समस्त धातुओं के लिट् लकार के धातुरूप बनाने की विधि
__परोक्षे लिट् - परोक्ष का अर्थ होता है - अक्ष्ण: पर: । जो काल हमारी इन्द्रियों से न देखा गया हो, जैसे - रामो बभूव। राम हुए थे। ऐसे काल के लिये हमें लिट् लकार के प्रत्ययों का प्रयोग करना चाहिये।
लिट् लकार के प्रत्यय
_ परस्मैपद आत्मनेपद णल् (अ) अतुः उ: __ए आते इरे थल (थ) अथुः अ से आथे ध्वे णल् (अ) व म ए वहे महे लिट् च - लिट् लकार में लगने वाले सारे प्रत्यय आर्धधातुक होते हैं। अतः ये पूरे १८ प्रत्यय आर्धधातुक ही हैं, यह जानिये। जब भी कोई धातुरूप बनता है, तो उसमें अनेक कार्य होते हैं। जैसे - ब्रू धातु के लिट् लकार के रूप उवचिथ’ को देखिये। इसमें ‘ब्रू’ धातु को वच्’ आदेश हुआ है। इस कार्य का नाम धात्वादेश है। वच् धातु को जो ‘वच् वच्’ हुआ है, उसका नाम द्वित्व विधि है। उसके बाद पूर्व वाले अभ्यास के ‘च’ का जो लोप हुआ है, तथा व् को जो उ हुआ है, इसका नाम अभ्यासकार्य है। उवच् + थ के बीच में जो ‘इ’ आकर बैठा है इसका नाम इडागम है। वह धातु के लिट् लकार के रूप उवोढ’ को देखिये। इसमें वह धातु को जो वह वह हुआ है। उसका नाम द्वित्व विधि है। उसके बाद, पूर्व वाले अभ्यास के ‘ह्’ का जो लोप हुआ है, तथा ‘व’ को जो सम्प्रसारण होकर ‘उ’ हुआ है, इसका नाम अभ्यासकार्य है। उवोह + थ को मिलाकर जो उवोढ’ बना है, इसका नाम सन्धिकार्य है। लिलिख् + णल् - लिलेख में जो इकार को गुण हुआ है, इसका नाम [[२८०]] अङ्गकार्य है। लिलिख + अतुः - लिलिखतु: में जो इकार को गुण नहीं हुआ है, इसका नाम भी अङ्गकार्य है। इस प्रकार एक धातुरूप को बनाने का जो कार्य होता है, उसके अनेक खण्ड होते हैं। इन खण्डों को हमें अलग अलग ही सीखना चाहिये। पूरा धातुरूप एक साथ बना लेने का प्रयास नहीं करना चाहिये। लिट् लकार के धातुरूप बनाने के खण्ड, इस प्रकार होते हैं - १. धात्वादेश / २. द्वित्व विचार करके द्वित्व करना या न करना / ३. अभ्यासकार्य / ४. इडागम विचार / ५. प्रत्ययों का स्वरूप निर्धारण करके अङ्गकार्य करना / ६. सन्धिकार्य। इनका क्रमशः विचार करें -
१. धात्वादेश
लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर अस्, ब्रू, चक्ष्, अज्, अद्, इङ्, प्याय, श्वि, हेञ् तथा एजन्त धातुओं की आकृति इस प्रकार बदल दीजिये - अस्तेर्भूः - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है। आदेश का अर्थ होता है, जो शब्द बैठा है, उसके स्थान पर दूसरा शब्द लाकर बैठा देना। जैसे - अस् + लिट् लकार के प्रत्यय = भू + लिट् लकार के प्रत्यय। इसी प्रकार - ब्रुवो वचि: - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश होता है। ब्रू = वच् । वा लिटि - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर चक्ष् धातु को विकल्प से ख्याञ् होता है। ख्या आदेश होने पर - चक्ष् = ख्याञ् / ख्याञ् आदेश न होने पर - चक्ष् = चक्षु । अजेय॑घञपोः - घञ्, अप् के अलावा शेष सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अज् धातु को वी आदेश होता है। अज् = वी। लिट्यन्यतरस्याम् - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, अद् धातु को विकल्प से घस् आदेश होता है - घस् आदेश होने पर - अद् = घस् / घस् आदेश न होने पर - अद् = अद् । वेञो वयि: - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, वेञ् धातु को विकल्प समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २८१ से वय् आदेश होता है। वय् आदेश होने पर - वेञ् = वय् । वय् आदेश न होने पर आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से आकारादेश होकर - वेञ् = वा। गाङ् लिटि - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, इङ् धातु को गाङ् आदेश होता है। इङ् = गा। लिड्यङोश्च - लिट् लकार के प्रत्यय तथा यङ् प्रत्यय परे होने पर, प्याय् धातु को पी आदेश होता है। प्याय् = पी। विभाषा श्वे: - लिट् लकार के प्रत्यय तथा यङ् प्रत्यय परे होने पर शिव धातु को द्वित्व होने के पहिले ही विकल्प से सम्प्रसारण होता है। __श्वि - सम्प्रसारण होकर - शु / सम्प्रसारण न होने पर शिव ही रहेगा।
- अभ्यस्तस्य च - हेञ् धातु को द्वित्व होने के पहिले ही नित्य सम्प्रसारण होता है। हे - हु। आदेच उपदेशेऽशिति - शित् प्रत्यय परे न रहने पर, सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है। लिट् लकार के सारे प्रत्यय अशित् प्रत्यय हैं। अतः इनके परे होने पर सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है। जैसे - ग्लै = ग्ला / म्लै = म्ला / ध्यै = ध्या / शो = शा / सो = सा / वे = वा / छो = छा, आदि। इसके अपवाद - न व्यो लिटि - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर व्येञ् धातु को ‘आ’ अन्तादेश नहीं होता। व्ये - व्ये।। __इन धातुओं को इस प्रकार के आदेश (परिवर्तन) करके ही इनके लिट् लकार के रूप बनाइये। अस्, ब्रू, चक्ष्, अज्, अद्, इङ्, प्याय, शिव, हृञ् तथा एजन्त, धातुओं के अलावा शेष धातुओं को ज्यों को त्यों ही रहने दीजिये। उनमें किसी प्रकार का आदेश (परिवर्तन) मत कीजिये। किन धातुओं के रूप कैसे बनायें ? भू - बभूव / गम् - जगाम / पठ् - पपाठ / आदि रूपों को देखिये। इन्हें लिट् लकार के प्रत्ययों के लगने पर द्वित्व हुआ है। __ एध् - एधाञ्चक्रे, ऊह - ऊहाम्बभूवे, चुर् - चोरयामास, आदि रूपों को देखिये। इन धातुओं को लिट् लकार के प्रत्ययों के लगने पर भी द्वित्व नहीं हुआ है। अपितु इन धातुओं से, आम् प्रत्यय लग गया है, और उसके लगने के [[२८२]] बाद, इन आमन्त धातुओं से कृ, भू, अस् धातु लगाकर, उन कृ, भू, अस् धातुओं को द्वित्व करके, उन द्वित्व किये कृ, भू, अस् धातुओं से, लिट् लकार के प्रत्यय लगे __ अतः हमने जाना कि लिट् लकार के प्रत्ययों के लगने पर, सारे धातुओं को द्वित्व नहीं होता। कुछ को तो द्वित्व होता है तथा कुछ से आम् प्रत्यय लगने के बाद, उन धातुओं से कृ, भू, अस् धातुओं के लिट् लकार के प्रत्यय लगते हैं। हम पहले हम यह विचार कर लें, कि लिट् लकार के प्रत्ययों के लगने पर, किन किन धातुओं को द्वित्व होता है तथा किनसे आम् प्रत्यय लगने के बाद, उन धातुओं से कृ, भू, अस् धातुओं के लिट् लकार के रूप लगते हैं।
लिट् लकार में किन किन धातुओं को द्वित्व नहीं होता ?
इसके लिये हम पहले एकाच्, अनेकाच् धातुओं को पहिचानें - एकाच अनेकाच् धातु पहिचानने की विधि - ध्यान रखिये कि धातुओं के अनुबन्धों की इत् संज्ञा करने के बाद, जो धातु बचता है, उसमें यदि एक अच् हो, तो ही उसे एकाच धातु समझना चाहिये। जैसे - डुपचष् पाके यह धातु है। देखने में तो इसमें तीन अच् हैं, किन्तु इसमें ‘डु’, चकारोत्तर ‘अ’ तथा ‘ए’ की इत् संज्ञा होकर यह बचता है - ‘पच्’ । अब इसमें एक ही ‘अच्’ होने से यह एकाच् धातु है। इसी प्रकार वद्, पठ्, लिख्, खाद्, भुज्, आदि धातु, एकाच् धातु हैं। . धातुपाठ को देखने पर हम पाते हैं कि जागृ, ऊर्गु, दरिद्रा, चकास, दीधी तथा वेवी इन ६ धातुओं को छोड़कर भ्वादि से ज़्यादि गण के मध्य आने वाले सारे धातु एकाच् ही हैं, जैसे पठ्, लिख्, बुध् आदि। भ्वादि से ज़्यादिगण के मध्य आने वाले ये जो एकाच् धातु हैं, उनमें भी यदि सन्, यङ् आदि कोई भी प्रत्यय लग जाता है, तो उस प्रत्यय के मिल जाने के कारण, ये धातु भी अनेकाच् हो जाते हैं। जैसे - पठ् + सन् = पिपठिष / पठ् + णिच् = पाठि / पठ् + यङ् = पापठ्य आदि । देखिये, पठ् धातु तो एकाच् था, परन्तु यङ् प्रत्यय लगने पर, अब यह अनेकाच् हो गया है। . चुरादिगण के प्रत्येक धातु में स्वार्थिक णिच् प्रत्यय लगा रहता है। णिच् प्रत्यय लगा रहने के कारण, चुरादिगण के सारे धातु अनेकाच् ही होते हैं, यह जानना चाहिये। जैसे - चुर् + णिच् = चोरि, गण + णिच् = गणि, आदि। है समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २८३ अब हम विचार करें कि लिट् लकार में किन किन धातुओं को द्वित्व नहीं होता। इसके लिये सूत्र इस प्रकार हैं - १. कास्प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि / कास्यनेकाच आम् वक्तव्यः (वा) - लोक में अर्थात् भाषा में, लिट् परे होने पर, कास् धातु को, तथा जो भी अनेकाच् घातु हैं, जैसे - चकास, दीधी, वेवी, चुलुम्प, दरिद्रा, आदि उनको, तथा प्रत्यय लगाकर अनेकाच् बने हुए पाठि, पिपठिष, पापठ्य, आदि प्रत्ययान्त धातुओं को, लिट् परे होने पर, द्वित्व नहीं होता, अपितु इनसे आम् प्रत्यय लगता है। सूत्र में चूँकि ‘अमन्त्रे = वेद को छोड़कर’ कहा है, अतः वेद में इन्हें द्वित्व ही होता है, आम् प्रत्यय नहीं होता है। इसके अपवाद - ऊर्णोतेश्च प्रतिषेधो वक्तव्यः (वा.) - अनेकाच् धातुओं में ऊर्गु धातु को द्वित्व होता है, आम् प्रत्यय नहीं होता। प्रोणुनाव । २. इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छ: - ‘ऋच्छ्’ धातु को छोड़कर जितने भी इजादि गुरुमान् धातु हैं, उन्हें भी लिट् लकार के प्रत्ययों के परे होने पर, द्वित्व नहीं होता, अपितु उनसे आम् प्रत्यय लगता है। इजादि गुरुमान् धातु का अर्थ है - जिनके आदि में इच् अर्थात् ‘अ’ के अलावा कोई भी स्वर हो, तथा जिनमें गुरु वर्ण हो। __इजादि गुरुमान् धातु इस प्रकार हैं - एध् ओख एज् ईज् एल् ईट् ऊम् ओण् ईर्दा ईर्दा इन्व् ईक्ष् ईष् उच्छ् ईष् ईह् ऊह् उक्ष ऊष् एष ऊर्व ऊय् इन्द् इन्ख् ईन्ख् इङ्ग ऋज् उञ्छ् उह् ईर् ईड् ईश् ईङ् ऋम्फ् उम्भ उब्ज् उन्न् । इसके अपवाद - ऋच्छ् धातु भी इजादि गुरुमान् धातु है, किन्तु इससे आम् न होकर इसे द्वित्व ही होता है। ३. दयायासश्च - जो दय्, अय, आस् धातु हैं, इन्हें भी लिट् लकार के प्रत्ययों के परे होने पर द्वित्व नहीं होता, अपितु आम् प्रत्यय लगता है। ४. उषविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम् - जागृ धातु, उष् धातु, विद् धातु, से लिट् लकार के प्रत्ययों के परे होने पर, विकल्प से आम् प्रत्यय लगता है। जब आम् प्रत्यय नहीं लगता, तब द्वित्व होकर भी रूप बन सकते हैं - [[२८४]] जजागार, उवोष, विवेद। इन्हें बनाने की विधि इनके प्रसङ्ग में बतलायेंगे। ५. भीहीभृहुवां श्लुवच्च - भी, ह्री, भृ, हु धातुओं से लिट् लकार के प्रत्ययों के परे होने पर, विकल्प से श्लुवद्भाव होता है। अर्थात् वे सारे कार्य होते हैं जो श्लु प्रत्यय परे होने पर किये जाते हैं। अर्थात् इन्हें ‘श्लौ’ सूत्र से द्वित्व भी होता है तथा आम् प्रत्यय भी लगता है। जब आम् प्रत्यय नहीं लगता तब द्वित्व हो सकता है - बिभाय, जिह्वाय, बभार, जुहाव। इन्हें बनाने की विधि इनके प्रसङ्ग में बतलायेंगे। अभी तक हमने उन सारे धातुओं का विचार किया, जिनसे लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर उन्हें द्वित्व नहीं होता, अपितु उनसे आम् प्रत्यय लगाकर कृ, भू अथवा अस् धातु के लिट् लकार के बने बनाये रूप लगा दिये जाते हैं।
धातुओं में, आम् प्रत्यय कैसे लगायें ? अजन्त धातुओं में, आम् प्रत्यय लगाने की विधि
भी - बिभी + आम् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - बिभे + आम् / एचोऽयवायावः सूत्र से अयादेश करके - बिभ् + अय् + आम् = बिभयाम् । ह्री - जिह्री + आम् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - जिढे + आम् / एचोऽयवायावः सूत्र से अयादेश करके - जिह्व + अय् + आम् = जिह्वयाम्। भृ - बिभृ + आम् / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके बिभर् + आम् = बिभराम्। हु - जुहु + आम् / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - जुहो + आम्, एचोऽयवायावः सूत्र से अवादेश करके - जुहव् + अ + आम् = जुहवाम् । जागृ + आम् सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके जागर् + आम् = जागराम्। _णिजन्त धातु - चोरि + आम् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - चोरे + आम्, एचोऽयवायावः सूत्र से अयादेश करके चोरय् + आम् = चोरयाम् । गणि + आम् - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - गणे + आम्, एचोऽयवायावः सूत्र से अयादेश करके - गणय् + आम् = गणयाम्।
हलन्त धातुओं में आम् प्रत्यय लगाने की विधि
पुगन्तलघूपधस्य च - कित्, डित्, से भिन्न, सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा के लघु इक् को गुण होता है अर्थात् उपधा समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २८५ के लघु इ को ए / लघु उ को ओ / लघु ऋ को अर् / ऐसा गुण होता है। यथा - उष् + आम् = ओष् + आम् - ओषाम्।। इसके अपवाद - ‘उषविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम्’ सूत्र में अदन्त विद धातु होने के कारण इसे गुण नहीं होता - विद + आम् / ‘अतो लोप:’ सूत्र से ‘अ’ का लोप करके - विद् + आम् = विदाम्। जिनकी उपधा में लघु इक् न हो, ऐसे हलन्त धातुओं को भी कुछ नहीं होता - दय् + आम् = दयाम् . . एध् + आम् = एधाम् ऋङ्ग् + आम् ऋञ्जाम् आदि। आमः - आम् से परे ओने वाले लकारप्रत्यय का लुक होता है। यथा - चोरयाम् + लिट् = चोरयाम्। दयाम् + लिट् = दयाम्, आदि। कृञ्चानुप्रयुज्यते लिटि - जिन धातुओं से आम् प्रत्यय लगता है, उन धातुओं से आम् प्रत्यय लगने के बाद लिट्परक कृ, भू, अस् धातुओं का अनुप्रयोग होता है। __ अतः ध्यान रहे कि जिस भी धातु से हमने आम् प्रत्यय लगाया है, वह धातु जिस भी पद का है उसी पद के कृ, भू, अस्, धातु के लिट् लकार के रूप उन आमन्त धातुओं से लगा देना चाहिये। अभी हम कृ, भू या अस् धातुओं के लिट् लकार के बने बनाए रूप दे रहे है। इन्हें बनाने की विधि आगे यथास्थान बतलायेंगे। कृ धातु के लिट् लकार के रूप परस्मैपद ती आत्मनेपद चकार चक्रतुः चक्रुः चक्रे चक्राते चक्रिरे चकर्थ चक्रथुः चक्र चकृषे चक्राथे चकृढ्वे चकार, चकर चकृव चकृम चक्रे चकृवहे चकृमहे अस् धातु के लिट् लकार के रूप । परस्मैपद आत्मनेपद आस __ आसतुः आसुः आसे आसाते आसिरे आसिथ आसथः आस आसिषे आसाथे आसिध्वे आस आसिव आसिम आसे आसिवहे आसिमहे [[२८६]] बभूव भू धातु के लिट् लकार के रूप परस्मैपद आत्मनेपद बभूव बभूवतुः बभूवुः बभूवे बभूवाते बभूविरे बभूविथ बभूवथुः बभूव बभूविषे बभूवाथे बभूविध्वे बभूविव बभूविम बभूवे बभूविवहे बभूविमहे कृ धातु का अनुप्रयोग करके चुर् धातु के लिट् लकार के रूप - परस्मैपद चोरयाञ्चकार चोरयाञ्चक्रतुः चोरयाञ्चक्रुः चोरयाञ्चकर्थ चोरयाञ्चक्रथुः चोरयाञ्चक्र चोरयाञ्चकार / चोरयाञ्चकर चोरयाञ्चकृव चोरयाञ्चकृम आत्मनेपद चोरयाञ्चक्रे चोरयाञ्चक्राते चोरयाञ्चक्रिरे चोरयाञ्चकृषे चोरयाञ्चक्राथे __चोरयाञ्चकृढ्वे चोरयाञ्चक्रे चोरयाञ्चकृवहे चोरयाञ्चकृमहे भू धातु का अनुप्रयोग करके चुर् धातु के लिट् लकार के रूप - परस्मैपद चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूवतुः चोरयाम्बभूवुः चोरयाम्बभूविथ चोरयाम्बभूवथुः चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूव चोरयाम्बभूविव चोरयाम्बभूविम आत्मनेपद चोरयाम्बभूवे चोरयाम्बभूवाते चोरयाम्बभूविरे चोरयाम्बभूविषे चोरयाम्बभूवाथे चोरयाम्बभूविध्वे चोरयाम्बभूवे चोरयाम्बभूविवहे __ अस् धातु का अनुप्रयोग करके चुर् धातु के लिट् लकार के रूप - परस्मैपद चोरयामास चोरयामासतु: चोरयामासुः चोरयामासिथ चोरयामासथु: चोरयामास चोरयामास चोरयामासिव चोरयामासिम रियाम्बभूविमहे समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २८७ आत्मनेपद चोरयामासे चोरयामासाते चोरयामासिरे चोरयामासिषे चोरयामासाथे चोरयामासिध्वे चोरयामासे चोरयामासिवहे चोरयामासिमहे इसी प्रकार सारे आमन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाइये। अब हम उन धातुओं का विचार करें जिन्हें लिट् लकार में द्वित्व होता है ऊपर जिन धातुओं से आम् प्रत्यय कहा गया है उन धातुओं को छोड़कर जो भी धातु शेष बचे, उन सब धातुओं को लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर द्वित्व होता है। द्वित्व करने वाला सूत्र है - लिटि धातोरनभ्यासस्य - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, हलादि धातु के प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है तथा अजादि धातु के द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। __ ध्यान रहे कि जिन धातुओं से लिट् लकार में आम् प्रत्यय नहीं लगता, उन सारे धातुओं को ही आप इन सूत्रों से द्वित्व कीजिये तथा द्वित्व करके, आगे कहे जाने वाले अभ्यासकार्य कीजिये। अब हम धातुओं को द्वित्व करें - द्वित्व करने की विधि भी हम तीन हिस्सों में बतलायेंगे -
१. हलादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि
लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर हलादि धातुओं में से, वच्, स्वप्, यज्, वप्, वह, वस्, वद्, व्येञ् हेञ्, शिव, ग्रह, ज्या, वय् ,व्यध्, वश्, व्यच् व्रश्च्, भ्रस्ज्, प्रच्छ्, द्युत्, व्यथ्, इन २१ धातुओं को सम्प्रसारण होता है। अतः ये २१ धातु सम्प्रसारणी धातु कहलाते हैं। इन २१ सम्प्रसारणी धातुओं के द्वित्व तथा अभ्यासकार्य की विधि सबसे अन्त में बतलायेंगे। इन्हें अभी छोड़ दीजिये। अब इनसे बचे हुए वद्, पठ्, लिख्, खाद्, भुज्, आदि हलादि धातुओं को देखिये। इन हलादि धातुओं को द्वित्व करने की बतला रहे हैं। इन्हें ऊपर कहे हुए ‘लिटि धातोरनभ्यासस्य’ सूत्र से इस प्रकार पूरा [[२८८]] PF E FE नम् लिख खाद् । GAGal का पूरा द्वित्व कर कर दीजिये, अर्थात् एक धातु को दो बना दीजिये। यथा - को पठ् पठ् को वद् वद् गम् गम् नम् लुभ् लुभ् लिख् लिख को खाद् खाद् को मूष् मूष् को भुज् भुज् को ज्ञा को श्रि श्रि को द्रु द्रु को सु भू धातु के लिये विशेष विधि - . भुवो वुग्लुङ्लिटोः - भू धातु को वुक्’ का आगम होता है, लुङ् तथा लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर। भू + लिट् लकार के प्रत्यय / ‘वुक्’ का आगम होकर - भूव् + लिट लकार के प्रत्यय। ‘वुक्’ का आगम करने के बाद इसे द्वित्व करके - भूव् को भूत् भूव् एजन्त धातुओं के लिये विशेष विधि - एजन्त हलादि धातुओं में से व्येञ् तथा वेञ् धातु सम्प्रसारणी धातु हैं, इनकी विधि आगे बतला रहे हैं। अतः इन दो को छोड़कर शेष एजन्त धातुओं को ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से पहिले आत्व करके, तब द्वित्व कीजिये -
- ग्ला को गा ग्ला __- म्ला को मा म्ला __- ध्या को ध्या ध्या
- शा को शा शा B . समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २८९ सो - सा को सा सा आदि। पूर्वोऽभ्यास: - इस द्वित्व प्रकरण में जब भी जिस भी धातु को द्वित्व होता है, उसमें पूर्व वाले धातु का नाम अभ्यास होता है। यथा - नम् धातु को जब हमने नम् नम् बना दिया, तब पहिले वाले ‘नम्’ का नाम होगा अभ्यास। इसी प्रकार गम् - गम् गम् में पूर्व वाला गम् / लुभ् - लुभ् लुभ में पूर्व वाला लुभ् / श्रि - श्रि श्रि में पूर्व वाला श्रि, अभ्यास हैं यह जानिये। द्वित्व करने के बाद हमें इस प्रकार अभ्यासकार्य करना चाहिये -
अभ्यासकार्य
१. हलादि: शेष: - अभ्यास में जो हल् आदि में है, वह आदि हल् शेष रहता है, तथा जो हल आदि में नहीं हैं, उन हलों का लोप हो जाता है। __अब अभ्यास के धातुओं को देखिये, इनमें जो पहिला हल् तथा पहिला अच् है उसे बचा लीजिये, शेष का लोप कर दीजिये। जैसे - पठ् पठ् को देखिये, इसमें पूर्व वाला पठ् अभ्यास है, इस अभ्यास में पहिला हल् प् है तथा पहिला अच् अ है, इन्हें मिलाकर बना ‘प’। इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - पपठ् । ‘हलादि: शेष:’ सूत्र से, आदि हल् के अलावा, अन्य हलों का लोप कर देना अभ्यासकार्य है। __ज्ञा ज्ञा को देखिये, इसमें पूर्व वाला ‘ज्ञा’ अभ्यास है। इस अभ्यास में पहिला हल् ‘ज्’ है तथा पहिला अच् ‘आ’ है, इन्हें मिलाकर बना ‘जा’। इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - जाज्ञा। _अब कुछ धातुओं को द्वित्व करके, अभ्यास के ‘पहिले हल् + पहिले अच्’ को बचाकर शेष का लोप करके देखिये - पठ पठ् पठ् प पठ् वद् वद् लिख लिख खाद् खाद् खा खाद् मूष् मूष् मू मूष् भुज् भुज् भु भुज् भूष् भूष् कार को मील् मील वद् व वद् लि लिख् लिख खाद् 5242622 भू भूष् मी मील ᳕ F AFFACE _ts ke) fue من عن ) को नी नी नी नी भूव् भूव् भू भूव् ज्ञा ज्ञा जा ज्ञा श्रि श्रि शि श्रि को द्रु द्रु को त्रु त्रु हलादि: शेष: के अपवाद - शर्पूर्वा: खय: - अभ्यास में शर् पूर्वक खय् शेष बचते है और अन्य हलों का लोप हो जाता है। अतः यदि ऐसे हलादि धातु हों जिनके आदि में शर् अर्थात् स्, श्, ए हों तथा उन स्, श्, के बाद खय् अर्थात् किसी भी वर्ग का प्रथम या द्वितीय अक्षर हो, जैसे स्था, स्फुल्, स्तुभ्, स्तम्भ, स्पर्ध, स्पृश्, श्च्युत् आदि में है, तब इन धातुओं के अभ्यासों में से, द्वितीय हल् तथा प्रथम अच् को मिलाकर जो भी अक्षर बने उसे बचा लीजिये, और शेष का लोप कर दीजिये। इसे करके देखिये - स्पर्ध - स्प: स्पर्ध को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में पवर्ग का प्रथम अक्षर प् है। अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् ‘प्’ तथा प्रथम अच् ‘अ’, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘प’ को बचा लीजिये। और शेष का शर्वा: खय: से लोप कर दीजिये - स्पर्ध - स्पर्ध स्पर्ध को पस्पर्ध । स्था - स्था स्था को देखिये । यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का द्वितीय अक्षर थ् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् थ् तथा प्रथम अच् आ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘था’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वा: खय: से लोप कर दीजिये - स्था - स्था स्था को थास्था। स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को देखिये । यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का प्रथम अक्षर त् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् त् तथा प्रथम अच अ. इन दोनों को मिलाकर बने हए ‘त’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वा: खय: से लोप कर दीजिये - स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को तस्तम्भ् । स्फुल् स्फुल् को देखिये। इसमें अभ्यास के द्वितीय हल् त् तथा प्रथम अच् अ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘त’ को बचा लीजिये। शेष का शपूर्वा: खय: से लोप करके - स्फुल् स्फुल् = पुस्फुल्।। श्च्युत् को देखिये । यहाँ अभ्यास के आदि में श् है, उस श् के बाद में समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २९१ स्फुट फु स्फुट स्तु स्थल स्थुड् फु स्फुल् चवर्ग का प्रथम अक्षर च है। अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् च् तथा प्रथम अच् उ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘चु’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वा: खय: से लोप कर दीजिये - श्च्युत् को चुश्च्युत्। जिनमें स्, श्, या ष् के बाद, किसी भी वर्ग का प्रथम या द्वितीय अक्षर हो, ऐसे धातु इस प्रकार हैं - स्पर्ध - प स्पर्ध स्कुन्द् कु स्कुन्द् स्पन्द् - प स्पन्द् स्तुच् तु स्तुच् स्फूर्ख - फू स्फू स्तम्भ - त स्तम्भ स्कम्भ क स्कम्भ तु स्तुभ् स्खद् ख स्खद् स्खल ख स्खल् थ स्थल स्पश् प स्पश् स्कन्द् क स्कन्द् स्तिघ् ति स्तिम् थु स्थुड् फु स्फुर् स्फुल् फु स्फुड् स्फुड् फु स्फुड् फि स्फिट् स्तन् त स्तन् कु स्कु तृ स्तु तु स्तु ष्ठिव् - ठि ष्ठिव् स्ता - ता स्ता स्था - था स्था स्त्या - ता स्त्या। २. उरत् - अभ्यास के अन्त में आने वाले, ऋ, ऋ, को ‘अ’ होता है। यह ‘अ’ उरण रपर: सूत्र की सहायता से ‘अर्’ हो जाता है। देखिये कि यदि किसी अभ्यास के अन्त में ऋ, ऋ, हों, जैसे - कृ - कृ कृ में है, तो ऐसे अभ्यासों के अन्तिम ऋ ,ऋ को इस सूत्र से अर् बनाइये और हलादि: शेष: सूत्र से ‘र’ का लोप कर दीजिये। यथा -
- ह ह - हर् ह - ह ह कृ - कृ कृ - कर् कृ - भृ - भृ भृ - भर् भृ - __ तर् तृ स्फुर् स्फूड स्फिट्ट स्तुप तु स्तुप् सम [[२९२]] यदि हलादि: शेष:’ सूत्र से अभ्यास के हलों का लोप करने के बाद किसी अभ्यास के अन्त में ऋ, ऋ, आ गये हों, जैसे - वृत् - वृत् वृत् - वृ वृत् में है / तो ऐसे अभ्यासों के अन्तिम ऋ ,ऋ को भी इसी सूत्र से अर् बनाइये और हलादि: शेष: सूत्र से ‘र’ का लोप कर दीजिये। यथा - वृष् - वृष् वृष् - वृ वृष् - वर् वृष् - व वृष् कृष् - कृष् कृष् - कृ कृष् - कर् कृष् - क कृष् हृष् - हृष् हृष् - ह हृष् - हर् हृष् - ह हृष् वृत् - वृत् वृत् - वृ वृत् - वर् वृत् - व वृत् ३. ह्रस्वः - अभ्यास के दीर्घ स्वर को ह्रस्व होता है। जैसे - खाद् - खा खाद् में पूर्व वाले ‘खा’ का नाम अभ्यास है, उसे ह्रस्व होकर ख खाद् बन जायेगा। इसी प्रकार मी मील् को मि मील् / भू भूष को भु भूष् / भू भूव को भु भूव् आदि बनाइये। ह्रस्व इस प्रकार होते हैं - आ का ह्रस्व अ - यथा - खा खाद् - ख खाद् ई का ह्रस्व इ - यथा - नी नी - नि नी ऊ का ह्रस्व उ - यथा - भू भूव - भु भूत् ए का हस्व यथा - से सेव् __- सि सेव् ओ का हस्व उ - यथा - गो गोष्ट - गु गोष्ट औ का हस्व उ - यथा - ढौ ढौक - द ढौक ४. कुहोश्चुः - अभ्यास के कवर्ग और हकार के स्थान पर चवर्ग आदेश होता है। __अतः अब अभ्यास को देखिये। उसमें स्थित कवर्ग के वर्ण को आप चवर्ग का वर्ण बना दीजिये। ध्यान रहे कि वर्ण का क्रमाक वही रहे - जैसे क को च, ख को छ, ग को ज, घ को झ। यदि अभ्यास में ह हो तो उस ह को ज बना दीजिये। इसे ‘चुत्व’ करना कहते हैं। यथा - कृ कृ कृ क कृ खन् खन् खन् ख खन् छ खन् गम् गम् गम् ग गम् ज गम् घृ घृ घृ घर् घृ porn च कृ 되 ह ro hed समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २९३ हस् हस् हस् ह हस् ज हस् हन् हन् हन् ह हन् ज हन् ग्रह ग्रह ग्रह ग ग्रह ज ग्रह अभ्यासाच्च - अभ्यास से परे जो हन् धातु का हकार, उसे कवर्गादेश होकर घ् हो जाता है। जैसे - हन् - जहन् - जघन् । ५. अभ्यासे चर्च - अभ्यास के झश् को जश् तथा खय् को चर् होता फ फल् अतः यदि अभ्यास में वर्ग का चतुर्थाक्षर हो, तो उसे उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बना दीजिये, इसे जश्त्व करना कहते हैं, तथा यदि अभ्यास में वर्ग का द्वितीयाक्षर है तो उसे उसी वर्ग का प्रथमाक्षर बनाइये । इसे चर्व करना कहते हैं। उदाहरण चर्व जश्त्व थु थुड् तुथुड् भ भ्रज्ज् ब भ्रज्ज् छ खन् च खन् झ झर्ट्स ज झर्ड्स प फल् दु ढौक् डु ढौक् फ फण् __प फण भु भूत् बु भूव् आदि। भवतेर: - भू धातु के अभ्यास के ‘उ’ को ‘अ’ होता है। यथा - बुभूव् - बभूव् । हमने देखा कि अभ्यास में रहने वाले कवर्ग के सारे व्यञ्जनों में तथा अन्य वर्गों के केवल दूसरे, चौथे व्यञ्जनों में, तथा हकार में ही, ये ऊपर कहे हुए परिवर्तन होते हैं। यदि अभ्यास में दूसरे, चौथे व्यञ्जनों, कवर्ग और हकार के अलावा कोई भी व्यञ्जन हैं, तब आप उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - चल - च चल च चल ज जप् ज जप् टि टीक टि टीक डि डी डि डी त तृ द दल द दल न नम् न नम् जप् टीक |FFER प पत् प पत् ब बाध् ब बाध् [[२९४]] व वृध् लप् मि मील मि मील य यम् य यम् व वृध् र रम् ल लप् ल लप् शास् श शास् श शास् स सृ स स जिस अभ्यास के हलों में परिवर्तन होता है, उन अभ्यासों को सादेश अभ्यास कहा जाता है। जिस अभ्यास के हलों में कोई परिवर्तन नहीं होता, उन अभ्यासों को अनादेश अभ्यास कहा जाता है। यह हलादि धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विधि पूर्ण हुई।
२. अजादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि
एकाच् धातुओं में जो धातु अच् से शुरू हो रहे हैं जैसे इष्, उखु, अर्च्, अस्, अज्, अङ्ग्, अञ्च्, ऋच्छ् आदि, इन्हें पूर्ववत् लिटि धातोरनभ्यासस्य सूत्र से ही द्वित्व कीजिये। द्वित्व करने के बाद हलादि: शेष:’ सूत्र से इनके सारे हलों का लोप करके, इनमें केवल प्रथम अच् को ही बचाइये। यथा - इष् इष् इष् इ इष् उखु उखु उखु उ उख ऋ ऋ ऋ को ऋ ऋ ऋच्छ ऋच्छ ऋच्छ ऋ ऋच्छ अर्च् अर्च् अर्च् अ अर्छ अत् अत् अत् अ अत् अट् . अट अट अ अट अङ्ग् अङ्ग् अज् अ अञ् अश् अश् को अ अश् हम पढ़ चुके हैं कि अभ्यास के अन्त में यदि ‘ऋ’ हो तो उरत्’ सूत्र से अभ्यास के अन्तिम ऋ, ऋ को अर् बनाइये तथा बाद में हलादि: शेष:’ सूत्र से र् का लोप करके अर् को ‘अ’ बनाइये। 666666666 अश् समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २९५ अ अज् ऋच्छ को ऋ ऋच्छ् अ ऋच्छ् ऋ को ऋ ऋ __ अ ऋ बना दीजिये।
अभ्यास के आदि ‘अं को दीर्घ करना -
अत आदे: - धातु को द्वित्वादि करने के बाद, यदि अभ्यास के आदि में ‘अ’ दिखे तो उसको दीर्घ कर दीजिये, चाहे वह अकारादि धातु का ‘अ’ हो, चाहे वह ऋकारादि धातु के अभ्यास का उरत् से बना हुआ ‘अ’ हो, यथा - अत् को अ अत् आ अत् अट को अ अट् आ अट्, अर्च् को अ अर्च् आ अनु अङ्ग् को आ अज् अङ्ग को अ अङ्ग आ आङ्ग ऋकारादि धातु के अभ्यास के आदि में भी ‘अ’ ही होता है, अतः उसे भी दीर्घ कीजिये - ऋच्छ को ऋ ऋच्छ अ ऋच्छ आ ऋच्छ __ को ऋ ऋ अ ऋ आ ऋ
दीर्घ किये हुए अभ्यास के ‘आ’ के बाद वाले द्विहल धातु को नुट् का आगम करना -
तस्मान्नुड् द्विहल: - अब दीर्घ करने के बाद देखिये कि अभ्यास के दीर्घ बनाये हुए ‘आ’ के बाद जिस धातु में दो हल् हों, उस धातु को नुट का आगम कर दीजिये। देखिये कि आ अर्च, आ अञ्ज, आ अङ्ग, आ ऋच्छ, आदि में दीर्घ बनाये हुए ‘आ’ के बाद दो हल् वाले धातु हैं। इस दो हल् वाले धातु को नुट का आगम कर दीजिये। नुट में ‘उ’ ‘ट’ की इत् संज्ञा करके ‘न्’ शेष बचाइये। यथा - अर्च् अ अर्च् आ अर्च् आ + न् + अर्च् = आनई अज् अ अ आ अज् आ + न् + अ = आनऊ अङग् अ अङ्ग् आ आङ्ग् आ + न् + अङ्ग् = आनङ्ग् ऋच्छ् ऋ ऋच्छ् आ ऋच्छ आ + न् + ऋच्छ् = आनृच्छ् विशेष - ऋ - ऋ ऋ - आ ऋ में, अभ्यास के दीर्घ बनाये हुए ‘आ’ के बाद दो अच् नहीं हैं, अतः इसे नुट का आगम नहीं होगा। यह ऐसा ही रहेगा। ऋ [[२९६]] __ अश्नोतेश्च - अश् धातु में दो हल नहीं हैं, तब भी इस धातु को नुट का आगम होता है। यथा - अश् अ अश् आ अश् आ + न् + अश् = आनश् नुड्विधौ ऋकारैकदेशो रेफो हल्त्वेन गृह्यते - यद्यपि ‘ऋ’ अच् है, तथापि इसमें एक ‘र’ की ध्वनि मिली हुई है। नुट करते समय इस ‘र’ को हम हल् मान लेते हैं और ऐसे ऋकारघटित अजादि धातुओं को द्विहल मानकर, इन्हें भी नुट का आगम करते हैं। जैसे - ऋज् - द्वित्व होकर - ऋज् ऋज् / हलादि: शेष: होकर - ऋ ऋज् / उरत् होकर - अर् ऋज् / पुनः हलादि: शेष: होकर - अ ऋज् / अत आदे: से अभ्यास के ‘अ’ को दीर्घ होकर - आ ऋज / ऋकारघटित होने के कारण इसे द्विहल् मानकर, नुट का आगम करके - आ न् ऋज् = आनृज् । इसी प्रकार ऋफ से आनृफ् / ऋध् से आनृध् / ऋत् से आनृत् आदि बनाइये। ऊर्ण धातु को द्वित्व करने की विधि - अजादेर्द्वितीयस्य - अनेकाच् अजादि धातु के द्वितीय अवयव एकाच को द्वित्व होता है। ऊर्ण धातु को देखिये । यह अजादि अनेकाच् धातु है। इसका द्वितीय अवयव एकाच है ‘णु’ । यह वास्तव में ‘नु’ ही है, जो कि र् से परे होने के कारण रषाभ्यां नो ण: सूत्र से णत्व होकर णु बन गया है। इसको द्वित्व होकर बनेगा ‘ऊर्णनु’ । जब भी धातु को द्वित्व होगा तब अभ्यास को इतने कार्य तो होंगे ही। अतः ये सामान्य कार्य हैं, इन्हें कण्ठस्थ करके ही आगे बढ़िये।
३. सम्प्रसारणी धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विधि
इसके लिये पहिले सम्प्रसारण जानें - इग्यण: सम्प्रसारणम् - य, व, र, ल् को इ, उ, ऋ, ल हो जाना सम्प्रसारण होना कहलाता है। जैसे - यज् - इज् / वच् - उच् / व्रश्च् - वृश्च् / आदि। यहाँ यह जानना चाहिये कि - न सम्प्रसारणे सम्प्रसारणम् - जिन धातुओं में य, व, र, ल में से दो वर्ण हों, जैसे व्यथ्, व्रश्च् आदि में हैं, वहाँ जो बाद में हो, उसको ही सम्प्रसारण समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २९७ करना चाहिये, पूर्व वाले को नहीं। अर्थात् व्रश्च में र् को और व्यथ् में य को सम्प्रसारण होता है, व् को नहीं। लिटि वयो य: - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर वय् धातु के ‘य’ को सम्प्रसारण न होकर उ’ को ही सम्प्रसारण होता है। वय् - उय् । सम्प्रसारणाच्च - जब भी य् व् र् ल् को इ, उ, ऋ, लु यह सम्प्रसारण होता है, तब सम्प्रसारण के बाद में जो भी वर्ण होता है, उसको पूर्वरूप होता है। पूर्वरूप - पूर्वरूप का अर्थ होता है पूर्व के वर्ण में मिल जाना। जैसे - वप् में तीन वर्ण हैं व् अ प्। इनमें से व् को सम्प्रसारण करके जब हम उ बनाते हैं तब - उ अ प् यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण उ है, उसके बाद जो ‘अ’ है. उस ‘अ’ को इस सत्र से पर्वरूप होकर बनता है - उप । व्यच् में चार वर्ण हैं व् य अ च । इनमें से य् को सम्प्रसारण करके जब हम इ बनाते हैं तब - व् इ अ च् यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण ‘इ’ है, उसके बाद जो ‘अ’ है, उस अ को पूर्वरूप होकर बनता है - व् इ च = विच् । स्वप् में चार वर्ण हैं स व अप। इनमें से व को सम्प्रसारण करके जब हम ‘उ’ बनाते हैं तब - स् उ अ प यह बनता है। यहाँ सम्प्रसारण उ है, उसके बाद जो अ है उस अ को इस सूत्र से पूर्वरूप होकर बनता है - स् उ प् = सुप् । हम सम्प्रसारण करना सीख चुके हैं। अब हम सम्प्रसारणी धातुओं को द्वित्व करें। सम्प्रसारणी धातु - वच्, स्वप् तथा यज्, वप्, वह, वस्, वद्, वेञ्, हेञ्, श्वि, व्यञ्, ये ११ धातु ‘वच्यादि धातु’ कहलाते हैं। ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ, भ्रस्ज्, ये ९ धातु ‘ग्रह्यादि धातु’ कहलाते हैं। ये वच्यादि तथा ग्रह्यादि धातु सम्प्रसारणी हैं। अब हम इन वच्यादि तथा ग्रह्यादि धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विधि जानें। इन धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विधि जानने के लिये पहिले लिट् लकार के प्रत्ययों को देखिये । ये प्रत्यय इस प्रकार हैं - परस्मैपद आत्मनेपद णल् (अ) अतु: उ: आते इरे थल् (थ) अथुः अ आथे ध्वे णल् (अ) व म वहे महे E to E [[२९८]] अब इन प्रत्ययों के दो वर्ग बनाइये। १. णल्, थल, णल् प्रत्यय २. शेष १५ प्रत्यय णल, थल, णल् प्रत्यय परे होने पर, सम्प्रसारणी धातुओं को द्वित्वाभ्यासकार्य करने की विधि लिट् लकार के णल, थल, णल् प्रत्यय परे होने पर, वच्यादि तथा ग्रह्यादि धातुओं को पहिले ‘लिटि धातोरनभ्यासस्य’ सूत्र से द्वित्व कीजिये - - जैसे - वच् - वच् वच् / स्वप् - स्वप् स्वप् / यज् - यज् यज् / वप् - वप् वप् / व्रश्च् - व्रश्च् व्रश्च् आदि। लिट्यभ्यासस्योभयेषाम् - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, वच्यादि तथा ग्रह्यादि धातुओं के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। यथा - वच् वच् - उच् वच् / स्वप् स्वप् - सुप् स्वप् / यज् यज् - इज् यज् / वप् वप् - उप् वप् / वश्च - वृश्च् व्रश्च् आदि। __ सम्प्रसारण करने के बाद ही हलादि: शेष:’ सूत्र से अभ्यास के अनादि हलों का लोप कीजिये। उच् वच् - उवच् / सुप् स्वप् - सुष्वप् / इज् यज् - इयज् / उप वप् - उवप् / वृश्च् व्रश्च् - वृ वश्च आदि। इन धातुओं को द्वित्व, सम्प्रसारण तथा अभ्यासकार्य इस प्रकार हुए - धातु धातु को अभ्यास को हलादि: शेष: सूत्र से द्वित्व सम्प्रसारण अभ्यास के अनादि करके करके हलों का लोप करके वच वच् वच् उच् वच् स्वप् स्वप् स्वप् सुप् स्वप् सुष्वप् यज् यज् इज् यज् इयज् वप् वप् उप् वप् उवप् वह वह उह् वह् उवह वस् वस् उस् वस् व्यध् व्य विध् व्यध् विव्यध ज्या ज्या ज्या जि ज्या जिज्या व्येञ् व्ये व्ये वि व्ये वद वद् वद् उद् वद् उवद् उवच उवस् व्यध् विव्ये समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि २९९ व्यच व्यच् व्यच् विच् व्यच् । विव्यच वश् वश् वश् उश् वश् उवश् वय् धातु - ध्यान रहे कि वस्तुत: वय कोई धातु नहीं है। लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, वजो वयिः’ सूत्र से वेञ् धातु को ही विकल्प से वय आदेश हो जाता है। वय् - द्वित्व करके - वय् वय् / अभ्यास को सम्प्रसारण करके - उय् वय / हलादि: शेष: करके - उवय् । जब इसे वय् आदेश नहीं होता, तब इसे वञः’ सूत्र से सम्प्रसारण नहीं होता है, तब ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से इसके ए को ‘आ’ आदेश होकर ‘वा’ बनता है, और इस ‘वा’ को द्वित्व होता है - वेञ् - वा - वा वा - ववा। __ ग्रह् धातु - द्वित्व करके ग्रह् ग्रह् / ‘लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्’ सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके गृह ग्रह / हलादि: शेष: करके गृ ग्रह / उरत् से अभ्यास के ‘ऋ’ को अर् करके - गर् ग्रह / पुनः हलादि: शेष: करके - ग ग्रह / कुहोश्चु: से चुत्व करके - ‘जग्रह’ बनता है। अत्यावश्यक - इन धातुओं से ये सारे कार्य करके हमने जो भी धातु तैयार किये हैं, उन्हीं में लिट् लकार के णल्, थल्, णल् प्रत्यय लगाइये। व्रश्च्, प्रच्छ् धातु - द्वित्व करके ब्रश्च् व्रश्च् / लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्’ सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके वृश्च् व्रश्च् / हलादि: शेष: करके वृ वश्च / उरत् से अभ्यास के ‘ऋ’ को अर् करके - वर् वश्च / पुनः हलादि: शेष: करके - व व्रश्च । इसी प्रकार प्रच्छ से पप्रच्छ बनाइये। भ्रज्ज् धातु - द्वित्व करके भ्रज्ज् भ्रज्ज् / ‘लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्’ सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके भृज्ज् भ्रज्ज् / हलादि: शेष: करके भृ भ्रज्ज् / उरत् से अभ्यास के ‘ऋ’ को अर् करके - भर् भ्रस्ज् / पुनः हलादि: शेष: करके - भ भ्रस्ज् / अभ्यासे चर्च से भ को जश्त्व करके - ‘बभ्रज्ज्’ बनता है। शिव धातु के लिये विशेष विधि - विभाषा श्वे: - लिट् लकार के सारे प्रत्यय परे होने पर शिव धातु को द्वित्व होने के पहिले ही विकल्प से सम्प्रसारण होता है। श्वि - सम्प्रसारण होने पर - शु - अब द्वित्व होकर शुशु । सम्प्रसारण न होने पर शिव - शिव शिव - शिश्वि। हेञ् धातु के लिये विशेष विधि - [[३००]] अभ्यस्तस्य च - लिट् लकार के सारे प्रत्यय परे होने पर हेञ् धातु को द्वित्व होने के पहिले ही नित्य सम्प्रसारण होता है। हे - हु - हु हु - जुहु । __ व्यथ् धातु - व्यथो लिटि - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, द्वित्वादि करने के बाद, व्यथ् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। व्यथ् - द्वित्व करके - व्यथ् व्यथ् / व्यथो लिटि सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके - विथ् व्यथ् / ‘हलादि: शेष:’ सूत्र से अभ्यास के अनादि हलों का लोप करके - विव्यथ् / द्युत् धातु, तथा ण्यन्त स्वप् धातु - द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् - द्युत् धातु, तथा ण्यन्त स्वप् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। द्युत् - द्वित्व करके - द्युत् द्युत् / द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण करके - दित् द्युत् / सम्प्रसारण करने के बाद हलादि: शेष:’ सूत्र से अभ्यास के अनादि हलों का लोप करके - दिद्युत्। शेष १५ प्रत्यय परे होने पर, इन धातुओं को द्वित्वाभ्यासकार्य करने की विधि वचिस्वपियजादीनाम् किति - वच्यादि धातुओं को सम्प्रसारण होता है, कित् प्रत्यय परे होने पर। ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च - ग्रह्यादि धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। असंयोगाल्लिट कित् - लिट् लकार के ये १५ अपित् लिट् प्रत्यय, जब असंयोगान्त धातुओं के बाद आते हैं, तब इन्हें कित् न होते हुए भी कित्वत् मान लिया जाता है। देखिये कि वच्यादि तथा ग्रह्यादि धातुओं में से वच्, स्वप् तथा यज्, वप्, वह, वस्, वद्, वेञ्, व्येञ्, ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, इन धातुओं के अन्त में संयोग नहीं है। अतः इन असंयोगान्त धातुओं के बाद आने वाले ये १५ अपित् लिट् प्रत्यय, कित्वत् हैं। इन कित्वत् अपित् लिट् प्रत्ययों के परे होने पर इन धातुओं को पहिले सम्प्रसारण कीजिये, उसके बाद ही इन्हें द्वित्व करके अभ्यासकार्य कीजिये। जैसे - वच् + अतु: - वचिस्वपियजादीनाम् किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - उच् + अतु: / अब द्वित्व करके - उच् उच् + अतुः / हलादि शेष: समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३०१ से च का लोप करके – उ उच् + अतुः / सवर्ण दीर्घ सन्धि करके - ऊचतुः। इसलिये णल्, थल्, णल्, इन पित् लिट् प्रत्ययों के लिये इन धातुओं से अलग अङ्ग बनते हैं तथा शेष १५ कित् लिट् प्रत्ययों के लिये अलग अङ्ग । पित् लिट् प्रत्ययों में द्वित्व करके ‘लिट्यभ्यासस्योभयेषाम्’ सूत्र से अभ्यास को सम्प्रसारण होता है और अपित् लिट् प्रत्ययों में धातु को सम्प्रसारण करके द्वित्व होता है। अतः दोनों प्रकार के प्रत्ययों के लिये अङ्ग इस प्रकार बने - धातु णल्, थल, णल्, शेष १५ कित् लिट प्रत्यय इनमें लगाइये प्रत्यय इनमें लगाइये वच् - उवच् ऊच स्वप् - सुस्वप् - सुषुप् आदेशप्रत्यययोः - इण् प्रत्याहार अर्थात् इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल, तथा कवर्ग के बाद आने वाले आदेश के सकार को तथा प्रत्यय के सकार को षकार आदेश होता है। यथा - सुसुप् = सुषुप् । यज् - इयज् - ईज् वप् - उवप - ऊप् वह - उवह वस् - उवस् - शासिवसिघसीनाञ्च - शास्, वस् घस् धातुओं के इण और कवर्ग से परे आने वाले सकार को मूर्धन्य षकार आदेश होता है। वस् धातु को सम्प्रसारण करके - उस्, द्वित्व और अभ्यासकार्य करके - ऊस्, बन जाने के बाद, स् को ए आदेश करके ऊष्, बना है। वद् - उवद् व्यध् - विव्यध् ज्या - जिज्या जिजि व्येञ् - विव्ये विवि व्यच् - विव्यच वश् ऊश् वेञ् धातु - लिटि वयो य: - लिट् परे होने पर वय् के य् को सम्प्रसारण नहीं होता है। वश्चास्यान्यतरस्यां किति - लिट् लकार के कित् प्रत्यय परे होने पर ऊह ऊद् विविध विविच् उवश्३०२ ᳕ जुह वय् धातु के ‘य’ को विकल्प से व् आदेश हो जाता है - उवय् - ऊम्, ऊन् । वय् - उवय् - ऊय / ऊव् ग्रह - जग्रह - जगृह हेञ्, शिव, धातुओं को सभी लिट् प्रत्ययों में द्वित्व के पहिले ही सम्प्रसारण हो जाता है। अतः ये सभी प्रत्ययों में एक से रहते हैं। जैसे - हृञ् - जुहु शिव - शुशु शुशु शिव . - शिश्वि शिश्वि व्रश्च्, प्रच्छ, भज्ज् धातु संयोगान्त हैं। अतः इनसे परे आने वाले १५ अपित् लिट् प्रत्यय कित् नहीं होते। अतः इन धातुओं को सम्प्रसारण नहीं होता। इसलिये ये सभी प्रत्ययों में एक से ही रहते हैं। जैसे - व्रश्च् - वव्रश्च् - वव्रश्च प्रच्छ - पप्रच्छ पप्रच्छ भ्रस्ज् - बभ्रज्ज् बभ्रज्ज् द्युत्, व्यथ् धातु न तो वच्यादि हैं, न ही गृह्यादि। अतः इन धातुओं को सम्प्रसारण नहीं होता। इसलिये ये सभी प्रत्ययों में एक से ही रहते हैं। जैसे द्युत् - दिद्युत् - दिद्युत् व्यथ् - विव्यथ् - विव्यथ् यह २१ सम्प्रसारणी धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विधि पूर्ण हुई। इन्हें याद कर लीजिये। इसके साथ ही सारे धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने की विघि भी पूर्ण हुई। सारे धातुओं का द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने के बाद, अब इडागम का विचार करें -
लिट् लकार के प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था
- भगवान् पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, सारी इडागम व्यवस्था के बीच में ही लिट् लकार की इडागम व्यवस्था के सूत्र दे दिये हैं। इनसे लिट् लकार की इडागम व्यवस्था समझना अत्यन्त कठिन है। अतः हमने यहाँ लिट् लकार की इस इडागम व्यवस्था को खण्ड खण्ड करके सुबोध्य बना दिया है। पहिले पृष्ठ २९ - ३४ पर दी हुई औत्सर्गिक इडागम व्यवस्था को भली -भाँति हदयङ्गम कर लें, उसके बाद ही इसे समझें। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३०३ इसके लिये लिट् लकार के प्रत्ययों को पुनः देखिये - परस्मैपद आत्मनेपद णल् (अ) अतुः उ: ए आते इरे थल (थ) अथुः अ से आथे ध्वे णल् (अ) व म ए वहे महे लिट् च - लिट् लकार के ये सारे प्रत्यय आर्धधातुक हैं। ध्यान दें कि इस सूत्र से लिट् लकार में लगने वाले, सारे प्रत्यय आर्धधातुक हैं किन्तु इन १८ प्रत्ययों में से थल् (थ) व, म, से, ध्वे, वहे, महे, ये ७ प्रत्यय वल् प्रत्याहार से प्रारम्भ होने के कारण वलादि आर्धधातुक प्रत्यय हैं। आर्धधातुकस्येड् वलादे: - वलादि आर्धधातुक प्रत्यय यदि सेट् धातुओं से लगते हैं, तो ही उन्हें इट का आगम होता है। अतः इस सूत्र के अनुसार भी थल् (थ) व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सात वलादि प्रत्ययों को ही इडागम हो सकता है। शेष ११ प्रत्यय वलादि नहीं हैं, अतः इन्हें कभी भी इडागम नहीं हो सकता। थल् (थ) व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन ७ प्रत्यय वलादि प्रत्ययों को भी तभी इडागम हो सकता है, जब वह धातु भी सेट हो, जिससे ये लगे हैं। __ जैसे - पुपू + थ / इसे देखिये। यहाँ प्रत्यय के पूर्व में आकर एक इट (इ) बैठ जाता है। पुपू + थ - पुपू + इ + थ = पुपविथ आदि। जिन धातुओं से परे आने वाले प्रत्यय के पूर्व में, इट् बैठता है, उन्हें हम सेट् धातु कहते हैं। __चकृ + थः/ इसे देखिये। यहाँ प्रत्यय के पूर्व में आकर इट् (इ) नहीं बैठता है। चकृ + थ = चकर्थ आदि। जिन धातुओं से परे आने वाले प्रत्यय के पूर्व में, इट नहीं बैठता है, उन्हें हम अनिट् धातु कहते हैं। __ददा + थ / यहाँ प्रत्यय के पूर्व में आकर इट् (इ) विकल्प से बैठता है। ददा + थ = ददाथ / ददा + इट् + थ = ददिथ आदि। जिन धातुओं से परे आने वाले प्रत्यय के पूर्व में, इट विकल्प से बैठता है, उन्हें हम वेट ६ पातु कहते हैं। लिट् लकार के इन सातों प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था को एक साथ समझने में बहुत उलझन है, अतः इसे हम खण्ड खण्ड करके बतला रहे हैं, जिससे कि यह सरलता से समझ में आ सके। [[३०४]] पहिले हम वे धातु बतला रहे हैं, जिनसे परे आने वाले, थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है - ‘सातों प्रत्ययों में वेट्’ धातु स्वरतिसूतिसूयतिधूदितो वा - धातुपाठ के ऐसे धातु देखिये, जिनमें ऊ’ की इत् संज्ञा हुई हो, उन्हें ऊदित् धातु कहते हैं। ऐसे धातु २४ हैं। इन ऊदित् धातुओं से परे आने वाले, सारे सेट आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। धातुपाठ में पढ़े गये सारे ‘ऊदित् धातु’ इस प्रकार हैं - असू तर् त्वष तञ्चू ओवश्चू अञ्जू मृजू क्लिदू स्यन्दू षिधू गुपू पूष् कृपू क्षमू क्षमूष् अशू क्लिशू गाहू गुहू गृहू तृहू तृन्हू स्तृहू वृहू। _ अतः इन ऊदित् धातुओं से परे आने वाले लिट् लकार के थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को विकल्प से इस प्रकार इडागम कीजिये अक्षू - आनष्ठ, आनक्षिथ / आनक्ष्व, आनक्षिव / आनक्ष्म, आनक्षिम । अजू - आनथ, आनजिथ / आनज्व, आनञ्जिव / आनज्म, आनजिम। अशू - आनक्षे, आनशिषे / आनड्ढ्वे, आनशिध्वे / आनश्वहे, आनशिवहे / आनश्महे, आनशिमहे। __ क्लिदू - चिक्लेत्थ, चिक्लेदिथ / चिक्लिद्व, चिक्लिदिव / चिक्लिम, चिक्लिदिम। __ क्लिशू - चिक्लेष्ठ, चिक्लेशिथ / चिक्लिश्व, चिक्लिशिव / चिक्लिश्म, चिक्लिशिम। __कृपू - चक्लप्से, चक्लपिषे / चक्टब्ध्वे, चक्लपिध्वे / चक्लृप्वहे, चकपिवहे / चक्लप्महे, चक्लपिमहे। क्षमूष् - चक्षसे, चक्षमिषे / चक्षन्ध्वे, चक्षमिध्वे / चक्षण्वहे, चक्षमिवहे / चक्षण्महे, चक्षमिमहे। क्षमू - चक्षन्थ, चक्षमिथ / चक्षण्व, चक्षमिव / चक्षण्म, चक्षमिम । गुपू - जुगोप्थ, जुगोपिथ / जुगुप्व, जुगुपिव / जुगुप्म, जुगुपिम। गृहू - जघृक्षे, जगृहिषे / जघृढ्वे, जगृहिध्वे / जगृहहे, जगृहिवहे / जगृह्महे, जगृहिमहे। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३०५ गाहू - जघाक्षे,जगाहिषे / जघाढ्वे, जगाहिध्वे / जगाहहे, जगाहिवहे / जगाह्महे, जगाहिमहे । गुहू - जुघुले, जुगूहिषे / जुघुढ्वे, जुगूहिध्वे / जुगुहहे, जुगूहिवहे / जुगुह्महे, जुगूहिमहे। तथू - ततष्ठ, ततक्षिथ / ततक्ष्व, ततक्षिव / ततक्ष्म, ततक्षिम। त्रपूष् - त्रेप्से, त्रेपिषे / ओब्ध्वे, त्रेपिध्वे / त्रेप्वहे, त्रेपिवहे / त्रेप्महे, त्रेपिमहे। तृहू - तत, ततर्हिथ / ततृह, ततृहिव / ततृह्म, ततृहिम। त्वक्षू - तत्वष्ठ, तत्वक्षिथ / तत्वक्ष्व, तत्वक्षिव / तत्वक्ष्म, तत्वक्षिम । तृन्हू - ततृण्ढ, तmहिथ / तनुंह, तनुंहिव / ततृ॑ह्म, तख़ुहिम मृजू - ममार्छ, ममार्जिथ / ममृज्व, ममृजिव / ममृज्म, ममृजिम। वृहू - ववर्ड, ववर्हिथ / ववृह, ववृहिव / ववृह्म, ववृहिम व्रश्चू - वव्रष्ठ, वव्रश्चिथ / वव्रश्च्व, वव्रश्चिव / वव्रश्च्म, वव्रश्चिम स्तृहू - तस्त, तस्तर्हिथ / तस्तृह, तस्तृहिव / तस्तृह्म, तस्तृहिम। स्यन्दू - सस्यन्त्से, सस्यन्दिषे / सस्यन्द्ध्वे, सस्यन्दिध्वे / सस्यन्द्वहे, सस्यन्दिवहे / सस्यन्द्महे, सस्यन्दिमहे। षिधू - सिषेद्ध, सिषेधिथ / सिषिध्व, सिषिधिव / सिषिध्म, सिषिधिम रधादिभ्यश्च - रध्, नश्, तृप्, दृप्, द्रुह्, मुह, स्निह, स्नुह, इन आठ रधादि धातुओं से परे आने वाले इन आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। अतः इन सातों लिट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम कीजिये। यथा - तृप् - ततर्थ, ततर्पिथ, तत्रप्थ / ततृप्व, ततृपिव / ततृप्म, ततृपिम । दृप् - ददर्थ, ददर्पिथ, दद्रप्थ / ददृप्व, ददृपिव / ददृप्म, ददृपिम द्रुह् - दुद्रोढ, दुद्रोग्ध, दुद्रोहिथ / दुद्रुह, दुद्रुहिव / दुद्रुह्म,, दुद्रुहिम । मुह् - मुमोढ, मुमोग्ध, मुमोहिथ / मुमुह, मुमुहिव / मुमुह्म, मुमुहिम। नश् - ननंष्ठ, नेशिथ / नेश्व, नेशिव / नेश्म, नेशिम । रध् - ररद्ध, ररन्धिथ / ररन्ध्व, ररन्धिव / ररन्ध्म, ररन्धिम। स्निह् - सिस्नेढ, सिस्नेग्ध, सिस्नेहिथ / सिस्निह, सिस्निहिव / सिस्निह्म, सिस्निहिम। स्नुह् - सुस्नोढ, सुस्नोग्ध, सुस्नोहिथ / सुस्नुह, सुस्नुहिव / सुस्नुह्म, सुस्नुहिम। [[३०६]] निर: कुष: - निर् उपसर्गपूर्वक कुष् धातु से परे आने वाले इन सातों लिट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है - __यथा - निश्चुकोष्ठ, निश्चुकोषिथ / निश्चुकुषिव, निश्चुकुष्व / निश्चुकुषिम, निश्चुकुष्म। ये कुल ३३ धातु हैं। इनसे परे आने वाले लिट् लकार के थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को भी विकल्प से इडागम कीजिये। अब हम वे धातु बतला रहे हैं, जिनसे परे आने वाले, थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को इडागम नहीं होता है - ‘सातों प्रत्ययों में अनिट्’ धातु कृसृभृवृस्तुद्रुस्रुश्रुवो लिटि - यह सूत्र इस प्रकार नियम करता है - १. कृ, सु, भृ, स्तु, द्रु, जु, श्रु, इन ७ क्रादि धातुओं से परे आने वाले थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों सेट लिट् प्रत्ययों को इडागम नहीं होता। २. इनके अलावा सारे धातुओं से परे आने वाले इन सातों सेट लिट् प्रत्ययों को इडागम होता है। कृ धातु - चकर्थ, चकृव, चकृम, चकृषे, चकृढ्वे, चकृवहे, चकृमहे । कृञोऽसुट इति वक्तव्यम् - सम् उपसर्ग के साथ कृ धातु को सुट का आगम होता है। सुट का आगम होने पर कृ धातु सेट हो जाता है। संचस्करिथ, संचस्करिव, संचस्करिम, आदि। सृ धातु - ससर्थ, ससृव, ससृम। भृ धातु - बभर्थ, बभृव, बभृम बभृषे, बभृढ्वे, बभृवहे, बभृमहे । स्तु धातु - तुष्टोथ, तुष्टुव, तुष्टुम। द्रु धातु - दुद्रोथ, दुद्रुव, दुद्रुम। स्र धातु - सुस्रोथ, सुस्रुव, सुशुम । श्रु धातु - शुश्रोथ, शुश्रुव, शुश्रुम वृङ्, वृञ् धातु - लोक में इन वृङ्, वृञ् धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को इडागम होता है, शेष छह प्रत्ययों को नहीं। ववरिथ, ववृव, ववृम, ववृषे, ववृढ्वे, ववृवहे, ववृमहे। _वेद में ‘बभूथाततन्थजगृम्भववर्थेति निगमे’ सूत्र से निपातन होकर थल् को भी इडागम नहीं होता है - ववर्थ, ववृव, ववृम, ववृषे, ववृढ्वे, ववृवहे, ववृमहे। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३०७ इन २४ ऊदित्, ८ रधादि, १ निष्कुष्, तथा ८ क्रादि = ४१ धातुओं से बचे हुए धातुओं की इडागम व्यवस्था । - इन ४१ धातुओं को छोड़कर, अब जो भी धातु बचे, उनकी इडागम व्यवस्था हम सात प्रत्ययों के दो वर्ग करके समझें - १. व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन छह लिट् प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था। इनकी इडागम व्यवस्था को हम ‘लिटि’ कहकर बतलायेंगे। . थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था। इसकी इडागम व्यवस्था को हम ‘थलि’ कहकर बतलायेंगे। उक्त ४१ धातुओं से बचे हुए धातुओं की छह प्रत्ययों में इडागम व्यवस्था देखिये कि ऊपर कहे हुए ४१ धातुओं से भिन्न जो भी धातु बचे हैं, उन धातुओं से परे आने वाले व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन छह लिट् प्रत्ययों को ‘कृसृभृवृस्तुद्रुस्रुश्रुवो लिटि’ सूत्र में कहे हुए क्रादि नियम से नित्य इडागम होता है। अर्थात् ४१ धातुओं से बचे हुए सारे धातु इन छह लिट् प्रत्ययों में सेट ही होते हैं। यथा - मुच् - मुमुचिव, मुमुचिम, मुमुचिषे, मुमुचिध्वे, मुमुचिवहे, मुमुचिमहे। वह् - ऊहिव, ऊहिम, ऊहिषे, ऊहिध्वे, ऊहिवहे, ऊहिमहे। उक्त ४१ धातुओं से बचे हुए धातुओं की थल प्रत्यय में इडागम व्यवस्था इसके लिये तीन सूत्र हैं - अचस्तास्वत्थल्यनिटो नित्यम् - २९ - ३४ पृष्ठ पर दी हुई औत्सर्गिक इडागम व्यवस्था में जो अजन्त धातु तास् प्रत्यय परे रहने पर अनिट् कहे गये हैं, वे धातु थल् प्रत्यय परे भी अनिट् ही होंगे। __ उपदेशेऽत्वत: - औत्सर्गिक इडागम व्यवस्था में दिये हुए १०२ अनिट हलन्त धातुओं में से जिन धातुओं में ‘अ’ है, उन्हें अत्वत् धातु कहते हैं। ऐसे अनिट् हलन्त अत्वत् परस्मैपदी धातु २८ हैं। इन अत्वत् अनिट् हलन्त परस्मैपदी धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को इडागम नहीं होता है। जैसे - ऋतो भारद्वाजस्य - किन्तु भारद्वाज आचार्य के मत में ऋकारान्त धातुओं के अलावा सारे धातु थल् प्रत्यय परे होने पर सेट हो जायेंगे। [[३०८]] तात्पर्य यह कि अजन्त और अत्वत् धातु भारद्वाज के मत में थलि सेट हैं और पाणिनि मत में थलि अनिट् हैं, तो उन्हें थलि वेट मानना चाहिये। इन तीनों सूत्रों के अर्थ को मिलाकर थल् प्रत्यय की इडागमव्यवस्था का निष्कृष्टार्थ इस प्रकार बनता है - आकारान्त तथा एजन्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था - १. ‘व्येञ्’ धातु से परे आने वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। अर्थात् यह धातु ‘थलि सेट’ होता है। यथा - व्ये - संविव्ययिथ। २. व्यञ् धातु को छोड़कर शेष सारे के सारे आकारान्त तथा एजन्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। यथा - दा - ददाथ, ददिथ / ग्लै - जग्लाथ, जग्लिथ। इकारान्त, ईकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था - १. शिव, श्रि. इन दो धातओं से परे आने वाले थल प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। यथा - शिव - शिश्वयिथ / श्रि - शिश्रयिथ। २. शेष इकारान्त,ईकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। चि - चिचेथ, चिचयिथ / नी - निनेथ, निनयिथ / क्री - चिक्रेथ, चिक्रयिथ । उकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था - १. यु, रु, नु, स्नु, क्षु, क्ष्णु धातु - इन छह उकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। यथा - यु - युयविथ / रु - रुरविथ / नु - नुनविथ / स्नु - सुस्नविथ / क्षु - चुक्षविथ / क्षु - चुक्ष्णविथ । २. शेष उकारान्त धातु - इनको छोड़कर शेष उकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। हु - जुहोथ, जुहविथ । ऊकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था
- इस प्रकार है - धूञ् धातु से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। धू - दुधविथ, दुधोथ। इसके अलावा सारे ऊकारान्त धातुओं से परे आने समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३०९ वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। पू - पुपविथ / भू - बभूविथ / लू - लुलविथ / नू - नुनविथ। ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था - १. ऋ धातु - थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है - आरिथ। २. स्व धातु - इससे परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है - सस्वर्थ, सस्वरिथ। ३. शेष ऋकारान्त धातु - अब जो ऋकारान्त धातु शेष बचते हैं, इनसे परे आने वाले थल् प्रत्यय को इडागम नहीं होता है। यथा - ह - जहर्थ / धृ - दधर्थ / स्मृ - सस्मर्थ / सृ - ससर्थ / भृ - बभर्थ / कृ - चकर्थ आदि। सुट का आगम होने पर कृ धातु कृञोऽसुट इति वक्तव्यम्’ इस वार्तिक से सेट हो जाता है। संचस्करिथ । ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था - सारे ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। तृ - तेरिथ। ४१ धातुओं से बचे हुए हलन्त धातुओं के लिये थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था के दो वर्ग हैं - थलि वेट हलन्त धातु - . उपदेशेऽत्वत: के निषेध और ऋतो भारद्वाजस्य के नियम को मिलाकर २८ अत्वत् अनिट् हलन्त परस्मैपदी धातुओं से परे आने वाले लिट् लकार के थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है - शक् + थल - शशक्थ शेकिथ पच् + थल पपक्थ पेचिथ वच् + उवक्थ ऊचिथ सञ्ज ससक्थ ससजिथ रञ्ज ररथ ररजिथ बभक्थ भेजिथ त्यज् तत्यक्थ तत्यजिथ मज्ज् + ममथ ममज्जिथ __ +
- [[३१०]]
बन्ध + + थल शल + + शप + + स्वप् यभ य + + थल + थल यज् प्रच्छ + + + यम् + सद् थल ससत्थ सेदिथ थल बबन्ध बबन्धिथ व्यध विव्यद्ध विव्यधिथ ततप्थ तेपिथ उवप्थ ऊपिथ शशप्थ शेपिथ सुष्वप्थ सुष्वपिथ ययब्थ / येभिथ भ्रस्ज बभ्रष्ठ / बभ्रज्जिथ इयष्ठ इयजिथ पप्रष्ठ पप्रच्छिथ गम् जगन्थ जगमिथ नम् ननन्थ नेमिथ थल ययन्थ येमिथ जघन्थ जघनिथ ददंष्ठ ददंशिथ उवस्थ उवसिथ उवोढ ऊहिथ थल ददग्ध नह + थल् - ननद्ध नेहिथ विभाषा सृजिदृशोः - इन २८ हलन्त धातुओं के अलावा सृज्, दृश् धातुओं से परे आने वाले, थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। दृश् + थल - दद्रष्ठ / ददर्शिथ सृज् + थल् - सस्रष्ठ / ससर्जिथ इस प्रकार ये ३० धातु थल् प्रत्यय परे होने पर वेट होते हैं। अद् धातु - अद् धातु को ‘लिट्यन्यतरस्याम्’ सूत्र से लिट् लकार में विकल्प से घस् आदेश होता है। यह धातु चूँकि लुट् लकार में नहीं है, अतः लिट् लकार के थल् प्रत्यय में यह सेट होता है - जघसिथ । हन् + थल थल + + + दह देहिथ + समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३११
- इडत्यतिव्ययतीनाम् - अद् धातु यद्यपि अत्वत् अनिट् हलन्त है, किन्तु इस सूत्र से यह थल् प्रत्यय परे होने पर सेट ही होता है - अद् + थल् = आदिथ। वेञ् धातु - वेञ् धातु को लिट् लकार में वो वयिः’ सूत्र से वय आदेश होता है। यह धातु चूँकि लुट् लकार में नहीं हैं, अतः लिट् लकार के थल् प्रत्यय में यह सेट ही होता है - उवयिथ। थलि सेट हलन्त धातु - ऊपर कहे गये ३० हलन्त धातुओं को छोड़कर, अब जो भी हलन्त धातु बचे हैं, वे सारे धातु थल् प्रत्यय में सेट ही होते हैं। यथा - पेठिथ / गद् - जगदिथ / हस् - जहसिथ / रुद् - रुरोदिथ / अद् - उवदिथ आदि। वेद के लिये विशेष - वेद में बभूथ, आततन्थ, जगृम्भ, ववर्थ बनते यह हलन्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था पूर्ण हुई। इसके साथ ही सारे धातुओं से परे आने वाले लिट् लकार के प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था पूर्ण हुई। इसे यहीं याद कर लीजिये और धातुओं से परे आने वाले लिट् लकार के सातों सेट् प्रत्ययों को इसी के अनुसार इडागम कीजिये।
षत्व विधि
आदेशप्रत्यययोः - इण् प्रत्याहार तथा कवर्ग के बाद आने वाले आदेश के सकार को तथा प्रत्यय के सकार को षकार आदेश होता है। इण् प्रत्याहार का अर्थ है - इउण् / ऋलक् / एओङ् / ऐऔच् / हयवरट / लण् / अर्थात् - इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल। इनके बाद आने वाले प्रत्यय के सकार को षकार आदेश होता है। यथा - ददिसे = ददिषे / निन्यिसे = निन्यिषे आदि।
लिट् लकार के लिये ढत्व विधि
__ इण: षीध्वं लुलिटां धोऽङ्गात् - जिस अङ्ग के अन्त में ‘इण्’ है, ऐसे इण्णन्त अङ्ग से परे आने वाले आशीर्लिङ् लकार के ‘षीध्वम्’ प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान तथा लुङ् लकार के ध्वम् प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान पर, लिट् लकार के ध्वे प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान पर ‘द’ आदेश होता है। .. विभाषेट: - किन्तु इण्णन्त अङ्ग से परे यदि इट् हो, तब उस इट् से [[३१२]] परे आने वाले, इन प्रत्ययों के ‘ध्’ के स्थान पर विकल्प से ‘ढ्’ आदेश होता है। इन सूत्रों का निष्कृष्टार्थ इस प्रकार है - १. जब अङ्ग के अन्त में ‘इण्’ हो, और उस ‘इण्’ के बाद ‘इट’ न हो, तब उनसे परे आने वाले षीध्वम् तथा ‘ध्वे’ के ‘ध्’ को ‘इण: षीध्वं लुलिटां धोऽङ्गात्’ सूत्र से नित्य ‘ढ्’ होता है। जैसे - चकृ + ध्वे = चकृढ्वे / बभृ + ध्वे = बभृढ्वे / ववृ + ध्वे = ववृढ्वे / जगाह् + ध्वे = जघाट्वे ।। २. जब अङ्ग के अन्त में ‘इण्’ हो, और उस ‘इण्’ के बाद ‘इट’ हो, तब उनसे परे आने वाले षीध्वम् तथा ‘ध्वे’ के ‘ध्’ को ‘विभाषेट:’ सूत्र से विकल्प से ‘द’ होता है। जैसे - निनी + इट् + ध्वे = निन्यिढ्वे - निन्यिध्वे / लुलू + इट् + ध्वे = लुलुविढ्वे - लुलुविध्वे / शिशी + इट् + ध्वे = शिश्यिढ्वे - शिश्यिध्वे। लिट् लकार के रूप बनाने के लिये इन सारी विधियों को जानना आवश्यक है। अतः इन सारी विधियों को बुद्धिस्थ करके ही हम आगे चलें।
प्रत्ययों के स्वरूप का निर्धारण करके अङ्गकार्य करना
अब हम द्वित्व करना सीख चुके हैं, अभ्यासकार्य करना सीख चुके हैं, षत्व, ढत्व विधि भी सीख चुके हैं। यह भी जान चुके हैं, कि किस धातु से परे आने वाले किस लिट् प्रत्यय को इडागम किया जाये और किस प्रत्यय को इडागम न किया जाये। अब अङ्गकार्य सीखें। __ यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादिप्रत्ययेऽङ्गम् - जिससे भी प्रत्यय लगाया जाता है, उसका नाम अङ्ग हो जाता है। अतः जिस भी धातु से हम प्रत्यय लगायेंगे, उस प्रत्यय के परे रहने पर अब हम उस धातु को अङ्ग कहेंगे। ध्यान दीजिये कि हमने धातु में लिट् लकार के प्रत्यय लगाकर, धातु को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य किया है। . द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करने के बाद, अब धातु का जो रूप तैयार हुआ है, यही लिट् लकार के प्रत्ययों के लिये अङ्ग है। इसी में हमें लिट् लकार के प्रत्यय लगाना है। पुनः लिट् लकार के प्रत्यय देखिये। लिट् लकार के इन १८ प्रत्ययों में से णल, थल, णल, ये तीन प्रत्यय पित् लिट् प्रत्यय कहलाते हैं और शेष १५ प्रत्यय अपित् लिट् प्रत्यय कहलाते हैं। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३१३ १. प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय - इसमें चुटू से ण् की तथा हलन्त्यम् से ल् की इत् संज्ञा होकर ‘अ’ शेष बचता है। ण् की इत्संज्ञा होने से यह प्रत्यय ‘णित्’ है। इस णित् णल् प्रत्यय के परे होने पर, इस प्रकार अङ्गकार्य कीजिये - __अचो णिति - अजन्त अङ्ग को वृद्धि होती है, जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। यथा - निनी + णल् - निनै + अ = निनाय पुपू + णल् - पुपौ + अ = पुपाव चकृ + णल् - चकार् + अ = चकार आदि। अत उपधाया: - अदुपध हलन्त धातुओं की उपधा के ‘अ’ को वृद्धि होती है, जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। जैसे - पपठ् + णल् - पपाठ् + अ = पपाठ __पुगन्तलघूपधस्य च - कित्, ङित्, से भिन्न, सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा के लघु इक् को गुण होता है अर्थात् उपधा के लघु इ को ए / लघु उ को ओ / लघु ऋ को अर् / ऐसा गुण होता है। बिभिद् + णल् - बिभेद् + अ = बिभेद बुबुध् + णल् - बुबोध् + अ = बुबोध चकृष् + णल् - चकर्ष + अ = चकर्ष आदि। शेष धातुओं की उपधा को कुछ नहीं होता है - पफक्क् + णल् - पफक्क् + अ = पफक्क आदि। २. उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय - इसमें भी चुटू से ण् की तथा हलन्त्यम् से ल की इत् संज्ञा होकर ‘अ’ शेष बचता है। ण् की इत्संज्ञा होने से इसे भी ‘णित्’ होना चाहिये, किन्तु - णलुत्तमो वा - जो उत्तम पुरुष एकवचन का णल् प्रत्यय है, वह णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। णित् होने पर तो पूर्ववत् अङ्गकार्य कीजिये। किन्तु णित् न होने पर - सार्वधातुकार्धधातुकयो: - इगन्त अङ्ग को गुण होता है, कित्, डित्, जित्, णित् से भिन्न सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। यथा - निनी + णल् - निने + अ = निनय [[३१४]] पुपू + णल् - पुपो + अ = पुपव चकृ + णल् - चकर् + अ = चकर आदि। पुगन्तलघूपधस्य च - कित्, डित्, से भिन्न, सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा के लघु इक् को गुण होता है अर्थात् उपधा के लघु इ को ए / लघु उ को ओ / लघु ऋ को अर् / ऐसा गुण होता है। अतः णित् भिन्न णल् प्रत्यय परे होने पर भी - बिभिद् + णल् - बिभेद् + अ = बिभेद बुबुध् + णल् - बुबोध् + अ = बुबोध चकृष् + णल् - चकर्ष + अ = चकर्ष ३. थल् प्रत्यय - थल् प्रत्यय में हलन्त्यम् सूत्र से ल् की इत् संज्ञा होकर ‘थ’ शेष बचता है। यह प्रत्यय न तो जित्, णित् है न कित्, डित् । यह इन चारों से भिन्न है। थल् प्रत्यय परे होने पर भी इसी प्रकार कार्य कीजिये, क्योंकि यह भी णित्, कित् से भिन्न प्रत्यय है - निनी + थल् = निनेथ / जुहु + थल = जुहोथ / चकृ + थल् = चकर्थ आदि। इसी प्रकार - बिभिद् + इट् + थल् - बिभेद् + इथ = बिभेदिथ बुबुध् + इट् + थल् - बुबोध् + इथ = बुबोधिथ चकृष् + इट् + थल् - चकर्ष + इथ = चकर्षिथ ४. शेष १५ अपित् लिट् प्रत्यय - ये १५ प्रत्यय अपित् लिट् प्रत्यय कित् न होते हुए भी कभी कभी कित् जैसे हो जाते हैं और कभी नही होते। अतः हम पहिले यह निर्णय करें कि ये कब कित् जैसे होते हैं, और कब कित् जैसे नहीं होते। इसके लिये पहिले हम संयोग को जानें - संयोग किसे कहते हैं ? ऐसे दो या दो से अधिक व्यञ्जन, जिनके बीच में कोई स्वर न आया हो, उनका नाम संयोग होता है। जैसे - इन्ध् में - न् + ध् का संयोग है। श्रन्थ् में - न् + थ् का संयोग है। व्रश्च् में - श् + च् का संयोग है। भ्रस्ज् में - स् + ज् का प्रयोग है। ध्वंस् में न् + स् का संयोग है। __ जिन धातुओं के अन्त में संयोग होता है, उन्हें हम संयोगान्त धातु कहते समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३१५ हैं। जैसे - व्रश्च्, भ्रस्ज, प्रच्छ, ध्वंस्, भ्रंश्, इन्ध्, श्रन्थ्, ग्रन्थ्, दम्भ, स्वज्,आदि धातुओं को देखिये। इनके अन्त में संयोग है। अतः ये संयोगान्त धातु हैं। ईन्धिभवतिभ्यां च श्रन्थिग्रन्थिदम्भिस्वजीनामिति वक्तव्यम् - (वार्तिक) - संयोगान्त धातुओं में से इन्ध्, श्रन्थ्, ग्रन्थ्, दम्भ, स्वफ़, ये पाँच संयोगान्त धातुं ही ऐसे हैं, जिनसे परे आने वाले, ये १५ अपित् लिट् प्रत्यय, कित् न होते हुए भी कित् जैसे मान लिये जाते हैं। इन अपित् लिट् प्रत्ययों के कित्वत् होने पर - ‘अनिदितां हल उपधाया: क्डिति’ सूत्र से इन धातुओं के ‘न्’ का लोप होता है। जैसे - शश्रन्थ् + अतुः = श्रेथतु: / ददम्भ् + अतुः = देभतु: आदि। जिन धातुओं के अन्त में संयोग नहीं होता है, उन्हें हम असंयोगान्त धातु कहते हैं। जैसे - लिख्, बुध्, दिश्, वृष, कृष्, दा, पा, नी, पू, हु, कृ, वच्, स्वप्, यज्, वप्, वह, आदि धातुओं को देखिये। इनके अन्त में संयोग नहीं है। अतः ये असंयोगान्त धातु हैं। __ असंयोगाल्लिट् कित् - सारे असंयोगान्त धातुओं के बाद आने पर, ये अपित् लिट् प्रत्यय कित् न होते हुए भी कित्वत् मान लिये जाते हैं। प्रत्ययों के कित्वत् होने पर - १. सम्प्रसारणी धातुओं को सम्प्रसारण होता है - वप्, वह, वस्, वद्, व्येञ्, धातुओं को वचिस्वपियजादीनाम् किति सूत्र से तथा, ग्रह, ज्या, वय ,व्यध्, वश्, व्यच्, धातुओं को ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च सूत्र से सम्प्रसारण होता है। सम्प्रसारण होना हम ३०० - ३०२ पृष्ठों पर विस्तार से पढ़ चुके हैं। २. गुणनिषेध होता है - क्डिति च - कित्, डित्, गित् प्रत्यय परे होने पर न तो धातु के अन्तिम इक् को ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से होने वाला गुण होता है, न ही उपधा के लघु इक् को ‘पुगन्तलघूपधस्य’ च सूत्र से होने वाला गुण होता है। जैसे - निनी + अतुः - निन्यतुः / चकृ + अतु: - चक्रतुः आदि । . विशेष अङ्गकार्य विशेष अवसर पर बतलाये जायेंगे। अब हमारे सामने इन १८ प्रत्ययों का स्वरूप स्पष्ट हो चुका है। जैसा [[३१६]] प्रत्यय होता है वैसे ही अङ्गकार्य होते हैं। ध्यान रहे कि यदि धातु परस्मैपदी है तो परस्मैपद के प्रत्यय लगाइये, और यदि धातु आत्मनेपदी है तो आत्मनेपद के प्रत्यय लगाइये, यदि धातु उभयपदी है तो दानों में से किसी भी पद के प्रत्यय लगाइये। अब हम धातुओं के लिट् लकार के सारे रूप इस क्रम से बनायें। आकारान्त धातु / इकारान्त धातु / ईकारान्त धातु / उकारान्त धातु / ऊकारान्त धातु / ऋकारान्त धातु / ऋकारान्त धातु।
आकारान्त तथा एजन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
स्मरण रखिये कि २४ ऊदित्, ८ रधादि, १ निष्कुष्, तथा ८ क्रादि = ४० धातुओं को छोड़कर सारे धातुओं से परे आने वाले व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन छह लिट् प्रत्यय सेट ही होते हैं। अतः हम अब केवल थल् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था की याद दिलायेंगे। आकारान्त तथा एजन्त धातु ‘थलि वेट’ होते हैं। आकारान्त, एजन्त धातु + णल् प्रत्यय पा - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - पपा + णल् / आत औ णल: - आकारान्त अगों से परे आने वाले णल् प्रत्ययों को औ आदेश हो जाता है - पपा + औ / वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर = पपौ। इसी प्रकार - धा - दधा + णल् - दधा + औ = दधौ दा - ददा + णल् - ददा + औ = ददौ मा - ममा + णल् - ममा + औ = ममौ एजन्त धातु भी आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘आदेश उपदेशेऽशिति’ सूत्र से आकारान्त हो जाते हैं अतः इनके रूप भी ठीक आकारान्त धातुओं के समान ही बनाइये - ग्लै - ग्ला - जग्ला = जग्लौ ध्यै - ध्या - दध्या = दध्यौ आदि __ यह आकारान्त तथा एजन्त अगों में णल् प्रत्ययों को जोड़ने की विधि समाप्त हुई। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि आकारान्त तथा एजन्त धातु + थल् प्रत्यय थल् प्रत्यय को इडागम न होने पर - दा - ददा + थ = ददाथ थल् प्रत्यय को इडागम होने पर - ददा + इ + थ आतो लोप इटि च - आकारान्त धातु के अन्तिम ‘आ’ का लोप होता है, कित्, डित् आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, तथा इट् परे होने पर। __ अतः इट् परे होने पर ‘आ’ का लोप करके - ददा + इ + थ - दद् + इ + थ = ददिथ। इस प्रकार थल परे होने पर, ददाथ तथा ददिथ, ऐसे दो दो रूप बने। इसी प्रकार सारे आकारान्त धातुओं से, ददाथ तथा ददिथ के समान ही, पा - पपा - पपाथ, पपिथ / धा - दधा - दधाथ, दधिथ आदि रूप बनाइये। __एजन्त धातुओं के ‘एच’ को आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से ‘आ’ बनाकर इनके रूप भी इसी प्रकार बनाइये - ध्यै - ध्या = दध्याथ, दध्यिथ म्लै - म्ला = मम्लाथ, मम्लिथ वेञ् - वा = ववाथ, वविथ आकारान्त, एजन्त धातु + लिट् लकार के शेष १५ प्रत्यय ध्यान दीजिये कि इन १५ लिट् प्रत्ययों के परे होने पर इन प्रत्ययों के कित्त्व, अकित्त्व का विचार ‘असंयोगाल्लिट् कित्’ सूत्र से अवश्य करना है। देखिये कि दा - ददा, यह असंयोगान्त अङ्ग है। अतः इससे परे आने वाले अपित् लिट् प्रत्यय ‘असंयोगाल्लिट् कित्’ सूत्र से कित्वत् होंगे। अतः ‘आतो लोप इटि च’ सूत्र से धातुओं के अन्तिम ‘आ’ का लोप करके - दा ददा + अतुः - दद् + अतुः = ददतु: दा ददा + उ: - दद् + उ: = दा ददा + अथुः - दद् + अथुः = ददथु: दद् + अ दद + व दद् + इ + व = ददिव दा ददा . दद् + इ + म = ददिम दा ददा + दद् + ए = दा ददा + आते - दद् + आते . = ददाते दा ददा + इरे - दद् + इरे = + जजजजजजजजज +
ददे
ददिरे [[३१८]] + + + + + दा ददा + इ + से - दद् + इ + से = ददिषे दा ददा + आथे - दद् + आथे = ददाथे दा ददा + इ + ध्वे - दद् + इ + ध्वे = ददिध्वे दा ददा + ए - दद् + ए = ददे दा ददा + वहे - दद् + इ + वहे = ददिवहे दा ददा + महे . - दद् + इ + महे = ददिमहे __ आकारान्त दा धातु के लिट् लकार के पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद ददौ ददतुः ददुः ददे ददाते ददिरे ददाथ / ददिथ ददथुः दद ददिषे ददाथे ददिध्वे ददौ ददिव ददिम ददे ददिवहे ददिमहे इसी प्रकार पा - पपा, भा - बभा, मा - ममा, वा - ववा, ला - लला आदि सारे आकारान्त तथा एजन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाइये। इसके अपवाद - १. वेञ् धातु - वेञ: - वेञ् धातु को लिट् परे होने पर सम्प्रसारण नहीं होता है। अतः ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से वेञ् धातु को वा अन्तादेश करके - वा / द्वित्व तथा अभ्यास कार्य करके ववा। इसके रूप ठीक दा - ददा के समान ही बनाइये। परस्मैपद आत्मनेपद ववतुः ववुः ववे ववाते वविरे ववाथ / वविथ ववथुः वव वविषे ववाथे वविध्वे ववौ वविव वविम ववे वविवहे वविमहे इसकी सम्प्रसारण विधि विधि ३०१ - ३०२ पृष्ठों पर देखिये। जब इसे विञो वयिः’ सूत्र से वय् आदेश हो, तब णल्, थल, णल् प्रत्यय ‘उवय्’ से लगाइये और शेष अपित् लिट् प्रत्यय ऊम्, ऊ से लगाइये। उवय् + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय - णल् प्रत्यय के णित् होने पर - अत उपधाया: सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - उवाय् + अ = उवाय। णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - उवय् + णल् = उवय। परश ववौ समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३१९ ऊयुः ऊयथुः थल् प्रत्यय परे होने पर - उवय् + इट् + थल् = उवयिथ। शेष १५ कित् लिट् प्रत्यय ऊम् / ऊ में लगाइये - ऊय् + अतुः = ऊयतु: / ऊव् + अतुः = ऊवतुः । पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद उवाय ऊयतुः ऊये ऊयाते ऊयिरे . ऊवतु: ऊवु: ऊवे ऊवाते ऊविरे उवयिथ ऊय ऊयिषे ऊयाथे ऊयिध्वे ऊवथुः ऊव ऊविषे ऊवाथे ऊविध्वे उवाय / उवय ऊयिव ऊयिम ऊये ऊयिवहे ऊयिमहे ऊविव ऊविम ऊवे ऊविवहे ऊविमहे २. ज्या धातु - हम जानते हैं कि ज्या धातु को द्वित्वादि तथा अभ्यास को सम्प्रसारण करके ‘जिज्या’, ऐसा आकारान्त अङ्ग बनता है। अतः इसके रूप णल, णल् प्रत्ययों में तो ददौ के ही समान जिज्यौ, तथा थल् प्रत्यय में ददिथ, ददाथ के समान जिज्याथ - जिज्यिथ, ही बनते हैं। __ किन्तु १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर इस जिज्या में धातु के ‘य’ को ‘ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च’ सूत्र से सम्प्रसारण होकर ‘इ’ हो जाता है और जिजि’ यह इकारान्त अङ्ग बनता है। इन १५ प्रत्ययों को इकारान्त अङ्गों में जोड़ने की विधि इस प्रकार है - __एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य - यदि इकारान्त, ईकारान्त अङ्ग में अनेक अच् हों तथा उसके अन्तिम इ, ई के पूर्व में दो या दो से अधिक व्यञ्जनों का संयोग न हो, तब उस इ को यण आदेश होता है, कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। यथा - ज्या - जिजि + अतुः - जिज्य् + अतुः = जिज्यतुः ज्या - जिजि + उ: - जिज्य् + उ: = जिज्यु: आदि। पूरे रूप इस प्रकार बने -. जिज्यौ जिज्यतुः जिज्यु: जिज्याथ / जिज्यिथ जिज्यथुः जिज्य जिज्यौ जिज्यिव जिज्यिम इस प्रकार यह धातु णल्, णल्, थल, प्रत्यय परे होने पर आकारान्त [[३२०]] होता है। शेष १५ प्रत्यय परे होने पर यह धातु इकारान्त हो जाता है। ३. व्यञ् धातु - ‘न व्यो लिटि’ सूत्र से वेञ् धातु को लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, आकार अन्तादेश नहीं होता है। इसलिये द्वित्वादि करके - व्ये - व्ये व्ये - विव्ये ऐसा अङ्ग बनता है। ‘व्येञ्’ धातु ‘इडत्यर्तिव्ययतीनाम्’ सूत्र से लिट् लकार के सातों प्रत्ययों में सेट ही होता है। . अतः इसके रूप इस प्रकार बनेंगे - विव्ये + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय अचो णिति - अजन्त अङ्ग को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। विव्यै + अ / एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश करके - विव्याय + अ - विव्याय। __णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - ठीक इसी प्रकार विव्याय बनाइये। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - व्ये - विव्ये + णल् (अ) एचोऽयवायावः से अयादेश होकर - विव्यय् + अ = विव्यय, यह रूप भी बनता है। इस प्रकार उत्तम पुरुष में दो दो रूप बनते हैं - विव्याय / विव्यय । __ विव्ये + इट् + थल - एचोऽयवायावः सूत्र से अय् आदेश करके विव्यय + इ + थ - विव्ययिथ। हम ३०१ पृष्ठ पर पढ़ चुके हैं कि, १५ कित् लिट् प्रत्यय विवि’ से लगाये जाते हैं। अतः इन १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य’ सूत्र से इ को यण आदेश करके - व्ये - विवि + अतुः - विव्य् + अतुः = विव्यतु: व्ये - विवि + उ: - विव्य् + उ: = विव्यु: आदि। __ पूरे रूप इस प्रकार बने - । परस्मैपद आत्मनेपद विव्याय विव्यतुः विव्युः विव्ये विव्याते विव्यिरे विव्याथ / विव्ययिथ विव्यथुः विव्य विव्यिषे विव्याथे विव्यिध्वे विव्याय / विव्यय विव्यिव विव्यिम विव्ये विव्यिवहे विव्यिमहे ४. दरिद्रा धातु - यह धातु सेट है। अनेकाच् होने के कारण दरिद्रा धातु के लिट् लकार के रूप आम् प्रत्यय समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३२१ लगाकर दरिद्राञ्चकार आदि बनते हैं, किन्तु जब इससे आम् नहीं भी लगता है, तब द्वित्वादि करके इसके रूप इस प्रकार बनाये जाते हैं - दरिद्रातरार्धधातुके लोपो वक्तव्यः - सन्, ण्वुल् और ल्युट से भिन्न सारे आर्धधातुक प्रत्यय विवक्षित होने पर दरिद्रा धातु के ‘आ’ का लोप होता है। (हम जानते हैं कि ‘लिट् च’ सूत्र से लिट् लकार के सारे प्रत्यय आर्धधातुक . ही हैं। अतः इनके परे होने पर, दरिद्रा के आ का लोप कीजिये) - दरिद्रा - द्वित्वादि होकर - ददरिद्रा / ददरिद्रा + णल् / ददरिद् + औ = ददरिद्रौ। सारे प्रत्ययों में इसी प्रकार आ का लोप कीजिये। पूरे रूप इस प्रकार बने - ददरिद्रौ ददरिद्रतुः ददरिद्रुः ददरिद्रिथ ददरिद्रथुः ददरिद्र ददरिद्रौ ददरिद्रिव ददरिद्रिम ५. हृञ् धातु - इसे द्वित्व के पहले ही अभ्यासाच्च’ सूत्र से सम्प्रसारण होकर हु बन जाता है। उसके बाद द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके जुहु बन जाता है। अब यह धातु उकारान्त हो गया है। जुहु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय / अचो णिति से वृद्धि होकर - जुहौ + अ / एचोऽयवायावः से आवादेश होकर - जुहाव् + अ = जुहाव । उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - इसी प्रकार जुहाव बनाइये। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - जुहु + णल् (अ) सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - जुहो + अ / एचोऽयवायावः से अवादेश होकर - जुहव् + अ = जुहव। जुहो + इ + थ / थल् प्रत्यय को इडागम न होने पर - सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - जुहो + थ = जुहोथ। __थल् प्रत्यय को इडागम होने पर - हु - जुहु + इट् + थल्, सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके जुहो + इ + थ / एचोऽयवायावः सूत्र से जुहो को अवादेश करके - जुहव् + इ + थ = जुहविथ। [[३२२]] + जुहुवे hch cace concence hoy nce ice cotch cham ca hey जुहुवाते जुहुविरे जुहुविषे जुहुवाथे जुहु + १५ कित् लिट् प्रत्यय - अचि श्नु धातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ - अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर ‘उ’ के स्थान पर उवङ् आदेश होता है। यथा - हु जुहु + अतुः - जुहुव् + अतुः = जुहुवतुः हु जुहु + उ: - जुहुव् + उ = जुहुवु: हु जुहु + अथुः - जुहुव् + अथुः = जुहुवथुः जुहु + अ जुहुन् + अ = जुहुव जुहु + इ + व - जुहुव् + इ + व = जुहुविव इ + म जुहुन् + इ + म = जुहुविम जुहु + ए - जुहुव् + ए = जुहु + आते - जुहुन् + आते = जुहु + इरे जुहुव् + इरे = जुहु + इ + से - जुहुव् + इ + से = जुहु + आथे - जुहुव् + आथे __ जुहु + इ + ध्वे - जुहुन् + इ + ध्वे = जुहुविध्वे __जुहु + ए - जुहुव् + ए = जुहुवे जुहु + इ + वहे - जुहुव् + इ + वहे = जुहुविवहे हु जुहु + इ + महे - जुहुव् + इ + महे = जुहुविमहे पूरे रूप इस प्रकार बने - परमं पद आत्मनेपद जुहाव जुहुवतुः जुहुवुः जुहुवे जुहुवाते जुहुविरे जुहोथ / जुहविथ जुहुवथुः जुहुव … जुहुविषे जुहुवाथे जुहुविध्वे जुहाव / जुहव जुहुविव जुहुविम जुहुवे जुहुविवहे जुहुविमहे यह आकारान्त तथा एजन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
इकारान्त, ईकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
ध्यान रहे कि इकारान्त, ईकारान्त धातुओं में शिव श्रि धातु सातों प्रत्ययों समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३२३ में सेट होते हैं। शेष इकारान्त, ईकारान्त धातु ‘थलि वेट लिटि सेट’ होते हैं। इकारान्त, ईकारान्त धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय नी - निनी + णल् (अ) / अचो णिति - अजन्त अगों को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। अचो णिति से वृद्धि होकर निनै + अ / ‘एचोऽयवायावः’ से ऐ को आय आदेश होकर - निनाय् + अ = निनाय। सारे इकारान्त ईकारान्त धातुओं में प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय लगाकर इसी प्रकार रूप बनेंगे। इकारान्त, ईकारान्त धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। उत्तम परुष के णल प्रत्यय के णित होने पर - नी - निनी + णल् (अ) / अचो णिति से वृद्धि होकर - निनै + अ / ‘एचोऽयवायावः’ से ऐ को आय आदेश होकर - निनाय् + अ = निनाय । उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - नी - निनी + णल् (अ) / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर नि ने + अ / एचोऽयवायावः से अयादेश होकर - निनय् + अ = निनय / यह रूप भी बनता है। इकारान्त, ईकारान्त धातुओं से उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय परे होने पर, इसी प्रकार वृद्धि करके निनाय, तथा गुण करके निनय, ऐसे दो दो रूप बनाइये। इकारान्त ईकारान्त धातु + थल् प्रत्यय थल् को इडागम न होने पर - नी- निनी + थल् ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से निनी को गुण करके - निने + थ = निनेथ । थल को इडागम होने पर - नी - निनी + इट् + थल् / ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से गुण करके - निने + इ + थ / ‘एचोयवायावः’ सूत्र से निने को अयादेश करके - निनय् + इ + थ = निनयिथ। __यह इकारान्त ईकारान्त अगों में थल् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। इकारान्त ईकारान्त धातुओं में १५ अपित् लिट् प्रत्यय जोड़ने के पूर्व पुनः विचार कीजिये कि - [[३२४]] असंयोगाल्लिट् कित् - असंयोगान्त अगों से परे आने पर ये पूरे १५ अपित् लिट् प्रत्यय कितवत् होते हैं। द्वित्वादि किये हुए निनी, चिचि, बिभी, चिक्री, शिश्वि, युयु, पुपू, चकृ, बभृ आदि स्वरान्त धातुओं को ध्यान से देखिये। इनके अन्त में न् + ई / च् + इ / भ् + ई / र् + ई / व् + इ / य् + उ / प् + उ / क् + ऋ / भ् + ऋ हैं। ये एक व्यञ्जन तथा एक स्वर हैं। अतः ये संयोग नहीं हैं क्योंकि संयोग दो या दो से अधिक व्यञ्जनों के एक साथ मिलने से बनता है। अतः सारे स्वरान्त धातु संयोगान्त न होकर असंयोगान्त ही होते हैं। इसलिये सारे स्वरान्त धातुओं से परे आने पर ये १५ अपित् लिट् प्रत्यय सदा कित्वत् ही होते हैं। अतः इनके परे होने पर इगन्त अगों को कभी भी गुण न होकर ‘क्डिति च’ सूत्र से गुणनिषेध ही होता है। गुणनिषेध हो जाने पर इन्हें सन्धि करके प्रत्ययों में जोड़ दिया जाता है। __ जोड़ने के लिये इकारान्त ईकारान्त धातुओं से बने हुए अगों के दो वर्ग बना लीजिये। इन निनी, चिचि, बिभी, चिक्री, शिश्वि आदि इकारान्त ईकारान्त धातुओं को पुनः ध्यान से देखिये। इनके अन्त में तो संयोग नहीं है किन्तु इनमें ये जो चिक्री, शिश्वि धातु हैं, इनके अन्तिम ‘इ’ के पूर्व में संयोग है। अतः ये धातु संयोगपूर्व इकारान्त हैं। जो निनी, चिचि, बिभी आदि धातु हैं, इनके अन्तिम ‘इ’ के पूर्व में संयोग नहीं है। अतः ये धातु असंयोगपूर्व इकारान्त हैं। इन दोनों वर्ग के इकारान्त धातुओं में १५ अपित् लिट् प्रत्यय जोड़ने की विधि अलग अलग है - १. असंयोगपूर्व अनेकाच् इकारान्त, ईकारान्त धातु + १५ अपित् लिट् प्रत्यय एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य - यदि इकारान्त, ईकारान्त अङ्ग में अनेक अच् हों तथा उसके अन्तिम इ, ई के पूर्व में व्यञ्जनों का संयोग न हो, तब कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर, उस ‘इ’ को ‘यण’ आदेश ही होता है। जैसे - नी निनी + अतुः - निन्य् + अतुः = निन्यतु: नी निनी + उ: - निन्य + उ: = निन्युः नी निनी + अथः - निन्य् + अथुः = निन्यथु: समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३२५ __ + नी निनी + अ - निन्य् + अ = निन्य नी निनी + इ + व - निन्य · + इ + व = निन्यिव निनी + इ + म - निन्य् + इ + म = निन्यिम निनी + ए - निन्य् + ए = निन्ये निनी + आते - निन्य् + आते = निन्याते निनी + इरे - निन्य् + इरे = निन्यिरे निनी + इ + से - निन्य् + इ + से = निन्यिषे निनी + आथे - निन्य + आथे = निन्याथे निनी + इ + ध्वे - निन्य् + इ + ध्वे = निन्यिध्वे नी निनी + ए - निन्य् + ए = । निन्ये नी निनी + इ + वहे- निन्य् + इ + वहे = निन्यिवहे नी निनी + इ + महे- निन्य + इ + महे = निन्यिमहे असंयोगपूर्व ईकारान्त नी धातु के लिट् लकार के पूरे रूप - परस्मैपद आत्मनेपद निनाय निन्यत: निन्युः निन्ये निन्याते निन्यिरे निनेथ / निनयिथ निन्यथुः निन्य निन्यिषे निन्याथे निन्यिध्वे निनाय / निनय निन्यिव निन्यिम निन्ये निन्यिवहे निन्यिमहे सारे असंयोगपूर्व ईकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप इसी प्रकार बनाइये। २. संयोगपूर्व अनेकाच् इकारान्त, ईकारान्त धातु + १५ अपित् लिट् प्रत्यय अचि अनुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवडौ - यदि इकारान्त, ईकारान्त अगों के अन्तिम इ, ई के पूर्व में व्यञ्जनों का संयोग हो, तब कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर, उस ‘इ’ ‘ई’ को ‘इयङ्’ आदेश होता है, कित् डित् प्रत्यय परे होने पर। यथा की धातु को द्वित्वादि करके बना हुआ ‘चिक्री’ यह अनेकाच् है। इसमें जो अन्तिम ‘ई’ है, उसके पूर्व में क् + र् का संयोग है। अतः कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर इसे इयङ् होगा। जैसे - [[३२६]] 4 4 4 4 4 4 क्री चिक्री + अतुः - चिक्रिय् + अतुः = चिक्रियतुः चिक्री + चिक्रिय् + उः = चिक्रियुः क्री चिक्री + अधुः - चिक्रिय् + अथुः = चिक्रियथुः क्री चिक्री + अ । चिक्रिय् + अ चिक्रिय __ चिक्री + इ + व - चिक्रिय् + इ + व = चिक्रियिव __ चिक्री + इ + म - चिक्रिय् + इ + म = चिक्रियिम __ चिक्री + ए - चिक्रिय् + ए = चिक्रिये चिक्री + आते - चिक्रिय् + आते = चिक्रियाते क्री चिक्री + इरे - चिक्रिय् + इरे = चिक्रियिरे क्री चिक्री + इ + से - चिक्रिय् + इ + से = चिक्रियिषे क्री चिक्री + आथे - चिक्रिय् + आथे = चिक्रियाथे क्री चिक्री + इ + ध्वे - चिक्रिय् + इ + ध्वे = चिक्रियिध्वे क्री चिक्री + ए - चिक्रिय् + ए = चिक्रिये क्री चिक्री + इ + वहे - चिक्रिय् + इ + वहे = चिक्रियिवहे क्री चिक्री + इ + महे - चिक्रिय् + इ + महे = चिक्रियिमहे संयोगपूर्व ईकारान्त की धातु के लिट् लकार के परे रूप - चिक्राय चिक्रियतुः चिक्रियुः चिक्रिये चिक्रियाते चिक्रियिरे चिक्रेथ / चिक्रयिथ चिक्रियथुः चिक्रिय चिक्रियिषे चिक्रियाथे चिक्रियिध्वे चिक्राय / चिक्रय चिक्रियिव चिक्रियिम चिक्रिये चिक्रियिवहे चिक्रियिमहे शिव धातु - इसे विभाषा श्वे:’ सूत्र से विकल्प से सम्प्रसारण होता है। जब इसे सम्प्रसारण नहीं होता है तब इसे द्वित्वादि होकर शिव - शिश्वि बनता है। यह असंयोगपूर्व इकारान्त है। अतः इसके रूप ‘क्री’ के समान ही बनाइये। अन्तर यह है कि यह धातु थल में केवल सेट है। श्वि धातु सेट् परस्मैपदी शिश्वाय शिश्वियतुः शिश्वियुः शिश्वयिथ शिश्वियथुः शिश्विय शिश्वाय / शिश्वय शिश्वियिव शिश्वियिव सारे संयोगपूर्व ईकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप इसी प्रकार बनाइये।समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३२७ जब शिव धातु को सम्प्रसारण होकर ‘शु’ तथा द्वित्वादि होकर शुशु बनता है, तब यह धातु उकारान्त हो जाता है। तब इस श्वि - शुशु के रूप आगे दिये जाने वाले उकारान्त धातु - यु - युयु - के समान ही बनते हैं। शुशाव शुशुवतुः शुशुवु: शुशविथ शुशुवथुः शुशुव । शुशाव, शुशव शुशुविव शुशुविम श्रि धातु - सेट उभयपदी इसके रूप ठीक क्री के समान ही बनाइये। अन्तर यह है कि यह धातु थल में केवल सेट है। शिश्राय शिश्रिये शिश्रियाते शिश्रियिरे शिश्रयिथ शिश्रियथुः शिश्रिय शिश्रियिषे शिश्रियाथे शिश्रियिध्वे शिश्राय / शिश्रय शिश्रियिव शिश्रियिम शिश्रिये शिश्रियिवहे शिश्रियिमहे इसके अपवाद - १. आत्मनेपदी दीङ् धातु - दीडो युडचि क्डिति - दीङ् धातु से परे आने वाले कित् डित् प्रत्ययों को युट का आगम होता है - दी - दिदी + ए - दिदी + युट् + ए / युट में उ तथा ट् की इत् संज्ञा करके - दी - दिदी + य् + ए = दिदीये। आत्मनेपदी ईकारान्त दी धातु के लिट् लकार के पूरे रूप - दिदीये दिदीयाते दिदीयिरे दिदीयिषे दिदीयाथे दिदीयिध्वे दिदीये दिदीयिवहे दिदीयिमहे . २. परस्मैपदी हि धातु - हेरचडि - हि धातु के अभ्यास से उत्तरवर्ती हकार को कुत्व होता है, चङ् से भिन्न कोई भी प्रत्यय परे होने पर - हि - जिहि + लिट् लकार के प्रत्यय। यहाँ अभ्यास है जि, उससे उत्तर जो ‘हि’ है, उसे कुत्व होकर ‘घ’ बनेगा तो जिहि को ‘जिघि’ हो जायेगा। अब देखिये कि यह धातु असंयोगपूर्व इकारान्त है, अतः इसके रूप ठीक नी - निनी के समान बनेंगे। [[३२८]] जिघाय जिघ्यतुः जिघ्युः जिघेथ / जिघयिथ जिघ्यथु: जिघ्य जिघाय / जिघय जिध्यिव जिध्यिम ३. परस्मैपदी जि धातु - सन्लिटोर्जे: - सन् प्रत्यय परे होने पर तथा लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर जि धातु के अभ्यास के उत्तर में जो धातु का ‘ज’ है उसे कुत्व होकर ‘ग्’ होता है। जि - जिजि - जिगि यह भी असंयोगपूर्व इकारान्त धातु है, अतः इसके रूप भी ठीक नी - निनी के समान बनेंगे। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - जिगाय जिग्यत: जिग्युः जिगेथ / जिगयिथ जिग्यथुः जिग्य जिगाय / जिगय जिग्यिव जिग्यिम ४. चि धातु - विभाषा चे: - सन् प्रत्यय परे होने पर तथा लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर चि धातु के अभ्यास के उत्तर में जो धातु का ‘च’ है उसे विकल्प ये कुत्व होकर ‘क’ होता है। चि - चिकि - चिचि। यह भी असंयोगपूर्व इकारान्त अङ्ग है अतः इसके रूप भी ठीक नी - निनी के समान बनेंगे। कुत्व होने पर इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - चिकाय चिक्यतुः चिक्युः चिकेथ / चिकयिथ । चिक्य चिकाय / चिकय चिक्यिव चिक्यिम कुत्व न होने पर इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - चिचाय चिच्यतुः चिच्यु: चिचेथ / चिचयिथ चिच्यथुः चिच्य चिचाय / चिचय चिच्यिव चिच्यिम ५. परस्मैपदी इण् धातु - इण् धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय . इसे द्वित्व करके हमने इ इ बनाया है। अब इसके रूप इस प्रकार बनाइये इ इ + णल् / अचो णिति से वृद्धि होकर - इ ऐ + अ / __ अभ्यासस्यासवर्णे - अभ्यास के इ, उ को क्रमशः इयङ्, उवङ् आदेश होते हैं, असवर्ण अच् परे होने पर। चिक्यथः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३२९ यहाँ देखिये कि अभ्यास है ‘इ’ । उससे परे असवर्ण अच् है ‘ए’। अतः अभ्यास के ‘इ’ को ‘अभ्यासस्यासवर्णे’ से इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् + ऐ + अ / एचोऽयवायावः से ‘ए’ को आय आदेश होकर - इ + आय् + अ = इयाय । इण् धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - इसी प्रकार इयाय बनाइये। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - इ - इ इ + णल् (अ) / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - इ ए + अ / ‘अभ्यासस्यासवर्णे’ से अभ्यास के ‘इ’ को इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् + ए + अ / एचोऽयवायावः से ए को अयादेश होकर - इ अय् + अ = इयय। इस प्रकार उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय परे होने पर; इयाय, इयय, ऐसे दो दो रूप बनेंगे। इण् धातु + थल् प्रत्यय . __ इडागम होने पर - इ - इ इ + इट् + थ / सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण होकर - इ ए + इ + थ / ‘अभ्यासस्यासवर्णे’ से अभ्यास के ‘इ’ को इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् ए + इ + थ / एचोऽयवायावः सूत्र से ए के स्थान पर अयादेश होकर - इय् अय् + इ + थ = इययिथ। __ इडागम न होने पर - इ इ + थ / सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण होकर - इ ए + थ / ‘अभ्यासस्यासवर्णे’ से अभ्यास के ‘इ’ को इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् ए + थ = इयेथ। इण् धातु + कित् लिट् प्रत्यय इण् + इ इ + अतुः / प्रत्यय के ‘कित्’ होने के कारण, क्डिति च सूत्र से गुण का निषेध करके - इ इ + अतुः। ध्यान दीजिये कि गुण न होने के कारण यहाँ अभ्यास के बाद ‘असवर्ण अच्’ नहीं मिलता। अतः अभ्यास के ‘इ’ को इयङ् (इय्) आदेश भी नहीं होता। को इणो यण् - इण् धातु के ‘इ’ को यण होता है, अजादि प्रत्यय परे होने पर। इ इ + अतुः - इ य् + अतुः। दीर्घ इण: किति - इण् का जो अभ्यास, उसे दीर्घ होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर। इ य् + अतुः - ई य् + अतुः = ईयतुः । [[३३०]] for ईयुः for ईयथुः for for xxx for ईयिम इइ + अतुः - ईय् + अतु: ईयतुः इ इ + उ: ईय् + उ: इ इ + अथुः - ईय् + अथुः इ इ + अ - ईय् + अ इ इ + इ + व - ईय् + इ + व = ईयिव इ इ + इ + म - ईय् + इ + म = इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - इयाय ईयतु: ईयुः इययिथ / इयेथ ईयथु: ईय इयाय / इयय ईयिवं ईयिम ६. आत्मनेपदी इङ् धातु - गाङ् लिटि - लिट् परे होने पर, इङ् धातु को गाङ् आदेश होता है। ‘गा’ आदेश हो जाने पर, अब यह धातु आकारान्त हो गया है। __अतः जैसे दा के रूप - ददे, ददाते, ददिरे बनाये हैं, ठीक वैसे ही इसके रूप अधिजगे, अधिजगाते, अधिजगिरे आदि बनाइये। इसकी प्रक्रिया आकारान्त धातुओं के वर्ग में देखिये। __ यह इकारान्त, ईकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
उकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
इनसे परे आने वाले लिट् प्रत्यय की इडागम व्यवस्था इस प्रकार है १. यु, रु, नु, स्नु, क्षु, क्ष्णु, इन छह उकारान्त धातुओं से परे आने वाले सातों सेट लिट् प्रत्ययों को नित्य इडागम होता है। २. स्तु, द्रु, त्रु, श्रु, धातुओं से परे आने वाले थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों सेट लिट् प्रत्ययों को इडागम नहीं होता। ३. इन १० धातुओं को छोड़कर शेष उकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से तथा शेष प्रत्ययों को नित्य इडागम होता है। उकारान्त धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय . यु युयु + णल् (अ) / अचो णिति से वृद्धि होकर युयौ + अ / समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३३१ एचोऽयवायावः से औ को आव् आदेश होकर युयाव् + अ = युयाव। उकारान्त धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - यु - युयु + णल् (अ) अचो ञ्णिति से वृद्धि होकर - युयौ + अ / एचोऽयवायावः से आवादेश होकर - युयात् + अ = युयाव। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - यु - युयु + णल् (अ) सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - युयो + अ / एचोऽयवायावः से अवादेश होकर - युयव् + अ = युयव / इस प्रकार उत्तम पुरुष के णल् से युयाव, युयव, ऐसे दो दो रूप बनाइये। उकारान्त धातु + थल् प्रत्यय यु - युयु + इट् + थल् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - युयो + इ + थ / एचोऽयवायावः से अवादेश होकर - युयव् + इ + थ = युयविथ। __ उकारान्त धातु + शेष अपित् लिट् प्रत्यय असंयोगाल्लिट् कित् - असंयोगान्त अङ्गों से परे आने पर, ये पूरे १५ अपित् लिट् प्रत्यय कितवत् होते हैं। कित् होने पर - अचि अनुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवडौ - कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर ‘उ’ के स्थान पर उवङ् आदेश होता है। यथा - यु युयु + अतुः - युयुत् + अतुः युयुवतुः यु युयु + उ: - युयुत् + उः = युयुवु: यु युयु + अथुः - युयुत् + अथुः = युयुवथुः युयु + अ - युयुत् + अ = युयुव युयु + इ + व - युयुत् + इ + व = युयुविव युयु + इ + म - युयुत् + इ + म = युयुविम यु, रु, नु, स्नु, क्षु, क्ष्णु, इन छह उकारान्त सेट् धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - यु धातु युयुवतुः युयुवुः रुराव रुरुवतुः रुरुवुः युयविथ युयुवथुः युयुध रुरविथ रुरुवथुः रुरुव من من من عر عر عن रु धातु युयाव [[३३२]] दुद्रोथ युयाव, युयव युयुविव युयुविम रुराव, रुरव रुरुविव रुरुविम नु धातु स्नु धातु नुनाव नुनुवतुः नुनुवु: सुस्नाव सुस्नुवतुः सुस्नुवुः नुनविथ नुनुवथुः नुनुव सुस्नविथ सुस्नुवथुः सुस्नुव नुनाव, नुनव नुनुविव नुनुविम सुस्नाव, सुस्नव सुस्नुविव सुस्नुविम क्षु धातु क्ष्णु धातु चुक्षाव चुक्षुवतुः चुक्षुवुः चुक्ष्णाव चुक्ष्णुवतुः चुक्ष्णुवुः चुक्षविथ चुक्षुवथुः चुक्षुव . चुक्ष्णविथ चुक्ष्णुवथुः चुक्ष्णुव चुक्षाव, चुक्षव चुक्षुविव चुक्षुविम चुक्ष्णाव, चुक्ष्णव चुक्ष्णुविव चुक्ष्णुविम __ स्तु, द्रु, स्रु, श्रु इन चार उकारान्त अनिट् धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - श्रु धातु द्रु धातु शुश्राव शुश्रुवतुः शुश्रुवुः दुद्राव दुद्रुवतुः दुद्रुवुः शुश्रोथ शुश्रुवथुः शुश्रुव दुद्रुवथुः दुद्रुव शुश्राव, शुश्रव शुश्रुव शुश्रुम दुद्राव, दुद्रव दुद्रुव दुद्रुम स्तु धातु स्रु धातु तुष्टाव तुष्टुवतुः तुष्टुवुः सुस्राव सुस्रुवतुः सुस्रुवुः तुष्टोथ तुष्टुवथुः तुष्टुव सुस्रोथ सुस्रुवथुः सुस्रुव तुष्टाव, तुष्टव तुष्टुव तुष्टुम सुस्राव, सुस्रव सुस्रुव सुस्रुम शेष उकारान्त धातु - ध्यान रहे कि इन १० उकारान्त धातुओं से बचे हुए धातु थलि वेट होते हैं। इनके रूप इस प्रकार बनाइये - हु धातु - परस्मैपद जुहाव जुहुवतुः जुहोथ / जुहविथ जुहुवथुः जुहुव जुहाव / जुहव जुहुविव जुहुविम इसके अपवाद - १. परस्मैपदी ऊर्गु धातु - यह धातु अनेकाच् होने से सेट है। विभाषोर्णो: - ऊर्गु धातु से परे आने वाले इडादि प्रत्यय विकल्प से डिद्वत् होते हैं। देखिये कि यह धातु परस्मैपदी है, और परस्मैपद में थल, व, जुहुवुः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३३३ म, इन तीन प्रत्ययों को इडागम होता है। अतः ये तीनों विकल्प से डिद्वत् होंगे। इनके डिद्वत् होने पर - ऊर्गु - द्वित्वादि होकर - ऊर्जुनु / ऊर्गुनु + इ + थल् / प्रत्यय के ङित्वत् होने से अचि श्नुधातुध्रुवां य्वोरियडुवङौ सूत्र से उवङ् आदेश करके - ऊर्गुनुव् + इ + थ = ऊर्णनुविथ । __ इनके डिद्वत् न होने पर - ऊर्गु - द्वित्वादि होकर - ऊर्जुनु / ऊर्जुनु + इ + थल् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - ऊर्गुनो + इथ / अवादेश करके - ऊर्जुनव् + इथ = ऊर्जुनविथ। शेष रूप पूर्ववत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - ऊणुनाव ऊर्जुनुवतुः ऊर्जुनुवुः ऊर्जुनविथ / ऊर्जुनुविथ ऊर्गुनुवथु: ऊर्गुनुव ऊणुनाव, ऊर्जुनव ऊर्जुनुविव ऊर्जुनुविम ऊर्जुनविव ऊर्जुनविम २. च्युङ् धातु - अपस्पृधेथामानुचुरानृहुश्चिच्युषेतित्याजाश्राता:श्रितमाशीराशीर्ता: - लोक में तो अभी कही हुई विधि के अनुसार च्यु - चुच्यु - चुच्युविषे __ ही बनता है, किन्तु वेद में इसके अभ्यास को सम्प्रसारण होकर चिच्युषे बनता __ है। सारे उकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
ऊकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
__ धूञ् धातु से परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। इसके अलावा सारे ऊकारान्त धातुओं से परे आने वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। सारे ऊकारान्त धातुओं के रूप भी उकारान्त धातुओं जैसे ही बनाइये। __परस्मैपद आत्मनेपद पुपाव पुपुवतुः पुपुवुः पुपुवे पुपुवाते पुपुविरे पुपविथ पुपुवथुः पुपुव पुपुविषे पुपुवाथे पुपुविध्वे पुपाव / पुपव पुपुविव पुपुविम पुपुवे पुपुविवहे पुपुविमहे इसके अपवाद - १. धूञ् धातु - इससे परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम __ होता है। अतः थल् प्रत्यय में दुधोथ / दुधविथ रूप बनते हैं। शेष रूप ‘पू’ जैसे। [[३३४]] 24 24 24 24 2022 इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद दुधाव दुधुवतुः दुधुवुः दुधुवे दुधुवाते दुधुविरे दुधोथ / दुधविथ दुधुवथुः दुधुव दुधुविषे दुधुवाथे दुधुविध्वे दुधाव / दुधव दुधुविव दुधुविम दुधुवे दुधुविवहे दुधुविमहे २. भू धातु - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके बभू - पृष्ठ २८८, २९३ के अनुसार द्वित्व, अभ्यासकार्य आदि करके बभूव् बना लीजिये। लिट् लकार के प्रत्यय इस बभूव में ही जोड़े जायेंगे - भू बभूव् + णल् = बभूव बभूव् + अतुः बभूवतुः बभूव् + उ: = बभूवुः बभूव् + इ + थल् बभूविथ बभूव् + अथुः बभूवथुः बभूव् + अ = बभूव बभूव् + णल् = बभूव बभूव् + इ + व = बभूविव भू बभूव् + इ + म = बभूविम उकारान्त सेट् भू धातु के लिट् लकार के पूरे रूप इस प्रकार हैं - बभूव बभूवतुः बभूवुः बभूविथ बभूवथुः बभूव बभूव बभूविव बभूविम ३. ब्रू धातु - ब्रुवो वचि: - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश होता है। ब्रू = वच् । (वच् धातु सम्प्रसारणी है। इसे द्वित्वादि करके उवच् / ऊच् बनते हैं। यह विधि ३०१ - ३०२ पृष्ठ पर देखें । पित् प्रत्यय उवच् से लगायें और अपित् प्रत्यय ऊच् से लगायें।) इसके रूप इस प्रकार बने उवाच ऊचतु: ऊचुः उवचिथ / उवक्थ ऊचथुः ऊच उवाच / उवच ऊचिव ऊचिम ४. उङ् धातु - द्वित्वादि करके - उ उ + ए / अचि अनुधातुभ्रुवां समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ऊवे य्वोरियङवङौ से उवङ् करके - उ उत् + ए / अक: सवर्णे दीर्घ: से दीर्घ करके - ऊवे। इसके रूप इस प्रकार बनते हैं - ऊवे ऊवाते ऊविरे ऊविषे ऊवाथे ऊविध्वे ऊविवहे ऊविमहे यह ऊकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
ऋकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
इनकी इडागम व्यवस्था इस प्रकार है - १. कृ, सू, भृ धातु - ये धातु ‘थलि अनिट, लिटि अनिट्’ हैं। २. वृङ् वृञ् धातु - वेद में ये धातु ‘थलि अनिट, लिटि अनिट’ हैं।
- लोक में ये धातु ‘थलि सेट, लिटि अनिट्’ हैं। ३. ऋ धातु - यह धातु ‘थलि सेट, लिटि सेट’ है। ४. स्व धातु - यह धातु ‘थलि वेट, लिटि सेट’ है। ५. जागृ धातु - यह धातु ‘थलि सेट, लिटि सेट’ है। ६. शेष ऋकारान्त धातु - शेष धातु ‘थलि अनिट, लिटि सेट’ हैं। १. कृ, सृ, भृ धातुओं के लिट् लकार के रूप - ऋकारान्त धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय कृ - द्वित्वादि करके - चकृ + णल् (अ) / अचो णिति से वृद्धि करके चकार् + अ = चकार। ऋकारान्त धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय ‘णलुत्तमो वा’ सूत्र से उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - चकृ + णल् (अ) / अचो णिति से वृद्धि होकर - चकार् + अ = चकार । उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - चकृ + णल् (अ) / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - चकर् + अ = चकर। ऋकारान्त धातु + थल् प्रत्यय चकृ + थ / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - चकर् + थ = चकर्थ। ऋकारान्त धातु + शेष अपित् लिट् प्रत्यय ऋकारान्त धातु असंयोगान्त ही होंगे। अतः सारे ऋकारान्त धातुओं से परे आने पर ये १५ प्रत्यय ‘असंयोगाल्लिट् कित्’ सूत्र से सदा कितवत् ही होंगे। [[३३६]] चक्रुः अतः इनके परे होने पर ‘डिति च’ से गुण नहीं होगा। हलादि अपित् लिट् प्रत्यय - चकृ + व = चकृव चकृ + म = चकृम चकृ + वहे = चकृवहे चकृ + महे = चकृमहे चकृ + से / ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से प्रत्यय के सकार को षकार आदेश करके - चकृषे। चकृ + ध्वे को देखिये। ध् को ‘इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात्’ सूत्र से ढ् आदेश होकर चकृढ्वे। __ अजादि अपित् लिट् प्रत्यय - विङति च से गुण निषेध हो जाने के कारण, इनके परे होने पर ‘इको यणचि’ से यण् सन्धि होगी। चकृ + अतुः - चक् + अतुः = चक्रतु: चकृ + उ: - चक् + उ: = चकृ + अथुः - चक् + अथुः = चक्रथुः चकृ + अ __ चक् + __अ = चक्र __ + ए _चक् + ए
- चक् + आते = चक्राते चक + इरे - चक्र + इरे = चक्रिरे चकृ + आथे - चक् + आथे = . चक्राथे चकृ + ए - चक्र + ए = चक्रे कृ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद चकार चक्रतुः चक्रुः चक्रे चक्राते चक्रिरे चकर्थ चक्रथुः चक्र चकृषे चक्राथे चकृढ्वे चकार / चकर चकृव चकृम चक्रे चकृवहे चकृमहे सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु - इसे ‘सम्परिभ्यां करोतौ भूषणे’ सूत्र से सुट का आगम होता है जो कि ‘सुट कात्पूर्वः’ सूत्र से ‘क’ के पूर्व होता है। सम् + सुट् + कृ + लिट् । अब इस स्कृ को द्वित्व करके और ‘शपूर्वाः खयः’ सूत्र से अभ्यास के खय् को बचाकर सम् + चस्कृ बनाइये। कृञो असुट इति वक्तव्यम् - लिट् लकार में सुट् से युक्त होने पर चक्रे आते
समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३३७ ससर्थ कृ धातु से परे लिट् प्रत्ययों को इडागम होता है। अतः इसे इडागम करें - देखिये कि अब यह संयोगपूर्वक ऋकारान्त अङ्ग है। अतः ३३८ पृष्ठ पर कहे गये ‘ऋच्छत्यृताम्’ सूत्र से इसे अपित् लिट् प्रत्ययों में गुण करें - सञ्चस्कार सञ्चस्करतुः सञ्चस्करु: सञ्चस्करिथ सञ्चस्करथुः सञ्चस्कर सञ्चस्कार/ सञ्चस्कर सञ्चस्करिव सञ्चस्करिम भृ धातु के पूरे रूप अनिट् कृ के समान ही बनाइये - बभार बभ्रतुः बभ्रुः बभ्रे बभ्राते बभिरे बभर्थ बभ्रथुः बभ्र बभृषे बभ्राथे बभृढ्वे बभार / बभर बभूव बभृम बभ्रे बभूवहे बभृमहे इसी प्रकार सृ धातु के पूरे रूप बनाइये - ससार सस्रतुः सत्रुः सस्रथुः सत्र ससार / ससर ससृव ससृम २. वृङ्, वृञ् धातुओं के लिट् लकार के रूप वृङ्, वृञ् धातु + थल् प्रत्यय वृ धातु से लोक में इट् का आगम करके ववृ + इट् + थ = ववरिथ बनाइये। वेद में इट का आगम न करके ववृ + थ = ववर्थ बनाइये। थल् प्रत्यय के अलावा वृङ्, वृञ् धातुओं के शेष रूप ‘कृ’ के समान ही बनाइये। लोक में इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद ववार वव्रतुः वः वने वव्राते वविरे ववरिथ वव्रथुः वव्र ववृषे वव्राथे ववृढ्वे ववार / ववर ववृव ववृम वने ववृवहे ववृमहे वेद में पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद ववार वव्रतुः वत्रुः वने वव्र वव्राते वव्रात वव्रिरे ववर्थ वव्रथुः वव्र ववृषे वव्राथे ववृट्वे ववार / ववर ववृव ववृम ववे ववृवहे ववृमहे ३. ऋ धातु के लिट् लकार के रूप - ऋ - द्वित्वादि करके - आऋ [[३३८]] / आऋ + णल् - अचो ज्णिति से वृद्धि होकर - आ आर् + अ = आर। आऋ + अतु: - ऋच्छत्यृताम् - ऋच्छ् धातु को, ऋ धातु को तथा दीर्घ ऋकारान्त धातुओं को गुण होता है, ‘कित्’ लिट् प्रत्यय परे होने पर। यथा - आऋ + अतुः - आ अर् + अतुः = आरतु: आऋ + उ: - आ अर् + उ: = आरु: आऋ + अथुः - आ अर् + अथुः = आरथुः आऋ + अ आ अर् + अ = आर यह धातु ‘थलि सेट लिटि सेट’ है। अतः थल, व, म को इडागम कीजिये आऋ + इथ - आ अर् + इथ = आरिथ आऋ + इव - आ अर् + इव = आरिव आऋ + इम - आ अर् + इम = आरिम पूरे रूप इस प्रकार बने - आर आरतु: आरु: आरिथ आरथुः आर आरिव आरिम ४. जागृ - द्वित्वादि करके - जजागृ धातु - प्रथमपुरुष के णल् से जजागृ + णल् = अचो णिति से वृद्धि करके - जजागार बनाइये। उत्तमपुरुष के णल् के णित् होने पर - इसी प्रकार अचो ज्णिति से वृद्धि करके - जजागार बनाइये। उत्तमपुरुष के णल् के णित् न होने पर - सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके - जजागर बनाइये। थल् प्रत्यय परे होने पर सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके - जजागरिथ बनाइये। शेष कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर ‘जाग्रोऽविचिण्णल्डित्सु’ सूत्र से गुण करके - जजागरतुः / जजागरु: आदि बनाइये। जजागार जजागरतुः जजागरु: जजागरिथ जजागर जजागार / जजागर जजागरिव जजागरिम ५. संयोगादि ऋकारान्त स्वृ धातु के लिट् लकार के रूप - स्वृ - द्वित्वादि करके - सस्वृ / णल् प्रत्ययों के परे होने पर तो ‘कृ’ आर जजागरथुः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३३९ के समान ही रूप बनाइये। प्रथमपुरुष के ‘णल्’ से स्व - सस्वार / उत्तमपुरुष के ‘णल्’ से स्वृ - सस्वर / सस्वार। स्व धातु + थल् प्रत्यय ध्यान रहे कि यह धातु ‘थलि वेट’ ‘लिटि सेट’ है। इडागम होने पर - स्वृ - द्वित्वादि करके - सस्वृ + इट् + थल् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - सस्वरिथ। इडागम न होने पर - स्वृ - द्वित्वादि करके - सस्वृ + थल् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - सस्वर्थ । स्वृ धातु + शेष अपित् लिट् प्रत्यय __ ऋतश्च संयोगादेर्गुण: - ऐसे धातु जिनके अन्त में ऋ हो तथा उस ऋ के पूर्व में संयोग हो तो उस ऋ को यण् न होकर गुण होता है कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर। सस्वृ + अतु: - सस्वर् + अतुः = सस्वरतु: सस्वृ + उ: सस्वर् + उ: = सस्वरु: सस्वृ + अथुः सस्वर् + अथुः = सस्वरथुः सस्वर् + अ = सस्वर सस्वृ + इ + व - सस्वर् + इ + व = सस्वरिव सस्वृ + इ + म - सस्वर् + इ + म = सस्वरिम स्वृ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - सस्वार सस्वरतुः सस्वरु: सस्वरिथ / सस्वर्थ सस्वरथुः सस्वर सस्वार / सस्वर सस्वरिव सस्वरिम ६. स्वृ से भिन्न, संयोगादि ऋकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप ऋकारान्त धातुओं में से स्मृ, हृ, स्वृ, वृ, स्तृ, स्पृ, आदि धातु संयोगपूर्व ऋकारान्त धातु हैं। इनके रूप बिल्कुल स्वृ’ धातु के ही समान बनाइये। केवल इडागम व्यवस्था का सही ध्यान रखिये, क्योंकि अब जो ऋकारान्त धातु शेष बचे हैं, ये सारे के सारे धातु ‘थलि अनिट्’ होते हैं। अतः स्मृ धातु के रूप इस प्रकार बनेंगे - सस्मरतुः सस्मरु: + सस्मार [[३४०]] सस्मर्थ सस्मरथुः सस्मर सस्मार / सस्मर सस्मरिव सस्मरिम इसी प्रकार स्वृ से भिन्न सारे संयोगादि ऋकारान्त धातुओं के रूप बनाइये। ७. असंयोगपूर्वक संयोगादि ऋकारान्त धातु - इनके रूप बनाने की प्रक्रिया बिल्कुल ‘कृ’ के समान ही होगी। अन्तर केवल इडागम विधि में होगा। वह यह कि इनसे परे आने वाले लिट् प्रत्ययों को इडागम होगा, जो कि कृ धातु में नहीं हुआ था। हृ - जह + इट् + व - इको यणचि सूत्र से यण् करके जह्रिव । हृ - जह + इट् + म - इको यणचि सूत्र से यण् करके जह्रिम। पूरे रूप इस प्रकार बने - जहार जहतुः जह्नुः जढे जाते जहिरे जहर्थ जह्रथुः जह्न जहिषे जहाथे जहिध्वे जहार / जहर जह्निव जह्रिम जढे जह्निवहे जह्रिमहे ऋकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
दीर्घ ऋकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
इडागम व्यवस्था - ध्यान रहे कि दीर्घ ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाले सातों लिट् प्रत्यय सेट ही होते हैं। सारे ऋकारान्त धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय अचो णिति - अजन्त अगों को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। शृ - शशृ + प्रथम पुरुष का णल् (अ) / अचो णिति से वृद्धि होकर - शशार् + अ = शशार। इसी प्रकार सारे दीर्घ ऋकारान्त धातुओं से तृ - ततार / जृ - जजार / दृ - ददार / आदि बनाइये। __सारे ऋकारान्त धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय शृ - द्वित्वादि करके - शशृ + उत्तम पुरुष का णल् (अ) / ‘णलुत्तमो वा’ से विकल्प से णित् होने पर, अचो णिति से वृद्धि करने पर - शशर् + अ = शशार । वृद्धि न करने पर - सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण होकर - शशर् समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३४१
- अ = शशर। इसी प्रकार सारे दीर्घ ऋकारान्त धातुओं से तृ - ततार, ततर / → - जजार, जजर / दृ - ददार, ददर / आदि बनाइये। णल् प्रत्यय में तो सारे ऋकारान्त धातुओं के रूप समान होते हैं परन्तु शेष प्रत्ययों में भेद होता है। अतः अब इनके रूप हम चार वर्गों में बनायेंगे। १. तृ धातु - तृ धातु + थल् प्रत्यय तृ + थ / द्वित्वादि करके - ततृ + थ / इडागम करके - ततृ + इट् + थ / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके - ततर् + इ + थ। तृफलभजत्रपश्च - सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर तथा १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तृ, फल, भज्, त्रप्, इन धातुओं के अभ्यास को लोप हो जाता है, तथा धातु के ‘अ’ को ‘ए’ होता है। ततर् + इ + थ - इसमें अभ्यास के ‘त’ का लोप करके तथा शेष तर्’ के ‘अ’ को एत्व करके बनेगा - तेरिथ। तृ धातु + अपित् लिट् प्रत्यय ऋच्छत्यृताम् - ऋ धातु को तथा दीर्घ ऋकारान्त धातुओं को गुण होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर। तृ + अतुः / द्वित्वादि करके - ततृ + अतु: / ‘ऋच्छत्य॒ताम्’ से ऋ को गुण करके - ततर् + अतु: - तृफलभजत्रपाम्’ से अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके, तेरतुः, बनाइये। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ततार तेरतु: तेरु: तेरिथ तेरथः तेर ततार / ततर तेरिव तेरिम २. जृ धातु - ऋच्छत्यृताम् - ऋ धातु को तथा दीर्घ ऋकारान्त धातुओं को गुण होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर। वा जृभ्रमुत्रसाम् - सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर तथा १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, जृ, भ्रम्, त्रस्, इन धातुओं के अभ्यास का विकल्प से लोप हो जाता है, तथा धातु के अ को विकल्प से ‘ए’ होता है। यथा - अभ्यास का लोप करके तथा अ को एत्व न करके - जजृ + इट् + [[३४२]] थल् = जजर् + थल - जजरिथ। अभ्यास का लोप तथा ‘अ’ को एत्व करके - जेरिथ भी बनेगा । इसी प्रकार कित् लिट् प्रत्ययों में भी विकल्प से अभ्यासलोप तथा एत्व होंगे। अब हम इसके पूरे रूप बनायें - एत्व तथा अभ्यासलोप करके एत्व तथा अभ्यासलोप न करके जजार जेरतुः जेरु: जजार जजरतुः जजरु: जेरिथ जेरथुः जेर जजरिथ जजरथुः जजर जजार / जजर जेरिव जेरिम जजार / जजर जजरिव जजरिम __३. शृ, दृ, पृ धातु - हमने शृ, दृ, पृ धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके शृ को शशू, दृ को ददृ, तथा पृ को पपृ बनाया है। __ ‘थल्’ परे होने पर ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण कीजिये। शशृ + इट् + थल् = शशरिथ। ‘कित् लिट्’ प्रत्यय परे होने पर ‘ऋच्छत्यृताम्’ सूत्र से गुण कीजिये। शशृ + अतुः - शशर् + अतुः - न शसददवादिगुणानाम् - शस् धातु, वकारादि धातु तथा जिन्हें गुण होकर ‘अ’ हुआ है, ऐसे धातुओं के ‘अ’ को ए भी नहीं होता, न ही उनके अभ्यास का लोप होता है। शशर् + अतुः = शशरतुः। शृदृप्रां ह्रस्वो वा - शृ, दृ, पृ धातुओं के अन्त को विकल्प से ‘ह्रस्व ऋ’ आदेश होता है, लिट् प्रत्यय परे होने पर। शृ - शशू - ह्रस्व होकर शशू / दृ - ददृ - ह्रस्व होकर ददृ / पृ - पपृ - ह्रस्व होकर पपृ। जब इनको ह्रस्व हो जायेगा तो इनके रूप वैसे ही बनेंगे जैसे ह्रस्व ऋकारान्त धातु कृ - चक्र में, ‘इको यणचि’ से यण् करके बतलाये गये हैं। शशृ + अतु: - ‘इको यणचि’ से यण् करके - शश्रतुः / शशृ + अ - शश्र आदि। अतः शृ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - ह्रस्व न होने पर ह्रस्व होने पर शशार शशरतुः शशरु: शशार शश्रतुः शश्रुः शशरिथ शशरथुः शशर शशरिथ शश्रथुः शश्र शशार, शशर शशरिव शशरिम शशार, शशर शश्रिव शश्रिम समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३४३ दद्र चकारथ दृ धातु - ददार ददरतुः ददरु: ददार दद्रतुः दद्रुः ददरिथ ददरथुः । ददर ददरिथ दद्रथु: ददार, ददर ददरिव ददरिम ददार, ददर दद्रिव दद्रिम पृ धातु - पपार पपरतुः पपरु: पपार पप्रतुः पपुः पपरिथ पपरथुः पपर पपरिथ पप्रथुः पप्र पपार, पपर पपरिव पपरिम पपार, पपर पप्रिव पप्रिम ४. तु, जू, शू, द्व, पृ, से बचे हुए शेष दीर्घ ऋकारान्त धातु - इन्हें ह्रस्व नहीं होता। अतः इनके रूप ठीक उसी प्रकार बनाइये, जैसे ‘शृ’ धातु के रूप अभी ‘ह्रस्व न करके’ बनाये हैं। कृ धातु - चकार चकरतुः चकरु: चकरथुः चकर चकार / चकर चकरिव चकरिम इसी प्रकार शेष सारे दीर्घ ऋकारान्त धातुओं के रूप बनाइये। यह सारे ऋकारान्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। इसके साथ ही सारे अजन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि भी पूर्ण हुई। अब हम हलन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनायें । हलन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाते समय हमें धातु के अन्त्याक्षर + ‘थल’ से’ ‘ध्वे प्रत्ययों में सन्धि करना पड़ेगी। अतः यहाँ संक्षेप में सन्धि बतला रहे हैं। सन्धियों को विस्तार से सन्धि के पाठ में देखिये।
सन्धि
थकारादि ‘थल्’ प्रत्यय परे होने पर कवर्गान्त धातु के - क्, ख्, ग् को खरि च सूत्र से क् बनाइये तथा प्रत्यय के थ् को कुछ मत कीजिये - शशक् + थ - शशक्थ। चवर्गान्त धातुओं के तीन वर्ग बनाइये - [[३४४]] १. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा छकारान्त, धातु - इन धातुओं के अन्तिम वर्ण के स्थान पर वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ कीजिये और ‘ष्टुना टुः’ सूत्र से प्रत्यय के ‘थ’ को ‘ठ’ बनाइये - वव्रश्च् + थ = वव्रष्ठ बभ्रज्ज् + थ = बभ्रष्ठ सस्रज् + थ = सस्रष्ठ ममा + थ = ममाष्ठ इयज् + थ = इयष्ठ पप्रच्छ् + थ = पप्रष्ठ व्रश्च् + थल् / इसमें ‘स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोगादि सकार का लोप करके - वच् + थ / वश्चभ्रस्ज.’ सूत्र से च् को ष् करके - व्रष् + थ/ ‘ष्टुना टुः’ सूत्र से प्रत्यय के ‘थ’ को ‘ठ’ करके ववष्ठ बना है। २. मस्ज् धातु - मस्जिनशोझलि सूत्र से इसे नुम् का आगम कीजिये। ज् को चो: कु:’ सूत्र से क् बनाइये तथा प्रत्यय के थ को कुछ मत कीजिये - मज्ज् + थल् - ममथ ३. इनसे बचे हुए शेष चवर्गान्त धातु - इनके च, छ, ज् को चो: कुः’ सूत्र से क्, ख्, ग् बनाइये। उसके बाद इस क्, ख्, ग् को ‘खरि च’ सूत्र से क् बनाइये तथा प्रत्यय के थ को कुछ मत कीजिये। यथा - पपच् + थ = पपक्थ ससङ्ग् + थ = ससक्थ ररज् + थ - = ररथ बभज् + य = बभक्थ तत्यज् + थ = तत्यक्थ आनङ्ग् + थ
- आनथ तवर्गान्त धातु के - अन्तिम त्, थ्, द् को खरि च सूत्र त् बनाइये। प्रत्यय के थ को कुछ मत कीजिये - ससद् + थ = ससत्थ चिक्लेद् + थ = चिक्लेत्थ पवर्गान्त धातु के - अन्तिम प्, फ्, ब् को खरि च सूत्र से प् बनाइये। प्रत्यय के थ को कुछ मत कीजिये - ततप् + थ = ततप्थ शशप् + थ = शशप्थ समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि बबन्द्ध सुष्वप् + थ = सुष्वप्थ जुगोप् + थ = जुगोप्थ सुष्वप् + थ = सुष्वप्थ ततर्प + थ = ततर्थ यह सभी वर्गों के प्रथम द्वितीय तृतीय वर्णों का विचार पूर्ण हुआ। जब धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर हो, तब आप ऐसे धातुओं के बाद में आने वाले - १. प्रत्यय के थ को ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से ध बना दीजिये। २. और धातु के अन्त में बैठे हुए, वर्ग के चतुर्थाक्षर को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बना दीजिये। बबन्ध् + थ - विव्यध् + थ = विव्यद्ध ययभ् + थ - ययब्ध ररध् + थ = ररद्ध सिषेध् + थ सिषेद्ध, यह चतुर्थाक्षरों का विचार पूर्ण हुआ। नकारान्त, मकारान्त धातुओं के न्’ ‘म्’ को ‘न्’ बनाइये। जघन् + थ = जघन्थ जगम् + थ - जगन्थ ननम् + थ - ननन्थ ययम् + थ - ययन्थ शकारान्त धातु - शकारान्त धातुओं के ‘श्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयज राजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये और प्रत्यय के ‘थ’ को ष्टुना ष्टु सूत्र से ठ बनाइये - ददंश् + थ = ददंष्ठ चिक्लेश् + थ चिक्लेष्ठ नश् धातु - मस्जिनशोझलि सूत्र से इसे नुम् का आगम कीजिये। शेष पूर्ववत् । ननंश् + थ = ननंष्ठ। षकारान्त धातु - धातु के ‘ए’ को कुछ मत कीजिये। केवल प्रत्यय के [[३४६]] ‘थ’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके ‘ठ’ बनाइये। निश्चुकोष् + थ - निश्चुकोष् + ठ = निष्चुकोष्ठ यहाँ ध्यान रहे कि यदि ष् के पूर्व में क् हो तो उसका स्को: संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से लोप कर दें। उसके बाद धातुओं के ‘ए’ को कुछ मत कीजिये। केवल प्रत्यय के ‘थ’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके ‘ठ’ बनाइये। आनक्ष् + थ - आनष् + = आनष्ठ तत्वक्ष् + थ - तत्वष् + ठ = तत्वष्ठ ततक्ष् + थ - ततष् + ठ = ततष्ठ सकारान्त धातु - इन्हें कुछ भी मत कीजिये। उवस् + थ = उवस्थ हकारान्त धातुओं से थकारादि प्रत्यय परे होने पर, हकारान्त धातुओं के पाँच वर्ग बनाइये - १. नह धात - नह धात के ह को नहो ध: सूत्र से ध बनाइये। ननह + थ - ननध् + थ / प्रत्यय के थ को झषस्तथो?ऽध: सूत्र से ध बना दीजिये - ननध् + थ - ननध् + ध / अब धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर ध् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का द् तृतीयाक्षर बनाइये। ननध् + ध - ननद् + ध - ननध् + थ = ननद्ध। २. दह्, दिह् धातु - इनके ह् को दादेर्धातोर्घ: सूत्र से घ् बनाइये। ददह् + थ - ददघ् + थ / प्रत्यय के थ को झषस्तथो?ऽध: सूत्र से ध बनाइये - ददघ् + ध / अब धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर घ् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ग् बनाइये - ददग् + ध = ददग्ध। इसी प्रकार दिह - दिदेह + थ = दिदेग्ध । __३. वह् धातु - वह धातु के ‘ह’ को हो ढः’ सूत्र से ‘द’ बनाइये। उवह् + थ - उवढ् + थ / प्रत्यय के थ को झषस्तथो?ऽध: सूत्र से ध बनाइये - उवढ् + ध / उसके बाद ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व कीजिये - उवढ् + ढ / अब पूर्व ढ् का ‘ढो ढे लोप:’ सूत्र से लोप कर दीजिये - उवढ् + ढ - उव + ढ / उसके बाद लुप्त ढ् के पूर्ववर्ती ‘अ’ के स्थान पर ‘सहिवहोरोदवर्णस्य’ सूत्र से ‘ओ’ आदेश कीजिये - उव + ढ = उवोढ । ४. द्रुह्, मुह्, स्नु, ष्णिह् धातु - वा द्रुहमुहस्नुहणिहाम् - द्रुह्, मुह्, समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३४७ स्नुह, तथा ष्णिह् धातुओं के ‘ह’ के स्थान पर विकल्प से ‘घ्’ तथा ‘द’ होते हैं, झल् परे होने पर। ‘ह’ के स्थान पर ‘घ’ होने पर - द्रुह् - दुद्रोह + थ - दुद्रोच् + थ / झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके - दुद्रोध् + ध / झलां जश् झशि सूत्र से ‘घ्’ के स्थान पर जश्त्व ‘ग्’ करके दुद्रोग् + ध = दुद्रोग्ध । इसी प्रकार मुमोह् + थ = मुमोग्ध / सुस्नोह् + थ = सुस्नोग्ध / सिस्नेह + थ = सिस्नेग्ध आदि बनाइये। ‘ह’ के स्थान पर ‘ढ्’ होने पर - द्रुह् - दुद्रोह + थ - दुद्रोढ् + थ / प्रत्यय के थ को झषस्तथो?ऽध: सूत्र से ध बनाकर - दुद्रोढ् + ध / प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके - दुद्रोढ् + ढ / अब पूर्व ढ् का ‘ढो ढे लोप:’ सूत्र से लोप करके = दुद्रोढ । _इसी प्रकार मुमोह् + थ = मुमोढ / सुस्नोह् + थ = सुस्नोढ / सिस्नेह + थ = सिस्नेढ आदि बनाइये। ५. शेष हकारान्त धातु - शेष हकारान्त धातुओं के ‘ह’ को ‘हो ढ:’ सूत्र से ‘द’ होता है। ततह + थ - ततर्द्व + थ / प्रत्यय के थ को झषस्तथो?ऽध: सूत्र से ध बनाकर - ततर्द्व + ध / प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके - ततर्द्व + ढ / अब पूर्व ढ् का ‘ढो ढे लोप:’ सूत्र से लोप करके - ततर् + ढ = ततळे । इसी प्रकार ववह + थ = ववढे / ततूंह + थ = ततृण्ढ आदि बनाइये। यह हलन्त धातुओं में थकारादि प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। __ सकारादि ‘से’ प्रत्यय परे होने पर केवल वेट आत्मनेपदी धातु ही इसके उदाहरण में मिलेंगे - दकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर, धातु के अन्त में आने वाले, द् को ‘खरि च’ सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर त् बनाइये प्रत्यय के स् को कछ मत कीजिये। सस्यन्द + से - सस्यन्त्से । पकारान्त धातु - प् को ‘खरि च’ सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर प् बनाइये। प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये। कृपू - चक्लप् + से - चक्लप्से। त्रपूष् - त्रेप् + से - त्रेप्से। मकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले ‘म्’ को ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से अनुस्वार बनाइये । प्रत्यय के स् को [[३४८]] कुछ मत कीजिये। चक्षम् + से - चक्षसे। शकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले ‘श्’ को ‘वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये। अश् - आनश् + से - आनष् + से / इस ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाइये - आनक् + से / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से प् बनाइये - आनक् + थे। क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये - आनक्षे। __हकारान्त धातु - बशादि हकारान्त धातुओं के बाद सकारादि प्रत्यय आने पर, इन धातुओं के अन्तिम ‘ह’ को, हो ढ:’ सूत्र से ‘द’ बनाकर, धातु के आदि में जो वर्ग का तृतीयाक्षर है, उसे ‘एकाचो बशो भए झषन्तस्य स्ध्वो:’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर बना दीजिये। ‘ढ्’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से, ‘क्’ बनाइये। उसके बाद प्रत्यय के स् को ष् बनाइये। जैसे - गाह् - जगाढ् + से - जघाक् + षे = जघाक्षे गुह् - जुगुढ् + से - जुघुक् + षे = जुघुक्षे गृह - जगृढ् + से - जघृक् + षे = जघृक्षे धकारादि ‘वे’ प्रत्यय परे होने पर दकारान्त धातु - त् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर द् बनाइये। ‘झरो झरि सवर्णे’ सूत्र से पूर्व झर् का विकल्प से लोप कीजिये। झर् का लोप होने पर - सस्यन्द् + ध्वे - सस्यन्ध्वे । लोप न होने पर - सस्यन्द् + ध्वे - सस्यन्द्ध्वे । पकारान्त धातु - को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ब् बनाइये। प्रत्यय के ध् को कुछ मत कीजिये। चक्लप् + ध्वे - चक्लब्ध्वे । त्रपूष् - त्रेप् + ध्वे - त्रेब्ध्वे। मकारान्त धातु - धकारादि प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले म् को ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से अनुस्वार बनाइये। चक्षम् + ध्वे / चक्षं + ध्वे / अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण: सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण करके - चक्षम् + ध्वे - चक्षन्ध्वे। __शकारान्त धातु - धकारादि प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले श् को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाइये। आनश् + ध्वे - आनष् + ध्वे / इस ष्’ को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३४९ से ‘ड्’ बनाइये - आनड् + ध्वे / प्रत्यय के ध् को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ढ् बनाइये। आनड् + ढ्वे - आनड्ढ्वे । बशादि हकारान्त गाह्, गुह्, गृह् धातु - इन धातुओं के बाद धकारादि प्रत्यय आने पर, इन धातुओं के अन्तिम ‘ह’ को, हो ढ:’ सूत्र से ‘द’ बनाइये। गाह - जगाह् + ध्वे - जगाल् + ध्वे / धातु के आदि में जो वर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग’ है, उसे ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वो:’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ’ बना दीजिये। जगाढ् + ध्वे - जघाढ् + ध्वे / प्रत्यय के ध् को ‘ष्टुना ष्टः’ सूत्र से ढ् बनाइये। जघाट् + ध्वे - जघाल् + ढ्वे / पूर्व ‘ढ्’ का ‘ढो ढे लोप:’ सूत्र से, लोप कर दीजिये। जघान + ढ्वे - जघावे। इसी प्रकार जुगुह् + ध्वे - जुघुत्वे / जगृह् + ध्वे - जघृढ्वे बनाइये। यह अनिट् ‘थल्’ ‘से’ ‘ध्वे’ प्रत्ययों को धातुओं में जोड़ने की विधि बतलाई। यदि इन प्रत्ययों को इडागम हो जाये तब प्रत्यय अजादि हो जायेगा। तब कोई सन्धि न करें। जैसे - बबन्ध् + इ + थ = बबन्धिथ / जगाह् + इ + से = जगाहिषे / जगाह् + इ + ध्वे = जगाहिध्वे / सस्यन्द् + इ + से = सस्यन्दिषे / सस्यन्द् + इ + ध्वे = सस्यन्दिध्वे / द्रुह् + इ + व = दुद्रुहिव आदि। लिट् लकार के शेष प्रत्यय परे होने पर भी कोई सन्धि न करें। जैसे - दुद्रुह् + व = दुद्रुह / दुद्रुह् + म = दुद्रुह्र / इसी प्रकार जगृहहे, जगृह्महे आदि। __ यह लिट् लकार के अनिट् धातुओं में प्रत्ययों को जोड़ने के लिये सन्धि करने की संक्षिप्त विधि पूर्ण हुई। यह ध्यान रहे कि परस्मैपदी धातुओं से परस्मैपद के प्रत्यय लगाये जायें, तथा आत्मनेपदी धातुओं से आत्मनेपद के प्रत्यय लगाये जायें। उभयपदी धातुओं से दोनों पद के प्रत्यय लग सकते हैं।
हलन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
इन सन्धियों को बुद्धिस्थ करें और ३०२ से ३११ पृष्ठ में दी हुई लिट लकार के प्रत्ययों की इडागम विधि को अच्छी तरह पढ़ें, उसके बाद ही इसमें प्रवेश करें। [[३५०]] लिट् लकार के रूप बनाने के लिये हलन्त धातुओं का विभाजन आठ हिस्सों में करें - १. सम्प्रसारणी हलन्त धातु। २. नलोपी हलन्त धातु। ३. वे हलन्त धातु जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप होते हैं। ४. एत्वाभ्यासलोप से बचे हुए अदुपध हलन्त धातु । ५. इदुपध हलन्त धातु। ६. उदुपध हलन्त धातु। ७. ऋदुपध हलन्त धातु। ८. शेष हलन्त धातु। अब हम एक एक वर्ग के धातुओं के रूप बनायें -
१. हलन्त सम्प्रसारणी धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
वच्, स्वप्, यज्, वप्, वह, वस्, वद्, वेञ्, हेञ्, श्वि, व्येञ्, ये ११ वच्यादि धातु’ ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज्, ये ९ धातु ग्रह्यादि धातु’ तथा द्युत्, व्यथ्, इस प्रकार कुल २२ धातु सम्प्रसारणी हैं। इन सम्प्रसारणी धातुओं में से हेञ्, शिव, वेञ्, व्यञ्, ज्या, धातु अजन्त धातु हैं। इनके रूप हम ‘अजन्त वर्ग’ में बना चुके हैं। अतः अब शेष हलन्त सम्प्रसारणी धातुओं के रूप बनायें । इन्हें सम्प्रसारण आदि करने की विधि हम २९६ से ३०२ पृष्ठ पर बतला चुके हैं। उसे वहीं देखें। ध्यान रहे कि इन हलन्त सम्प्रसारणी धातुओं में से वस्, वच्, स्वप्, यज्, वप्, वह, व्यध्, वय, वश्च्, प्रच्छ, भ्रस्ज् धातु ‘थलि वेट’ हैं। वश्, व्यच्, वद्, ग्रह, धातु ‘थलि सेट’ हैं । द्युत्, व्यथ्, धातु आत्मनेपदी हैं। अतः इनसे परे ‘थल’ मिलेगा ही नहीं। इन सम्प्रसारणी धातुओं में यह भी ध्यान रखना है कि णल् णल थल प्रत्यय लगाने के लिये पहले वाले अगों का प्रयोग किया जाये। शेष १५ अपित् लिट् प्रत्ययों के रूप बनाने के लिये दूसरे वाले अगों का प्रयोग किया जाये। ये अङ्ग इस प्रकार हैं - समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३५१ उवप् ऊह ऊष् व्यध विव्यध् व्रश्च केवल अभ्यास को सम्प्रसारण करके अभ्यास, धातु, दोनों को सम्प्रसारण पित् लिट् प्रत्ययों के लिये अङ्ग करके कित् लिट् प्रत्ययों के लिये अङ्ग थलि वेट् धातु यज् इयज् ऊप् उवह उवस् उवच् ऊच् स्वप् सुष्वप् सुषुप् वय उवय् ऊय् / ऊन् विविध ग्रह जग्रह जगृह वव्रश्च वव्रश्च प्रच्छ पप्रच्छ पप्रच्छ बभ्रज्ज् / बभर्ख - बभ्रज्ज् / बभर्जु थलि सेट् धातु उवद् ऊद् व्यच वश् - उवश् ऊश् आत्मनेपदी धातु द्युत् - दिद्युत् दिद्युत् व्यथ् - विव्यर्थ विव्यथ् इन धातुओं में प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय लगाने की विधि इनमें से जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘अ’ हो, उन्हें प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय परे होने पर वृद्धि कीजिये। सूत्र है - अत उपधाया: - अङ्ग की उपधा के ह्रस्व अ को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। उवस् + णल् - अत उपधाया: से वृद्धि होकर - उवस् - उवास / उवच् - उवाच / सुष्वप् - सुष्वाप / उवद् - उवाद / विव्यध् - विव्याध / विव्यच् - विव्याच / उवश् - उवाश, आदि। भ्रस्ज् वद् विव्यच विविच्३५२ ᳕ इन धातुओं में उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय लगाने की विधि णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। णल् प्रत्यय के णित् होने पर - अत उपधाया: से वृद्धि होकर - उवस् - उवास / उवच् - उवाच / सुष्वप् - सुष्वाप / उवद् - उवाद / विव्यध् - विव्याध / विव्यच् - विव्याच / उवश् - उवाश। णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - अत उपधायाः से वृद्धि न होकर - उवस् + णल् - उवस / उवच् + णल् - उवच / सुष्वप् + णल् - सुष्वप / उवद् + णल् - उवद / विव्यध् + णल् - विव्यध / विव्यच् + णल् - विव्यच / उवश् + णल् - उवश आदि। इस प्रकार प्रथमपुरुष का णल् प्रत्यय परे होने पर एक एक रूप बनाइये तथा उत्तमपुरुष का णल् प्रत्यय परे होने पर दो दो रूप बनाइये। __ इन धातुओं में थल् प्रत्यय लगाने की विधि थल प्रत्यय परे होने पर, कोई अङ्गकार्य मत कीजिये। केवल सन्धि कीजिये। इडागम का ध्यान अवश्य रखिये। यथा - वच् से उवचिथ, उवक्थ / स्वप् से सुष्वपिथ, सुष्वप्थ / व्यध् से विव्यधिथ, विव्यद्ध / यज् से इयजिथ, इयष्ठ / वह से उवहिथ, उवोढ / वप् से उवपिथ, उवप्थ, आदि। इन धातुओं में शेष अपित् प्रत्यय लगाने की विधि इनमें अपित् प्रत्ययों को ज्यों का त्यों जोड़ दीजिये। ध्यान रहे कि अपित् प्रत्यय परे होने पर दूसरे वाले अगों का ही प्रयोग किया जाये। यथा - वस् - ऊष् + अतुः = ऊषतुः / वप् - ऊप् + अतुः = ऊपतु: आदि। इनके पूरे रूप इस प्रकार बने - यज् धातु - इयाज ईजतुः ईजुः ईजे ईजाते ईजिरे इयजिथ / इयष्ठ ईजथुः ईज ईजिषे ईजाथे ईजिध्वे इयाज / इयज ईजिव ईजिम ईजे ईजिवहे ईजिमहे वप् धातु - उवाप ऊपतुः ऊपुः ऊपे ऊपाते ऊपिरे उवपिथ / उवप्थ ऊपथुः ऊप ऊपिषे ऊपाथे ऊपिध्वे उवाप / उवप ऊपिव ऊपिम ऊपे ऊपिवहे ऊपिमहे समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३५३ वह् धातु - उवाह ऊहतुः ऊहुः . ऊहे ऊहाते ऊहिरे उवाहथ / उवाढ ऊहथुः ऊह ऊहिले ऊहाथे ऊहिध्वे उवाह / उवह ऊहिव ऊहिम ऊहे ऊहिवहे ऊहिमहे __वस् धातु - उवास ऊषतु: ऊषु: उवसिथ / उवस्थ ऊषथुः ऊष उवास / उवस ऊषिव ऊषिम वच् धातु - उवाच ऊचतु: ऊचुः उवचिथ / उवक्थ ऊचथुः ऊच उवाच / उवच ऊचिव ऊचिम स्वप् धातु - सुष्वाप सुषुपतुः सुषुपुः सुष्वपिथ / सुष्वप्थ सुषुपथु: सुषुप सुष्वाप / सुष्वप सुषुपिव सुषुपिम व्यध् धातु - विव्याध विविधुः विव्यधिथ / विव्यद्ध विविधथुः विविध विव्याध / विव्यध विविधिव विविधिम वय् धातु - ध्यान रहे कि धातुपाठ में वय कोई धातु नहीं है। वेञो वयि: सूत्र से लिट् लकार में वेञ् धातु को ही विकल्प से वय् आदेश होता है। परस्मैपद आत्मनेपद उवाय ऊयतुः ऊयुः ऊये ऊयाते ऊयिरे ऊवतुः ऊवे ऊवाते ऊविरे उवयिथ ऊयथुः ऊय ऊयिषे ऊयाथे ऊयिध्वे ऊवथुः ऊव ऊविषे ऊवाथे ऊविध्वे उवाय / उवय ऊयिव ऊयिम ऊये ऊयिवहे ऊयिमहे ऊविव __ ऊवे ऊविवहे ऊविमहे विविधतुः ऊवु: [[३५४]] ऊद वद् धातु - उवाद ऊदतु: ऊदुः उवदिथ ऊदथुः उवाद / उवद ऊदिव ऊदिम वश् धातु - उवाश ऊशतु: ऊशुः उवशिथ ऊशथुः ऊश उवाश / उवश ऊशिव ऊशिम व्यच् धातु - विव्याच विविचतुः विविचुः विव्यचिथ विविचथुः विविच विव्याच / विव्यच विविचिव विविचिम ग्रह् धातु - जग्राह जगृहतुः जगृहुः जगृहे जगृहाते जगृहिरे जग्रहिथ जगृहथुः जगृह जगृहिषे जगृहाथे जगृहिध्वे जग्राह / जगह जगृहिव जगृहिम जगृहे जगृहिवहे जगृहिमहे द्युत् धातु - दिद्युताते दिद्युतिरे दिद्युतिषे दिद्युताथे दिद्युतिध्वे दिद्युते दिद्युतिवहे दिद्युतिमहे व्यथ् धातु - विव्यथे विव्यथाते विव्यथिरे विव्यथिषे विव्यथाथे विव्यथिध्वे विव्यथे विव्यथिवहे विव्यथिमहे भ्रस्ज् धातु - भ्रस्ज् के स्थान पर भ्रज्ज् रहने पर - बभ्रज्ज बभ्रज्जतुः बभ्रज्जुः बभ्रज्जे बभ्रज्जाते बभ्रज्जिरे बभ्रज्जिथ, बभ्रष्ठ बभ्रज्जथुः बभ्रज्ज बभ्रज्जिषे बभ्रज्जाथे बभ्रज्जिध्वे बभ्रज्ज बभ्रज्जिव बभ्रज्जिम बभ्रज्जे बभ्रज्जिवहे बभ्रज्जिमहे *# *# * #### $11 111 दिद्युते समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३५५ पप्रच्छु: वव्रश्चुः भ्रज्ज् को भर्ख बनाने पर - बभर्ज बभर्जतुः बभर्जुः बभर्जे बभर्जात बभर्जिरे बभर्जिथ / बभष्ठ बभर्जथुः बभर्ज बभर्जिषे बभर्जाथे बभर्जिध्ये बभर्ज बभर्जिव बभर्जिम बभर्जे बभर्जिवहे बभर्जिमहे प्रच्छ् धातु - पप्रच्छ पप्रच्छतु: पप्रच्छिथ / पप्रष्ठ पप्रच्छथुः पप्रच्छ पप्रच्छ पप्रच्छिव पप्रच्छिम व्रश्च् धातु वव्रश्च वव्रश्चतुः वव्रश्चिथ / वव्रष्ठ वव्रश्चथु: वव्रश्च वव्रश्च वव्रश्चिव वव्रश्चिम
२. नलोपी धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
इन्ध् धातु - ईन्धिभवतिभ्यां च - इन्ध् तथा भू धातु से परे आने वाले केवल अपित् लिट् प्रत्यय कित्वत् होते हैं। इन्ध् - द्वित्वादि करके - ईन्ध् + ए / अनिदितां हल उपधाया: क्डिति सूत्र से उपधा के ‘न्’ का लोप करके - ईध् + ए - ईधे। समीधे दस्युहन्तमम्। पुत्र ईधे अथर्वणः । ये प्रयोग वैदिक हैं। ध्यान रहे कि यह धातु इजादि गुरुमान् है। अतः लोक में इससे ‘आम्’ प्रत्यय लगकर, इन्धाञ्चक्रे रूप बनेगा।
- श्रन्थ्, ग्रन्थ् धातु - श्रन्थिग्रन्थिदम्भिस्वजीनाम् कित्वं वा वक्तव्यम् - श्रन्थ्, ग्रन्थ्, दम्भ, स्वञ्ज, धातुओं से परे आने वाले अपित् लिट् प्रत्यय विकल्प से कित्वत् होते हैं। पित्प्रत्ययानामपि वा कित्वं वक्तव्यम्, इति सुधाकरादय: - सुधाकर आदि के मत में पित् लिट् प्रत्यय विकल्प से कित्वत् होते हैं। कौमुदीकार को निर्मूल होने के कारण यह मत ग्राह्य नहीं है। प्रत्यय के कित्वत् होने पर - ‘अनिदितां हल उपधाया: क्ङिति’ सूत्र से अनिदित् धातुओं की उपधा के न् का लोप कीजिये - श श्रन्थ् + अतुः - शश्रथ् + अतुः = श्रेथतुः ज ग्रन्थ् + अतुः - जाथ् + अतुः = ग्रेथतु: [[३५६]] कित्वत् न होने पर - कुछ नहीं होता। श श्रन्थ् + अतुः - शश्रन्थ् + अतुः = शश्रन्थतु: ज ग्रन्थ् + अतुः - जग्रन्थ् + अतुः = जग्रन्थतु: श्रन्थश्चेति वक्तव्यम् - न्यास के अनुसार, श्रन्थ् तथा ग्रन्थ धातु की उपधा के न् का लोप होने के बाद, इसके अभ्यास का लोप होता है तथा धातु के ‘अ’ को एत्व भी होता है। __ दोनों के अनुसार श्रन्थ् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - सुधाकर के अनुसार विकल्प से नलोप, एत्व, अभ्यासलोप होने पर शश्रन्थ, श्रेथ शश्रन्थतुः, श्रेथतुः शश्रन्थुः, श्रेथु: शश्रन्थिथ, श्रेथिथ शश्रन्थतुः, श्रेथथुः शश्रन्थ, श्रेथ शश्रन्थ, श्रेथ शश्रन्थिव, श्रेथिव शश्रन्थिम, श्रेथिम _कौमुदीकार के अनुसार नलोप, एत्व, अभ्यासलोप न होने पर शश्रन्थ शश्रन्थतु: शश्रन्थुः । शश्रन्थिथ शश्रन्थथुः शश्रन्थ शश्रन्थ शश्रन्थिव शश्रन्थिम माधव के अनुसार इससे प्रथम पुरुष एकवचन में शश्रथ तथा उत्तम पुरुष एकवचन में शश्राथ, शश्रथ रूप भी बनते हैं। ग्रन्थ् - जग्रन्थ, से जग्रन्थ, जग्रन्थतुः, जग्रन्थुः आदि इसी प्रकार बनाइये । दम्भ धातु - चूँकि श्रन्थिग्रन्थिदम्भिस्वजीनाम् कित्वं वा वक्तव्यम्, इस वार्तिक के अनुसार दम्भ धातु से परे आने वाले अपित् लिट् प्रत्यय विकल्प से कित्वत् होते हैं, अतः ‘अनिदितां हल उपधाया: क्डिति’ सूत्र से इसकी उपधा के न् का लोप होता है। सुधाकर आदि के मत में पित् प्रत्यय भी किद्वत् होते हैं। अतः पित् प्रत्यय परे होने पर भी उपधा के न् का लोप होता है। __ध्यान दें कि पक्ष में कित्वत् न होने पर नलोप नहीं होता है। दम्भेश्च - लिट् प्रत्यय परे होने पर दम्भ, के अभ्यास का लोप होता है तथा अ को एत्व होता है। अतः दम्भ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - कौमुदीकार के मत में केवल अपित् प्रत्यय किद्वत् होने पर ददम्भ ददम्भतुः, देभतुः ददम्भुः, देभुः ददम्भिथ ददम्भथुः, देभथु: ददम्भ, देभ समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३५७ ददम्भ ददम्भिव, देभिव ददम्भिम, देभिम सुधाकर के मत में सारे प्रत्यय किद्वत् होने पर ददम्भ, देभ ददम्भतुः, देभतु: ददम्भुः, देभुः ददम्भिथ, देभिथ ददम्भथुः, देभथुः ददम्भ, देभ ददम्भ, देभ ददम्भिव, देभिव ददम्भिम, देभिम __इस प्रकार श्रन्थ्, ग्रन्थ्, दम्भ, धातुओं में विकल्प से न् का लोप तथा विकल्प से एत्वाभ्यासलोप सिद्ध हुए। व धातु - परि + ष्वङ् / द्वित्वादि करके - परिषस्वज में केवल न् का लोप होता है, एत्वाभ्यासलोप नहीं होते। यथा - परिषस्वज् + ए - परिषस्वज् + ए = परिषस्वजे। यहाँ आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व होता है। यह धातु केवल आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - परिषस्वजे परिषस्वजाते परिषस्वजिरे परिषस्वजिषे परिषस्वजाथे परिषस्वजिध्वे परिषस्वजे परिषस्वजिवहे परिषस्वजिमहे
३. ऐसे धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि, जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप होते हैं
कुछ धातु ऐसे हैं जिनके ‘अ’ को ‘ए’ होता है तथा अभ्यास का लोप हो जाता है। जैसे पठ् - प पठ् - पेठ् - पेठतु: को देखिये । यहाँ पपठ् में अभ्यास जो ‘प’ है उसका लोप हो गया है, यही अभ्यासलोप है, तथा धातु के पठ् में जो ‘अ’ है उसे ‘ए’ हो गया है यही एत्व है। अब हम ऐसे धातुओं का विचार करें जिनके अभ्यास का लोप होता है, तथा ‘अ’ को ‘ए’ होता है। अत एकहलमध्येऽनादेशादेर्लिटि / थलि च सेटि - १. जिन धातुओं में एक ह्रस्व ‘अ’ हो तथा - २. उस ‘अ’ के दोनों ओर केवल एक एक हल् हो तथा - ३. अभ्यासकार्य होने के बाद जिनके अभ्यास के व्यञ्जन में कोई परिवर्तन न हुआ हो अर्थात् जिनके अभ्यास अनादेश हों, ऐसे अनादेश अभ्यास वाले धातुओं के अभ्यास का लोप हो जाता है, तथा ह्रस्व ‘अ’ को ‘ए’ हो जाता है, कित् लिट् [[३५८]] प्रत्यय परे होने पर तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर। जैसे - पठ् को द्वित्व करके बने हुए - पपठ् को देखिये - इसमें पहिला ‘प’ तो अभ्यास है। उसके बाद पठ् धातु है। इस धातु में प् + अ + ठ् ये तीन वर्ण हैं। इनमें बीच में अ है। अ के दोनों ओर एक एक हल् हैं, तथा अभ्यास अपरिवर्तित अर्थात् अनादेश है। __अतः इस धातु के अभ्यास का लोप हो जाएगा तथा ह्रस्व ‘अ’ को ‘ए’ हो जाएगा, यदि इससे परे आने वाला प्रत्यय कित् लिट् प्रत्यय हो,अथवा सेट् थल् हो। जैसे - __पपठ् + अतुः / पेठ् + अतुः = पेठतुः। इसी प्रकार पेठुः, पेठिव, पेठिम आदि रूप बनेंगे। इसी प्रकार पपठ् + इ + थल् / पेठ + इ + थ = पेठिथ । ध्यान रहे कि अनिट थल प्रत्यय परे होने पर एत्व तथा अभ्यासलोप नहीं होते। विशेष - रक्ष् धातु को देखिये। इसमें जो ‘अ’ है, उसके एक ओर तो एक हल् है तथा एक ओर क् + ए = क्ष्, ये दो हल् हैं। अतः इस धातु को द्वित्व करके जो रक्ष् - ररक्ष् बनेगा, उसके अभ्यास का लोप भी नहीं होगा और धातु को एत्व भी नहीं होगा। ररक्ष् + अतुः = ररक्षतुः । त्सर् धातु को देखिये। इसमें जो ‘अ’ है, उसके एक ओर तो त् + स् - त्स् ये दो हल् हैं तथा दूसरी ओर केवल एक हल है। अतः इस धातु को द्वित्व करके जो त्सर् - तत्सर् बनेगा, उसके अभ्यास का लोप भी नहीं होगा और धातु को एत्व भी नहीं होगा। तत्सर् + अतु: = तत्सरतुः ।। जिन अभ्यासों में कोई परिवर्तन नहीं होता, उन अभ्यासों को अनादेश अभ्यास कहा जाता है। अब हम जानें कि किन धातुओं का अभ्यास अनादेश होता है ? अभ्यासकार्य में हम पढ़ चुके हैं कि जिन धातुओं के आदि में कवर्ग न हो, किसी भी वर्ग के प्रथम, तृतीय, पञ्चम वर्ण हों, य, र, ल, व हों या श, ष, स, हों, ऐसे धातुओं के अभ्यास का वर्ण अपरिवर्तित अर्थात् अनादेश रहता है। __ ऐसे अनादेश अभ्यास वाले धातुओं को हम चार हिस्सों में बतला रहे हैं। ३०२ से ३११ पृष्ठ में दी हुई लिट् प्रत्ययों की इडागम विधि को अच्छी तरह याद रखें, उसके बाद ही इसमें प्रवेश करें। समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३५९ १. वे अनादेश अभ्यास वाले धातु, जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप होते ही नहीं हैं। न शसददवादिगुणानाम् - हम पढ़ चुके हैं कि ऋकारान्त धातुओं को कित् प्रत्यय परे होने पर ‘ऋच्छत्य॒ताम्’ सूत्र से गुण करके ‘अ’ बनता है। जिनमें गुण करके ‘अ’ बना हो, ऐसे धातुओं के अभ्यास भले ही अनादेश हों, तो भी इनके ‘अ’ को न तो एत्व होता है, न ही इनके अभ्यास का लोप होता है। विशृ - विशशरतुः, विशशरु:, विशशरिथ आदि । इनके अलावा ‘शस्’ ‘दद्’ तथा वकारादि धातुओं के ‘अ’ को भी न तो एत्व होता है न ही इनके अभ्यास का लोप होता है। ये धातु इस प्रकार हैं। शस् दद् वज् वख् वट वठ् वण् वन् वन् वल् वष् वम् वन् = १३ । ये धातु अदुपध हैं। इनके रूप इस प्रकार बनेंगे - अदुपध धातु + प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय अत उपधाया: - अङ्ग की उपधा के ह्रस्व अ को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। शशस् + णल् (अ) / अत उपधाया: सूत्र से वृद्धि होकर - शशास् + अ = शशास। __ अदुपध धातु + उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय ‘णलुत्तमो वा’ सूत्र से उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् होने पर - शशस् + णल् (अ) / अत उपधाया: सूत्र से वृद्धि होकर - शशास् + अ = शशास। उत्तम पुरुष के णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - शशस् + णल् (अ) = शशस । शस् धातु - शशास शशसतुः शशसिथ शशसथुः शशस शशास / शशस शशसिव शशसिम दद् धातु - यह धातु आत्मनेपदी है। दददे दददाते दददिरे दददिषे दददाथे दददिध्वे दददे दददिवहे दददिमहे शशसु: [[३६०]] वकारादि धातु - ववाम ववमतुः ववमुः ववमिथ ववमथुः ववम ववाम / ववम ववमिव ववमिम इसी प्रकार शेष वकारादि वज्, वख्, वट, वठ्, वण, वन्, वन्, वल्, वष्, वन् धातुओं के रूप बनाइये। २. वे अनादेश अभ्यास वाले धातु, जिनसे परे आने वाले थल् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है अतः थल् प्रत्यय परे होने पर जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप भी विकल्प से ही होते हैं - शप् पच् षद् शद् तप् शक् यस् नम् यम् नश् दह् नह रम् लभ् र पद् मन् = १२ सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर - इन धातुओं से परे जब सेट् थल् प्रत्यय परे हो, तब ‘थलि च सेटिं’ सूत्र से इनके अभ्यास का लोप कीजिये और इनके ‘अ’ को ‘ए’ बनाइये। पच् - पपच् + इट् + थल् / पपच् + इ + थ / अभ्यास का लोप करके और अ को ए बनाकर = पेचिथ। अनिट् थल् प्रत्यय परे होने पर - इन धातुओं से परे जब अनिट् थल प्रत्यय परे हो, तब इनके अभ्यास का लोप मत कीजिये और इनके ‘अ’ को ‘ए’ भी मत बनाइये। यथा - पच् - पपच् + थल् - पपच् + थ - पपक्थ। इन धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार हैं - . पच् धातु, उभयपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - पपाच पेचतुः पेचुः पेचे पेचाते पेचिरे पेचिथ / पपक्थ पेचथुः पेच पेचिषे पेचाथे पेचिध्वे पपाच / पपच पेचिव पेचिम पेचे पेचिवहे पेचिमहे शप् धातु उभयपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - शशाप शेपतुः शेपुः शेपे शेपाते शेपिरे शेपिथ / शशप्थ शेपथुः शेप शेपिषे शेपाथे शेपिध्वे शशाप / शशप शेपिव शेपिम शेपे शेपिवहे शेपिमहे शक् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३६१ शेद तेपतुः शशाक शेकुः शशक्थ / शेकिथ शेकथु: शेक शशाक / शशक शेकिव शेकिम षद् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ससाद सेदतु: सेदुः ससत्थ / सेदिथ सेदथुः सेद ससाद / ससद सेदिव सेदिम शद् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - शशाद शेदतः शेदुः शशत्थ / शेदिथ शेदथु: शशाद / शशद शेदिव शेदिम तप् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - तताप ततप्थ / तेपिथ तेपथुः तताप / ततप तेपिव दह् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ददाह देहतु: ददग्ध / देहिथ देहथुः ददाह / ददह देहिव देहिम नह् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ननाह नेहतु: ननद्ध / नेहिथ नेहथुः ननाह / ननह नेहिव नेहिम यभ् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ययाभ येभतु: ययब्ध / येभिथ येभथु: येभ ययाभ / ययभ येभिव येभिम यम् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ययाम येमतुः येमुः REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE तेप तेपिम देह नेहुः नेह येभुः F [[३६२]] येम ययन्थ / येमिथ येमथु: ययाम / ययम येमिव येमिम नम् धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ननाम नेमतु: नेमुः ननन्थ / नेमिथ नेमथुः नेम ननाम / ननम नेमिव नेमिम नश् धातु - परस्मैपदी। ‘रधादिभ्यश्च’ सूत्र से यह धातु ‘थलि वेट, लिटि वेट’ है। मस्जिनशोझलि - मस्ज् तथा नश् धातु से परे आने वाले झलादि प्रत्ययों को नुम् का आगम होता है - ननश् + थल् - ननंश् + थ = ननंष्ठ। __यदि हम नश् धातु से सेट ‘थल्’ प्रत्यय लगायेंगे, तब यह नुमागम नहीं होगा। ननश् + इ + थ / अभ्यासलोप तथा एत्व करके = नेशिथ। ननाश नेशतु: नेशुः ननंष्ठ / नेशिथ नेशथु: नेश ननाश / ननश नेशिव / नेश्व नेशिम / नेश्म मन् धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - मेनाते मेनिरे मेनिषे मेनाथे मेनिध्वे मेनिवहे मेनिमहे रम् धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - रेमाते रेमिषे रेमाथे रेमिध्वे रेमे रेमिवहे रेमिमहे रभ् धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - रेभाते रेभिरे रेभिले रेभाथे रेभिध्वे रेभे रेभिवहे रेभिमहे लभ् धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - लेभाते लेभिरे मेने मेने रेमे रेमिरे रेभे लेभे समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३६३ लेभिषे लेभाथे लेभिध्वे लेभे लेभिवहे लेभिमहे पद् धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - पेदे पेदाते पेदिरे पेदिषे पेदाथे पेदिध्वे पेदे पेदिवहे पेदिमहे __३. वे अनादेश अभ्यास वाले धातु, जिनसे परे आने वाले थल् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है अतः थल् प्रत्यय परे होने पर जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप भी नित्य ही होते हैं - चक् तक् मख् णख् रख् लख् दध् षघ् मच् शच् षच् जज् लज् जट् तट नट् पट् रट लट् शट् षट् पठ् मठ् शठ् लड् मण् रण षण् चत् पत् यत् पथ् मथ् चद् णद् नद् रद् दध् बध् जन् तन् सन् चप् जप् रप् लप् षप् रफ् णभ् चम् जम् णम् षम् चय् णय तय् पय् मय् रय् चर् दल चल जल् टल् णल् पल् मल् वल् शल् बल् षल् मव् षव् मश् शश् चष् जष् मण् लष् शष् रस् लस् षस् सस् चह् मह र षह इनमें यह ध्यान रखिये कि थल् प्रत्यय परे होने पर इन्हें नित्य एत्व तथा अभ्यासलोप होते हैं। जैसे - ततान तेनतुः तेनुः तेने तेनाते तेनिरे तेनिथ तेनथुः तेन तेनिषे तेनाथे तेनिध्वे ततान / ततन तेनिव तेनिम तेने तेनिवहे तेनिमहे इसी प्रकार इन सबके रूप बनायें। पद का ध्यान रखें। ४. अन्य धातु जिन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप होते हैं अब वे धातु बतला रहे हैं, जिन्हें सादेश होने के कारण, या अन्य किसी कारण से एत्व तथा अभ्यासलोप का निषेध किया जा चुका है, तब भी उन्हें एत्व तथा अभ्यासलोप होते हैं। ये धातु इस प्रकार हैं - फल्, भज्, त्रप् धातु, श्रन्थ् धातु, हिंसार्थक राध् धातु, भ्रम्, त्रस् धातु [[३६४]] तथा फण, राज्, भ्राज्, भ्राश्, भ्लाश्, स्यम्, स्वन् ध्वन्, तृ, जृ धातु = १७ १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर इनके अभ्यास का लोप कीजिये तथा धातु के ‘अ’ को ‘ए’ कीजिये। इन १७ धातुओं के अभ्यास का लोप करने वाले तथा धातु के अ को एत्व करने वाले सूत्र इस प्रकार हैं - तृफलभजत्रपश्च - तृ, फल, भज्, त्रप् इन धातुओं को द्वित्व करके बने हुए धातुओं के अभ्यास का लोप होता है तथा धातु के ‘अ’ को एत्व होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर। त धातु - ततृ + इट् + थ / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके - ततर् + इ + थ - तृफलभजत्रपाम्’ से अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके = तेरिथ। ततृ + अतुः / ‘ऋच्छत्यृताम्’ से ऋ को गुण करके - ततर् + अतु: - तृफलभजत्रपाम्’ से अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके = तेरतुः । इसी प्रकार सारे कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर बनाइये। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - ततार तेरतु: तेरिथ तेरथुः तेर ततार / ततर तेरिव __फल् धातु - यह सेट् परस्मैपदी धातु है। पफाल फेलतु: फेलिथ फेलथुः फेल पफाल / पफल फेलिव फेलिम भज् धातु - यह धातु उभयपदी है। चूँकि भज् धातु, थलि वेट है, अतः थल् परे होने इसके दो दो रूप बनते हैं। बभाज भेजुः भेजिथ / बभक्थ भेजथु: भेज बभाज / बभज भेजिव त्रपूष् - त्रप् धातु - यह धातु आत्मनेपदी है। तेरु: तेरिम फेलुः भेजतुः भेजिम समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३६५ त्रेपे ध्यान रहे कि ऊदित् होने के कारण यह धातु ‘थलि वेट, लिटि वेट’ है। अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये त्रेपाते त्रेपिरे त्रेपिणे, त्रेप्से नेपाथे त्रेपिध्वे, त्रेध्ये त्रेपे त्रेपिवहे, त्रेप्वहे त्रेपिमहे, त्रेप्महे श्रन्थ्, ग्रन्थ् धातु - ‘श्रन्थिग्रन्थिदम्भिस्वजीनाम् कित्वं वा वक्तव्यम्’ इस वार्तिक से अपित् लिट् प्रत्यय के विकल्प से कित्वत् होने पर श्रन्थ्, ग्रन्थ् के न् का ‘अनिदितां हल उपधाया: क्डिति’ सूत्र से लोप कीजिये। लोप करके देखिये कि श्रन्थ् तथा ग्रन्थ् धातु के ‘अ’ के दोनों ओर दो दो हल हैं, तब भी इनके अभ्यास का ‘श्रन्थश्चेति वक्तव्यम्’ इस वार्तिक से लोप करके धातु के ‘अ’ को कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर, एत्व कीजिये। श्रन्थ् - शश्रन्थ् + इ + थल् / अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके - श्रेथ् + इ + थ = श्रेथिथ। इसी प्रकार - शश्रन्थ् + अतुः = श्रेथतुः । दोनों के अनुसार श्रन्थ्, ग्रन्थ् धातुओं के पूरे रूप पृष्ठ ३५५ - ३५६ पर देखिये। राधो हिंसायाम् - स्वादिगण के राध् धातु का अर्थ हिंसा करना होता है। इसे द्वित्व करके बने हुए धातु ‘रराध्’ के अभ्यास का भी लोप होता है तथा धातु के ‘आ’ को एत्व होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर। अप + राध् धातु - यह धातु चूँकि थलि सेट, लिटि सेट है। अपरराध अपरेधतुः अपरेधु: अपरेधिथ अपरेधथुः अपरेध अपरराध अपरेधिव अपरेधिम ध्यान रहे कि दिवादिगण के राध् धातु को एत्वाभ्यासलोप नहीं होते हैं । रराध रराधतु: रराधु: रराधिथ रराध रराध रराधिव रराधिम रराधथुः [[३६६]] वा भ्रमुत्रसाम् - , भ्रम्, त्रस्, धातुओं को द्वित्व करके बने हुए अङ्ग जजु, बभ्रम्, तत्रस्, के अभ्यास का विकल्प से लोप होता है तथा धातुओं के अ को विकल्प से एत्व होता है, कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट् थल् प्रत्यय परे होने पर। २. जृ धातु - ‘वा जृभ्रमुत्रसाम्’ से अभ्यास का लोप तथा ‘अ’ को एत्व न करके - जलृ + इ + थल् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: से गुण करके - जजर् + इ + थल् = जजरिथ। इसे एक पक्ष में अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके - जेरिथ भी बनेगा। अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व न करके - जजृ + अतु: / ‘ऋच्छत्यृताम्’ से ऋ को गुण करके - जजर् + अतु: - जजरतुः । इसे एक पक्ष में अभ्यास का लोप तथा अ को एत्व करके = जेरतु: भी बनेगा। इसी प्रकार सारे कित् लिट् प्रत्ययों में विकल्प से अभ्यासलोप तथा एत्व होंगे। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - जजार जेरतु: / जजरतु: जेरु: / जजरु: जेरिथ / जजरिथ जेरथुः / जजरथुः जेर / जजर जजार / जजर जेरिव / जजरिव जेरिम / जजरिम भ्रम् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके भ्रम् - बभ्रम् + थल् - भ्रम् + थ = भ्रमिथ भ्रम् - बभ्रम् + थल् - बभ्रम् + थ = बभ्रमिथ भ्रम् - बभ्रम् + अतुः - भ्रम् + अतुः = भ्रमतुः भ्रम् - बभ्रम् + अतुः - बभ्रम् + अतु: = बभ्रमतु: आदि। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - बभ्राम भ्रेमतुः / बभ्रमतुः भ्रेमुः / बभ्रमुः भ्रेमिथ / बभ्रमिथ भ्रमथुः / बभ्रमथु: भ्रेम / बभ्रम बभ्राम / बभ्रम भ्रमिव / बभ्रमिव भ्रेमिम / बभ्रमिम त्रस् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके त्रस् - तत्रस् + थल् - त्रेस् + थ । त्रेसिथ त्रस् - तत्रस् + थल् - तत्रस् + थ - तत्रसिथ समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३६७ त्रस् - तत्रस् + अतुः - त्रेस् + अतु: - सतुः त्रस् - तत्रस् + अतुः - तत्रस् + अतुः - तत्रसतु: आदि। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - तत्रास त्रेसतुः / तत्रसतु: त्रेसुः / तत्रसुः त्रेसिथ / तत्रसिथ त्रेसथुः / तत्रसथुः स / तत्रस तत्रास / तत्रस त्रेसिव / तत्रसिव सिम / तत्रसिम फणां च सप्तानाम् - फण, राज्, भ्राज्, भ्राश्, भ्लाश्, स्यम्, स्वन्, ध्वन्, ये फणादि धातु हैं। फणादि आठ धातुओं के अभ्यास यद्यपि सादेश हैं, तब भी इनके अभ्यास का लोप, तथा धातु के अवर्ण को विकल्प से एत्व होता है, १५ कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, तथा सेट थल् प्रत्यय परे होने पर। फण् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके फण् - पफण् + थल् - फेण + थ = फेणिथ फण - पफण् + थल् - पफण् + थ = पफणिथ फण् - पफण् + अतुः - फेण + अतुः = फेणतु: फण - पफण् + अतुः - पफण् + अतः = पफणत: आदि । इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - पफाण फेणतुः / पफणतु: फेणुः / पफणुः फेणिथ / पफणिथ फेणथुः / पफणथुः फेण / पफण पफाण / पफण फेणिव / पफणिव फेणिम / पफणिम राज् धातु - यह धातु उभयपदी है। इसे विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके - राज् - रराज् + ए - रेज् + ए = रेजे राज् - रराज् + ए - रराज् + ए = रराजे परस्मैपद में, इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये रराज रेजतुः / रराजतुः रेजुः / रराजु: रेजिथ / रराजिथ रेजथुः / रराजथुः रेज / रराज रराज रेजिव / रराजिव रेजिम / रराजिम आत्मनेपद में, इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - [[३६८]] EEEEEEEEEEEEEEE रेजे / रराजे रेजाते / रराजाते रेजिरे / रराजिरे रेजिषे / रराजिषे रेजाथे / रराजाथे रेजिध्वे / रराजिध्वे रेजे / रराजे रेजिवहे / रराजिवहे रेजिमहे / रराजिमहे भ्राज् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके भ्राज् - बभ्राज् + ए - भेज् + ए = भेजे भ्राज् - बभ्राज् + ए - बभ्राज् + ए = बभ्राजे यह धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - भेजे / बभ्राजे भेजाते / बभ्राजाते भेजिरे / बभ्राजिरे भ्रेजिषे / बभ्राजिषे भेजाथे / बभ्राजाथे भेजिध्वे / बभ्राजिध्वे भ्रेजे / बभ्राजे भेजिवहे / बभ्राजिवहे भेजिमहे / बभ्राजिमहे भ्राश् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके भ्राश् - बभ्राश् + ए - भ्रेश् + ए = भ्रेशे भ्राश् - बभ्राश् + ए - बभ्राश् + ए = बभ्राशे यह धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - भ्रेशे / बभ्राशे भेशाते / बभ्राशाते भ्रशिरे / बभ्राशिरे भ्रेशिषे / बभ्राशिषे भ्रशाथे / बभ्राशाथे भ्रशिध्वे / बभ्राशिध्वे भ्रेशे / बभ्राशे भ्रशिवहे / बभ्राशिवहे भ्रशिमहे / बभ्राशिमहे भ्लाश् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके - भ्लाश् - बभ्लाश् + ए - भ्लेश् + ए = भ्लेशे भ्लाश् - बभ्लाश् + ए - बभ्लाश् + ए = बभ्लाशे __ यह धातु आत्मनेपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - भ्लेशे / बभ्लाशे भ्लेशाते / बभ्लाशाते भ्लेशिरे / बभ्लाशिरे भ्लेशिषे / बभ्लाशिषे श्लेशाथे / बभ्लाशाथे भ्लेशिध्वे / बभ्लाशिध्वे भ्लेशे / बभ्लाशे भ्लेशिवहे / बभ्लाशिमहे भ्लेशिमहे / बभ्लाशिमहे स्यम् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके स्यम् - सस्यम् + थल - सस्यम् + इ + थ = सस्यमिथ स्यम् - सस्यम् + थल - स्येम् + इ + थ = स्येमिथ यह धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३६९ सस्याम स्येमतुः / सस्यमतुः स्येमुः / सस्यमुः स्येमिथ / सस्यमिथ स्येमथुः / सस्यमथु: स्येम / सस्यम सस्याम / सस्यम स्येमिव / सस्यमिव स्येमिम / सस्यमिम स्वन् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके स्वन् - सस्वन् + इट् + थल् - सस्वन् + इ + थ - सस्वनिथ स्वन् - सस्वन् + इट् + थल् - स्वेन् + इ + थ - स्वेनिथ यह धातु परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - सस्वान स्वेनतुः / सस्वनतुः स्वेनुः / सस्वनुः स्वेनिथ / सस्वनिथ स्वेनथुः / सस्वनथुः स्वेन / सस्वन सस्वान / सस्वन स्वेनिव / सस्वनिव स्वेनिम / सस्वनिम __ध्वन् धातु - विकल्प से अभ्यास का लोप तथा धातु के अ को ‘ए’ करके ध्वन् - दध्वन् + इट् + थल् - दध्वन् + इ + थ = दध्वनिथ ध्वन् - दध्वन् + इट् + थल् - ध्वेन् + इ + थ = ध्वेनिथ __ यह धात् परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - दध्वान ध्वेनतुः / दध्वनतुः ध्वेनुः / दध्वनुः ध्वेनिथ / दध्वनिथ, ध्वेनथुः / दध्वनथुः ध्वेन / दध्वन दध्वान / दध्वन ध्वेनिव / दध्वनिव ध्वेनिम / दध्वनिम
४. सम्प्रसारणी तथा एत्वाभ्यासलोपी धातुओं से बचे हुए अदुपध धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
अब हम उन अदुपध धातुओं के रूप बनायेंगे, जो सम्प्रसारणी नहीं हैं तथा एत्वाभ्यासलोपी भी नहीं हैं। ३०२ से ३१० पृष्ठ पर दी हुई, ‘इडागम विधि’ को पढ़कर, थल तथा अन्य लिट् प्रत्ययों के लिये इडागम का भली प्रकार से निर्णय कर लीजिये। सन्धियों का भी दृढ़ स्मरण कर लीजिये। अब हम केवल अङ्गकार्य बतलायेंगे। अदुपध धातुओं में प्रथम पुरुष का णल् प्रत्यय लगाने की विधि - अत उपधाया: - अङ्ग की उपधा के ह्रस्व अ को वृद्धि होती है जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। ज्वल् - जज्वल् + णल् (अ) अत उपधाया: से उपधा के ह्रस्व अ को वृद्धि होकर - जज्वल् + अ = जज्वाल। अदुपध धातुओं में उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय लगाने की विधि - [[३७०]] सवलत. णलुत्तमो वा - उत्तम पुरुष का णल् प्रत्यय विकल्प से णित् होता है। णल् प्रत्यय के णित् होने पर - ज्वल - जज्वल् + णल् (अ) अत उपधाया: से उपधा के ह्रस्व अ को वृद्धि होकर - जज्वल् + अ = जज्वाल। णल् प्रत्यय के णित् न होने पर - अङ्ग को अत उपधाया: से वृद्धि नहीं होती। ज्वल - जज्वल + णल् (अ) = जज्वल। अदुपध धातुओं में शेष लिट् प्रत्यय लगाने की विधि इनके लगने पर अदुपध धातुओं को कुछ मत कीजिये - जज्वल् + अतु: = जज्वलतु: आदि। इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - जज्वाल जज्वलतु: जज्वलु: जज्वलिथ जज्वलथुः जज्वल जज्वाल / जज्वल जज्वलिव जज्वलिम इसके अपवाद - गम् - द्वित्वादि होकर जगम् धातु - गमहनजनखनघसां लोप: क्डित्यनङि - गम्, हन्, जन्, खन्, घस्, इन अदुपध धातुओं की उपधा के ‘अ’ का लोप होता है कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर। ध्यान रहे कि णल्, थल्, णल् प्रत्यय कित्, डित् नहीं हैं, अतः इनके लगने पर गम्, हन्, जन्, खन्, घस् धातुओं की उपधा के ‘अ’ का लोप न होकर ज्वल के समान ही रूप बनेंगे। कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर - जगम् + अतु: / उपधा के ‘अ’ का लोप होकर - जग्म् + अतु: - जग्मतु: आदि। इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - जगाम जग्मुः जगमिथ / जगन्थ जग्मथुः जग्म जगाम / जगम जग्मिव जग्मिम __ हन् - द्वित्वादि होकर जघन् धातु - जघन् + अतु: - उपधा के अ का लोप होकर - जघ्न् + अतु: - जघ्नतुः। इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - जघान जघ्नतु: जघनिथ / जघन्थ जघ्नथुः जघ्न जघान / जघन जनिव जघ्निम __ जन् - द्वित्वादि होकर जजन् धातु - यह धातु दिवादिगण में आत्मनेपदी जग्मतुः जनः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३७१ आत्मनप चख्नतुः है तथा जुहोत्यादिगण में परस्मैपदी है। अतः दोनों पदों में इसके रूप बनायें। जजन् + णल् / अत उपधाया: से वृद्धि होकर - जजान। जजन् + अतुः / उपधा के अ का लोप होकर - जज्न् + अतुः / स्तो: श्चुना श्चु: से ‘न्’ को श्चुत्व ’’ होकर - जज्ञ् + अतुः / ज् + ञ् = ‘ज्ञ’ होकर - जज्ञतुः। पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद जजान जज्ञतुः जजुः जज्ञे जज्ञाते जज्ञिरे जजनिथ जज्ञथुः जज्ञ जज्ञिषे जज्ञाथे जज्ञिध्वे जजान जज्ञिव जज्ञिम जज्ञे जज्ञिवहे जज्ञिमहे खन् धातु - खन् - चखन् + अतु: - चख्न् + अतु: - चख्नतुः इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - चखान चख्नुः चखनिथ चख्नथुः चख्न चखान / चखन चख्निव चस्लिम अद् - धातु - लिट्यन्यतरस्याम् - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर अद् धातु को विकल्प से घस् आदेश होता है - घस् आदेश होने पर - घस् - जघस् + अतुः / ‘गमहनजनखनघसां लोप: क्ङित्यनङि’ से उपधा का लोप करके - जघ्स् + अतु: - शासिवसिघसीनाञ्च - शास्, वस् घस् धातुओं के इण और कवर्ग से परे आने वाले सकार को मूर्धन्य षकार आदेश होता है। जघ्स् + अतुः / जघ्ष् + अतु: / खरि च से घ् को चर्व करके - जक् ष् + अतुः / क् + ष् = क्ष् बनाकर - जक्षतुः। इसके पूरे रूप इस प्रकार हैं - जघास जक्षतुः जक्षुः जघसिथ जक्षथुः जक्ष जघास / जघस जक्षिव जक्षिम अद् के स्थान पर अद् ही रहने पर - द्वित्वादि होकर आद् - [[३७२]] आद आद आदतुः आदु: आदिथ आदथुः आद आदिव __ आदिम दय् धातु - यह धातु आत्मनेपदी है। दयतेर्दिगि लिटि - दय् धातु को लिट् लकार के सारे प्रत्यय परे होने पर ‘दिगि’ आदेश होता है। देखिये कि अब यह धातु ‘असंयोगपूर्व इकारान्त’ है। अतः इसके रूप बनाने की विधि ‘असंयोगपूर्व इकारान्त’ धातुओं के समान ही होगी। दय् - दिगि + ए / ‘एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्य’ सूत्र से यण् होकर - दिग्य् + ए = दिग्ये। इसी प्रकार शेष रूप बना डालिये। पूरे रूप इस प्रकार बने - दिग्ये दिग्याते दिग्यिरे दिग्यिषे दिग्याथे दिग्यिध्वे दिग्ये दिग्यिवहे दिग्यिमहे जभ - द्वित्वादि होकर जजभ धातु - जजभ् + णल् / रधिजभोरचि से नुमागम होकर - जज नुम् भ् + णल् / जज न् भ् + णल् = जजम्भ आदि । जभ के पूरे रूप इस प्रकार हैं - जजम्भ जजम्भतुः जजम्भुः जजम्भिथ जजम्भथुः जजम्भ जजम्भ जजम्भिव जजम्भिम अस् धातु - अस्तेर्भूः - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है। अस् = भू। बभूव बभूवतुः बभूवुः बभूविथ बभूवथुः बभूव बभूव बभूविव बभविम इसके लिट् लकार के रूप ऊकारान्त ‘भू’ धातु के समान बनाइये। भू धातु की प्रक्रिया ३३४ पृष्ठ पर देखिये। अज् धातु - अजेळघञपो: - घञ्, अप् के अलावा शेष सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अज् धातु को वी आदेश होता है। अज् = वी। वी आदेश होने पर ईकारान्त धातुओं के समान रूप बनेंगे - समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३७३ वेव्यथः विव्याय विव्यतुः विव्यु: विव्ययिथ विव्य विव्याय / विव्यय विव्यिव विव्यिम क्षम् - द्वित्वादि होकर - चक्षम् धातु - ध्यान रहे कि ऊदित् होने के कारण यह धातु ‘सातों प्रत्ययों में वेट’ है। वकारादि तथा मकारादि प्रत्यय परे होने पर इसके पूरे रूप इस प्रकार बनाइये - चक्षम् + वहे / म्वोश्च - म् के स्थान पर ‘न्’ आदेश होता है, वकारादि तथा मकारादि प्रत्यय परे होने पर। चक्षम् + वहे - चक्षन् + वहे / रषाभ्यां णो न: सूत्र से ‘न्’ को णत्व करके - चक्षण्वहे। इसी प्रकार चक्षम् + महे - चक्षण्महे। चक्षाम चक्षमतुः चक्षमुः चक्षमिथ / चक्षन्थ चक्षमथुः चक्षम चक्षाम / चक्षम चक्षण्व / चक्षमिव . चक्षण्म / चक्षमिम त्यज् धातु - यह धातु परस्मैपदी ‘थलि वेट लिटि सेट्’ है। अपस्पृधेथामानृचुरानृहुश्चिच्युषेतित्याजाश्राता:श्रितमाशीराशीर्ता: - लोक में त्यज् धातु से, अभी बतलाये अनुसार ‘तत्याज’ ही बनता है, किन्तु वेद में त्यज् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण होकर ‘तित्याज’ बनता है। एत्वाभ्यासलोपी अदुपध धातुओं के रूप उनके वर्ग में बतलाये जा चुके हैं। शेष अदुपध धातुओं के रूप ‘ज्वल्’ धातु के समान ही बनाइये। अब इदुपध, उदुपध, ऋदुपध धातुओं के रूप बनाने के लिये एक साथ सामान्य अङ्गकार्य बतला रहे हैं। _ जिनकी उपधा में लघु इ हों, उन्हें इदुपध, जिनकी उपधा में लघु उ हों उन्हें उदुपध, जिनकी उपधा में लघु ऋ हों, उन्हें ऋदुपध, धातु कहते हैं। इ, उ, ऋ को इक् भी कहते हैं। अतः इन सभी को लघु इगुपध धातु भी कह सकते हैं। इन लघु इगुपध धातुओं को, लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, इस प्रकार से अङ्गकार्य कीजिये - __ लघु इगुपध धातु + णल्, थल्, णल् प्रत्यय पुगन्तलघूपधस्य च - उपधा में आने वाले लघु इ, लघु उ, लघु ऋ, को गुण होता है, कित्, ङित् से भिन्न प्रत्यय परे होने पर। इदुपध धातु - [[३७४]] क्षिप् + णल् - उपधा को गुण होकर - चिक्षेप। चिक्षिप् + इ + थल् - उपधा को गुण होकर - चिक्षेपिथ। चिक्षिप् + णल् - उपधा को गुण होकर - चिक्षेप। उदुपध धातु - मुमुच् + णल् - उपधा को गुण होकर - मुमोच । मुमुच् + इ + थल् - उपधा को गुण होकर - मुमोचिथ। मुमुच् + णल् - उपधा को गुण होकर - मुमोच । ऋदुपध धातु - ममृध् + णल् - उपधा को गुण होकर - ममर्ध । ममृध् + इ + थल् - उपधा को गुण होकर - ममर्धिथ। ममृध् + णल् - उपधा को गुण होकर - ममर्ध। __लघु इगुपध धातु + शेष १५ लिट् प्रत्यय असंयोगाल्लिट कित् - असंयोगान्त धातुओं से परे आने वाले, अपित् लिट् प्रत्यय कित्वत् होते हैं। इगुपध धातु भी असंयोगान्त धातु हैं, अतः इनसे परे आने वाले, अपित् लिट् प्रत्यय भी कित्वत् होते हैं। क्डिति च - कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर, इक् के स्थान पर होने वाले गुण, वृद्धि नहीं होते। अतः अपित् लिट् प्रत्यय परे होने पर, धातु की उपधा के लघु इ, लघु उ, लघु ऋ को गुण मत कीजिये। जैसे - इदुपध धातु - चिक्षिप् + अतुः - ‘क्ङिति च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण निषेध करके = चिक्षिपतुः, आदि। __ उदुपध धातु - मुमुच् + अतु: - ‘डिति च’ सूत्र से उपधा के ‘उ’ को गुण निषेध करके = मुमुचतुः, आदि। ऋदुपध धातु - ममध् + अतुः - ‘क्ङिति च’ सूत्र से उपधा के ‘ऋ’ को गुण निषेध करके = ममर्धतुः, आदि। __
५. इदुपध धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
__ अभी कही हुई अङ्गकार्य की विधि को पढ़िये। इडागम तथा सन्धि का सम्यक् विचार कीजिये। इदुपध धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार बने - इदुपध क्षिप् - चिक्षिप् धातु - समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३७५ परस्मैपद म आत्मनेपद चिक्षेप चिक्षिपतुः चिक्षिपुः चिक्षिपे चिक्षिपाते चिक्षिपिरे चिक्षेपिथ चिक्षिपथुः - चिक्षिप चिक्षिपिणे चिक्षिपाथे चिक्षिपिध्वे चिक्षेप चिक्षिपिव चिक्षिपिम चिक्षिपे चिक्षिपिवहे चिक्षिपिमहे इसके अपवाद - इकारादि इदुपध धातु - इष्, इख्, इल् धातु - इनके रूप इस प्रकार बनाइये - णल्, णल् प्रत्यय परे होने पर - इष् - इ इष् + णल् / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - इ एष् - अभ्यासस्यासवर्णे - अभ्यास के इ, उ को क्रमशः इयङ्, उवङ् आदेश होते हैं, असवर्ण अच् परे होने पर। __अब देखिये कि अभ्यास है ‘इ’। उससे परे असवर्ण अच् है ‘ए’। अतः अभ्यास के ‘इ’ को अभ्यासस्यासवर्णे सूत्र से इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् + एष् - इयेष रूप बना। उत्तमपुरुष के णल् से भी ‘इयेष’ रूप बनेगा। थल् प्रत्यय परे होने पर - इष् - इ इष् + इ + थल् / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके - इ एष् + इ + थ। अब देखिये कि अभ्यास है ‘इ’ । उससे परे असवर्ण अच् है ए। तो अभ्यास को इयङ् (इय्) आदेश होकर - इय् एष् + इ + थ - इयेषिथ शेष कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर - इष् - इ इष् + अतुः / ‘क्डिति च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण निषेध होने के कारण, ‘अक: सवर्णे दीर्घः’ सूत्र से दीर्घ सन्धि करके - ईषतुः। सारे कित् लिट् प्रत्ययों के परे होने पर, इसी प्रकार रूप बनाइये। यह धातु परस्मैपदी ‘थलि सेट’ है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - इयेष ईषतुः ईष: इयेषिथ इयेष __इसी प्रकार इख से इयेख तथा इल से इयेल आदि रूप बनाइये।
६. उदुपध धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
__ अभी बतलाई हुई अङ्गकार्य की विधि को पढ़िये। इडागम का सम्यक् विचार कीजिये। इसके अनुसार उदुपध धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार बने - उदुपध मुच् - मुमुच् धातु - ईषथुः ईष __ईषिम ईषिव [[३७६]] परस्मैपद आत्मनेपद मुमोच मुमुचतुः मुमचुः मुमुचे मुमुचाते मुमुचिरे मुमोचिथ मुमुचथुः मुमुच मुमुचिषे मुमुचाथे मुमुचिध्वे मुमोच मुमुचिव मुमुचिम मुमुचे मुमुचिवहे मुमुचिमहे इसके अपवाद - १. गुहू धातु - ऊदुपधाया गोह: - गुह् धातु की उपधा के ‘उ’ को दीर्घ होता है, अजादि प्रत्यय परे होने पर। गुह् - जुगुह् + ए / जुगूह + ए - जुगृहे आदि। ऊदित् होने के कारण यह धातु थलि वेट, लिटि वेट है। जुगूहे जुगूहाते जुगूहिरे जुघुक्षे, जुगूहिषे जुगूहाथे जुघुढ्वे, जुगूहिध्वे जुगूहे __ जुगुहहे, जुगूहिवहे जुगुह्महे, जुगूहिमहे २. उकारादि, उदुपध धातु - उष्, उखु, उठ्, उच्, उभ्, धातु - इनके रूप इस प्रकार बनाइये णल्, णल् प्रत्यय परे होने पर - उष् - उ उष् + णल् / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘उ’ को गुण करके - उ ओष् अभ्यासस्यासवर्णे - अभ्यास के इ - उ को क्रमशः इयङ्, उवङ् आदेश होते हैं, असवर्ण अच् परे होने पर। अब देखिये कि अभ्यास है ‘उ’। उससे परे असवर्ण अच् है ‘ओ’ । अतः अभ्यास के ‘उ’ को अभ्यासस्यासवर्णे सूत्र से उवङ् (उच्) आदेश होकर - उत् + ओष् - उवोष रूप बना। थल् प्रत्यय परे होने पर - उष् - उ उष् + इ + थल् / ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘उ’ को गुण करके - उ ओष् + इ + थ। अब देखिये कि अभ्यास है ‘उ’। उससे परे असवर्ण अच् है ‘ओ’ । तो अभ्यास को उवङ् (उच्) आदेश होकर - उव् ओष् + इ + थ - उवोषिथ उष् - उ उष् + णल् - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘उ’ को गुण करके - उ ओष् + अ / अभ्यासस्यासवर्णे सूत्र से अभ्यास को उवङ् (उव्) आदेश करके - उव् ओष् + अ - उवोष। _ शेष कित् लिट् प्रत्यय परे होने पर - उष् - उ उष् + अतुः / ‘क्डिति च’ सूत्र से उपधा के ‘उ’ को गुण निषेध होने के कारण, ‘अक: सवर्णे दीर्घः’समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३७७ सूत्र से दीर्घ सन्धि करके - ऊषतुः। सारे कित् लिट् प्रत्ययों के परे होने पर, इसी प्रकार रूप बनाइये। उवोष ऊषतुः ऊषुः उवोषिथ ऊषथुः ऊष उवोष ऊषिव ऊषिम __ इसी प्रकार उख से उवोख, उठ् से उवोठ, उच् से उवोच, उभ् से उवोभ आदि बनाइये।
७. ऋदुपध धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
अभी बतलाई हुई अङ्गकार्य की विधि के अनुसार ऋदुपध धातुओं के पूरे रूप इस प्रकार बने - ऋदुपध मृध् - ममृध् धातु - परस्मैपद आत्मनेपद ममर्ध ममृधतुः ममृधुः ममृधे ममृधाते ममृधिरे ममर्धिथ ममृधथुः ममृध ममृधिषे ममृधाथे ममृधिध्वे मम ममृधिव ममृधिम ममृधे ममृधिवहे ममृधिमहे इसके अपवाद - कृपू धातु - कृपो रो ल: - कृप् धातु के ऋकारघटित ‘र’ के स्थान पर ‘ल’ आदेश होता है। कृप् - क्लुप् - चक्लप्। चक्टपे चक्लपाते चक्लूपिरे चक्लप्से, चक्लपिषे चक्लपाथे चक्लब्ध्वे, चक्लपिध्वे चक्लपे चक्लप्वहे, चक्लपिवहे चक्लप्महे, चक्लपिमहे सृज् दृश् धातु - सृज् - स सृज् + णल् - पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके = ससर्ज। सृज् - स सृज् + थल् - ‘विभाषा सृजिदृशो:’ सूत्र से इनसे परे आने वाले ‘थल्’ प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है।
- इडागम न होने पर - ससृज् + थल् - सृजिदृशोझल्यमकिति - सृज्, दृश्, धातुओं को झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर अम् का आगम होता है। ससृज् + थल - ससृ अम् ज् + थल् / [[३७८]] ससर्ज / ससृ अ ज् + थ / इको यणचि से यण् करके - सस्रज् + थ = सस्रष्ठ। इडागम होने पर - ससृज् + इट् + थल् - पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के ‘इ’ को गुण करके = ससर्जिथ। सृज् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - ससृजतुः ससृजुः सस्रष्ठ / ससर्जिथ ससृजथुः ससृज ससर्ज ससृजिव ससृजिम दृश् धातु के रूप भी ठीक इस प्रकार बनाइये - ददर्श __ ददृशतु: ददृशुः दद्रष्ठ / ददर्शिथ ददृशथुः ददृश ददर्श ददृशिव ददृशिम तृप्, दृप् धातु - ये धातु थलि वेट, लिटि वेट हैं। अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् - झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर अनिट् ऋदुपध धातुओं को विकल्प से अम् का आगम होता है। तृप् - ततृप् + थल् / ततृ अम् प् + थल् / इको यणचि से यण् करके - तत्रप् + थ = तत्रप्थ / अमागम न होने पर - ततृप् + थ - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके - ततप् + थ = ततN / इडागम होने पर - ततृप् + इथ - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके - ततप् + इथ = ततर्पिथ । पूरे रूप इस प्रकार बने - ततर्प ततृपुः ततर्थ, ततर्पिथ, तत्रप्थ ततृपथु: ततृप ततर्प ततृप्व, ततृपिव ततृप्म, ततृपिम दृप् धातु - इसके रूप तृप् के समान ही बनाइये - ददर्प ददृपतुः ददर्थ, ददर्पिथ, दद्रप्थ ददृपथुः ददृप ददर्प ददृप्व, ददृपिव __ददृप्म, ददृपिम मृजू धातु - यह धातु थलि वेट, लिटि वेट है। - मृजेर्वृद्धिः / क्डित्यजादौ वेष्यते - मृज् धातु को वृद्धि होती है, किन्तु अजादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर यह वृद्धि विकल्प से होती है। ततृपतुः ददृपुः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३७९ बबन्धतु: ममार्ज ममार्जतुः, ममृजतु: ममृजुः ममार्छ / ममार्जिथ ममार्जथु:, ममृजथुः ममृज ममार्ज / ममृज ममार्जिव, ममृजिव, ममार्जिम, ममृजिम, ममृज्व मज्म
७. शेष हलन्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि
ऐसे हलन्त धातु, जो न तो सम्प्रसारणी हैं, न ही जिनमें नलोप होता है, न ही जिन्हें एत्वाभ्यासलोप होते हैं, जो अदुपध, इदुपध, उदुपध, ऋदुपध भी नहीं हैं, ऐसे धातुओं को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके, केवल इडागम का विचार कीजिये और सन्धि करके, इनमें लिट् लकार के सारे प्रत्यय बिना किसी अङ्गकार्य के ज्यों के त्यों जोड़ दीजिये। यथा - बन्ध् - बबन्ध् धातु - बबन्ध बबन्धुः बबन्द्ध, बबन्धिथ बबन्धथुः बबन्ध बबन्ध बबन्धिव बबन्धिम दंश् - ददंश् धातु - ददंश ददंशतुः ददंशुः ददंष्ठ, ददंशिथ ददंशथुः ददंश ददंश ददंशिव ददंशिम इसके अपवाद - मस्ज् - ममस्ज् धातु - यह धातु भी थलि वेट लिटि वेट है। मस्जिनशोझलि - मस्ज् तथा नश् धातु से परे होने आने वाले झलादि प्रत्ययों को नुम् का आगम होता है - ममज्ज् + थल् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से स् का लोप करके - ममज् + थ / चो: कुः से कुत्व करके - ममग् + थ / __ मस्जिनशोलि से नुमागम करके – ममन्ग् + थ / न् को नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से अनुस्वार बनाकर - ममंग् + थ / खरि च से चर्व करके - ममंक् + थ / अनुस्वार को अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण: सूत्र से परसवर्ण करके - ममक्थ। [[३८०]] ममज्ज ममज्जतुः ममज्जुः ममक्थ, ममज्जिथ ममज्जथुः ममज्ज ममज्ज ममज्जिव ममज्जिम अर्च् - आनर्च् धातु - अपस्पृधेथामानुचुरानृहुश्चिच्युषेतित्याजाश्राता:श्रितमाशीराशीर्ता: - आनर्च आनर्चतुः आनर्चिथ आनर्चथुः आनचेथुः आनर्च आनर्च आनर्चिव आनर्चिम देखिये कि लोक में अर्च् धातु से आनर्चुः बनता है किन्तु वेद में ऊपर कहे गये अपस्पृधेथा. सूत्र से र् को सम्प्रसारण होकर आनृचुः बनता है। अर्ह - आनई धातु - आनर्ह आनहतुः आनईः आनर्हिथ आनर्हथुः आनर्ह आनर्ह आनर्हिव आनर्हिम देखिये कि लोक में अर्ह धातु से आनईः बनता है किन्तु वेद में आनर्हः न बनकर र् को सम्प्रसारण होकर आनृहु: बनता है। चक्ष् धातु - वा लिटि - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर चक्ष् धातु को विकल्प से ख्याञ् आदेश होता है। अतः इसके रूप आकारान्त ‘दा’ धातु के समान ही बनाइये। विधि ३१६ - ३१७ पृष्ठ पर देखिये। ख्याञ् आदेश होने पर - परस्मैपद आत्मनेपद चख्यौ चख्यतः चख्युः चख्ये चख्याते चख्यिरे चख्याथ / चख्यिथ चख्यथुः चख्य चख्यिषे चख्याथे चख्यिध्वे चख्यौ चख्यिव चख्यिम चख्ये चख्यिवहे चख्यिमहे ख्याञ् न आदेश होने पर - चक्ष + ए = चक्षे आदि। चक्षे चक्षाते चक्षिरे चक्षिषे चक्षाथे चक्षिध्वे चक्षे चक्षिवहे चक्षिमहे प्याय् धातु - लिड्यडोश्च - लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, प्याय समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि धातु को पी आदेश होता है। प्याय् = पी। पिप्ये पिप्याते पिप्यिरे पिप्यिषे पिप्याथे पिप्यिध्वे पिप्ये पिप्यिवहे पिप्यिमहे ऋच्छ् धातु - ऋच्छ धातु को द्वित्व अभ्यास कार्य करके हमने आनृच्छ् अङ्ग बनाया है। उसके बाद ‘ऋच्छत्य॒ताम्’ सूत्र से गुण होकर पूरे रूप इस प्रकार बने - आनछे आनछेतुः आनछुः आनच्छिथ आनछेथुः आनछे आनछे आनच्छिव आनच्छिम चाय धातु - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - चचाय - इससे लोक में चचाय / चचाये आदि रूप बनाइये। वेद में - चाय: की - वेद में चाय धातु को ‘की आदेश होकर की - कीकी - चिकी - चिकाय, चिक्यतुः, चिक्युः रूप बनते हैं। नान्यं चिक्युन निचिक्युरन्यम्। इस प्रकार हमने खण्ड खण्ड में, सारे धातुओं के, लिट् लकार के रूप बनाना सीख लिया। इसके साथ ही सारे धातुओं के लिट् लकार के धातुरूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।
अब ३३ वेट तथा ८ अनिट् धातुओं के रूप दे रहे हैं, ताकि अन्य धातुओं में इडागम सम्बन्धी सन्देह न हो
२४ ऊदित्, ८ रधादि धातु तथा निर् उपसर्ग पूर्वक कुष् धातु = ३३ धातु ‘थलि वेट, लिटि वेट’ हैं। इनसे परे आने वाले लिट् लकार के थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम करके इनके रूप इस प्रकार बनाइये - तञ्चू - ततञ्च् धातु - ततञ्च ततञ्चतुः ततञ्चुः ततञ्च ततञ्च . ततञ्च्व, ततञ्चिव ततञ्च्म, ततञ्चिम ततञ्च, ततञ्चिथ [[३८२]] वव्रश्चुः व्रश्चू - वव्रश्च् धातु - वव्रश्च वव्रश्चतु: ववष्ठ, वव्रश्चिथ वव्रश्चथुः वव्रश्च वव्रश्च वव्रश्च्व, वव्रश्चिव वव्रश्च्म, वव्रश्चिम अञ्जू - आनङ्ग् धातु - आनञ्ज आनजतु: .. आनञ्जुः आनंष्ठ, आनजिथ आनञ्जथु: आनञ्ज आनञ्ज आनज्व, आनजिव आनज्म, आनजिम मृजू - ममृज् धातु - ममार्ज ममार्जतुः, ममृजतु: ममृजुः ममार्छ / ममार्जिथ ममार्जथुः, ममृजथु: ममृज ममार्ज / ममृज ममार्जिव, ममृजिव, ममार्जिम, ममृजिम, ममृज्व ममृज्म क्लिदू - चिक्लिद् धातु - चिक्लेद चिक्लिदतु: चिक्लिदुः चिक्लेत्थ / चिक्लेदिथ चिक्लिदथुः चिक्लेद चिक्लिद्व / चिक्लिदिव चिक्लिदम/ चिक्लिदिम षिधू - सिषिध् धातु - सिषेध सिषिधतु: सिषिधुः सिषेद्ध / सिषेधिथ सिषिधथु: सिषिध सिषेध सिषिधव, सिषिध्व सिषिधम, सिषिध्म रध् - ररध् धातु - ररन्ध ररन्धतु: ररन्धुः ररद्ध, ररन्धिथ ररन्धथुः ररन्ध ररन्ध रेध्व, ररन्धिव रेध्म, ररन्धिम गुपू - जुगुप् धातु - जुगोप जुगुपतु: जुगुपुः जुगोप्थ, जुगोपिथ जुगुपथुः जुगुप जुगोप जुगुप्व, जुगुपिव जुगुप्म, जुगुपिम चिक्लिद समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि नेपाथे __ पूष् - तत्रप् धातु - ओपे पाते त्रेपिरे त्रेपिणे, त्रेप्से त्रेपिध्वे, त्रेध्वे त्रेपे पिवहे, त्रेप्वहे त्रेपिमहे, त्रेप्महे तृप् - ततृप् धातु - ततर्प ततृपतुः ततृपुः ततर्थ, ततर्पिथ, तत्रप्थ ततृपथु: ततृप ततर्प ततृप्व, ततृपिव ततृप्म, ततृपिम दृप् - ददृप् धातु - इसके रूप तृप् के समान ही बनाइये - ददर्प ददृपतु: ददृपुः ददर्थ, ददर्पिथ, दद्रप्थ ददृपथुः ददृप ददर्प ददृप्व, ददृपिव ददृप्म, ददृपिम कृपू धातु - कृपो रो ल: - कृप् धातु के ऋकारघटित ‘र’ के स्थान पर ‘ल’ आदेश होता है। कृप् - क्लप - चक्लप्। चक्लपे चक्लपाते चक्लपिरे चक्लप्से, चक्लपिषे चक्लपाथे चक्लब्ध्वे ,चक्लपिध्वे चक्लपे चक्लप्वहे, चक्लपिवहे चक्लप्महे, चक्लपिमहे क्षमू - चक्षम् धातु - चक्षाम चक्षमतुः चक्षमुः चक्षमिथ / चक्षन्थ चक्षम चक्षाम / चक्षम चक्षण्व / चक्षमिव चक्षण्म / चक्षमिम क्षमूष - चक्षम् धातु - चक्षमे चक्षमाते चक्षमिरे चक्षसे / चक्षमिषे चक्षमाथे चक्षन्ध्वे / चक्षमिध्वे चक्षमे चक्षण्वहे / चक्षमिवहे चक्षण्महे / चक्षमिमहे __ अशू - आनश् धातु - आनशे आनशाते आनशिरे आनक्षे / आनशिषे आनशाथे आनड्ढ्वे / आनशिध्वे आनश्वहे / आनशिवहे आनश्महे / आनशिमहे चक्षमथुः आनशे [[३८४]] क्लिशू - चिक्लिश् धातु - चिक्लेश चिक्लिशतुः चिक्लिशुः चिक्लेष्ठ / चिक्लेशिथ चिक्लिशथु: चिक्लिश चिक्लेश चिक्लिश्व / चिक्लिशिव चिक्लिश्म / चिक्लिशिम नश् - ननश् धातु - ननाश नेशतु: नेशुः ननंष्ठ / नेशिथ नेशथुः नेश ननाश / ननश नेशिव / नेश्व नेशिम / नेश्म असू - अक्ष् - आनक्ष् धातु - आनक्ष
- आनक्षतु: आनक्षुः आनष्ठ, आनक्षिथ आनक्षथु: आनक्ष आनक्ष आनक्ष्व, आनक्षिव आनक्ष्म, आनक्षिम तथू - ततक्ष् धातु - ततक्ष ततक्षतुः ततक्षुः ततष्ठ, ततक्षिथ ततक्षथुः ततक्ष ततक्ष ततक्ष्व, ततक्षिव ततक्ष्म, ततक्षिम त्वक्षू - तत्वक्ष् धातु - तत्वक्ष तत्वक्षतुः तत्वक्षुः तत्वष्ठ, तत्वक्षिथ तत्वक्षथुः तत्वक्ष तत्वक्ष तत्वक्ष्व, ततक्षिव तत्वक्ष्म, तत्वक्षिम निर् + कुष् - निष्चुकुष् धातु - निश्चुकोष __निश्चुकुषतुः निश्चुकोष्ठ, निश्चुकोषिथ निश्चुकुषथु: निश्चुकुष निश्चुकोष . निश्चुकुष्व, निश्चुकुषिव निश्चुकुष्म, निश्चुकुषिम गुहू - जुगुह् धातु - ऊदुपधाया गोह: - गुह् धातु की उपधा के ‘उ’ को दीर्घ होता है, अजादि प्रत्यय परे होने पर। गुह् - जुगुह् + ए / जुगूह + ए - जुगूहे आदि। जुगूहे जुगूहिरे जुघुले, जुगूहिषे . जुगूहाथे जुघुढ्वे, जुगूहिध्वे निश्चुकुषुः जुगूहाते समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३८५ जुगूहे जुगुह्महे, जुगूहिमहे जगृहिरे जघृढ्वे, जगृहिध्वे जगृह्महे, जगृहिमहे जगाहिरे जघाढ्वे, जगाहिध्वे जगाह्महे, जगाहिमहे ततूंहुः ततुंह ततृ॑ह्म, तख़ुहिम जुगुहहे, जुगूहिवहे गृहू - जगृह् धातु - जगृहे जगृहाते जघृक्षे, जगृहिले जगृहाथे जगृहे जगृहहे, जगृहिवहे गाहू - गाह् - जगाह् धातु - जगाहे जगाहाते जघाक्षे, जगाहिषे जगाहाथे जगाहे जगाहहे, जगाहिवहे तृन्हू - ततृन्ह् धातु - ततुंह तनुंहतुः ततृण्ड, तहिथ ततृ॑हथुः ततुंह ततूंह, तनुंहिव तृहू - ततृह् धातु - ततृहतुः ततळे, ततर्हिथ ततृहथुः ततर्ह ततृह, ततृहिव द्रुह् - दुद्रुह् धातु - दुद्रोह दुद्रुहतुः दुद्रोढ, दुद्रोग्ध, दुद्रोहिथ । दुद्रुहथुः दुद्रोह दुद्रुह, दुद्रुहिव मुह धातु - मुमोह मुमुहतुः मुमोढ, मुमोग्ध, मुमोहिथ मुमुहथुः मुमोह मुमुह, मुमुहिव वृहू - ववृह् धातु - ववर्ह ववृहतुः ववर्ड, ववर्हिथ ववृहथुः ववर्ह ववृह, ववृहिव ततर्ह ततृहुः ततृह ततृह्म, ततृहिम दुद्रुहुः दुद्रुह दुद्रुह्म, दुद्रुहिम मुमुहुः मुमुह मुमुह्म, मुमुहिम ववृहुः ववृह ववृह्म, ववृहिम [[३८६]] सुस्नोह स्यन्दू - सस्यन्द् धातु - सस्यन्दे सस्यन्दाते सस्यन्दिरे सस्यन्त्से, सस्यन्दिषे सस्यन्दाथे सस्यन्द्ध्वे, सस्यन्दिध्वे सस्यन्दे सस्यन्द्वहे, सस्यन्दिवहे सस्यन्महे, सस्यन्दिमहे स्निह - सिस्निह् धातु - सिस्नेह सिस्निहतुः सिस्निहुः सिस्नेढ, सिस्निहथुः सस्निह सिस्नेग्ध, सिस्नेहिथ सिस्नेह सिस्निह / सिस्निहिव सिस्निह्म / सिस्निहिम स्नुह् - सुस्नुह् धातु - सुस्नोह सुस्नुहतुः सुस्नुहुः सुस्नोढ, सुस्नोग्ध, सुस्नोहिथ सुस्नुहथुः सुस्नुह सुस्नुह, सुस्नुहिव सुस्नुह्म, सुस्नुहिम स्तृहू - तस्तृह् धातु - तस्तर्ह तस्तृहतुः तस्तृहु: तस्तढ, तस्तर्हिथ तस्तृहथुः तस्तृह तस्तर्ह तस्तृह, तस्तृहिव तस्तृह्म, तस्तृहिम ‘थलि अनिट्, लिटि अनिट्’ धातु कृ, सृ, भृ स्तु, द्रु, मु, श्रु ये सात धातु ‘थलि अनिट्, लिटि अनिट्’ हैं। इनसे परे आने वाले लिट् लकार के थल, व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन सातों लिट् प्रत्ययों को इडागम न करके इनके रूप इस प्रकार बनाइये - कृ धातु - परस्मैपद आत्मनेपद चकार चक्रुः चक्रे चक्राते चक्रिरे चकर्थ चक्रथुः चक्र चकृषे चक्राथे चकृढ्वे चकार / चकर चकृव चकृम चक्रे चकृवहे चकृमहे भृ धातु - बभारी बभ्रतुः बभ्रुः बभ्रे बभ्राते बभ्रिरे चक्रतुः समस्त धातुओं के लिट् लकार के रूप बनाने की विधि ३८७ बभ्राथे बभृट्वे बभृवहे बभृमहे सस्त्रतुः शुश्रुवुः शुश्राव FEEEEEEEEEEEEEEEEEE दुद्रुव बभर्थ कार बभ्रथुः बभ्र बभूषे बभार / बभर बभृव बभृम बभ्रे सृ धातु - ससार सस्रुः ससर्थ सस्रथुः सस्त्र ससार / ससर ससृव ससृम श्रु धातु शुश्राव शुश्रुवतुः शुश्रोथ शुश्रुवथुः शुश्रुव शुश्रुव शुश्रुम शुश्रव द्रु धातु दुद्राव दुद्रुवतुः दुद्रुवुः दुद्रोथ दुद्रुवथुः दुद्राव, दुद्रव दुद्रुव दुद्रुम स्तु धातु तुष्टाव तुष्टुवतुः तुष्टुवुः तुष्टोथ तुष्टुवथुः तुष्टुव तुष्टाव, तुष्टव तुष्टुव तुष्टुम स्रु धातु सुस्राव सुस्रुवतुः सुस्रुवुः सुस्रोथ सुनुवथुः सुस्रुव सुस्राव, सुस्रव सुस्रुव सुत्रुम वृङ्, वृञ् धातुओं के लोक में रूप - परस्मैपद ववार वव्रतुः वः वने ववरिथ वव्रथुः वव्र ववृषे ववार / ववर ववृव ववृम ववे वृङ्, वृञ् धातुओं के वेद में रूप - आत्मनेपद वव्राते वव्रिरे वव्राथे ववृढ्वे ववृवहे ववृमहे [[३८८]] परस्मैपद आत्मनेपद ववार वव्रतुः वद्रुः वने वव्राते वव्रिरे ववर्थ वव्रथुः वव्र ववृषे वव्राथे ववृढ्वे ववार / ववर ववव ववृम ववे वववहे ववृमहे ये ४१ धातु थलि वेट, लिटि वेट हैं। इन धातुओं के अलावा अन्य सारे धातुओं से परे आने वाले व, म, से, ध्वे, वहे, महे, इन छहों लिट् प्रत्ययों को इडागम होता है। अतः इडागम व्यवस्था को पढ़कर इनसे बचे हुए धातुओं में केवल थल का इडागम विचार ही स्थिर करते चलना चाहिये। __ यह सारे धातुओं के लिट् लकार के धातुरूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।