अबिभयुः || हमने अभी तक धातुओं से लगने वाले जितने भी प्रत्यय पढ़े हैं, उन्हें देखने पर आप पायेंगे कि ये प्रत्यय, अचों से अर्थात् अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ से / अथवा य, र, व, म, न / त, थ, ध, स / इन अक्षरों से ही प्रारम्भ हो रहे हैं। ध्यान दीजिये कि जब भी प्रत्यय अच् से अथवा य, व, र, म, से प्रारम्भ होता है, तब कोई सन्धि नहीं होती। यथा - अ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुन्ध + अन्ति = रुन्धन्ति आ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुणध् + आवहै = रुणधावहै इ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - अरुन्ध् + इ = अरुन्धि ई से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुन्ध् + ईत = रुन्धीत उ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय __ अबिभय् + उः = ऊ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - जागर् + ऊकः = जागरूकः ए से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय रुन्ध् + ए = रुन्धे ऐ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुणध + ऐ = रुणधै य से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय रुन्ध्यात् र से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - दीप् + रः = व से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुन्ध् + वः = रुन्ध्व : म से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - रुन्ध् + मः = रुन्ध्मः न से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय - यत् + नः = यत्नः आदि। जब प्रत्यय त, थ, ध, स से प्रारम्भ होता है, तभी सन्धिकार्य होकर वर्ण में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन कभी केवल पूर्व में होता है। जैसे - भिनद् + ति - भिनत् + ति = भिनत्ति आदि। कभी केवल पर में होता है, जैसे - चष् + ते = चष्टे, यष् + ता = यष्टा आदि। कभी दोनों ओर होता है - जैसे - दोघ + ति = दोग् + धि - दोग् + धि = दोग्धि आदि । अब हमें हलन्त धातुओं में तकारादि, थकारादि, धकारादि, सकारादि, रुन्ध् || || + यात् = दीप्रःहल सन्धि ३४५ प्रत्यय जोड़ना सीखना है। यह कार्य करना हम खण्ड खण्ड में सीखेंगे। ध्यान रहे कि यहाँ सूत्र जिस क्रम से दिये जा रहे हैं, उनके अर्थ उसी क्रम से ही याद करते चलें, क्योंकि ये सूत्र, इसी क्रम से ही कार्य करेंगे। _ हलन्त धातुओं में प्रत्यय जोड़ने के लिये पहिले इन प्रत्ययों के चार वर्ग बनाइये १. हलन्त धातुओं में लङ् लकार के त् और स् प्रत्यय को जोड़ने की विधि। २. हलन्त धातुओं में लङ् लकार के स् प्रत्यय को छोड़कर शेष सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि। ३. हलन्त धातुओं में लङ् लकार के त् प्रत्यय को छोड़कर, शेष सारे तकारादि, थकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि। ४. हलन्त धातुओं में धकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि। _ पहिले हम लङ् लकार के त् और स् प्रत्ययों को हलन्त धातुओं में जोड़ने की विधि बतलाते हैं। सारे हलन्त धातुओं में लङ् लकार के त् और स् प्रत्ययों को जोड़ने की विधि अपृक्त एकाल् प्रत्ययः - एक अल् (वर्ण) वाले प्रत्ययों को अपृक्त प्रत्यय कहा जाता है। इसलिये लङ् लकार के त्, स् प्रत्यय, एक अल् वाले अर्थात् एक वर्ण वाले प्रत्यय होने से, अपृक्त प्रत्यय हैं। त्, स् प्रत्ययों को धातुओं में जोड़ने का कार्य तीन खण्डों में कीजिये प्रथम खण्ड - त, स का लोप - हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् - हल् के बाद आने वाले, अपृक्त प्रत्ययों का लोप हो जाता है। यथा - अरुणध् + त् = अरुणध् अरुणध् + स् = अरुणध् । अभिनद् + त् = अभिनद् अभिनद् + स् = अभिनन् । अहन् + त् = अहन् । अहन् + स् = अहन् अधोघ् + त् = अधोघ् । अधोघ् + स् = अधोम् असंस्त् + त् = असंस्त् असंस्त् + स् = असंस्त् आदि। यदि कोई अजन्त धातु भी कभी गुण, वृद्धि आदि होकर हलन्त बन जाये, तब उस हलन्त धातु से भी अपृक्त प्रत्यय परे होने पर यह लोप अवश्य कीजिये। [[३४६]] यथा - अजागृ + त् / ऋ को गुण होकर - अजागर् + त् - अपृक्त प्रत्यय त् का लोप होकर - अजागर्। द्वितीय खण्ड - पदान्त में तथा झल् परे होने पर होने वाली विधियाँ अब ध्यान दीजिये कि यहाँ त्, स्, का लोप होने के बाद, जो शब्द बचे हैं, वे अब धातु नहीं है। इनमें तिङ् प्रत्यय लग चुके हैं, भले ही उनका लोप हो चुका है। अतः ये, अरुणध्, अभिनद्, अहन्, असंस्तु आदि अब ‘सुप्तिङन्तं पदं’ सूत्र के अनुसार ‘तिङन्त पद’ हैं और इनके अन्त में आने वाले ‘हल्’ अब ‘पदान्त हल्’ हैं। अब इन पदों में क्रम से ये कार्य कीजिये (यदि ये कार्य प्राप्त हों तो)। १. स्कोः संयोगाद्योरन्ते च - यदि पद के अन्त में संयोग हो, और उस संयोग के आदि में स् या क् हों, तब उस संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ ‘क्’ का लोप हो जाता है. झल परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - त्, स् प्रत्ययों का लोप करके बने हुए ‘असंस्त्’ पद को देखिये। इसके अन्त में स् + त् का संयोग है। यह पदान्त संयोग है। इस संयोग का आदि अवयव ‘स’ है। अतः इस सूत्र से संयोग के आदि अवयव ‘स’ का लोप करके
- असंस्त् - असंत् बनाइये। अबरीभ्रस्ज् + त् / त् का लोप करके - अबरीभ्रस्ज / इस पद के अन्त में स् + ज् का संयोग है। यह पदान्त संयोग है। इस संयोग के आदि अवयव ‘स्’ का लोप करके - अबरीभ्रज बनाइये। इसी प्रकार अलालस्ज् + त् से अलालज् / असासस्ज् + त् से असासज् /बनाइये। __ अवाव्रश्च् + त् / त् का लोप करके - अवावश्च / इस पद के अन्त में श् + च का संयोग है। इस संयोग के आदि अवयव स्’ का लोप करके - अवावच् बनाइये। _ ध्यान रहे कि यहाँ जो ‘श्’ दिख रहा है, वह ‘स्’ ही है। यह ‘स्’ ही ‘च’ से मिलकर स्तोः श्चुना श्चुः’ सूत्र से श्चुत्व होकर ‘श्’ बन गया है। . २. संयोगान्तस्य लोपः - यदि पद के अन्त में संयोग हो, और उस संयोग के आदि में स् या क् न हों, तब उस संयोग के अन्तिम वर्ण का लोप हो जाता है, पदान्त में तथा झल् परे होने पर। जैसे -
- अबाबन्ध् + त् / त् का लोप करके - अबाबन्ध् । देखिये कि इस पद के अन्त में, न् + ध् का संयोग है और इस संयोग के आदि में ‘स्’ या ‘क्’ हल् सन्धि ३४७ नहीं हैं। अतः संयोगान्तस्य लोपः सूत्र से अन्तिम संयोग के अन्तिम वर्ण ‘ध्’ का लोप करके - अबाबन् बनाइये। यदि स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सत्र से संयोग के आदि अवयव स’ का लोप करके भी, पद के अन्त में संयोग बचे, तो उस पदान्त संयोग के अन्तिम वर्ण का भी, इसी सूत्र से लोप कीजिये। जैसे - असंस्त् + त् में ‘हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से ‘त्’ प्रत्यय का लोप करके, तथा स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि अवयव ‘स’ का लोप करके ‘असंत’. यह पद बना है, इसे देखिये। ‘स्’ का लोप करके भी इस पद के अन्त में, अनुस्वार + त् का संयोग है। पद के अन्त में होने के कारण, यह पदान्त संयोग है। अतः इस पदान्त संयोग के अन्तिम वर्ण ‘त्’ का संयोगान्तस्य लोपः’ सूत्र से लोप करके - असन् बनाइये। ३. व्रश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां षः - व्रश्च्, भ्रस्ज, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज्, छकारान्त तथा शकारान्त धातुओं के अन्तिम वर्ण को ष् होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - अवावच अवाव्रष् अबाभ्रज् अबाभ्रष् असरीसृज् - असरीसृष् अमरीमृज् - अमरीमृष् अयायज् अयायष् अराराज् अराराष् अबाभ्राज् अबाभ्राष् अपाप्रष् अपाप्रष् अवावश् - अवावष ४. चोः कुः - व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् तथा छकारान्त धातुओं से बचे हुए जो चवर्गान्त धातु, उनके ‘चवर्ग’ के स्थान पर ‘कवर्ग’ होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। जैसे - अवच् - ‘चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके - अवक् / तात्यज् - ‘चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके - तात्यग् आदि। ५. हो ढः - धातुओं के अन्त में स्थित ह’ को ‘द’ होता है, झल् = त, थ, ध, स परे होने पर तथा पदान्त में। झल् परे होने पर - गर्ह + स्यते - गर्ल्ड + स्यते / गर्ह + ता - गर्छ + ता / जागृह् + धि - जागृद् + धि / जागृह् + थः - जागृढ + थः । पदान्त में - अतृणेह् - ह को ढ् होकर - अतृणेढ् । ६. दादेर्धातोर्घः - यदि धातु के आदि में ‘द’ हो और अन्त में ‘ह्’
- [[३४८]] हो, तब ऐसे दकारादि हकारान्त धातुओं के ‘ह’ को ‘घ्’ होता है, झल् = त, थ, ध, स परे होने पर तथा पदान्त में। झल् परे होने पर - दोह् + ति - दोघ + ति / दुह् + थः - दुघ् + थः / दुह् + धि - दुघ् + धि / दोह् + सि - दोघ् + सि। पदान्त में - अदोह - अदोघ् । ७. वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम् - द्रुह मुह ष्णुह ष्णिह, धातुओं के ‘ह’ को विकल्प से ‘द’ तथा ‘घ्’ होते हैं, झल् परे होने पर, तथा पदान्त में। झल् परे होने पर - द्रुह् + ता - द्रोच् + ता - द्रोढ् + ता मुह् + ता - मोघ् + ता - मोठ् + ता स्नुह + ता - स्नोघ् + ता - स्नोढ् + ता स्निह् + ता - स्नेघ् + ता - स्नेढ् + ता __ पदान्त में - अदोद्रोह - अदोद्रोघ / अदोद्रोद अमोमोह __ - अमोमोघ् / अमोमोद अस्नोनोह - अस्नोनोपं / अस्नोनोद अस्ने नेह - अस्ने नेघ / अस्ने नेढ् ८. नहो धः - नह धातु के ‘ह’ को ‘ध्’ होता है, झल् = त, थ, ध, स परे होने पर तथा पदान्त में। झल् परे होने पर - जैसे - नह + स्यति - नध् + स्यति / नह + ता - नध् + ता / पदान्त में - अनान + त् - अनान = अनानध् । _९. एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः - जिन एकाच् धातुओं के अन्त में वर्ग के चतुर्थाक्षर ‘झष्’ अर्थात् झ्, भ, घ, ढ्, ध्, हों, तथा आदि में बश् = ब, ग, द, हों, तो उन्हें ‘एकाच बशादि झषन्त’ धातु कहते हैं। जैसे - बन्ध्, बुध् । _यदि धातु एकाच बशादि झषन्त न हों, किन्तु ऊपर कहे गये सूत्रों से ‘ह’ के स्थान पर ढ्, घ् आदि बन जाने से, वे एकाच बशादि झषन्त हो गये हों, जैसे - दुह् - दुघ् आदि, उन्हें भी ‘एकाच बशादि झषन्त’ धातु कहते हैं। ऐसे एकाच बशादि झषन्त धातु के आदि में स्थित ब, ग, द, के स्थान पर उसी वर्ग के चतुर्थाक्षर भष् = भ, घ, ध, हो जाते हैं, सकारादि प्रत्यय परे हल् सन्धि ३४९ होने पर, ध्व शब्द परे होने पर, तथा पदान्त में। सकारादि प्रत्यय परे होने पर बश् को भष् होना - बन्ध् + स्यति - भन्ध् + स्यति / बोध् + स्यते - भोध् + स्यते। गर्ह + स्यते, को देखिये कि यह हकारान्त धातु है, पर जब हम इसके ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ‘ढ्’ बना देते हैं, तब गर्ह + स्यते - गर्द + स्यते, यह बशादि झषन्त हो जाता है। झषन्त होने से इसके आदि ‘बश्’ के स्थान पर भी ‘भष’ हो जाता है - गई + स्यते - घई + स्यते। इसी प्रकार दोह् + सि, यह हकारान्त धातु है। जब हम इसके ‘ह’ को दादेर्धातोर्घः सूत्र से ‘घ’ बना देते हैं, तब दोघ + सि, यह बशादि झषन्त हो जाता है। झषन्त होने से इसके आदि ‘बश्’ के स्थान पर ‘भष्’ हो जाता है - दोघ् + सि - धोघ् + सि। ध्व शब्द परे होने पर बश् को भष् होना - दुह् + ध्वे - दादेर्धातोर्घः सूत्र से दुघ् + ध्वे / एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से - धुघ् + ध्वे। __पदान्त में बश् को भष् होना - अदोह् + त्, अदोह् + स् / ‘हल्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल्’ सूत्र से त् स् का लोप करके - अदोह् । ध्यान दें कि प्रत्यय का लोप हो जाने के बाद, अब यह ‘अदोह’ ‘पद’ है। ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से पदान्त ‘ह’ को ‘घ’ करके - अदोघ / ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से भष् करके - अधोघ / इसी प्रकार - अदेच् - अदेय् आदि। तृतीय खण्ड - जश्त्व तथा चर्व विधियाँ - यह सब कर चुकने के बाद अब सबसे अन्त में देखिये कि पद के अन्त में कौन सा वर्ण है ? यदि पद के अन्त में वर्ग के पञ्चमाक्षर हों, तो उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - अहन् = अहन् / असन् = असन् / अबाबन् - अबाबन् आदि। यदि पद के अन्त में ‘झल’ हों अर्थात् वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ व्यञ्जन, अथवा श्, ए, स्, ह हों तब उन्हें इस प्रकार जश्त्व, चर्व कीजिये। __जश्त्व विधि १० झलां जशोऽन्ते - पदान्त झल् को जश् होता है। जश्त्व करने का अर्थ होता है - वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ [[३५०]] व्यञ्जनों को उसी वर्ग का तृतीय व्यञ्जन बना देना। जैसे - अरुणध् को देखिये। यह पदान्त ‘ध्’ तवर्ग का चतुर्थ व्यञ्जन है। इसे जश्त्व करके तवर्ग का ही तृतीय व्यञ्जन ‘द्’ बनाइये - अरुणध् = अरुणद्।
- इसी प्रकार अधोघ को देखिये। यह पदान्त ‘घ’ कवर्ग का चतुर्थ व्यञ्जन है। इसे जश्त्व करके कवर्ग का ही तृतीय व्यञ्जन ‘ग्’ बनाइये - अधोघ् = अधोग् । अवक् को देखिये। यह पदान्त ‘क्’ कवर्ग का प्रथम व्यञ्जन है। इसे जश्त्व करके कवर्ग का ही तृतीय व्यञ्जन ‘ग्’ बनाइये - अवक् = अवग् । अलेट् को देखिये। यह पदान्त ‘ढ्’ टवर्ग का चतुर्थ व्यञ्जन है। इसे जश्त्व करके टवर्ग का ही तृतीय व्यञ्जन ‘ड्’ बनाइये - अलेढ् = अलेड्। . वैकल्पिक चर्व विधि ११ वाऽवसाने - अवसान अर्थात् अन्त में स्थित झल् को विकल्प से चर् होता है। चव होने का अर्थ होता है - वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ व्यञ्जनों को, विकल्प से उसी वर्ग का प्रथम व्यञ्जन बना देना। __ अतः अवसान के ‘झल’ को विकल्प से झलां जशोऽन्ते से ‘जश्’ तथा वाऽवसाने से चर्’ बनाइये। जैसे - अवच् - अवग् / अवक् अधोघ - अधोग् / अधोक् अरुणध् - अरुणद् / अरुणत् अभिनद् - अभिनद् / अभिनत् अलेद - अलेड् / अलेट अतृणेढ् - अतृणेड् / अतृणेट आदि। फलतः जश्त्व तथा चर्व इस प्रकार होते हैं - कवर्गान्त धातु - कवर्ग को जश् ‘ग्’ होता है तथा कवर्ग को चर् ‘क्’ होता है - अशाशक् - जश्त्व होकर अशाशग / चर्व होकर - अशाशक् । चवर्गान्त धातु - चवर्ग के सदा दो वर्ग बनाकर कार्य कीजिये - १. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज्, छकारान्त तथा शकारान्त धातु - इन धातुओं के अन्तिम वर्ण को पहिले व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ष’ बनाइये। उसके बाद ष् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्व कीजिये। __ यथा - अवावश्च - स्कोः. से सलोप करके - अवावच / वश्चभ्रस्जसृज - मृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से च को ष् बनाकर - अदाव्रष् / ष् को जश्त्व करके - अवाव्रड् / ड् को चर्व करके - अवाव्रट् । इसी प्रकार अबाभ्रज् - वश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से हल् सन्धि ३५१ अबाभ्रष्/ जश्त्व करके - अबाभ्रड् / चवं करके - अबाभ्रट् । असरीसृज् - व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से असरीसृष्/ जश्त्व करके - असरीसृड् / चर्व करके - असरीसृट् । अमा - व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से अमार्छ/ जश्त्व करके - अमाई / चर्व करके - अमा। इसी प्रकार - अयायज् - अयायड्, अयायट / अराराज् - असराड्, अराराट् / अबाभ्राज् - अबाभ्राड्, अबाभ्राट् / अपाप्रच्छ् - वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से अपाप्रष् / जश्त्व करके - अपाप्रड् / चव करके - अपाप्रट । २. व्रश्च, भ्रस्ज, सज, मज, यज, राज, भ्राज तथा छकारान्त धातुओं के अतिरिक्त जो चवर्गान्त धातु हैं, उन्हें चोः कुः’ सूत्र से वर्ग बनाइये। अवच् - ‘चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके - अवक् / जश्त्व करके - अवग / चर्व करके - अवक्। इसी प्रकार - अतात्यज् - अतात्यग् आदि। __टवर्गान्त धातु - टवर्ग को जश् ‘ड्’ होता है तथा टवर्ग को चर् ‘ट्’ होता है - अतृणेढ़ – जश्त्व होकर अतृणेड् / चवं होकर - अतृणेट। तवर्गान्त धातु - तवर्ग को जश् ‘द्’ होता है तथा तवर्ग को चर् ‘त्’ होता है - अरुणध् - अरुणद् - अरुणत् / अभिनद् - अभिनद् - अभिनत् आदि। दकारान्त धातुओं से ‘स्’ प्रत्यय परे होने पर विशेष विधि - दश्च - लङ् लकार का स् प्रत्यय परे होने पर दकारान्त धातुरूप जो पद, उसके अन्तिम दकार के स्थान पर विकल्प से द् तथा रु आदेश होते हैं। भान पर द् आदेश होने पर - अभिनद् / द को दत्व करके - अभिनद् बना / वाक्य बनेगा - अभिनद् त्वम्। दकार के स्थान पर रु आदेश होने पर - अभिनद् - अभिनर् / खरवसानयोर्विसर्जनीयः - खर् परे होने पर तथा अवसान में आने वाले ‘र’ को विसर्ग होता है। इस सूत्र से अवसान में आने वाले ‘र’ को विसर्ग करके - अभिनः बना / वाक्य बनेगा - अभिनः त्वम। पवर्गान्त धातु - पवर्ग को जश् ‘ब्’ होता है तथा पवर्ग को चर् ‘प्’ होता है - अलालभ - जश्त्व होकर अलालब् / चर्व होकर अलालप् आदि। शकारान्त धातु - इनके अन्तिम वर्ण को पहिले व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज [[३५२]] राजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ष’ बनाइये। उसके बाद ष् को विकल्प से जश्त्व तथा चर्च कीजिये। प्रश्न होता है कि ‘ष’ के स्थान पर जश् तथा चर् क्या होते हैं - ष् के स्थान पर जश् ‘ड्’ होता है, क्योंकि ए तथा ड्, इन दोनों का ही उच्चारणस्थान मूर्धा है। ष् के स्थान पर चर् ‘ट्’ होता है, क्योंकि ष् तथा ट्, इन दोनों का ही उच्चारणस्थान मूर्धा है। यथा – अवश् - अवष् / ष् को जश्त्व होकर अवड् / चर्व होकर - अवट् । षकारान्त धातु - अद्वेष् - जश्त्व करके - अद्वेड् / चर्व करके - अद्वेट् । सकारान्त धातु - तिप्यनस्तेः - लङ् लकार के त् प्रत्यय परे होने पर सकारान्त पद के अन्तिम सकार के स्थान पर द् आदेश होता है। अचकास् + त् - हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल सूत्र से त् का लोप करके बना - अचकास् / अन्तिम स् को दत्व करके बना - अचकाद् / वाक्य बनेगा - अचकाद् भवान्। सिपि धातो रुर्वा - लङ् लकार का स् प्रत्यय परे होने पर, सकारान्त धातुरूप जो पद, उस पद के अन्तिम सकार के स्थान पर विकल्प से द् तथा रु = र् आदेश होते हैं। अचकास् + स् / स् का लोप करके - अचकास् - ‘स्’ को ‘सिपि धातो रुर्वा’ सूत्र से ‘द्’ होने पर - अचकास् = अचकाद् बना / इसका वाक्य बनेगा - अचकाद् त्वम् । ‘स्’ को ‘सिपि धातो रुर्वा’ सूत्र से ‘रु’ होने पर - अचकास् - अचकारु / उ की इत्संज्ञा करके - अचकार् / इसके बाद खरवसानयोर्विसर्जनीयः सूत्र से अवसान में आने वाले र् को विसर्ग करके - अचकार् = अचकाः । इसका वाक्य बनेगा - अचकाः त्वम्। दकारादि हकारान्त धातु - दुह्, दिह आदि - अदोह् + त् / हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्त हल् से त् का लोप करके - अदोह् / ह को दादेर्धातोर्घः सूत्र से घ् बनाकर - अदोघ् / एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः, सूत्र से ‘द’ को भष् करके - अधोघ / जश्त्व करके - अधोग् / चर्व करके - अधोक् । स् प्रत्यय परे होने पर भी अधोग् / अधोक् बनाइये। ठीक इसी प्रकार दिह धातु से जश्त्व करके अधेम् / चव करके अधेक् हल सन्धि ३५३ बनाइये। शेष हकारान्त धातु - इन धातुओं के अलावा जितने भी हकारान्त धातु बचे, उनके रूप इस प्रकार बनाइये - अलेह् + त् - हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल से त् का लोप करके - अलेह / हो ढः से ह को ढ् बनाकर - अलेढ् / ढ् को जश्त्व करके अलेड् / चर्व करके अलेट बनाइये। ठीक इसी प्रकार, अतृणेह से अतृणेड् / अतृणेट बनाइये। यह हलन्त धातुओं में त्, स् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। हलन्त धातुओं में, लङ् लकार के स् प्रत्यय को छोड़कर, शेष सारे सकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि सकारादि प्रत्यय परे होने पर, क् ख् ग् घ् / च् छ् ज् झ् / श् ष इन १० वर्णों को क् बनाइये तथा प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाइये। क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाइये। शक् + स्यति - शक् + ष्यति = शक्ष्यति लेलेख + सि - लेलेक् + षि = लेलेक्षि तात्वङ्ग + तात्वङ्क् + षि = तात्वक्षि जाघ + जाघक + जाघक्षि लाल लालङ् लालङ्क्षि वच् + सि - वक्षि प्रच्छ् + स्यति प्रक ष्यति प्रक्ष्यति स्यति - योक् + ष्यति योक्ष्यति जाझर्ड्स + सि - जाझ + षि = जाझर्भि
- स्यति - क्रोक् + ष्यति = क्रोक्ष्यति कर्ष + स्यति - कर्क् +ष्यति = कमंति ‘क् ख् ग् घ्’ को ‘क्’ इस प्रकार बनाइये - खरि च - जब भी प्रत्यय खर् अर्थात् त, थ, स से प्रारम्भ हो रहा हो, तब उस प्रत्यय का पूर्ववर्ती वर्ण, अपने ही वर्ग का ‘प्रथमाक्षर’ बन जाता है। अतः क् ख् ग् घ्’ को ‘खरि च’ सूत्र से ‘क’ बनाइये। जैसे - त्यग + स्यति - त्यक् + स्यति / धोघ् + सि - धोक् + सि / आदि । इसे ही चर्व सन्धि कहते हैं।
|| + + || वक + || + || योज् + || [[३५४]] आदेशप्रत्यययोः - इण तथा कवर्ग के बाद आने वाले आदेश तथा प्रत्यय के सकार’ के स्थान पर ‘षकार’ होता है। धोक् + सि - धोक् + षि = धोक्षि। धेक् + सि - धेक् + षि = धेक्षि। इसे ही षत्व विधि कहते हैं। यह क् ख् ग् घ् के क् बनने की विधि हुई। च् छ् ज् झ्’ को ‘क्’ इस प्रकार बनाइये - चोः कुः - चवर्ग के स्थान पर कवर्ग होता है, यदि प्रत्यय के आदि में झल् = त, थ, ध, स हों, तो, अथवा पदान्त में। अतः - ‘च् छ् ज् झ्’ को ‘चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके पहिले ‘क् ख् ग् घ्’ बनाइये। जैसे - त्यज् + स्यति - त्यग् + स्यति / ग् को खरि च से चर्व करके - त्यक् + स्यति / प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाकर - त्यक् + ष्यति = त्यक्ष्यति। _ वच् + स्यति - कुत्व करके - वक् + स्यति / प्रत्यय के स् को षत्व करके - वक् + ष्यति = वक्ष्यति। यह च् छ् ज् झ् के क् बनने की विधि हुई। श् को ‘क्’ इस प्रकार बनाइये - जब भी प्रत्यय झल् अर्थात् त, थ, ध, स से प्रारम्भ होता है, तब उस प्रत्यय के पूर्ववर्ती श् को वश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ए’ होता है। जैसे - क्रोश् + स्यति - क्रोष् + स्यति / वश् + सि - वष् + सि। षढोः कः सि - ‘ष’ के स्थान पर ‘क्’ होता है, स् परे होने पर। हमने जिस श् को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः सूत्र से ‘ए’ बनाया है, वह ‘ए’ अब इस षढोः कः सि सूत्र से क् बन जाता है। क्रोष् + स्यति - क्रोक् + ष्यति = क्रोक्ष्यति / वष् + सि - वक् + षि = वक्षि। यह श् के क् बनने की विधि हुई। ष को ‘क’ इस प्रकार बनाइये - ‘ष’ को षढोः कः सि सत्र से ‘क’ होता है, स् परे होने पर। कर्ष + स्यति - कर्क् + ष्यति = कर्व्यति। यह ए के क् बनने की विधि हुई। यह पूर्वोक्त दस वर्गों में सकारादि प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। अब, अन्य वर्गों का विचार करते हैं। त् थ् द् ध् से अन्त होने वाले धातु - त् थ् द् ध् को खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर त् बनाइये। प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - अद् + स्यति - अत् + स्यति = अत्स्यति हल सन्धि ३५५ क्रोध् + स्यति - क्रोत् + स्यति = क्रोत्स्यति _विशेष - बन्ध्, बुध् के आदि में स्थित तृतीयाक्षर ‘ब’ को पूर्वोक्त एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘भ’ बनाकर अन्त के चतुर्थाक्षर ‘ध्’ को खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘त्’ बनाइये। बन्ध् + स्यति - भन्त् + स्यति = भन्त्स्यति बोध् + स्यते - भोत् + स्यते = भात्स्यते प् फ् ब् भ् से अन्त होने वाले धातु - प् फ् ब् भ् को, खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर प् बनाइये । प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - आप् + स्यति - आप् + स्यति = आप्स्यति लभ् + स्यते - लप् + स्यते = लप्स्यते विशेष - दकारादि धकारान्त दम्भ आदि धातुओं के आदि में स्थित तृतीयाक्षर ‘द’ को पूर्वोक्त ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘भ’ बनाकर अन्त के चतुर्थाक्षर ‘भू’ को खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर ‘प्’ बनाइये। दादम्भ + सि - दाधम्प् + सि = दाधम्प्सि _म् से अन्त होने वाले धातु - अपदान्त न् म् को ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से, अनुस्वार बनाइये, प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - मन् + स्यते - मं + स्यते = मस्यते रम् + स्यते - रं + स्यते = रंस्यते सकारान्त धातु - सकारान्त धातुओं के बाद सकारादि प्रत्यय आने पर विचार कीजिये कि वह प्रत्यय यदि सार्वधातुक है, तब तो आप कुछ मत कीजिये। यथा - आस् + से = आस्से। आदि। __ यदि सकारादि प्रत्यय आर्धधातुक है तब आप ‘सः स्यार्धधातुके’ सूत्र से धातु के अन्तिम स् को त् बना दीजिये। यथा - वस् + स्यति - वत् + स्यति = वत्स्यति घस् + स्यति - घत् + स्यति = घत्स्यति हकारान्त धातु + सकारादि प्रत्यय हकारान्त धातु - हकारान्त धातुओं के चार वर्ग बनाइये - १. नह धातु - नह धातु के बाद सकारादि प्रत्यय आने पर नह के [[३५६]] अन्तिम ‘ह’ को नहो धः सूत्र से ‘ध्’ बनाइये। उसके बाद ‘ध्’ को ‘खरि च’ सूत्र से चर्व करके ‘त्’ बनाइये। प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - नह - नह + स्यति - नत् + स्यति = नत्स्यति __२. बकारादि तथा गकारादि हकारान्त धातु - जैसे - बर्ह, बृंह, गृह, गाह, गुह आदि धातु - . _ बकारादि तथा गकारादि हकारान्त धातुओं के बाद सकारादि प्रत्यय आने पर, इन धातुओं के अन्त में स्थित ह को हो ढः’ सूत्र से ढ् बनाइये। उसके बाद इनके आदि में स्थित वर्ग के तृतीयाक्षर ‘ब’ ‘ग’ को ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘भ’ ‘घ’ बना दीजिये। __ जैसे - बाबूह + सि - बाबंद + सि - बाभुंद + सि / गर्ह + स्यते - गई + स्यते - घर्ट्स + स्यते / उसके बाद - ‘षढोः कः सि सूत्र से ‘द’ के स्थान पर ‘क्’ बनाइये। बाबूँद + सि - बाभृक् + सि/ घई + स्यते - घ + स्यते / प्रत्यय के ‘स्’ को आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये। क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये = बाभुक्षि / घयते । बाबुंह + सि - बाभंद + सि = बाभंक्षि गह + स्यते - घ• + ष्यते = घयते गाह् + स्यते - घाक् + ष्यते = घाक्ष्यते गोह + स्यते - घोक् + ष्यते = घोक्ष्यते ३. दकारादि हकारान्त दह्, दिह्, दुह्, द्रुह् आदि धातु - ऐसे धातुओं के बाद, सकारादि प्रत्यय आने पर - १. इन धातुओं के अन्त में स्थित ह को, दादेर्धातोर्घः सूत्र से घ् बनाइये। उसके बाद आप धातु के आदि में स्थित वर्ग के तृतीयाक्षर ‘द’ को ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘ध’ बना दीजिये। जैसे - दोह् + स्यते - दोघ + स्यते - धोघ + स्यते। . २. अब खरि च से घ् को चर्व करके - धोच् + स्यते - धोक् + स्यते। _३. अब प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाइये। क् + को मिलाकर स् बनाइये - धोक् + स्यते - धोक् + ष्यते - धोक्ष्यते। ऐसे ही दुह् - दोह् + स्यति - धोक् + ष्यति = धोक्ष्यति दह - दह् + स्यति - धक् + ष्यति = धक्ष्यति हल सन्धि ३५७ दिह - देह + स्यति - धेक् + ष्यति = धेक्ष्यति द्रुह् - द्रोह + स्यति - ध्रोक् + ष्यति = ध्रोक्ष्यति __४. इन हकारान्त धातुओं से बचे हुए हकारान्त धातु - इनके बाद सकारादि प्रत्यय आने पर, इनके अन्तिम ‘ह’ को ‘हो ढः’ सूत्र से ढ् बनाइये। उसके बाद षढोः कः सि सूत्र से ‘द’ के स्थान पर ‘क्’ बनाइये। प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ष् बनाइये। क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाइये। वह - वह + स्यति - वक् + ष्यति = वक्ष्यति यह सारे हलन्त धातुओं में सकारादि प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। अब लङ लकार के त को छोड़कर शेष तकारांदि, थकारादि प्रत्ययों को हलन्त धातुओं में जोड़ने की विधि बतलाते हैं। हलन्त धातुओं में, लङ् लकार के त् प्रत्यय को छोड़कर, शेष सारे तकारादि, थकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि खरि च - जब भी प्रत्यय खर् अर्थात् त, थ, स से प्रारम्भ हो रहा हो, तब उस प्रत्यय का पूर्ववर्ती वर्ण, अपने ही वर्ग का ‘प्रथमाक्षर’ बन जाता है। पहिले हम प्रत्येक वर्ग के प्रथम, द्वितीय, तृतीय वर्षों से अन्त होने वाले धातुओं को तकारादि, थकारादि प्रत्ययों में जोड़ेंगे - प्रत्येक वर्ग के चतुर्थ वर्ण से अन्त होने वाले धातुओं को तकारादि, थकारादि प्रत्ययों में बाद में जोड़ेंगे। तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - क् ख् ग् को खरि च सूत्र से क् बनाइये तथा प्रत्यय के त् थ् को कुछ मत कीजिये - शाशक् + ति - शाशक् + ति = शाशक्ति शाशक् + थः - शाशक् + थः = शाशक्थः लेलेख + ति - लेलेक् + ति = लेलेक्ति लेलेख + थः - लेलेक् + थः लेलेक्थः तात्वङ्ग् + ति - तात्वक् + ति = तात्वक्ति तात्वङ्ग् + थः - तात्वक् + थः = तात्वथः चवर्गान्त धातुओं के दो वर्ग बनाइये - १. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा सारे छकारान्त धातु - इन धातुओं के अन्तिम वर्ण के स्थान पर व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयज || [[३५८]] + ನ राजभ्राजच्छशां षः सूत्र से ‘ए’ कीजिये और ष्टुना टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ट’, तथा प्रत्यय के ‘थ’ को ‘ठ’ बनाइये - वाव्रश्च् + ति = वावष्टि वाव्रश्च् + थः = वाव्रष्ठः बाभ्रज्ज् + ति = बाभ्रष्टिबाभ्रज्ज् + थः = बाभ्रष्ठः सरीस + ति = सरीसष्टि सरीसृज् + थः = सरीसृष्ठः मा + ति = माष्टि मृज् = मृष्ठः यायज् + ति = यायष्टि यायज् + थः = यायष्ठः पाप्रच्छ् + ति = पाप्रष्टि पाप्रच्छ् + थः = पाप्रष्ठः बाभ्राज् + ति = बाभ्राष्टिबाभ्राज् + थः = बाभ्राष्ठः राराज् + ति = राराष्टि राराज् + थः = राराष्ठः __२. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा सारे छकारान्त धातुओं से बचे हुए शेष चवर्गान्त धातु - द्वितीयाक्षर छ् को तो हम ष् बना ही चुके हैं। अतः च्, ज् ही बचे। इन च्, ज् को चोः कुः’ सूत्र से क्, ग् बनाइये, उसके बाद उन्हें ‘खरि च’ से चर्व करके ‘क्’ बनाइये, तथा प्रत्यय के त, थ को कुछ मत कीजिये रिंच् + तः - रिक् + तः रिङ्क्तः रिंच् + थः - रिक् + थः रिक्थः भुंज् + तः - भुक् + तः भुङ्क्तः भुंज् + थः - भुक् + थः भुक्थः टवर्गान्त धातु - इनके अन्तिम ट् ठ् ड् को खरि च सूत्र से ट् बनाइये। उसके बाद ष्टुना टुः सूत्र से प्रत्यय के त को ट तथा प्रत्यय के थ को ठ बनाइये। ईड् + ते - ईट् + टे = ईट्टे तवर्गान्त धातु- इनके अन्तिम त् थ् द् को खरि च सूत्र से त् बनाइये। प्रत्यय के त, थ को कुछ मत कीजिये - अद् + ति - अत् + ति अत्ति अद् + थः - अत् + थः = अत्थः छिंद् + तः - छिन्त् + तः छिन्त्तः छिंद् + थः - छिन्त् + थः छिन्थः यहाँ छिन्त् + तः तथा छिन्त् + थः में ‘झरो झरि सवर्णे’ सूत्र से विकल्प हल् सन्धि ३५९ से पूर्व त् का लोप करके छिन्तः, छिन्थः रूप भी बनेंगे। _ झरो झरि सवर्ण - हल् से परे जो झर्, उसका लोप होता है, झर् परे होने पर। _धा धातु के लिये विशेष - दधस्तथोश्च - ‘दध’ के ‘द’ को ‘ध’ होता है, त, थ, ध, स परे होने पर। जैसे - दध् + तः - धध् + तः / दध् + थः - धध् + थः / दध् + से - धध् + से / दध् + ध्वे - धध् + ध्वे। _पवर्गान्त धातु - इनके अन्तिम प् फ् ब् को खरि च सूत्र से प् बनाइये। प्रत्यय के त थ को कुछ मत कीजिये - छोप् + ता = छोप्ता . तेप् + ता = तेप्ता आदि। _यह सभी वर्गों के प्रथम द्वितीय तृतीय वर्गों का विचार पूर्ण हुआ। अब प्रत्येक वर्ग के चतुर्थ वर्ण से अन्त होने धातुओं में अर्थात् झषन्त धातुओं में तकारादि, थकारादि प्रत्ययों को जोड़ने का विचार करते हैं - जब धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर हो, तब आप ऐसे धातुओं के बाद में आने वाले - १. प्रत्यय के त, थ को पहिले ‘झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से ‘ध’ बना दीजिये। २. उसके बाद धातु के अन्त में बैठे हुए, वर्ग के चतुर्थाक्षर को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बना दीजिये। दोघ + ति - दोग् + धि = दोग्धि लालभ् + ति - लालब् + धि = लालब्धि रुणध + ति - रुणद + धि = रुणद्धि जाझर्ड्स + ति - जाझर्ग + धि = जाझग्र्धि जाझधि - जाझर्ड्स + ति। यह चवर्गान्त है, अतः पहिले ‘चोः कुः’ से ‘झ्’ को कवर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ’ बनाकर - जाझध् + ति / अब झषस्तथो?ऽधः’ सूत्र से प्रत्यय के ‘त’ को ‘ध’ बनाकर - जाझध् + धि / अब ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से घ् को जश्त्व करके - जाझर्ग + धि - जाझग्छि । _ यह चतुर्थाक्षरों का विचार पूर्ण हुआ। अब नकारान्त, मकारान्त अर्थात् अनुनासिकान्त धातुओं में तकारादि, थकारादि प्रत्ययों को जोड़ने का विचार करते हैं -३६० ᳕ नकारान्त, मकारान्त धातुओं में अर्थात् अनुनासिकान्त धातुओं में प्रत्यय जोड़ने के पहिले यह निर्णय अवश्य कीजिये कि जो तकारादि प्रत्यय आप धातु में लगाने जा रहे हैं, वह तकारादि प्रत्यय कहीं कित् डित् तो नहीं है ? क्योंकि तकारादि प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं। १. कित् ङित् तकारादि प्रत्यय, जैसे - क्त, क्तवतु, क्तिन्, तः आदि। २. कित् ङित् से भिन्न तकारादि प्रत्यय, जैसे - तुमुन्, तव्य, ति, आदि। बहुत सावधानी से पहिचानिये, कि जो तकारादि प्रत्यय आप लगाने जा रहे हैं, वह तकारादि प्रत्यय कित् डित् तकारादि प्रत्यय है अथवा कित् ङित् से भिन्न तकारादि प्रत्यय है। __ यदि नकारान्त, मकारान्त धातुओं अर्थात् अनुनासिकान्त धातुओं से लगा हुआ तकारादि प्रत्यय, कित् ङित् है, तब हमें सन्धि करने के पहिले अङ्गकार्य करने वाले दो सूत्रों को सामने रखकर ही सन्धि करना चाहिये। १. अनुदात्तोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झलि क्डिति - मन् (दिवादिगण), हन्, गम्, रम्, नम्, यम्, वन्, तन्, सन्, क्षण, क्षिण, ऋण, तृण, घृण, मन् (तनादिगण), इन १५ धातुओं के अन्तिम अनुनासिक वर्गों का लोप हो जाता है, झलादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर। यथा - हन् + तः = हतः हन् + थः = हथः गम् + तः = गतः जङ्गम् + थः = जङ्गथः मन् + तः = मतः सन् + तः = सतः रम् + तः = रतः __ यम् + तः = यतः २. अनुनासिकस्य क्विझलोः क्डिति- इन १५ धातुओं के अलावा जितने भी अनुनासिकान्त धातु हैं, उनकी उपधा को, झलादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर दीर्घ होता है। शम् + क्त - शाम् + त / वम् + क्त - वाम् + त आदि। in जिन धातुओं को यह लोप या उपधादीर्घ कार्य प्राप्त हो, उसे पहिले कर लें। उसके बाद ही इन अनुनासिकान्त धातुओं में, सन्धि करें। जहाँ ये कार्य नहीं प्राप्त हैं, वहाँ सीधे सन्धि कर लीजिये। नकारान्त, मकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर इस प्रकार सन्धि कीजिये - हन् + ति - नश्चापदान्तस्य झलि सूत्र से अपदान्त न्’ ‘म्’ को अनुस्वार हल् सन्धि ३६१ बनाकर - हंति / अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः’ सूत्र से अनुस्वार को परसवर्ण करके हंति = हन्ति। इसी प्रकार - रम् + तुम् - रं + तुम् = रन्तुम् आदि । शाम् + तः = शान्तः दाम् + तः = दान्तः वाम् + तः = वान्तः गम् + ता = गन्ता गम् + तुम् = गन्तु र म् + तुम् = रन्तुम् इन दोनों सूत्रों के अर्थ आगे ३६७, ३६८ पृष्ठों पर देखिये। यकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - यकारान्त धातुओं के ‘य’ का लोपो व्योर्वलि’ सूत्र से लोप कीजिये। जैसे - जाहय् + ति = जाहति / जाहय् + तः = जाहतः / जाहय् + थः = जाहथः आदि। शकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - शकारान्त धातुओं के ‘श्’ को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये और प्रत्यय के त, थ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ट, ठ बनाइये - वश् + ति - वष् + टि = वष्टि उश् + थः - उष् + ठः = उष्ठः ईश् + ते - ईष् + टे = ईष्टे ऐश् + थाः - ऐष् + ठाः = ऐष्ठाः षकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - धातुओं के ‘ए’ को कुछ मत कीजिये। केवल प्रत्यय के ‘त’ ‘थ’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ष्टुत्व करके ‘ट’, ‘ठ’ बनाइये - द्वेष् + ति = द्वेष्टि / द्विष् + थः = द्विष्ठः अचष् + त = अचष्ट / अचष् + थाः = अचष्ठाः _ सकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - इन्हें कुछ भी नहीं होता। आस् + ते = आस्ते। हकारान्त धातुओं से तकारादि, थकारादि प्रत्यय परे होने पर - हकारान्त धातुओं के पाँच वर्ग बनाइये - १. नह् धातु - नह् + ता / नहो धः सूत्र से ध् करके - नध् + ता / प्रत्यय के त, थ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ध बनाकर - नध् + धा / धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर ध् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके - नद् + धा = नद्धा। [[३६२]] २. दकारादि हकारान्त धातु, जैसे - दुह्, दिह् आदि - इनके ह् को दादेर्धातोर्घः सूत्र से घ् बनाइये / प्रत्यय के त, थ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ध बनाइये / धातु के अन्तिम घ् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ग् बनाइये। जैसे - दोह् + ति - दोघ + धि - दोग् + धि = दोग्धि दुह् + थ. - दुघ् + धः - दुग् + धः = दुग्धः देह + ति - देघ + धि - देग् + धि = देग्धि दिह + थः - दिघ् + धः - दिग् + धः = दिग्धः ३. द्रुह् ,मुह्, स्नुह्, स्निह् धातु - इन चार धातुओं के ‘ह’ को ‘वा द्रुहमुहष्णुहष्णिहाम्’ सूत्र से विकल्प से ‘घ्’ तथा ‘ढ’ होते है, झल् परे होने पर। ‘ह’ को ‘घ’ बनाने पर - द्रुह् + ता - द्रोच् + ता मुह + ता - मोघ् + ता स्नुह् + ता - स्नोघ् + ता स्निह् + ता - स्नेघ् + ता __ देखिये कि अब धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ्’ हो गया है। धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ्’ होने पर - १. प्रत्यय के त, थ को झषस्तथोऽधः सूत्र से ध बना दीजिये - __२. और धातु के अन्त में बैठे हुए वर्ग के चतुर्थाक्षर को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बनाइये। जैसे - द्रोच् + ता - द्रोग् + धा = द्रोग्धा मोघ् + ता - मोग् + धा = मोग्धा स्नोघ + ता - स्नोग + धा = स्नोग्धा स्नेच् + ता - स्नेग् + धा = स्नेग्धा ‘ह’ को ‘द’ बनाने पर - द्रुह् + ता - द्रोढ् + ता / मुह + ता - मोठ् + ता स्नुह् + ता . - स्नोढ् + ता / स्निह् + ता - स्नेढ् + ता देखिये कि अब धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘ढ्’ है। धातु के अन्त में वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘ढ्’ होने पर - १. प्रत्यय के त, थ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ध बना दीजिये - द्रोढ् + ता - द्रोद् + धा। + + हल् सन्धि ३६३ २. उसके बाद प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ‘ढ’ बनाइये - द्रोच् + ता - द्रोढ् + ढा मोघ + ता - मोठ् + ढा स्नोघ् + ता - स्नोद + ढा स्नेघ् + ता - स्नेढ् + ढा ढो ढे लोपः - ढ् के बाद ढ् आने पर, पूर्व वाले द का लोप होता है। द्रोढ् + ढा = द्रोढा / मोठ् + ढा = मोढा स्नोद + ढा = स्नोढा / स्नेढ् + ढा = स्नेढा ४. सह्, वह् धातु - सह + ता / हो ढः से ह को ढ् बनाने पर - सद् + ता / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - सद् + धा / ष्टना ष्टः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुत्व करके - सद् + ढा / ‘ढो ढे लोपः’ से पूर्व ढकार का लोप करके - स + ढा / अब ‘सहिवहोरोदवर्णस्य’ सूत्र से लुप्त ढकार के ती ‘अ’ को ‘ओ’ बनाकर सोढा’ बनाइये । इसी प्रकार, वह + ता से वोढा’ बनाइये। ५. शेष हकारान्त धातु - इन धातुओं के अलावा जितने भी हकारान्त धातु बचे, उनके ‘ह’ को हो ढः’ सूत्र से ‘द’ बनाइये - लिह - लेह + ता - लेट् + ता / प्रत्यय के ‘त’ को झषस्तथो?ऽधः सूत्र से ‘ध’ करके - लेट् + धा / ष्टुना ष्टुः सूत्र से प्रत्यय के ‘ध्’ को ष्टुत्व करके - लेट् + ढा - ढो ढे लोपः’ से पूर्व ढकार का लोप करके - ले + ढा = लेढा। इसी प्रकार - रुह् + ता - रोह् + ता - रोद + ढा = रोढा मिह + ता - मेह + ता - मेढ् + ढा = मेढा विशेष - ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः - ढ् और र् का लोप होने पर, उन लुप्त ढ् और र् के पूर्व में स्थित जो अण् अर्थात् अ, इ, उ, उन्हें दीर्घ होता है। लिह् + तः - लिट् + धः / लिट् + ढः / लि + ढः / इसे देखिये। यहाँ लुप्त ढकार के पूर्व में ‘इ’ है। _ इसे ‘ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः’ सूत्र से दीर्घ कीजिये - लि + ढः = लीढः । ठीक इसी प्रकार, लिह् + थः से भी लीढः बनाइये । यह हलन्त धातुओं में तकारादि, थकारादि प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। [[३६४]] हलन्त धातुओं में हि प्रत्यय जोड़ने की विधि हुझल्भ्यो हेर्धिः - हु धातु तथा झलन्त धातुओं से परे आने वाले ‘हि’ प्रत्यय को ‘धि’ आदेश होता है। यथा - _ वच् + हि - वच् + धि / दुह् + हि - दुह् + धि / लिह् + हि - लिह् + धि / जब यह हि प्रत्यय धकारदि धि’ प्रत्यय बन जाये तब इसे आगे कही जाने वाली विधि से जोड़िये। हलन्त धातुओं में धकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि धकारादि प्रत्यय परे होने पर इस प्रकार सन्धि करें झलां जश् झशि - जब भी प्रत्यय ‘ध्’ से प्रारम्भ हो रहा हो, तब उस प्रत्यय का पूर्ववर्ती वर्ण, अपने ही वर्ग का तृतीयाक्षर’ बन जाता है। इसे ही जश्त्व सन्धि कहते हैं। जैसे - धुघ् + ध्वे = धुग्ध्वे / वक् + धि = वग्धि आदि। _ झषस्तथो?ऽधः - झषन्त धातु से परे आने वाले प्रत्यय के ‘त’ ‘थ’ को ‘ध’ होता है। जैसे - दोघ + ति = दोघ् + धि / दुघ् + थः = दुघ् + धः आदि। __कवर्गान्त धातु - शाशक् + धि - शाशग् –+ धि = शाशग्धि । लेलेख + धि - लेलेग् + धि = लेलेग्धि। तात्वङ्ग् + धि - तात्वङ्ग् + धि = तात्वग्धि । लाल + धि - लालङ्ग् + धि = लालङ्ग्धि __चवर्गान्त धातुओं के दो वर्ग बनाइये - १. व्रश्च्, भ्रस्ज, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा सारे छकारान्त धातु _ व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा छकारान्त और शकारान्त धातुओं के अन्तिम वर्ण के स्थान पर वश्चभ्रस्जसृजमृजयज - राजभ्राजच्छशां षः सूत्र से ‘ए’ बनाकर उसे ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके ‘ड् कीजिये और प्रत्यय के ‘ध’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ‘ढ’ बनाइये - वाव्रश्च् + धि - वाव्रष् + धि - वावड् + ढि = वावड्ढि बरीभ्रज्ज् + धि - बरीभ्रष् + धि - बरीभ्रड् + ढि = बरीभ्रड्ढि सरीसृज् + धि - सरीसृष् + ढि - सरीसृड् + ढि = सरीसृड्ढि हल् सन्धि ३६५ मरीमृज् + धि - मरीमृष् + ढि - मरीमृड् + ढि = मरीमृड्ढि यायज् + धि - यायष् + ढि - यायड् + ढि = यायड्ढि राराज् + धि - राराष् + ढि - राराड् + ढि = राराढि बाभ्राज् + धि - बाभ्राष् + ढि - बाभ्राड् + ढि = बाभ्राड्ढि छकारान्त धातु - पाप्रच्छ + धि - पाप्रष् + ढि - पाप्रड् + ढि = पाप्रड्ढि २. व्रश्च्, भ्रस्ज्, सृज्, मृज्, यज्, राज्, भ्राज् धातु तथा सारे छकारान्त धातुओं से बचे हुए शेष चवर्गान्त धातु - च् ज् झ् को चोः कुः’ सूत्र से क्, ख्, घ्, बनाकर, ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से ‘ग्’ बनाइये तथा प्रत्यय के ‘ध्’ को कुछ मत कीजिये - विञ्च् + ध्वे - विङ्ग् + ध्वे = विग्ध्वे युज् + ध्वे - युङ्ग् + ध्वे = युग्ध्वे जाझर्ड्स + धि - जाझर्ग + धि = जाझग्र्धि टवर्गान्त धातु - ट, ठ, ड्, को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर ड् बनाइये। प्रत्यय के ‘ध्’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ‘ढ्’ बनाइये। लोलुट् + धि - लोलुड् + ढि = लोलुढि पापठ् + धि - पापड् + ढि = पापड्ढि ईड् + ध्वे - ईड् + ढ्वे = ईड्ढ्वे ढकारान्त धातु - ढकारान्त कोई भी धातु, धातुपाठ में नहीं है, किन्तु हकारान्त धातु ही हो ढः’ सूत्र से ढकारान्त हो जाते हैं। _इनसे परे आने वाले प्रत्यय के ‘ध्’ को ‘ढ्’ बनाइये। जैसे - तृणेढ् + धि - तृणेढ् + ढि / अब ढो ढे लोपः से उस प्रत्यय के पूर्व में आने वाले ‘ढ्’ का लोप कीजिये। तृणे + ढि = तृणेढि बनाइये। इसी प्रकार तृण्ढ् + धि से तृण्ढि बनाइये। __तवर्गान्त धातु - त्, थ्, द्, ध् को ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से उसी वर्ग का तृतीयाक्षर द् बनाइये। प्रत्यय के ध् को कुछ मत कीजिये। कृन्त् + धि - कृन्द् + धि = कृन्द्धि अद् + धि - अद् + धि = अद्धि रुन्ध् + धि - रुन्द् + धि = रुन्द्धि [[३६६]] यहाँ कृन्द् + धि आदि में झरो झरि सवर्ण सूत्र से विकल्प से पूर्व त् का लोप करके कृन्धि, छिन्धि आदि रूप भी बनेंगे। अब श् ष् स् का विचार करते हैं - शकारान्त धातुओं से धकारादि प्रत्यय परे होने पर इस प्रकार कार्य कीजिये - शकारान्त धातु - “श्’ को वश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां शः’ सूत्र से ‘ए’ बनाकर झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके ‘ड्’ बनाइये। प्रत्यय के ‘ध्’ को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ‘ढ्’ बनाइये। ईश् + ध्वे - ईष् + ध्वे - ईड् + ध्वे = ईड्ढ्वे । __षकारान्त धातु - ष् को झलां जश् झशि सूत्र से जश्त्व करके ‘ड्’ बनाइये। प्रत्यय के ध् को ष्टुना ष्टुः से ष्टुत्व करके ‘द’ बनाइये। चक्ष् + ध्वे - चड् + ढ्वे = चड्ढ्वे / उष् + धि - उड् + ढि = उड्ढि / द्विष् + धि - द्विड् + ढि = द्विड्ढि / अचक्ष् + ध्वम् - अचड् + ढ्वम् = अचड्ढ्वम्। सकारान्त धातु - धकारादि प्रत्यय परे होने पर ‘धि च’ सूत्र से स् का लोप कीजिये - चकास् + धि - चका + धि = चकाधि कंस् + ध्वे - कं + ध्वे = कंध्वे आस् + ध्वे - आ + ध्वे = आध्वे निस् + ध्वे - निं + ध्वे = निंध्वे आशास् + ध्वे - आशा + ध्वे = आशाध्ये वस् + ध्वे - व + ध्वे = वध्वे हकारान्त धातुओं से, ‘ध्व’ प्रत्यय परे होने पर दिह + ध्वे - पहिले ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से इसके ह को घ् बनाकर - दिह् + ध्वे - दिघ् + ध्वे / अब एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से ‘द’ को भष् करके - धिम् + ध्वे। अब झलां जश् झशि सूत्र से ‘घ्’ को जश्त्व करके धिग् + ध्वे = धिग्ध्वे। इसी प्रकार दिह् + ध्वम् = धिग्ध्वम् / दुह् + ध्वे = धुग्ध्वे आदि। हकारान्त धातुओं से, ‘ध्व’ प्रत्यय से भिन्न धकारादि प्रत्यय परे होने पर - एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से भष् नहीं होता, क्योंकि यह हल् सन्धि ३६७ भष्भाव केवल केवल ‘ध्व’ से प्रारम्भ होने वाले प्रत्यय परे होने पर ही होता है। सारे धकारादि प्रत्यय परे होने पर नहीं होता। यथा - दुह् + धि - दादेर्धातोर्घः सूत्र से इसके ह को घ् बनाकर - दुघ् + धि - ‘झलां जश् झशि’ सूत्र से जश्त्व करके - दुग् + धि = दुग्धि । _इसी प्रकार - दिह् + धि - दिग्धि / जोगुह् + धि - जोगुड्ढि / जागा + ढि = जागाड्ढि बनाइये। लिह् + धि - ह को हो ढः’ सूत्र से ढ् बनाइये - लिह् + धि - लिद + धि। ढ् से धकारादि प्रत्यय परे होने पर, प्रत्यय के ध् को ष्टुना ष्टुः सूत्र से ढ् बनाइये - लिट् + धि - लिट् + ढि। अब ‘ढो ढे लोपः’ सूत्र से पूर्व में आने वाले द का लोप कीजिये। लिद + ढि - लि + ढि। __ लुप्त ढ् के पूर्व के ‘इ’ को ‘ठूलोपे पूर्वस्य दीर्घोऽणः’ सूत्र से दीर्घ कर करके - लि + ढि - लीढि। इसी प्रकार - लिह् + ध्वे - लीढ्वे बनाइये। यह धातुओं में धकारादि प्रत्ययों को जोड़ने की विधि पूर्ण हुई।
- अनुस्वार और परसवर्ण सन्धि ध्यान रहे कि अनुस्वार और परसवर्ण सन्धि सबसे अन्त में ही की जाती हैं। अतः धातुरूप बनाने की सारी प्रक्रिया को कर चुकने के बाद, यदि धातुरूप के बीच में कोई न, म् दिखें, तो जानिये कि ये न्, म्, अपदान्त न्, म् हैं। जैसे - रुधादिगण के रुध्, भुज्, खिद् आदि धातुओं में ‘श्नम्’ विकरण लगाकर ‘श्नसोरल्लोपः’ सूत्र से, जब उसके ‘अ’ का लोप करते हैं, तब रुन्ध्, भुन्ज्, विन्च्, तृन्ह, खिन्द्, कृन्त्, आदि बनते हैं। इनके बीच में बैठा हुआ यह ‘न्’ अपदान्त न है। शुठि, शिघि, णदि, लाछि, इखि, आदि धातुओं में जब नुम् का आगम करते हैं, तब ये, शुन्, शिन्च्, नन्द्, लान्छ, इन्ख्, आदि बनते हैं। इन धातुओं के बीच में बैठा हुआ यह ‘न्’ भी अपदान्त न है। गम् + ता / रम् + ता / यम् + ता / नम् + ता आदि में तथा संगम् + स्यते, रम् + स्यते, आदि में धातु तथा प्रत्यय के बीच में बैठा यह ‘म्’ भी अपदान्त ‘म्’ है। नश्चापदान्तस्य झलि - जब पद के अन्त में नहीं, अपितु अपद के अन्त [[३६८]] में न्, म् आयें, तो उन्हें अनुस्वार होता है, यदि उन न्, म के बाद आने वाला व्यञ्जन झल् हो, अर्थात् वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय, अथवा चतुर्थ व्यञ्जन हो अथवा श्, ष, स्, ह, हो। यथा - मन् + ता / हन् + ता / गम् + ता आदि को देखिये। इनमें मन्, हन्, गम् तो ‘धातु’ हैं और ता प्रत्यय’ है । जब ये दोनों जुड़ जायेंगे तभी सुप्तिङन्तं पदं’ सूत्र से इनका नाम ‘पद’ होगा। अभी तो ये पद नहीं हैं, अपद हैं। _इन अपदों के अन्त में स्थित नकार, मकार, अपदान्त नकार, मकार हैं और इनसे परे झल् है। ऐसे अपदान्त नकार, मकार को ‘नश्चापदान्तस्य झलि’ सूत्र से अनुस्वार होता है। जैसे - मन् + ता = मंता / हन् + ता = हंता / गम् + ता = गंता / यम् + ता = यंता / हन् + सि = हंसि / आदि। इसी प्रकार - रम् + स्यते = रंस्यते / नम् + स्यति = नंस्यति / संगम् + स्यते = संगंस्यते / मन् + स्यते = मस्यते, आदि। __ रुन्ध्, भुन्ज्, विन्च्, तृन्ह, खिन्द्, कृन्त्, शुन्, शिन्घ्, नन्द्, भुन्ज्, लान्छ्, इन्ख्, आदि में भी, अपदान्त न् हैं। इन्हें भी इसी सूत्र से अनुस्वार बनाइये। जैसे - रुन्ध् - रुंध् / भुन्ज् - भुंज् / विन्च् - विंच् / तृन्ह् - तुंह / खिन्द् - खिंद् / कृन्त् - कृत् / शुन् - शुंठ / शिन्घ् - शिंघ् / नन्द् - नंद् / भुन्ज् - भुंज् / लान्छ् - लांछ् / इन्ख् - इंख् आदि। जब अनुस्वार बन जाये, तब उस अनुस्वार के आगे जो व्यञ्जन हो, उसे ध्यान से देखिये कि वह यय् है अथवा नहीं। या अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः - अनुस्वार को परसवर्ण होता है, यय् परे होने पर। यय का अर्थ होता है, श् स् ष् ह को छोड़कर सारे व्यञ्जन । __परसवर्ण - परसवर्ण का अर्थ होता है, अपने आगे आने वाले वर्ण के समान, उसी स्थान का वर्ण बन जाना। जैसे - मंता = मन्ता / हंता = हन्ता / गंता = गंन्ता / यंता = यन्ता आदि । तात्पर्य यह हुआ कि श् स् ष् ह परे होने पर अनुस्वार को परसवर्ण नहीं होता। जैसे - रंस्यते = रंस्यते / नंस्यति = नंस्यति / संगंस्यते = संगस्यते। अब परसवर्ण के उदाहरण विस्तार से देखें - क्, ख्, ग्, घ्, परे होने पर अनुस्वार को ’’ हो जाता है - हल् सन्धि ३६९ अंक - यहाँ अनुस्वार के बाद कवर्ग का वर्ण ‘क है, अतः अनुस्वार, कवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ङ्’ हो जायेगा। अंक = अङ्क । पुंख - यहाँ अनुस्वार के बाद कवर्ग का वर्ण ‘ख’ है अतः अनुस्वार, कवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ङ्’ हो जायेगा। पुंख = पुङ्ख । अंग - यहाँ अनुस्वार के बाद कवर्ग का वर्ण ‘ग’ है, अतः अनुस्वार, कवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ङ्’ हो जायेगा। अंग = अङ्ग । लंघन - यहाँ अनुस्वार के बाद कवर्ग का वर्ण ‘घ’ है, अतः अनुस्वार, कवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ङ्’ हो जायेगा। लंघन = लङ्घन । च, छ, ज, झ्, परे होने पर अनुस्वार को ‘ज्’ हो जाता है - मंच - यहाँ अनुस्वार के बाद चवर्ग का वर्ण ‘च’ है, अतः अनुस्वार, चवर्ग का ही पञ्चमाक्षर न हो जायेगा। मंच = मञ्च। उंछ - यहाँ अनुस्वार के बाद चवर्ग का वर्ण छ’ है, अतः अनुस्वार, चवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ज्’ हो जायेगा। उंछ = उञ्छ। मंजु - यहाँ अनुस्वार के बाद चवर्ग का वर्ण ‘ज’ है, अतः अनुस्वार, चवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ज्’ हो जायेगा। मंजु = मञ्जु। __ झंझा - यहाँ अनुस्वार के बाद चवर्ग का वर्ण ‘झ’ है अतः अनुस्वार, चवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ’’ हो जायेगा। झंझा = झञ्झा। ट्, ठ्, ड्, ढ्, परे होने पर अनुस्वार को ‘ण्’ हो जाता है - घंटा - यहाँ अनुस्वार के बाद टवर्ग का वर्ण ‘ट’ है, अतः अनुस्वार, टवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ण्’ हो जायेगा। घंटा = घण्टा। शुंठी - यहाँ अनुस्वार के बाद टवर्ग का वर्ण ‘ठ’ है अतः अनुस्वार, टवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ण’ हो जायेगा। शंठी = शुण्ठी। _मुंड - यहाँ अनुस्वार के बाद टवर्ग का वर्ण ‘ड’ है अतः अनुस्वार, टवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ण’ हो जायेगा। मुंड = मुण्ड। शंढ - यहाँ अनुस्वार के बाद टवर्ग का वर्ण ‘ढ’ है अतः अनुस्वार, टवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘ण’ हो जायेगा। शंढ = शण्ढ । त्, थ्, द्, ध्, परे होने पर अनुस्वार को न्’ हो जाता है - मंता - यहाँ अनुस्वार के बाद तवर्ग का वर्ण ‘त’ है अतः अनुस्वार, तवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘न्’ हो जायेगा। मंता = मन्ता। [[३७०]] मंथन - यहाँ अनुस्वार के बाद तवर्ग का वर्ण ‘थ’ है अतः अनुस्वार, तवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘न्’ हो जायेगा। मंथन = मन्थन। कुंद - यहाँ अनुस्वार के बाद तवर्ग का वर्ण ‘द’ है, अतः अनुस्वार, तवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘न्’ हो जायेगा। कुंद = कुन्द। _बंधन = यहाँ अनुस्वार के बाद तवर्ग का वर्ण ‘ध’ है, अतः अनुस्वार, तवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘न्’ हो जायेगा। बंधन - बन्धन । प्, फ्, ब्, भ, परे होने पर अनुस्वार को ‘म्’ हो जाता है - कंपन - यहाँ अनुस्वार के बाद पवर्ग का वर्ण ‘प’ है, अतः अनुस्वार, पवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘म्’ हो जायेगा। कंपन = कम्पन। गुंफ - यहाँ अनुस्वार के बाद पवर्ग का वर्ण ‘फ’ है, अतः अनुस्वार, पवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘म्’ हो जायेगा। गुंफ = गुम्फ। _लंब - यहाँ अनुस्वार के बाद पवर्ग का वर्ण ‘ब’ है अतः अनुस्वार, पवर्ग का ही पञ्चमाक्षर म्’ हो जायेगा। लंब = लम्ब । स्तंभ - यहाँ अनुस्वार के बाद पवर्ग का वर्ण ‘भ’ है अतः अनुस्वार, पवर्ग का ही पञ्चमाक्षर ‘म्’ हो जायेगा। स्तंभ = स्तम्भ।
- ध्यान रहे कि जब अनुस्वार के बाद श, ष, स, ह आयें तो अनुस्वार ज्यों का त्यों ही रहता है क्योंकि इनके तो कोई सवर्णी होते ही नहीं हैं और ये यय प्रत्याहार में आते भी नहीं है। जैसे - हंसि - हंसि / मस्यते - मस्यते / संशय = संशय / संहार = संहार। परसवर्ण करते समय हमें यह सावधानी रखना चाहिये - कि भुन्ज् = भुंज के ज् में यदि कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है, तब तो भुंज् का अनुस्वार ज् का सवर्णी ञ् बनेगा। जैसे भुंज् + आते = भुंज् + आते = भुजाते। . किन्तु भुन्ज् + ते - भुंज् + ते को देखिये। यहाँ परसवर्ण करने के पहिले ही चोः कुः’ सूत्र आकर ज्’ को कुत्व करके ‘ग्’ बना देता है। भंज् + ते = भुंग् + ते। अब ‘खरि च’ सूत्र, ‘ग्’ को चर्व करके ‘क्’ बना देता है। भुंग् + ते = भुंक् + ते। __ध्यान रहे कि ‘अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः’ से होने वाला परसवर्ण तो सारे सूत्रों के कार्य कर चुकने के बाद ही किया जाता है। अतः अब हम देखेंगे कि अब अनुस्वार के बाद अब कौन सा वर्ण है ? हम देखते हैं कि अब अनुस्वार हल् सन्धि ३७१ के बाद ज्’ न होकर, ‘ग्’ है। अतः अनुस्वार अब ‘ग्’ का सवर्णी ‘ङ्’ बनेगा, ज्’ का सवर्णी ‘ञ्’ नहीं बनेगा। भुंग् + ते - भुक् + ते = भुङ्क्ते। विन्च् + ते - विंच् + ते को देखिये। यहाँ परसवर्ण करने के पहिले ही चोः कुः’ सूत्र आकर ‘च’ को कुत्व करके ‘क्’ बना देता है। विंच् + ते = विक् + ते। अब हम देखते हैं कि अनुस्वार के बाद ‘च’ न होकर ‘क्’ है, अतः अनुस्वार अब ‘क्’ का सवर्णी ‘ङ्’ बनेगा, ‘च’ का सवर्णी ’’ नहीं बनेगा। विक् + ते - विक् + ते = विङ्क्ते। _ रुन्ध् + आते में, न को अनुस्वार होकर बनता है रुंध्, और उसके बाद ‘ध्’ को कुछ नहीं होता, अतः यहाँ अनुस्वार अपने अगले वर्ण ‘ध्’ का ही सवर्णी ‘न्’ बन जाता है - रुंध् + आते - रुन्ध् + आते = रुन्धाते। तृन्ह को देखिये। यहाँ न् को अनुस्वार होकर तुंह बन जाता है। पर परसवर्ण इसलिये नहीं होता कि हमने अभी पढ़ा है, कि अनुस्वार को परसवर्ण होता है, यय् परे होने पर। अर्थात् वर्ग का प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व्यञ्जन अथवा य् व् र् ल् परे होने पर। तात्पर्य यह हुआ कि श् स् ष् ह परे होने पर अनुस्वार को परसवर्ण नहीं होता। यहाँ अनुस्वार के बाद ह है अतः यहाँ परसवर्ण न होकर यह तुंह ही रहेगा। _ किन्तु जब तुंह् + तः में, ह को हो ढः से ‘ढ्’ हो जाता है तब तूंढ् + तः हो जाने पर हम देखते हैं, कि यह ‘द’ तो यय् है। अतः अब ‘ढ्’ परे होने पर अनुस्वार ‘द’ का सवर्णी ‘ण’ बन जाता है - तूंढ् + तः = तृण्द + तः। ‘द’ टवर्ग का व्यञ्जन है, उसका पञ्चमाक्षर ण् है अतः टवर्ग को देखकर अनुस्वार को ‘ण’ ही होगा। अब हमें द्वितीय गण समूह में से अदादि, जुहोत्यादि, तथा रुधादि गण के हलन्त धातुओं के रूप बनाना है। अतः इन हल सन्धियों का सम्यक् अभ्यास करके ही आप आगे के इन हलन्त धातुओं के रूप बनाइये । अन्यथा पदे पदे स्खलन होगा। सप्तम पाठ