१८ च्वि, साति, त्रा, डाच्

च्वि, साति, त्रा, डाच् प्रत्ययों के रूप बनाने की विधि

ध्यान रहे कि इस प्रकरण में जो भी च्वि, साति, त्रा, डाच् प्रत्यय बतलाये जा रहे हैं, वे प्रत्यय करोति, भवति, स्यात्, सम्पद्यते आदि क्रियाओं के योग में ही होते हैं। इनका प्रयोग अकेले कभी भी नहीं होता। __हम इन क्रियाओं के प्रथमपुरुष एकवचन के रूप ही उदाहरण में दे रहे हैं। आवश्यकतानुसार इन क्रियाओं का प्रयोग किसी भी पुरुष, वचन, लकार में कर लेना चाहिये।

च्वि प्रत्यय

अभूततद्भावे कृभ्वस्तियोगे संपद्यकर्तरि च्वि: ( ५.४.५०) - अभूततद्भाव अर्थात् जो जैसा नहीं है, वह वैसा हो जाये, या वैसा बना दिया जाये, इस अर्थ को कहने के लिये प्रातिपदिकों से ‘च्वि’ प्रत्यय लगता है, और उसके लगने के बाद जो शब्द बनता है, उससे, करोति, भवति, या स्यात् क्रियाओं का प्रयोग होता है। जैसे - जो सफेद नहीं है, उसे सफेद जैसा करता है, अथवा जो सफेद नहीं है, वह सफेद जैसा हो जाता है, अथवा जो सफेद नहीं है, वह सफेद जैसा हो जाये, यह कहने के लिये हम सफेद अर्थात् शुक्ल शब्द से ‘च्वि’ प्रत्यय लगा देते हैं। यथा - शुक्ल + च्वि / ‘च्चि’ प्रत्यय में ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से ‘इ’ की तथा ‘चुटू’ सूत्र से ‘च’ की इत् संज्ञा होकर ‘तस्य लोप:’ सूत्र से दोनों का लोप होकर व् शेष बचता है। शुक्ल + च्चि - शुक्ल + व् । वेरपृक्तस्य - प्रत्यय में जब अपृक्त अर्थात् अकेला ‘व्’ बचे, तो उसका भी लोप हो जाता है। अतः प्रत्यय में अकेले बचे हुए इस व् का भी इस सूत्र से लोप कर दीजिये। इस प्रकार च्चि प्रत्यय में सारे वर्णों का लोप होकर कुछ भी शेष नहीं बचता। जब प्रत्यय के सारे वर्णों का लोप होकर कुछ भी शेष [[६१०]] न बचे तो कहना चाहिये कि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप’ हो गया।. __अस्य च्वौ - अ को ई होता है, च्वि प्रत्यय परे होने पर। शुक्ल + च्वि / च्चि प्रत्यय का सर्वापहारी लोप करके शुक्ल / अस्य च्वौ सूत्र से ‘अ’ को ई बनाकर - शुक्ली। अब च्चि प्रत्यय से बने हुए इस शुक्ली शब्द में करोति, भवति, या स्यात् क्रियाओं को आवश्यकतानुसार लगा लीजिये। यथा - शुक्लीकरोति, शुक्लीभवति, या शुक्लीस्यात् । इसका अर्थ इस प्रकार होगा - अशुक्ल: शुक्ल: सम्पद्यते, तं करोति शुक्लीकरोति = जो सफेद नहीं है, उसे सफेद जैसा करता है। शुक्लीभवति = जो सफेद नहीं है, वह सफेद जैसा हो जाता है। शुक्लीस्यात् = जो सफेद नहीं है, वह सफेद जैसा हो जाये। इसी प्रकार - अकृष्ण: कृष्ण: सम्पद्यते, तं करोति कृष्णीकरोति, कृष्णीभवति, कृष्णीस्यात् / अगङ्गा गङ्गा सम्पद्यते, तां करोति गङ्गीकरोति, गङ्गीभवति, गङ्गीस्यात् / अदूरं दूरं सम्पद्यते, तं करोति दूरीकरोति, दूरीभवति, दूरीस्यात् / अमित्रं मित्रं सम्पद्यते, तं करोति मित्रीकरोति, मित्रीभवति, मित्रीस्यात् आदि। __ इसी प्रकार सारे अकारान्त, आकारान्त प्रातिपदिकों से च्वि’ प्रत्यय लगाइये। इसके अपवाद - अव्ययस्य च्वौ ईत्वं नेति वाच्यम - यदि अकारान्त, या आकारान्त प्रातिपदिक अव्यय हों, तो अनके अ, आ को ‘ई’ नहीं होता, च्चि प्रत्यय परे होने पर। दोषा, यह आकारान्त शब्द अव्यय है। इसका अर्थ रात है। दिवा, यह आकारान्त शब्द अव्यय है। इसका अर्थ दिन है। ऐसे अव्ययों के अ, आ को च्चि प्रत्यय परे होने पर ई नहीं होता । यथा - अदोषा दोषा भवति दोषाभवति। दिन, रात नहीं है, पर रात जैसा हो रहा है। यहाँ दोषा (रात) शब्द ‘अव्यय’ है, अतः इसके ‘आ’ को ‘ई’ नहीं हुआ है। इसी प्रकार - अदिवा दिवा भवति दिवाभवति । रात, दिन नहीं है, पर दिन जैसी हो रही है। यहाँ दिवा (दिन) शब्द ‘अव्यय’ है, अतः इसके ‘आ’ को ‘ई’ नहीं हुआ है। इकारान्त, उकारान्त प्रातिपदिक - च्चि, साति, त्रा, डाच् प्रत्ययों के रूप बनाने की विधि __६११ च्वौ च - च्चि प्रत्यय परे होने पर इकार, उकार को दीर्घ हो जाता है। यथा - अशुचि: शुचि: सम्पद्यते, तं करोति शुचीकरोति, शुचीभवति, शुचीस्यात् / अगुरु: गुरु: सम्पद्यते, तं करोति गुरूकरोति, गुरूभवति, गुरूस्यात् / अपटुः पटुः सम्पद्यते, तं करोति पटूकरोति, पटूभवति, पटूस्यात् / अबन्धु: बन्धुः सम्पद्यते, तं करोति बन्धूकरोति, बन्धूभवति, बन्धूस्यात् आदि । ऋकारान्त प्रातिपदिक - रीङ् ऋत: - च्चि प्रत्यय परे होने पर ऋकार को रीङ = री, हो जाता है। यथा मातृ + च्वि - मात् री - मात्री - मात्रीकरोति / अमाता माता सम्पद्यते, तां करोति मात्रीकरोति, मात्रीभवति, मात्रीस्यात् / अभ्राता भ्राता सम्पद्यते, तं करोति भ्रात्रीकरोति, भ्रात्रीभवति, भ्रात्रीस्यात् / आदि। नकारान्त प्रातिपदिक - नलोप: प्रातिपदिकान्तस्य - प्रातिपदिक संज्ञक जो पद, उसके नकार का लोप होता है। यथा ब्रह्मन् + च्वि - न् का लोप करके ब्रह्म / अस्य च्वौ से अ को ई करके - ब्रह्मी - ब्रह्मीकरोति / अब्रह्म ब्रह्म सम्पद्यते, तत् करोति ब्रह्मीकरोति, ब्रह्मीभवति, ब्रह्मीस्यात् / इसी प्रकार - अराजा राजा सम्पद्यते, तं करोति राजीकरोति, राजीभवति, राजीस्यात् / आदि। सकारान्त प्रातिपदिक - अरुर्मनश्चक्षुश्चेतोरहोरजसां लोपश्च - इन शब्दों के स् का लोप होता है च्चि प्रत्यय परे होने पर। यथा - अरुस + च्वि / च्वि का लोप होकर - अरुस / स का लोप होकर - अरु / च्वौ च से उ को दीर्घ होकर - अरू - अरूकरोति, अरूभवति, अरूस्यात् । जो लाल खदिर नहीं है, उसे लाल खदिर बनाता है। इसी प्रकार - उन्मनस् + च्वि / च्चि का लोप होकर - उन्मनस् / स् का लोप होकर - उन्मन / अस्य च्वौ से अ को ई होकर - उन्मनी - उन्मनीकरोति, उन्मनीभवति, उन्मनीस्यात् । जो उदास नहीं है, उसे उदास बनाता है। उच्चक्षुस् + च्वि / च्वि का लोप होकर - उच्चक्षुस् / स् का लोप होकर - उच्चक्षु / च्वौ च से उ को दीर्घ होकर - उच्चक्षू - उच्चर्करोति, उच्चक्षूभवति, उच्चक्षूस्यात् । जो जागता नहीं है, उसे जगाता है। विचेतस् + च्वि / च्वि का लोप होकर - विचेतस् / स् का लोप होकर [[६१२]]

  • विचेत / अस्य च्वौ से अ को ई होकर - विचेती - विचेतीकरोति, विचेतीभवति, विचेतीस्यात् । जिसे चेतना नहीं है, उसे चेताता है। विरहस् + च्चि / च्चि का लोप होकर - विरहस् / स् का लोप होकर - विरह / अस्य च्वौ से अ को ई होकर - विरही - विरहीकरोति, विरहीभवति, विरहीस्यात् । जिसे एकान्त नहीं है, उसे एकान्त में स्थित करता है। विरजस् + च्वि / च्वि का लोप होकर - विरजस् / स् का लोप होकर - विरज / अस्य च्वौ से अ को ई होकर - विरजी - विरजीकरोति. विरजीभवति विरजीस्यात्। जिसे रजोगुण नहीं है, उसे रजोगुण से युक्त करता है। _ क्यच्च्योश्च - हल् से परे अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय हो, तो उस अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय का लोप होता है, च्चि प्रत्यय परे होने पर। यथा - गार्ग्य + च्चि / अपत्यार्थक तद्धित प्रत्यय ‘य’ का लोप करके तथा च्वि का सर्वापहारी लोप करके - गार्ग / अस्य च्वौ से अ को ई होकर - गार्गीकरोति, गार्गीभवति, गार्गीस्यात्।

साति प्रत्यय

ध्यान दें कि साति प्रत्यय में ‘उपदेशेऽजनुनासिक इत्’ सूत्र से ‘इ’ की इत् संज्ञा होकर ‘तस्य लोप:’ सूत्र उसका लोप होकर सात् शेष बचता है। विभाषा सति कात्स्न्र्ये - कात्→ का अर्थ है सम्पूर्णता। यदि कोई वस्तु सम्पूर्ण रूप से कुछ अन्य बन जाये, तव साति और च्चि प्रत्यय विकल्प से होते हैं। जैसे - सारा नमक पानी बन जाता है - उदकसात्भवति लवणम् । अथवा च्चि प्रत्यय होने पर - उदकीभवति लवणम्। सारा लोहा अग्नि बन जाता है - साति प्रत्यय होने पर - अग्निसात्भवति लौहम्। च्चि प्रत्यय होने पर - अग्नीभवति लौहम्।। अभिविधौ सम्पदा च - अभिव्याप्ति अर्थ गम्यमान होने पर, साति तथा च्चि प्रत्यय होते हैं। किन्तु साति प्रत्यय होने पर करोति, भवति, स्यात् तथा सम्पद्यते इन चार का प्रयोग होता है तथा च्चि प्रत्यय के योग में केवल करोति, भवति, स्यात्, इन तीन का ही प्रयोग होता है। यथा - साति प्रत्यय के योग में - शस्त्रम् अग्निसात्भवति, अग्निसात्सम्पद्यते / लवणम् जलसात्भवति, जलसात्सम्पद्यते आदि। च्चि प्रत्यय के योग में - शस्त्रम् अग्नीभवति / लवणम् जलीभवति। च्चि, साति, त्रा, डाच् प्रत्ययों के रूप बनाने की विधि ६१३ ( सर्वथा अन्यथाभाव हो जाना काय॑ है। जैसे - पूरा का पूरा नमक पानी बन जाता है। थोड़ा थोड़ा अन्यथाभाव हो जाना अभिविधि है। जैसे - जितना भी नमक है, वह वर्षा में गीला हो जाता है।) ध्यान दें कि यहाँ तक अभूततद्भाव अर्थ था। यहाँ से आगे अभूततद्भाव (जो जैसा नहीं है, वह वैसा हो जाये, या वैसा बना दिया जाये) यह अर्थ नहीं लगेगा। __ तदधीनवचने - ‘किसी के अधीन हो जाना’, ऐसा अर्थ गम्यमान होने पर, साति प्रत्यय होता है और उसके साथ करोति, भवति, स्यात् तथा सम्पद्यते इन चार का प्रयोग होता है। राजाधीनं करोति = राजसात्करोति, राजसात्भवति, राजसात्स्यात्, राजसात्सम्पद्यते आदि । राजा के अधीन करता है और राजा उसका स्वामी होता है। ब्राह्मणाधीनं करोति = ब्राह्मणसात्करोति, ब्राह्मणसात्भवति, ब्राह्मणसात्स्यात्, ब्राह्मणसात्सम्पद्यते आदि । ब्राह्मण के अधीन करता है और ब्राह्मण उसका स्वामी होता है।

त्रा प्रत्यय

देये त्रा च - देने के योग्य वस्तु देय कहलाती है। जब कोई वस्तु किसी को दे दी जाये, तब साति तथा त्रा प्रत्यय विकल्प से होते हैं, और उनके साथ करोति, भवति, स्यात् तथा सम्पद्यते इन चार का प्रयोग होता है। ब्राह्मणाधीनं देयं करोति = ब्राह्मणसात्करोति, ब्राह्मणसात्भवति, ब्राह्मणसात्स्यात्, ब्राह्मणसात्सम्पद्यते आदि। __ ब्राह्मणाधीनं देयं करोति = ब्राह्मणत्रा करोति, ब्राह्मणत्रा भवति, ब्राह्मणत्रा स्यात्, ब्राह्मणत्रा सम्पद्यते आदि। ब्राह्मण के अधीन करता है और ब्राह्मण उसका स्वामी होता है। देवमनुष्यपुरुषपुरुमर्येभ्यो द्वितीयासप्तम्योर्बहुलम् - इन द्वितीयान्त तथा सप्तम्यन्त शब्दों से बहुल करके त्रा प्रत्यय होता है। परन्तु ध्यान दें कि इनके साथ करोति, भवति, स्यात् तथा सम्पद्यते का प्रयोग नहीं होता। यथा - देवान् गच्छति = देवत्रा गच्छति / देवेषु वसति = देवत्रा वसति। - दिवताओं की ओर जाता है / देवताओं में बसता है।) इसी प्रकार - मनुष्यान् गच्छति = मनुष्यत्रा गच्छति / मनुष्येषु वसति = मनुष्यत्रा वसति। [[६१४]] पुरुषान् गच्छति = पुरुषत्रा गच्छति / पुरुषेषु वसति = पुरुषत्रा वसति । पुरून् गच्छति = पुरुत्रा गच्छति / पुरुषु वसति = पुरुत्रा वसति। मान् गच्छति = मर्त्यत्रा गच्छति / मर्येषु वसति = मर्त्यत्रा वसति।

डाच् प्रत्यय

ध्यान दें कि डाच् प्रत्यय में चुटू’ सूत्र से ‘ड्र’ की तथा हलन्त्यम् सूत्र से ‘च’ की इत् संज्ञा होकर ‘तस्य लोप:’ सूत्र उनका लोप होकर ‘आ’ शेष बचता अव्यक्तानुकरणाद् व्यजवरार्धादनितौ डाच् - पानी के गिरने की आवाज, पत्तों के सरकने की आवाज, पत्थर के लुढ़कने की आवाज, खटखटाने की आवाज, आदमी के गिरने की आवाज, आदि ऐसी अनेक प्राकृतिक आवाजें होती हैं, कि जिनमें अकारादि वर्ण व्यक्त नहीं होते हैं। इन आवाजों का अनुकरण करके हम कुछ ध्वनियाँ बना लेते हैं। किसी को हम खट् कहते हैं, किसी को सर किसी को पट् किसी को धम् आदि। इन प्राकृतिक आवाजों के अनुकरण से बने हुए शब्द यदि दो अच् वाले हों, तो उनसे डाच् प्रत्यय होता है, और उससे करोति, भवति, स्यात् का प्रयोग होता है। डाचि द्वे बहुलम् - जिन अनुकरणात्मक ध्वनियों से डाच् प्रत्यय लगाया जाता है, उन्हें डांच् प्रत्यय परे होने पर द्वित्व हो जाता है। जैसे - पटत् + डाच् - पटत् पटत् + डाच् = पटत् पटत् + आ आदि। __ तस्य परमामेडितम् - जिस भी पद को द्वित्व होता है, उसमें बाद वाले की आमेडितसंज्ञा होती है। अतः बाद वाला पटत् आमेडित है, यह जानें।। नित्यमाम्रडिते डाचि - आमेडित परे होने पर, पूर्व वाले शब्द के अन्तिम वर्ण को पररूप होता है। पररूप का अर्थ होता है, अपने अगले अक्षर में जाकर मिल जाना। यथा - पटत् पटत् + डाच् = पटपटत् + आ, आदि। ध्यान दें कि पटपटत् में ‘अत्’ भाग ‘टि’ है। अब ‘टे:’ सूत्र से इसकी ‘टि’ का लोप करके बना - पटपट + आ = पटपटा / अब इसमें करोति, भवति, स्यात् का प्रयोग करके - पटपटा करोति, पटपटा भवति, पटपटा स्यात् बनाइये। च्चि, साति, त्रा, डाच् प्रत्ययों के रूप बनाने की विधि इसी प्रकार दमदमा करोति, दमदमा भवति, दमदमा स्यात् / खटखटा करोति, खटखटा भवति, खटखटा स्यात् आदि बनाइये। कृञो द्वितीयतृतीयशम्बबीजात्कृषौ - द्वितीय, तृतीय, शम्ब, बीज, इन प्रातिपदिकों से कृषि अर्थ में डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। द्वितीय + डाच् = द्वितीया करोति - दूसरी बार हल चलाता है। इसी प्रकार तृतीया करोति - तीसरी बार हल चलाता है। शम्बाकरोति - अनुलोम हल चलाये हुए खेत में पुनः प्रतिलोम हल चलाता है। बीजाकरोति - बीज बोते हुए हल चलाता है आदि। संख्यायाश्च गुणान्ताया: - संख्यावाची शब्द हो और उसके अन्त में गुण शब्द हो, तो उससे डाच् प्रत्यय होता है, और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। द्विगुण + डाच् = द्विगुणा करोति - दो बार जुताई करता है। इसी प्रकार त्रिगुणा करोति - तीन बार जुताई करता है। शम्बा करोति - अनुलोम हल चलाये हुए खेत में पुनः प्रतिलोम हल चलाता है। बीजा करोति - बीज बोते हुए हल चलाता है आदि। समयाच्च यापनात् - समय बिताना अर्थ हो, तो ‘समय’ प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। समय + डाच् = समया करोति - समय बिताता है। सपत्रनिष्पत्रादतिव्यथने - अतिव्यथन अर्थ हो, तो सपत्र, निष्पत्र इन प्रातिपदिकों से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। __ सपत्र + डाच् = सपत्राकरोति मृगं व्याध: - बाण के पुच्छ सहित बाण को मृग के शरीर में घुसाता है। निष्पत्र + डाच् = निष्पत्राकरोति मृगं व्याध: - बाण के पुच्छ सहित बाण से मृग को ऐसे बींधता है कि पूरा का पूरा बाण मृग के शरीर के उस पार निकल जाता है। __ निष्कुलान्निष्कोषणे - निष्कोषण अर्थ हो, तो निष्कुल प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। निष्कुल + डाच् = निष्कुला करोति पशून् - पशुओं को इस तरह मारता है कि उनके आँत आदि अवयव बाहर निकल आते हैं। सुखप्रियादानुलोम्ये - आनुलोम्य अर्थ हो, तो सुख और प्रिय प्रातिपदिकों [[६१६]] से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। सुख + डाच् = सुखा करोति स्वामिनम् - स्वामी के चित्त को सुख पहुँचाता है। प्रिय + डाच् = प्रिया करोति मातरम् - माता का प्रिय करता है। दु:खत्प्रातिलोम्ये - प्रातिलोम्य अर्थ हो, तो दु:ख प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। दु:ख + डाच् = दु:खा करोति स्वामिनम् - स्वामी के चित्त को दु:ख पहुंचाता है। शूलात्पाके - पाक अर्थ हो, तो शूल प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। . शूल + डाच् = शूला करोति मांसम् - शूल अर्थात् लोहे की सलाई में लगाकर मांस पकाता है। सत्यादशपथे - अशपथ अर्थ हो, तो सत्य प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। सत्य + डाच् = सत्या करोति वणिक् भाण्डम् - मुझे बर्तन खरीदना है, ऐसा बनिया सत्य कहता है। मद्रात् परिवापणे - परिवापण अर्थात् मुण्डन कराना अर्थ हो, तो मद्र (शुभ) प्रातिपदिक से डाच् प्रत्यय होता है और उसके बाद करोति का प्रयोग होता है। मद्र + डाच् = मद्रा करोति शुभ मुण्डन कराता है।