अभी हमने धातुओं के सार्वधातुक लकारों के रूप बनाने की प्रक्रिया सीखी है। यह प्रक्रिया लौकिक वैदिक दोनों ही शब्दों के लिये है। वस्तुतः लौकिक और वैदिक शब्द, सर्वथा भिन्न भिन्न हैं ही नहीं। जहाँ कोई विशेष विधि न बतलाई जाये, वहाँ यह जानिये कि जो लौकिक शब्द है, वही वैदिक है। वास्तविक बात यह है कि पाणिनीय व्याकरण ही ऐसा व्याकरण है, जो कि लौकिक तथा वैदिक उभय शब्दों की सिद्धि करता है । लोक में तो हम, पाणिनीय सूत्रों को लेकर पाणिनीय प्रक्रिया से जो भी शब्द बनाते हैं, वह शुद्ध ही होता है। अतः लोक में व्यवहार को देखकर हम अनन्त शब्दराशि बनाने के लिये स्वतन्त्र हैं। किन्तु वेद में ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि वेद में हम एक भी शब्द घटा या बढ़ा सकने के लिये स्वतन्त्र नहीं है। वहाँ तो जो शब्द हमें जैसे भी मिलते हैं, उन्हें उसी ही रूप में हमें निष्पन्न करना पड़ता है। ‘छन्दसि दृष्टानविधिः’ का यही अभिप्राय है कि वेद में जो भी शब्द जैसा भी दिखे, उसे वैसा ही बनाइये। लोक में हम स्वतन्त्र हैं कि लट् लकार का पतति’ बनाना सीखकर हम पततः, पतन्ति आदि सारे रूप बना डालें किन्तु वेद में यदि हमें लेट् लकार का पताति’ प्रयोग मिलता है तो हमें यह अधिकार नहीं है कि लेट् लकार का ‘पताति’ बनाना सीखकर हम पतातः पतान्ति आदि सारे रूप बना डालें। वेद में हम उतने ही शब्द बनाने के लिये मर्यादित हैं, जितने शब्द हमें वेद में मिलते हैं। पाणिनीय प्रक्रिया हमारे पास है। हम वेद में जैसा भी प्रयोग पायें, इस पाणिनीय प्रक्रिया से उसे निष्पन्न कर लें। पाणिनीय प्रक्रिया से ही वेद के सारे शब्द निष्पन्न हो सकें, इसके लिये भगवान् पाणिनि ने तीन प्रमुख सूत्र हमें दिये हैं। वे इस प्रकार हैं - [[४२८]] छन्दस्युभयथा - अभी हमने सार्वधातुक तथा आर्धधातुक प्रत्ययों का विभाजन करके उन्हें अलग अलग पहिचाना है, किन्तु वेद में ऐसा नहीं होता। वेद में प्रयोग की सिद्धि के लिये किसी भी प्रत्यय की सार्वधातुक संज्ञा हो सकती है और किसी भी प्रत्यय की आर्धधातुक संज्ञा हो सकती है। व्यत्ययो बहुलम् - वेदविषय में बहुल करके सभी विधियों का व्यत्यय होता है। अतः सभी विधियों से तात्पर्य है - सुब्विधि, तिविधि, उपग्रह = परस्मैपद आत्मनेपद विधि, पुरुषविधि, कालविधि, हल्विधि, अज्विधि, उदात्तादि स्वरविधि, कर्तृविधि, यविधि, विकरणविधि आदि। __ व्यत्यय का अर्थ होता है व्यतिगमन । अर्थात् किसी विषय में कुछ प्राप्त हो और कुछ हो जाये। विकरण का व्यत्यय - आगे अलग अलग गणों के अलग अलग विकरण बतलाये जा रहे हैं। जिस गण का धातु होता है, उसमें उसी गण का विकरण लगाया जाता है। लौकिक शब्दों को बनाने की यही विधि है, किन्तु वेद में किसी भी गण के धातु में, कोई सा भी विकरण लग सकता है। यथा - ‘कृ धातु’ तनादिगण का है। लोक में इससे सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘उ’ विकरण ही होता है किन्तु वेद में इससे ‘शप्’ भी मिलता है - सुपेशसस्करति। ‘मृ धातु’ तुदादिगण का है। लोक में इससे सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘श’ विकरण ही होता है किन्तु वेद में शप् भी मिलता है - स च न मरति । ‘भिद् धातु’ रुधादिगण का है। लोक में इससे सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘श्नम्’ विकरण ही होता है किन्तु वेद में शप् भी मिलता है - आण्डा शुष्मस्य भेदति। ‘यु धातु’ अदादिगण का है। लोक में इससे सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर ‘शप्लुक्’ विकरण ही होता है किन्तु वेद में इससे जुहोत्यादिगण का विकरण ‘शप्श्लु’ भी मिलता है - युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनः । लोक में धातु, प्रत्यय के बीच में एक ही विकरण लगता है किन्तु वेद में एक विकरण के स्थान पर, कभी कभी दो विकरण भी मिलते हैं। जैसे - इन्द्रो वस्तेन नेषतु । यहाँ सिप् और शप्, ये दो विकरण हैं। वेद में एक विकरण के स्थान पर कभी कभी तीन विकरण भी मिलते हैं - इन्द्रेण युजा तरुषेम वृत्रम् । यहाँ उ, सिप् और शप् ये तीन विकरण हैं। वैदिक धातुरूप कैसे बनायें ४२९ पद का व्यत्यय - वेद में पदों का भी व्यत्यय होता है। यथा - लोक में हम इच्छति’ को परस्मैपद में कहते हैं। वेद में इसका आत्मनेपद में भी प्रयोग मिलता है - ब्रह्मचारिणमिच्छते । काल का व्यत्यय - वेद में कालों का भी व्यत्यय होता है। यथा - लोक में हम दाधार’ का अर्थ केवल ‘धारण किया’ करते हैं किन्तु वेद में ‘स दाधार पृथिवीम्’ का अर्थ करते हैं उसने पृथ्वी को धारण किया और कर रहा है’। छन्दसि वा - लोक में जो जो भी विधियाँ हैं, वेद में उन सभी विधि गयों का विकल्प होता है अर्थात् पाणिनीय अष्टाध्यायी में कही हुई सारी विधियाँ वेद में, हो भी सकती हैं और नहीं भी हो सकतीं। पाणिनीय अष्टाध्यायी में कही हुई प्रक्रिया से सारे वैदिक शब्द भी निष्पन्न हो सकें, इसके लिये ये तीन सूत्र महास्त्र का कार्य करते हैं। अतः लोक में हम शास्त्र को देखकर शब्द बनायें और वेद में जो शब्द दिखे, उस शब्द को देखकर ही शास्त्र का उपयोग करें। पाणिनीय प्रक्रिया से वैदिक शब्दों को सिद्ध कर सकने का यही विज्ञान है। या हमने इसी ग्रन्थ के अन्त में पाठ २० में अष्टाध्यायी के ही क्रम से अष्टाध्यायी का सत्रपाठ दिया है किन्त इस पाठ में केवल उतने ही सत्र दिये हैं. जितने सूत्र तिङन्त के लिये उपयोग में आये हैं। _इन सूत्रों से जो भी शब्द बनते हैं, वे शब्द लौकिक तथा वैदिक उभय होते हैं। जैसे - भवति, शब्द लौकिक भी है तथा वैदिक भी। _ किन्तु ध्यान दें कि इन सूत्रों में से कुछ सूत्रों में हमने * ऐसा चिह्न लगा दिया है। ये सूत्र केवल वेद के लिये हैं अर्थात् इन सूत्रों से जो शब्द बनते हैं, वे केवल वैदिक होते हैं। जैसे - यजैध्वनमिति च सूत्र ७.१.४३ को देखिये। यह कहता है कि लोक के ‘यजध्वम् एनम्’ के स्थान पर वेद में म् का लोप होकर यजध्वैन बनता है। उदाहरण है - यजध्वैन प्रियमेधाः। __तात्पर्य यह है कि वेद में तो यजध्वैन बनेगा और लोक में यजध्वनम् ही रहेगा। इसी प्रकार ‘तस्य तात्’ ७.१.४४ सूत्र को देखिये। यह कहता है कि वेद में लोट् लकार मध्यम पुरुष बहुवचन के ‘त’ प्रत्यय के स्थान पर ‘तात्’ आदेश होता है। अतः लोक में तो लोट् लकार मध्यम पुरुष बहुवचन में कृणुत’ [[४३०]] बनता है किन्तु वेद में ‘त’ प्रत्यय के स्थान पर ‘तात्’ होकर - गात्रं गात्रमस्य नूनं कृणुतात् बनता है। चूँकि यह व्यवस्था केवल लोट् लकार मध्यम पुरुष बहुवचन के लिये है, अतः यह समझना चाहिये कि शेष रूप जो लोक में बनते हैं, वे ही वेद में भी बनते हैं। यह सिद्धान्त समझ लेने से पाणिनीय व्याकरण से लौकिक तथा वैदिक शब्द एक साथ सिद्ध होते चलते हैं। इन्हें अलग से न पढ़कर वहीं पढ़ना चाहिये, जहाँ ये वैदिक विशेष सूत्र पढ़े गये हैं। __ पूरा व्याकरण पढ़कर अन्त में अलग से वैदिक सूत्रों को पढ़ना पाणिनीय विधि नहीं है क्योंकि इससे अन्य वैदिक रूपों के विषय में शङ्का बनी ही रहती __पाणिनीय व्याकरण ही एकमात्र ऐसा व्याकरण है, जो कि लौकिक, वैदिक, उभय शब्दों की सिद्धि करता है, अतः यह अपूर्व है। र वेद के शब्दों की सिद्धि के लिये अन्य कोई भी व्याकरण नहीं है। प्रातिशाख्यों को वेद का व्याकरण कहना गलत है, क्योंकि वे शब्दों का प्रकृति प्रत्यय विभाग नहीं बतलाते। अतः लौकिक शब्दों को सिद्ध करते समय आप यह मानकर चलें कि आप साथ साथ वैदिक शब्द भी सिद्ध कर रहे हैं। केवल जहाँ अन्तर हो, उसे * चिह्न के सूत्रों में देख लें। सूत्रों के विस्तृत अर्थ काशिकावृत्ति में अथवा सिद्धान्तकौमुदी में देख लेना चाहिये। वैदिक शब्दों की सिद्धि के लिये यही बात आगे द्वितीय खण्ड में तथा समग्र पाणिनीयशास्त्र में याद रखना चाहिये। 9 श्रीकृष्णार्पणमस्तु