०२ अङ्गकार्य

प्रत्यय को देखकर अङ्ग में जो जो भी कार्य होते हैं, उन कार्यों को अङ्गकार्य २० अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ कहा जाता है। जैसे - भू + ण्वुल् (अक) / इस ‘अक’ को देखकर भू को वृद्धि होकर ‘भौ’ हो जाता है। भौ + अक = भावकः । यह वृद्धि होना ही यहाँ अङ्गकार्य है। क + क्त्वा = कृत्वा / इस त्वा’ को देखकर क को गण. वद्धि नहीं होते हैं। यह गुण, वृद्धि न होना ही यहाँ अङ्गकार्य है। ध्वंस् + क्त = ध्वस्तः / इस क्त’ को देखकर ध्वंस् के न् का लोप हुआ है। यह नलोप होना ही यहाँ अङ्गकार्य है।

प्रातिपदिकसंज्ञा, अलौकिक विग्रह, सुब्लुक् तथा सुबुत्पत्ति

प्रातिपदिकसंज्ञा - कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) - कृदन्त और तद्धितान्त तथा समास की प्रातिपदिक संज्ञा होती है। अतः कृत् प्रत्यय लगते ही इस कृत् प्रत्ययान्त शब्द अर्थात् कृदन्त शब्द की, इस सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा कीजिये। कुछ प्रत्यय केवल धातु से न होकर, उपपद सहित धातु से होते हैं । यथा कर्मण्यण सूत्र से जो अण् प्रत्यय होता है, वह केवल कृ धातु से न होकर कर्म उपपद में रहने पर ही धातुओं से होता है। जैसे - कुम्भं करोति इति कुम्भकारः, इसे बनाने के लिये हम कुम्भं’ इस कर्म के उपपद में रहते हुए कृ धातु से अण् प्रत्यय लगाते हैं। कुम्भं + कृ + अण् । उपपदमतिङ् (२.२.१) - जब किसी उपपद के रहने पर किसी धातु से किसी कृत् प्रत्यय का विधान किया जाता है, तब उस कृदन्त शब्द का उस उपपद के साथ समास हो जाता है। अतः कुम्भं + कृ + अण् का उपपदमतिङ्’ सूत्र से समास कीजिये। अब समास होने के कारण ‘कृत्तद्धितसमासाश्च’ सूत्र से कुम्भं + कृ + अण, की प्रातिपदिक संज्ञा कीजिये। अलौकिक विग्रह तथा सुब्लुक् - जिन जिन शब्दों का समास होता है, उनकी विभक्तियों का लुक् हो जाता है। विभक्तियों के लुक् को ही सुब्लुक् कहते हैं। सुब्लुक् करने वाला सूत्र है - सुपो धातुप्रातिपदिकयोः (२.४.७१) - धातु और प्रातिपदिक के अवयव सुप् का लुक् होता है। यथा - कुम्भं + कृ + अण, में कुम्भम् में जो द्वितीया है, उसका इस सूत्र से लुक् हो जाता है। लुक् करने के लिये विभक्ति को अलग करके लिखना ही अलौकिक विग्रह कहलाता है। विषय प्रवेश २१ अलौकिक विग्रह करने के लिये ध्यान रहे कि करोति के साथ हमें यद्यपि कुम्भं’ में द्वितीया दिख रही है, किन्तु कृत् प्रत्यय ‘अण्’ के लगते ही ‘कर्तृकर्मणोः कृति’ सूत्र से कर्म में द्वितीया के स्थान पर षष्ठी आ जायेगी। अतः जो कुम्भ + अम् + कृ + अण्’ दिख रहा है, वह अलौकिक विग्रह में कुम्भ + ङस् + कृ + अण, हो जायेगा। अतः जहाँ भी कर्म में द्वितीया दिखे, उसे आप षष्ठी ही लिखें। । अब इस सूत्र से प्रातिपदिक के अवयव सुप् का लुक् करके - कुम्भ + ङस् + कृ + अण् को कुम्भ + कृ + अण् हो जायेगा। अब अचो णिति सूत्र से ऋ को वृद्धि करके - कुम्भकार् + अ = कुम्भकार बनाइये। ‘कर्तृकर्मणोः कृति’ सूत्र के अपवाद - न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् (२.३.६९) - लकारों के स्थान पर होने वाले शत, शानच्, क्वसु, कानच् आदि प्रत्यय, उ, उक, प्रत्यय, क्त्वा, तुमुन् आदि अव्यय कृदन्त, निष्ठा प्रत्यय, खलर्थ प्रत्यय और तृन् प्रत्याहार में आने वाले प्रत्यय, इतने कृत् प्रत्यय लगने पर अनुक्त कर्म में द्वितीया ही होती है। अतः इनके विग्रह में आप द्वितीया ही लिखें। _इसके अतिरिक्त जहाँ अन्य कारकों का निर्देश किया हो, वहाँ तत्, तत् विभक्तियाँ लिखें। यथा - अग्निष्टोमेन इष्टवान् इति अग्निष्टोमयाजी में अग्निष्टोम + टा + यज् + णिनि। गर्ते शेते इति गर्तशयः में - गर्त + डि + शी + अच्। सुबुत्पत्ति - जब कृत् प्रत्यय लगाकर पूरा शब्द बन जाये, तब आप देखें कि कृदन्त होने के कारण यह प्रातिपदिक है। प्रातिपदिक होने के कारण उसमें सारी सुप् विभक्तियाँ आ सकती हैं। अतः प्रथमा एकवचन में ‘सु’ विभक्ति लगाकर उसका प्रथमा एकवचन का रूप ही आप दीजिये। यथा - कुम्भ + कृ + अण् = कुम्भकार, यह बना है। इसमें सु विभक्ति लगाकर आप कुम्भकार + सु = कुम्भकारः, बनाकर ही दें। जब भी किसी धातु से कोई प्रत्यय लगे, तब आप इस क्रम से कार्य कीजिये - १. धातु के अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके उनका लोप कीजिये। २. अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके उनका लोप करने के बाद यदि धातु में नत्व, सत्व, उपधादीर्घ या नुमागम में से कोई भी कार्य प्राप्त हो, तो उसे कर लीजिये। ३. अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके उनका लोप करने के बाद यदि प्रत्यय को कोई अन, अक, आदि आदेश प्राप्त हो, तो उस प्रत्ययादेश को कर लीजिये। २२ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ ४. यदि किसी उपपद के रहने पर किसी धातु से किसी प्रत्यय का विधान किया गया है, तब उपपदमतिङ्’ सूत्र से उपपद के साथ उस कृत्प्रत्ययान्त का समास करके कृत्तद्धितसमासाश्च सूत्र से उसकी प्रातिपदिक संज्ञा कीजिये और प्रातिपदिक संज्ञा होने के बाद ‘सुपो धातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से विभक्ति का लोप कर दीजिये। ५. अब प्रत्यय को पहिचानिये कि वह सार्वधातुक है या आर्धधातुक है ? ६. यदि सार्वधातुक प्रत्यय है, तब धातु और प्रत्यय के बीच में उस गण का विकरण बैठाइये, जिस गण का वह धातु है। यदि आर्धधातुक प्रत्यय है, तब धातु और प्रत्यय के बीच में इडागम करने का विचार कीजिये। ७. अब विचार कीजिये कि कहीं प्रत्यय को देखकर धातुओं के स्थान पर सम्पूर्ण आदेश करके उनकी आकृति बदल देने के लिये कोई सूत्र तो प्राप्त नहीं हैं ? यदि प्रत्यय को देखकर किसी धातु के स्थान पर कोई धात्वादेश प्राप्त हो रहा हो, तो उसे कर लीजिये। ८. अब विचार कीजिये कि किसी अतिदेश सूत्र के बल से प्रत्यय में किसी नये धर्म का अतिदेश तो नहीं किया जा रहा है ? अतिदेश आगे बतलाये जायेंगे। ९. अतिदेश का विचार करने के बाद ही अङ्गकार्य कीजिये । प्रत्ययों से सम्बन्धित अङ्गकार्य तत् तत् प्रत्ययों के साथ बतलाते चलेंगे। १०. अङ्गकार्य करने के बाद सन्धि कीजिये। ११. अब यदि णत्व, षत्व आदि प्राप्त हैं, तो उन्हें कीजिये। १२. कृत् प्रत्यय लगाकर जो भी शब्द बने, उसमें प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति लगाकर, उसका प्रथमा एकवचन का रूप लिख दीजिये। ये सारी बातें जानकर ही अब हम धातुओं में प्रत्यय लगायें। पहिले हम धातुओं में सार्वधातुक प्रत्यय लगायें -