकारान्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय लू + ण्यत् - ‘अचो णिति’ से वृद्धि करके - लौ + य - धातोस्तन्निमित्तस्यैव (८.१.८०) - धातु को निमित्त मानकर बने हुए जो ओ, औ, उन्हें क्रमशः अव्, आव आदेश होते है, यकारादि प्रत्यय परे होने पर। लौ + य / ‘धातोस्तन्निमित्तस्यैव’ सूत्र से औ को आव आदेश करके - लाव् + य = लाव्यम् (काटने योग्य)। इसी प्रकार पू + ण्यत् - पाव्यम् । आ + सु + ण्यत् = आसाव्यम् । यु + ण्यत् = याव्यम्, आदि बनाइये। _ ऋकारान्त धातुओं से ण्यत् प्रत्यय कृ + ण्यत् - ‘अचो णिति’ से वृद्धि करके - कार् + य - कार्यम् । इसी प्रकार - हृ + ण्यत् - हार्यम् आदि बनाइये। अदुपध धातुओं से ण्यत् प्रत्यय वप् + ण्यत् - ‘अत उपधायाः’ से वृद्धि करके - वाप् + य = वाप्यम् । इसी प्रकार रप् + ण्यत् = राप्यम् । लप् + ण्यत् = लाप्यम् । त्रप् + ण्यत् = त्राप्यम्। आ + चम् + ण्यत् = आचाम्यम् । १०५ जित् णित् आर्धधातुक कृत् प्रत्यय इदुपध धातुओं से ण्यत् प्रत्यय । लिख + ण्यत् - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - लेख्यम् । उदुपध धातुओं से ण्यत् प्रत्यय बुध् + ण्यत् - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - बोध्यम् । ऋदुपध धातुओं से ण्यत् प्रत्यय ऋच् + ण्यत् - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा को गुण करके - अय॑म् ।