᳕ Maya WATERMinting Wwwwwsanlawww RESUPREMIWAN Www म MMENTINETREE Here IDHARE ON Malla प्रथम भाग : सार्वधातुक खण्ड MES PERIME FREERNET CONS RAIAWELHI FOAMIRMImami UWACTETTEERECEMBER FRIWwwwwimE N THIINFREE otohemiar TERTAINNAON M MICHAR AM BARDar HERE GENDE KHEREMIEWiFOLVEERE DIRE NEWwittOVEIVERNMEANALA HEROINENE ENEMERALD EVENTATE BE CD MEENAEEEE MRAPARIHABH Biolodwww MAHARoomi HEREमोनाsare SHARINEURATFAMEBER EHENDEMEMBERVICE HEATREENNETERATEEEEEEEEEEEEE DOMETAWANIRAHAMMI FREE NAMEANITAMARHead i aWANER ACHERE FRONARIRMIRMIR THANSRITESH SiaWAN MOHAMMOHAE Nawww HASHMAHES NOMINAMIKA मBिANDHARTH MMEROLA INDIANMEANICI PAL NA
aliMINOVAN WDAWORREERARMA r e MESWAMIBEAUMARI WW Tourit SHAMutuantul-ENRELERNET MMONOMARWAIMEMAIMIMIN डॉ पुष्पा दीक्षित Manan INIREENMAR Frigation WWEEHATEVERPRETRIEW SHAILESHWAHARAN WITMERARMERICA FAEHRADHENERAL HINBEWww Flow MOWWWWWHERE तिङ्न्त प्रकरण वस्तुतः व्याकरणशास्त्र की महाटवी है। प्रक्रिया ग्रन्थों में ‘पाणिनीय धातुपाठ’ के एक-एक धातु को उसी क्रम से लेकर उनके दस-दस लकारों लट् , लिट् , लुट् , लृट् , आदि के रूप, अकारादि क्रम से बनाये गये हैं। इन ग्रन्थों में धातु, पाणिनीय धातुपाठ के क्रम से हैं तथा लकार अकारादि क्रम से हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखिका ने लकारों का यह प्रचलित अकारादि क्रम तोड़ा है तथा तोड़कर उसके दो हिस्से कर दिये हैं। लट् , लोट् , लङ् , विधिलिङ् तथा सार्वधातुक लेट् इन पाँच सार्वधातुक लकारों का एक वर्ग बनाया गया है तथा शेष अवशिष्ट लिट् , लुट् , लृट् , आर्धधातक लेट् , आशीर्लिङ् , लुङ्, लुङ, इन सात आर्धधातुक लकारों का दूसरा वर्ग बनाया है। अनके प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान् पाणिनि को भी यही अभीष्ट है। _इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में धातुपाठ के क्रम को भी तोड़ा गया है तथा धातुओं का वर्गीकरण अङ्गकार्यों के आधार पर किया गया है। प्रक्रिया ग्रन्थ के अध्येता ‘अधिकार सूत्रों’ के मर्म को नहीं समझ पाते हैं। यही कारण है व्याकरण में अत्यधिक परिश्रम करने के बाद भी विद्यार्थी प्रयोग तो बना लेते हैं किन्तु प्रयोग बनाने का विज्ञान नहीं समझ पाते। अतः ‘पाणिनीय अष्टाध्यायी’ के विज्ञान को स्पष्ट करने वाली एक ऐसी पद्धति अभीष्ट थी, जिससे सारे लकार और सारी प्रक्रियाएं दो मास में हृद्गत हो सकें, यही यह अष्टाध्यायी सहजबोध है। wwwwwww पाणिनीय शोध संस्थान ग्रन्थमाला प्रथम पुष्प ᳕ पाणिनीय अष्टाध्यायी की सर्वथा नवीन वैज्ञानिक व्याख्य प्रथम भाग सार्वधातुक खण्ड (तिङन्त) (समस्त धातुओं के लट् , लोट् , लङ् , विधिलिङ् , तथा सार्वधातुक लेट् लकारों के रूप बनाने के अपूर्व विधि) रचयित्री डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षित संस्कृतविभागाध्यक्षा शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिलासपुर, म.प्र. IRATIBHA प्रतिभा प्रकाशन दिल्ली राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली से प्राप्त आर्थिक सहायता से प्रकाशित प्रथम संस्करण : रामनवमी 2056 विक्रमाब्द (1999) © डॉ. पुष्पा दीक्षित ISBN 81-7702-007-2 सेट 81-7702-005-6 मूल्य : रू. 238/- सेट (2 भाग) अन्य प्राप्ति स्थल पाणिनीय शोध संस्थान तेलीपारा, बिलासपुर, म.प्र. प्रकाशक : डा. राधेश्याम शुक्ल एम.ए.,एम.फिल., पी-एच.डी. प्रतिभा प्रकाशन (प्राच्य-विद्या-प्रकाशक एवं पुस्तक-विक्रेता) 29/5 शक्तिनगर, दिल्ली 110007 दूरभाष : 7451485 मुद्रक : तरुण आफसेट, दिल्ली Pāṇinīya Shodha Sansthāna Granthamālā Pratham Puspa AŞTĀDHYĀYĪ SAHAJABODHA A Scientific Commentary of Pāṇinīya Aşțādhyāyī VOL. I Hraferngen aus (faser) (A new method of making the forms of all Dhātus in लट् , लोट् , लङ् , विधिलिङ् and सार्वधातुक लेट् लकार) By Dr. Pushpa Dixit H.O.D. of Sanskrit Deptt. Govt. Girls P.G. Collge Bilaspur RATIBHA PRATIBHA PRAKASHAN DELHI Published with the Financial assistance from Rashtriya Sanskrit Sansthan, New Delhi. Ist Ed. Ramanavami 2056 V.S. (1999) © Dr. Pushpa Dixit ISBN : 81-7702-007-2 (Set) Price : Rs. 238/- set (2 Vols.) Also Available at : Pāņiniya Śhodha Sansthāna Telipara, Bilaspur (M.P.) Published by : Dr. Radhey Shyam Shukla M.A.,M.Phil.,Ph.D. for Pratibha Prakashan (Oriental Publishers & Booksellers) 29/5 Shakti Nagar, Delhi-110007 Phone : 7451485 Printed at : Tarun Offset, Delhi. समर्पणम् दर्पोन्मत्तपण्डितकुलमदखण्डनो यो जनिप्रदानेनैव गौरवं मदीयववीवृधत्, अथ चाजन्मन एव लालाक्लिन्ने मुखे मदीये संस्कृतसुधामपीप्यत्, बाल्य एव व्याकरणग्रन्थ ग्रन्थीन् विभिद्यादीदृशत्, तस्मै - जनकाय पण्डितप्रवराय प्राणाचार्यसुन्दरलालशुक्लाय दर्दैवविपिनोत्पाटनपटीयो यदीयो त्सङ्गसंस्पर्शसुखस्मरणमेवानिशं मां विपत् -सागरपारमुदतीतरत्, करुणाकलितं हृदयं यदीयं स्नेहवर्षेणासिस्नपत्, अनन्तेष्वपि जन्मसु निष्कृतिर्यस्य विधातुमशक्या तदमृताति शायिस्तन्यं यस्या अगाधपयःपारावारान् व्यजीगणत्, तस्यै - जनन्यै जानकीशुक्लायै अनवरतपाणिनीयशास्त्रावगाहेन धौतकल्मषो यश्चिरं भृतेन तपसा भगवती पीताम्बरामतूतुषत्, यश्चाज्ञानावृतमबोधा कुलमकिञ्चित्करंमानसं मदीयं व्याकरणज्ञान प्रकाशेनाचकाशत्, माञ्च सुतनिर्विशेष ममीमनत् तस्मै - वैयाकरणतल्लजाय गुरवे श्रीमते विश्वनाथत्रिपाठिने ये पदवाक्यप्रमाणशास्त्रपारीणा, धर्मधुरीणा, वेदरहस्याधिगमेन साक्षात्कृत परतत्त्वा, अध्यात्मविद्यया निखिलब्रह्माण्डमपि करतलगतामलकवत् पश्यन्तोऽपि कालवेग मविगणय्य भारतराष्ट्रस्यैक्याय बद्धपरिकरा, न जाने मदीयेन केन महत्पुण्येन मां शिष्यत्वेनाङ्गीकृत्य तमसो ज्योतिष्पथे हठान्न्यवीविशन्, जीवनञ्च धर्मेणायूयुजन्, तेभ्यो दीक्षागुरुभ्यो भगवत्पादेभ्यो - अनन्तश्रीविभूषितपूर्वाम्नायशङ्कराचार्यनिश्चलानन्दसरस्वतीपादेभ्यः यथा कच्छपी स्वकीयान्नण्डानेकाग्र - चिन्तनसमाधियोगेन पोषयति, तथैव यो मदीयं कार्यमिदं चित्तस्य महत्समाधि योगेनापूपुषत्, तस्मै - जीवनस्यानन्यसहचराय पण्डितशिवप्रसाददीक्षिताय च अष्टाध्यायीसहजबोधमिमं भावेन समर्पयतीयमकिञ्चित्करी दीक्षितपुष्पा - पारित एतेऽमी समर्पणेनानेन तृप्तिं लभन्तां, न मम । विक्रमाब्द २०५५, चैत्र कृष्ण तृतीया दिनाङ्क - ५. ३. १९९९ भूमिका आचार्य डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी, भूतपूर्व व्याकरणविभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द __ संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, अध्यक्ष, काशी विद्वत्परिषद् डॉ. श्रीमती पुष्पा दीक्षिता द्वारा रचित, अष्टाध्यायी सहजबोध के प्रथम तथा द्वितीय खण्ड को देखा तो हृदय आनन्द से विभोर हो उठा। ऐसा लगा कि पाणिनीय अष्टाध्यायी को समझने की यह सर्वथा वैज्ञानिक नवीन सरणी है। प्रक्रिया की दृष्टि से, तिङन्तप्रकरण, अष्टाध्यायी का सबसे गहन तथा कठिन प्रकरण है। इसका मूलाधार अष्टाध्यायी का धात्वधिकार तथा पाणिनीय धातुपाठ हैं। सिद्धान्तकौमुदी की प्रक्रिया में, धातुओं को पाणिनीय धातुपाठ के क्रम से पढ़ा जाता है तथा लकारों को लट्, लिट्, लुट, लुट, लेट, लोट, लङ्, लिङ्, लुङ्, लुङ्, इस अकारादि क्रम से पढ़ा पढ़ाया जाता है। इससे होता यह है कि लट लकार को सिद्ध करके छात्र जब लिट् लकार में प्रविष्ट होता है तो उसे सावध गातुक मार्ग से हटकर आर्धधातुक मार्ग में प्रविष्ट होकर एक सर्वथा नई प्रक्रिया से परिचय करना होता है। इससे अति काठिन्य होता है। ‘अष्टाध्यायी सहजबोध’ में प्रो. दीक्षिता ने बड़े चातुर्य से, प्रक्रिया की दृष्टि से, लकारों को दो भागों में विभाजित करके, लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् तथा सार्वधातुक लेट् इन पाँच सार्वधातुक लकारों को पृथक् कर दिया है और लिट्, लुट, लुट, आर्धधातुक लेट, आशीर्लिङ्, लुङ्, लुङ्, इन सात आर्धधातुक लकारों को पृथक् कर दिया है। ऐसा इसलिये कि जब लेट् लकार के प्रत्यय, लेटोऽडाटौ सूत्र से अट, आट का आगम करके बनते हैं, तब वहाँ धातुरूप बनाने के लिये सार्वधातुक प्रक्रिया का आश्रय लेना पड़ता है और जब इन्हीं में सिब्बहुलं लेटि सूत्र से ‘सिप्’ लग जाता है, तब वहाँ धातुरूप बनाने के लिये आर्धधातुक प्रक्रिया का आश्रय लेना पड़ता है। अतः इन्होंने लेट् लकार के भी सार्वधातुक तथा आर्धधातुक, ऐसे दो वर्ग बनाकर अद्भुत स्पष्टता प्रदान की है।(x) दस लकारों के इस वर्गीकरण को देखने से मुझे यह प्रतीत हुआ है कि लकारों के रूपावली अध्ययन में छात्रों को जो क्लेश होता था, वह बहुत अंशों में सुदूर पलायित हो गया है क्योंकि लट् लकार के जो रूप जिस प्रक्रिया से बनते हैं, उसी प्रक्रिया के कतिपय अंश को परिवर्तित कर देने से लोट, लङ्, तथा विधिलिङ्, इन लकारों के रूप स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। इसे अपनी सूक्ष्मेक्षिका से विभक्त करके उन्होंने एक विलक्षण मार्ग प्रस्तुत किया है, जिसमें अत्यन्त लाघव है। भगवान् पाणिनि भी दो बार ‘आर्धधातुके’ का अधिकार करके आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर किये जाने वाले कार्य एक साथ कहते हैं तथा ‘अत उत सार्वधातुके’ ‘नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातुके’ ‘रुदादिभ्यः सार्वधातुके’ आदि सूत्रों से ‘सार्वधातुके’ की अनुवृत्ति लेकर सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर, किये जाने वाले कार्य एक साथ कहते हैं। यह प्रमाण है कि भगवान् पाणिनि को सार्वधातुक तथा आर्धधातुक कार्य पृथक् पृथक् करना अभीष्ट है। जहाँ ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ क्ङिति च आदि सूत्रों में वे दोनों को एक साथ लेकर चलते हैं, वहाँ ‘लाघव’ ही हेतु होता है। __आर्धधातुकीय प्रक्रिया में प्रो. दीक्षिता ने एक एक लकार के सामने, समग्र धातुओं को उपस्थित करके उनकी एक ही स्थान पर सिद्धि की है। इसके लिये उन्होंने पाणिनीय धातुपाठ को, अष्टाध्यायी के अङ्गकार्यों से समन्वित कर दिया है। ऐसा करने के लिये इन्होंने पाणिनीय धातुपाठ के समस्त धातुओं को लेते हुए उनके क्रम में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया है, जिसका सम्बन्ध सीधा धातुरूप बनाने की प्रक्रिया से है। उन्होंने धातुओं को आकारान्तादि क्रम से पुनर्व्यवस्थापित करके, एक इतना सरल मार्ग उपस्थित किया है कि एक वर्ग के एक धातु की सिद्धि करते ही, उस वर्ग के सारे धातु स्वतः ही सिद्ध हो जाते हैं। जहाँ धातुरूपावलियाँ सहस्रों पृष्ठों में, धातुओं के रूप देकर भी प्रक्रिया नहीं दे पातीं, वहाँ यह ग्रन्थ एक वर्ग के एक धातु का रूप, सारी प्रक्रिया के सहित देकर, उस समग्र वर्ग के धातुरूपों की स्वतः सिद्धि कर देता है, यह इसका वैलक्षण्य है। . आर्धधातुक खण्ड में प्रविष्ट होने के पूर्व ही उन्होंने अनिट् धातु तथा अनिट् प्रत्यय और सेट् धातु तथा सेट् प्रत्यय का वर्गीकरण इतनी वैज्ञानिकता के साथ किया है कि देखते ही बनता है। जिस अंश पर दृष्टि जाती है, वहीं पर मन आकृष्ट होकर आह्लाद का अनुभव करता है। ज्यों ज्यों जिन जिन अंशों (xi) पर दृष्टिपात होता है, वहीं सरल, सहज, सरस, पद्धति को देखकर आत्मा की विभोर अवस्था हो जाती है। _पाणिनीय अष्टाध्यायी ही व्याकरण का मूलाधार है। लौकिक तथा वैदिक, उभय शब्दों की सिद्धि करने के कारण, पाणिनीय व्याकरण की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है। इसे आधार बनाकर अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान् पाणिनि के इस लक्ष्य को लेशमात्र भी नहीं छोड़ा गया है। इसका यह वैशिष्ट्य है कि इसमें न तो पाणिनीय धातुपाठ से एक भी धातु को कम किया गया है, न ही दस लकारों में से एक भी लकार को कम किया गया है। अपने वैज्ञानिक क्रम के अन्तर्गत इन्होंने लेट् लकार को सार्वधातुक तथा आर्धधातुक इन दो हिस्सों में विभाजित करके उसे भी ऐसी सरल पद्धति में पिरो दिया है कि लौकिक शब्दों के साथ साथ वैदिक शब्द भी उतनी ही सहजता से बुद्धिगम्य हो जाते हैं। अतः अपनी सरलीकरण की प्रक्रिया में लौकिकवैदिकोभय शब्दों की सिद्धि करने वाला यह ग्रन्थ सर्वथा स्तुत्य है। अष्टाध्यायी के धात्वधिकार तथा पाणिनीय धातुपाठ के माध्यम से लकारों के सम्बन्ध में महामुनि पाणिनि जो जो कुछ भी कहना चाहते हैं, वह समग्र रूप में इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। _ धातुरूपों को रटना, या बड़े बड़े महासागर जैसी रूपावलियों में उन्हें ढूँढना, ये दोनों ही अविधि हैं। कौमुदी विधि है, किन्तु उसमें अति काठिन्य है। अतः यदि इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रक्रिया को जानकर छात्र कौमुदी में प्रवेश करे तो कौमुदी में आप्लावन करना जल में मीन के समान सुकर हो सकेगा। मै संस्कत व्याकरण की इस सर्वथा नवीन वैज्ञानिक सरणी का दिग्दर्शन कराने वाली ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ पद्धति का हृदय से सर्वतोभावेन अनुमोदन करता हूँ। यह ग्रन्थ महामुनि पाणिनि की अन्तरात्मा को निश्चित ही आनन्दित करेगा। इससे संस्कृत साहित्य का अत्यन्त कल्याण सम्भावित है, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। मैं भगवान् विश्वनाथ से प्रार्थना करता हूँ कि यह ग्रन्थ अपने उद्देश्य को प्राप्त करे और व्याकरण के अध्येताओं में इसकी प्रतिष्ठा हो। ५. १. १९९८ रामप्रसाद त्रिपाठी (xi) पर दृष्टिपात होता है, वहीं सरल, सहज, सरस, पद्धति को देखकर आत्मा की विभोर अवस्था हो जाती है। __पाणिनीय अष्टाध्यायी ही व्याकरण का मूलाधार है। लौकिक तथा वैदिक, उभय शब्दों की सिद्धि करने के कारण, पाणिनीय व्याकरण की सर्वोच्च प्रतिष्ठा है। इसे आधार बनाकर अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान् पाणिनि के इस लक्ष्य को लेशमात्र भी नहीं छोडा गया है। इसका यह वैशिष्टय है कि इसमें न तो पाणिनीय धातुपाठ से एक भी धातु को कम किया गया है, न ही दस लकारों में से एक भी लकार को कम किया गया है। अपने वैज्ञानिक क्रम के अन्तर्गत इन्होंने लेट् लकार को सार्वधातुक तथा आर्धधातुक इन दो हिस्सों में विभाजित करके उसे भी ऐसी सरल पद्धति में पिरो दिया है कि लौकिक शब्दों के साथ साथ वैदिक शब्द भी उतनी ही सहजता से बुद्धिगम्य हो जाते हैं। अतः अपनी सरलीकरण की प्रक्रिया में लौकिकवैदिकोभय शब्दों की सिद्धि करने वाला यह ग्रन्थ सर्वथा स्तुत्य है। अष्टाध्यायी के धात्वधिकार तथा पाणिनीय धातुपाठ के माध्यम से लकारों के सम्बन्ध में महामुनि पाणिनि जो जो कुछ भी कहना चाहते हैं. वह समग्र रूप में इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। धातुरूपों को रटना, या बड़े बड़े महासागर जैसी रूपावलियों में उन्हें ढूँढना, ये दोनों ही अविधि हैं। कौमुदी विधि है, किन्तु उसमें अति काठिन्य है। अतः यदि इस ग्रन्थ के माध्यम से प्रक्रिया को जानकर छात्र कौमुदी में प्रवेश करे तो कौमुदी में आप्लावन करना जल में मीन के समान सुकर हो सकेगा। मै संस्कृत व्याकरण की इस सर्वथा नवीन वैज्ञानिक सरणी का दिग्दर्शन कराने वाली ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ पद्धति का हृदय से सर्वतोभावेन अनुमोदन करता हूँ। यह ग्रन्थ महामुनि पाणिनि की अन्तरात्मा को निश्चित ही आनन्दित करेगा। इससे संस्कृत साहित्य का अत्यन्त कल्याण सम्भावित है, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। _ मैं भगवान् विश्वनाथ से प्रार्थना करता हूँ कि यह ग्रन्थ अपने उद्देश्य को प्राप्त करे और व्याकरण के अध्येताओं में इसकी प्रतिष्ठा हो। ५. १. १९९८ एमप्रसाद त्रिपाठी नैवेद्यम् आचार्य डॉ. रामकरण शर्मा, भूतपूर्व कुलपति कामेश्वरसिंह दरभङ्गा संस्कृत विश्वविद्यालय तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वर्तमान अध्यक्ष, अन्ताराष्ट्रिय संस्कृत अध्ययन संघ श्रीमती पष्पा दीक्षित का ‘अष्टाध्यायी सहजबोध’ महर्षि पाणिनि की ‘सूक्ष्मेक्षिका’ को बड़े सहज भाव से, सर्वसुलभ सरल शैली में आलोकित करता है। एक ओर तो विश्व के मनीषियों ने महर्षि पाणिनि को सर्वप्रथम एवं सर्वश्रेष्ठ भाषावैज्ञानिक के रूप में समादृत किया है, वहीं दूसरी ओर हमारी पारम्परिक एवं आधुनिक शैक्षिक संस्थाओं में अध्यापक एवं विद्यार्थी दोनों पाणिनि के व्युत्पत्ति प्रधान सर्वाङ्गीण प्रशस्तपथ का परित्याग करके कुछ टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डियों में भटकते जा रहे हैं। उनकी दृष्टि में पाणिनीय शास्त्र सेतुबन्ध जैसा दुर्गम है। विदुषी लेखिका ने इस “सहजबोध’’ के माध्यम से पाणिनीय भाषाशास्त्र के गूढ़ से गूढ तत्त्वों को ऐसा सुगम बना दिया है कि शङ्का या भ्रम का अवसर ही नहीं रह जाता। ‘सुदुर्गमः सुगमतां लेभे’ । उदाहरणार्थ अष्टाध्यायी के तीन अध्याय (३ - ५) प्रत्ययाध्याय कहे जा सकते हैं। इनमें कुछ सामान्य प्रत्यय, कुछ विशेष प्रत्यय के साम्राज्य में कभी प्रवेश नहीं पाते, कुछ पाते भी हैं (वाऽसरूपोऽस्त्रियाम्) । कुछ धातु ‘सेट’ होते हैं, कुछ ‘अनिट्’ । कुछ प्रत्यय ‘सेट’ होते हैं, कुछ ‘अनिट्’ । ‘सेट’ और ‘अनिट’ के जंगल में किसी का भी भटक जाना स्वभाविक है। किन्तु विदुषी लेखिका ने अपनी सहज और सरल परिगणनशैली से धातुओं, प्रातिपदिकों एवं प्रत्ययों के सम्बन्ध में ऐसी स्पष्ट जानकारी दे दी है कि पाठक को वे गूढतत्त्व भी हस्तामलकवत् सुलभ लगने लगते हैं। कौन से धातु ‘सेट’ होते हैं, और कौन (xiv) से ‘अनिट् ? कौन से आर्धधातुक प्रत्यय ‘सेट’ होते हैं, और कौन से आर्धधातुक प्रत्यय ‘अनिट, होते हैं, ये सारी बातें इनकी ‘इडागम व्यवस्था’ की व्याख्या से स्पष्ट हो जाती हैं क्योंकि इस ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ ग्रन्थ में बड़ी वैज्ञानिक शैली में धातुओं और प्रातिपदिकों में लगने वाले प्रत्ययों की व्याख्या की गई है। श्रीमती पुष्पा दीक्षित की व्याकरणसाधना अनुपम है। इन्होंने अपने पौत्र को भी इसी “अष्टाध्यायी सहजबोध’’ में दीक्षित कर रखा है। उस बालक ने एक बार सागर में आयोजित एक गोष्ठी में कुछ मिनटों में ही तद्धित की सारी गुत्थियों का सहजबोध’ कराकर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया था। हमें पूर्ण विश्वास है कि श्रीमती डॉ. पुष्पा दीक्षित की यह सहजबोध’ नामक कृति परम्परागत विद्वानों एवं विद्यार्थियों में पाणिनीय महाशास्त्र’ के प्रति अभिनव रुचि जगायेगी एवं शोध की नई नई दिशाओं का निर्माण करने में सहायक होगी। मैं इस अनुपम ‘सहजबोध’ प्रस्तुति के लिये उन्हें शत शत हार्दिक बधाई देता हुआ उनके समुज्ज्जल भविष्य का शुभाशीर्वाद देता हूँ । १८.३.१९९८ मका श्रीहरिः शरणम् स्वस्त्ययन पूर्वाम्नायगोवर्धनपीठाधीश्वरपण्डितप्रवरश्रीमज्जगद्गुरुशङ्कराचार्य - स्वामिनिश्चलानन्दसरस्वती वेदों का परम तात्पर्य जिस परम तत्त्व परमेश्वर में सन्निहित है, वह भूत, भविष्यत्, एवं वर्तमानकालिक समस्त जगत् का अधिष्ठाता अर्थात् नियन्ता है तथा केवल विशुद्ध अनन्त आनन्द स्वः भी उसी का स्वरूप है। वह अतिप्रशस्त सर्वोत्कृष्ट ज्येष्ठ ब्रह्म नमस्कार्य है। यही कारण है कि भगवान् मनु ने भूत, भविष्यत्, एवं वर्तमान सबकी सिद्धि वेदों से ही मानी जाती है। ‘भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात् प्रसिद्धयति’। जिस प्रकार कालगर्भित और कालातीत सर्व वस्तुओं की सिद्धि परब्रह्म से सम्भव है, उसी प्रकार कालगर्भित और कालातीत सर्व वस्तुओं की सिद्धि परब्रह्म के प्रतिपादक शब्दब्रह्म के उद्गमस्थान ओंकार से सम्भव है। शब्द की गति, गन्ध, रस, रूप तथा स्पर्श, शब्द और शब्दातीत में भी मान्य है। अभिधावृत्ति से शब्दों की प्रवृत्ति जाति, गुण, क्रिया, सम्बन्ध और रूढ़ि को लेकर मान्य है। अत एव एक निर्गुण, निष्क्रिय, असङ्ग और सर्वार्थविनिर्मुक्त वेदान्तवेद्य परमेश्वर में नहीं है, तथापि निषेधगर्भित विधिमुखप्रवृत्त लक्षणों के द्वारा उसका अधिगम भी संभव है। _परम अर्थस्वरूप परबह्म, शब्दब्रह्म के योग से प्रपञ्चरूप से विलसित अर्थात् विवर्तित होता है। अभिप्राय यह है कि विशुद्ध बोधात्मक परब्रह्म ही शब्दब्रह्म के योग से स्थावर जङ्गमात्मक प्रपञ्च रूप से विलसित हो रहा है। शब्दानुगमयुक्तबोध ही व्यवहार है। इसी अभिप्राय से वैयाकरणों ने व्यवहार साधक समस्त बोध में शब्दानुगम की कारणता को स्वीकार किया है। न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते (वाक्यपदीय) (xvi) उदाहरणार्थ संकल्प विकल्पात्मक बोधरूप मन की सिद्धि, किसी भी भाषा के शब्द या शब्दजन्य संस्कार के बिना संभव नहीं है अर्थात् शब्दानुवेधविनिर्मुक्त मन विशुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्मा ही है। इसी प्रकार अध्यवसायात्मिकता बुद्धि की, स्मरणात्मक चित्त की, गर्वात्मक अहं की, विशुद्ध ज्ञानरूपता मान्य है। उक्त रीति से यह कथन भी सिद्ध है कि अनादि परमेश्वर की सृष्ट्यादिविष्यक अनन्त विज्ञान में अनुविद्ध अभङ्ग आनुपूर्वी घटित शब्दराशि वेद है। इतना ही नहीं ‘वाचारम्भणं विकारो नामधग्र, मृत्तिकेत्येव सत्यम्’ - छान्दोग्योपनिषद्, आदि श्रुतियों के अनुशीलन से यह तथ्य सिद्ध है कि प्रणवरूप प्रकृतिसंज्ञक आदि शब्द ओंकार, और लक्ष्यभूत ब्रह्मात्मतत्त्व ही जगत् का मूल है। घटपटादिक प्रपञ्च की उपयोगिता ही नहीं अपितु इनका अस्तित्व भी बोधसापेक्ष ही है। अत एव विशुद्ध बोध ही इनका तात्त्विक रूप है। शब्द और अर्थभेद भी वस्तुविज्ञान के अङ्गभूत ही हैं। बोधोत्तर शब्दार्थ भी विगलित हो जाता है। उक्त रीति से शब्दब्रह्म के योग परब्रह्म का विवर्त ही विश्व है। यही कारण है कि आर्षों ने परब्रह्म को प्रथम वैयाकरण सिद्ध किया है। महाभारत में परमात्मा को वैयाकरण कहा गया है। यह तथ्य ‘अनेन जीवेन आत्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि’) आदि श्रुतियों से सिद्ध है। वेदानां वेदं भगवोऽध्येमि (छान्दोग्योपनिषद् ७.१.२), यह श्रुति है। इस श्रुति के अनुसार व्याकरण वेदों का वेद है। अतः महाभारत सहित पाँचों वेदों का वेद व्याकरण है क्योंकि व्याकरण के द्वारा ही पदादि विभागपूर्वक ऋगादि का ज्ञान संभव है। अभिप्राय यह है कि वेदार्थ विज्ञान में व्याकरण का महत्त्वपूर्ण योग है। यही कारण है कि वेद वेदान्तों के भाष्यों को भाष्य कहा जाता है, जबकि व्याकरण के भाष्य को महाभाष्य। वेद के छह अगों में व्याकरण तीसरा अङ्ग है। अङ्ग शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है - अङ्ग्यते ज्ञायते अभीभिरिति अङ्गानि । अर्थात् जिन उपकरणों से किसी तत्त्व के परिज्ञान में सहायता प्राप्त होती है, वे अङ्ग कहलाते हैं । व्याकरणशास्त्र का वेदाङ्गत्व प्रयोजन इसलिये सिद्ध है कि वह पदों के प्रकृति और प्रत्यय का विवरण प्रस्तुत कर, पद के यथार्थ का परिचय देता है। साथ ही (xvii) अर्थ का विश्लेषण भी करता है। व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दा अनेनेति व्याकरणम् । आचार्य कुमारिलभट्टपाद ने यह तथ्य प्रकाशित किया है कि ‘सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् तत् केन गृह्यते।’ अर्थात् सब शास्त्रों का या किसी भी कर्म का जब तक प्रयोजन न कहा जाये, तब तक उसमें किसी की प्रवृत्ति संभव नहीं है। मुनिवर कात्यायन महाभाग ने रक्षोहागमलध्वसन्देह को व्याकरण का प्रयोजन माना है। लोप, आगम और वर्णविकार को जानने वाला ही वेदों की रक्षा कर सकता है। ऊह का अर्थ तर्कवितर्क अर्थात् नूतन पदों की कल्पना है। यह दुष्कर कार्य वैयाकरण के द्वारा ही संभव है। विस्तृतशास्त्र को सारगर्भित समास शैली में प्रस्तुत करके शास्त्र का लघुतासम्पादन भी व्याकरण का प्रयोजन है। समासादि में प्राप्त सन्देहनिवारण के लिये भी व्याकरण का अध्ययन अपेक्षित है। अनेक व्याकरणों के होने के बाद भी, पाणिनीयव्याकरण ही ऐसा है, जो कि समस्त लौकिक तथा वैदिक शब्दों की सिद्धि करता है, अतः अपूर्व है। उसकी अवरोहक शैली भी अपूर्व है। उसकी दुर्गमता का अधिगम करना वैयाकरण के द्वारा ही संभव है। इस रहस्य को सम्मुख रखकर परम विदुषी श्रीमती पुष्पा दीक्षित जी ने “अष्टाध्यायी सहजबोध’’ नामक ग्रन्थ का प्रणयन करके इस दुरूह शास्त्र में सहज प्रविष्ट हो जाने का मार्ग प्रस्तुत करके हमें अत्यन्त प्रमुदित किया Pa उत्सर्गापवादन्याय से रचित पाणिनीयशास्त्र का यही तो वैशिष्ट्य है, कि एक सिद्धान्त के जानते ही अनन्त शब्दराशि सिद्ध हो जाये। पूर्वग्रन्थ उन सिद्धान्तों का तो सम्यक् प्रकाशन करते हैं, किन्तु उस अनन्त शब्दराशि का दर्शन नहीं करा पाते, जिसका अधिगम उस सिद्धान्त से अध्येता को होना चाहिये। “अष्टाध्यायी सहजबोध’’ ग्रन्थ यह कार्य करता है, अतः अपूर्व है। इनकी यह रचना श्री गङ्गा यमुना के तुल्य प्रशस्त हो, ऐसी भावना है। ।। श्रीहरिः शरणम् ।। पाणिनये नमः आचार्य डॉ. बच्चूलाल अवस्थी, ‘ज्ञान’ अधिष्ठाता, आचार्यकुल, कालिदास अकादमी, उज्जैन, म. प्र. वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदीयं विरच्यते’ इस पद्यार्ध में आये हुए ‘इयं’ पद की व्याख्या में गुरुपरम्परा बुद्धिस्थ सिद्धान्तकौमुदी को मान्य करती आई है। सम्पूर्ण वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी पहले बुद्धिस्थ हुई और तत्पश्चात् यथापेक्ष वैखरी में उसे रूपान्तरित किया गया। इसी प्रकार सम्पूर्ण पाणिनीया ष्टाध्यायी ‘इयं’ के रूप में ही पाणिनि ने बुद्धिस्थ करके लोकोपकारार्थ सूत्र रचना की होगी। सूत्ररचना से पूर्व होने वाला यह बौद्ध प्रयास श्रमसाध्य नहीं होता, परन्तु समयसाध्य अवश्य होता है। समय से काल के अतिरिक्त अन्य सभी आचारादि अर्थ भी लेने होते हैं तब कहीं कोई शास्त्र या कोई भी कथ्य बुद्धिस्थ होता है और वैखरी में अनुवाद लेकर एक परम्परा स्थापित करता है। इसी को बुद्धिसत्ख्यातिवाद कहकर व्याकरण दर्शन में प्रतिष्ठित किया गया है। महाभाष्यकार ने कहा है कि किसी तन्तुवाय से ‘पटं कुरु’ कहा जाये तो वह बेचारा संकट में पड़ जायेगा। ‘यदि कर्तव्यो न पटः यदि पटो न कर्तव्यः’ । और तब वह बुद्धिस्थ करके ऐसा कुछ करना ही स्वीकार करता है, जिससे वह कछ बन जाये जिसे प्रस्तत वक्ता पट कर रहा है। बद्धिसत्ख्याति का यह लौकिक मूल है जिसे महाभाष्यकार ने प्रस्तुत किया है। “अष्टाध्यायी सहजबोध’’ को जब विचार दृष्टि से समझना चाहते हैं तो विविक्त दृष्टि से यही पता चलता है कि जिसे अष्टाध्यायी की बुद्धिसत्ख्याति हुई है, बुद्धि में विद्यमान अष्टाध्यायी का जो समग्र बोध कर चुका है, वही उसकी सविकल्पक ख्याति या प्रतीति कर सकता है और तब सहज रूप से सम्प्रदाय वैविध्य (xix) से प्रक्रिया के विविध आयाम सामने उपस्थित होते हैं और उन आयामों में बाँधकर कोई व्याख्याता अपनी व्याख्या प्रस्तुत करता है। अष्टाध्यायी को लेकर न जाने कितने विचार सामने आये हैं और न जाने कितनी शंकाएँ उपस्थित की जाती रही हैं परन्तु सभी शंकाओं का व्याकरणदर्शन में एक ही समाधान माना गया है - “व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्नहि संदेहादलक्षणम्’’। अर्थात् किसी शास्त्र को शङ्कामात्र से अशास्त्र नहीं किया जा सकता। शङ्का में अनेकार्थ की प्रतीति होती है परन्तु अर्थविशेष की प्रतिपत्ति के लिये व्याख्याता वही होता है जो लक्ष्यैकचक्षुष्क हो। हमारे जैसे लक्ष्णैकचक्षुष्क लोगों के लिये, जो लक्ष्यों ने अनुसार लक्षणों की व्यवस्था कर सकता हो, वही व्याख्याता किसी विशेष सम्प्रदाय की स्थापना भी कर सकता है। भट्टोजि दीक्षित जैसे मनीषियों ने कार्यकालं संज्ञापरिभाषम्’ की पद्धति पर जो सिद्धान्तकौमुदी निर्मित की, उस कौमुदी में बहुतों को तत्त्वावलोकन नहीं हो पाता। वहाँ भी प्रकाशान्तर की अपेक्षा होती है। एतदर्थ अनेक उपक्रम होते आये हैं। अनेक व्याकरण लिखे गये, जो पाणिनि को उद्गम के रूप में लेकर भी उनसे पृथक् मार्ग बनाने का प्रयास करते रहे। कातन्त्र व्याकरण आदि ऐसे ही व्याकरण बने जिन्होंने लोकव्यवहार की संस्कृत भाषा को सामने लाने का प्रयास किया। वे यह भूल गये कि वेद और पुराण कैसे पढ़े जायेंगे ? उनका अर्थ कैसे जाना जायेगा। आश्वस्त और विश्वस्त जैसे शब्दों को कैसे समझा जायेगा। यह सब बुद्धिस्थ करके ही कोई वैयाकरण उच्छवसित और निःश्वसित से प्रेरणा लेकर आश्वसित और विश्वसित को भी सामने रख सकता है कोई वैयाकरण समस्त अष्टाध्यायी को बुद्धिसत्ख्याति में लाकर ही ‘अयं प्रयोगः साधुः’ कह सकता है। क्योंकि इदन्ता प्रत्यक्ष में होती है और यह प्रत्यक्ष जब तक बुद्धि में नहीं होगा तब तक यह सम्प्रदाय को चलाया नहीं जा सकता। हम सब उस परम्परा के सम्प्रदान कारक हैं, जिससे हमको सम्यक् प्रकृष्ट दान मिला है। अत एव हमारे आचार्यों का एक सम्प्रदाय है, जिसका अनुगमन करके ही हम वाग्योग की साधना कर सकते हैं। महाभाष्यकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि “ अवाग्योगविद् दुष्यति चापशब्दैः’’। हम अपशब्दों से बचकर, साधु (XX) शब्दों के प्रयोग का वाग्योग या शब्दयोग अपनाकर ही भगवान् भर्तृहरि के शब्दों में पाणिनीय शास्त्र के लिये कह सकते हैं - “इयं सा मोक्षमाणानामजिह्मा राजपद्धतिः’’। इस परम्परा में हमने पाणिनि की बुद्धि को जैसा पाया है, वैसा चित्र आचार्यों की धारा में बनता आया है। हर एक ने अपना कूर्च उठाया है और विविध चित्र प्रस्तुत किये हैं। पाणिनि बहुरूप होता गया। वह अनन्तरूप बनता गया है। अतः ‘पाणिनये नमः’ कहकर हम परमात्मा को नमन करते हैं। इसी परम्परा में एक अध्याय और जुड़ता है, जब हम डा. पुष्पा दीक्षित कृत ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ को दृष्टिगोचर करते हैं। पाणिनि का एक नया चित्र, एक नयी आभा एवं चमक के साथ अवतीर्ण होता है। हम पहिले चमत्कृत होकर विभोर हो जाते हैं और फिर देखते हैं कि उस पाणिनि ने आज हमको जिस रूप में दर्शन दिया वह वाग्योग की सहज समाधि का ध्यानगम्य तत्त्व है, जो बहिर्दृष्टि से प्रत्यक्ष हो उठा है। हम आज इस परम्परा में इस कृति को इदन्ता के वृत्त में लेकर कृतार्थ हो सकते हैं। ८. १. १९९९ HOT MISL 2nment सदाशीः आचार्य डॉ. रामयत्न शुक्ल, भूतपूर्व व्याकरणविभागाध्यक्ष, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, उ. प्र. प्रो. पुष्पा दीक्षित के द्वारा विरचित “अष्टाध्यायी सहजबोध’’ के ‘आर्धधातुक प्रत्ययों की इडागम व्यवस्था’ आदि कुछ अंशों को देखा। पूर्वाचार्यों ने अष्टाध्यायी की व्याख्यायें तात्कालिक अध्येताओं की प्रवृत्ति के अनुसार की हैं, जिससे अष्टाध्यायी के दुरूह एवं विवादित विषयों का विस्फोरण हुआ है, तथा व्याकरण शास्त्र उज्जीवित होकर पुनः विकसित हुआ है। अतः व्याकरण जगत् उन आचार्यगणों का अधमर्ण है। उसी के आधार पर ही पारम्परिक अध्येताओं की अध्ययनाध्यापन की प्रवृत्ति को देखते हुए अष्टाध्यायी की एक ऐसी व्याख्या की आवश्यकता थी, जो अष्टाध्यायी के क्रमों के अनुसार वैज्ञानिक और सुबोध हो। आचार्यों ने यथासमय अध्ययन की विधाओं को तदानीन्तन अध्येताओं की प्रवृत्ति के अनुरूप परिवर्तित किया है। जैसे अष्टाध्यायीक्रमानुसार पठन पाठन की परम्परा को सर्वग्राह्य न समझकर श्री दीक्षित प्रभृति आचार्यों ने लक्ष्यानुसार सिद्धान्तकौमुदी आदि ग्रन्थों का विरचन किया है, उसी प्रकार प्रो. दीक्षिता की अष्टाध्यायी की यह सहजबोधात्मक व्याख्या सहज शैली से छात्रों एवं विद्वानों के लिये अत्यन्त लाभप्रद होगी, क्योंकि इडागम आदि के सन्दर्भ में अद्यावधि उपलब्ध पद्धतियों से भी अनिर्णयात्मक स्थिति प्रायः बनी रहती है। मेरी भी प्रबल इच्छा थी कि धातु सम्बन्धी समस्त प्रत्ययों की एक प्रामाणिक परिमार्जित रूप पद्धति का निर्माण करूँ, किन्तु उसके लघु प्रकार की चिन्ता में था। जब प्रो. दीक्षिता के इस सदर्ह प्रयास को सुना और देखा तो महान् (xxii) सन्तोष हुआ। विशेषकर इस तथ्य पर आनन्दानुभूति हुई, कि प्रो. दीक्षिता ने आधुनिक अध्येताओं की रुचि को ध्यान में रखा तथा अष्टाध्यायी क्रमानुसार सेट अनिट् धातुओं तथा प्रत्ययों का विश्लेषण करके सुस्पष्ट व्याख्या की। इससे पाठकों को स्पष्ट एवं निःसंशय विवेक हो सकता है, तथा इसके आधार पर कोई भी निर्धम प्रयोग कर सकता है। श्रीमती दीक्षिता के इस अन्वेषणात्मक प्रयास से व्याकरण जगत् का स्तुत्य उपकार हुआ है। विदुषी दीक्षिता मान्य व्याख्याकारों में चिरकीर्तिमती के रूप में सम्मानित होती रहेंगी, क्योंकि व्याख्या के अवलोकन से व्याख्याकार की प्रतिभा एवं उसका व्याकरणविषय परिनिष्ठित चिन्तन प्रमाणित होता है। हम भगवान् श्री विश्वनाथ से प्रार्थना करते हैं कि श्रीमती दीक्षिता को वे चिरायुष्य प्रदान करें, जिससे वे इसी तरह लोकोपकारक ग्रन्थों के निर्माण के द्वारा व्याकरण शास्त्र को जीवन प्रदान करती रहें। ६. १. १९९८ रामयल MMपुरस्क्रिया आचार्या डॉ. पुष्पा दीक्षित, संस्कृतविभागाध्यक्षा, शासकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिलासपुर, म. प्र. पाणिनीय व्याकरण को पढ़ने की दो पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक तो पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों के अर्थों को पाणिनीय अष्टाध्यायी के क्रम से ही पढ़ना। यह मार्ग महाभाष्य से प्रारम्भ होकर काशिकावृत्ति से होता हुआ बीसवी सदी तक चला है। दूसरी पद्धति है प्रक्रियापद्धति, जिसका सर्वप्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्तकौमुदी है। इन दो पद्धतियों के रहते हुए ‘अष्टाध्यायी सहजबोध’ के रूप में इस तीसरी पद्धति की आवश्यकता क्यों पड़ी ? पहिले इसका प्रयोजन हम जान लें। ‘अष्टाध्यायी’ में सूत्र अनुवृत्ति क्रम के अनुरोध से रखे गये हैं। अधिकार, अनुवृत्ति और सूत्रों का पूर्वापर विज्ञान ‘अष्टाध्यायी’ के प्राण हैं। इन्हें एक बार ‘अष्टाध्यायी’ से ही समझ लेने से ‘अष्टाध्यायी’ का विज्ञान तो स्पष्ट हो जाता है, किन्तु प्रक्रिया में प्रवेश नहीं हो पाता है। प्रक्रिया ग्रन्थ पहिले ‘प्रयोग’ को सामने रख लेते हैं। उस प्रयोग के लिये सारे सूत्र लाकर वहाँ खड़े कर देते हैं। इससे ‘अष्टाध्यायी’ की व्यवस्था भग होती है। इसलिये प्रक्रिया ग्रन्थ के अध्येता ‘अधिकार सूत्रों के मर्म को नहीं समझ पाते हैं। यही कारण है कि व्याकरण में अत्यधिक परिश्रम करने के बाद वे प्रयोग तो बना लेते हैं, प्रयोग बनाने का विज्ञान नहीं समझ पाते। अत. ‘पाणिनीय अष्टाध्यायी’ के विज्ञान को स्पष्ट करते हुए एक प्रयोग को बनाने की प्रक्रिया बतलाकर उसके समानाकृति सारे प्रयोगों को उसी स्थल पर दर्शाकर इदमित्थम् बतला देने वाली एक पद्धति अभीष्ट थी, जिससे समग्र ‘अष्टाध्यायी’ एक वर्ष में हृद्गत हो सके। यही अष्टाध्यायी सहजबोध है। • यह कार्य मैंने तिङ्न्त प्रकरण से आरम्भ किया है। तिङ्न्त प्रकरण वस्तुतः व्याकरणशास्त्र की महाटवी है। एक एक धातु के दसों लकारों के रूप (xxiv) बनाना, सीख सीखकर भी छात्र सिद्धान्तकौमुदी में दिये हुए प्रयोगों से भिन्न किसी भी धातुरूप को बनाने में लड़खड़ा जाते हैं, यह सर्वानुभूत है। अतः यह स्पष्ट है कि प्रक्रिया ग्रन्थ प्रयोगों की सिद्धि तो कर देते हैं। परन्तु उनकी सिद्धि के विज्ञान को स्पष्ट नहीं करते हैं। दूसरी बात यह कि प्रक्रिया ग्रन्थ एक प्रयोग को लक्ष्य बनाकर उसी के लिये सारे सूत्रों को उपस्थित करते हैं, अतः हम उन सूत्रों के उतने ही अर्थ को जान पाते हैं, जितना अर्थ उस प्रयोग के लिये आवश्यक है। शेष अर्थ बुद्धिगम्य ही रह जाता है। जैसे - ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च’ यह सूत्र सिद्धान्तकौमुदी में ‘ऊयतुः’ प्रयोग बनाने में आता है। वहाँ ‘एषां किति डिति च सम्प्रसारणं स्यात्’ इतना कहकर तथा उदाहरण के रूप में एक ‘ऊयतुः’ प्रयोग को देकर यह सूत्र विरत हो जाता है। सूत्र का अवशिष्ट अर्थ उदाहरण सहित समझने के लिये बचा ही रहता है, जो आगे सारे ग्रन्थ में कहीं नहीं कहा जाता, अनुमानगम्य ही रहता है। __प्रक्रिया ग्रन्थों में ‘पाणिनीय धातुपाठ’ के एक एक धातु को उसी क्रम से लेकर उनके दस दस लकारों के रूप, लट्, लिट्, लुट, लुट, आदि अकारादि क्रम से बनाये गये हैं। इन ग्रन्थों में धातु, पाणिनीय धातुपाठ के क्रम से हैं तथा लकार अकारादि क्रम से हैं। __इस ‘अष्टाध्यायी सहजबोध’ में हमने लकारों का यह प्रचलित अकारादि क्रम तोड़ा है तथा तोड़कर उसके दो हिस्से कर दिये हैं। लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् तथा सार्वधातुक लेट् इन पाँच सार्वधातुक लकारों का एक वर्ग बनाया है तथा शेष अवशिष्ट लिट्, लुट, लुट, आर्धधातुक लेट, आशीर्लिङ्, लुङ, लुङ्, इन सात आर्धधातुक लकारों का दूसरा वर्ग बनाया है। अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि भगवान् पाणिनि को भी यही अभीष्ट है। वस्तुतः सार्वधातुक तथा आर्धधातुक, ये दो अलग अलग मार्ग हैं। इनमें अलग अलग चलने में ही सरलता है। प्रक्रिया ग्रन्थों ने दोनों को ऐसा मिलाकर रख दिया है कि छात्र की बुद्धि में दोनों की कोई पृथक् अवधारणा ही स्थापित नहीं हो पाती है।
- हमने सारे धातुओं के चार सार्वधातुक लकारों को बनाने की विधि सार्वधातुक खण्ड में देकर सार्वधातुक की चर्चा समाप्त करके तब आर्धधातुक में (xxv) प्रवेश किया है। उसमें प्रवेश के पूर्व इडागम को स्पष्ट किया है क्योंकि इडागम ही आर्धधातुक खण्ड की रीढ़ है। जैसे - ‘पठितम्’ को देखिये । जब हम छात्र से पूछते हैं कि इसमें इडागम क्यों हुआ है, तो उत्तर मिलता है कि ‘क्त’ प्रत्यय वलादि आर्धधातुक प्रत्यय है, अतः ‘आर्धधातुकस्येड् वलादेः’ सूत्र से इडागम हुआ है। जब हम पूछते हैं कि ‘कृतम्’ में भी तो वही वलादि आर्धधातुक प्रत्यय है, किन्तु इसे इडागम क्यों नहीं हुआ ? तब उत्तर मिलता है कि इसे इडागम इसलिये नहीं हुआ है, कि कृ धातु अनिट् है। __ अतः स्पष्ट है कि इडागम केवल प्रत्यय पर आश्रित नहीं होता, अपितु प्रत्यय तथा प्रकृति दोनों के ही सेट होने पर इडागम होता है। कुछ धातु ‘सेट’ होते हैं, कुछ ‘अनिट’। कुछ प्रत्यय ‘सेट’ होते हैं, कुछ ‘अनिट् । जब सेट धातु सेट् प्रत्यय से मिलते हैं तभी इडागम होता है। दोनों में से एक के भी अनिट होने पर इडागम नहीं होता है। _ अतः यह अत्यावश्यक है कि आर्धधातुक मार्ग में प्रविष्ट होने के पहिले छात्र, सेट अनिट् धातुओं को तथा सेट अनिट् प्रत्ययों को अलग अलग पहिचान ले। इसके बिना आर्धधातुक प्रत्यय सामने आते ही इडागमनिर्णय में स्खलन होगा। __ यही बात प्रत्ययों के विषय में भी है। सामान्यतः छात्र जानता है कि तिङ् शित् से भिन्न प्रत्यय आर्धधातुक होते हैं। किन्तु ऐसी बात नहीं है। ‘गुप्तिज्किद्भ्यः सन्’ सूत्र से विहित ‘सन्’ प्रत्यय तिङ् शित् से भिन्न है, परन्तु आर्धधातुक नहीं है। _ अतः हमने आर्धधातुक खण्ड में प्रविष्ट होने के पहिले हमने आर्धधातुक प्रत्ययों का स्वरूप पाणिनीय अष्टाध्यायी के अधिकारों के आधार पर स्पष्ट करके सेट अनिट् प्रत्यय तथा सेट अनिट् धातु अलग अलग बतला दिये हैं। भगवान् पाणिनि भी चाहते हैं, कि छात्र इस इडागम विज्ञान को एक साथ समझ ले, इसीलिये वे इडागमविज्ञान के सारे सूत्रों को अष्टाध्यायी में ७.२.८. से ७.२.७८ में एक साथ ‘इडागम प्रकरण’ के रूप में रखते हैं। इडागम विज्ञान को स्पष्ट करने के बाद हमने एक एक आर्धधातुक लकार का अलग अलग विचार किया है, क्योंकि हर लकार का अलग अलग विज्ञान है। लृट् लकार बनाने का विज्ञान समझकर क्यों न हम समस्त धातुओं (xxvi) का लट् लकार बना डालें। इसमें स्पष्टता है। एक मार्ग छात्र के सामने स्पष्ट है, उसे केवल उसी में निरवरोध चलना है। इसमें अति लाघव है क्योंकि हमने धातुपाठ के १९४३ धातुओं के अलग अलग रूप बनाने की पद्धति नहीं दी है, अपितु उन धातुओं को १३ वर्गों में बाँट दिया है, और एक वर्ग के एक ही धातु को बनाने की प्रक्रिया दी है। __ फलतः सामान्य से सामान्य छात्र भी ६ घण्टे के यत्न से समग्र धातुओं का लट् लकार बनाना सीख जाता है। इसके बाद वह दूसरे लकार में प्रवेश करता है। ऐसा इसलिये कि प्रत्येक लकार का अपना अलग अलग विज्ञान है। उन्हें अलग अलग पढ़ने में ही स्पष्टता है। एक साथ खिचड़ी बनाकर पढ़ने से भ्रम ही भ्रम है। दसों लकार और सारी प्रक्रियाएँ वस्तुतः अष्टाध्यायी के तीसरे अध्याय के प्रथम पाद के प्रारम्भिक ९० सूत्रों की व्याख्या ही है। उन्हें खण्ड खण्ड में व्याख्यात कर देने वाली इस ‘अष्टाध्यायी सहज बोध’ पद्धति का चिन्तन सर्वथा अपूर्व है। इससे पूर्व इस प्रकार से अष्टाध्यायी का अथवा प्रयोगों का, कभी भी, कोई विचार किया ही नहीं गया है। व्याकरण शास्त्र के महोदधि में साधारण से साधारण बालक भी मछली के समान तैरने लगे, यही इसका लक्ष्य है। हमने नन्हें बालकों पर इसका प्रयोग किया है। वे खेलते खेलते ‘व्याकरण शास्त्र’ जान जाते हैं। __एक रूप सीख लेने पर भी अन्य रूप कैसे बनेंगे? यह विचिकित्सा इस ग्रन्थ में नहीं है। प्रत्यय का स्वरूप यदि हमारे सामने स्पष्ट है, तभी अङ्गकार्य सही हो सकता है अन्यथा नहीं। यथा - कथ + णिच् में हम ‘अतो लोपः’ करते हैं क्योंकि यह णिच् प्रत्यय आर्धधातुक है। चीवर + णिच् में हम ‘टेः’ सूत्र से टिलोप करते हैं क्योंकि यह णिच् प्रत्यय आर्धधातुक नहीं है। इस प्रकार प्रत्यय के स्वरूप को पहिचानने में ही अङगकार्य का विज्ञान टिका हुआ है। इस ग्रन्थ में हमने एक एक प्रत्यय को अलग अलग लेकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए अङ्गकार्य करने की स्पष्ट दिशा निर्धारित करके दे दी है। कहते हैं कि जब किसी ग्रन्थ को महत्त्वबुद्धि से पढ़ा जाता है, तब वह ग्रन्थ स्वयं ही अपने स्वरूप को प्रकाशित कर देता है और जब किसी कार्य को (xxvii) भगवत्कार्य मानकर किया जाता है, तब उनकी पूरी प्रकृति उस कार्य की सहायक बनती है, यह इस कार्य के साथ मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है कि अनेकशः अधूरे छूटे हुए कार्य का उन्होंने स्वयं स्मरण दिलाया है और आकर उसे पूर्ण किया है। गीता में वे कहते हैं - अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।। यही सत्य है। इस कार्य में मैंने १२ वर्षों तक अनवरत श्रम किया है, किन्तु इसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यह तो भगवान् पाणिनि की महत्ता है। उनकी ही महती सूक्ष्मेक्षिका है। उनका ही विज्ञान है और उनकी व्याख्या में लिखे गये वे सारे ग्रन्थ, जिन्होंने मेरे लिये मार्ग बनाकर रख दिया है, मेरे साधन हैं। _बाल्यावस्था में ही पूज्यपाद पिता, प्राणाचार्य पण्डित सुन्दरलाल जी शुक्ल ने मुझे सार्वधातुक, आर्धधातुक लकार अलग अलग करके पढ़ाये थे और सार्वधातुक लकारों को भी अदन्त तथा अनदन्त इन दो वर्गों में विभाजित करके पढ़ाया था। उसके बाद जब पूज्यपाद गुरुवर्य आचार्य पण्डित विश्वनाथ जी त्रिपाठी से सिद्धान्तकौमुदी का अध्ययन किया, तब भी वह संस्कार चित्त में स्थिर था, अतः उसके भीतर भी इस विज्ञान की खोज का यत्न चलता ही रहता था। __इन दोनों महनीय आचार्यों के पूज्य श्रीचरण ही इस कार्य के बीज हैं। पाणिनीय अष्टाध्यायी तथा धातुपाठ इस कार्य की जड़ हैं। अष्टाध्यायी को अष्टाध्यायी के ही क्रम से व्याख्यात करने वाले काशिका, न्यास, पदमञ्जरी आदि ग्रन्थ इसके स्कन्ध हैं। अधिकारों के निर्धारण में श्री ब्रह्मदत्त जिज्ञासुकृत अष्टाध्यायी प्रथमावत्ति ने भी सहायता की है। सिद्धान्तकौमदी को छोडकर तो प्रक्रिया की कल्पना भी नहीं हो सकती, अतः वह इसमें आमूल व्याप्त रस है तथा अन्य ग्रन्थ शाखाएँ, प्रशाखाएँ, हैं। इन सभी ग्रन्थों ने गहन अन्धकार में मुझे मार्ग दिखाया है। __ धातुरूपावलियों, शब्दरूपावलियों तथा सहस्रों पृष्ठ के ‘धातुरत्नाकर’ जैसे ग्रन्थों के श्रम को देखकर लगता था कि इतना बड़ा कार्य लोग कर कैसे लेते हैं ? पर अष्टाध्यायी पढ़ने से लगा ये लोग इतने बड़े बड़े कार्य इसलिये कर लेते हैं कि इन ग्रन्थकारों के सामने इस कार्य को करने का विज्ञान स्पष्ट है, (xxviii) परन्तु उन्होंने इस विज्ञान को पाठकों के लिये स्पष्ट नहीं किया। अतः इस प्रकार के बृहत्काय ग्रन्थों का केवल यही उपयोग हो पाता है, कि हमें जिस लकार का, जिस प्रक्रिया का जो भी रूप देखना हो, उसे वहाँ देख लें। अतः ये ग्रन्थ केवल सन्दर्भग्रन्थ बनकर रह जाते हैं। किसका सामर्थ्य है जो इतने रूपों को रट ले ! अतः एक पीड़ा थी ऐसी विधि को ढूँढ निकालने की, जिसमें अष्टाध्यायी जैसा लाघव हो। ग्रन्थ का आकार केवल इसलिये बड़ा हो गया है कि बिना किसी की सहायता के इसे पढ़ा जा सके। _ जब कार्य प्रारम्भ किया तब इसकी गुरुता का आभास मुझे स्वयं ही नहीं था। हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के आचार्य डॉ. राधावल्लभ जी त्रिपाठी जो मेरे अनुजकल्प हैं, उनका इस कार्य में बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने इस कार्य की गुरुता को समझा और मुझे इस कार्य में नियोजित किया। इस पद्धति के प्रदर्शन के लिये उन्होंने मझे एक माह का समय दिया। वह इसकी प्रयोग स्थली थी। सुप्रसिद्ध वैयाकरण. पूज्य आचार्य डॉ. रामकरण जी शर्मा, जो अष्टाध्यायी में ही रचे पचे हैं, वे इस कार्य के साक्षी तथा प्रेरक हैं। उन्होंने पदे पदे मुझे मार्गदर्शन किया है। _ अपनी प्रतिभा से पण्डित समुदाय को निस्तेज कर देने वाले मध्यप्रदेश के एकमात्र वैयाकरण आचार्य डॉ. बच्चूलाल जी अवस्थी, जो मेरे पितृकल्प हैं, उन्हें शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता है। बस ऐसा लगता है कि भगवान् पाणिनि स्वयं विग्रह धारण करके उज्जयिनी में विराजमान हैं। कार्य को करते समय सैकड़ों बार गतिरोध हुआ। जैसे सूर्य के सामने अन्धकार नहीं टिक पाता, वैसे ही मेरी शङ्काएँ इस प्रकाशपुञ्ज के सामने आते ही निर्मूल होती गईं और मैं कर्म पथ पर आगे बढ़ती गई। __एक सर्वथा नवीन पद्धति से कार्य करने के संकल्प से ही हृदय में समस्त पूज्यजनों का भय होता था। अतः कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व ही मैंने उनके द्वार का आश्रय लिया, जिनका द्वार एक पल के लिये भी पण्डितों से रिक्त नहीं होता, जिनकी शास्त्रसाधना से काशी की विद्वत्परम्परा अखण्ड है, ऐसे अभिनव पाणिनि, व्याकरणपारावारपारङ्गत परमपूज्य डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी जी ने मेरे इस कार्य को सुनने का अनुग्रह किया। उनका शुभाशीर्वाद इस पथ का पाथेय (xxix) बना। _ भगवत्कृपा से जिनके श्रीचरणों में बैठकर कुछ ग्रन्थों को पढ़ने का अवसर मिला है, ऐसे शब्दशास्त्राम्बुधिपारदृश्वा परमपूज्य गुरुदेव आचार्य डॉ. रामयत्न जी शुक्ल का निर्देशकौशल भी इस कार्य का महद्हेतु है, जो छात्र के हृदय में पैठकर उसके साथ एकाकार होकर उसमें व्याकरण जैसे विषय का हठात् प्रवेश करा देते हैं। उनकी अध्यापन शैली अद्भुत है। व्याकरण मर्मज्ञ पदशास्त्रप्रवीण आचार्य डॉ. लडुकेश्वर शतपथी जी का पुण्यस्मरण मुझे अश्रुपूरित कर देता है, जिनकी प्रेरणा और निर्देशन मुझे सदा मिलता रहा, परन्तु इस समर्पण को स्वीकार करने के लिये वे अब नहीं हैं। इन सभी के चरणकमलों में अपनी सादरप्रणामाञ्जलि विनिवेदित करके मैं अन्तरतम हृदय से इनके आधमर्ण्य को वहन करते हुए अपनी उस कृतज्ञता को अभिव्यक्त करना चाहती हूँ, जिसे अभिव्यक्त करने के लिये अनन्त शब्दराशि भी बहुत छोटी है। जिस विशाल विषयाटवी में निर्भय गमन करना भी दुष्कर है, इसमें रहकर यदि कहीं भी कोई भी कुछ भी कार्य कर पाता है, तो उसमें भगवदनुग्रह ही हेतु होता है और यदि किसी कार्य को भगवत्कार्य मान लिया जाये, वे स्वयं ही अपना कार्य निष्पन्न करने के लिये नानाकृतियों में आविर्भूत हो जाते हैं। जब इस कार्य को प्रारम्भ किया था, तब शिष्य अभिजित दीक्षित तीन वर्ष का था। उसकी तुतली वाणी में अष्टाध्यायी को स्थापित कराते समय मुझे यह विश्वास नहीं था कि वह कालान्तर में इस ग्रन्थ की रचना का समानान्तर सहायक बन जायेगा। आज वह १५ वर्ष का है। उसने इस ग्रन्थ के प्रत्यक्षर के साथ विचारों को नियोजित करने के साथ साथ इस ग्रन्थ के संगणक यन्त्र (कम्प्यूटर) में उट्टकण के कार्य में समग्र सहयोग दिया है। वह इस विषय को आरपार जानता है। इसलिये उसके हाथ में इस कार्य को सौंपकर मैंने असीम निर्भयता का अनुभव किया है। अष्टाध्यायी की इस नवीन विधि का वह प्रत्यक्ष निदर्शन है। कालान्तर में वह पाणिनीयविज्ञान का प्रखरवेत्ता बनेगा। शिष्या दुर्गावती पाण्डेय ने इस ग्रन्थ के लेखन सम्बन्धी कार्य में इतने वर्षों तक अपना अविश्रम यथेष्ट सहयोग देकर, पाणिनीय शास्त्र की इस गङ्गा में अवगाहन करके अपने जीवन को धन्य किया है। (xxx) पाणिनीय शोध संस्थान में पाणिनीयशास्त्र का अध्ययन कर रहे, मेधावी शिष्यों की शकाओं के समाधानों ने, इस कार्य को अनवरत गति प्रदान की है। इनमें शोधच्छात्र आचार्य श्रीराम गौतम प्रधान हैं तथा कु. किरण शास्त्री तथा कु. संस्कृति शास्त्री आदि सहायक हैं। __पुत्र चि. अजेय त्रिवेदी तथा स्नुषा सौ. पद्मा त्रिवेदी ने इस कार्य की निर्विघ्न परिसमाप्ति हेतु भगवान् भूतभावन परमशिव को तुष्ट किया है। उनकी भगवद्भक्ति इस कार्य की पूर्णता का महनीय हेतु है। ये दोनों सर्वथा कृपाभाजन हैं। यह भी भगवत्कृपा ही है कि आज पुत्र चि. अजेय त्रिवेदी के जन्मदिवस पर ही यह कार्य पूर्ण हुआ है।
- पूज्याग्रजा श्रीमती सुशीला वाजपेयी के शुभाशीः और अनुज डॉ. विष्णुदत्त शुक्ल तथा डॉ. शिवदत्त शुक्ल की शुभाशंसाओं ने इस कार्य में हमारे पूज्य पिताजी के प्रखर व्यक्तित्व को देखना चाहा है। मेरा विश्वास है कि ये सब इस कार्य से तृप्त होंगे। - श्रीमती पुष्पा राय, कु. ललिता वर्मा, श्रीमती अनुपमा श्रीवास्तव, डॉ. श्रीमती शची सप्रे, डॉ. भारती भट्टाचार्य प्रभृति अनेक मित्रों का समग्र अन्तर्मन इस कार्य के साथ अनवरत संलग्न था, अतः ये सभी इस कार्य के कारण हैं। मैं उन सभी की कृतज्ञ हूँ। मैं अपने महाविद्यालय की प्राचार्या डॉ. श्रीमती कुसुम सक्सेना तथा पूर्व प्राचार्या डॉ. शीला तिवारी की भी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने इस कार्य की गुरुता को समझकर, मुझे निर्विघ्न कार्य करने का अवसर दिया।
- पूज्य गुरुवर्य डॉ. कृष्णकान्त जी चतुर्वेदी (जबलपुर), वैयाकरण डॉ. श्रीमती मनीषा पाठक (रायपुर), वेद, भारतीय दर्शन, भारतीय इतिहास तथा गणित के विद्वान् मनीषी अग्रजकल्प डॉ. विष्णुकान्त वर्मा (बिलासपुर), कविराज डॉ. अभिराज राजेन्द्र मिश्र (शिमला), डॉ. श्रीमती राजेश मिश्र (शिमला), कविवर डॉ. रमाकान्त शुक्ल (दिल्ली), श्रीमद्भागवत के रसज्ञ, कविता कामिनी के हास डॉ. इच्छाराम द्विवेदी (मैनपुरी), कविराज राजशेखर के मर्मज्ञ विद्वान् डॉ. भास्कराचार्य त्रिपाठी (भोपाल), वैयाकरण आचार्य चन्द्रभानु त्रिपाठी (प्रयाग), डॉ. रहसबिहारी द्विवेदी (जबलपुर), वैयाकरण डॉ. किशोरचन्द्र पाढी (पुरी), व्याकरण तथा अन्य शास्त्रों को संगणक यन्त्र से (xxxi) जोड़कर भगवान् पाणिनि की प्रतिष्ठा को विश्व में प्रख्यापित करने वाले, श्रीभगवान् की मूर्तिमान् अनुपम विभूतिस्वरूप श्री पी. रामानुजन् (बंगलोर), डॉ. सरोजा भाटे (पुणे), वैयाकरण डॉ. कमलाप्रसाद पाण्डेय (बिलासपुर), प्राचार्य श्रीनिवासाचार्य (बिलासपुर), संस्कृत के प्रकृष्ट विद्वान् आचार्य डॉ. ओम्प्रकाश त्रिवेदी, आई. पी. एस. (कमान्डेन्ट, बिलासपुर), संस्कृत के कवि तथा प्रख्यात चिकित्सक डॉ. पूर्णचन्द्र शास्त्री (बरगढ़), वैयाकरण डॉ. कृष्णदेव सारस्वत (रायपुर), वैयाकरण डॉ. कामताप्रसाद त्रिपाठी, (खैरागढ़) प्रभृति देश के मूर्धन्य संस्कृत विद्वज्जनों का समग्र भावजगत् ही इस कार्य की आकृति में प्रकट हुआ है। मैं उन सभी की कृतज्ञ हूँ। _राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के निदेशक माननीय डॉ. कमलाकान्त मिश्र की कृतज्ञता का ख्यापन करना मेरा कर्तव्य है, जिन्होंने इस कार्य की महत्ता को समझकर, इसके प्रकाशन हेतु अनुदान स्वीकृत किया। श्री शैलेन्द्र शर्मा तथा श्री धीरेन्द्र गुप्ता (निम्बल कम्प्यूटर्स, बिलासपुर) ने इस कार्य में अविस्मरणीय आत्मीय सहयोग दिया है। मैं सर्वात्मना उन्हें श्रीवृद्धि का शुभाशीर्वाद देती हूँ। हृदय में जो आविर्भूत हुआ, उसे इस आकृति में आप तक पहुँचाने में मुझे १२ वर्ष का समय लगा। इस दीर्घ काल में जाने कितने जनों का तथा जाने कितने ग्रन्थों का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष सहयोग मिला। यह सब शब्दवाच्य नहीं है। मैं उन सभी की कृतज्ञ हूँ। पाणिनीय धातूपाठ के सारे धातुओं के सारे लकारों तथा सारी प्रक्रियाओं के रूप इस ग्रन्थ से दो मास के श्रम से सहज सिद्ध किये जा सकते हैं, यह मेरा विश्वास है। आकृति बड़ी होने के कारण मैंने इसके सार्वधातुक तथा आर्धधातुक खण्डों को अलग अलग कर दिया है। कहीं कहीं द्वित्वादि विधियों में सरलता के लिये कुछ नवीनता को भी स्वीकार किया है। __यह भी सूचनीय है कि सारे प्रत्ययों की इडागमव्यवस्था को मैंने ‘आर्धधातूक प्रत्ययों की इडागमव्यवस्था’ के नाम से पृथक् भी प्रकाशित किया है। तृतीय खण्ड में कृदन्त के प्रकाशित हो जाने पर यह ‘धात्वधिकार’ पूर्ण हो जायेगा। व्याकरणशास्त्र के अध्ययन में कृच्छ्र तप करने वाले छात्र इस सुगम मार्ग से चलकर सिद्ध हों, तथा पूज्य विद्वज्जनों का शुभाशीर्वाद इसे मिले, यही (xxxii) कामना है। कमियाँ तो बहुत सी रह गई होंगी। विद्वज्जन इसे मेरी अल्पज्ञता समझकर क्षमा करें तथा उनका समाधान करके उपकृत करें, यही निवेदन है। शब्दशास्त्र अनन्त है और जीव की शक्ति अत्यल्प है, तथापि इस अनन्त मार्ग के बीच, कहीं न कहीं अपना गन्तव्य तय करना ही पड़ता है। अतः इस अनन्त व्योम में अपने नन्हे नन्हे पखों से उड़कर जितना मार्ग पार कर सकती थी, उतना किया। पाणिनिशास्त्र का एक भी जिज्ञासु, यदि इससे कुछ पा सका, तो यही इसकी कृतार्थता होगी। परमानन्दकन्द, वृन्दावनचन्द्र, योगीन्द्रमुनीन्द्रब्रह्मरुद्रेन्द्रादिवन्द्य, भक्तवृन्दमानससरोरुहमकरन्द, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के ध्वजवज्राङ्कुशादियुक्त परमपावन पादारविन्दों में जीवन की प्रत्येक क्रिया समर्पित है। यह कृति भी उन्हीं की है। मेरा कहने को कुछ भी नहीं। विक्रमाब्द २०५५, चैत्र कृष्ण तृतीया ५. ३. १९९९ ( पत्रि विषयानुक्रमणिका सार्वधातुक खण्ड प्रथम पाठ - धातु, लकार, प्रत्यय, अङ्ग, इत्संज्ञा, धातुपाठ तथा धातुओं के पद का निर्णय - १ - १७९ धातु १ / लकार तथा लकारों के भेद ४ / लकारों के अर्थ ७ / धातुओं से लगने वाले सार्वधातुक प्रत्यय ९ / धातुओं से लगने वाले सार्वधातुक प्रत्यय ९/ धातुओं से लगने वाले आर्धधातुक प्रत्यय १७ / धातुओं के गण तथा उनके विकरण २६ / अङ्ग ३० / वैदिक व्याकरण क्या है ३१ / इत्संज्ञा ३४ / सत्व विधि ३८ / नत्व विधि ४० / नुमागम विधि ४० / अनुस्वार सन्धि ४० / परसवर्ण सन्धि ४१ / धातुपाठ की संरचना ४३ / धातुपाठ - भ्वादिगण ४७ / अदादिगण ९६ / जुहोत्यादिगण १०२ / दिवादिगण १०४ / स्वादिगण ११४ / तुदादिगण ११६ / रुधादिगण १२७ / तनादिगण १३० / क्रयादिगण १३१ / चुरादिगण १३५ / धातुओं के पद का निर्णय १६८। द्वितीय पाठ - वर्णमाला, माहेश्वरसूत्र, प्रत्याहार, सूत्रों के प्रकार, प्रमुख सन्धियाँ आदि १८० - १९९ वर्णमाला १८० / माहेश्वरसूत्र १८१ / व्याकरणशास्त्र के पारिभाषिक शब्द १८४ / सूत्रों के प्रकार १९० / कुछ प्रमुख सन्धियाँ तथा षत्व, णत्व विधि १९२ / सूत्रों में बाध्यबाधकभाव १९७। तृतीय पाठ - संक्षिप्त अङ्गकार्य २०० - २३६ सार्वधातुक प्रत्ययों का वर्गीकरण २०१ / अङ्गसंज्ञा २०५ / अदन्त अङ्गों मे सार्वधातुक प्रत्यय जोड़ने की विधि २०८ / अगों में हलादि पित् सार्वधातुक प्रत्ययों को जोड़ने की विधि २०९ / अगों में अजादि पित् सार्वधातुक प्रत्ययों को जोड़ने की विधि २११ / अगों में हलादि अपित् सार्वधातुक प्रत्ययों को जोड़ने की विधि २०९ / अङ्गों में अजादि अपित् सार्वधातुक प्रत्ययों को जोड़ने की विधि २२१ / अगों में आर्धधातुक प्रत्ययों को जोड़ने की विधि २३२ । __ चतुर्थ पाठ - प्रथम गणसमूह के अर्थात् भ्वादि, दिवादि, तुदादि, चुरादिगण के धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - पृष्ठ २३७ - २७४ (xxxiv) भ्वादिगण के धातुओं के लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - २३७ / चुरादिगण के धातुओं के लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - २५६ / दिवादिगण के धातुओं के लट, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - २६४ / तुदादिगण के धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - २६९ पञ्चम पाठ - इसमें द्वितीय गणसमूह अर्थात् अदादि, जुहोत्यादि, स्वादि, रुधादि, तनादि क्र्यादि, इन छह गणों के धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि खण्ड खण्ड करके बतलाई गई है - २७५ - ३४३ _ क्रयादिगण के धातुओं के लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - २७५ / स्वादिगण के सारे धातुओं के लट्, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि २८५ / तनादिगण के सारे धातुओं के लट्, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि २९९ / अदादिगण के ‘केवल अजन्त’ धातुओं के लट्, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - ३०३ / जुहोत्यादिगण के केवल अजन्त’ धातुओं के लट, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - ३३० षष्ठ पाठ - हल् सन्धि - ३४४ - ३७१ सप्तम पाठ - अदादि, जुहोत्यादि, रुधादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि - ३७२ - ४१६ . अदादिगण के हलन्त धातुओं के लट, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि ३७२ / जुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि ४०१ / रुधादिगण के धातुओं के लट्, लोट, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि ४०७ । अष्टम पाठ - समस्त धातुओं के सार्वधातुक लेट् लकार बनाने की . विधि - ४१७ - ४२६ नवम पाठ - वैदिक धातुरूप कैसे बनायें - ४२७ - ४३० सूत्रवार्तिकाद्यनुक्रमणिका - ४३१ - ४३६ धातुसूची - ४३७ - ४५० ᳕ प्रथम - खण्ड ।……. ।। श्रीहरिः शरणम ।।