१९ अष्टाध्यायी पढ़ने की विधि

पाणिनीय अष्टाध्यायी अपने सामने खोलकर रख लें। देखिये कि इसमें आठ अध्यायों में कुल ३९७८ सूत्र हैं। प्रत्येक अध्याय में चार चार पाद हैं। इस प्रकार पूरी अष्टाध्यायी में बत्तीस पाद हैं। हमें सूत्र का क्रम अध्याय पाद सहित ज्ञात होना चाहिये। जैसे - प्रथम अध्याय के प्रथम पाद का पहिला सत्र है - वद्धिरादैच । इसे हम कहेंगे - १.१. १। १.१.१ का अर्थ है - पहिले अध्याय के पहिले पाद का पहिला सूत्र। हलन्त्यम् सूत्र को देखिये। इसे हम कहेंगे - १.३.३ । १.३.३ का अर्थ है - पहिले अध्याय के तीसरे पाद का तीसरा सूत्र। इस प्रकार अध्याय पाद सहित अष्टाध्यायी के सारे सूत्रों के क्रम को जानना चाहिये। यह क्रम ही अष्टाध्यायी का प्राण है। सूत्रों के अर्थ इस ग्रन्थ ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ में यत्र तत्र दिये हुए हैं। उन्हें वहाँ से पढ़ लें किन्तु सूत्रों का पाठ ‘पाणिनीय अष्टाध्यायी’ के क्रम से ही करें। सूत्रों के अर्थ भी ‘पाणिनीय अष्टाध्यायी’ के क्रम से ही याद करें। इस क्रम से याद करने में यह लाभ होता है कि सूत्रों के अर्थ अपने आप बनते चले जाते हैं, उन्हें रटना नहीं पड़ता। __अष्टाध्यायी में अलग अलग कार्य, अधिकारों तथा प्रकरणों में बँटे हुए हैं। जैसे - द्वित्व करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। लोप करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। धात्वादेश करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। इडागम करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। सन्धि करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। परस्मैपद, आत्मनेपद बतलाने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं। धातुओं से प्रत्ययों का विधान करने वाले सूत्र एक साथ बैठे हैं, आदि। हमें केवल यह ज्ञान होना चाहिये कि क्या काम करने वाले सूत्र अष्टाध्यायी में कहाँ बैठे हैं ? हमें जब भी किसी शब्द को बनाना होता है, तो इन इन प्रकरणों से सूत्र आते हैं और शब्द को बना देते हैं। परन्तु वे रहते वहीं के हैं, जहाँ वे [[६१८]] पढ़े गये है, यह बात हमें सर्वथा याद रखना चाहिये। हमें चूँकि इस ग्रन्थ में सारे धातुओं के रूप, सभी लकारों में बनाना है, अतः हमने इसके लिये अष्टाध्यायी से कारक, समास, तद्धित, स्वर, कृदन्त आदि के सारे सूत्रों को अलग करके ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ के प्रथम, द्वितीय भाग में उतने ही सूत्रों को लिया है, जिनका उपयोग लकारों के रूप बनाने में होता है। अब अष्टाध्यायी के क्रम से उन सारे सूत्रों का पाठ आपके सामने रख रहे हैं। सूत्रों का पाठ अष्टाध्यायी के क्रम से ही करना चाहिये। अतः संक्षेप करने के बाद भी सूत्रों को हमने अष्टाध्यायी के क्रम से ही दिया है तथा उनके सामने उनकी जो क्रमसंख्या लिखी है, वह भी अष्टाध्यायी की ही है। अष्टाध्यायी क्रमानुसार इन सूत्रों की वृत्ति तथा अर्थ बनाने की संक्षिप्त विधि इस प्रकार है - ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र १.३.२ को देखिये। इसमें चार पद हैं। उपदेशे, अच्, अनुनासिक तथा इत् । क्रियापद नहीं है और बिना क्रिया के वाक्य पूरा नहीं होता। अतः जहाँ कोई भी क्रिया न हो, वहाँ स्यात्, भवति, भवेत् आदि क्रियापदों की कल्पना कर लेना चाहिये, यह नियम है। अतः यहाँ ‘स्यात्’ क्रिया की कल्पना करके अर्थ बना - उपदेशे अनुनासिक अच् इत् स्यात् अर्थात् उपदेशावस्था में जो अनुनासिक अच् होता है, उसकी इत्संज्ञा होती है। इसके ठीक बाद में सूत्र है ‘हलन्त्यम्’ १.३.३। इसमें दो ही पद हैं। हल् तथा अन्त्यम् । इतने से वाक्य पूरा नहीं होता। अतः यहाँ ऊपर के सूत्र से जितने भी पदों की आवश्यकता हो, उन्हें खींचकर ले लेना चाहिये। खींचते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि ऊपर से उस विभक्ति के पदों को ही खींचा जाये, जिस विभक्ति का पद सूत्र में न हो। हल और अन्त्यम् ये दोनों ही पद प्रथमा विभक्ति में हैं। अतः ऊपर के सूत्र के प्रथमा विभक्ति के अनुनासिक तथा अच्, इन दो पदों को छोड़ दीजिये तथा उपदेशे और इत् इन दो पदों को नीचे उतार लीजिये। ध्यान दें कि इत् पद प्रथमान्त है, तब भी इसे इसलिये उतार लिया जाता है, कि उसी इत् का तो विधान किया जा रहा है। तात्पर्य यह है कि उद्देश्यपद तभी उतारे जायें जब उनकी विभक्ति असमान हो तथा विधेयपद समान विभक्ति अष्टाध्यायी कैसे पढ़ें ६१९ होने के बाद भी उतार लिये जायें। इस प्रकार उपदेशे तथा इत् पदों को नीचे उतारकर हलन्त्यम् सूत्र का अर्थ बना - उपदेशे अन्त्यम् हल् इत् स्यात् अर्थात् उपदेशावस्था में जो अन्तिम हल होता है, उसकी इत्संज्ञा होती है। इसके ठीक बाद में सूत्र है ‘न विभक्तौ तुस्मा:’ १.३.४ । इस सूत्र में तीन पद हैं। इसमें विभक्तौ’ पद सप्तमी में है। अतः इस सूत्र में ऊपर के सूत्र से सप्तमी विभक्ति वाले ‘उपदेशे’ पद को नहीं लेंगे। केवल विधेयपद ‘इत्’ को लेंगे। तो सूत्र का अर्थ इस प्रकार बनेगा - विभक्तौ तुस्मा: इत: न स्युः । अर्थात् विभक्ति में स्थित तवर्ग, सकार, मकार की इत् संज्ञा नहीं होती। अब सूत्रों में स्थित विभक्तियों के अर्थों का निर्णय करें। उदाहरण के लिये ‘इको यणचि’ सूत्र को देखें। सूत्र में यदि बिना किसी सम्बन्धविशेष के षष्ठी विभक्ति होती है, तो उसका अर्थ के स्थान पर’ होता है। सूत्र में यदि बिना किसी सम्बन्धविशेष के सप्तमी विभक्ति होती है, तो उसका अर्थ के परे होने पर’ होता है। अतः ‘इको यणचि’ सूत्र का अर्थ इस प्रकार बना - इक के स्थान पर यण होता है, अच परे होने पर। जब कोई अधिकार सूत्र आता है, तब वह अधिकारसूत्र उन सारे सूत्रों में जा जाकर मिलता जाता है, जितने सूत्रों तक उसका अधिकार चलता है। अतः यह जानना आवश्यक होता है, कि अधिकारसूत्र का अधिकार कहाँ से कहाँ तक चल रहा है। जैसे - प्रत्यय: ३.१.१ / परश्च ३.१.२ / आधुदात्तश्च, ३.१.३ ये तीनों अधिकार सूत्र हैं। इनका अधिकार ५.४.१६० तक चलता है। उसके बाद धातोः सूत्र ३.१.९१ आता है। इसका अधिकार ३.४.११७ तक चलता है। इनके बाद जब वर्तमाने लट् सूत्र ३.३.१ आता है, तो ये चारों अधिकार सूत्र उसके साथ मिलकर, उसका अर्थ इस प्रकार बनाते हैं - वर्तमान काल अर्थ में धातु से परे लट् प्रत्यय होता है। जो सूत्र यह सब करने की विधि बतलाते है, उन्हें परिभाषा सूत्र कहा जाता है। इस प्रकार जान लेने से वृत्ति रटने की आवश्यकता नहीं रह जाती तथा सूत्रों के सही स्थान का ज्ञान बना रहता है। अब हम सभी लकारों के लिये उपयोगी सूत्रों को अष्टाध्यायी के क्रम से पढ़ें। इनके अर्थों का मनन भी इसी क्रम से ही करें - - -