भावकर्मप्रक्रिया - समस्त धातुओं के भावकर्म बनाने की विधि
सार्वधातुके यक् - भाववाची तथा कर्मवाची सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर धातुओं से यक् प्रत्यय होता है। अर्थात् किसी भी धातु का भाववाच्य तथा कर्मवाच्य का रूप बनाने के लिये धातु में यक् प्रत्यय लगाया जाता है। यक् प्रत्यय में ‘हलन्त्यम्’ सूत्र से क् की इत्संज्ञा होकर ‘तस्य लोप:’ सूत्र से उसका लोप हो जाता है और ‘य’ शेष बचता है। क् की इत् संज्ञा होने के कारण यह यक् प्रत्यय कित् प्रत्यय है। हम प्रथम खण्ड के प्रथम पाठ में विस्तार से पढ़ चुके हैं कि धातुओं से लगने वाले प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं। सार्वधातुक तथा आर्धधातुक। लकार भी प्रत्यय ही हैं । इन लकार प्रत्ययों में लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ्, इन चार लकारों के प्रत्यय सार्वधातुक हैं। लिट्, लुट, लुट, लेट, लुङ्, आशीर्लिङ् तथा लुङ, इन सात लकारों के प्रत्यय आर्धधातुक हैं। यह ‘सार्वधातुके यक्’ सूत्र कह रहा है कि भाववाची तथा कर्मवाची सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, धातुओं से यक् प्रत्यय होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि भाववाची तथा कर्मवाची आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, धातुओं से यक् प्रत्यय नहीं होता है। इसलिये भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाते समय हमें बहुत सावधान रहना चाहिये कि यदि हमें लट, लोट्, लङ्, विधिलिङ्, इन चार सार्वधातुक लकारों में धातुओं के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना है, तब तो धातुओं से ‘यक्’ प्रत्यय लगाना चाहिये। _ किन्तु यदि हमें लिट्, लुट, लुट, लुङ्, आशीर्लिङ् तथा लुङ्, इन आर्धधातुक लकारों में धातुओं के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना है, तब धातुओं से ‘यक्’ प्रत्यय नहीं लगाना चाहिये। समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४०५ का पद का निर्णय - भाववाच्य तथा कर्मवाच्य में सारे धातुओं से आत्मनेपद के प्रत्यय ही लगते हैं। इसके लिये सूत्र है - भावकर्मणोः - भाव तथा कर्म अर्थ में लकार विहित होने पर धातुओं से आत्मनेपद के प्रत्यय ही लगते हैं, चाहे धातु किसी भी पद का क्यों न हो। भाववाच्य में वचन तथा पुरुष का निर्णय - यक् प्रत्यय लगाकर भाववाच्य में धातुओं के रूप केवल आत्मनेपद प्रथमपुरुष एकवचन में ही बनाये जाते हैं। जैसे - आस्यते देवदत्तेन, ग्लायते भवता, सुप्यते भवता, स्थीयते भवता, जीव्यते मया, भूयते त्वया आदि। भाववाच्य में सारे रूप इसलिये नहीं बनाये जाते क्योंकि भाव का कोई पुरुष वचन नहीं होता। कर्मवाच्य में वचन तथा पुरुष का निर्णय - यक् प्रत्यय लगाकर कर्मवाच्य में धातुओं के सारे रूप बनाये जा सकते हैं, क्योंकि कर्म का पुरुष वचन हो सकता है। निष्कर्ष - अतः ध्यान रखें कि जब धातु सकर्मक होता है, तभी उसके पूरे बनाये जा सकते हैं। इन रूपों को ही हम कर्मवाच्य के रूप कहते हैं। जब धातु अकर्मक होता है, तब उसके रूप केवल प्रथमपुरुष एकवचन में ही बनाये जा सकते हैं। इन रूपों को ही हम भाववाच्य के रूप कहते हैं। _अब हम चार सार्वधातुक लकारों में धातुओं के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनायें। यह कार्य हमें दो हिस्सों में करना चाहिये। १. धातुओं में यक् प्रत्यय लगाकर, लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ्, इन चार सार्वधातुक लकारों में धातुओं के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना। __२. धातुओं में यक् प्रत्यय लगाये बिना, लिट्, लुट, लुट, लुङ्, आशीर्लिङ् तथा लुङ्, इन आर्धधातुक लकारों में धातुओं के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना। __ अब हम धातुओं में यक् प्रत्यय लगाकर उनके सार्वधातुक लकारों में भावकर्म के रूप बनायें। यह कार्य हम खण्ड खण्ड में करें -
१. भ्वाादिगण से क्र्यादिगण तक के अजन्त धातुओं में यक् प्रत्यय लगाने की विधि
भ्वादिगण से क्रयादिगण तक के अजन्त धातुओं में यक् प्रत्यय को जोड़ने के लिये अजन्त धातुओं के इस प्रकार वर्ग बनाइये - अजन्त (स्वरान्त) धातुओं का वर्गीकरण - आकारान्त तथा एजन्त [[४०६]] धातु, इकारान्त धातु, ईकारान्त धातु, उकारान्त धातु, ऊकारान्त धातु ऋकारान्त धातु तथा ऋकारान्त धातु। अब इसी क्रम से धातुओं में यक् प्रत्यय जोड़ें - आकारान्त तथा एजन्त धातु + यक् प्रत्यय आकारान्त धातु - जिनके अन्त में आ है - जैसे - दा, धा, ला, आदि। एजन्त धातु - जिनके अन्त में एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ हैं - जैसे - धे, दे, ग्लै, म्लै आदि। आदेच उपदेशेऽशिति - जिनके अन्त में एच् अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ हैं, उन एजन्त धातुओं के अन्तिम एच् के स्थान पर ‘आ’ आदेश होता है, अशित् प्रत्यय परे होने पर। यक् प्रत्यय भी शित् न होने के कारण अशित् प्रत्यय है, अतः इसके परे होने पर एजन्त धातुओं के अन्तिम एच् के स्थान पर ‘आ’ आदेश कीजिये। जैसे - दे - दा / धे - धा / ग्लै - ग्ला / म्लै - म्ला / शो - शा / सो - सा आदि। देखिये कि अशित् प्रत्यय परे होने पर, ये एजन्त धातु भी आकारान्त बन गये हैं। अब इन आकारान्त धातुओं में तथा एजन्त से आकारान्त बने हुए धातुओं में यक प्रत्यय लगायें - घुमास्थागापाजहातिसां हलि - आकारान्त तथा एजन्त धातुओं में से घुसंज्ञक धातु अर्थात् दो - दा, देङ - दा, दाञ् - दा, दाण् - दा, धेट - धा, डुधाञ् - धा, इन ६ धातुओं के आ को, तथा मा, स्था, गा, पा, हा, षो (सा) इन ६ धातुओं के आ को अर्थात् कुल १२ धातुओं के ‘आ’ को ‘ई’ होता है, हलादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर। यक् भी हलादि कित् प्रत्यय है, अतः इसके परे होने पर इन आकारान्त धातुओं के आ को पहिले ‘ई’ बना दें। दा धातु चार हैं, तथा धा धातु दो हैं। अतः हम उदाहरण में एक दा तथा एक धा ही देंगे। दा + यक् - दी + य = दीय धा + यक् - धी + य = धीय मा + यक् - मी + य = मीय गा + यक् __ - गी + य = गीय पा + यक् पीय हा + यक् - ही स्था + यक् - स्थी स्थी + य = स्थीय 43 44 44 + हीय + , समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४०७ AR من مي في prFF م م दीये م م सा + यक् - सी + य = सीय ध्यान रहे कि यक् प्रत्यय लगाकर जो अङ्ग बनते हैं, वे अदन्त होते हैं, अतः इनके लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ्, इन चार सार्वधातुक लकारों के रूप बनाने के लिये इनसे प्रथम गण समूह वाले आत्मनेपद के प्रत्यय ही लगाये जायेंगे। __ इन लकारों के आत्मनेपदी प्रत्यय इस प्रकार हैं - लट् लकार के आत्मनेपदी प्रत्यय प्र. पु. ते इते अन्ते से इथे महे इन्हें लगाकर दी + यक् = दीय’ के रूप इस प्रकार बने - दीयते दीयेते दीयन्ते दीयसे दीयेथे दीयध्वे दीयावहे दीयामहे लोट् लकार के आत्मनेपदी प्रत्यय ताम् इताम् अन्ताम् इथाम् आवहै आमहै इन्हें लगाकर दी + यक् = दीय’ के रूप इस प्रकार बने - दीयताम् दीयेताम् दीयन्ताम् दीयस्व दीयेथाम् दीयध्वम् दीयै दीयावहै दीयामहै लङ् लकार के आत्मनेपदी प्रत्यय इताम् अन्त था: इथाम् ध्वम् वहि महि इन्हें लगाकर दी + यक् = दीय’ के रूप इस प्रकार बने - __ अदीयत अदीयेताम् अदीयन्त अदीयथाः अदीयेथाम् अदीयध्वम् । अदीये अदीयावहि अदीयामहि _ विधिलिङ् लकार के आत्मनेपदी प्रत्यय ईत ईयाताम् ईरन् م F स्व ध्वम् م) مر مر مر من مر من مر من مي [[४०८]] من من من من من धीयते ईथा: ईयाथाम् ईध्वम् ईयर ईवहि ईमहि इन्हें लगाकर दी + यक् = दीय’ के रूप इस प्रकार बने - दीयेत दीयेयाताम् दीयेरन् दीयेथाः दीयेयाथाम् दीयेध्वम् दीयेय दीयेवहि दीयेमहि इसी प्रकार - धा - धी - धीय मा - मी - मीय = मीयते गा - गी - गीय = गीयते पा - पी - पीय = पीयते हा - ही - हीय = हीयते स्था - स्थी - स्थीय = स्थीयते सा - सी - सीय = सीयते आदि बनाइये। शेष आकारान्त धातु + यक प्रत्यय इन १२ आकारान्त धातुओं के अलावा अब जो भी आकारान्त धातु बचे, उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - भा + य - भाय = भायते ध्या + य - ध्याय ग्ला + य ग्लाय ग्लायते ला + य वा + य वाय वायते छा + य - छाय छायते घ्रा + य घ्राय घ्रायते ध्मा + य - ध्माय ध्मायते आदि। यह आकारान्त तथा एजन्त धातुओं में यक् प्रत्यय लगाकर, इनके यगन्त रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। __इकारान्त, ईकारान्त धातु + यक् प्रत्यय क्डिति च - यदि प्रत्यय कित्, डित्, गित् हो, तब न तो अगों के अन्त में आने वाले इक् को गुण होता है और न ही उपधा में स्थित लघु इक् को गुण होता है। 과 ध्यायते लाय लायते 파 파 जीये समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४०९ जि + यक् / प्रत्यय के कित् होने के कारण क्डिति च से गुण निषेध हो गया, तो गुण नहीं हुआ। जि + य - जि + य । अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः - अजन्त धातुओं को दीर्घ होता है कृत् तथा सार्वधातुक से भिन्न यकारादि प्रत्यय परे होने पर। यक् प्रत्यय यकारादि है तथा यह प्रत्यय कृत् तथा सार्वधातुक से भिन्न है अतः इसके परे होने पर इकारान्त धातुओं को दीर्घ कीजिये - जि + य - जीय = जीयते आदि। पूरे रूप इस प्रकार बने - जीयते जीयेते जीयन्ते जीयसे जीयेथे जीयध्वे __जीयावहे जीयामहे इसी प्रकार श्रि - श्रीयते, क्षि - क्षीयते आदि बनाइये। जो दीर्घ ईकारान्त धातु हैं, उन्हें दीर्घ करके भी ‘ई’ ज्यों का त्यों रहेगा। जैसे - भी - भीयते, नी - नीयते आदि। ईकारान्त धातु नी + य = नीय, के पूरे रूप इस प्रकार बने - नीयते नीयन्ते नीयसे नीयेथे नीयध्वे नीये नीयावहे नीयामहे इसके अपवाद - शीङ् धातु - अयङ् यि क्डिति - शीङ् धातु को अय् आदेश होता है कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर। शी + यक् / शय् + य - शय्य = शय्यते। उकारान्त, ऊकारान्त धातु + यक् प्रत्यय अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घ: - अजन्त धातुओं को दीर्घ होता है कृत् तथा सार्वधातुक से भिन्न, यकारादि प्रत्यय परे होने पर। नु + यक् / नु + य / अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से दीर्घ होकर - नू + य - नूय = नूयते। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - नूयते नूयेते नूयन्ते नूयसे नूयेथे नूयध्वे नये नूयावहे नूयामहे इसी प्रकार हु - हूयते, द्रु - द्रूयते आदि बनाइये। जो दीर्घ ऊकारान्त धातु हैं, उन्हें दीर्घ करके भी ऊ’ ज्यों का त्यों रहेगा। भू - भूयते, पू - पूयते, धू - धूयते, लू - लूयते, आदि। [[४१०]] पूयसे पूये 피파 पू धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने – पूयते पूयेते पूयन्ते पूयेथे पूयध्वे पूयावहे पूयामहे इसके अपवाद - ब्रू धातु - ब्रुवो वचि: - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश होता है। ब्रू + यक् / वच् + य / ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ सूत्र से व् को सम्प्रसारण करके - उच् - य - उच्य = उच्यते। __ऋकारान्त धातु + यक् प्रत्यय ऋकारान्त धातु - कृ, भृ, मृ आदि । रिङ्शयग्लिङ्घ - श, यक् और लिङ् प्रत्यय परे होने पर ऋकारान्त धातुओं के ‘ऋ’ को रिङ् होता है। कृ + यक् - क् रिङ् + य - क्रिय = क्रियते भृ + यक् - भ् रिङ् + य - भ्रिय = भ्रियते मृ + यक् - म् रिङ् + य . - म्रिय = म्रियते पूरे रूप इस प्रकार बने - पण क्रियते क्रियेते क्रियन्ते क्रियसे क्रियेथे क्रियध्वे क्रिये क्रियावहे क्रियामहे इसके अपवाद - १. संयोगादि ऋकारान्त धातु - गुणोऽर्तिसंयोगाद्योः - जब ऋकारान्त धातु के आदि में संयोग हो (दो हल् एक साथ हों) जैसे स्मृ, वृ, हृ, स्वृ आदि में, तब उन ऋकारान्त धातुओं को तथा ऋ धातु को गुण होकर ‘अर्’ हो जाता है। स्मृ + यक् - स्मर् + य = स्मर्यते ध्वृ + ध्वर् - ध्वर् + य = ध्वर्यते हृ + हर् - हर् + य - हर्यते स्वृ + यक् - स्वर् + य = स्वर्यते ऋ + अर् - अर् + य = अर्यते आदि। . २. जागृ धातु - जाग्रोऽविचिण्णल्डित्सु - जहाँ वृद्धि प्राप्त हो, अथवा जहाँ गुण, वृद्धि समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४११ का निषेध प्राप्त हो, वहाँ जागृ धातु को गुण ही होता है, वि, चिण, णल्, तथा डित् से भिन्न प्रत्यय परे होने पर। जागृ + यक् - जागर् + य - जागर्य = जागर्यते। दीर्घ ऋकारान्त धातु + यक् प्रत्यय दीर्घ ऋकारान्त धातुओं के दो वर्ग बनाइये - १. वे दीर्घ ऋकारान्त धातु, जिनमें दीर्घ ‘ऋ’ के पूर्व में आने वाला वर्ण ओष्ठ्य अर्थात् पवर्ग या वकार न हो। जैसे - तृ, गृ, कृ, ज़, शृ आदि। ऋत इद् धातोः - ऐसे दीर्घ ऋकारान्त धातुओं के अन्त में आने वाले दीर्घ ‘ऋ’ को ‘इ’ आदेश होता है, कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर। उरण रपर: - जब किसी सूत्र से ऋ, ऋ के स्थान पर, अ, इ, या उ होना कहा जाये तब उन्हें अ, इ, या उ, न होकर अर्, इर्, उर् होते हैं। यहाँ ऋत इद् धातोः सूत्र से दीर्घ ऋ के स्थान पर इ आदेश करने को कहा गया है अतः वह आदेश ‘उरण रपरः’ सूत्र से ‘इ’ न होकर इर् हो जायेगा। यथा - तृ + यक् - तिर् + य। हलि च - यदि धातु के अन्त में र् या व् हो और उपधा में इक् हो तो उस इक को दीर्घ हो जाता है, हल परे रहने पर। तिर + य - तीर + य - तीर्य - तीर्यते। इसी प्रकार - दृ + यक् - दीर् + य - दीर्य = दीर्यते गृ + यक् - गीर् + य - गीर्य = गीर्यते शृ + यक् - शीर् + य - शीर्य = शीर्यते + यक् - जीर् + य - जीर्य = जीर्यते २. वे दीर्घ ऋकारान्त धातु, जिनमें दीर्घ ऋ के पूर्व में आने वाला वर्ण ओष्ठ्य हो, अर्थात् पवर्ग या वकार हो। जैसे - पृ, वृ आदि। उदोष्ठ्यपूर्वस्य - यदि धातु के अन्त में दीर्घ ‘ऋ’ हो, उस ‘ऋ’ के पूर्व में आने वाला वर्ण ओष्ठ्य हो अर्थात् पवर्ग या व् हो, तो ऐसे दीर्घ ‘ऋ’ को ‘उ’ आदेश होता है, कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर। यहाँ उदोष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से दीर्घ ‘ऋ’ के स्थान पर उ आदेश करने को कहा गया है, अतः यह आदेश उरण रपर:’ सूत्र से ‘उ’ न होकर उर्’ हो जायेगा। पृ धातु - पृ + यक् - उदाष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से पुर् + य । अब हलि च सूत्र से उपधा के ‘उ’ को दीर्घ करें। पूर् + य - पूर्य = पूर्यते। इसी प्रकार – भृ - भूर्यत। वृ - पूर्यत, बनाइये। [[४१२]]
२. भ्वादिगण से ज़्यादिगण तक के हलन्त धातुओं में
यक् प्रत्यय लगाने की विधि भ्वाादिगण से क्रयादिगण तक के हलन्त धातुओं में यक् प्रत्यय को जोड़ने के लिये, हलन्त धातुओं के चार वर्ग बनाइये - हलन्त धातुओं का वर्गीकरण - कुछ विशिष्ट धातु, सम्प्रसारणी धातु, अनिदित् धातु, तथा शेष धातु। _ कुछ विशिष्ट धातु + यक् प्रत्यय अस् धातु - अस्तेर्भू: - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है। अस् + यक् / भू + य = भूयते। चक्ष् धातु - चक्षिङ् ख्याञ् - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर चक्ष् धातु को ख्या आदेश होता है। चक्ष् + यक् / ख्या + य = ख्यायते। अज् धातु - अजेळघञपोः - घञ्, अप् को छोड़कर शेष सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अज् धातु को वी आदेश होता है। अज् + यते - वी + यते = वीयते। जन् सन् खन् धातु - . ये विभाषा - यकारादि कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर जन्, सन्, खन् धातुओं के अन्तिम ‘न्’ के स्थान पर विकल्प से ‘आ आदेश होता है। आत्व होने पर - जन् + यक् / जा + य - जाय = जायते। आत्व न होने पर - जन् + यक् / जन् + य - जन्य = जन्यते बनाइये। इसी प्रकार - खन् धातु से खायते, खन्यते, सन् धातु से सायते, सन्यते . बनाइये। __तन् धातु - तनोतेर्यकि - तन् धातु को यक् प्रत्यय परे होने पर विकल्प से ‘आ आदेश होता है। आत्व होने पर - तन् + यक् / ता + य - ताय = तायते। आत्व न होने पर - तन् + यक् / तन् + य - तन्य = तन्यते बनाइये। __ सम्प्रसारणी धातु + यक् प्रत्यय इसके लिये पहिले हम सम्प्रसारण, तथा सम्प्रसारण करने की विधि को समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४१३ जानें -
- इग्यण: सम्प्रसारणम् - य, व, र, ल् को इ, उ, ऋ, लु हो जाना सम्प्रसारण होना कहलाता है। जैसे - यज् - इज् / वच् - उच् / वश्च - वृश्च् / आदि। यहाँ यह जानना चाहिये कि - ow न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् - जिन धातुओं में य, व, र, ल में से दो वर्ण हों, जैसे व्यथ्, वृश्च् आदि में हैं, वहाँ जो बाद में हो, उसको ही सम्प्रसारण करना चाहिये, पूर्व वाले को नहीं। अर्थात् व्रश्च् में र् को और व्यथ् में य् को सम्प्रसारण होता है, व् को नहीं। सम्प्रसारणाच्च - जब भी य, व, र, ल् को इ, उ, ऋ, लु यह सम्प्रसारण होता है, तब सम्प्रसारण के बाद में जो भी वर्ण होता है, उसको पूर्वरूप हो जाता ALO कि पूर्वरूप - पूर्वरूप का अर्थ होता है पूर्व के वर्ण में मिल जाना तथा दिखाई न पड़ना। छोर जैसे - वप् में तीन वर्ण हैं व अ प्। इनमें से व् को सम्प्रसारण करके जब हम ‘उ’ बनाते हैं तब - उ अ प् यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण ‘उ’ है, उसके बाद जो ‘अ’ है, उस ‘अ’ को इस सूत्र से पूर्वरूप होकर बनता है - उप् । का व्यच् में चार वर्ण हैं व् य अ च । इनमें से ‘य’ को सम्प्रसारण करके जब हम ‘इ’ बनाते हैं तब - व् इ अ च् यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण ‘इ’ है, उसके बाद जो ‘अ’ है, उस अ को इस सूत्र से पूर्वरूप होकर बनता है - व् इ च = विच। स्वप् में चार वर्ण हैं स् व् अ प्। इनमें से ‘व्’ को सम्प्रसारण करके जब हम ‘उ’ बनाते हैं तब - स् उ अ प् यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण ‘उ’ है, उसके बाद जो ‘अ’ है उस ‘अ’ को इस सूत्र से पूर्वरूप होकर बनता है - स् उ प् = सुप् । अब सम्प्रसारण करने वाले सूत्र बतलाते हैं - वचिस्वपियजादीनाम् किति- वच्, स्वप् तथा यज्, वप्, वह, वस्, वद्, वेञ्, हृञ्, श्वि, व्येञ्, धातुओं को सम्प्रसारण होता है, कित् प्रत्यय परे होने पर। ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च - ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज् इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। ‘यक्’ चूँकि कित् प्रत्यय है, अतः इसके परे होने पर इन धातुओं को इस प्रकार सम्प्रसारण कीजिये - ४१४ अष्टाध्यायी सहजबोध भाग - २
व्यधु + क + + पप +
度度度度度
यज + ग्रह + यक् गृह् + य - गृह्य = गृह्यते व्रश्च् + यक् वृश्च् + य - वृश्च्य = वृश्च्यते प्रच्छ + पृच्छ् + पृच्छ्य = पृच्छ्यते भ्रस्ज् + भृज्ज् + भृज्ज्य = भृज्ज्यते विध्य = विध्यते व्यच + विच्य = विच्यते + यक् - उच् + य - उच्य = उच्यते स्वप +
- सुप् + य - सुप्य = सुप्यते इज् __= इज्यते वप् + यक् - उप् + य - उप्य = उप्यते वह् + यक् - उह् + य - उह्य = उह्यते वद् + यक् - उद् + य - उद्य = उद्यते वश् + यक् - उश् + य - उश्य = उश्यते शासिवसिघसीनाञ्च - इण् और कवर्ग से परे आने वाले शास्, वस्, घस् धातुओं के स् को ष् होता है। वस् + यक् - उस् + य - उष्य = उष्यते सम्प्रसारण करने के बाद जो धातु ह्रस्व इकारान्त तथा ह्रस्व उकारान्त बन जायें, उन्हें अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः सूत्र से दीर्घ कीजिये। ज्या + यक् - जि + य - जीय जीयते व्येञ् + यक् - वि + य - वीय = वीयते वेञ् + यक् - उ + य - ऊय = ऊयते हृञ् + यक् - हु + य - हूय = हूयते श्वि + यक् - शु +. य - शूय = शूयते अनिदित् धातु + यक् प्रत्यय अनिदितां हल उपधाया: क्डिति - अनिदित् हलन्त धातुओं की उपधा के ‘न्’ का लोप होता है, कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र से इन अनिदित् धातुओं से यक् प्रत्यय परे होने पर इनकी उपधा के न्’ का लोप कीजिये। __ कुल अनिदित् धातु इस प्रकार हैं - अञ्च् कुञ्च् क्रुञ्च् ग्लुञ्च् चञ्च् तञ्च् त्वञ्च् मुञ्च् म्लुञ्च् लुञ्च् वञ्च् अङ्ग् र भञ्ज् सज् ष्वज् कुन्थ् ग्रन्थ्
समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४१५ संस् स्रस् मन्थ् मथ शुन्ध मन्थ् श्रन्थ् उन्द् बुन्द् स्कन्द् स्यन्द् इन्ध् बन्ध् शुन्ध् तुम्प् त्रुम्प् ऋम्फ् गुम्फ तुम्फ् त्रुम्फ् तृम्फ् दृम्फ् उम्भ दम्भ शुम्भ श्रम्भ पृम्भ संभ हम्म् दंश् भ्रंश् ध्वंस् भ्रंस् शंस् स्रेस् तृन्ह = ५० इनसे यक् प्रत्यय लगने पर इनकी उपधा के न्’ का लोप करके इनके रूप इस प्रकार बनाइये - धातु नलोप यक् प्रथम पुरुष करके लगाकर एकवचन का रूप स्कन्द् स्कद् स्कद्य स्कद्यते स्त्रस्य स्रस्यते ध्वंस् ध्वस्य ध्वस्यते भ्रस्य भ्रस्यते मथ्य मथ्यते शुध्य कुञ्च् कच कुच्य क्रुञ्च क्रुच्य लुञ्च लुच्य वञ्च __ वच् वच्य वच्यते चञ्च चच्य चच्यते तच्य तच्यते त्वञ्च् त्वच त्वच्य त्वच्यते मुञ्च् मुच मुच्य. म्लुञ्च् म्लुच् म्युच्य ग्लुञ्च् ग्लुच् ग्लुच्य ग्लुच्यते श्रम्भ श्रभ्य तुम्प् तुप् तुप्य तुप्यते त्रुम्प् त्रुप् तुम्फ तुफ् तुफ्य तुफ्यते त्रुम्फ त्रुफ्य दृफ्यते तृम्प तृफ्य 啊啊啊阿丽珊珊啊职积积测丽丽丽丽职哪刚照现取现预现西 शुध्यते कुच्यते क्रुच्यते लुच्यते तञ्च् मुच्यते म्युच्यते श्रभ् श्रभ्यते REEEEEEEEEEE त्रुप्य त्रुप्यते त्रुफ्यते दृफ्य तृफ्यते [[४१६]] शुभ्यते उभ उभ्य हम् शस् तृह्य गुफ भज्ज् ऋम्फ् ऋफ् ऋफ्य ऋफ्यते सृम्भ सृभ्य सृभ्यते शुम्भ शुभ्य उम्भ उभ्यते हम्म् हम्य हम्यते शस्य शस्यते स्त्र सभ्य स्रभ्यते रज्य रज्यते स्यद्य स्यद्यते भ्रश्य भ्रश्यते दम्भ दभ दभ्य दभ्यते तृन्ह तृह्यते गुम्फ गुफ्य गुफ्यते भज् भज्य भज्यते बन्ध् बध् बध्य बध्यते श्रन्थ् श्रथ श्रथ्य श्रथ्यते ग्रन्थ् ग्रथ्य ग्रथ्यते कुथ्य अञ्च अच्य अच्यते अज अज्य अज्यते उद्य उद्यते इन्ध् इध इध्य इध्यते लुट्य दंश् दश्य दश्यते स्वञ् स्वज् स्वज्य स्वज्यते सज् सज् सज्य सज्यते शेष धातु + यक् प्रत्यय क्डिति च - कित्, डित् अथवा गित्, प्रत्यय परे होने पर, इक् के स्थान पर प्राप्त होने वाले गुण, वृद्धि कार्य नहीं होते। __ अतः इन शेष हलन्त धातुओं में यक् प्रत्यय को ज्यों का त्यों जोड़ दीजिये, बस। जैसे - 121111111111111111111111111 ग्रथ कन्थ कुथ्यते अञ्ज उन्द् उद लुण्ट लुट्यते दश् समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४१७ __ पठ् + यक् = पठ्य - पठ्यते / नन्द् + यक् - नन्द्य = नन्द्यते / लिख + यक् - लिख्य = लिख्यते / मुद् + यक् - मुद्य = मुद्यते आदि। यह भ्वादिगण से ज़्यादिगण तक के धातुओं में यक् प्रत्यय लगाने की विधि पूर्ण हुई। __
३. चुरादिगण के धातु तथा णिजन्त धातुओं में यक् प्रत्यय
लगाने की विधि - चुरादिगण के प्रत्येक धातु से कोई भी प्रत्यय लगाने के पहिले स्वार्थिक णिच् प्रत्यय लगता है। णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद ही चुरादिगण के धातुओं में अन्य कोई सा भी प्रत्यय लगाना चाहिये। जैसे - चुर् + णिच् = चोरि / कथ् + णिच् - कथि / गण् + णिच् - गणि आदि। इसी प्रकार जब प्रेरणा अर्थ अर्थात् प्रयोजक व्यापार वाच्य हो तब किसी भी धातु से णिच् प्रत्यय लगा देना चाहिये। यहाँ भी णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद ही धातु से अन्य कोई प्रत्यय लगाना चाहिये।
- इसका अर्थ यह हुआ कि णिच् प्रत्यय लगाकर यक् प्रत्यय लगाने पर, हमें दो कार्य करना पड़ते हैं - १. धातु + णिच् को जोड़कर णिजन्त धातु बनाना। २. णिजन्त धातु में यक् प्रत्यय लगाना। धातु + णिच् को जोड़कर, णिजन्त धातु बनाने की विधि पृष्ठ ३८९ से ४०३ पर हमने अभी ‘समस्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि’ नामक दशम पाठ में, विस्तार से पढ़ी है। उसे वहीं देखिये। उस विधि से धातुओं में णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद, उन णिजन्त धातुओं के भाववाची अथा कर्मवाची रूप बनाने के लिये, उनमें इस प्रकार यक् प्रत्यय लगाइये - __णेरनिटि - अनिडादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, णिच् प्रत्यय का लोप हो जाता है। चूँकि ‘णिच्’ प्रत्यय को इडागम नहीं होता है, अतः यह भी अनिडादि आर्धधातुक प्रत्यय है। अतः जब णिजन्त धातुओं से परे यक् प्रत्यय हो, तो णिजन्त धातु के ‘णिच् = इ’ का लोप कर देना चाहिये। ध्यान रहे कि सारे णिजन्त धातुओं के अन्त में ‘इ’ ही होता है। इस ‘णिच् = इ’ का ‘णेरनिटि’ सूत्र से लोप कर देना चाहिये। यथा - [[४१८]] चुर् + णिच् - चोरि/ चोरि + यक् - चोर् + य - चोर्य = चोर्यते कथ् + णिच् - कथि / कथि + यक् - कथ् + य - कथ्य = कथ्यते गण + णिच् - गणि / गणि + यक् - गण + य - गण्य = गण्यते ४. प्रत्ययान्त धातुओं में यक् प्रत्यय लगाने की विधि __ सन्नन्त धातु - जिन धातुओं के अन्त में सन् प्रत्यय हो, उन्हें सन्नन्त धातु कहते हैं। सारे सन्नन्त धातुओं के अन्त में सदा ‘अ’ ही होता है अर्थात् वे सदा अदन्त ही होते हैं। अतो लोप: - धातुओं के अन्त में आने वाले ‘अ’ का लोप होता है कोई भी आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। अतः ‘यक्’ प्रत्यय परे होने पर अतो लोप: सूत्र से सन्नन्त धातुओं के ‘अ’ का लोप कीजिये। यथा - जिगमिष + यक् + ते / ‘अ’ का लोप करके - जिगमिष् + यते = जिगमिष्यते। सारे सन्नन्त धातुओं में ‘यक्’ प्रत्यय इसी प्रकार लगाइये। यडन्त धातु - जिन धातुओं के अन्त में यङ् प्रत्यय हो, उन्हें यङन्त धातु कहते हैं। सारे यङन्त धातुओं के अन्त में सदा ‘अ’ ही होता है अर्थात् वे सदा अदन्त ही होते हैं। यङ् के पूर्व में अच् होने पर यक् प्रत्यय इस प्रकार लगाइये - अतो लोप: - धातुओं के अन्त में आने वाले ‘अ’ का लोप होता है कोई भी आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। - यक् प्रत्यय परे होने पर अतो लोप: सूत्र से यङन्त धातुओं के अन्तिम ‘अ’ का लोप कीजिये। यथा - नेनीय + यते / अतो लोप: से अन्तिम अ का लोप करके - नेनीय + यते = नेनीय्यते / लोलूय + यते = लोलूय्यते। / बोभूय + यते = बोभूय्यते, आदि बनाइये। यङ् के पूर्व में हल होने पर यक् प्रत्यय इस प्रकार लगाइये - यस्य हल: - हल के बाद आने वाले ‘य’ का लोप होता है, आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। यथा - बाभ्रश्य + यते ।। यस्य हल: से अन्तिम य का लोप करके - बाभ्रश् + यते = बाभ्रश्यते। नेनिज्य + यते / यस्य हल: से अन्तिम य का लोप करके - नेनिज् + यते = नेनिज्यते। इसी प्रकार वेविध्य = वेविध्यते / मोमुद्य = मोमुद्यते आदि बनाइये। हमने सारे धातुओं में यक् प्रत्यय’ लगाना सीख लिया है और इनके समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि सार्वधातुक लकारों के रूप बना लिये हैं। धातुओं में यक् प्रत्यय लगाये बिना, उनके लुट्, लुङ्, लुट तथा आशीर्लिङ्, इन आर्धधातुक लकारों में, भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना ‘सार्वधातुके यक्’ सूत्र कहता है कि भाववाची तथा कर्मवाची ‘सार्वधातुक’ प्रत्यय परे होने पर, धातुओं से यक् प्रत्यय होता है। __इसका अर्थ यह हुआ कि भाववाची तथा कर्मवाची आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, धातुओं से यक् प्रत्यय नहीं होता है। इसलिये भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाते समय, हमें बहुत सावधान रहना चाहिये कि यदि हमें लिट्, लुट, लुट, लुङ्, आशीर्लिङ् तथा लुङ्, इन आर्धधातुक लकारों में किसी भी धातु के भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के रूप बनाना है, तो धातुओं से ‘यक्’ प्रत्यय नहीं लगाना चाहिये, क्योंकि ‘यक्’ प्रत्यय तो केवल सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ही होता है। अतः हम बहुत सावधानी से धातुओं से ‘यक्’ प्रत्यय लगाये बिना भाववाच्य तथा कर्मवाच्य में आर्धधातुक लकारों के रूप बनायें। केवल यह भर ध्यान रखें, कि चाहे किसी भी पद का धातु हो, भाववाच्य तथा कर्मवाच्य में उससे ‘भावकर्मणोः’ सूत्र से केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगायें। लिट्, लुट, लुट, लुङ्, आशीर्लिङ् तथा लुङ् लकारों के कर्तृवाच्य के रूप बनाने की विधि प्रथम खण्ड में विस्तार से बतलाई जा चुकी है। उसे पढ़िये। वहाँ इन लकारों में जिस धातु का जैसा रूप कर्तृवाच्य में बनता है, ठीक वही का वही रूप, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य में भी बनेगा। केवल यह ध्यान रखना होगा कि चाहे किसी भी पद का धातु हो, भाववाच्य तथा कर्मवाच्य में उससे ‘भावकर्मणोः’ सूत्र से केवल आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगेंगे। __ जैसे - पा यह परस्मैपदी धातु है। इसका कर्तृवाच्य में लृट् लकार का रूप बनता है - पास्यति। कर्मवाच्य में आत्मनेपदी प्रत्यय लगकर इसका रूप बनेगा - पास्यते। इसी प्रकार चि से चेष्यते / नी से नेष्यते / हु से होष्यते / भू से भविष्यते / कृ से करिष्यते / तृ से तरिष्यते / हन् से हनिष्यते / ग्रह से ग्रहीष्यते / दृश् से द्रक्ष्यते / लिख से लेखिष्यते / मुद् से मोदिष्यते आदि बनाइये। इसी प्रकार प्रथम खण्ड में कही हुई विधि से लुङ्, लुट, आशीर्लिङ् लकारों [[४२०]] के आत्मनेपदी रूप बनाइये। ये ही इन लकारो के भावकर्म के रूप हैं। अजन्त धातुओं तथा हन्, ग्रह्, दृश् धातुओं के लुट, लुङ्, लुट, आशीर्लिङ् लकारों में कर्मवाच्य, भाववाच्य बनाने के लिये विशेष विधि स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट् च - भाव तथा कर्म विषयक स्य, सिच्, सीयुट, तास्, प्रत्यय परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं को तथा हन्, ग्रह, दृश् धातुओं को, विकल्प से चिण् के समान कार्य होता है तथा स्य, सिच्, सीयुट, तास्, प्रत्ययों को इट् का आगम भी होता है। ध्यान रहे कि इस ‘इट’ के होने के बाद, इन प्रत्ययों को ‘आर्धधातुकस्येड् वलादे:’ सूत्र से होने वाला इट नहीं होता। चिण् के समान कार्य होने का अर्थ यह है कि चिण् प्रत्यय णित् है। अतः मान लीजिये कि ये स्य, सिच्, सीयुट, तास्, प्रत्यय भी णित् ही हैं। __ अतः जो जो कार्य ‘चिण्’ प्रत्यय परे होने पर धातुओं को होते हैं, वे सारे कार्य इन, भाव तथा कर्म विषयक स्य, सिच्, सीयुट, तास्, प्रत्यय परे होने पर भी धातुओं को होने लगते हैं। __प्रत्यय के ‘चिण्’ के समान होने पर इस प्रकार कार्य कीजिये - जब अजन्त धातु तथा हन्, ग्रह, दृश् धातुओं के बाद आने वाले स्य, सिच्, सीयुट, तास् प्रत्यय ‘चिण्’ के समान हों, तब इन इन प्रत्ययों को ‘इट’ का आगम अवश्य कीजिये, भले ही धातु अनिट् क्यों न हो। अर्थात् ‘चिण्’ के समान कार्य करने के लिये अनिट् धातुओं से भी सेट् प्रत्यय ही लगाइये। यथा - आकारान्त धातु - पा + इष्यते / इस स्य प्रत्यय को ‘स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट् च’ सूत्र से चिण्वद्भाव होने पर - आतो युक् चिण्कृतोः - आकारान्त धातुओं को युक् का आगम होता है चिण् प्रत्यय परे होने पर, तथा जित् णित् कृत् प्रत्यय परे होने पर। . पा + इष्यते / इस सूत्र से युक् का आगम करके - पा + युक् + इष्यते / य, क् की इत् संज्ञा करके - पा + य् + इष्यते = पायिष्यते। __ इसी प्रकार लुङ् लकार में अपायिष्यत / लुट् लकार में पायिता / आशीर्लिङ् लकार में पायिषीष्ट बनाइये। लुङ् लकार आगे बतला रहे हैं। समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि __ ४२१ इकारान्त, ईकारान्त धातु - चि + इष्यते - इस स्य प्रत्यय को ‘स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट च’ सूत्र से चिण्वद्भाव करके - अचो णिति - जित् णित् प्रत्यय परे होने पर अजन्त अङ्ग को वृद्धि होती है। चि + इष्यते - चै + इष्यते - एचोऽयवायावः - एच् के बाद अच् आने पर एच् के स्थान पर क्रमशः अय, अव्, आय, आव आदेश होते हैं। चाय् + इष्यते = चायिष्यते / नी - नायिष्यते आदि। इसी प्रकार लुङ् लकार में अनायिष्यत / लुट् लकार में नायिता / आशीर्लिङ् लकार में नायिषीष्ट बनाइये। उकारान्त, ऊकारान्त धातु - हु + इष्यते / इस स्य प्रत्यय को ‘स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट च’ सूत्र से चिण्वद्भाव करके - अचो णिति से ‘उ’ के स्थान पर ‘औ वृद्धि करके - हौ + इष्यते / एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके - हाव् + इष्यते = हाविष्यते / भू - भाविष्यते आदि। इसी प्रकार लुङ् लकार में अभाविष्यत / लुट् लकार में भाविता / आशीर्लिङ् लकार में भाविषीष्ट बनाइये। ऋकारान्त, ऋकारान्त धातु - कृ + इष्यते - इस स्य प्रत्यय को ‘स्यसिच्सीयुटतासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदशां वा चिण्वदिट च’ सूत्र से ‘चिण्वद्भाव’ करके - अचो णिति से ‘ऋ’ के स्थान पर ‘आर् वृद्धि करके - कार् + इष्यते = कारिष्यते। दीर्घ ऋकारान्त धातुओं से तृ - तारिष्यते आदि बनाइये। इसी प्रकार लुङ् लकार में अकारिष्यत / लुट् लकार में कारिता / आशीर्लिङ् लकार में कारिषीष्ट बनाइये। हन् धातु - हन् + इष्यते - स्य प्रत्यय को चिण्वद्भाव करके - हो हन्तेर्णिन्नेषु - हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व (घ) होता है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर तथा नकार परे होने पर। इससे हन् के ‘ह’ को कुत्व करके ‘घ’ बनाइये - हन् + इष्यते - घन् + इष्यते - अत उपधाया: - अङ्ग की उपधा के ‘अ’ को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। घन् + इष्यते - घान् + इष्यते = घानिष्यते। [[४२२]] इसी प्रकार लुङ् लकार में अघानिष्यत / लुट् लकार में घानिता / आशीर्लिङ् लकार में घानिषीष्ट बनाइये। ग्रह धातु - ग्रह् + इष्यते / स्य प्रत्यय को चिण्वद्भाव करके - ‘अत उपधाया:’ सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - ग्राह् + इष्यते = ग्राहिष्यते। इसी प्रकार लुङ् लकार में अग्राहिष्यत / लुट् लकार में ग्राहिता / आशीर्लिङ् लकार में ग्राहिषीष्ट बनाइये। दृश् धातु - दृश् + इष्यते - स्य प्रत्यय को चिण्वद्भाव करके - पुगन्तलघूपधस्य च - जिनकी उपधा में लघु इ, लघु उ, लघु ऋ हैं, ऐसे लघु इगुपध धातुओं की उपधा के ‘लघु इक्’ को गुण होता है। इस सूत्र से उपधा के ‘इ’ को ‘ए’ गुण करके - दर्श + इष्यते = दर्शिष्यते। इसी प्रकार लुङ् लकार में अदर्शिष्यत / लुट् लकार में दर्शिता / आशीर्लिङ लकार में दर्शिषीष्ट बनाइये। णिजन्त मित् धातु - णिच् से अन्त होने के कारण सारे णिजन्त धातु ‘इकारान्त’ ही होते हैं। अतः ये अजन्त हैं। इनमें से जो मित् धातु हैं, उनको इसी खण्ड के दशम पाठ में पृष्ठ ३९९ से ४०२ में देखिये। इन णिजन्त मित् धातुओं के रूप इस प्रकार बनाइये - शम् + णिच् - शमि / शमि + इष्यते / णेरनिटि सूत्र से णिच् का लोप करके - शम् + इष्यते / अजन्त धातु होने के कारण ‘स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झन ग्रहदृशां वा चिण्वदिट च’ सूत्र से यह ‘स्य’ प्रत्यय को चिण के समान मानकर - चिण्णमुलोर्दीर्घाऽन्यतरस्याम् - यदि मित् धातुओं से परे णिच् हो, और उस णिच् से परे चिण अथवा णमुल् हों, तो इन मित् धातुओं की उपधा के स्वर को, विकल्प से ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। __ अतः ‘चिण्णमुलोर्दीर्घोऽन्यतरस्याम्’ सूत्र से विकल्प से दीर्घ करके - शामिष्यते / शमिष्यते रूप बनते हैं। क्षज् धातु की उपधा में अच् नहीं है, तथापि घटादि गण में पाठ होने से मित् होने के कारण इसके ‘अच्’ को विकल्प से दीर्घ करके - क्षाजिष्यते / क्षजिष्यते रूप बनते हैं। इसी प्रकार लुङ् लकार में - अशामिष्यत, अशमिष्यत । लुट् लकार में - शामिता, शमिता। आशीर्लिङ् लकार में शामिषीष्ट, शमिषीष्ट आदि बनाइये। . समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४२३ भाववाच्य, कर्मवाच्य में लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि हमने लुङ् लकार के बारह प्रकार के प्रत्यय पढ़े हैं, किन्तु हम जानते हैं कि लुङ् लकार के सिज्लुक से बने हुए प्रत्यय तथा धातु को सक् का आगम करके बने हुए प्रत्यय केवल परस्मैपदी होते हैं। अङ्, चङ् से बने हुए प्रत्यय केवल कर्तृवाच्य में होते हैं। अतः भाववाच्य तथा कर्मवाच्य में लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये केवल क्स तथा सिच् से बने हुए प्रत्यय ही लगते हैं। इनकी व्यवस्था इस प्रकार है - क्रुश्, दिश्, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, कृष्, त्विष्, द्विष्, श्लिष्, मिह रुह, लिह, दिह, दुह् ये १७ शलन्त इगुपध अनिट् धातु हैं। इन शलन्त इगुपध अनिट् धातुओं से क्स से बने हुए प्रत्यय कहे गये हैं, अतः इनसे वे ही प्रत्यय लगेंगे। चिण् भावकर्मणोः - भाववाच्य तथा कर्मवाच्य के लुङ् लकार में, आत्मनेपद, प्रथमपुरुष एकवचन में ‘त’ प्रत्यय परे होने पर, सब प्रत्ययों को रोककर, सभी धातुओं से चिंण्’ प्रत्यय ही होता है। चिण् प्रत्यय में च, ण् की इत्संज्ञा करके ‘इ’ शेष रहता है चिणो लुक् - चिण से परे आने वाले ‘त’ प्रत्यय का लुक् होता है। केवल चिण का ‘इ’ शेष रहता है। शेष प्रत्यय वे ही रहते हैं। अतः क्स से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय इस प्रकार बने - प्र. पु. इ (चिण्) साताम् सन्त म. पु. सथा: साथाम् सध्वम् उ. प. सि सावहि सामहि क्रुश् धातु - अक्रोशि अक्रुक्षाताम् अक्रुक्षन्त अक्रुक्षथा: अक्रुक्षाथाम् अक्रुक्षध्वम् अक्रुक्षि . अक्रुक्षावहि अक्रुक्षामहि दिश्, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, कृष्, त्विष्, द्विष्, श्लिष् धातुओं के रूप इसी प्रकार बनाइये। दुह् धातु - अदोहि अधुक्षाताम् अधुक्षन्त अधुक्षथा: अधुक्षाथाम् अधुक्षध्वम् अदुग्धाः अधुरध्वम् [[४२४]] अधुक्षि अधुक्षावहि अधुक्षामहि अदुहृहि दिह धातु के रूप इसी प्रकार बनाइये। लिह् धातु - अलेहि अलिक्षाताम् अलिक्षन्त अलिक्षथा: अलिक्षाथाम् अलिक्षध्वम् अलीढा: अलीध्वम् अलिक्षि अलिक्षावहि अलिक्षामहि अलिहि गृहू, बृह, तृहू, स्तृहू, गुहू ये वेट् धातु भी, शलन्त इगुपध हैं। जब ये अनिट् हों, तब इनसे क्स से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय लगाइये। सेट होने पर, इनसे ‘सिच्’ से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाइये। गुह् धातु - अगोहि अघुक्षाताम् अघुक्षन्त अघुक्षथा: अघुमाथाम् अघुक्षध्वम् अगूढा: अघूध्वम् अघुक्षि अघुक्षावहि अघुक्षामहि अगुहृहि इन्हें छोड़कर शेष धातुओं से सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जाते हैं, यह जानिये। केवल प्रथमपुरुष एकवचन में ‘चिण् = इ’ प्रत्यय लगता है। ये प्रत्यय इस प्रकार बने - भावकर्म में लुङ् लकार के इट् + सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय प्र. पु. इ (चिण्) इषाताम् इषत म. पु. इष्ठाः इषाथाम् इढ्वम् उ. पु. इषि इष्वहि इष्महि भावकर्म में लुङ् लकार के अनिट् सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय प्र. पु. इ (चिण्) साताम् सत म. पु. स्था: साथाम् ध्वम् उ. पु. सि स्वहि स्महि धातुओं से प्रत्यय लगाने पर, किस प्रकार से अङ्गकार्य करना है, इसके लिये आवश्यक है कि हम प्रत्यय की सही पहिचान इस प्रकार करें - समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४२५ १. इनमें से चिण् प्रत्यय णित् है। इस चिण् प्रत्यय के परे होने पर वे सभी कार्य होते हैं, जो णित् प्रत्यय परे होने पर शास्त्र में कहे गये हैं। २. शेष १६ प्रत्यय णित् नहीं हैं। इनके परे होने पर वे ही रूप बनते हैं, जो रूप लुङ् लकार कर्तृवाच्य आत्मनेपद में इन प्रत्ययों से बनते हैं। इन्हें बनाने की विधि लुङ् लकार में २२० - २४६ पृष्ठ पर देखें। पुस ३. किन्तु अजन्त धातुओं तथा हन्, ग्रह, दृश् धातुओं के बाद आने पर ये शेष १६ प्रत्यय भी चिण न होते हुए भी चिण जैसे हो जाते हैं। सूत्र स्यसिच्सीयुट्तासिषु भावकर्मणोरुपदेशेऽज्झनग्रहदृशां वा चिण्वदिट् च - भाव तथा कर्म विषयक स्य, सिच, सीयुट, तास्, प्रत्यय परे रहते उपदेश में अजन्त धातुओं को तथा हन्, ग्रह, दृश् धातुओं को, विकल्प से चिण् के समान कार्य होता है तथा स्य, सिच्, सीयुट, तास्, प्रत्ययों को इट् का आगम भी होता है। ध्यान रहे कि इस ‘इट’ के होने के बाद, इन प्रत्ययों को ‘आर्धधातुकस्येड् वलादे:’ सूत्र से होने वाला इट नहीं होता। __ अतः हम बहुत सावधानी से पहिचानें, कि कब प्रत्यय चिण् है, कब प्रत्यय चिण जैसा है और कब प्रत्यय चिण जैसा नहीं है। इसे अच्छी तरह बुद्धिस्थ करके ही भावकर्म में लुङ् लकार के रूप बनाना चाहिये। __ अब हम धातुओं का वर्गीकरण करके भावकर्म में लुङ् लकार के रूप बनायें। बार ध्यान रहे कि सेट् धातुओं से सेट् प्रत्यय लगाये जायें और अनिट धातुओं से अनिट् प्रत्यय लगाये जायें। आकारान्त धातु - अदा + इ / यह ‘इ’ प्रत्यय चिण है, अतः आतो युक् चिण्कृतोः सूत्र से युक् का आगम करके - अदा + युक् + इ = अदायि । 2 धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अदायि अदायिषाताम् अदायिषत अदायिष्ठाः अदायिषाथाम् अदायिढ्वम् अदायिषि अदायिष्वहि अदायिष्महि का धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अदिषाताम् अदिषत अदिथा: अदिषाथाम् अदिढ्वम् अदायि [[४२६]] अचायि अदिषि अदिष्वहि अदिष्महि इकारान्त, ईकारान्त धातु - अचि + इ / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - अचै + इ + त / एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश करके = अचायि। धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अचायि अचायिषाताम् अचायिषत अचायिष्ठाः अचायिषाथाम् अचायिढ्वम् अचायिषि अचायिष्वहि अचायिष्महि धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अचेषाताम् अचेषत अचेष्ठाः अचेषाथाम् अचेढ्वम् अचेषि अचेष्वहि अचेष्महि उकारान्त, ऊकारान्त धातु - अलू + इ / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - अलौ + इ / एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके = अलावि। धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अलावि अलाविषाताम् अलाविषत अलाविष्ठा: अलाविषाथाम् अलाविढ्वम् अलाविषि अलाविष्वहि अलाविष्महि धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अच्यावि अच्योषाताम् अच्योषत अच्योष्ठा: अच्योषाथाम् अच्योढ्वम् अच्योषि अच्योष्वहि अच्योष्महि इसके अपवाद - उकारान्त कुटादि कु, गु, धु धातु। इन धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर - अचो णिति सूत्र से वृद्धि होकर, लू धातु के समान ही रूप बनते हैं। अकु + इ - अकावि। अकावि अकाविषाताम् अकाविषत अकाविष्ठा: अकाविषाथाम् अकाविढ्वम् अकाविषि अकाविष्वहि अकाविष्महि चिण्वत् कार्य न होने पर गु ध्रु, कु धातुओं के रूप - गाकुटादिम्योऽणिन्डित् - गाङ् धातु से तथा तुदादिगण के अन्तर्गत निसमस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४२७ जो कुट से लेकर कुङ् तक ३५ धातुओं का कुटादिगण है, उस कुटादिगण में आने वाले धातुओं से परे आने वाला जित् णित् से भिन्न प्रत्यय ङित्वत् मान लिया जाता है।
- प्रत्यय के ङित्वत् होने के कारण क्डिति च’ सूत्र इनके इक् को गुणनिषेध करके - अकु + साताम् = अकुषाताम् । शेष प्रत्ययों में भी यही प्रक्रिया होगी। ये धातु अनिट् हैं। अतः इनसे अनिट् प्रत्यय लगाइये। अकावि अकुषाताम् अकुषत अकुथा: अकुषाथाम् अकुढ्वम् अकुषि अकुष्वहि अकुष्महि कुटादि णू, धू धातु धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर - अनावि अनाविषाताम् अनाविषत अनाविष्ठा: अनाविषाथाम् अनाविढ्वम् अनाविषि अनाविष्वहि अनाविष्महि कुटादि णू, धू धातु धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अनू + इ - अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - अनौ + इ / एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके - अनाव् + इ = अनावि। अनू + इषाताम् / गाकुटादिम्योऽञ्णिन्डित् सूत्र से प्रत्यय के डित्वत् होने के कारण क्ङिति च’ सूत्र इनके इक् को गुणनिषेध करके, ‘अचि श्नुधातुभ्रुवां स्वोरियडुवङौ’ सूत्र से ‘ऊ’ को ‘उवङ्’ आदेश करके - अनुव् + इषाताम् = अनुविषाताम् । शेष प्रत्ययों में भी यही प्रक्रिया होगी। पूरे रूप इस प्रकार बने अनावि अनुविषाताम् अनुविषत अनुविष्ठाः अनुविषाथाम् अनुविढ्वम् अनुविषि अनुविष्वहि अनुविष्महि धू धातु के रूप भी इसी प्रकार बनाइये। ऋकारान्त धातु - अकृ + इ / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - अकार् + इ = अकारि। धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अकारि अकारिषाताम् अकारिषत अकारिष्ठाः अकारिषाथाम् अकारिद्वम् अकारिषि अकारिष्वहि अकारिष्महि धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अनविपाशा [[४२८]] अकृषि अतारि अकारि अकृषाताम् अकृषत अकृथाः अकृषाथाम् अकृढ्वम् अकृष्वहि अकृष्महि ऋकारान्त धातु - अतृ + इ / अचो ग्गिति सूत्र से वृद्धि करके - अतार् + इ = अतारि। धातुओं को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अतारि अतारिषाताम् अतारिषत अतारिष्ठा: अतारिषाथाम् अतारिढ्वम् अतारिषि अतारिष्वहि अतारिष्महि धातुओं को चिण्वत् कार्य न होने पर - अतरिषाताम् अतरिषत अतरिष्ठाः अतरिषाथाम् अतरिढ्वम् अतरिषि अतरिष्वहि अतरिष्महि अदुपध धातु - अपठ् + इ / अत उपधाया: सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - अपाठ् + इ = अपाठि। अपठ् + इषताम् = अपठिषाताम् । ध्यान दें कि यहाँ ‘चिण्वद्भाव न होने से ‘अत उपधाया’ सूत्र से उपधा को वृद्धि नहीं हुई है। सेट् अदुपध् पठ् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अपाठि अपठिषाताम् अपठिषत अपठिष्ठाः अपठिषाथाम् अपठिढ्वम् अपठिषि अपठिष्वहि अपठिष्महि अनिट् अदुपध् पच् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अपाचि अपक्षाताम् अपक्षत अपक्था : अपक्षाथाम् अपग्ध्वम् अपक्षि अपक्ष्वहि अपक्ष्महि हन्, ग्रह् धातु - ध्यान दें कि हन्, ग्रह् धातुओं से भावकर्मवाची सिच् प्रत्यय परे होने पर, धातु को चिण्वकार्य होते हैं। अतः इनके रूप इस प्रकार बनाइये - अहन् + इ / ‘हो हन्तेणिन्नेषु’ सूत्र से हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व करके अघन् + इ / ‘अत उपधाया:’ सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४२९ अघन् + इ = अघानि। शेष आठ प्रत्ययों में भी यही प्रक्रिया होगी। __ हन् धातु को चिण्वत् कार्य होने पर इसी प्रकार - अघानि अघानिषाताम् अघानिषत अघानिष्ठा: अघानिषाथाम् अघानिवम् अघानिषि अघानिष्वहि अघानिष्महि हन् धातु को चिण्वत् कार्य न होने पर - अघानि अहसाताम् अहसत अहसथा: अहसाथाम् अहध्वम् अहसि अहस्वहि अहस्महि __ ग्रह् धातु को चिण्वत् कार्य होने पर - अग्राहि अग्राहिषाताम् अग्राहिषत अग्राहिष्ठाः अग्राहिषाथाम् अग्राहिढ्वम् अग्राहिषि अग्राहिष्वहि अग्राहिष्महि ग्रह् धातु को चिण्वत् कार्य न होने पर - अग्राहि अग्रहीषाताम् अग्रहीषत अग्रहीष्ठा: अग्रहीषाथाम् अग्रहीढ्वम् अग्रहीषि अग्रहीष्वहि अग्रहीष्महि अत उपधाया: से होने वाली वृद्धि के अपवाद - नोदात्तोपदेशस्य मान्तस्यानाचमे: / अनाचमिकमिवमीनाम् इति वक्तव्यम् - चम् कम् वम् इन सेट् मकारान्त धातुओं को छोड़कर जो शेष सेट मकारान्त धातु बचे, उन मकारान्त धातुओं को अत उपधाया: सूत्र से प्राप्त होने वाली वृद्धि नहीं होती है। इसे इस प्रकार समझिये - गम्, रम्, नम्, यम् ये चार मकारान्त धातु अनिट् हैं। अनिट् धातु को ही अनुदात्तोपदेश कहते हैं। इन चार के अलावा जितने भी मकारान्त धातु हैं जैसे शम् दम् आदि वे सारे के सारे मकारान्त धातु सेट हैं। सेट को उदात्तोपदेश कहते हैं। अब इनमें चिण् प्रत्यय इस प्रकार लगायें - १. जो मकारान्त अनिट् धातु हैं उन्हें अत उपधाया: से प्राप्त होने वाली वृद्धि होती है। यथा - अरम् + इ / अत उपधाया: से वृद्धि होकर - अरामि। इसी प्रकार - यम् से - अयामि / नम् से अनामि / गम् से अगामि बनाइये। [[४३०]] २. जो सेट् मकारान्त धातु हैं उनमें से चम् कम् वम् धातुओं को अत उपधाया: सूत्र से प्राप्त होने वाली वृद्धि होती है। यथा - आचम् + इ / अत उपधाया: सूत्र से वृद्धि होकर - आचामि। इसी प्रकार कम् + इ - अकामि / वम् + इ - अवामि / ३. गम् रम् नम् यम् इन चार अनिट् मकारान्त धातुओं को तथा चम् कम् वम् इन तीन सेट् मकारान्त धातुओं को, इस प्रकार कुल सात मकारान्त धातुओं को छोड़कर, जो शेष सेट् मकारान्त धातु बचे, उन मकारान्त धातुओं को अत उपधाया: सूत्र से प्राप्त होने वाली वृद्धि नहीं होती है। उस वृद्धि का इस सूत्र और वार्तिक से निषेध हो जाता है। यथा - शम् + इ / वृद्धि निषेध होकर अशमि। इसी प्रकार - तम् + इ - अतमि / दम् + इ - अदमि, आदि। ४. जन्, वध् धातु - जनिवध्योश्च - जन्, वध् धातुओं को अत उपधाया: सूत्र से प्राप्त होने वाली वृद्धि नहीं होती है। जन् - अजनि / वध् - अवधि। __५. रध्, जभ् धातु - रधिजभोरचि - रध्, जभ् धातुओं को नुम् का आगम होता है, अजादि प्रत्यय परे होने पर । अरध् + इ - अरन्ध् + इ = अरन्धि । शेष रूप भी इसी प्रकार बनाइये। इसी प्रकार जभ से अजम्भि आदि। ६. रभ् धातु - रभेरशब्लिटोः - रभ् धातु को नुम् का आगम होता है, शप, लिट् से भिन्न अजादि प्रत्यय परे होने पर। अरभ् + इ - अरम्भ + इ = अरम्भि । ७. लभ् धातु - विभाषा चिण्णमुलोः - चिण, णमुल् प्रत्यय परे होने पर, लभ् धातु को विकल्प से नुम् का आगम होता है। नुम् का आगम होने पर अलभ् + इ - अलम्भ् + इ = अलम्भि। नुम् का आगम न होने पर - अलभ् + इ - अत उपधाया: सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - अलाभ् + इ = अलाभि। ८. णिजन्त मित् धातु - मित् धातुओं को इसी खण्ड के प्रथम पाठ में पृष्ठ ३९९ से ४०२ में देखिये।
- चिण्णमुलोर्दीर्घोऽन्यतरस्याम् - यदि मित् धातुओं से परे णिच् हो, और उस णिच् से परे चिण् अथवा णमुल् हों, तो इन मित् धातुओं की उपधा के स्वर को, अथवा उपधा में न रहने वाले स्वर को विकल्प से ह्रस्व तथा दीर्घ होते हैं। समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४३१ मा सिच् प्रत्यय को चिण्वद्भाव करके - शम् + णिच् - शमि / अशमि + इ / णेरनिटि सूत्र से णिच् का लोप करके - अशम् + इ / ‘चिण्णमुलोर्दीर्घाऽन्यतरस्याम्’ सूत्र से विकल्प से दीर्घ करके - अशामि / अशमि। विशेष - ध्यान दें कि णिच प्रत्यय न लगने पर शम धात से ‘अशमि’ बनता है। णिच् प्रत्यय लगने पर शम् धातु से अशमि, अशामि प्रयोग बनते हैं। इदुपध धातु - अरिच् + इ / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - अरेच् + इ - अरेचि। अनिट् इदुपध् रिच् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अरेचि अरिक्षाताम् . अरिक्षत अरिस्था: अरिक्षाथाम् | अरिग्ध्वम् अरिक्षि अरिक्ष्वहि अरिक्ष्महि __सेट् इदुपध् लिख धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अलेखि अलेखिषाताम् अलेखिषत अलेखिष्ठा: अलेखिषाथाम् अलेखिढ्वम् अलेखिषि अलेखिष्वहि अलेखिष्महि 1 उदुपध धातु - अतुद् +इ / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - अतोद् + इ - अतोदि। _ अनिट् उदुपध् लिख धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अतोदि अतुत्साताम् अतुत्सत अतुत्था: अतुत्साथाम् अतुद्ध्वम् अतुत्स्वहि अतुत्स्महि सेट् उदुपध् मुद् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अमोदि अमोदिषाताम् अमोदिषत अमोदिष्ठा: अमोदिषाथाम् अमोदिढ्वम् अमोदिषि अमोदिष्वहि अमोदिष्महि इसके अपवाद - सेट् उदुपध कुटादि धातु कुट पुट कुच् गुज् गुड् छुर् स्फुट मुट् त्रुट तुट चुट् छुट जुट लुट् कृड् कुड् पुड् घुट तुड् थुड् स्थुड् स्फुर् स्फुल् स्फुड् छड् क्रुड् मृड् गुर् अतुत्सि [[४३२]] अकुट + इ / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - अकोट् + इ - अकोटि। शेष प्रत्यय परे होने पर क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध कीजिये - अकुट + इषाताम् = अकुटिषाताम् आदि। __ पूरे रूप इस प्रकार बने - अकोटि अकुटिषाताम् अकुटिषत अकुटिष्ठाः अकुटिषाथाम् अकुटिढ्वम् अकुटिषि अकुटिष्वहि अकुटिष्महि कुट से गुर् तक, उदुपध हलन्त धातुओं के रूप इसी प्रकार बनाइये। ऋदुपध धातु - अवृष् + चिण् + त / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - अवर्ष + चिण् + त / चिणो लुक् सूत्र से ‘त’ का लोप करके - अवर्षि। पूरे रूप इस प्रकार बने - अवर्षि अवर्षिषाताम् अवर्षिषत अवर्षिष्ठाः अवर्षिषाधाम् अवर्षिढ्वम् अवर्षिषि अवर्षिष्वहि अवर्षिष्महि __ इसके अपवाद - दृश् धातु - ध्यान दें कि दृश् धातु ऐसा है, जिससे भावकर्मवाची सिच् प्रत्यय परे होने पर, धातु को चिण्वकार्य होते है। अतः इनके रूप इस प्रकार बनाइये - __ लुङ् लकार के सारे प्रत्यय ‘चिण्वत्’ होने पर दृश् धातु के रूप - अदर्शि अदर्शिषाताम् अदर्शिषत . अदर्शिष्ठाः अदर्शिषाथाम् अदर्शिवम् अदर्शिषि अदर्शिष्वहि अदर्शिष्महि लुङ् लकार के सारे प्रत्यय ‘चिण्वत्’ न होने पर दृश् धातु के रूप - अदृक्षाताम् अदृक्षत अदृष्ठा: अदृक्षाथाम् अदृड्ढ्व म् अदृक्षि अदृक्ष्वहि अदृक्ष्महि भञ्ज् धातु - भजेश्च चिणि - भज् धातु के ‘न्’ का विकल्प से लोप होता है, चिण् परे होने पर। नलोप होने पर - अभञ्ज् + चिण - अभज् + इ / अत उपधाया: से उपधा वृद्धि होकर = अभाजि / नलोप न होने पर - अभञ्ज् + चिण् - अभञ्ज् + इ = अभज्जि। अदर्शि समस्त धातुओं के भावकर्म के रूप बनाने की विधि ४३३ अभजि, अभाजि अभङ्खाताम् अभङ्क्षत अभक्था: अभङ्गाथाम् अभङ्ग्ध्वम् अभरि अभक्ष्वहि भक्ष्महि शेष धातुओं के रूप वैसे ही बनाइये, जैसे कर्तृवाच्य में बनाये हैं। ध्यान रहे कि प्रथमपुरुष के एकवचन में चिण् (इ) प्रत्यय ही लगेगा। चुरादिगण के तथा णिजन्त धातुओं के भाववाच्य, कर्मवाच्य में लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि हम जानते हैं कि चुरादिगण के धातुओं में णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद ही उनमें अन्य कोई भी प्रत्यय लगता है। चुर् + णिच् - चोरि / अचोरि + चिण् + त / चिणो लुक् से ‘त’ का लोप करके - अचोरि + इ / ‘णेरनिटि’ सूत्र से ‘णिच्’ का लोप करके - अचोर् + इ = अचोरि। इसी प्रकार अचोरि + इषाताम् - अचोरिषाताम् आदि। अचोरि अचोरिषाताम् अचोरिषत अचोरिष्ठा: अचोरिषाथाम् अचोरिढ्वम् अचोरिषि अचोरिष्वहि अचोरिष्महि भाववाच्य, कर्मवाच्य में लिट् लकार के रूप बनाने की विधि लिट् लकार में कर्तृवाच्य में जिस धातु का जैसा रूप बनता है, ठीक वही का वही रूप, कर्मवाच्य तथा भाववाच्य में भी बनेगा। केवल भावकर्मणोः सूत्र से प्रत्यय आत्मनेपदी ही लगाना पड़ेंगे। जैसे - भू - बभूवे आदि। जा