०७ अदादि, जुहोत्यादि, रुधादिगण के हलन्त

अदादि, जुहोत्यादि, रुधादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, तथा विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि

द्वितीयगण समूह के प्रत्यय याद रखिये तथा प्रत्ययों की पहिचान सही रखिये । अङ्गकार्य तथा सन्धिकार्य हम बतला चुके हैं। उनका सम्यक् अभ्यास करके ही इस पाठ में प्रवेश कीजिये। उनके बिना धातुरूप नहीं बनेंगे। हुझल्भ्यो हेर्धिः - हु धातु तथा झलन्त धातुओं से परे आने वाले लोट् लकार के ‘हि’ प्रत्यय को ‘धि’ आदेश होता है। वच् + हि - वच् + धि / चोः कुः से कुत्व तथा झलां जश् झशि से जश्त्व करके - वग्धि। अब अन्तिम वर्ण के क्रम से धातुओं के रूप दे रहे हैं। चकारान्त वच् धातु - परस्मैपद। वच् + ति / चोः कुः सूत्र से कुत्व करके वक् + ति = वक्ति । ध्यान रहे कि वच् धातु के प्रथमपुरुष बहुवचन के रूप किसी भी लकार में नहीं बनाये जाते हैं। लट् लकार वक्ति वक्तः वक्षि वक्थः वक्थ तिमि वच्मि वच्वः वच्मः tha का लोट् लकार वक्तु / वक्तात् वक्ताम् वग्धि / वक्तात् वक्तम् वचानि वचाव वचाम लङ् लकार अवक् अवक्ताम् अवक् अवक्तम् अवक्त अवचम् अवच्व अवच्म वक्त अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३७३ वच्युः वच्यात विधिलिङ् लकार वच्यात् वच्याताम् वच्याः वच्यातम् वच्याम् वच्याव चकारान्त पृची - पृच् धातु - आत्मनेपद लट् लकार वच्याम पृचाते पृचते पृक्षे पृचाथे पृग्ध्वे पृच्महे पृच्वहे लोट् लकार पृचाताम् पृचाथाम् पृक्ताम् पृक्ष्व Pos पृचताम् पृग्ध्वम् पृचे जहर पृचावहै पृचामहै अपृच्महि पृचीयाताम् अनाति पृचीमहि लङ् लकार अपृक्त अपृचाताम् अपृचत अपृक्थाः अपृचाथाम् अग्ध्वम् अपृचि अपृच्वहि विधिलिङ् लकार पृचीत पृचीरन् पृचीथाः पृचीयाथाम् पृचीध्वम् पृचीय पृचीवहि जकारान्त णिजि - निंज् धातु - आत्मनेपद लट् लकार निङ्क्ते निजाते निजते निक्षे निजाथे निमध्ये निजे निवहे निज्महे लोट् लकार निजाताम् निजताम् निव निजाथाम् निग्ध्वम् निङ्क्ताम् नीज [[३७४]] पाम् निजै निज्जावहै निजामहै लङ् लकार अनिङ्क्त अनिजाताम् अनिञ्जत अनिथाः अनिञ्जाथाम् अनिङ्ग्ध्वम् अनिजि अनिवहि अनि महि विधिलिङ् लकार निजीत निजीयाताम् निजीरन् निजीथाः निजीयाथाम् निजीध्वम् निज्जीय निज्जीवहि निजीमहि __ इसी के समान जकारान्त शिजि - शिंज् धातु / जकारान्त पिजि - पिंज् धातु / जकारान्त वृजी - वृज् धातु के रूप बनाइये। जकारान्त मृजू - मृज् धातु - परस्मैपद - हलादि पित् प्रत्यय परे होने पर - मृजेवृद्धिः सूत्र से वृद्धि कीजिये। मृजेर्वृद्धिः - मृज् धातु के ऋ को वृद्धि होकर आर् होता है - मृज् + ति - मार्च् + ति / वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से ज् को ष् बनाकर - मार्च् + ति / ‘त’ को ‘ष्टुना ष्टुः’ से ष्टुत्व करके - मार्टि। अजादि पित् प्रत्यय परे होने पर - पूर्ववत् मृजेर्वृद्धिः सूत्र से वृद्धि करके - मृज् + आनि - मा + आनि / अट्कुप्. से णत्व करके - मार्जाणि। __ हलादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - क्डिति च सूत्र से वृद्धिनिषेध कीजिये। यथा - मृज् + तः - मृष्टः । इसी प्रकार मृज् + थः = मृष्ठः आदि। मृड्ढि - मृज् + धि / व्रश्च. से ज् को ष् करके मृष् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - मृष् + ढि / झलां जश् झशि से जश्त्व करके - मृड्ढि । अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - क्डित्यजादौ वेष्यते - अजादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर, यह वृद्धि विकल्प से होती है। मृज् + अन्ति - मा + अन्ति = मार्जन्ति / मृज् + अन्ति - मृजन्ति । पूरे रूप इस प्रकार बने - लट् लकार मृष्टः मृजन्ति / मार्जन्ति मार्भि मृष्ठ मांष्टि मृष्ठःअदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३७५ मृज्युः मामि मृज्वः मृज्मः लोट् लकार माष्टुं / मृष्टात् मृष्टाम् मृजन्तु / मार्जन्तु मृड्ढि / मृष्टात् मृष्टम् मृष्ट मार्जानि मार्जाव मार्जाम लङ् लकार अमार्ट / अमाई अमृष्टाम् अमार्जन् / अमृजन् अमार्ट / अमाई अमृष्टम् अमृष्ट अमाम् अमाव अमाम विधिलिङ् लकार मृज्यात् मृज्याताम् मृज्याः मृज्यातम् मृज्यात मृज्याम् मृज्याव मृज्याम डकारान्त ईड् धातु - आत्मनेपद - ईडजनोधै च - ईड् धातु तथा जन् धातु से परे आने वाले सार्वधातुक ‘से’ तथा ‘ध्वे, ध्वम्’ प्रत्ययों को इट् का आगम होता है। ईड् + से - ईड् + इट् + से = ईडिषे / ईड् + ध्वे = ईडिध्वे। शेष में केवल सन्धि कीजिये। लट् लकार ईडाते ईडते ईडिषे ईडाथे। ईडिध्वे ईडे ईड्वहे ईड्महे लोट् लकार ईट्टाम् ईडिष्व ईडावहै ईडामहै लङ् लकार लङ् लकार में आट का आगम करके आ + ईड् = ऐड् बनायें। ऐडाताम् ऐडत ऐडाथाम् ऐड्ढ्व म् ईडाताम् ईडाथाम् ईडताम् ईडिध्वम् रोदाः ३७६ REP शिला अष्टाध्यायी सहजबोध ईडीध्वम् ऐडि ऐड्वहि ऐड्महि विधिलिङ् लकार ईडीत ईडीयाताम् ईडीरन् ईडीथाः ईडीयाथाम् ईडीय ईडीवहि ईडीमहि तकारान्त षस्ति - संस्त् धातु - परस्मैपद _संस्त् + ति / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से संयोग के आदि अवयव स् का लोप करके - संत् + ति। झरो झरि सवर्णे - हल से परे जो झर्, उसका लोप होता है, सवर्ण झर् परे होने पर। अब संत् + ति - इसे देखिये। यहाँ हल् है - न्। उससे परे झर् है, ‘त्’ । उससे परे, उसी का सवर्ण झर्, पुनः ‘त्’ है। अतः इन दो झरों में से, पूर्व झर् का लोप कर दीजिये। जैसे - संत् + ति - सं + ति। अब ‘अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः’ से अनुस्वार को परसवर्ण करके = सन्ति बनाइये। इसी प्रकार, संस्त् + तः = सन्तः / संस्त् + थः = सन्थः / संस्त् + धि = सन्धि, आदि बनाइये। लङ् लकार के त्, स् प्रत्यय परे होने पर देखिये, कि असंस्त् + त् - में, हल् के बाद जो त् प्रत्यय है, वह अपृक्त (अकेला) प्रत्यय है। ऐसे अपृक्त त्, स् प्रत्ययों का हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् सूत्र से लोप कर दीजिये। असंस्त् + त् - असंस्त् / असंस्त् + स् - असंस्त्।। _ अब यह ‘असंस्त्’ तिङन्त पद है, और यह संयोगान्त है। इसके आदि में स्थित ‘स्’ का ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से लोप करके - असंस्त् - असंत् । __ संयोगान्तस्य लोपः - संयोगान्त जो पद, उसके अन्तिम वर्ण का लोप हो जाता है। ‘असंत्’, इस पद के अन्त में, अनुस्वार + त् का संयोग है। इस त् का संयोगान्तस्य लोपः सूत्र से लोप कर दीजिये। असंत् = असन्। स् प्रत्यय परे होने पर भी इसी प्रकार ‘असन्’ रूप बनाइये। शेष प्रत्यय परे होने पर कुछ नहीं करना है। जैसे - संस्त् + अन्ति = संस्तन्ति आदि। 50 लट् लकारात सन्ति सन्तः संस्तन्ति सन्त्सि सन्थः मा सन्थ अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३७७ संस्त्यात् संस्त्मि संस्त्व : संस्त्मः लोट् लकार सन्तु / सन्तात् सन्ताम् संस्तन्तु सन्धि / सन्तात् सन्तम् सन्त संस्तानि संस्ताव संस्ताम लङ् लकार असन् असन्ताम् असंस्तन् असन् असन्तम् असन्त असंस्तम् असंस्त्व असंस्त्म विधिलिङ् लकार संस्त्याताम् संस्त्युः संस्त्या : संस्त्यातम् संस्त्यात संस्त्याम् संस्त्याव संस्त्याम दकारान्त अद् धातु - परस्मैपद लट् लकार अत्ति अत्तः अदन्ति | अत्सि अत्थः अत्थामा काकान अदमि अद्वः अमः नम लोट् लकार अत्तु / अत्तात् अत्ताम् अदन्तु अद्धि / अत्तात् अत्तम् अत्त अदानि अदाव अदाम यह अजादि धातु है, अतः लङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर इसे ‘आडजादीनाम् ’ सूत्र से आट का आगम करके - अद् + त् - आट् + अद् + त् / ‘आटश्च’ सूत्र से पूर्वपर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश करके - आ + अद् + त् = आद् + त् - अदः सर्वेषाम् - अद् धातु से परे आने वाले अपृक्त प्रत्यय त्, स् को अट का आगम होता है। आद् + त् / आद् + अट् + त् / आद् + अ + त् = आदत्। इसी प्रकार - आद् + स् = आदः । [[३७८]] लङ् लकार आदत् आत्ताम् आदन् आदः आत्तम् आत्त आदम् आद्व आद्म विधिलिङ् लकार अद्यात् अद्याताम् अद्युः अद्याः अद्यातम् अद्यात अद्याम् अद्याव अद्याम दकारान्त विद् धातु - परस्मैपद १. हलादि तथा अजादि पित् प्रत्यये परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ‘इ’ को ‘ए’ गुण कीजिये। विद् + ति - वेत्ति / विद् + आनि - वेदानि। २. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध करके अङ्ग को कुछ नहीं कीजिये। विद् + तः - वित्तः / विद् + अन्ति - विदन्ति। विदो लटो वा - अदादिगण के विद ज्ञाने धातु से परे आने वाले लट लकार के प्रत्ययों के स्थान पर णल् (अ), अतुः, उः, थल्, अथुः अ, णल् (अ), व, म प्रत्यय विकल्प से होते हैं। अतः विद् धातु के पूरे रूप इस प्रकार बने - लट् लकार __ लट् लकार वेत्ति वित्तः विदन्ति वेद विदतुः विदुः वित्थः वित्थ वेत्थ विदथुः विद वेद्मि विद्वः विद्मः विद्व लोट् लकार वेत्तु / वित्तात् वित्ताम् विदन्तु विद्धि / वित्तात् वित्तम् वित्त वेदानि वेदाव वेदाम विद् धातु के रूप लोट् लकार में इस प्रकार भी बनते हैं - विदाकुर्वन्त्वित्यन्यतरस्याम् - विद् धातु से लोट् लकार के प्रत्यय परे होने पर ‘विद्’ को ‘विदाम्’ होता है और उसके बाद ‘कृ’ धातु के लोट् लकार वेत्सि वेद विद्म अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३७९ के रूप लग जाते हैं। कृ धातु के लोट् लकार के रूप बनाना हम तनादिगण में सीख चुके हैं। विदाङ्करोतु / विदाकुरुतात् विदाङ्कुरुताम् विदाकुर्वन्तु विदाकुरु / विदाकुरुतात् विदाकुरुतम् विदाकुरुत विदाकरवाणि विदाकरवाव विदाकरवाम । लङ् लकार सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च - सिच् से परे, अभ्यस्त धातु से परे तथा विद् धातु से परे आने वाले लङ् लकार के अन् प्रत्यय की जगह उः प्रत्यय लगाया जाता है। अविद् + उः = अविदुः।। दश्च - लङ् लकार के स्’ प्रत्यय परे होने पर दकारान्त धातुरूप जो पद, उसके दकार के स्थान पर विकल्प से द् तथा रु - र् आदेश होते हैं। __दकार के स्थान पर द् आदेश होने पर - अवेद् + स् - हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् सूत्र से स् का लोप करके - अवेद् / द् को दत्व करके - अवेद् / वाऽवसाने सूत्र से अवसान में स्थित झल् को विकल्प से चर् आदेश करके - अवेद् / अवेत्। वाक्य बनेगा - अवेद् त्वम्। __दकार के स्थान पर रु आदेश होने पर - अवेद् के द् को रुत्व करके - अवेर् / खरवसानयोर्विसर्जनीयः सूत्र से अवसान में आने वाले र् को विसर्ग करके, अवेर् - अवेः / वाक्य बनेगा - अवेः त्वम्। अवेत् / अवेद् अवित्ताम् अवेत् / अवेद् / अवेः अवित्तम् अवित्त अवेदम् अविद्व अविद्म विधिलिङ् लकार विद्याताम् विद्युः विद्यातम् विद्यात विद्याम् विद्याम विशेष - लकारार्थ देखिये। समो गम्वृच्छिपृच्छिस्वरत्यर्तिश्रुविदिभ्यः, इस सूत्र से सम् उपसर्ग पूर्वक विद् धातु आत्मनेपदी हो जाता है। वेत्तेर्विभाषा - अदादिगण के विद् धातु से परे आने वाले आत्मनेपद प्रथम पुरुष बहुवचन के प्रत्यय, अते’ ‘अत’ ‘अताम्’ को विकल्प से रुट का आगम अविदुः विद्यात् विद्याः विद्याव [[३८०]] बाध होता है। संविद् + अते = संविद्रते, संविदते / संविद् + अताम् = संविद्रताम्, संविदताम् / असंविद् + अत = असंविद्रत, असंविदत। शेष प्रक्रिया पूर्ववत् ही रहेगी। आत्मनेपद में रूप इस प्रकार बनेंगे - दकारान्त विद् धातु - आत्मनेपद जब लट् लकार संवित्ते संविदाते संविद्रते / संविदते संवित्सेना संविदाथे संविद्धवे संविदे । संविद्वहे ग्राम संविद्महे साकार _लोट् लकार संवित्ताम् नमक संविदाताम् संविद्रताम् / संविदताम् संवित्स्व संविदाथाम् संविध्वम् संविदै संविदावहै संविदामहै _लङ् लकार असंवित्त असंविदाताम् असंविद्रत / असंविदत असंवित्थाः असंविदाथाम् असंविध्वम् असंविदि असंविद्वहि असंविद्महि विधिलिङ् लकार संविदीत संविदीयाताम् संविदीरन् संविदीथाः संविदीयाथाम् संविदीध्वम् संविदीय संविदीवहि संविदीमहि वेद के लिये विशेष - बहुलं छन्दसि - वेद के विषय में, किसी भी धातु से परे आने वाले किसी भी प्रत्यय को, विकल्प से रुट का आगम होता है। देवा अदुह्र / गन्धर्वा अप्सरसो अदुह्र। नकारान्त हन् धातु - परस्मैपद हलादि तथा अजादि पित् प्रत्यय परे होने पर कुछ मत कीजिये - हन् + ति - हन्ति / हन् + आनि - हनानि आदि। हन् + सि / नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से अपदान्त नकार को अनुस्वार करके - हंसि। अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३८१ हलादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - जाद ‘अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति’ सूत्र से हन् के अन्तिम अनुनासिक वर्ण ‘न्’ का लोप कीजिये। यथा - हन् + तः = हतः / हन् + थः = हथः आदि। हन्तेर्जः - हन् धातु को ‘ज’ आदेश होता है हि’ प्रत्यय परे होने पर। हन् + हि - ज + हि = जहि। अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - गमहनजनखनघसां क्डित्यनडि - गम्, हन्, जन्, खन्, घस् धातुओं की उपधा का लोप होता है, अङ् से भिन्न अजादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर। हन् + अन्ति - ह्न + अन्ति हो हन्तेर्जिणिन्नेषु - हन् धातु के ह् को कुत्व होकर घ् हो जाता है, जित् णित् प्रत्यय परे होने पर तथा नकार परे होने पर। हन् + अन्ति - हन् + अन्ति - न् + अन्ति = घ्नन्ति। लट् लकार हन्ति घ्नन्ति हथः हन्मि हन्वः हन्मः लोट् लकार हन्तु / हतात् हताम् जहि / हतात् हतम् हनानि हनाव हनाम लङ् लकार अहन् अहताम् अघ्नन् अहन् अहतम् अहत अहनम् अहन्व अहन्म विधिलिङ् लकार हन्यात् हन्याताम् हन्युः हन्या : हन्यातम् हन्यात हन्याम् हन्याव हन्याम हतः हंसि हथ जन्तु हत [[३८२]] ईरते ईर्षे ईर्ताम् ईर्ध्व रेफान्त ईर् धातु - आत्मनेपद - लट् लकार ईराते ईराथे ईचे ईमहे ईमहे लोट् लकार ईराताम् ईरताम् ईराथाम् ईर्ध्वम् ईरै ईरावहै ईरामहै लङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर ‘आडजादीनाम्’ सूत्र से अजादि अङ्ग को आट का आगम करके ‘आटश्च’ सूत्र से वृद्धि करके - आ + ईर् = ऐर् । लङ् लकार ऐराताम् ऐरत ऐर्थाः ऐराथाम् ऐर्ध्वम् ऐर्वहि ऐमहि विधिलिङ् लकार ईरीत ईरीयाताम् ईरीथाः ईरीध्वम् ईरीय ईरीवहि ईरीमहि शकारान्त वश् धातु - परस्मैपद ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च - ग्रह, ज्या, वय, व्यध्, वश्, व्यच्, व्रश्च्, प्रच्छ्, भ्रस्ज् इन धातुओं को सम्प्रसारण होता है कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। अतः डित् प्रत्यय परे होने पर वश् के ‘व’ को सम्प्रसारण करके ‘उ’ बनाइये। शेष प्रत्ययों में ज्यों का त्यों रहने दीजिये। लट् लकार उष्टः उशन्ति वक्षि उष्ठः उष्ठ वश्मि उष्वः उष्मः ईरीरन् ईरीयाथाम् वष्टि अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३८३ लोट् लकार उड्ढि - वश् + हि / ग्रहिज्यावयि. से ‘व’ को सम्प्रसारण करके - उश् + हि / हुझल्भ्यो हेर्घिः से हि को धि करके - उश् + धि / वश्चभ्रस्ज. से ‘श्’ को ‘ए’ करके - उष् + धि / ष्टुना ष्टः से प्रत्यय को ष्टुत्व करके - उष् + ढि / झलां जश् झशि से ‘ए’ को जश्त्व करके - उड्ढि । वष्ट / उष्टात् उष्टाम् उशन्तु उड्ढि / उष्टात् उष्टम् उष्ट वशानि वशाव वशाम लङ् लकार ध्यान रहे कि लङ् लकार के डित् प्रत्यय परे होने पर, जब हम ‘व’ को सम्प्रसारण करते हैं, तब यह धातु हलादि न होकर अजादि हो जाता है। जैसे - वश् + ताम् / उश् + ताम् / सम्प्रसारण होकर जब यह अजादि हो जाये तब अजादि हो जाने के कारण लङ् लकार में इसे आडजादीनाम् सूत्र से ‘आट’ का आगम कीजिये। आ + उश् + ताम् / आटश्च सूत्र से वृद्धि करके - आट् + उश् + ताम् - औश् + ताम् = औष्टाम् आदि। जहाँ सम्प्रसारण न हो वहाँ ‘अट’ का आगम ही कीजिये - अवश् + त् = अवट । पूरे रूप इस प्रकार बने - अवट औष्टाम् औशन औष्टम् औष्ट अवशम् औश्व औश्म विधिलिङ् लकार उश्यात् उश्याताम् उश्युः उश्यातम् उश्यात उश्याम् उश्याव उश्याम शकारान्त ईश् धातु - आत्मनेपद _ईशः से - ईश् धातु परे आने वाले सार्वधातुक से’ प्रत्यय को इट् का आगम होता है। ईश् + से / ईश् + इट् + से = ईशिषे। लट् लकार ईशाते ईशते अवट उश्या : ईष्टे [[३८४]] ईशिषे ईशाथे ईश्वहे लोट् लकार ईड्ढ्वे ईश्महे ईशे ईष्टाम् ईशाताम् ईशाथाम् ईशताम् ईड्ढ्व म् ऐष्ठाः ऐशि ईशीयाताम् ईशीथाः ईशिष्व ईशै ईशावहै ईशामहै लङ् लकार लङ् लकार के प्रत्यय परे होने पर ‘आडजादीनाम्’ सूत्र से अजादि अङ्ग को आट का आगम करके ‘आटश्च’ सूत्र से वृद्धि करके - आ + ईश् = ऐश् । ऐष्ट ऐशाताम् ऐशत ऐशाथाम् ऐड्ढ्व म् ऐश्वहि ऐश्महि विधिलिङ् लकार ईशीत ईशीरन् ईशीयाथाम् ईशीध्वम् ईशीय ईशीवहि ईशीमहि षकारान्त द्विष् धातु - परस्मैपद १. हलादि तथा अजादि पित् परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के इ को ‘ए’ गुण कीजिये। द्विष् + ति - द्वेष्टि/ द्वेष् + आनि - द्वेषाणि। २. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध करके अङ्ग को कुछ नहीं कीजिये। द्विष् + तः - द्विष्टः / द्विष् + थः = द्विष्ठः / द्विष् + अन्ति - द्विषन्ति। शेष प्रक्रिया पूर्ववत् । लट् लकार द्वेष्टि द्विष्टः द्विषन्ति द्वेक्षि द्विष्ठः द्विष्ठ द्विष्वः द्विष्मः लोट् लकार द्विढि - द्विष् + हि - हुझल्भ्यो हेर्घिः से हि को धि करके - द्विष् + धि / ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके - द्विष् + ढि / ‘ष’ को जश्त्व करके - द्विड्ढि । द्वेष्मि अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३८५ द्वेषाम द्विष्यात् ‘द्विष्णुः द्विष्याम् द्वेष्ट / द्विष्टात् द्विष्टाम् द्विषन्तु द्विड्डि / द्विष्टात् द्विष्टम् द्विष्ट द्वेषाणि द्वेषाव लङ् लकार द्विषश्च - द्विष् धातु से परे आने वाले लङ् लकार के प्रत्यय ‘अन्’ के स्थान पर विकल्प से ‘उः’ आदेश होता है। अद्वेट / अद्वेड् अद्विष्टाम् अद्विषुः / अद्विषन् अद्वेट / अद्वेड् अद्विष्टम् अद्विष्ट अद्वेषम् अद्विष्व अद्विष्म विधिलिङ् लकार द्विष्याताम् द्विष्याः द्विष्यातम् द्विष्यात द्विष्याव द्विष्याम षकारान्त चक्ष् धातु - आत्मनेपद चक्ष् + ते / यहाँ स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से संयोग ‘क्ष्’ के आदि में स्थित ‘क्’ का लोप कीजिये। चक्ष् + ते - चष् + ते / ष्टुना ष्टुः सूत्र से ते’ को ष्टुत्व करके ‘टे’ बनाइये। चष् + ते - चष् + टे = चष्टे । लट् लकार चष्टे चक्षते चक्षे चक्षाथे चड्ढ्वे चक्षे चक्ष्वहे चक्ष्महे लोट् लकार चष्टाम् चक्षाताम् चक्षताम् चक्ष्व चक्षाथाम् चड्ढ्व म् चक्षै चक्षावहै चक्षामहै लङ् लकार अचष्ट अचक्षाताम् अचक्षत अचष्ठाः अचक्षाथाम् अचड्ढ्व म् अचक्षि अचक्ष्वहि अचक्ष्महि चक्षाते [[३८६]] वसते वसे विधिलिङ् लकार चक्षीत चक्षीयाताम् - चक्षीरन् चक्षीथाः चक्षीयाथाम् चक्षीध्वम् चक्षीय चक्षीवहि चक्षीमहि अब सकारान्त धातुओं के रूप बनायें। धि च - धकारादि प्रत्यय परे होने पर सकार का लोप होता है। वस् + ध्वम् = वध्वम् । आस् + ध्वम् = आध्वम् । कंस् + ध्वे = कंध्वे । निस् + ध्वम् = निध्वम्। वस् + ध्वे = वध्वे। शेष प्रक्रिया पूर्ववत्। सकारान्त वस् धातु - आत्मनेपद लट् लकार वस्ते वसाते वस्से वसाथे वध्वे वस्वहे वस्महे लोट् लकार वस्ताम् वसाताम् वसताम् वस्व वसाथाम् वध्वम् वसावहै वसामहै लङ् लकार अवस्त अवसाताम् अवसत अवस्थाः अवसाथाम् अवसि अवस्वहि अवस्महि विधिलिङ् लकार वसीत वसीयाताम् वसीथाः वसीयाथाम् वसीध्वम् वसीय वसीवहि वसीमहि सकारान्त आस् धातु - आत्मनेपद लट् लकार आसाते आसते आस्से आसाथे वसै अवध्वम् वसीरन् आस्ते आध्वे अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३८७ आसे आस्वहे आस्महे लोट् लकार आस्ताम् आसाताम् आसताम् आस्व आसाथाम् आध्वम् आसै आसावहै आसामहै लङ् लकार आस्त आसाताम् आसत आस्था : आसाथाम् आध्वम् आसि आस्वहि आस्महि विधिलिङ् लकार आसीत आसीयाताम् आसीरन् आसीथाः आसीयाथाम् आसीध्वम् आसीय आसीवहि आसीमहि सकारान्त आङः शासु धातु आत्मनेपद - आस् के ही समान - लट् लकार आशास्ते आशासाते आशासते आशास्से आशासाथे आशावे आशासे आशास्वहे आशास्महे लोट् लकार आशास्ताम् आशासाताम् आशासताम् आशास्व आशासाथाम् आशाध्वम् आशासै आशासावहै आशासामहै लङ् लकार आशास्त आशासाताम् आशासत आशास्थाः आशासाथाम् आशाध्वम् आशासि आशास्वहि आशास्महि विधिलिङ् लकार आशासीत आशासीयाताम् आशासीरन् आशासीथाः आशासीयाथाम् आशासीध्वम् [[३८८]] कंसे कंस्ताम् कंसताम् कसै आशासीय आशासीवहि आशासीमहि सकारान्त कसि - कंस् धातु - आत्मनेपद लट् लकार कंस्ते कंसाते कंसते कस्से कंसाथे कंध्वे कंस्वहे कंस्महे लोट् लकार कंसाताम् कंस्व कंसाथाम् कंध्वम् कंसावहै कंसामहै लङ् लकार अकस्त अकंसाताम् अकसत अकस्थाः अकसाथाम् अकन्ध्वम् अकसि अकस्वहि अकस्महि विधिलिङ् लकार कंसीत कंसीयाताम् कंसीरन कंसीथाः कंसीयाथाम् कंसीध्वम् कंसीय कंसीवहि कंसीमहि सकारान्त णिसि - निस् धातु - आत्मनेपद लट् लकार निस्ते निसाते निंसते निस्से निसाथे निध्वे निसे निस्वहे लोट् लकार निस्महे निस्ताम् निस्व निसाताम् निसाथाम् निंसताम् निन्ध्वम् निसामहै निसै निसावहै लङ् लकार अनिस्त अनिसाताम् अनिंसत अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३८९ निसीरन् निसीध्वम् अनिंस्थाः अनिसाथाम् अनिन्ध्वम् अनिसि अनिस्वहि अनिस्महि विधिलिङ् लकार निसीत निसीयाताम् निंसीथाः निसीयाथाम् निसीय निंसीवहि निसीमहि सकारान्त षस् - सस् धातु - परस्मैपद लट् लकार सस्ति सस्तः ससन्ति सस्सि सस्थः सस्थ सस्मि सस्वः सस्मः लोट् लकार सस् + धि / धि च से सकार का लोप करके - सधि । सस्तु / सस्तात् सस्ताम् ससन्तु सधि / सस्तात् सस्तम् सस्त ससानि ससाव ससाम लङ् लकार का त् प्रत्यय परे होने पर - असस् + त् - हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल सूत्र से त् का लोप करके बचा - असस् / तिप्यनस्तेः - लङ् लकार के त् प्रत्यय परे होने पर सकारान्त पद के अन्तिम सकार के स्थान पर द् आदेश होता है। असस् - असद् । ‘द्’ को ‘वाऽवसाने’ सूत्र से विकल्प से चर्व करके - असद् / असत् । असस् + स् - हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् सूत्र से त् का लोप करके बचा - असस् / सिपि धातो रुर्वा - लङ् लकार के स् प्रत्यय परे होने पर, सकारान्त धातुरूप जो पद, उस पद के अन्तिम सकार के स्थान पर विकल्प से द् तथा रु - र् आदेश होते हैं। असस् - स् को रुत्व करके - असरु / उ की इत्संज्ञा करके - असर् - ‘खरवसानयोर्विसर्जनीयः’ सूत्र से अवसान में आने वाले र् को विसर्ग करके - असर् - असः । रु न होने पर असद् / असत्, ये रूप ही रहेंगे।३९० ᳕ लङ् लकार असत् /असद् असस्ताम् अससन् असः /असत् /असद् असस्तम् असस्त अससम् असस्व असस्म विधिलिङ् लकार सस्यात् सस्याताम् सस्युः सस्याः सस्यातम् सस्यात सस्याम् सस्याव सस्याम सकारान्त अस् धातु - परस्मैपद - सारे अपित् प्रत्यय परे होने पर - श्नसोरल्लोपः सूत्र से अस् के ‘अ’ का लोप कीजिये - अस् + तः - स् + तः = स्तः । अस् + अन्ति - सन्ति । सि प्रत्यय परे होने पर - तासस्त्योर्लोपः सूत्र से अस् के ‘स’ का लोप कीजिये - अस् + सि - अ + सि = असि । शेष प्रत्ययों में कुछ मत कीजिये। लट् लकार अस्ति स्तः सन्ति असि स्थः अस्मि स्वः स्मः लोट् लकार घ्वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च - घुसंज्ञक दा, धा धातु तथा अस् धातु को ‘ए’ आदेश होता है, हि प्रत्यय परे होने पर। अस् + हि - ए + हि। हुझल्भ्यो हेर्धिः - हु धातु तथा झलन्त धातुओं से परे आने वाले ‘हि’ को ‘धि’ आदेश होता है। ए + हि - ए + धि = एधि। अस्तु / स्तात् स्ताम् सन्तु एधि / स्तात् असानि असाव असाम लङ् लकार अस्तिसिचोऽपृक्ते - अस् धातु से परे आने वाले अपृक्त सार्वधातुक प्रत्ययों को अर्थात् त्, स् प्रत्ययों को ईट् का आगम होता है। आ + अस् + त् - आस् + ई + त् = आसीत् / आ + अस् + स् - आस् + ई + स् = आसीः । स्थ स्तम् स्त अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३९१ आसम् स्यात् स्युः स्याः आसीत् आस्ताम् आसन् आसीः आस्तम् आस्त आस्व आस्म विधिलिङ् लकार श्नसोरल्लोपः सूत्र से अस् के ‘अ’ का लोप करके - स्याताम् स्यातम् स्यात स्याम् स्याव स्याम हकारान्त दुह्, दिह् धातु, उभयपद - अङ्गकार्य इस प्रकार करें - १. हलादि तथा अजादि पित् प्रत्यय परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के इ को ए / उपधा के उ को ओ गुण कीजिये। दिह + ति - देग्धि / दोह् + ति - दोग्धि / देह + आनि - देहानि./ दोह् + आनि - दोहानि। _२. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्ङिति च सूत्र से गुणनिषेध करके अङ्ग को कुछ नहीं कीजिये। दिह् + तः - दिग्धः / दुह् + तः - दुग्धः / दिह + अन्ति - दिहन्ति / दुह् + अन्ति - दुहन्ति । ध्यान रहे कि अङ्गकार्य करने के बाद ही सन्धिकार्य किये जायें। सन्धिकार्य इस प्रकार करें - झलादि प्रत्यय परे होने पर, इन धातुओं के ‘ह’ को दादेर्घातोघः सूत्र से ‘घ’ बनाइये - दोह + ति - दोघ + ति / झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके - दोघ + धि / झलां जश् झशि से जश्त्व करके - दोग् + धि = दोग्धि। __दोह् + सि / ‘ह’ को दादेर्धातोर्घः सूत्र से ‘घ’ करके - दोघ् + सि / अब झषन्त होने से इसके आदि बश्’ के स्थान पर एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से ‘भष्’ करके - धोघ + सि / खरि च से चर्व करके - धोक् + सि / आदेशप्रत्यययोः से षत्व करके - धोक् + षि = धोक्षि। __दुह् + ध्वे - दादेर्धातोर्घः सूत्र से दुघ् + ध्वे / एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से - धुघ् + ध्वे / झलां जश् झशि से जश्त्व करके - धुग्ध्वे । अदोह् + त् / ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से त् का लोप करके - अदोह् / ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से इस पदान्त ‘ह’ को ‘घ्’ करके - अदोघ्/ [[३९२]] धुग्ध्वे दोमि दुह्महे ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से भष् करके - अधोघ / झलां जशोऽन्ते से जश्त्व करके - अधोग / वाऽवसाने से चर्व करके - अधोक् । अदोह् + स् से भी इसी प्रकार - अधोक् / अधोग बनाइये । दिह धातु के रूप भी ठीक इसी विधि से बनाइये। दुह के पूरे रूप इस प्रकार बने - लट् लकार दोग्धि दुग्धः दुहन्ति दुग्धे दुहाते । दुहते धोक्षि दुग्धः दुग्ध धुक्षे दुहाथे दुह्रः दुह्मः दुहे । _लोट् लकार दोग्धु / दुग्धात् दुग्धाम् दुहन्तु दुग्धाम् दुहाताम् दुहताम् दुग्धि / दुग्धात् दुग्धम् दुग्ध धुक्ष्व दुहाथाम् धुग्ध्वम् दोहानिदोहाव दोहाम दोहैदोहावहै दोहामहै लङ् लकार अधोग् / अधोक् अदुग्धाम् अदुहन् अदुग्ध अदुहाताम् अदुहत अधोग् / अधोक् अदुग्धम् अदुग्ध अदुग्धाः अदुहाथाम् अधुग्ध्वम् अदोहम् अदुहृ अदुह्म अदुहि अदुहहि अदुपहि विधिलिङ् लकार दुह्यात् दुह्याताम् दुयुः दुहीत दुहीयाताम् दुहीरन् दुह्याः दुह्यातम् दुह्यात दुहीथाः दुहीयाथाम् दुहीध्वम् दुह्याम् दुह्याव दुह्याम दुहीय दुहीवहि दुहीमहि हकारान्त दिह् धातु - उभयपद लट् लकार देग्धि दिहन्ति दिग्धे दिहाते दिहते धेक्षि दिग्धः दिग्ध धिक्षे दिहाथे । धिग्ध्वे दिह्वः दिमः दिहे दिहहे । दिमहे लोट् लकार देग्धु / दिग्धात् दिग्धाम् दिहन्तु दिग्धाम् दिहाताम् दिहताम् दिग्धि/ दिग्धात् दिग्धम् दिग्ध धिक्ष्व दिहाथाम् दिग्ध्वम् देहानि देहाव देहाम देहै देहावहै देहामहै दिग्धः देह्मि अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३९३ दिह्यात् लङ्लकार अधेग् / अधेक् अदिग्धाम् अदिहन् अदिग्ध अदिहाताम् अदिहत अधेग् / अधेक् अदिग्धम् अदिग्ध अदिग्धाः अदिहाथाम् अधिग्ध्वम् अदेहम् । अदिह अदिह्म अदिहि अदिहि अदिह्महि विधिलिङ् लकार दिह्याताम् दिद्युः दिहीत दिहीयाताम् दिहीरन् दिह्याः दिह्यातम् दिह्यात दिहीथाः दिहीयाथाम् दिहीध्वम् . दिह्याम् दिह्याव दिह्याम दिहीय दिहीवहि दिहीमहि हकारान्त लिह धातु, उभयपद - अङ्गकार्य पूर्ववत् कीजिये। ध्यान रहे कि अङ्गकार्य करने के बाद सन्धिकार्य इस प्रकार करें - झलादि प्रत्यय परे होने पर, ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ‘ढ’ बनाइये - लेह + ति - लेट् + ति / झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके - लेट् + धि / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय को ष्टुत्व करके - लेढ् + ढि / ढो ढे लोपः से ‘द’ का लोप करके - लेढि।

  • लेह् + सि / ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर लेट् + सि / षढोः कः सि सूत्र से ढ् को क् करके - लेक् + सि / आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय को षत्व करके - लेक् + षि = लेक्षि। लिह + ध्वे - हो ढः सूत्र से ‘ह’ को ‘ढ’ बनाकर लिढ् + ध्वे / झषस्तथो?ऽधः सत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ करके - लिढ + ध्वे / ष्टना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके - लिल् + ढ्वे / ढो ढे लोपः से ‘ढ्’ का लोप करके लि + ढ्वे / ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः सूत्र से ‘इ’ को दीर्घ करके - लीढ्वे । अलेह् + त् / हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से त् का लोप करके - अलेह / हो ढः सूत्र से ‘ह’ को ‘द’ बनाकर अलेढ / झलां जशोऽन्ते से जश्त्व करके - अलेड्। वाऽवसाने से चर्व करके - अलेट । अलेह + स् से भी इसी प्रकार - अलेड् / अलेट बनाइये। लट् लकार लेढि लीढः लिहन्ति लीढे लिहाते लीढः लीढलिले लिहाथे लीदवे लेमि लिः लिह्मः लिहे लिहहे लिह्महे लिहते लेक्षि [[३९४]] लोट् लकार लेढु / लीढात् लीढाम् लिहन्तु लीढाम् लिहाताम् लिहताम् लीढि / लीढात् लीढम् लीढ लिक्ष्व लिहाथाम् लीढ्वम् लेहानि लेहाव लेहाम लेहै लेहावहै लेहामहै _ लङ् लकार अलेट् / अलेड् अलीढाम् अलिहन् अलीढ अलिहाताम् अलिहत अलेट / अलेड् अलीढम् अलीढ अलीढाः अलिहाथाम् अलीढ्वम् अलेहम् अलि अलिम अलिहि अलिहि अलिमहि विधिलिङ् लकार लिह्यात् लिह्याताम् लियुः लिहीत लिहीयाताम् लिहीरन् लियाः लिह्यातम् लिह्यात लिहीथाः लिहीयाथाम् लिहीध्वम् लिह्याम् लिह्याव लिह्याम लिहीय लिहीवहि लिहीमहि अदादिगण का अन्तर्गण - रुदादिगण - अदादि गण का धातुपाठ देखिये । उसमें अदादिगण के भीतर रुदादि नामक एक अन्तर्गण है। इस अन्तर्गण में रुद्, स्वप्, श्वस्, अन्, जक्ष् ये पाँच धातु हैं। रुदादिभ्यः सार्वधातुके - इस रुदादिगण में पठित इन पाँच धातुओं से परे आने वाले वलादि सार्वधातुक प्रत्ययों को अर्थात् तकारादि थकारादि तथा सकारादि वकारादि तथा मकारादि प्रत्ययों को इट् का आगम होता है। यथा - रुद् - रोद् + ति / रोद् + इ + ति = रोदिति। स्वप् - स्वप् + ति / स्वप् + इ + ति = स्वपिति। श्वस् - श्वस् + ति / श्वस् + इ + ति = श्वसिति। अन् - अन् + ति / अन् + इ + ति = अनिति । जक्ष् - जक्ष् + ति / जक्ष् + इ + ति = जक्षिति। रुदश्च पञ्चभ्यः - रुदादि पाँच धातुओं से परे आने वाले, अपृक्त हलादि सार्वधातुक त्, स्, प्रत्ययों को ईट’ का आगम होता है। अरोद् + त् - अरोद् + ई + त् = अरोदीत् / इसी प्रकार अरोद् + स् = अरोदीः। अड् गायेगालवयोः - रुदादि पाँच धातुओं से परे आने वाले, अपृक्त हलादि सार्वधातुक त्, स्, प्रत्ययों को विकल्प से ‘अट्’ का आगम होता है। अरोद् + त् - अरोद् + अ + त् = अरोदत् / इसी प्रकार अरोद् + स् = अरोदः । अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३९५ त् प्रत्यय परे होने पर स् प्रत्यय परे होने पर रुद् - अरोद् = अरोदीत्, अरोदत् / अरोदीः, अरोदः स्वप् - अस्वप् = अस्वपीत्, अस्वपत् / अस्वपीः, अस्वपः श्वस् - अश्वस् = अश्वसीत्, अश्वसत् / अश्वसीः, अश्वसः अन् - आअन् = आनीत्, आनत् / आनीः, आनः जश् - अजः = अजक्षीत्, अजक्षत् / अजक्षीः, अजक्षः १. हलादि तथा अजादि पित् परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के उ को ओ गुण कीजिये। रुद् + ति - रोद् + इ + ति = रोदिति / रुद् + आनि - रोद् + आनि = रोदानि २. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्ङिति च सूत्र से गुणनिषेध करके अङ्ग को कुछ नहीं कीजिये। रुद् + तः - रुद् + इ + तः = रुदितः / रुद् + अन्ति - रुद् + अन्ति = रुदन्ति । दकारान्त रुद् धातु - परस्मैपद लट् लकार रोदिति रुदितः रुदन्ति रोदिषि रुदिथः रुदिथ रोदिमि रुदिवः रुदिमः लोट् लकार रोदितु / रुदितात् रुदिताम् रुदन्तु रुदिहि / रुदितात् रुदितम् रुदित रोदानि रोदाव रोदाम लङ् लकार अरोदीत् / अरोदत् अरुदिताम् अरुदन् अरोदीः / अरोदः अरुदितम् अरुदित अरोदम् अरुदिव अरुदिम विधिलिङ् लकार रुद्यात् रुद्याताम् रुधुः रुद्याः रुद्यातम् रुद्यात रुद्याम् रुद्याव रुद्याम [[३९६]] स्वपन्ति स्वपिथ स्वपिमः स्वपन्तु स्वपित स्वपाम अस्वपन् अस्वपित अस्वपिम पकारान्त स्वप् धातु - परस्मैपद लट् लकार स्वपिति स्वपितः स्वपिषि स्वपिथः स्वपिमि स्वपिवः लोट् लकार स्वपितु / स्वपितात् स्वपिताम् स्वपिहि / स्वपितात् स्वपितम् स्वपानि स्वपाव लङ् लकार अस्वपीत् अस्वपिताम् अस्वपीः अस्वपितम् अस्वपम् अस्वपिव विधिलिङ् लकार स्वप्यात् स्वप्याताम् स्वप्याः स्वप्यातम् स्वप्याम् स्वप्याव सकारान्त श्वस् धातु - परस्मैपद लट् लकार श्वसिति श्वसितः श्वसिषि श्वसिथः श्वसिमि श्वसिवः लोट् लकार श्वसितु / श्वसितात् श्वसिताम् श्वसिहि / श्वसितात् श्वसितम् श्वसानि श्वसाव लङ् लकार अश्वसीत् अश्वसिताम् अश्वसीः अश्वसितम् स्वप्युः स्वप्यात स्वप्याम श्वसन्ति श्वसिथ श्वसिमः श्वसन्तु श्वसित श्वसाम अश्वसन् अश्वसित अदादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ३९७ श्वस्याम अश्वसम् अश्वसिव अश्वसिम विधिलिङ् लकार श्वस्यात् श्वस्याताम् श्वस्युः श्वस्याः श्वस्यातम् श्वस्यात श्वस्याम् श्वस्याव नकारान्त अन् धातु - परस्मैपद लट् लकार अनिति अनितः अनन्ति अनिषि अनिथः अनिथ अनिमि अनिवः अनिमः लोट् लकार अनितु / अनितात् अनिताम् अनन्तु अनिहि / अनितात् अनितम् अनित अनानि अनाव अनाम लङ् लकार आनीत् आनिताम् आनीः आनितम् आनित आनम् आनिव आनिम विधिलिङ् लकार अन्यात् अन्याताम् अन्या : अन्यातम् अन्यात अन्याम् अन्याव अन्याम इन्हीं रूपों में ‘प्र’ उपसर्ग लगाकर ‘प्राणिति’ आदि रूप बनते हैं। यहाँ से अदादिगण का ‘जक्षादि अन्तर्गण’ प्रारम्भ हो रहा है। जक्षित्यादयः षट् - अदादिगण का धातुपाठ देखिये। इसमें जक्ष्, जागृ, दरिद्रा, चकास्, शास्, दीधीङ्, वेवीङ् ये सात धातु हैं। इन सात धातुओं का नाम अभ्यस्त होता है। हम जानते हैं कि जब भी धातु का नाम अभ्यस्त होता है, तब अदभ्यस्तात् सूत्र से अन्ति की जगह अति, अन्तु की जगह अतु प्रत्यय लगाये जाते हैं, तथा आनन् EEEEEEEEEEEE अन्युः [[३९८]] सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च सूत्र से लङ् लकार के ‘अन्’ की जगह ‘उः’ प्रत्यय लगाया जाता है। अब हम जक्षादिगण के धातुओं के रूप बनायें। इनमें से जागृ, दरिद्रा, दीधीङ्, वेवीङ्, इन अजन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि अजन्त धातुओं में दी जा चुकी है, उसे वहीं देखें। शेष जस्, चकास्, शास्, इन हलन्त धातुओं के रूप बनाना बतला रहे हैं। षकारान्त जक्ष् धातु - परस्मैपद - जक्ष् धातु ऐसा है, कि यह रुदादिगण तथा जक्षादिगण के बीच में पढ़ा गया है। यह रुदादिगण में भी आता है और जक्षादिगण में भी आता है। रुदादिगण में होने के कारण ‘रुदादिभ्यः सार्वधातुके’ सूत्र से जक्ष् धातु से परे आने वाले, वलादि सार्वधातुक प्रत्ययों को भी इट् का आगम कीजिये। जक्षादिगण में होने के कारण अन्ति की जगह अति, अन्तु की जगह अतु तथा लङ् लकार के ‘अन्’ की जगह ‘उः’ प्रत्यय लगाइये। लट् लकार जक्षिति जक्षितः जक्षति जक्षिषि जक्षिथः जक्षिथ जक्षिमि जक्षिवः जक्षिमः लोट् लकार जक्षितु / जक्षितात् जक्षिहि / जक्षितात् जक्षितम् जक्षित जक्षाणि जक्षाव जक्षाम लङ् लकार अजक्षीत् अजक्षिताम् अजक्षुः अजक्षीः अजक्षितम् अजक्षित अजक्षम् अजक्षिव अजक्षिम विधिलिङ् लकार जक्ष्यात् जक्ष्याताम् जक्ष्युः जक्ष्याः जक्ष्यातम् जक्ष्यात जक्ष्याम् जक्ष्याव जक्ष्याम सकारान्त चकास् धातु - परस्मैपद जक्षिताम् जक्षतु अदादिगण के हल के रूप बनाने की विधि ३९९ लट् लकार चकास्ति चकास्तः चकासति चकास्सि चकास्थः चकास्थ चकास्मि चकास्वः चकास्मः लोट् लकार चकास् + धि / धि च सूत्र से सकार का लोप करके = चकाधि । चकास्तु / चकास्तात् चकास्ताम् चकासतु चकाधि / चकास्तात् चकास्तम् चकास्त चकासानि चकासाव चकासाम लङ् लकार लङ् लकार में, अचकास् + त् - हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् सूत्र से त् का लोप करके - अचकास् / तिप्यनस्तेः से अन्तिम स् को दत्व करके बना - अचकाद्। लङ् लकार के स् प्रत्यय परे होने पर - अचकास् + स् / स् का लोप करके - अचकास् / सिपि धातो रु; - अन्तिम सकार के स्थान पर विकल्प से द् तथा रु - र आदेश होते हैं। अतः स् को रुत्व करके - अचकास् - अचकारु - उ की इत्संज्ञा करके - अचकार् - इसके बाद - खरवसानयोर्विसर्जनीयः सूत्र से, अवसान में आने वाले र् को विसर्ग करके - अचकार् - अचकाः । __स् को दत्व करके - अचकाद् । ‘वाऽवसाने’ सूत्र से अवसान में स्थित झल् को विकल्प से चर् आदेश करके - अचकाद् / अचकात्। अचकाद् / अचकात् अचकास्ताम् अचकासुः अचकाद् / अचकात् अचकास्तम् अचकास्त अचकाः अचकासम् अचकास्व अचकास्म विधिलिङ् लकार चकास्यात् चकास्याताम् चकास्युः चकास्याः चकास्यातम् चकास्यात चकास्याम् चकास्याव चकास्याम [[४००]] सकारान्त शास् धातु - परस्मैपद हलादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - शास इदङ्हलोः - शास् धातु के आ को इ होता है हलादि कित् या डित् प्रत्यय तथा अङ् प्रत्यय परे होने पर। शास् + तः - शिस् + तः - शासिवसिघसीनाम् च - शास्, वस्, घस् धातुओं के इण तथा कवर्ग के बाद आने वाले स् को ष् होता है। शिस् + तः - शिष् + तः / स्तोः श्चुना श्चुः से श्चुत्व करके - शिष्टः । शेष प्रत्यय परे होने पर - कुछ मत कीजिये - शास् + ति - शास्ति। लट् लकार शास्ति शिष्टः शासति शास्सि शिष्ठः शिष्ठ - शास्मि शिष्वः शिष्मः लोट् लकार शा हौ - शास् धातु को शा आदेश होता है हि प्रत्यय परे होने पर। शास् + हि - शा + हि / हुझल्भ्यो हेर्धिः से हि को धि आदेश करके शा + हि - शाधि। शास्तु / शिष्टात् शिष्टाम् शासतु शाधि / शिष्टात् शिष्टम् शिष्ट शासानि शासाव शासाम लङ् लकार अशात् /अशाद् अशिष्टाम् अशासन् अशाः /अशात् /अशाद् अशिष्टम् अशिष्ट अशासम् अशिष्व अशिष्म विधिलिङ् लकार शिष्याताम् शिष्याः शिष्यातम् शिष्यात शिष्याम् शिष्याव शिष्याम यह अदादिगण के हलन्त धातुओं के लट, लोट, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। शिष्यात् शिष्युः जुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ४०१

जुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि

‘श्लौ’ सूत्र से द्वित्व हो जाने से जुहोत्यादिगण के ये धातु अभ्यस्त हैं। अतः इनसे परे आने वाले अन्ति की जगह अति, अन्तु की जगह अतु और अन् की जगह उः प्रत्यय ही लगाइये। जन् - द्वित्वादि करके - जजन् धातु - परस्मैपद __जजन् + ति = जजन्ति / जजन् + तः - जनसनखनां सञ्झलोः - जन्, सन्, खन्, धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है, झलादि सन् और झलादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। ‘तः’ प्रत्यय झलादि कित्, डित् है, अतः ‘न्’ को ‘आ’ होकर - जजा + तः = जजातः / जजन् + अति - गमहनजनखनघसां लोपः क्डित्यनडि - गम्, हन्, जन्, खन्, घस्, इन धातुओं की उपधा के ‘अ’ का लोप होता है, अजादि कित्, ङित् प्रत्यय परे होने पर। जजन् + अति - जज्न् + अति / स्तोः श्चुना श्चुः से न् को श्चुत्व करके जज्ञ् + अति / ज्ञ् = ऋ बनाकर - जज्ञति। लट् लकार जजन्ति जजातः जज्ञति जजंसि जजाथः जजाथ जजन्मि जजन्वः जजन्मः लोट् लकार जजन्तु जजाताम् जजाहि / जजातात् जजातम् जजात जजनानि जजनाव जजनाम लङ्. लकार अजजन् अजजाताम् अजजन् अजजातम् अजज्ञत अजजनम् अजजन्व अजजन्म विधिलिङ् लकार ये विभाषा - जन्, सन्, खन्, धातुओं को विकल्प से ‘आ’ अन्तादेश जज्ञतु अजजुः [[४०२]] दधनतु होता है, यकारादि कित्, डित् प्रत्यय परे होने पर। ‘आ’ अन्तादेश होने पर ‘आ’ अन्तादेश न होने पर जजायात् जजायाताम् जजायुः जजन्यात् जजन्याताम् जजन्युः जजायाः जजायातम् जजायात जजन्याः जजन्यातम् जजन्यात जजायाम् जजायाव जजायाम जजन्याम् जजन्याव जजन्याम धन् - द्वित्वादि करके - दधन् धातु - परस्मैपद लट् लकार दधन्ति दधन्तः दधनति दधंसि दधन्थः दधन्थ दधन्मि दधन्वः दधन्मः लोट् लकार दधन्तु / दधन्तात् दधन्ताम् दधंहि / दधन्तात् दधन्तम् दधन्त दधनानि दधनाव दधनाम लङ् लकार अदधन् अदधन्ताम् अदधनुः अदधन् अदधन्तम् अदधन्त अदधनम् अदधन्व अदधन्म विधिलिङ् लकार दधन्यात् दधन्याताम् दधन्युः दधन्याः दधन्यातम् दधन्यात दधन्याम् दधन्याव दधन्याम तुर् धातु - द्वित्वादि करके - तुतुर् - परस्मैपद १. हलादि तथा अजादि पित् परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के लघु इक् को गुण कीजिये - तुतुर् + ति - तुतोर्ति / तुतुर् + आनि - तुतोराणि। २. हलादि अपित् प्रत्यय परे होने पर हलि च सूत्र से उपधा के लघु इक् को दीर्घ कीजिये। तुतुर् + तः - तुतूर्तः । ३. अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध करके जुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ४०३ अङ्ग को कुछ नहीं कीजिये - तुतुर् + अति - तुतुरति । लट् लकार तुतुरति तुतोर्षि तुतूर्थ तुतोर्ति तुतूर्तः तुतोर्मि तुतूर्थः तुतूर्वः तुतूर्मः तुतूर्त अतुतूर्त लोट् लकार तुतोर्तु / तुतूर्तात् तुतूर्ताम् तुतुरतु तुतूर्हि / तुतूर्तात् तुतूर्तम् तुतोराणि तुतोराव तुतोराम लङ् लकार अतुतोः अतुतूर्ताम् अतुतुरुः अतुतोः अतुतूर्तम् अतुतोरम् अतुतूर्व अतुतूर्म विधिलिङ् लकार तुतूर्यात् तुतूर्याताम् तुतूर्युः तुतूर्याः तुतूर्यातम् तुतूर्यात तुतूर्याम् तुतूर्याव तुतूर्याम धिष् - द्वित्वादि करके - दिधिष् धातु - परस्मैपद १. हलादि तथा अजादि पित् परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के लघु इक् को गुण कीजिये। दिधिष् + ति - दिधेष् + ति = दिधेष्टि / दिधिष् + आनि = दिधेषाणि। २. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्ङिति च सूत्र से गुण निषेध कीजिये। दिधिष् + तः = दिधिष्टः / दिधिष् + अति = दिधिषति। लट् लकार दिधेष्टि दिधिष्टः दिधिषति दिधेक्षि दिधिष्ठः दिधिष्ठ दिधेष्मि दिधिष्वः दिधिष्मः लोट् लकार दिधेष्टु / दिधिष्टात् दिधिष्टाम् दिधिषतु [[४०४]] दिधिड्ढि / दिधिष्टात् दिधिष्टम् दिधिष्ट दिधेषाणि दिधेषाव दिधेषाम दिधिड्ढि - दिधिष् + धि / ष्टुत्व, जश्त्व करके - दिधिड्डि। लङ् लकार अदिधेट / अदिधेड् अदिधिष्टाम् अदिधिषुः अदिधेट / अदिधेड् अदिधिष्टम् अदिधिष्ट अदिधेषम् अदिधिष्व अदिधिष्म विधिलिङ् लकार दिधिष्यात् दिधिष्याताम् दिधिष्युः दिधिष्याः दिधिष्यातम् दिधिष्यात दिधिष्याम् दिधिष्याव दिधिष्याम भस् धातु - द्वित्वादि करके - बभस् - परस्मैपद हलादि पित् प्रत्यय परे होने पर - कुछ मत कीजिये - बभस् + ति - बभस्ति। अजादि पित् प्रत्यय परे होने पर - कुछ मत कीजिये - बभस् + आनि - बभसानि। हलादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - जा __घसिभसोर्हलि च - सारे अपित् प्रत्यय परे होने पर भस् की उपधा के ‘अ’ का लोप होता है - बभस् + तः - बभ्स् + तः। झलो झलि - झल् से परे आने वाले स् का लोप होता है, झल् परे होने पर। बभ्स् + तः - बभ् + तः / झषस्तथो?ऽधः सूत्र से प्रत्यय के त, थ को ध बनाकर - बभ् + तः - बभ् + धः । अब धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चताक्षर को झलां जश झशि सत्र से उसी वर्ग का ततीयाक्षर जश बनाकर - बब् + धः = बब्धः । _अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर - बभस् + अति / घसिभसोर्हलि च से भस् की उपधा के ‘अ’ का लोप करके बभ्स् + अति / खरि च सूत्र से भ् को चर्व करके ‘प’ बनाकर - बप्स् + अति - बप्सति । लट् लकार बभस्ति बप्सति बभस्सि बब्धः बब्ध बभस्मि बप्स्व : बस्मः बब्धःजुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि ४०५ लोट् लकार बभस्तु / बब्धात् बब्धाम् बप्सतु बब्धि / बब्धात् बब्धम् बब्ध बभसानि बभसाव बभसाम लङ् लकार अबभः अबब्धाम् अबप्सुः अबभः अबब्धम् अबब्ध अबभसम् अबप्स्व अबप्स्म विधिलिङ् लकार बप्स्यात् बप्स्याताम् बप्स्युः बप्स्याः बप्स्यातम् बप्स्यात बप्स्याम् बप्स्याव बप्स्याम जुहोत्यादि का निजादि अन्तर्गण - इस अन्तर्गण में तीन परस्मैपदी धातु आते हैं - णिजिर् - निज् - नेनिज् / विजिर् - विज् - वेविज् / विष्ट - विष् - वेविष्। १. हलादि पित् परे होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से इनकी उपधा के लघु इक् को गुण कीजिये। नेनिज् + ति = नेनेक्ति। नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातके - अजादि पित परे होने पर इन निजादि धातुओं की उपधा को गुण नहीं होता। यथा - नेनिज् + आनि - नेनिजानि। ३. हलादि तथा अजादि अपित् प्रत्यय परे होने पर क्ङिति च सूत्र से गुण निषेध होता है - नेनिज् + तः = नेनिक्तः। लट् लकार नेनेक्ति नेनिक्तः नेनिजति नेनेक्षि नेनिक्थः नेनिक्थ नेनेज्मि नेनिज्वः नेनिज्मः लोट् लकार नेनेक्तु / नेनिक्तात् नेनिक्ताम् नेनिजतु नेनिग्धि / नेनिक्तात् नेनिक्तम् नेनिक्त [[४०६]] अनेनिजम् नेनिज्यात् नेनिज्युः वेविष्टः नेनिजानि नेनिजाव नेनिजाम लङ् लकार अनेनेक् अनेनिक्ताम् अनेनिजुः अनेनेक् अनेनिक्तम् अनेनिक्त अनेनिज्व अनेनिज्म विधिलिङ् लकार नेनिज्याताम् नेनिज्याः नेनिज्यातम् नेनिज्यात नेनिज्याम नेनिज्याव नेनिज्याम इसी प्रकार विज् धातु - द्वित्वादि करके - वेविज के रूप बनाइये। इसी प्रकार विष् धातु - द्वित्वादि करके - वेविष - लट् लकार वेवेष्टि वेविषति वेवेक्षि वेविष्ठः विष्ठ वेवेष्मि वेविष्वः वेविष्मः लोट् लकार वेवेष्टु / वेविष्टात् वेविष्टाम् वेविषतु वेविड्ढि / वेविष्टात् वेविष्टम् वेविष्ट वेविषाणि वेविषाव वेविषाम लङ् लकार अवेवेट / अवेवेड् अवेविष्टाम् अवेविषुः अवेवेट / अवेवेड् अवेविष्टम् अवेविष्ट अवेविषम् अवेविष्व अवेविष्म विधिलिङ् लकार वेविष्याताम् वेविष्यातम् वेविष्यात वेविष्याव वेविष्याम यह जुहोत्यादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। वेविष्युः वेविष्यात् वेविष्याः - वेविष्याम् रुधादिगण के धातुओं के रूप बनाने की विधि ४०७

रुधादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि

रुधादिभ्यः श्नम् - धातुपाठ में से १४३८ से १४६२ तक रुधादिगण के धातु हैं। लट्, लोट, लङ् तथा विधिलिङ् लकार के कर्बर्थक सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर तथा सार्वधातुक कृत् प्रत्यय परे होने पर रुधादिगण के इन धातुओं से श्नम् विकरण लगाना चाहिये। श्नम् में लशक्वतद्धिते सूत्र से श् की, तथा हलन्त्यम् सूत्र से म् की इत् संज्ञा होकर ‘न’ शेष बचता है। ध्यान रहे कि म् की इत् संज्ञा होने से यह श्नम् विकरण मित् है। मिदचोऽन्यात् परः - मित् प्रत्यय जिससे भी लगता है, उसके अन्तिम अच् के बाद ही वह बैठता है। यथा - रुध् - रुनध् / भिद् - भिनद् / कृत् - कृनत् / तृद् - तृनद् / खिद् - खिनद् / तृह् - तृनह आदि। श्नान्नलोपः - श्नम् के बाद आने वाले ‘न्’ का लोप होता है। यथा - इन्ध् - श्नम् लगाकर - इनन्ध् / श्नम् के बाद आने वाले ‘न्’ का लोप करके - इनध् । इसी प्रकार - तृन्ह् - तृनन्ह् - तृन आदि बनाइये। श्नसोरल्लोपः - श्नम् के ‘अ’ का लोप होता है, अपित् अर्थात् ङित् सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर। यथा - रुनध् - रुन्ध् / भिनद् - भिन्द् / कृनत् - कृन्त् / क्षुनद् - क्षुन्द् / तृनह - तुंह आदि। __अब ध्यान दें कि जहाँ पूरा न दिख रहा है, वहाँ अट्कुप्वाड्नुम्व्यवायेऽपि सूत्र से णत्व करके - रुनध्, क्षुनद्, रिनच्, तृनद्, कृनद्, तृनह् आदि के ‘न’ को ‘ण’ बनाइये - रुणध्, क्षुणद्, रिणच्, तृणद्, कृणद्, तृणह् आदि। _ जहाँ पूरा न’ नहीं दिख रहा है, वहाँ णत्व मत कीजिये । णत्व विधि विस्तार से १९५ पृष्ठ पर देखिये। हमने जाना कि रुधादिगण में सार्वधातुक प्रत्ययों के लिये दो दो प्रकार के अङ्ग बनते हैं। ये हम बनाकर दे रहे हैं - इनमें से जो पहला है, जिसमें श्नम् प्रत्यय पूरा दिख रहा है, अर्थात् रुणध् आदि, उसमें आप पित् सार्वधातुक प्रत्यय लगाइये और जिसमें श्नम् के ‘अ’ का लोप हो गया है, अर्थात् रुन्ध् आदि, उसमें आप अपित् सार्वधातुक प्रत्यय अर्थात् ङित् सार्वधातुक प्रत्यय लगाइये। रुधादिगण के धातुओं में श्नम् विकरण लगाकर सार्वधातुक प्रत्ययों के लिये दो दो प्रकार के अङ्ग इस प्रकार बनते हैं - [[४०८]] धातु विच् विनच रिच् तन्च पृच् . युज भज भूज अंज् विज् विन विं वृज् वंज कत भिद् भिनद् भिंद् छिंद् पित् सार्वधातुक अपित् सार्वधातुक पद प्रत्ययों के लिये अङ्ग प्रत्ययों के लिये अङ्ग विंच उभयपद रिणच रिंच उभयपद तनच तंच परस्मैपद पृणच् पृच् परस्मैपद युन उभयपद भन्ज् भन परस्मैपद भुन भुंज् उभयपद अन्ज अनज् परस्मैपद परस्मैपद वृणज् परस्मैपद कृणत् कृत् परस्मैपद उभयपद छिनद् उभयपद क्षुणद् उभयपद छृणद् उभयपद तृणद् उभयपद आत्मनेपद आत्मनेपद उन्द् उनद् परस्मैपद रुणध् उभयपद इन इंधु आत्मनेपद शिनष् परस्मैपद पिनष् पिंष् परस्मैपद हिनस् हिंस् परस्मैपद तृणह परस्मैपद अब हम बहुत सावधानी से इनके रूप बनायें - जैसे - हमने विच् धातु से श्नम् लगाकर विनच् बनाया है / सारे पित् सार्वधातुक प्रत्यय इस विनच्’ से ही लगाइये। हमने श्नसोरल्लोपः से ‘अ’ का लोप करके विंच बनाया है। सारे अपित् सार्वधातुक प्रत्यय इस विंच से ही लगाइये। रुधादिगण क्षद IC खिद् खिद खिनद् विनद् विद् विंद् उंद् रु . इन्ध शिष् शिंष पिष् हिंस् तृह रुधादिगण के धातुओं के रूप बनाने की विधि ४०९ के सभी धातुओं में यह ध्यान रखिये। , अब रुधादिगण के इन धातुओं में केवल सन्धियाँ कीजिये - चकारान्त विच् धातु - लट् लकार विनक्ति विङ्क्तः विञ्चन्ति विङ्क्ते विञ्चाते विञ्चते विनक्षि विक्थः __ विक्थ विङक्ष विञ्चाथ विरघ्प विग्ध्वे विनच्मि विञ्च्वः विञ्च्मः विञ्चे विञ्च्वहे विञ्च्महे लोट् लकार विनक्तु विङ्क्ताम् विञ्चन्तु विङ्क्ताम् विञ्चाताम् विञ्चताम् विङ्क्तात् विङ्ग्धि विङ्क्तम् विङ्क्त - विक्ष्व विञ्चाथाम् विङ्ग्ध्वम् विङ्क्तात् विनचानि विनचाव विनाम विनचै विनचावहै विनचामहै विग्धि - विंच् + हि / हुझल्भ्यो हेर्धिः से ‘हि’ प्रत्यय को धि’ करके - विंच् + धि / चोः कु से कुत्व करके विक् + धि / ‘क्’ को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके विंग् + धि / अनुस्वार को, अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः सूत्र से परसवर्ण करके विङ्ग्धि । इसी प्रकार विङग्ध्वम्। लङ् लकार अविनक् - अविनच् + त् / हल्ल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् सूत्र से त् का लोप होकर अविनच् / चोः कुः से च को क् होकर अविनक् / झलां जशोऽन्ते से जश्त्व होकर - अविनम् / वाऽवसाने से विकल्प से चर्व होकर अविनक् । अविनम् अविङ्क्ताम् अविञ्चन् अविक्त अविञ्चाताम् अविञ्चत अविनक् अविनम् अविङ्क्तम् अविङ्क्त अविक्थाः अविञ्चाथाम् अविग्ध्वम् अविनक् अविनचम् अविञ्च्च अविञ्च्म अविञ्चि अविञ्च्वहि अविञ्च्महि विधिलिङ् लकार विञ्च्यात् विज्च्याताम् विञ्च्युः विञ्चीत विञ्चीयाताम् विञ्चीरन् विञ्च्याः विञ्च्यातम् विज्च्यात विञ्चीथाः विञ्चीयाथाम् विञ्चीध्वम् विञ्च्याम् विञ्च्याव विञ्च्याम विञ्चीय विञ्चीवहि विञ्चीमहि इसी प्रकार रिच - रिणच् - रिंच के रूप बनाइये। लन [[४१०]] लट् लकार रिणक्ति रिङ्क्तः रिज्वन्ति रिङ्क्ते रिचाते रिचते रिणक्षि रिक्थः रिक्थ _ रिक्षे रिज्चाथे रिङ्ग्ध्वे रिणच्मि रिञ्च्वः रिज्मः रिज्चे रिज्च्महे रिज्च्महे लोट् लकार रिणक्तु रिक्ताम् रिञ्चन्तु रिङ्क्ताम् रिञ्चाताम् रिञ्चताम् रिक्तात् रिङ्ग्धि रिङ्क्तम् रिक्त रिझ्व रिञ्चाथाम् रिङ्ग्ध्वम् रिक्तात् रिणचानि रिणचाव रिणचाम रिणचै रिणचावहै रिणचामहै _ लङ् लकार अरिणग् अरिङ्क्ताम् अरिज्चन् । अरिङ्क्त अरिज्चाताम् अरिञ्चत अरिणक् अरिणग् अरिङ्क्तम् अरिङ्क्त अरिङ्कथाः अरिञ्चाथाम् अरिङ्ग्ध्वम् अरिणक अरिणचम् अरिज्च्व अरिञ्च्म अरिञ्चि अरिज्च्वहि अरिज्महि विधिलिङ् लकार रिज्च्यात् रिज्च्याताम् रिञ्च्युः रिञ्चीत रिज्चीयाताम् रिज्चीरन् रिज्च्याः रिज्च्यातम् रिज्च्यात रिञ्चीथाः रिञ्चीयाथाम् रिज्चीध्वम् रिज्च्याम् रिञ्च्याव रिज्च्याम रिज्वीय रिज्चीवहि रिज्चीमहि इसी प्रकार तञ्चु - तनच् - तंच के रूप बनाइये। जकारान्त युज् धातु - उभयपद - पित् प्रत्यय युनज् से लगाइये / अपित् प्रत्यय युज् से लगाइये। लट् लकार युनक्ति युक्तः युञ्जन्ति युङ्क्ते युञ्जाते युञ्जते युनक्षिी युङ्क्थः युथ युद्धे युञ्जाथै युझ्ध्वे युनज्मि युज्वः युज्मः युजे युज्महे युज्महे __ लोट् लकार युनक्तु युङ्क्ताम् युञ्जन्तु युङ्क्ताम् युजाताम् युञ्जताम् युक्तात् युङ्ग्धि युक्तम् युक्त युक्ष्व युञ्जाथाम् युग्ध्वम् रुधादिगण के धातुओं के रूप बनाने की विधि ४११ युङ्तात् युनजानि युनजाव युनजाम युनजै युनजावहै युनजामहै KEEEEEEEEEE लङ् लकार अयुनग् अयुङ्क्ताम् अयुञ्जन् अयुक्त अयुजाताम् अयुञ्जत अयुनक अयुनग् अयुङ्क्तम् अयुक्त _ अयुङ्थाः अयुञ्जाथाम् अयुङ्ग्ध्वम् अयुनक् अयुनजम् अयुव अयुज्म __ अयुजि अयुज्वहि अयुज्महि विधिलिङ् लकार युज्यात युज्याताम् युज्युः युजीत युञ्जीयाताम् युञ्जीरन् युज्याः युज्यातम् युज्यात युञ्जीथाः युजीयाथाम् युजीध्वम् युज्याम् युज्याव युज्याम युजीय युज्जीवहि युजीमहि इसी प्रकार - भुज् - भुनज् - भुंज् से - भुनक्ति भुङ्क्तः भुञ्जन्ति भज् - भनज् - भंज से - भनक्ति भक्तः भजन्ति अज् - अनज् - अंज से - अनक्ति अङ्क्तः अञ्जन्ति विज् - विनज् - विज् से विनक्ति विङ्क्तः विजन्ति वृज् - वृणज् - वृंज से - वृणक्ति वृक्तः वृञ्जन्ति । तकारान्त कृत् धातु - उभयपद पित् प्रत्यय कृणत् से लगाइये / अपित् प्रत्यय कृन्त् से लगाइये। _ लट् लकार । कृणत्ति कृन्तन्ति कृन्ते कृन्ताते कृन्तते कृन्त्थ कृन्त्से कृन्ताथे कृन्द्ध्वे कृणत्मि कृन्त्वः कृन्त्मः कृन्ते कृन्त्वहे कृन्त्महे लोट् लकार कृणत्तु कृन्ताम् कृन्तन्तु कृन्ताम् कृन्ताताम् कृन्तताम् कृन्तात् कृन्धि, कृन्तम् कृन्त्स्व कृन्ताथाम् कृन्ध्वम् कृन्त्तात् कृणतानि कृणताव कृणताम कृणतै कृणतावहै । कृणतामहै __कृन्तः कृन्त्थ : कृणत्सि कृन्त [[४१२]] लङ् लकार अकृणत् अकृन्ताम् अकृन्तन् अकृन्त्त अकृन्ताताम् अकृन्तत अकृणत् अकृन्तम् अकृन्त्त अकृन्थाः अकृन्ताथाम् अकृन्ध्वम् अकृणतम् अकृन्त्व अकृन्त्म के अकृन्ति अकृन्त्वहि अकृन्त्महि विधिलिङ् लकार कृन्त्यात् कृन्त्याताम् कृन्त्युः कृन्तीत कृन्तीयाताम् कृन्तीरन् कृन्त्याः कृन्त्यातम् कृन्त्यात कृन्तीथाः कृन्तीयाथाम् कृन्तीध्वम् कृन्त्याम् कृन्त्याव कृन्त्याम कृन्तीय कृन्तीवहि कृन्तीमहि दकारान्त छिद् धातु - उभयपद पित् प्रत्यय छिनद् से लगाइये / अपित् प्रत्यय छिंद् से लगाइये। परस्मैपद आत्मनेपद लट् लकार छिनत्ति छिन्त्तः _ छिन्दन्ति छिन्ते छिन्दाते छिन्दते छिनत्सि छिन्त्थः छिन्त्से छिन्दाथे छिन्ध्वे छिनमि छिन्द्वः छिन्मः छिन्दे छिन्द्वहे छिन्द्महे लोट् लकार छिनत्तु छिन्त्ताम् छिन्दन्तु छिन्ताम् छिन्दाताम् छिन्दताम् छिन्त्तात् छिन्धि छिन्त्तम् छिन्त्त छिनत्स्व छिन्दाथाम् छिन्ध्वम् छिन्त्तात् छिनदानि छिनदाव छिनदाम छिनदै छिनदावहै छिनदामहै छिन्द् + ध्वम् = छिन्ध्वम्, में झरो झरि सवर्णे से द् का लोप हुआ है। लङ् लकार ध्यान रहे कि लङ् लकार में ‘अ’ के बाद ‘छ’ आने पर छे च सूत्र से तुक् = त् का आगम होता है, जैसे - अछिनत् = अच्छिनत् आदि। यह आगम केवल ‘छ’ को होता है, अतः अन्य धातुओं में यह आगम न करें। अच्छिनत् . अच्छिन्ताम् अच्छिन्दन् अच्छिन्त अच्छिन्दाताम् अच्छिन्दत अच्छिनत् अच्छिन्तम् अच्छिन्त्त अच्छिन्थाः अच्छिन्दाथाम् अच्छिन्ध्वम् अच्छिनदम् अच्छिन्द्व अच्छिन्द्म अच्छिन्दि अच्छिन्द्वहि अच्छिन्द्महि _ विधिलिङ् लकार छिन्द्यात् छिन्द्याताम् छिन्युः छिन्दीत छिन्दीयाताम् छिन्दीरन् रुधादिगण के धातुओं के रूप बनाने की विधि ४१३ छिन्द्याः छिन्द्यातम् छिन्द्यात छिन्दीथाः छिन्दीयाथाम् छिन्दीध्वम् छिन्द्याम् छिन्द्याव छिन्द्याम छिन्दीय छिन्दीवहि छिन्दीमहि इसी प्रकार - भिद् - भिनद् - भिंद् से भिनत्ति / भिन्ते क्षुद् - क्षुणद् - झुंद् से क्षुणत्ति / क्षुन्ते छूद् - कृणद् - छंद् से कृणत्ति / कृन्ते तृद् - तृणद् - तुंद् से - तृणत्ति / तृन्ते उन्द् - उनद् - उद् से - उनत्ति / - खिद् - खिनद् - खिंद् से - - / खिन्ते विद् - विनद् - विंद् से - - / विन्ते बनाइये। धकारान्त रुध् धातु - उभयपद - पित् प्रत्यय रुणध से लगाइये / अपित् प्रत्यय रुंध् से लगाइये। सन्धियों को सावधानी से पढ़कर सन्धि कीजिये। लट् लकार रुणद्धि रुन्धः रुन्धन्ति रुन्धे रुन्धाते रुन्धते रुणत्सि रुन्धः रुन्ध रुन्त्से रुन्धाथे रुन्ध्वे रुणध्मि रुन्ध्वः रुन्ध्मः रुन्धे रुन्ध्वहे रुन्ध्म हे लोट् लकार रुन्धाम् रुन्धन्तु रुन्धाम् रुन्धाताम् रुन्धताम् रुन्धात् रुन्धि रुन्धम् रुन्ध रुन्त्स्व रुन्धाथाम् रुन्ध्वम् रुन्धात् रुणधानि रुणधाव रुणधाम रुणधै रुणधावहै रुणधामहै लङ् लकार अरुणद् अरुन्धाम् अरुन्धन अरुन्द्ध अरुन्धाताम् अरुन्धत अरुणत् अरुण अरुन्धम् अरुन्ध अरुन्द्धाः अरुन्धाथाम् अरुन्ध्वम् अरुणत् अरुणधम् अरुन्ध्म अरुन्धि अरुन्ध्वहि अरुन्ध्महि विधिलिङ् लकार रुन्ध्यात् रुन्ध्याताम् रुन्ध्युः रुन्धीत रुन्धीयाताम् रुन्धीरन् रुन्ध्या : रुन्ध्यातम् रुन्ध्यात रुन्धीथाः रुन्धीयाथाम् रुन्धीध्वम् रुणझु [[४१४]] शिंष्ठः शिंषन्तु शिंष्टम् रुन्ध्याम् रुन्ध्याव रुन्ध्यामरुन्धीय रुन्धीवहि रुन्धीमहि इसी प्रकार धकारान्त इन्ध् - इनध् - इंध् धातु के रूप बनाइये। शिंष् धातु - परस्मैपद - पित् प्रत्यय शिनष् से लगाइये / अपित् प्रत्यय शिंष् से लगाइये। लट् लकार शिनष्टि शिंष्टः शिंषन्ति शिनक्षि शिंष्ठ शिनष्मि शिंष्वः शिंष्मः लोट् लकार शिनष्टु / शिष्टात् शिंष्टाम् शिण्ड्ढि / शिष्टात् शिंष्ट शिनषाणि शिनषाव शिनषाम लङ् लकार अशिनट / अशिन अशिंष्टाम् अशिंषन् अशिनट / अशिनड् अशिंष्टम् अशिंष्ट अशिनषम् अशिंष्व अशिंष्म विधिलिङ् लकार शिंष्याताम् शिंष्याः शिंष्यात शिष्याम् शिंष्याव शिंष्याम पिंष धातु - परस्मैपद - पित् प्रत्यय पिनष् से लगाइये / अपित् प्रत्यय पिंष् से लगाइये। सन्धियों को सावधानी से पढ़कर सन्धि कीजिये। लट् लकार पिनष्टि / पिंष्टात् पिंष्टः पिंषन्ति पिनक्षि./ पिंष्टात् पिंष्ठः पिनष्मि पिंष्वः पिंष्मः लोट् लकार पिंष्टाम् पिण्ड्ढि पिंष्ट पिनषाणि पिनषाव पिनषाम शिंष्यात् शिष्युः शिंष्यातम् पिंष्ठ पिनष्ट पिंषन्तु पिंष्टम् रुधादिगण के धातुओं के रूप बनाने की विधि ४१५ पिंष्याः पिंष्याम् हिंस्थः लङ् लकार अपिनट / अपिनड् अपिंष्टाम् अपिंषन् अपिनट / अपिनड् अपिष्टम् अपिंष्ट अपिनषम् अपिंष्व अपिंष्म विधिलिङ् लकार पिंष्यात् पिंष्याताम् पिंष्युः पिंष्यातम् पिंष्यात पिंष्याव पिंष्याम हिंस धातु - परस्मैपद - पित् प्रत्यय हिनस् से लगाइये / अपित् प्रत्यय हिंस् से लगाइये। सन्धियों को सावधानी से पढ़कर सन्धि कीजिये। लट् लकार हिनस्ति हिंस्तः हिंसन्ति हिनस्सि हिंस्थ हिनस्मि हिंस्वः हिंस्मः लोट् लकार हिनस्तु / हिंस्तात् हिंस्ताम् हिन्धि / हिंस्तात् हिंस्तम् हिंस्त हिनसानि हिनसाव हिनसाम लङ् लकार अहिनत् अहिंस्ताम् अहिंसन् अहिनः अहिंस्तम् अहिंस्त अहिनसम् अहिंस्व अहिंस्म विधिलिङ् लकार हिंस्यात् हिंस्याताम् हिंस्याः हिंस्यातम् हिंस्यात हिंस्याम् हिंस्याव हिंस्याम तृह् धातु - परस्मैपद - पित् प्रत्यय तृणह से लगाइये / अपित् प्रत्यय तुंह से लगाइये। _ तृणह इम् - तृणह’ इस अङ्ग को हलादि पित् सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर अर्थात् ति, सि, मि, त्, स्, तु प्रत्यय परे होने पर, ‘इम्’ का आगम होता है। मित् आगम होने से यह इम्’ मिदचोऽन्त्यात्परः सूत्र से अन्तिम अच् के बाद हिंसन्तु हिंस्युः [[४१६]] तृण्ढः तृण्ढ तृणेमि ही बैठेगा। तृण + इम् + ह् / तृण + इ + ह् / आद्गुणः से गुण करके - तृणेह् । तृणेह् + ति / ‘ह’ को हो ढः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाइये - तृणेढ् + ति / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - तृणेढ् + धि / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध्’ को ष्टुत्व करके - तृणेढ् + ढि / ‘ढो ढे लोपः’ से पूर्व ढकार का लोप करके - तृणे + ढि = तृणेढि। तृणेह् + सि / ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ‘ढ्’ बनाकर लेट् + सि / षढोः कः सि सूत्र से ढ् को क् करके - तृणेक् + सि / आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय को षत्व करके - तृणेक् + षि = लेक्षि। लट् लकार तृणेढि तृहन्ति । तृणेक्षि तृण्ढः तूंमः लोट् लकार तृणेढु / तृण्ढात् तृण्ढाम् तृण्ढन्तु तृण्ड्ढि / तृण्ढात् तृण्ढम् तृणहानि तृणहाम लङ् लकार अतृणेट / अतृणेड् अतृण्ढाम् अतुंहन् अतृणेट / अतृणेड् अतृण्ढम् अतृण्ढ अतृणहम् अतुंह अतुंह्म विधिलिङ् लकार गुंह्यात् तुंह्याताम् सुंयुः दृह्याः तुंह्यातम् तुंह्याम् तंद्याव तूंह्याम यह रुधादिगण के हलन्त धातुओं के लट्, लोट्, लङ्, विधिलिङ् लकारों के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। इसके साथ ही समस्त गणों के समस्त धातुओं के समस्त सार्वधातुक लकारों के रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई। तृणहाव तुंह्यात अष्टम पाठ