०१ विषय प्रवेश

कृदन्त शब्द बनाने के लिये हमें जानना चाहिये कि - १. किस धातु से, २. किस अर्थ में ३. किस सूत्र से ४. कौन सा प्रत्यय ५. किस प्रकार लग रहा है ? इस ग्रन्थ में ये कार्य दो हिस्सों में किये गये हैं। इस पूर्वार्ध में हम आपको केवल पाँचवीं बात बतलायेंगे कि ‘धातु से प्रत्यय किस प्रकार लगता है। शेष चारों बातें इसी के उत्तरार्ध में पाणिनीय अष्टाध्यायी के ही सूत्रक्रम से बतलायेंगे। इससे दो लाभ होंगे। पहिला तो यह कि जब आप इस पूर्वार्ध को पढ़कर धातुओं में प्रत्यय लगाने की प्रक्रिया जान जायेंगे, तब उत्तरार्ध में सूत्रों के जो उदाहरण आयेंगे, वे आपकी बुद्धि में झटिति स्फुरित होते जायेंगे, क्योंकि उन्हें बनाने की प्रक्रिया आप जान चुके हैं। दूसरा यह कि पाणिनीय अष्टाध्यायी का सूत्रक्रम सुरक्षित रहेगा, जिससे कि पाणिनीय शास्त्र का पूरा विज्ञान आपके सामने स्पष्ट हो जायेगा। अतः हम पूर्वार्ध का प्रारम्भ करते हैं किन्तु उसमें प्रवेश करने के लिये हमें पाणिनीय शास्त्र के कुछ शब्दों की जानकारी होना ही चाहिये। ये इस प्रकार हैं - धातु होना, जाना, करना, पढ़ना, देखना आदि जितनी भी क्रियाएँ होती हैं, उन क्रियाओं के वाचक जो भू, गम्, कृ, पठ्, दृश् आदि शब्द हैं, उनको संस्कृत में धातु कहा जाता है। धातु दो प्रकार के होते हैं - " १. अप्रत्ययान्त धातु भूवादयो धातवः (३.१.१) - क्रिया के वाची भू आदि की धातु संज्ञा होती है। ये सारे धातु भगवान् पाणिनि ने धातुपाठ में इकट्ठे करके दे दिये हैं। उसी धातुपाठ के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई है। धातुपाठ में १९४३ धातु हैं। इन धातुओं को अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ उन्होंने १० वर्गों में विभाजित किया है। इन वर्गों को गण कहते हैं। __ इन समस्त धातुओं में सारे कृत् प्रत्यय लगाना हमें सीखना है। पाणिनीय धातुपाठ इस ग्रन्थ के पीछे दिया गया है। इन धातुओं के रूपों का अनेकविधि से आलोचन करने पर, यही निष्कर्ष मिलता है कि जब भी धातु से कोई प्रत्यय लगता है, तब वह प्रायः अजन्त धातुओं के अन्तिम स्वर को तथा हलन्त धातुओं की उपधा (अन्त के ठीक पहले) के स्वर को प्रभावित करता है। __अतः प्रत्ययों के प्रभाव की दृष्टि से, तथा धातुओं के अन्य कार्यों की दृष्टि से हमने पाणिनीय धातुपाठ तो ज्यों का त्यों, पूरा का पूरा लिया है किन्तु उसके क्रम को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया है। २. प्रत्ययान्त धातु - इस धातुपाठ में कहे गये धातुओं के अलावा तृतीय अध्याय में ‘गुप्तिज्किद्भ्यः सन्’ (३.१.५) सूत्र से लेकर आयादय आर्धधातुके वा’ (३.१.३१) तक के सूत्रों में १२ प्रत्यय कहे गये हैं। ये प्रत्यय जिस भी शब्द के अन्त में लग जाते हैं, उसका नाम भी धातु हो जाता है। ये सूत्र इस प्रकार हैं - १. गुप्तिज्किद्भ्यः सन्। २. मान्बधदान्शान्भ्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य। ३. धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा। (सर्वप्रातिपदिकेभ्यः क्विब्वा वक्तव्यः - वार्तिक)। ४. सुप आत्मनः क्यच्। ५. काम्यच्च। ६. उपमानादाचारे। ७. कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। ८. भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः। ९. लोहितादिडाज्भ्यः क्यष्। . १०. कष्टाय क्रमणे। ११. कर्मणो रोमन्थतपोभ्यां वर्तिचरोः। १२. वाष्पोष्मभ्यामद्वमने।। १३. शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे। विषय प्रवेश १४. सुखादिभ्यः कर्तृवेदनायाम् । १५. नमोवरिवसश्चित्रङः क्यच् । १६. पुच्छभाण्डचीवराण्णिङ्। १७. मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच् । १८. धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् । १९. नित्यं कौटिल्ये गतौ। २०. लुपसदचरजपजभदहदशगृभ्यो भावगर्हायाम् । २१. सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच् । २२. हेतुमति च। २३. कण्ड्वादिभ्यो यक्। २४. गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्यः आयः । २५. ऋतेरीयङ्। २६. कमेर्णिङ्। २७. आयादय आर्धधातुके वा। सनाद्यन्ता धातवः (३.१.३२) - ऊपर कहे गये सन्, क्यच् ,काम्यच, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक्, आय, यङ्, ये १२ प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं, उसका नाम भी ‘धातु’ हो जाता है। धातुओं तथा प्रातिपदिकों में इनके लगने से धातुओं की संख्या अनन्त हो जाती है। इन प्रत्ययों से प्रत्ययान्त धातु बनाने की विधि ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ के द्वितीय खण्ड में विस्तार से दी गई है । उसे वहीं देखें। इन समस्त प्रत्ययान्त धातुओं में भी सारे कृत् प्रत्यय लगाना हमें सीखना है। प्रत्यय प्रत्ययः (३.१.१) - यह अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय का प्रथम सूत्र है। यह अधिकार सूत्र है। इसका अधिकार इस सूत्र से प्रारम्भ होकर पञ्चम अध्याय के अन्त तक अर्थात् निष्प्रवाणिश्च (५.४.१६०) सूत्र तक चलता है। इस प्रकार अष्टाध्यायी के तृतीय, चतुर्थ तथा पञ्चम अध्यायों में प्रत्ययः’ - का अधिकार है। अतः अष्टाध्यायी के ये तीन अध्याय प्रत्ययाध्याय कहलाते हैं। = इस प्रत्ययाधिकार में कहे जाने वाले प्रत्यय दो प्रकार के हैं। धातुओं से लगने वाले प्रत्यय तथा प्रातिपदिकों (किसी भी अर्थवान् शब्द) से लगने वाले प्रत्यय । प्रत्यय का अर्थ है, जो धातुओं अथवा प्रातिपदिकों के बाद लगें और लगकर उनके अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अर्थों में कुछ न कुछ वृद्धि कर दें, उन्हें प्रत्यय कहते हैं। जैसे - कृ धातु का अर्थ है ‘करना’, किन्तु कृ में तृच् लगाने पर जो कृ + तृ = कर्ता, शब्द बनता है, उसका अर्थ होता है करने वाला’। इसी प्रकार - कृ + क्त्वा = का अर्थ होता है ‘करके’ । कृ + तव्य का अर्थ होता है करने के योग्य’, आदि। दशरथ का अर्थ है अयोध्या के राजा। पर जब दशरथ शब्द से इञ् प्रत्यय लगाकर ‘दाशरथि’ शब्द बनता है, तो इसका अर्थ हो जाता है ‘दशरथ का अपत्य’ (सन्तान) अर्थात् राम, लक्ष्मण, भरत आदि। कौसल्या का अर्थ है दशरथ की पत्नी। पर जब कौसल्या शब्द से ढक् प्रत्यय लगाकर कौसल्येय’ शब्द बनता है, तो इसका अर्थ हो जाता है कौसल्या का अपत्य’ (सन्तान) अर्थात् राम।

धातुओं से लगने वाले प्रत्यय -

धातुओं से लगने वाले प्रत्यय, अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में हैं। ये चार प्रकार के हैं। १. धातुप्रत्यय - सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक्, आय, यङ्, ये १२ प्रत्यय धातुप्रत्यय कहलाते हैं। ये प्रत्यय जिस भी धातु अथवा प्रातिपदिक से लगते हैं, उसे धातु बना देते हैं, अर्थात् उनकी ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातु संज्ञा कर देते हैं। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ३.१.५ से ३.१.३२ तक के सूत्रों में हैं। २. विकरणप्रत्यय - धातु और प्रत्यय के बीच में आकर बैठने वाले प्रत्यय को विकरण कहते हैं। विकरण का ही दूसरा नाम गणचिह्न भी है। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ३.१.३३ से ३.१.९० तक के सूत्रों में हैं। _३. तिङ्प्रत्यय - लट्, लिट्, लुट, लुट, लेट, लोट, लङ्, लिङ्, लुङ् तथा लुङ् । इन दस लकारों के स्थान पर होने वाले जो प्रत्यय हैं, उन्हें तिङ् प्रत्यय कहते हैं। ये प्रत्यय अष्टाध्यायी में ३.१.९१ से ३.४.११७ तक के सूत्रों के बीच हैं। ४. कृत्प्रत्यय - इन्हें जानने के लिये हमें सावधानी से समझना चाहिये कि अष्टाध्यायी के तृतीय अध्याय में दो धात्वधिकार हैं - प्रथम धात्वधिकार - प्रथम धात्वधिकार ‘धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् (३.१.२२)’ इस सूत्र के धातोः पद से लेकर ‘कुषिरजोः प्राचाम् श्यन् परस्मैपदं च (३.१.९०)’ सूत्र तक चलता है। इस प्रथम धात्वधिकार में धातुप्रत्यय तथा विकरण प्रत्यय कहे गये हैं। अतः इस अधिकार में कहा गया कोई भी प्रत्यय, कृत् प्रत्यय नहीं है। द्वितीय धात्वधिकार - द्वितीय धात्वधिकार ‘धातोः (३.१.९१)’ इस सूत्र से लेकर विषय प्रवेश ‘छन्दस्युभयथा (३.४.११७)’ सूत्र तक चलता है। इसमें दो प्रकार के प्रत्यय हैं । तिङ् प्रत्यय और कृत् प्रत्यय। कृदतिङ् - ३.१.९३ - इस द्वितीय धात्वधिकार में कहे गये प्रत्ययों में जो प्रत्यय तिङ् नहीं हैं, उनका नाम ही कृत् प्रत्यय है। ये १२४ हैं। कृत्य प्रत्यय - इन १२४ कृत् प्रत्ययों में से तव्य, तव्यत्, अनीयर्, यत्, ण्यत्, क्यप् इन ६ प्रत्ययों का नाम कृत् प्रत्यय भी है तथा कृत्य प्रत्यय भी है। शेष प्रत्ययों का नाम केवल कृत् प्रत्यय है। इनका भेद आगे स्पष्ट किया जायेगा। इन्हें सावधानी से पहिचानना चाहिये। (अतः प्रथम अधिकार में कहा गया कोई भी प्रत्यय, कृत् प्रत्यय नहीं है।) धातुओं से लगने वाले ये सारे प्रत्यय पुनः दो-दो प्रकार के होते हैं - तिङ् शित् सार्वधातुकम् (३.४.११३) - लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् इन चार लकारों के प्रत्ययों की, तथा धातुओं से लगने वाले शित् प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा होती है। जिन कृत् प्रत्ययों में श् की इत् संज्ञा हुई है, ऐसे सार्वधातुक कृत् प्रत्यय नौ हैं - शत, शानच्, शानन्, चानश्, खश्, श, एश्, शध्यै, शध्यैन् = ९। । आर्धधातुकं शेषः (३.४.११४) - धातु से लगने वाले जिन प्रत्ययों की सार्वधातुक संज्ञा नहीं होती है, उनकी आर्धधातुक संज्ञा होती है। अतः इन ९ कृत् सार्वधातुक प्रत्ययों के अलावा जितने भी कृत् प्रत्यय बचे, उन्हें आप आर्धधातुक कृत् प्रत्यय समझिये। आर्धधातुक कृत् प्रत्यय ११५ हैं। ये सब आगे दिये जा रहे हैं। प्रातिपदिकों से लगने वाले प्रत्यय - प्रातिपदिकों से लगने वाले प्रत्यय, अष्टाध्यायी के चतुर्थ तथा पञ्चम अध्याय में हैं। ये अगले तद्धित खण्ड’ में विस्तार से बतलाये जा रहे हैं।

व्याकरणशास्त्र की कुछ प्रमुख संज्ञाएँ

अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा (१.१.६५)- अन्तिम अल् के पूर्व के वर्ण की उपधा संज्ञा होती है। यथा - किसी भी शब्द के अन्तिम वर्ण के ठीक पहिले वाला वर्ण उपधा’ कहलाता है। जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘अ’ है, उन्हें हम अदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में हूस्व ‘इ’ है, उन्हें हम इदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘उ’ है, उन्हें हम उदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में ‘ऋ’ है, उन्हें हम ऋदुपध धातु कहते हैं। जैसे - अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ मिद् भिद् बुध् शुभ् रट वृध् आदि अदुपध धातु इदुपध धातु उदुपध धातु ऋदुपध धातु पठ् मुद् वृष् वद् । कृष् छिद् हन् आदि चित् आदि रुच आदि गुण - ‘अदेङ् गुणः (१.१.२)’ सूत्र अ, ए, ओ, की ही गुण संज्ञा करता है किन्तु ‘उरण रपरः’ सूत्र ऋ, ऋ के स्थान पर होने वाले गुण को रपर करके ‘अर्’ बना देता है तथा लु के स्थान पर होने वाले गुण को लपर करके ‘अल्’ बना देता है। इस प्रकार गुण पाँच हो जाते हैं। अ, इ, उ, अर्, अल्। गुण होने का अर्थ है - ‘इ’, ‘ई’ को ‘ए’ हो जाना - चि - चे / नी - ने आदि। उ’, ‘ऊ’ को ‘ओ’ हो जाना - द्रु - द्रो / भू - भो आदि। ‘ऋ’, ‘ऋ’ को ‘अर्’ हो जाना - हृ - हर् / तृ - तर् आदि। __ वृद्धि - ‘वृद्धिरादैच् (१.१.१)’ सूत्र आ, ऐ, औ, की ही वृद्धि संज्ञा करता है किन्तु उरण रपरः’ सूत्र ऋ, ऋ के स्थान पर होने वाली वृद्धि को रपर करके ‘आर्’ बना देता है तथा लु के स्थान पर होने वाली वृद्धि को लपर करके ‘आल्’ बना देता है। इस प्रकार वृद्धि भी पाँच हो जाती हैं। आ, ऐ, औ, आर्, आल् । वृद्धि होने का अर्थ है - ‘इ’, ‘ई’ को ऐ’ हो जाना - चि - चै / नी - नै आदि। ‘उ’, ‘ऊ’ को ‘औ’ हो जाना - द्रु - द्रौ / भू - भौ आदि । ‘ऋ’, ‘ऋ’ को ‘आर्’ हो जाना - हृ - हार् / तृ - तार् आदि। सम्प्रसारण - इग्यणः सम्प्रसारणम् (१.१.४५) - य, व, र, ल् को इ, उ, ऋ, तृ हो जाना सम्प्रसारण होना कहलाता है। जैसे - यज् - इज् / वच् - उच् / व्रश्च् - वृश्च् । संयोग - हलोऽनन्तराः संयोगः (१.१.७) - ऐसे दो या दो से अधिक व्यञ्जन, जिनके बीच में कोई स्वर न आया हो, उनका नाम संयोग होता है। जैसे - पुष्प में - ष् + प् का संयोग है। बुद्धि में - द् + ध् का संयोग है। कृत्स्न में - त् + स् + न् का संयोग है। वृष्णि में - ष् + ण् का संयोग है। लघु - ह्रस्वं लघु (१.४.१०) - एक मात्रा वाले, अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पाँच विषय प्रवेश स्वरों का नाम ह्रस्व है। इन्हें ही लघु कहते हैं। गुरु - संयोगे गुरु (१.४.११) - संयोग के पूर्व में स्थित लघु स्वरों की गुरु संज्ञा होती है। दीर्घ च (१.४.१२) - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ इन दीर्घ स्वरों का नाम भी गुरु है। आदि-आदि का अर्थ प्रारम्भ होता है। जैसे - पठ्, वद्, खाद् के आदि (प्रारम्भ) में, हल् (व्यञ्जन) हैं, अतः ये धातु हलादि हैं । अत्, इच्छु आदि धातुओं के आदि (प्रारम्भ) में, अच् (स्वर) हैं, अतः ये धातु अजादि हैं। टिसंज्ञा - अचोऽन्त्यादि टि (१.१.६४) - किसी भी अजन्त शब्द को देखिये। उसमें जो अन्तिम ‘अच्’ होता है, उसका नाम ‘टि’ होता है। जैसे - राम में ‘अ’, हरि में ‘इ’, गुरु में ‘उ’ आदि ‘टि’ हैं। अब किसी भी हलन्त शब्द को देखिये । हलन्त शब्द में, जो अन्तिम ‘अच्’ होता है, उस अन्तिम ‘अच्’ के सहित उसके आगे जो भी हल्’ हो, उसका नाम ‘टि’ होता है। जैसे - मनस् में ‘अस्’, चर्मन् में ‘अन्’, भवत् में ‘अत्’ आदि। स्थानी तथा आदेश - किसी वर्ण को या पूरे शब्द को हटाकर, जब उसकी जगह, कोई दूसरा वर्ण या शब्द आकर, बैठ जाता है, तब जिसे हटाया जाता है, उसे ‘स्थानी’ कहते हैं तथा जो स्थानी की जगह आकर बैठ जाता है, उसे ‘आदेश’ कहते हैं। जैसे - प्रति + एकः = प्रत्येकः को देखिये। ‘इ’ को हटाकर उसके स्थान पर आकर, ‘य्’ बैठ गया है। अतः इ स्थानी है और य आदेश है। अक्षर को हटाकर उसकी जगह बैठ जाने के कारण, ‘आदेश’ को ‘शत्रुवत्’ कहा जाता है - ‘शत्रुवदादेशः’ । निमित्त - ‘इ’ के स्थान पर ‘य’ क्यों हुआ है ? इ को य् होने का निमित्त अर्थात् कारण है ‘ए’ । अतः जिसके कारण कोई भी कार्य होता है, उसे उस कार्य का निमित्त कहा जाता है। अतः यहाँ ‘इ’ के स्थान पर ‘य’ होने का निमित्त ‘ए’ है। __ आगम - जब किसी भी वर्ण को हटाये बिना कोई नया वर्ण आकर बीच में बैठ जाता है, तब उसे आगम कहते हैं। किसी भी अक्षर को हटाये बिना, आकर बैठ जाने के कारण, ‘आगम’ को ‘मित्रवत्’ कहा जाता है - ‘मित्रवदागमः’ । आगम तीन प्रकार के होते हैं। टित्, कित् और मित् । आद्यन्तौ टकितौ (१.१.४६) - टित् आगम जिसे कहे जाते हैं, उसके आदि अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ अवयव होते हैं। जैसे - सं + कृत / यहाँ कृ धातु को सुट का आगम होता है। टित् होने से यह कृ धातु के आदि में बैठता है। सम् + सुट् + कृत = संस्कृत। कित् आगम जिसे कहे जाते हैं, उसके अन्तावयव होते हैं। जैसे - सोमसु को तुक् का आगम होता है। कित् होने के कारण यह तुक्, सोमसु के अन्त में बैठता है। सोमसु + तुक् = सोमसुत्। मिदचोऽन्त्यात् परः (१.१.४७) - मित् आगम जिसे कहे जाते हैं, उसके अन्त्य अच् के बाद बैठते हैं। जैसे - द्विषत् को मुम् का आगम होता है। यह मुम् मित् होने के कारण द्विषत् के अन्तिम अच् के बाद बैठता है। द्विष् + मुम् + त्। प्रातिपादिकसंज्ञा - अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपादिकम् (१.२.४५) - धातुओं तथा प्रत्ययों को छोड़कर, जो भी अर्थवान् शब्द होते हैं, उनका नाम प्रातिपदिक होता है। राम, बालक, कृष्ण, वृक्ष आदि का नाम प्रातिपादिक है। कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) - जिनसे कृत्’ अथवा ‘तद्धित’ प्रत्यय लग जाते हैं, उनका नाम भी प्रातिपदिक हो जाता है। समासों की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। यथा - कृ + ण्वुल, इस कृदन्त का नाम प्रातिपदिक है। उपगु + अण, इस तद्धितान्त का नाम प्रातिपदिक है। रामश्च लक्ष्मणश्च, इस समास का नाम प्रातिपदिक है। पदसंज्ञा - सुप्तिङन्तं पदम् (१.२.१४) - प्रातिपदिकों में प्रथमा से सप्तमी तक ‘सुप्’ विभक्तियाँ लगाकर जो शब्दरूप बनते हैं, वे पद हैं । धातुओं से विभिन्न लकारों में ‘तिङ्’ विभक्तियाँ लगाकर जो धातुरूप बनते हैं, वे भी पद हैं। अतः पद दो प्रकार के हैं। धातुरूप = तिङन्त पद, तथा शब्दरूप = सुबन्त पद। __ सुप् तथा तिङ् विभक्तियों के बिना जो भी शब्द तथा धातु आदि हैं, वे अपद ही हैं, यह जानिये। सन्धिकार्य करते समय पद अपद को पहिचानना चाहिये।

  • परे होना - जब भी किसी से भी कोई भी प्रत्यय लगाया जाता है, तो हम कहते हैं कि प्रत्यय उससे परे है। जैसे - भू धातु से शप् प्रत्यय लगाया तो बना - भू + शप् । इसे यह नहीं कहेंगे कि भू धातु के बाद शप् प्रत्यय है, अपितु ऐसे कहेंगे कि भू धातु से परे शप् प्रत्यय है। जब हम भू धातु से शप् तथा ति ये दो प्रत्यय लगायेंगे तो बनेगा - भू + शप् विषय प्रवेश AW
  • ति। इसे हम इस प्रकार कहेंगे कि शप् प्रत्यय, भू धातु से परे है, तथा ‘ति’ प्रत्यय भू + शप् से परे है। परे होने का अर्थ है आगे होना। तपर - तपरस्तत्कालस्य (१.२.७०)- जब हम ‘अ’ कहते हैं, तब उसका अर्थ ‘अ’ ‘आ’, दोनों ही होता है। पर यदि इस ‘अ’ के बाद ‘त्’ लगा दें, तब ‘अत्’ कहने पर उसका अर्थ केवल ह्रस्व ‘अ’ ही होगा। इसी प्रकार आत् = दीर्घ आ / इत् = हूस्व इ / ईत् = दीर्घ ई / उत् = ह्रस्व उ / ऊत् = दीर्घ ऊ / ऋत् = ह्रस्व ऋ / ऋत् = दीर्घ ऋ / एत् = ए / ओत् = ओ आदि जानना चाहिये। जिनके अन्त में त्’ लगा है, ऐसे वर्ण तपर कहलाते हैं। प्रकृति - जिससे कोई भी प्रत्यय लगाया जाता है, उसे उस प्रत्यय की प्रकृति कहते हैं। यथा - कृ + ण्वुल, इसमें ण्वुल् प्रत्यय की प्रकृति ‘कृ’ है। भू + क्त्वा, इसमें क्त्वा प्रत्यय की प्रकृति ‘भू है।

णत्व विधि

रषाभ्यां नो णः समानपदे (८.४.१) - र् और ष् के बाद आने वाले न् को ण होता है, समानपद में। यथा आस्तीर् + न = आस्तीर्णः / इसको देखिये - इसमें र् के बाद ‘न’ आया है, अतः उसे ‘ण’ हुआ है। इसी प्रकार - शीर् + न = शीर्णः, तीर् + न = तीर्णः। ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् (वा. ८.४.१) - ऋ के बाद आने वाले न् को भी ण् होता है, समानपद में। ऋ + न = ऋणम् में, ऋवर्ण के बाद आने वाले न को . णत्व हुआ है। अट्कुप्वाङ्नुमव्यवायेऽपि (८.४.२) - यदि र्, ष, ऋ के बाद अट्’ अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, कवर्ग, पवर्ग, आङ् अथवा अनुस्वार आये हों, और उनके बाद ‘न’ आया हो, तो भी ‘न’ को णत्व हो जाता है। कारणा में - र् + न के बीच में अ है, तब भी न् को ण् हो गया है। ग्रहणम् में - र + न के बीच में ह, अ हैं, तब भी न् को ण् हो गया है। उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य (८.४.१४) - उन धातुओं को देखिये, जो ‘न’ अथवा ‘ण’ से प्रारम्भ हो रहे हैं। इनमें से, न नाट, नाथ्, नाध्, नन्द्, नक्क, नृ, नृत्, इन आठ धातुओं को छोड़कर शेष नकारादि, णकारादि धातु णोपदेश कहलाते हैं। यदि किसी उपसर्ग में ‘र’ ‘ए’ आये हों, तब उनसे परे आने वाले इन ‘णोपदेश’ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ धातुओं के ‘न्’ को ही ‘ण’ होता है, सभी धातुओं के ‘न्’ को नहीं। यथा - प्र + नादः = प्रणादः । प्र + नामः = प्रणामः, आदि। यह णत्व विधि है । आगे इसी विधि से आवश्यकतानुसार णत्व करते चलें। अष्टाध्यायी में णत्व के सारे सूत्र ८.४.१ से लेकर ८.४.३९ तक हैं। इन्हें अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में एक साथ देख लेना चाहिये । यहाँ प्रमुख सूत्र ही बतलाये हैं।

षत्व विधि

अष्टाध्यायी में षत्व के सारे सूत्र ८.३.५५ से लेकर ८.३.११९ तक हैं । सारे षत्व कार्यों को, अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में एक साथ देख लेना चाहिये। _’ कृत् प्रकरण में प्रयुक्त णत्व, षत्व के, प्रमुख सूत्र तत् तत् स्थानों पर बतलाते जायेंगे।

इत्संज्ञाप्रकरण

धातुओं तथा प्रत्ययों आदि के बारे में यह जान लेना चाहिये कि धातु तथा प्रत्यय जैसे दिये गये हैं, ठीक वैसे के वैसे काम में नहीं लाये जाते । उनका कुछ हिस्सा निकालकर अलग कर दिया जाता है तथा कुछ हिस्सा बचाकर उसे काम में लिया जाता है। ऐसा ही प्रत्ययों के साथ भी होता है। इसलिये हमें यह जानना जरूरी है कि हमारे सामने जब भी धातु या प्रत्यय आदि आयें, तो उनका कितना हिस्सा हम बचायें और कितने हिस्से का लोप कर दें। जिन्हें हम हटा देते हैं उन्हीं का नाम इत्.या अनुबन्ध है। डुकृञ् धातु को देखिये। इसमें धातु तो है ‘कृ’, परन्तु इसके आगे ‘डु’ है तथा पीछे ञ्’ । इन दोनों को हटाकर हम बीच के कृ का उपयोग करते हैं। इसी प्रकार टुनदि, जिमिदा, डुपचष् आदि धातुओं को समझिये, इनमें नद्, मिद्, पच् आदि ही शेष बचते हैं। ये अनुबन्ध कभी तो धातु के आगे, कभी पीछे तथा कभी दोनों जगह लगे रहते हैं। इसी प्रकार प्रत्ययों में भी होता है। अतः हमारी सबसे पहिली आवश्यकता यह है कि ज्यों ही कोई धातु या प्रत्यय हमारे सामने आये, हम उसमें से यह पहिचान लें कि उसमें से कितना हिस्सा हटाने का है और कितना बचाने का ? इसके लिये हमें आठ सूत्रों की सहायता लेना पड़ेगी। १. उपदेशेऽजनुनासिक इत् (१.३.२) - उपदेशावस्था में जो अनुनासिक अच् होता है उसकी इत् संज्ञा होती है। विषय प्रवेश उपदेश - उपदेश का अर्थ होता है - आद्योच्चारण। अर्थात् आचार्य ने धातु, प्रत्यय, आगम, आदेश आदि को मूलतः जिस भी रूप में पढ़ा है, वही उपदेश है। जैसे कृ धातु की उपदेशावस्था है - डुकृञ् । मिद् धातु की उपदेशावस्था है - जिमिदा। __ अनुनासिक का अर्थ तो होता है ऐसा स्वर, जिसे नासिका से बोला जाये और लिखने में जिसके ऊपर - ऐसा चिन्ह हो। परन्तु धातुपाठ में तो ऐसे धातु मिलते नहीं हैं, जिन पर अनुनासिक का चिह्न लगा हो, तो यहाँ हमें परम्परा का ही आश्रय लेना पड़ता है। __ हमें जिन स्वरों की इत् संज्ञा’ करना है, उनके अनुनासिकत्व की कल्पना करनी पड़ती है, अर्थात् बाधृ को हम बाधैं ऐसा मान लेते हैं, तब उस अनुनासिक ऋ की, ‘इत् संज्ञा’ हम करते हैं। इसी प्रकार गम्ल में लू की, मदी में ‘ई’ की, अञ्चु में उ’ की, गुपू में ऊ, कटे में ए की, वदि में ‘इ’ की इत् संज्ञा हम इस सूत्र से करते हैं। २. हलन्त्यम् (१.३.३) - उपदेशावस्था में जो अन्तिम हल् (व्यञ्जन) होता है, उसकी इत् संज्ञा होती है। जैसे - ‘भिदिर्’ में ‘र’ है। यह धातु का अन्तिम हल है। इसकी इत् संज्ञा, इस सूत्र से होती है। इसी प्रकार ‘शप्’ प्रत्यय में ‘प्’ की, ‘श्नम्’ प्रत्यय में ‘म्’ की, ‘णिच्’ प्रत्यय में ‘च’ की, इत् संज्ञा इससे होती है। या ३. न विभक्तौ तुस्माः (१.३.४) - विभक्ति में स्थित तवर्ग, सकार तथा मकार की इत् संज्ञा नहीं होती है। इसके लिये हम विभक्ति प्रत्ययों को जानें - __ विभक्ति - ध्यान दीजिये कि लकारों में लगने वाले १८ तिङ् प्रत्यय’ ‘विभक्ति’ हैं। ‘शब्दरूप बनाने वाले २१ सुप् प्रत्यय’ भी विभक्ति हैं। इन १८+ २१ के अलावा अष्टाध्यायी के तद्धिताधिकार में कहे गये तद्धित प्रत्ययों में जो प्रत्यय ‘प्राग्दिशो विभक्तिः’ ५.३.१ से लेकर दिक्शब्देभ्यः.’ ५.३.२७ तक के सूत्रों में आए हैं, उनका नाम भी विभक्ति है। ये प्राग्दिशीय विभक्तिप्रत्यय इस प्रकार हैं - तसिल् त्रल् ह अत् दा हिल् अधुना दानीम् द्य द्यस् उत् आरि द्यु समसण् एद्यवि एद्युस् थाल् थमु था। इन सारे विभक्ति’ नाम वाले प्रत्ययों के अन्त में यदि तवर्ग = त्, थ्, द्, ध्, . न् अथवा स्, म् हों, तो हलन्त्यम् सूत्र से उनकी इत् संज्ञा नहीं होती है। ४. आदिर्जिटुडवः (१.३.४) - उपदेशों के आदि में स्थित ञि, टु, तथा डु की इत् संज्ञा होती है। जैसे - जिमिदा - मिद् / टुनदि - नद् / डुकृञ् - कृ आदि। अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ विशेष - ये चार सूत्र, धातु, प्रत्यय, आगम, आदेश आदि जितने भी उपेदश हैं, उन सभी में लगेंगे किन्तु आगे कहे जाने वाले तीन सूत्र धातुओं में नहीं लगेंगे, केवल प्रत्ययों में लगेंगे। ५. षः प्रत्ययस्य (१.३.६)-प्रत्यय’ के आदि में स्थित ‘ष्’ की इत्संज्ञा होती है। ‘प्रत्ययस्य’ यह शब्द इस सूत्र में है, अतः यह सूत्र तथा इसके आगे के सूत्र केवल प्रत्ययों में लगेंगे, धातुओं में नहीं । अतः षाकन्, ष्वुन्, ष्वुञ् आदि प्रत्ययों’ के आदि षकार’ की इत् संज्ञा यह सूत्र करेगा किन्तु ध्यान रहे कि ष्वद, ष्ठिवु आदि ‘धातुओं’ के ‘षकार’ की इत् संज्ञा इससे कभी नहीं होगी। ६. चुटू (१.३.७) - प्रत्ययों के आदि में स्थित चु अर्थात् चवर्ग (च, छ, ज्, झ, ञ्) की तथा टु अर्थात् टवर्ग (ट, ठ, ड्, ढ, ण) की इत् संज्ञा होती है। जैसे - ‘जस्’ प्रत्यय के आदि में जो ज्’ है, यह चवर्ग है, ‘ड’ प्रत्यय के आदि में जो ‘ड्’ है यह टवर्ग है, ‘ट’ प्रत्यय के आदि में जो ‘ट्’ है यह टवर्ग है। इस सूत्र से जस् में ज् की इत् संज्ञा होकर बचेगा अस्, ट में ट् की इत् संज्ञा होकर बचेगा अ, और डु में ड् की इत् संज्ञा होकर बचेगा । __७. लशक्वतद्धिते (१.३.८) - तद्धित से भिन्न जो प्रत्यय हैं, उनके आदि में स्थित ल्, श् तथा कवर्ग (क्, ख्, ग, घ, ङ्) की इत् संज्ञा होती है। जैसे - _ शानच् = आन / चानश् = आन / शानन् = आन / शतृ = अत् / क्त्वा = त्वा / क्त = त / क्तिन् = ति / स्नु = स्नु / घञ् = अ / ल्युट = यु / आदि। ध्यान रहे कि केवल यही एक ऐसा सूत्र है, जो तद्धित प्रत्ययों में नहीं लगता। इस प्रकार ६ सूत्र तो सभी प्रत्ययों के लिये है किन्तु यह सूत्र तद्धित प्रत्ययों को छोड़कर शेष प्रत्ययों के लिये ही है। ८. तस्य लोपः (१.३.९) - ऊपर कहे गये सात सूत्रों से जिनकी भी इत् संज्ञा’ होती है, उन सभी का लोप हो जाता है। . विशेष - देखिये ये ८ सूत्र हैं। इन ८ सूत्रों का ही इत्संज्ञा प्रकरण है। इनमें से ६ सूत्र तो इत्संज्ञा करते है। एक सूत्र (न विभक्तौ तुस्माः) इत् संज्ञा का निषेध करता है तथा यह एक सत्र (तस्य लोपः) जिनकी इत संज्ञा होती है उनका लोप करता है। प्रत्ययादेश - वेरपृक्तस्य (६.१.६७) - जब इत् संज्ञाएँ करने के बाद प्रत्यय में अकेला ‘व्’ विषय प्रवेश बचे तो उसका लोप हो जाता है। जैसे - वि प्रत्यय में ण् और इ की इत् संज्ञा करने के बाद अकेला ‘व्’ बचता है, तो इस सूत्र से उसका भी लोप कर देते हैं, और प्रत्यय में कुछ भी नहीं बचाते । जब प्रत्यय में कुछ भी नहीं बचता, तब कहते हैं कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप हो गया। इसी प्रकार क्विप्, क्विन्, ण्विन्, विट, विच् आदि प्रत्ययों का भी सर्वापहारी लोप होता है। इन सूत्रों के सहारे से हमें धातुओं तथा प्रत्ययों के अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके शुद्ध धातु तथा शुद्ध प्रत्यय बचा लेना चाहिये। . युवोरनाकौ (७.१.१) - अनुबन्धों का लोप कर लेने के बाद प्रत्यय में बचे हुए ‘यु’ ‘वु’ के स्थान पर क्रमशः ‘अन’ तथा ‘अक’ आदेश होते हैं। यथा - ण्वुल् - वु = अक / वुञ् - वु = अक / युच् - यु = अन / ल्युट - यु = अन। इन सूत्रों के अनुसार सारे कृत् प्रत्ययों के अनुबन्धों का लोप आदि करके प्रत्यय इस प्रकार बने -

सार्वधातुक प्रत्यय

शत शानच् - आन शानन् आन चानश् - आन श एश् शध्यै अध्यै शध्यैन्

आर्धधातुक प्रत्यय

ण्वुल् वुञ् ण्वुच् णिनि ण्युट खुकञ् ज्युट ण्विन् उकञ् अत् खश् अ अध्यै अक अक ॐ इन् अन अण् ल ल ० ० उक वि अन घ घिनुण उक y उण् णच _ इनुण खमुञ् अम् १४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ F ण्यत् णमुल् अम् क्यप् or ल क टक ० क्विन् विच कञ् विट क्विप् कप् ० ल वन तवत् आन क्वनिप् क्तवतु कानच ग्स्नु क्मरच क्वरप् क्त ड्वनिप् क्वसु क्नु कुरच् स्न उर किन् नजिङ् न क्रुकन् रुक वित्र क्तिन् 44 ति क्लुकन् नङ् अङ् क्से कध्यै तवे अप क्तिच कसेन् कध्यैन् कमुल् केन् क्त्वा तव्य अम कसुन् केन्य केलिमर् तव्यत् अस् एन्य एलिम तव्य त्वा तव्य अनीयर् अनीय यत् टप् . अ अन अक प्वुन् अच् - थकन् - ट . - थक वुन् अक विषय प्रवेश इन्

अ इष्णु मन् इन् खच् डर अतृन् वनिप् ख्युन् इष्णुच् षाकन्


  • _-

खिष्णुच् मनिन् - इनि - तृन् त - युच् आलुच घुरच् ऊक आरु - अकारली अरमान अत् वन्न अन इष्णु आकर अन आलु उर ऊक उ र वरच्

  • उ - र - का वरदान डु ष्ट्रन् Py NFIREF अप् नन अनि घ से असे अध्यै तवै इत्र - तुमुन् अथुच् अ - ल्युट् अन खल्हा - सेन् - असे असेन् - अध्यै अध्यैन् - तवै तवेन् - तोसुन् तोस्
  • त्वन् -

धातुओं में इत् संज्ञा के बाद होने वाले कार्य

इत् संज्ञा प्रकरण को पढ़कर सारे धातुओं में लगे हुए अनुबन्धों की इत् संज्ञा भी इसी प्रकार कर लीजिये। उसके बाद यदि प्राप्त हों, तो इन कार्यों को कीजिये १. सत्व विधि 1 जब आप धातुओं के अनुबन्धों की इत् संज्ञा कर लें, तब आप यह देखें कि किन तवे त्व अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ किन धातुओं के आदि में ‘ए’ है ? जिन धातुओं के आदि में आपको ‘ष’ दिखे उस ‘ए’ को आप इस सूत्र से ‘स्’ बना दीजिये - धात्वादेः षः सः (६.१.६४) - धातु के आदि में स्थित ए को स् आदेश होता है। जैसे ष्वद् = स्वद् । ष्णा = स्ना। ष्ठा = स्था आदि। यहाँ ध्यान दें कि ष्ठा धातु में ‘ए’ के कारण ‘ष्टुना ष्टः’ सूत्र से ‘थ’ को ‘ठ’ हुआ है। अतः जब भी आप ‘धात्वादेः षः सः’ सूत्र से ष् को स् बनायें, तो देखें कि उस ष के बाद यदि टवर्ग ( ट, ठ, ड, ढ, ण) हो, तो उन्हें आप उसी क्रम से तवर्ग अर्थात् ( त, थ, द, ध, न) बना दें। जैसे - _ष्ठा - यहाँ ‘ए’ के बाद ‘ठ’ है। यह टवर्ग का द्वितीयाक्षर है। जब भी आप इसके ‘ए’ को धात्वादेः षः सः सूत्र से ‘स्’ बनायें तब इस ‘ए’ के बाद में स्थित ‘ठ’ को आप तवर्ग का द्वितीयाक्षर ‘थ’ बना दें तो बनेगा स्था’। इसी प्रकार ‘ष्टभ’ को स्तभ’ । ‘ष्णा’ को स्ना’, ‘ष्णिह्’ को स्निह’, आदि बना लें। किन्तु ‘ष्वद्’ में ‘ए’ के बाद ‘व’ है। यह टवर्ग नहीं है, तो यह ज्यों का त्यों ‘स्वद्’ ही रहेगा। षकारादि धातुओं में कुछ धातु ऐसे भी हैं, जिनके ष् को ‘धात्वादेः षः सः’ सूत्र से सत्व नहीं होता है। ये धातु इस प्रकार हैं - __सुब्धातुष्ठिवुष्वष्कादीनां सत्वप्रतिषेधो वक्तव्यः (वार्तिक) - ष्वष्क धातु, ष्ठिवु धातु तथा नामधातुओं के आदि षकार को सकार आदेश नहीं होता। अतः ष्वष्क को ष्वष्क ही रहता है - ष्वष्कते / तथा ष्ठिवु को ष्ठिवु ही रहता है - ष्ठीवति।। सुब्धातु का अर्थ है नामधातु। इन नामधातुओं के आदि में स्थित ए को भी स् आदेश नहीं होता। जैसे - षण्ढीयते। __२. नत्व विधि __णो नः (६.१.६५) - धातु के आदि में स्थित ‘ण्’ को ‘न्’ आदेश होता है। जैसे - णदि = नद्, णम् = नम् आदि। यहाँ ‘ण’ स्थानी है तथा ‘न्’ आदेश है। ३. नुमागम विधि इदितो नुम् धातोः (७.१.५८)- जिन धातुओं में ‘इ’ की इत् संज्ञा हुई हो, ऐसे वदि, मदि, भदि आदि इदित् धातुओं को नुम् (न्) का आगम होता है। वदि - वद् - नुमागम होकर - वन्द् / इसी प्रकार - कपि - कप् - कंप् / लबि - लब् - लंब आदि। विषय प्रवेश ४. उपधादीर्घ विधि उपधायां च (८.२.७८) - जिन धातुओं की उपधा में ‘र’ हो और उस ‘र’ के पूर्व में इ, उ, हों, उन इ, उ को दीर्घ हो जाता है। जैसे - कुर्दु - कूर्दु / खुर्द - खूर्द / गुर्दु - गूर्द आदि। __ अतः धातुओं के अनुबन्धों की इत् संज्ञा कर चुकने के बाद, ये चार कार्य यदि प्राप्त हैं, तो आपको अवश्य कर लेना चाहिये। इनको कर लेने के बाद जो धातु तैयार हो, उसी से आप कृत् प्रत्यय लगायें। यह सब अष्टाध्यायी सहज बोध के खण्ड एक में विस्तरेण दिया गया है। हमने जाना कि - धातु सामने आने पर हम सबसे पहले - १. उपदेशेऽजनुनासिक इत् ३. आदिर्बिटुडवः २. हलन्त्य म् ४. तस्य लोपः इन चारों सूत्रों की सहायता से धातुओं के अनुबन्धों की इत् संज्ञा करके उनका लोप कर लें। जब अनुबन्धों का लोप हो जाये तब - १. णो नः ३. इदितो नुम् धातोः २. धात्वादेः षः सः ४. उपधायां च इन चार सूत्रों की सहायता से यदि नत्व, सत्व, नुमागम, और उपधादीर्घ कार्य प्राप्त हैं तो उन्हें भी कर लें, अन्यथा आगे बढ़ें। __ भगवान् पाणिनि ने धातुओं तथा प्रत्ययों में इन अनुबन्धों को लगाया है तथा लगाकर इनका लोप कर दिया है, तो प्रश्न होता है कि जब लोप ही कर देना था तो फिर लगाया ही क्यों ? इसका उत्तर है कि ये अनुबन्ध ही शब्द बनाते समय हमारे निर्देशक बनते हैं। ये ही बतलाते हैं कि किस प्रत्यय के लगने पर हमें हमें कौन कौन से कार्य करना है। जैसे जब हम किसी अज्ञात रास्ते पर चल लेते हैं, तो हमें रास्ते में अनेक चिह्न मिलते हैं। कोई चिह्न कहता है, दाहिने मुड़ो, कोई चिहन कहता है, बाँयें मुड़ो। कोई चिह्न कहता है, रुक जाओ। कोई चिह्न कहता है, आगे ढाल है। कोई चिह्न कहता है, यह रास्ता अमुक स्थान को जाता है, कोई चिह्न कहता है, आगे गत्यवरोधक है, आदि। इन चिह्नों के कहे अनुसार हम चलते हैं, तो सही गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं। इसी प्रकार धातुओं तथा प्रत्ययों में लगे हुए ये अनुबन्ध ही चिह्न बनकर हमसे १८ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - ३ कहते हैं, कि जब प्रत्यय में ‘ण’ या ‘ज्’ अनुबन्ध लगा हुआ देखो, तो धातु के अन्तिम अच् को वृद्धि कर दो। जब प्रत्यय में ‘क्’ या ‘ङ्’ अनुबन्ध लगा हुआ देखो, तो धातु के किसी भी स्वर को न तो गुण करो न ही वृद्धि करो। जब प्रत्यय में ‘ण’ या ‘ज्’ या ‘क्’ या ‘ड्र’ के अलावा कोई अनुबन्ध लगा हुआ देखो, तो धातु के अन्तिम स्वर को गुण कर दो, आदि। मा अतः इन अनुबन्धों के कहे अनुसार हम चलते हैं, तो हम स्वतः ही सही शब्द बना लेते हैं और ये अनुबन्ध ही शब्द बनाते समय हमारे निर्देशक बनते हैं। ये ही बतलाते हैं कि किस प्रत्यय के लगने पर हमें हमें कौन कौन से कार्य करना है तथा कौन कौन से कार्य नहीं करना है। . अतः ये अनुबन्ध अनर्थक नहीं हैं, इसलिये इन्हें हटाने के बाद भी यह बहुत अच्छे से ध्यान रखना चाहिये कि जिन प्रत्ययों में ‘क्’ की इत् संज्ञा हुई है, वे प्रत्यय कित् कहलाते हैं। जिनमें ‘ङ्’ की इत् संज्ञा हुई है, वे प्रत्यय ङित् कहलाते हैं। जिनमें ‘श्’ की इत् संज्ञा हुई है, वे प्रत्यय शित् कहलाते हैं। इसी प्रकार ’’ की इत् संज्ञा से जित्, ‘ण’ की इत् संज्ञा से णित्, आदि, ऐसे प्रत्ययों के नाम जानना चाहिये। इसी प्रकार धातुओं को भी जानना चाहिये कि जिमिदा, निष्विदा आदि धातुओं में ‘आ’ की इत् संज्ञा हुई है, अतः ये धातु आदित् कहलायेंगे। वदि, मदि, भदि आदि में हमने ‘इ’ की इत् संज्ञा की है, अतः ये धातु इदित् कहलायेंगे। मदी, नृती में हमने ‘ई’ की इत् संज्ञा की है, अतः ये धातु ईदित् कहलायेंगे। इसी प्रकार गाहू, गुपू आदि ऊदित् कहलायेंगे। कटे, चते आदि एदित् कहलायेंगे। इस प्रकार, जिस भी अनुबन्ध की आप इत् संज्ञा करें, उसी इत् के नाम से उस धातु अथवा प्रत्यय को विशेषित करके, उसका नाम स्मरण रखें। इसकी आवश्यकता हमें आगे पड़ेगी, क्योंकि प्रत्ययों तथा धातुओं के इन्हीं नामों से आगे के सूत्र हमें कार्य करने का निर्देश करेंगे। धात्वादेश कुछ धातु ऐसे होते हैं, जिनकी आकृति सार्वधातुक प्रत्यय लगने पर बदल जाती है। जैसे - पा + शतृ - पा + अत् = पिबत् । घ्रा + शतृ - घ्रा + अत् = जिघ्रत् ।

  • कुछ धातु ऐसे होते हैं, जिनकी आकृति आर्धधातुक प्रत्यय लगने पर बदल जाती है। जैसे - अस् + क्त - भू + त = भूत। चक्ष् + क्त - ख्या + क्त = ख्यात, आदि। ये धात्वादेश तत् तत् स्थलों में प्रत्यय लगाते समय बतलाते चलेंगे। विषय प्रवेश प्रकार अतिदेश जो धर्म जिसमें नहीं है, वह धर्म उसमें किसी सूत्र के द्वारा ला देने का नाम अतिदेश है। कभी कभी ऐसा होता है कि प्रत्यय में जो धर्म नहीं है, वह धर्म उसमें किसी सूत्र के द्वारा ला दिया जाता है। जैसे - प् की इत्संज्ञा न होने से शतृ, शानच् प्रत्यय ‘अपित् सार्वधातुक प्रत्यय’ हैं। किन्तु ‘सार्वधातुकमपित्’ सूत्र से जो अपित् सार्वधातुक प्रत्यय होते हैं, वे ङित् न होते हुए भी ङित् जैसे मान लिये जाते हैं। अब ‘डित्वत्’ होने के कारण इनके परे होने पर अङ्ग को वे सारे कार्य होंगे, जो कार्य ङित् प्रत्ययों के परे होने पर होते हैं। इसी प्रकार क्त्वा प्रत्यय कित् है किन्तु ‘न क्त्वा सेट’ सूत्र से जो सेट् क्त्वा प्रत्यय होता है, वह कित् होते हुए भी अकित् जैसा मान लिया जाता है। अब ‘अकित्वत्’ होने के कारण इनके परे होने पर अङ्ग को वे सारे कार्य होंगे, जो कार्य अकित् प्रत्ययों के परे होने पर होते हैं। अष्टाध्यायी में इस प्रकार के सारे अतिदेश सूत्र १.२.१ से लेकर १.२.२६ तक बैठे हैं, जो कि हम यथास्थान बतलाते चलेंगे।

अङ्गसंज्ञा

यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादिप्रत्ययेऽङ्गम् (१.४.१३) - मिली जब हम कोई प्रत्यय लगाते हैं, तब उस प्रत्यय के पूर्व में जो जो कुछ भी होता है, वह पूरा का पूरा उस प्रत्यय का अङ्ग कहलाता है। जैसे - भू + ण्वुल् । यहाँ ण्वुल् प्रत्यय का अङ्ग भू है, क्योंकि वह ण्वुल प्रत्यय के पूर्व में है। इसी प्रकार - कृ + तृच् । यहाँ तच प्रत्यय का अङग क है. क्योंकि वही तच प्रत्यय के पूर्व में है। किन्त ‘भवन’ को देखिये। इसके दो खण्ड न होकर. तीन खण्ड हैं - भ + शप् + शतृ । इनमें ‘भू’ धातु के बाद दो प्रत्यय हैं। शप् तथा शतृ । शप् प्रत्यय के पूर्व में ‘भू’ है, अतः ‘शप्’ प्रत्यय का अङ्ग केवल ‘भू’ है, किन्तु ‘शतृ’ प्रत्यय के पूर्व में भू + शप् है, अतः ‘शतृ’ प्रत्यय का अङ्ग, भू + शप् यह पूरा का पूरा है। अतः जिस भी प्रत्यय का अङ्ग पहिचानना हो, उस प्रत्यय को देखिये। उसके पूर्व में जो भी दिखे, उसे उस प्रत्यय का अङ्ग समझिये।