१२ कर्मकर्तृप्रक्रिया

कर्मकर्तृप्रक्रिया - समस्त धातुओं के कर्मकर्तृ रूप बनाने की विधि

कभी कभी क्रिया इतनी सरलता से हो जाती है कि लगता है, कर्ता ने क्रिया की ही नहीं, वह तो अपने आप ही हो गई। जैसे - देवदत्त जिस लकड़ी को काट रहा है, वह इतनी सूखी है, कि लगता है, वह अपने आप ही कटी जा रही है। ऐसे स्थलों में हम दवदत्त: काष्ठं भिनत्ति - देवदत्त लकड़ी काटता है’ ऐसा न कहकर, भिद्यते काष्ठं स्वयमेव - लकड़ी स्वयं ही कटी जा रही है’ ऐसा कहने लगते हैं। पहिले वाक्य में काष्ठ’ कर्म था, जो कि दूसरे वाक्य में कर्ता बन गया है, किन्तु कर्ता बन जाने के बाद भी, उसे कर्म जैसा ही माना जाता है, इसे ही कहते हैं कि कर्ता को कर्मवद्भाव हो गया। पहिले वाक्य में ‘भेदन क्रिया’ अर्थात् कटने की क्रिया काष्ठ के अन्दर हो रही है। दूसरे वाक्य में भी ‘भेदन क्रिया’ काष्ठ के अन्दर ही हो रही है। अतः दोनों वाक्यों में क्रिया की स्थिति समान है। किन्तु पहिले वाक्य में जो ‘काष्ठ’ कर्म था वही ‘काष्ठ’ दूसरे वाक्य में कर्ता बन गया है। अतः जो क्रिया पहिले कर्म में हो रही थी, वही क्रिया अब कर्ता में हो रही है। अतः ये दोनों कर्ता और कर्म तुल्य क्रिया वाले होने से ‘तुल्यक्रिय’ हैं। कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रिय: - जहाँ कर्म के कर्ता बन जाने के बाद भी क्रिया वैसी ही लक्षित हो, जैसी कर्मावस्था में थी, उस कर्म के साथ तुल्य क्रिया वाले कर्ता को कर्मवद्भाव हो जाता है अर्थात् उसे कर्म जैसा ही मान लिया जाता तपस्तपःकर्मकस्यैव - तप सन्तापे धातु का कर्म यदि तप’ हो, तो उसके कर्ता को भी कर्मवद् भाव हो जाता है। __कर्ता को कर्मवद्भाव होने पर, उसे लकार सम्बन्धी वे चारों कार्य होने लगते हैं, जो कार्य अभी कर्मवाच्य में कर्म को कहे गये हैं। ये चार कार्य इस प्रकार हैं - १. सार्वधातुके यक् सूत्र से सार्वधातुक लकारों के प्रत्यय परे होने पर, समस्त धातुओं के कर्मकर्तृ रूप बनाने की विधि धातुओं से यक् लगाना। २. भावकर्मणोः सूत्र से केवल आत्मनेपदी प्रत्यय लगना। यथा - भिद्यते काष्ठं स्वयमेव । यहाँ भिद्यते में यक् लगा है और आत्मनेपद हुआ है। ३. चिण्भावकर्मणोः सूत्र से लुङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में ‘चिण्’ प्रत्यय लगना। अभेदि काष्ठं स्वयमेव। ४. स्यसिच्सीयटतासिष भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदशां वा चिण्वदिट च सूत्र से स्य, तास्, सीयुट तथा सिच् प्रत्ययों को विकल्प से चिण्वद् मानना। यथा - कारिष्यते कट: स्वयमेव । ये चारों कार्य भावकर्म प्रक्रिया में विस्तार से बतला दिये गये हैं। तात्पर्य यह है कि भावकर्म प्रक्रिया तथा कर्मकर्तृ प्रक्रिया बिल्कुल एक समान ही हैं। दोनों में प्रक्रिया का कोई भेद नहीं है। अतः जिस धातु का जैसा रूप हमने अभी भावकर्म प्रक्रिया में बनाया है, यहाँ भी ठीक वैसा ही बनाना है। केवल कुछ कार्यों में जो अन्तर है, उन्हें बदला रहे हैं - हम जानते हैं कि भावकर्मवाची प्रत्यय परे होने पर, लुङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में आत्मनेपद का ‘त’ प्रत्यय परे होने पर, ‘चिण्भावकर्मणोः’ सूत्र से ‘चिण्’ प्रत्यय ही लगता है। किन्तु - अच: कर्मकर्तरि - जब कर्म कर्ता बन गया हो और उसे कर्मवद्भाव हो गया हो, तब अजन्त धातुओं से, लुङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में ‘चिण्’ प्रत्यय विकल्प से लगता है । यथा - अकारि कट: स्वयमेव / अकृत कट: स्वयमेव । दुहश्च - कर्मकर्ता अर्थ में दुह् धातु से लुङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में आत्मनेपद का ‘त’ प्रत्यय परे होने पर, ‘चिण्’ प्रत्यय विकल्प से लगता है। अदोहि गौ: स्वयमेव / अदुग्ध गौः स्वयमेव।। न रुध: - कर्मकर्ता अर्थ में रुध् धातु से लुङ् लकार प्रथमपुरुष एकवचन में आत्मनेपद का ‘त’ प्रत्यय परे होने पर, चिण्’ प्रत्यय नहीं लगता है। अन्वारुद्ध गौः स्वयमेव। तपोऽनुतापे च - कर्मकर्ता अर्थ में तप् धातु से लुङ् लकार प्रथमपुरुप एकवचन में आत्मनेपद का ‘त’ प्रत्यय परे होने पर, ‘चिण्’ प्रत्यय नहीं लगता है। अन्ववातप्त पापेन कर्मणा। अतप्त तपस्तापसः। न दुहस्नुनमा यक्चिणौ - कर्मकर्ता अर्थ में स्नु, नम् धातुओं से यक् और चिण ये दोनों नहीं होते। जैसे - चिण न होना - प्रास्नोष्ट शोणितं स्वयमेव । अनंस्त दण्ड: स्वयमेव। [[४३६]] यक् न होना - नमते दण्डः स्वयमेव । प्रस्नुते शोणितं स्वयमेव । दुग्धे गौः स्वयमेव। कुषिरजोः प्राचां श्यन्परस्मैपदं च - कुष् तथा रज् इन धातुओं से कर्ता को कर्मवद् भाव में श्यन् प्रत्यय तथा परस्मैपद होता है, प्राचीन आचार्यों के मत में। जैसे - कुष्यति पाद: स्वयमेव - पैर स्वयं खिंचा जा रहा है। रज्यति वस्त्रं स्वयमेव - वस्त्र स्वयं रंगा जा रहा है।