०८ लुङ्

समस्त धातुओं के लुङ् लकार के धातुरूप बनाने की विधि

लुङ् - सामान्य भूत अर्थ में लुङ् लकार का प्रयोग किया जाता है। जैसे - देवदत्त: अभूत् - देवदत्त हुआ आदि। लुङ् लकार के अलावा सारे लकारों में एक ही प्रकार के प्रत्यय होते हैं, जो कि सारे धातुओं से लगाये जाते हैं। जैसे - लृट् लकार के प्रत्यय हैं - स्यति, स्यत:, स्यन्ति आदि। यदि हमें किसी भी धातु का लृट् लकार का रूप बनाना है तो हमें ये ही प्रत्यय लगाना पड़ेंगे। जैसे पा - पास्यति, पास्यत:, पास्यन्ति / नी - नेष्यति, नेष्यति नेष्यन्ति / हु - होष्यति, होष्यत:, होष्यन्ति आदि । किन्तु लुङ् लकार में ऐसा नहीं होता। लुङ् लकार के प्रत्यय १२ प्रकार के होते हैं। लुङ् लकार ही एक ऐसा लकार है, जिसके रूप बनाने के लिये, अलग अलग प्रकार के धातुओं से, अलग अलग प्रकार के प्रत्यय लगाये जाते हैं।

लुङ् लकार के ये १२ प्रकार के प्रत्यय, छह प्रकार के प्रत्ययों से बनकर. सेट् अनिट, परस्मैपद, आत्मनेपद के भेद से बारह प्रकार के हो जाते है।

ये प्रत्यय बतलाये जा रहे हैं - लुङ् लकार के बारह प्रकार के प्रत्यय लुङ् लकार के प्रथम प्रकार के सिच् का लुक् करके बने हुए प्रत्यय परस्मैपद आत्मनेपद प्र. पु. त् ताम् अन् (उ:) सिच का लुक् करके बने हुए ये म. पु. स् (:) तम् त प्रत्यय आत्मनेपद में नहीं होते। उ. पु. अम् व म वस्तुत: लुङ् लकार के ये प्रत्यय सार्वधातुक हैं। लुङ् लकार के द्वितीय प्रकार के, धातु को सक् का आगम करके सक् + इट् + सिच् से बने हुए प्रत्यय प्र. पु. सीत् सिष्टाम् सिषुः धातु को सक् का आगम करके म. पु. सी: सिष्टम् सिष्ट इट + सिच् से बने हुए ये प्रत्यय समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १५५ उ. पु. सिषम् सिष्व सिष्म भी आत्मनेपद में नहीं होते। सिच् से प्रारम्भ होने के कारण लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। __ लुङ् लकार के तृतीय, चतुर्थ प्रकार के अङ् से बने हुए प्रत्यय प्र. पु. अत् अताम् अन् अत एताम् अन्त म. पु. अ: अतम् अत अथा: एथाम् अध्वम् उ. पु. अम् आव आम ए आवहि आमहि अङ् से प्रारम्भ होने के कारण लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। लुङ् लकार के पञ्चम, षष्ठ प्रकार के चङ् से बने हुए प्रत्यय प्र. पु. अत् अताम् अन् अत एताम् अन्त . म. पु. अः अतम् अत अथा: एथाम् अध्वम् उ. पु. अम् आव आम ए आवहि आमहि चङ् से प्रारम्भ होने के कारण लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। चड़ परे होने पर धातु को द्वित्व होता है, अङ् परे होने पर नहीं होता है। लुङ् लकार के सप्तम, अष्टम प्रकार के क्स से बने हुए प्रत्यय प्र. पु. सत् सताम् सन् सत साताम् सन्त म. पु. सः सतम् सत सथा: साथाम् सध्वम् उ. पु. सम् साव साम सि सावहि सामहि क्स से प्रारम्भ होने के कारण लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। लुङ् लकार के नवम, दशम प्रकार के केवल सिच् बने हुए प्रत्यय प्र. पु. सीत् स्ताम् सुः स्त साताम् सत म. पु. सी: स्तम् स्त स्था: साथाम् ध्वम् उ. पु. सम् स्व स्म सि स्वहि स्महि सिच् से प्रारम्भ होने के कारण लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। लुङ् लकार के एकादश, द्वादश प्रकार के इट् + सिंच से बने हुए प्रत्यय प्र. पु. ईत् इष्टाम् इषुः इष्ट इषाताम् इषत म. पु. ई: इष्टम् इष्ट इष्ठाः इषाथाम् इढ्वम् उ. पु. इषम् इष्व इष्म इषि इष्वहि इष्महि इट् + सिच् से बने हुए लुङ् लकार के ये प्रत्यय आर्धधातुक हैं। देखिये कि लुङ् लकार के ये प्रत्यय, सिज्लुक, सक् + सिच्, अङ्, चङ्, क्स, सिच्, इन छह प्रकार के प्रत्ययों से ही बने हैं, किन्तु सेट् अनिट, परस्मैपद, आत्मनेपद के भेद से ये बारह प्रकार के हो गये हैं। [[१५६]] अब हम इन प्रत्ययों से लुङ् लकार के धातुरूप बनायें - धातुओं में ये प्रत्यय लगाकर लुङ् लकार के धातुरूप बनाने का जो कार्य होता है उसके अनेक खण्ड होते हैं। ये खण्ड इस प्रकार हैं - धात्वादेश, इडागम विधि, अतिदेश, अङ्गकार्य तथा सन्धि । इन्हें हम एक एक करके जानेंगे -

धात्वादेश

लुङ्सनोर्घस्तृ - लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर, तथा सन् प्रत्यय परे होने पर अद् धातु को घस्लृ आदेश होता है। लुडि च / आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् - लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर हन् धातु को वध आदेश होता है, किन्तु आत्मनेपदी प्रत्यय परे होने पर यह वध आदेश विकल्प से होता है। अस्तेर्भूः - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, अस् धातु को भू आदेश होता है। ब्रुवो वचि: - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, ब्रू धातु को वच् आदेश होता है। अजेळघञपोः - घञ्, अप् से भिन्न आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, अज् धातु को वी आदेश होता है। चक्षिङ: ख्याञ् - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, चक्षिङ् धातु को ख्या आदेश होता है। इणो गा लुडि - लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर, इण् धातु को गा आदेश होता है। विभाषा लुङ्लुङोः - लुङ् तथा लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर, इङ् धातु को विकल्प से गाङ् आदेश होता है। आदेच उपदेशऽशिति - शित् प्रत्यय परे न रहने पर, एजन्त धातुओं के एच् को आ आदेश होता है - __ - मा रै - रा वेञ् - वा स्त्यै - स्त्या व्येञ् - व्या ष्ट्यै - हेञ् खै - खा त्रैड - त्रा ग्लै - ग्ला जै - स्त्या सा EME FFF x समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १५७ र “BE पै - पा ओवै - वा ष्ट - स्ता ष्णै - स्ना प्यैङ् - प्या श्यैड् - श्या शो - शा __छो - छा षो - धै - धा देङ - दा दैप - धेट - धा दो - दा = ३५ ये धातु एजन्त थे, पर लुङ् लकार के अशित् प्रत्यय परे होने पर ये आकारान्त बन गये हैं । यह लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर होने वाले धात्वादेशों का विचार पूर्ण हुआ। कुल आकारान्त धातु - धातुपाठ में जो मूलत: आकारान्त धातु हैं, वे इस प्रकार हैं - पा पाने, पा रक्षणे, घ्रा, ध्मा, ष्ठा, म्ना, गाङ्, या, वा, मा, ष्णा, श्रा, द्रा, प्सा, रा, ला, ख्या, प्रा, मा, दरिद्रा, माङ्, ओहाङ्, ओहाक्, गा, ज्या, ज्ञा, डुदाञ्, दाण, दाप्, डुधाञ् = ३० । __इनके अलावा ये ३५ एजन्त धातु हैं, जो कि लुङ् लकार के अशित् प्रत्यय परे होने पर आकारान्त बन गये हैं। अदादिगण का जो चक्षिङ् धातु है उसे भी चक्षिङ: ख्याञ् सूत्र से ख्या आदेश हो गया है / इण् धातु को इणो गा लुङि सूत्र से गा आदेश हो गया है / इङ् धातु को विकल्प से गाङ् आदेश हुआ है। इन सभी को मिलाकर आकारान्त धातुओं की संख्या कुल ६८ हो गयी है। अत्यावश्यक लुङ् लकार प्रत्यय १२ प्रकार के हैं । लुङ् लकार के रूप बनाने में सबसे पहिले हमें यह निर्णय करना चाहिये कि हम जिस धातु के लुङ् लकार के रूप बनाना चाह रहे हैं, उससे लुङ् लकार के किस प्रत्यय का प्रयोग किया जाये ? अतः लुङ् लकार के रूप बनाने का यह कार्य हम दो हिस्सों में करेंगे। १ प्रत्येक प्रत्यय को सामने रखकर पहले हम यह निर्णय करेंगे कि ये प्रत्यय किन किन धातुओं से लगाये जायेंगे। २. उसके बाद हम यह प्रक्रिया बतलायेंगे कि उन धातुओं से ये प्रत्यय किस प्रकार लगाये जायेंगे। अब हम अट्, आट् आगम करना सीखें -

लुङ् लकार के अगों को अट्, आट का आगम

लुङ्लङ्लुङ्वडुदात्त: - लुङ्, लङ्, लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर हलादि धातुओं को अट का आगम होता है। अट में ट् की इत् संज्ञा होकर ‘अ’ शेष बचता है। आद्यन्तौ टकितौ - टित् आगम जिसे भी होता है, उसके आदि में बैठता [[१५८]] + + + है। कित् आगम जिसे भी होता है, उसके अन्त में बैठता है। यह ‘अट’ टित् आगम है। अतः यह हलादि धातु के आदि में बैठेगा। जैसे - गम् + अत् / अट् + गम् + अत् / अ + गम् + अत् = अगमत्। आडजादीनाम् - यदि धातु ‘अच्’ से प्रारम्भ हो रहा हो अर्थात् अजादि हो, जैसे - इच्छ, उक्ष, अत आदि, तब उन धातुओं को अट् (अ) का आगम न होकर आट (आ) का आगम होता है। यह ‘आट’ भी टित् आगम है। अतः यह भी आदि में ही बैठेगा। यथा - अत् = आ + अत् इङ् = आ + इव उक्ष् = आ + उक्ष् ऋच्छ् = आ + ऋच्छ एध् = आ + एध् ओख् = आ + ओख आदि । अब इनकी सन्धि कैसे करें ? यहाँ आ + अत में, न तो ‘अक: सवर्ण दीर्घः’ सूत्र से दीर्घ होता है, न ही, आ + इङ् / आ + उक्ष् / आ + ऋच्छ्, में ‘आद् गुण:’ सूत्र से गुण होता है, अपितु यहाँ ‘आटश्च सूत्र से वृद्धि ही होती है। आटश्च - आट के बाद अच् आने पर पूर्व पर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश ही होता, है दीर्घ, गुण आदि नहीं। वृद्धि इस प्रकार होती है - आ + अ, आ = आ - आ + अत् = आत् आ + इ, ई = ऐ - आ + इङ्ख् = ऐड आ + उ, ऊ = औ - आ + उक्ष = औक्ष् आ + ऋ, ऋ = आर् - आ + ऋच्छ् = आर्छ आ + ए = ऐ - आ + एध् = ऐध् आ + ओ = औ - आ + ओख् = औख् इस प्रकार लुङ्, लङ्, लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर, हलादि धातुओं को ‘अट्’ का तथा अजादि धातुओं को ‘आट’ का आगम अवश्य करें। पर ध्यान रहे कि सारा धातुरूप बन जाने के बाद ही ये आगम किये जायें। . न माङ्योगे - लुङ्लङ्लुङ्वडुदात्त: तथा आडजादीनाम् सूत्रों से लुङ्, लङ्, लङ् परे होने पर, अङ्ग को जो अट् आट के आगम कहे गये हैं, वे माड् (मा) का योग होने पर नहीं होते। यथा - समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १५९ लुङ् - मा भवान् कार्षीत् / मा भवान् हार्षीत् / मा भवान् ईहिष्ट। . ध्यान दें कि जिन धातुओं से जो प्रत्यय कहे गये हैं, उनसे वे ही होंगे, किन्तु जिन धातुओं से कोई प्रत्यय नहीं कहा गया है, उनसे सिच् से बने हुए प्रत्यय (क्रमाङ्क ११, १२) ही होंगे, क्योंकि लुङ् लकार में ये ही औत्सर्गिक हैं।

लुङ् लकार के प्रथम प्रकार के सिज्लुक् प्रत्यय

__ परस्मैपद आत्मनेपद प्र. पु. त् ताम् अन् (उ:) सिच् का लुक् करके बने हुए ये म. पु. स् (:) तम् त प्रत्यय आत्मनेपद में नहीं होते। उ. पु. अम् व म ये प्रत्यय सिच् प्रत्यय का लुक करके बने हैं अतः इनका नाम सिज्लुक् प्रत्यय है। ये केवल परस्मैपद में ही होते हैं। आत्मनेपदी धातु से कभी भी ये प्रत्यय नहीं लगाये जाते हैं। ये प्रत्यय सार्वधातुक हैं, तथापि इनके परे होने पर धातुओं से शप् आदि विकरण इसलिये नहीं होते कि शप् को बाधित करके यहाँ सिच् विकरण हो चुका है।

अब विचार कीजिये कि ये प्रत्यय किन किन धातुओं से लगेंगे।

गातिस्थाघुपाभूभ्य: सिच: परस्मैपदेषु - गा, स्था, घु, पा, तथा भू धातु से लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में ये सिज्लुक वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। इस सूत्र का तात्पर्य इस प्रकार है - १. ऊपर कहे गये सारे आकारान्त धातुओं को देखिये। इनमें ४ गा धातु हैं - गै (गा) / गाङ् (गा) / गा / तथा इण् गतौ का आदेश गा। इन ४ गा धातुओं में से जो इण का आदेश गा है, उस गा धातु के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में ये सिज्लुक वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। शेष तीन गा धातुओं से नहीं। २. स्था धातु एक ही है। इससे भी लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में ये सिज्लुक वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। ३. ऊपर कहे गये सारे आकारान्त धातुओं को देखिये। इनमें ६ दा धातु हैं तथा २ धा धातु हैं। इस प्रकार दारूप तथा धारूप कुल ८ धातु हैं। इनमें से दैप्, दाप् धातुओं को छोड़ दीजिये तो ये जो ६ धातु बचे - दो - दादाण - दा देङ् - दा धेट - धा डुदाञ् - दा डुधाञ् - धा = ६ . इन छह की ‘दाधाध्वदाप्’ सूत्र से घुसंज्ञा होती है। इन ६ घुसंज्ञक धातुओं [[१६०]] में से ‘धेट’ को छोड़ दीजिये, तो जो पाँच घुसंज्ञक धातु बचे, उनके लुङ् लकार परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक् वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। ४. इसी प्रकार ऊपर देखिये, पा धातू भी तीन हैं। पै - पा / पा रक्षणे / तथा पा पाने। इनमें से जो भ्वादिगण का ‘पा पाने’ धातु है उसी के लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। शेष दो ‘पा’ धातुओं से नहीं। ५. भू धातु के लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक् वाले प्रत्यय लगाये जाते हैं। इस प्रकार कुल ९ धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में ये सिज्लुक वाले प्रत्यय नित्य लगाये जाते हैं। विभाषा धाधेट्शाच्छास: - घ्रा, धेट् (धा) शा, छा, सा इन ५ आकारान्त धातुओं से लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक् प्रत्यय तथा सक् + इट् + सिच् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लगते है। इस प्रकार ९ धातुओं से लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक वाले प्रत्यय नित्य लगाये जाते हैं तथा ध्रा, धेट् (धा) शा, छा, सा इन ५ धातुओं से लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये ये सिज्लुक वाले प्रत्यय भी लग सकते हैं तथा सक् + इट् + सिच् से बने हुए प्रत्यय भी लग सकते हैं। अभी तक हमने विचार किया कि इन सिज्लुक् प्रत्ययों को किन किन धातुओं में लगाते हैं।

  • अब विचार करें कि इन प्रत्ययों को इन धातुओं में कैसे लगाते हैं ? देखिये कि इन १४ धातुओं में से भू धातु को छोड़कर शेष १३ धातु आकारान्त ही हैं। पहिले इन १३ आकारान्त धातुओं में लुङ् लकार के प्रत्ययों को जोड़ने की विधि बतला रहे हैं। __ आकारान्त धातु + लुङ् लकार के सिज्लुक् प्रत्यय उ:, स् तथा अम् प्रत्ययों को छोड़कर जो शेष ६ प्रत्यय हैं, उन्हें इन धातुओं में बिना किसी परिवर्तन के ज्यों का त्यों जोड़ दीजिये। जैसे - अगा + त् = अगात् । अगा . + ताम् अगाताम् अगा + तम् = अगातम् अगा + अगात समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १६१ अगा + व = अगाव अगा + म = अगाम अगा + स् / ससजुषो रु: सूत्र से स् को रु आदेश होकर अगारु / खरवसानयोर्विसर्जनीय: सूत्र से रु को विसर्ग होकर - अगा:। अगा + अम् / अक: सवर्णे दीर्घ: से दीर्घ सन्धि करके - अंगाम्। उस्यपदान्तात् - अपदान्त ‘आ’ से उस् परे होने पर ‘आ’ को पररूप आदेश होता है। यथा - अगा + उ: / ‘आ’ को पररूप होकर - अग् + उ: = अगुः । धातुओं में उ: प्रत्यय लगाकर रूप इस प्रकार बने - अस्था + उ: = अस्थ् + . उ: = अस्थुः अपा + उ: = अप् + उ: = अपु: अदा + उ: = अद् + उ: = अदु: अधा + उ: = अध् + उ: = अधुः अशा + उ: = अश् + उ: = अशु: अच्छा + उ: = अच्छ् + उ: = अच्छु: असा + उ: = अस् + उः = असुः __ अच्छु: कैसे बना - छे च - ‘छ’ परे होने पर, ह्रस्व को तुक का आगम होता है। अ + छा / अ + त् + छा / स्तोः श्चुना श्चुः से त् को श्चुत्व करके - अच् + छा - अच्छा / अच्छा + उ: / आ को पररूप करके - अच्छुः । इन आकारान्त धातुओं के रूप इसी प्रकार बनेंगे। ध्यान रहे कि धातु से पूर्व लुङ्लङ्लुङ्वडुदात्त: सूत्र से अट् (अ) का आगम अवश्य होगा। __ इनमें से एक ‘पा’ धातु के पूरे रूप दे रहे हैं - अपात् अपाताम् अपा: अपातम् अपात अपाम् अपाव अपाम परस्मैपद के ये सिज्लुक वाले प्रत्यय लगाकर इन गा, स्था, घुसंज्ञक पाँच दा, धा, पा, तथा घ्रा, धेट् (धा) शा, छा, सा इन १३ धातुओं के लुङ् लकार के रूप इसी प्रकार बनाइये। इनमें से ध्रा, धेट् (धा) शा, छा, सा धातुओं से परस्मैपद में, विभाषा ध्राधेट्शाच्छास: सूत्र से सक् + इट् + सिच् से बने हुए प्रत्यय भी लग सकते हैं। इनके लगने पर बिना कुछ किये, प्रत्ययों को जोड़ दीजिये। यथा - अघ्रा + सीत् = अघ्रासीत् आदि। अपुः [[१६२]] अघ्रासीत् अघ्रासिष्टाम् अघ्रासिषु: अघ्रासी: अघ्रासिष्टम् अघ्रासिष्ट अघ्रासिषम् अघ्रासिष्व अघ्रासिष्म इसी प्रकार धेट् (धा) शा, छा, सा के रूप बनाइये। भू धातु के रूप बनाने की विशेष विधि - ध्यान रहे कि भू धातु से भी लुङ् लकार में यही प्रत्यय लगाये जाते हैं, किन्तु भू धातु से उ: प्रत्यय न लगकर अन् प्रत्यय लगता है। अब देखिये कि इन प्रत्ययों में दो प्रत्यय अजादि हैं - अन् तथा अम्। भुवो वुग्लुड्लिटोः - अजादि प्रत्यय परे होने पर अर्थात् अन् तथा अम् परे होने पर भू धातु को वुक् = व् का आगम होता है। यथा - अभू + अम् / अभू + वुक् + अम् / अभू + व् + अम् = अभूवम्। अभू + अन् / अभू + वुक् + अन् / अभू + व् + अन् = अभूवन्। भूसुवोस्तिङि - भू, सू धातुओं को सार्वधातुक तिङ् प्रत्यय परे होने पर गुण नहीं होता है। अभू + त् - अभूत् / अभू + ताम् - अभूताम् आदि । __ भू धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अभूत् अभूताम् अभूवन् अभूतम् अभूतम् अभूत अभूवम् अभूव अभूम हमने गा, स्था, घुसंज्ञक तीन दा, दो धा, पा, घ्रा, धेट (धा) शा, छा, सा तथा भू, इन १४ धातुओं के लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाना सीखा।

लुङ् लकार के द्वितीय प्रकार के, धातु को सक् का आगम करके सक् + इट् + सिच् से बने हुए प्रत्यय

प्र. पु. सीत् सिष्टाम् सिषुः सक् + इट् + सिच् से बने हुए म. पु. सी: सिष्टम् सिष्ट ये प्रत्यय आत्मनेपद में नहीं उ. पु. सिषम् सिष्व सिष्म होते।

इन्हें किन धातुओं में लगायें ?

यमरमनमातां सक् च - १. हमने इणादेश गा, पा पाने, स्था, तथा पाँच घुसंज्ञक दा, धा धातु, इन आठ आकारान्त धातुओं के लुङ् लकार के परस्मैपदी रूप बनाने के लिये, सिज्लुक् प्रत्यय लगाये हैं। २. आगे ख्या, ह्वा, इन दो आकारान्त धातुओं से हम अङ् प्रत्यय लगायेंगे। अभूः समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

  • १६३ __ इन १० आकारान्त धातुओं को छोड़कर अब जितने भी आकारान्त धातु बचे हैं, उन्हें सामने रख लीजिये। उनमें से जो भी परस्मैपदी धातु हैं, उनके लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये ये सक् + इट् + सिच् से बने हुए परस्मैपदी प्रत्यय लगाइये। आकारान्त धातुओं में ये प्रत्यय इस प्रकार लगाइये - आकारान्त धातुओं में बिना कुछ किये इन प्रत्ययों में जोड़ दीजिये। जैसे - अया + सीत् = अयासीत् आदि। __ या धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अयासीत् अयासिष्टाम् अयासिषु: अयासी: अयासिष्टम् अयासिष्ट अयासिषम् अयासिष्व अयासिष्म इसी प्रकार रा, ला, भा, आदि आकारान्त परस्मैपदी धातुओं के रूप बनाइये। परन्तु ध्यान रहे कि यदि आकारान्त धातु आत्मनेपदी हो, तब उससे ये प्रत्यय बिल्कुल मत लगाइये, अपितु उससे आगे कहे जाने वाले केवल सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाइये। __ हलन्त धातुओं में केवल यम्, रम्, नम् इन तीन धातुओं से परस्मैपद में, ये सक् + सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाइये। यम्, रम्, नम् धातुओं में ये प्रत्यय इस प्रकार लगाइये - नश्चापदान्तस्य झलि - अपदान्त न्, म् को अनुस्वार होता है झल् परे होने पर। अतः इस सूत्र से यम्, रम्, नम् धातुओं के म् को अनुस्वार होकर यं, रं, न बन जायेगा। __यम् धातु के रूप इस प्रकार बने - अयंसीत् अयंसिष्टाम् अयंसिषुः अयंसी: अयंसिष्टम् अयंसिष्ट अयंसिषम् अयंसिष्व अयंसिष्म __ नम् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अनंसीत् अनंसिष्टाम् अनंसिषुः अनंसी: अनंसिष्टम् अनंसिष्ट अनंसिषम् अनंसिष्व . अनंसिष्म व्याङ्परिम्यो रमः - यद्यपि रम् धातु आत्मनेपदी है तथापि वि तथा आ उपसर्ग से युक्त होने पर यह रम् धातु परस्मैपदी हो जाता है। ’ [[१६४]] अतः जब यह वि तथा आ उपसर्ग से युक्त हाकर परस्मैपदी हो, तभी इसमें ये सक् + सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाइये। ध्यान रहे कि अडागम या आडागम सदा उपसर्ग के बाद और धातु के पहिले ही होता है। यथा - वि + अ + रम् + सीत् = व्यरंसीत् - रम् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - व्यरंसीत् व्यरंसिष्टाम् व्यरंसिषु: व्यरंसी: व्यरंसिष्टम् व्यरंसिष्ट व्यरंसिषम् व्यरंसिष्व व्यरंसिष्म -

परन्तु ध्यान रहे कि जब रम् धातु आत्मनेपदी हो, तब इनसे ये प्रत्यय बिल्कुल मत लगाइये, अपितु आगे कहे जाने वाले केवल सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाइये। रम् - अरंस्त ।

लुङ् लकार के तृतीय, चतुर्थ प्रकार के अङ् से बने हुए प्रत्यय

प्र. पु. अत् अताम् अन् अत एताम् अन्त म. पु. अ: अतम् अत अथा: एथाम् अध्वम् उ. पु. अम् आव आम ए आवहि आमहि पहिले हम यह विचार करें कि अङ् से बने हुए ये प्रत्यय हमें किन किन धातुओं से लगाना चाहिये ? १. अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङ् - असु क्षेपणे, वच परिभाषणे तथा ख्या प्रकथने, इन तीन धातुओं से लुङ् लकार में अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। वच् धातु - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि एक वच परिभाषणे, परस्मैपदी धातु है, इससे लुङ् लकार में अङ् से बने हुए केवल परस्मैपदी प्रत्यय लगेंगे। एक ब्रूजू व्यक्तायां वाचि धातु है, जो कि उभयपदी है। इस धातु को आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रुवो वचि: सूत्र से वच् आदेश होता है। चूंकि यह धातु उभयपदी है अतः इससे लुङ् लकार में अङ् से बने हुए उभयपदी प्रत्यय लग सकते हैं। असु क्षेपणे धातु - यह परस्मैपदी है किन्तु उपसर्गादस्त्यूयोर्वावचनम्’ इस वार्तिक से यह धातु उपसर्ग लगने पर आत्मनेपदी भी हो जाता है। अतः इससे दोनों पदों के प्रत्यय लग सकते हैं। असु धातु जब सोपसर्ग होगा तब उसमें अङ् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय लगेंगे तो पर्यास्थत आदि रूप बनेंगे और जब असु धातु अनुपसर्ग होगा समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि तब उसमें अङ् से बने हुए परस्मैपदी प्रत्यय लगेंगे तो आस्थत् आदि रूप बनेंगे। कैसे बनेंगे, यह आगे बताया जा रहा है। अभी हम केवल यह विचार कर रहे हैं कि ये अङ् से बने हुए प्रत्यय हमें किन किन धातुओं से लगाना चाहिये? ख्या धातु - ख्या प्रकथने यह धातु अदादिगण का है, इससे लुङ् लकार में अङ् से बने हुए ये प्रत्यय लगते हैं तथा जो अदादिगण का चक्षिङ् धातु है उसे जब आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर चक्षिङ: ख्याञ् सूत्र से ख्या आदेश होता है, तब उससे भी लुङ् लकार में ये अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं।। २. लिपिसिचिहश्च - लिप उपदेहे, षिच क्षरणे, तथा हृञ् स्पर्धायाम् इन तीन धातुओं से भी लुङ् लकार में अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। ३. आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् - लिप्, षिच तथा हे ये तीनों धातु उभयपदी हैं। इनके लिये व्यवस्था यह है कि ये जब परस्मैपद में हों तब इनसे अङ् से बने प्रत्यय लगते है। किन्तु यदि इन धातुओं का आत्मनेपद में प्रयोग करना हो तब इनसे अङ् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय भी लग सकते हैं तथा सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय जो अन्त में दिये जा रहे हैं, वे भी लग सकते हैं। ४. पुषादिद्युतादिलृदित: परस्मैपदेषु - पुषादि, द्युतादि तथा सृदित् धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में अङ् से बने हुए प्रत्ययों को लगाया जाता है। ध्यान रहे कि आत्मनेपद में इन प्रत्ययों को न लगाकर सिच् से बने हुए प्रत्ययों को ही लगाया जाता है। पुषादिगण के धातु - | दिवादिगण का धातुपाठ देखिये। इसमें एक पुषादि अन्तर्गण है जो पुष पुष्टौ (११०७) से लेकर ष्णिह प्रीतौ (११६८) तक है। इन पुषादि धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में इन अङ् से बने हुए प्रत्ययों को लगाया जाता है। ये पुषादि धातु इस प्रकार हैं - शक मदी रध णभ क्लमु क्षमु तमु दमु भ्रमु शमु श्रमु णश असु जसु तसु वसु यसु मसी क्लिदू क्ष्विदा मिदा विदा षिधु __ रिष श्लिष ष्णिह उच लुट क्रुध क्षुध शुध कुप गुप रुप लुप क्षुभ तुभ लुभ तुष । दुष पुष शुष प्लुष रुष __ व्युष बुस मुस द्रुह मुह ष्णुह यप [[१६६]] ऋधु कृश गृधु तृप् दृप भृशु वृश तृषा हृष कुंस भ्रंशु। पुषादि अन्तर्गण के तृप्, दृप् धातुओं के लिये विशेष - स्पृशमशकृषतृपदृपां सिज्वा वक्तव्यः - पुषादि अन्तर्गण के धातुओं में से जो तृप्, दृप् धातु हैं, इनसे अङ् और सिच् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लग सकते हैं। पुषादि अन्तर्गण के श्लिष् धातु के लिये विशेष - श्लिष आलिङ्गने - पुषादि अन्तर्गण में श्लिष् धातु है। जब इसका अर्थ आलिङ्गन करना नहीं होता है, अपितु चिपकना आदि होता है, तब इससे अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। जब इसका अर्थ आलिङ्गन करना होता है, तब इससे क्स से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। द्युतादिगण के धातु - अब भ्वादिगण का धातुपाठ देखिये। इसमें एक द्युतादि अन्तर्गण है। जो द्युत दीप्तौ (८५६) से लेकर कृपू सामर्थ्य (८६९) तक है। इन धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये परस्मैपद में इन अङ् से बने हुए प्रत्ययों को लगाया जाता है। आत्मनेपद में सिच् से बने हुए प्रत्ययों को ही लगाया जाता है। ये द्युतादि धातु इस प्रकार हैं - णभ श्विता मिदा ष्विदा रुच घुट रुट लुट लुठ द्युत क्षुभ तुभ शुभ वृतु वृधु श्रृधु स्यन्दू कृपू टेंभु भ्रंशु ध्वंसु भ्रंसु स्रंसु। कुल लदित् धातु इस प्रकार हैं - शक्ल पत्ल . शद्ल षद्ल गम्ल घस्ल विद्ल शिष्ल पिष्ल विष्ट मुल लुप्ल कृप्ट आप्ल = १४ इन लदित् धातुओं में जो धातु परस्मैपदी है उनसे ही अङ् प्रत्यय लगेगा, जो आत्मनेपदी है उनमें सिच् ही लगेगा। ५. सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च - सृ धातु, शास् धातु तथा ऋ धातु के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये भी इन अङ् से बने हुए प्रत्ययों को लगाते हैं। ‘ऋ’ धातु के लिये विशेष - समो गम्वृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः - सम् उपसर्गपूर्वक गम् धातु, ऋच्छ् धातु, प्रच्छ धातु, ऋ धातु, श्रु धातु तथा विद् धातु, जब अकर्मक होते हैं, तब इनसे आत्मनेपदी प्रत्यय होते हैं। सकर्मक होने पर परस्मैपदी प्रत्यय होते हैं । अतः ऋ धातु जब परस्मैपदी होता है, तब इसमें अङ् से बने हुए परस्मैपद के समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १६७ प्रत्यय लगते हैं किन्तु जब यह आत्मनेपदी होता है, तब इसमें अङ् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय लगते हैं। ६. इरितो वा - पूरे धातुपाठ में जिन धातुओं में इर् की इत् संज्ञा हुई है वे धातु इरित् धातु हैं। इन इरित् धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये ये अङ् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लगाये जाते हैं। अर्थात् हम चाहें तो अङ् से बने हुए प्रत्यय लगायें, चाहें तो अन्त में कहे हुए सिच् से बने हुए प्रत्यय लगायें। धातुपाठ के कुल इरित् धातु इस प्रकार हैं - च्युतिर् श्चुतिर् श्च्युतिर् स्फुटिर् घुषिर् तुहिर् दुहिर् उहिर् स्कन्दिर् दृशिर् बुधिर् णिजिर् विजिर् शुचिर् रुधिर् भिदिर् छिदिर् क्षुदिर् उच्छृदिर् उतृदिर् रिचिर् विचिर् युजिर् दृश् धातु के लिये विशेष - न दृश: - इरित् धातुओं में से जो दृश् धातु है, इससे अङ् और सिच् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लग सकते हैं। ७. जृस्तन्भुमुचुम्लुचुग्रुचुग्लुचुग्लुञ्चुश्विभ्यश्च - जृष् वयोहानौ, मुचु, म्युचु गत्यर्थौ, ग्रुचु ग्लुचु स्तेयकरणे, ग्लुञ्चु गतौ, टुओश्वि गतिवृद्धयोः इन धातुओं से तथा स्तन्भु धातु जो धातुपाठ में न होकर इस सूत्र में होने के कारण सौत्र धातु है, उससे, लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये ये अङ् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लगाये जाते हैं। __ अर्थात् हम चाहें तो अङ् से बने हुए प्रत्यय लगायें, चाहें तो अन्त में कहे हुए सिच् से बने हुए प्रत्यय लगायें। ८. कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि - कृ, मृ, दृ, रुह इन धातुओं से वेद में लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये अङ् प्रत्यय का प्रयोग होता है। __ अतः ध्यान रहे कि लोक में अर्थात् संस्कृत भाषा में यदि इन धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाना हो तो अङ् का प्रयोग न करके यथाविहित प्रत्ययों का प्रयोग करें। लोक में कृ, मृ, दृ, धातुओं से सिच् से बने हुए तथा रुह् धातु से क्स से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। इन ८ सूत्रों के द्वारा हमने यह जाना कि किन किन धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये इन अङ् से बने हुए प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता अब हमें यह जानना है कि इन धातुओं में अङ् से बने हुए प्रत्ययों को कैसे जोड़ा जाये ? जब भी किसी प्रत्यय को किसी भी अङ्ग में जोड़ना हो तो हमारा प्रथम विचार यही होना चाहिये कि वह प्रत्यय किस प्रकार है ? सार्वधातुक [[१६८]] है या आर्धधातुक है ? यदि वह प्रत्यय आर्धधातुक है तो पुनः विचार कीजिये कि वह कित् ङित् है, या जित् णित् है या इनसे भिन्न है। हम पाते हैं कि ङ् की इत् संज्ञा होने के कारण अङ् प्रत्यय ङित् आर्धधातुक प्रत्यय है। अब हम इन धातुओं का वर्गीकरण करके इनमें अङ् से बने हुए प्रत्यय लगायें । १. आकारान्त ख्या, हा धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय आतो लोप इटि च - आकारान्त अङ्ग के आ का लोप होता है, कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर तथा इट् परे होने पर। यथा - अख्या + अत् = अख्य + अत् = अख्यत् अह्वा + अत् = अह् + अत् = अह्वत् ख्या धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अख्यत् अख्यताम् अख्यन् अख्यः अख्यतम् अख्यत अख्यम् अख्याव अख्याम __हेञ् - हा धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अह्वत् अहृताम् अह्वन् अहः अहृतम् अहत अहम् अहाव अहाम २. अनिदित् धातु + अ से बने हुए प्रत्यय धातुपाठ में जिन धातुओं की उपधा में ‘न्’ होता है, उन्हें अनिदित् धातु कहते हैं। अब इन धातुओं को देखिये, जिनसे ये अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। इनमें ये संस्, ध्वंस्, भ्रस्, संभ, कुंस्, भ्रंश्, स्कन्द्, बुन्द्, स्तन्भ, ग्लुञ्च् ये १० धातु अनिदित् धातु हैं क्योंकि इनकी उपधा में ‘न्’ है। अनिदितां हल उपधाया: क्डिति - अनिदित् धातुओं की उपधा के न् का लोप होता है, कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। यथा - अस्रेस् + अत् = अस्रसत् / अध्वंस् + अत् = अध्वसत् । असंभ् + अत् = अस्रभत् । अकुंस् + अत् = अकुसत् । अभ्रंश् + अत् = अभ्रशत् / अस्कन्द् + अत् = अस्कदत् । अबुन्द् + अत् = अबुदत् । अस्तम्भ + अत् = अस्तभत् । अग्लुञ्च् + अत् = अग्लुचत् । 5 स्रेस् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १६९ ल अनसत् अस्त्रसताम् अस्रसन् अस्त्रस: अस्त्रसतम् अस्त्रसत अस्त्रसम् अस्रसाव अस्त्रसाम इसी प्रकार इन दसों अनिदित् धातुओं के रूप बनाइये। ३. ऋकारान्त धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय ऋदशोऽडि गुण: - यद्यपि ङित् प्रत्यय परे होने पर क्डिति च सूत्र गुण निषेध कर देता है, तथापि अङ् प्रत्यय परे होने पर ऋकारान्त धातुओं को और दृश् धातु को गुण हो जाता है - अ + सृ + अत् = असर् + अत् = असरत् । आ + ऋ + अत् = आर् + अत् = आरत् । अ + जृ + अत् = अजर् + अत् = अजरत् । अ + दृ + अत् = अदर् + अत् = अदरत् । अ + कृ + अत् = अकर् + अत् = अकरत् । + मृ + अत् = अमर् + अत् = अमरत् । ध्यान रहे कि यह गुण केवल इन्हीं धातुओं के लिये है। अन्य जो भी धातु बचे हैं उन्हें अङ् प्रत्यय परे होने पर गुण कदापि नहीं होगा। सृ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - असरत् __असरताम् असरन् असर: असरतम् असरत असरम् असराव असराम इसी प्रकार ऋ, , दु, कृ इन ऋकारान्त धातुओं के रूप बनाइये। परन्तु यह ध्यान रहे कि जो कृ धातु से अकरत्, मृ से अमरत्, दृ से अदरत् रूप बनाये हैं, ये वैदिक हैं, लोक में अर्थात् संस्कृत में इनका प्रयोग कदापि न करें। लोक में अर्थात् संस्कृत में तो इन धातुओं से आगे कहे जाने वाले सिच् से बने हुए प्रत्यय ही लगेंगे। ऋ धातु - परस्मैपद आत्मनेपद आरत् आरताम् आरन् समरत समरेताम् समरन्त आर: आरतम् आरत समरथाः समरेथाम् समरध्वम् आरम् आराव आराम समरे समरावहि समरामहि विशेष - ‘समो गम्वृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः पृष्ठ १६४’ सूत्र से अकर्मक ऋ धातु से आत्मनेपद हुआ है तथा ‘बहुलं छन्दस्यमाड्योगेऽपि’ सूत्र [[१७०]] से आत्मनेपदी रूपों में आट आगम का निषेध हुआ है। ४. दृश् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय ऋदृशोऽङि गुण: से गुण करके, अदृश् + अत् - अदर्श + अत् - अदर्शत् आदि। दृश् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अदर्शत् अदर्शताम् अदर्शन् अदर्श: __अदर्शतम् अदर्शत अदर्शम् अदीव अदर्शाम ५. वच् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय वच उम् - वच् धातु को उम् का आगम होता है, अङ् परे होने पर। उम् में म् की इत् संज्ञा होने से उम् आगम मित् है और जो मित् आगम होता है वह मिदचोऽन्त्यात्पर: सूत्र से अन्तिम अच् के बाद ही बैठता है। अव + उम् + च / अव + उ + च् / आद्गुण: से गुण होकर - अवोच् + अत् = अवोचत्, ऐसा रूप बनेगा। ध्यान रहे कि वच परिभाषणे धातु परस्मैपदी है और ब्रू धातु उभयपदी है। अतः ब्रू धातु के स्थान पर जब ब्रुवो वचि: सूत्र से वच् आदेश होता है तब वह भी उभयपदी होता है। अतः वच परिभाषणे से केवल परस्मैपद के प्रत्यय ही लगायें और ब्रुवो वचि: वाले वच् से दोनों पदों के। तो दोनों पदों में इसके रूप इस प्रकार बनेंगे परस्मैपद __ आत्मनेपद अवोचत् अवोचताम् अवोचन्त अवोचत अवोचेताम् अवोचन्त अवोच: अवोचतम् अवोचत अवोचथाः अवोचेथाम् अवोचध्वम् अवोचम् अवोचाव अवोचाम अवोचे अवोचावहि अवोचामहि ६. शास् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय शास् धातु - शास इदङ्हलोः - शास् धातु के ‘आ’ को ‘इ’ होता है अङ् परे होने पर तथा हलादि कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर। अशास् + अत् - अशिस् + अत् - शासिवसिघसीनाम् च - शास्, वस्, घस् धातुओं के इण तथा कवर्ग के बाद आने वाले स् को ए होता है। अशिस् + अत् = अशिषत् । शास् धातु के पूरे परस्मैपदी रूप इस प्रकार बने - अशिषत् अशिषताम् अशिषन् अशिषतम् अशिषत अशिषम् अशिषाव अशिषाम ७. नश् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय अशिष: समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १७१ ‘नशिमन्योरलिट्येत्वं वक्तव्यम्’ - इस वार्तिक से नश् धातु को विकल्प से एत्व होकर अनेशत् भी बनता है। न होने पर अनशत् । ८. शिव धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय शिव धातु - श्वयतेर: - शिव धातु के इ को अ आदेश होता है अङ् प्रत्यय परे होने पर। अश्वि + अत् / अश्व + अत् / अतो गुणे सूत्र से पररूप होकर - अश्व् + अत् = अश्वत् रूप बनेगा। शिव धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अश्वत् अश्वताम् अश्वन् अश्वः अश्वतम् अश्वत अश्वम् अश्वाव अश्वाम ९. अस् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय __ अस्यतेस्थुक् - अस् धातु को थुक् का आगम होता है, अङ् परे होने पर। आ + अस् + अत् / आ + अस् + थुक् + अत् / आस् + थ् + अत् = आस्थत् । अस् धातु के पूरे परस्मैपदी रूप इस प्रकार बने - आस्थत् आस्थताम् आस्थन् आस्थः आस्थतम् आस्थत आस्थम् आस्थाव आस्थाम उपसर्गादस्त्यूह्योर्वावचनम् - इस वार्तिक से यह अस् धातु उपसर्ग लगने पर आत्मनेपदी भी हो जाता है - पर्यास्थत पर्यास्थेताम् पर्यास्थन्त पर्यास्थथा: पर्यास्थेथाम् पर्यास्थध्वम् पर्यास्थे पर्यास्थावहि पर्यास्थामहि १०. पत् धातु + अङ् से बने हुए प्रत्यय पत: पुम् - पत् धातु को पुम् का आगम होता है अङ् परे होने पर। ध्यान रहे कि पुम् मित् आगम है अतः यह ‘प’ के बाद बैठेगा। अपत् + अत् / अप + पुम् + अत् / अप + प् + त् + अत् = अपप्तत् । इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - अपप्तत् अपप्तताम् अपप्तन् अपप्त: अपप्ततम् अपप्तत अपप्तम् अपप्ताव अपप्ताम ११. शेष धातु + अ से बने हुए प्रत्यय अङ् से बने हुए प्रत्यय लगने पर जिन धातुओं में जो कुछ परिवर्तन होना था, उनका हमने विचार कर लिया। अब जो भी धातु बचे, जिनमें हमें [[१७२]] अङ् प्रत्यय लगाना है, उनमें आप धातु + प्रत्यय को जोड़ दीजिये, बस। जैसे लिप् - अलिप् + अत् = अलिपत् . सिच् - असिच् + अत् = असिचत् वृत् - अवृत् + अत् = अवृतत् वृध् - अवृध् + अत् = अवृधत् रुह् - अरुह् + अत् = अरुहत् आदि। अब किसी भी एक धातु के रूप बनाकर देख लीजिये, उसी के समान बने हुए शेष सारे धातुओं के लुङ् लकार के रूप बना डालिये। उदाहरण के लिये सिच् धातु के रूप - असिचत् असिचताम् असिचन् असिचत असिचेताम् असिचन्त असिच: असिचतम् असिचत असिचथा: असिचेथाम् असिचध्वम् असिचम् असिचाव असिचाम असिचे असिचावहि असिचामहि विशेष ध्यातव्य - लिप्, सिच् तथा हे धातु - पीछे हमने आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् सूत्र पढ़ा है, इसके अनुसार लिप्, सिच् तथा हे ये तीनों धातु उभयपदी धातु हैं। ये जब परस्मैपद में हों, तब इनसे अङ् से बने प्रत्यय ही लगते है। किन्तु यदि इन धातुओं का आत्मनेपद में प्रयोग करना हो तब इनसे अङ् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय भी लग सकते हैं तथा सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय जो अन्त में दिये जा रहे हैं, वे भी लग सकते हैं। सिच् से बने हुए प्रत्ययों को लगाने की विधि आगे बतलाई जायेगी। परस्मैपद _आत्मनेपद अलिपत / अलिप्त असिचत् असिचत / असिक्त अह्वत् अह्वत / अह्वास्त द्युतादि धातु - यद्यपि द्युतादि धातु सारे के सारे आत्मनेपदी हैं तथापि ‘धुझ्यो लुडि’ सूत्र कहता है कि ये सारे धातु लुङ् लकार में विकल्प से परस्मैपदी हो जायें। जब ये धातु परस्मैपदी होंगे, तब इनसे अङ् से बने हुए परस्मैपदी प्रत्यय लगेंगे - द्युत् - अद्युतत् / वृत् - अवृतत् आदि । परन्तु जब ये आत्मनेपदी होंगे, तब इनसे आगे कहे जाने वाले सिच् से बने हुए प्रत्यय ही लगेंगे। इस प्रकार अङ् प्रत्यय लगाते समय हमें पहले पद का विचार अवश्य कर लेना चाहिये। अलिपत् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि इरितो वा सूत्र कहता है कि इरित् धातुओं से अङ् प्रत्यय विकल्प से लगता है। अतः जब अङ् प्रत्यय न लगे तब इनसे यथानिर्दिष्ट प्रत्यय ही लगाइये।

लुङ् लकार के पञ्चम तथा षष्ठ प्रकार के चङ् से बने हुए प्रत्यय

धातुओं से चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाना अत्यन्त जटिल कार्य है। इसे खण्ड खण्ड में ही सीखा जा सकता है। अतः हम इसे बनाने की विधि खण्ड खण्ड में ही बतला रहे हैं। पहले हम विचार करें कि चङ् से बने हुए प्रत्यय किन किन धातुओं से लगते हैं। णिश्रिद्रुस्रुभ्य: कर्तरि चङ् - सारे ण्यन्त धातुओं से तथा श्रि, द्रु तथा त्रु धातुओं से (णिच् के बिना भी) लुङ् लकार में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। इसका स्पष्टार्थ इस प्रकार है - १. चुरादिगण के सारे धातुओं से स्वार्थ में णिच् प्रत्यय लगाया जाता है, अतः चुरादिगण के सारे धातु ण्यन्त हैं। किसी भी गण के किसी भी धातु में जब प्रेरणा अर्थ की वृद्धि हो जाती है, जैसे - करना - कराना / देखना - दिखाना / जाना - भेजना / लिखना - लिखाना / खाना - खिलाना आदि, तब इस प्रेरणा अर्थ को बतलाने के लिये किसी भी गण के किसी भी धातु से णिच् प्रत्यय लगाया जा सकता है। जैसे - पठ् - पढ़ना पठ् + णिच् = पढ़ाना गम् - जाना गम् + णिच् = भेजना कृ - करना कृ + णिच् = कराना दृश् - देखना दृश् + णिच् = दिखाना वृध् - बढ़ना वृध् + णिच् = बढ़ाना ऐसे ण्यन्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये उनमें चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। २. ‘कमेर्णिङ्’ सूत्र से कम् धातु से स्वार्थ में णिङ् प्रत्यय लगता है। अतः कम् + णिङ्, इस ण्यन्त धातु से भी लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये ‘णिश्रिद्रुस्रुभ्य: कर्तरि चङ्’ सूत्र से चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। ३. श्रि, द्रु तथा स्रु धातुओं से (णिच् लगने पर और णिच् के बिना भी) लुङ् लकार में चङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। आयादय आर्धधातुके वा - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ये णिङ् [[१७४]] आदि प्रत्यय, विकल्प से लगते हैं। लुङ् लकार आर्धधातुक लकार है, अतः लुङ् लकार में कम् धातु से यह णिङ् प्रत्यय विकल्प से लगेगा। कमेश्च्लेश्चङ् वाच्य: - कम् धातु से जब ‘णिङ्’ प्रत्यय न भी लगा हो, तब भी इसके लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये, इससे चङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। __विभाषा धेट्श्व्यो : - धेट पाने तथा टुओश्वि गतिवृद्ध्योः , इन दो धातुओं से लुङ् लकार में विकल्प से चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। हम पढ़ चुके हैं कि विभाषा ध्राधेट्शाच्छास: सूत्र से धेट धातु से सिज्लुक् वाले प्रत्यय तथा सक् + सिच् प्रत्यय विकल्प से लगते हैं। यह सूत्र धेट धातु से चङ् प्रत्यय का विकल्प करता है। इस प्रकार धेट् धातु से तीन प्रत्यय हुए। १. सिज्लुक् २. सक् ३. चङ् अधात् अधासीत् । अदधत् हम पढ़ चुके हैं कि जृस्तन्भुमुचुम्लुचुग्रुचुग्लुचुग्लुञ्चुश्विभ्यश्च सूत्र से शिव धातु से विकल्प से अङ् प्रत्यय तथा सिच् प्रत्यय होते हैं। इस सूत्र से विकल्प से चङ् प्रत्यय होता है तो शिव धातु से भी तीन प्रत्यय सिद्ध हुए । १. अङ् २. चङ् ३. सिच् अश्वत् अशिश्वयत् अश्वयीत् __गुपेश्छन्दसि - गुप् धातु से वेद में विकल्प से चङ् तथा सिच् प्रत्यय लगते हैं। इमान्नो मित्रावरुणौ गृहानजूगुपतम् / अगौप्तम् / अगोपिष्टम् / अगोपायिष्टम् । लोक में गुप् धातु से चङ् प्रत्यय नहीं लगता, केवल सिच् प्रत्यय ही लगता है। __ नोनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्य: - वेद में ऊन्, ध्वन्, इल्, अ, इन चार धातुओं से णिच् प्रत्यय परे होने पर भी, सिच् प्रत्यय होता है, किन्तु लोक में इन धातुओं से णिच् प्रत्यय परे होने पर चङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं - वेद में लोक में ऊन् - औनयीत् ध्वन् - अध्वनीत् अदिध्वनत् ऐलयीत् ऐलिलत् आर्दीत् आदित् निष्कर्ष - १. जिन धातुओं के अन्त में णिच्, णिङ् प्रत्यय होते हैं, उन ण्यन्त धातुओं औननत् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १७५ से लुङ् लकार में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। २. श्रि, द्रु, सु, धेट, शिव, गुप्, कम् इन सात धातुओं से णिच् लगने पर अथवा णिच् प्रत्यय लगे बिना, दोनों ही स्थितियों में लुङ् लकार में चङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। किन्तु दोनों ही स्थितियों में प्रक्रिया अलग अलग होती है। ३. धेट धातु से सिज्लुक् प्रत्यय, सक् + इट् + सिच से बने हुए प्रत्यय तथा चङ् प्रत्यय, ये तीन प्रत्यय विकल्प से लगते हैं। ४. शिव धातु से विकल्प से अङ्, सिच् तथा चङ् प्रत्यय, ये तीन प्रत्यय विकल्प से लगते है। धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि चङ् से बने हुए प्रत्यय इस प्रकार हैं - प्र. पु. अत् अताम् अन् अत एताम् अन्त म. पु. अः अतम् अत अथा: एथाम् अध्वम् उ. पु. अम् आव आम ए आवहि आमहि है इन सारे प्रत्ययों के आदि में जो ‘अ’ दिख रहा है, वह ‘चङ्’ ही है। चङ् में च, ङ् की इत् संज्ञा होकर ‘अ’ शेष बचता है। अतः चङ् तथा अङ् से बने प्रत्यय एक समान दिखते हैं। धातुओं में इन प्रत्ययों को लगाने का कार्य हम तीन हिस्सों में सीखेंगे। १. हलादि ण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि। २. श्रि, द्रु, सु, धेट, शिव, गुप्, कम् इन सात अण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि। ३. अजादि ण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि। हलादि ण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि हलादि धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्ययों को इस क्रम से लगाइये - १. धातु को द्वित्व कीजिये। २. अभ्यासकार्य कीजिये। ३. अडागम कीजिये। ४. इसके बाद णिच् प्रत्यय परे होने पर होने वाले अङ्गकार्य करके णेरनिटि सूत्र से णिच्’ प्रत्यय का लोप कर दीजिये। ५. इसके बाद जिन धातुओं की उपधा में दीर्घ स्वर दिखे, उसे ह्रस्व [[१७६]] कर दीजिये। (अपवादों को छोड़कर) ६. इसके बाद यदि अभ्यास के अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ करना, अथवा अभ्यास के अन्तिम उ’ को ‘इ’ करना, तथा अभ्यास के अन्तिम ह्रस्व स्वर’ को ‘दीर्घ’ करना, प्राप्त हो, तो उसे कीजिये। (अपवादों को छोड़कर) अब ये कार्य क्रमशः बतलाये जा रहे हैं -

क्रमाङ्क १. हलादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि

ध्यान दें कि चङ् और अङ् से बने हुए प्रत्यय यद्यपि एक जैसे हैं, तथापि अङ् से बने प्रत्ययों के लगने पर धातु को द्वित्व नहीं होता और चङ् से बने प्रत्ययों के लगने पर धातु को द्वित्व हो जाता है। यही दोनों का अन्तर है। - विशेष - चङ् प्रत्यय लगने पर हमारे सामने धातु + णिच् + चङ् से बने हुए ये प्रत्यय, ये तीन खण्ड होते हैं। प्रश्न होता है कि पहिले हम धातु + णिच् को जोड़ दें, अथवा पहिले धातु को ‘चडि’ सूत्र से द्वित्व करें। इसके लिये व्यवस्था यह है कि - १. जब धातु अजादि होता है अर्थात् अच् से प्रारम्भ होता है, तब णिच् प्रत्यय को धातु में जोड़ने के बाद धातु को द्वित्व करते हैं। २. जब धातु हलादि होता है अर्थात् हल् से प्रारम्भ होता है, तब ‘णिच्’ प्रत्यय को जोड़े बिना, उसे अलग रखकर ही धातु को द्वित्व कर देते हैं। हलादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि कि अब हम चङ् से बने हुए इन प्रत्ययों में से प्रथम पुरुष एकवचन के एक प्रत्यय को ‘अत्’ को लेकर आगे की पूरी प्रक्रिया बतलायेंगे। उसी के समान अन्य सारे रूप बना लीजिये। चडि / एकाचो द्वे प्रथमस्य - चङ् परे होने पर हलादि अनभ्यास धातु के प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। वृक्षप्रचलनन्यायेन पूरे के पूरे एकाच हलादि धातु को ‘चडि’ सूत्र से द्वित्व हो जाता है। जैसे - लिख् + णिच् + अत् = लिख लिख् + णिच् + अत् मील् + णिच् + अत् = मील मील् + णिच् + अत् कम् + णिच् + अत् = कम् कम् + णिच् + अत् नम् + णिच् + अत् = नम् नम् + णिच् + अत् वृध् + णिच् + अत् = वृध् वृध् + णिच् + अत् क्रुध् + णिच् + अत् = क्रुध् क्रुध् + णिच् + अत् श्रि + णिच् + अत् = श्रि श्रि + णिच् + अत् द्रु + णिच् + अत् = द्रु द्रु + णिच् + अत् + + + + + + +समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १७७ सु + णिच् + अत् = सु सु + णिच् + अत् धा + णिच् + अत् = धा धा + णिच् + अत् गुप् + णिच् + अत् = गुप् गुप् + णिच् + अत् अनेकाच् हलादि धातु के केवल प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। यथा चकास् - चचकास्। जागृ - जाजागृ। विशेष हलादि धातु - १. स्वापेश्चङि - ण्यन्त स्वप् धातु के लिये यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि इससे चङ् प्रत्यय परे होने पर, इसे पहिले सम्प्रसारण होकर सुप् बनता है,उसके बाद उस सुप् को द्वित्व होकर सुप् सुप् + अत् बनता है। २. णौ च संश्चडोः - सन् अथवा चङ् प्रत्यय परे होने पर, ण्यन्त श्वि धातु को विकल्प से सम्प्रसारण होता है। अतः एक बार तो इसे सम्प्रसारण होकर ‘शु’ बनता है, और इस ‘शु’ को द्वित्व होकर शु शु + अत् बनता है, और एक बार सम्प्रसारण न होकर शिव ही रहता है, और इस ‘श्वि’ को द्वित्व होकर शिव शिव + अत् बनता है। ३. हसंप्रसारणम् - ण्यन्त हे - हा धातु से, चङ् प्रत्यय परे होने पर पहिले सम्प्रसारण होकर उसे हु बनता है, उसके बाद में उसे द्वित्व होकर हु हु + अत् बनता है। द्वित्व करते समय ये तीनों सूत्र अवश्य याद रखें। अभ्यास संज्ञा पूर्वोऽभ्यास: - द्वित्व प्रकरण में जब भी जिस भी धातु को द्वित्व होता है, उसमें पूर्व वाले का नाम अभ्यास होता है। जैसे - लिख् - लिख लिख में पूर्व वाला लिख / भू - भू भू में पूर्व वाला भू / वद् - वद् वद् में पूर्व वाला वद् / पठ् - पठ् पठ् में पूर्व वाला पठ् अभ्यास हैं। द्वित्व करने के बाद हमें इस प्रकार अभ्यासकार्य करना चाहिये -

क्रमाङ्क २. अभ्यासकार्य

१. हलादि: शेष: - अभ्यास का आदि हल् शेष बचता है, अनादि हलों का लोप हो जाता है। जैसे - पठ् पठ् को देखिये, इसमें पूर्व वाला पठ्’ अभ्यास है, इस अभ्यास में पहिला हल प् है तथा पहिला अच् अ है, इन्हें मिलाकर बना ‘प’ । इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - पपठ् । ज्ञा ज्ञा को देखिये, इसमें पूर्व वाला ज्ञा अभ्यास है, इस अभ्यास में पहिला हल् ज् है तथा पहिला अच् आ है, इन्हें मिलाकर बना ‘जा’ । इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - जाज्ञा । [[१७८]] + + + अत् णिच + णिच् + + अत् अत् 22 इसी प्रकार कुछ धातुओं को द्वित्व करके देखिये तथा अभ्यास के पहिले हल्, पहिले अच् को बचा लीजिये और शेष का लोप कर दीजिये - पठ् - पठ् पठ् प पठ् + णिच् + अत् कम् - कम् कम् क कम् + णिच् + अत् वद् वद् व वद् + णिच् + अत् लिख लिख लि लिख खाद् - खाद् खाद् खा खाद् + णिच् + अत् मूष् मूष् मू मूष् + अत् भुज् भुज् भु भुज् अत् भूष् - भूष् भूष् भू भूष् + णिच् + अत् मील् - मील् मील् मी मील् + णिच् + अत् वृष् - वृष् वृष व वृष् + णिच् + नी - नी नी नी नी + णिच + भू भू + णिच् + अत् ज्ञा - ज्ञा ज्ञा जा ज्ञा + णिच् + अत् हलादि: शेष: के अपवाद - शपूर्वा: खय: - यदि ऐसे हलादि धातु हों जिनके आदि में स्, श्, या ए हों तथा उन स्, श्, या ष् के बाद किसी भी वर्ग का प्रथम या द्वितीय अक्षर हो, जैसे स्था, स्फुल्, स्तभ्, स्तम्भ, स्पर्ध, स्पृश्, श्च्युत् आदि में है, तब इन धातुओं के अभ्यासों में से द्वितीय हल् तथा प्रथम अच् को मिलाकर जो भी अक्षर बने उसे बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वा: खय: से लोप कर दीजिये। इसे करके देखिये। जैसे - स्पर्ध - स्पर्ध स्पर्ध को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में पवर्ग का प्रथम अक्षर प् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् प् तथा प्रथम अच् अ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘प’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खय: से लोप कर दीजिये। स्पर्ध - स्पर्ध स्पर्ध को पस्पर्छ । इसी प्रकार - स्था - स्था स्था को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का द्वितीय अक्षर थ् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् थ् तथा प्रथम अच् आ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘था’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खय: से लोप कर दीजिये - स्था - स्था स्था को थास्था। इसी प्रकार - स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को देखिये । यहाँ अभ्यास के आदि समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १७९ में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का प्रथम अक्षर त् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् त् तथा प्रथम अच् अ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘त’ को बचा लीजिये। और शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये - स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को तस्तम्भ। इसी प्रकार - स्फुल् - स्फुल् स्फुल् को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में पवर्ग का द्वितीय अक्षर फ है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् फ् तथा प्रथम अच् उ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘फु’ को बचा लीजिये। और शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये - स्फुल् को फुस्फुल् । इसी प्रकार - श्च्युत् - श्च्युत् श्च्युत् को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में श् है, उस श् के बाद में चवर्ग का प्रथम अक्षर च् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् च् तथा प्रथम अच् उ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘चु’ को बचा लीजिये। और शेष का हलादि: शेष: से लोप कर दीजिये। श्च्युत् को चुश्च्युत् । ऐसे धातु इस प्रकार हैं - स्पर्ध - पस्पर्ध + णिच् + अत् स्कुन्द् - कुस्कुन्द् + णिच् + अत् स्पन्द् - पस्पन्द् + णिच् + । अत् स्तुच् - तुस्तुच् + णिच् + अत् स्फूर्ख - फुस्फूर्ख + णिच् + अत् स्फुट - फुस्फुट + णिच् + स्तम्भ - तस्तम्भ् + णिच् स्कम्भ - कस्कम्भ् + णिच् स्तुभ् - तुस्तुभ् णिच् अत् । स्खद् खस्खद् अत् खस्खल णिच् स्थल थस्थल णिच् अत् स्पश् - पस्पश् स्कन्द् - कस्कन्द् + अत् स्तिघ् - तिस्तिघ् अत् स्थुड् थुस्थुड् अत् स्फुर् - फुस्फुर् + णिच् + स्फुल् - फुस्फुल् + णिच् + अत् फुस्फुड् + णिच् + स्फुड् - फुस्फुड् + णिच् + अत् अत् + + अत् + + णिच् + + स्खल + + + + णिच + + + + + णिच् + + अत् स्फुड अत [[१८०]] णिच + अत् + + + स्क + + अत् अत् स्फिट्ट - फिस्फिट् + णिच् + अत् स्तुप् - तुस्तुप् + णिच् + . अत् स्तन् - तस्तन् स्तेन् - तेस्तेन् + णिच् + अत् स्तोम - तोस्तोम् __कुस्कु + णिच् + अत् स्त - तृस्तृ __+ णिच् + अत् स्तु - तुस्तु ष्ठिव् - ठिष्ठिव् + णिच् + । स्ता - तास्ता + णिच् + अत् स्था - थास्था + णिच् + स्त्या - तास्त्या + णिच् + अत् २. ह्रस्वः - धातु को द्वित्व तथा हलादि: शेष: करने के बाद देखिये कि जो अभ्यास है उसमें यदि दीर्घ स्वर है तो उसे ह्रस्व हो जाता है। जैसे - खाद् - खा खाद् में पूर्व वाले ‘खा’ का नाम अभ्यास है, उसे हस्व होकर ख खाद्’ बन जायेगा। इसी प्रकार मील् - मी मील् को मि मील, भूष - भू भूष को भु भूष्, भू - भू भू को भु भू आदि बनाइये। हूस्व इस प्रकार होते हैं - आ का हस्व अ - यथा - खा खाद् - ख खाद् ई का ह्रस्व इ - नीनी - निनी ऊ का ह्रस्व उ - यथा भू भू भु भू ऋ का हस्व ऋ तृ तृ तृ तृ ए का इस्व इ - . यथा - से सेव् - सि सेव् ओ का हस्व उ - गो गोष्ट - गु गोष्ट औ का ह्रस्व उ - यथा - ढौ ढौक् - दु ढौक् ३. उरत् - अभ्यास के ऋ, ऋ के स्थान पर ‘अ’ आदेश होता है। (जो कि ‘उरण रपर:’ सूत्र की सहायता से रपर होकर ‘अर्’ हो जाता है।) । अतः अभ्यास के अन्त में आने वाले ऋ, ऋ हो, को इस सूत्र से अर् बनाइये, बाद में हलादि: शेष: से र् का लोप करके अर् को अ बना दीजिये।

  • ऋकारान्त अभ्यास के कुछ उदाहरण देखिये - वृष् - वृष् वृष् - वृवृष् - वर् वृष् - व वृष् यथा यथा यथा समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १८१ foto कृष् - कृष् कृष् - कृकृष् - कर् कृष् - वृत् - वृत् वृत् - वृ वृत् - वर् वृत् __- ह ह - ह ह - हर् ह - ह ह कृ - कृ कृ - कृ कृ कर् कृ - क कृ भृ - भृ भृ - भृ भृ __भर् भृ - भ भू तृ - तृ त - तृ तृ तर् तृ - त तृ ४. कुहाश्चु: - अभ्यास के कवर्ग तथा हकार को चवर्ग आदेश होता है। (अतः में यदि कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो इस सूत्र से अभ्यास के उस कवर्ग के वर्ण को आप चवर्ग का वर्ण बना दीजिये। ध्यान रहे कि वर्ण का कमाङ्क वही रहे - जैसे क को च / ख को छ / ग को ज / घ को झ। यदि अभ्यास में ‘ह’ हो तो उस ‘ह’ को ‘ज’ बना दीजिये। इसे चुत्व करना कहते हैं। ५. अभ्यासे चर्च - अभ्यास के झश् को जश् और खय् को चर् आदेश होते हैं। (अतः यदि अभ्यास में वर्ग का चतुर्थाक्षर हो तो उसे आप उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बना दीजिये, इसे जश्त्व करना कहते हैं। यदि अभ्यास में वर्ग का द्वितीयाक्षर हो, तो उसे आप उसी वर्ग का प्रथमाक्षर बना दीजिये। इसे चर्व करना कहते हैं।) इन सभी के उदाहरण - कृ - कृ कृ - कर् कृ - क कृ - च कृ खन् - खन् खन् - ख खन् - छ खन् - च खन्
  • गम् गम् - ग गम् - ज गम् - ज गम् - घृ घृ - घर् घृ - झ घृ - ज घृ ह ह - हर् हृ - ज ह ज हृ - हस् हस् - ह हस् - ज हस् । ज हस् ग्रह ग्रह - ग ग्रह - ज ज ग्रह भुज् भुज् - भु भुज् बुभुज् फल् फल् - फ फल् - पफल् ढौक ढौक् - ढु ढौक् - डु ढौक् डुढौक् थुड् - थुड् थुड् - थु थुड् - तु थुड् तु थुड्
  • धृ धृ - धर् धृ - ध धृ । द धृ झर्ट्स - झर्ड्स झर्ड्स - झ झर्ड्स - ज झट्ट - ज झर्ड्स भ्रज्ज् - भ्रज्ज् भ्रज्ज् - भ भ्रज्ज् - ब भ्रज्ज् - ब भ्रज्ज् भू - भू भू - भु भू - बु भू - बु भू आदि ।
  1. F ढौक % [[१८२]] अभ्यासाच्च - अभ्यास से परे जो हन् धातु का हकार उसे कवादेश होकर घ् हो जाता है। जैसे - हन् - हन् हन् - ह हन् - ज हन् - ज घन् हमने देखा कि अभ्यास में रहने वाले कवर्ग के सारे व्यञ्जनों में तथा अन्य वर्गों के केवल दूसरे, चौथे व्यञ्जनों में, तथा हकार में ही ये ऊपर कहे हुए परिवर्तन होते हैं। यदि अभ्यास में दूसरे, चौथे व्यञ्जनों कवर्ग और हकार के अलावा कोई भी व्यञ्जन हैं तब आप उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - चल् - च चल् - च चल् / जप् - ज जप् - ज जप् टीक - टि टीक् - टि टीक / डी - डि डी - डि डी तृ - त त - त तृ / दल् - द दल - द दल् नम् - न नम् - न नम् / पत् - प पत् - प पत् बाध् - ब बाध् - ब बाध् / मील् - मि मील - मि मील यम् - य यम् - य यम् / वृध् - व वृध् - व वृध् रम् - र रम् - र रम् / लप् - ल लप् - ल लप् शास् - श शास् - श शास् / सृ - स स - स सृ यह धातुओं के द्वित्व तथा अभ्यासकार्य की विधि पूर्ण हुई। धातु को द्वित्व होने पर अभ्यास को ये कार्य तो होंगे ही अतः इन्हें कण्ठस्थ कर लें।

क्रमाङ्क ३. अडागम

लुङ्लङ्लुङक्ष्वडुदात्त: - लुङ्, लङ्, लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर हलादि अङ्ग को अट (अ) का आगम होता है। __ अतः द्वित्वाभ्यासकार्य कर चुकने के बाद, अब हलादि अङ्ग को इस सूत्र से अट् (अ) का आगम कर दीजिये, जैसे - बु भू + णिच् + अत् = अ बु भू + णिच् + अत् व वृष् + णिच् + अत् = अ व वृष् + णिच् + अत् ज घट् + णिच् + अत् = अ ज घट + णिच् + अत् सि षिध् + णिच् + अत् = असि षिध् + णिच् + अत् य यम् + णिच् + अत् = अ य यम् + णिच् + अत् व वृध् + णिच् + अत् = अ व वृध् + णिच् + अत् आदि । _द्वित्व तथा अभ्यास कार्य करके अडागम कर चुकने के बाद अब धातु में णिच् प्रत्यय परे होने वाले कार्य करें। उसके बाद णिच् का लोप कर दें। क्रमाङ्क ३. हलादि धातुओं में णिच् को जोड़ना, + + + + + + समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १८३ उसके बाद णिच् का लोप करना णेरनिटि - अनिडादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘णि’ का लोप हो जाता है। चाहे वह ‘णि’, णिच् प्रत्यय का हो चाहे णिड् प्रत्यय का। देखिये कि द्वित्व तथा अभ्यासादि कार्य करने के बाद अब हमारे सामने अट् + अभ्यास + धातु + णिच् + चङ् से बने हुए प्रत्यय, ये पाँच खण्ड हैं। इन्हें हमें जोड़ना है। यह कार्य क्रमशः ही होगा। सबसे पहिले आप णिच् प्रत्यय परे होने पर धातु को जो भी कार्य प्राप्त हों, उन्हें कर लें। उसके बाद णेरनिटि सूत्र से णिच् प्रत्यय का लोप कर दें। आकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - __अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ - ऋ धातु, ह्री धातु, ब्ली ६ तु री धातु, क्नूय धातु, क्ष्मायी धातु तथा सभी आकारान्त धातुओं को पुक् को आगम होता है। इस सूत्र से आकारान्त धातुओं को पुक् का आगम करके ‘णरनिटि’ सूत्र से णिच् प्रत्यय का लोप कर दें। अ ज ज्ञा + णिच् + अत् - अ जज्ञा + पुक् + णिच् + अत् = अ जज्ञाप् + अत् अ त स्थान णिच् + अत् - अ त स्था + पुक् + णिच् + अत् = अ तस्थाप् + अत् अ द दा + णिच् + अत् - अ द दा + पुक् + णिच् + अत् = अ ददाप् + अत् अ द धा + णिच् + अत् - अ द धा + पुक् + णिच् + अत् = अ दधाप् + अत् पुगागम के अपवाद - शो, छो, षो, हे, व्ये, वे, पा धातु - शाच्छासाहाव्यावेपां युक् - शो - शा / छो - छा / सो - सा / हे - हा / व्ये - व्या / वे - वा / और पा इन सात आकारान्त धातुओं को पुक् (प्) का आगम न होकर युक् (य) का आगम होता है - अ श शा + णिच् + अत् - अ श शा + युक् + णिच् + अत् = अ शशाय् + अत् अ च छा + णिच् + अत् - अ च छा + युक् + णिच् + अत् = अ चच्छाय् + अत् अ स सा + णिच् + अत् - अ स सा + युक् + णिच् + अत् = अ स साय् + अत् अ व व्या + णिच् + अत् - अ व व्या + युक् + णिच् + अत् = अ व व्याय्+ अत् अ व वा + णिच् + अत् - अ व वा + युक् + णिच् + अत् = अ व वाय् + अत् अ प पा + णिच् + अत् - अ प पा + युक् + णिच् + अत् = अ प पाय् + अत् _ पा रक्षणे धातु - लुगागमस्तु तस्य वक्तव्यः (वा.) - पा रक्षणे धातु को लुक् का आगम होता है। ध्यान दीजिये कि पा पाने धातु को युक् का आगम होता है किन्तु पा रक्षणे धातु को लुक् का आगम होता है। अ प पा + णिच् + अत् - अ प पा + लुक् + णिच् + अत् = अ प पाल् + अत् वा धातु - वो विधूनने जुक् - वा धातु का अर्थ यदि हवा झलना, [[१८४]] कँपाना हो तो उसे जुक् का आगम होता है - अ व वा + णिच् + अत् - अ व वा + जुक् + णिच् + अत् = अ व वाज् + अत् ला धातु - लीलोर्नुग्लुकावन्यतरस्यां स्नेहनिपातने - स्नेहनिपातन अर्थात् घी पिघलाना आदि अर्थ में, ला धातु को लुक् का आगम विकल्प से होता है। लुक् का आगम होने पर - अ ल ला + णिच् + अत् - अ ल ला + लुक् + णिच् + अत् = अ ल लाल् + अत् पुक् का आगम होने पर - अ ल ला + णिच् + अत् - अ ल ला + पुक् + णिच् + अत् = अ ल लाप् + अत् यह आकारान्त धातुओं का विचार हुआ। इकारान्त, ईकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - इनके अन्तिम इ, ई को णिच् परे होने पर अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके ऐ बनाइये तथा एचोऽयवायावः सूत्र से आय आदेश कीजिये - अ लि ली + णिच् + अत् - अ लिलै + णिच् + अत् = अ लिलाय् + अत् अ श्रि श्री + णिच् + अत् - अ श्रिङ् + णिच् + अत् = अ श्रिश्राय् + अत् अ शि श्वि + णिच् + अत् - अ शिश्वै + णिच् + अत् = अ शिश्वाय + अत अ बि भी + णिच् + अत् - अ बिभै + णिच् + अत् = अ बिभाय् + अत् अ चि ची + णिच् + अत् - अ चिचै + णिच् + अत् = अ चिचाय् + अत् इसके अपवाद - वी धातु - प्रजने वीयते: - इसका अर्थ यदि प्रजनन हो, तो इसे ‘आ’ अन्तादेश होता है। इस सूत्र से इसे ‘आ’ आदेश कीजिये और आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - वी - वा - अ व वा + णिच् + अत् / अ व वा + पुक् + णिच् + अत् = अ व वाप् + अत् । स्मि धातु - नित्यं स्मयते: - स्मि धातु के अन्तिम ‘इ’ को ‘आ’ अन्तादेश होता है। इस सूत्र से इसे ‘आ’ आदेश कीजिये और आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - स्मि - स्मा - अ सस्मा + णिच् + अत् / अ सस्मा + पुक् + णिच् + अत् / अ सस्माप् + अत्।। क्री, जि धातु - क्रीजीनां णौ - क्री, जि, इङ् धातुओं के अन्तिम इको ‘आ’ अन्तादेश होता है। इस सत्र से इसे ‘आ’ आदेश कीजिये और आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - क्री - क्रा - अ च का + णिच् + अत् / अ च का + पुक् + णिच् + अत् / अ चक्राप् + अत् । जि - जा - अ ज जा + णिच् + अत् / अ ज जा + पुक् + णिच् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १८५

  • अत् / अ जजाप् + अत् । इङ् धातु को, अजादि धातुओं में बतलायेंगे। चि धातु - चिस्फुरोर्णी - चि धातु तथा स्फुर् धातु के अन्त को विकल्प से ‘आ’ अन्तादेश होता है। इस सूत्र से ‘आ’ आदेश करके आकारान्त होने के कारण ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक का आगम कीजिये। ‘आ’ अन्तादेश होने पर - चि - चा - अ च चा + णिच् + अत् / अ चचा + पुक् + णिच् + अत् / अ चचाप् + अत्। । ‘आ’ अन्तादेश न होने पर - चि - अ चिची - अ चिचै + णिच् + अत् / अ चिचाय् + अत्। भी धातु - बिभेतेर्हेतुभये - भी धातु के अन्त को विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है, यदि प्रयोजक कर्ता से भय हो तो। भी धातु को ‘आ’ आदेश होने पर - इसे ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये - भी - अ बिभी + णिच् + अत् / अ बिभा + पुक् + णिच् + अत् / अ बिभाप् + अत्। भी धातु को ‘आ’ आदेश न होने पर - भियो हेतुभये षुक् - जब कर्ता से भय हो, और आत्व न हो तब, ‘भी’ धातु को षुक् का आगम होता है। भी - अ बिभी + णिच् + अत् / अ बि भी + षुक् + णिच् + अत् / अ बिभीष् + अत्। अन्य किसी से भय होने पर - न तो ‘आ’ होता है, न पुक् का आगम होता है, न ही षुक् का आगम होता है। तब अचो णिति से वृद्धि होकर - बि - भी - अ बि भै + णिच् + अत् / अ बिभाय् + अत् प्री धातु - धूप्रीञोर्नुग्वक्तव्यः (वा.) - प्री, धू धातुओं को नुक् का आगम होता है - प्री - अ पिप्री + णिच् + अत् / अ पिप्री + नुक् + णिच् + अत् = अ पिप्रीण् + अत्।। ली धातु - लीलोर्नुग्लुकावन्यतरस्यां स्नेहनिपातने - ली धातु को घी बिलोने अर्थ में विकल्प से नुक् का आगम होता है - ली - अ लिली + णिच् + अत् / अ लिली + नुक् + णिच् + अत् = अ लिलीन् + अत्।। विभाषा लीयते: - जब भी ‘ली’ धातु को गुण या वृद्धि होकर ‘ए’ ‘ए’ होते हैं, तब उन ए, ऐ को विकल्प से ‘आ’ आदेश होकर ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयी क्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम होता है - ली - अलि ली + णिच् + अत् / अ लिलै + णिच् + अत् / अ लिला + पुक् + णिच् + अत् / अ लिलाप् + णिच् + अत् = अ लिलाप् + अत्। ह्री, ब्ली, री, धातु - इन्हें ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र [[१८६]]

से पुक् का आगम कीजिये तथा पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये - अ जिह्री + णिच् + अत् - अ जिह्री + पुक् + णिच् + अत् = अ जिह्वेप् + अत् अ बिब्ली + णिच् + अत् - अ बिब्ली + पुक् + णिच् + अत् = अ बिब्लेप् + अत् अ रिरी + णिच् + अत् - अ रिरी + पुक् + णिच् + अत् = अ रिरेप् + अत् उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - इनके अन्तिम उ, ऊ को णिच् परे होने पर अचो ञ्णिति सूत्र से वृद्धि करके औ बनाइये तथा एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश कीजिये - भू - अ बुभू - अ बुभौ + णिच् + अत् - अ बुभाव् + अत् लू - अ लुलू - अ लुलौ + णिच् + अत् - अ लुलाव् + अत् पू - अ पुपू - अ पुपौ + णिच् + अत् - अ पुपाव् + अत् द्रु - अ दुद्रु - अ दुद्रौ + णिच् + अत् - अ दुद्राव् + अत् खु - अ सुस्रु - अ सुस्रौ + णिच् + अत् - अ सुस्राव् + अत् इसके अपवाद - धू धातु - धूप्रीजोर्नुग्वक्तव्यः (वा.) - प्री, धू धातुओं को नुक का आगम होता है। अ दुधू + णिच् + अत् - अ दु धू + नुक् + णिच् + अत् = अ दुधून् + अत् ऋकारान्त, ऋकारान्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - इनके अन्तिम ऋ, ऋ को अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके आर् बनाइये - कृ - अ चकृ + णिच् + अत् - अ चकार् + अत् भृ - अ बभृ + णिच् + अत् - अ बभार् + अत् तृ - अ ततृ + णिच् + अत् - अ ततार् + अत् आदि। . इसके अपवाद - . १. जागृ धातु - ‘जाग्रोऽविचिण्णल्डित्सु’ सूत्र से ऋ को गुण करके - जागृ - अ जजागृ + णिच् + अत् - अ जजागर् + अत् २. दू, नृ धातु - इनके अन्तिम ऋ को अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके आर् बनाइये। उसके बाद मितां ह्रस्वः सूत्र से उसे ह्रस्व कर दीजिये। यथा दृ - अ ददृ + णिच् + अत् - अ ददर् + अत् ३. स्मृ धातु - जब इसका अर्थ आध्यान अर्थात् चिन्तन हो तब ‘अचो ञ्णिति’ सूत्र से वृद्धि करने के बाद इसे मितां ह्रस्वः सूत्र से इसे ह्रस्व कर दीजिये - स्मृ - अ सस्मृ + णिच् + अत् - अ सस्मर् + अत् ऋ धातु को अजादि धातुओं में देखिये। यह अजन्त धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने का विचार पूर्ण हुआ। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १८७ हलन्त धातुओं से णिच् प्रत्यय कैसे लगायें - पहिले हम अपवादों का विचार करके उनके रूप बना लें - __णिच् प्रत्यय परे होने पर - १. स्फाय् धातु - स्फायो वः - स्फाय धातु को स्फाव् आदेश होता है। स्फाय - अ पस्फाय् + णिच् + अत् - अ पस्फाव् + अत् २. शद् धातु - शदेरगतौ त: - शद् धातु को शत् आदेश होता है। ‘अत उपधाया:’ सूत्र से उपधा के अ को वृद्धि करके - शद् - अ शशद् + णिच् + अत् - अ शशात् + अत् ३. रुह् धातु - रुह: पोऽन्यतरस्याम् - रुह् धातु के ह् को विकल्प से ‘प्’ आदेश होता है। ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के इक् को गुण करके - ‘प्’ आदेश होने पर - रुह् - अ रुरुह् + णिच् + अत् - अ रुरोप् + अत् प्’ आदेश न होने पर - रुह् - अ रुरुह् + णिच् + अत् - अ रुरोह् + अत् ४. रध्, जभ धातु - रधिजभोरचि - रध्, जभ् धातुओं को नुम् का आगम होता है, अजादि प्रत्यय परे होने पर। रध् - अ ररध् + णिच् + अत् - अ ररन्ध् + अत् जभ् - अ जजभ् + णिच् + अत् - अ जजम्भ + अत् ५. लभ् धातु - लभेश्च - लभ् धातु को नुम् का आगम होता है। लभ् - अ ललभ् + णिच् + अत् - अ ललम्भ् + अत् ६. रभ् धातु - रभेरशब्लिटोः - रभ् धातु को नुम् का आगम होता है, शप् लिट् से भिन्न अजादि प्रत्यय परे होने पर। रभ् - अ ररभ् + णिच् + अत् - अ ररम्भ + अत् ७. दुष् धातु - वा चित्तविरागे - दुष् धातु की उपधा को ‘ऊ’ आदेश होता है, चित्तविकार अर्थ होने पर। चित्तविकार अर्थ होने पर - दुष् - अ दुदुष् + णिच् + अत् - अ दुदूष् + अत् चित्तविकार अर्थ न होने पर - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से उपधा के इक् को गुण करके - दुष् - अ दुदुष् + णिच् + अत् - अ दुदोष् + अत् [[१८८]] ८. सिध् धातु - सिध्यतेरपारलौकिके - सिध् धातु के ‘इ’ को भोजन पकाने अर्थ में ‘आ’ आदेश होता है। भोजन पकाने अर्थ में सिध् के इ को ‘आ’ आदेश होकर - साध् - अ ससाध् + णिच् + अत् - अ ससाध् + अत् तपस्या अर्थ में ‘आ’ आदेश न होकर - सिध् - अ सिषिध् + णिच् + अत् - अ सिषेध् + अत् ९. स्फुर् धातु - चिस्फुरोर्णी - स्फुर् धातु के ‘उ’ को विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है। ‘आ’ आदेश होने पर - स्फार् - अ पस्फार् + णिच् + अत् - अ पस्फार् + अत् ‘आ’ आदेश न होने पर - स्फुर् - अ पुस्फुर् + णिच् + अत् - अ पुस्फोर् + अत् १०. क्नूय धातु - ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम करके ‘लोपो व्योर्वलि’ सूत्र से यकार का लोप करके पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से ऊकार को गुण कीजिये - क्नूय - अ चुक्नूय् पुक् + णिच् + अत् = अ चुक्नोप् + अत् ११. हन् धातु - ‘हो हन्तेर्णिन्नेषु’ सूत्र से हन् धातु के ‘ह’ को कुत्व करके ‘घ’ बनाइये - अ + हन् + णिच् + अत् - अ + जघन् + णिच् + अत् / ‘अत उपधाया:’ सूत्र से ‘अ’ को वृद्धि करके - अ + जघान् + णिच् + अत् / ‘हनस्तोऽचिण्णलोः’ सूत्र से न् को त् करके - अ + जघात् + णिच् + अत् / गैरनिटि’ सूत्र से णिच् का लोप करके - अ + जघात् + अत् । __ अग्लोपी धातुओं में णिच् प्रत्यय कैसे लगायें ? अग्लोपी धातु - चुरादि गण में १८५१ (कथ) से लेकर १९४३ (तुत्थ) तक के धातु अदन्त धातु हैं। आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर इनके ‘अ’ का ‘अतो लोप:’ सूत्र से लोप होने के कारण, ये धातु ‘अग्लोपी धातु’ कहलाते हैं। इनके अलावा जब किसी अन्य धातु के अ, आ का भी लोप होता है, तब वे धातु भी अग्लोपी धातु कहलाते हैं। यहाँ अच: परस्मिन् पूर्वविधौ सूत्र से स्थानिवद्भाव हो जाने के कारण इनकी उपधा को कुछ भी न करें। यथा - कथ् - अ चकथ् + णिच् + अत् = अ चकथ् + अत् मित् धातुओं में णिच् प्रत्यय कैसे लगायें ? .. धातुपाठ देखिये। इसमें ८७० से ९२७ तक धातुओं का घटादि अन्तर्गण समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि सा १८९ है। घटादि अन्तर्गण के ये धातु मित् धातु कहलाते हैं। इनके अलावा चुरादिगण के ज्ञप, यम, चह, रह, बल, चिञ् ये छह धातु भी मित् धातु कहलाते हैं। _ णिच् परे होने पर इन मित् धातुओं की उपधा को यदि किसी सूत्र से दीर्घ हो भी जाये, तो उसे मितां ह्रस्वः सूत्र से ह्रस्व कर दें। घट - अ जघट् + णिच् + अत् = अ जघट् + अत् __शेष हलन्त धातु - अब इन हलन्त धातुओं के अलावा जो हलन्त धातु बचे हैं उनका विचार करते हैं। अदुपध धातु - उपधा के ह्रस्व अ को अत उपधाया: सूत्र से वृद्धि करके आ बनाइये - वद् - अ ववद् + णिच् + अत् = अ ववाद् + अत् गद् - अ जगद् + णिच् + अत् = अ जगाद् + अत् कम् - अ चकम् + णिच् + अत् = अ चकाम् + अत् इदुपध धातु - उपधा के लघु इ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके ए बनाइये - लिख - अ लिलिख + णिच् + अत् = अ लिलेख + अत् उदुपध धातु - उपधा के लघु उ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके ओ बनाइये - मुद् - अ मुमुद् + णिच् + अत् = अ मुमोद् + अत् गुप् - अ जुगुप् + णिच् + अत् = अ जुगोप् + अत् ऋदुपध धातु - उपधा के लघु ऋ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके अर् बनाइये - वृष - अ ववृष् + णिच् + अत् = अ ववर्ष + अत् __ अब देखिये कि हमारे सामने अट् + अभ्यास + धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय, ये चार खण्ड हैं। अब आगे के कार्यों के लिये हमें, लघु, गुरु तथा अग्लोपी धातु, इन तीन शब्दों को बहुत अच्छे से समझना चाहिये। इन्हें समझे बिना यदि हम आगे प्रवेश करेंगे तो हमें कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। अग्लोपी धातु अभी बतलाये गये। अब गुरु, लघु संज्ञाएँ बतला रहे हैं। लघु, गुरु संज्ञाएँ हस्वं लघु - अ, इ, उ, ऋ, ल ये लघु स्वर हैं। संयोगे गुरु / दीर्घ च - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ओ, ऐ, औ, दीर्घ स्वर हैं। इनके अलावा,लघु स्वरों के बाद यदि दो या दो से अधिक व्यञ्जनों का संयोग आ जाये तो उस लघु स्वर को भी हम गुरु मान लेते हैं, जिसके आगे संयोग [[१९०]] आ रहा है। जैसे - बिभ्रज् - यहाँ बि लघु दिख रहा है, किन्तु इसके बाद भ् + र् का संयोग है, अतः यह ‘बि’ गुरु है।। भक्ष्, रक्ष्, तक्ष् - यहाँ भ, र, त, लघु दिख रहे हैं, किन्तु इनके बाद क् + ष् का संयोग ‘क्ष्’ आया है अतः ये भ, र, त गुरु हैं। भुङ्, युज् को देखिये। यहाँ भु, यु लघु दिख रहे हैं, किन्तु इनके बाद ञ् + ज् का संयोग आया है अतः ये भु, यु गुरु हैं। ४. चङ्परक णिच् परे होने पर, होने वाले अङ्गकार्य (धातु की उपधा को ह्रस्व करना) धातु + णिच् के बीच होने वाले अङ्ग कार्य करके णिच् का लोप कर चुकने के बाद, अब आप अब अपनी दृष्टि केवल धातु की उपधा पर रखिये, क्योंकि उसी में हमें अब कार्य करना है। देखिये कि अभी हमने णिजन्त धातुओं को द्वित्व किया है। इन सभी में जो चङ् प्रत्यय है, वह णिच् से परे है। अतः इसे ‘चङ्परक णिच् प्रत्यय’ कहते हैं। चङ्परक णिच् प्रत्यय का धातुओं पर कैसा प्रभाव पड़ता है, इसका हम अब विचार के णौ चङि उपधाया ह्रस्वः - धातु की उपधा में रहने वाले दीर्घ स्वर को ह्रस्व हो जाता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। अब कुछ उदाहरणों से समझिये कि यह ह्रस्व किस प्रकार होता है - आ का ह्रस्व अ होता है, यथा - अ च कार् + अत् = अ च कर् + अत् अ प पाठ् + अत् = अ प पठ् + अत् अ र रास् + अत् = अ र रस् + अत् अनि नाय् + अत् = अनि नय् + अत् ई का ह्रस्व इ होता है, यथा - अ मि मील् + अत् = अ मि मिल् + अत् ऊ का ह्रस्व होता है, यथा - अ बु भाव् + अत् = अ बु भव् + अत् अ पु पाव् + अत् = अ पु पत् + अत् मेडि ए का ह्रस्व इ होता है, यथा - अ लि लेख + अत् = अ लि लिख + अत्यावर समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १९१ अ सि षेध् + अत् = अ सि षिधं + अत् _ओ का ह्रस्व उ होता है, यथा - अ जु गोम् + अत् = अ जु गुम् + अत् अ दु दोष् + अत् = अ दु दुष् + अत् अ चु चोर् + अत् = अ चु चुर् + अत अ मु मोद् + अत् = अ मु मुद् + अत् किन धातुओं की उपधा को ह्रस्व नहीं होता ? चुरादिगण में कथ वाक्यप्रबन्धे (१८५१) से तुत्थ संवरणे (१९४३) तक जो धातु हैं, वे धातु अग्लोपी धातु कहलाते हैं। अन्यत्र भी जहाँ ‘अ’, आ’ का लोप होता है वे धातु भी अग्लोपी धातु कहलाते हैं। नाग्लोपिशास्वृदिताम् - १. इन अग्लोपी धातुओं की उपधा को, २. शास् धातु की उपधा को, ३. तथा जिनमें ऋ की इत् संज्ञा हुई है, ऐसे ऋदित् धातुओं की उपधा को, चपरक णिच् प्रत्यय परे होने पर कभी भी ह्रस्व नहीं होता है। __ अत्यावश्यक - जहाँ धातु की उपधा में दीर्घ स्वर हो, और उसे ह्रस्व न करना हो, वहाँ जानिये कि धातुरूप तैयार हो चुका है। उसमें अब कुछ भी करना बाकी नहीं है। अतः वहाँ धातु + प्रत्यय को जोड़कर धातुरूप तैयार करते चलिये। जैसे - अग्लोपी धातुओं की उपधा के दीर्घ स्वर को ह्रस्व नहीं होता। अतः इनके धातुरूपों को तैयार जानिये - अ ब भाम् + अत् = अबभामत् अ स सार् + अत् = अससारत् आदि। शास् धातु की उपधा को ह्रस्व नहीं होता। अतः धातुरूप तैयार जानिये - अ श शास् + अत् = अशशासत् याचू, बाधू आदि ऋदित् धातुओं की उपधा को ह्रस्व नहीं होता। अतः इनके धातुरूपों को तैयार जानिये - अ य याच् + अत् = अययाचत् अ ब बाध् + अत् = अबबाधत् __भ्राजभासभाषदीपजीवमीलपीडामन्यतरस्याम् - भ्राज्, भास्, भाष्, [[१९२]] दीप, जीव, मील, पीड्, धातुओं की उपधा को विकल्प से ह्रस्व होता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। उपधा को ह्रस्व न होने पर - अब भ्राज् + अत् = अबभ्राजत् अब भास् + अत् = अबभासत् अब भाष् + अत् = अबभाषत् अदि दीप् + अत् = अदिदीपत् अ जिजीव् + अत् = अजिजीवत् अ मिमील् + अत् = अमिमीलत् अ पिपीड् + अत् = अपिपीडत् __ जब अभ्यास के अन्तिम स्वर तथा धातु के प्रथम स्वर में से दोनों, अथवा एक भी स्वर लघु हो, तब आप रुके रहिये। धातु + प्रत्यय को मत जोड़िये, क्योंकि ऐसे धातुओं में आगे अभी और कार्य बाकी हैं। अतः उपधा को ह्रस्व होने पर - अब भ्राज् + अत् = अब भ्रज् + अत् अब भास् + अत् = अ बभस् + अत् अब भाष् + अत् = अब भष् + अत् अदि दीप् + अत् = अदि दिप् + अत् अ जिजीव् + अत् = अजि जिव् + अत् अ मिमील् + अत् = अमि मिल् + अत् अ पिपीड् + अत् = अपि पिड् + अत् लोप: पिबतेरीच्चाभ्यासस्य - पा धातु की उपधा का लोप होता है, तथा अभ्यास को ई होता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। उपधा के ‘आ’ का लोप करके और अभ्यास के ‘पा’ को ‘पी’ करके - पा - अ प पाय् + अत् = अ पी प्य + अत् तिष्ठतेरित् - स्था धातु से णिच् लगने पर पुक् का आगम करके बना हुआ जो स्थाप् धातु, उस स्थाप् धातु की उपधा को ‘इ’ होता है, चङ्परक णिच् परे होने पर। अ त स्थाप् + णिच् + अत् = अ त स्थिप् + अत् / जिघ्रतेर्वा - घ्रा धातु से णिच् लगने पर पुक् का आगम करके बना हुआ जो घ्राप्, उस घ्राप् धातु की उपधा को विकल्प से ‘इ’ आदेश होता है, चङ्परक णिच् परे होने पर - अ ज घ्राप् + णिच् + अत् = अ ज घ्रिप् + अत् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १९३ उर्ऋत् - जिन धातुओं की उपधा में ऋ होता है, उन धातुओं की उपधा के ‘ऋ’ के स्थान पर विकल्प से ‘ऋ’ ही होता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। अर्थात् एक बार ऋ रहेगा - अ व वृध् + णिच् + अत् = अ व वृध् + णिच् + अत् / तथा एक बार गुण होकर अर् बन जायेगा - अ व वृध् + णिच् + अत् = अ व वध् + णिच् + अत्।

  • सन्वद्भाव तथा उसके बाद होने वाले कार्य ये सारे कार्य कर चुकने के बाद, अब आप अभ्यास के बाद जो धातु है, उसके प्रथम अक्षर को ही देखिये। सन्वल्लघुनि चङ्परेऽनग्लोपे - देखिये कि यदि अभ्यास के ठीक बाद वाला अक्षर लघु हो और धातु अग्लोपी न हो, तथा धातु से परे चङ्परक णिच् प्रत्यय हो, तब उस धातु के अभ्यास में वे सभी कार्य किये जाते हैं, जो कार्य सन् प्रत्यय परे रहने पर, अभ्यास को किये जाते हैं। अब हम विचार करें कि वे कौन से कार्य हैं, जो सन् प्रत्यय परे होने पर अभ्यास को किये जाते हैं ? वे कार्य इस प्रकार हैं। अभ्यास के अन्तिम ‘अ’ को ‘ई’ बनाना - सन्यत: - १. यदि अभ्यास के अन्त में ‘अ’ हो, २. और उसके बाद आने वाला अक्षर लघु हो तथा - ३. धातु अग्लोपी न हो, ये तीनों बातें मिल रही हों, तो अभ्यास के अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ हो जाता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर तथा सन् प्रत्यय परे होने पर। जैसे - अच कर् + अत् = अचि कर् + अत् अप पठ् + अत् = । अपि पठ् + अत् अप पच् + अत् = अपि पच अज गम् + अत् = अजि गम् + अत् अज हर् + अत् अजि हर् अव वृध् अवि वृध् अच कृष् अचि कृष् अब भ्रज् + अत् = अबि भ्रज् अब भस् अबि भस् अब भष्
  • अत् = अबि भष

अत् + + अत् + + अत् + अत + + अत + अत [[१९४]] अत स्थिप् + अत् = अति ष्ठिप् + अत् अज घ्रिप् + अत् = अजि घ्रिप् + अत् आदि। . ध्यान दीजिये कि इन सभी के अभ्यास के अन्त में ‘अ’ है, अभ्यास के बाद का अक्षर लघु है, तथा ये धातु अग्लोपी नहीं है, अतः अभ्यास के अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ हो गया है। यदि अभ्यास के बाद का अक्षर लघु न हो, तब आप अभ्यास के अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ कदापि मत बनाइये। जैसे - अय याच् + अत् = अययाचत् अब बाध् + अत् = अबबाधत् अब भ्राज् + अत् = अबभ्राजत् अब भास् + अत् = अबभासत् इन सब में अभ्यास के बाद वाला अक्षर लघु न होकर गुरु है। अतः इनके अभ्यास के ‘अ’ को ‘इ’ नहीं होगा, ये सब ऐसे ही रहेंगे। इसी प्रकार - अ र रक्ष् + अत् = अररक्षत् अ त तक्ष् + अत् = अततक्षत् यहाँ क्ष् इस संयुक्ताक्षर के कारण र, त गुरु हैं, लघु नहीं, अतः अभ्यास के र, त, को रि, ति, नहीं होगा। __ यदि धातु अग्लोपी हो तब भी आप अभ्यास के ‘अ’ को ‘इ’ कदापि मत बनाइये, भले ही उसके बाद का अक्षर लघु ही क्यों न हो। जैसे - अ च कथ् + णिच् + अत् = अचकथत् यहाँ अभ्यास के बाद वाला अक्षर ‘क’ लघु है तब भी अभ्यास के ‘अ’ को ‘इ’ नहीं हुआ है, क्योंकि कथ् धातु अग्लोपी है। हम जानते हैं कि चुरादिगण के कथ वाक्यप्रबन्धे (१८५१) से लेकर तुत्थ संवरणे (१९४३) तक के धातु अग्लोपी हैं। अतः इनके अभ्यास के ‘अ’ को कभी भी सन्यत: सूत्र से ‘इ’ नहीं होगा। सन्यत: के अपवाद - अत्स्मृदृत्वरप्रथम्रदस्तृस्पशाम् - स्मृ, दृ, त्वर, प्रथ्, मृद्, स्तृ, स्पश्, इन धातुओं के अभ्यास को न तो ‘इ’ होगा और न ही दीर्घ होगा, अपितु इन्हें ‘अ’ ही रहेगा। जैसे - स्मृ - अ स स्मर् + अत् = असस्मरत् दृ - अ द दर् + अत् = अददरत् त्वर् - अ त त्वर् + अत् = अतत्वरत् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि प्रथ् - अप प्रथ् + अत् = अपप्रथत् म्रद् - अ म म्रद् + अत् = अमम्रदत् स्तृ - अ त स्तर् + अत् = अतस्तरत् स्पश् - अ प स्पश् + अत् = अपस्पशत् विभाषा वेष्टिचेष्ट्यो: - वेष्ट, चेष्ट, धातुओं के अभ्यास को विकल्प से ‘अ’ आदेश होता है - वेष्ट - अ विवेष्ट् + अत् = अविवेष्टत् वेष्ट - अ विवेष्ट + अत् = अववेष्टत् चेष्ट - अ चि चेष्ट् + अत् = अचिचेष्टत् चेष्ट - अ चि चेष्ट् + अत् = अचचेष्टत् ई च गण: - गण धातु यद्यपि अग्लोपी है, तो भी उसके अभ्यास के ‘अ’ को ‘ई’ भी होता है तथा उसे दीर्घ भी होता है - गण - अ ज गण + अत् = अजीगणत् . अभ्यास के अन्तिम लघु स्वर को दीर्घ बनाना - दी|

लघोः - अभी तक जो भी कार्य किये, उन्हें कर चुकने के बाद देखिये कि यदि - १. अभ्यास का अन्तिम अक्षर लघु हो /
२. उसके बाद वाला अक्षर भी लघु हो तथा /
३. धातु अग्लोपी न हो,
तो अभ्यास के अन्त में आने वाले लघु स्वर को
दीर्घ हो जाता है,
चङ् परक णिच् प्रत्यय परे होने पर।
कुछ उदाहरण देखें - अ चि कर् + अत् = अ ची कर् + अत् = अचीकरत् अ पि पिड् + अत् = अ पी पिड् + अत् = ।

अपीपिडत् अ दि दिप् + अत् = अ दी दिप् + अत् = अदीदिपत् अ पि पठ् + अत् = अ पी पठ् + अत् = अपीपठत् अ जि हर् + अत् = अ जी हर् + अत् = अजीहरत् स्पष्ट है कि अभ्यास के अन्तिम अक्षर तथा अभ्यास के बाद वाले अक्षर, इन दोनों में से यदि एक भी अक्षर गुरु होता है, तो दी? लघो:’ सूत्र से कभी भी अभ्यास को दीर्घ नहीं होता। यथा - अबि भ्रज् + अत् को देखिये । यहाँ भ्र यह भ + र् का संयोग है। अतः उसका पूर्ववर्ती अभ्यास ‘बि’ गुरु है, लघु नहीं। गुरु होने के कारण इसे कभी भी दीर्घ नहीं होगा। यह बिभ्रज् + अत् = अबिभ्रजत् ही रहेगा। [[१९६]] अययाचत् इसी प्रकार अतिष्ठिप् + अत् = अतिष्ठिपत् ही रहेगा क्योंकि इसके अभ्यास का अन्तिम अक्षर भी गुरु है। इसी प्रकार यदि अभ्यास का अन्तिम अक्षर तो लघु हो, किन्तु अभ्यास के बाद वाला अक्षर गुरु हो तब भी अभ्यास को कभी दीर्घ नहीं होगा। जैसे - अपि पीड् + अत् = अ पि पीड् + अत् = अपिपीडत् अ दि दीप् + अत् = अ दि दीप् + अत् = अदिदीपत् अ ब भास् + अत् = अ ब भास् + अत् = अबभासत् अ य याच् + अत् = अ य याच् + अत् = । अ ब बाघ् + अत् = अ ब बाघ + अत् = अबबाघत् __ भ्राज्, भास्, भाष्, दीप, जीव्, मील, पीड्, धातु - जब ‘भ्राजभासभाषदीपजीवमीलपीडामन्यतरस्याम्’ सूत्र से इन धातुओं की उपधा को ह्रस्व होगा, तब इन धातुओं के आदि में लघु अक्षर मिलेगा, अतः तब इनके अभ्यास को ‘सन्यत:’ सूत्र से इत्व भी होगा और दीर्घो लघो:’ सूत्र से दीर्घ भी होगा - अ बभाज् + अत् = अब भजत् - अ बीभज् + अत् = अबीभजत् अ बभास् + अत् = अब भसत् - अ बीभस् + अत् = अबीभसत् अ बभाष्’ + अत् = अब भषत् - अ बीभष् + अत् = अबीभषत् अ दिदीप् + अत् = अदि दिपत् - अ दीदिप् + अत् = अदीदिपत् अ जिजीव् + अत् = अजि जिवत् - अ जीजिव् + अत् = अजीजिवत् अ मिमील् + अत् = अमि मिलत् - अ मीमिल् + अत् = अमीमिलत् अ पिपीड् + अत् = अपि पिडत् - अ पीपिड् + अत् = अपीपिडत् __ जब इनकी उपधा को ह्रस्व नहीं होगा तब इन धातुओं के आदि में लघु अक्षर नहीं मिलेगा, तब इनके अभ्यास को इत्व, दीर्घ नहीं होंगे। अ बभाज् + अत् = अबभाजत् अ बभास् + अत् = अबभासत् अ बभाष् + अत् = अबभाषत् अ दिदीप् + अत् = अदिदीपत् अ जिजीव् + अत् = अजिजीवत् अ मिमील् + अत् = अमिमीलत् अ पिपीड् + अत् = अपिपीडत् अभ्यास के अन्तिम ‘उ’ को ‘इ’ बनाना - + + समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि १९७ ओ: पुयण्ज्य परे - यदि अभ्यास के अन्त में ‘उ’ हो, और उस ‘उ’ के बाद पवर्ग, यण् या जकार हों, तथा उन पवर्ग, यण, जकार के बाद अवर्ण हो तब अभ्यास के अन्तिम ‘उ’ को ‘इ’ आदेश हो जाता है, चङ् परक णिच् प्रत्यय परे होने पर तथा सन् प्रत्यय परे होने पर। हमने जाना कि अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ बनाने के लिये इतनी बातें होना चाहिये - १. अभ्यास के अन्त में ‘उ’ हो, २. उसके बाद का अक्षर पवर्ग, यण् या जकार हो, ३. तथा इन पवर्ग, यण् या जकार के बाद ‘अ’ हो । ये तीनों बातें मिलें, तभी आप अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ बनाइये और दीर्घो लघो: सूत्र से उस ‘इ’ को दीर्घ कर दीजिये। यथा अ पु पव् + अत् = अ पि पव् + अत् = अपीपवत् अ बु भव् + अत् = अ बि भव् + अत् = अबीभवत् अ यु यव् + अत् = अ यि यत् + अत् । अयीयवत् अ लु लव् + अत् = अ लि लव् + अत् = अलीलवत् अ रु रव् + अत् = अ रि रत् + अत् = अरीरवत् अ जु जव् + अत् = अ जि जव् + अत् = अजीजवत् __इनमें अभ्यास के अन्त में ‘उ’ है, उसके बाद का अक्षर पवर्ग, यण या जकार है, तथा इन पवर्ग, यण या जकार के बाद ‘अ’ है, अतः अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ आदेश हुआ है तथा दीर्घो लघो: सूत्र से उस ‘इ’ को दीर्घ हुआ है। स्रवति शृणोति द्रवति प्रवति प्लवति च्यवतीनां वा - इतने धातुओं के अभ्यास के ‘उ’ को विकल्प से ‘इ’ आदेश होता है। अर्थात् एक बार ‘इ’ होता है, एक बार ‘उ’ ही रहता है,चङ् परक णिच् प्रत्यय परे होने पर तथा सन् प्रत्यय परे होने पर। त्रु - अ सुस्रव् + अत् = असुस्रवत् अ सि स्रव् + अत् = असिस्रवत् अ शु श्रव् + अत् = अशुश्रवत् __ अ शि श्रव् + अत् = अशिश्रवत् अत् अदुद्रवत् अ द्रि द्रव् अत् = अद्रिद्रवत् अ पु प्रव् अत् = अपुप्रवत् अपि प्रव + अत् = अपिप्रवत् + . ا لى من + + صدر पु + + ᳕ प्लु - अ पु प्लव् + अत् = अपुप्लवत् अ पि प्लव् + अत् = अपिप्लवत् च्यु - अ चु च्यव् + अत् = अचुच्यवत् अ चि च्यव् + अत् = अचिच्यवत् चङ् परक णिच् प्रत्यय का किस किस धातु के अभ्यास पर क्या क्या प्रभाव पड़ेगा, यह पूरा विचार हमने कर लिया। अब हम एक भू धातु को लेकर देखें कि अभी तक हमने क्या क्या किया १. भू धातु को द्वित्व करके - भू भू + णिच् + अत् २. अडागम करके __ - अ बु भू + णिच् + अत् ३. अभ्यास को ह्रस्व करके - अ भु भू , + णिच् + अत् ४. अभ्यास को चर्व करके - अ बु भू + णिच् + अत् ५. णिच्परक अङ्गकार्य करके __ तथा णिच् का लोप करके - अ बु भाव् + अत् ६. धातु की उपधा को ह्रस्व करके - अ बु भव् + अत् ७. अभ्यास के उ को इ बनाकर - अ बि भव् + अत् ८. अभ्यास के ‘इ’ को दीर्घ करके - अ बी भव + अत् = अबीभवत् णिचश्च - सारे णिजन्त धातु उभयपदी होते हैं। अतः ‘णिच’ से बने हुए धातुओं में दोनों पदों के प्रत्यय लगाये जा सकते हैं। जैसे ण्यन्त भू धातु __ परस्मैपद आत्मनेपद अबीभवत् अबीभवेताम् अबीभवन् अबीभवत अबीभवेताम् अबीभवन्त अबीभवः अबीभवेतम् अबीभवेत अबीभवथा: अबीभवेथाम् अबीभवध्वम् अबीभवम् अबीभवाव अबीभवाम अबीभवे अबीभवावहि अबीभवामहि __ अण्यन्त हलादि धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि हम जानते हैं कि श्रि, द्रु, स्रु, धेट, शिव, गुप्, कम् इन सात धातुओं से णिच् न लगने पर भी लुङ् लकार में चङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। णिच् न लगने पर इनसे चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की प्रक्रिया इस प्रकार होती है - __ ये हलादि धातु हैं । इनको चङि’ सूत्र से पूर्ववत् द्वित्व करके, अभ्यासकार्य करके लुङ्लङ्लुङक्ष्वडुदात्त: सूत्र से अट् (अ) का आगम कर दीजिये - श्रि - श्रि श्रि - शिश्रि - अशिश्रि + अत् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि 4646 00/ary दुद्रु - अदुद्रु + अत् स्रु - सु सु - सुस्रु - असुनु + अत् धा - धा धा - दधा - अदधा + अत् श्वि - शिव शिव - शिश्वि - अशिश्वि + अत् गुप् गुप् - जुगुप् - अजुगुप् + अत् कम् - कम् कम् - चकम् - अचकम् + अत् धा धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय चङ् से बने हुए प्रत्ययों के प्रारम्भ में जो ‘अ’ दिख रहा है वह चङ् ही है। चङ् में ङ् की इत् संज्ञा होने से यह ङित् आर्धधातुक प्रत्यय है। आतो लोप इटि च - कित् डित् आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग के अन्तिम आ का लोप होता है। जैसे - धा - द्वित्वादि करके दधा - अदधा - अदधा + अत् - अदध् + अत् = अदधत् आदि। पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद अदधत् अदधताम् अदधन् अदधत अदधेताम् अदधन्त अदध: अदधतम् अदधत अदधथा: अदधेथाम् अदधध्वम् अदधम् अदधाव अदधाम _ अदधे अदधावहि अदधामहि ध्यान रहे कि जब इसी धा धातु में णिच् प्रत्यय लगाकर, ण्यन्त बनाकर, चङ् लगाते हैं, तब णिच् परे होने पर इन्हें ‘पुक् का आगम’ करके, अदीधपत् बनता है। श्रि धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय श्रि - द्वित्वादि करके - शिश्रि - अशिश्रि - __ अचि अनुधातुभ्रुवां य्वोरिडुवङौ - कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर, धातु के अन्तिम इ, ई, को इयङ् = इय् तथा अन्तिम उ, ङ् को उवङ् = उव्, आदेश होते हैं। श्रि - अशिश्रि + अत् = अशिश्रिय् + अत् = अशिश्रियत् श्वि - अशिश्वि + अत् = अशिश्विय् + अत् = अशिश्वियत्।

  • परस्मैपद आत्मनेपद अशिश्रियत् अशिश्रियताम् अशिश्रियन् अशिश्रियत अशिश्रियेताम् अशिश्रियन्त अशिश्रियः अशिश्रियतम् अशिश्रियत अशिश्रियथा: अशिश्रियेथाम् अशिश्रियध्वम् अशिश्रियम् अशिश्रियाव अशिश्रियाम अशिश्रिये अशिश्रियावहि अशिश्रियामहि [[२००]] ध्यान रहे कि जब इनसे णिच् प्रत्यय लगाकर, चङ् लगाते हैं, तब इसे ‘अचि अनुधातुभ्रुवां वोरिडुवडौ’ सूत्र से इयङ् नहीं होता। तब णिच् परे होने पर इसे ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि करके - अशिश्राय / णौ चडि उपधाया ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व करके - अशिश्रय् + त् = अशिश्रयत् बनता है। शिव धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय शिव धातु - शिव - शिश्वि - अशिश्वि + अत् / इयङ् आदेश होकर - अशिश्विय् + अत् - अशिश्वियत् । ध्यान रहे कि शिव धातु केवल परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - अशिश्वियत् अशिश्वियताम् अशिश्वियन् अशिश्वियः अशिश्वियतम् अशिश्वियत अशिश्वियम् अशिश्वियाव - अशिश्वियाम ध्यान रहे कि ण्यन्त शिव धातु को ‘णौ च संश्चङो:’ सूत्र से विकल्प से सम्प्रसारण होता है। अतः एक बार इसे सम्प्रसारण होकर ‘शु’ बनता है, और इस ‘शु’ को द्वित्व होकर शु शु + अत् - अशूशवत् बनता है, और एक बार सम्प्रसारण न होकर शिव ही रहता है, और इस ‘श्वि’ को द्वित्व होकर शिव शिव + अत् - अशिश्वयत् बनता है। उकारान्त स्रु, द्रु धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय त्रु - सुत्रु - असुत्रु / द्रु - दुद्रु - अदुद्रु / ये उकारान्त हैं। इनमें चङ् से बने हुए इन प्रत्ययों को इस प्रकार जोड़िये - अचि अनुधातुभ्रुवां य्वोरिडुवङौ - कित् डित् प्रत्यय परे होने पर, धातु के अन्तिम इ, ई, को इयङ् = इय् तथा अन्तिम उ, ङ् को उवङ् = उव्, आदेश होते हैं। द्रु - अदुद्रु + अत् - अदुद्रुव् + अत् = अदुद्रुवत् आदि। यह धातु केवल परस्मैपदी है। इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - अदुद्रुवत् अदुद्रुवताम् अदुद्रुवन् अदुद्रुवः . अदुद्रुवतम् अदुद्रुवत अदुद्रुवम् अदुद्रुवाव अदुद्रुवाम ध्यान रहे कि जब इसी में णिच् लगाकर ण्यन्त बनाकर, चङ् लगाते हैं, तब णिच् परे होने पर गुण होकर इससे अदुद्रवत् / अदिद्रवत् बनता है।
  • इसी प्रकार स्रु धातु - असुनुवत् असुस्रुवताम् असुस्रुवन् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २०१ असुनुवः असुस्रुवतम् असुस्रुवत असुनुवम् असुनुवाव सुस्रुवाम __ ध्यान रहे कि जब इसी में णिच् लगाकर ण्यन्त बनाकर, चङ् लगाते हैं, तब णिच् परे होने पर गुण होकर इससे असुस्रवत् / असिस्रवत् बनता है। आत्मनेपदी कम् धातु + चङ् से बने हुए प्रत्यय कम् - चकम् - अचकम् / हलन्त धातुओं में कुछ भी न करके धातु + प्रत्यय को सीधे जोड़ दीजिये। अचकमत अचकमेताम् अचकमन्त अचकमथा: अचकमेथाम् अचकमध्वम् अचकमे अचकमावहि अचकमामहि ध्यान रहे कि जब कम् धातु में णिच् लगाकर ण्यन्त बनाकर, चङ् लगाते हैं, तब णिच् परे होने पर सन्वद्भाव होकर अभ्यास को इत्व तथा दीर्घ होकर इससे, अचीकम् + अत - अचीकमत बनता है।

अजादि ण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि

अजादि ण्यन्त धातुओं में चङ् से बने हुए प्रत्यय लगाने का प्रक्रिया क्रम इस प्रकार है -

१. अजादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि

अजादेर्द्वितीयस्य / चडि - चङ् परे होने पर हलादि अनभ्यास धातु के प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है और अजादि धातु के द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। यथा - अट + णिच् = आटि - इसमें द्वितीय अवयव एकाच है ‘टि’, इसे द्वित्व होकर - आटिटि। ओख + णिच् = ओखि - द्वितीय अवयव एकाच को है ‘खि’, इस द्वित्व करके - ओखिखि । ऊह् + णिच् = ऊहि - इसमें द्वितीय अवयव एकाच् है ‘हि’, इसे द्वित्व होकर - ऊहिहि। अभ् + णिच् = अभ्रि - द्वितीय अवयव एकाच् भ्रि को द्वित्व होकर - अभ्रिभ्रि । ईक्ष् + णिच् = ईक्षि - द्वितीय अवयव एकाच ‘क्षि’ को द्वित्व होकर - ईक्षिक्षि। उज्झ् + णिच् = उज्झि - द्वितीय अवयव एकाच ज्झि’, को द्वित्व होकर - उज्झि ज्झि ! अट्ट + णिच् = आट्टि - द्वितीय अवयव एकाच् ‘ट्टि’ को द्वित्व होकर - आट्टि ट्टि । नन्द्रा: संयोगादय: - यदि द्वितीय अवयव एकाच के आदि में ऐसा संयोग हो जिसके आदि में न्, द्, र हों, तो इन न्, द्, र् को छोड़कर बचे हुए द्वितीय२०२ ᳕ अवयव एकाच को द्वित्व होता है। यथा - ऋष् + णिच् = अर्षि। इसमें द्वितीय अवयव एकाच है र्षि। इसमें र् को छोड़कर केवल षि को द्वित्व होगा - अर्षिषि। इसी प्रकार अर्चि में केवल चि को द्वित्व होगा - अर्चिचि, अर्पि में र् को छोड़कर केवल पि को द्वित्व होगा - अर्पिपि। ईय् + णिच् = ईयि, में र् को छोड़कर केवल क्ष्यि को द्वित्व होगा - ईयि क्ष्यि। उन्दि में न् को छोड़कर केवल दि को द्वित्व होगा - उन्दिदि। अड्डि में द् को छोड़कर केवल डि को द्वित्व होगा - अड्डिडि। बकारस्याप्ययं प्रतिषेध: - यदि द्वितीय अवयव एकाच के आदि में ऐसा संयोग हो जिसके आदि में ब् हो, तो इस ब् को छोड़कर बचे हुए द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। उब्ज् + णिच् = उब्जि - उब्जिजि। (इस सूत्र से सम्बन्धित वार्तिक काशिका में एक साथ देख लें।) णौ चडि उपधाया ह्रस्वः - धातु की उपधा में रहने वाले दीर्घ स्वर को ह्रस्व हो जाता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। अतः यदि धातु अजादि हो, और उसकी उपधा में गुरु स्वर हो, तो उस गुरु स्वर को ‘णौ चङि उपधाया ह्रस्वः’ सूत्र से ह्रस्व कीजिये। जैसे - एध् + णिच् + अत् - इध् + णिच् + अत् = इधि + अत् । अब इसे द्वित्व करके - इधिधि + अत्। नाग्लोपिशास्वृदिताम् - अग्लोपी धातु, शास् धातु और ऋदित् धातुओं की उपधा में रहने वाले दीर्घ स्वर को ह्रस्व नहीं होता है, चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर। अययाचत्, अशशासत्। पूर्वोऽभ्यास: - द्वित्व प्रकरण में जब भी जिस भी धातु को द्वित्व होता है, उसमें पूर्व वाले का नाम अभ्यास होता है।

२. अभ्यासकार्य

१. हलादि: शेष - अभ्यास का आदि हल् शेष बचता है और अनादि हलों का लोप हो जाता है। यथा - ईक्षि - ईक्षि क्षि - ईकिक्षि। उज्झि ज्झि - उजि ज्झि। अभ्रि - अभ्रिभ्रि - अभि भ्रि। आट्टि ट्टि - आटिट्टि। . २. कुहाश्चुः - अभ्यास के कवर्ग और हकार के स्थान पर चवर्ग आदेश होता है। (इसे ही चुत्व करना कहते हैं।) __अभ्यास को देखिये। यदि अभ्यास में कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो इस सूत्र से अभ्यास के उस कवर्ग के वर्ण को आप उसी क्रम से चवर्ग का वर्ण बना दीजिये। यदि अभ्यास में ‘ह’ हो तो उसे ‘ज’ बना दीजिये। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २०३ यथा - ईकिक्षि - ईचिक्षि। ऊहिहि - ऊजिहि । ओखिखि - ओछिखि। ३. अभ्यासे चर्च - अभ्यास के झश् को जश् और खय् को चर् आदेश होते हैं। __ अतः यदि अभ्यास में वर्ग के चतुर्थाक्षर अर्थात् झ, भ, घ, ढ, ध हों, तो उन्हें उसी वर्ग का तृतीयाक्षर अर्थात् ज, ब, ग, ड, द बना दीजिये, इसे जश्त्व करना कहते हैं। यथा - इधि - इधि धि - इदि धि। अभि भ्रि - अबिभ्रि। यदि अभ्यास में वर्ग के द्वितीयाक्षर अर्थात् ख, फ, छ, ठ, थ हों, तो उन्हें उसी वर्ग का प्रथमाक्षर अर्थात् क, च, ट, त, प, बना दीजिये, इसे चर्व करना कहते हैं । यथा - ऋम्फिफि - ऋम्पिफि । ओखिखि - ओछिखि - ओचिखि ।

३. णिलोप

णेरनिटि - अनिडादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर णि का लोप होता है। यथा - ओचिखि + अत् = ओचिख् + अत् । इदिधि + अत् = इदिध् + अत् । ऋम्पिफि + अत् = ऋम्पिफ् + अत् । उन्दिदि + अत् = उन्दिद् + अत् ।

४. आडागम

इसके बाद ‘आडजादीनाम्’ सूत्र से लुङ्, लङ्, लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर अजादि अङ्ग को आट (आ) का आगम कीजिये। ध्यान रहे कि आट् + धातु के प्रथम अच् के बीच ‘आटश्च’ सूत्र से वृद्धि सन्धि ही कीजिये, गुण नहीं। वृद्धि इस प्रकार कीजिये - आ + अ, आ = आ - आ + आटिट् + अत् = आटिटत् आ + ई, ई = ऐ - आ + इञ्चिख् + अत् = ऐञ्चिखत् आ + उ, ऊ = औ - आ + उन्दिद् + अत् = औन्दिदत् आ + ऋ, ऋ = आर् - आ + ऋजिज् + अत् = आर्षिषत् आ + ए, ऐ = ऐ - आ + एषिष् + अत् = ऐषिषत् आ + ओ, औ = औ - आ + ओचिख् + अत् = औचिखत् __ अजादि णिजन्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने का यही क्रम है। इनमें से जो कार्य प्राप्त न हो, उसे छोड़कर अगला कार्य करते जाना चाहिये। अब हम अजादि णिजन्त धातुओं का वर्गीकरण करके उनमें चङ् से बने हुए प्रत्यय लगायें। ध्यान रहे कि क्रम यही रहे। अजन्त अजादि धातु - इण् तथा इक् - _इ + णिच् + अत् / अचो णिति से वृद्धि करके - ऐ + इ + अत् / एचोऽयवायावः से आय् आदेश करके - आय् + इ + अत् - आयि + अत् + + + + + + + +

  • [[२०४]] / अब इसके द्वितीय अवयव एकाच ‘यि’ को द्वित्व करके - आयियि + अत् / अब णेरनिटि सूत्र से ‘णिच्’ प्रत्यय का लोप करके - आयिय् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके - आयियत्। इस धातु का प्रयोग प्रति उपसर्ग के साथ होता है - प्रति + आयियत् = प्रत्यायियत् । __णौ गमिरबोधने / इण्वदिक: - बोध (ज्ञान) अर्थ वाले इण् धातु को णिच् प्रत्यय परे होने पर गम् आदेश होता है। णिच् प्रत्यय परे होने पर, इक् धातु को भी गम् आदेश होता है। अबोध अर्थ मे गम् आदेश होने पर अजीगमत् बनता है। इसे बनाने की विधि हलादि धातुओं में बतलाई जा चुकी है। अधि + इङ् धातु - क्रीजीनां णौ सूत्र से इङ् धातु को ‘आ’ बनाकर अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ सूत्र से पुक् का आगम करके द्वित्व कीजिये। इ + णिच् + अत् / आ + णिच् + अत् / पुक् का आगम करके - आ + पुक् + णिच् + अत् / आप् + इ + अत् - आपि + अत् / द्वितीय अवयव एकाच् ‘पि’ को द्वित्व करके - आपिपि + अत् / णेरनिटि सूत्र से णिच्’ का लोप करके - आपिप् + अत् / आडजादीनाम् से आडागम करके - आपिपत् । इस धातु का प्रयोग अघि उपसर्ग के साथ होता है - अधि + आपिपत् = अध्यापिपत्। उ धातु - उ + णिच् + अत् / अचो णिति से वृद्धि करके - औ + इ + अत् / एचोऽयवायावः सूत्र से औ को आव् आदेश करके - आव् + इ + अत् - आवि / अब इसके द्वितीय अवयव एकाच् ‘वि’ को द्वित्व करके - आविवि + अत् / अब णेरनिटि सूत्र से ‘णिच्’ प्रत्यय का लोप करके - आविव् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके - आविवत् । __ऋ धातु - इसे ‘अर्तिह्रीब्लीरीक्नूयीक्ष्माय्याताम् पुणौ’ सूत्र से पुक् का आगम कीजिये तथा पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये - ऋ + णिच् + अत् - ऋ + पुक् + णिच् + अत् / गुण करके - अर् + प् + इ + अत् - अर्पि + अत् / द्वितीय अवयव एकाच् ‘पि’ को द्वित्व करके - अर्पिपि + अत् / णेरनिटि से ‘णिच्’ का लोप करके - अर्पिप् + अत् / आडजादीनाम् से आडागम करके तथा वृद्धि करके - आर्पिपत्। अदुपध अजादि धातु - अत उपधाया: - अदुपध हलन्त धातुओं की उपधा के ‘अ’ को वृद्धि होती है, जित् णित् प्रत्यय परे होने पर। जैसे - समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २०५ _ अट् + णिच् + अत् - आट् + इ + अत् - आटि + अत् / इसके द्वितीय अवयव एकाच ‘टि’ को द्वित्व करके - आटिटि + अत् / अब णेरनिटि सूत्र से ‘णिच्’ प्रत्यय का लोप करके - आटिट् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके - आटिटत।। इसी प्रकार - अत् धातु से आतितत् बनाइये। इगुपध अजादि धातु - पुगन्तलघूपधस्य च - कित्, डित्, से भिन्न, सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा के लघु इक् को गुण होता है अर्थात् उपधा के लघु इ को ए / लघु उ को ओ / लघु ऋ को अर् / ऐसा गुण होता है। यथा - ऋध् + णिच् + अत् / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - अर्धि + अत् / द्वितीय अवयव एकाच् ‘धि’ को द्वित्व करके - अर्धिधि + अत् / अभ्यास को अभ्यासे चर्च से चर्व करके - अर्दिधि + अत् / अब णेरनिटि सूत्र से णिच्’ प्रत्यय का लोप करके - अर्दिध् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके - आर्दिधत्।
  • उख् + णिच् + अत् / पुगन्तलघूपधस्य च से गुण करके - ओख + इ + अत् - ओखि + अत् / द्वितीय अवयव एकाच खि’ को द्वित्वाभ्यासकार्य करके - ओखिखि + अत् - ओचिखि + अत् / णेरनिटि से ‘णिच्’ का लोप करके - ओचिख + अत् / आडजादीनाम् से आडागम करके - औचिखत् । इष् + णिच् + अत् / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - एष् + इ + अत् - एषि + अत् / द्वितीय अवयव एकाच् ‘षि’ को द्वित्व करके - एषिषि + अत् / अब णेरनिटि सूत्र से ‘णिच्’ प्रत्यय का लोप करके - एषिष् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके - ऐषिषत् । शेष अजादि धातु - ओण धातु - ओण् + अत् / देखिये कि यह धातु ऋदित् है अतः ‘नाग्लोपिशास्वृदिताम्’ सूत्र से इसकी उपधा को ह्रस्व का निषेध हो जायेगा। अतः उपधाह्रस्व को छोड़ दीजिये और आगे के कार्य कीजिये - ओण् + णिच् + अत् / ओण् + इ + अत् - ओणि / णि को द्वित्वादि करके - ओणिणि + अत् / णिच् का लोप करके - ओणिण् + अत् / आडजादीनाम् सूत्र से आडागम करके तथा वृद्धि करके = औणिणत् । इसी प्रकार - उज्झ् से औज्जिझत्। अभ्रू से आबिभ्रत् । ईक्ष् धातु - ईक्ष् + णिच् - ईक्षि - ईक्षिक्षि। इसमें पूर्व क्षि की अभ्यास [[२०६]] संज्ञा है। क्ष् में क् + ए इन दो व्यञ्जनों का संयोग है। हलादि: शेषः’ सूत्र से अभ्यास के आदि हल् क् को बचा लीजिये और ए का लोप कर दीजिये। ईक्षिक्षि - ईकिक्षि - ‘कुहोश्चुः’ से चुत्व करके - ईचिक्षि - ईचिक्ष् - ऐचिक्षत् । इसी प्रकार - उक्ष् + णिच् - उक्षि - उकिक्षि - उचिक्ष् - औचिक्षत् आदि । यह लुङ् लकार के चङ् से बने हुए प्रत्ययों को लगाने की विधि पूर्ण हुई।

लुङ् लकार के सप्तम, अष्टम प्रकार के क्स से बने हुए प्रत्यय

सत् सताम् सन् सत साताम् सन्त स: सतम् सत सथा: साथाम् सध्वम् सम् साव साम सि सावहि सामहि पहिले हमारा विचार यह होना चाहिये कि ये क्स’ से बने हुए प्रत्यय किन किन धातुओं से लगाये जायें। इसके लिये सूत्र हैं - शल इगुपधादनिट: क्स: - जो धातु अनिट् हों, साथ ही जिनके अन्त में शल् अर्थात् श, ष, स्, ह हों, तथा जिनकी उपधा में इक् अर्थात् इ, उ, ऋ हों, उन्हें ‘अनिट् शलन्त इगुपध’ धातु कहते हैं। ऐसे शलन्त इगुपघ अनिट् धातुओं से लुङ् लकार में, ये क्स से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। जैसे - दुह् धातु को देखिये, यह धातु शलन्त इगुपध अनिट् धातु है, अतः इससे लुङ् लकार में, ये क्स से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। इस प्रकार सारे प्रत्ययों के बँटवारे के बाद, अनिट् धातुओं में से कुल १७ धातु इस क्स’ प्रत्यय के हिस्से में आते हैं। वे इस प्रकार हैं - क्रुश्, दिश्, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, कृष्, त्विष्, द्विष्, श्लिष्, मिह रुह, लिह, दिह, दुह = १७ श्लिष आलिङ्गने - इन १७ धातुओं में से भी, श्लिष् धातु का अर्थ जब आलिङ्गन करना होता है, तब तो उससे क्स से बने हुए प्रत्यय लगते हैं, तथा जब इसका अर्थ चिपकना होता है, तब उससे अङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगते हैं, यह ध्यान रखना चाहिये। . न दृश: - दृश् धातु शलन्त इगुपध अनिट् धातु है, तो भी इससे लुङ् लकार में क्स से बने हुए प्रत्यय नहीं लगाये जाते हैं। इससे विकल्प से अङ् से बने हुए और सिच् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। अदर्शत्, अद्राक्षीत् । स्पृशकृषमृशतृपदृपां सिज्वा वक्तव्यः (वार्तिक) - स्पृश्, मृश्, कृष् इन शलन्त इगुपध धातओं से क्स और सिच दोनों ही प्रत्यय विकल्प से लगते हैं। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २०७ अतः यह जानिये कि १४ शलन्त इगुपध धातुओं से क्स, तथा ३ शलन्त इगुपध धातुओं से क्स और सिच् दोनों ही प्रत्यय लग सकते हैं। इनके अलावा गृहू, बृहू, तृहू, स्तृहू, गुहू ये वेट् धातु भी, शलन्त इगुपध हैं। जब ये अनिट् होते हैं, तब इनसे क्स से बने हुए प्रत्यय लगाये जाते हैं। सेट होने पर, तब इनसे ‘सिच्’ से बने हुए प्रत्यय ही लगाये जाते हैं। __ परन्तु ध्यान रहे कि परस्मैपदी धातुओं से परस्मैपदी तथा आत्मनेपदी धातुओं से आत्मनेपदी प्रत्यय ही लगाये जायें।

क्स से बने हुए सकारादि प्रत्ययों को धातुओं में कैसे जोड़ें ?

१. ध्यान रहे कि ‘क्’ की इत् संज्ञा होने से, यह प्रत्यय कित् है। अतः इसके लगने पर धातु की उपधा को ‘क्डिति च’ सूत्र से गुणनिषेध कीजिये। __२. धातुओं के आदि में लुङ्लङ्लुङ्वडुदात्त: सूत्र से अडागम अवश्य कीजिये। अब इन सारे धातुओं को क्स से बने हुए सकारादि प्रत्ययों में जोड़िये। सकारादि प्रत्ययों को शकारान्त धातुओं में इस प्रकार जोड़िये - शकारान्त धातु - धातु के अन्तिम श्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज - राजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये - अदिश् + सत् - अदिष् + सत् / उसके बाद ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाइये - अदिक् + सत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये - अदिक् + षत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाइये = अदिक्षत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद __ आत्मनेपद अदिक्षत् अदिक्षताम् अदिक्षन् अदिक्षत अदिक्षाताम् अदिक्षन्त अदिक्षः अदिक्षतम् अदिक्षत अदिक्षथा: अदिक्षाथाम् अदिक्षध्वम् अदिक्षम् अदिक्षाव अदिक्षाम अदिक्षि अदिक्षावहि अदिक्षामहि इसी प्रकार - क्रुश् से अक्रुक्षत् / मृश् से अमृक्षत् / रिश् से अरिक्षत् / रुश से अरुक्षत् / लिश् से अलिक्षत् / विश् से अविक्षत् / स्पश् से अस्पृक्षत् आदि बनाइये। षकारान्त धातु - ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाइये - अकृष् + सत् - अकृक् + सत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये - अकृक् + षत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये - अकृक्षत् । षकारान्त त्विष्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - परस्मैपद आत्मनेपद अत्विक्षत् अत्विक्षताम् अत्विक्षन् अत्विक्षत अत्विक्षाताम् अत्विक्षन्त [[२०८]] अत्विक्ष: अत्विक्षतम् अत्विक्षत अत्विक्षथा: अत्विक्षाथाम्अत्विक्षध्वम् अत्विक्षम् अत्विक्षाव अत्विक्षाम अत्विक्षि अत्विक्षावहि अत्विक्षामहि इसी प्रकार द्विष् से अद्विक्षत् / श्लिष् से अश्लिक्षत् / बनाइये। हकारान्त धातु - इनके तीन वर्ग बनाइये - १. मिह्, रुह् धातु - ‘ह’ को हो ढः’ सूत्र से ‘द’ बनाइये - अमिह + सत् - अमिढ् + सत् / ‘ढ्’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाइये - अमिढ् + सत् - अमिक् + सत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये - अमिक् + षत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये - अमिक्षत् । इसी प्रकार रुह से अरुक्षत् / तृहू से अतृक्षत् / स्तृहू से अस्तृक्षत् आदि । २. दुह्, दिह्, लिह, गुह् धातु - लुग्वा दुहदिहलिहगुहामात्मनेपदे दन्त्ये - दुह, दिह, लिह, गुह् धातुओं के बाद आने वाले ‘क्स’ प्रत्यय के अन्तिम ‘अ’ का लोप विकल्प से होता है। अतः क्स से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्ययों में से उन प्रत्ययों को देखिये, जिन प्रत्ययों में ‘स’ के बाद दन्त्य वर्ण है, जैसे - सत / सथा: / सध्वम् / सावहि । ये प्रत्यय यदि दुह, दिह, लिह, गुह् धातुओं के बाद आते हैं, तो इन प्रत्ययों के ‘स’ के बाद आने वाले ‘अ’ का लोप विकल्प से होता है। उसके बाद इनके स् का भी लोप होकर ये प्रत्यय विकल्प से, त / था: / ध्वम्, वहि, भी बन जाते हैं। अब ये प्रत्यय सकारादि, तकारादि, थकारादि, धकारादि, वकारादि हैं। इन्हें धातुओं में जोड़ने की विधि सन्धिप्रकरण में देखिये। दुह् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अधुक्षत् अधुक्षताम् अधुक्षन् अधुक्षत अधुक्षाताम् अधुक्षन्त अदुग्ध - अधुक्षः अधुक्षतम् अधुक्षत अधुक्षथा: अधुक्षाथाम् अधुक्षध्वम् अदुग्धाः - अधुग्ध्वम् अधुक्षम् अधुक्षाव अधुक्षाम अधुक्षि अधुक्षावहि अधुक्षामहि __ - अदुहहि - . इसी प्रकार दिह के रूप बनाइये। लिह् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अलिक्षत् अलिक्षताम् अलिक्षन् अलिक्षत अलिक्षाताम् अलिक्षन्त अलीढ अलिक्ष: अलिक्षतम् अलिक्षत अलिक्षथा: अलिक्षाथाम् अलिक्षध्वम् अलीढाः - अलीब्ध्वम् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २०९ अलिक्षम् अलिक्षाव अलिक्षाम अलिक्षि अलिक्षावहि अलिक्षामहि __ - अलिहहि गुह् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अघुक्षत् अघुक्षताम् अघुक्षन् अघुक्षत अघुक्षाताम् अघुक्षन्त अगूढ अघुक्ष: अघुक्षतम् अघुक्षत अघुक्षथा: अघुक्षाथाम् अघुक्षध्वम् अगूढाः - अघूढ्वम् अघुक्षम् अघुक्षाव अघुक्षाम अघुक्षि अघुक्षावहि अघुलामहि

  • अगुह्यहि बृह् (परस्मैपदी) धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अभृक्षत् अभृक्षताम् अभृक्षन् अभृक्षः अभृक्षतम् अभृक्षत अभृक्षम् अभृक्षाव . अभृक्षाम __ यह लुङ् लकार के क्स से बने हुए प्रत्यय लगाने की विधि पूर्ण हुई।

लुङ् लकार के नवम, दशम प्रकार के अनिट् सिच् से बने हुए प्रत्यय

परस्मैपद आत्मनेपद सीत् स्ताम् सुः स्त साताम् सत सी: स्तम् स्त स्था: साथाम् ध्वम् सम् स्व स्म सि स्वहि स्महि

लुङ् लकार के एकादश, द्वादश प्रकार के सेट सिच् से बने हुए प्रत्यय

ईत् इष्टाम् इषुः इष्ट इषाताम् इषत ई: इष्टम् इष्ट इष्ठा: इषाथाम् इढ्वम् इषम् इष्व इष्म इषि इष्वहि इष्महि इन प्रत्ययों को किन धातुओं से लगायें - अभी तक लुङ् लकार के जो भी प्रत्यय कहे गये हैं, वे सभी अपवाद प्रत्यय हैं, सिच् प्रत्यय उत्सर्ग है। _ अतः अभी तक जिन जिन धातुओं से लुङ् लकार के जो जो प्रत्यय कहे गये हैं, उन धातुओं अलावा अब जो भी धातु बच गये हैं, उन धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये सिच् प्रत्यय से बने हुए ये प्रत्यय लगाना [[२१०]] चाहिये। किन्तु ध्यान रहे कि अनिट् धातुओं से अनिट् सिच् वाले प्रत्यय लगाना चाहिये और सेट् धातुओं से सेट सिच् वाले प्रत्यय लगाना चाहिये। इसके लिये आवश्यक है कि हम सेट् अनिट् धातुओं को अलग अलग पहिचानें -

इडागम विधि

किसी भी धातु में किसी भी प्रत्यय को जोड़कर धातुरूप बनाने पहिले कुछ विचार करना अत्यावश्यक होता है - पहिला विचार यह करना चाहिये कि प्रत्यय सार्वधातुक है या आर्धधातुक। आर्धधातुकं शेष: - तिङ् शित् प्रत्ययों से भिन्न होने के कारण यह सिच्’ प्रत्यय आर्धधातुक प्रत्यय है, यह जानिये। आर्धधातुकस्येड् वलादे: - वलादि आर्धधातुक प्रत्यय को इट् = इ का आगम होता है। ‘सिच्’ प्रत्यय वलादि होने के कारण सेट आर्धधातुक प्रत्यय है, अतः इसे इडागम होना चाहिये। किन्तु केवल प्रत्यय के सेट होने से ही प्रत्यय को इडागम नहीं हो जाता। यदि प्रत्यय सेट है तो फिर यहाँ हमें यह विचार करना चाहिये कि क्या वह धातु भी सेट है जिससे यह सेट् प्रत्यय लगाया गया है ? यदि धातु भी सेट हो, तभी उस धातु से लगे हुए सेट् प्रत्यय को इडागम कीजिये। यदि धातु अनिट् हो तब उस धातु से लगे हुए सेट् प्रत्यय को भी इडागम मत कीजिये। इसी का नाम इडागम विचार है।

  • इसका अर्थ यह हुआ कि जब धातु सेट् हो, तब उसमें ऊपर कहे गये इडागम करके बने हुए सेट् प्रत्यय लगाना है। जब धातु अनिट् हो तब उसमें ऊपर कहे गये इडागम से रहित अनिट् प्रत्यय लगाना है। अतः अब सेट् अनिट् धातु पहिचानने की विधि बतला रहे हैं। जिन धातओं में एक से अधिक अच होते हैं, ऐसे अनेकाच धातु सेट ही होते हैं, जैसे - जागृ, चकास्, दरिद्रा, दीधी, वेवी, आदि। जब किसी एकाच् धातु में, णिच् आदि कोई भी प्रत्यय लगाकर उसे अनेकाच् बना दिया जाता है, तब वह एकाच धातु भी अनेकाच् हो जाने से सेट हो जाता है, जैसे - कृ धातु अनिट् है, किन्तु जब णिच् प्रत्यय लगकर, यह कृ + णिच् - कारि बन जाता है, तब यह अनेकाच् हो जाने से सेट हो जाता है। इस प्रकार सारे प्रत्ययान्त धातु अनेकाच् हो जाने से सेट ही होते हैं। उपदेशावस्था में एकाच अर्थात् एक स्वर वाले जो धातु हैं, वे ही अनिट् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २११ हो सकते हैं, किन्तु सब के सब एकाच धातु नहीं। इनमें भी, जो एकाच् धातु अनुदात्त हों, वे ही अनिट् हो सकते हैं। 3 एकाच तो हम देखकर पहिचान लेंगे, किन्तु अनुदात्त कैसे पहिचानेंगे, इसके लिये इन अनिट् धातुओं को पहिचानने की विधि बतला रहे हैं। इन अनिट धातुओं से ही आप अनिट् प्रत्यय लगाइये। अब हम एकाच धातुओं के अन्तिम वर्ण को कम से रखकर, धातुओं का सेट, अनिट् विभाजन दे रहे हैं, इन्हें याद करके जानिये कि कौन से ४ पातु सेट हैं और कौन से अनिट् । हाल सेट तथा अनिट् अजन्त धातुओं को पहिचानने की विधि १. एकाच आकारान्त धातु - सारे एकाच आकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं। अनेकाच् होने से दरिद्रा धातु सेट है। २. एकाच ह्रस्व इकारान्त धातु - इनमें श्वि, श्रि धातु सेट होते हैं। इन दो के अलावा, शेष सारे एकाच हस्व इकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं। ३. एकाच दीर्घ ईकारान्त धातु - इनमें डीङ्, शीङ् धातु सेट होते हैं। शेष सारे एकाच दीर्घ ईकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं। ४. एकाच ह्रस्व उकारान्त धातु - इनमें स्नु, नु, क्षु, यु (अदादिगण), रु, क्ष्णु ये ६ धातु सेट होते हैं तथा इन ६ को छोड़कर, शेष सारे एकाच् उकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं। ५. एकाच दीर्घ ऊकारान्त धातु - ये सब के सब सेट होते हैं। ६. एकाच् ह्रस्व ऋकारान्त धातु - वृङ्, वृञ् को छोड़कर, शेष सारे । एकाच ह्रस्व ऋकारान्त धातु अनिट् होते हैं। अनेकाच् होने से ‘जागृ’ सेट है। ७. एकाच दीर्घ ऋकारान्त धातु - ये सभी सेट होते हैं। ८. एजन्त धातु - अर्थात् ए, ओ, ऐ, औ, से अन्त होने वाले सारे धातु । ये सभी अनिट् ही होते हैं तथा ये धातु आर्धधातुक प्रत्यय परे रहने पर आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से आकारान्त बन जाते हैं। जैसे - गै = गा, धे = धा, ग्लै = ग्ला, ध्यै = ध्या आदि। __यह एकाच अजन्त धातुओं में से सेट तथा अनिट् धातुओं को अलग अलग पहिचानने की विधि पूर्ण हुई। अब एकाच हलन्त धातुओं में से, सेट तथा अनिट् धातुओं को कैसे अलग अलग पहिचाना जाये, यह विधि बतला रहे हैं। सेट तथा अनिट् हलन्त धातुओं को पहिचानने की विधि नीचे १०२ हलन्त एकाच धातु दिये जा रहे हैं। ये सब उपदेशावस्था [[२१२]] में एकाच् तथा अनुदात्त होने के कारण अनिट् हैं। इनके अतिरिक्त जो भी एकाच् हलन्त धातु आप पाएँगे, वे सब सेट ही होंगे, यह जानना चाहिए। १. एकाच ककारान्त धातुओं में - शक्ल, यह १ धातु ही अनिट् होता है। शेष सारे ककारान्त धातु सेट होते हैं। २. एकाच चकारान्त धातुओं में - पच्, मुच्, रिच, वच्, विच्, सिच्, ये ६ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे चकारान्त धातु सेट होते हैं। ३. एकाच छकारान्त धातुओं में - प्रच्छ्, यह १ धातु अनिट् होता है। शेष सारे छकारान्त धातु सेट होते हैं। ४. एकाच जकारान्त धातुओं में - त्यज, निजिर, भज, भञ्ज, भुज, भ्रस्ज्, मस्ज्, यज्, युज्, रुज्, रज्, विजिर् (रुधादि), स्वफ़, सङ्ग्, सृज् - ये १५ धातु अनिट् होते हैं। शेष सभी जकारान्त धातु सेट होते हैं। ५. एकाच दकारान्त धातुओं में - अद्, क्षुद्, खिद्, छिद्, तुद्, नुद्, पद् (दिवादिगण), भिद्, विद् (दिवादिगण), विद् (रुधादिगण), शद्, सद्, स्विद्, स्कन्द, और हद् ये १५ धातु अनिट् होते हैं। शेष सभी दकारान्त धातु सेट विशेष - दिवादिगण तथा रुधादिगण के विद् धातु अनिट् होते हैं और अदादिगण तथा तुदादिगण के विद् धातु सेट होते हैं। ६. एकाच धकारान्त धातुओं में - क्रुध्, क्षुध्, बुध् (दिवादिगण), बन्ध्, युध्, रुध्, राध्, व्यध्, साध्, शुध्, सिध् ( दिवादिगण) ये ११ धातु अनिट् होते हैं। शेष सभी धकारान्त धात सेट होते हैं। विशेष - ध्यान दीजिये कि बुध् धातु दो हैं। इनमें से भ्वादिगण का बुध् धातु सेट होता है। दिवादिगण का बुध् धातु अनिट् होता है। ७. एकाच नकारान्त धातुओं में - मन् ( दिवादिगण) तथा हन्, ये २ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे नकारान्त धातु सेट होते हैं। ८. एकाच पकारान्त धातुओं में - आप्, छुप्, क्षिप्, तप्, तिप्, तृप् (दिवादिगण), दृप् (दिवादिगण), लिप्, लुप्, वप्, शप, स्वप्, सृप, ये १३ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे पकारान्त धातु सेट होते हैं। _ विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि तृप् धातु तीन हैं। इनमें से स्वादिगण तथा तुदादिगण के तृप् धातु सेट होते हैं। दिवादिगण का तृप् धातु वेट होता है। ९. एकाच भकारान्त धातुओं में - यभ्, रभ, लभ्, ये ३ धातु अनिट् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २१३ होते हैं। शेष सारे भकारान्त धातु सेट होते हैं। १०. एकाच मकारान्त धातुओं में - गम्, नम्, यम्, रम्, ये ४ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे मकारान्त धातु सेट होते हैं। ११. एकाच शकारान्त धातुओं में - क्रुश्, दंश्, दिश्, दृश्, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, ये १० धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे शकारान्त धातु सेट होते हैं। १२. एकाच षकारान्त धातुओं में - कृष्, त्विष्, तुष्, द्विष्, दुष्, पुष् (दिवादि गण), पिष्, विष्, शिष्, शुष्, श्लिष् (दिवादिगण), ये ११ धातु अनिट् होते हैं। शेष सभी षकारान्त धातु सेट होते हैं। १३. एकाच सकारान्त धातुओं में - वस्, घस्, ये २ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे सकारान्त धातु सेट होते हैं। १४. एकाच हकारान्त धातुओं में - दह्, दिह, दुह, नह, मिह्, रुह्, लिह, वह, ये ८ धातु अनिट् होते हैं। शेष सारे हकारान्त धातु सेट होते हैं। अब वेट धातु बतला रहे हैं, जिनसे परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को भी विकल्प से इट् का आगम होता है - वेट धातु इस प्रकार हैं - वेट् धातु स्वरतिसूतिसूयतिधूदितो वा - स्वृ धातु, अदादिगण का सू धातु, दिवादिगण का सू धातु, स्वादि तथा क्र्यादिगण का धूञ् धातु तथा सारे ऊदित् धातुओं से आने वाले सेट आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। __ ऊदित् धातु - ‘ऊदित्’ का अर्थ होता है, ऐसे धातु जिनमें ‘ऊ’ की इत् संज्ञा हुई हो। धातुपाठ में पढ़े गये सारे ‘ऊदित् धातु’ इस प्रकार हैं - असू तर् त्वक्षू तञ्चू ओव्रश्चू अञ्जू मृजू क्लिदू स्यन्दू षिधू गुपू पूष् कृपू क्षमू क्षमूष् अशू क्लिशू गाहू गुहू गृहू तृहू तृन्हू स्तृहू वृहू । विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि स्वादि, क्यादि तथा चुरादिगण में धूञ् कम्पने धातु हैं। तुदादिगण में धू विधूनने धातु है। इनमें से स्वादिगण तथा क्र्यादिगण के धूञ् कम्पने धातु ही वेट होते हैं। इनसे परे आने वाले सैट आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। तुदादिगण का धू विधूनने धातु तथा चुरादिगण का धूञ् कम्पने धातु सेट होता है। इनसे परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को नित्य इडागम होता है। रधादिभ्यश्च - रध्, नश्, तृप्, दृप्, द्रुह्, मुह्, स्निह्, स्नु, ये ८ धातु [[२१४]] वेट होते हैं। इन आठ धातुओं से परे आने वाले सेट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। __ निर: कुष: - निर् उपसर्गपूर्वक कुष् धातु से परे आने वाले सेट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम हाता है। . __इस प्रकार ३६ धातु वेट हैं। इन ३६ वेट धातुओं से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि जहाँ एक आकृति के अनेक धातु हैं, वहाँ हमने स्पष्ट निर्देश करके कोष्ठक में उस गण का नाम लिख दिया है जिस गण का धातु अनिट् होता है। इससे यह जानना चाहिये कि जिसका नाम नहीं लिखा है वह सेट ही है। इन अनिट् और वेट् धातुओं के अलावा जितने भी हलन्त धातु हैं वे सब के सब सेट ही हैं, यह जानना चाहिये। यह सेट, अनिट् तथा वेट धातुओं को पहिचानने की तथा सेट् अनिट् प्रत्ययों को पहिचानने की औत्सर्गिक अर्थात् सामान्य व्यवस्था है। इसे कण्ठस्थ कर लीजिये। इसके अलावा ‘सिच’ प्रत्यय के इडागम के लिये ये विशेष विधियाँ बतलाई जा रही हैं। इन्हें भी ध्यान रखें - सिच् प्रत्यय के लिये विशेष इडागम व्यवस्था लिसिचोरात्मनेपदेषु - वृङ्, वृञ् धातु तथा दीर्घ ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाले आत्मनेपद संज्ञक सीयुट तथा सिच् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। आत्मनेपद - वृङ् - अवृत / अवरिष्ट अवृत / अवरिष्ट स्तु - आस्तीट / आस्तरिष्ट । परस्मैपद में नित्य इडागम होकर अस्तारीत् आदि प्रयोग बनेंगे। . ऋतश्च संयोगादे: - संयोगादि ऋदन्त धातुओं से परे आने वाले आत्मनेपद संज्ञक सीयुट और सिच् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। आत्मनेपद , - वृ - अध्वृषाताम् / अध्वरिषाताम् स्मृ - अस्मृषाताम् / अस्मरिषाताम् स्नुक्रमोरनात्मनेपदनिमित्ते - स्नु और क्रम् ये दोनों धातु यद्यपि सेट हैं किन्तु इनके लिये ऐसी व्यवस्था है कि इनसे परे परस्मैपदी सेट् प्रत्यय आने पर ही इन्हें इडागम होता है और आत्मनेपदी सेट् प्रत्यय आने पर इन्हें इडागम वृञ्

समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २१५ स्नु

नहीं होता। (ध्यान रहे कि भावकर्म, कर्मकर्तृ और कर्मव्यतिहार, ये आत्मनेपद के निमित्त हैं, इनमें इडागम नही होता है।) परस्मैपद आत्मनेपद प्रस्नावीत् / प्रस्नोष्ट क्रम् - प्रक्रमीत् । प्रक्रस्त अजे: सिचि - अजू धातु यद्यपि ऊदित् होने से वेट है तथापि इससे परे आने वाले सिच् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। अञ्जू - आजीत् स्तुसुधूभ्य: परस्मैपदेषु - स्तु, सु, धूञ् धातुओं से परे आने वाले परस्मैपदसंज्ञक सिच् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है । यद्यपि स्तु, सु, धातु अनिट हैं तथा घूञ् धातु वेट है, किन्तु यहाँ सिच् प्रत्यय परे होने पर ये तीनों सेट हो जाते हैं - स्तु - अस्तावीत् / सु - असावीत् / धूञ् - अधावीत् । आत्मनेपद में यथाविहित व्यवस्था होगी - अर्थात् स्तु, सु अनिट् ही रहेंगे - अस्तोष्ट / असोष्ट। धूञ् वेट ही रहेगा - अधोष्ट / अधविष्ट । जब भी सिच् प्रत्यय लगाकर कोई भी धातुरूप आप बनायें, तब औत्सर्गिक इडागम व्यवस्था के साथ इन अपवादों को देखकर ही कार्य शुरू करें। इसी से आप निर्णय कर पायेंगे, कि किन धातुओं से आपको सेट् प्रत्यय लगाना है तथा किन धातुओं से अनिट् । __ अब हम यह विचार करें कि सिच् से बने हुए ये प्रत्यय किन किन धातुओं से लगाये जायें ?

वे अजन्त धातु जिनसे सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाना है

१. आकारान्त तथा एजन्त धातु - जो एजन्त अर्थात् ए, ऐ, ओ, औ से अन्त होने वाले धातु हैं, उनके अन्तिम एच् को आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से आ बना दीजिये और उन्हें भी आकारान्त मान लीजिये। अब आकारान्त तथा एजन्त धातओं का एक साथ विचार कीजिये - आकारान्त धातु जब परस्मैपदी होते हैं, तब उनसे, सिज्लुक / सक् + सिच् अथवा अङ् से बने हुए प्रत्यय ही लगते हैं, जिनका विचार उनके प्रसङ्ग में किया जा चुका है। अतः जानिये कि जब आकारान्त तथा एजन्त धातु आत्मनेपदी होते हैं, तब उनसे सिच् से बने हुए अनिट् प्रत्यय लगाये जाते हैं - दा - अदित / धा - अधित / [[२१६]] _ आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् - केवल एक आकारान्त धातु हे (हा) धातु ऐसा है, जिससे आत्मनेपद में सिच् से बने हुए प्रत्यय तथा अङ् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लगते हैं। अहृत / अहास्त।। २. इकारान्त, ईकारान्त धातु इनमें शिव धातु से अङ्, चङ् और सिच् ये तीन प्रत्यय लग सकते हैं - अश्वत्, अशिश्वियत् तथा अश्वयीत् । श्रि धातु से केवल चङ् लगता है - अशिश्रियत्। शेष इकारान्त धातुओं से सिच् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। ३. उकारान्त, ऊकारान्त धातु - इनमें भू धातु से सिज्लुक कहा गया है। द्रु, स्रु से चङ् कहा गया है। इन तीन को छोड़कर सारे उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं से सिच् प्रत्यय ही लगेगा। ४. ऋकारान्त, ऋकारान्त धातु - सृ धातु से तथा ऋ धातु से अङ् प्रत्यय कहा गया है। जृ से विकल्प से अङ् और सिच् कहे गये हैं। कृ, मृ, दृ से केवल वेद में अङ् कहा है, अतः सृ, ऋ के अलावा सारे ऋकारान्त, ऋकारान्त धातुओं से लोक में, ये सिच् से बने हुए प्रत्यय ही लगेंगे। . अब हम यह विचार करें कि सिच् से बने हुए ये प्रत्यय किन किन हलन्त धातुओं से लगाये जायें ?

वे हलन्त धातु जिनसे सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाना है

इसके लिये पहिले उन धातुओं का विचार कर लें, जिनसे दूसरे प्रत्यय कहे जा चुके हैं - १. क्रुश्, दिश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, त्विष्, द्विष्, श्लिष्, दिह्, दुह्, मिह रुह, लिह, इन चौदह शलन्त इगुपध धातओं से क्स से बने हुए प्रत्यय ही लगते हैं। २. लिप्, सिच्, इन दो हलन्त धातुओं से परस्मैपद में अङ् से बने हुए प्रत्यय कहे गये हैं। अतः आत्मनेपद में सिच् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। ३. यम्, रम्, नम्, इन तीन हलन्त धातुओं से परस्मैपद में सक् + सिच् से बने हुए प्रत्यय कहे गये हैं। अतः आत्मनेपद में सिच् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। ४. स्पृश्, मृश्, कृष् इन शलन्त इगुपध धातुओं से क्स और सिच् दोनों ही प्रत्यय विकल्प से लग सकते हैं। ५. दिवादिगण के अन्तर्गत पुष् से गृध् तक, जो ६५ धातुओं का पुषादि अन्तर्गण है, उन पुषादि धातुओं से अङ् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २१७ तृप्, दृप् ये दोनों धातु भी पुषादि अन्तर्गण में आते हैं, तथापि इनसे अङ् और सिच् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लग सकते हैं। . अतः यह जानिये कि ६३ पुषादि धातुओं से अङ्, तथा २ पुषादि धातुओं से अङ् और सिच् दोनों ही प्रत्यय लग सकते हैं। ६. भ्वादि गण के भीतर द्युत दीप्तौ से कृपू सामर्थ्य तक जो २२ ६ गातुओं का द्युतादि अन्तर्गण है, उनसे परस्मैपद में केवल अङ् प्रत्यय लगता है। आत्मनेपद में सिच् प्रत्यय लगता है। ७. अस्, वच्, शास् इन तीन धातुओं से केवल अङ् प्रत्यय लगता है। ८. १४ लृदित् धातु हैं, उन लृदित् धातुओं से भी केवल अङ् प्रत्यय लगता है। ९. २३ इरित धातु हैं। इनसे भी केवल अङ् प्रत्यय लगता है। १०. मुचु, म्युचु गत्यर्थो, ग्रुचु, ग्लुचु स्तेयकरणे, ग्लञ्चु गतौ, तथा स्तन्भु धातु से, लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये अङ् से बने हुए प्रत्यय विकल्प से लगाये जाते हैं। अतः इनसे एक पक्ष में अङ् से बने हुए प्रत्यय तथा द्वितीय पक्ष में सिच् से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। ११. रुह् धातु से वेद में लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये अङ् प्रत्यय का प्रयोग होता है तथा लोक में रुह धातु के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये सिच् प्रत्यय का प्रयोग होता है। ये कुल १५१ धातु हैं। इन १५१ हलन्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये ऊपर कहा हुआ विचार कीजिये। शेष हलन्त धातुओं से लुङ् लकार में सिच् से बने हुए प्रत्यय ही लगाइये। हमने यह निर्धारण किया कि सिच् से बने हुए लुङ् लकार के प्रत्यय किन किन धातुओं से लगाये जायें। तथापि हमें यह ध्यान रखना पड़ेगा कि यहाँ जो दो प्रकार के प्रत्यय दिये गये हैं, उनमें से जो सेट् प्रत्यय हैं वे सेट् धातुओं से ही लगाये जायें तथा जो अनिट् प्रत्यय हैं, वे अनिट् धातुओं से ही लगाये जायें। परस्मैपदी प्रत्यय, परस्मैपदी धातुओं से लगाये जायें तथा आत्मनेपदी प्रत्यय आत्मनेपदी धातुओं से लगाये जायें। अतः सिच् प्रत्यय लगाते समय इडागम व्यवस्था को खोलकर सामने अवश्य रख लें। अब हमारे सामने स्पष्ट चित्र है कि हमें किस धातु से, इनमें से कौन [[२१८]] सा प्रत्यय लगाना है। यह निर्णय हो जाने के बाद हम निर्णय करेंगे कि धातुओं से ये सिच् से बने हुए प्रत्यय कैसे लगाये जायें ?

अतिदेश

धातु में प्रत्यय को जोड़ने पर, धातु पर प्रत्यय का जो प्रभाव पड़ता है, उसे हम अङ्गकार्य कहते हैं। कोई भी अङ्गकार्य करने के पहिले हमें अतिदेश को जान लेना जरूरी हैं। लोक में भी ऐसा होता है कि जब गुरुजी न हों, तब उनके स्थान में गुरुपुत्र को गुरु जैसा मान लिया जाता है। इसी प्रकार शास्त्र में भी अनेक जगह ऐसा करना पड़ता है, कि जो जैसा नहीं होता, उसे वैसा मान लेना पड़ता है। जो जैसा नहीं है, उसे वैसा मान लेने को ही अतिदेश कहते हैं। हम देख रहे हैं कि सिच् प्रत्यय न तो कित् है, न ही ङित् है, तथापि इसे कभी कित् जैसा और कभी डित् जैसा मान लिया जाता है, और उनके परे होने पर वे ही अङ्गकार्य किये जाते हैं, जो अङ्गकार्य कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर किये जाते हैं। __ जो प्रत्यय कित्, ङित् नहीं हैं, उन्हें कित्, डित् मानने का कार्य जिन सूत्रों के कारण होता है, उन सूत्रों को हम अतिदेश सूत्र कहते हैं। कोई भी अङ्गकार्य सीखने के पहिले, इन अतिदेश सूत्रों को जानना अत्यावश्यक है। ये इस प्रकार हैं - गाङ्कुटादिम्योऽञ्णिन्डित् - गाङ् धातु से तथा तुदादिगण के अन्तर्गत जो कुट से लेकर कुङ् तक ३५ धातुओं का कुटादिगण है, उस कुटादिगण में आने वाले धातुओं से, परे आने वाले जित् णित् से भिन्न प्रत्यय ङित्वत् मान लिये जाते हैं। सिच् प्रत्यय भी जित् णित् से भिन्न प्रत्यय है, अतः यह जब गाङ् या कुटादि धातुओं के बाद आता है, तब इसे डित् प्रत्यय जैसा मान लिया जाता है। तब इसके लगने पर वे ही अङ्ग कार्य होते हैं, जो अङ्ग कार्य डित् प्रत्यय लगने पर किये जाते हैं। अध्यगीष्ट, अकुटीत्।। ( गाङ् धातु का अर्थ है, विभाषा लुङ्लुङो: सूत्र से लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर इङ्’ धातु के स्थान पर होने वाला गाङ् आदेश।) विज इट् - तुदादि गण के विज् धातु से परे आने वाले सारे सेट् प्रत्यय डित्वत् माने जाते हैं - उद्विजिष्ट । समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २१९ __ विभाषोर्णो: - ऊर्गु धातु से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्यय विकल्प से डित्वत् माने जाते हैं - और्णवीत् / औMवीत् _ लिड्सिचावात्मनेपदेषु - ऐसे अनिट् हलन्त धातु, जिनमें इक् के बाद हल् हो, उनसे परे आने वाले अनिट् सिच् प्रत्यय और अनिट् सीयुट प्रत्यय कित्वत् माने जाते है। __ जो १०२ अनिट् हलन्त धातु हैं, उन्हें देखिये। साथ ही जो वेट हलन्त धातु हैं, उन्हें भी देखिये। उनमें से ऐसे आत्मनेपदी या उभयपदी धातुओं को निकालिये, जिनकी उपधा में इक् हो। ऐसे धातु हम नीचे दे रहे हैं। बुध् - आत्मनेपदी छिद् - उभयपदी रुध् - उभयपदी तिप् - आत्मनेपदी तुद् - उभयपदी सिच् - उभयपदी युध् - आत्मनेपदी भिद् - उभयपदी युज् - उभयपदी खिद - आत्मनेपदी विद - उभयपदी क्षुद - उभयपदी विज् - आत्मनेपदी. लिप - उभयपदी भुज् - उभयपदी रिच - उभयपदी विच - उभयपदी निज् - उभयपदी भुज् - उभयपदी = १८ । व इन १८ धातुओं से परे जब अनिट् सिच् प्रत्यय आता है तब उसे कित्वत् मान लिया जाता है। ध्यान रहे कि जो धातु इनमें उभयपदी हैं, वे जब आत्मनेपद में प्रयुक्त होंगे. तभी उनसे परे आने वाले सिच प्रत्यय को कितवत माना जायेगा। जब वे परस्मैपद में प्रयुक्त होंगे तब सिच् प्रत्यय कित्वत् नहीं माना जायेगा। सारे ह्रस्व ऋकारान्त धातु अनिट् होते हैं। वृङ् वृञ् यहाँ वेट होते हैं। उश्च - ह्रस्व ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाला आत्मनेपदी अनिट सिच् प्रत्यय कित्वत् माना जाता है। कृ - अकृत / हृ - अहृत। ऋकारान्त आत्मनेपदी या उभयपदी धातुओं की संख्या १२ है। ये धातु इस प्रकार है - कृञ् डुकृञ् धृङ् धृञ् पृङ् भृञ् डुभृञ् मृङ् वृङ् वृञ् स्तृ हृञ् = १२ __ ध्यान रहे कि परस्मैपद में प्रयुक्त होने वाले ऋकारान्त धातु से परे आने वाला अनिट् सिच, कभी भी कित्वत् नहीं होगा। वा गमः - गम् धातु जब संम् उपसर्ग के साथ प्रयुक्त होता है तब वह ‘समो गम्यूच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः’ सूत्र से आत्मनेपदी होता है । जब वह [[२२०]] आत्मनेपदी होता है तब उससे परे आने वाला अनिट् सिच् प्रत्यय विकल्प से कित्वत् मान लिया जाता है। समगत, समगंस्त। हन: सिच् - हन् धातु से परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय कित्वत् माना जाता है। आहन् + स्त = आहत। यमो गन्धने - यम् धातु का अर्थ जब सूचित करना हो, तब उससे परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय, कितवत् माना जाता है। उदायत, उदायसाताम् आदि। सूचन अर्थ न होने पर यह कितवत् नहीं होता। उदायस्त कूपाद् उदकम् । विभाषोपयमने - जब यम् धातु का अर्थ विवाह करना हो, तब उससे परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय विकल्प से कित् होता है। स्थाघ्वोरिच्च - स्था धातु तथा घुसंज्ञक धातुओं से परे आने वाला अनिट आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय कित्वत् होता है तथा सिच् परे होने पर इन धातुओं के आ के स्थान पर ‘इ’ ऐसा आदेश भी होता है। यथा उपास्थित, अदित, अधित। विशेष - स्था धातु यद्यपि परस्मैपदी है, किन्तु स्थाघ्वोरिच्च, समवप्रविभ्यः स्थः, प्रकाशनस्थेयाख्ययोश्च, उदोऽनूर्ध्वकर्मणि, उपान्मन्त्रकरणे, अकर्मकाच्च, इन सूत्रों से वह कुछ उपसर्गों के साथ, अथवा कुछ विशिष्ट अर्थों में आत्मनेपदी हो जाता है। जब यह आत्मनेपदी हो जाता है, तभी इससे परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच प्रत्यय कितवत माना जाता है __इसके अलावा घुसंज्ञक जो छह दा धा धातु हैं अर्थात् दे, दो, दाण, डुदाञ्, धेट, डुधाञ्, इन धातुओं से परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय भी कित्वत् मान लिया जाता है। साथ ही जब यह सिच् प्रत्यय कितवत् होता है, तब इन सात धातुओं के आ को ‘इ’ ऐसा आदेश भी हो जाता है। __इतने अतिदेशों को याद करके ही हमें सिच् प्रत्यय के रूप बनाने में प्रवृत्त होना चाहिये। अब कुल मिलाकर देखिये कि ३६ कुटादिगण के धातु, १९ ऐसे अनिट आत्मनेपदी धातु जिनमें इक् के बाद हल् आया है, इङादेश गाङ् धातु, विज् धातु, ऊर्गु धातु, १२ ऋकारान्त आत्मनेपदी तथा उभयपदी धातु, आत्मनेपदी गम्, हन् यम्, धातु तथा आत्मनेपदी स्था और घुसंज्ञक धातु, इस प्रकार कुल ७९ धातुओं से परे आने वाले सिच् प्रत्यय को इन सूत्रों ने कित्वत् या ङित्वत् बनाया इनके लुङ् लकार बनाने के लिये, ये जो सिच् से बने हुए प्रत्यय इनके समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २२१ सामने आयेंगे वे कित्वत् या ङित्वत् होंगे। अतः इनके लगने पर हमें बहुत अधिक सावधानी रखकर वे ही अङ्गकार्य करना चाहिये जो कार्य कित् ङित् प्रत्यय परे होने पर किये जाते हैं। लुङ् लकार के रूप बनाते समय इन अतिदेशों की लगातार आवश्यकता पड़ती रहेगी। अतः इन्हें यहीं बुद्धिस्थ कर लें। आगे हम स्थान स्थान पर आपको इनका स्मरण दिलाते चलेंगे। अब हम धातुओं के अलग अलग खण्ड बनाकर सिच् प्रत्यय लगाने का विचार करें। इससे सरलता होगी। पहिले आत्मनेपदी धातुओं के रूप इस क्रम से बनायें। आत्मनेपदी धातुओं के चार वर्ग - १. अजन्त सेट् आत्मनेपदी धातु २. हलन्त सेट् आत्मनेपदी धातु ३. अजन्त अनिट् आत्मनेपदी धातु ४. हलन्त अनिट् आत्मनेपदी धातु

१. अजन्त सेट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

अजन्त धातुओं का पाँच हिस्सों में विभाजन कर लीजिये - आकारान्त तथा एजन्त धातु / इकारान्त, ईकारान्त धातु / उकारान्त, ऊकारान्त धातु / ऋकारान्त, ऋकारान्त धातु। लुङ् लकार के सिच् से बने हुए सेट् आत्मनेपदी प्रत्यय इष्ट इषाताम् इषत इष्ठा : इषाथाम् इढ्वम् इषि इष्वहि इष्महि अब हम इन प्रत्ययों से सेट् आत्मनेपदी धातुओं के धातुरूप बनायें। दीधी, वेवी धातु - अ + दीधी + इष्ट / ‘यीवर्णयोर्दीधीवेव्योः’ सूत्र से इसके अन्तिम ई का लोप करके अदीध् + इष्ट = अदीधिष्ट । इसी प्रकार अ + वेवी + इष्ट = अवेविष्ट । शेष इकारान्त ईकारान्त सेट् धातु - इनके अन्तिम इ, ई को ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से गुण करके ‘ए’ बनाइये और चूँकि उस ए के बाद अच् है, अतः ‘एचोऽयावायावः’ सूत्र से उस ‘ए’ को ‘अय्’ बनाइये - अ + शी + इष्ट = अ शे + इष्ट - अशय् + इष्ट = अशयिष्ट [[२२२]] अ + डी + इष्ट = अ डे + इष्ट = अडय् + इष्ट = अडयिष्ट । ‘इङ् अध्ययने’ - अधि + आ + इ + इष्ट / ‘आटश्च’ सूत्र से वृद्धि करके अधि + ऐष्ट = अध्यैष्ट । इस धातु को विभाषा लुङ्लुङो:’ सूत्र से विकल्प से गाङ् आदेश होता है। गाङ् के रूप आकारान्त वर्ग में देखें। सूत्रों के अर्थ इस प्रकार हैं - सार्वधातुकार्धधातुकयो: - कित्, डित्, जित्, णित् से भिन्न सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर, इगन्त अङ्ग को गुण होता है, अर्थात् अङ्ग के अन्त में आने वाले - इ - ई को ए / उ - ऊ को ओ / ऋ - ऋ को अर् / ऐसे गुण आदेश होते हैं। एचोऽयवायावः -एच् के स्थान पर क्रमशः अय्, अव्, आय, आव आदेश होते हैं, अच् परे होने पर। शी धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अशयिष्ट अशयिषाताम् अशयिषत अशयिष्ठाः अशयिषाथाम् अशयिढ्वम् अशयिषि अशयिष्वहि अशयिष्महि इसी प्रकार डी धातु के रूप बनाइये । उकारान्त, ऊकारान्त धातु - ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से, इनके अन्तिम उ, ऊ को गुण करके ‘ओ’ बनाइये और चूँकि उस ओ के बाद अच् है, अतः ‘एचोऽयावायावः’ सूत्र से उस ‘ओ’ को ‘अव्’ बना दीजिये - अ पू + इष्ट - अ पो + इष्ट - अपव् + इष्ट = अपविष्ट । पू धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अपविष्ट अपविषाताम् अपविषत अपविष्ठा: अपविषाथाम् अपविढ्वम् अपविषि अपविष्वहि अपविष्महि ऋकारान्त ऋकारान्त धातु - ‘सार्वधातुकार्धधातुकयो:’ सूत्र से, इनके अन्तिम ऋ, ऋ को गुण करके अर् बना दीजिये - अ वृ + इष्ट - अवर् + इष्ट = अवरिष्ट अ स्तृ + इष्ट - अस्तर् + इष्ट = अस्तरिष्ट पूरे रूप इस प्रकार बने - अस्तरिष्ट _अस्तरिषाताम् अस्तरिषत अस्तरिष्ठाः अस्तरिषाथाम् अस्तरिढ्वम् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २२३ अस्तरिषि अस्तरिष्वहि अस्तरिष्महि यह अजन्त सेट् आत्मनेपदी धातुओं का विचार पूर्ण हुआ।

२. हलन्त सेट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

इनमें से पहले हम कुछ विशेष सेट् आत्मनेपदी हलन्त धातुओं का विचार करते हैं। उसके बाद हम शेष हलन्त धातुओं के लिये सामान्य विधि बतलायेंगे। __विशेष हलन्त सेट् आत्मनेपदी धातु हलन्त आत्मनेपदी धातुओं में से पहिले इन ९ धातुओं के रूप बनाइये तनादि धातु - तनादि गण के तन् (१४६३) से मन् (१४७१) तक ९ धातुओं को देखिये। इनका नाम तनादि धातु है। ये सारे के सारे धातु सेट हैं तथा उभयपदी हैं। अतः इनसे दोनों पदों के प्रत्यय लगाये जा सकते हैं। इन्हें लगाने में कुछ विशेष कार्य करना पड़ते हैं, अतः इनके लिये विशेष विधियाँ बतला रहे हैं। ध्यान रहे कि आत्मनेपद के ये इष्ट, इषाताम्, इषत, आदि प्रत्यय इट् + सिच् = इस्, से प्रारम्भ हो रहे हैं। तनादिभ्यस्तथासो: - तनादि गण के धातुओं से परे जब आत्मनेपद के इष्ट और इष्ठा: प्रत्यय आते हैं तब इन दोनों प्रत्ययों में स्थित, इट + सिच = इस् का, विकल्प से लोप हो जाता है। __इट् + स् = ‘इस्’ का लोप हो जाने पर, इन प्रत्ययों में, ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व होकर जो त को ट, तथा था: को ठा: हुआ था, वह भी निवृत्त हो जाता है। इस प्रकार इष्ट को त / इष्ठा: को था:, हो जाते हैं। जैसे - अतन् + इष्ट / इस् का लोप होकर - अतन् + त ‘अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति’ से तन् के अन्तिम अनुनासिक वर्ण का लोप होकर - अत + त = अतत। इसी प्रकार अतन् + इष्ठा: / इस् का लोप होकर अतन् + था: ‘अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति’ से तन् के अन्तिम अनुनासिक वर्ण का लोप होकर - अत + था: = अतथा: । चूँकि यह लोप विकल्प से होता है अतः लोप न होने पर अतन् + इष्ट = अतनिष्ट तथा अतन् + इष्ठा: = अतनिष्ठा: रूप भी बनेंगे। शेष प्रत्ययों की व्यवस्था वही रहेगी। जो अभी तक बतलायी जा चुकी है। तन् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - [[२२४]] अतत / अतनिष्ट अतनिषाताम् अतनिषत अतथा: / अतनिष्ठा: अतनिषाथाम् अतनिढ्वम् अतनिषि ‘अतनिष्वहि अतनिष्महि इसी प्रकार मन् वन् के रूप बनाइये। सन् धातु - सन् धातु के न् का लोप नहीं होता है अपितु ‘जनसनखनां सञ्झलो:’ सूत्र से इसके न् को आ हो जाता है। असन् + इष्ट / तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस् का लोप होकर - असन् + त / जनसनखनां सझलो: सूत्र से न् को आ होकर - असा + त = असात। इ + सिच् = इस्, का लोप न होने पर असन् + इष्ट = असनिष्ट

  • इसी प्रकार असन् + इष्ठा: / इस् का लोप होकर - असन् + था: / सन् के न् को आ होकर असा + था: = असाथा: / इस् का लोप न होने पर - असन् + इष्ठा: = असनिष्ठाः । _ सन् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - असात / असनिष्ट असनिषाताम् असनिषत असाथा: / असनिष्ठाः असनिषाथाम् असनिढ्वम् असनिषि असनिष्वहि असनिष्महि क्षण् धातु - अक्षण + इष्ट / तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस् का लोप होकर = अक्षण + त / अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति से न् का लोप होने पर - अक्ष + त = अक्षत। इस् का लोप न होने पर अक्षण् + इष्ट = अक्षणिष्ट । इसी प्रकार अक्षण + इष्ठा: / इस् का लोप होकर अक्षण + था: / न् का लोप होने पर - अक्ष + था: = अक्षथा: । इस् का लोप न होने पर - अक्षण + इष्ट = अक्षणिष्ट, अक्षण + इष्ठा: = अक्षणिष्ठाः। पूरे रूप इस प्रकार बने - अक्षत / अक्षणिष्ट अक्षणिषाताम् अक्षणिषत अक्षथाः/ अक्षणिष्ठा: अक्षणिषाथाम् अक्षणिढ्वम् अक्षणिषि अक्षणिष्वहि अक्षणिष्महि क्षिण धातु - अक्षिण + इष्ट / तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस का लोप होकर = अक्षिण + त / अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति से न् का लोप होने पर अक्षि + त = अक्षित। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २२५ इसी प्रकार अक्षिण + इष्ठा: / इस् का लोप होकर अक्षिण् + था: / न् का लोप होने पर - अक्षि + था: = अक्षिथाः । __ ध्यान रहे कि सिच् प्रत्यय आर्धधातुक प्रत्यय है। जब इसका लोप हो जाता है तब जो त, था: बचते हैं, वे अपित् सार्वधातुक प्रत्यय होने के कारण ‘सार्वधातुकमपित्’ सूत्र से डिद्वत् होते हैं, अतः उनके परे रहने पर अङ्ग की उपधा को ‘क्डिति च’ सूत्र से गुणनिषेध हो जाता है। सिच् प्रत्यय का लोप नहीं होने पर, अङ्ग की उपधा को पुगन्तलघूपधस्य च से होने वाला गुण हो जाता है। अतः ‘इस्’, का लोप न होने पर - अक्षिण् + इष्ट / गुण होकर - अक्षेण + इष्ट = अक्षेणिष्ट । अक्षिण् + इष्ठाः / गुण होकर - अक्षेण + इष्ठाः = अक्षेणिष्ठाः । पूरे रूप इस प्रकार बने - अक्षित / अक्षेणिष्ट अक्षेणिषाताम् अक्षेणिषत अक्षिथा: / अक्षेणिष्ठाः अक्षेणिषाथाम् अक्षेणिढ्वम् अक्षेणिषि अक्षेणिष्वहि अक्षेणिष्महि ऋण धातु - आ + ऋण + इष्ट / तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस् का लोप करके - आ + ऋण + त / आटश्च से वृद्धि करके - आर्ण + त। अब अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति से अन्तिम अनुनासिक वर्ण का लोप होकर - आर् + त = आर्त। इसी प्रकार - आ + ऋण + इष्ठा: / तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस् का लोप करके - आ + ऋण + था: / आटश्च से वृद्धि करके - आर्ण + था:। अब अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति से अन्तिम अनुनासिक वर्ण का लोप करके - आर् + था: = आर्थाः ।
  • लोप आदि न होने पर आणिष्ट, आणिष्ठा: रूप बनते हैं। पूरे रूप इस प्रकार बने - आर्त / आर्णिष्ट . आर्णिषाताम् आर्णिषत आर्थाः / आर्णिष्ठाः आणिषाथाम् आर्णिढ्वम् आर्णिषि आणिष्वहि आर्णिष्महि तृण तथा घृण धातु - पूर्ववत् तनादिभ्यस्तथासो: सूत्र से इस् का लोप होकर तथा अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्ङिति से अन्तिम अनुनासिक वर्ण का लोप होकर - अतृत, अतृथा: रूप बनते हैं। लोप आदि न होने पर पुगन्तलघूपधस्य च से उपधा को गुण करके अतर्णिष्ट / [[२२६]] अतर्णिष्ठा: रूप बनते है। पूरे रूप इस प्रकार बने - अतृत / अतर्णिष्ट __ अतर्णिषाताम् अतर्णिषत अतृथाः / अतर्णिष्ठाः अतर्णिषाथाम् अतर्णित्वम् अतर्णिषि अतर्णिष्वहि अतर्णिष्महि ठीक इसी प्रकार घृण धातु के भी रूप बनेंगे। यह तनादिगण के ९ धातुओं के धातुरूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। ये धातु उभयपदी हैं । इनके परस्मैपदी रूप बनाने की विधि परस्मैपद में देखें। दीप, जन्, बुध्, पूरी, तायु, ओप्यायी धातु - ये धातु सेट् आत्मनेपदी __दीपजनबुधपूरीतायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम् - इन धातुओं से लुङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन में विकल्प से चिण् प्रत्यय होता है। चिण् प्रत्यय में च, ण की इत् संज्ञा करके, ‘इ’ शेष बचता है। चिणो लुक् - चिण से परे आने वाले लुङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन के ‘त अर्थात् इष्ट’ प्रत्यय का लोप हो जाता है। अब इन धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनायें। इनमें बुध्’ धातु अनिट धातु है, अतः इसके रूप बनाने की प्रक्रिया हम अनिट् प्रकरण में बतलायेंगे। दीप, जन्, पूरी, ताय, ओप्यायी, धातु सेट हैं, इसके रूप बनाने की प्रक्रिया हम यहाँ बतला रहे हैं - अदीप् + इष्ट / चिण् करके - अदीप् + चिण् + इष्ट / इष्ट का लोप करके - अदीप् + चिण् - अदीप् + इ = अदीपि। चिण न होने पर अदीपिष्ट बनेगा। पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अदीपि / अदीपिष्ट __ अदीपिषाताम् अदीपिषत अदीपिष्ठा: अदीपिषाथाम् अदीपिढ्वम् अटोपिषि अदीपिष्वहि अदीपिष्महि जन् धातु - ठीक इसी प्रकार - अजनि / अजनिष्ट अजनिषाताम् अजनिषत अजनिष्ठा: अजनिषाथाम् अजनिढ्वम् अजनिषि अजनिष्वहि अजनिष्महि इसी प्रकार ताय, तथा प्याय् धातु के भी रूप बनाइये। - इन ९ धातुओं के अलावा जितने भी हलन्त सेट् आत्मनेपदी धातु बचें, उनके चार वर्ग बनाइये । इदुपध, उदुपध, ऋदुपध तथा शेष । इनके लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि बतला रहे हैं।समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २२७ १. इदुपध धातु - ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से इदुपध धातुओं की उपधा के लघु इ को गुण करके ए बनाइये - अ मिद् + इष्ट = अमेदिष्ट । पुगन्तलघूपधस्य च - कित्, डित्, से भिन्न, सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अङ्ग की उपधा के लघु इक् को गुण होता है अर्थात् उपधा के लघु इ को ए / लघु उ को ओ / लघु ऋ को अर् / होता है। अमेदिष्ट अमेदिषाताम् अमेदिषत अमेदिष्ठा: अमेदिषाथाम् अमेदिढ्वम् अमेदिषि अमेदिष्वहि अमेदिष्महि इसके अपवाद - विज इट् - तुदादि गण के विज् धातु से परे आने वाले सारे सेट प्रत्यय डित्वत् माने जाते हैं। डित्वत् होने के कारण यहाँ इक् को गुण का निषेध होगा। अतः इसमें गुण किये बिना प्रत्यय सीधे जोड़ दिये जायेंगे। यह विज् धातु आत्मनेपदी है। इसका प्रयोग उद् उपसर्ग के साथ होता है। यथा - उद् + विज् + इष्ट / गुणनिषेध होकर = उद्विजिष्ट । इसके पूरे रूप इस प्रकार बने - उद्विजिष्ट उद्विजिषाताम् उद्विजिषत उद्विजिष्ठाः उद्विजिषाथाम् उद्विजित्वम् उद्विजिषि उद्विजिष्वहि उद्विजिष्महि उदुपध धातु - उदुपध धातुओं की उपधा के लघु उ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके ओ बनाइये - अमुद् + इष्ट = अमोदिष्ट । पूरे रूप इस प्रकार बने - अमोदिष्ट अमोदिषाताम् अमोदिषत अमोदिष्ठाः अमोदिषाथाम् अमोदिढ्वम् अमोदिषि. अमोदिष्वहि अमोदिष्महि __ ऋदुपध धातु - ऋदुपध धातुओं की उपधा के लघु ऋ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके अर् बनाइये - अ वृध् + इष्ट = अवर्धिष्ट । पूरे रूप इस प्रकार बने - अवर्धिष्ट अवर्धिषाताम् अवर्धिषत अवर्धिष्ठाः अवर्धिषाथाम् अवर्धिढ़वम् अवधिषि अवर्धिष्वहि अवर्धिष्महि [[२२८]] हमने जाना कि - उपधा के - लघु इ को ए, लघु उ को ओ, लघु ऋ को अर् होगा। ध्यान रहे कि यदि उपधा में दीर्घ स्वर हो, तब कदापि गुण - न करें - अ शीक्
  • इष्ट = अशीकिष्ट। __ शेष धातु - शेष धातुओं को कुछ मत कीजिये, क्योंकि न तो इनके अन्त में इक् है, न ही इनकी उपधा में लघु इक है। यथा - अभाषिष्ट अभाषिषाताम् अभाषिषत अभाषिष्ठा: अभाषिषाथाम् अभाषिढ्वम् अभाषिषि अभाषिष्वहि अभाषिष्महि यह हलन्त सेट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने का विचार पूर्ण हुआ। अब अजन्त अनिट् आत्मनेपदी धातुओं का विचार करते

३. अजन्त अनिट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

लुङ् लकार के अनिट् सिच् से बने हुए आत्मनेपदी प्रत्यय स्त साताम् सत स्था: साथाम् ध्वम् सि स्वहि स्महि अनिट् धातुओं के रूप बनाने के पूर्व हम ये चार विधियाँ पढ़ें - सलोप विधि झलो झलि - झल् के बाद आने वाले ‘स्’ का लोप होता है, झल् परे होने पर। अरिच् + स्त = अरिच् + त / अरिच् + स्था: = अरिच् + था: । ह्रस्वादङ्गात् - ह्रस्वान्त अङ्ग के बाद आने वाले ‘स्’. का लोप होता है, झल् परे होने पर। अकृ + स्त = अकृ + त / अकृ + स्था: = अकृ + था:, आदि। अनिट् धातुओं के रूप बनाते समय इन सूत्रों का ध्यान अवश्य रखें। षत्व विधि अनै + सीत् = अनैषीत् / अहौ + सीत् = अहौषीत् / अध्यगी + स्त = अध्यगीष्ट / आदि में प्रत्यय का ‘स्’, ‘ए’ बन गया है। यह क्यों ? __ आदेशप्रत्यययो: - इण् प्रत्याहार तथा कवर्ग के बाद आने वाले, आदेश के सकार को तथा प्रत्यय के सकार को षकार आदेश होता है। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २२९ इण् प्रत्याहार का अर्थ है इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल, तथा कवर्ग का अर्थ है क्, ख, ग, घ, ङ्। तात्पर्य वस्तुत: यह है कि जिस भी प्रत्यय के ‘स’ के पूर्व ‘अ, आ’ के अलावा कोई भी स्वर होगा, अथवा ह, य, व, र, ल तथा कवर्ग में से कोई व्यञ्जन होगा, उस प्रत्यय के स् को ए बन जायेगा, चाहे वह सकार, सिच् प्रत्यय का हो, चाहे से, स्य, स्व, सि, आदि किसी भी प्रत्यय का क्यों न हो। ष्टुत्व विधि __ष्टुना ष्टुः - सकार तवर्ग के स्थान पर षकार टवर्ग होता है, षकार टवर्ग के योग में। इसका तात्पर्य यह है कि - स्, त्, थ्, द्, ध्, न्, के साथ ए, ट, ठ, ड्, ढ्, ण, का योग होने पर स्, त्, थ्, द्, ध्, न्, के स्थान पर क्रमशः ष्, ट, ठ, ड्, द, ण, आदेश होते हैं। यथा - स्त = ष्ट / स्था: = ष्ठाः। . अध्यगी + स्त / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स्’ को षत्व करके - अध्यगी + प्त / ष्टुना ष्ट: से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अध्यगी + ष्ट = अध्यगीष्ट। __ अध्यगी + स्था: / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स्’ को षत्व करके - अध्यगी + ष्या: / ष्टुना ष्टुः से ‘थ’ को ष्टुत्व करके - अध्यगी + ष्ठा: = अध्यगीष्ठाः। लुङ् लकार के लिये ढत्व विधि इण: षीध्वं लुलिटां धोऽङ्गात् - जिस अङ्ग के अन्त में ‘इण्’ है, ऐसे इण्णन्त अङ्ग से परे आने वाले आशीर्लिङ् लकार के ‘षीध्वम्’ प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान पर, लुङ् लकार के ध्वम् प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान पर, तथा लिट् लकार के ध्वे प्रत्यय के ‘ध्’ के स्थान पर ‘द’ आदेश होता है। इसका तात्पर्य इस प्रकार है - इण् प्रत्याहार का अर्थ है - इउण् / ऋलक् / एओङ् / ऐऔच् / हयवरट / लण् / अर्थात् - इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल। १. अनिट् धातुओं के अन्त में जब ‘इण्’ हो, तब उनसे परे आने वाले लुङ् लकार के ‘ध्वम्’ के ‘ध्’ को ‘इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात्’ सूत्र से नित्य ‘ढ्’ होता है। जैसे - अध्यगी + ध्वम् = अध्यगीढ्वम् / अकृ + ध्वम् = अकृढ्वम् / अने + ध्वम् = अनेढ्वम् / अच्यो + ध्वम् = अच्योढ्वम् / अगाह् + ध्वम् = अघाढ्वम् / अवह् + ध्वम् = अवोढ्वम् आदि। [[२३०]] २. जब अनिट् धातुओं के अन्त में इण न हो, तब ‘ध्वम्’ के ‘ध्’ को ‘ध्’ ही रहता है। जैसे - अपच् + ध्वम् = अपग्ध्वम् / अयज् + ध्वम् = अयग्ध्वम् / अतुद् + ध्वम् = अतुद्ध्वम् आदि। (विशेष - सेट धातुओं से परे आने वाले लङ लकार के ध्वम प्रत्यय के ‘ध्’ को नित्य ‘ढ्’ होता है। अतः सेट् धातुओं से लुङ् लकार में ‘इढ्वम्’ प्रत्यय ही लगाइये।) इन सारी विधियों को बुद्धिस्थ करके ही अब अनिट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप इस क्रम से बनायें - आकारान्त तथा एजन्त धातु / इकारान्त, ईकारान्त धातु / उकारान्त, ऊकारान्त धातु / ऋकारान्त, ऋकारान्त धातु। आकारान्त तथा एजन्त अनिट् आत्मनेपदी धातु - आदेच उपदेशेऽशिति - सारे एजन्त धातु अशित् प्रत्यय परे रहने पर आकारान्त हो जाते हैं। जैसे - दे - दा / दो - दा / धे - धा आदि। अतः आकारान्त तथा एजन्त धातुओं का विचार एक साथ करते हैं। इन आकारान्त तथा एजन्त आत्मनेपदी धातुओं के रूप इस प्रकार बनाइये - धातु के अन्तिम ‘आ’ को कुछ मत कीजिये - अ मा + स्त = अमास्त। पूरे रूप इस प्रकार बने - अमास्त अभासाताम् अमासत अमास्था: अमासाथाम् अमाध्वम् अमासि. अमास्वहि अमास्महि इसके अपवाद - १. गाङ् धातु - इसका प्रयोग अधि उपसर्ग के साथ होता है। अभी हमने अतिदेश सूत्रों में गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्डित् सूत्र पढ़ा है। इसके अनुसार गाङ् धातु से परे आने वाला सिच् प्रत्यय डित्वत् होता है। डित्वत् होने से इस गा धातु के ‘आ’ को घूमास्थागापाजहातिसां हलि सूत्र से ‘ई’ हो जाता है। जैसे - अधि + गा + स्त - अधि + अगी + स्त / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व होकर - अधि + अगी + ष्त / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व होकर - अधि + अगी + ष्ट = अध्यगीष्ट । अध्यगी + साताम् को देखिये। यहाँ ‘ई’ के बाद आने वाले प्रत्यय के ‘स’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष’ आदेश होकर अध्यगीषाताम् बनता है। अध्यगी + ध्वम् को देखिये । यहाँ अङ्ग के अन्त में ई है उसके बाद समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २३१ जो ‘ध्’ है वह लुङ् लकार का है अतः इसे ‘इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात्’ से ‘द’ आदेश होकर अध्यगीढ्वम् बनता है। गाङ् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अध्यगीष्ट अध्यगीषाताम् अध्यगीषत अध्यगीष्ठाः अध्यगीषाथाम् अध्यगीढ्वम् अध्यगीषि अध्यगीष्वहि अध्यगीष्महि २. स्था धातु तथा घुसंज्ञक दा, धा धातु - दाधाघ्वदाप् - आकारान्त तथा एजन्त धातुओं में से दाप्, दैप् को छोड़कर सारे दारूप तथा सारे धारूप धातुओं की अर्थात् देङ् - आत्मनेपदी, दो - परस्मैपदी, दाण् - परस्मैपदी, डुदाञ् उभयपदी, धेट - परस्मैपदी, डुधाञ् - उभयपदी, इन धातुओं की ‘घु’ संज्ञा होती है। स्थाध्वोरिच्च - स्था धातु तथा घुसंज्ञक दा, धा धातुओं से परे आने वाला सिच् प्रत्यय कितवत् माना जाता है। साथ ही जब सिच् प्रत्यय कितवत् मान लिया जाता है, तब स्था तथा घुसंज्ञक दा, धा धातुओं के आ को ‘इ’ ऐसा आदेश भी हो जाता है - जैसे - अदा + स्त – अदि + स्त आदि। हस्वादङ्गात् - हूस्वान्त अङ्ग के बाद आने वाले ‘स्’ का लोप होता है, झल् परे होने पर। अदि + स्त - अदि + त आदि। अदा + स्त = अदि + त = अदित अदा + साताम् = अदि साताम = अदिषाताम अदा + सत = अदि + सत = अदिषत अदा + स्था: = अदि + था: = अदिथा: अदा + साथाम् = अदि + साथाम् = अदिषाथाम् अदा + ध्वम् = अदि + ध्वम् = अदिढ्वम् अदा + सि = अदि + सि = अदिषि अदा + स्वहि = अदि + स्वहि = अदिष्वहि अदा + स्महि = अदि + स्महि = अदिष्महि __ आत्मनेपदी घुसंज्ञक ‘दा’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अदित अदिषाताम् अदिषत अदिथा: अदिषाथाम् अदिढ्वम् अदिषि अदिष्वहि अदिष्महि इसी प्रकार आत्मनेपदी घुसंज्ञक ‘धा’ धातु के रूप बनाइये - + __ + [[२३२]] अधित अधिषाताम् अधिषत अधिथा: अधिषाथाम् अधिढ्वम् अधिषि अधिष्वहि अधिष्महि स्था धातु ‘आ’ उपसर्ग के साथ आत्मनेपदी होता है। इसके रूप भी इसी प्रकार बनाइये। आस्थित आस्थिषाताम् आस्थिषत आस्थिथा: आस्थिषाथाम् . आस्थिढ्वम् आस्थिषि आस्थिष्वहि आस्थिष्महि इकारान्त, ईकारान्त अनिट् आत्मनेपदी धातु - इनके अन्तिम इ, ई को सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण कीजिये - अनी - स्त - अने + स्त / षत्व, ष्टुत्व करके = अनेष्ट। __ अनी + ध्वम् - अने + ध्वम् - इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात् सूत्र से ढत्व करके = अनेढ्वम् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अनेष्ट अनेषाताम् अनेषत अनेष्ठाः अनेषाथाम् अनेढ्वम् अनेषि अनेष्वहि अनेष्महि सारे इकारान्त, ईकारान्त आत्मनेपदी धातुओं के रूप इसी प्रकार बनाइये। __इसके अपवाद - ‘लीङ् धातु’ - विभाषा लीयते: - जब भी ‘ली’ धातु को गुण होकर ‘ए’ हो, तब उस लीङ् धातु के अन्त को विकल्प से ‘आ’ आदेश होता है। अली + स्त - अले + स्त - अला + स्त = अलास्त। ला आदेश न होने पर - पूर्ववत् अलेष्ट ही बनेगा। उकारान्त, ऊकारान्त अनिट् आत्मनेपदी धातु - इनके अन्तिम उ, ऊ को सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से ‘ओ’ गुण कीजिये = अच्यु + स्त - अच्यो + स्त / षत्व, ष्टुत्व करके = अच्योष्ट । __ अच्यु + ध्वम् - इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात् सूत्र से ढत्व करके = अच्योढ्वम् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अच्योष्ट अच्योषाताम् अच्योषत अच्योष्ठा: अच्योषाथाम् अच्योढ्वम् अच्योषि अच्योष्वहि अच्योष्महि. सारे उकारान्त, ऊकारान्त आत्मनेपदी धातुओं के रूप इसी प्रकार बनाइये। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २३३ इसके अपवाद - कुङ् धातु - _ कुङ् धातु कुटादिगण में आता है। अतः इससे परे आने वाला सिच् प्रत्यय ‘गाङ्कुटादिम्योऽञ्णिन्डित्’ सूत्र से डिद्वत् माना जाता है। अकु + स्त - हूस्वादङ्गात् से स् का लोप होकर = अकु + त / क्डिति . च से गुणनिषेध होकर = अकुत। इसी प्रकार अकु + स्था: = अकुथा:। सकारादि प्रत्ययों के ‘स’ को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व होकर - अकु + साताम् = अकुषाताम् । अकु + ध्वम् - ध्वम् प्रत्यय के ‘ध्’ को इण: षीध्वं लुङ्लिटां धोऽङ्गात् सूत्र से ढत्व होकर - अकुढ्वम् । कु धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अकुत अकुषाताम् अकुषत अकुथा: अकुषाथाम् अकुढ्वम् अकुषि अकुष्वहि अकुष्महि ऋकारान्त अनिट् आत्मनेपदी धातु - अब हम ऋवर्णान्त अनिट् आत्मनेपदी धातुओं का विचार करें। उश्च - अनिट् आत्मनेपदी ऋवर्णान्त धातुओं से परे आने वाले आत्मनेपदी झलादि लिङ्, सिच् प्रत्यय कित्वत् होते हैं। ऐसे ऋकारान्त आत्मनेपदी धातु इस प्रकार हैं - कृञ् डुकृञ् धृङ् धृञ् पृङ् भृञ् डुभृञ् मृङ् वृङ् वृञ् स्तृ हृञ् = १२ चूँकि ये धातु भी हूस्वान्त हैं, और इनसे परे आने वाला ‘सिच्’ प्रत्यय कित्वत् है, अतः इनके रूप बिल्कुल ‘कु’ धातु के समान ही बनाइये - अकृ + स्त = अकृत / अकृ + स्था: = अकृथा: / अकृ + साताम् = अकृषाताम् / अकृ + ध्वम् = अकृढ्वम् आदि। अकृत अकृषाताम् अकृषत अकृथाः अकृषाथाम् अकृढ्वम् अकृषि अकृष्वहि अकृष्महि इसी प्रकार सारे अनिट् आत्मनेपदी ह्रस्व ऋकारान्त धातुओं के रूप बनाइये - मृ - अमृत / अमृथा: ह - अहृत / अहथा: धृ - अधृत / अधृथाः भृ - अभृत / अभृथा: स्तृ - अस्तृत / अस्तृथा: व - अवृत / अवृथा: [[२३४]] ह दृ - अदृत / अदृथाः पृ - अमृत / अपृथा: आदि। यह अनिट् आत्मनेपदी प्रत्यय परे रहने पर सारे अजन्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने का विचार पूर्ण हुआ।

४. हलन्त अनिट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

२०९ - २१४ पृष्ठ पर बतलाई गई इडागम व्यवस्था को खोलकर सामने रख लें। इसमें हम पाते हैं कि यद्यपि हलन्त धातुओं में कुल १०२ धातु अनिट् हैं किन्तु इनमें से ४१ धातुओं से, हम सक् + सिच्, अङ्, चङ्, क्स आदि से बने हुए प्रत्यय लगा चुके हैं। अतः अब ६१ अनिट् हलन्त धातु ही बचे हैं। उन बचे हुए ६१ अनिट् हलन्त धातुओं में से भी यदि परस्मैपदी धातुओं को अलग कर दें तो कुल ३६ धातु बचते हैं, जो या तो आत्मनेपदी हैं या उभयपदी हैं। ये ३६ धातु इस प्रकार हैं - __हलन्त आत्मनेपदी अनिट् धातु पद् हद् विद् (दिवादिगण) विद् (रुधादिगण) मन् रभ् लभ रम् खिद् तिप् बुध् युध् स्वङ् = १३ । हलन्त उभयपदी अनिट् धातु यज् भज् वा शप् नह वह रिच विच् सिच् विज् छिद् भिद् क्षिप् लिप् मुच् युज् क्षुद् तुद् र भ्रस्ज् = २३ इन ३६ धातुओं से, ये सिच् से बने हुए आत्मनेपदी अनिट् प्रत्यय लगेंगे। हलन्त आत्मनेपदी वेट् धातु अब इडागम व्यवस्था में देखिये कि इसमें २३ वेट धातु भी हैं। इनमें से भी कुछ धातुओं से अङ्, क्स आदि से बने हुए प्रत्यय लग जाते हैं तथा कुछ परस्मैपदी हैं। इस प्रकार इनमें से कुल तीन वेट धातु बचते हैं जिनसे एक बार सिंच से बने हुए सेट् प्रत्यय लगेंगे तथा एक बार सिच् से बने हुए अनिट् प्रत्यय लगेंगे। ये तीन धातु इस प्रकार हैं - त्रपूष्, क्षमूष्, गाहू।। इस प्रकार कुल ३९ धातु ऐसे हैं, जिनसे हमें सिच् से बने हुए अनिट् आत्मनेपदी प्रत्यय लगाना है। __ धातुपाठ के अन्त मे दिये हुए ‘धातुओं के पद निर्णय’ को देखिये। उसे पढ़कर हम जानते हैं, कि कुछ स्थितियों में परस्मैपदी धातु भी आत्मनेपदी हो जाते हैं। जैसे - आङ् उपसर्ग के साथ यम् धातु, सम् उपसर्ग के साथ गम् धातु समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २३५ आत्मनेपदी हो जाते हैं। ऐसे अनिट् धातुओं से भी हम सिच् से बने हुए अनिट् प्रत्यय लगायेंगे। अब हम इन अनिट् हलन्त धातुओं के तीन वर्ग बनाकर इनके लुङ् लकार के रूप बनायें। १. गम्, हन्, यम् धातु / २.रम् मन् क्षम् धातु / ३. शेष धातु। १. गम्, हन्, यम् धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि गम् धातु - ‘समो गम्वृच्छिप्रच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः’ सूत्र से, सम् उपसर्गपूर्वक अकर्मक गम् धातु, से आत्मनेपद होता है। वा गमः - जब गम् धातु आत्मनेपदी होता है तब उससे परे आने वाला अनिट् सिच् प्रत्यय, विकल्प से कित्वत् मान लिया जाता है। आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय के कित्वत् होने पर - क्ङिति च - कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर इक् के स्थान पर गुण वृद्धि कार्य नहीं होते। अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति - झलादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर, गम्, रम्, नम्, यम्, हन् धातु, दिवादिगण के मन् धातु तथा तनादिगण के तनु, षणु, क्षणु, क्षिणु, ऋणु, तृणु, घृणु, वनु मनु धातुओं के अनुनासिक का लोप होता है। __सम् + अ + गम् + स्त / वा गमः’ सूत्र से आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय के कित्वत् होने से ‘अनुदातोपदेश.’ सूत्र से म् का लोप होकर - सम् + अ + ग + स्त / अब ह्रस्वादङ्गात् से स् का लोप होकर = समगत । पूरे रूप इस प्रकार बने - समगत समगसाताम् समगसत समगथा: समगसाथाम् समगध्वम् समगसि समगस्वहि समगस्महि आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय के कित्वत् न होने पर - .. . म् का लोप नहीं होगा - सम् + अ + गम् + स्त / ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से म् को अनुस्वार बनाकर - सम् + अ + गं + स्त = समगस्त । सम् + अ + गम् + ध्वम् / नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से ‘म्’ को अनुस्वार करके तथा अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण: सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण करके = समगन्ध्वम्। पूरे रूप इस प्रकार बने - समगस्त समगंसाताम् समगंसत [[२३६]] समगंस्था: समगंसाथाम् समगन्ध्वम् समगंसि समगंस्वहि समगंस्महि यम् धातु - ‘आङो यमहन:’ सूत्र से आङ् उपसर्गपूर्वक अकर्मक यम् धातु से आत्मनेपद होता है। ‘उपाद्यमः स्वकरणे’ सूत्र से उप उपसर्गपूर्वक यम् धातु से स्वकरण = पाणिग्रहण के अर्थ में आत्मनेपद होता है।

  • यमो गन्धने - यम् धातु का अर्थ जब सूचित करना हो तब उससे परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय, कितवत् माना जाता है। विभाषोपयमने - जब उप + यम् धातु का अर्थ विवाह करना हो, तब उससे परे आने वाला अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय, विकल्प से कित् माना जाता है। क्रमशः उदाहरण - उद् + आ + अ + यम् + स्त / प्रत्यय के कित्वत् होने से, अनुदातोपदेश. सूत्र से म् का लोप होने पर - उद् + आ + अ + य + स्त / ह्रस्वादङ्गात् से स् का लोप होकर = उदायत। उदायम् + स्त = उदाय + त = उदायत उदायम् + साताम् = उदाय + साताम् = उदायसाताम् उदायम् + सत = उदाय + सत = उदायसत उदायम् + स्था: = उदाय + था: = उदायथा: उदायम् + साथाम् = उदाय + साथाम् = उदायसाथाम् उदायम् + ध्वम् = उदाय + ध्वम् = उदायध्वम् उदायम् + सि = उदाय + सि = उदायसि उदायम् + स्वहि = उदाय + स्वहि = उदायस्वहि उदायम् + स्महि = उदाय + स्महि = उदायस्महि पूरे रूप इस प्रकार बने - उदायत उदायसाताम् उदायसत उदायथा: उदायसाथाम् उदायध्वम् उदायसि उदायस्वहि उदायस्महि उप उपसर्गपूर्वक यम् धातु - यहाँ ‘विभाषोपयमने’ सूत्र से आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय विकल्प से कित्वत् होता है। आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय के कित्वत् होने पर - उप + अ + यम् + स्त / अनुदातोपदेश. सूत्र से म् का लोप होने पर - उप + अ + य + स्त / ह्रस्वादङ्गात् से स् का लोप होकर = उपायत। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २३७ पूरे रूप इस प्रकार बने - उपायत उपायसाताम् उपायसत उपायथा:. उपायसाथाम् उपायध्वम् उपायसि उपायस्वहि उपायस्महि आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय के कित्वत् न होने पर - म् का लोप नहीं होगा - उप + अ + यम् + स्त / ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से म् को अनुस्वार बनाकर - उप + अ + यं + स्त = उपायंस्त। पूरे रूप इस प्रकार बने - उपायंस्त उपायंसाताम् उपायंसत उपायंस्था: उपायंसाथाम् उपायन्ध्वम् उपायंसि उपायंस्वहि उपायंस्महि हन् धातु - ‘आङो यमहन:’ सूत्र से आङ् उपसर्गपूर्वक अकर्मक हन् धातु से आत्मनेपद होता है। आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् - लुङ् लकार के आत्मनेपदी प्रत्यय परे होने पर हन् धातु को विकल्प से ‘वध’ आदेश होता है। _हन: सिच् - जब हन् धातु आत्मनेपदी होता है तब उससे परे आने वाला अनिट् सिच् प्रत्यय, नित्य कित्वत् माना जाता है। __ आङ् + अ + हन् + स्त / अनुदातोपदेश. सूत्र से न् का लोप होने पर - आ + अ + ह + स्त / ह्रस्वादङ्गात् से स् का लोप होकर = आहत। पूरे रूप इस प्रकार बने - आहत आहसाताम् आहसत आहथा: आहसाथाम् आहध्वम् आहसि आहस्वहि आहृस्महि ‘वध’ आदेश होने पर इससे सेट् प्रत्यय लगेंगे - आवध + इष्ट - ‘अतो लोप:’ सूत्र से ‘अ’ का लोप होकर - आवध् + इष्ट = आवधिष्ट आदि। ध्यान रहे कि ‘आ’ उपसर्ग न लगने पर यह हन् धातु परस्मैपदी ही रहता है - अवधीत्। २. रम् मन् क्षम्, इन मकारान्त नकारान्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि अ + रम् + स्त / ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से म् को अनुस्वार [[२३८]] बनाकर - अ + रं + स्त = अरंस्त। पूरे रूप इस प्रकार बने - अरंस्त अरंसाताम् अरंसत अरंस्था: अरंसाथाम् अरन्ध्वम् अरंसि अरंस्वहि अरंस्महि इसी प्रकार मन् से अमंस्त और क्षम् से अक्षस्त आदि बनाइये। ३. शेष अनिट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि सलोपविधि - पृष्ठ २२७ पर दिये हुए सलोप को देखें। तदनुसार ‘झलो झलि’ सूत्र से झल् के बाद आने वाले स् का लोप करें, झल् परे होने पर। यथा - अरिच् + स्त - स् का लोप होकर = अरिच् + त / अरिच + स्था: - स् का लोप होकर = अरिच् + था:। . अब देखिये कि ‘स्’ का लोप हो जाने से ये प्रत्यय तकारादि, थकारादि हो गये हैं। इस प्रकार अब ये प्रत्यय चार प्रकार के हो गये - सकारादि, तकारादि, थकारादि तथा धकारादि। विशेष - अब हम जान चुके हैं कि जब ये स्त / स्था: प्रत्यय झलन्त धातु के बाद आते हैं तब इनके आदि में स्थित सिच् के स् का ‘झलो झलि सूत्र से लोप हो जाता है, और जब ये प्रत्यय हस्वान्त अङ्ग के बाद आते हैं तब इनके आदि में स्थित ‘स्’ का ‘हूस्वादङ्गात् सूत्र से लोप हो जाता है। अब हम कुछ सूत्रों के अर्थों का पुनः स्मरण करें - लिङ्सिचावात्मनेपदेषु - ऐसे अनिट् हलन्त धातु, जिनमें इक् के बाद हल् हो, उनसे परे आने वाले अनिट् सिच् प्रत्यय और अनिट् सीयुट् प्रत्यय कित्वत् माने जाते है। ऐसे धातु हम नीचे दे रहे हैं। बुध् - आत्मनेपदी छिद् - उभयपदी रुध् - उभयपदी तिप् - आत्मनेपदी तुद् - उभयपदी सिच् - उभयपदी युध् - आत्मनेपदी भिद् - उभयपदी युज् - उभयपदी खिद् - आत्मनेपदी विद् - उभयपदी क्षुद् - उभयपदी विज् - आत्मनेपदी लिप् - उभयपदी भुज् - उभयपदी रिच - उभयपदी विच् - उभयपदी निज् - उभयपदी भुज् - उभयपदी = १८ अत्यावश्यक - इन १८ धातुओं से परे जब अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय आये, तब उसे कित्वत् मानकर कित् प्रयुक्त कार्य कीजिये और इनके समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २३९ अलावा जो यज्, स्वज्, वप् आदि अनिट् धातु आयें, उनसे परे आने वाले अनिट् आत्मनेपदी सिच् प्रत्यय को कित्वत् न मानकर कित् प्रयुक्त कार्य मत कीजिये। __ डिति च - कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर इक् के स्थान पर गुण वृद्धि कार्य नहीं होते। अरिच् + स्त = अरिच् + त। यहाँ ‘पगन्तलधपधस्य च सत्र से प्राप्त होने वाले गण का. ‘क्ङिति च’ सूत्र से निषेध होता है। चो: कु: - झल् परे होने पर अर्थात् तकारादि / थकारादि / धकारादि / सकारादि प्रत्यय परे होने पर तथा पदान्त में चवर्ग को कवर्ग होता है। अरिच् + त - अरिक् + त = अरिक्त। झलां जश झशि - झल के स्थान पर जश होता है झश परे होने पर। अतः यदि प्रत्यय धकारादि है तो उसके पूर्व का वर्ण जश् अर्थात् उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बन जाता है। अरिक् + ध्वम् - अरिग् + ध्वम् = अरिग्ध्वम् । खरि च - झल् को चर् होता है, खर् परे होने पर । अर्थात् यदि प्रत्यय, वर्ग के प्रथम या द्वितीय अक्षर से प्रारम्भ हो रहा हो, तो उसके पूर्व का वर्ण, अपने ही वर्ग का प्रथमाक्षर हो जाता है। अनिग् + त = अनिक्त। अब हम इन धातुओं के लुङ् लकार के आत्मनेपदी रूप बनायें। चकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - झलो झलि से स् का लोप करके - अरिच् + स्त - अरिच् + त / चो: कु: सूत्र से चवर्ग को कवर्ग बनाकर - अरिक् + त = अरिक्त। थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अरिच् + स्था: = अरिक्थाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अरिच् + ध्वम् / चो: कु: सूत्र से चवर्ग च्’ को कवर्ग ‘क्’ बनाकर - अरिक् + ध्वम् / झलां जश् झशि से ‘क्’ को जश्त्व ‘ग्’ करके = अरिग्ध्वम्।। सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अरिच् + साताम् - चो: कु: सूत्र से चवर्ग को कवर्ग बनाकर - अरिक् + साताम् / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर - अरिक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर अरिक्षाताम् । इसी विधि से सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़िये। चकारान्त ‘रिच्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अरिक्त अरिक्षाताम् अरिक्षत [[२४०]] अरिक्था: अरिक्षाथाम् अरिग्ध्वम् अरिक्षि अरिक्ष्वहि अरिक्ष्महि अनिट् चकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - विच् - अविक्त, सिच् - असिक्त, पच् - अपक्त, आदि रूप बनाइये। जकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अनिज् + स्त - झलो झलि सूत्र से स् का लोप करके - अनिज् + त / चो: कुः सूत्र से चवर्ग के तृतीयाक्षर ‘ज्’ को कवर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग्’ बनाकर - अनिग् + त / खरि च सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके ‘क्’ बनाकर - अनिक् + त = अनिक्त। थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अनिज् + स्था: = अनिक्थाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अनिज् + ध्वम् / चो: कु: सूत्र से चवर्ग के तृतीयाक्षर ‘ज्’ को कवर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग्’ बनाकर - अनिग् + ध्वम् = अनिग्ध्वम्। सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अनिज् + साताम् / चो: कु: सूत्र से चवर्ग के तृतीयाक्षर ‘ज्’ को कवर्ग का तृतीयाक्षर ‘ग्’ बनाकर - अनिग् + साताम् / खरि च सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके ‘क्’ बनाकर - अनिक् + साताम् / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर – अनिक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर = अनिक्षाताम् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अनिक्त अनिक्षाताम् अनिक्षत अनिक्था: अनिक्षाथाम् अनिग्ध्वम् अनिक्षि अनिक्ष्वहि अनिक्ष्महि अनिट् जकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - भुज् - अभुक्त / युज् - अयुक्त / विज् - अविक्त / स्वज् - अस्वङ्क्त / आदि रूप बनाइये। इसके अपवाद - यज् धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयज् + स्त - झलो झलि सूत्र से स् का लोप करके - अयज् + त / व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ए’ बनाकर - अयष् + त / ष्टुना ष्टु: से ‘त’ को ष्टुत्व करके = अयष्ट। __थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अयज् + स्था: = अयष्ठाः । समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २४१ धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयज् + ध्वम् / वश्चभ्रस्जसृजमृजयज राजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ए’ बनाकर - अयष् + ध्वम् / झलां जश् झशि सूत्र से ष् को जश्त्व ‘ड्’ करके - अयड् + ध्वम् / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - अयड् + ढ्वम् = अयड्ढ्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयज् + साताम् / वश्चभ्रस्जसृजमृजयज राजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ‘ज’ को ‘ष’ बनाकर - अयष् + साताम् / षढो: क: सि सूत्र से ‘ए’ को ‘क’ बनाकर - अयक् + साताम् / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर - अयक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर = अयक्षाताम्। इसी विधि से सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़िये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अयष्ट अयक्षाताम् अयक्षत अयष्ठा: अयक्षाथाम् अयध्वम् अयक्षि अयक्ष्वहि अयक्ष्महि भ्रस्ज् धातु - भ्रस्जो रोपधयो: रमन्यतरस्याम् - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर भ्रस्ज् धातु के ‘र’ तथा उपधा के स् के स्थान पर, विकल्प से ‘रम्’ होता है। भ्रस्ज् धातु के ‘र’ तथा उपधा के स् के स्थान पर ‘रम्’ आदेश होकर भ् अ रम् ज् / रम् में अम् की इत् संज्ञा होकर - भ अ र् ज् = भर्छ । रम् होकर भर्ख बनने पर - अभ + स्त / झलो झलि सूत्र से स् का लोप करके - अभ + त / वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ए’ बनाकर - अभष् + त / ष्टुना ष्ट: से ‘त’ को ष्टुत्व करके = अभष्टं। शेष प्रक्रिया पूर्ववत्। - जकारान्त ‘भ्रस्ज् - भञ्ज्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अभष्ट अभाताम् अभक्षत अभर्खा: अभाथाम् अभड्ढ्द्वम् अभर्भि अभवहि अभमहि __रम् न होकर भ्रस्ज् ही रहने पर - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अभ्रस्ज + स्त - झलो झलि से स का लोप करके - अभ्रस्ज् + त / ‘स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - अभ्रज् + त / वश्चभ्रस्जसृजमृजयज राजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ए’ बनाकर - अभ्रष् + त / ष्टुना ष्टुः से ‘त’ को ष्टुत्व करके = अभ्रष्ट । [[२४२]] थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अभ्रस्ज् + स्था: - अभ्रष्ठाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां - ष: सूत्र से ‘ज्’ को ‘ए’ बनाकर - अभ्रज् + ध्वम् - अभ्रष् + ध्वम् / झलां जश् झशि से ष् को जश्त्व करके - अभ्रड् + ध्वम् / ष्टुना ष्टुः से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अभ्रड् + ढ्वम् = अभ्रड्ढ्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अभ्रस्ज् + साताम् / ‘स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - अभ्रज् + साताम् / वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ष’ बनाकर - अभ्रष् + साताम् / षढो: क: सि सूत्र से ‘द’ को ‘क्’ बनाकर - अभ्रक् + साताम् / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर - अभ्रक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर = अभ्रक्षाताम् । जकारान्त ‘भ्रस्ज् - भ्रज्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अभ्रष्ट अभ्रक्षाताम् अभ्रक्षत अभ्रष्ठा: अभ्रक्षाथाम् अभ्रड्ढ्वम् अभ्रक्षि अभ्रक्ष्वहि अभ्रक्ष्महि दकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अतुद् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अतुद् + त - खरि च सूत्र से ‘द्’ को चर्व ‘त्’ करके - अतुत् । + त = अतुत्त। थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अतुद् + स्था: = अतुत्था:। __धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अतुद् + ध्वम् / झलां जश् झशि से जश्त्व करके - अतुद्ध्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अतुद् + साताम् = अतुत्साताम् । दकारान्त ‘तुद्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अतुत्त अतुत्साताम् अतुत्सत अतुत्था: अतुत्साथाम् अतुद्ध्वम् अतुत्सि अतुत्स्वहि अतुत्स्महि __ अनिट् दकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - विद् - अवित्त / छिद् - अच्छित्त / खिद् - अखित्त / भिद् - अभित्त / क्षुद् - अक्षुत्त / हद् - अहत्त आदि बनाइये। समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २४३ इसका अपवाद - दकारान्त पद धात - । तकारादि प्रत्यय परे होने पर - चिण् ते पद: - पद् धातु से चिण होता है, ‘त’ प्रत्यय परे होने पर। चिण में च, ण की इत् संज्ञा करके इ शेष बचता है - अपद् + स्त / अपद् + चिण् + त / अपद् + इ + त / अब ‘अत उपधाया:’ से उपधा के अ को वृद्धि करके - अपाद् + इ + त - चिणो लुक् - चिण् से परे आने वाले ‘त’ प्रत्यय का लोप होता है। अपाद् + इ + त / त का लोप करके = अपादि। शेष रूप पूर्ववत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अपादि अपत्साताम् अपत्सत अपत्था: अपत्साथाम् अपद्ध्वम् अपत्सि अपत्स्वहि अपत्स्महि धकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयुध् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अयुध् + त / झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अयुध् + ध / झलां जश् झशि सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व ‘द्’ करके - अयुद्ध। थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अयुध् + स्था: = अयुद्धाः। धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयुध् + ध्वम् - झलां जश् झशि सूत्र से ‘ध्’ के स्थान पर, उसी तवर्ग का तृतीयाक्षर जश् ‘द्’ बनाकर - अयुद् + ध्वम् = अयुध्वम्। सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अयुध् + साताम् / खरि च सूत्र से ‘ध्’ को चर्व करके अर्थात् उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘त्’ बनाकर - अयुत् + साताम् = अयुत्साताम् । इसी विधि से सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़िये। __धकारान्त ‘युध्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अयुद्ध अयुत्साताम् . अयुत्सत अयुद्धाः अयुत्साथाम् अयुद्ध्वम् अयुत्सि अयुत्स्वहि अयुत्स्महि अनिट् धकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - रुध् - अरुद्ध आदि बनाइये। [[२४४]] इसका अपवाद - बुध् धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अबुध् + स्त - झलो झलि से स् का लोप करके - अबुध् + त - दीपजनबुधपूरीतायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम् - दीप, जन्, बुध, पूरी, तायू, ओप्यायी, ये धातु आत्मनेपदी हैं। इनसे ‘त’ प्रत्यय परे होने पर विकल्प से चिण् प्रत्यय होता है तथा जो लुङ् लकार प्रथम पुरुष एकवचन का ‘त’ प्रत्यय है उसका चिणो लुक् सूत्र से लोप हो जाता है। … अबुध् + त - अबुध् + चिण् + त / चिण में च्, ण् की इत् संज्ञा करके इ शेष बचता है - अबुध् + इ + त / अब ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ से उपधा के ‘उ’ को गुण करके - अबोध + इ + त / ‘चिणो लुक्’ सूत्र से त का लोप करके = अबोधि। चिण न होने पर - अबुध् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अबुध् + त / झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अबुध् + ध / झलां जश् झशि सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व ‘द्’ करके - अबुद्ध । थकारादि प्रत्यय परे होने पर - अबुध् + स्था: / झलो झलि से स् का लोप करके - अबुध् + था: / झषस्तथोर्थोऽध: सूत्र से प्रत्यय के ‘थ’ को ‘ध’ बनाकर - अबुध् + धा: / झलां जश् झशि सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व ‘द्’ करके - अबुद्धाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अबुध् + ध्वम् / एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वो: सूत्र से ‘ब’ को उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘भ’ बनाकर - अभुध् + ध्वम् / झलां जश् झशि सूत्र से ‘ध्’ के स्थान पर, उसी तवर्ग का तृतीयाक्षर जश् ‘द्’ बनाकर - अभुद् + ध्वम् = अभुद्ध्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अबुध् + साताम् - सकारादि प्रत्यय परे होने पर इसके आदि में जो वर्ग का तृतीयाक्षर ‘ब’ है, उसे ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वो:’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘भ’ बना दीजिये। अभुध् + साताम् / अब अन्तिम ‘ध्’ को खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘त्’ बनाइये। अभुत् + साताम् = अभुत्साताम्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अबोधि / अबुद्ध अभुत्साताम् अभुत्सत अबुद्धा: अभुत्साथाम् अभुध्वम् अभुत्सि अभुत्स्वहि अभुत्स्महि पकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अतिप् + स्त / झलो झलि से स् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २४५ का लोप करके - अतिप् + त / अब ‘खरि च’ सूत्र से चर्व करके ‘प्’ के स्थान पर प्’ ही कीजिये - अतिप्त।
  • थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अतिप् + स्था: = अतिप्था:। धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अतिप् + ध्वम् - झलां जश् झशि सूत्र से प्’ के स्थान पर, उसी तवर्ग का तृतीयाक्षर जश् ‘ब’ बनाकर - अतिब्ध वम्। सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अतिप् + साताम् / खरि च सूत्र से ‘प्’ को चर्व ‘प्’ करके - अतिप् + साताम् = अतिप्साताम्। इसी विधि से सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़िये। तकारान्त ‘तिप्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने अतिप्त अतिप्साताम् अतिप्सत अतिप्था: अतिप्साथाम् अतिब्ध्वम् अतिप्सि अतिप्स्वहि अतिप्स्महि __ अनिट् पकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - शप् - अशप्त / लिप् - अलिप्त / वग् - अवप्त / क्षिप् - अक्षिप्त / त्रप् - अत्रप्त आदि बनाइये। त्रप् धातु चूँकि वेट है अतः इससे सेट् प्रत्यय लगाकर अत्रपिष्ट भी बनेगा। भकारान्त धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अलभ् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अलभ् + त /झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अलभ् + ध / झलां जश् झशि सूत्र से ‘भ’ को जश्त्व ‘ब’ करके - अलब्ध । थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक इसी प्रकार - अलभ् + स्था: = अलब्धाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अलभ् + ध्वम् - झलां जश् झशि सूत्र से ‘भ्’ के स्थान पर, उसी तवर्ग का तृतीयाक्षर जश् ‘ब’ बनाकर - अलब् + ध्वम् = अलब्ध्वम्। सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अलभ् + साताम् / खरि च सूत्र से ‘भ’ को चर्व करके, उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘प्’ बनाकर - अलप् + साताम् = अलप्साताम्। [[२४६]] इसी विधि से सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़िये। भकारान्त ‘लभ्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अलब्ध . अलप्साताम् अलप्सत अलब्धाः अलप्साथाम् अलब्ध्वम् अलप्सि अलप्स्वहि अलप्स्महि अनिट् भकारान्त आत्मनेपदी धातुओं में इसी विधि से सारे प्रत्ययों को जोड़कर - रभ् - अरब्ध आदि बनाइये। हकारान्त नह् धातु - तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - अनह् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अनह् + त / नहो ध: - नह धातु के ह को ध् आदेश होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। अनह् + त - अनध् + त / अब झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के त को ध बनाकर - अनध् + ध / ध् को झलां जश् झशि सूत्र से द् बनाकर - अनद् + ध = अनद्ध । ठीक इसी प्रकार - अनह् + स्था: = अनद्धा: / अनह् + ध्वम् / नहो ध: सूत्र से नह् धातु के ह् को ध् करके - अनध् + ध्वम् / ध् को झलां जश् झशि सूत्र से द् बनाकर - अनद् + ध्वम् = अनद्ध्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अनह् + साताम् / नहो ध: सूत्र से नह धातु के ह को ध् आदेश करके - अनध् + साताम् / ‘ध्’ को खरि च सूत्र से ‘त्’ बनाकर - अनत् + साताम् = अनत्साताम्। हकारान्त नह धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अनद्ध अनत्साताम् अनत्सत अनद्धाः अनत्साथाम् अनद्ध्वम् अनत्सि अनत्स्वहि अनत्स्महि वह् धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अवह् + स्त - झलो झलि से स् का लोप करके - अवह् + त / हो ढ: - ह को ढ् आदेश होता है झल् परे होने पर तथा पदान्त में। अवह + त - अवढ् + त / झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के त को ध बनाकर - अवढ् + ध / प्रत्यय के ध को ष्टुना ष्टु: सूत्र से ढ बनाकर - अवढ् + ढ / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ढ् का लोप करके अव + ढ / सहिवहोरोदवर्णस्य सूत्र से वह के अ को ओ बनाकर = अवोढ । समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २४७ श थकारादि प्रत्यय परे होने पर - ठीक अवोढ के समान - अवह + था: = अवोढा:। धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अवह् + ध्वम् / हो ढ: सूत्र से ह को ढ् बनाकर - अवढ् + ध्वम् / ‘ध्’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ढ’ बनाकर - अवढ् + ढ्वम् / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ढ् का लोप करके अव + ढ्वम् / सहिवहोरोदवर्णस्य सूत्र से वह् के ‘अ’ को ‘ओ’ बनाकर = अवोढ्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अवह् + साताम् / हो ढ: से ह को द् आदेश करके - अवढ् + साताम् - षढो: क: सि से ढ् को क् बनाकर - अवक् + साताम् / आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर - अवक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर = अवक्षाताम्। पूरे रूप इस प्रकार बने अवोढ अवक्षाताम् अवक्षत अवोढा: अवक्षाथाम् अवोढ्वम् अवक्षि अवक्ष्वहि अवक्ष्महि गाह् धातु - तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अगाह् + स्त / झलो झलि से स् का लोप करके - अगाह् + त / हो ढः सूत्र से ह को ढ् बनाकर - अगाद + त / झषस्तथो?ऽध: सूत्र से प्रत्यय के त को ध बनाकर - अगाढ् + १ T / प्रत्यय के ध् को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ढ् बनाकर - अगाढ् + ढ / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ढ् का लोप करके अगा + ढ = अगाढ । थकारादि प्रत्यय परे होने पर - पूर्ववत् अगाह् + स्था: = अगाढाः । धकारादि प्रत्यय परे होने पर - अगाह् + ध्वम् / हो ढ: सूत्र से ह को ढ् बनाकर - अगाढ् + ध्वम् / ‘एकाचो बशो भए झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से बश् को षष्भाव करके - अघाल् + ध्वम् / ‘ध्’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर - अघाल् + ढ्वम् / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ढ् का लोप करके अघा + ढ्वम् = अघाढ्वम् । सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अगाह् + साताम् - ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वो:’ सूत्र से ‘ग’ को उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ’ बनाकर - अघाद + साताम् / ‘द’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अघाक् + साताम्/ आदेशप्रत्यययो: से प्रत्यय के ‘स’ को ‘ष’ बनाकर - अघाक् + षाताम् / क् + ए = क्ष् बनाकर = अघाक्षाताम्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अगाढ अघाक्षाताम् अघाक्षत [[२४८]] अगाढा: अघाक्षाथाम् अगाढ्वम् अघाक्षि अघाक्ष्वहि अघाक्ष्महि __गाह् धातु चूँकि वेट है अतः इससे सेट् प्रत्यय लगाकर अगाहिष्ट भी बनेगा। यह हलन्त अनिट् आत्मनेपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। अब परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनायें - परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि प्रत्यय लगाने के पूर्व यहाँ दो विचार करना अत्यावश्यक है। १. धातुओं का निर्णय - २१४ से २१६ पृष्ठ पर देखकर यह स्पष्ट निर्धारण कीजिये, कि सिच् से बने हुए लुङ् लकार के परस्मैपदी प्रत्यय किन किन धातुओं से लगाये जायें। २. इडागम का निर्णय - २०९ से २१४ पृष्ठ पर देखकर यह स्पष्ट निर्धारण कीजिये, कि किन धातुओं से सेट् प्रत्यय लगाये जायें, तथा किन ६ तुओं से अनिट् प्रत्यय लगाये जायें। परस्मैपदी प्रत्यय इस प्रकार हैं - लुङ् लकार के सिच् बने हुए अनिट् परस्मैपदी प्रत्यय सीत् स्ताम् सी: स्तम् सम् स्म लुङ् लकार के इट् + सिच् बने हुए सेट् परस्मैपदी प्रत्यय ईत् इष्टाम् इषु: ई: इष्टम् इष्ट इषम् इष्व . इष्म अब हम परस्मैपदी धातुओं का इस प्रकार पाँच खण्डों में विभाजन करके, उनके लुङ् लकार के रूप बनायें - १. कुटादि परस्मैपदी धातु। २. कुटादि धातुओं से बचे हुए, अजन्त अनिट् परस्मैपदी धातु । ३. कुटादि धातुओं से बचे हुए, अजन्त सेट् परस्मैपदी धातु। ४. कुटादि धातुओं से बचे हुए, हलन्त अनिट् परस्मैपदी धातु। ५. कुटादि धातुओं से बचे हुए, हलन्त सेट् परस्मैपदी धातु । अब हम क्रमशः इनके रूप बनायें - स्त स्व समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २४९

१. कुटादि परस्मैपदी धातुओं के रूप बनाने की विधि

गाङ्कुटादिम्योऽञ्णिन्डित् - गाङ् धातु से तथा तुदादिगण के अन्तर्गत जो कुट से लेकर कुङ तक ३६ धातुओं का कुटादिगण है, उस कुटादिगण में आने वाले धातुओं से परे आने वाला जित् णित् से भिन्न प्रत्यय ङित्वत् मान लिया जाता है। कुटादि धातु इस प्रकार हैं - कु गु ध्रु नू धू कड् डिप् कुच् गुज् । कुट घुट चुट छुट् जुट तुट पुट् मुट् त्रुट लुट् स्फुट कुड् क्रुड् गुड् चुड् तुड् थुड् पुड् छड् स्थुड् स्फुड् गुर् छुर् स्फुर् स्फुल् कृड् मृड्। इनमें से कुङ् धातु आत्मनेपदी है, इसका विचार उकारान्त अनिट आत्मनेपदी धातुओं में २३१ पृष्ठ पर किया जा चुका है। यहाँ हम परस्मैपदी कुटादि धातुओं का विचार करें। उनमें से भी पहिले कुट से गुर् तक, ३१ हलन्त कुटादि धातुओं के रूप बनायें। ये सारे धातु परस्मैपदी धातु हैं तथा सेट हैं। अतः इनसे सेट परस्मैपदी प्रत्यय लगाइये। _ अकुट + ईत् - गाकुटादिम्योऽञ्णिन्डित् सूत्र से प्रत्यय के ङित् होने के कारण ‘डिति च’ सूत्र से इनके ‘इक्’ को गुणनिषेध करके, इनमें बिना किसी परिवर्तन के प्रत्यय सीधे जोड़ दीजिये - अकुट् + ईत् = अकुटीत् / अकुट् + इष्टाम् = अकुटिष्टाम्, आदि। इनके पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अकुटीत् अकुटिष्टाम् अकुटिषु: अकुटी: अकुटिष्टम् अकुटिष्ट अकुटिषम् अकुटिष्व अकुटिष्म कुट से गुर् तक, ३१ हलन्त धातुओं के रूप इसी प्रकार बनायें। __णू, धू धातु - अब कुटादिगण के णू, धू धातुओं के रूप बनाइये। ‘णो न:’ सूत्र से णू को नू बना लीजिये। ऊकारान्त सारे के सारे धातु सेट ही होते हैं, अतः इनसे भी सेट् प्रत्यय ही लगाइये - अनू + ईत् / प्रत्यय के डित्वत् होने के कारण क्डिति च’ सूत्र इनके इक् को गुणनिषेध करके, ‘अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ’ सूत्र से ‘ऊ’ को ‘उवङ्’ आदेश करके - अनू + ईत् - अनुव् + ईत् = अनुवीत् । __ ‘नू’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अनुवीत् अनुविष्टाम् अनुविषु: अनुवी: अनुविष्टम् . अनुविष्ट [[२५०]] अग __ + अगु

अनुविषम् अनुविष्व अनुविष्म ‘धू’ धातु के पूरे रूप भी ठीक इसी प्रकार बने - अधुवीत् अधुविष्टाम् अधुविषुः अधुवी: अधुविष्टम् अधुविष्ट अधुविषम् अधुविष्व अधुविष्म गु, ध्रु धातु - ये धातु अनिट् हैं। इनमें अनिट् प्रत्यय ही लगाइये। प्रत्यय के ‘स’ को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व कीजिये। __ + सीत् = अगुषीत् __+ सुः = अगुषु: अगु + सी: = अगुषी: अगु + सम् = अगुषम् अग + स्व = अगुष्व अगु . + स्म = अगुष्म अगु + स्ताम् - ‘हूस्वादङ्गात्’ सूत्र से प्रत्यय के स् का लोप करके - अगु + ताम् = अगुताम् । इसी प्रकार - अगु + स्तम् = अगु + तम् = अगुतम् अगु + स्त = अगु + त = अगुत ‘गु’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अगुषीत् अगुताम् । अगुषुः अगुतम् अगुषम् अगुष्व अगुष्म ठीक इसी प्रकार से ध्रु के रूप बनाइये। अधुषीत् अधुताम् अध्रुषुः अध्रुषी: अधुतम् अध्रुषम् अध्रुष्व अधुष्म हमने कुटादिगण के ३५ धातुओं के रूप बना लिये हैं।

२. कुटादिगण के धातुओं से बचे हुए, अजन्त अनिट् परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

अजन्त परस्मैपदी धातुओं के रूप बनाने के लिये पहिले हम इस सूत्र का अर्थ अच्छी तरह बुद्धिस्थ कर लें - सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु - इगन्त अङ्ग को वृद्धि होती है, सेट तथा + अगुषी: अगुत अधुत समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २५१ अनिट् परस्मैपदसंज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। वृद्धि होने का अर्थ है - इ, को ऐ हो जाना / उ को औ हो जाना / ऋ को आर् हो जाना। _इस सूत्र का उपयोग सेट, अनिट् दोनों ही प्रकार के, अजन्त परस्मैपदी धातुओं में कीजिये। अब हम अजन्त अनिट् परस्मैपदी धातुओं के रूप बनायें __ आकारान्त परस्मैपदी धातुओं से चूँकि ‘सक् + इट् + सिच्’ से बने हुए प्रत्यय लगते हैं, अतः हम इकारान्त से प्रारम्भ कर रहे हैं। इकारान्त अनिट् धातु - अ जि + सीत् / सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु से वृद्धि होकर - अ जै + सीत् / आदेशप्रत्यययो: से षत्व होकर - अ जै + षीत् = अजैषीत् । पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अजैषीत् अजैष्टाम् अजैषु: अजैषी: अजैष्टम् अजैष्ट अजैषम् अजैष्व अजैष्म ईकारान्त अनिट् धातु - अनी + सीत् / सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु से वृद्धि होकर - अनै + सीत्, आदेशप्रत्यययो: से षत्व होकर - अनै + षीत् = अनैषीत् । पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अनैषीत् अनैष्टाम् अनैषुः अनैषी: अनैष्टम् अनैष्ट अनैषम् अनैष्व अनैष्म उकारान्त अनिट् धातु - अ हु + सीत् / सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु से वृद्धि होकर - अहौ + सीत्, आदेशप्रत्यययो: से षत्व होकर - अहौ + षीत् = अहौषीत् । पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अहौषीत् अहौष्टाम् अहौषुः अहौषी: अहौष्टम् अहौष्ट अहौषम् अहौष्व (ध्यान रहे कि ऊकारान्त सारे धातु सेट होते हैं।) ऋकारान्त अनिट् धातु - अकृ + सीत् / सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु से वृद्धि होकर - अकार् + सीत् / आदेशप्रत्यययो: से षत्व होकर - अकार् + षीत् = अकार्षीत् । पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अकार्षीत् अकार्टाम् अकार्षुः अकार्षीः अकाष्टम् अकाट अहौष्म२५२ ᳕ अकार्षम् अकार्व अकार्म यह सारे अजन्त अनिट् परस्मैपदी धातुओं के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

३. कुटादिगण के धातुओं से बचे हुए, अजन्त सेट् परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

आकारान्त सेट् धातु - आकारान्त धातुओं में, केवल एक दरिद्रा’ धातु अनेकाच् होने से सेट है। दरिद्रा + ईत् - दरिद्रातरार्धधातुके विवक्षिते आल्लोपो वाच्यः - दरिद्रा धातु से आर्धधातुक प्रत्यय विवक्षित होने पर दरिद्रा के ‘आ’ का लोप होता है। लुङि वा - लुङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर यह लोप विकल्प से होता है। अदरिद्रा + ईत् - अदरिद् + ईत् = अदरिद्रीत् । इसी प्रकार शेष रूप बनाइये। दरिद्रा के ‘आ’ का लोप होने पर पूरे रूप इस प्रकार बनेंगे - अदरिद्रीत् अदरिद्रिष्टाम् अदरिद्रिषु: अदरिद्री: अदरिद्रिष्टम् अदरिद्रिष्ट अदरिद्रिषम् अदरिद्रिष्व अदरिद्रिष्म दरिद्रा के ‘आ’ का लोप न होने पर - ‘सक् + इट् + सिच्’ से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। अदरिद्रा + सीत् - अदरिद्रा + सीत् = अदरिद्रासीत्। इसी प्रकार शेष रूप बनाइये। अदरिद्रासीत् अदरिद्रासिष्टाम् अदरिद्रासिषु: अदरिद्रासी: अदरिद्रासिष्टम् अदरिद्रासिष्ट अदरिद्रासिषम् अदरिद्रासिष्व अदरिद्रासिष्म इकारान्त सेट् धातु - इकारान्त धातुओं में, केवल शिव, श्रि, ये दो धातु ही सेट होते हैं। इनमें से श्रि धातु से ‘चङ् से बने हुए प्रत्यय’ लगाये जाते हैं, जो कि बतलाये जा चुके हैं। शिव धातु बतला रहे हैं। शिव धातु - ध्यान रहे कि शिव धातु से ‘अङ् से बने हुए प्रत्यय’, ‘चङ् से बने हुए प्रत्यय’ तथा ‘सिच् से बने हुए प्रत्यय’ लगते हैं। _ अङ् लगाकर हम अश्वत् बना चुके हैं। चङ् लगाकर अण्यन्त श्वि धातु से अशिश्वियत् बना चुके हैं तथा ण्यन्त शिव धातु से अशिश्वयत् बना चुके हैं। अब सेट सिच् प्रत्यय लगाकर रूप बनायें। ह्मयन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम् - हकारान्त, मकारान्त यकारान्त, समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २५३ क्षण, श्वस्, जागृ, ण्यन्त शिव और एदित् धातुओं के अच् को वृद्धि नहीं होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। अतः इसे वृद्धि न होकर सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण होता है। श्वि - अश्वि + ईत् / सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - अश्वे + ईत् । एचोऽयवायावः से अय् आदेश करके - अश्वयीत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - .. अश्वयीत् अश्वयिष्टाम् अश्वयिषुः अश्वयी: अश्वयिष्टम् अश्वयिष्ट अश्वयिषम् अश्वयिष्व अश्वयिष्म उकारान्त सेट् धातु - नु - अनु + ईत् / ‘सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु’ सूत्र से वृद्धि करके - अनौ + ईत् / अब एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके - अनाव् + ईत् = अनावीत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अनावीत् अनाविष्टाम् अनाविषु: अनावी: अनाविष्टम् अनाविष्ट अनाविषम् अनाविष्व अनाविष्म इसके अपवाद - ऊर्ण धातु - इसके तीन प्रकार के रूप बनते हैं। हमने अतिदेश सूत्रों में ‘विभाषोर्णो:’ सूत्र पढ़ा है। इसके अनुसार ऊर्ण धातु से परे आने वाला इडादि प्रत्यय डित्वत् होता है। सारे सेट परस्मैपदी प्रत्यय ‘सिच’ से बने हुए हैं, । ‘सिच्’ से बने हुए होने के कारण, ये प्रत्यय ‘विभाषोर्णो:’ सूत्र से डित्वत् हो जाते हैं। डित् होने का फल यह होता है कि ‘क्डिति च’ सूत्र से इगन्त अङ्ग को गुण का निषेध हो जाता है। जब गुणनिषेध हो जाता है तब अजादि प्रत्यय परे होने पर ‘अचिश्नुधातुध्रुवां य्वोरियडुवडौ’ सूत्र से अङ्ग के अन्तिम इ, ई को इयङ् तथा उ, ऊ को उवङ् आदेश होते है। ऊर्गु + ईत् / ‘अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ’ सूत्र से उवङ् आदेश करके - ऊर्गुव् + ईत् ।। __यह धातु अजादि है अतः इसे अट का आगम न होकर आडजादीनाम् सूत्र से आट का आगम होता है। आ + ऊर्गुव् + ईत् । अब आटश्च सूत्र से वृद्धि करके - और्णव् + ईत् = औMवीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - [[२५४]] औMविष्टाम् औMविषुः औMवी: औMविष्टम् औणुविष्ट औणुविषम् औणुविष्व औणुविष्म ऊर्णोतेर्विभाषा - इडादि परस्मैपदसंज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर, ऊर्गु धातु को विकल्प से गुण और वृद्धि होते हैं। अतः इसे एक बार गुण होगा तथा एक बार वृद्धि भी होगी। गुण होने पर - आ + ऊर्गु + ईत् / गुण करके - आ + ऊर्जा + ईत् / एचोऽयवायावः से अव् आदेश करके - आ + ऊणव् + ईत् । अब आटश्च सूत्र से आ + ऊ को वृद्धि करके और्णवीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने और्णवीत् और्णविष्टाम् और्णविषु: और्णवी: और्णविष्टम् और्णविष्ट और्णविषम् और्णविष्व और्णविष्म वृद्धि होने पर - आ + ऊर्गु + ईत्। वृद्धि करके - आ + ऊर्णी + ईत् / एचोऽयवायावः से आव् आदेश करके - आ + ऊर्णाव् + ईत् । अब आटश्च सूत्र से आ + ऊ को वृद्धि करके और्णावीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने और्णावीत् मौर्णाविष्टाम् और्णाविषु: और्णावी: और्णाविष्टम् और्णाविष्ट और्णाविषम् और्णाविष्व और्णाविष्म इस प्रकार ऊर्ण के रूप तीन प्रकार से बनते हैं। गुण करके, वृद्धि करके, तथा उवङ् करके। ऊकारान्त सेट् धातु - पू - अपू + ईत् / ‘सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु’ सूत्र से वृद्धि करके - अपौ + ईत् / अब एचोऽयवायावः सूत्र से आव् आदेश करके - अपाव् + ईत् = अपावीत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अपावीत् अपाविष्टाम् अपाविषु: अपावी: अपाविष्टम् अपाविष्ट अपाविषम् अपाविष्व अपाविष्म ऋकारान्त सेट् धातु - वृञ् - अवृ + ईत् / ‘सिचि वृद्धि: परस्मैपदेषु’ सूत्र से वृद्धि करके - अवार् + ईत् = अवारीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अवारीत् अवारिष्टाम् अवारिषु: समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २५५ अवारी: अवारिष्टम् अवारिष्ट अवारिषम् अवारिष्व अवारिष्म इसके अपवाद - जागृ धातु - ह्मयन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम् - हकारान्त, मकारान्त यकारान्त, क्षण, श्वस्, जागृ, ण्यन्त शिव और एदित् धातुओं के अच् को वृद्धि नहीं होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। अतः इसे वृद्धि न होकर सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण ही होता है। जागृ - अजागृ + ईत् - सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - अजागर् + ईत् = अजागरीत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अजागरीत् अजागरिष्टाम् अजागरिषु: अजागरी: अजागरिष्टम् अजागरिष्ट अजागरिषम् अजागरिष्व अजागरिष्म ऋकारान्त सेट् धातु - → - अजृ + ईत् / ‘सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु’ सूत्र से वृद्धि करके - अजार् + ईत् = अजारीत्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अजारीत् अजारिष्टाम् अजारिषु: अजारी: अजारिष्टम् अजारिष्ट अजारिषम् अजारिष्व अजारिष्म यह सारे अजन्त परस्मैपदी धातुओं में सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाकर, लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

४. कुटादि धातुओं से बचे हुए हलन्त अनिट् परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

हलन्त धातुओं के रूप बनाने के पहिले अङ्गकार्यों का विचार कीजिये

अङ्गकार्य

परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने के लिये अष्टाध्यायी में ७.२.१ से लेकर ७.२.७ तक, सात सूत्र हैं। इनमें से दो सूत्र हम अजन्त धातुओं में पढ़ चुके हैं, तथापि तारतम्य के लिये यहाँ उन्हें भी दे रहे हैं, ताकि इन्हें एक साथ याद किया जा सके। इनके अर्थ यहीं बुद्धिस्थ कर लें १. सिचि वृद्धिः परस्मैपदेषु - इगन्त अङ्ग को वृद्धि होती है परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। वृद्धि होने का अर्थ है - इ, को ऐ हो जाना / उ को औ हो जाना / ऋ को आर् हो जाना। [[२५६]] . इस सूत्र का उपयोग सेट, अनिट् दोनों ही प्रकार के अजन्त परस्मैपदी धातुओं में कीजिये। __२. अतो लान्तस्य - लान्त, रान्त धातुओं के लघु ‘अ’ को वृद्धि होती है, परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। ३. वदव्रजहलन्तस्याच: - वद्, व्रज् तथा हलन्त धातुओं के अच् को वृद्धि होती है, परस्मैपदसंज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। __ इस सूत्र का उपयोग वद्, व्रज्, इन दो सेट हलन्त परस्मैपदी धातु तथा सारे अनिट् हलन्त परस्मैपदी धातुओं में कीजिये। ४. नेटि - हलन्त सेट् धातुओं के अच् को वृद्धि न होकर पुगन्तलघू पधस्य च सूत्र से गुण होता है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र का उपयोग सेट हलन्त परस्मैपदी धातुओं में कीजिये। ५.ह्मयन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम् - हकारान्त, मकारान्त यकारान्त, क्षण, श्वस्, जागृ, ण्यन्त शिव और एदित् धातुओं के अच् को वृद्धि नहीं होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। ६. ऊोतेर्विभाषा - ऊर्गु धातु को विकल्प से वृद्धि होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। ७. अतो हलादेर्लघो: - हलादि धातुओं के लघु अकार को विकल्प से वृद्धि होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। इस सूत्र का उपयोग सेट् हलन्त परस्मैपदी धातुओं में कीजिये। अब हम अनिट् हलन्त परस्मैपदी धातुओं के रूप बनायें - जिन अनिट् हलन्त धातुओं में लुङ् लकार के सिच् से बने हुये अनिट् परस्मैपदी प्रत्यय लगाना है, वे धातु इस प्रकार हैं - हलन्त अनिट् परस्मैपदी धातु त्यज् तप् स्वप् य वस् दह् भुज् रुज् नुद् छुप् तृप् दृप् सृज् दृश् मृश् स्पृश् कृष् प्रच्छ् भऽ सज् मस्ज् स्कन्द् बन्ध् दंश् = २४ __हलन्त उभयपदी अनिट् धातु । पच् भज् यज् वा शप् नह वह रिच विच् निज विज् छिद् भिद् क्षिप् युज् क्षुद् तुद् रुध् रहे भ्रस्ज् = २० समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २५७ हलन्त वेट धातु तृप्, दृप्, से एक पक्ष में सिच् से बने हुए अनिट् प्रत्यय लगेंगे। एक पक्ष में सिच् से बने हुए सेट् प्रत्यय लगेंगे, एक पक्ष में अङ् प्रत्यय लगेंगे। निर् + कुष् - इससे इडागम होने पर सिच् से बने हुए प्रत्यय लगेंगे। इडागम न होने पर क्स से बने हुए प्रत्यय लगेंगे। असू, तक्षू, त्वल, अशू, तृन्हू, षिधू, गुपू, ओव्रश्चू । इन आठ धातुओं से एक पक्ष में सिच् से बने हुए अनिट् प्रत्यय लगेंगे। एक पक्ष में सिच् से बने हुए सेट् प्रत्यय लगेंगे। अब इनमें सिच् से बने हुए अनिट् परस्मैपदी प्रत्यय लगाकर इनके रूप बनायें - प्रत्यय के स् का लोप झलो झलि - झल् से परे आने वाले ‘स्’ का लोप होता है, झल् परे होने पर। तात्पर्य यह है कि जैसे आत्मनेपद के स्त, स्था:, प्रत्ययों के स् का लोप किया था, उसी प्रकार झल् से परे आने वाले, परस्मैपद के स्ताम्, स्तम्, स्त, प्रत्ययों के स् का लोप हो जाता है। अपच् + स्ताम् = अपच् + ताम् अपच् + स्तम् = अपच् + तम् अपच् + स्त = अपच् + त, आदि । अब देखिये कि परस्मैपद के स्त, स्तम्, स्ताम्, ये ३ प्रत्यय तकारादि हो गये हैं। शेष सीत्, सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, ये ६ प्रत्यय सकारादि ही हैं। इस प्रकार प्रत्ययों के सकारादि प्रत्यय तथा तकारादि प्रत्यय, ऐसे दो वर्ग करके, अब हम हलन्त अनिट् धातुओं के रूप क्रमशः बनायें। ध्यान रहे कि हम, पहिले अङ्गकार्य करें, उसके बाद, स्त, स्तम्, स्ताम्, प्रत्ययों के ‘स्’ का लोप करें। उसके बाद सन्धि करके रूप बना लें। अनिट् चकारान्त, पच्, रिच, विच् धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अपच् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अपाच् + सीत् / चो:कुः से कुत्व करके - अपाक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व करके - अपाक् + षीत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाकर = अपाक्षीत्। [[२५८]] सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अपच् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अपाच् + स्ताम / झलो झलि से स् का लोप करके - अपाच् + ताम् / चो:कु: से कुत्व करके - अपाक् + ताम् = अपाक्ताम् । इसी प्रकार - अपच् + स्तम् = अपाक्तम् / अपच् + स्त = अपाक्त / बनाइये। पच् के पूरे रूप इस प्रकार बने - अपाक्षीत् अपाक्ताम् अपाक्षुः अंपाक्षी: अपाक्तम् अपाक्त अपाक्षम् अपाक्ष्व अपाक्ष्म रिच्, विच्, धातु उभयपदी हैं। परस्मैपद में इन धातुओं के रूप इसी प्रकार बनाइये - अरिच् + सीत् - अरैच् + सीत् - अरैक्षीत् अविच् + सीत् - अवैच् + सीत् - अवैक्षीत् इनके आत्मनेदी रूप बनाने की प्रक्रिया, आत्मनेपद में बतलाई जा चुकी है। उसे वहीं देखें। इसके अपवाद - वेट व्रश्च् धातु - इससे, सेट / वेट, दोनों ही प्रत्यय लग सकते हैं - इडागम न होने पर - सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अवश्च् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अव्राश्च् + सीत् / ‘स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित स्’ का लोप करके - अव्राच् + सीत् / अब अन्त में आने वाले ‘च’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज राजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अव्राष् + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो; क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अवाक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अवाक् + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर = अव्राक्षीत्। __सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। तकारादि प्रत्यय परे होने पर - . समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २५९ अवश्च + स्ताम - वदव्रजहलन्तस्याच: से वद्धि करके - अव्राश्च + स्ताम् / ‘स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित स्’ का लोप करके - अव्राच् + स्ताम् / अब अन्त में आने वाले ‘च’ को ‘वश्चभ्रस्जसृज मृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अव्राष् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अव्राष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अव्राष् + टाम् = अव्राष्टाम्। इसी प्रकार - अवश्च् + स्तम् = अव्राष्टम् / अवश्च् + स्त = अव्राष्ट / बनाइये। ध्यान दें कि इडागम होने पर - अव्रश्च् + ईत् = अवश्चीत् आदि रूप बनेंगे। पूरे रूप इस प्रकार बने - इडागम न होने पर इडागम होने पर अव्राक्षीत् अव्राष्टाम् अव्राक्षुः अवश्चीत् अवश्चिष्टाम् अवश्चिषु: अवाक्षी: अव्राष्टम् अव्राष्ट’ अवश्ची: अवश्चिष्टम् अवश्चिष्ट अव्राक्षम् अवाक्ष्व अव्राक्ष्म अवश्चिषम् अवश्चिष्व अवश्चिष्म अनिट् छकारान्त प्रच्छ् धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अप्रच्छ् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अप्राच्छ् + सीत् / अब अन्त में आने वाले च्छ’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अप्राष् + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अप्राक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अप्राक् + षीत् / क् + को मिलाकर क्ष् बनाकर = अप्राक्षीत् । सः सी. सम स्व स्म इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये।। तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अप्रच्छ + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अप्राच्छ् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अप्राच्छ + ताम् / अब अन्त में आने वाले च्छ’ को ‘वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अप्राष् + स्ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अप्राष् + टाम् = अप्राष्टाम्। इसी प्रकार - अप्रच्छ् + स्तम् = अप्राष्टम् / अप्रच्छ् + स्त = अप्राष्ट / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - [[२६०]] अप्राक्षीत् - अप्राष्टाम् अप्राक्षुः अप्राक्षी: अप्राष्टम् अप्राष्ट अप्राक्षम् अप्राक्ष्व अप्राक्ष्म अनिट् जकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर - अत्यज् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अत्याज् + सीत् - चो:कु: से कुत्व करके - अत्याग् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके - अत्याक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व करके - अत्याक् + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर = अत्याक्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। तकारादि प्रत्यय परे होने पर - अत्यज् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अत्याज् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अत्याज् + ताम् / चो:कु: से कुत्व करके - अत्याग् + ताम् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके - अत्याक् + ताम् = अत्याक्ताम् । इसी प्रकार - अत्यज् + स्तम् = अत्याक्तम् / अत्यज् + स्त = अत्याक्त बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अत्याक्षीत् अत्याक्ताम् अत्याक्षु: अत्याक्षी: अत्याक्तम् अत्याक्त अत्याक्षम् अत्याक्ष्व अत्याक्ष्म इसी प्रकार सारे जकारान्त अनिट् परमैपदी धातुओं के रूप बनाइये अयुज् + सीत् - अयौज् + सीत् - अयौक्षीत् अविज् + सीत् - अवैज् + सीत् - अवैक्षीत् अनिज् + सीत् - अनैज् + सीत् - अनैक्षीत् अरुज् + सीत् - अरौज् सीत् - अरौक्षीत् अभुज सीत् - अभौज सीत् - अभौक्षीत् अयज् सीत् -. अयज् सीत् - अयाक्षीत् अभज् + अभज् अभाक्षीत् असङ्ग् + असा सीत् - असाङ्क्षीत् अभञ् + सीत् - अभाङ्ग् + सीत् - अभाङ्क्षीत् + + + + + + + समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २६१ अरञ्ज् + सीत् - अराज् + सीत् - अराङ्क्षीत् इसके अपवाद - वेट मृज् धातु - इससे, सेट / अनिट, दोनों ही प्रत्यय लग सकते हैं। इडागम न होने पर, वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके, इसके रूप बिल्कुल ऊपर कहे गये, छकारान्त ‘प्रच्छ्’ धातु के समान ही बनाइये। इडागम होने पर, इसे ‘मृजेर्वृद्धि:’ सूत्र से वृद्धि कीजिये। पूरे रूप इस प्रकार बने - इडागम न होने पर इडागम होने पर अमाीत् अमाष्र्टाम् अमाझुः अमार्जीत् अमार्जिष्टाम् अमार्जिषु: अमाीः अमाष्टम् अमाष्टं अमार्जी: अमार्जिष्टम् अमार्जिष्ट अमाक्षम् अमाव॑ अमाद्म अमार्जिषम् अमार्जिष्व अमार्जिष्म अनिट् मज्ज् धातु - मस्जिनशोझलि - मस्ज् तथा नश् धातु को झल्द प्रत्यय अर्थात् अनिट् ‘सिच्’ प्रत्यय, परे होने पर नुम् का आगम होता है। विशेष - इनमें से नश् धातु को होने वाला नुम् ‘मिदचोऽन्त्यात्परः’ सूत्र से अन्तिम अच् के बाद में होता है, किन्तु मस्ज् धातु को होने वाला नुम् ‘मस्जेरन्त्यात्पूर्वो नुम् वाच्यः’ इस वार्तिक से अन्तिम वर्ण के पूर्व में होता है। अमस्ज् + सीत् - मस्जिनशोझलि से नुमागम करके - अमस्नुज् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अमास्न्ज् + सीत् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - अमान्ज् + सीत् / चो:कु: से कुत्व करके - अमान्ग् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके - अमान्क् + सीत् / नश्चापदान्तस्य झलि से न् को अनुस्वार करके - अमांक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से षत्व करके - अमाक् + षीत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाकर = अमाक्षीत् / अनुस्वार को ‘अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः’ सूत्र से परसवर्ण करके - अमाङ्क्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अमंज् + स्ताम् / मस्जिनशोझलि से नुमागम करके - अमस्न्ज् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अमास्न्ज् + स्ताम् / झलो झलि से प्रत्यय के स् का लोप करके - अमास्नुज् + ताम् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित स्’ का लोप करके - अमान्ज् + ताम् ᳕ / चो:कुः से कुत्व करके - अमान्ग् + ताम् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ग्’ को चर्व करके - अमान्क् + ताम् / नश्चापदान्तस्य झलि से न् को अनुस्वार करके - अमांक् + ताम् = अमक्ताम् । इसी प्रकार - अमंज् + स्तम् = अमाक्तम् / अमंज् + स्त = अमाक्त / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अमांक्षीत् अमांक्ताम् अमांक्षुः अमांक्षी: अमांक्तम् अमांक्त अमांक्षम् अमांव अमांक्ष्म अनिट् सृज् धातु - सृजिदृशोर्झल्यमकिति - सृज् तथा दृश्, इन दो अनिट् ऋदुपध धातुओं को झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर अम् का आगम होता है। अम् का आगम करके इनकी उपधा के ऋ को र बनाइये। असृज् + सीत् - अस्रज् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अस्राज् + सीत् / अब अन्त में आने वाले ज्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अस्राष् + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अस्राक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अस्राक् + षीत् / क् + को मिलाकर क्ष् बनाकर = अस्राक्षीत्। सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। __ अस्रज् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अस्राज् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अस्राज् + ताम् / अब अन्त में आने वाले ‘ज’ को ‘वश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अस्राष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अस्राष् + टाम् = अस्राष्टाम्। पूरे रूप इस प्रकार बने - अस्राक्षीत् अस्राष्टाम् अस्राक्षुः अस्राक्षी: अस्राष्टम् अस्राष्ट अस्राक्षम् अस्त्राक्ष्व अस्त्राक्ष्म अनिट् भ्रस्ज् धातु - समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २६३ भ्रस्जो रोपधयो: रमन्यतरस्याम् - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर भ्रस्ज् धातु के ‘र’ तथा उपधा के स्थान पर, विकल्प से ‘रम्’ होता है। ‘रम्’ होकर भ्रस्ज् को भर्ख हो जाता है - रम् होकर भर्ज बनने पर - अभ— + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभा + सीत् / व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष: सूत्र से ज्’ को ‘ष’ बनाकर - अभा; + सीत् / अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अभा + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अभा + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर = अभाीत्। सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। __ अभर्ज + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभा + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अभा + ताम् / अब अन्त में आने वाले ‘ज्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अभाष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अभा + टाम् = अभाष्र्टाम्। इसी प्रकार - अभर्ज + स्तम् = अभाटम् / अभयृ + स्त = अभाट । रम् न होकर भ्रस्ज् को भ्रस्ज् ही रहने पर - अभ्रस्ज् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभ्रास्ज् + सीत् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - अभ्राज् + सीत् / अब अन्त में आने वाले ‘ज्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अभ्राष् + सीत् / अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अभ्राक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अभ्राक् + षीत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाकर = अभ्राक्षीत् । सुः, सी., सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अभ्रस्ज् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभ्रास्ज् + स्ताम् / झलो झलि से प्रत्यय के स् का लोप करके - अभ्रास्ज् + ताम् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित स्’ का लोप करके - अभ्राज् + स्ताम् / अब अन्त में आने वाले ‘ज्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां [[२६४]] ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अभ्राष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अभ्राष् + टाम् = अभ्राष्टाम्। इसी प्रकार - अभ्रस्ज् + स्तम् = अभ्राष्टम् / अभ्रस्ज् + स्त = अभ्राष्ट बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - भ्रस्ज् को भ्रस्ज् ही रहने पर भ्रस्ज् को भर्ज आदेश होने पर अभ्राक्षीत् अभ्राष्टाम् अभ्राक्षुः अभाीत् अभार्टाम् अभाभुः अभ्राक्षी: अभ्राष्टम् अभ्राष्ट अभाी: अभाटम् अभाट अभ्राक्षम् अभ्राक्ष्व अभ्राक्ष्म अभार्भम् अभाव अभाह्म अनिट् दकारान्त धातु - अभिद् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभैद् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘द्’ को चर्व करके - अभैत् + सीत् = अभैत्सीत्। सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अभिद् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अभैद् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अभैद् + ताम् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘द्’ को चर्व करके - अभैत् + ताम् = अभैत्ताम् । इसी प्रकार - अभिद् + स्तम् = अभैत्तम् / अभिद् + स्त = अभैत्त बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अभैत्सीत् अभैत्ताम् अभैत्सुः अभैत्सी: अभैत्तम् अभैत्त अभैत्स्व अभैत्स्म। इसी प्रकार - अक्षुद् + सीत् - अक्षौद् + सीत् - अक्षौत्सीत् अस्कन्द् + सीत् - अस्कान्द् + सीत् __ - अस्कान्त्सीत् अनुद् + सीत् - अनौद् + सीत् - अनौत्सीत् अतुद् + सीत् - अतौद् + सीत् - अतौत्सीत् अच्छिद् + सीत् - अच्छैद् + सीत् - अच्छेत्सीत् अनिट् धकारान्त धातु - अरुध् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अरौध् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ध्’ को चर्व करके - अरौत् + सीत् = अरौत्सीत् । अभैत्सम् समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २६५ सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अरुध् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अरोध् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अरौध् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अरौध् + धाम् / ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व करके - अरौद् + धाम् = अरौद्धाम् । इसी प्रकार - अरुध् + स्तम् = अरौद्धम् / अरुध् + स्त = अरौद्ध / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अरौत्सीत् अरौद्धाम् अरौत्सुः अरौत्सी: अरौद्धम् अरौद्ध अरौत्सम अरौत्स्व अरौत्स्म इसके अपवाद - बन्ध् धातु - जिन धातुओं के आदि में ‘बश्’ हो, तथा अन्त में ‘भष्’ हो, उस धातु के आदि में स्थित तृतीयाक्षर को, ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः ’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर होता है। अबन्घ् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अबान्ध् + सीत् / ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से ‘ब’ को ‘भ’ बनाकर - अभान्ध् + सीत् / अन्तिम ‘ध्’ को ‘खरि च’ सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘त्’ बनाकर - अभान्त् + सीत् = अभान्त्सीत्। सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अबन्ध् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अबान्ध + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अबान्ध् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अबान्ध् + धाम् / ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व करके - अबान्द् + धाम् = अबान्द्धाम् । इसी प्रकार - अबन्ध् + स्तम् = अबान्द्धम् / अबन्ध् + स्त = अबान्ध / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अभान्त्सीत् अबान्द्धाम् अभान्त्सुः अभान्त्सी: अबान्द्धम् अबान्द्ध [[२६६]] अभान्त्सम् अभान्त्स्व अभान्त्स्म अनिट् पकारान्त धातु - अतप् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अताप् + सीत् = अताप्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अतप् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अताप् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अताप् + ताम् = अताप्ताम् । इसी प्रकार - अतप् + स्तम् = अताप्तम् / अतप् + स्त = अताप्त / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अताप्सीत् अताप्ताम् अताप्सुः अताप्सी: अताप्तम् अताप्त अताप्सम् अताप्स्व अताप्स्म। इसी प्रकार - अक्षिप् + सीत् - अझैप् + सीत् - अझैप्सीत् अच्छप् + सीत् - अच्छाप् + सीत् - अच्छौप्सीत अस्वप् + सीत् - अस्वाप् + सीत् - अस्वाप्सीत् अशप् + सीत् - अशाप् + सीत् - अशाप्सीत् अवप् + सीत् - . अवाप् + सीत् - अवाप्सीत् । दिवादिगण के वेट् तृप्, दृप् धातु - अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् - ऋदुपध अनिट् धातुओं को, झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर, विकल्प से अम् का आगम होता है। अम् का आगम होने पर - अतृप् + सीत् - अत्रप् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अत्राप् + सीत् = अत्राप्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। __ अत्रप् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अत्राप् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अत्राप् + ताम् = अत्राप्ताम् । इसी प्रकार - अत्रप् + स्तम् = अत्राप्तम् / अत्रप् + स्त = अत्राप्त बनाइये। अम् का आगम न होने पर - अतृप् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २६७ सूत्र से वृद्धि करके - अताप् + सीत् = अतासीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये।। अतृप् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अताप् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अताप् + ताम् = अताप्र्ताम् । __ इसी प्रकार - अतृप् + स्तम् = अताप्तम् / अतृप् + स्त = अतात बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - __ अमागम होने पर अमागम न होने पर अत्राप्सीत् अत्राप्ताम् अत्राप्सुः अतार्सीत् अताप्र्ताम् अताप्सुः अत्राप्सी: अत्राप्तम् अत्राप्त अतासः अताप्तम् अतात अत्राप्सम् अत्राप्स्व अत्राप्स्म अतासम् अतावं अताम सेट प्रत्यय लगने पर - ध्यान रहे कि सेट प्रत्यय पर होने पर अम का आगम कदापि न किया जाये - अतृप् + ईत् - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके = अतीत् । अतीत् अतर्पिष्टाम् अतर्पिषु: अतीः अतर्पिष्टम् अतर्पिष्ट अतर्पिषम् अतर्पिष्व अतर्पिष्म दृप् धातु के रूप ठीक इसी प्रकार बनाइये। वेट गुपू धातु - इसे ‘आयादय आर्धधातुके वा’ सूत्र से स्वार्थ में ‘आय’ प्रत्यय विकल्प से होता है। ‘आय’ प्रत्यय न लगने पर - अगप + सीत / वदव्रजहलन्तस्याच से वृद्धि करके - अगौप्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अगुप् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अगौप् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अगौप् + ताम् = अगौप्ताम् । इसी प्रकार - अगुप् + स्तम् = अगौप्तम् / अगुप् + स्त = अगौप्त बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अगौप्सीत् अगौप्ताम् अगौप्सुः अगौप्सी: अगौप्तम अगौप्त अगौप्सम अगौप्स्व अगौप्स्म [[२६८]] ‘आय’ प्रत्यय लगने पर - गुप् + आय - गोपाय / ‘आय’ लग जाने पर, यह धातु अनेकाच् हो जाने से सेट हो जाता है। अतः इससे सेट् प्रत्यय लगेंगे - अगोपाय + ईत् / अतो लोप: से ‘अ’ का लोप होकर - अगोपाय + ईत् = अगोपायीत् आदि। अनिट् भकारान्त यभ् धातु - अयभ् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अयाभ् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से ‘भू’ को चर्व करके - अयाप् + सीत् = अयाप्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अयभ् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अयाभ् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अयाभ् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अयाभ् + धाम् / ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से ‘भू’ को जश्त्व करके - अयाब + धाम् = अयाब्धाम् । इसी प्रकार - अयभ् + स्तम् = अयाब्धम् / अयभ् + स्त = अयाब्ध। पूरे रूप इस प्रकार बने - अयाप्सीत् अयाब्धाम् अयाप्सुः अयाप्सी: अयाब्धम् अयाब्ध अयाप्सम् अयाप्स्व अयाप्स्म अनिट् शकारान्त दश् धातू - अदंश् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अदांश् + सीत् / अब अन्त में आने वाले ‘श्’ को ‘वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अदांष् + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अदांक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अदांक् + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर = अदांक्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। __ अदंश् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अदांश् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अदांश् + ताम् / अब अन्त में आने वाले ‘श्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अदांष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अदांष् + समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २६९ टाम् = अदांष्टाम्। इसी प्रकार - अदंश् + स्तम् = अदांष्टम् / अदंश् + स्त = अदाष्ट। पूरे रूप इस प्रकार बने - अदांक्षीत् अदांष्टाम् अदांक्षु: अदांक्षी: अदांष्टम् अदांष्ट अदांक्षम् अदांक्ष्व अदांक्ष्म इसके अपवाद - अनिट् दृश् धातु - सृजिदृशोझल्यमकिति - सृज् तथा दृश्, इन दो अनिट् ऋदुपध धातुओं को झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर नित्य अम् का आगम होता है। अम् का आगम करके इनकी उपधा के ऋ को र बनाइये। अदृश् + सीत् - अद्रश् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अद्राश् + सीत् / अन्त में आने वाले ‘श्’ को ‘वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अद्राष् + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अद्राक् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अद्राक् + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर = अद्राक्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। __ अद्रश् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अद्राश् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अद्राश् + ताम् / __ अब अन्त में आने वाले ‘श्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अद्राष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अद्राष् + टाम् = अद्राष्टाम्। इसी प्रकार - अद्रश् + स्तम् = अद्राष्टम् / अद्रश् + स्त = अद्राष्ट । अद्राक्षीत अद्राष्टाम् अद्राक्षुः अद्राक्षी: अद्राष्टम् अद्राष्ट अद्राक्षम् अद्राक्ष्व अद्राक्ष्म मृश्, स्पृश् धातु - अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् - ऋदुपध अनिट् धातुओं को, झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर, विकल्प से अम् का आगम होता है। अम् का आगम होने पर - [[२७०]] अमृश् + सीत् - अम्रश् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - ठीक ‘अद्राक्षीत्’ के समान अम्राक्षीत् आदि रूप बनाइये। अम् का आगम न होने पर - अमृश् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अमाश् + सीत् / वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां ष:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अमा + सीत् / ‘अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अमा + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - अमा + षीत् / क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाकर अमाीत् । __ पूरे रूप इस प्रकार बने - अमागम न होने पर __ अमागम होने पर अमार्सीत् अमाष्टम् अमाझुः अम्राक्षीत् अम्राष्टाम् अम्राक्षुः अमाी: अमाष्टम् अमाष्टं अम्राक्षी: अम्राष्टम् अम्राष्ट अमाक्षम् अमावं अमाद्म अम्राक्षम् अम्राक्ष्व अम्राक्ष्म इसी प्रकार स्पृश् से अम् का आगम करके अस्पाक्षीत् तथा अम् का आगम न करके अस्पार्षीत् आदि बनाइये। वेट् शकारान्त अश् धातु - इडागम न होने पर - अमार्सीत् के समान आक्षीत् / इडागम होने . पर - आशीत् बनाइये। अनिट् षकारान्त कृष् धातु - अनुदात्तस्य चर्दुपधस्यान्यतरस्याम् - ऋदुपध अनिट् धातुओं को, झलादि अकित् प्रत्यय परे होने पर, विकल्प से अम् का आगम होता है। अम् का आगम होने पर - अकृष् + सीत् - अक्रष् + सीत् / वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - ‘अद्राक्षीत्’ के समान अक्राक्षीत् बनाइये। अम् का आगम न होने पर - अकृष् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अकार्ष + सीत् / अब ‘ए’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अकाश् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अका + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर= अकार्षीत् । अमागम न होने पर अमागम होने पर अकार्षीत् अकार्टाम् अका ः अक्राक्षीत् अक्राष्टाम् अक्राक्षुः अकार्षीः अकाष्टम् अकाट अक्राक्षी: अक्राष्टम् अक्राष्ट समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २७१ अकाक्षम् अकावं अकाद्म अक्राक्षम् अक्राक्ष्व अक्राम वेट षकारान्त त्वक्ष्, तक्ष्, अक्ष धातु - इडागम न होने पर - अत्वक्ष् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अत्वाक्ष् + सीत् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - अत्वाष् + सीत् / अब ‘ष’ को ‘षढो: क: सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - अत्वाष् + सीत् / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययो:’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर - अत्वाक् + षीत् / क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाकर अत्वाक्षीत्। सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अत्वक्ष् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अत्वाक्ष् + स्ताम् / स्को: संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से धातु के संयोगादि ‘क्’ का लोप करके - अत्वष् + ताम् / झलो झलि से प्रत्यय के स् का लोप करके - अत्वाष् + ताम् / ‘ष्टुना ष्टुः’ सूत्र से ‘त’ को ष्टुत्व करके - अत्वाष् + टाम् = अत्वाष्टाम् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अत्वाक्षीत् अत्वाष्टाम्। अत्वाक्षी: अत्वाष्टम् अत्वाष्ट अत्वाक्षम् अत्वाक्ष्व अत्वाक्ष्म इसी प्रकार तक्ष्, अक्ष के रूप बनाइये। इडागम होने पर - सीधे सेट् प्रत्यय जोड़कर अत्वक्ष् + ईत् = अत्वक्षीत्, आदि बनाइये। अनिट् सकारान्त धातु - अवस् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अवास् + सीत् / ‘स: स्यार्धधातुके’ सूत्र से ‘स्’ को ‘त्’ करके = अवात्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अवस् + स्ताम् - वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अवास् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अवास् + ताम् / ‘स: स्यार्धधातुके’ सूत्र से ‘स्’ को त्’ करके - अवात् + ताम् = अवात्ताम् । इसी प्रकार - अवस् + स्तम् = अवात्तम् / अवस् + स्त = अवात्त । अत्वाक्षुः [[२७२]] पूरे रूप इस प्रकार बने - अवात्सीत् अवात्ताम् अवात्सुः अवात्सी: अवात्तम् अवात्त अवात्सम् । अवात्स्व अवात्स्म अनिट् हकारान्त धातुओं के चार वर्ग बनाइये - १. नह् धातु - अनह् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अनाह + सीत् / अन्तिम ‘ह’ को ‘नहो ध:’ सूत्र से ‘ध्’ बनाकर - अनाध् + सीत् / ‘खरि च’ सूत्र से चर्व करके - अनात् + सीत् = अनात्सीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये।। अनह् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अनाह + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अनाह् + ताम् / अन्तिम ‘ह’ को ‘नहो ध:’ सूत्र से ‘ध्’ बनाकर - अनाध् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अनाध् + धाम् / ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से ‘ध्’ को जश्त्व करके - अनाद् + धाम् = अनाद्धाम्।

  • इसी प्रकार - अनह् + स्तम् = अनाद्धम् / अनह + स्त = अनाद्ध / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अनात्सीत् . अनाद्धाम् अनात्सुः अनात्सी: अनाद्धम् अनाद्ध अनात्सम् अनात्स्व अनात्स्म २. दह् धातु - अदह् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अदाह् + सीत् / अन्तिम ‘ह्’ को, ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से ‘घ्’ बनाकर - अदाघ् + सीत् / धातु के आदि में जो वर्ग का तृतीयाक्षर है, उसे ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर बनाकर - अधाघ् + सीत् / ‘घ्’ को ‘खरि च’ सूत्र से, ‘क्’ बनाकर - अधाक् + सीत् / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाकर = अधाक्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अदह् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अदाह् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अदाह् + ताम् / समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २७३ न अन्तिम ‘ह्’ को ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से ‘घ्’ बनाकर - अदाघ् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अदाघ् + धाम् / ‘झलां जश झशि’ सत्र से ‘ध’ को जश्त्व करके - अदाग + धाम = अदाग्धाम। इसी प्रकार - अदह् + स्तम् = अदाग्धम् / अदह् + स्त = अदाग्ध / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अधाक्षीत् अदाग्धाम् अधाक्षुः अधाक्षी: अदाग्धम् अदाग्ध अधाक्षम् अधाक्ष्व अधाक्ष्म ३. वह् धातु - अवह् + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अवाह + सीत् / अन्तिम ‘ह’ को, हो ढः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर - अवाद + सीत् / षढो: क: सि सूत्र से ढ् को क् बनाकर - अवाक् + सीत् / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययो: सूत्र से ष् बनाकर = अवाक्षीत् । सु:, सी., सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अवह् + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अवाह् + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अवाह् + ताम् / अन्तिम ‘ह’ को, हो ढः’ सूत्र से ‘द’ बनाकर - अवाढ् + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अवाढ् + धाम् / __ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुत्व करके - अवाढ् + ढाम् / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ‘ढ्’ का लोप करके - अव + ढाम् / सहिवहोरोदवर्णस्य सूत्र से लुप्त ढकार के पूर्ववर्ती ‘अ’ को ‘ओ’ करके - अवोढाम्। इसी प्रकार - अवह + स्तम् = अवोढम् / अवह + स्त = अवोढ / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अवाक्षीत् अवोढाम् अवाक्षुः अवाक्षी: अवोढम् अवोढ अवाक्षम् अवाक्ष्व अवाक्ष्म वेट तुंहू धातु - अतुंह + सीत् - वदव्रजहलन्तस्याच: सूत्र से वृद्धि करके - अताह + सीत् / अन्तिम ‘ह’ को, हो ढः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर - अताई + सीत् / षढो: [[२७४]] क: सि सूत्र से ढ् को क् बनाकर - अतां + सीत् / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाकर = अताक्षीत् । सुः, सी:, सम्, स्व, स्म, इन सकारादि प्रत्ययों के परे होने पर, ठीक इसी प्रकार रूप बनाइये। अतुंह + स्ताम् / वदव्रजहलन्तस्याच: से वृद्धि करके - अताह + स्ताम् / झलो झलि से स् का लोप करके - अतार्ह + ताम् / अन्तिम ‘ह’ को, हो ढ:’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर - अताई + ताम् / ‘झषस्तथो?ऽध:’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - अताई + धाम् / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ष्टुत्व करके - अतार्द्ध + ढाम् / ढो ढे लोप: सूत्र से पूर्व ‘द’ का लोप करके - अतार् + ढाम् = अतार्हाम्। इसी प्रकार - अतुंह + स्तम् = अतार्द्धम् / अतुंह + स्त = अतार्छ / बनाइये। पूरे रूप इस प्रकार बने - अताीत् अतााम् अतार्ड्स अतार्कीः अताळम् अताडै अताङम् अतावं अताम __ शेष स्तृहू, तृहू, आदि हकारान्त अनिट् धातु इगुपध हैं, अतः उनसे ‘क्स’ से बने हुए प्रत्यय लगते हैं। विधि क्स’ प्रत्यय में देखिये। यह सारे हलन्त अनिट् परस्मैपदी धातुओं में सिच् से बने हुए प्रत्यय लगाकर, लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

५. कुटादि धातुओं से बचे हुए हलन्त सेट् परस्मैपदी धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि

हलन्त सेट् परस्मैपदी धातुओं के तीन वर्ग बनाइये - प्रथम वर्ग - ऐसे हलन्त सेट परस्मैपदी धातु, जिनके आदि में हल् हो, अन्त में भी हल् हो, तथा जिनमें लघु ‘अ’ भी हो जैसे - पठ्, गद्, नद् आदि।

  • अतो हलादेर्लघो: - ऐसे हलादि, हलन्त, लघु अकारवान्, सेट् परस्मैपदी धातुओं के इस लघु ‘अ’ को विकल्प से वृद्धि होती है। अपठ् + ईत् = अपाठीत्, अपठीत् आदि। पूरे रूप इस प्रकार बने - अपाठीत् / अपठीत् अपाठिष्टाम् / अपठिष्टाम् अपाठिषुः / अपठिषु: समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २७५ अपाठी: / अपठी: __अपाठिष्टम् / अपठिष्टम् अपाठिष्ट / अपठिष्ट अपाठिषम् / ‘अपठिषम् अपाठिष्व / अपठिष्व अपाठिष्म / अपठिष्म __ इसी प्रकार अगद् + ईत् = अगादीत्, अगदीत् आदि बनाइये। इसके अपवाद - . १. वद्, व्रज्, धातु - ये दोनों धातु हलादि, हलन्त हैं, इनमें लघु अ भी है, किन्तु इन्हें ‘वदव्रजहलन्तस्याच:’ सूत्र से नित्य वृद्धि होती है। वद् + ईत् - अवादीत् । व्रज् + ईत् - अव्राजीत् । वद् के पूरे रूप इस प्रकार बने - अवादीत् अवादिष्टाम् अवादिषुः अवादी: अवादिष्टम् अवादिष्ट अवादिषम् अवादिष्व अवादिष्म व्रज के पूरे रूप भी ठीक इसी प्रकार बने - अव्राजीत् अव्राजिष्टाम् अव्राजिषु: अवाजी: अव्राजिष्टम् अव्राजिष्ट अव्राजिषम् अव्राजिष्व . अव्राजिष्म (बहुत सावधानी रखिये कि केवल लघु ‘अ’ को विकल्प से वृद्धि होती है। यदि ‘अ’ गुरु हो तो उसे वृद्धि न की जाये - अरक्ष् + ईत् = अरक्षीत्) __. लान्त, रान्त धातु - ऐसे हलादि हलन्त, लघु अकारवान्, सेट् परस्मैपदी धातु, जिनके अन्त में ल् या र् हो, उनके इस लघु ‘अ’ को ‘अतो लान्तस्य’ सूत्र से नित्य वृद्धि होती है। त्सर् - अत्सर् + ईत् = अत्सारीत् रान्त ‘त्सर्’ धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - अत्सारीत् अत्सारिष्टाम् अत्सारिषु: अत्सारी: अत्सारिष्टम् अत्सारिष्ट अत्सारिषम् अत्सारिष्व अत्सारिष्म लान्त ‘ज्वल्’ धातु के रूप भी ठीक इसी प्रकार बनेंगे - अज्वालीत् अज्वालिष्टाम् अज्वालिषु: अज्वाली: अज्वालिष्टम् अज्वालिष्ट अज्वालिषम् अज्वालिष्व अज्वालिष्म ३. हन् धातु - लुङि च - लुङ् लकार के परस्मैपदी प्रत्यय परे होने पर हन् धातु को नित्य वध’ आदेश होता है। ध्यान दें कि ‘हन्’ धातु तो अनिट् है, किन्तु उसके स्थान पर होने वाला वध’ धातु अनेकाच् होने के कारण सेट है। अतः इससे सेट् प्रत्यय लगते हैं। [[२७६]] हन् के स्थान पर होने वाला, यह वध’ आदेश अदन्त होता है, हलन्त नहीं। इसके ‘अ’ का ‘अतो लोप:’ सूत्र से लोप कीजिये - अवध - ईत् - अवध् + ईत् = अवधीत्। शेष रूप भी इसी प्रकार बनाइये। __ध्यान दीजिये कि ‘वध’ आदेश के अदन्त होने के कारण यहाँ ‘अतो हलादेर्लघो:’ सूत्र से वृद्धि नहीं होती। पूरे रूप इस प्रकार बने - अवधीत् अवधिष्टाम् अवधिषुः अवधीः अवधिष्टम् अवधिष्ट अवधिषम् अवधिष्व अवधिष्म ३. हान्त, मान्त यान्त, क्षण, श्वस् तथा एदित् धातु - ह्मयन्तक्षणश्वसजागृणिश्व्येदिताम् - हकारान्त, मकारान्त यकारान्त, क्षण, श्वस्, जागृ, ण्यन्त शिव और एदित् धातुओं के अच् को वृद्धि नहीं होती है, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। अतः इनके ‘अ’ को कभी वृद्धि नहीं होती है। हान्त धातु - ग्रह - अग्रह् + ईत् = अग्रहीत् मान्त धातु - स्यम् - __ अस्यम् + ईत् = अस्यमीत् यान्त धातु व्यय - अव्यय् + ईत् = अव्ययीत् क्षण धातु अक्षण अक्षणीत् श्वस् धातु
  • श्वस् - अश्वस् अश्वसीत् एदित् कटे धातु - कट - अकट् + ईत् = अकटीत् एदित् कखे धातु - कख् - अकख् + ईत् = अकखीत् __द्वितीय वर्ग - लघु इगुपध सेट हलन्त परस्मैपदी धातु - नेटि - हलन्त सेट् धातुओं के अच् को वृद्धि नहीं होती, इडादि परस्मैपद संज्ञक सिच् प्रत्यय परे होने पर। __ अतः वृद्धि का निषेध हो जाने पर, जिनकी उपधा में लघु इ, लघु उ, लघु ऋ है, उन्हें पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण कीजिये। इदुपध धातु - दिव् - अदिव् + ईत् - अदेव् + ईत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अदेवीत् अदेविष्टाम् अदेविषु: अदेवी: अदेविष्टम् अदेविष्ट अदेविषम् अदेविष्व अदेविष्म क्षण

+समस्त धातुओं के लुङ् लकार के रूप बनाने की विधि २७७ व्रश्च + उदुपध धातु - कुष् - अकुष् + ईत् - अकोष् + ईत् - अकोषीत् । अकोषीत् अकोषिष्टाम् अकोषिषु: अकोषी: अकोषिष्टम् अकोषिष्ट अकोषिषम् अकोषिष्व अकोषिष्म ऋदुपध धातु - वृष् - अवृष् + ईत् - अवर्ष + ईत् = अवर्षीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अवर्षीत् अवर्षिष्टाम् अवर्षिषुः अवर्षी: अवर्षिष्टम् अवर्षिष्ट अवर्षिषम् अवर्षिष्व अवर्षिष्म तृतीय वर्ग - शेष सेट हलन्त परस्मैपदी धातु - ऊपर कहे गये सारे हलन्त धातुओं से बचे हुए जो धातु हैं, उन्हें कुछ भी नहीं होता। यथा - फक्क् - अफक्क् + ईत् = अफक्कीत् अवश्च अवश्चीत् । रक्ष् - अरश् + ईत् = अरक्षीत् तक्ष अतक्ष + ईत = अतक्षीत बुक्क् - अबुक्क् + . ईत् = अबुक्कीत् विशेष - ध्यान दीजिये कि रक्ष्, तक्ष्, आदि धातुओं का ‘अ’ लघु नहीं है, क्योंकि - __ संयोगे गुरु - ह्रस्व अ, इ, उ, ऋ, ल, के बाद यदि कोई संयुक्त व्यञ्जन आया हो, तो ये लघु स्वर ही गुरु कहलाने लगते हैं। जैसे - रक्ष - इसमें ह्रस्व अ के बाद क् + ष् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘अ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। वश्च - इसमें ह्रस्व ‘अ’ के बाद श् + च् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘अ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। गुरु होने के कारण इस ‘अ’ को अतो हलादेर्लघो: सूत्र से वृद्धि नहीं होती। अरक्षीत् / अतक्षीत् आदि। . वेद में ण्यन्त धातुओं के लिये विशेष - नोनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्य: - हम जानते हैं कि लोक में सारे ण्यन्त धातुओं से लुङ् लकार में चङ् प्रत्यय लगाया जाता है। किन्तु वेद में ण्यन्त ऊन्, ध्वन्, इल् धातुओं से सिच् प्रत्यय लगता है। शेष ण्यन्त धातुओं से लोक [[२७८]] के समान चङ् प्रत्यय ही लगता है। ऊन् + णिच् = ऊनि / आ + ऊनि = औनि / औनि + ईत् - सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - औनये + ईत् / एचोऽयवायावः सूत्र से अय् आदेश करके - औनय् + ईत् = औनयीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने औनयीत् औनयिष्टाम् औनयिषुः औनयी: औनयिष्टम् औनयिष्ट औनयिषम् औनयिष्व औनयिष्म इल् + णिच् = एलि / आ + एलि = ऐलि / ऐलि + ईत् - सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - ऐले + ईत् / एचोऽयवायावः सूत्र से अय् आदेश करके - ऐलय् + ईत् = ऐलयीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने ऐलयीत् ऐलयिष्टाम् ऐलयिषु: ऐलयी: ऐलयिष्टम् ऐलयिष्ट ऐलयिषम् ऐलयिष्व ऐलयिष्म ध्वन् + णिच् = ध्वनि / अ + ध्वनि = अध्वनि / अध्वनि + ईत् - सार्वधातुकार्धधातुकयो: सूत्र से गुण करके - अध्वने + ईत् / एचोऽयवायावः सूत्र से अय् आदेश करके - अध्वनय् + ईत् = अध्वनयीत् । पूरे रूप इस प्रकार बने - अध्वनयीत् अध्वनयिष्टाम् अध्वनयिषु: अध्वनयी: अध्वनयिष्टम् अध्वनयिष्ट अध्वनयिषम् अध्वनयिष्व अध्वनयिष्म वेद में, इन धातुओं के अलावा, सारे ण्यन्त धातुओं से, लुङ् लकार में चङ् प्रत्यय ही लगेगा। लोक में लुङ् लकार में, सारे ण्यन्त धातुओं से चङ् प्रत्यय ही लगेगा। इस प्रकार हमने खण्ड खण्ड करके, सारे धातुओं में सिच् से बने हुए लुङ् लकार के प्रत्यय लगाने की विधि सीख ली। __ इसके साथ ही लुङ् लकार के सारे प्रत्ययों को लगाने की विधि भी पूर्ण हुई।