१० णिजन्त

समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि

तत्प्रयोजको हेतुश्च - जब एक कर्ता कोई काम करे, और दूसरा कर्ता उससे उस काम को करवाये, तब जो काम कराने वाला है, उसे प्रयोजक कर्ता कहा जाता है, तथा जिससे काम कराया जा रहा है, उसे प्रयोज्य कर्ता कहा जाता है। जैसे - गुरु: शिष्यं पाठयति - गुरु शिष्य को पढ़ाता है। इस वाक्य के भीतर, शिष्य: पठति, गुरु: प्रेरयति ये दो वाक्य हैं। यहाँ शिष्य पढ़ रहा है, अतः वह प्रयोज्य कर्ता है, तथा गुरु उसे पढ़ने के लिये प्रेरित कर रहा है, अतः वह प्रयोजक कर्ता है। इसी प्रकार देवदत्त: यज्ञदत्तं गमयति - देवदत्त यज्ञदत्त को भेजता है। इस वाक्य के भीतर, यज्ञदत्त: गच्छति, देवदत्त: प्रेरयति ये दो वाक्य हैं। __ यहाँ यज्ञदत्त जाने का काम कर रहा है, अतः वह प्रयोज्य कर्ता है तथा देवदत्त उसे जाने के लिये प्रेरित कर रहा है, अतः वह प्रयोजक कर्ता है। हेतुमति च - स्वतन्त्र कर्ता का प्रयोजक हेतु कहलाता है। उसका व्यापार है प्रेषण अर्थात् प्रेरित करना। उस प्रेषणादि व्यापार के वाच्य होने पर किसी भी गण के धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय लगता है। णिच् प्रत्यय लगने पर यह प्रेषण अर्थ अभिव्यक्त हो जाता है। तब उस धात का अर्थ उस ‘क्रिया को कराना या करवाना’ हो जाता है। यथा - पठ् का अर्थ है पढ़ना किन्तु इसमें यदि हम णिच् लगा दें तो पठ् + णिच् का अर्थ ‘पढ़ाना’ हो जायेगा।

  • इसी प्रकार गम् का अर्थ है जाना। यदि गम् में हम णिच् लगा दें, तो गम् + णिच् का अर्थ ‘भेजना’ हो जायेगा। __ खाद् का अर्थ है ‘खाना’। इसमें यदि णिच् लगा दें तो खाद् + णिच् का अर्थ हो जायेगा खिलाना’। __ अब हम देखें कि ‘पठ्’ तो धातुपाठ में पढ़ा गया है, अतः इसका नाम धातु है, किन्तु पठ् + णिच् तो धातुपाठ में पढ़ा नहीं गया है, तो फिर इसका नाम धातु कैसे होगा, और इससे किसी भी लकार के प्रत्यय कैसे लगेंगे ? सनाद्यन्ता धातवः - सन्, क्यच्, काम्यच्, क्यङ्, क्यष्, क्विप्, णिच्, ३९० अष्टाध्यायी सहजबोध . यङ्, यक्, आय, ईयङ्, णिङ्, ये १२ प्रत्यय जिससे भी लगते हैं, उस प्रत्यय के सहित उसका नाम धातु हो जाता है। तो पठ् + णिच् की, इस सूत्र से धातु संज्ञा हो जाती है, और इससे सभी लकारों के प्रत्यय लगाये जा सकते हैं। अत्यावश्यक - ध्यान दें कि णिच् प्रत्यय तीन प्रकार का होता है। १. प्रातिपदिकों से लगने वाला णिच् प्रत्यय - प्रातिपदिकाद् धात्वर्थे बहुलमिष्ठवच्च / तत्करोति तदाचष्टे / तेनातिक्रामति / कर्तृकरणाद् धात्वर्थे / आख्यानात्कृतस्तदाचष्टे कुल्लुक् प्रकृतिप्रत्ययापत्ति: प्रकृतिवच्च कारकम् / मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणव्रतवस्त्रहलकलकृततूस्तेभ्यो णिच् आदि से, जो णिच् प्रत्यय लगता है, यह णिच् प्रत्यय धातुओं से न लगकर प्रातिपदिकों से लगता है। यह णिच् प्रत्यय वस्तुत: तद्धित के इष्ठ प्रत्यय के समान होने के कारण तद्धित प्रत्यय होता है, जो कि इस पाठ में कहे जाने वाले णिच् प्रत्यय से सर्वथा भिन्न होता है। अतः इसकी प्रक्रिया आगे नामधातु पाठ में बतलाई जायेगी। २. चुरादिगण के धातुओं से लगने वाला णिच् प्रत्यय - सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच् - सत्याप, पाश, रूप, वीणा, तूल, श्लोक, सेना, लोम, त्वच्, वर्म, वर्ण, चूर्ण, इन प्रतिपदिकों से तथा ‘चुरादि गण के सारे धातुओं से किसी भी प्रत्यय को लगाने के पहिले, णिच् प्रत्यय अवश्य लगाया जाता है। इसके लगने से धातु के अर्थ में कोई भी वृद्धि नहीं होती। इसे ‘स्वार्थिक’ णिच् प्रत्यय कहते हैं। यह प्रथमखण्ड में चुरादिगण के रूप बनाते समय बतलाया जा चुका है। ३. प्रयोज्य प्रयोजक व्यापार वाच्य होने पर धातुओं से लगने वाला णिच् प्रत्यय - हेतुमति च - जब एक व्यक्ति काम करे और दूसरा व्यक्ति उससे काम करवाये तब उस प्रयोज्य प्रयोजक व्यापार के वाच्य होने पर. किसी भी धात से णिच् प्रत्यय लगाया जाता है। इसका नाम आर्धधातुक प्रत्यय होता है। यही आर्धधातुक णिच् प्रत्यय इस पाठ में बतलाया जा रहा है। प्रश्न उठता है कि चुरादिगण के धातुओं से स्वार्थिक णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद, जब प्रेरणार्थक णिच् प्रत्यय लगाया जायेगा, तब तो वहाँ दो दो णिच् प्रत्यय हो जायेंगे। तब क्या करेंगे? णेरनिटि - अनिडादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, णिच् प्रत्यय का लोप हो जाता है। अतः दो णिच् प्रत्यय होने पर इस सूत्र से पूर्व वाले णिच् प्रत्यय समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि Ud ३९१ का लोप कर देना चाहिये। यथा - चुर् + णिच् + णिच् / पूर्व वाले णिच् प्रत्यय का लोप करके - चुर् + इ = चोरि = चोरयति। अर्थात् एक णिच् प्रत्यय लगकर भी चुर् धातु से चोरयति’ बनेगा और दो णिच् प्रत्यय परे होने पर भी चोरयति’ ही बनेगा। अब हम धातुओं से णिच् प्रत्यय लगाकर उनके णिजन्त रूप बनायें। यह कार्य हम दो खण्डों में करें। ये खण्ड इस प्रकार हैं - १. अजन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि। २. हलन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि ।

१. अजन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि

अजन्त धातुओं को आकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, ऋकारान्त, ऋकारान्त आदि क्रम से अपनी दृष्टि के सामने रख लीजिये। अब इनमें हम क्रमशः णिच् प्रत्यय लगायेंगे और णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद उस णिजन्त धातु में लट् लकार के प्रत्यय लगायेंगे। णिच् प्रत्यय परे होने वाले कार्य - आकारान्त धातुओं में णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - अर्तिहीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ - ऋ धातु, ही धातु, ब्ली ६ तु री धातु, क्नूय् धातु, क्ष्मायी धातु तथा सभी आकारान्त धातुओं का पुक् को आगम होता है। णिच् में, ण, च् की इत्संज्ञा होकर ‘इ’ शेष बचता है। पुक् में उ, क्, की इत् संज्ञा करके प् शेष बचता है। दा + णिच् = दा + पुक् + इ - दापि धा + णिच् = धा + पुक् + इ - धापि .. एजन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - आदेच उपदेशेऽशिति - अशित् प्रत्यय परे होने पर सारे एजन्त (ए, ऐ, ओ, औ से अन्त होने वाले) धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है। जैसे - ग्लै - ग्ला, म्लै - म्ला, ध्यै - ध्या, शो - शा, सो - सा, वे - वा, छो - छा। अब देखिये कि ए, ऐ, ओ, औ से अन्त होने वाले धातु भी आकारान्त बन गये। अतः णिच् प्रत्यय परे होने पर इन्हें भी आकारान्त मानकर ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक (प) का आगम कीजिए - ध्यै - ध्या - ध्यापि / म्लै - म्ला - म्लापि अब णिच् लगे हुए इन धातुओं की अर्थात् दाप् + इ - दापि / धाप् + इ - धापि आदि, की ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातुसंज्ञा कीजिये।धातुसंज्ञा हो जाने से अब इसमें किसी भी लकार के प्रत्यय लगाये जा सकते हैं। अतः अभी ३९२ अष्टाध्यायी सहजबोध . Ep हम इनमें लट् लकार के प्रत्यय लगायें। ये प्रत्यय इस प्रकार हैं - लट् लकार परस्मैपद। लट् लकार आत्मनेपद .. एकवचन द्विवचन बहुवचन एकवचन द्विवचन बहुवचन प्र. पु. ति त: अन्ति ते इते अन्ते म. प. सिथः था इथे ध्वे मि वः मः . ए वहे महे णिचश्च - णिजन्त धातुओं से कर्तृगामी क्रियाफल होने पर आत्मनेपद और परगामी क्रियाफल होने पर परस्मैपद के प्रत्यय लगाये जाते हैं। कर्तरि शप् - कर्बर्थक सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, धातु से शप् विकरण होता है। देखिये कि लट् लकार के ति, त:, अन्ति आदि प्रत्यय कर्बर्थक अर्थात् कर्तृवाच्य के सार्वधातुक प्रत्यय हैं। अतः इनके परे होने पर दापि = इस धातु से ‘कर्तरि शप्’ इस सूत्र से शप् विकरण लगाइये। दापि + शप् + ति / शप् में, श्, प् की इत्संज्ञा होकर ‘अ’ शेष बचता है - दापि + अ + ति। अब सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से ‘इ’ को गुण करके ‘ए’ बनाइये - दापे + अ + ति / अब एचोऽयवायावः सत्र से इस ए को अयादेश करके अय् बनाइये। दापय् + अ + ति = दापयति । पूरे रूप इस प्रकार बने __ परस्मैपद आत्मनेपद दापयति दापयत: दापयन्ति दापयते दापयेते दापयन्ते दापयसि दापयथः दापयथ दापयसे दापयेथे दापयध्वे दापयामि दापयावः दापयामः दापये दापयावहे दापयामहे इसी प्रकार - धा से धापयति आदि बनाइये।। अत्यावश्यक - देखिये कि धातु + णिच् को जोड़ने के बाद, जो भी णिजन्त धातु बनेंगे, ये सदा इकारान्त ही होंगे। अतः आगे हम केवल धातु + णिच् को जोड़कर इकारान्त धातु’ बनाकर आपको देंगे। उसके बाद आप उसके रूप इसी विधि से बना लीजिये। कुछ आकारान्त धातुओं में पुगागम नहीं होता। वे इस प्रकार हैं - पुगागम के अपवाद - शो, छो, षो, हे, व्ये, वे, पा धातु - शाच्छासाहाव्यावेपां यूक् - शो - शा / छो - छा / सो - सा / हे - हा / व्ये - व्या / वे - वा / और पा इन सात आकारान्त धातुओं को पुक् (प्) का आगम न होकर युक् (य) का आगम होता है - शो - शा + युक् + णिच् - शायि = शाययति । समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ३९३ Eठ णिच + + छो - छा + युक् + णिच् = छायि = छाययति सो - सा + युक् + णिच् = सायि = साययति - हा + युक् + णिच् = हायि = पाययति व्यायि = व्याययति वे - वा + युक् + णिच् = वायि = वाययति पै शोषणे - पा + युक् + णिच् = पायि = पाययति पै पाने - पा + युक् + णिच् = पायि = पाययति पा रक्षणे धातु - लुगागमस्तु तस्य वक्तव्यः (वा.) - णिच् परे होने पर ‘पा रक्षणे’ धातु को लुक् का आगम होता है। पा - पा + लुक् + णिच् - पालि = पालयति। वा धातु - वो विधूनने जुक् - वा धातु का अर्थ यदि हवा झलना, कँपाना हो तो उसे जुक् का आगम होता है - वा - वा + जुक् + णिच् - वाजि = वाजयति । ला धातु - लीलोर्नुग्लुकावन्यतरस्यां स्नेहनिपातने - स्नेहनिपातन अर्थात् घी पिघलाना आदि अर्थ में, ला धातु को लुक् का आगम विकल्प से होता है। लुक् का आगम होने पर - ला - ला + लुक् + णिच् - लालि = लालयति । लुक् का आगम न होने पर अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - ला - ला + पुक् + णिच् - लापि = लापयति । ली धातु इकारान्त वर्ग में बतला रहे हैं। मित् आकारान्त धातु - ज्ञा, ग्ला, स्ना, श्रा धातु - ध्यान रहे कि ये धातु घटादि होने से मित् हैं। घटादयो मित: - धातुपाठ देखिये। इसमें ८७० से ९२७ तक धातुओं का घटादि अन्तर्गण है। घटादि अन्तर्गण के ये धातु मित् धातु कहलाते हैं। इन मित् धातुओं की उपधा के ‘अ’ को मितां ह्रस्वः सूत्र से ह्रस्व होता है - ज्ञा + णिच् = ज्ञाप् + इ - ज्ञापि - ह्रस्व करके ज्ञपि = ज्ञपयति ग्ला + णिच् = ग्लाप् + इ - ग्लापि - ह्रस्व करके ज्ञपि = ग्लपयति स्ना + णिच् = स्नाप् + इ - स्नापि- ह्रस्व करके ज्ञपि = स्नपयति इकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - इनके अन्तिम इ, ई को णिच् परे होने पर ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि . [[३९४]] करके ऐ बनाइये तथा एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश कीजिये - नी + णिच् - नै + इ - नाय् + इ - नायि = नाययति। इसके अपवाद - वी धातु - प्रजने वीयते: - इसका अर्थ यदि प्रजनन हो, तो इसे ‘आ’ अन्तादेश होता है। प्रजनन अर्थ में - इसे ‘आ’ आदेश कीजिये और आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - वी - वा + पुक् + णिच् - वापि = वापयति। प्रजनन अर्थ न होने पर - वी + णिच् / अचो णिति सूत्र से इ को वृद्धि करके - वै + इ / एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके - वाय् + इ - वायि = वाययति।। स्मि धातु - नित्यं स्मयते: - स्मि धातु के ‘इ’ को ‘आ’ अन्तादेश होता है। आकारान्त होने से ‘अर्तिह्रीब्ली. सूत्र से सूत्र से पुक् का आगम होता है। विस्मि + णिच् - वि + स्मा+ पुक् + णिच् - विस्मापि = विस्मापयते। क्री, जि, अधि + इ धातु - क्रीजीनां णौ - क्री, जि, अधि + इ धातु, इनके ‘इ’ को ‘आ’ अन्तादेश होता है। उसके बाद ‘अर्तिह्रीब्ली. सूत्र से सूत्र से पुक् का आगम होता है। क्री - क्रा + पुक् + णिच् - क्रापि = क्रापयति । जि - जा + पुक् + णिच् - जापि = जापयति । अधि + इ - अध्या + पुक् + णिच् - अध्यापि = अध्यापयति । चि धातु - चिस्फुरोर्णी - चि धातु तथा स्फुर् धातु के एच् के स्थान पर विकल्प से ‘आ’होता है। ‘आ’ आदेश होने पर - चि + णिच् / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - चै + इ / चिस्फुरो# सूत्र से ऐ के स्थान पर ‘आ’ आदेश करके - चा + इ / आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से इसे पुक् का आगम करके - चाप् + इ - चापि = चापयति। __ ‘आ’ आदेश न होने पर - चि + णिच् / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके चै + इ / एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश करके - चाय + इ = चायि = चाययति। ध्यान दीजिये कि ‘चि’ धातु दो हैं। एक स्वादिगण में तथा दूसरा चुरादिगण में। स्वादिगण के ‘चि’ धातु से चापयति, चाययति रूप बनता है। चुरादिगण का चि धातु ‘नान्ये मितोऽहेतौ’ इस गणसूत्र से मित् होता समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ३९५ है। अतः इसे मितां ह्रस्वः सूत्र से ह्रस्व करके चापि - चपि = चपयति / चायि - चयि = चययति रूप बनते हैं। स्फुर् धातु आगे बतलायेंगे। भी धातु - बिभेतेर्हेतुभये - भी धातु के अन्त को ‘आ’ आदेश होता है, यदि प्रयोजक कर्ता से भय हो तो।। भीस्म्योर्हेतुभये - प्रयोजक कर्ता से भय होने पर, भी धातु तथा स्मि धातु से आत्मनेपद होता है। भी धातु को ‘आ’ आदेश होने पर - इसे ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - भी - भा + णिच् + पुक् - भापि = भापयते। भी धातु को ‘आ’ आदेश न होने पर - भियो हेतुभये षुक् - जब कर्ता से भय हो, और आत्व न हो तब, ‘भी’ धातु को षुक् का आगम होता है। भी - भी + णिच् + षुक् - भीषि = भीषयते। अन्य किसी से भय होने पर - यदि कर्ता से भय न होकर अन्य किसी से भय हो, तब धातु के अन्त को न तो ‘आ’ होता है, न पुक् का आगम होता है, न ही षुक् का आगम होता है। तब भी + णिच् / अचो ञ्णिति सूत्र से वृद्धि करके भै + इ / एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश करके - भाय् + इ = भायि = भाययति बनता है। ‘कुञ्चिकया एनं भाययति’ में डराने वाले से भय नहीं है, अपितु कुञ्चिका से भय है। प्री धातु - धूप्रीमोनुग्वक्तव्यः (वा.) - प्री, धू धातुओं को नुक् का आगम होता है। प्री - प्री + नुक् + णिच् - प्रीणि = प्रीणयति। धू धातु उकारान्त वर्ग में बतला रहे हैं। ली धातु - लीलोर्नुग्लुकावन्यतरस्यां स्नेहनिपातने - ली धातु को घी पिघलाने अर्थ में विकल्प से नुक् का आगम होता है। नुक् का आगम होने पर ली - ली + नुक् + णिच् - लीनि = लीनयति विभाषा लीयते: - जब भी ‘ली’ धातु को गुण होकर ‘ए’ हो, तब उस ‘ए’ को विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है। नुक् का आगम न होने पर, विभाषा लीयते: से ‘आ’ अन्तादेश करके ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - ली - ला + पुक् + णिच् - लापि = लापयति । ३९६ अष्टाध्यायी सहजबोध । नुक का आगम न होने पर तथा ‘आ’ अन्तादेश न होने पर - अन्तिम ई को अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश कीजिये - ली + णिच् - लै + इ - लाय् + इ - लायि = लाययति। ही, ब्ली, री, धातु - इन्हें ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये तथा पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये - ही - ही + पुक् + णिच् - हेपि = रुपयति ब्ली - ब्ली + पुक् + णिच् - ब्लेपि = ब्लेपयति री - री + पुक् + णिच् - रेपि = रेपयति इण् तथा इक् धातु - णौ गमिरबोधने - अबोधन अर्थ वाले इण् धातु को गम् आदेश होता है - अबोधन अर्थ मे गम् आदेश होने पर - इण् + णिच् / गम् + णिच् - गमि = गमयति बोधन अर्थ में गम् आदेश न होने पर - बोधन अर्थ में प्रति उपसर्ग पूर्वक ‘इ’ धातु से णिच् लगाने पर - प्रति + इ + णिच् / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - प्रति + ऐ + णिच् / एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश करके - प्रति + आय् + इ / इको यणचि से यण् सन्धि करके - प्रत्याय् + इ - प्रत्यायि = प्रत्याययति। इण्वदिक: - इण् धातु के समान इक् धातु को भी गम् आदेश होता है - इक् + णिच् - गम् + णिच् - गमि = गमयति। उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - इनके अन्तिम उ, ऊ को णिच् परे होने पर अचो ञ्णिति सूत्र से वृद्धि करके औ बनाइये तथा एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश कीजिये - भू + णिच् - भौ + इ - भाव् + इ + भावि = भावयति लू + णिच् - लौ + इ - लाव् + इ + लावि = लावयति पू + णिच् - पौ + इ - पाव् + इ + पावि = पावयति द्रु + णिच् - द्रौ + इ - द्राव् + इ + द्रावि = द्रावयति इसके अपवाद - धू धातु - धूप्रीजोर्नुग्वक्तव्यः (वा.) - प्री, धू धातुओं को नुक् का आगम होता है। धू - धू + नुक् + णिच् - धूनि = धूनयति ऋकारान्त, ऋकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - for + + + समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ३९७ इनके अन्तिम ऋ, ऋ को अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके आर् बनाइये - कृ + णिच् - कार् + इ - कारि = कारयति हृ + णिच् - हार् + इ - हारि = हारयति तृ + णिच् - तार् + इ - तारि = तारयति इसके अपवाद - १. जागृ धातु - जाग्रोऽविचिण्णल्डित्सु - जहाँ वृद्धि प्राप्त हो, अथवा जहाँ गण वद्धि का निषेध प्राप्त हो. वहाँ जाग धात के अन्तिम ऋ को गण ही होता है। इससे जागृ धातु को गुण करके अर् बनाइये - जागृ + णिच् - जागर् + इ - जागरि = जागरयति । २. दृ, नृ, जृ धातु - इनके अन्तिम ऋ, ऋ को अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके आर् बनाइये। उसके बाद मितां ह्रस्वः सूत्र से उसे ह्रस्व कर दीजिये। दृ + णिच् - दार् + इ - दारि - दरि = दरयति नृ + णिच् - नार् + इ - नारि - नरि = नरयति जृ + णिच् - जार् + इ - जारि - जरि = जरयति ३. स्मृ धातु - जब इसका अर्थ आध्यान अर्थात् चिन्तन हो तब मितां ह्रस्वः सूत्र से इसे ह्रस्व कर दीजिये। यथा - स्मृ + णिच् - स्मार् + इ - स्मारि - स्मरि = स्मरयति चिन्तन अर्थ न होने पर, मितां ह्रस्वः सूत्र से इसे ह्रस्व मत कीजिये स्मृ + णिच् - स्मार् + इ - स्मारि - स्मारि = स्मारयति ४. ऋ धातु - इसे ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये तथा पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये - ऋ + णिच् - अर् + पुक् + णिच् - अर्पि = अर्पयति यह अजन्त धातुओं में णिच्’ लगाने का विचार पूर्ण हुआ।

२. हलन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि

पहिले हम अपवादों का विचार करके उनके रूप बना लें - णिच् प्रत्यय परे होने पर - १. स्फाय् धातु - स्फायो वः - स्फाय् धातु को स्फाव् आदेश होता है। स्फाय + णिच् - स्फावि = स्फावयति। २. शद् धातु - शदेरगतौ त: - शद् धातु को शत् आदेश होता है। शद् + णिच् - शाति = शातयति। ३. रुह् धातु - रुह: पोऽन्यतरस्याम् - रुह् धातु के ह को विकल्प से ३९८ अष्टाध्यायी सहजबोध .. ‘प्’ आदेश होता है। ‘प्’ आदेश न होने पर - रुह + णिच् - रोहि = रोहयति। ‘प्’ आदेश होने पर - रुह् + णिच् - रोपि = रोपयति बनाइये । ४. रध्, जभ् धातु - रधिजभोरचि - रध्, जभ् धातुओं को नुम् का आगम होता है। रध् + णिच् - रन्धि = रन्धयति / जभ् + णिच् - जम्भि = जम्भयति। ५. लभ् धातु - लभेश्च - लभ् धातु को नुम् का आगम होता है। लभ् + णिच् - लम्भि = लम्भयति। ६. जभ् धातु - रभेरशब्लिटोः - रभ् धातु को नुम् का आगम होता है। रभ् + णिच् - रम्भि = रम्भयति। ७. दुष् धातु - दोषो णौ / वा चित्तविरागे - दुष् धातु की उपधा को ‘ऊ’ आदेश होता है, चित्तविकार अर्थ होने पर । दुष् + णिच् - दूषि = दूषयति । चित्तविकार अर्थ न होने पर दुष् + णिच् / पुगन्तलघूपधस्य च से गुण करके - दोषि = दोषयति बनाइये। ८. सिध् धातु - सिध्यतेरपारलौकिके - सिध् धातु के ‘एच’ को पारलौकिक ज्ञान विशेष से भिन्न अर्थ में ‘आ’ आदेश होता है। भोजन बनाने या जाने अर्थ में - सिध् + णिच् - पुगन्तलघूपधस्य च से गुण करके - सेध् + इ / ए को ‘आ करके - साध् + इ - साधि = साधयति। तपस्या अर्थ में - सिध् + णिच् - पुगन्तलघूपधस्य च से गुण करके - सेध् + इ - सेधि = सेधयति । ९. स्फुर् धातु - चिस्फुरोर्णी - स्फुर् धातु के ‘एच्’ को विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है। ‘आ’ आदेश होने पर - स्फुर् + णिच् / पुगन्तलघूपधस्य च से गुण करके - स्फोर् + णिच् / एच् को ‘आ’ करके - स्फार् + णिच् - स्फारि = स्फारयति। ‘आ’ आदेश न होने पर - स्फुर + णिच् - स्फोरि = स्फोरयति। १०. क्नूय् धातु - ‘अर्तिह्रीब्ली. सूत्र से पुक् का आगम कीजिये तथा पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये - क्नूय् + णिच् - क्नोपि = क्नोपयति । ११. हन् धातु - ‘हो हन्तेर्णिन्नेषु’ सूत्र से हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व करके ‘घ’ बनाइये - हन् + णिच् - घन् + इ / अत उपधाया: सूत्र से ‘अ’ को वृद्धि करके - घान् + इ / समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ३९९ ‘हनस्तोऽचिण्णलोः’ सूत्र से न् को त् करके - घाति = घातयति बनाइये। १२. कृत् धातु - उपधायाश्च - उपधा के दीर्घ ऋ को ‘इ’ आदेश होता है, सभी प्रत्यय परे होने पर। यहाँ ऋ के स्थान पर ‘इ’ होना कहा गया है, अतः ‘इ’ के स्थान पर उरण रपर: से ‘इर्’ होगा - कृत् + णिच् - कित् + इ / तथा ‘उपधायाञ्च’ सूत्र से उसे दीर्घ होगा - कीत् + इ - कीर्ति = कीर्तयति। १३. अदन्त धातु - चुरादि गण में १८५१ (कथ) से लेकर १९४३ (तुत्थ) तक के धातु अदन्त धातु कहलाते हैं। इनके ‘अ’ का अतो लोप:’ सूत्र से लोप कीजिये। ‘अच: परस्मिन् पूर्वविधौ’ सूत्र से इस लुप्त ‘अ’ के स्थानिवद् हो जाने के कारण यहाँ ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि नहीं होती है। जैसे - कथ + णिच् - कथ् + इ - कथि = कथयति गुण + णिच् - गुण + इ - गुणि = गुणयति मृग + णिच् - मृग् + इ - मृगि = मृगयते १४. मित् धातु - घटादयो मित: - धातुपाठ देखिये। इसमें ८७० से ९२७ तक धातुओं का घटादि अन्तर्गण है। घटादि अन्तर्गण के ये धातु मित् धातु कहलाते हैं। इस घटादिगण के अदुपध धातु इस प्रकार हैं - चक् करु अग् कम् रग् लग् षग् ष्टग् ग् घट् णट् नट भट् गड् कण् चण् फण् रण शण् श्रण अत् क्रथ् क्लथ् प्रथ् व्यथ् श्रथ् श्लथ् म्रद् जन् वन् क्रप् त्वर् ज्वर् ज्वल हल् मल् क्नस् प्रस् __इन अदुपध धातुओं की उपधा के ‘अ’ को ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके, ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व कीजिये। जैसे - घट् + णिच् - घाट् + इ / उपधा को मितां ह्रस्वः सूत्र से पुनः ह्रस्व करके - घटि । घट + णिच् - घाट + इ - घाटि - ह्रस्व करके घटि = घटयति व्यथ् + णिच् - व्याथ् + इ - व्याथि - ह्रस्व करके व्यथि = व्यथयति प्रस् + णिच् - प्रास् + इ - प्रासि - ह्रस्व करके प्रसि = प्रसयति नान्ये मितोऽहेतौ - चुरादिगण के ज्ञप्, यम्, चह, रह, बल, चिञ्, ये धातु भी मित् कहलाते हैं। इनमें भी णिच् प्रत्यय लगने के बाद इन मित् धातुओं की उपधा के ‘अ’ को ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके, ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व कीजिये। [[४००]] + + + ज्ञप् + णिच् - ज्ञाप् + इ - ज्ञापि - ह्रस्व करके - ज्ञपि = ज्ञपयति यम् + णिच् - याम् + इ - यामि - ह्रस्व करके - यमि = यमयति चह + णिच - ‘चाह + इ - चाहि - हस्व करके - चहि = चहयति रह + णिच् - राह + इ - राहि - ह्रस्व करके - रहि = रहयति बल् + णिच् - बाल् + इ - बालि - ह्रस्व करके - बलि = बलयति ( चि धातु से चपयति, चययति बनते हैं, जिन्हें हम इकारान्त वर्ग में बतला चुके हैं।) अब कुछ ऐसे धातु बतला रहे हैं, जो सदा मित् नहीं होते, अपितु किसी अर्थ विशेष में ही मित् होते हैं, तथा दूसरे अर्थ में होने पर वे मित् नहीं होते। अर्थ विशेष में मित् होने वाले घटादि धातु ध्यान रहे कि मित् होने पर ही इनकी उपधा को ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व होता है। अन्यथा जो रूप ऊपर कही गई प्रक्रिया से बनता है, वही रहता मदी हर्षग्लेपनयोः - यह धातु दिवादिगण का है। हर्ष और ग्लेपन अर्थ में मित् होने पर इससे ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके मदयति तथा अन्य अर्थों में मादयति बनता है। ध्वन शब्दे - एक ध्वण धातु मूर्धन्यान्त पढ़ा गया है, तथा ज्वलादि में आने वाला एक ध्वन धातु दन्त्यान्त पढ़ा गया है। इन दोनों धातुओं का अर्थ जब शब्द करना होता है, तभी ये मित् होते हैं। तब ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके इनसे ध्वनयति ऐसा रूप बनता है अन्य अर्थों में ध्वानयति रूप बनता है। दलि, वलि, स्खलि, रणि, ध्वनि, त्रपि क्षपयश्चेति भोज: - भोज के मत में ये मित् हैं, अन्य के मत में नहीं, अतः भोज के मत में ‘अत उपधायाः’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके इनसे दलयति, वलयति, स्खलयति, रणयति, ध्वनयति, त्रपयति, क्षपयति, आदि रूप बनते हैं, तथा अन्य के मत में मित् न होने पर दालयति, वालयति, स्खालयति, राणयति, ध्वानयति, त्रापयति, क्षापयति रूप बनते हैं। __ जनी जृष् क्नसु, रजोऽमन्ताश्च - जनी जृष, कनसु, रज्, ये धातु तथा जिन धातुओं के अन्त में अम् हो, जैसे गम्, रम्, नम्, आदि धातु ,ऐसे सारे धातु मित् होते हैं। मित् होने पर इनसे जनयति, जरयति, क्नसयति, रञ्जयति, गमयति, रमयति, नमयति आदि रूप बनते हैं। समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ४०१ रञ्जी मृगरमणे नलोपो वक्तव्यः (वा.) -रज् धातु का अर्थ जब मृग को लुभाना हो, तो रज्ज् धातु के न् का लोप करके रजयति बनता है। जब रज्ज् धातु का अर्थ दूसरा होगा तो न् का लोप न होकर रञ्जयति बनता है। लिया न कमि अमि चमाम् - ये धातु अमन्त होने पर भी मित् नहीं होते हैं अतः इन्हें हूस्व नहीं होता। अतः ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके इनसे कामयति, आमयति, आचामयति रूप बनते हैं। स ग्ला, स्ना, वनु, वमां च - ये धातु मित् हैं अतः इन्हें ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व होकर ग्लपयति, स्नपयति, वनयति, वमयति रूप बनते हैं। _ ज्वल, ह्वल, मल्, नमामनुपसर्गाद्वा - ये धातु उपसर्ग रहित होने पर विकल्प से मित् होते हैं। इनसे ज्वलयति, ज्वालयति, ह्वलयति ह्वालयति, मलयति, हमालयति, नमयति, नामयति ऐसे दो दो रूप बनते हैं। शमो दर्शने - दिवादिगण का शम उपशमे धातु, दर्शन = देखना अर्थ में मित् नहीं होता। अतः वहाँ निशामयति रूप बनता है। उपशम अर्थ में मित् होता है, अतः वहाँ शमयति रूप बनता है। चुरादिगण के शम आलोचने को नान्ये मितोऽहेतौ से मित्व निषेघ होता है, अतः चुरादिगण के शम् से शामयते ही बनता है। स्खदिर् अवपरिभ्यां च - स्खदिर् धातु अव या परि उपसर्गों के साथ मित् नहीं होता तो वहाँ अवस्खादयति, परिस्खादयति बनेगा। किन्तु उपसर्गरहित होने पर स्खदयति ही बनेगा। नृ नये - यह धातु क्र्यादिगण का है। जब इसका ‘नय’ अर्थ होता है, तब इसका पाठ घटादिगण में होता है, तभी यह मित् होता है, अन्य अर्थों में यह मित् नहीं होता है, तो ‘नय’ अर्थ में ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके ‘नरयति’ बनेगा तथा अन्य अर्थों में नारयति बनेगा। दृ भये - यह धातु क्र्यादिगण का है। जब इसका ‘भय’ अर्थ होता है, तब इसका पाठ घटादिगण में होता है, तभी यह मित् होता है, अन्य अर्थों में यह मित् नहीं होता है, तो ‘भय’ अर्थ में ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके दरयति’ बनेगा तथा अन्य अर्थों में दारयति बनेगा। __श्रा पाके - एक श्रा धातु अदादिगण का है। एक भ्वादिगण के भै पाके धातु को भी आत्व होकर श्रा बन जाता है। जब इन दोनों धातुओं का अर्थ ‘पाक'४०२ ᳕ होता है, तब इनका पाठ घटादिगण में होता है, तभी ये मित् होते हैं, अन्य अर्थों में ये मित् नहीं होते हैं, तो ‘पाक’ अर्थ में ‘श्रपयति’ तथा अन्य अर्थों में श्रापयति बनेगा । ज्ञा मारणतोषणनिशामनेषु - एक ज्ञा अवबोधने धातु क्र्यादिगण का है तथा एक ज्ञा धातु चुरादिगण का है। जब इनका अर्थ मारण, तोषण, निशामन, होता है, तब इनका पाठ घटादिगण में होता है, तभी ये मित् होते हैं, अन्य अर्थों में ये मित् नहीं होते तो ‘मारण, तोषण, निशामन’ अर्थों में ‘ज्ञपयति’ बनेगा तथा अन्य अर्थों में ज्ञापयति’ रूप बनेगा। चलि कम्पने - यह धातु भ्वादिगण का है तथा एक चलि धातु चुरादिगण का भी है। जब इनका अर्थ ‘कम्पन’ होता है, जब इनका पाठ घटादिगण में होता है, तभी ये मित् होते हैं, अन्य अर्थों में ये मित् नहीं होते हैं। अतः ‘कम्पन’ अर्थ में ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वृद्धि करके, तथा मितां ह्रस्वः’ सूत्र से उसे पुनः ह्रस्व करके ‘चलयति’ तथा अन्य अर्थों में चालयति रूप बनेगा। लडि जिह्वोन्मथने - यह धातु भी भ्वादिगण तथा चुरादिगण में है। जब इसका अर्थ लड़ना होगा तभी यह मित् होगा। तब ‘अत उपधाया:’ सूत्र से वद्धि करके, तथा ‘मितां ह्रस्वः’ सत्र से उसे पन: ह्रस्व करके इसका.रूप बनेगा लडयति, अन्यत्र बनेगा लाडयति। छदिर् ऊर्जने - यह धातु चुरादिगण का है जब इसका अर्थ बलवान् बनाना, ऐसा होगा, तभी यह मित् होगा। तब इसका रूप बनेगा छदयति। जब इसका अर्थ ढाँकना ऐसा होगा, तब इसका रूप बनेगा - छादयति ।

  • यमोऽपरिवेषणे - यह यम् धातु भ्वादिगण का है। जब इसका अर्थ ‘परोसना’ ऐसा होगा, तभी यह मित् होगा। तब इसका रूप बनेगा ‘यमयति । अन्यत्र इसका रूप बनेगा आयामयति । वहाँ यह मित् नहीं होगा। अदुपध से बचे हुए शेष मित् धातुओं से वही रूप बनाइये, जो आगे कही हुई प्रक्रिया से बनेंगे। यथा - सृक् - सर्कयति / क्ष - क्षञ्जयति / कन्द् - कन्दयति / कन्द् - क्रन्दयति / क्लन्द् - क्लन्दयति / दक्ष् - दक्षयति / हेड् - हेडयति आदि। अब जो हलन्त धातु बचे हैं, उनके पाँच वर्ग बनाइये । अदुपध, इदुपध उदुपध ऋदुपध तथा शेष। इनमें इस प्रकार णिच् प्रत्यय लगाइये - १. अदुपध हलन्त धातु - अत उपधाया: - अदुपध धातुओं की उपधा के ‘अ’ को वृद्धि होती है समस्त धातुओं के णिजन्त रूप बनाने की विधि ४०३

जित् अथवा णित् प्रत्यय परे होने पर। अतः अदुपध धातुओं की उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके आ बनाइये। पठ् + णिच् = पाठ् + इ - पाठि = पाठयति वद् + णिच् = वाद् + इ - वादि = वादयति पत् + णिच् = पात् + इ - पाति = पातयति नट् + णिच्. = नाट् + इ - नाटि = नाटयति आदि। ( ध्यान रहे कि यदि ‘अदुपध धातु’ मित् नहीं हैं, तो उनकी उपधा को ‘मितां ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व नहीं होगा।) २. इदुपध हलन्त धातु - पुगन्तलघूपधस्य च - जिनकी उपधा में लघु इ, लघु उ, लघु ऋ हैं, ऐसे लघु इगुपध धातुओं की उपधा के ‘लघु इक्’ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण होता है। इस सूत्र से उपधा के ‘इ’ को ‘ए’ गुण करके - लिख + णिच् - लेख + इ = लेखि = लेखयति छिद् + णिच् - छेद् + इ = छेदि = छेदयति ३. उदुपध हलन्त धातु - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘उ’ को ‘ओ’ गुण करके - मुद् + णिच् - मोद् + इ = मोदि = मोदयति बुध् + णिच् - बोध् + इ = बोधि = बोधयति ४. ऋदपध हलन्त धातु - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘ऋ’ को ‘अर्’ गुण करके - वृष् + णिच् - वर्ष + इ = वर्षि = वर्षयति कृष् + णिच् - कर्ष + इ = कर्षि = कर्षयति ५. शेष हलन्त धातु - इनके अलावा जितने भी हलन्त धातु बचे उनमें बिना कुछ किये णिच् प्रत्यय जोड़ दीजिये - बुक्क् + णिच् - बुक्क् + इ = बुक्कि = बुक्कयति एध् + णिच् - एध् + इ = एधि = एधयति आदि। हमने सारे धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाकर, उनके लट् लकार के रूप बनाये। शेष लकारों में णिजन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि तत् तत् लकारों में दी गई है, उसे वहीं देखें और उसी विधि से णिजन्त धातुओं के अन्य सभी लकारों के रूप बना लें।