आभीक्ष्ण्ये णमुल् च (३.४.२२) - समान है कर्ता जिन दो क्रियाओं का, उनमें जो पूर्वकाल में वर्तमान धातु, उससे णमुल् प्रत्यय होता है, यदि पौनःपुन्य अर्थात् आभीक्ष्ण्य अर्थ गम्यमान हो, तो। आभीक्ष्ण्य का अर्थ है, बार बार करना। इस अर्थ में णमुल् प्रत्यय सभी धातुओं से लगाया जा सकता है। तात्पर्य यह कि जब कोई एक ही कर्ता, एक क्रिया करके दूसरी क्रिया करता है, तब पहिली क्रिया को बतलाने वाला जो धातु, उसे यदि बार बार किया जा रहा है, तो उस धातु से णमुल् प्रत्यय होता है। जैसे - देवदत्त खा खाकर जाता है - देवदत्तः भोज भोजं व्रजति । यहाँ एक ही कर्ता देवदत्त, बार बार खाने की क्रिया करके जाने की क्रिया कर रहा है, अतः पहिली क्रिया को बतलाने वाला जो धातु भुज्, उससे णमुल् प्रत्यय लगाया गया है। णमुल् प्रत्यय में ‘चुटू’ सूत्र से ण् की तथा हलन्त्यम्’ सूत्र से ल् की इत्संज्ञा होकर, तस्य लोपः’ सूत्र से दोनों का लोप होकर ‘अम्’ शेष बचता है। ध्यान रहे कि ण की इत् संज्ञा होने के कारण यह णित् प्रत्यय है। अतः इसके परे होने पर णित्त्वप्रयुक्त वे सारे कार्य होंगे, जो ण्वुल् प्रत्यय परे होने पर कहे गये हैं। अतः ण्वुल् प्रत्यय में जिस धातु का जो भी रूप दिया हुआ है, उसमें से ण्वुल् प्रत्यय का ‘अकः’ हटाकर उसकी जगह णमुल् प्रत्यय का अम्’ रख दीजिये तो जानिये कि सारे णमुलन्त रूप तैयार हो गये। जैसे - आकारान्त पा से हमने - पा + ण्वुल = पायकः, बनाया है। इसमें से अकः को हटाकर, अम् को रखा, तो बना - पायम् ।
- कृन्मेजन्तः (१.१.३९) - मकारान्त और एजन्त जो कृदन्त होते हैं, उनकी अव्यय संज्ञा होती है। णमुल् - अम्, यह भी मकारान्त कृदन्त है, अतः इससे बने हुए शब्दों की अव्यय संज्ञा होती है। अतः पायम् की अव्यय संज्ञा है। अव्ययादाप्सुपः (२.४.८२) - अव्यय से परे आने वाले आप् तथा सुप् का लुक होता है। अतः णमल प्रत्यय से बने हए जो शब्द उनके बाद आने वाली सप विभक्तियों का लोप हो जाता है और उनके रूप किसी भी विभक्ति में नहीं चलाये जा सकते। ९२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ नित्यवीप्सयोः (८.१.४) - जब आभीक्ष्ण्य (बार बार करना) अर्थ में णमुल् प्रत्यय होता है, तब जो णमुलन्त पद बनता है, उसे नित्यवीप्सयोः’ सूत्र - ८.१.४ से द्वित्व हो जाता है। यथा - पायं पायं व्रजति (पी पीकर जाता है।) इसी प्रकार - कृ धातु से कारकः के ही समान कारम् कारम् / भुज् धातु से भोजकः के ही समान भोजम् भोजम् आदि बनाइये। (ध्यान रहे कि जब आभीक्ष्ण्य अर्थ नहीं होगा तब यह द्वित्व भी नहीं होगा। यथा - स्वादुंकारम् भुङ्क्ते आदि में।) अब वे विशेष सूत्र बतला रहे हैं, जो कि ण्वुल् प्रत्यय में नहीं लगे थे और णमुल में लग रहे हैं। अप + गुर् धातु - अपगुरो णमुलि (६.१.५३) - अप उपसर्ग पूर्वक गुर् धातु से णमुल् प्रत्यय परे होने पर, एच् के स्थान पर विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है। अपगुर् + णमुल् / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके - अपगोर् + अम् = अपगोरम् अपगोरम्/ ओ के स्थान पर विकल्प से ‘आ’ आदेश करके - अपगारम् अपगारम् । मित् धातु - चिण्णमुलो दीर्घोऽन्यतरस्याम् (६.४.९३) - मित् धातुओं की उपधा को विकल्प से दीर्घ होता है, चिण् तथा णमुल् परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। मित् धातुओं की उपधा को जो मितां ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व कहा गया है, उसका यह विकल्प है। शम् + णिच् = शामि / शामि + णमुल् / ‘णेरनिटि’ सूत्र से णिच् का लोप करके - शाम् + अम् / ‘नित्यवीप्सयोः’ सूत्र से द्वित्व करके - शामम् शामम् / दीर्घ न होने पर शमम् शमम् । लभ् धातु - विभाषा चिण्णमुलोः (७.१.६९) - लभ् धातु को विकल्प से नुम् का आगम होता है, चिण् तथा णमुल् प्रत्यय परे होने पर - लभ् + णमुल - लभ् + अम् / नुमागम होकर - लम्भ् + अम् - लम्भं लम्भम् ।। नुमागम न होने पर - लभ् + णमुल् - लभ् + अम् / ‘अत उपधायाः’ से उपधा के अ को वृद्धि होकर - लाभ् + अम् - लाभम् लाभम् । पूरी धातु - वर्षप्रमाण ऊलोपश्चास्यान्यतरस्याम् (३.४. ३२) - वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो तो कर्म उपपद में होने पर ण्यन्त पूरी धातु से णमुल् प्रत्यय होता है तथा इस पूरी धातु के ऊकारं का विकल्प से लोप होता है। जित् णित् आर्धधातुक कृत् प्रत्यय लगाने की विधि गोष्पदं पूरयति इति गोष्पदप्रम् । गोष्पद + ङस् + पूर् + णमुल् / ‘उपपदमतिङ्’ सूत्र से समास करके तथा ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से सुप् विभक्ति का लुक् करके - गोष्पद + पूर् + अम् / वर्षप्रमाण ऊलोपश्चास्यान्यतरस्याम् सूत्र से ऊ का लोप करके - गोष्पद + प् र् + अम् = गोष्पदप्रम्। ऊलोप न होने पर - गोष्पदपूरं वृष्टो देवः (गोष्पद + ङस् + पूर् + णमुल्)। इसी प्रकार - सीताप्रम् वृष्टो देवः। ऊलोप न होने पर - सीतापूरं वृष्टो देवः (गोष्पद + ङस् + पूर् + णमुल्)।