०२ वर्णमाला, माहेश्वर सूत्र, प्रत्याहार, पारिभाषिक शब्द, सूत्रों के प्रकार तथा प्रमुख सन्धियाँ

व्याकरण शब्द शास्त्र है। यह अत्यन्त कठिन है। हमारा सम्पूर्ण प्रयास यही है कि हम आपको इसकी दुरूहता से बचायें, तथापि व्याकरण में प्रवेश करने से पहिले स्वर, व्यञ्जन, मातृकापाठ, माहेश्वर सूत्र तथा प्रत्याहारों का ज्ञान तो होना ही चाहिये। इसी अभिप्राय से उन्हें बताया जा रहा है। र भले ही इस पाठ को पढ़ते समय हमें लगे, कि यह तो बच्चों जैसी बात है। हम सीखने तो जा रहे हैं, दसों लकारों के धातुरूप बनाना और पढ़ रहे हैं वर्णमाला। पर यह अपरिहार्य है। इसे बड़ी दृढ़ता से जान लेना चाहिए, अन्यथा आगे पदे पदे काठिन्य होगा। स्वर तथा व्यञ्जन - स्वर ९ हैं - अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ। इन्हें ‘अच’ भी कहते हैं। स्वर. वे ध्वनियाँ हैं. जो बिना किसी अन्य वर्ण की सहायता के बोली जा सकें, अतः इन्हें बोलकर, उच्चारण करके प्रमाणित कर लीजिये कि क्या ये ध्वनियाँ स्वतन्त्र रूप से बोली जा सकती हैं ? अतः बोलिए ‘अ’। अब सुनिये कि इसे बोलने में ‘अ’ के अतिरिक्त अन्य कोई ध्वनि मिली हुई नहीं सुनाई पड़ी। तब स्वतन्त्र उच्चारण होने के कारण जानिये कि यह स्वर है। अब व्यञ्जन बतला रहे हैं - बोलिए ‘क’ । अब सुनिये कि इसमें ‘क’ के साथ ‘अ’ की ध्वनि मिली हुई है। इसके बिना आप इस क् को बोल नहीं सकते। ‘क्’ के उच्चारण के लिये उसमें,नौ में से किसी न किसी स्वर का मिलना आवश्यक है। अतः ‘अच्’ के अधीन उच्चारण होने के कारण यह ‘क्’ ‘व्यञ्जन’ है। इस प्रकार व्यञ्जन वे ध्वनियाँ हैं जो स्वतन्त्र रूप से न बोली जा सकें। व्यञ्जन ३३ होते हैं। उनमें से क’ से ‘म’ तक आने वाले २५ व्यञ्जन स्पर्श, य, र, ल, व, ‘अन्तःस्थ’, तथा श, ष, स, ह ऊष्म’ हैं। व्यजनों को उच्चारणस्थान के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जैसे - क, ख, ग, घ, ङ, ये पाँच व्यञ्जन मुख में कण्ठ से ही बोले जाते हैं, अतः इन सबका एक वर्ग बनाया और उसका The Spirtu TAS SITUÉ वर्णमाला, माहेश्वर सूत्र, प्रत्याहार तथा प्रमुख सन्धियाँ १८१ ३ मूर्धा नाम रखा - कवर्ग। इसी प्रकार च, छ, ज, झ, ञ, ये पाँच व्यञ्जन मुख में तालु से बोले जाते हैं, अतः इन सबका एक वर्ग बनाया और उसका नाम रखा - चवर्ग। इसी प्रकार आगे जानिये। सारे व्यञ्जन इस प्रकार हैं - मातृकापाठ - वर्णमाला उच्चारण स्थान कवर्ग - कु क ख ग | घ । ङ । कण्ठ चवर्ग - चु च छ । ज । झ | ञ | तालु टवर्ग - टु तवर्ग - तु ध | न दन्त पवर्ग - पु | प | फ | ब | भ | म | ओष्ठ अन्तःस्थ । य । र ल व । ऊष्म श ष स । ह इन्हें ध्यान से देंखें, इनमें ५-५ वर्णों के जो समूह बनाये गये हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं - कवर्ग = कु / चवर्ग = चु / टवर्ग = टु / तवर्ग = तु / पवर्ग = पु / इन्हीं समूहों के छोटे नाम कु, चु, टु, तु, पु, हैं। सूत्रों में जब भी ‘कु’ कहा जायेगा, तो उसे कवर्ग समझिये। कु अर्थात् क, ख, ग, घ, ङ। इसी प्रकार ‘च’ कहा जायेगा, तो उसे चवर्ग समझिये। चु अर्थात् च, छ, ज, झ, ज। इसी प्रकार आगे जानिये। पाणिनीय व्याकरण में इन्हीं वर्गों के इस क्रम में एक विशिष्ट उलटफेर करके माहेश्वर सूत्रों का निर्माण किया गया है। माहेश्वर सूत्र १४ हैं, जो इस प्रकार हैं -

माहेश्वर सूत्र

१. अइउण् २.ऋलक् ३. एओङ् ४. ऐऔच ५. हयवरट् ६. लण् ७. अमङणनम् ८. झभञ् ९. घढधष् १०. जबगडदश् ११. खफछठथचटतव्, १२. कपय् १३. शषसर् १४. हल् । इन्हें ध्यान से देखिये - इन १४ सूत्रों के अन्त में जो व्यञ्जन हैं, उनका नाम है ‘इत्’ । इन इतों को अनुबन्ध भी कहा जाता है। जिसका नाम ‘इत्’ है, उसका लोप हो जाता है, अतः आप इन्हें वर्णों की गणना में शामिल मत कीजिये। इसीलिये हमने आगे इन्हें कोष्ठक में रख दिया है।१८२ ᳕ हम जान चुके हैं कि ‘अनुबन्ध’ और ‘इत्’ पर्यायवाची हैं। इन इतों को छोड़कर जो वर्ण बचेंगे, उनकी व्यवस्था इस प्रकार जानिये - सूत्र क्रमाङ्क १ से ४ अर्थात् अइउ (ण)/ ऋल (क्) / एओ (ङ्)/ ऐऔ (च), में आये हुए सारे के सारे ९ वर्ण ‘स्वर’ हैं। ये स्वर ‘अ’ से ‘च’ के बीच में बैठे हैं, अतः स्वरों को अच् भी कहते हैं। __अब सूत्र क्रमाङ्क ५, ६ को देखिये - अर्थात् हयवर (ट) / ल (ण)/ इनमें ‘ह’ को छोड़ दीजिये तो बचे य, र, ल, व। ये चारों अन्तःस्थ हैं। इन्हें यण कहते हैं, क्योंकि ये ‘य’ से ‘ण’ के बीच में बैठे हैं। अब सूत्र क्रमाङ्क ७ को देखिये - अर्थात् ञमङणन (म्)। ये पाँचों वर्ण ऊपर बतलाई गई वर्णमाला के पाँचवें क्रमाक के वर्ण हैं जैसे- ञ, चवर्ग का पाँचवाँ वर्ण है। ‘म’ पवर्ग का पाँचवाँ वर्ण है। ‘ण’ टवर्ग का पाँचवाँ वर्ण है तथा ‘न’ तवर्ग का पाँचवाँ वर्ण है। इस प्रकार प्रत्येक वर्ग से पाँचवाँ-पाँचवाँ वर्ण लिया और सूत्र बना दिया - ञमङणनम् । अब सूत्र क्रमाङ्क ८-९ को देखिये - अर्थात् झभ(ञ्) तथा घढध (ए)। ये वर्णमाला के चतुर्थ वर्ण हैं। प्रत्येक वर्ग का चौथा-चौथा वर्ण लिया तो दो सूत्र बने - झभञ् तथा घढधष् । अब सूत्र क्रमाक १० को लीजिये - अर्थात् जबगडद (श्)। देखिये कि प्रत्येक वर्ग के तीसरे - तीसरे वर्ण को ले लिया है तथा सूत्र बनाया है - जबगडदश् । __ अब सूत्र क्रमाङ्क ११ - १२ को लीजिये - अर्थात् खफछठथचटत (c) / कप (म्) । देखिये कि प्रत्येक वर्ग का दूसरा - दूसरा वर्ण लिया तो बना खफछठथ तथा प्रत्येक वर्ग का पहला-पहला वर्ण लिया तो बना चटतव् / कपम् । अब सूत्र क्रमाङ्क १३, १४ को लीजिए अर्थात् - शषस (र्) / ह (ल्) । ये हैं - श, ष, स, ह अर्थात् ऊष्म। ये श से ‘ल’ के बीच में आये हैं, अतः इन्हें ‘शल्’ भी कह सकते हैं।

  • इस प्रकार हमने माहेश्वर सूत्रों की संरचना देखी, तो पाया कि उनमें सबसे पहिले स्वर हैं, उसके बाद ४ अन्तःस्थ हैं, उसके बाद ५, ४, ३, २, १, के क्रम से २५ स्पर्श हैं तथा सबसे अन्त में ऊष्म हैं। अब प्रश्न उठता है कि अच्छी भली वर्णमाला में उलट फेर करने के वर्णमाला, माहेश्वर सूत्र, प्रत्याहार तथा प्रमुख सन्धियाँ १८३ पीछे भगवान् पाणिनि का क्या प्रयोजन है ? इन माहेश्वर सूत्रों के बनाने का प्रयोजन है - प्रत्याहार बनाना। प्रत्याहार का अर्थ होता है - ‘संक्षेप’ । अभी तक हमारे पास ऐसी कोई विधि नहीं थी कि हम दो, चार, दस, बीस वर्गों को एक साथ बोल सकें। पर अब हम बोल सकते हैं। यदि हमें अ, इ, उ इन तीन वर्णों को एक साथ बोलना है तो हम अइउण में ‘अ’ को ‘ण’ से जोड देंगे तो बनेगा ‘अण्’ । जिसका अर्थ होगा अ, इ, उ। केवल पञ्चम वर्ण कहना हो तो ‘अ’ को ‘म्’ से जोड़ देंगे तो बनेगा जम्’/ इसी प्रकार केवल चतुर्थ वर्ण कहना हो तो ‘झ’ को ‘ए’ से जोड़ देंगे तो बनेगा ‘झष्’। यदि हमें सारे तीसरे वर्ण एक साथ बोलना है तो हम ‘जबगडदश्’ को एक साथ कहेंगे - ‘जश्’, जिसका अर्थ होगा - ज,ब,ग,ड,द / केवल द्वितीय - प्रथम वर्ण, कहना हो तो खय्’/ केवल प्रथम वर्ण कहना हो तो ‘चय’/ केवल अन्तःस्थ कहना हो तो ‘यण’ / केवल ऊष्म कहना हो तो शल्’ / चतुर्थ, तृतीय दोनों वर्ण कहना हो तो ‘झश्’ कहेंगे। इसी प्रकार हमें यदि सारे स्वर एक साथ कहना हो तो, ‘अच्’/ सारे व्यञ्जन एक साथ कहना हो तो हल्’ / सारे स्वर, व्यञ्जन अर्थात् ४२ वर्ण एक साथ कहना हो, तो हम प्रारम्भिक ‘अ’ को अन्तिम ‘ल’ से जोड़कर कहेंगे - अल् । इस प्रकार माहेश्वर सूत्रों से प्रत्याहार बनाने का अभ्यास कर लेना चाहिए। प्रत्येक सूत्र के अनुबन्धों से बनने वाले प्रत्याहारों की संख्या इस प्रकार है - अइउण् - इसके ण् से एक प्रत्याहार बनाइए - अण् । ऋलुक् _- इसके क् से तीन प्रत्याहार बनाइये - अक्, इक्, उक्। एओङ् - इसके ङ् से एक प्रत्याहार बनाइए - एङ् । ऐऔच - इसके च से चार प्रत्याहार बनाइए - अच्, इच्, एच्, ऐच् । हयवरट - इसके ट् से एक प्रत्याहार बनाइये - अट् । लण् - इसके ण् से तीन प्रत्याहार बनाइए - अण, इण, यण् । अमङणनम् - इसके ‘म्’ से तीन प्रत्याहार बनाइए - अम्, अम्, डम्। झभञ्
  • इसके ञ्’ से एक प्रत्याहार बनाइए - यञ् । घढधष् __- इसके ‘ए’ से दो प्रत्याहार बनाइए - भष्, झए । जबगडदश् - इसके ‘श्’ से छह प्रत्याहार बनाइए - अश्, हश्, वश्, जश्, [[१८४]] झश्, बश् । खफछठथचटतव् - इसके ‘व्’ से एक प्रत्याहार बनाइए - छत् ।। कपय् - इसके ‘य’ से चार प्रत्याहार बनाइए - यय, मय, झय, खय्।। शषसर् - इसके ‘र’ से पाँच प्रत्याहार बनाइये - यर्, झर्, खर्, चर्, शर्। हल् - इसके ‘ल’ से छह प्रत्याहार बनाइये - अल्, हल्, वल्, रल, झल् और शल। कि इस प्रकार इन प्रत्याहारों का अभ्यास कर लेने से सम्पूर्ण व्याकरण शास्त्र में गति हो जाती है, अतः प्रत्याहारों का समुचित अभ्यास करके ही इस शास्त्र में प्रवेश कीजिये।

व्याकरण शास्त्र के पारिभाषिक शब्द

प्रत्येक शास्त्र की अपनी पारिभाषिक शब्दावली होती है। इसलिये उस शास्त्र में प्रवेश करने के पहले उस शास्त्र के पारिभाषिक शब्दों को जान लेना आवश्यक है। अतः हम यहाँ व्याकरण शास्त्र के कुछ पारिभाषिक शब्द बतला रहे हैं। इन्हें भली भाँति समझकर ही आगे बढ़ें। १. तपर - तपरस्तत्कालस्य - जब हम ‘अ’ कहते हैं, तब उसका अर्थ ‘अ’ ‘आ’, दोनों ही होता है परन्तु यदि हमें केवल ह्रस्व ‘अ’ कहना हो, तो हम उस ‘अ’ के बाद ‘त्’ लगा देते हैं, तब ‘अत्’ कहने पर उसका अर्थ केवल हूस्व ‘अ’ होता है। इसी प्रकार आत् = दीर्घ अ / इत् = ह्रस्व इ / ईत् = दीर्घ ई / उत् = ह्रस्व उ / ऊत् = दीर्घ ऊ / ऋत् = ह्रस्व ऋ / ऋत् = दीर्घ ऋ / एत् = ए / ओत् = ओ / आदि जानना चाहिये। जिनके अन्त में ‘त्’ लगा है, ऐसे वर्ण तपर कहलाते हैं। __२. उपधा - अलोऽन्त्यात्पूर्व उपधा - किसी भी शब्द के अन्तिम वर्ण के ठीक पहिले वाला वर्ण ‘उपधा’ कहलाता है। जैसे - ‘पठ्’ में अन्तिम वर्ण ट् है, उसके ठीक पूर्व वाला ‘अ’ उपधा है। चित्’ में अन्तिम वर्ण त् है, उसके ठीक पूर्व वाला ‘इ’ उपधा है। ‘मुद्’ में अन्तिम वर्ण ‘द्’ है, उसके ठीक पूर्व वाला ‘उ’ उपधा है। वृष् में अन्तिम वर्ण ‘ष’ है, उसके ठीक पूर्व वाला ‘ऋ’ उपधा है। _भ्रंश्, संस्, ध्वंस् में ‘न्’ उपधा है। यहाँ ‘न्’ ही अनुस्वार हो गया है। शुम्भ, हम्म्, कम्प् में भी न् उपधा है, यहाँ न ही म् बन गया है। इस प्रकार व्याकरण शास्त्र के पारिभाषिक शब्द १८५ किसी भी धातु को देखते ही हमें उपधा’ को पहिचान लेना चाहिये। जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘अ’ है, उन्हें हम अदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘इ’ है, उन्हें हम इदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘उ’ है, उन्हें हम उदुपध धातु कहते हैं, जिन धातुओं की उपधा में ह्रस्व ‘ऋ’ है, उन्हें हम ऋदुपध धातु कहते हैं। जिन धातुओं की उपधा में ‘न्’ है, उन्हें हम नोपध धातु कहते है, इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये, जैसे - अदुपध इदुपध ऋदुपध नोपध धातु धातु धातु धातु उदुपध धातु मिद् दृष् वद् भिद् ता कृष् चित् रुच वृध भ्रंश् स्रंस् छिद् शुभ् कम्प हन अञ्च आदि आदि आदि आदि आदि ३. गुण - अदेङ् गुणः - अ, ए, ओ, अर् अल् - ये गुण कहलाते हैं। ४. वृद्धि - वृद्धिरादैच् - आ, ऐ, औ, आर्, आल्, ये वृद्धि हैं। उरण रपरः - ‘ऋ’ के स्थान पर जब भी अ, इ, उ होना कहा जाता है, तब वे अ, इ, उ, ‘रपर’ होकर अर्, इर्, उर् बन जाते हैं। इसीलिये ऋ के स्थान पर जब ‘अ’ गुण होता है, तब वह ‘अर्’ बन जाता है और ऋ के स्थान पर जब ‘आ’ वृद्धि होती है तब वह ‘आर्’ बन जाती है। __ऋ के स्थान पर जब ‘इ’ होता है, तब वह ‘इर्’, बन जाता है तथा ऋ के स्थान पर जब ‘उ’ होता है, तब वह उर्’ बन जाता है। गुण वृद्धि इस प्रकार जानें -

  • इ । उ । ऋ । लु ए | ओ | गुण । अ | ए | ओ | अर् | अल् | ए | ओ | वृद्धि | आ | ऐ । औ आर् | आल् | ऐ | औ गुण का अर्थ है - ‘इ’, ‘ई’ को ‘ए’ हो जाना। जैसे - जि - जे/ श्रि - श्रे आदि। ‘उ’, ‘ऊ’ को ‘ओ’ हो जाना। जैसे - भू - भो / द्रु - द्रो अ । । [[१८६]] आदि। ‘ऋ’, ‘ऋ’ को ‘अर्’ हो जाना। जैसे - ह - हर् / तृ - तर् आदि। वृद्धि के उदाहरण - ली - लै / भू - भौ / वृ - वार् / हृ - हार्। ५. सम्प्रसारण - इग्यणः सम्प्रसारणम् - जब य, व, र, ल के स्थान पर इ, उ, ऋ, लु आदेश हो जायें, तो हम कहते हैं कि सम्प्रसारण हो गया। जैस - यज् - इज् - (य् को इ सम्प्रसारण) / वप् - उप् - (व् को उ सम्प्रसारण) ग्रह - गृह - ( र् को ऋ सम्प्रसारण) ६. टि - अचोऽन्त्यादि टि - किसी भी अजन्त शब्द को देखिये। उसमें जो अन्तिम ‘अच्’ होता है, उसका नाम ‘टि’ होता है। । जैसे - राम में ‘अ’, हरि में ‘इ’, गुरु में ‘उ’ आदि ‘टि’ हैं। किसी भी हलन्त शब्द में, जो अन्तिम ‘अच्’ होता है, उस अन्तिम अच्’ को मिलाकर, उसके आगे जो भी हल्’ हो, उसका नाम ‘टि’ होता है। जैसे - मनस् में ‘अस्’, चर्मन् में ‘अन्’, भवत् में ‘अत्’ आदि। ७. सुप् प्रत्यय - प्रातिपदिकों में जो प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पञ्चमी, षष्ठी, सप्तमी विभक्तियाँ लगती हैं, उन्हीं का नाम सुप् प्रत्यय होता है। वे यथा स्थान बतलाये जायेंगे। यहाँ धात्वधिकार में उनकी आवश्यकता नहीं है। ८. तिङ् प्रत्यय - तिप् तस् झि सिप् थस् थ मिप् वस् मस् त आताम् झ थास् आथाम् ध्वम् इट् वहि महिङ् - ये १८ प्रत्यय तिङ्’ प्रत्यय कहलाते है। इन्हीं १८ तिङ् प्रत्ययों से सारे लकारों के ति, तः अन्ति आदि तिङ् प्रत्यय बनते हैं, जो कि प्रथम अध्याय में विस्तार से बतलाये जा चुके हैं। ९. विभक्ति - विभक्तिश्च - इन्हीं सुप् तथा तिङ् प्रत्ययों का नाम विभक्ति भी होता है। १०. धातु - प्रथम पाठ में बतला चुके हैं कि क्रियावाची ‘भू’ आदि की धातु संज्ञा ‘भूवादयो धातवः’ सूत्र से होती है तथा सन् आदि प्रत्यय लगाकर बने हुए प्रत्ययान्त धातुओं की धातु संज्ञा ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से होती है। ११. धुसंज्ञक धातु - दाधाध्वदाप् - दाप्, दैप् धातुओं को छोड़कर जितने भी दारूप और धारूप धातु हैं, उनकी घु संज्ञा होती है। १२. प्रातिपादिक - अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपादिकम् - धातुओं को छोड़कर, प्रत्ययों को छोड़कर तथा प्रत्ययान्त को छोड़कर, जो भी अर्थवान् शब्द होते हैं, उनका नाम प्रातिपदिक होता है। जैसे - भू यह तो धातु है, इसका नाम व्याकरण शास्त्र के पारिभाषिक शब्द १८७ प्रातिपदिक नहीं है किन्तु राम, बालक, कृष्ण, वृक्ष आदि का नाम प्रातिपादिक है। कृत्तद्धितसमासाश्च - जब धातुओं में कृत्’ प्रत्यय लग जाते हैं तब धातुओं का नाम भी प्रातिपदिक हो जाता है। जैसे - कृष् धातु है। इसमें यदि ‘न’ यह कृत् प्रत्यय लगा दिया जाये, तो जो कृष् + न = कृष्ण शब्द बनेगा, उसका नाम प्रातिपदिक हो जायेगा। इस प्रातिपदिक में यदि ‘सु’ विभक्ति लगा दी जाये, तो कृष्ण + सु = कृष्णः, यह पद बन जायेगा। इस कृष्णः पद में पुनः यदि कोई तद्धित प्रत्यय लगा दिया जाये, जैसे - कृष्णः + इञ् = कार्ष्णि, तब इसका नाम, पुनः प्रातिपादिक हो जायेगा। । १३. पद तथा अपद - सुप्तिङन्तं पदम् - ‘सुप्’ तथा ‘तिङ्’ ये प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं, उनका नाम ‘पद’ हो जाता है। जब तक धातु से तिङ् प्रत्यय न लग जाये, तब तक वह धातु ‘अपद’ ही रहता है। जैसे ‘भू’ धातु को देखिये। इसके अन्त में ‘तिङ्’ प्रत्यय न होने से यह अपद है। जब इस ‘भू’ में हमने शप् विकरण लगाया, तो भू + शप् को मिलाकर ‘भव’ बना। इसके अन्त में भी ‘तिङ्’ प्रत्यय न होने से यह अपद है। अब भव + ति को मिलाकर जब हमने भवति बनाया, तो ‘ति’ लग जाने से इसका नाम तिङन्त पद हो गया। प्रातिपदिकों में जब सुप् प्रत्यय लगते हैं, तब प्रातिपादिकों का नाम भी पद हो जाता है। जैसे - ‘कृष्ण’ यह प्रातिपदिक है, किन्तु इससे जब हम प्रथमा आदि विभक्तियाँ लगाकर कृष्णः कृष्णौ कृष्णाः आदि शब्दरूप बना लेते हैं, तब इनका नाम पद हो जाता है। हमने जाना कि पद दो प्रकार के होते है। सुबन्त पद तथा तिङन्त पद। पद अपद को पहिचानकर ही सन्धिकार्य करना चाहिये। १४. द्वित्व - गम् को जब गम् गम् हो जाता है, तब हम कहते हैं कि गम् को ‘द्वित्व’ हो गया है। ऐसा कब कब होता है ? लिट् लकार के प्रत्यय परे होने पर, सन्, यङ्, चङ् प्रत्यय परे होने पर तथा जुहोत्यादिगण में शप् का लोप हो जाने पर अर्थात् श्लु हो जाने पर, धातुओं को द्वित्व हो जाता है। ये द्वित्व करने वाले सारे सूत्र अष्टाध्यायी में ६.१.१ से लेकर ६.१.१२ तक हैं । यह सारी विधि आगे यथास्थान बतलाई जायेगी। १५. अभ्यास - पूर्वोऽभ्यासः - जब भी किसी धातु को हम द्वित्व करते हैं, जैसे - गम् को गम् गम् / भू को भू भू / पठ् को पठ् पठ् / आदि, तब इन दो में जो प्रथम होता है, उसका नाम अभ्यास होता है। [[१८८]] । १६. अभ्यस्त - उभे अभ्यस्तम् - द्वित्व कर देने के बाद, जो एक के स्थान पर दो धातु दिखने लगते हैं, उन दोनों का सम्मिलित नाम अभ्यस्त होता है। जैसे - दा - दा में, दोनों ‘दा’ का सम्मिलित नाम अभ्यस्त है, किन्तु अभ्यास नाम केवल पूर्व वाले ‘दा’ का ही है। जक्षित्यादयः षट् - अदादिगण के जश्, जागृ, दरिद्रा, चकासृ, शासु, दीधीङ्, वेवीङ् ये सात धातु बिना द्वित्व किये ही अभ्यस्त कहलाते है। 5 १७. आदि - आदि का अर्थ प्रारम्भ होता है। जैसे - पठ्, वद्, खाद् के आदि (प्रारम्भ) में, हल् (व्यञ्जन) हैं, अतः ये धातु हलादि हैं। अत्, इच्छ् आदि धातुओं के आदि (प्रारम्भ) में, अच् (स्वर) हैं, अतः ये धातु अजादि हैं। १८. अपृक्त - अपृक्त एकाल् प्रत्ययः - जिन प्रत्ययों में एक ही अल् (वर्ण) होता है, वे एक अल् वाले एकाल् प्रत्यय, अपृक्त प्रत्यय कहलाते हैं। जैसे - लङ् लकार परस्मैपद के त्, स् प्रत्यय ‘अपृक्त प्रत्यय’ कहलाते हैं। १९ अन्यतरस्याम्, वा, विभाषा तथा बाहुलक - जब सूत्र में कहा हुआ कोई कार्य हो भी सकता हो, और न भी हो सकता हो, तब सूत्र में उसे ‘अन्यतरस्याम्’ ‘वा’ ‘विभाषा’ आदि शब्दों से कहा जाता है। है किन्तु वैदिक शब्दों की सिद्धि के लिये जो ‘बहुलं छन्दिसि’ आदि सूत्र हैं, उनमें कई कार्यों के लिये कहा गया है, कि वे कार्य बहुल करके होते हैं - बहुल का अर्थ होता है कि वे कार्य हो भी सकते हैं, नहीं भी हो सकते हैं, विकल्प से भी हो सकते हैं, और जहाँ जो होना है, वहाँ वह न होकर कुछ और भी हो सकता है। इसी का नाम बाहुलक है। २०. परे - भू + ति में ‘भू’ के बाद ‘ति’ आया है, तो इसे हम कहेंगे कि ति प्रत्यय भू धातु से परे है। पूरे ग्रन्थ में प्रत्यय लगने पर, इसी शब्द का प्रयोग किया जायेगा। भू + शप् में, शप् प्रत्यय लगने पर, भू धातु को गुण होता है तो हम कहेंगे कि शप् प्रत्यय परे होने पर भू धातु को गुण होता है। २१, २२. स्थानी तथा आदेश - किसी वर्ण को या पूरे शब्द को हटाकर, जब उसकी जगह, कोई दूसरा वर्ण या शब्द आकर, बैठ जाता है, तब जिसे हटाया जाता है, उसे ‘स्थानी’ कहते हैं तथा जो स्थानी की जगह आकर बैठ जाता है, उसे आदेश’ कहते हैं। वह स्थानी की जगह आकर बैठ जाने वाला वर्ण या शब्द, हटाने की क्रिया करता है, अतः शत्रु के समान होता है, इसलिये व्याकरणशास्त्र व्याकरण शास्त्र के पारिभाषिक शब्द १८९ में आदेश को शत्रु के समान कहा जाता है - शत्रुवदादेशः। प्रति + एकः = प्रत्येकः को देखिये। ‘इ’ को हटाकर उसके स्थान पर आकर, ‘य’ बैठ गया है। अतः इ स्थानी है और य आदेश है। २३. निमित्त - ‘इ’ के स्थान पर ‘य’ क्यों हुआ है ? इ को य् होने का निमित्त अर्थात् कारण है ‘ए’। अतः जिसके कारण कोई भी कार्य होता है, उसे उस कार्य का निमित्त कहा जाता है। अतः यहाँ ‘इ’ के स्थान पर ‘य’ होने का निमित्त ‘ए’ है। २४. आगम - जैसे हमारे घर मित्र आता है, तो वह हमें हटाये बिना आकर घर में बैठ जाता है। उसी प्रकार जब किसी भी वर्ण को हटाये बिना कोई दूसरा वर्ण आकर बैठ जाता है, तो उसे हम ‘आगम’ कहते हैं। जैसे . ‘वदि’ धातु में हम ‘इ’ की इत् संज्ञा करते हैं, और इदितो नुम् धातोः सूत्र से, इसके अन्तिम अच् के ठीक बाद में ‘नुम्’ को बैठा देते हैं। जैसे - वन्द् । इसके लिये हम किसी वर्ण को हटाते नहीं हैं। जो बिना किसी को हटाये चुपचाप आकर मित्र जैसा बैठ जाये, उसे हम आगम कहते हैं - मित्रवदागमः । २५. संयोग - ऐसे दो या दो से अधिक व्यञ्जन, जिनके बीच में कोई स्वर न आया हो, उनका नाम संयोग होता है। जैसे - पुष्प में - ष् + प् का संयोग है। बुद्धि में - द् + ध् का संयोग है। कृत्स्न में - त् + स् + न् का संयोग है। वृष्णि में - ष् + ण् का संयोग है। २६. ह्रस्व - एक मात्रा वाले, अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पाँच स्वरों का नाम ह्रस्व है। २७. लघु - ह्रस्वं लघु - इन्हीं पाँच ह्रस्व स्वरों का ही नाम लघु भी होता है। संयोगे गुरु - इन ह्रस्व अ, इ, उ, ऋ, ल, इन पाँच स्वरों के बाद यदि कोई संयुक्त व्यञ्जन आये, तो ये लघु स्वर ही गुरु कहलाने लगते हैं। जैसे __ हट्ट - इसमें ह्रस्व अ के बाद ट् + ट् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘अ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। किन्नर - इसमें ह्रस्व इ के बाद न् + न् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘इ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। मुद्गर - इसमें ह्रस्व उ के बाद द् + ग् का संयोग है। इसलिये इस संयोग [[१९०]] के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘उ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। कृष्ण - इसमें ह्रस्व ऋ के बाद ष् + ण् का संयोग है। इसलिये इस संयोग के पूर्व में स्थित ह्रस्व ‘ऋ’ अब ‘गुरु’ कहलायेगा। २८. दीर्घ - आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ ये दीर्घ स्वर कहलाते हैं। दीर्घञ्च - इन आठ दीर्घ स्वरों का नाम गुरु भी है। २९. लोप- किसी शब्द में कोई वर्ण दिख रहा हो, किन्तु किसी कारणवश उसका दिखना बन्द हो जाये, तो उस न दिखने को ही लोप’ कहा जाता है। जैसे - भ्रंश् धातु को देखिये। इसमें ‘न्’ दिखाई पड़ रहा है, किन्तु जब इसमें यते’ प्रत्यय लगता है, तब भ्रंश् + यते = भ्रश्यते बनता है। अब देखिये कि भ्रंश् में जो न दिख रहा था, वह भ्रश्यते में नहीं दिख रहा है। तो हम कहते है कि न् का लोप हो गया है। ३०. अनुवृत्ति - अष्टाध्यायी में सूत्र ऐसी व्यवस्था से बैठे हैं कि यदि ऊपर के सूत्रों के पदों की आवश्यकता नीचे के सूत्रों को है, तो नीचे के सूत्र ऊपर के सूत्रों के पदों को खींचकर ले सकते हैं। जैसे - __ ‘उपदेशेजनुनासिक इत्’ यह सूत्र है। इसमें इत् पद है। इसके नीचे हलन्त्यम्, न विभक्तौ तुस्माः, षः प्रत्ययस्य, आदिब्रिटुडवः, चुटू, लशक्वतद्धिते, ये ६ सूत्र हैं। इन छहों सूत्रों को इत् पद की आवश्यकता है। अतः ये छहों सूत्र ‘उपदेशेजनुनासिक इत्’ सूत्र से ‘इत्’ पद को खींच लेते हैं। इसी को ‘अनुवृत्ति’ कहा जाता है। इस अनुवृत्ति से लाभ यह होता है कि सूत्रों के अर्थ नहीं रटना पड़ते हैं।

सूत्रों के प्रकार - सूत्र ६ प्रकार के होते हैं

१. संज्ञा सूत्र - जो सूत्र, संज्ञा अर्थात् नामकरण करते हैं, वे सूत्र संज्ञा सूत्र कहलाते हैं। जैसे ‘उपदेशेजनुनासिक इत्’ सूत्र, इत् संज्ञा’ करता है, अतः यह संज्ञा सूत्र है। ‘वृद्धिरादैच्’ सूत्र वृद्धि संज्ञा करता है अतः यह संज्ञा सूत्र है। २. परिभाषा सूत्र - जो सूत्र, विधि सूत्रों के अर्थों को स्पष्ट करते हैं वे परिभाषा सूत्र कहलाते हैं। जैसे - ‘आद्गुणः’ सूत्र, जब ऋ के स्थान पर ‘अ’ गुण करने को कहता है, तब उरण रपरः’ सूत्र आकर उसके अर्थ को स्पष्ट करते हुए कहता है कि ‘ऋ’ के स्थान पर ‘अ’ गुण न होकर ‘अर्’ गुण कीजिये। अतः यह सूत्र, आद्गुणः सूत्र के अर्थ को स्पष्ट करने के कारण परिभाषा’ सूत्र सूत्रों के प्रकार है। ३. विधि सूत्र - जो सूत्र, गुण, वृद्धि, सम्प्रसारण, लोप आदि किसी भी कार्य का विधान करते हैं, वे विधि सूत्र कहलाते हैं। ४. नियम सूत्र - एक विधि सूत्र के द्वारा कोई कार्य कह दिये जाने पर, यदि दूसरा सूत्र किसी कारणवश उसी कार्य को पुनः कहता है तो उस सूत्र को नियम सूत्र कहा जाता है। ५. अधिकार सूत्र - अष्टाध्यायी में जो भी कार्य कहा जाता है, उसे आगे पीछे से एक अधिकार में बाँध दिया जाता है। जैसे अष्टाध्यायी में धातु से लगने वाले प्रत्यय कहना है, तो पहिले एक सूत्र बनाते हैं - धातोः (३.१.९१) इसका अर्थ है - धातु से। बस यहाँ से वे सारे प्रत्यय कहना प्रारम्भ कर दिया, जो प्रत्यय धातुओं से लगाये जाते हैं। अब बार बार धातोः, धातोः कहने की आवश्यकता नहीं है। यह ‘धातोः’ अधिकार ३.१.९१ से ३.४.११७ तक चलता है और यह ‘धातोः’ सूत्र इन सारे सूत्रों में जाकर लगता रहता है अर्थात् अनुवृत्त होता है। इस अधिकार से पहिले और इस अधिकार के बाद धातुओं से किसी प्रत्यय का विधान अष्टाध्यायी में नहीं मिलेगा। इसी प्रकार तद्धिताः’ यह एक अधिकार सूत्र बनाया और इसके भीतर सारे तद्धित प्रत्यय कह दिये। अधिकार और अनुवृत्ति ही वस्तुतः अष्टाध्यायी के प्राण हैं। ६. अतिदेश सूत्र- जो जैसा नहीं है, उसे वैसा मान लेने को ही ‘अतिदेश’ कहते हैं। यह मानने का कार्य जिन सूत्रों के कारण होता है, उन सूत्रों को हम अतिदेश सूत्र कहते हैं। लोक में भी ऐसा होता है, कि जब गुरुजी न हों, तो उनके स्थान में गुरुपुत्र को ‘गुरु’ जैसा मान लिया जाता है। इसी प्रकार शास्त्र में भी अनेक जगह ऐसा करना पड़ता है कि जो जैसा नहीं होता, उसे वैसा मान लेना पड़ता है। जो जैसा नहीं है, उसे वैसा मान लेने को ही अतिदेश कहते हैं। जैसे - सार्वधातुकमपित् - जो अपित् सार्वधातुक प्रत्यय हैं, उन्हें डित् न होते हुए भी ङित् जैसा मान लिया जाता है। इसलिये इन्हें डित् प्रत्यय भी कह सकते हैं ये प्रमुख पारिभाषिक शब्द बतलाये गये। आगे जिनकी भी आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें वहीं बतलायेंगे। [[१९२]]

कुछ प्रमुख सन्धियाँ तथा षत्व, णत्व विधि

यहाँ कुछ प्रमुख सन्धियाँ ही बतलायी जा रही हैं। प्रमुख अच् सन्धियाँ - यण् सन्धि - इको यणचि - इक् अर्थात् इ, उ, ऋ, लु, के स्थान पर यण अर्थात् य व् र् ल् आदेश होते हैं, अच् परे रहने पर - प्रति + एकः - प्रत्य् + एकः = प्रत्येकः । मधु + अरिः - मध्व् + अरिः = मध्वरिः । धातु + अंशः - धात्र + अंशः = धात्रंशः । ल + आकृतिः - ल् + आकृतिः = लाकृतिः । अयादि सन्धि - एचोऽयवायावः - एच् के स्थान पर क्रमशः अय, अव्, आय, आव् आदेश होते हैं, अच् परे होने पर । अर्थात् ए को अय् / ओ को अव् / ऐ को आय / औ को आव् । क्रमशः उदाहरण - ए को अय् - ने + अ - नय् + अ = नय ओ को अव् - भो + अ - भव् + अ = भव ऐ को आय -_ध्यै + अ - ध्याय् + अ = ध्याय औ को आव् - पौ + इ - पाव् + इ = पावि ध्यान रहे कि यदि ए, ओ, ऐ, औ, के बाद हल् = व्यञ्जन हो, तब ये आदेश नहीं होते। सवर्ण दीर्घ सन्धि - अकः सवर्णे दीर्घः - अक् के बाद, सवर्ण अक् आने पर पूर्व + पर के स्थान पर एक दीर्घ आदेश होता है। अर्थात् - अ + अ = आ दैत्य + अरिः = दैत्यारिः / विद्या + आलयः = विद्यालयः हिम + आलयः = हिमालयः / रमा + अस्ति = रमास्ति पठति + इदम् मुनि + ईशः उ + उ भानु + उदयः ऋ+ ऋ = पठतीदम् / नदी + ईशः = नदीशः = मुनीशः / गौरी + इयम् = गौरीयम् = ऊ = भानूदयः / श्वश्रू + ऊकारः = श्वश्रूकारः = ऋ प्रमुख सन्धियाँ १९३ लघु + ऊर्मिः = लघूर्मिः / होतृ + ऋकारः = होतृकारः गुण सन्धि - आद् गुणः - अ, आ, से इक् अर्थात् इ, उ, ऋ, ल परे होने पर पूर्व + पर के स्थान पर एक गुण आदेश होता है - अ, आ + इ = ए - भव + ईत् = भवेत् अ, आ + उ = ओ - सूर्य + उदयः = सूर्योदयः अ, आ + ऋ = अर् - ब्रह्म + ऋषिः = ब्रह्मर्षिः __वृद्धि सन्धि - वृद्धिरेचि - अ, आ से एच् (ए, ओ, ऐ, औ,) परे होने पर पूर्व + पर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश होता है। यथा - अ, आ + ए = ऐ - कृष्ण + एकत्वम् = कृष्णैकत्वम् अ, आ + ओ = औ - गङ्गा + ओघः = गङ्गौघः अ, आ + ऐ = ऐ - एध + ऐ = एधै अ, आ + औ = औ - कृष्ण + औत्कण्ठ्यम् = कृष्णौत्कण्ठ्यम् । पररूप सन्धि - अतो गुणे - अपदान्त ‘अ’ को पररूप होता है, गुण परे होने पर अर्थात् अ, ए, ओ परे होने पर। अभी हमने देखा कि - अ + अ में - अकः सवर्ण दीर्घः से दीर्घ सन्धि होती है। अ+ए में - वृद्धिरेचि से वृद्धि सन्धि होती है। अ + ओ में - वृद्धिरेचि से वृद्धि सन्धि होती है। _ किन्तु यहाँ विचार करना चाहिए कि यदि यह पूर्व वाला ‘अ’ किसी पद के अन्त में है अर्थात् ‘पदान्त अ’ है, तब तो ये सन्धियाँ होती हैं, किन्तु यदि यह ‘अ’ किसी पद के अन्त में नहीं है, तो हमें समझना चाहिये कि यह अपदान्त ‘अ’ है। ऐसे ‘अपदान्त अ’ के बाद ‘गुण’ आने पर अर्थात् ‘ह्रस्व अ’, ‘ए’, ‘ओ’ आने पर न तो ‘अकः सवर्णे दीर्घः’ सूत्र से दीर्घ होता है, न ही वृद्धिरेचि’ सूत्र से वृद्धि होती है, अपितु ‘अतो गुणे’ सूत्र से पररूप हो जाता है। पररूप का अर्थ है कि यह ‘अ’ जाकर अपने आगे वाले अ, ए, ओ में इस प्रकार मिल जाता है, कि दिखता ही नहीं है। जैसे पानी में घुला नमक दिखता नहीं है। जैसे - भव + अन्ति को देखिये - यहाँ अ + अ है। इनमें सवर्ण दीर्घ सन्धि [[१९४]] होनी चाहिए थी, किन्तु जब हम पूर्व वाले ‘अ’ को देखते हैं, तो पाते हैं कि यह ‘अ’ तो ‘भव’ के अन्त में है और यह ‘भव’ तो अभी पद बना ही नहीं है, अतः यह पद के अन्त में न होने के कारण ‘पदान्त अ’ नहीं है, अपितु अपद के अन्त में होने के कारण ‘अपदान्त अ’ है। ऐसे ‘अपदान्त अ’ को ‘अ’ परे होने पर, कभी भी सवर्णदीर्घ होकर भवान्ति नहीं बनेगा, अपितु पररूप ही होगा, तो भव + अन्ति / पूर्व ‘अ’ को पररूप होकर - भव् + अन्ति = भवन्ति, ही बनेगा। इसी प्रकार पच + ए को देखिये - यहाँ अ + ए है। इनमें वृद्धि सन्धि होनी चाहिए थी, किन्तु जब हम पूर्व वाले ‘अ’ को देखते हैं तो पाते हैं कि यह ‘अ’ तो ‘पच’ के अन्त में है और यह ‘पच’ तो अभी पद बना ही नहीं है, अतः यह पद के अन्त में न होने के कारण ‘पदान्त अ’ नहीं है, अपितु अपद के अन्त में होने के कारण ‘अपदान्त अ’ है। ऐसे ‘अपदान्त अ’ को ‘ए’ परे होने पर, कभी भी वृद्धि होकर पचै नहीं बनेगा, अपितु पररूप ही होगा, तो पच + ए / पूर्व ‘अ’ को पररूप होकर - पच् + ए = पचे, ही बनेगा। __ धातु रूप बनाते समय इस सूत्र का विशेष ध्यान रखें । क्योंकि वहाँ प्रत्यय के पूर्व में जो भी होगा वह अपद ही होगा। आटश्च - लङ् लकार के रूप बनाते समय अजादि धातुओं के आदि में ‘आट’ का आगम होता है। इस आट के बाद ‘अच्’ आने पर अभी तक जो जो सन्धियाँ कही गई हैं, उन सभी को बाधकर, पूर्व + पर के स्थान पर, एक वृद्धि आदेश ही होता है, गुण आदि कुछ नहीं। __ यथा - आट् + अटत् - आ + अटत् / यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः सूत्र से आ + अ को आ दीर्घ होना था। उस दीर्घ को बाधकर पूर्व पर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश ‘आ’ ही होता है, दीर्घ आदि कुछ नहीं। आट् + इच्छत् = आ + इच्छत् / यहाँ आद्गुणः सूत्र से आ + इ को ‘ए’ गुण होना था। उस गुण को बाधकर ‘आटश्च’ सूत्र से पूर्व + पर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश ‘ए’ ही होता है, गुण आदि कुछ नहीं - आ + इच्छत् = ऐच्छत्। आट् + उक्षत् = आ + उक्षत् / यहाँ भी आद्गुणः सूत्र से आ + उ को ‘ओ’ गुण होना था। उस गुण को बाधकर पूर्वपर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश ‘औ’ ही होता है, गुण आदि कुछ नहीं - आ + उक्षत् = औक्षत् । णत्व, षत्व विधि १९५ आट् + ऋच्छत् = आ + ऋच्छत् / यहाँ भी आद्गुणः सूत्र से आ + ऋ को अर् गुण होना था। उस गुण को बाधकर पूर्वपर के स्थान पर एक वृद्धि आदेश आर् ही होता है, गुण आदि कुछ नहीं। आ + ऋच्छत् = आर्च्छत् । _ आट् + एधत = आ + एधत / यहाँ वृद्धिरेचि सूत्र से अ + ए को ‘ए’ वृद्धि होना था। किन्तु यहाँ वृद्धिरेचि सूत्र से होने वाली वृद्धि को बाधकर पूर्वपर के स्थान पर आटश्च सूत्र से वृद्धि होती है, वृद्धिरेचि सूत्र से वृद्धि नहीं होती - आ + एधत = ऐधत। आट् + ओखत् / यहाँ वृद्धिरेचि सूत्र से आ + ओ को ‘औ’ वृद्धि होना था। उस वृद्धिरेचि सूत्र से होने वाली वृद्धि को बाधकर पूर्वपर के स्थान पर आटश्च सूत्र से वृद्धि होती है, वृद्धिरेचि सूत्र से नहीं - आ + ओखत् = औखत् । ये प्रमुख अच् सन्धियाँ है। विशेष अच् सन्धियाँ तथा हल् सन्धियाँ विशेष स्थलों पर बतलाई जायेंगी। णत्व विधि रषाभ्यां नो णः समानपदे - र् और ष् के बाद आने वाले न् को ण् होता है, समानपद में। यथा आस्तीर् + न = आस्तीर्णः / इसको देखिये - इसमें र् के बाद ‘न’ आया है, अतः उसे ‘ण’ हुआ है। पुष + श्ना = पुष्णा / मुष् + श्ना = मुष्णा में ‘ए’ के बाद ‘न’ आया है, अतः उसे ‘ण’ हुआ है। __ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् - ऋ के बाद आने वाले न् को भी ण होता है, समानपद में। गृह + श्ना = गृह्णा में, ऋवर्ण के बाद न आया है, अतः उसे णत्व हुआ है। अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि - यदि र्, ‘, ऋ के बाद ‘अट्’ अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, ल, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, कवर्ग, पवर्ग, आङ् अथवा अनुस्वार आये हों, और उनके बाद ‘न’ आया हो, तो भी ‘न’ को णत्व हो जाता है। क्रीणा में - र् + न् के बीच में इ है, तब भी न् को ण हो गया है। पुष्णा में - ष् + न् के बीच में उ है, तब भी न् को ण हो गया है। गृह्णा में - ऋ + न के बीच में ह है, तब भी न् को ण् हो गया है। उपसर्गादसमासेऽपि अष्टाध्यायी सहजबोधणोपदेशस्य - उन धातुओं को देखिये, जो ‘न’ अथवा ‘ण’ से प्रारम्भ हो रहे हैं। इनमें से, न, नाट, नाथ्, नाध्, नन्द्, नक्क्, [[१९६]] नृ, नृत्, इन आठ धातुओं को छोड़कर शेष नकारादि, णकारादि धातु णोपदेश कहलाते हैं। यदि किसी उपसर्ग में ‘र’ ‘ए’ आये हों, तब उनसे परे आने वाले इन ‘णोपदेश’ धातुओं के ‘न्’ को ही ‘ण’ होता है, सभी धातुओं के ‘न्’ को नहीं। यथा - प्र + नदति = प्रणदति, प्रणमति आदि। यह णत्व विधि है। आगे इसी विधि से आवश्यकतानुसार णत्व करते चलें। अष्टाध्यायी में णत्व के सारे सूत्र ८.४.१ से लेकर ८.४.३१ तक हैं। इन्हें अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में एक साथ देख लेना चाहिये । यहाँ प्रमुख • सूत्र ही बतलाये हैं। षत्व विधि आदेशप्रत्यययोः - इण् अर्थात् इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल तथा कवर्ग के बाद आने वाले, आदेश के सकार को तथा प्रत्यय के सकार को ‘षकार’ आदेश होता है। इण के बाद आने वाले प्रत्यय के सकार को ‘षकार’ आदेश होना ने + स्यति = नेष्यति, हो + स्यति = होष्यति, आदि में प्रत्यय के ‘स्’ के पूर्व में ‘इण्’ है, अतः प्रत्यय के ‘स्यति’ को ‘ष्यति’ बन जाता है। इसी प्रकार - शक् + स्यति’ में प्रत्यय के ‘स्’ के पूर्व में कवर्ग है, अतः स्यति को ष्यति बन जाता है - शक् + स्यति - शक् + ष्यति। क् + ए मिलकर क्ष् बनता है (संयोगे क्षः) - शक् + ष्यति = शक्ष्यति बनेगा। इसी प्रकार - स्वर् + स्यति - स्वर् + ष्यति = स्वर्ण्यति आदि बनाइये। ‘पास्यति’ में स के पूर्व में ‘आ’ है, यह ‘आ’ ‘इण्’ में नहीं आता है। अतः इस ‘आ’ से परे आने वाला ‘स्’, ‘स्’ ही रहेगा। इण् के बाद आने वाले आदेश के सकार को ‘षकार’ आदेश होना उन धातुओं को देखिये, जो ‘ष’ से प्रारम्भ हो रहे हैं। इनके ‘ए’ के स्थान पर ‘धात्वादेः षः सः’ सूत्र से ‘स्’ आदेश होता है। जैसे - षूद् - सूद्, ष्वप् - स्वप्, षिध् - सिध् आदि। किसी वर्ण को हटाकर, जब उसकी जगह, कोई दूसरा वर्ण आकर, बैठ जाता है, तब जो वर्ण स्थानी की जगह आकर बैठ जाता है, उसे ‘आदेश’ कहते हैं। अतः ‘ए’ के स्थान पर आया हुआ यह ‘स्,’ आदेश का सकार है। यदि ऐसा आदेश का सकार ‘इण्’ के बाद आया हो, तो उसे ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ए’सूत्रों में बाध्यबाधकभाव १९७ हो जाता है। जैसे - सिषेध, सुष्वाप, सुषूदे आदि में। जो आदेश का सकार न हो, उसे ‘ष’ नहीं होता। जैसे - चुस्कुन्दे आदि में। अष्टाध्यायी में षत्व के सारे सूत्र ८.३.५५ से लेकर ८.३.११९ तक हैं। सारे षत्व कार्यों को, अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में एक साथ देख लेना चाहिये। यहाँ प्रमुख सूत्र ही बतलाये गये है।

पूर्वपरनित्यान्तरङ्गापवादानामुत्तरोत्तरं बलीयः

अष्टाध्यायी में कुल ३९७८ सूत्र हैं। इन्हें आचार्य ने अष्टाध्यायी में आठ अध्यायों में रखा है। प्रत्येक अध्याय में चार चार पाद हैं। कभी कभी ऐसा होता है कि एक ही स्थान पर कार्य करने के लिये, दो सूत्र एक साथ प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे स्थलों पर निर्णय कैसे हो ? पूर्व सूत्र से परसूत्र बली होते हैं - अष्टाध्यायी के सवा सात अध्यायों को सपादसप्ताध्यायी कहते हैं तथा इनसे बचे हुए जो अष्टमाध्याय के तीन पाद हैं, उन्हें त्रिपादी कहते हैं। विप्रतिषेधे परं कार्यम् - जब ‘सपादसप्ताध्यायी’ के ऐसे दो सूत्र, एक साथ, एक ही स्थल पर काम करने के लिये उपस्थित हो जायें, जिन्हें यदि हम एक जगह काम न करने दें, तो भी वे अन्यत्र काम कर सकें, तो इसे विप्रतिषेध अथवा तुल्यबलविरोध कहा जाता है। ‘सपादसप्ताध्यायी’ के सूत्रों में ऐसा तुल्यबलविरोध होने पर, जो सूत्र क्रम में बाद वाला हो अर्थात् पर हो, उसी से कार्य करना चाहिये। जैसे - शक्नु + अन्ति / इसे देखिये । यहाँ ‘इको यणचि’ सूत्र ६.१.७७ से यण् प्राप्त है, तथा ‘अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ’ सूत्र ६.४.७७ से उवङ् प्राप्त है। इन दोनों में से कौन हो ? देखिये कि ये दोनों ही सूत्र ‘सपादसप्ताध्यायी’ के हैं। इनमें से ‘अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वारियडुवङौ’ सूत्र ६.४.७७ ही क्रम में पर, अर्थात् बाद का है। अतः यहाँ इको यणचि से यण् न होकर, ‘अचि श्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवडौ’ सूत्र से उवङ् ही होगा। इसे ही कहते हैं कि परसूत्र ने, पूर्वसूत्र को बाध लिया। पूर्वत्रासिद्धम् - किन्तु यदि दोनों सूत्र त्रिपादी के हाते हैं, तब पूर्वसूत्र काम करता है और परसूत्र असिद्ध हो जाता है। जैसे - अबान्ध् + सिच् + ताम् में ‘झलो झलि’ ८.२.२६ से सलोप तथा ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्घ्वोः’ सूत्र [[१९८]] ८.२.४२ से भष्भाव, ये दोनों ही प्राप्त हैं। ये दोनों ही सूत्र त्रिपादी के हैं। अतः इनमें पूर्वसूत्र का कार्य सलोप होगा और परसूत्र का कार्य भष्भाव असिद्ध हो जायेगा, तो ‘अबान्धाम्’ प्रयोग बनेगा। अब देखिये कि इस व्यवस्था के अनुसार त्रिपादी’ के किसी सूत्र से कार्य कर चुकने के बाद, यदि सपादसप्ताध्यायी’ का कोई सूत्र, पुनः कार्य करने के लिये आ जाये, तो त्रिपादी’ के सूत्र के द्वारा किये हुए कार्य को ऐसा समझना चाहिये कि मानों वह कार्य हुआ ही नहीं है। जैसे - अस्मै + उद्धर, को देखिये। यहाँ ‘एचोऽयवायावः’ इस सपादसप्ताध्यायी’ के सूत्र से ‘ए’ को ‘आय’ आदेश कर देने के बाद, ‘अस्माय् + उद्धर’ बनता है। _ अब यहाँ लोपः शाकल्यस्य’ ८.३.१९, इस त्रिपादी के सूत्र से, अस्माय् + उद्धर में य् का लोप करके ‘अस्मा + उद्धर’, बन जाने के बाद, पुनः ‘आद्गुणः’ ६.१.८७ इस सपादसप्ताध्यायी के सूत्र से गुण प्राप्त होता है। यह गुण करें कि न करें ? ‘पूर्वत्रासिद्धम्’ सूत्र कहता है कि सपादसप्ताध्यायी’ के सूत्र ‘आद्गुणः’ ६.१.८७ के आने पर, त्रिपादी’ के सूत्र लोपः शाकल्यस्य’ ८.३.१९ के द्वारा किया गया ‘यलोप’, असिद्ध अर्थात् न हुए जैसा हो जायेगा, तो आद्गुणः सूत्र को वहाँ पुनः य् दिखने लगेगा इसलिये आद्गुणः सूत्र वहाँ गुण नहीं कर पायेगा, तो ‘अस्मा उद्धर’ ही बना रहेगा। परसूत्र से नित्यसूत्र बली होते हैं - नित्य सूत्र परसूत्र से भी बली होते हैं। जैसे - पुच्छ + णिच् में ‘अचो ञ्णिति’ सूत्र से वृद्धि भी प्राप्त है, तथा ‘टेः’ सूत्र से टिलोप भी प्राप्त है। अब देखिये कि यदि हम पुच्छ + णिच् को ‘अचो णिति’ सूत्र से - पुच्छा + णिच्, ऐसे वृद्धि कर भी लेते हैं, तब भी ‘टेः’ सूत्र से इसकी ‘टि’ का लोप प्राप्त होता ही है। जो विधि, एक सूत्र से कार्य कर चुकने के पहिले भी प्राप्त हो तथा कार्य कर चुकने के बाद प्राप्त हो, उसे नित्य विधि कहते हैं - कृताकृतप्रसङ्गविधिर्नित्यः । अतः ‘टि’ का लोप नित्य है। उसे ही होना चाहिये। वृद्धि को नहीं। नित्यसूत्र से अन्तरङ्ग सूत्र बली होते हैं - जैसे - अधि + इ + ति, इसको देखिये । यहाँ इ + इ में ‘अकः सवर्णे सूत्रों में बाध्यबाधकभाव १९९ दीर्घः’ सूत्र से सवर्णदीर्घ सन्धि प्राप्त है। साथ ही ‘ति’ प्रत्यय के कारण धातु के ‘इ’ को ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण भी प्राप्त है। यदि हम पहिले ‘अकः सवर्णे दीर्घः’ सूत्र से सवर्णदीर्घ सन्धि करते हैं, तो अधि + इ = अधी बनाकर / अधी + ति में ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण करने से ‘अधेति’ ऐसा अनिष्ट प्रयोग बनने लगेगा। _ अतः हमें यहाँ कार्यों की अन्तरङ्गता और बहिरङ्गता का विचार करना चाहिये। जैसे अपने शरीर सम्बन्धी कोई आवश्यकता उपस्थित होने पर हम अन्य सारे कार्यों को रोककर पहिले उसी को करते हैं, क्योंकि वह कार्य अन्तरङ्ग होता है। उसके बाद ही अन्य बहिरङ्ग कार्यों को करते हैं, ठीक उसी प्रकार यहाँ विचार करें - __उपसर्ग, सदा धातु प्रत्यय से पृथक् होता है। वह वास्तव में धातु से अलग शब्द ही है। अतः धातु तथा उपसर्ग के बीच में होने वाला बहिरङ्ग कार्य कहलाता है तथा धातु और प्रत्यय के बीच में होने वाला कार्य अन्तरङ्ग कहलाता है। अतः हम पहिले सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से, धातु और प्रत्यय के बीच में होने वाले गुणकार्य को कर लेते हैं, क्योंकि वह कार्य अन्तरङ्ग है। इ + ति / गुण करके - ए + ति / अब अधि + एति के बीच ‘अकः सवर्णे दीर्घः’ सूत्र से सवर्णदीर्घ प्राप्त ही नहीं है, अपितु ‘इको यणचि’ से यण प्राप्त है। अतः यण करके अधि + एति = अध्येति बनता है। ध्यान रहे कि अन्तरङ्गता और बहिरङ्गता अनेक प्रकार की होती है। अन्तरङ्ग सूत्र से बली अपवाद सूत्र होते हैं - अ अत् + णल् में ‘अकः सवर्णे दीर्घः’ से दीर्घ, ‘अतो गुणे’ से पररूप, तथा ‘अत आदेः’ से अभ्यास को दीर्घ प्राप्त है। इनमें से ‘अत आदेः’ सूत्र ऐसा है, जिसे यहाँ काम न करने देंगे, तो उसे कहीं भी काम करने का स्थान ही नहीं बचेगा। वह सर्वथा निरवकाश हो जायेगा। __ऐसे निरवकाश सूत्रों को अपवाद सूत्र कहा जाता है। अपवाद सूत्र सबसे बली होते हैं। अतः यहाँ ‘अत आदेः’ सूत्र से अभ्यास को दीर्घ ही होगा। अष्टाध्यायी पढ़ते समय इन सबका ध्यान रखना चाहिये।