अथ द्वितीयोऽध्यायः प्रथमः पादसायी समर्थः पदविधिः ॥२॥११॥ समर्थः १११॥ पदविधिः १।१।। स०-चतुर्विधोऽत्र विग्रहो द्रष्टव्यः–सङ्गतार्थः समर्थः; संसृष्टार्थः स मर्थः; सम्प्रेक्षितार्थः समर्थः; संबद्धार्थ: समर्थः, उत्तरपदलोपी बहुव्रीहिः । पदस्य विधिः, पदयोविधिः, पदानां विधिः, पदात् विधिः =पदविधिः, इति सर्वविभक्त्यन्तः तत्पुरुषसमासोऽत्र बोध्यः ।। अर्थः- परिभाषासूत्रमिदम् । समर्थानां= सम्बद्धार्थानां पदानां विधिर्भवति ॥ उदा०-राज्ञः पुरुषः राजपुरुषः इत्यत्र समासो भवति, यतो ह्यत्र ‘राज्ञः पुरुषः’ इति उभे पदे परस्परं सम्बद्धार्थे =समर्थे स्तः। परं ‘भार्या राज्ञः, पुरुषो देवदत्तस्य’ इत्यत्र राज्ञः पुरुषः इत्यनयोः पदयोः सम्बद्धार्थताः परस्परमाकाक्षा नास्ति, इत्यतः समासो न भवति । एवं कष्टं श्रित:-कष्टश्रितः इत्यत्र सामर्थ्यस्य विद्यमानत्वात् समासो भवति । एवं सर्वत्र योजनीयम् ॥ भाषार्थ:- [पदविधिः ] पदों को विधि [समर्थः] समर्थ =परस्पर सम्बद्ध अर्थवाले पदों की होती है । यह परिभाषासूत्र है, अतः सम्पूर्ण व्याकरणशास्त्र में इसकी प्रवृत्ति होती है ।। जिस शब्द के साथ जिस शब्द का परस्पर सम्बन्ध होता है. वे परस्पर ‘समर्थ’ कहाते हैं। जैसे कि समासविधि में राज्ञः पुरुषः (राजा का पुरुष) =राजपुरुषः, यहां राजा का पुरुष है एवं पुरुष राजा का है, अत: राज्ञः और पुरुषः दोनों पद परस्पर सम्बद्ध =समर्थ हैं, सो समास हो गया है। पर ‘भार्या राज्ञः, पुरुषो देवदत्तस्य’ (राजा की भार्या, पुरुष देवदत्त का) यहाँ राजा का सम्बन्ध भार्यां के साथ है, तथा पुरुष का सम्बन्ध देवदत्त के साथ है । यहाँ परस्पर राजा एवं पुरुष की सम्बद्धार्थता=समर्थता नहीं है । अतः राज्ञः पुरुषः का यहां समास नहीं हुआ । सूत्र में समर्थ ग्रहण करने का यही प्रयोजन है । इसी प्रकार कष्टं श्रितः, यहां समर्थ होने से समास होकर ‘कष्टश्रितः’ बन जाता है । पर ‘पश्य देवदत्त कष्ट, श्रितो विष्णुमित्रो गुरुकुलम्’ (हे देवदत्त ! कष्ट को देख, विष्णु मित्र गुरुकुल में पहुंच गया),यहाँ पर कष्टं तथा श्रितः की परस्पर सम्बद्धार्थता नहीं है, सो समास नहीं हुआ। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये ॥ ‘राजपुरुषः’ प्रादि को सिद्धियां परि० १।२।४३ में देखें ॥ आया ५३ पादः] द्वितीयोऽध्यायः सुबामन्त्रिते पराङ्गवत् स्वरे ॥२।१।२॥ सुप १३१|आमन्त्रिते ७।१।। पराङ्गवत् प०॥ स्वरे ७१॥ स०-अङ्गन तुल्यम् अङ्गवत्, परस्य प्रङ्गवत् पराङ्गवत्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अर्थः-आमन्त्रिते पदे परतः सुबन्तं पराङ्गवद् भवति स्वरे कर्त्तव्ये ॥ उदा०-कुण्डेन अटन् । परशुना वृश्चन् । मद्राणां राजन् । कश्मीराणां राजन् ॥ भाषार्थ:- [आमन्त्रिते ] आमन्त्रितसंज्ञक पद के परे रहते, उसके पूर्व जो [सुप्] सुबन्त पद उसको [पराङ्गवत् ] पर के अङ्ग के समान कार्य होता है, [स्वरे] स्वरविषय में । यह अतिदेशसूत्र है । यहाँ से ‘सुप्’ का अधिकार २।२।२६ तक जायेगा ॥ प्राक कडारात समासः ॥२॥१॥३॥ सातास प्राक् अ० ॥ कडारात् ५॥१॥ समासः १११॥ अर्थः–‘कडाराः कर्मधारये’ (२।२।३८) इति सूत्रं वक्ष्यति, प्राग् एतस्मात् समाससंज्ञा भवतीत्यधिकारो वेदितव्यः॥ FEIAS अग्र उदाहरिष्यामः ॥ भाषार्थ:-[कडारात् ] कडारा: कर्मधारये ( २।२।३८ ) से [प्राक् ] पहले प्रकारका पहले [समासः] समास संज्ञा का अधिकार जायेगा, यह जानना चाहिये ॥ शिक विशेषः- ‘समास’ संक्षेप करने को कहते हैं। जिसमें अनेक पदों का एक पद, अनेक विभक्तियों को एक विभक्ति, तथा अनेक स्वरों का एक स्वर हो, उसे समास कहते हैं । यह चार प्रकार का होता है, जिसकी व्याख्या द्वितीय पाद के अन्त तक की जायगी । इस विषय में विशेष जानकारी के लिये हमारी बनाई ‘सरलतम विधि’ के तृ० सं०, पृ० ४०-४१, पाठ १७ देखें ॥ सह सुपा ।।२।१।४॥ - सह सुन्त न सह अ० ॥ सुपा ३॥१॥ अनु० –समासः, सुप् ॥ अर्थः-सुपा सह सुप् सम- ।। स्यते, इत्यधिकारो वेदितव्यः ॥ अग्र उदाहरिष्यामः ॥ न भाषार्थ:- [सुपा] सुबन्त के [सह] साथ सुबन्त का समास होता है, यह अधिकार २।२।२२ तक जानना चाहिये ॥ [अव्ययीभाव-समास-प्रकरणम् 1 310MAMIN अव्ययीभावः ॥२॥१॥५॥ अव्ययीभाव: १२१॥ अर्थः-अयमप्यधिकारो वेदितव्यः । इतोऽग्रे य: समासो भवति तस्याव्ययीभावसंज्ञा भवतीति वेदितव्यम् ॥ अग्न उदाहरिष्यामः ॥ यमाया अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [प्रथमः अमर समान भाषार्थ:-यह भी अधिकारसूत्र है, २।१।२१ तक जायगा । यहाँ से आगे जो समास कहेंगे, उसको [अव्ययीभावः] अव्ययीभाव संज्ञा होती है, ऐसा जानना चाहिये ॥ विशेष:-अव्ययीभाव समास में प्रायः पूर्वपद का अर्थ प्रधान होता है । यथा उपकुम्भम् में ‘उप’ अव्यय है, जिसका अर्थ है समीप । सो इसमें समीप अर्थ को प्रधा नता है, न कि कुम्भ की ॥ अनन्त्रीमान अव्ययं विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यद्धयर्थाभावात्ययासम्प्रतिशब्द… विभक्ति प्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्व्ययोगपद्यसादृश्यसम्पत्ति– 3 साकल्यान्तवचनेषु ॥२॥१६॥ सगद अव्ययम् १।१।। विभक्ति वचनेषु ७।३॥ स०-विभक्तिश्च, समीपञ्च, म्यूदि समृद्धिश्च, व्यृद्धिश्च, अर्थाभावश्च, अत्ययश्च, असम्प्रति च, शब्दप्रादुर्भावश्च, पश्चा स भर्वा भाव च च्च , यथा च, प्रानुपूर्व्यञ्च, योगपद्यञ्च, सादृश्यञ्च, सम्पत्तिश्च, साकल्यञ्च, अत्यच 4 अन्तश्चेति विभक्तिस ताः, ते च ते वचनाश्च, तेषु, द्वन्द्वपूर्वः कर्मधारयः ॥ अनु० A सह सुपा, सुप, समासः, अव्ययीभावः ॥ अर्थ:-विभक्ति, समीप, समृद्धि (ऋद्धेरा धिक्यम् ), व्वृद्धि (ऋद्धेरभाव:), अर्थाभाव (वस्नुनोऽभाव:), अत्यय (भूतत्वमति क्रम:), असम्प्रति, शब्दप्रादुर्भाव (प्रकाशता शब्दस्य) पश्चाद, यथार्थ, आनुपूर्व्य, र योगपद्य, सादृश्य, सम्पत्ति, साकल्य, अन्तवचन इत्येतेष्वर्थेषु यदव्ययं वर्त्तते,तत् समर्थन सुबन्तेन सह समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ विभक्तिशब्देनेह कारक योगपय मुच्यते । विभज्यते प्रातिपदिकार्थोऽनयेति कृत्वा तच्चेहाधिकरणं विवक्षितं, न, तु मर्वे सादृश्य कारकाः॥ उदा०-विभक्ति:–स्त्रीष्वधिकृत्य= अधिस्त्रि,अधिकुमारि ॥ समीपम् सम्पति कुम्भस्य समीपम् = उपकुम्भम्, उपकूपम् ॥ समृद्धिः-सुमगधम्, सुभारतम् ॥ साकल्प व्यूद्धिः-मगधानां व्युद्धिः = दुर्मगधम्,दुर्गवदिकम् ॥ अर्थाभावः–मक्षिकाणामभावः=: अन्त निर्मक्षिकम्, निर्मशकम् । प्रत्ययः- अतीतानि हिमानि =निहिम,नि:शीतम् ।। प्रसंप्रति अतितैसृकम् ॥ शब्दप्रादुर्भावः-पाणिनिशब्दस्य प्रकाशः= ‘इतिपाणिनि, तत्पाणिनि ॥ पश्चात्-रथानां पश्चात् =अनुरथं पादातम् ॥ यथा-यथाशब्दस्य चत्वारोऽर्थाः योग्यता, वीप्सा, पदार्थानतिवृत्तिः, सादृश्यञ्चेति । तत्र क्रमेण उदाह्रियते– योग्यता-रूपस्य योग्यम् = अनुरूपम् । वीप्सा- अर्थम् अर्थ प्रति=प्रत्यर्थम् शब्द निवेश: ॥ पदार्थानतिवृत्तिः–शक्तिम् अनतिक्रम्य =यथाशक्ति ॥ सादृश्यम् यथाऽसादृश्ये (२।१।७) इति सादृश्यप्रतिषेधाद् उदाहरणं न प्रदीयते । पानपूर्व्यम्– १. समास के अपने पदों को लेकर जहां विग्रह न हो, उसे अस्वपद विग्रह कहते हैं, न स्वपद==अस्वपद । सो यहां अस्वपद विग्रह समास है ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः १५५ ज्येष्ठस्य प्रानुपूर्व्यम् = अनुज्येष्ठं प्रविशन्तु भवन्तः ॥ योगपद्यम्–युगपत् चक्र’ = सचक्र धेहि ।। सादृश्यम्-सदृशः सख्या=ससखि ।। सम्पत्ति:–ब्रह्मणः सम्पत्तिः = सब्रह्म बाभ्रवाणाम, सक्षत्रं शालङ्कायनानाम् ॥ साकल्यम्–तृणानां साकल्यं ==सतृण मभ्यवहरति, सबुसम् । अन्तवचनम–अग्नेरन्तः साग्नि, सस मासम अष्टाध्यायीम धीते ॥ भाषार्थ:- [विभक्ति वचनेष ] विभक्ति समीपादि अर्थों में वर्तमान जो [अव्ययम् ] अव्यय, वह समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है, और समास अव्ययीभाव-संज्ञक होता है । विभक्ति शब्द से यहां कारक लिया गया है। उन कारकों में यहां अधिकरण कारक ही विवक्षित है, न कि सब कारक । ऋद्धि (वृद्धि) की अधिकता को समृद्धि कहते हैं, तथा ऋद्धि के प्रभाव को व्यद्धि कहते हैं । वस्तु के प्रभाव को प्रभाव कहते हैं । जो भूतकालीन है उसके प्रतीत हो जाने को प्रत्यय कहते हैं, अथवा जो हो वह न रहे । तथा शब्द को प्रकाशता को शब्दप्रादुर्भाव कहते हैं । यहां वदन’ शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध लगा लेना ॥ उदा०-विभक्ति-अधिस्त्रि (स्त्रियों के विषय में), अधिकुमारि । ममीर - उपकुम्भम् (घड़े के पास), उपकूपम् (कुएं से पास) । पमृद्धि -सुमगधम् (मगध देशवालों की समृद्धि ), सुभारतम । व्यृद्धि-दुर्मगधम् (मगध देशवालों के ऐश्वर्य का प्रभाव), दुर्गवदिकम् । अर्थाभाव-निर्मक्षिकम् (मक्खिपों का अभाव), निपशकम् (मच्छरों का प्रभाव) । प्रत्यय-निहिम वर्त्तते (शीतकाल व्यतीत हो गया), निःशीतम् । असंप्रति–अतितसूकम्’ वर्त्तते (तेसृक अोढ़ने का अब समय नहीं है)। शब्दप्रादुर्भाव-इतिपाणिनि (पाणिनि शब्द की प्रसिद्धि), तत्पाणिनि । पश्चात् अनुरथं पादातम् (रथों के पीछे-पीछे पैदल सेना) । यथार्थ-यथा शब्द के चार अर्थ हैं - योग्यता, वीप्सा, पदार्थानतिवृत्ति, और सादृश्य । यहां क्रम से उदाहरण देते हैं–योग्यता-अनुरूपम (रूप के योग्य होता है) । वीप्सा–प्रत्यर्थ शब्द निवेशः (अर्थ-अर्थ के प्रति शब्द का व्यवहार होता है)। पदार्थानत्तिवृत्ति-यथाशक्ति (शक्ति का उल्लङ्घन न करके) । सादृश्य-यथाऽसादृश्ये (२।११७) में सादृश्य अर्थ का प्रतिषेध किये जाने से यहां सादृश्य का उदाहरण नहीं दिया जा सकता ।। आनु पूर्व्य–अनज्येष्ठं प्रविशन्तु भवन्तः (जो-जो ज्येष्ठ हों, वैसे-वैसे क्रम से प्रवेश करते १. तिसृका नाम का एक ग्राम है, उसमें होनेवाला (तत्र भव: ४।३।५३), अथवा वहां से आनेवाला (तत प्रागत: ४।३।७४) पदार्थ तैसृक कहा जायगा । तैसृक कोई अोढ़ने का गरम कपड़ा होगा, जिसके उपभोग का सम्प्रति प्रतिषेध है, ऐसा अनुमान है। यह कपड़ा तिसृका ग्राम में बनता होगा, यह भी सम्भव है ।। है AUR १५६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: जायें) । यौगपद्य–सचक्रं धेहि (एक साथ चक्कर लगायें)। सादृश्य-ससखि (सखी के तुल्य) । सम्पत्ति–सब्रह्म बाभ्रवाणाम् (बभ्र, कुलवालों का ब्राह्मणानुरूप प्रात्मभाव होना ), सक्षत्रं शालङ्कायनानाम् ( शालङ्कायनों का क्षत्रियानुरूप होना)। साकल्प-सतृणमभ्यवहरति (तिनके समेत खा जाता है), सबुसम् । अन्तवचन– साग्नि अधीते (अग्निविद्या के समाप्तिपर्यन्त पढ़ता है), ससमासमष्टाध्यायीमधीते (समास की समाप्तिपर्यन्त अष्टाध्यायी पढ़ता है) । जान अधिस्त्रि, उपाग्नि आदि की सिद्धि हम परिः ११११४० में दिखा पाये हैं । समास को सिद्धियां तो हम और भी बहुत बार दिखा चुके हैं । अव्ययीभाव समास को सिद्धि में ३-४ कार्यविशेष होते हैं । प्रथम-अव्ययीभावश्च (१।१।४०) से अव्यय संज्ञा होकर अव्ययादाप्सुप: (२१४१८२) से समास के पश्चात् प्राई हुई विभक्ति का लुक हो जाना । द्वितीय-अदन्त शब्द हो, तो अव्ययादाप्सुपः से लुक न होकर नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः (२।४।८३) से विभक्ति को अम् हो जायगा । जैसे ‘उपकुम्भ सु’ में सु को अम् होकर उपकुम्भम् बना है । तृतीय-अव्ययी भावश्च (२।४।१८) से अव्ययीभाव समास को नपुसक लिङ्ग होकर, ह्रस्वो नपुसके प्रातिपदिकस्य (१३२४७) से ह्रस्व होता है । जैसे अधिकुमारि में कुमारी को ह्रस्व हो गया है ।। पाठक देखें कि सम्पूर्ण सूत्र के उदाहरणों तथा अव्ययीभाव के सारे प्रकरण में यही विशेष कार्य हुए हैं । शेष समास की सिद्धि तो पूर्व दिखा ही चुके हैं। अधि उप सु इत्यादि अव्यय हैं। सिद्धि में एक बात और ध्यान देने की है कि जिस विभक्ति में विग्रह करें, उसी को रखकर समास करना चाहिये । यथा ‘कुम्भस्य समीपम्’ में षष्ठी से विग्रह है, सो ‘कुम्भ ङस् उप सु’ रख के समास करेंगे।
- विशेष:–विभाषा (२।१।११) अधिकार से पहले-पहले तक ये सब सूत्र नित्य समास करते हैं । “यस्य स्वपदविग्रहो नास्ति स नित्यसमासः", जिस समास का अपने पदों से विग्रहवाक्य प्रयुक्त न हो, केवल समस्त पद प्रयोग में आये, उसे नित्य समास कहते हैं । सो यहां नित्य समास होने से, इनका विग्रह नहीं होता । पुनरपि केवल अर्थप्रदर्शनार्थ इनका विग्रह किया गया है ॥ यहाँ से ‘अव्ययम्’ को अनुवृत्ति २।१।८ तक जायेगी। पण फार समयी भाव यथाऽसादृश्ये ।।२।१७।। यथा अ०॥ असादृश्ये ७१॥ स०– असादृश्य इत्यत्र नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० अव्ययम्, सुप्, समासः, सह सुपा, अव्ययीभावः ॥ अर्थः–प्रसादृश्येऽर्थे वर्तमान यथा इत्येतदव्ययं समर्थेन सुबन्तेन सह समस्यते, अव्ययीभावसंज्ञकश्च समासो भवति । पादः ] द्वितीयोऽध्यायः हामाया १५७ उदा०-ये ये वृद्धाः यथावृद्धम, यथाध्यापकम् । ये ये चौरा:= यथाचौरं बध्नाति, यथापण्डितं सत्करोति ।। भाषार्थ:- [असादृश्ये] असादृश्य अर्थ में वर्तमान [यथा] यथा अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ समास हो जाता है, और वह अव्ययीभाव समास कहा जाता है । उदा०-यथावृद्धम् (जो-जो वृद्ध हैं), यथाध्यापकम् । यथाचौरं बध्नाति (जो-जो चोर हैं, उन-उनको बांधता है), यथापण्डितं सत्करोति (जो-जो पण्डित हैं, उन-उन का सत्कार करता है) । गरमीयत्यावर सं यावदवधारणे ॥२॥ अMमीभाव नश यावत अ० ॥ अवधारणे ७१॥ अनु०-अव्ययम्, सुप, समासः, सह सुपा, अव्ययीभावः ॥ अर्थ:-अवधारणेऽर्थे वर्त्तमानं यावद् इत्येतदव्ययं समर्थेन सुबन्तेन सह समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा०-यावन्ति अमत्राणि =यावदमत्र ब्राह्मणान आमन्त्रयस्व । यावन्ति कार्षापणानि = यावतकार्षापणम् फलं क्रीणाति ।। भाषार्थ:-[यावत् ] यावत् अव्यय [अवधारणे] अवधारण अर्थात् परिमाण का निश्चय करने अर्थ में वर्तमान हो, तो उसका समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है, और वह अव्ययीभावसंज्ञक होता है | हिमाचल - उदा०-यावदमत्रं ब्राह्मणान आमन्त्रयस्व (जितने पात्र हैं, उतने ब्राह्मणों को बुलाओ) । यावतकार्षापणं फलं कोणाति (जितने कार्षापण हैं, उतने फल खरीदता है) ॥ १९
- सुप् प्रतिना मात्रार्थे ।।२।१६।। अण्णायामा - सुप १।१।। प्रतिना ३॥१॥ मात्रार्थे ७.१॥ स०–मात्रायाः अर्थः मात्रार्थः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०–‘समास:, सह सुपा, अव्ययीभावः ॥ अर्थ: मात्रार्थे स्वल्पार्थे वर्तमानेन प्रतिना सह समर्थं सुबन्तं समस्यते अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ अस्त्यत्र किञ्चित् शाकम् = शाकप्रति, सूपप्रति ॥ अर्थप्रदर्शनार्थ मत्र विग्रहः प्रदर्श्यते ॥ भाषार्थ:- [मात्रार्थे ] मात्रा अर्थात् स्वल्प अर्थ में वर्तमान [प्रतिना] प्रति शब्द के साथ समर्थ [सुप्] सुबन्त का समास हो जाता है, और वह अव्ययीभाव समास होता है ॥ उदा०-शाकप्रति (थोड़ा शाक), सूपप्रति (थोड़ी दाल) ॥ १. यहां २।१।२ सूत्र से सुप की अनुवृत्ति आ रही है । पुन: जो सुप’इस सूत्र में कहा, वह ‘अव्ययं’ की निवृत्ति के लिए है । अतः यहां ‘सुप्’ के प्राते हुए भी सुप का सम्बन्ध नहीं दिखाया। है अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः जयी भाव अक्षशलाकासंख्याः परिणा ॥२॥१॥१०॥ अक्षशलाकासंख्याः ११३॥ परिणा ३॥११॥ स०–अक्षश्च शलाका च संख्या च अक्षशलाकासंख्याः , इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अव्ययीभावः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-अक्षशब्द: शलाका शब्दः संख्याशब्दाश्च परिशब्देन सह समस्यन्ते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ द्यूतक्रीडायाम् अयं समास इष्यते । पञ्चिका नाम द्यूतं पञ्चभिरक्षः शलाकाभिर्वा भवति । तत्र यदा सर्वे उत्ताना अवाञ्चो वा पतन्ति, तदा पातयिता जयति,अन्यथा पाते तु पराजयो जायते ॥ उदा०-अक्षणेदं न प्रणा ननं यथा जये=अक्षपरि । शलाकापरि। एकपरि, द्विपरि कामनाका _ भाषार्थ:- [अक्षशलाकासंख्या:] अक्ष शलाका तथा संख्यावाची जो शब्द हैं, वे [परिणा] परि सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास अव्ययी भावसंज्ञक होता है। यह समास द्यूतक्रीडा सम्बन्धी है। पञ्चिका नामक द्यूत में पांचों पक्षों या शालाकाओं के सीधे या उलटे गिरने पर फेंकनेवाले की जय होती है । एक, दो, तीन या चार प्रक्षों या शलाकाओं के विपरीत पड़ने पर पराजय मानी जाती है | उदा० – अक्षपरि (जब एक पासा उल्टा गिरा हो अर्थात् हारा हो, उसे अक्ष परि कहते हैं) । शलाकापरि (इसमें भी शलाका उलटी पड़ गई)। एकपरि (एक की कमी से हार गया), द्विपरि (दो की कमी से हार गया) ॥ समास करने से अब्धयादाप्सुपः (२।४।८२) से सु का लुक करना ही प्रयोजन है ॥ सल्य भाव विभाषाऽपपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या।।२।१।११।। -(BD विभाषा ११॥ अपपरिबहिरञ्चव: ११३॥ पञ्चम्या ३१॥ स०-अपश्च परिश्च बहिश्च अञ्चुश्च अपपरिबहिरञ्चवः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-सुप, सह सुपा, समासः, अव्ययीभावः ॥ अर्थः-अप परि बहिस अञ्चु इत्येते सुबन्ता: पञ्चम्यन्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यन्ते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा०-अपत्रिगतं वृष्टो देवः, अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । परित्रिगर्त्तम, परि त्रिगर्तेभ्यो वा । बहिर्गामम् , बहिर्गामात् । प्राग्रामम्, प्राग्ग्रामात् ॥ माया भाषार्थः-[ अपपरिबहिरञ्चवः ] अप परि बहिस् अञ्च ये सुबन्त [पञ्चम्या] पञ्चम्यन्त समर्थ सुबन्त के साथ [विभाषा] विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह अव्ययीभाव समास होता है ।। उदा०-अपत्रिगर्त वृष्टो देवः (त्रिगत देश कांगड़ा को छोड़कर वर्षा हुई ), अप त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः । परित्रिगर्त, परि त्रिगर्तेभ्यो वा (त्रिगर्त को छोड़ है पाद: ] द्वितीयोऽध्यायः १५६ कर वर्षा हुई) । बहिर्घामम, बहिर्गामात् (ग्राम से बाहर) । प्राग्ग्रामम्, प्राग्ग्रामात् (ग्राम से पूर्व) ॥ असमास पक्ष में अपपरी वर्जने (११४१८७) से कर्मप्रवचनीय संज्ञा होकर पञ्चमी विभक्ति पञ्चम्यपाङ्परिभिः (२।३।१०) से होती है। समास पक्ष में सु प्राकर नाव्ययी० (२।४।८३) से पूर्ववत् सु को अम हो गया है ॥ यहाँ से विभाषा’ का अधिकार २।२।२६ तक जाता है । इसे ‘महाविभाषा’ कहते हैं । ‘पञ्चम्या’ को अनुवृत्ति भी २।१।१२ तक जाती है । तर प्राङ् मर्यादाभिविध्योः ॥२।१।१२॥ ८ - प्राङ् अ० ॥ मर्यादाभिविध्योः ७।२।। स० - मर्यादा च अभिविधिश्च मर्यादा भिविधी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०—विभाषा, पञ्चम्या, सुप, सह सुपा, समास:, अव्ययीभावः ।। अर्थः-मर्यादाभिविध्यो: वर्तमान प्राङ इत्येष शब्द: समर्थेन पञ्चम्यन्तेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा.-आपाटलिपुत्रं वृष्टो देवः, प्री पाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः । अभिविधौ याकुमारं यश: पाणिनेः, आ कुमारेभ्यो यश: पाणिनेः ॥ TRJAR भाषार्थ:-[मर्यादाभिविध्योः] मर्यादा और अभिविधि अर्थ में वर्तमान [प्राङ् ] प्राङ शब्द समर्थ पञ्चम्यन्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह समास अव्ययीभावसंज्ञक होता है ।। उदाहरण में पूर्व मूत्र के समान पञ्चमी विभक्ति हुई है, तथा प्राइमर्यादावचने (१।४।८८) से प्राङ को कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई है। मर्यादा एवं अभिविधि के विषय में प्राङ् मर्यादा० (१॥ ४१८८) सूत्र देखें ॥ोति अगमीभाव लक्षणेनाभिप्रती प्राभिमुख्ये ॥२१॥१३॥ लक्षणेन ३।१॥ अभिप्रती १॥२॥ आभिमुख्ये ७१॥ अनु–विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः, अव्ययीभावः ॥ अर्थ:-अभिप्रती इत्येतौ शब्दौ प्राभिमुख्ये वर्त मानौ लक्षणवाचिना समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्येते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा०-अभ्यग्नि शलभाः पतन्ति, अग्निम् अभि । प्रत्यग्नि, अग्निम् प्रति । अग्नि लक्ष्यीकृत्य शलभाः पतन्ति इत्यर्थः ॥ भाषार्थ:-[लक्षणेन] लक्षणवाची सुबन्त के साथ [आभिमुख्ये] प्राभिमुख्य अर्थ में वर्तमान [अभिप्रती] अभि प्रति शब्दों का विकल्प से समास हो जाता हैं, और वह अव्ययीभाव समास होता है | उदा०-अभ्यग्नि शलभाः पतन्ति (अग्नि को लक्ष्य करके पतङ्ग गिरते हैं ), उस्ट अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती । [ प्रथम: अग्निम् अभि । प्रत्यग्नि (अग्नि की ओर), अग्निम् प्रति ॥ प्रत्यग्नि की सिद्धि परि० १।११४० में कर चुके हैं । । यहाँ से ‘लक्षणेन’ की अनुवृत्ति २।१।१५ तक जाती है ॥ AMमीभाव अनुर्यत्समया ॥२।१।१४॥ वापस कर दिया अनुः शशा यत्समया अ० ॥ स०-यस्य समया, यत्समया, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-लक्षणेन, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः, अव्ययीभावः ॥ अर्थ:–अनुः यस्य समीपवाची तेन लक्षणभूतेन समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, अव्ययी भावश्च समासो भवति ॥ उदा-अनुवनम् अशनिर्गतः, अनुपर्वतम् । वनस्य अनु, पर्वतस्य अनु । भाषार्थ:- [यत्समया] जिसका समीपवाची [अनुः] अनु सुबन्त हो, उस लक्षणवाची सुबन्त के साथ अनुशब्द विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह अव्ययीभाव समास होता है । उदा०-अनुवनम् अशनिर्गतः (वन के समीप बिजली चमकी), अनुपर्वतम् । वनस्य अनु, पर्वतस्य अनु ॥ समास होने से अव्ययीभावश्च (२।४।१८) से नपुंसक लिङ्ग हो गया है । में यहाँ से ‘अनुः’ की अनुवृत्ति २।१।१५ तक जाती है । अव्ययीभाव यस्य चायामः ॥२१॥१५॥ यस्य ६॥१॥ च अ० ॥ आयामः १११॥ अनु०-अनुः, लक्षणेन, विभाषा, सुप, सह सुपा, समास:, अव्ययीभावः ।। अर्थः-अनुर्यस्यायामः= दैर्ध्यवाची तेन लक्षण वाचिना समर्थन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति । उदा०–अनुगङ्ग वाराणसी, गङ्गाया अनु । अनुयमुनं मथुरा, यमुनाया अनु ।। भाषार्थ:- अनु शब्द [यस्य ] जिसका[आयामः] दीर्घतावाची हो,ऐसे लक्षणवाची समर्थ सुबन्त के साथ [च] भी अनु शब्द विकल्प करके समास को प्राप्त हो, और वह अव्ययीभाव समास हो ॥ उदा०–अनुगङ्ग वाराणसी, गङ्गाया अनु । अनुयमुनं मथुरा, यमुनाया अनु (गङ्गा को लम्बाई के साथ-साथ वाराणसी बसी हुई है । तथा यमना की लम्बाई के साथ साथ मथुरा बसी हुई है)। पूर्ववत् ही समास होने से ह्रस्व यहाँ भी जाने । अव्ययीभाव तिष्ठद्गुप्रभृतीनि च ॥२॥१॥१६॥ तिष्ठद्गुप्रभृतीनि १॥३॥ च अ० ॥ स०-तिष्ठद्गु प्रभृति येषां तानि -तिष्ठद्गुप्रभृतीनि, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-अव्ययीभावः समासः ॥ अर्थः-तिष्ठद्गु पादः] द्वितीयोऽध्यायः इत्येवमादीनि समुदायरूपाणि अव्ययीभावसंज्ञाकानि निपात्यन्ते ॥ उदा०-तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले दोहनाय स =तिष्ठद्गु कालः । वहन्ति गावो यस्मिन् काले स= वहद्गु कालः॥ भाषार्थ:— [तिष्ठद्गुप्रभृतीमि] तिष्ठद्ग इत्यादि समुदायरूप शब्दों की [च] भी अव्ययीभाव संज्ञा निपातन से होती है । गण में ये शब्न जैसे पढ़े हैं, वैसे ही साधु समझने चाहिएं । विग्रह अर्थप्रदर्शन के लिए है। उदा०-तिष्ठन्ति गावो यस्मिन् काले दोहनाय स=तिष्ठद्गु काल: (जिस समय गौएं दोहन के लिए अपने स्थान पर ठहरती हैं)। वहन्ति गावो यस्मिन् काले स=वहद्गु कालः ।। अव्ययीभाव संज्ञा होने से पूर्ववत् सु का लुक् होता है। तिष्ठ द्गु आदि में गोस्त्रियोरुप० (१।२।४८), तथा एच इग्घ्रस्वादेशे (१११९४७) से ‘गो’ को ह्रस्व भी हो जायेगा ।।। पारे मध्ये षष्ठया वा॥२।१११७॥ अव्ययामा पारे मध्ये उभयत्र लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ षष्ठया ३३१॥ वा अ०॥ अनु० अव्ययीभावः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-पारमध्यशब्दौ षष्ठयन्तेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्येते, अव्ययीभावश्च समासो भवति, तत्सन्नियोगेन चैतयोरे कारान्तत्वं निपात्यते ॥ षष्ठीसमासापवादसूत्रमिदम् । वा वचनात सोऽपि भवति । महाविभाषया तु विग्रहवाक्यविकल्पो भवति । तेन त्रीणि रूपाणि सिद्धयन्ति ।। उदा०—पारेगङ्गम, पारं गङ्गायाः। षष्ठीसमासपक्षे-ग्रङ्गापारम ।। मध्येगङ्गम, मध्यं गङ्गायाः । षष्ठीस मासपक्षे–गङ्गामध्यम् ॥ - भाषार्थ:-[पारे मध्ये] पार मध्य शब्दों का [षष्ठ्या ] षष्ठयन्त सुनन्त के साथ [वा] विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है, तथा अव्ययीभाव समास के साथ साथ इन शब्दों को एकारान्तत्व भी निपातन से हो जाता है । प्रकृत महाविभाषा से विग्रह वाक्य का विकल्प होता है, तथा सूत्र में कहे ‘वा’ से षष्ठी तत्पुरुष समास भी पक्ष में पक्ष होता है, क्योंकि यह सूत्र षष्ठीसमास का अपवाद है। षष्ठीसमास पक्ष में गङ्गा की (१।२।४३ से) उपसर्जन संज्ञा हुई है,सो उपसर्जनं पूर्वम् (२।२।३०) से गङ्गा का पूर्वनिपात हुआ है । नपुसकलिङ्ग होने से सु को अतोऽम् (७।१।२४) से अम् आदेश हुआ है। अव्ययीभाव समास पक्ष में तो पूर्ववत् गङ्गा को ह्रस्वत्व, तथा अम हो जायेगा, कोई विशेष नहीं है । उदा०-पारेगङ्गम् (गङ्गा के पार ), पारं गङ्गायाः। षष्ठीसमास-पक्ष में १६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती प्रथमः]
- गङ्गापारम् । मध्येगङ्गम् ( गङ्गा के बीच में ), मध्यं गङ्गायाः । षष्ठीसमास पक्ष में–गङ्गामध्यम् ॥ अपामाव सङ्ख्या वंश्येन ॥२।१।१८।। सङ्ख्या ११॥ वंश्येन ३।१॥ अनु०-विभाषा, अव्ययीभावः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ वंशे भव: वंश्यः, दिगाविभ्यो यत् (४।३।५४) इति यत्प्रत्यय: ।। अर्थः संख्यावाचिसुबन्तं वंश्यवाचिना समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा-द्वौ मुनी व्याकरणस्य वंश्यो, द्विमुनि व्याकरणस्य । त्रिमुनि व्याकरणस्य ॥ भाषार्थ:- [संख्या] संख्यावाची सुबन्त [वंश्येन] वंश्यवाची समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह अव्ययीभाव समास होता है ।। उदा०-द्वौ मुनी व्याकरणस्य वंश्यो, दिमुनि व्याकरणस्य (व्याकरण के दो मुनि=पाणिनि तथा कात्यायन) । त्रिमुनि व्याकरणस्य ( व्याकरण के तीन मुनि= पाणिनि पतञ्जलि और कात्यायन) ॥ नीला तक ‘वंश विद्या अथवा जन्म से प्राणियों के एकरूपता होने को कहते हैं । सो उदाहरण में दोनों मुनियों को विद्या से समानता होने से एक ही वंश है। विभक्ति लुक ही समास का प्रयोजन है ।। यहाँ से ‘संख्या’ की अनुवृत्ति २।१।१६ तक जाती है । नदीभिश्च ।।२।१।१६॥ नदीभिः ३।१॥ च अ०॥अनु०–संख्या, विभाषा, अव्ययीभाव:, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-संख्यावाचिसुबन्तं नदीवाचिना समर्थेनं सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ।। उदा०-सप्तानां गङ्गानां समाहारः– सप्तगङ्गम् । द्वयोः यमुनयो: समाहार:=द्वियमुनम । पञ्चन दम् । सप्तगोदावरम् ।। भाषार्थ:-संख्यावाची सुबन्त [नदीभिः] नदीवाची समर्थ सुबन्तों के साथ [च] भी विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास अव्ययीभावसंज्ञक होता है । वा उदा०-सप्तानां गङ्गानां समाहार:= सप्तगङ्गम् (गङ्गा की सात धारायें जैसा कि हरिद्वार में हैं) । द्वयोः यमुनयोः समाहारः द्वियमुनम् (यमुना की दो शाखायें) । पञ्चनदम् (पांच नदियों का जहां संगम हो)। सप्तगोदावरम् (गोदावरी नदी की सात धारायें) ॥ पञ्चनदम् तथा सप्तगोदावरम् में गोदावर्याश्च नद्याश्च० अलाणीयाव पादः] द्वितीयोऽध्यायः (का० ५।४।७५) से समासान्त अच् प्रत्यय होकर, यस्येति च (६।४।१४८) से ईकार का लोप हो जाता है। यहां से ‘नदीभि:’ की अनुवृत्ति २।१।२० तक जायेगी। हिर अन्यपदार्थे च संज्ञायाम् ॥२॥१॥२०॥ अगयीभाव अन्यपदार्ये ७१॥ च अ० ॥ संज्ञायाम् ७।१।। स०-अन्यच्चादः पदं चेति अन्य पदम् ,कर्मधारयः । अन्यपदस्यार्थः अन्यपदार्थः, तस्मिन षष्ठीतत्पुरुषः।। अनु०-नदीभि:, अव्ययीभावः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-अन्यपदार्थे गम्यमाने संज्ञायां विषये सुबन्तं नदीवाचिना समर्थेन सुबन्तेन सह समस्यते, अव्ययीभावश्च समासो भवति ॥ उदा०-उन्मत्तगङ्गम् । लोहितगङ्गम् ॥ का भाषार्थ:- [अन्यपदार्थ ] अन्यपदार्थ गम्यमान होने पर [च] भी [संज्ञायाम] संज्ञाविषय में सुबन्त का नदीवाची समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है, और वह अव्ययीभाव समास होता है ।। दी यहाँ ‘विभाषा’ के प्राने पर भी नित्यसमास ही होता है । क्योंकि विग्रहवाक्य से संज्ञा की प्रतीति ही नहीं हो सकती । अतः हम अनुवृत्ति में विभाषा पद नहीं लाये हैं। अति उदा०-उन्मत्तगङ्गम् (जिस देश में गङ्गा उन्मत्त होकर बहती है, वह देश)। लोहितगङ्गम् ॥ तत्पुरुषः ॥२।१।२१॥ को तत्परुष तत्पुरुषः १३१॥ अनु० -सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अधिकारोऽयम् । इतोऽग्रे यः समास: स तत्पुरुषसंज्ञको भवतीति वेदितव्यम्, २।२।२३ इति यावत् ॥ उदाहरणानि अग्रे वक्ष्यन्ते ॥ भाषार्थ:-यह अधिकार और संज्ञासूत्र है । यहाँ से आगे जो समास कहेंगे, उसको [तत्पुरुषः] तत्पुरुष संज्ञा जाननी चाहिए। विशेषः-तत्पुरुष समास प्रायः उत्तरपदार्थ-प्रधान होता है । यथा-राजपुरुषः में षष्ठीतत्पुरुष है । सो यहाँ पर ‘पुरुष’ की प्रधानता है, क्योंकि राजपुरुषम् प्रानय कहने पर लोग पुरुष को लाते हैं, राजा को नहीं लाते । इससे पता लगता है कि यहाँ उत्तरपद ‘पुरुष’ को ही प्रधानता है ॥ द्विगुश्च ।।२।१।२२॥ विगू द्विगु: ११॥ च अ० ॥ अनु० -तत्पुरुषः ।। अर्थः-द्विगुसमासस्तत्पुरुषसंज्ञको १६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः भवति ॥ संज्ञासूत्रमिदम् ॥ उदा०-पञ्चराजम्, दशराजम् । द्वयहः, त्र्यहः । पञ्च गवम्, दशगवम् ॥
- भाषार्थ:-[द्विगुः] द्विगु समास को [च] भी तत्पुरुष संज्ञा होती है । संख्यापूर्वो द्विगु: (२।१।५१) से द्विगु-संज्ञा का विधान किया है । इस सूत्र से तत्पुरुष संज्ञा भी हो जाती है ॥ पित अतीत पतित गत अत्यन्त प्राप आपन टिलीया MM द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नः ॥२।१।२३।।दाय द्वितीया ११॥ श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नः ३॥३॥ स०-श्रितातीत. इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० -तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ: द्वितीयान्तं सुबन्तं श्रित, अतीत, पतित, गत, अत्यस्त, प्राप्त, आपन्न इत्येतैः समर्थ: सुबन्त: सह विकल्पेन समस्यते. तत्पूरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-कष्टं श्रित:, कष्टश्रितः। अरण्यम् अतीतः, अरण्यातीतः। कूपं पतितः, कूपपतितः । नगरं गतः, नगरगत: । तरङ्गान अत्यस्तः, तरङ्गात्यस्तः। प्रानन्दं प्राप्तः, आनन्दप्राप्तः । सुखम् प्रापन्नः, सुखापन्नः ॥ भाषार्थ:—[द्वितीया] द्वितीयान्त सुबन्त [श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापन्नैः] श्रित इत्यादि समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है ॥ उदा०-कष्टं श्रितः, कष्टश्रित: (कष्ट को प्राप्त हुश्रा) । अरण्यम् अतीतः, अरण्यातीतः (जङ्गल को उलङ्घन कर गया)। कूपं पतितः, कूपपतितः (‘ए में गिरा हुआ) । नगरं गतः, नगरगतः (नगर को गया हुआ) । तरङ्गान् अत्यस्तः, तरङ्गात्यस्तः (लहरों में फेंका हुम्मा)। आनन्द प्राप्तः, प्रानन्दप्राप्तः (प्रानन्द को प्राप्त हुआ)। सुखम् आपन्नः, सुखापन्नः (सुख को प्राप्त हुना) ॥ यहाँ से ‘द्वितीया’ की अनुवृत्ति २।१।२८ तक जाती है ।। 2 स्वयं क्तेन ॥२॥१॥२४॥ स्वयम् अ० ॥ क्त न ३१॥ अनु०-तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समास: ॥ अर्थ:-स्वयमित्येतद् अव्ययम् क्तान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन सम स्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा.–स्वयं धौतौ पादौ, स्वयंधौतौ। स्वयं भुक्तम् , स्वयंभुक्तम् ॥ ही भाषार्थ:- [स्वयम् ] स्वयं इस अव्यय शब्द का [क्तेन ] क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। स्वयं शब्द अव्यय है,अतः यहां ‘द्वितीया’ की अनुवृत्ति का सम्बन्ध नहीं बिठाया है । क्योंकि अव्यय द्वितीयान्त हो ही नहीं सकता ॥ पाद: ] रिद्वितीयोऽध्यायः १६५ उदा.- स्वयंघौतौ पादौ (स्वयं षोये हुये दो पैर) । स्वयंभुक्तम् (स्वयं खाया हुना) ॥ यहाँ से ‘क्तेन’ की अनुवृत्ति २।१।२७ तक जायेगी ॥ खट्वा क्षेपे ।।२।१।२५॥ २१ खटवा १३१॥ क्षेपे ७॥१॥ अनु०-क्तेन, द्वितीया, तत्पुरुषः, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्यः-द्वितीयान्तः खट्वाशब्दः क्षेपे गम्यमाने क्तान्तेन समर्थन सुबन्तेन सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-खट्वारूढोऽयं दुष्ट: । खट्वाप्लुतः ॥ भाषार्थः-[क्षेपे] निन्दा गम्यमान हो, तो [खट्वा] द्वितीयान्त खट्वा शब्द क्तान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा०-खट्वारूढोऽयं दुष्ट: (बिना गुरुजनों की आज्ञा के ही यह दुष्ट गृहस्थ में चला गया)। खट्वाप्लुतः (कुमार्गगामी हो गया) ॥ विद्या पढ़कर गुरु से आज्ञा लेकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये । जो ऐसा नहीं करता वह निन्दा का पात्र है। उसी को यहां ‘खट्वारूढः’ कहा है,सो यहाँ क्षेप गम्यमान है । यहाँ विग्रह वाक्य से क्षेप की प्रतीति नहीं होती, अतः यहाँ विभाषा का सम्बन्ध अधिकार प्राते हुये भी नहीं बैठता । अतः यह भी नित्य समास है ॥ ( कासामिाशशरवाया तत्परक्ष सामि प० । अनु०-क्तेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः- सामि इत्येतदव्ययम् क्तान्तेन समर्थन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुष इच समासो भवति ॥ उदा०-सामिकृतम् । सामिपीतम । सामिभुक्तम् ॥ भाषार्थ:-[सामि] सामि इस अव्यय शब्द का क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । यहाँ भी सामि शब्द के अव्यय होने से ‘द्वितीया’ पद का सम्बन्ध नहीं बैठा है ॥ उदा०–सामिकृतम् (आधा किया हुआ) । सामिपीतम् । सामिभुक्तम् ।। कासारव कालाः ॥२॥१॥२७॥ सारी तत्पर 3 कालाः १।३॥ अनु–क्तन, द्वितीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-कालवाचिनो द्वितीयान्ताः शब्दा: क्तान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते,तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ अनत्यन्तसंयोगार्थमिदं वचनम अत्यन्त संयोगे घ् त्तरसूत्रेण क्रियते ॥ उदा०-अहरतिसृता मुहूर्ताः। अहस्सङक्रान्ताः । रात्र्यतिस्ता मुहूर्ताः। रात्रिसङ्क्रान्ताः । मासप्रमितश्चन्द्रमाः, मासं प्रमातुमारब्धः प्रतिपच्चन्द्रमा इत्यर्थः । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः मन भाषार्थ:- [काला:] कालवाची द्वितीयान्त शब्द का क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास हो जाता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ अनत्यन्त संयोग में समास हो जाये, इसलिये यह सूत्र है । अत्यन्तसंयोग में तो अगले सूत्र से समास प्राप्त ही था । उदाहरणों में अनत्यन्तसंयोग कैसे हैं, यह परिशिष्ट में देखें ॥ सहित यहाँ से ‘कालाः’ की अनुवृत्ति २०११२८ तक जायेगी। तत्प ब अत्यन्तसंयोगे च ॥२॥१॥२८॥ अत्यन्तसंयोगे ७।१।। च अ० ॥ स०-अत्यन्तः संयोगः अत्यन्तसंयोगः, तस्मिन, कर्मधारयतत्पुरुषः ॥ अनु०-काला:, द्वितीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः -अत्यन्तसंयोग:= कृत्स्नसंयोगः, तस्मिन् गम्यमाने कालवाचिनो द्वितीयान्ताः शब्दा: समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, लत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-मुहूर्तं सुखम् = मुहूर्त्तसुखम् । सर्वरात्रकल्याणी। सर्वरात्रशोभना ॥ भाषार्थः- [अत्यन्तसंयोगे] अत्यन्त संयोग गम्यमान होने पर [च] भी कालवाची द्वितीयान्त शब्दों का समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है । अत्यन्त संयोग से अभिप्राय लगातार संयोग से है ।। उदा०–मुहूनं सुखम् =मुहूर्तसुखम् ( मुहूर्त्तभर सुख ) । सर्वरात्रं कल्याणी =सर्वरात्रकल्याणी (कल्याणप्रद सारी रात) । सर्वरात्रशोभना ( सुन्दर सारी रात)। सर्वरात्रि शब्द से यहाँ अहः सर्वैकदेशसं० (५१४८७) से समासान्त अच् प्रत्यय होकर ‘सर्वरात्र’ बना है ॥ __ तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन ।।२।१।२६॥ य तृतीया १३१।। तत्कृत लुप्ततृतीयान्तनिर्देशः ।। अर्थेन ३॥१॥ गुणवचनेन ३।१।। स०-तेन कृतम् तत्कृतम्, तृतीयातत्पुरुषः । गुणमुक्तवान् गुणवचन:, तेन, (उपपद) तत्पुरुषः । अनु०—तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-तृतीयान्तं सुबन्तं तत्कृतेन =तृतीयान्तार्थकृतेन गुणवचनेन, अर्थशब्देन च सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-शकुलया खण्ड: शकुलाखण्डः । किरिणा काण: किरि काणः । अर्थशब्देन -धान्येन अर्थः =धान्यार्थः ॥
- भाषार्थ:-[तृतीया] तृतीयान्त सुबन्त [तत्कृतार्थेन गुणवचनेन] तत्कृत= तृतीयान्तार्थकृत गुणवाची शब्द के साथ, तथा अर्थ शब्द के साथ समास को प्राप्त होता है और वह तत्पुरुष समास होता है ।। विशेष:- जिसने पहले गुण को कहा था, किन्तु अब तद्वान् द्रव्य को ही कहता है, उसे ‘गुणवचन" कहते हैं । जैसे कि उदाहरण में खण्ड तथा काणशब्द क्रमशः खण्डन पादः] द्वितीयोऽध्यायः (तोड़ना) तथा निमीलन (बन्द करना) गुण को पहले कहते थे, किन्तु अब ‘खण्ड गुण’ अर्थात् खण्ड है गुण जिसका, तथा ‘काणगुण’ काण है गुण जिसका, उस द्रव्य को कहते हैं। सो खण्ड और काण गुणवचन शब्द हैं । यहाँ खण्डगुणोऽस्यास्तीति, काण गुणोऽस्यास्तीति इस अर्थ में खण्ड तथा काण शब्द से मतुप् प्रत्यय ( ५।२।६४ से) प्राया था, पर उसका गुणवचनेभ्यो मतुपो लुक् ( ५।२।६४ वा० ) इस वातिक से लुक हो जाता है । तत्कृतार्थेन, यहाँ महाभाष्यकार ने योगविभाग किया है, अर्थात् ‘तत्कृतेन’ को गुणवचनेन का विशेषण माना है, एवं ‘अर्थेन’ इसको अलग माना है । सो अर्थ हुना-“अर्थ शब्द के साथ भी समास होता है”, जिसका उदाहरण है ‘धान्यार्थः’। तत्कृत का अर्थ हुआ- तृतीयान्तार्थकृत । जैसे कि उदाहरण में शङ कुलया (सरोते से), किरिणा (बाण से) तृतीयान्त हैं, सो तत्कृत ही खण्डत्व (टुकड़ा) एवं काणत्व (काना) है, अत: यहाँ समास हो गया है ।। उदा० - शङ कुलाखण्डः (सरोते के द्वारा किया हुआ खण्ड-टुकड़ा)। किरिकाण: (बाण के द्वारा काना किया)। धान्यार्थः (धान्य से प्रयोजन) ॥ हतीया यहाँ से ‘तृतीया’ को अनुवृत्ति २।१।३४ तक जायगी ॥ सदनासा आज “पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः ॥२॥१३॥०॥ Me Aपूर्ण पूर्वसदृश श्लक्ष्णः ३।३॥ स०-पूर्वसदृश० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु० तृतीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः- तृतीयान्तं सुबन्तं पूर्व, सदृश, सम, ऊनार्थ, कलह, निपुण, मिश्र, इलक्षण इत्येतैः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-मासेन पूर्वः=मासपूर्व:, संवत्सर पूर्वः। मात्रा सदृशः=मातृसदृशः,भ्रातृसदृशः । मात्रा समः= मातृसम: । ऊनार्थे- कार्षापणेन ऊनं रूप्यं =-कार्षापणोनम् रूप्यम्,कार्षापणन्यूनम् । वाचा कलहः= वाक्कलहः,असिकलहः । वाचा निपुण: वानिपुण:, विद्यानिपुणः। गुडेन मिश्रः= गुडमिश्रः, तिलमिश्रः। प्राचारेण श्लक्ष्ण:=प्राचार श्लक्ष्णः ।। भाषार्थ:-तृतीयान्त सुबन्त का [पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुण मिश्रश्लक्ष्णः] पूर्वादि सुबन्तों के साथ विकल्प से समास हो जाता है,और वह तत्पुरुष समास होता है।। उदा.-मासपूर्वः (एक मास पूर्व का), संवत्सरपूर्वः। मातृसदृशः (माता के तुल्य), भ्रातृसदृशः । मातृसमः (माता के समान ), भ्रातृसमः । ऊनार्थ में-कार्षा पणोनं रूप्यम् (कार्षापण से कम रुपया), कार्षापणन्यूनम् । दाक्कलहः (वाणी के द्वारा झगड़ा), प्रसिकलहः (तलवार से लड़ाई )। वाङ निपुणः (वाणी में निपुण), विद्यानिपुणः । गुडमिश्रः (गुड़ मिलाया हुआ), तिलमिश्रः । प्राचारश्लक्ष्ण: (प्राचार से अच्छा ) ॥ १६८ अष्टाध्यायीप्रथमावृत्ती [प्रथम: यसब कत करणे कृता बहुलम् ।।२।१।३।। कर्तृकरणे ७१॥ कृता ३॥१॥ बहुलम् ११॥ स०-कर्ता च करणं च कर्तृ करणम्, तस्मिन्, समाहारद्वन्द्वः ॥ अनु०-तृतीया, तत्पुरुषः, सुप,सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-कर्तरि करणे च या तृतीया तदन्तं सुबन्तं समर्थन कृदन्तेन सुबन्तेन सह बहुलं समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०—अहिना हत:=अहिहतः, वृकहतः । करणे -दात्रेण लूनं =दात्रलूनम्, परशुना छिन्नः परशुछिन्नः, नखैनिभिन्न:= नखनिभिन्नः ।। __ भाषार्थ:- [कर्तृकरणे] कत्त वाची और करणवाची जो तृतीयान्त सुबन्त, वे समर्थ [कृता] कृदन्त सुबन्त के साथ [बहुलम् ] बहुल करके समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा०-अहिना हतः, में हननक्रिया का कर्ता अहि है। उस अहि कर्ता में तृतीया कर्तृकरणयोस्तृतीया (२।३।१८) से हुई है, अतः यह कत्त वाची ही है ॥ दात्रेण लूनः, में लवन क्रिया का करण कारक दात्र है । सो यहाँ पूर्वोक्त सूत्र से करण कारक में तृतीया है, अतः यह करणवाची है । हतः इत्यादि क्त-प्रत्ययान्त हैं, ‘क्त’ की कृदतिङ (३।११६३) से कृत् संज्ञा हो गई ॥ अहिना हतः=अहिहतः ( सांप के द्वारा मारा हुआ ), वृकहतः । करणे दात्रेण लूनं = दात्रलूनम् ( दरांती से काटा हुआ), परशुना छिन्न:=परशुछिन्न: (कुल्हाड़ी से काटा हुमा), नखै निभिन्न:नखनिभिन्नः (नाखूनों के द्वारा तोड़ कर निकाला हुमा) ॥ _विशेष-बहून् अर्थान लातीति बहुलम, जो बहुत अर्थों को प्राप्त करावे, उसे ‘बहुल’कहते हैं । जो कि चार प्रकार का होता है । जिसका लक्षण निम्न प्रकार है क्वचित प्रवृनिः क्वचिदप्रवृत्तिः, क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव। विधैविधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।। अर्थात् कहीं पर विधि न प्राप्त होते हुये भी कार्य होना,कहीं विधि प्राप्त होने पर भी कार्य न होना,कहीं विकल्प से होना,तथा कहीं और ही हो जाना, यह चार प्रकार का’बहुल देखने में प्राता है । सो जहाँ-जहाँ बहुल हो,वहाँ ऐसे ही कार्य जानना ।। यहाँ से ‘कर्तृ करणे’ को अनुवृत्ति २।१।३२ तक जायेगी ॥) प्रमुख जागा तृतीया पुरुष कृत्यैरधिकार्थवचने ॥२॥१॥३२॥ कृत्यैः ३३॥ अधिकार्थवचने ७।१॥ स०-अधिकः ( अध्यारोपितः ) अर्थ पाद:] द्वितीयोऽध्यायः १६६ अधिकार्थः, तस्य वचनम् अधिकार्थवचनम्,षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-कर्तृकरणे, तृतीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-कर्तृवाचि करणवाचि तृतीया न्तं सुबन्तं समर्थः कृत्यसंज्ञकप्रत्ययान्तै: सुबन्तैः सह अधिकार्थवचने गम्यमाने विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-काकैः पेया =काकपेया नदी; शुना लेह्यः श्वलेह्यः कूपः । करणे-वाष्पेण छेद्यानि = वाष्पछेद्यानि तृणानि; कण्टकेन सञ्चेय:=कण्टकसञ्चेय अोदनः॥ 15 भाषार्थः-कर्तावाची तथा करणवाची जो तृतीयान्त सुबन्त,वह समर्थ [कृत्यैः] कृत्यप्रत्ययान्त सुबन्तों के साथ विकल्प से [अधिकार्थवचने] अधिकार्थवचन गम्यमान होने पर समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ किसी की स्तुति या निन्दा में कुछ बढ़ कर अधिक बात बोल देना ‘अधिकार्थ वचन’ होता है । पेया लेह्यः इत्यादि में यत् और ण्यत् प्रत्यय हुए हैं, सो कृत्याः (३।१।६५) से कृत्यसंज्ञक हैं । । उदा०-काकैः पेया काकपेया नदी (इतने थोड़े जलवाली नदी, जिसे कौए भी पी डालें), शुना लेह्यः इवलेह्यः कूपः (कुत्ते के चाट जाने योग्य .पा, अर्थात् समीप जलवाला)। करण में-वाष्पेण छेद्यानि वाष्पछेद्यानि तुणानि (भाप से भी टूट जानेवाले कोमल तिनके ) ; कण्टकेनं सञ्चेयः कण्टकसञ्चय प्रोदनः ( इतने थोड़े चावल, जो कांटे से भी इकट्ठे हो जायें)। ऊपर के दो उदाहरणों में कर्त्ता में तृतीया है, और निन्दा में अधिकार्थवचनता है । तथा पिछले दो उदाहरणों में करण में तृतीया है,और प्रशंसा में अधिकार्थवचनता है, ऐसा समझना चाहिये || …तीया तत्पर अन्नेन व्यञ्जनम् ।।२।१॥३३॥ अन्नेन ३।१॥ व्यञ्जनम् ११॥ अनु०-तृतीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-व्यञ्जनवाचि तृतीयान्तं सुबन्तं अन्नवाचिना समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उवा०-दना उपसिक्त प्रोदनः =दध्योदनः; क्षीरोदनः ॥ हा भाषार्थ:-[व्यञ्जनम् ] व्यञ्जनवाची तृतीयान्त सुबन्त [अन्नेन] अन्नवाची १. वस्तुतः इतने थोड़े जलवाली नदी हो ही नहीं सकती, जिसे कौए ही पी जायें । यहाँ ऐसा कहना ही अधिकार्थवचनता है । इसी प्रकार और उदाहरणों में भी समझे। २२ मा १७० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है। उदा०-दध्ना उपसिक्त प्रोदनः दध्योदनः (दही मिला हुआ चावल); क्षीरोदनः ।। दध्योदनः में यणादेश, तथा क्षीरोदन: में वृद्धिरेचि (६।१।८५) से वृद्धि एकादेश हुआ है। ततीया तत्परुष भक्ष्येण मिश्रीकरणम् ॥२॥१॥३४॥ भक्ष्येण ३॥१॥ मिश्रीकरणम् १२१॥ अन-तृतीया, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-मिश्रीकरणवाची तृतीयान्तं सुबन्तं भक्ष्यवाचिना समर्थन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-गुडेन मिश्रा धाना: = गुडघानाः; गुडपृथ काः ॥ भाषार्थ:-[मिश्रीकरणम् ] मिश्रीकरणवाची तृतीयान्त सुबन्त [भक्ष्येण] भक्ष्यवाची समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा०-गुडेन मिश्रा धाना:= गुडधानाः (गुड़ मिले हुए धान= गुडधानी); गुडपृथुकाः (गुड से मिला हुआ च्यूड़ा भक्ष्यविशेष) ॥ चती तत्परुष चतुर्थी तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः ॥२।१।३५।। चतुर्थी ११॥ तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षित: ३।३॥ स०-तस्मै इदम् तदर्शम्, चतुर्थीतत्पुरुषः । तदर्थं च अर्थश्च बलिश्च हितञ्च सुखञ्च रक्षितञ्च तदर्थार्थबलि हितसुखरक्षितानि, तैः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन-तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-चतुर्थ्यन्तं सुबन्तं तदर्थ, अर्थ, बलि, हित, सुख, र क्षत इत्येतैः समर्थे: सुबन्तै: सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ तद्’ इति पदेन चतुर्थ्यन्तस्यार्थः परामृश्यते । तदर्थेन प्रकृतिविकारभावे समास इष्यते॥ उदा०-तदर्थ यूपाय दारु यूपदारु; कुण्डलाय हिरण्यम् = कुण्डलहिरण्यम् । अर्थ- ब्राह्मणार्थी पयः, ब्राह्मणार्था यवागूः। बलि-इन्द्राय बलिः= इन्द्रबलि:, कुबेरबलिः । हित गोभ्यो हितं =गोहितम् । सुख-गोभ्यः सुखं = गोसुखम् ; अश्वसुखम् । रक्षित-पुत्राय रक्षितम =पूत्ररक्षितमः अश्वरक्षितम ॥ भाषार्थ:-[चतुर्थी] चतुर्थ्यन्त सुबन्त [ तदर्थार्थबलिहितसुखरक्षितैः ] तदर्थ १–‘अर्थ’ शब्द के साथ नित्यसमास बार्तिक (२।१।३५) से कहा है, अतः ‘ब्राह्मणार्थ’ का विग्रह नहीं दिखाया है ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः गया १७१ तथा अर्थ बलि हित सुख रक्षित इन समर्थ सुबन्तों के नाथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा० -तदर्थ (यहां विकार का प्रकृति के साथ समास इष्ट है )-यूपाय दारु =यूपदारु ( खम्भे के लिए जो लकड़ी ), कुण्डलाय हिरण्यम् = कुण्डलहिरण्यम् (कुण्डल के लिए जो सोना) । अर्थ-ब्राह्मणार्थ पयः ( ब्राह्मण के लिये दूध ), ब्राह्मणार्था यवागूः (ब्राह्मग के लिये लप्सी) । बलि-इन्द्राय बलिः=इन्द्रबलिः (इन्द्र देवता के लिये जो बलि), कुबेरबलि: । हित-गोम्यो हितं गोहितम् (गायों के लिये जो हित) । सुख-गोभ्यः सुखं = गोसुखम् (गायों के लिये जो सुख), अश्व सुखम् । रक्षित –पुत्राय रक्षितम् =पुत्ररक्षितम् (पुत्र के लिये रक्षित),अश्वरक्षितम् ।’ र पञ्चमी भयेन ॥२ १॥३६॥ पानी तत्परराष पञ्चमी १।१।। भयेन ३॥१॥ अनु० - तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ: - पञ्चम्यन्तं सुबन्तं भयशब्देन समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते,तत्पुरुषश्च स मासो भवति।। उदा०-वृकेभ्यो भयम =वृकभयम्, चौरभयम् ॥ भाषार्थ:-[पञ्चमी] पञ्चम्यन्त सुबन्त समर्थ [भयेन ] भयशब्द सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा०-वृकेभ्यो भयम् =वृकभयम् (भेड़ियों से भय), चौरभयम् ॥ ३ यहाँ से ‘पञ्चमी’ को अनुवत्ति २।११३८ तक जायेगी। अपन, पantarM अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तरल्पशः ।।२।१।३७।। 7 आपत्रस्त ___ अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तै ३१३॥ अल्पशः अ० ॥ स०-अपेतापोढ० इत्यत्रेत रेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनुः–पञ्चमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः- अल्पं पञ्चम्यन्तं सुबन्तम् अपेत, अपोढ, मुक्त, पतित, अपत्रस्त इत्येतैः समर्थ: सुबन्तैः सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-दु:खाद् अपेतः =दु:खापेत:, सुखापेतः। घनाद अपोढ:=धनापोढः । दुःखाद् मुक्तः= दुःखमुक्तः । स्वर्गात पतितः स्वर्गपतितः। तरङ्गाद् अपत्रस्त: तरङ्गापत्रस्त: ॥ भाषार्थ:- [अल्पशः] अल्प पञ्चम्यन्त सुबन्त [अपेतापोढमुक्तपतितापत्रस्तैः] अपेत, अपोढ, मुक्त, पतित, अपत्रस्त इन समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । सूत्र में अल्पशः’ कहने का अभिप्राय यह है कि =अल्प थोड़े ही पञ्चम्यन्त सुबन्तों का समास होता है, सब पञ्चम्यन्तों का नहीं। यथा प्रासादात् पतित: इस पञ्चम्यन्त का समास नहीं होता है ॥ उदा० -दुःखापेतः (दुःख से दूर), सुखापेतः । धनापोढः (धन से बाधित) । १७२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ । [प्रथमः दुःखमुक्तः (दुःख से छूट गया) । स्वर्गपतितः (स्वर्ग से गिरा हुआ) । तरङ्गापत्रस्तः (तरङ्गों से फेंका हुआ) ॥ ॥ पञ्चमी तत्पुरुष व या स्तोक-अतिक दूर स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छ्राणि क्तेन ॥२॥१॥३८॥ 2 स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छाणि १॥३॥ क्तेन ३.१॥ स०-स्तोकश्च अन्तिकश्च दूरश्चेति स्तोकान्तिकदूरा:, तेऽर्थाः येषां ते स्तोकान्तिकदूरार्थाः, स्तोकान्ति कदूराश्चि कृच्छ्रञ्च तानि स्तो. कृच्छ्राणि,बहुव्रीहिगर्भतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु०-पञ्चमी,तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-स्तोक, अन्तिक, दूर इत्येवमर्थाः शब्दाः कृच्छ्रशब्दश्च पञ्चम्यन्ता: क्तान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यन्ते, तत्पुरुष श्च समासो भवति ॥ उदा०-स्तोकाद् मुक्तः स्तोकान मुक्त:; अल्पान्मुक्तः । अन्ति. काद् आगत:= अन्तिकादागतः, अभ्याशादागतः । दूराद् आगतः दूरादागतः, विप्रकृष्टादागतः । कृच्छ्राद् मुक्तः कृच्छ्रान्मुक्तः; कृच्छ्राद लब्धः=कृच्छाल्लब्धः ।। भाषार्थ:-[स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छाणि ] स्तोक अन्तिक और दूर अर्थवाले पञ्चम्यन्त सुबन्त,तथा कृच्छ्र शब्द जो पञ्चम्यन्त सुबन्त, उनका समर्थ क्तान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । समासपक्ष में सुपो धातु० (२१४७१) से जो पञ्चमी का लुक प्राप्त था, उसका पञ्चम्या: स्तोकादिभ्यः (६।३।२) से अलुक अर्थात लुक नहीं हुमा । समास होने से यही लाभ हुआ कि एकपद तथा एकस्वर हो गया ॥ स्तोकान्मुक्तः, में द को न् यरोऽनु नासिके० (८।४।४४) से हुआ है । दूरादागत:, में त् को ब् झलां जशोन्ते (८।२। ३६) से हो गया है। उदा०-स्तोकान्मुक्तः (थोड़े से ही छूट गया), अल्पान्मुक्तः । अन्तिकादागतः (समीप से पाया हुआ), अभ्याशादागतः (पास से प्रापा हुआ) । दूरादागतः (दूर से प्राया), विप्रकृष्टादागतः । कृच्छान्मुक्तः (थोड़े से छूट गया), कृच्छ्राल्लब्धः ॥ सपना तत्पुरण सप्तमी शौण्डः ॥२।१॥३६॥ सप्तमी ११॥ शौण्डैः ३३।। अनु०–तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-सप्तम्यन्तं सुबन्तं शौण्डादिभिः समर्थैः सुबन्तैः सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-प्रक्षेषु शौण्ड:= अक्षशौण्डः । अक्षधूर्तः । अक्षकितवः॥ भाषार्थ:-[सप्तमी] सप्तम्यन्त सुबन्त [शौण्डैः] शौण्ड इत्यादि समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ शौण्ड में बहुवचन निर्देश होने से यहाँ शौण्डादिगण लिया गया है । पादः] द्वितीयोऽध्यायः उदा.-अक्षशौण्डः (द्यूत-क्रीडा में चतुर)। अक्षपूर्तः । अक्षकितवः ॥ यहाँ से ‘सप्तमी’ को अनुवृत्ति २।११४७ तक जायेगी। __सिद्धशुष्कपक्वबन्धश्च ॥२॥१॥४०॥ यतमा तापवणे सिद्धशुष्कपक्वबन्धैः३॥३॥ च अ० ।। स०-सिद्धशुष्क० इत्यत्रेतरेत रयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-सप्तमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-सिद्ध शुष्क पक्व बन्ध इत्येतैः समर्थः सुबन्तै: सह सप्तम्यन्तं सुबन्तं विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुष श्च समासो भवति ॥ उदा०-ग्रामे सिद्धः= ग्रामसिद्धः, नगरसिद्धः । प्रातपे शुष्कः =प्रातपशुष्कः, छायायां शुष्कः=छायाशुष्कः । स्थाल्यां पक्वः= स्थालीपक्वः । यूपे बन्धः यूपबन्धः, चक्रबन्धः ॥ भाषार्थ:- [सिद्धशुष्कपक्वबन्धैः] सिद्ध, शुष्क, पक्व, बन्ध इन समर्थ सुबन्तों के साथ [च] भी सप्तम्यन्त सुबन्त का विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा०–ग्रामसिद्धः (ग्राम में बना), नगरसिद्धः । प्रातपशुष्कः (धूप में सूखा हुआ), छायाशुष्कः । स्थालीपक्वः (बटलोई में पकाया हुआ) । यूपबन्धः (यज्ञ के खम्भे में बाँधा हुआ), चक्रबन्धः (चक्र में बाँधा हुआ) ॥ म ध्वाक्षेण क्षेपे ॥२।१४ dc५२a ध्वाङ्क्षण ३॥१॥ क्षेपे ७१॥ अनु०-सप्तमी,तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-सप्तम्यन्तं सुबन्तं ध्वाङ्क्षवाचिना समर्थन सुबन्तेन सह क्षेपे गम्य माने विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-तीर्थे ध्वाङ्क्ष इव= तीर्थध्वाङ्कः, तीर्थे काक इव =तीर्थकाकः, तीर्थवायसः ॥ भाषार्थ:-सप्तम्यन्त सुबन्त [ध्वाङ्क्षण] ध्वाङ क्ष = (कौमा)बाची समर्थ सुबन्त के साथ [क्षेपे] क्षेप= निन्दा गम्यमान होने पर विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ उदा०-तीर्थध्वाङ क्षः (जैसे कौना एक स्थान पर नहीं रह सकता, उसी प्रकार जो छात्र एक स्थान पर न पढ़कर यत्र-तत्र सर्वत्र पढ़ता फिरे, वह तीर्थ ध्वाङ क्षः’ कहलाता है ), तीर्थकाकः, तीर्थवायसः ।। हम कृत्यैऋणे ॥२॥१॥४२॥ सपमा तप4 कृत्यैः ३।३।। ऋणे ॥१॥ अनु०-सप्तमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-सप्तम्यन्तं सुबन्तं कृत्यप्रत्ययान्तैः समर्थैः सुबन्तैः सह ऋणे गम्य १. विद्यार्थी का यत्र तत्र भागना ही यहाँ क्षेप है ।। १७४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: माने विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-मासे देयम ऋणं = मासदेयम् ऋणम् । संवत्स रदेयम्, त्र्यहदेयम् ॥ भाषार्थ:-सप्तम्यन्त सुबन्त [कृत्यैः] कृत्यप्रत्ययान्त समर्थ सुबन्तों के साथ [ऋणे ] ऋण गम्यमान होने पर विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है | उदा०–मासे देयम् ऋणं मासदेयम् ऋणम् (महीने भर में चुका दिया जानेवाला ऋण) । संवत्सरदेयम्, त्र्यहदेयम् ।। देयम् में यत् प्रत्यय अचो यत् (३।१। ९७ से हुआ है । सो कृत्याः (३।१।६५) से वह कृत्यसंज्ञक है ॥ सपनी तत्पुरुष संज्ञायाम् ।।२।१।४३॥ संज्ञायाम् ७१।। अनु०-सप्तमी, तत्पुरुषः, सुप, सह सुपा, समासः ।। अर्थः सप्तम्यरतं सुबन्तं संज्ञायां विषये समर्थन सुबन्तेन सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-अरण्येतिलकाः । अरण्येमाषाः । वनेकिंशुकाः। वनेबिल्वकाः । कूपेपिशाचकाः ॥ धमाका भाषार्थ:- सप्तम्यन्त सुबन्त [संज्ञायाम् ] संज्ञा-विषय में समर्थ सुबन्तों के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । यहाँ महाविभाषा का अधिकार प्राते हुये भी नित्य समास ही होता है। क्योंकि विग्रह-वाक्य से संज्ञा की प्रतीति ही नहीं होती है । उदा.-अरण्येतिलकाः (जङ्गली तिल) । अरण्येमाषा: (जङ्गली उड़द) । वनेकिंशुकाः (जङ्गली टेसू के फूल) । वनेबिल्वकाः (पूर्ववत् ही अर्थ जाने) । कूपे पिशाचकाः (यहाँ भी पूर्ववत् जाने) ॥ सर्वत्र उदाहरणों में हलदन्तात सप्तम्या:० (६॥३॥७) से विभक्ति का अलुक् हुआ है ॥ आपत्ती 27 क्तेनाहोरात्रावयवाः ।।२।१॥४४॥ क्तेन ३॥१॥ अहोरात्रावयवाः १२३॥ स० - अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रौ, तयोर वयवाः अहोरात्रावयवाः, द्वन्द्वगर्भ षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-सप्तमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-सप्तम्यन्ता: ग्रहरवयववाचिन: रात्र्यवयववाचिनश्च शब्दाः क्तप्रत्ययान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-पूर्वाह्ण कृतम् =पूर्वाह्णकृतम्, मध्याह्नकृतम् । पूर्वरात्रे कृतम् = पूर्वरात्रकृतम्, मध्यरात्रकृतम् ॥ भाषार्थ:-[अहोरात्रावयवाः] दिन के अवयववाची एवं रात्रि के अवयववाची पाद: द्वितीयोऽध्यायः १७५ सप्तम्यन्त सुबन्तों का [क्तेन] क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है । उदा०—पूर्वाह्ने कृतम् = पूर्वाह्णकृतम् ( दिन के पूर्व भाग में किया हुआ), मध्याह्नकृतम् । पूर्वरात्रे कृतम् =पूर्वरात्रकृतम् (रात्रि के पूर्व भाग में किया हुआ), मध्यरात्रकृतम् ॥ यहाँ से “क्तेन” की अनुवृत्ति २।१।४६ तक जाती है । तत्र।।२।१।४५॥ सप्तमी तत्पुरुष तत्र अ०॥ अनु०-क्त न, सप्तमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ-तत्र’ इति सप्तम्यन्तं सुबन्तं क्तप्रत्ययान्तेन समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-तत्रभक्तम् । तत्रपीतम् । तत्रकृतम् ॥ भाषार्थ:-[तत्र] ‘तत्र’ इस सप्तम्यन्त शब्द का क्तप्रत्ययान्त समर्थ सुबन्त के साथ समास विकल्प से होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है । समास होने से एकपद एकस्वर हो जाता है । पक्ष में पृथक्-पृथक् पद भी रहते हैं । उदा०-तत्रभुक्तम् (वहाँ खाया)। तत्रपीतम् (वहाँ पिया)। तत्र कृतम् ॥ एक क्षेपे ॥२।१।४६॥ सप्तमी तत्पुरुष क्षपे ७१॥ अनु०-क्तेन, सप्तमी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः। अर्थः-सप्तम्यन्तं सुबन्तं क्तान्तेन समर्थन सुबन्तेन सह क्षेपे गम्यमाने विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०–अवतप्तेनकुलस्थितं तव एतत् । प्रवाहेमूत्रितम् । भस्मनिहुतम् ॥ भाषार्थ:—सप्तम्यन्त सुबन्त क्तान्त समर्थ सुबन्त के साथ [क्षेपे] क्षेप (निन्दा) गम्यमान होने पर समास को विकल्प से प्राप्त होता है,और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा०–अवतप्तेनकुलस्थितं तव एतत् (तपी हुई भूमि में जिस प्रकार नेवला अस्थिर होकर इधर-उधर भागता है, क्षणभर नहीं ठहरता, उसी प्रकार तुम्हारा कार्य है, अर्थात् अत्यन्त चञ्चल हैं) । प्रवाहेमूत्रितम् (बहते पानी में मूत्र करने के समान तुम्हारा किया काम है, अर्थात् निष्फल है) । भस्मनिहु तम् (भस्म में राख में पाहुति डालने के समान तुम्हारा काम निष्फल है) ॥ तत्पुरुषे कृति बहुलम् (६।३।१२) सो अवतप्ते इत्यादियों में सप्तमी का अलुक १७६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम सतनी हुआ है। नकुलस्थितं इत्यादि क्तान्त शब्द हैं। अत्यन्त चञ्चलता आदि ही यहाँ क्षेप है । कार्यों को प्रारम्भ करके जो धर्य से उसे पूरा न कर इधर-उधर भागे, उसके लिये यह कहा है ।।
- यहाँ से ‘क्षेपे’ की अनुवृत्ति २।१।४७ तक जायेगी। तापस पात्रेसंमितादयश्च ॥२॥११४७।। पात्रसंमितादय: १॥३॥ च अ० ॥ स०-पात्रेसंमित पादिर्येषां ते पात्रेसंमिता दयः, बहुव्रीहिः ॥ अनु:-क्षेपे, सप्तमी, तत्पुरुषः, सप, सह सुपा, समासः ।। अर्थ:-पात्रसंमिताः इत्यादयः शब्दा: क्षेपे गम्यमाने समुदाया एव निपात्यन्ते, तत्पुरुष श्च समासो भवति ॥ उदा-पात्रेसंमिताः । पात्रेबहुला: ॥ भाषार्थः- [पात्रेसंमितादय:] पात्रेसमित इत्यादि शब्द [च] भी क्षेप गम्य मान होने पर समुदायरूप से, अर्थात् जैसे गण में पठित हैं, उसी प्रकार निपातन किये जाते हैं, और तत्पुरुषसंज्ञक होते हैं ॥ चकार यहाँ अवधारण के लिए है ।। उदा.-पात्रेसंमिता: (भोजन के समय में ही जो इकट्ठे हो जावें, किसी कार्य के समय नहीं) । पात्रेबहुलाः ( भोजनकाल में ही जो भावें, किसी कार्य में नहीं)॥ पूर्व काल एक सर्व जरत पुराण न केवलाः समानाधिकरण Aav पूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः समानाधिकरणेन ॥२१॥४८॥ AAAEपूर्वकालैकसर्वजरत्पुराणनवकेवलाः ११३॥ समानाधिकरणेन ३१॥ स० पूर्वकाल० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । समानमधिकरणं यस्य स समानाधिकरणः, तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समास: ॥ अर्थः-पूर्वकाल, एक, सर्व, जरत्, पुराण, नव, केवल इत्येते सुबन्ता समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-स्नातश्चानुभुक्तश्च = स्नातानुभुक्तः, कृष्टसमीकृतम् । एकश्चासौ वैद्यश्च =एकवैद्यः, एकभिक्षा । सर्वे च ते मनुष्या:=सर्वमनुष्याः, सर्वदेवाः । जरंश्चासौ हस्ती च–जरद्धस्ती, जरदश्वः । पुराणं च तदन्नञ्च =पुराणान्नम्, पुराणावसथम् । नवञ्च तदन्नं च नवान्नम्, नवावसथम् । केवलञ्च तदन्नं च =केवलान्नम् ॥ भाषार्थ:-[पूर्वकालैकसर्व जरत्पुराणन वकेवलाः] पूर्वकाल, एक, सर्व, जरत्, पुराण, नव, केवल इन सुबन्तों का [समानाधिकरणेन] समानाधिकरण सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ समानाधिकरण की ध्याख्या ११२।४२ में कर पाये हैं । यह सूत्र विशेषणं० (२३१३५६) का अपवाद है।। उदा:-स्नातश्चानुभुक्तश्च स्नातानुभुक्तः (पहले स्नान किया, पीछे खाया), सलामा बिरला पादः] द्वितीयोऽध्यायः १७७ IAN कृष्टसमीकृतम् (पहले खेत को जोता,पीछे बराबर किया)।एकश्चासौ वैद्यश्च =एकवैद्यः (एक ही हैं. और वही वैद्य है ), एकभिक्षा । सर्वे च ते मनुष्याः सर्वमनुष्याः (सब मनुष्य), सर्वदेवाः । जरंश्चासौ हस्ती च =जरद्धस्ती ( बूढ़ा हाथी ), जर दश्वः । पुराणं च तदन्नं च=पुराणान्नम् (पुराना अन्न), पुराणावसथम् (पुराना गृह) । नवञ्च तदन्नं च नवान्नम् (नया अन्न), नवावसथम् । केवलञ्च तदन्नं च= केवलान्नम् (केवल अन्न) ॥ जरदस्ती में ह. को ध् झयो होऽन्यतरस्याम् (८। ४॥६१) से हुआ हैं । यहाँ से ‘समानाधिकरणेन’ को अनुवृत्ति पाद के अन्त २०११७१ तक जाती है । दिक्सङ्ख्ये संज्ञायाम् ॥२।१।४६॥ सपनी तत्पुरुष दिक्सङ्ख्ये १२२॥ संज्ञायाम् ७।१॥ स०–दिक् च सङ्ख्या च दिक्सङ्ख्ये, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः॥ अर्थः-दिग्वाचिनः सङ्ख्यावाचिनश्च सुबन्ता: समानाधिकरणेन समर्थेन सुबन्तेन सह संज्ञायां विषये समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०—पूर्वा चासौ इषुकाम शमी च=पूर्वेषुकामशमी, अपरेषकामशमी। सङख्या–पञ्च च ते अाम्रा:= पञ्चाम्राः; सप्त च ते ऋषयः =सप्तर्षय: ।। यम भाषार्थ:- [दिक्मङख्ये] दिशावाची और संङ ख्यावाची जो सुबन्त वे समानाधिकरण समर्थ सुबन्त के साथ [संज्ञायाम् ] संज्ञाविषय में समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है ॥
- उदा०-पूर्वा चासौ इषुकामशमी च=पूर्वेषुकामशमी (किसी ग्राम को संज्ञा - है), अपरेषुकामशमी। संङख्या-पञ्च च ते अाम्राः=पञ्चाम्राः (ग्राम के पाँच वृक्ष =संज्ञाविशेष), सप्तर्षयः (सात ऋषि) । पूर्वेषुकामशमी में समानाधिकरण समास होने से तत्पुरुषः समा० (१।२।४२) से कर्मधारय संज्ञा होकर ‘पूर्वा’ को पुवत् कर्मधारय० (६।३।४१) से पुंवद्भाव हुआ है। आद्गुण: (६।१।८४) से गुण एकादेश होकर पूर्वेषुकामशमी बना है । यहाँ से ‘दिक्सङ्ख्ये’ को अनुवृत्ति २।१।५० तक जाती है ॥ अशा तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च ।।२।११५०॥ तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे७।१।।च प्रास-तद्धितस्यार्थ स्तद्धितार्थः,षष्ठीतत्पुरुषः। तद्धितार्थश्च उत्तरपदञ्च समाहारश्च तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारम्, तस्मिन्, समाहारो २३ १७८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: द्वन्द्वः ।। अन०–दिक्सये, समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः॥ अर्थः-तद्धितार्थ = तद्धितोत्पत्तिविषये उत्तरपदे च परतः समाहारे चाभि घेये, दिक्सङ्ये सुबन्ते समर्थन समानाधिकरणवाचिना सुबन्तेन सह विभाषा समस्येते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-पूर्वस्यां शालायां भव:=पौर्वशाल: आपरशालः । संङ्ख्या-तद्धितार्थे–पञ्चानां नापितानाम् अपत्यम् = पाञ्चनापिति:; पञ्चसु कपालेषु संस्कृत:=पञ्चकपालः ॥ दिक-उत्तरपदे-पूर्वा शाला प्रिया यस्य = पर्वशालाप्रियः । सङ्ख्या-उत्तरपदे-पञ्च गावो धनं यस्य स पञ्चगवधनः; पञ्चनाव प्रियः ॥ समाहारे दिक्शब्दो नास्तीति नोदाह्रियते । सङ्ख्या-समाहारे-पञ्चानां पूलानां समाहारः पञ्चपूली, दशपूली; पञ्चानां कुमारीणां समाहारः पञ्चकुमारि, दशकुमारि; अष्टानाम अध्यायानां समाहारः अष्टाध्यायी।
- भाषार्थ:- [तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे] तद्धितार्थ का विषय उपस्थित होने पर, उत्तरपद परे रहते, तथा समाहार वाच्य होने पर [च] भी दिशावाची तथा सङ ख्यावाची सुबन्तों का समर्थ समानाधिकरणवाची सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । द सङख्यापूर्वो द्विगुः ॥२॥१॥५१॥ सङ्ख्यापूर्वः ११॥ द्विगु: १।१।। स०-सङ्ख्या पूर्वा यस्मिन् स सह्यापूर्व: बहुव्रीहिः ।। अर्थः तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे इत्यत्र सङ्ख्यापूर्वो य: समासः स द्विगु. संज्ञको भवति ॥ पूर्वसूत्रस्यायं शेषः।। उदा०-अत्र पूर्वसूत्रस्यैवोदाहरणानि बोद्धव्यानि । अन्यच्च - पञ्चेन्द्राण्यो देवता अस्य स्थालीपाकस्य पञ्चेन्द्रः, दशेन्द्रः ॥ of भाषार्थ:- तद्धितार्थोत्तरपदसमाहार में जो [सङ्ख्यापूर्वः] सङ ख्यापूर्व समास है, वह [द्विगुः] द्विगुसंज्ञक होता है ।। यह सूत्र पूर्वसूत्र का ‘शेष है ॥ पञ्चेन्द्रः की सिद्धि हम परि० १।२।४६ पर दिखा चुके हैं, शेष उदाहरण पूर्व सूत्र के ही हैं ॥ सामीपरुण कुत्सितानि कुत्सनैः ॥२॥१॥५२॥ कुत्सितानि ११३॥ कुत्सनैः ३३॥ अनु० -समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-कुत्सितवाचीनि सुबन्तानि कुत्सनवचनैः समानाधि करणः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥उदा०- वैयाकरण श्चासौ खसूचिश्च = वैयाकरणखसूचिः । याज्ञिककितव: । मीमांसकदुई रूढः ।। भाषार्थ:-[ कुत्सितानि ] कुत्सितवाची (निन्द्यवाची) सुबन्त [कुत्सनैः] कुत्सनवाची (निन्दावाची) समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प करके समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है ॥ पाद: ] द्वितीयोऽध्यायः १७६ यहाँ से पहले-पहले के सब सूत्र विशेषणं विशेष्येण बहुलम् (२।११५६) के अपवाद है । उस सूत्र से समास करते,तो “खसूचिः” आदि के विशेषणवाची उपसर्जन संजक होने से उनका पूर्व निपात होता। यहां परनिपात हो गया, यही पृथक् सूत्र बनाने का प्रयोजन है । ऐसा सर्वत्र इन सूत्रों में जानना चाहिये। उदा०-वैयाकरणखसूचिः (आकाश की ओर देखनेवाला वैयाकरण, अर्थात ऐसा वैयाकरण जो कि व्याकरण की बात पूछने पर प्रकाश की ओर देखने लगे, बताी न सके) । याज्ञिककितवः (ऐसा याज्ञिक जो यज्ञ के अनधिकारियों के यहाँ भी यज्ञ कराये) । मीमांसकदुदु रूढः (नास्तिक मीमांसक) ॥णयमा वाम , LTMENT यहां से ‘कुत्सन:’ की अनुवृत्ति २।११५३ तक जाती है । पापाणके कुत्सितैः ॥२।११५३।। समानाधिकरण तत्पुरुष - पापाणके १२२॥ कुत्सितैः ३।३।। स०-पापञ्च अणकञ्च पापाणके, इतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अनु०-कुत्सनैः, समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः -पाप अणक इत्यतो कुत्सनवाचिनौ सुबन्तौ कुत्सितवाचिभिः समाना धिकरणः सुबन्तै सह विभाषा समस्येते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ पूर्वसूत्रस्याप वादोऽयम् ।। उदा०-पाश्चासौ नापितश्च =पापनापितः, पापकुलाल: । अणक नापितः, अणककुलालः॥ भाषार्थः -[पापाणके ] पाप और अणक जो कुत्सनवाची सुबन्त, वे समाना धिकरण [कुत्सितैः] कुत्सितवाची सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है । यह सूत्र पूर्व सूत्र का अपवाद है । कुत्सनवाची पाप अणक शब्द थे ही, सो समास पूर्वसूत्र से हो ही जाता, पुनः प्रारम्भ पूर्वनिपा तार्य है ॥ उदा०-पापनापितः (पापी नाई), पापकुलालः । अणकनापितः (निन्दित नाई), अणककुलालः (निन्दित कुम्हार) ॥ समानाधिकरण पर 2_उपमानानि सामान्यवचनैः ।।२।१।५४॥ उपमानानि १३॥ सामान्यवचनैः ३॥३॥ स०-पामान्यम् उक्तवन्त इति समा न्यवचना:,तैः, तत्पुरुषः ॥ अनु० - समानाधिकरणेन, तत्पुरुष., विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-उपमानवाचीनि सुबन्तानि समानाधिकरणैः सामान्यवचन: सुबन्तैः सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उपमीयते अनेन इति उपमानम् ॥ उदा०-घन इव श्याम:=घनश्यामो देवदत्तः । शस्त्री इव श्यामा = शस्त्रीश्यामा देवदत्ता॥ भाषार्थ:-[उपमानानि ] उपमानवाची सुबन्त [सामान्यवचनैः] सामान्यवाची १८० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः उप समाविकार समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ जिस वस्तु से किसी की उपमा दी जाये,वह वस्तु उपमान होती है। तथा जिसको दी जाय, वह उपमेय होता है। उदाहरणों में घन तथा शस्त्री उपमान, व देवदत्त तथा देवदत्ता उपमेय हैं। जिस विशेष गुण को लेकर उपमेय में उपमान का साम्य दिखाया जाये,वह सामान्य =साधारण धर्म कहलाता है। यथा पूर्वोक्त एक उदाहरण में शस्त्री के श्यामत्व गुण का साम्य देवदत्ता में दिखाया है। श्यामत्व गुण से विशिष्ट श्यामा है, सो श्यामा सामान्यवचन है । अतः उसके साथ समास हुआ है । जो शब्द उनकी समानता को बताये, वह तद्वाचक शब्द कहलाता है, जैसे-इव, यथा । ये ४ बातें उपमालङ्कार में होती हैं । उदा०-घनश्यामो देवदत्तः (बादलों की तरह काला देवदत्त)। शस्त्रीश्यामा देवदत्ता (शस्त्री पारी के समान जो काली देवदत्ता स्त्री) तथा उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याप्रयोगे ॥२॥१॥५५।। उपमितं ११॥ व्याघ्रादिभिः ३।३॥ सामान्याप्रयोगे ७१।। स०–व्याघ्र प्रमादिर्येषां ते व्याघ्रादयः, तै:, बहुव्रीहिः। न प्रयोगः अप्रयोगः, सामान्यस्य अप्रयोग: सामान्याप्रयोगः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समास: ॥ अर्थः-सामान्यस्य =साधारणधर्म वाचिशब्दस्य अप्रयोगे=अनुच्चारणे सति, उपमितं =उपमेयवाचि सुबन्तं समानाधि करणः व्याघ्रादिभिः सुबन्तः सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-पुरुषोऽयं व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः । पुरुषोऽयं सिंह इव=पुरुषसिंहः ॥
- भाषार्थ:-[ सामान्याप्रयोगे ] साधारणधर्मवाची शब्द के अप्रयोग= अनुच्चा रण होने पर [उपमितम्] उपमेयवाची सुबन्त का समानाधिकरण [व्याघ्रादिभिः] व्याघ्रादि सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता हैं । पूर्वसूत्र का यह अपवादसूत्र पूर्वनिपातार्थ है ॥ ___उदा०-पुरुषव्याघ्रः (व्याघ्र के समान शूरवीर पुरुष); पुरुषसिंहः ॥ उदाहरण में पुरुष उपमेय,और व्याघ्र उपमान है। साधारणधर्म शूरता है अर्थात शूरत्व को लेकर उपमा दी गई । सो उसका यहाँ अप्रयोग है जहाँ प्रयोग होगा वहाँ समास नहीं होगा।
- विशेषणं विशेष्येण बहुलम् ।।२।१॥५६॥ विशेषणं ॥१॥ विशेष्येण ३१॥ बहुलम् ११॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:–विशेषणवाचि सुबन्तं विशेष्यवाचिना पादः] शा द्वितीयोऽध्याय समानाधिकरण has १८१ समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह बहुलं समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा० नीलञ्च तदुत्पलञ्च = नीलोत्पलम् । रक्तोत्पलम्॥ बहुलवचनात् क्वचित् नित्यसमास एव-कृष्णसर्पः,लोहितशालिः ॥ न भाषार्थ:-[विशेषणम] विशेषणवाची सुबन्त [विशेष्येण] विशेष्यवाची समानाधिकरण सुबन्त के साथ [बहुलम्] बहुल करके समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । ‘बहुल’ की व्याख्या हम २॥१॥३१में कर चुके हैं ।। जो किसी की विशेषता को बताये, वह विशेषण अर्थात् भेवक होता है, तथा जिसको विशेषता बताये वह विशेष्य होता है । उदा०-नीलोत्पलम् (नीला कमल) । रक्तोत्पलम् (लाल कमस)। कृष्णसर्पः ( काला सांप ) । लोहितशालिः ( लाल धान ) ॥ उदाहरण में नील उत्पल की विशेषता को बताता है, अतः वह विशेषण है । तथा उत्पल विशेष्य है, सो समास हो गया है। र समानाधिकर। ९०६ यही यो यहाँ से “विशेषणं विशेष्येण” की अनवत्ति २११५७ तक जाती है ॥ पूट-अपर-प्रा-चा-बजाना-समाज-mi-mum पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीराश्च ॥२॥१॥५७॥ राव पूर्वापर … वीरा: २३॥ च अ० ॥ स०-पूर्वापर. इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-विशेषणं विशेष्येण, समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-पूर्व, अपर, प्रथम, चरम, जघन्य, समान, मध्य, मध्यम, वीर । इत्येते विशेषणवाचिनः सुबन्ताः समानाधिकरणैः विशेष्यवाचिभिः सुबन्तः सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-पूर्वश्चासौ पुरुषश्च =पूर्वपुरुषः। अपरपुरुषः । प्रथमपुरुष: । चरमपुरुषः। जघन्यपुरुषः । समानपुरुष:। मध्यपुरुषः। मध्यमपुरुष: । वीरपुरुषः॥ 6) भाषा):- [पूर्वापरप्रथमचरमजघन्यसमानमध्यमध्यमवीरा:] पूर्व, अपर,प्रथम, चरम, जघन्य, समान, मध्य, मध्यम, वीर इन विशेषणवाची सुबन्तों का [च] भी विशेष्यवाची समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । पूर्वसूत्र से ही समास सिद्ध था, पुनः यह सूत्र प्रपञ्चार्थ है ॥ उदा.-पूर्वपुरुषः ( पहला पुरुष ) । अपरपुरुषः ( दूसरा पुरुष ) । प्रथम पुरुष: । चरमपुरुषः (अन्तिम पुरुष ) । जघन्यपुरुषः (क्रूर पुरुष )। समानपुरुषः ( समान पुरुष ) । मध्यपुरुष: ( बीच का प्रादमी )। मध्यमपुरुषः । वीरपुरुषः ( वीर पुरुष ) ॥ मारामारीक पिकाला १८२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती प्रथमः]] समानाकर नालन श्रेण्यादयः कृतादिभिः ॥२॥१॥५८।। अवतार श्रेण्यादयः १३॥ कृतादिभिः ३३॥ स०-श्रेणि: आदिर्येषां ते श्रेण्यादय:, बहुव्रीहिः । कृत आदिर्येषां ते कृतादयः, तैः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः॥ अर्थः-श्रेण्यादयः सुबन्ता: समानाधि करणः कृतादिभिः सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा० अश्रेणयः श्रेणयः कृताः=श्रेणिकृताः। एककृताः॥ भाषार्थ:-[श्रेण्यादयः] श्रेण्यादि सुबन्त [कृतादिभिः] कृतादि समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है। उदा.-श्रेणिकृताः (जो पंक्ति में नहीं थे, उन्हें पंक्ति में किया)। एककृता (जो एक नहीं थे, उनको एक किया गया)। Aमानाधिकरण तत्पुरुष जलाम क्तन न विशिष्टेनानञ् ॥२॥१॥५६॥ - क्तेन ३॥१॥ नविशिष्टेन ३१॥ अनज ११॥ स०-नत्रा एव विशिष्ट: नविशिष्टः, तेन, बहुव्रीहिः। न विद्यते नञ् यस्मिन् सोऽनन , बहुव्रीहिः॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ: अनञ् क्तान्तं सुबन्तं नविशिष्टेन क्तान्तेन समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह विकल्पेन समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०- कृतं च तदकृतं च= कृताकृतम् । भुक्ताभुक्तम् । पीतापीतम् ॥ PER एक भाषार्थ:- [अनञ्] अनञक्तान्त सुबन्त [नविशिष्टेन] नविशिष्ट (अर्थात् जिस शब्द में न ही विशेष हो, अन्य सब प्रकृतिप्रत्यय आदि द्वितीय पद के तुल्य हों) समानाधिकरण [क्तेन] क्तान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा.- कृताकृतम् (जो किया न किया बराबर हो)। भुक्ताभुक्तम् (जो खाया न खाया एक हो) । पीतापीतम् ॥ उदाहरण ‘कृताकृतम्’ प्रावि में पूर्वपद ना रहित, तथा उत्तरपद ना विशिष्ट है। उत्तरपद में पूर्वपद से केवल नञ् ही विशेष है, अन्य सब प्रकृति प्रत्ययादि तुल्य हैं । समानाधिकरण तपास सम प सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः पूज्यमानः ॥२।१।६०॥ का सन्महतपरमोत्तमोत्कृष्टाः १॥३॥ पूज्यमानः ३३॥ स०-सत् च महत् च परमश्च उत्तमश्च उत्कृष्टश्च सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टाः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः- सत्, महत्, पाद:] द्वितीयोऽध्यायः समानाधिकरण तत्पुरूष १८२ परम, उत्तम, उत्कृष्ट इत्येते सुबन्ताः समानाधिकरणः पूज्यमानः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-सन् चासौ पुरुषश्च = सत्पुरुषः। महापुरुषः । परमपुरुषः । उत्तमपुरुष: । उत्कृष्टपुरुषः ।। भाषार्थ:-[ सन्महत्परमोत्तमोत्कृष्टा: ] सत्, महत्, परम, उत्तम, उत्कृष्ट सुबन्त समानाधिकरण [पूज्यमानैः] पूज्यमानवाची (पूजा के योग्य) सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है । ये सब सूत्र २।१।५६ के प्रपञ्च हैं । उदाo–सत्पुरुषः (सज्जन पुरुष) । महापुरुषः । परमपुरुषः (परम पुरुष) । उत्तमपुरुषः । उत्कृष्टपुरुष: (अच्छा पुरुष)॥ महापुरुषः में महत् को प्रान्महत: समानाधिकरण. (६।३।४४) से प्रात्व होता है, जो कि अलोन्त्यस्य (१।१।५१) से अन्त्य अल् के त को हुआ है ॥ रामानाधिकरण पर वृन्दारकनागकुञ्जरैः पूज्यमानम् ।।२।१।६१॥ - वृन्दारकनागकुञ्जरैः ३॥३॥ पूज्यमानम् ११॥ स०-वृन्दारकश्च नागश्च कुञ्जरश्च वृन्दारकनागकुञ्जराः, तः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-समानाधि करणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः- पूज्य मानवाचि सुबन्तं वृन्दारक नाग कुञ्जर इत्येतैः समानाधिकरणैः सुबन्तै: सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा.- गोश्चासौ वृन्दारकश्च = गोवृन्दारकः, अश्व वृन्दारकः । गोनागः, अश्वनागः । गोकुञ्जरः, अश्वकुञ्जरः॥ a भाषार्थ:- [पूज्यमानम् ] पूज्यमानवाची सुबन्त [वृन्दारकनागकुञ्जरैः] वृन्दा रक नाग कुञ्जर इन समानाधिकरणवाची सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ गो अश्व पूज्यमानवाची थे, सो समास होकर उपसर्जन पूर्वम् (२।२।३०) से इनका पूर्व निपात हुआ है। उदा०-गोवृन्दारकः (उत्तम बैल), अश्ववृन्दारकः । गोनागः (उत्तम बल), अश्वनागः । गोकुञ्जरः (उत्तम बल),अश्वकुञ्जरः॥ रामालाकार नमो भए कतरकतमौ जातिपरिप्रश्ने ॥२।१।६२॥ कतरकत मौ १२॥ जातिपरिप्रश्ने ७१॥ स०-कतरश्च कतमश्च कतरकतमी, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । जाते: परित: प्रश्नः, जातिपरिप्रश्नः, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अन– समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-जातिपरि प्रश्नेऽयं वर्तमानौ कतर कतमशब्दौ समर्थन समानाधिकरणेन सुबन्लेन सह विभाषा १८४ या अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः समस्यते तत्पुरुषश्च’ समासो भवति ॥ उदा०-कतर: कठः= कतरकठः, कतर कलापः । कतमकठः, कतमकलापः ॥ भाषार्थ:- [जातिपरिप्रश्ने] जातिपरिप्रश्न, अर्थात् जाति के विषय में विविध प्रश्न में वर्तमान जो [कतरकतमौ] कतर कतम शब्द, वे समानाधिकरणवाची समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं और वह तत्पुरुष समास होता है।। उदा०-कतरकठः (इन दोनों में कौन कठ है), कतरकलापः । कतमकठः (इन सब में कौन कठ है), कतमकलापः ।। समानाधिकरण तत्पुरुष कि क्षेपे ॥२।१।६३।। किम् १।१॥ क्षेपे ७१॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-किम् इत्येतत सुबन्तं क्षेपे गम्यमाने समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-कथंभूतः सखा =किसखा योऽभिद्र ह्यति, किराजा यो न रक्षति ।। भाषार्थ:-[किम् ] कि सुबन्त का [क्षेपे] निन्दा गम्यमान होने पर समाना धिकरणवावी समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा.-किसखा यो अभिद्रुह्यति (वह कैसा मित्र है अर्थात् मित्र नहीं है, जो द्रोह करता है ), किराजा यो न रक्षति (वह कैसा राजा है, जो प्रजा की रक्षा नहीं करता) ॥ पोटा धुवति स्तोक कतिपय गरिनुनेछ तप्कायवी समानाधिकरला लत्पुरुन पोटायुवतिस्तोककतिपयगष्टिधेनुवशावेहद्वष्कयणीप्रवक्तृश्रोत्रि Halh) प्रोजिम अायाध्याकधूतैर्जातिः ।।२।१।६४॥
- पोटायुवति.. धूतः श। जातिः १॥१॥ स०-पोटा च युवतिश्च स्तोकश्च कतिपयं च गृष्टिश्च धेनुश्च तशा च वेहच्च वष्कयणी च प्रवक्ता च श्रोत्रियश्च अध्यापकश्च धूर्तश्च पोटा. धूर्ताः, तैः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०–समाना धिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्. सह सुपा,समासः ॥ अर्थः-पोटा, युवति, स्तोक, कतिपय, गृष्टि, धेनु, वशा, वेहद, वष्कयणी, प्रवक्तृ, श्रोत्रिय, प्रध्यापक, धूर्त इत्येतैः समानाधिकरण: सुबन्तैः सह जातिवाचि सुबन्तं विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०- इभा चासौ पोटा च= इभपोटा। इभयुवतिः। अग्निस्तोकः । उदश्वित कतिपयम् । गोगृष्टिः । गोधेनुः । गोवशा । गोवेहत् । गोवष्कयणी। कठ प्रवक्ता । कठश्रोत्रियः । कठाध्यापक: । कठघूर्तः ॥ भाषार्थ:-[जातिः] जातिवाची जो सुबन्त वह [पोटायुवति ….. धूर्त:] पादः] द्वितीयोऽध्यायः १८५ पोटा युवति आदि समानाधिकरण समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है । इभ, गो, कठ आदि जातिवाची सुबन्त हैं । यहाँ पर जाति विशेष्य है, पोटादि शब्द विषशेण हैं, सो २१११५६ से समास प्राप्त था । पुनर्वचन विशेष्यवाचियों का पूर्वनिपात (२।२।३०) हो, विशेषण वाचियों का नहीं, इसलिये है ।। उदा०–इभपोटा (वन्ध्याहथिनी) । इभयुवति: (नौजवान हथिनी) । अग्नि स्तोकः (थोड़ी अग्नि)। उदश्वित्कतिपयम् (कुछ मट्ठा) । गोगृष्टिः ( एकबार प्रसूता गौ) । गोधेनुः (तत्काल ब्याई हुई गौ) । गोवशा (वन्ध्या गौ)। गोवेहत् ( गर्भ पातिनी गौ)। गोवष्कयणी (तरुण हैं बछड़े जिसके ऐसी गौ) । कठप्रवक्ता (कठ व्याख्याता)। कठश्रोत्रियः (कठ वेद पढ़नेवाला)। कठाध्यापकः (कठ अध्यापक)। कठधूतः (कठ धूर्त) ।। यहाँ से ‘जाति:’ की अनुवृत्ति २।१६५ तक जायेगी। २ प्रशंसावचनैश्च ॥२ सभामा थकर मष र प्रशंसावचनैः ३।३॥ च अ० ॥ अनु०–जाति:, समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप,सह सुपा, समासः ।। अर्थः-जातिवाचि सुबन्तं प्रशंसावचनैः समाना धिकरणैः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा० ब्राह्मणश्चासौ तेजस्वी च = ब्राह्मणतेजस्वी । ब्राह्मणशरः। गोप्रकाण्डम् । गोमत ल्लिका । गोमचिका || का भाषार्थ:-जातिवाची सुबन्त [प्रशंसावचनैः ] प्रशंसावाची समानाधिकरण सुबन्तों के साथ[च] भी विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। प्रकाण्ड, मतल्लिका आदि प्रशंसावाची शब्द हैं ।। जगालाकात युवा खलतिपलितवलिनजरतीभिः ।।२।१।६६॥ तत्पर युवा ११शा खलतिपलितवलिनजरतीभिः ३।३।। स०-खलतिश्च पलितश्च वलिनश्च जरती च खलति. जरत्यः, ताभिः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु०-समाना धिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा: सुप्, सह सुपा, समास: । अर्थ:-युवशब्द: खलति, पलित, वलिन, जरती इत्येतैः समानाधिकरणः सुबन्तैः सह समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-युवा खलतिः=युवखलतिः । युवा पलित:=युबपलितः । युवा वलिन:= युववलिन: । युवति: जरती= युवजरती ॥ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: ANG भाषार्थ:-[यवा] युवन् शब्द [खलतिपतितवलिनजरतीभिः] खलति, पलित, वलिन, जरती इन समानाधिकरण सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा०-युवखलति: (नौजवान गजा पुरुष) । युवपलितः (नौजवान सफे बालोंवाला)। युववलिन: ( नौजवान झुर्रावाला) । युवजरती (नौजवानी में ही बूढ़ी हुई स्त्री) ॥ ‘युवन् सु खलति सु, इस अवस्था में समास होकर नलोपः प्राति० (८।२।७) से युवन् के न का लोप हो गया, शेष पूर्ववत् है ॥ स्त्रीलिङ्ग में ‘युवति खलती’ तथा ‘युवति जरती’ का समास होने पर १।२।४२ से कर्मधारय संज्ञा होकर, पुवत कर्मधारय० (६।३।४०) से पुवद्भाव होकर युव रहा गया। शेष पूर्ववत् समझे। पाणानाधिकर। तत्पुरष कृत्यतुल्याख्या प्रजात्या ॥२।११६७।।
- कृत्यतुल्याख्याः १।३।। अजात्या ३३१॥ स०-तुल्यमाचक्षत इति तुल्याख्याः, उपपदतत्पुरुषः । कृत्याश्च तुल्याख्याश्च कृत्यतुल्याख्याः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः ।। अर्थः-कृत्यप्रत्यया. न्ता: तुल्यपर्यायाश्च सुबन्ता प्रजातिवाचिना समानाधिकरणेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते,तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-भोज्यं चादः उष्णञ्च =भोज्योष्णम् । भोज्यलवणम् । पानीयशीतम् ॥ तुल्याख्या:-तुल्यश्वेतः, तुल्यमहान् । सदृश्श्वेतः, सदृशमहान् ॥ भाषार्थ:- [कृत्यतुल्याख्याः] कृत्यप्रत्ययान्त सुबन्त, तथा तुल्य के पर्यायवाची सुबन्त [अजात्या] प्रजातिवाची समानाधिकरण समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा०-भोज्योष्णम् (खाने योग्य गर्म पदार्थ) । भोज्यलवणम् (भोजन योग्य नमकीन पदार्थ) । पानीयशीतम् (पीने योग्य शीतल पदार्थ) ॥ तुल्य की आख्यावाले–तुल्यश्वेतः (बराबर सफेद), तुल्यमहान् (बराबर महान्) । सदृश श्वेतः, सदृशमहान् ॥ भुजधातु से ण्यत् ( ३।१।१२४ ) प्रत्यय होकर भोज्य, तथा पा धातु से अनीयर् प्रत्यय होकर पानीय बना है । ये प्रत्यय कृत्याः ( ३१६५ ) से कृत्यसंज्ञक हैं । उष्ण लवणादि शब्द प्रजातिवाची हैं, सो पूर्ववत् समास हो गया है। समानाधिकरण तत्पुरुष वर्णो वर्णन ॥२।१।६८॥ वर्णः १११॥ वर्णेन ३।१॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-वर्णविशेषवाचि सुबन्तं वर्णविशेषवाचिना समाना पाद: ] 1 द्वितीयोऽध्यायः १८७ धिकरणेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा० कृष्णश्चासौ सारङ्गश्च = कृष्णसारङ्गः। लोहितसारङ्गः। कृष्णशबल:। लोहितशबलः॥ भाषार्थ:- [वर्णः] वर्णविशेषवाची सुबन्त [वर्णेन] वर्णविशेषवाची समाना धिकरण सुबन्त के साथ समास को विकल्प से प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ उदा० –कृष्णसारङ्गः (काला और चितकबरा) । लोहितसारङ्गः (लाल और चितकबरा) । कृष्णशबलः (काला और चितकबरा)। लोहितशबलः ॥ कुमारः श्रमणादिभिः ॥२।१।६६॥ सपानाधिक २०तत्पर०५ कुमार: ११॥ श्रमणादिभिः ३।३॥ स०-श्रमणा आदिर्येषां ते श्रमणादयः,तैः, बहुव्रीहिः ॥ अनु० -समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-कुमारशब्द: समानाधिकरणैः श्रमणादिभिः समर्थैः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-कुमारी चासौ श्रमणा च= कुमारश्रमणा । कुमारप्रव्रजिता ॥ राश भाषार्थ:- [कमारः] कुमार शब्द समानाधिकरण [श्रमणादिभिः] श्रमणादि समर्थ सुबन्तों के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है ॥ र उदा०-कुमारश्रमणा (कमारी तपस्विनी) । कुमारप्रव्रजिता (कुमारी संन्यासिनी)। सूत्र २।१।६६ की सिद्धि के समान ही यहाँ भी पुबद्भाव हुआ है ॥ चतुष्पादो गभिण्या ॥२।१७०॥ समानाधिकरण पुस्तष चतुष्पादः १।३।। भिण्या ३१॥ स०-चत्वार: पादा यासां ता: चतुष्पादः, बहुव्रीहिः । अनु-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः विभाषा,सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थ:-चतुष्पाद्वाचिनः सुबन्ताः समानाधिकरणेन गर्भिणीशब्देन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०-गौश्चासौ गर्भिणी च= गोभिणी । महिषगर्भिणी । अजगर्भिणी ॥ीकर को भाषार्थः- [चतुष्पाद:] चतुष्पादवाची (चार पैर हैं जिनके, पशु आदि) जो सुबन्त, वह समानाधिकरण [गभिण्या] भिणी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है ॥ 3 उदा०–गोभिणी (गर्भिणी गाय)। महिषभिणी (गभिणी भैंस) । अजगर्भिणी (गभिणी बकरी)॥ CELLERS १८८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: 421मानाधिकरण सुरूष ‘मयूरव्यसकादयश्च ।।२।१७१॥ मयूरव्यंसकादयः ११३॥ च अ० ॥ स०-मयूरव्यंसक आदिर्येषां, ते मयूरव्यं सकादयः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-समानाधिकरणेन, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः –मयूरव्यंसकादयो गणशब्दा: समानाधिकरणे तत्पुरुषसञका भवन्ति, समुदाया एव निपात्यन्ते ॥ उदा०-मयूरव्यंसकः । छात्रव्यंसकः ।। भाषार्थ:- [मयूरव्यंसकादय:] मयूरव्यसकादि गणपठित समुदायरूप शब्द [च] भी समानाधिकरण तत्पुरुषसंज्ञक होते हैं । उदा०-मयूरव्यं सकः (बहुत चालाक मोर) । छात्रव्यंसकः(चालाक विद्यार्थी)।। ॥ इति प्रथम: पाद: ।। द्वितीयः पादः साक्षात पीरिया एकाधिकरण तत्पुरुष पूर्वोपराधरोत्तरमेकदेशिनकाधिकरणे ॥२॥२॥१॥ पूर्वापराघरोत्तरम् १।१।। एकदेशिना ३१ एकाधिकरणे ७१ ( तृतीयार्थे सप्तमी) ।। स०-पूर्व च अपरं च अधरं च उत्तरं च पूर्वापराघरोत्तरम्, समाहारो द्वन्द्वः । एकं च तदधिकरणम् च एकाधिकरणम्, तस्मिन, कर्मधारयस्तत्पुरुषः । एकदेशोऽस्यास्तीति एकदेशी,तेन एकदेशिना ।। अनु०-तत्पुरुषः,विभाषा सुप्,सह सुपा, समासः ।। अर्थः-पूर्व, अपर, अधर, उत्तर इत्येते सुबन्ता: एकाधिकरणवाचिना= एकद्रव्यवाचिना एकदेशिना समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते,तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। षष्ठीसमासापवादः ॥ उदा०-पूर्वं कायस्य =पूर्वकायः, नद्या: पूर्व = पूर्वनदी। अपरं कायस्य =अपरकाय:, वृक्षस्य अपरं =अपरवृक्षम् । कायस्य अधरं = अधरकायः, गृहस्य अधरं =अधरगृहम् । उत्तरं कायस्य = उत्तरकायः॥ 4: भाषार्थ:-[पूर्वापराधरोत्तरम् ] पूर्व, अपर, अधर, उत्तर ये सुबन्त [ एकाधि करणे] एकाधिकरणवाची एकद्रव्यवाची [एकदेशिना] एकदेशी ( = अवयवी) समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह समास तत्पुरुषसंज्ञक होता है ।। एकदेश=अवयव जिसमें हो वह एकदेशी कहलाता है, अर्थात समुदाय ( =अवयवी ) । अवयवी के एक द्रव्य होने पर ही समास होगा, अनेक द्रव्य होने पर नहीं । जैसे ‘छात्राणां पूर्वम्’ में अवयवी छात्र अनेक हैं, अतः समास नहीं होगा। Hot उदा०-पूर्वकायः (शरीर का पूर्वभाग), पूर्वनदी । अपरकायः (शरीर का अपर भाग), अपरवृक्षम् । अधरकायः (शरीर का निचला भाग), अधरगृहम् । पादः] द्वितीयोऽध्यायः होश १८६ उत्तरकायः (शरीर का उत्तर भाग) ॥ उदाहरणों में काय नदी इत्यादि एकदेशी हैं । क्योंकि उन्हीं का अवयव पूर्व उत्तर है, सो अवयववाले हैं । और एक अधिकरण । (= द्रव्य) भी हैं अनेक नहीं ॥ यह सूत्र षष्ठीसमास का अपवाद है। षष्ठीसमास होता, तो काय वा नदी का उपसर्जनं पूर्वम् (२।२।३०) से पूर्वनिपात होता, अब पर निपात ही होता है । यहाँ से ‘एकदेशिनकाधिकरणे’ को अनुवृत्ति २।२।३ तक जायेगी। रस का अधू नपुसकम् ।।२।२।२।। एकाधिकरण) तत्पुरुष ___ अधम् ११॥ नपुसकम् १॥१॥ अनु०-एकदेशिनकाधिकरणे,तत्पुरुषः, विभाषा, सुप,सह सुपा, समासः ।। अर्थ:-नपुंसकलिङ्ग वर्तमानो योऽर्द्धशब्दः, स एकाधिकरण वाचिना एकदेशिना सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। समप्रविभागे पद्ध शब्दो नपुंसके वर्त्तते, ततोऽन्यत्र पुल्लिङ्गः ॥ अयमपि षष्ठीसमासा पवादः ॥ उदा०–पिप्पल्या: अर्द्धम् = अद्ध पिप्पली । अर्द्ध कोशातकी ॥ भाषार्थ:- [अर्द्धम् ] अर्द्ध शब्द [नपुंसकम् ] नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान हो,तो. एकाधिकरणवाची एकदेशी सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। अर्द्ध शब्द प्राधे को कहने में नपुंसकलिङ्ग होता है, उससे अन्यत्र पुंल्लिङ्ग होता है । यह भी षष्ठीसमास का अपवादसूत्र है ।। उदा०–अर्द्ध पिप्पली (पिप्पली का प्राधा) । अर्द्धकोशातकी (आधी तुरई)॥ तो द्वितीयतृतीयचतुर्थतुर्याण्यन्यतरस्याम् ।।२।२॥३॥ तत्पुरुष द्वितीयततीयचतुर्थतुर्याणि १॥३॥ अन्यतरस्याम अ०॥ स०-द्वितीय० इत्यत्रे तरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-एकदेशिनकाधिकरणे, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः॥ अर्थः-द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, तुर्य इत्येते सुबन्ताः एकाधिकरणवाचिना एकदेशिसुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। षष्ठीसमासा पवादोऽयम् ॥ अन्यतरस्याम् ग्रहणेन पक्षे सोऽपि भवति, महाविभाषया तु विग्रहवाक्य विकल्पः ॥ उदा०-द्वितीयं भिक्षायाः द्वितीयभिक्षा | षष्ठीस मासपक्षे-भिक्षा द्वितीयम् । तृतीयं भिक्षायाः तृतीयभिक्षा, भिक्षातृतीयम् । चतुर्थं भिक्षायाः= चतुर्थ भिक्षा, भिक्षाचतुर्थम् । तुयं भिक्षायाः=तुर्य भिक्षा, भिक्षातुर्यम् ॥ भाषार्थ:-[द्वितीयतृतीयचतुर्थतुर्याणि] द्वितीय, तृतीय,चतुर्थ, तुर्य सुबन्त एका धिकरणवाची एकदेशी सुबन्त के साथ [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है | m a यह सूत्र षष्ठीसमास का अपवाद है। महाविभाषा का अधिकार पा रहा है, अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः उससे विग्रहवाक्य भी रहेगा । और ‘अन्यतरस्याम्’ कहने से पक्ष में षष्ठीसमास भी होगा । षष्ठीसमास होने पर षष्ठयन्त शब्द की उपसर्जन संज्ञा होने से पूर्व निपात होगा,यही विशेष है ॥ TER स उदा.-द्वितीयभिक्षा (भिक्षा का दूसरा भाग), भिक्षाद्वितीयम् । तृतीयभिक्षा, भिक्षातृतीयम् । चतुर्थभिक्षा, भिक्षाचतुर्थम् । तुर्य भिक्षा (भिक्षा का चौथा भाग), भिक्षातुर्यम् ।। TM यहाँ से ‘अन्यतरस्याम्’ की अनुवृत्ति २।२।४ तक जायेगी। उत्पलम प्राप्तापन्ने च द्वितीयया ॥२।२।४॥ प्राप्तापन्ने १३२॥ च अ०॥ द्वितीयया ३१॥ स०–प्राप्तश्च प्रापन्न च प्राप्तापन्ने, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अन्यतस्याम्, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समास:॥ अर्थः-प्राप्त प्रापन्न इत्येतौ सुबन्तौ द्वितीयान्तेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्येते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०—प्राप्तो जीविका =प्राप्त जीविकः । द्वितीयासमासपक्षे–जीविकाप्राप्तः। आपन्नो जीविकाम् =अापन्नजीविकः, जीविकापन्नःPE मा आमा भाषार्थ:-[प्राप्तापन्ने] प्राप्त प्रापन्न सुबन्त [च] भी [द्वितीयया] द्वितीयान्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है। यह सूत्र द्वितीयातत्पुरुष (२।१।२३) का अपवाद है । उदाहरण में एक विभक्ति चापूर्वनिपाते (१।२।४४) से जीविका शब्द की उपसर्जनसंज्ञा होकर गोस्त्रियोरुपर्जनस्य (१।२।४८) से ह्रस्व हो जाता है । उदा०-प्राप्तजीविकः (जीविका को प्राप्त किया) । द्वितीयासमास-पक्ष में - जीविकाप्राप्तः । प्रापन्नजीविकः (जीविका को प्राप्त किया), जीविकापन्नः ॥ तत्परुष सह कालाः परिमाणिना ।।२।२।५।। _कालाः ११३॥ परिमाणिना ३३१॥ अन०-तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ परिमाणस्थास्तीति परिमाणी, तेन । अर्थ-परिमाणवाचिन: कालशब्दाः परिमाणिवाचिना सुबन्तेन सह विभाषा समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-मासो जातस्य =मास जातः । संवत्सरजात: । द्वघहजातः । यहजात: ॥ भाषार्थ:-परिमाणवाची [काला:] काल शब्द [परिमाणिना] परिमाणिवाची सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है।। पाद:] द्वितीयोऽध्यायः १६१ यह सूत्र भी षष्ठीसमास का अपवाद है ॥ जात शब्द परिमाणी है, अर्थात् परिमाण =मास या संवत्सर का अवधारण उसी में है । यहाँ परिमाणी के साथ समास कहने से सामर्थ्य से कालवाची शब्द भी परिमाण ही होंगे ।। उदा०-मास जातः (एक महीने का पैदा हुआ) । संवत्सरजातः ( एक साल का पैदा हुआ )। द्वयहजातः । व्यहजातः ।।शावर जो ना ॥२।२।६॥ न तत्पुरुष न अ० ॥ अनु-तत्पुरुषः,विभाषा सुप,सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-नन् । इत्येतदव्ययं समर्थेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ।। उदा०—न ब्राह्मण:=अब्राह्मणः । अक्षत्रियः ।। दाय starty भाषार्थ:-[नञ् ] नञ् इस अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । उदा०-अब्राह्मणः (जो ब्राह्मण नहीं) । अक्षत्रियः (जो क्षत्रिय नहीं) ॥ ईषदकृता ॥२॥२७॥ तत्पुरुष ईषत् अ० ॥ अकृता ३१॥ अनु०–तत्पुरुषः,विभाषा, सुप्,सह सुपा,समासः ।। अर्थः- ‘ईषत्’ इत्ययं शब्दोऽकृदन्तेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-इषच्चासौ कडारः= ईषत्कडारः । ईषत पिङ्गलः । ईषद्विकटः । ईषदुन्नतः॥ भाषार्थ:-[ईषत् ] ईषत् शब्द [अकृता] अकृदन्त सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा०- ईषत्कडारः (थोड़ा पीला)। ईषत्पिङ्गलः (योड़ा पीला)। ईषद् विकटः (थोड़ा बिगड़ा हुआ)। ईषदुन्नतः (थोड़ा उन्नत) ॥ शो षष्ठी ॥२।२।८॥ ठ तत्परूष कि षष्ठी १।१॥ अनु०-तत्पुरुषः, विभाषा, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः षष्ठयन्तं सुबन्तं समर्थन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-राज्ञः पुरुषः=राजपुरुषः । ब्राह्मणकम्बलः॥ भाषार्थ:-[षष्ठी] षष्ठयन्त सुबन्त समर्थ सुबन्त के साथ विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है | सिद्धियाँ परि० १।२।४३ में देखें। यहाँ से ‘षष्ठी’ की अनुवृत्ति २।२।१७ तक जायेगी। १९२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [द्वितीयः स तत्परषा याजकादिभिश्च ।।२।२।६।। याजकादिभिः ३।३।। च अ० ॥ स०-याजक आदिर्येषां ते याजकादयः, तैः याजकादिभिः, बहुव्रीहिः ।। अनु०-षष्ठी, तत्पुरुषः, विभाषा, सुप, सह सुपा, समासः।। अर्थः–षष्ठयन्तं सुबन्तं याजकादिभिः समथैः सुबन्तैः सह विभाषा समस्यते, तत्पुरुष श्च समासों भवति ।। उदा०–ब्राह्मणस्य याजक:=ब्राह्मणयाजकः । ब्राह्मणपूजकः ॥ भाषार्थ:-षष्ठयन्त सुबन्त [याजकादिभिः] याजकादि सुबन्तों के साथ [च] भी विकल्प से समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । समास पूर्व सूत्र से ही प्राप्त था, पुनर्वचन तृजकाभ्यां कर्तरि(२१२।१५) से निषेध प्राप्त होने पर पुनः षष्ठीसमास प्राप्त कराने के लिये है ॥ उदा० - ब्राह्मणयाजकः (ब्राह्मण का यज्ञ करानेवाला)। ब्राह्मणपूजकः ( ब्राह्मण की पूजा करने वाला)॥ प ण [षष्ठीसमास-निषेध-प्रकरणम् ] ०५२ निषेप न निर्धारणे ॥२।२।१०॥ न अ० ॥ निर्धारणे ७।१॥ अनु०-षष्ठी, तत्पुरुष: सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-निर्धारणे वर्तमानं षष्ठयन्तं सुबन्तं समर्थेन सुबन्तेन सह न समस्यते ॥ उदा०-मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः । कृष्णा गवां सम्पन्नक्षीरतमा। धावन्नध्वगानां शीघ्रतमः ॥ _भाषार्थ:-जाति गुण अथवा क्रिया के द्वारा समुदाय में से एक के पृथक करने को ‘निर्धारण’ कहते हैं ॥ [निर्धारणे] निर्धारण में वर्तमान षष्ठयन्त सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास [न] नहीं होता है ।। यह सारा प्रकरण षष्ठी (२।२।८) सूत्र से समास प्राप्त होने पर निषेध के लिये है ।। उदा०-मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः (मनुष्यों में क्षत्रिय शूरतम होते हैं)। कृष्णा गवां सम्पन्नक्षीरतमा (गौओं में काली गौ उत्तम और खूब दूध देनेवाली होती है) । धावन्नध्वगानां शीघ्रतमः (रास्ता चलनेवालों में दौड़नेवाला शीघ्रगामी होता है) ॥ १उदाहरण में सारे मनुष्यों में से क्षत्रियों को शूर कहा है, सो निर्धारण अर्थ है। अतः मनुष्य और क्षत्रिय का समास नहीं हुआ। इन उदाहरणों में यतश्च निर्धारणम (२।३।४१) से षष्ठी विभक्ति हुई है ॥ यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति २।२।१६ तक जायेगी। ___द्वितीयोऽध्यायः असी-पुर - विध पाद. ] पूरणगुणसुहितार्थ सदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन ।।२।२।११॥ पूरणगुण . करणेन ३१॥ स०-सुहितोऽर्थो येषां ते सुहितार्थाः, बहुव्रीहिः । पूरणं च गुणश्च सुहितार्थाश्च सत् च अव्ययञ्च तव्यश्च समानाधिकरणञ्च पुरणगुण सुहितार्थ स दव्ययतव्यस मानाधिकरणम्, तेन, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-पूरणप्रत्ययान्त, गुणवाचि, सुहितार्थ = तृप्त्यर्थक, सत, अव्यय, तव्यप्रत्ययान्त समानाधिकरणवाचि इत्येते: सुबन्तैः सह षष्ठयन्तं सुबन्तं न समस्यते ।। उदा०-छात्राणां पञ्चमः। छात्राणां दशमः । गुण - बलाकायाः शौक्ल्यम् । काकस्य कार्ण्यम् । सुहितार्थ–फलानां सुहितः । फलानां तप्तः। मद्–ब्राह्मणस्य कुर्वन् । ब्राह्मणस्य कुर्वाणः। अव्यय-ब्राह्मणस्य कृत्वा । ब्राह्मणस्य हृत्वा । तव्य–ब्राह्मणस्य कर्त्तव्यम् । समानाधिकरण-शुकस्य मारा विदस्य । राज्ञः पाटलिपुत्र कस्य । पाणिने: सूत्रकारस्य ॥ CA भाषार्थ:-[पूरणगुणसुहितार्थसदव्ययतव्यसमानाधिकरणेन] पूरणप्रत्ययान्त, गुण वाची शब्द, सुहित = तृप्ति अर्थवाले, सतसंज्ञक प्रत्यय, अव्यय, तव्यप्रत्ययान्त, तथा समानाधिकरणवाची शब्दों के साथ षष्ठयन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता है ।। उदा०-छात्राणां पञ्चमः (छात्रों में पांचवाँ), छात्राणां दशमः । गण-बला कायाः शौक्ल्यम (बगुले की सफेदी), काकस्य काष्र्ण्यम् । सुहितार्थ - फलानां सुहितः, (फलों की तृप्ति), फलानां तृप्तः । सद्-ब्राह्मणस्य कुर्वन् (ब्राह्मण का कार्य करता । हुमा), ब्राह्मणस्य कुर्वाणः । अव्यय–ब्राह्मणस्य कृत्वा (ब्राह्मण का कार्य करके), ब्राह्मणस्य हत्वा । तव्य-ब्राह्मणस्य कर्तव्यम् (ब्राह्मण के करने योग्य)। समानाधि करण - शुकस्य माराविदस्य (माराविद नाम के तोते का), राज्ञः पाटलिपुत्रकस्य (पाटलिपुत्रक राजा का ), पाणिनेः सूत्रकारस्य ।। या पञ्चमः प्रादि में तस्य पूरणे डट् (५।२।४८) से डट् प्रत्यय, तथा नान्तादसङ्-, ख्या० (५।२।४६) से मट आगम पूरण अर्थ में हुआ है। शौक्ल्यम् प्रादि गुणवाची शब्द हैं । तो सत् (३।२।१२७) से शत शानच् प्रत्ययों की सत् संज्ञा कही है । कुर्वन् कुर्वाणः में शतृ शानच प्रत्यय हुए हैं। कृत्वा हृत्वा में ‘क्त्वा’ प्रत्यय है, उसकी क्त्वातोसुन कसुनः (१।१।३६) से अव्यय संज्ञा है, सो समास नहीं हुआ। शुकस्य माराविदस्य प्रादि समानाधिकरणवाले शब्द हैं, क्योंकि वही शुक है और वही मारा विद नामवाला है। इसी प्रकार औरों में भी समझना चाहिये ॥ क्तेन च पजायामश१२॥ जनमत क्तेन ३।१।। च अ० ॥ पूजायाम् ७॥ अनु०-न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप, २५ को जित कारकी १९४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः सह सुपा, समास: ॥ अर्थ:-पूजायां यः क्तप्रत्ययो विहितः, तेन सह षष्ठी न समस्यते॥ मतिबुद्धि पूजार्थेभ्यश्च (३।२।१८८) इत्यनेन विहित: क्तप्रत्ययोऽत्र पूजाशब्देन लक्ष्यते ॥ उदा०-राज्ञां मत: । राज्ञां बुद्धः । राज्ञां पूजितः ॥ भाषार्थ:-[पूजायाम्] पूजा के अर्थ में जो [क्तेन] क्त प्रत्यय का विधान है, उसके साथ [च] भी षष्ठयन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता ॥ मतिबुद्धि पूजार्थेभ्यश्च इस सूत्र से जो क्त विहित है, उसी का उपलक्षण यहाँ पर पूजायाम् शब्द से किया गया है ॥ उदा०-राज्ञा मतः (राजाओं का माना हुआ) । राज्ञां बुद्धः (राजाओं का जाना हुआ) । राज्ञां पूजितः (राजाओं का पूजित) ॥ यहाँ से ‘क्तेन’ को अनुवृत्ति २।२।१३ तक जायेगी। क । क मामला सीपक निदाअधिकरणवाचिना च ॥२।२।१३॥ __अधिकरणवाचिना ३॥१॥ च प्र०॥ अनु०–क्तेन, न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-प्रधिकरणवाचिना क्तेन सह षष्ठी न समस्यते ॥ उदा०- इदमेषां यातम् । इदमेषां भुक्तम् ॥ को भाषार्थ:-[अधिकरणवाचिना] अधिकरणवाची क्तप्रत्ययान्त सुबन्त के साथ [च] भी षष्ठयन्त सुबन्त समास को प्राप्त नहीं होता ।। टिका ए, उदा.- इदमेषां यातम् ( यह इनके जाने का रास्ता ) । इदमेषां भुक्तम् (यह इनके भोजन का स्थान) ।। क्तोऽधिकरणे च ध्रौव्यगति. (३।४।७६) सूत्र से अधिकरण में क्त विधान किया गया है ॥ तत्परता निलकर्मणि च ॥२॥२॥१४॥ 33 कर्मणि ७।१॥ च .अ० ॥ अनु०–न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः॥ अर्थः-कर्मणि या षष्ठी सा समर्थन सुबन्तेन सह न समस्यते ॥ उभय प्राप्तौ कर्मणि (२।३।६६) इत्यनेन या कर्मणि षष्ठी विधीयते, तस्या एवात्र ग्रहणम्।। उदा० -आश्चयों गवां दोहोऽगोपालकेन। रोचते मे अोदनस्य भोजनं देवदत्तेन । रोचते मे मोदकस्य भोजन बालेन ॥ भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म में जो षष्ठी विहित है, वह [च] भी समर्थ सुबन्त के साथ समास को प्राप्त नहीं होती ।। श्री उदा०–प्राश्चर्यो गवां दोहो अगोपालकेन (अगोपालक का दूध दुहना प्राश्चर्य का विषय है)। रोचते मे प्रोदनस्य भोजनं देवदत्तेन (मुझे देवदत्त का चावल खाना पादः] द्वितीयोऽध्यायः १९५ प्रिय हैं)।रोचते मे मोदकस्य भोजनं बालेन (मुझे बालक का लड्डू खाना प्रिय है)। ‘गवाम, प्रोदनस्य’ प्रादि में उभयप्राप्ती कर्मणि (२।३।६६) सूत्र से कर्म में षष्ठी हुई है, सो उनका प्रकृत सूत्र से भोजन प्रादि समर्थ सुबन्तों के साथ समास नहीं JEE यहाँ से ‘कर्मणि’ को अनुवृत्ति २।२।१५ तक जायेगी ॥ जह तृजकाभ्यां कर्तरि ॥२॥२॥१५॥ ी - Ac५२६६ निषेध । तृजकाभ्या ३२॥ कर्तरि ७।१।। स०-तृज० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः। अनु०– कर्मणि, न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-कर्तरि यौ तच्-अको ताभ्यां सह कर्मणि या षष्ठी सा न समस्यते ॥ उदा०-पुरां भेत्ता । अपां स्रष्टा । यवानां लावकः । कूपस्य खनकः ॥ भाषार्थ:-[कर्तरि] कर्ता में जो [तृजकाभ्याम] तृच् और प्रकप्रत्ययान्त सुबन्त उनके साथ कर्म में जो षष्ठी वह समास को नहीं प्राप्त होती ॥ यहाँ कत्त कर्मणो: कृति (२।३।६५) से कर्म में षष्ठी होती है । उदा०—पुरा भेत्ता (पुरों को तोड़नेवाला) । अपां स्रष्टा (जलों को उत्पन्न करनेवाला) । यवानां लावकः (जो को काटनेवाला) । कूपस्य खनकः (कुएं को खोदनेवाला) ॥ यहाँ से ‘अक:’ की अनुवृत्ति २।२।१७ तक जायेगी ॥ १ ‘कर्तरि च ॥२॥२॥१६॥ तत्पुरुष -निश कर्तरि ७१॥ च अ० ॥ अनु०-अक, न, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थ:-कर्तरि या षष्ठी साऽकान्तेन सह न समस्यते ॥ उदा०-तव शायिका । मम जागरिका ॥ ___भाषार्थ:-[कर्तरि] कर्ता में जो षष्ठी, वह [च] भी प्रकप्रत्ययान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त नहीं होती है । ‘वु’ को युवोरनाको (७।१।१) से जो प्रक हुआ है, उसका ही इन दोनों सूत्रों में ग्रहण है’ ॥ तत्परुष नित्यं क्रीडाजीविकयोः ।।२।२।१७॥ नित्यं ११॥ क्रीडाजीविकयोः ७।२॥ स०-क्रीडा च जीविका च क्रीडाजीविके, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-प्रक, षष्ठी, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः॥ १. २।२।१५, १६ इन दो सूत्रों का व्याख्यान काशिका में महाभाष्य के विरुद्ध होने से मान्य नहीं ॥ देखो-अष्टा० भाष्य स्वामी द० कृत, पृ० २४४ । ५१६६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती द्वितीयः] अर्थः-क्रीडार्थे जोविकार्थे च षष्ठयन्तं सुबन्तं अकान्तेन सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०—उद्दालकपुष्पञ्जिका । वारणपुष्पप्रचायिका । जीविकायाम् -दन्तलेखकः । नखलेखकः ॥ भाषार्थ:- [क्रीडाजीविकयोः] क्रीडा और जीविका अर्थ में षष्ठयन्त सुबन्त अक अन्तवाले सुबन्त के साथ [नित्यम् ] नित्य ही समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है । विभाषा का अधिकार पा रहा था । प्रतः उसकी निवृत्ति के लिये यहाँ नित्य शब्द का ग्रहण है । सो पक्ष में विग्रह-वाक्य नहीं बनेगा ॥ षष्ठी ( २।२।८) सूत्र से यहाँ समास प्राप्त ही था, पुनः यह सूत्र क्रीडाविषय में नित्य समास हो जावे, पक्ष में विग्रहवाक्य न रहे इसलिये है । तथा जीविका-विषय में षष्ठीसमास का तृजकाभ्यां कर्तरि (२॥ २।१५) से निषेध प्राप्त था, वहाँ भी समास हो जावे, इसलिये यह सूत्र है । यहाँ से ‘नित्यम्’ की अनुवृत्ति २।२।१६ तक जायेगी। तत्परून कुतिप्रादयः ॥२।२।१८॥ and कुगतिप्रादयः ११३॥ स०-प्रादिर्येषां ते प्रादयः, कुश्च गतिश्च प्रादयश्च कुगतिप्रादयः, बहुव्रीहिगर्भो द्वन्द्वः ।। अनु०-नित्यं, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थः- कुशब्दो, गतिसंज्ञकाः, प्रादयश्च शब्दाः समर्थेन सुबन्तेन सह नित्यं समस्यन्ते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०—कुब्राह्मणः, कुपुरुषः । गतिः-उररीकृत्य, उररीकृतम् । प्रादय:- दुष्पुरुषः । सुपुरुषः । अतिपुरुषः ॥ भाषार्थ:-[कुगतिप्रादयः] कु, गतिसञक और प्रादि शब्द समर्थ सुबन्त के साथ समास को नित्य ही प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुषसंज्ञक समास होता है। उदा०-कुब्राह्मणः (बुरा ब्राह्मण), कुपुरुषः (बुरा पुरुष) । गतिः-उररी कृत्य (स्वीकार करके), उररीकृतम् । प्रादयः-दुष्पुरुषः (दुष्ट पुरुष) । सुपुरुषः (अच्छा पुरुष) । प्रतिपुरुषः (अच्छा पुरुष) ॥ यहाँ कु शब्द अव्यय लिया गया हैं । उररीकृत्य को गति संज्ञा ऊर्यादिच्चिडाच श्च (१।४।६०) से होती है । इनकी सिद्धि ११४१५६ के समान ही जानें ॥ हमायतका … 10101 तत्पश्मी उपपदमतिङ ।।२।२।१६। किसी उपपदम् ११॥ प्रतिङ् ११॥ स०–न तिङ अतिङ, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० नित्यं, तत्पुरुष:, सुप, सह सुपा, समास: ॥ अर्थ:-अतिङन्तम् उपपदं समर्थेन शब्दा न्तरेण सह नित्यं समस्यते, तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-कुम्भं करोति= कुम्भकारः, नगरकारः॥ पादः ]
- द्वितीयोऽध्यायः १९७ भाषार्थः- [अतिङ्] तिङ भिन्न जो [उपपदम् ] उपपद, वह समर्थ शब्दान्तर के साथ नित्य समास को प्राप्त होता है, और वह तत्पुरुष समास होता है ।। उदा० -कुम्भकारः (कुम्हार), नगरकारः (नगर बनानेवाला) ॥ आरती सिद्धि परि० १३१३३८ में की गई स्वादुङ्कारम् के समान ही है । भेद केवल यहाँ इतना है कि कर्मण्यण् (३।२।१) से अण् प्रत्यय हुआ है, णमुल नहीं। शेष उसी के समान है ॥ यहाँ से ‘उपपदम्’ को अनुवृत्ति २।२।२२ तक जायेगी ॥ प्रमैवाव्ययेन ॥२।२।२०॥ ५ अमा ३१॥ एव अ० ॥ अव्ययेन ३१॥ अनु०-उपपदम, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ।। अर्थ:- अव्ययेन उपपदस्य यः समासः, सोऽमन्तेन अव्ययेनैव सह भवति, नान्येन ।। उदा०-स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते । सम्पन्नङ्कारं भुङ्क्ते । लवणङ्कार भुङ्क्ते ॥ भाषार्थ:-यह सूत्र नियमार्थ है । [अव्ययेन] अव्यय के साथ उपपद का यदि समास होता है, तो वह [अमा] अमन्त अव्यय के साथ [एव] ही होता है, अन्य अव्ययों के साथ नहीं ॥ sia . उदाहरणों की सिद्धि कृन्मेजन्तः (१।१।३८) के परि० में देखें । कृन्मेजन्तः से ही इनकी अव्यय संज्ञा होती है । स्वादुम् आदि मकारान्त शब्द उपपद हैं । विशेष:-यहाँ उपपद का समास पूर्वसूत्र से सिद्ध था । अतः नियम हो जाता है । पुनः ‘एवकार अमन्त उपपद का ही विशेषण हो,’ इस इष्ट का अवधारण करने के लिये है । अर्थात् जिस सूत्र के द्वारा केवल अम् (णमुलादि) प्रत्यय का ही विधान हो, वहीं तदन्त के साथ समास हो । क्त्वा णमल दोनों प्रत्ययों का जहां एक साथ विधान हो, वहाँ इस सूत्र से समास न हो । यथा- अग्रे भुक्त्वा , अग्न भोजम, यहाँ विभाषाऽग्रेप्रथम० (३।४।२४) से दोनों प्रत्ययों का विधान है, अतः प्रकृत सूत्र से समास नहीं हुभा ॥मा यहाँ से ‘अमैवाव्ययेन’ को अनुवृत्ति २।२।२१ तक जायेगी। साहार तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम् ॥२॥२॥२१॥ तृतीयाप्रभृतीनि १२३॥ अन्यतरस्याम् अ० ॥ स०-तृतीया प्रभृति येषां तानि तृतीयाप्रभृतीनि, बहुव्रीहिः । अनु०-अमैवाव्ययेन, उपपदम्, तत्पुरुषः, सुप, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-उपदंशस्तृतीयायाम् (३।४१४७) इति सूत्रमारभ्य यानि उपपदानि तानि १६८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: तृतीयाप्रभृतीनि उपपदानि अमन्तेनैवाव्ययेन सह अन्यतरस्यां समस्यन्ते ।। उदा० मूलकोपदंशं भुङ्क्ते, मूलकेन उपदंशं भुङ्क्ते । उच्चैःकारम् प्राचष्टे, उच्चैः कारम् । यष्टिग्राहम्, यष्टि ग्राहम् ।। रात और भाषार्थः - [तृतीयाप्रभृतीनि] तृतीयाप्रभृति उपदंशस्तृतीयायाम् (३।४।४७) सूत्र से प्रारम्भ करके अन्वच्यानुलोम्ये ( ३४१६४ तक) जो उपपद है, वे अमन्त अव्यय के साथ ही [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं । ___उदा०-मूलकोपदंशं भुङ क्ते (मूली को दांत से काटकर खाता है), मूलकेन उपदंशं भक्ते । उच्चैःकारम् प्राचष्टे (दुःख की बात को भी ऊँचे स्वर से कहता हैं), उच्चैः कारम् । यष्टिनाहं (लाठी लेकर), यष्टि ग्राहम् ॥ पूर्वसूत्र की तरह उपदंशम्’आदि की अव्यय संज्ञा मकारान्त होने से है।उपदंशस्तृ० (३।४।४७) से उपपूर्वक ‘वंश दशने’ धातु से णमुल प्रत्यय हुआ है । उच्चःकारम् में कृ धातु से अव्ययेऽयथाभि० (३।४१५६) से णमुल हुआ है । वृद्धि प्रादि पूर्ववत् हुई हैं । ग्रह धातु से द्वितीयायाञ्च (३।४।५३ ) से णमुल प्रत्यय हुअा है। सो ये सब अमन्त अव्यय हैं, अतः मूलक आदि उपपद रहते विकल्प से समास हुआ है । असमासपक्ष में ‘उच्च:कारम्’ उदाहरण में स्वर का भेद पड़ता है । यहाँ महाविभाषा के पाते हुये भी अन्यतरस्याम् ‘नित्य’ पद की अनुवृत्ति को हटाने के लिये है। यहाँ से ‘तृतीयाप्रभृतीभ्यन्यतरस्याम्’ की अनुवृत्ति २।२।२२ तक जायेगी ।। तत्परून क्त्वा च ॥२।२।२२॥ मत क्त्वा ३॥१॥ च प्र० ॥ अनु० -तृतीयाप्रभृतीन्यन्यतरस्याम्, तत्पुरुषः, सुप्, सह सुपा, समासः ॥ अर्थः-तृतीयाप्रभृतीनि उपपदानि क्त्वाप्रत्ययान्तेन सह अन्य तरस्यां समस्यन्ते. तत्पुरुषश्च समासो भवति ॥ उदा०-उच्चैःकृत्य, उच्चैः कृत्वा ।। भाषार्थ:-तृतीयाप्रभृति जो उपपद वे [क्त्वा] क्त्वाप्रत्ययान्त शब्दों के साथ [च] भी विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह तत्पुरुष समास होता है। पूर्वसूत्र से प्रमन्त में प्राप्त था, अतः यह सूत्र अन्यत्र भी विधान करे, इसलिये है ॥ उदा०-उच्च कृत्य (ऊंचा करके), उच्चैः कृत्वा मालिक समासपक्ष में क्त्वा को ल्यप् ७।१।३७ से हो गया। तथा असमासपक्ष में नहीं हुआ । यहाँ से तत्पुरुष समास का अधिकार समाप्त हुआ। पादः] द्वितीयोऽध्यायः १६६ 1 [ बहुव्रीहि-समास-प्रकरणम् ] शेषो बहुव्रीहिः ॥२।२।२३॥ शेषः ॥१॥ बहुव्रीहिः १११॥ अर्थः-उक्तादन्यः शेषः । शेष: समासो बहुव्रीहि संज्ञको भवति, इत्यधिकारो वेदितव्यः ॥ अग्र एवोदाहरिष्यामः ॥ भाषार्थ:-जो ऊपर समास कहा गया है, उससे जो अन्य वह शेष है। [शेष:] शेष समास [बहुव्रीहिः] बहुव्रीहि-संज्ञक होता है, यह अधिकार २।२।२८ तक जानना चाहिये ॥
- अनेकमन्यपदार्थे ॥२२॥२४॥ GllE अनेकम् १११॥ अभ्यपदार्थे ७।१।। स०–न एकम् अनेकम्, नञ्तत्पुरुषः । अन्य– च्चादः पदम् अभ्यपदम्, तस्य अर्थः अन्यपदार्थः, तस्मिन्, कर्मधारयगर्भ षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-बहुव्रीहिः, विभाषा, सुप्, समासः॥ अर्थः - अन्यपदार्थे वर्तमानम् अनेक सुबन्तं परस्परं विभाषा समस्यते, बहुव्रीहिश्च समासो भवति ॥ उदा०– प्राप्तम् उदकं यं ग्राम स प्राप्तोदको ग्राम: । ऊढो रथो येन स ऊढरथोऽनड्वान् ।। उपहृतः पशुः यस्मै स उपहृतपशुः । उद्धृत प्रोदनो यस्याः सा उद्धृतोदना स्थाली। चित्रा गावो यस्य स चित्रगुः, शबलगुः । वीरा: पुरुषाः यस्मिन् स वीरपुरुषको ग्रामः ॥ भाषार्थ:-[अन्यपदार्थे ] अन्यपदार्थ में वर्तमान [अनेकम्] अनेक सुबन्त परस्पर समास को विकल्प से प्राप्त होते हैं, और वह समास बहुव्रीहि-संज्ञक होता है। उदा०-प्राप्तोदको प्रामः (प्राप्त हो गया है पानी जिस गाँव को) । ऊढरथो ऽवड्वान् (जिसके द्वारा रथ ले जाया गया ऐसा बैल) । उपहृतपशुः (जिसके लिये पश भेंट किया गया ऐसा पुरुष) । उद्धृतोदना स्थाली (जिस से चावल निकाल लिया गया, वह बटलोई)। चित्रगुः, शबलगुः । वीरपुरुषको ग्राम: (वीर पुरुषोंवाला गांव) । चार . बहुव्रीहि समास में अन्यपद का अर्थ प्रधान होता है। जैसा कि चित्रगुः उदाहरण में चित्राः गावः दो पद थे, सो चित्रगुः का अर्थ न चित्रित है न गौ है, प्रत्यत किसी तीसरे ही पदार्थ का जिसको चित्रित गायें हैं’, उसका बोध होता है । अतः अन्य पदार्थ का ही प्रधानत्व है। इसी प्रकार सब उदाहरणों में समझे। सूत्र में ‘अनेकम्’ इसलिये कहा है कि दो पदों से अधिकों का भी बहुव्रीहि समास हो जाये । चित्रगुः प्रादि की सिद्धि परि० १०२।४८ पर देखें। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः सङ्ख्ययाऽव्ययासन्नादराधिकसङ्ख्याः सङ्ख्येये ॥२॥२॥२५॥ व सङख्यया ३॥१॥ अव्ययासन्नादूराधिकसङ्ख्याः १३॥ सङ्ख्येये ७१॥ स० अव्ययञ्च प्रासनश्च अदूरश्च अधिकश्च सङ्ख्या च अव्ययासन्नादूराधिकसङ्ख्या:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु-बहुव्रीहिः, विभाषा, सुप्, समासः ॥ अर्थः- अव्यय, आसन्न, अदूर, अधिक, सङख्या इत्येते सुबन्ताः सङ्येये वर्तमानया संख्यया सह विभाषा समस्यन्ते, बहुव्रीहिश्च समासो भवति ॥ उदा०-उपदशा: । उपविशाः । आसन्नदशा: । आसन्नविंशा: । अदूरदशाः । अदूरविंशाः । अधिकदशाः । अधिकविंशाः । संख्या -द्वित्राः, त्रिचतुरा:, द्विदशा: ॥ भाषार्थ:-[सङ्येये] सङ ख्येय में वर्तमान जो [सङ्ख्यया] सङ ख्या उसके साथ [अव्ययासन्नादूराधिकसङ्ख्या:] अव्यय, प्रासन्न, अदूर, अधिक तथा सङ ख्या का समास विकल्प से हो जाता है, और वह बहुव्रीहिसमास होता है । जिस पदार्थ का गणन किया जाये, वह सङख्येय कहाता है । दशानां समीपं ये ते उपदशाः, यहाँ दस जो पदार्थ गणन किये गये हैं वे सङख्येय हुये, उनके जो समीप हैं, वे उपदशाः हैं । इस प्रकार सङख्येय में वर्तमान वशन् सङ ख्या है ॥ नवादादिङ्नामान्यन्तराले ॥२।२ २६॥ _दिङ्नामानि ॥३॥ अन्तराले ७१।। स०-दिशां नामानि दिङ्नामानि, षष्ठीतत्पुरुषः । अनु० -बहुव्रीहिः, विभाषा, सुप, समासः ॥ अर्थ:-दिङ्नामानि सुबन्तानि अन्तराले वाच्ये परस्परं विभाषा समस्यन्ते, बहुव्रीहिश्च समासो भवति । उबा०-दक्षिणस्याश्च पूर्वस्याश्च दिशोर्यदन्तरालं सा दक्षिणपूर्वा दिक् । पूर्वोत्तरा। उत्तरपश्चिमा, पश्चिमदक्षिणा ॥ शत र भाषार्थ:-[दिङनामानि ] दिशा के नामवाची सुबन्तों का [अन्तराले ] अन्त राल अर्थात् दो दिशामों के बीच की दिशा (कोना) वाच्य हो, तो परस्पर विकल्प से समास होता है, और वह बहुव्रीहिसमास होता है ।। उदाहरणों की सिद्धियाँ परि० १।१।२७ में देखें ॥ तत्र तेनेदमिति सरूपे ॥२॥२॥२७॥ म तत्र अ०॥ तेन ३॥१॥ इदम् ११॥ इति अ०॥सरूपे ११२॥स०-समानं रूपं ययोस्ते सरूपे, बहुव्रीहिः । अनु०-बहुव्रीहिः, विभाषा, सुप्, समासः ॥ अर्थः -‘तत्र’ इति सप्तम्यन्ते सरूपे पदे, ‘तेन’ इति तृतीयान्ते सरूपे पदे, इदम् इत्येतस्मिन् अर्थे विभाषा समस्येते, बहुव्रीहिश्च समासो भवति ।। उदा०–केशेष केशेष गृहीत्वा इदं युद्ध उनी पादः] द्वितीयोऽध्यायः २०१ प्रवृत्तं =केशाके शि, कचाकचि । दण्डैश्च दण्डैश्च प्रहृत्य इदं युद्ध प्रवृत्तं दण्डादण्डि, मुसलामुसलि ॥ तय कर भाषार्थ:-[तत्र] सप्तम्यन्त, तथा [तेन] तृतीयान्त [सरूपे] सरूप दो सुबन्त परस्पर [इदम् ] ‘यह’ [इति ] इस अर्थ में विकल्प से समास को प्राप्त होते हैं, और वह बहुव्रीहिसमास होता है । उदा०-केशाकेशि (एक-दूसरे के केशों को पकड़-पकड़कर जो युद्ध हो वह युद्ध), कचाकचि । दण्डादण्डि (दोनों प्रोर से डण्डों से जो युद्ध हो वह युद्ध), मुसलामुसलि ।। उदाहरणों में केशेषु केशेषु दण्डेश्च दण्डश्च आदि परस्पर दोनों सरूप पद हैं, इदम् =‘यह’ अर्थ है ही, सो समास हो गया ॥ केश आदि में दीर्घ अन्येषामपि दृश्यते (६।३।१३५) से होता है । तथा बहुव्रीहिसमास होने से यहाँ इच् कर्मव्यतिहारे (५५४१२७) से समासान्त इच् प्रत्यय होकर केशाकेशि बना है । तिष्ठद्गु० (२।१।१६) गण में पाठ होने से इच्प्रत्ययान्त की अव्ययीभाव संज्ञा होती है । अतः उदाहरणों में नपुंसकलिङ्ग, तथा विभक्ति का लुक् होता है । तेन सहेति तुल्ययोगे ॥२।२।२८॥ dPIE तेन ३३१॥ सह अ०॥ इति प्र० ॥ तुल्ययोगे ७१॥ स.-तुल्येन योगः तुल्ययोगः, तस्मिन्, …” तृतीयातत्पुरुषः ॥ अनु०-बहुव्रीहिः, विभाषा, सुप्, समासः ॥ अर्थ:-तुल्ययोगे वर्तमानं सह इत्येतद् अव्ययं तेनेति तृतीयान्तेन सुबन्तेन सह विभाषा समस्यते, बहुव्रीहिश्च समासो भवति ॥ उदा०-सह पुत्रेण आगतः= सपुत्रः । सच्छात्रः । सकर्मकरः ॥ वामपति का a भाषार्थ:- [सह] सह [इति] यह अव्यय [तुल्ययोगे] तुल्ययोग में वर्तमान हो, तो [तेन] तृतीयान्त सुबन्त के साथ समास को प्राप्त होता है, और वह समास बहुव्रीहि-संज्ञक होता है ॥
- उदा०-सपुत्रः (पुत्र के साथ) । सच्छात्रः (छात्र के साथ) । सकर्मकरः (नौकर के साथ)॥ तुल्य समान (आगमन प्रादि क्रिया के साथ) योग अर्थात् सम्बन्ध को ‘तुल्ययोग’ कहते हैं। सो उदाहरण में ‘पुत्र के साथ पिता आया है।यहाँ आगमन क्रिया के साथ पिता-पुत्र दोनों का समान सम्बन्ध है,जो सह के द्वारा घोतित होता है । अतः तुल्ययोग में सह वर्तमान है । पुत्रेण में तृतीया सहयुक्तेऽप्रधाने (२।३।१६) से हुई २०२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः है । सह को स भाव वोपसर्जनस्य (६।३।८०) से हुआ है । सच्छात्रः में छे च (६॥१॥ ७१) से तुक पागम, तथा स्तो: श्चुना० ( ८।३।३६ ) से श्चुत्व हुन्मा है । शेष पूर्ववत् है॥ चार्थ द्वन्द्वः ।।२।२।२६॥ चार्थे ७।१॥ द्वन्द्वः १।१।। स०-चस्य अर्थ: चार्थः । तस्मिन चार्थे, षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०–विभाषा, सुप, समासः । अनेकमन्यपदार्थे (२२।२४) इत्यतः ‘अनेकम’ मण्डूकप्लुतगत्यानुवर्तते ॥ अर्थः-चार्थे वर्तमानम् अनेकं सुबन्तम् परस्परं विभाषा समस्यते, द्वन्द्वश्च समासो भवति ॥ समुच्चयः, अन्वाचयः, इतरेतरयोगः, समाहारः इति चत्वारः चकारस्यार्थाः। तत्रेतरेतरयोगे, समाहारे च समासो भवति नान्यत्र, सामर्थ्याभावात् ।। उदा०-रामश्च लक्ष्मणश्च इति रामलक्ष्मणौ । रामश्च लक्ष्मणश्च भरतश्च शत्रघ्नश्चेति रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नाः ॥ समाहारे-पाणी च पादौ चम्पाणिपादम् ॥ _भाषार्थ:- [चार्थे] च के द्वारा घोतित अर्थों में वर्तमान अनेक सुबन्तों का परस्पर विकल्प से समास हो जाता है, और वह [द्वन्द्वः] द्वन्द्व समास होता है । ‘च’ के द्वारा चार अर्थ द्योतित होते हैं-समुच्चय, अन्वाचय, इतरेतरयोग,और समाहार । इतरेतरयोग और समाहार में द्वन्द्व समास होता है, समुच्चय अन्वाचय में नहीं, सामर्थ्य का अभाव होने से ॥ द्वन्द्वसमास में सारे पदों के अर्थ प्रधान होते हैं। या उदा०-रामलक्ष्मणौ (राम और लक्ष्मण)। रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नाः (राम लक्ष्मण भरत और शत्रुघ्न) । समाहार में-पाणिपादम (हाथ और पैर) | मा ‘राम सु लक्ष्मण सुइस अवस्था में समासादि होकर पूर्ववत् ही रामलक्ष्मणौ बन गया । पाणिपादम्, यहाँ द्वन्द्वश्च प्राणि (२।४।२) से एकवद्भाव हो जाता है ॥ उपसर्जन उपसर्जनं पूर्वम् ॥२॥२॥३०॥ ___उपसर्जनम् ११॥ पूर्वम् ११॥ अनु"– समासः ॥ अर्थ:-उपसर्जनसंज्ञक समासे पूर्व प्रयोक्तव्यम् ॥ तथा चैवोदाहृतम् ॥ का भाषार्थ:-[उपसर्जनम् ] उपसर्जनसंज्ञक शब्द का समास में [पूर्वम्] पहले प्रयोग करना चाहिये ॥ प्रथमानिर्दिष्टं० (१।२।४३) से उपसर्जन संज्ञा होती है ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २०३ यहाँ ऊपर से ‘समासः’ जो प्रथमान्त पा रहा था, वह अर्थ के अनुसार विभक्ति विपरिणाम होकर सप्तमी में बदल जाता है ॥ यहाँ से ‘उपसर्जनम्’ की अनुबत्ति २।२।३१ तक, तथा ‘पूर्वम्’ को अनुवृत्ति २।२।३८ तक जायेगी। जादल पम- प्रधाग ही कि राजदन्तादिषु परम् ॥२॥२॥३१॥ राजदन्तादिष ७।३॥ परम् १॥१॥ स०-राजदन्त प्रादिर्येषां ते राजदन्तादयः, तेषु, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-उपसर्जनम् ॥ अर्थ:-राजदन्तादिषु गणशब्देषु उपसर्जनं परं प्रयोक्तव्यम् ॥ उदा०–दन्तानां राजा राजदन्तः । वनस्य अग्रे= अग्रवणम् ॥ भाषार्थ:-[राजदन्तादिषु] राजदन्तादि गणशब्दों में उपसर्जनसंज्ञक का [परम्] पर प्रयोग होता है । पूर्वसूत्र से पूर्वनिपात प्राप्त होने पर इस सूत्र का प्रारम्भ है । अतः यहाँ ‘पूर्वम्’ पद को अनुवृत्ति प्राते हुये भी नहीं बिठाई ।। उदा०-राजदन्तः (दांतों का राजा) । अग्ने वणम (वन के आगे) ॥ बन्तानां राजा, प्रावि में षष्ठीतत्पुरुष समास है । सो वन्तानाम् उपसर्जन-संज्ञक है, अतः पूर्व प्रयोग न होकर परप्रयोग हुआ है । अग्न में निपातन से सप्तमी का प्रलुक् माना है । वनं पुरगामिश्रकासिध्रकासारिका० (८।४।४) से वनं के न को ण हो गया है। द्वन्द्वे घि ॥२॥२॥३२॥ प्य-पूर्व प्रयोग। र द्वन्द्वे ७।१॥ घि ११॥ अनु०-पूर्वम् ॥ अर्थ:-द्वन्द्वसमासे घिसंज्ञक पूर्व प्रयोक्तव्यम् ।। उदा०-पटुश्च गुप्तश्चेति=पटुगुप्तो । मृदुगुप्तो॥ भाषार्थ:-[द्वन्द्वे] द्वन्द्वसमास में [घि] घि-संज्ञक का पहले प्रयोग करना चाहिये । द्वन्द्वसमास में सभी पद प्रधान होते हैं, सो किसी का भी पूर्व प्रयोग हो सकता है । अतः इस सूत्र ने नियम किया कि ध्यन्त का ही पूर्व प्रयोग हो ॥ उदा.–पटुगुप्तौ (चतुर और गुप्त) । मृदुगुप्तौ ॥ शेषो ध्यसखि (१।४।४७) से पटु तथा मृदु को घि-संज्ञा है । यहाँ से ‘द्वन्द्वे’ को अनुवृत्ति २।२।३४ तक जायेगी । अजाधवन्तम् ।।२।२।३३।। अजाद- अदन्त अजाद्यदन्तम् ११॥ स०-अच् आदिर्यस्प तत् अजादि, बहुव्रीहिः । अत् अन्ते यस्य तत् अदन्तम्, बहुव्रीहिः । प्रजादि चाद: अदन्तं च अजाद्यदन्तम्, कर्मधारय २०४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः तत्पुरुषः । अनु०–द्वन्द्वे, पूर्वम् ॥ अर्थः-द्वन्द्वसमासे अजाद्यदन्तं शब्दरूपं पूर्व प्रयोक्त व्यम् ॥ उदा० -उष्ट्रखरम् । उष्ट्रशशकम् ।। मालीशी भाषार्थ:-द्वन्द्वसमास में [अजाद्य दन्तम्] अजाद्यदन्त शब्दरूप का पूर्व प्रयोग होता है। उदा०-उष्ट्रखरम् (ऊँट और गधा) । उष्ट्रशशकम् (ऊँट और खरगोश) ॥ उदाहरणों में उष्ट्र शब्द प्रजादि तथा अदन्त है, अतः वह पहले प्राया है । खर एवं शशक केवल अदन्त हैं, अतः पूर्व प्रयोग नहीं हुआ है । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि जहाँ द्वन्द्वसमास में कई अजाद्यदन्त शब्द होंगे, वहाँ ‘बहुषु अनियम:’ इस वचन से कोई भी अजाद्यदन्त पहले पा सकता है । जैसे-उष्ट्ररथेन्द्राः, इन्द्ररथोष्ट्राः ।। पाचतर व य अल्पान्तरम् ।।२।२।३४।। अल्पाचतरम् ११॥ स०-अल्पोऽच यस्मिन् तत् अल्पाच, बहुव्रीहिः ॥ द्वे इमे अल्पाची, इदमनयोरतिशयेन अल्पाच्, तत अल्पाचतरम् । द्विवचनविभज्यो० (२३॥५७) इत्यनेन तरप् प्रत्ययः ॥ अनु०-द्वन्द्वे,पूर्वम् ।। अर्थः- द्वन्द्व समासेऽल्पाच तरं शब्दरूपं पूर्व प्रयोक्तव्यम ॥ उदा०–प्लक्षन्यग्रोधौ । घवखदिरपलाशाः॥ भाषार्थ:- [अल्पान्तरम् ] अल्पाचतर शब्दरूप का द्वन्द्वसमास में पूर्व प्रयोग होता है । उदा०-प्लक्षन्यग्नोधौ (पिलखन और वटवृक्ष) । धवखदिरपलाशाः ॥ प्लक्ष और न्यग्रोध में प्लक्ष अल्प अचवाला है, तथा धवखदिरपलाशाः में धव अल्पाचतर है, सो ये पहले पाये हैं ॥ द्वन्द्वसमास में अनियम प्राप्त होने पर इन सूत्रों ने नियम कर दिया ॥ प्रया सप्रमानिजण सप्तमीविशेषणे बहुव्रीही ॥२।२।३५॥ सप्तमीविशेषणे १।२।। बहुव्रीहौ ७।१॥ स०-सप्तमी च विशेषणञ्च सप्तमी विशेषणे, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-पूर्वम् ॥ अर्थ:-बहुव्रीहिसमासे सप्तम्यन्तं विशेषणञ्च पूर्व प्रयोक्तव्यम् ॥ उदा.-कण्ठे स्थित: कालो यस्य स कण्ठेकालः । उरसिलोमा । विशेषणम-चित्रगुः, शबलगुः॥ भाषार्थ:- [बहुव्रीहो] बहुव्रीहिसमास में [सप्तमीविशेषणे] सप्तम्यन्त जो पद, तथा विशेषणवाची जो पद हो, उसका पूर्व प्रयोग करना चाहिये । बहुव्रीहिसमास में सभी पद उपसर्जन होते हैं। अतः कोई भी पद उपसर्जनं पूर्वम् (२।२।३०) से पहले पा सकता था। कोई नियम नहीं था, सो यह सूत्र बनाया ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २०५ उदा०-कण्ठकाल: (कण्ठ में स्थित है काला पदार्थ जिसके) । उरसिलोमा (छाती में बाल हैं जिसके) । विशेषणम्-चित्रगुः, शबलगुः ॥ उदाहरणों में कण्ठे उरसि सप्तम्यन्त होने से पहले प्राये हैं । यहाँ अमूर्द्ध मस्तकात् स्वा० (६।३।१०) से विभक्ति का अलुक हुआ है । सप्तम्युपमान ० (वा० २।२।२४) इस वात्तिक से समास, तथा स्थित शब्द का लोप हुआ है ॥ चित्र तथा शबल यह गौ के विशेषण हैं, सो पहले आये हैं ॥ ने की की यहाँ से ‘बहुव्रीहो’ को अनुवृत्ति २।२।३७ तक जायेगी। पाकीजा परी निष्ठा शEnatdag 2) निष्ठा १३१॥ अनु०-बहुव्रीहौ, पूर्वम् ।। अर्थः-निष्ठान्तं शब्दरूपं बहुव्रीही समासे पूर्व प्रयोक्तव्यम् ।। उदा०-कटः कृतोऽनेन कृतकट: । भिक्षितभिक्षः । अव मुक्तोपानत्कः। आहूतसुब्रह्मण्यः ॥ विडो भाषार्थ:-बहुव्रीहिसमास में [निष्ठा] निष्ठान्त शब्दरूप का पहले प्रयोग होता है ।। उदा०—कृतकटः (जिसने चटाई बना ली है) । भिक्षितभिक्षः (जिसने भिक्षा याचन करली है) । अवमुक्तोपानत्कः (जिसने जूता उतार दिया है) । आहूत सुब्रह्मण्यः (जिसने सुब्रह्मण्य को बुलाया है) ॥ कृत तथा भिक्षित प्रादि निष्ठान्त शब्द हैं। म यहाँ से ‘निष्ठा’ को अनुवृत्ति २।२।३७ तक जायेगी। प्रयाग - bisa वाहिताग्न्यादिष ॥२॥२॥३७॥ 3 वा अ० ॥ आहिताग्न्यादिषु ७॥३॥ स०-आहिताग्निः प्रादिर्येषां ते आहिता ग्न्यादयः, तेषु, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-निष्ठा, बहुव्रीहौ, पूर्वम् ॥ अर्थ:-पूर्वेण नित्यं पूर्व निपाते प्राप्ते विकल्प उच्यते ॥ आहिताग्न्यादिषु निष्ठान्तं शब्दरूपं बहुव्रीहौ समासे पूर्व वा प्रयोक्तव्यम् ॥ उदा०-आहितोऽग्नि: येन साहिताग्निः, अग्न्याहितः । जात पुत्रः, पुत्रजातः ॥ भाषार्थ:-[माहिताग्न्यादिष] प्राहिताग्न्यादिगण में पठित निष्ठान्त शब्दों का बहुव्रीहिसमास में [वा] विकल्प से पूर्व प्रयोग करना चाहिये, अर्थात् पूर्वप्रयोग तथा परप्रयोग दोनों होंगे || पूर्वसूत्र से नित्य हो निष्ठान्त का पूर्वप्रयोग प्राप्त था, विकल्प कह दिया ॥ उदा०-प्राहिताग्निः (जो अग्न्याधान कर चुका), अग्न्याहितः । जातपुत्रः (जिसके पुत्र उत्पन्न हुना), पुत्रजातः॥ 18. पहाँ से ‘वा’ की अनुवृत्ति २।२।३८ तक जायेगी तिनी शी २०६ स्वामी इति द्वितीयः पादः॥ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः श्री ( कडाराः कर्मधारये ॥२॥२॥३॥ कडारा: १।३।। कर्मधारये ॥१॥ अनु०-वा, पूर्वम् ॥ अर्थ:-कर्मधारये समासे कडारादयः शब्दा वा पूर्व प्रयोक्तव्याः ॥ उदा.-कडारश्चासौ जैमिनिश्च कडारजैमिनि:, जैमिनिकडारः ॥ भाषार्थ:- [कर्मधारये] कर्मधारयसमास में [कडारा:] कडारादि शब्दों का विकल्प से पूर्वप्रयोग होता है । ‘कडारा:’ में बहुवचन होने से कडारादिगण लिया गया है । विशेषणं विशेष्येण (२१११५६) से समास होने पर विशेषण का पूर्व निपात उपसर्जनं ० (२।२।३०) से प्राप्त था, यहाँ विकल्प कह दिया । उदा. कडारजमिनिः (पीला जैमिनि), जैमिनिकडारः॥ ॥ इति द्वितीयः पादः मा तृतीयः पादः [विभक्ति-प्रकरणम्] अनताले मत नभिहिते ॥२॥३॥१॥ । अनभिहिते ७१।। स०-न अभिहितम् अनभिहितम्, तस्मिन्, नजतत्पुरुषः ।। अर्थः-अनभिहिते –अकथिते = अनुक्ते =अनिर्दिष्टे कर्मादौ विभक्तिर्भवतीत्यधिकारो वेदित्यः ॥ सामान्येन प्रापादपरिसमाप्ते: अधिकारोऽयं वेदितव्यः । विशेषतस्तु कारकविभक्तिष्वेव प्रवर्तते, न तु उपपदविभक्तिष, तत्रानावश्यकत्वात ॥ केनान भिहितम् ? तिकृततद्धितसमासः ॥ उदा०-कटं करोति । ग्रामं गच्छति ॥ ‘कटम् , ग्रामम्’ इत्यत्रानभिहितत्वात् कर्मणि द्वितीया (२।३।२) इति द्वितीया भवति ॥ भाषार्थ:- [अनभिहिते ] अनभिहित = प्रकथित = अनुक्त= अनिदिष्ट कर्मादि कारकों में आगे कही हुई विभक्तियाँ होती हैं, ऐसा अधिकार जानना चाहिये। यह अधिकार सामान्यतया पाद के अन्त तक है। पर विशेषतया कारक-विभक्तियों में ही प्रवृत्त होता है, उपपद-विभक्तियों (अर्थात् अमुक के योग में प्रमुक विभक्ति होती है) में अनावश्यक होने से प्रवृत्त नहीं होता । अब प्रश्न होता है, किसके द्वारा मन भिहित ? सो तिङ कृत् तद्धित एवं समास के द्वारा अनभिहित लिया गया है । जैसा कि-‘देवदत्तः कटं करोति’ यहाँ ‘करोति’ तिङन्त पद में तिप् कर्ता में आया है। अतः उसका कर्ता के साथ ही समानाधिकरण है, अर्थात् कर्ता को ही तिङन्त पब कहता है, ‘कट’ कर्म को नहीं कहता । सो यह ‘कट’ अनभिहित कर्म हो गया, प्रतः कर्मणि द्वितीया (२।३।२) से अनभिहित कर्म में द्वितीया विभक्ति हो गई है। [पादः द्वितीयोऽध्यायः २०७ इसी प्रकार ग्रामं गच्छति में जानें ॥ अनभिहित कहने से अभिहित कर्मादि कारकों में विभक्तियों नहीं होती । जैसा कि-‘क्रियते कटः देवदत्तेन’ यहाँ क्रियते’ में ‘त’ कर्मवाच्य में पाया है । सो कर्म के साथ समानाधिकरण होने से कर्म को ही कहता है,कर्ता को नहीं। अतः यहाँ ‘कट’ अभिहित कर्म है। सो कट में पहले के समान द्वितीया विभक्ति नहीं हुई, अपितु प्रातिपदिकार्थ० (२।३।४६) से प्रथमा विभक्ति हो गई है । जो तिङ से अभिहित है, उसका जो वचन होगा, वही क्रिया का भी होगा, यह भी समझना चाहिये । ती ४ इसी प्रकार कृत् में ‘कृतः कटः देवदत्तेन’ यहाँ ‘कृतः’ में ‘वत’ कर्म में पाया है, अत: कर्म को कहता है । सो कर्म कृत् के द्वारा अभिहित है । अतः उसमें द्वितीया न होकर पूर्वोक्तानुसार प्रथमा हो गई है। देवदत्त कर्ता ‘क्त’ के द्वारा अभिहित नहीं है, अतः अनभिहित कर्ता में कत्र्तृकरणयो० (२।३।१८) से तृतीया विभक्ति हुई हैं ।। इसी प्रकार तद्धित तथा समास के विषय में भी समझ लेना चाहिये । यह सब द्वितीयावृत्ति का विषय है, अत: अधिक नहीं दिया। _कर्मणि द्वितीया ॥२॥३॥२॥ - कर्मणि ७१॥ द्वितीया ११॥ अनु०-अनभिहिते ॥ अर्थः-अनभिहिते कर्मणि द्वितीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-ग्राम गच्छति । कटं करोति ।। ___भाषार्थ:-अनभिहित [कर्मणि] कर्म में द्वितीया] द्वितीया विभक्ति होती ह ॥ पूर्व सूत्र में ‘कट’ अनभिहित कैसे है, यह दिखा चुके हैं । अतः कत्तुरीप्सिततम कर्म (११४१४६) से कर्म संज्ञा होकर द्वितीया विभक्ति इस सूत्र से हो जाती हैं । यहाँ से ‘द्वितीया’ की अनुवृत्ति २।३।५ तक, तथा ‘कर्मणि’ को अनुवृत्ति २।३।३ तक जायेगी। तृतीया च होश्छन्दसि ॥२।३।३॥ तृतीया ११॥ च अ०॥ होः ६।१॥ छन्दसि ७१॥ अनु०-अनभिहिते, कर्मणि, द्वितीया ।। अर्थः-छन्दसि विषये “हु दानादनयोः" इत्येतस्य धातोरनभिहिते कर्मणि कारके तृतीया विभक्तिभवति, चकाराद् द्वितीया च ॥ उदा०- यवाग्बा अग्निहोत्रं जुहोति, यवागूम् अग्निहोत्रं जुहोति ॥ भाषार्थः- [छन्दसि] छन्दविषय में [हो:] हु धातु के अनभिहित कर्म में [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है, [च] चकार से द्वितीया विभक्ति भी होती है । उदा.-यवाग्वा अग्निहोत्रं जुहोति (लप्सी को अग्नि में डालता है), यवागूम् अग्निहोत्रं जुहोति ॥ यवागू+टा, इको यणचि (६।१७४) लगकर यवाग्वा बन हतीया गया। २०८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीय: निपान अन्तरान्तरेणयुक्ते ॥२॥३॥४॥ अन्तरान्तरेणयुक्ते ७।१॥ स०–अन्तरा च अन्तरेण च अन्तरान्तरेणौ, ताभ्या युक्तम् अन्तरान्तरेणयुक्तम्, तस्मिन्, द्वन्द्वगर्भतृतीयातत्पुरुषः ॥ अनु०-द्वितीया ॥ अर्थः-अन्तरा अन्तरेण शब्दौ निपाती, ताभ्यां योगे द्वितीया विभक्तिर्भवति।।उदा० अन्तरा त्वा च मां च कमण्डलुः । अन्तरेण पुरुषकारं न किञ्चित् लभ्यते । अग्नि मन्तरेण कथं पचेत् । अन्तरेण त्वां च मां च कमण्डलुः ॥ भाषार्थ:-[अन्तरान्तरेणयुक्ते] अन्तरा अन्तरेण शब्द निपात हैं, उनके योग में द्वितीया विभक्ति होती है ॥ उदा०-अन्तरा त्वां च मां च कमण्डलः (तुम्हारे और मेरे बीच में कमण्डलु है)। अन्तरेण पुरुषकारं न किञ्चित् लभ्यते (बिना पुरुषार्थ के कुछ भी प्राप्त नहीं होता) । अग्निमन्तरेण कथं पचेत् (अग्नि के बिना कैसे पके) । अन्तरेण त्वां च मां च कमण्डलुः(तुम्हारे और मेरे बीच में कमण्डलु है)। द्वितीया कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे ॥२३॥ETAlha कालाघ्वनोः ७॥२॥ अत्यन्तसंयोगे ७।१।। स०-कालश्च अध्वा च कालाध्वानो, तयो: कालाध्वनोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तः, अत्यन्त: संयोगः अत्यन्त संयोगः, तस्मिन, कर्मधारयतत्पुरुषः ॥ अनु०-द्वितीया ॥ अथः-कालवाचिनि शब्दे, अध्ववाचिनि शब्दे च अत्यन्तसंयोगे गम्यमाने द्वितीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा०– मासम अघीतोऽनुवाक: । मासं कल्याणी । मासं गुडधाना: । अध्वनि-क्रोशमधीते । क्रोशं कुटिला नदी। कोशं पर्वतः॥ भाषार्थ:- [अत्यन्तसंयोगे] अत्यन्त संयोग गम्यमान होने पर [कालाध्वनो:] कालवाची और अध्ववाची=मार्यवाची शब्दों में द्वितीया विभक्ति होती है ॥ अत्यन्तसंयोग का अर्थ है–क्रिया गुण अथवा द्रव्य के साथ काल तथा अध्वा का पूर्ण सम्बन्ध ।। उदा.-मासम् अधीतोऽनुवाकः (महीनेभर अनुवाक पढ़ा) । मासं कल्याणी (मासभर सुखदायी) । मासं गुडधानाः (मासभर गुड़धानी) । अध्वा-क्रोशमधीते (कोसभर पढ़ता है)। कोशं कुटिला नदी (कोसभर तक नदी टेढ़ी है)। क्रोशं पर्वतः (कोस भर तक पर्वत है)॥ शुभ यहाँ से ‘कालाध्वनो:’ की अनुवृत्ति २।३१७ तक, तथा ‘अत्यन्तसंयोगे’ की अनुवृत्ति २।३।६ तक जायेगी। किनकशीबितिक पादः] शिवामी-शिमगार द्वितीयोऽध्यायः २०६ अपवर्ग तृतीया ॥२॥३॥६॥ d hus Caccomplishment of an action) अपवर्गे ७१।। तृतीया ११॥ अनु०-कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे ॥ अर्थः अपवर्गे गम्यमाने कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे तृतीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा०–मासेना नुवाकोऽधीतः, संवत्सरेणानुवाकोऽधीतः । अध्वन: - क्रोशेनानुवाकोऽधीत:, योजनेनानु वाकोऽधीतः॥ भाषार्थ:-पूर्वसूत्र से द्वितीया प्राप्त थी । यहाँ पर [अफ्वर्गे] अपर्ण (अर्थात् क्रिया की समाप्ति होने पर फल भी मिल जाये) प्रतीत होने पर कालवाची और मार्गवाची शब्दों से अत्यन्तसंयोग गम्यमान होने पर [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है। उदा०-मासेनानवाकोऽधीतः (मासभर में अनुवाक पढ़ लिया, और उसे याद भी कर लिया ), संवत्सरेणानुवाकोऽधीतः । अध्वा का-क्रोशेनानवाकोऽधीतः, बोजनेनानुवाकोऽधीतः (कोस एवं योजनभर में अनुवाक पढ़’लिया) मासेनानुवाको ऽधीतः का अर्थ यह होगा कि मासभर में अनुवाक पढ़ा, और वह अच्छी प्रकार याद भी हो गया। सो याद हो जाना अपवर्ग हुा । अनुवाक, अष्टकादि वेद में कुछ . मन्त्रों के गणन का नाम है ॥ सप्तमी ,मन र सप्तमीपञ्चम्यौ कारकमध्ये ॥२॥३७॥ सप्तमीपञ्चम्यौ १२॥ कास्कमध्ये ७१।। स०–सप्तमी च पञ्चमी च सप्तमीपञ्चम्यो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । कारकयोम घ्य: कारकमध्यः, तस्मिन् ……., षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-कालाध्वनोः ॥ अथ:-कारकयोर्मध्ये यो कालाध्वानौ तद् वाचिभ्यां शब्दाभ्यां सप्तमीपञ्चम्यौ विभक्ती भवतः ।। उदा०-प्रद्य देवदत्तो भक्त्वा यहे भोक्ता । अद्य देवदत्तो भुक्त्वा द्वैघहाद् भोक्ता । एव त्र्यहे श्यहाद् वा भोक्ता । अध्वनः- इहस्थोऽयमिष्वासः कोशे लक्ष्यं विध्यति। क्रोशात न्वक्ष्यं विध्यति ॥ भोषार्थ:-[कारकमध्ये ] दो कारकों के बीच में जो काल और प्रध्वा तद्वाची शब्दों में [सप्तमीपञ्चम्यौ] सप्तमी और पञ्चमी विभक्ति होती हैं ।। BALTE
- उदा०–अद्य देवदत्तो भुक्त्वा द्वयहे भोक्ता (प्राज देवदत्त खाकर दो दिन के पश्चात् खायेगा) अद्य देवदत्तो भुक्त्वा द्वयहाद् भोक्ता एवं त्र्यहे त्र्यहाद वा भोक्ता। अध्वा का-इहस्थोऽयमिष्वासः क्रोशे लक्ष्यं विध्यति (यहाँ पर स्थित यह बाण चलाने वाला कोसभर पर लक्ष्य को बींधता है) । कोशात् लक्ष्यं विध्यति ॥ अद्य देवदत्तो २१० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [मृतीयः भुक्त्वा द्वघहे भोक्ता, यहाँ कारक को शक्ति मानने से दो कारकों के मध्यवाली बात ठोक हो जाती है । क्योंकि प्राज को भोजनक्रिया को कर्तृ-शक्ति, तथा दो दिन के पश्चात को भोजनक्रिया का कत्तुं -शक्ति भिन्न-भिन्न हैं, अतः कारकमध्य हो गया । इसी प्रकार इहस्थोऽयमिष्वासः कोशे लक्ष्य विध्यति, यहाँ भी ‘इष्वासः’ कर्ता है ‘लक्ष्य’ कर्म है । सो क्रोश’अध्वा कर्ता एवं लक्ष्य कर्म कारक के मध्य में है। अतः क्रोश शब्द से सप्तमी एवं पञ्चमी हो गई है । अथवा कर्म और अपादान कारक के मध्य में है। कर्म पूर्ववत् ही है, तथा अपादान जहाँ से बाण छूटता है वह है ॥ दितीचा’ - कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया ॥२॥३॥८॥ की कर्मप्रवचनीययुक्ते ७१॥ द्वितीया १॥१॥ स०-कर्म प्रवचनीययुक्तम् कर्म प्रवचनीययुक्तम, तस्मिन …… तृतीग्रातत्पुरुषः ।। अर्थः-कर्मप्रक्चनीयसञ्जकैः शब्दै युक्ते द्वितीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-शाकल्यस्य संहितामनु प्रावर्षत् ॥ भाषार्थ:-[ कर्मप्रवचनीययुक्ते ] कर्मप्रवचनीयसंज्ञक शब्दों के योग में [द्वितीया] द्वितीया विभक्ति होती है। उदाहरण में अनुलक्षणे (१।४।८३) से अनु को कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई है, अतः संहिताम् यहाँ द्वितीया विभक्ति हो गई। अ यहाँ से ‘कर्मप्रवचनीययुक्ते’ को अनुवृत्ति २।३।११ तक जायेगी। सानाला सता यस्मादधिकं यस्य चेश्वरवचनं तत्र सप्तमी ॥२॥३६॥ असे, यस्मात् ५।१॥ अधिकम् १॥१॥ यस्य ६॥१॥ च अ० ॥ ईश्वरवचनम् १।१॥ तत्र अ० ॥ सप्तमी ११॥ स०–ईश्वरस्य वचनम् ईश्वरवचनम्, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अन-कर्मप्रवचनीययुक्ते ॥ अर्थः -यस्माद अधिकं यस्य च ईश्वरवचनं तत्र कर्मप्रवचनीययोगे सप्तमी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-उपखा- द्रोणः, उपनिष्के कार्षापणम् । अघि ब्रह्मदत्ते पञ्चालाः, अघि पञ्चालेषु ब्रह्मदत्तः ॥ प्राप्त भाषार्थः - [यस्मात ] जिससे [अधिकम् ] अधिक हो, [1] और [यस्य ] जिसका [ईश्वरवचनम् ] ईश्वरवचन अर्थात् सामर्थ्य हो, [तत्र] उसमें कर्मप्रवचनीय के योग में [सप्तमी] सप्तमी विभक्ति होती है ।। पूर्वसूत्र से द्वितीया प्राप्त थी, उसका यह अपवाद है ॥ रही कि उदा०–उप खा- द्रोणः (खारी से अधिक द्रोण), उप निष्के कार्षापणम् । अधि ब्रह्मदत्ते पञ्चाला:, अधि पञ्चालेषु ब्रह्मदत्तः । Emsung के स्व स्वामी दोनों सम्बन्धी शब्द होने से पञ्चाल तथा ब्रह्मदत्त दोनों में पर्याय से सप्तमी विभक्ति होती है। उपखार्याम् आदि में उप की उपोऽधिके च (१।४।८६) से, तथा अधि ब्रह्मदत्ते में अधि की अधिरीश्वरे (११४६६) से कर्मप्रवचनीय संज्ञा है। पाइः] द्वितीयोऽध्यायः पञ्चम्यपाङ्परिभिः ॥२।३।१०॥ पाना पञ्चमो ११॥ अपाङपरिभिः ३।३॥ स०-अपश्च प्राङ च परिश्च अपाङ् परयः, त:…..:,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-कर्मप्रवचनीययुक्ते ।। अर्थः-अप प्राङ परि इत्येत: कर्मप्रकचनीयसञ्जकोंगे पञ्चमी विभक्तिभवति ॥ उदा०–अप त्रिगर्ते भ्यो बृष्टो देवः । प्रापाटलिपुत्राद् वृष्टो देवः । परि त्रिगर्तेभ्यो वृष्टो देवः ॥ भापार्थः - कर्मप्रवचनीय-संज्ञक [अफाइपरिभिः अम प्राङ परि के योग में [पञ्चमी] पञ्चमी विभक्ति होती है । अपपरी वर्जने (१।४.८७), तथा अाङ मर्यादावचने (१४४८८) से कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है । यहाँ से ‘पञ्चमी’ की अनुवृत्ति २।३।११ तक जायेसी ॥ के प्रतिनिधिप्रतिक्षाने च यस्मात् ॥२॥३॥११॥ पाता प्रतिनिधिप्रतिदाने १॥२॥ च अ० ॥ यस्मात् ५॥१॥ स०–प्रतिनिधिश्च प्रति वानञ्च प्रतिनिधिप्रतिदाने, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु–पञ्चमी, कर्मप्रवचनीययुक्ते॥ अर्थः–यस्मात् प्रतिनिधिः यस्माच्च प्रतिदानं तत्र कर्मप्रवचनीययोगे पञ्चमी विभक्ति र्भवति ॥ उदा० - अभिमन्युरर्जुनतः प्रति, प्रद्युम्नो वासुदेवतः प्रति ॥ प्रतिदाने तिलेभ्यः प्रति माषान् अस्मै प्रतियच्छति ॥ भाषार्थ:- [यस्मात ] जिससे [प्रतिनिधिप्रतिदाने ] प्रतिनिधित्व हो, तथा जिससे प्रतिपादन हो, उससे [च] पञ्चमी विभक्ति होती है । उदाहरण में अर्जुन का तथा वासुदेव से प्रतिनिधित्व हुआ है । सो उसमें पञ्चमी विभक्ति होने से प्रतियोगे पञ्चम्नास्तसिः (५।४४४) से तसि प्रत्यय हुआ है । प्रतिः प्रतिनिधिप्रतिदानयोः (१।४।६१) से प्रति को कर्मप्रवचनीय संज्ञा हुई है । तिलों से उड़द बदले जा रहे । हैं, सो प्रतिदान होने से तिल में पञ्चमी विभक्ति हुई। तिजीवना गि गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतुथ्यौ चेष्टायामनध्वनि ॥२॥३॥१२॥ गत्यर्यकर्मणि ७१॥ द्वितीयाचतुथ्यौं । चेष्टायाम् ७१।। अनध्वनि ७१।। स०-गतिरर्थो येषां ते गत्यर्थाः, गत्यर्थानां (घातूनां) कर्म गत्यर्थकर्म, तस्मिन् …, बहुव्रीहिगर्भपष्ठीतत्पुरुषः । द्वितीया च चतुर्थी च द्वितीयाचतुथ्या, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न अध्वा अनध्वा, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-अनभिहिते ॥ अर्थः-चेष्टाक्रियाणां, गत्यर्थानां धातूनाम् अध्वजितेऽनभिहिते कर्मणि कारके द्वितीयाचतुथ्यौं विभक्ती भवतः ।।उदा०-ग्रामं व्रजति, ग्रामाय व्रजति । ग्रामं गच्छति, ग्रामाय गच्छति ।। भावार्थ:- [चेष्टायाम ] चेष्टा जिनकी क्रिया हो, ऐसे [गत्यर्थकर्मणि] गल्य २१२ मष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः र्थक पातुओं के [अनध्वनि] मार्गरहित कर्म में [द्वितीयाचतुथ्यौँ] द्वितीया और चतुर्थो विभक्ति होती हैं |HIPP उदा०-प्रामं व्रजति (गाँव को जाता है) इत्यादि में व्रजादि गत्यर्थक धातु हैं । इनका कर्म ग्राम है, सो केवल द्वितीया (२॥३॥२)प्राप्त थी, चतुर्थी का भी विधान कर दिया है। गांव को चलकर चेष्टा करके जायेगा, अतः चेष्टा-क्रियावाली व्रज वा गम धातु है । चतुर्थों सम्प्रदाने ।।२।३।१३।। चतुर्थी १११॥ सम्प्रदाने ७१॥ अनु०-अनभिहिते ॥ अर्थः- अनभिहिते सम्प्रदानकारके चतुर्थी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०—माणवकाय भिक्षां ददाति । शिष्याय विद्यां ददाति । देवदत्ताय रोचते मोदकः ॥ भाषार्थ:-अनभिहित [सम्प्रदाने] सम्प्रदान कारक में [चतुर्थी] चतुर्थी विभक्ति होती है ॥ उदा.-माणवकाय भिक्षा ददाति (बच्चे को भिक्षा देता है)। शिष्याय विद्यां ददाति । देवदत्ताय रोचते मोदकः ।। सम्प्रदान संज्ञा कर्मणा यमभि० (१।४।३२) से होती है । देवदत्ताय रोचते में रुच्यर्थानां प्रीय० (१।४।३३) से सम्प्रदान संज्ञा हुई है ॥ी यहाँ से ‘चतुर्थी’ की अनुवृत्ति २।३।१८ तक जायेगी ॥ चत क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः ॥२॥३॥१४॥ FORPORA क्रियार्थोपपदस्य ६।१॥ च म०॥ कर्मणि ७१॥ स्थानिनः ६१॥ स०– क्रियायै इयं ==क्रियार्था, तत्पुरुषः। क्रियार्था क्रिया उपपदं यस्य स क्रियार्थोपपदः (धातुः), तस्य “,उत्तरपदलोपी बहुव्रीहिः ॥ अनु०-चतुर्थी,अनभिहिते ।। यत्र गम्यते पचार्थो न च प्रयुज्यते शब्दः, स स्थानी ।। अर्थ:-स्थानिनः=अप्रयुज्यमानस्य क्रियार्थो पपदस्य धातो: अनभिहिते कर्मणि कारके चतुर्थी विभक्तिर्भवति ॥ कर्मणि द्वितीया प्राप्ता, चतुर्थी विधीयते ॥ उदा०-एधेभ्यो व्रजति । पुष्पेभ्यो व्रजति । वृकेभ्यो व्रजति । शशेभ्यो व्रजति ॥ परिभाषार्थ:-[क्रियार्थोपपदस्य] क्रिया के लिये क्रिया उपपद हो जिसकी, ऐसी [स्थानिन:] अप्रयुज्यमान धातु के अनभिहित [कर्मणि] कर्म कारक में [च] भी चतुर्थी विभक्ति होती है ॥ गि पाउदा.-एधेभ्यो व्रजति (इंघन को लेने के लिये जाता है) । पुष्पेभ्यो व्रजति। वृकेम्यो व्रजति (भेड़ियों को मारने के लिये जाता है) । शशेभ्यो व्रजति ॥ शा-शिया द्वितीयोऽध्यायः पाद:] २१३ उदाहरण में व्रजति क्रियार्थ क्रिया उपपद है । क्योंकि जाना इसलिये हो रहा है कि इंधन को लाना क्रिया करे, या वृकों को मारे । सो क्रिया के लिये क्रिया हो हो रही है । यहाँ एधान् (पाहतु) व्रजति, वृकान् (हन्तु) ब्रजति, ऐसा चाहिये था, पर स्थानिनः = अप्रयुज्यमान कहा है । अतः पाहतु या हन्तु का प्रयोग नहीं किया है, केवल उसका अर्थ है । यहाँ पर तुमुन्ण्वुलौ क्रियायाम • (३।३.१०) से व्रजति क्रि या उपपद है, क्योंकि क्रियायाम् में सप्तमी है, उसका विशेषण क्रियार्थायाम है। अतः तत्रोपपदं सप्तमीस्थम (३३१४९२) से उपपद संज्ञा हो गई है। तुमन्ण्वुलो क्रियायां० से पाहतुम प्रादि में तुमुन प्रत्यय होता है , यह सूत्र उसी का विषय है । तुमर्थाच्च भाववचनात् ॥२।३।१५।। चतयाण तुमर्थात् ५॥१॥ च अ०॥ भाववचनात् ५।१।। स०–तुमुनः अर्थ इवार्थो यस्य स तुमर्थः, तस्मात् “, बहुव्रीहिः । उच्यते अनेनेति वचनः, भावस्य वचन: भाववचन:, तस्मात्, षष्ठीतत्पुरुषः । अनु०-चतुर्थी, अनभिहिते ॥ अर्थः–तुमर्थाद् भाववचन प्रत्ययान्तात् प्रातिपदिकात् चतुर्थी विभक्तिर्भवति ।। उदा०-पाकाय व्रजति । त्यागाय व्रजति । सम्पत्तये व्रजति । इष्टये व्रजति ।तर राष्ट्र क भाषार्थ:- [तुमर्थात् ] तुमर्थ [भाववचनात ] भाववचन से [च] भी चतुर्थी विभक्ति होती है। इसलिए मा उदा०-पाकाय व्रजति (पकाने के लिये जाता है) । त्यागाय व्रजति (त्याग करने के लिए जाता है) । सम्पत्तये व्रजति (सम्पन्न करने के लिए जाता है) । दृष्टये व्रजति (यज्ञ करने के लिए जाता है) । कि (इस सूत्र में प्रयुक्त भाववचन शब्द से भाववचनाश्च (३ ३।११) के विष्य को लक्षित किया गया है। उस सूत्र से क्रियार्थक्रिया के उपपद होने पर घज़ आदि प्रत्ययों का विधान किया है । उसी विषय में तुमुन्ण्वलौ० (३।३।१०) से तुमन भी विहित है। अतः घञ् प्रादि तुमर्थ भाववचन’ हुए। इस प्रकार पक्तु व्रजति, यष्टु व्रजति के अर्थ में पाकीय वति, इष्टय व्रजति के प्रयोग के लिए यह सूत्र है ॥ नमःस्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगाच्च ।२।१६। नम:स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगात् ५॥१॥ च अ० ॥ स०-नमश्च स्वस्ति च स्वाहा च स्वधा च अलञ्च वषट् च, इति नम:स्वस्तिस्वाहास्वधालं वषट्, तैर्योग: नमःस्वस्ति - योगः, तस्मात् ,द्वन्द्वगर्भस्ततीयातत्पुरुषः ॥ अनु०-चतुर्थी ।। अर्थः– नम:, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलं, वषट इत्येतैः शब्दोगे चतुर्थी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-नमो गुरुभ्यः, नमो देवेभ्यः । स्वस्ति प्रजाभ्यः । अग्नये स्वाहा, सोमाय अष्टाध्यायी प्रथमावृत्ती [ततीय स्वाहा । स्वधा पितभ्यः । प्रलं मल्लो मल्लाय । अलमित्यर्थ ग्रहणम - प्रभल्लो मल्लाय । वषड अग्नये वषड इन्द्राय जारी भाषार्थः बिमास्वस्तिस्वाहास्वधालंवषड्योगात] नमः स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा प्रलं, वषट् इन शब्दों के योग में [च] भी चतुर्थी विभक्ति होती है ॥ उदा.-नमो गुरुभ्यः ( गुरुओं को बमस्कार है), नमो देवेभ्यः । स्वस्ति प्रजाभ्य: (प्रजा का कल्याण ही) । अग्नये स्वाहा (अग्नि देवता के लिये प्राहुति)। सोमाय स्वाहा (सोम के लिए प्राहुति ) । स्वधा पितृभ्यः (पितरों के लिए अन्न) । अल्स मरलो मल्लाय (पहलवान के लिए पहलवान समर्थ है), प्रभुमल्लो मल्लाय (मल्ल मल्ल के लिए समर्थ है) । वषड अग्नये (अग्नि के लिए हवि त्याग), वषड़ इन्द्राय ।। राधा PiyFE बलपी मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु ॥२॥३॥१७॥ मन्यकर्मणि अशा अनादरे ७११॥ विभाषा १११॥ अप्राणिष ७१३॥ स. मन्यस्य कर्म मन्यकर्म तस्मिन. षष्ठीतत्पुरुषः । न अादरः अनादरः, तस्मिन् अनादरे नञ्तत्पुरुषः । न प्राणिनः अप्राणिनः, तेषु, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-चतुर्थी॥ अर्थ: अनादरे गम्यमाने, प्राणिजिते मन्यते. कर्मणि विभाषा चतुर्थी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-न त्वा तृणं मन्ये, न त्वा तृणाय मन्ये । न त्वा बुस मन्ये, न त्वा बुसाय मन्ये ॥ क्षय भाषार्थ:- [अनादरे] अनादर गम्यमान होने पर, [मन्यकर्मणि] मन्य धातु के [अप्राणिषु] प्राणिजित कर्म में चतुर्थी विभक्ति [विभाषा] विकल्प. से होती है। उदा०-न त्वा तुणं मन्ये (मैं तमको तिनके के बराबर भी नहीं समझता), न त्वा तणाय मन्ये । न त्वा बसं मन्ये (मैं तुमको बुस के बराबर भी नहीं समझता.) न त्वा बसाय मन्ये ॥ मन्य धातु का तणं’ प्राणिजित कर्म है, सो उसमें विकल्प से चतुर्थी हो गई। है । तिनका भी नहीं समझता, ऐसा कहने से स्पष्ट अनादर है । जिस कर्म से अनादर, प्रतीत होता है, उसी में चतुर्थी होती है, साधारण कर्म में नहीं। इसलिए तृणाय में चतुर्थी हुई, त्वा में नहीं ॥ दिवादिगण की मन धातु का यहा ग्रहण ह ॥ द्वितीया की प्राप्ति में यह विधान है। Sher कर्तकरणयोस्तृतीया ।।२।३।१८॥ 6 भयं कर्त्त करणयोः ॥२॥ तृतीया १११॥ स०-कर्ता च करणञ्च कत्र्तृ करणे, तयोः, इस रेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अनभिहिते ॥ अर्थ:–अनभिहितयो: कत्तुं करणयोग पादः] द्वितीयोऽध्यायः स्तृतीया विभक्तिभवति ॥ उदा०—कत्तरि-देवदक्तेन कृतम । यज्ञदत्तेन भुक्तम् । करणे-असिना छिनत्ति । दात्रैण लुनाति । अग्निना पचति ॥ भाषार्थ:-अनभिहित [कर्तृ करणयो:] कर्ता और करण में [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है । उदादेवदत्तेन कृतम् (देवदत्त के द्वारा किया गया)। वशद भवतम । करण में-असिना छिमत्ति (तलवार के द्वारा काटता है)। दात्रेण लुनाति (दरांती के द्वारा मटता है) । अम्मिना पचति (अग्नि के द्वारा या पकाता है)॥ सम - UR देवदत्तन कृतम् में देवदत्त अनभिहित कर्ता है, क्योंकि कृतम् में ‘क्त’ प्रत्यय कर्म में तयोरेव कृत्यक्त० (३।४।७०) से हुआ है । सो कृतम् क्रिया का समानाधि करण कर्म से है, न कि कर्ता से। प्रतः कर्ता अनभिहित= प्रकथित अनुक्त है, सो तृतीया हो गई । असिना छिनत्ति प्रादि में क्रिया का समानाधिकरण ‘करण असि’ से नहीं है अतः वह भी अनभिहित करण है । साधकतमं करसम (१।४।४२) से करण संज्ञा, तथा स्वतन्त्रः कर्ता (१।४।५४) सो कर्ता सज्ञा पूर्व कह चुके हैं ॥ अन भिहिते (२२३३१) सूत्र पर अनमिहित विषय में हम पर्याप्त समझा पाये हैं, उत्ती प्रकार यहाँ भी जानें ॥ र दिल १. यहाँ से तृतीया’ को अनुवृत्ति २।३।२३ तक जायेगी। ततीचा सहयक्तेऽप्रधाने ॥१३॥१६॥ सहयुक्ते ७।१॥ अप्रधाने ७॥१॥ स०–सह शब्देन युक्तम् सहयुक्तम् , तस्मिन्, के तृतीयातत्पुरुषः । न प्रधानम् प्रधान, तस्मिन, नञ्तत्पुरुषः । अन०–तृतीया ।। अर्थः-सहार्थन युक्तेप्रधाने तृतीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-पुत्रेण संह अागत: पिता । पुत्रेण सह स्थूलः । पुत्रेण सह गोमान् । पुत्रेण सार्द्धम् ॥ _भाषार्थ:- [सहयुक्ते] सह के अथवाची शब्दों के योग में [अप्रधाने] अप्रधान में तृतीया विभक्ति हो जाती है। PE उदा०-पुत्रेण सह पागतः पिता (पुत्र के साथ पिता पाया) । पुत्रेण सह स्थूलः (पुत्र के साथ मोटा) । पुत्रेण सह गोमान (पुत्र के साथ गौवाला) । पुत्रेण ही हर सार्द्धम (पुत्र के साथ) ॥
- क्रिया-गुण-द्रव्य से दो पदार्थों का सम्बन्ध होने पर ‘सह’ का प्रयोग होता है। दोनों में से जिसका क्रियादि के साथ सम्बन्ध साक्षात् शब्द द्वारा कहा जाता है, उस को प्रधान माना जाता है। उदाहरणों में पिता का सम्बन्ध प्रागमनक्रिया, स्थूलता गुण तथा गोद्रव्य के साथ शब्दों द्वारा प्रतिपादित है । इनके साथ पुत्र का सम्बन्ध २१६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती तृतीयः] अनुमित है, अतः पुत्र अप्रधान है। सह के अर्थवाची के योग में तृतीया होती है । सो सार्द्धम् आदि के योग में भी हो गई। तथा जहाँ केवल सह का अर्थ रहे, सहाथं शब्दों का योग न हो, वहाँ भी तृतीया हो जाती है । यथा-वृद्धो यूना ॥ तता येनाङ्गविकारः ।।२।३।२०॥ कोलीलामिक येन .३॥१॥ नङ्गविकार: ११॥ अङ्गम् अस्यास्तीति प्रङ्गः, प्रर्शश्रादिभ्योऽच (५।२६१२७) इत्यनेन मतुबर्षे अम् प्रत्ययः ॥ स०-अङ्गस्य विकारः अङ्गविकार:, षष्ठीतत्पुरुषः । अनु०-तृतीया ।। अर्थः- येन अङ्गन अङ्गस्य =शरीरस्य विकारो लक्ष्यते तस्मात् तृतीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा-अक्ष्णा काणः… पादेन खञ्जः । पाणिना कुण्ठः ॥ कल कौजिला मा भाषार्थ:- [येन ] जिस अङ्ग (शरीरावयव ) के द्वारा [अङ्गविकारः] अङ्गी अर्थात् शरीर का विकार लक्षित हो, उससे तृतीया विभक्ति होती है । अङ्ग अर्थात् शरीर के अवयव हैं जिस समुदाय में, वह शरीर (समुदाय) ‘अङ्ग’ कहलाया। येन अर्थात जिस अङ्ग के द्वारा, यहाँ प्राक्षेप से द्वितीय,अङ्ग शरीरावयवाची लिया गया है ।। उदा०-प्रणा काणः (आँख सोकाना) । पादेन खञ्जः (पैर दो लंगड़ा)। पाणिना कुण्ठः (हाथ से लुजा) ॥ उदाहरण में आँख शरीरावयव के द्वारा शरीर समुदाय का काणत्व विकार परिलक्षित हो रहा है, सो उसमें तृतीया हुई है । इसी प्रकार और उदाहरणों में भी समझे। LLS S SL _ इत्थंभूतलक्षणे ।।२।३।२१॥ आप इत्थंभूतलक्षणे ७।१॥ लक्ष्यते अनेनेति लक्षणम् ॥ स०-कचित प्रकारं प्राप्त: इत्थम्भूतः, तस्य लक्षणम् इत्थम्भूतलक्षणम्, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अन तृतीया ॥ अर्थः - इत्थंभूतलक्षणे तृतीया विभक्तिर्भवति ॥ उदा-अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् । अपि भवान् मेखलया ब्रह्मचारिणमद्राक्षीत ॥ भाषार्थ:- [इत्थंभूतलक्षणे] इत्थंभूत का जो लक्षण उसमें तृतीया विभक्ति होती है। उदा०-अपि भवान् कमण्डलुना छात्रमद्राक्षीत् (क्या आपने कमण्डलु लिये हए छात्र को देखा) । अपि भवान मेखलया ब्रह्मचारिणमद्राक्षीत (क्या आपने मेखला वाले छात्र को देखा) ॥ , उदाहरण में मनुष्यत्व सामान्य है, उसमें छात्रत्व और ब्रह्मचारित्व प्रकार है, अर्थात छात्रत्व प्रकार=धर्म को प्राप्त हुआ मनुष्य, ब्रह्मचारित्व प्रकार को प्राप्त हुआ मनुष्य, यह इत्थंभूत है । इस इत्यंभूत का कमण्डलु, और मेखला लक्षण हैं, तृतीया पादः] द्वितीयोऽध्यायः जा २१७ अर्थात् कमण्डलु से छात्र लक्षित किया जा रहा है, और मेखला से ब्रह्मचारी । अतः उनमें तृतीया हो गई है । भू प्राप्तौ चुरादिगण घातु से क्त प्रत्यय होकर भूत शब्द बना है, अतः भूत का अर्थ प्राप्त है । इत्थम् में इदमस्थमुः (५।३।२४) से थमु प्रत्यय हुआ है। संज्ञोऽन्यतरस्यां कर्मणि ॥२३॥२२॥ संज्ञः ६॥१॥ अन्यतरस्याम् अ० ॥ कर्मणि ७३१॥ अनु० -तृतीया, अनभिहिते।। अर्थः –सम्पूर्वस्य ज्ञाधातोरनभिहिते कर्मणि कारके तृतीया विभक्तिर्भवति दिकल्पेन।। उदा०–मात्रा संजानीते बालः, मातरं सजानीते । पित्रा संजानीते, पितरं सं द्वितीया वतीया नीते ।। 11 भाषार्थ:- [संज्ञः] सम्पूर्वक ज्ञा धातु के अनभिहित [कर्मणि] कर्मकारक में [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से तृतीया विभक्ति होती है । पक्ष में यथाप्राप्त द्वितीया विभक्ति होती है । उदा०-मात्रा संजानीते बालः (बालक माता को पहचानता है), मातरं सजानीते । पित्रा संजानीते, पितरं संजानीते ॥ मातृ शब्द संजानीते का कर्म है । सो उसमें द्वितीया तथा तृतीया विभक्ति हो गई हैं ॥ संप्रतिभ्याम् ० (११३।४६) से संजानीते में आत्मनेपद हुआ है ।। 13 TO हेतौ ॥२॥३॥२३॥ तृतीया हेतौ ७११॥ अनु०-तृतीया । अर्थ:-हेतुवाचिशब्दे तृतीया विभक्तिर्भवति ।। उदा०—विद्यया यश: । सत्सङ्गन बुद्धिः । धनेन कुलम् । भाषार्थ:-[हेतौ] हेतुवाची शब्द में तृतीया विभक्ति होती है । जिससे किसी कार्य की सिद्धि की जाये वह ‘हेतु’ होता है ।। __उदा०-विद्यया यशः (विद्या के द्वारा यश प्राप्त हुना) । सत्सङ्गन बुद्धिः (सत्सङ्ग के द्वारा बुद्धि प्राप्त हुई) । धनेन कुलम (धन के द्वारा कुल स्थित है) ॥ उदाहरण में विद्या के द्वारा यश प्राप्त हुना, अतः वह हेतु है । इसी प्रकार अन्यों में भी समझे । पूर्ववत् ‘विद्या टा’ पाकर प्राङि चाप: (७।३।१०५) से एत्व होकर विद्ये श्रा, एचोऽयवायाव: (६।११७५) लगकर विद्यया बन गया। शेष पूर्ववत है। यहाँ से ‘हेतो’ को अनुवृत्ति २।३।२७ तक जायेगी । F है २१८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ पनी तृतीयः HTTPS, अकर्तयणे पञ्चमी ॥२३॥२४॥R apive POP अकर्तरि ॥१॥ ऋणे ॥१॥ पञ्चमी १।१॥ अनु– हेतौ ॥ अर्थः- ऋणे वाच्ये कर्तृ रहिते हेतौ पञ्चमी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-शताद् बद्धः । सहस्राद् लबद्धः ॥ भाषार्थ:-[अकर्त्तरि] कर्तृभिन्न हेतुवाची शब्द में [ऋणे] ऋण वाच्य होने पर [पञ्चमी] पञ्चमी विभक्ति होती है ।। उदा०–शताद बद्धः (सौ रुपये के ऋण से बँध गया, अर्थात् मालिक ने उसे नौकर बना लिया)। सहस्राद् बद्धः । उसके बन्धन का हेतु सौ रुपये हैं, सो हेतुवाची होने से पञ्चमी हो गई है ।। पूर्व सूत्र से हेतु में तृतीया प्राप्त थी, पञ्चमी हो गई ॥ यहाँ से ‘पञ्चमी’ की अनुवृत्ति २।३।२५ तक जाती है ॥ LAAL कादक विभाषा गुणेऽस्त्रियाम् ॥२॥३॥२५॥ ___ विभाषा १११।। गुणे ७१॥ अस्त्रियाम ७१॥ स०-न स्त्री अस्त्री, तस्याम अस्त्रियाम्, नञ्तत्पुरुषः ।। अनु०-हेतो, पञ्चमी ।। अर्थ:-अस्त्रियाम् = स्त्रीलिङ्ग विहाय पुल्लिङ्गनपुंसकलिङ्ग वर्तमानो यो हेतुवाची गुणवाचकशब्दः,तस्मिन् विकल्पेन पञ्चमी विभक्तिर्भवति, पक्षे तृतीया भवति ॥ पूर्वेण नित्यं तृतीया प्राप्ता विकल्प्यते॥ उदा०–जाड्याद बद्धः, जाड्य न बद्धः । पाण्डित्यान् मुक्तः, पाण्डित्येन मुक्त: ॥ ___भाषार्थ:-[अस्त्रियाम् ] स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर अर्थात् पुल्लिङ्ग नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान जो हेतुवाची [गुणे] गुणवाचक शब्द, उसमें [विभाषा] विकल्प से पच्चमी विभक्ति होती है। उदा०-जाडयाद् बद्धः (मूर्खता से बन्धन में फंस गया), जाड्चन बद्धः । पाण्डित्यान् मुक्तः (पाण्डित्य के कारण मुक्त हो गया), पाण्डित्येन मुक्तः । जाड्य वा पाण्डित्य नपुंसकलिङ्ग में वर्तमान गुणवाची शब्द हैं, तथा बन्धन वा मुक्त होने के हेतु हैं, सो पञ्चमी विभक्ति हो गई । नित्य तृतीया हेतौ (२।३।२३ से) प्राप्त थी, पञ्चमी विकल्प से कर दी । अतः पञ्चमी होने के पश्चात् पक्ष में हेतौ (२।३।२३) सूत्र से प्राप्त तृतीया भी हो गई । ति सत्य षष्ठी देतप्रयोगेश है। इन को षष्ठी १।१।। हेतुप्रयोगे ७१॥ स०-हेतोः प्रयोगः हेतुप्रयोगः, तस्मिन्, षष्ठी पादः] to द्वितीयोऽध्यायः २१९ तत्पुरुषः ॥ अनु०-हेतौ ॥ अर्थ:-हेतुशब्दस्य प्रयोगे हेतौ द्यौत्ये षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०–अन्नस्य हेतोर्धनिकुले वसति ॥ Ripg भाषार्थ:-[हेतुप्रयोगे] हेतु शब्द के प्रयोग में, तथा जिससे हेतु द्योतित हो रहा हो, उस शब्द में [षष्ठी] षष्ठी विभक्ति होती है । की उदा०- अन्नस्य हेतोधनिकुले वसति (अन्न के कारण से धनवान् के कुल में वास करता है) । अन्न हेतु हैं, सो उसमें षष्ठी हो गई है।) भर यहाँ से ‘षष्ठी हेतुप्रयोगे’ को अनुवृत्ति २।३।२७ तक जायेगी। काणा र सर्वनाम्नस्तृतीया च ॥२।३।२७॥ सर्वनाम्न: ६।१॥ तृतीया ११॥ च अ० ॥ मन –षष्ठी, हेतुप्रयोगे, हेतौ ॥ अर्थः-सर्वनाम्नो हेतुशब्दस्य प्रयोगे हेतौ द्योत्ये तृतीया विभक्तिर्भवति, चकारात् षष्ठी च ॥ उदा०–कस्य हेतोर्वसति, केन हेतुना वसति । यस्य हेतोर्वसति, येन हेतुना वसति ॥ aitam P remierpan की भाषार्थ:-हेतु शब्द के प्रयोग में, तथा हेतु के विशेषणवाची [सर्वनाम्नः] सर्वनामसंज्ञक शब्द के प्रयोग में, हेतु धोतित होने पर [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है, [च] चकार से षष्ठी विभक्ति भी होती है | यहाँ पर निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायदर्शनम् इस वात्तिक से प्रायः करके सर्वनाम विशेषणवाची शब्द प्रयुक्त होने पर, निमित्त, कारण, हेतु का प्रयोग हो तो सब विभक्तियाँ होती हैं । उदा०–कस्य हेतोर्वसति (किस हेतु से बसता है), केन हेतुना वसति । यस्य हेतोर्वसति (जिस हेतु से बसता है), येन हेतुना दसति ॥ श्री व अपादाने पञ्चमी ॥२॥३॥२८॥ पञ्चमी इस अपादाने ७।१॥ पञ्चमी ११॥ अनु-अनभिहिते ॥अर्थ:-अनभिहिते ऽपादाने कारके पञ्चमी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-वृक्षात् पर्णानि पतन्ति । ग्रामाद् प्रागच्छति ॥ भाषार्थ:- अनभिहित [अपादाने] अपादान कारक में [पञ्चमी ] पञ्चमी विभक्ति होती है ॥ ध्र वमपायेऽपा० (१।४।२४) से अपादान संज्ञा हुई है ।। उदा०-वृक्षात् पर्णानि पतन्ति ( वृक्ष से पत्ते गिरते हैं) । प्रामाद् आगच्छति ॥ उदाहरण में प्रागच्छति क्रिया से अपादान अनभिहित है, प्रतः पञ्चमी हुई है । २२० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः THI A डिन यहाँ से ‘पञ्चमी’ की अनुवृत्ति ।३।३५ तक जायेगी ॥ अन्यारादितर दिक्छब्दाञ्चूत्तरपदाजाहियुक्त ॥२॥३॥२६॥ अन्या …..हियुक्ते ७१॥ स०-अन्यत्र पाराच्च इतरश्च ऋते च दिक्शब्दश्च अञ्चूत्तरपदश्च आच्च आहिश्चेति अन्यारादितरर्तेदिक्छब्दाञ्चूत्तर पदाजायः, तैर्युक्तम् अन्या………… जाहियुक्तम, तस्मिन्, द्वन्द्वगर्भस्तृतीया तत्पुरुषः ॥ अनु०-पञ्चमी ॥ अर्थः-अन्य, पारात, इतर, ऋते, दिक्शब्द, अञ्चू त्तरपद, पाच, पाहि इत्येतैर्योगे पञ्चमी विभक्तिर्भवति ।। उदा०- अन्यो देव. दत्तात् । अन्य इत्यर्थग्रहणं, तेन पर्यायप्रयोगेऽपि भवति–भिन्नो देवदत्तात्, अर्थान्तरं देवदत्तात् । पारात यज्ञदत्तात् । इतरो देवदत्तात् । ऋते यज्ञदत्तात् । पूर्वो ग्रामात पर्वतः, उत्तरो ग्रामात । पूर्वो ग्रीष्मात् वसन्तः । अञ्चूत्तरपदे-प्राग् ग्रामात्, प्रत्यग ग्रामात । प्राच-दक्षिणा ग्रामात् । उत्तरा ग्रामात् । प्राहि-दक्षिणाहि ग्रामात् । उत्तराहि ग्रामात् ॥पकी मार दिया भाषार्थ:- [अन्यारादित …..“युक्ते] अन्य, पारात, इतर, ऋते, दिक्शब्द, अञ्चूत्तरपद, पाचप्रत्ययान्त तथा प्राहिप्रत्ययान्त शब्दों के योग में पञ्चमी विभक्ति होती है । उदा० - अन्यो देवदत्तात्, भिन्नो देवदत्तात् (देवदत्त से भिन्न), अन्तरं देवदत्तात् । पारात् देवदत्तात् (देवदत्त से दूर या समीप) । बारात् यज्ञदत्तात् । इतरो देवदत्तात (देवदत्त से इतर=भिन्न) । ऋते यज्ञदत्तात् (यज्ञदत्त के बिना)। पूर्वो ग्रामात् पर्वत: (ग्राम से पूर्व पर्वत), उत्तरो ग्रामात् । पूर्वो ग्रीष्माद् वसन्तः (ग्रीष्म से पूर्व वसन्त) । अञ्चूत्तरपद में प्राण प्रामात् (ग्राम से पूर्व), प्रत्यग ग्रामात् (ग्राम से पश्चिम) । प्राच-दक्षिणा ग्रामात् (गाँव से दक्षिण), उत्तरा ग्रामात् । दक्षिणाहि ग्रामात् (ग्राम से दक्षिण) । उत्तराहि ग्रामात् ॥ प्र, प्रति पूर्वक अञ्च धातु से ऋत्विग्दधग० (३।२।५६) से क्विन् प्रत्यय होकर दिक्शब्देभ्य: (५।३।२७) से प्रस्ताति, तथा अञ्चेलक (५।३।३०) से उसका लक होकर प्राक और प्रत्यक् शब्द बने हैं । दक्षिणा में दक्षिणादाच (५।३।३६),तथा उत्तरा में उत्तराच्च (५।३।३८) से प्राच प्रत्यय हुआ है । आहि च दूरे (५।३।३७) से दक्षिणाहि प्रादि में प्राहि प्रत्यय हुअा है । गया षष्ठ्य तसर्थप्रत्ययेन ॥२॥३॥३०॥ f fois ॥ षष्ठी ११.१॥ अतसर्थप्रत्ययेन ३॥१॥ स०-अतसोऽर्थः अतसर्थः, षष्ठीतत्पुरुषः, अतसर्थे प्रत्ययः अतसर्थप्रत्ययः, तेन, सप्तमीतत्पुरुषः ।। अर्थः-अतसर्थप्रत्ययेन पादः द्वितीयोऽध्यायः २२१ है युक्ते षष्ठीविभक्तिर्भवति ॥ उदा०–दक्षिणतो ग्रामस्य । उत्तरतो ग्रामस्य । पुरो ग्रामस्य । पुरस्तात् ग्रामस्य । उपरि ग्रामस्य । उपरिष्टात् ग्रामस्य पाक भाषार्थ:- [अतसर्थप्रत्ययेन] अतसर्थ प्रत्यय के योग में [षष्ठी] षष्ठी विभक्ति होती है ।। अतसुच् के अर्थ में विहित, दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच् (५।३।२८) के अधिकार में कहे हुए प्रत्यय अतसर्थ प्रत्यय कहलाते हैं। उदा० -नक्षिणतो ग्रामस्य (ग्राम के दक्षिण में) । उत्तरतो ग्रामस्य । पुरो ग्रामस्य (ग्राम के पूर्व में) । पुरस्तात् ग्रामस्य । उपरि ग्रामस्य (ग्राम के ऊपर)। उपरिष्टात ग्रामस्य । दक्षिणतः, उत्तरतः में दक्षिणोत्तराभ्यामतसुच् (५।३।२८) से अतसुच् प्रत्यय हुआ है । पुरः में पूर्वाधरावरा० (५।३।३६) से पूर्व को पुर् प्रादेश, तथा असि प्रत्यय अतसर्थ में हुआ है । दिक्शब्देभ्यः० (५।३।२७) से पुरस्तात् में प्रस्ताति प्रत्यय हुआ है । उपर्यु परिष्टात् (५॥३॥३१) से ऊर्ध्व को उप भाव तथा रिल रिष्टातिल प्रत्यय उपरि उपष्टिात् में हुए हैं । इन सब के योग में षष्ठी हो गई है । एनपा द्वितीया ॥२॥३॥३१॥ द्वितीया साक एनपा ३॥१॥ द्वितीया ११॥ अर्थ:-एनपप्रत्ययान्तेन योगे द्वितीया विभक्ति भवति ॥ पूर्वेण षष्ठी प्राप्ता द्वितीया विधीयते ॥ उदा०-दक्षिणेन ग्रामम् । उत्तरेण ग्रामम् ।। _ भाषार्थ:-[एनपा] एनपप्रत्ययान्त शब्दों के योग में [द्वितीया ] द्वितीया विभक्ति होती हैं ॥ एवबन्यतरस्यामदूरे० (५।३।३५) से एनप् प्रत्यय का विधान है । एनप् के प्रतसर्थ प्रत्यय होने से पूर्व सूत्र से षष्ठी प्राप्त थी, द्वितीया का विधान कर दिया । हा उदा०-दक्षिणेन ग्रामम् (ग्राम से दक्षिण) । उत्तरेण ग्रामम् ॥ पृथग्विनानानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम् ।।२।३।३२॥ कमी पृथग्विनानानाभिः ३।३॥ तृतीया ११॥ अन्यतरस्याम् अ० ॥ स०-पृथक् च विना च नाना च पृथग्विनानानाः, तैः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-पञ्चमी । अर्थः-पृथक, विना, नाना इत्येतैर्योगे तृतीया विभक्तिर्भवति अन्यतरस्यां च ॥ उदा.-पृथक ग्रामेण, पृथक् ग्रामात् । विना घृतेन विना घृतात् । नाना देवदत्तेन, नाना देवदत्तात् ।। भाषार्थ:-[पृथग्विनानानाभि:] पृथक्, विना, नाना इन शब्दों के योग में
- २२२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः ततीपा ure [तृतीया] तृतीया विभक्ति [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से होती है, पक्ष में पञ्चमी भी होती है। उदा० -पृथक् ग्रामेण (ग्राम से पृथक् ), पृथक् ग्रामात् । विना घृतेन (बिना घी के), विना घृतात् । नाना देवदत्तेन (देवदत्त से भिन्न), नाना देवदत्तात् ॥ यहाँ से ‘तृतीया’ की अनुवृति २।३।३३ तक जायेगी ।। करणे च स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्यासत्त्ववचनस्य ॥२॥३॥३३॥ करणे ७।१॥ च अ०॥ स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्य ६।१॥ असत्त्ववचनस्य १।। स०-स्तोकश्च अल्पश्च कृच्छ्रश्च कतिपयश्च स्तोकाल्पकृच्छकतिपयम्, तस्य, समाहारो द्वन्द्वः । सत्त्वस्य वचनं सत्त्वचनम्, न सत्त्ववचनम् असत्त्ववचनम् तस्य, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु-तृतीया, पञ्चमी ॥ अर्थः-स्तोक, अल्प, कृच्छ, कतिपय इत्येतेभ्योऽसत्त्ववचनेभ्य: करणे कारके तृतीयापञ्चम्यो विभक्ती भवत: । उदा०-स्तोकान् मुक्तः, स्तोकेन मुक्तः। अल्पान मुक्तः, अल्पेन मुक्तः । कृच्छ्रान् मुक्तः, कृच्छ्ण मुक्त: । कतिपयान मुक्तः, कतिपयेन मुक्त: ॥ भाषार्थः- [स्तोकाल्पकृच्छकतिपयस्य ] स्तोक, अल्प, कृच्छ, कतिपय इन [असत्त्ववचनस्य] असत्त्ववाची= प्रद्रव्यवाची शब्दों से [करणे] करण कारक में तृतीया [च] और पञ्चमी विभक्ति होती हैं। उदा०-स्तोकान मुक्तः, स्तोकेन मुक्तः । अल्पकान् मुक्तः, अल्पेन मुक्तः । कृच्छान मुक्तः, कृच्छ्ण मुक्तः । कतिपयान् मुक्तः (कुछ से छूट गया), कतिपयेन मुक्तः ॥ करण में तृतीया (२।३।१८) से प्राप्त ही थी, पञ्चमी का ही यहाँ विधान किया है ।। स्तोकान् आदि में त् को न यरोऽनुनासिके० (८।४।४४) से हुआ है । movi दूरान्तिकार्थः षष्ठयन्यतरस्याम् ॥२॥३॥३४॥ दूरान्तिकार्थः ३१३॥ षष्ठी ११॥ अन्यतरस्याम् अ० ।। स०-दूरश्च अन्तिकश्च दूरान्तिकौ, तौ अथौँ येषां ते दूरान्तिकार्थाः, तैः, द्वन्द्व गर्भबहुव्रीहिः । अनु०-पञ्चमी।। अर्थः-दूराथैः अन्तिकाथैः = समीपार्थः शब्द: योगे षष्ठीविभक्ति विकल्पेन भवति, पक्षे पञ्चमी च ॥ उदा०-दूरं ग्रामात, दूरं ग्रामस्य । विप्रकृष्टं ग्रामात, विप्रकृष्टं ग्रामस्य । अन्तिक-अन्तिकं ग्रामात, अन्तिक ग्रामस्य । समीप ग्रामात्, समीपं ग्रामस्य । अभ्याशं ग्रामात, अभ्याशं ग्रामस्य । भाषार्थ:-[दूरान्तिकार्थः] दूर अर्थवाले, तथा समीप अर्थवाले शब्दों के, योग में [पष्ठी] षष्ठी विभक्ति [अन्यतरस्याम्] विकल्प से होती है, पक्ष में पञ्चमी भी होती हैं । दू पादः] द्वितीयोऽध्यायः २.२२३ उदा०-दूरं ग्रामात् (ग्राम से दूर), दूरं ग्रामस्य । विप्रकृष्टं ग्रामात्, विप्रकृष्टं ग्रामस्य ॥ अन्तिक ग्रामात् (ग्राम से समीप), अन्तिकं ग्रामस्य । समीप ग्रामात्, समीपं ग्रामस्य । अभ्याशं ग्रामात्, अभ्याशं ग्रामस्य ।। जलाशय । यहाँ से ‘षष्ठयन्तरस्याम’ की अनवृत्ति २॥३॥३५ तक जायेगी। MAR अष्ठी दूरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च ॥२।३।३५।।। दूरान्तिकार्थेभ्य: ५।३॥ द्वितीया ११॥ च अ० ॥ स०-पूर्वसूत्रानुसारमेव । दूरान्तिकार्थेभ्य इत्यत्र समासः ॥ अन०-षष्ठयन्यतरस्याम्, पञ्चमी । अर्थ: दूरान्ति कार्थेभ्यः शब्देभ्य: द्वितीया विभक्तिर्भवति’, चकारात षष्ठी च भवति विकल्पेन । अत: पक्षे पञ्चम्यपि भवति ॥ एवं विभक्तित्रयं सिद्धं भवति ॥ उदा० दूरं ग्रामस्य, दूरस्य ग्रामस्य, दूराद् ग्रामस्य। विप्रकृष्टं विप्रकृष्टस्य विप्रकृष्टाद वा ग्रामस्य ।। अन्तिकं अन्तिकस्य अन्तिकाद् वा ग्रामस्य । समीपं समीपस्य समीपाद वा ग्रामस्य ।। भाषार्थः - [दूरान्तिकार्थेभ्यः] दूर अर्थवाले तथा समीप अर्थवाले शब्दों से [द्वितीया] द्वितीया विभक्ति होती है, [च] और चकार से षष्ठी भी होती है, तथा अन्यतरस्याम् की अनुवृत्ति होने से पक्ष में पञ्चमी भी होती है। इस प्रकार तीव रूप बनते हैं। पूर्व सूत्र में दूर अन्तिक के योग में षष्ठी विकल्प से कही थी, तथा यहाँ दूरान्तिक शब्दों से द्वितीयादि कहा है, यह भेद है ।। 2यहाँ से ‘दूरान्तिकार्थेभ्य:’ को अनुवृत्ति २।३।३६ तक जायेगी ।। । पवित । अनु सप्तम्यधिकरणे च ।।२।३।३६॥ २४ सप्तमी श१॥ अधिकरणे ७१॥ च अ० ।। अनु०-दूरान्तिकार्थेभ्यः, अन भिहिते ।। अर्थः- अनभिहितेऽधिकरणे सप्तमी विभक्तिभवति, चकाराद् दूरान्तिकार्थे भ्यश्च ।। उदा०–कटे प्रास्ते । शकटे प्रास्ते । स्थाल्यां पचति । दूरान्तिकार्थेभ्यः दूरे ग्राम स्य, विप्रकृष्टे ग्रामस्य । अन्तिके ग्रामस्य, अभ्याशे ग्रामस्य । यो भाषार्थ:-अनभिहित [अधिकरणे] अधिकरण में [सप्तमी] सप्तमी विभक्ति होती है, तथा [च] चकार से दूरान्तिकार्थक शब्दों से भी होती है ॥ आधारोऽधि करणम् (१।४।४५) से अधिकरण संज्ञा कही है । उस अधिकरण में यहाँ सप्तमी विभक्ति कह दी है। प्रती च ॥२।३।३६॥ १. यहां काशिकादियों में षष्ठी की अनुवृत्ति न लाकर तृतीया का समुच्चय किया है । सो प्रयोगाधीन जानन चाहिये ।।) TE क्षिक ) is कि । शीशाराहील (रम का २२४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती तृतीयः मग उदा० - कटे आस्ते (चटाई पर बैठता है) । शकटे प्रास्ते (गाड़ी में बैठता है) । स्थाल्यां पचति (बटलोई में पकाता है) । दूरान्तिकाओं से-दूरे ग्रामस्य, विप्रकृष्टे ग्रामस्य । अन्तिके ग्रामस्य, अभ्याशे प्रामस्य । IS यहाँ से ‘सप्तमी’ की अनवृत्ति २।३६४१ तक जायेगी॥ समय पी _यस्य च भावेन भावलक्षणम् ॥२॥२॥३७॥ यस्य ६॥१॥ च अ० ॥ भावेन ३॥१॥ भावलक्षणम् ११॥ स०-भावस्य लक्षणम् भावलक्षणम्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अन०-सप्तमी ।। अर्थ:–यस्य च भावेन =क्रियया भावः=क्रियान्तरं लक्ष्यते, तस्मात् सप्तमी विभक्तिर्भवति ॥ उदा गोषु दुह्यमानासु गतः । दुग्धासु आगतः । अग्निष हूयमानेषु गतः । हुतेष्वागत: ।। भाषार्थ:- [यस्य] जिसकी [भावेन] क्रिया से कोई [भावलक्षणम्] दूसरी क्रिया लक्षित की जाय, उसमें [च] भी सप्तमी विभक्ति होती है । इस सूत्र में भाव का अर्थ क्रिया है। उदा०-गोषु दुह्यमानासु गतः (गौत्रों के दोहनकाल में गया था)। दुग्धासु प्रागतः (दोहनकाल के पश्चात् प्रा गया) । अग्निषु हूयमानेषु गतः (यज्ञकाल में गया था)। हुतेष्वागतः (यज्ञकाल के बाद आ गया) ॥ मुथा उदाहरण में गौ को दोहनक्रिया से गमनक्रिया (जाना) लक्षित की जा रही है, अतः उसमें सप्तमी हो गई है। इसी प्रकार अन्य उदाहरणों में भी समझ ॥ यहाँ से ‘इस सारे सूत्र’ को अनुवृत्ति २।३।३८ तक जायेगी। षष्ठी, सपनी षष्ठी चानादरे ॥२॥३॥३८॥ षष्ठी १३१॥ च अ०॥ अनादरे ७।१।। स०-न आदर: अनादरः, तस्मिन् अनादरे, नञ्तत्पुरुषः .. अनु–यस्य च भावेन भावलक्षणम्, सप्तमी ॥ अर्थ: यस्य क्रियया क्रियान्तरं लक्ष्यते, ततोऽनादरे गम्यमाने षष्ठी विभक्तिर्भवति, चकारात् सप्तमी च ॥ उदा०–रुदतः प्रावाजीत्, रुदति प्राव्राजीत । क्रोशत: प्राव्राजीत्, क्रोशति प्रावाजीत् ॥ भाषार्थ:-जिसकी क्रिया से क्रियान्तर लक्षित हो, उसमें [अनादरे] अनादर गम्यमान होने पर [षष्ठी] षष्ठी, तथा [च] चकार से सप्तमी विभक्ति भी होती है । उदाल-रुदत: प्राबाजीत् (रोते हुए को छोड़कर बिना परवाह किये परिवा जक बन गया), रुदति प्रावाजीत् । कोशतः प्रावाजीत् (क्रोध करते हुये को छोड़कर २२५ पादः ] द्वितीयोऽध्यायः परिव्राजक बन गया), क्रोशति प्राब्राजीत ॥ रुदन वा क्रोशन क्रिया से क्रियान्तर (उसका जाना) लक्षित हो रहा है । तथा अनादर भी प्रकट हो रहा है. सो षष्ठी सप्तमी विभक्ति हो गई। यहाँ से ‘षष्ठी’ की अनुवृत्ति २॥३॥४१ तक जायेगी ॥ जठी सप्रमा स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूतैश्च ॥२।३।३६॥ स्वामीश्व प्रसूतैः ३।३॥ च प्र० स०–स्वामी च ईश्वरश्च अधिपतिश्च दायादश्च साक्षी च प्रतिभूश्च प्रसूतश्चेति स्वामीश्वराधिपतिदायादसाक्षिप्रतिभूप्रसूताः, तै:……,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-षष्ठी, सप्तमी ॥ अर्थः-स्वामिन्, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षिन्, प्रतिभू, प्रसूत इत्येतैः शब्दोंगे षष्ठीसप्तम्यौ विभक्ती भवतः ।। उदा०- गवां स्वामी, गोषु स्वामी । गवाम् ईश्वरः, गोषु ईश्वरः । गवाम् अधिपतिः, गोषु अधिपतिः । गवां दायादः, गोषु दायाद: । गवां साक्षी, गोषु साक्षी। गवां प्रतिभूः, गोषु प्रतिभूः । गवां प्रसूतः, गोषु प्रसूतः ॥ भाषार्थः-[स्वामी ….“प्रसूतः] स्वामी, ईश्वर, अधिपति, दायाद, साक्षी, प्रतिभू, प्रसूत इन शब्दों के योग में [च] भी षष्ठी और सप्तमी विभक्ति होती हैं । उदा०-गवां स्वामी (गौनों का स्वामी), गोषु स्वामी । गवाम् ईश्वरः (गौओं का मालिक), गोषु ईश्वरः । गवाम् अधिपतिः (गौत्रों का मालिक), गोषु अधि पतिः । गवां दायावः (गोरूपी पैतृक धन का अधिकारी), गोषु दायादः । गवां साक्षी (गौओं का साक्षी), गोषु साक्षी । गवां प्रतिभूः (गौमों का जामिन), गोषु प्रतिभूः । गवां प्रसूतः (गौनों का बछड़ा), गोषु प्रसूतः ॥ आयुक्तकुशलाम्यां चासेवायाम ॥२॥३॥४०॥ नष्ठा,AHHI आयुक्तकुशलाभ्यां ३।२॥ च प्र० ॥ आसेवायाम् ७॥१॥ स०-पायुक्तश्च कुशलश्च आयुक्तकुशलो, ताभ्याम् ….",इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥अनु० - षष्ठी, सप्तमी ॥ अर्थः-पासेवायां गम्यमानायाम आयुक्त कुशल इत्येताम्यां शब्दाभ्यां योगे षष्ठी सप्तम्यो विभक्ती भवतः ।। उदा०-पायुक्तः कटकरणस्य, प्रायुक्त: कटकरणे । कुशलः कटकरणस्य, कुशलः कटकरणे ॥ भाषार्थ:-[आयुक्तकुशलाभ्याम्] प्रायुक्त तथा कुशल शब्दों के योग में [] भो [प्रासेवायाम् ] प्रासेवा तत्परता गम्यमान हो, तो षष्ठी सप्तमी विभक्ति हो जाता है।” hote fण मातीमा २२६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः उन उदा०-पायुक्तः कटकरणस्य (चटाई बनाने में लगा है), प्रायुक्तः कट करणे । कुशलः कटकरणस्य (चटाई बनाने में होशियार है), कुशलः कटकरणे ॥ षष्ठी,सप्तमी यतश्च निर्धारणम् ।।२।३।४१॥ यतश्च निरिणम् ।।२।३।४॥ यतः अ० ॥ च अ० ॥ निर्धारणम् ११॥ अनु०-षष्ठी, सप्तमी ॥ अर्थः यत: यस्मात निर्धारणम् (जातिगुणक्रियाभिः समुदायाद् एकस्य पृथक्करणम्) भवति, तस्मात् षष्ठीसप्तम्यौ विभक्ती भवतः ॥ उदा०—मनुष्याणां क्षत्रियः शूरतमः, मनुष्येषु क्षत्रिय: शूरतमः । गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा गोषु कृष्णा सम्पन्नक्षीरतमा । अध्वगानां घावन्तः शीघ्रतमाः, अध्वगेषु धावन्तः शीघ्रतमाः ॥ टेक भाषार्थ:–[यत:] जिससे [निर्भीरणम् ] निर्धारण हो, उसमें [च] भी षष्ठी सप्तमी विभक्ति होती हैं । उदाहरणों में मनुष्य गौ तथा दौड़ते हुओं से निर्धारण किया जा रहा है, अतः षष्ठी सप्तमी विभक्ति हो गई हैं । यहाँ से ‘यतश्च निर्धारणम्’ की अनुवृत्ति २।३।४२ तक जायेगी। चमी पञ्चमी विभक्त ॥२३॥४शाना-मान पञ्चमी ११॥ विभक्ते ७।१॥ अनु०-यतश्च निर्धारणम् ॥ अर्थः—यस्मिन् निर्धारणे विभागो भवति, तत्र पञ्चमी विक्तिभवति ॥ उदा०-माथ रा: पाटलि पुत्रकेभ्य: सुकुमारतरा: । पाटलिपुत्रके म्यः पाढ्यतराः ।। _ भाषार्थ:-जिस निर्धारण में [विभक्ते] विभाग किया जाये, उसमें [पञ्चमी] पञ्चमी विभक्ति हो जाती है ॥ ऊपर के सूत्र का यह अपवाद है। परत उदा०-माथुराः पाटलिपुत्रकेभ्यः सुकुमारतराः (मथुरा के लोग पटनावालों से अधिक सुकुमार हैं) । पाटलिपुत्रकेभ्यः पाढयतराः ॥ निर्धारण के प्राश्रय तथा निर्धार्यमाण का विभाग होने पर ही निर्धारण होता हैं। फिर भी इस सूत्र में विभक्ते’ ग्रहण का प्रयोजन यह है कि जिस निर्धारणाश्रय में सदा विभाग ही होता है (अन्तर्भाव कभी नहीं होता), इस प्रकार अवधारण हो सके । जैसे उदाहरण में मथुरावालों से पटनावाले सर्वथा विभक्त हैं। परन्तु पूर्व सूत्र के उदाहरणों में गौ आदि में कृष्णा प्रादि का गोत्व आदि के रूप में अन्त र्भाव भी होता है ॥ यय का साजरा साधुनिपुणाभ्यामर्चायां सप्तम्यप्रतेः ॥२॥३॥४३॥ साधुनिपुणाभ्याम् ३।२॥ अर्चायां ७।१।। सप्तमी ११॥ अप्रते: ६।१।२०– साधुश्च निपुणश्च साधुनिपुणौ, ताभ्याम् …..",इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न प्रतिः अप्रतिः, सपाती पादः ] द्वितीयोऽध्यायः २२७ तस्य …..,नजतत्पुरुषः ॥ अय:-अर्चायाम् == सत्कारे गम्यमाने साधुनिपुणशब्दाभ्यां योगे सप्तमी विभक्तिर्भवति, न चेत् प्रतेः प्रयोगो भवेत् ॥ उदा० -मातरि साधुः, पितरि साधुः । मातरि निपुणः, पितरि निपुण: ॥ीको ___भाषार्थ:- [अर्चायाम् ] अर्चा =-सत्कार गम्यमान होने पर [साधुनिपुणा भ्याम्] साधु निपुण शब्दों के योग में [अप्रतेः] प्रति का प्रयोग न हो, तो [सप्तमी] सप्तमी विभक्ति होती है। एक
- उदाo-मातरि साधुः (माता के प्रति साधु है), पितरि साधुः। मातरि निपुणः (माता के प्रति कुशल है), पितरि निपुणः ॥ जाना ___ यहाँ से ‘सप्तमी’ की अनुवृत्ति २।३।४५ तक जायेगी। माता प्रसितोत्सुकाभ्यां तृतीया च ॥२॥३॥४४॥ प्रसितोत्सुकाभ्यां ॥२॥ तृतीया ॥१॥ च अ० ॥ स०-प्रसितश्च उत्सुकश्च प्रसितोत्सुकौ, ताभ्यां-इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०–सप्तमी ॥ अर्थ:-प्रसित उत्सुक इत्येताम्यां शब्दाभ्यां योगे तृतीया विभक्तिर्भवति, चकारात् सप्तमी च ।। उदा०-केशः प्रसित:, केशेषु प्रसितः । केशरुत्सुकः, केशेषत्सुकः ॥ ___ भाषार्थ:-[प्रसितोत्सुकाभ्याम्] प्रसित उत्सुक इन शब्दों के योग में [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है, [च] तथा चकार से सप्तमी भी होती है । उदा०—केशः प्रसित: (केशों को सम्हालने में लगा रहनेवाला), केशेषु प्रसितः । केशरुत्सुकः ( केशों के लिये उत्सुक), केशेषत्सुकः ॥ है यहाँ से ‘तृतीया’ की अनुवृत्ति २।३।४५ तक जायेगी ॥ __ नक्षत्रे च लुपि ॥२।३।४५ अकृताया,सप्रमा नक्षत्रे ७३१॥ च अ० ॥ लुपि ॥१॥ अनु०-तृतीया, सप्तमी ॥ अथः लुबन्तात् नक्षत्रशब्दात तृतीयासप्तम्यौ विभक्ती भवतः ॥ उदा०-पुष्येण पायस मश्नीयात, पुष्ये पायसमश्नीयात् ।। भाषार्थ:-[लुपि] लुबन्त [नक्षत्रे] नक्षत्रवाची शब्द से [च] भी तृतीया और सप्तमी विभक्ति होती हैं । नक्षत्रवाची शब्द से जहाँ काल अर्थ में प्रत्यय प्रा कर लुप हो जाता है, उसका इस सूत्र में ग्रहण है ।। ॥ उदा० -पुष्येण पायसमश्नीयात् (पुष्य नक्षत्र से युक्त काल में खीर खावे), पुष्ये पायसमश्नीयात् ॥ीही पEिR पुष्य शब्द से नक्षत्रेण युक्तः कालः (४।२१३) से अण् प्रत्यय होकर, लुबविशेषे S E E नक्षत्रे च लूपि ॥२।३।४।। प्रामा २२८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः (४।२।४) से उस अण का लुप हो गया है । अतः यह लुबन्त नक्षत्रवाची शब्द है, सो तृतीया और सप्तमी हो गई हैं। प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा ॥२॥३॥४६॥ शासकी प्रातिपदि. मात्रे ७१।। प्रथमा शास-प्रातिपदिकस्य अर्थःप्रातिपदिकार्थः, षष्ठीतत्पुरुषः । प्रातिपदिकार्थश्च लिङ्गञ्च परिमाणञ्च वचनञ्च प्रातिपदिकार्थ लिङ्गपरिमाणवचनं, समाहारो द्वन्द्वः । प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनञ्चादः मात्रञ्च प्राति वचनमात्र, तस्मिन् …,कर्मधारयतत्पुरुषः । द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते’ इत्येतस्मात् नियमात मात्रशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते ॥ अर्थः प्रातिपदिकार्थः=सत्ता । लिङ्ग =स्त्रीपुनपुंसकानि । परिमाणं =तोलनम् । वचनम् =एकत्वद्वित्वबहुत्वानि । प्रातिपदिकार्थमात्र, लिङ्गमात्रे, परिमाणमात्रे, वचनमात्रे च प्रथमा विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-प्रातिपदिकार्थमात्र- उच्चैः, नीचैः । लिङ्गमात्रे-कुमारी, वृक्षः, कुण्डम् । परिमाणमात्रे-द्रोणः, खारी, आढकम् । वचनमात्रे-एकः, द्वौ, बहवः ॥ नामावली परितोष भाषार्थ:-[प्रातिपदिकार्थलिङ्गपरिमाणवचनमात्र प्रातिपदिकार्थमात्र, लिङ्ग मात्र, परिमाणमात्र, तथा वचनमात्र में [प्रथमा] प्रथमा विभक्ति होती है ।
- विशेषः - यहाँ इतनी बात समझने की है कि प्रातिपदिकार्थ क्या है ? प्राति पदिकार्थ पञ्चक (सत्ता, द्रव्य, लिङ्ग, सङ ख्या, कारक) एवं त्रिक (सत्ता, द्रव्य, लिङ्ग) तथा द्विक (सत्ता, द्रव्य) को भी कहते हैं । जब पञ्चक प्रातिपदिकार्य मानेंगे, तो लिङ्गादि के पृथक् ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि वे सब प्रातिपादिकार्थ में ही आ गये । जब द्विक मानेंगे, तो बाकी सब पृथक-पथक् कहने पड़ेंगे । लिङ्गमात्र प्रादि का यहाँ अर्थ यह है कि ‘जहाँ प्रातिपदिकार्थ के अति रिक्त लिङ्ग की भी अधिकता हो, परिमाण को भी अधिकता हो’ सो लिङ्गमात्र का लिङ्गाधिक्ये, परिमाणाधिक्ये प्रादि अर्थ हुभा ॥’ यहाँ से ‘प्रथमा’ को अनुवृत्ति २।३।४८ तक जायेगी॥ Janा सम्बोधने च ॥२॥३॥४७॥ न सम्बोधने ७॥१॥ च अ०॥ अनु०– प्रथमा ॥ अर्थः-सम्बोधने च प्रथमा विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-हे देवदत्त, हे देवदत्तौ, हे देवदत्ताः॥T कि भाषार्थ:-[सम्बोधने] सम्बोधन में [च] भी प्रथमा विभक्ति होती है। इस प्रकार सु प्रौ जस सम्बोधन विभक्ति में भी पाते हैं । सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति प्राकर-हे देवदत्त सु इस अवस्था में २।३।४६ से सम्बुद्धि संज्ञा हो गई है। पादः] द्वितीयोऽध्यायः २२६ तथा सम्बुद्धि संज्ञा होने से एङ्ह्रस्वात् सम्बुद्धः (६।११६७) से सु का लोप हो गया है । सामन्त्रितम् ।।२।३।४॥ आमाजिक __सा ॥१॥ आमन्त्रितम् ११॥ अनु०-प्रथमा ॥ अर्थ:–सा इत्यनेन सम्बोधने या प्रथमा सा निर्दिश्यते ॥ सम्बोधने या प्रथमा तदन्तं शब्दरूपं आमन्त्रित सझं भवति ॥ उदा० -अग्ने । भाषार्थ:- [सा] सम्बोधन में जो प्रथमा उसको [आमन्त्रितम] प्राम न्त्रित संज्ञा होती है ।। आमन्त्रित संज्ञा होने से आमन्त्रितस्य च (६।१।१९२) से अग्ने को प्रायुदात्त हो गया है। यहां से ‘आमन्त्रितम्’ को अनुवृत्ति २।३।४६ तक जायेगी ।। एकवचनं सम्बुद्धिः ॥२॥३॥४६॥ जिस एकवचनम् ११॥ सम्बुद्धिः १०१।। अनु०-आमन्त्रितम् ॥ अर्थः-आमन्त्रित प्रथमाविभक्त र्यद एकवचनं तत्सम्बुद्धिसञकं भवति ॥ उदा०–अग्ने । वायो। देवदत्त ।। जयपुर भाषार्थ:- आमन्त्रितसञ्जक प्रथमा विभक्ति के [एकवचनम्] एकवचन को [सम्बुद्धि:] सम्बुद्धि संज्ञा होती है ॥ सम्बुद्धि संज्ञा होने से अग्ने वायो में ह्रस्वस्य गुणः (७।३।१०८) से गुण, तथा एह्रस्वात् सम्बुद्ध: (६।१।६७) से सु का लोप हो गया है ॥ षष्ठी शेषे ॥२॥३॥५०॥ ॥ बट 2 षष्ठी ११॥ शेषे ७१।। अर्थः-कर्मादीनि कारकाणि प्रातिपदिकार्थश्च यत्र न विवक्ष्यन्ते स शेषः ।शेषे षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-राज्ञः पुरुषः। कार्पासस्य वस्त्रम् । वृक्षस्य शाखा ॥ भाषार्थ:-कर्मादि कारक तथा प्रातिपदिकार्थ जहाँ विवक्षित न हों, वह शेष है। [शेषे] शेष में [षष्ठी] षष्ठी विभक्ति होती है। उदा०-राज्ञः पुरुषः (राजा का पुरुष) । कार्पासस्य वस्त्रम् (रुई का वस्त्र) । वृक्षस्य शाखा (वृक्ष की शाखा)॥ । यहां से ‘षष्ठी शेषे’ को अनुवृत्ति पाद के अन्त तक जायेगी। तथा जिन-जिन सूत्रों में शेषे अधिकार लगेगा, वहाँ ‘अनभिहित अधिकार नहीं लगेगा, ऐसा जानें । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः अठा ज्ञोऽविदर्शस्य करणे ॥२॥३॥५१।। ज्ञ: ६॥१॥ अविदर्थस्य ६॥१॥ करणे ७॥१॥ स०-विद अर्थो यस्य स विदर्थः, बहुव्रीहिः । न विदर्थः अविदर्थः, तस्य “,नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-षष्ठी शेषे ॥ अर्थ:-अविदर्थस्यः अज्ञानार्थस्य ज्ञाधातो: करणे कारके शेषत्वेन विवक्षिते षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-सर्पिषो जानीते । मधुनो जानीते ॥ भाषार्थ:-[अविदर्थम्प] प्रज्ञानार्थक जो [ज्ञ:] ज्ञा धातु उसके [करणे] करण कारक में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है ॥ घी के कारण प्रवृत्ति हो रही है, अथवा-म्रान्ति के कारण घी समझ कर प्रवृत्ति हो रही है, प्रतः प्रज्ञानार्थ है। अकर्मकाच्च (१॥३॥४५) से जानीते में प्रात्ममेपत हुपा है। शेष सर्वत्र इसलिये कहते हैं कि कारक विवक्षाधीन हैं, सो किसी कारक की विवक्षा न हो, तब शेष विवक्षित होने पर षष्ठी होगी ॥ विजयी । पग्री अधीगर्थदयेशां कर्मणि ॥२॥३॥५२॥ अधीगर्थदयेशाम् ६।३|| कर्मणि ७।१॥ अनु०-षष्ठी शेषे ॥ स-अधीग् अर्थो येषां घातूनां ते अधीगाः । अधीगर्थाश्च दयश्च इट् च अधीगर्थदयेश:, तेषां …बहुव्रीहिंगभैंतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अर्थः-अधीगर्थ = स्मरणार्थक, दय, ईश इत्येतेषाँ धातूनां शेषे विवक्षिते कर्मणि कारके षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-मातुरध्येति, मातुः स्मरति । सर्पिषो दयते । सर्पिष ईष्टे ॥ भाषार्थः-[अधीगर्थदयेशाम् ] अधि पूर्वक हक् धातु के अर्थवाली धातुओं के, तथा दय और ईश धातुओं के [कर्मणि] कर्म कारक में, शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है । अधि पूर्वक इक् धातु स्मरण अर्थ में होती है । उदा० मातुरध्येति (माता का स्मरण करता है ), मातुः स्मरति । सर्पिषो दयते (धी देता है) । सपिष ईष्टे (घी पर अधिकार करता है) ॥ यहाँ से ‘कर्मणि’ की अनुवृत्ति २।३।६१ तक जायेगी। शाम कुत्रः प्रतियत्ने ॥२॥३॥५३॥ कृत्रः ६।१॥ प्रतियले ७१॥ अर्थ:-कर्मणि, षष्ठी शेषे ॥ अर्थः-कृञ् धातोः कर्मणि कारके शेषत्वेन विवक्षिते प्रतियत्ने गम्यमाने षष्ठी विभक्तिर्भवति ।। उदा० एघोदकस्य उपस्कुरुते ॥ भाषार्थ:- [कृत्रः] कृञ् पातु के कर्म में शेष विवक्षित होने पर [प्रतियत्ने] प्रतियत्न गम्यमान हो, तो षष्ठी विभक्ति होती है । ‘प्रतियत्न’ किसी गुण को किसी और रूप में बदलने को कहते हैं । पादः] द्वितीयोऽध्यायः २३१ । उदा.-एषोदकस्य उपस्कुरुते (इंधन जल के गुण को बदलता है) ॥ रुजार्थानां भाववचनानामज्वरेः ॥२॥३॥५४॥ पाह रुजार्थानाम् ६॥३॥ भाववचनानाम् ६॥३॥ अज्वरेः ६।१।। स.-रुजा अर्थो येषां ते रुजार्थाः, तेषां …… बहुव्रीहिः । भावो वचन: (कर्ता) येषां ते भाववचना:, तेषाम् … बहुव्रीहिः । न ज्वरिः प्रज्वरिः, तस्य अज्वरेः, नञ्तत्पुरुषः॥ वक्तीति वचनः कतरि ल्युट, तेन वचनशब्दस्य कर्तरि तात्पर्यम् ॥ अनु०-कर्मणि, षष्ठी शेषे ॥ अर्थः भाववचनानां=भावकत्र्तृकाणां रुजार्थानां धातूनां ज्वरवर्जितानां कर्मणि कारके शेषे विवक्षिते षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-चौरस्य रुजति रोगः। चौरस्य प्रामयति आमयः ॥ - भाषार्थ:—[भाववचनानाम् ] धात्वर्थ को कहनेवाले जो घनादिप्रत्ययान्त शब्द, वे हैं कर्ता जिन [रुजार्थानाम् ] रुजार्थक धातुओं के, उनके कर्म में शेष विव क्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है, [प्रज्वरेः] ज्वर धातु को छोड़कर ॥ उदा.-चौरस्य रुजति रोगः (रोग चोर को कष्ट देता है)। चौरस्य प्रामयति प्रामयः ।। यहां भाववचन का अर्थ भावकत क है। भाव का अर्थ हुप्रा धात्वर्ण, सश वचन का तात्पर्य कर्त्ता से है । सो उदाहरण में ‘उज्’ धातु का कष्ट भोगना जो धात्वर्ण है, वह घञ्प्रत्ययान्त ‘रोग’ शब्द से कहा जा रहा है। तथा रोग शब्द रुजति का कर्ता है, अतः चौर कर्म में षष्ठी हो गई है। प्राशिषि नाथः ॥२॥३॥५५॥ षष्ठी आशिषि ७१॥ नाथ: ६।१॥ अनु०–कर्मणि, षष्ठी शेषे ॥ अर्थः-आशिषि वर्तमानस्य नाथधातो: कर्मणि कारके शेषत्वेन विवक्षिते षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०–सर्पिषो नायते । मधुनो नाथते ॥ ___ भाषार्थ:-[आशिषि] प्राशीर्वचन अर्थ में [नाथ:] नाथ धातु के कर्म में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है ।। यहाँ ‘पाशीः’ का अर्थ इच्छा है ।। उदा० - सर्पिषो नाशते (घी की इच्छा करता है)। मधुनो नाशते । (शहद को इच्छा करता है)। जिपष्टी _जासिनिप्रहणनाटक्रापिषां हिंसायाम् ॥२।३।५६।। । _जासिनि…पिषाम ६॥३॥ हिंसायाम ७१॥ स०–जासिश्च निप्रहणं च नाटश्च क्राथश्च पिट् च जासिनिप्रहण नाटक्राथपिषः, तेषां . …,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-कर्मणि, षष्ठी शेषे ॥ अर्थः-जसुधातो: चौरादिकस्य निपूर्वकस्य प्रपूर्वकस्य हनधातो:, नाट क्राथ पिष इत्येतेषां च हिंसाक्रियाणाम् कर्मणि कारके शेषत्वेन २३२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती तृतीयः] TED विवक्षिते षष्ठी विभक्तिभवति ॥ उदा०-चौरस्य उज्जासयति । दुष्टस्य निप्रहन्ति, वृषलस्य निहन्ति, चौरस्य प्रहन्ति । सङ्घातविगृहीतस्य नि प्र इत्येतस्य ग्रहणम् । चौरस्य उन्नाटयति । चौरस्य क्राथयति । चौरस्य पिनष्टि ॥ _ भाषार्थ:–[हिंसायाम्] हिंसा क्रियावाली [जासिनिप्रहणनाटक्राथपिषाम्] जसु ताडने, नि प्र पूर्वक हन, ग्यन्त नट एवं, क्रश पिष् इन घातुनों के कर्म में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती हैं । उदा०-चौरस्य उज्जासयति (चोर को मारता है) । दुष्टस्य निप्रहन्ति (दुष्ट को मारता है), वृषलस्य निहन्ति (नीच को मारता है), चौरस्य प्रहन्ति (चोर को मारता है) । चौरस्य उन्नाटयति (चोर को नष्ट करता है)। चौरस्य क्राथयति (चोर को मारता है) । चौरस्य पिनष्टि (चोर को मार-मार कर पीसता है)॥थ धातु घटादिगण में पढ़ी है, सो घटादयो मित: (धातुपाठ भ्वादिगण का सूत्र पृ० १२) से मित् होकर मितां ह्रस्वः (६।४।६२) से ह्रस्व प्राप्त था, पर यहाँ निपातन से वृद्धि हो जाती है । उदाहरण में चौर कर्म है, सो यहाँ षष्ठी हो गई है। हाई षष्ठी व्यवहपणोः समर्थयोः ॥२।३।५७॥ । व्यवहृपणोः ६।२॥ समर्थयो: ६।२॥ स०-व्यव ह च पणश्च व्यवहृपणौ, तयोः …….. इतरेतरयोगद्वन्द्वः । समोऽर्थो ययोः तो समथौं, तयोः बहुव्रीहिः॥ अनु० कर्मणि, षष्ठी शेषे ॥अर्थ:-वि अव पूर्वको यो हुन् धातुः, पण धातुश्च, तयोः समर्थयोः कर्मणि कारके शेषत्वेन विवक्षिते षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-शतस्य व्यवहरति, सहस्रस्य व्यवहरति । शतस्य पणते, सहस्रस्य पणते ॥ – भाषार्थ:- [व्यवहृपणोः] वि अव पूर्वक हृ धातु, तथा पण धातु [समर्थयोः] समर्थ =समानार्थक हों, तो उनके कर्म में शेष विवक्षित होने पर षष्ठी विभक्ति होती है ।। वि अव पूर्वक ह धातु व्यवहारार्थक है, तथा पण धातु भी व्यवहार अर्थ वाली ली गई है, सो दोनों समानार्थक हैं ।। उदा०-शतस्य व्यवहरति (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्रस्य व्यवहरति । शतस्य पणते (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्रस्य पणते ॥ घष्ठी दिवस्तदर्थस्य ।।२।३।५८।। दिव: ६।१॥ तदर्थस्य ६।१॥ स०-सः (व्यवहारः) अर्थो यस्य स तदर्थः, तस्य …,बहुव्रीहिः ॥ अनु०-कर्मणि, षष्ठी ॥ अर्थः-तदर्थस्य = व्यवहारार्थस्य दिवधातोः अनभिहिते कर्मणि कारके षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-शतस्य दीव्यति, सहस्रस्य दीव्यति ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २२३३ भाषार्थ:-[तदर्थस्य] व्यवहारार्थक [दिवः] दिव् धातु के कर्म में षष्ठी विभक्ति होती है ॥ तदर्थ से यहाँ व्यवहृ पण धातुओं का जो व्यवहार अर्थ है, वह लिया गया है । इस तथा अगले दो सूत्रों में ‘शेर्षे का सम्बन्ध नहीं है। उदा०-शतस्य दीव्यति (सौ रुपये व्यवहार में लाता है), सहस्रस्य दीव्यति ॥ यहाँ से ‘दिवस्तदर्थस्य’ की अनुवृत्ति २।३।६० तक जायेगी । _विभाषोपसर्गे ॥२॥३॥५६॥ अष्ठी हितीप) विभाषा १।१।। उपसर्गे ७१॥ अनु०-दिवस्तदर्थस्य, कर्मणि षष्ठी ॥ अर्थः तदर्थस्य दिधातो: सोपसर्गस्य कर्मणि कारके विभाषा षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ पूर्वेण नित्यं प्राप्ता षष्ठी विकल्प्यते ॥ उदा०-शतस्य प्रतिदीव्यति, शतं प्रतिदीव्यति । सहस्रस्य प्रतिदीव्यति, सहस्र प्रतिदीव्यति ॥ भाषार्थ:-व्यवहारार्थक दिव धातु [उपसर्ने] सोपसर्ग हो, तो कर्म कारक में [विभाषा] विकल्प से षष्ठी विभक्ति होती है, पक्ष में यथाप्राप्त द्वितीया होती है । द्वितीया ब्राह्मणे ॥२॥३॥६०॥ दितीणा द्वितीया ११॥ ब्राह्मणे ७।१॥ अनु०-दिवस्तदर्थस्य, कर्मणि षष्ठी ॥ अर्थः– ब्राह्मणविषयके प्रयोगे तदर्थस्य दिवधातोः कर्मणि कारके द्वितीया विभक्तिर्भवति ।। उदा०-गामस्य तदहः सभायां दीव्येयुः ।। ___भाषार्थ:- [ब्राह्मणे] ब्राह्मणविषयक प्रयोग में व्यवहारार्थक दिव् धातु के कर्म में [द्वितीया] द्वितीया विभक्ति होती है ॥ कर्म में द्वितीया तो होती ही है, पुनर्वचन पूर्व सूत्रों से जो षष्ठी प्राप्त थी, उसके हटाने के लिए है । अतः ‘गाम्’ में यहाँ षष्ठी न होकर द्वितीया हो गई। जय भण्ठा पति प्रेष्य वोह विषो देवतासम्प्रदाने ॥२॥३॥६१॥ प्रेष्यब्रवोः ६।२॥ हविष: ६।१।। देवतासम्प्रदाने ७॥१॥ स-प्रेष्यश्च ब्रूश्च प्रेष्य वौ, तयोः ……,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । देवता सम्प्रदानं यस्य (अर्थस्य) स देवता सम्प्रदान:, तस्मिन्, बहुव्रीहि ।। अनु०-कर्मणि षष्ठी ।। अर्थः-देवतासम्प्रदानेऽर्थ वर्तमानयोः प्रेष्यब्र वोः कर्मणो हविषो वाचकात् शब्दात् षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसः प्रे३व्य । अग्नये छागस्य हविषो वपाया मेदसोऽनुन हि ॥ ਨਿਗਰੀ ਲੀ ਲੁ ਲੈ ਕਿ ਨ २३४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः __ भाषार्थ:-[देवतासम्प्रदाने] देवता सम्प्रदान है जिसका, उस क्रिया के वाचक [प्रेष्यप्र वः] प्र पूर्वक इष धातु (दिवादि गणवाली) तथा ब्रू धातु के कर्म [हविषः] हवि के वाचक शब्द से षष्ठी विभक्ति होती है । घgी चतुर्थ्यर्थ बहुलं छन्दसि ।।२।३।६२॥ चतुर्थ्यर्थे ७।१॥ बहुलम् १।१।। छन्दसि ॥१॥ स०-चतुर्थ्यर्थे इत्यत्र षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०-षष्ठी ।।अर्थ:-छन्दसि विषये चतुर्थ्यर्थ बहुलं षष्ठी विभक्तिर्भवति ।। उदा० -दार्वाघाटस्ते वनस्पतीनाम् (यजु० २४१३५।। तै० ५।५।१५॥१॥ मै० ३।१४।१६) । ते ‘वनस्पतिभ्यः’ एवं प्राप्ते । कृष्णो रात्र्यै ॥ । णा भाषार्थः - [चतुर्थ्यर्थे ] चतुर्थी के अर्थ में [छन्दसि] वेदविषय में [बहुलम] बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है। बहुल कहने से ‘रात्र्य’ यहाँ षष्ठी नहीं होती है ॥ । यहां से ‘बहुलम् छन्दसि’ की अनुवृत्ति २।३।६३ तक जायेगी। यजेश्च करणे ॥२॥३।६३॥ यजे: ६।१॥ च अ०॥ करणे ७।१।। अनु०-बहुलं छन्दसि, षष्ठी ।। अर्थः यजधातोः करणे कारके वेदविषये बहुलं षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-घृतस्य यजते (कौषी० १६॥५॥ श०४।४।२।४), घृतेन यजते । सोमस्य यजते, सोमेन यजते ।। * भाषार्थ:- [यजेः] यज धातु के [च] भी [करणे] करण कारण में वेदविषय में बहुल करके षष्ठी विभक्ति होती है । करण में तृतीया प्राप्त थी, बहुल कहने से पक्ष में वह भी हो गई ॥ जी कृत्वोऽर्थप्रयोगे कालेऽधिकरणे ॥२।३।६४॥ । कृत्वोऽर्थप्रयोगे ७॥१॥ काले ११॥ अधिकरणे ७।१॥ स० -कृत्वसोऽर्थः कृत्वोर्थः, षष्ठीतत्पुरुषः । कृत्वोर्थ एव अर्थो येषां ते (प्रत्ययाः) कृत्वोऽर्थाः, बहुव्रीहिः । कृत्वोऽर्थस्य प्रयोगः कृत्वोऽर्थप्रयोगः तस्मिन् … - षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-षष्ठी शेषे ।। अर्थः-कृत्वोऽर्थानां प्रत्ययानां प्रयोगे काले अधिकरणे शेषत्वेन विवक्षिते षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-पञ्चकृत्वोऽह्नो भुक्ते । द्विरह्नोऽधीते । दिवसस्य पञ्च कृत्वो भुङ्क्ते ॥ भाषार्थ:- [कृत्वोऽर्थप्रयोगे] कृत्वसुच् प्रत्यय के अर्थ में वर्तमान जो प्रत्यय हैं, तदन्त प्रातिपदिकों के प्रयोग में [काले] कालवाची [अधिकरणे] अधिकरण शेष की विवक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है ।। पाद:] द्वितीयोऽध्यायः उदा०-पञ्चकृत्वोऽह्नो भुङ क्ते (दिन में पांच बार खाता है)। द्विरह्नोऽधीते (दिन में दो बार पढ़ता है) । दिवसस्य पञ्चकृत्वो भुङ्क्ते । तर अहन् तथा दिवस शब्द कालवाची अधिकरण हैं, उनमें षष्ठी हो गई है। संख्यायाः क्रियाभ्या० (५।४।१७) से पञ्चकृत्वः में कृत्वसुच्, तथा द्विर् में द्वित्रि चतुर्थ्य: सुच् (५।४।१८) से कृत्वोऽर्थ में सुच् प्रत्यय हुआ है ॥ कर्तृकर्मणोः कृति ॥२॥३॥६५॥ षष्ठी कर्तृ कर्मणोः ७।२।। कृति ७।१।। स०-कर्ता च कर्म च कर्त कर्मणी, तयोः …… ,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-षष्ठी, अनभिहिते ॥ अर्थ:-कृतप्रयोगे अनभिहिते कर्तरि कर्मणि च षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०—कर्तरि-भवत: शायिका। भवत पासिका। कर्मणि-अपां स्रष्टा । पुरां भेत्ता । वज्रस्य भर्ती ॥ भाषार्थः-अनभिहित [कर्तृकर्मणो:] कर्ता और कर्म में [कृति ] कृत् का प्रयोग होने पर षष्ठी विभक्ति होती है ॥ कृदतिङ् (३।१।६३) से कृतसंज्ञक बुच् प्रत्यय पर्यायाहणो० (३।३।१११) से शायिका प्रादि में हुआ है । तथा तृच प्रत्यय स्रष्टा आदि में हुआ है। सो इनके कर्ता और कम में षष्ठी हो गई है । पूरी सिद्धि परि० २।२।१६ में देखें ।। दीवार यहाँ से ‘कृति’ को अनुवृत्ति २।३।६६ तक जायेगी ।। 1 उभयप्र यप्राप्ती कर्मणि ॥२31 उभयप्राप्तौ ७१॥ कर्मणि ७१।। स०-उभयो: (कत्तृ कर्मणोः) प्राप्तिय स्मिन् (कृति) सोऽयमुभयप्राप्तिः, तस्मिन् …..",बहुव्रीहिः ॥ अनु०-कृति, षष्ठी, अनभि हिते ।। अर्थः-उभयो: कर्तृ कर्मणोः प्राप्तियस्मिन् कृति तत्रानभिहिते कर्मण्येव षष्ठी विभक्तिर्भवति, न कर्तरीति नियम्यते ।। उदा०-आश्चर्यो गवां दोहोऽगोपाल केन ।’ रोचते मे प्रोदनस्य पाको देवदत्तेन ॥ भाषार्थ:-पूर्वसूत्र से कर्ता और कर्म दोनों में षष्ठी प्राप्त थी। सो यहाँ नियम कर दिया कि जिस कृदन्त के योग में [उभयप्राप्ती] कर्ता और कर्म दोनों में एक साथ षष्ठी प्राप्त हो, वहाँ अनभिहित [कर्मणि] कर्म में षष्ठी हो, कर्ता में नहीं । उदाहरण में दोहः पाक: घन प्रत्ययान्त कृदन्त हैं । अगोपालक तथा देवदत्त कर्ता हैं, और गौ तथा प्रोदन कर्म हैं । सो कृत् के योग में दोनों में (कर्ता और कर्म में) षष्ठी प्राप्त हुई, तब इस सूत्र से कर्म ‘गौ’ तथा ‘मोदन’ में ही षष्ठी हुई। कर्ता में कर्तु करणयोस्तृतीया (२।३।१८) से तृतीया हो गई ॥ कालिक २३६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीय: तस्य च वर्तमाने ॥१३ ॥ क्तस्य ६१॥ च अ०॥ वर्तमाने ७१।। अन०-षष्ठी ॥ अथः–वर्तमाने काले विहितस्य क्तप्रत्ययान्तस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिर्भवति ॥ उदा०-राज्ञां मतः । राज्ञां बुद्धः । राज्ञां पूजितः ॥ भाषार्थ:-[वर्तमाने] वर्तमान काल में विहित जो [क्तस्य] क्त प्रत्यय उसके प्रयोग में [च] भी षष्ठी विभक्ति होती है ॥ न लोकाव्ययनिष्ठा० (२॥३॥ ६९)से निष्ठासंज्ञक होने से क्तप्रत्ययान्त के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति प्राप्त नहीं थी। यहाँ वर्तमान काल में विहित क्त में प्राप्त करा दी । मतिबुद्धिपूजार्थे० (३।२। १८८) से वर्तमानकाल में क्त विहित है ॥ यहाँ से ‘क्तस्य’ को अनुवृत्ति २।३।६८ तक जायेगी। घा अधिकरणवाचिनश्च ।।२।३।६८॥ - अधिकरणवाचिन: ६।१॥ च अ०॥ अनु०-क्तस्य, षष्ठी।अर्थः-अधिकरण वाचिन: क्तप्रययान्तस्य प्रयोगे षष्ठी विभक्तिर्भवति ।। क्तोऽधिकरणे० (३४।७६) इत्यनेनाधिकरणे क्तो विहितः ॥ उदा०- इदमेषां यातम् । इदमेषां भुक्तम् । इदमेषां शयितम् । इदमेषां सृप्तम् ॥ यन भाषार्थ:-[अधिकरणवाचिन:] अधिकरणवाची क्तप्रत्ययान्त के प्रयोग में [च] भी षष्ठी विभक्ति होती है ॥ २॥३॥६६ से षष्ठी का निषेध प्राप्त होने पर इस सूत्र का विधान है ॥ क्तोऽधिकरणे. (३।४।७६) से अधिकरण में क्त होता है ।। उदा०-इदमेषां यातम । इदमेषां भुक्तम् । इदमेषां शयितम् (यह इनके सोने का स्थान) । इदमेषां सृप्तम् (यह इनके जाने का स्थान)॥ जी निधन न लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् ॥२॥३॥६६॥ न अ०॥ लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम् ६।३।। स०–खलोऽर्थः खलर्थः, खलर्थ एव अर्थो येषां ते खलः , बहुव्रीहिः । लश्च उश्च उकश्च अव्ययञ्च निष्ठा च खलर्थश्च तृन चेति लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनः, तेषां …..,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० षष्ठी ॥ अर्थः-ल, उ, उक, अव्यय, निष्ठा, खलर्थ, तन इत्येतेषां योगे षष्ठी विभक्तिर्न भवति ॥ ‘ल’ ग्रहणेन ये लकारस्य स्थान आदेशाः शतृशानचौ, कानचक्वसू किकिनौ च ते गृह्यन्ते ॥ उदा०-प्रोदनं पचन, प्रोदनं पचमान: । कानच-प्रोदनं पेचानः । क्वसु-प्रोदनं पेचिवान । किकिनौ–पपि: सोम, ददिर्गाः । उ-कटं चिकीर्षः, प्रोदनं बुभुक्षुः । उक-अागामुकं वाराणसी रक्ष आहुः । अव्यय–कटं कृत्वा, प्रोदनं भुक्त्वा । निष्ठा-कटं कृतवान, देवदत्तेन कृतम् । खलर्थ–ईषत्करः पाद:] द्वितीयोऽध्यायः २३७ कटो भवता, ईषत्पान: सोमो भवता । तृन–सोमं पवमानः । नटमाध्नानः । अधीयन् पारायणम् । कर्ता कटान् । वदिता जनापवादान् ॥ तृन् इत्यनेन प्रत्याहारग्रहणम्, लटः शत० (३।२।१२४) इत्यारभ्य आ तृनो (३।२।१३५) नकारात् ॥ - भाषार्थ:- [लोकाव्ययनिष्ठाखलर्थतनाम] ल, उ, उक, अव्यय, निष्ठा, खलर्थ, तन इनके प्रयोग में षष्ठी विभक्ति [न] नहीं होती ॥ ल से लादेश शत शानच् कानच् श्वसु कि किन् इनका ग्रहण है ।। कतृकर्मणोः कृति (२।३।६५) से कर्ता कर्म में षष्ठी प्राप्त होने पर इस सूत्र ने निषेध कर दिया है ॥ उदा०-प्रोदनं पचन, प्रोदनं पचमानः । कानच -प्रोदनं पेचानः (उसने भात पकाया) । क्वसु-प्रोदनं पेचिवान् । किकिन-पपिः सोमम्, ददिर्गाः । उ-कटं चिकीर्षः (चटाई बनाने की इच्छावाला), प्रोदनं बुभुक्षः (चावल खाने की इच्छावाला) । उक-आगामुकं वाराणसी रक्ष प्राहुः (राक्षस लोग भी मुक्ति की इच्छा से वाराणसी की ओर आने की इच्छा रखते हैं, ऐसा लोग कहते हैं)। अव्यय -कटं कृत्वा (चटाई बनाकर), प्रोदनं भुक्त्वा । निष्ठा-कटं कृतवान् (चटाई बनाई), देवदत्तेन कृतम् (देवदत्त के द्वारा किया गया) । खलर्थ- ईषत्करः कटो भवता (पापको चटाई बनाना आसान है), ईषत्पानः सोमो भवता (आपके द्वारा सोम पीना आसान है) । तन–सोमं पवमानः (सोम को पवित्र करते हुए) । नट माध्नानः (नट को मारता हुआ) । अधीयन् पारायणम् (पारायण को पढ़ता हुआ) कर्ता कटान (चटाई को बनानेवाला) । वदिता जनापवादान् (लोगों की बुराई को कहनेवाला) || लटः शतृशान० (३।२।१२४) से लट् के स्थान शत शानच्, लिट: कानज वा (३।२।१०६) से लिट के स्थान में कानचु, क्वसुश्च (३।२।१०७) से क्वसु प्रादृ गमहन० (३।२।१७१) से कि तथा किन् प्रत्यय लिटस्थानी हैं । अतः ये सब लादेश होने से “ल” कहने से लिए गये हैं। पेचिवान ग्रादि की पूरी सिद्धियाँ तत्-तत् सूत्रों में ही देखें । यहाँ तो यही दिखाना है कि कर्म में (प्रोदनम आदि में) जो षष्ठी प्राप्त थी, वह नहीं हुई। सनाशंसभिक्ष उः (३।२।१६८) से उ प्रत्यय चिकोषः प्रादि में हुआ है । लषपतपद० (३।२।१५४) से उकन, जिसको सूत्र में ‘उक’ कहा है, ‘पागामुकं’ में हुआ है ।। कृत्वा की अव्ययसंज्ञा क्त्वातोसुन्कसुनः (१।१।३६) से हुई है ।। खल के अर्थ में जो विहित प्रत्यय वह खली कहाये । ईषत्करः में ईषदु:सुष० (३।३।१२६) से खल्, तथा ईषत्पानः में खलों में युच प्रत्यय हुआ है। तृन से प्रत्याहार का ग्रहण है-लटः शतृशानचाव०(३।२।१२४)के त से लेकर तन के नकारपर्यन्त । अतः ‘तृन’ कहने से उसके अन्तर्गत जो शानन , चानश्, २३८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः शत, तृन उनका भी ग्रहण होता है। पवमानः में पूयजो; शानन (३।२।१२८) से शानन प्रत्यय; ‘माध्नानः’ में प्राङ पूर्वक हन धातु से ताच्छील्यवयो० (३।२। १२९) से चानश् प्रत्यय; एवं ‘प्रधीयन’ में इधार्योः शत्र० (३।२।१३०) से शत् प्रत्यय; तथा कर्ता में तृन (३।२।१३५) से तृन प्रत्यय हुआ है । ये सब तृन में प्रत्याहार ग्रहण करने से पा गये । सब सिद्धियां तत् तत् सूत्रों में ही देखें ।। सूत्र में उ + उक में अकः सवर्णे० (६।१।६७) से दीर्घ एकादेश होकर ऊक बना, पुनः प्राद्गुणः (६।१।८४) से गुण एकादेश होकर ‘लोक’ बन गया ॥ली का यहाँ से ‘न’ को अनुवृत्ति २।३।७० तक जायेगी। के पानिपतकेनोभविष्यदाधमर्ण्ययोः ॥२।३।७०॥ अकेनोः ६।२।। भविष्यदाधमर्ण्य यो: ७३२॥ स०–अकश्च इन च अकेनौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । भविष्यच्च प्राधमर्ण्यञ्च भविष्यदाधमण्ये, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०–न, षष्ठी ।। अर्थ:-भविष्यति प्राधमण्ये च विहितस्य अकान्तस्य इन्प्रत्ययान्तस्य च प्रयोगे षष्ठी विभक्तिर्न भवति ।। उदा० – कटं कारको व्रजति, प्रोदनं भोजको व्रजति ॥ अकप्रत्ययस्तु भविष्यत्येव विहितो न त्वाधमये, तेनासम्भवमुदाहरणम प्राधमय॑स्य । ग्रामं गमी, ग्रामं गामी । प्राधमये शतं दायी, सहस्र दायी ॥ भाषार्थ:- [अकेनोः] अक प्रत्यय तथा इन प्रत्यय, जो [भविष्यदाधमर्प्य यो:] भविष्यत् काल तथा प्राधमये अर्थों में विहित हैं, तदन्त शब्दों के प्रयोग में षष्ठी विभक्ति नहीं होती है । यहाँ दो प्रत्यय तथा दो ही अर्थों के होने से यथासंख्य होना चाहिये, सो नहीं होता, ऐसा व्याख्यान से जानना चाहिये । अक (व) केवल भविष्यत् काल में विहित है, तथा ‘इन’ भविष्यत् और प्राधमये दोनों अर्थों में है, सो उसी प्रकार उदाहरण दिये हैं । उदा०-कटं कारको व्रजति (चटाई बनानेवाला जाता है), प्रोदनं भोजको व्रजति । इनि–ग्राम गमो (गाँव को जानेवाला) । ग्रामं गामी। प्राधमये-शतं दायी (सौ रुपया कर्जा चुकानेवाला), सहस्र दायी ॥ कारकः आदि में ण्वुल तुमुन्ण्वुलो० (३।३।१०) से हुआ है । गमी में गमेरिनि: (उणा० ४.६) से इनि प्रत्यय हुना है, जो कि भविष्यति गम्यादयः (३१३३) सूत्र से भविष्यत् काल में विहित है ॥ दायी में आवश्यकाधमर्ययो. (३।३। १७०) से णिनि प्राधमये अर्थ में हुआ है। पूरी सिद्धि तत्-तत् सूत्रों में ही मिलेगी ।। षष्ठी का प्रतिषेध करने पर कर्म में द्वितीया हो गई है । यह सूत्र भी २।३।६५ का ही अपवाद है। द्वितीयोऽध्यायः पादः] ht २६६ कृत्यानां कर्तरि वा ।।२।३।७१॥ घटी, तीया कृत्यानाम् ६॥३॥ कर्तरि ७।१॥ वा अ०॥ अनु०-षष्ठी, अनभिहिते ।। अर्थः-कृत्यप्रत्ययान्तानां प्रयोगे अनभिहिते कत्तरि विकल्पेन षष्ठी विभक्तिर्भवति, न कर्मणि ॥ उदा०—देवदत्तस्य कर्त्तव्यः, देवदत्तेन कर्त्तव्यः । भवत: कट: कर्त्तव्यः, भवता कटः कर्तव्यः ॥ es ही भाषार्थ:- [कृत्यानाम ] कृत्यप्रत्ययान्तों के प्रयोग में अनभिहित [कतरि] कर्ता में [वा] विकल्प से षष्ठी होती है, न कि कर्म में ॥ कर्तृकर्म० (२।३।६५) से कर्ता में नित्य षष्ठी प्राप्त थी, विकल्प कह दिया है ।। म उदा०-देवदत्तस्य कर्तव्यः (देवदत्त के करने योग्य), देवदत्तेन कर्तव्यः । भवतः कटः कर्तव्यः (अापके द्वारा चटाई बनाई जानी चाहिये), भवता कटः कर्तव्यः । देवदत्त तथा भवत् शब्द का हैं, सो इनमें षष्ठी, तथा पक्ष में कर्तृ करणयो० (२।३।१८) से तृतीया भी हो गई है । कट अभिहित कर्म है, अतः इसमें कत्तू कर्मणोः कृति ( २१३१६५) से कृत का प्रयोग होने पर भी षष्ठी नहीं हुई, क्योंकि वहाँ अनभिहित कर्म कहा है । सो वहाँ प्रातिपदिकार्थमात्र होने से प्राति० (२।३।४६) से प्रथमा विभक्ति हो गई है। तव्य प्रत्यय कृत्या: (३।१।९५) से कृत्यसंज्ञक है ॥ तती या जधी - तुल्याऔरतुलोपमाभ्यां तृतीयाऽन्यतरस्याम् ॥२॥३॥७२॥
- तुल्यार्थं : ३३॥ अतुलोपमाभ्याम् ३।२।। तृतीया १११॥ अन्यतरस्याम् अ० ॥ स०-तुल्यः अर्थों येषां ते तुल्यार्थाः, तै: तुल्यार्थः, बहुव्रीहिः । तुला च उपमा च तुलोपमे, न तुलोपमे अतुलोपमे,ताभ्यां, द्वन्द्वगर्भो न तत्पुरुषः ॥ अनु०-षष्ठी शेषे ॥ अर्थ:- तुल्याय: शब्दोंगे शेषे विवक्षिते तृतीया विभक्तिर्भवति अन्यतरस्याम्, पक्षे षष्ठी च, तुलोपमाशब्दौ वर्जयित्वा ॥ उदा०-तुल्यो देवदत्तेन, तुल्यो देवदत्तस्य । सदृशो देवदत्त न, सदृशो देवदत्तस्य ॥ भाषार्थ:-[तुल्याय:] तुल्य के पर्यायवाची शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर [अतुलोपमाभ्याम] तुला और उपमा शब्दों को छोड़कर [अन्यतरस्याम ] विकल्प से [तृतीया] तृतीया विभक्ति होती है, पक्ष में षष्ठी विभक्ति होती है ।। उदा०-तुल्यो देवदत्तेन (देवदत्त के तुल्य), तुल्यो देवदत्तस्य । सदृशो देवदत्तेन, सदृशो देवदत्तस्य॥ यहां से ‘अन्यतरस्याम्’ की अनुवृत्ति २।३।७३ तक जायेगी । २४० तुपी को प्रष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [तृतीयः चतुर्थी चाशिष्यायुष्यमद्रभद्रकुशलसुखाहितैः ॥२॥३॥७३॥ चतुर्थी १३१॥ च अ०॥ आशिषि ७१॥ आयुष्यद्रभद्रकुशलसुखार्थ हितः ३॥३॥ स०-पआयुष्यं च मद्र’ च भद्र च कुशलं च सुखं च अर्थश्च हितं च आयुष्यमद्रभद्र कुशलसुखार्थहितानि, तैः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-षष्ठी शेषे, अन्यतरस्याम् ॥ अर्थ:-आशिषि गम्यमानायाम् आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, अर्थ, हित इत्येतैोंगे शेषे विवक्षिते विकल्पेन चतुर्थी विभक्तिर्भवति, पक्षे षष्ठी च ॥ उदा०—आयुष्यं देवदत्ताय भूयात, आयुष्यं देवदत्तस्य भूयात् । अत्र ‘प्रायुष्यादीनां पर्यायग्रहणम्’ इत्यनेन वात्तिकेन पर्यायाणामपि ग्रहणं भवति । चिरं जीवितं देवदत्ताय, देवदत्तस्य वा भूयात् । मद्र देवदत्ताय, मद्र देवदत्तस्य । भद्र देवदत्ताय, भद्र देवदत्तस्य । कुशलं देवदत्ताय, कुशलं देवदत्तस्य। निरामयं देवदत्ताय, निरामयं देवदत्तस्य । सुखं देवदत्ताय, सुखं देवदत्तस्य । शं देवदत्ताय, शं देवदत्तस्य । अर्थों देवदत्ताय, अर्थो देवदत्तस्य । प्रयोजनं देवदत्ताय, प्रयोजनं देवदत्तस्य । हितं देवदत्ताय, हितं देवदत्तस्य । पथ्यं देवदत्ताय, पथ्यं देवदत्तस्य ।। भाषार्थः-[आशिषि] प्राशीर्वचन गम्यमान हो, तो [आयुष्यमद्रभद्रकुशल सुखार्थहित:] आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख, अर्थ, हित इन शब्दों के योग में शेष विवक्षित होने पर [चतुर्थी] चतुर्थी विभक्ति होती है, [च] चकार से पक्ष में षष्ठी भी होती है । यहाँ प्रायुष्य इत्यादि शब्दों के पर्यायवाचियों का भी ग्रहण होता है । पनि उदा०–प्रायुष्यं देवदत्ताय भूयात् (देवदत्त की प्रायु बढ़े), प्रायुष्यं देवदत्तस्य भूयात् । चिरं जीवितं देवदत्ताय देवदत्तस्य वा भूयात् । मद्रं देवदत्ताय (देवदत्त का भला हो), मद्रं देवदत्तस्य । भद्रं देवदत्ताय (देवदत्त का कल्याण हो), भद्रं देवदत्तस्य । कुशलं देवदत्ताय (देवदत्त का कुशल हो), कुशलं देवदत्तस्य । निरामयं देवदत्ताय (देवदत्त रोगरहित हो), निरामयं देवदत्तस्य । सुखं देवदत्ताय (देवदत्त को सुख हो), सुखं देवदत्तस्य । शं देव दत्ताय, शं देवदत्तस्य । अर्थो देवदत्ताय (देवदत्त का प्रयोजनं सिद्ध हो), अर्थो देवदत्तस्य । प्रयोजनं देवदत्ताय, प्रयोजनं देवदत्तस्य । हितं देवदत्ताय (देवदत्त का हित हो), हितं देवदत्तस्य । पथ्र्य देवदत्ताय, पथ्यं देवदत्तस्य ।। कि ॥ इति तृतीयः पादः पादः] जिद्वितीयोऽध्यायः २४१ सनिक गण चतुर्थः पादः शाय) RERNET शाः एकवदाप्रकरणम कफ (11015)
- Uchulalol स मय द्विगुरेकवचनम् ।।२।४।१॥ द्विगु: १।१॥ एकवचनम् १।१।। स०-एकस्य वचनम् एकवचनम्, षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अर्थ:-द्विगुसमास एकवचनम् =एकस्य अर्थस्य वाचको भवति ।। उदा०-पञ्च पूला: समाहृता: पञ्चपूली, दशपूली ॥ शेतम भाषार्थ:-[द्विगु:] विगु समास [एकवचनम् ] एकवचन अर्थात् एक अर्थ का वाचक होता है । सयापूर्वो द्विगुः (२।११५१) से सङ्ख्या पूर्ववाले तत्पुरुष को द्विगु संज्ञा कही है ॥ पञ्चपूली प्रादि की सिद्धि परि० २१११५० में देखें ॥ एकवद्भाव हो जाने से सर्वत्र द्वये कयोढि० (१४१२२) से एकवचन होकर ‘सु’मा जाता है ।। यहां से ‘एकवचनम् ’ की अनुवृत्ति २।४।१६ तक जायेगी। द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् ॥२४॥२॥ सायकवाचन तर द्वन्द्वः १।१ । च अ० ॥ प्राणितूर्य सेनाङ्गानाम् ६॥३॥ स०-प्राणी च तूर्यश्च सेना च प्राणितूर्यसेना:, तासाम् अङ्गानि प्राणितूर्यसेनाङ्गानि, तेषां, द्वन्द्वगर्भषष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०-एकवचनम् ॥ अर्थ:-प्राण्यङ्गानां तूर्याङ्गानां सेनाङ्गानां च द्वन्द्व एकवद्भवति ।। उदा०-पाणी च पादौ च पाणिपादम् । शिरश्च ग्रीवा च शिरोग्रीवम् । तूर्याङ्गानाम् – मार्दङ्गिकश्च पाणविकश्च मार्दङ्गिकपाणविकम् । वीणावादकपरिवाद कम् । सेनाङ्गानाम् -रथिकाश्च अश्वारोहाश्च रथिकाश्वारोहम् । रथिकपादातम् ॥ भाषार्थ:- [प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम ] प्राणी के अङ्ग, तूर्य = वाद्य के अङ्ग, तथा सेना के अङ्ग (अवयव) वाची शब्दों के [द्वन्द्वः] द्वन्द्व समास को [च] भी एक वद्भाव हो जाता है ।। अङ्ग शब्द प्रत्येक के साथ सम्बन्धित होता है । अङ्ग का अर्थ अवयव है। इन उदा० -पाणिपादम् (हाथ और पैर) । शिरोनीवम् (सिर और कण्ठ) । तूर्याङ्गानाम —मार्दभिकपाणविकम, (मबङ्ग तथा पणव-ढोल बजानेवाला)। वीणावादकपरिवादकम् (वीणावावक और परिवादक) । सेनाङ्गानाम - रथिकावा २४२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः रोहम (रथवाले तथा घुड़सवार)। रथिकपादातम् (रथवाले तथा पैदल चलनेवाले)। इस प्रकरण में द्वन्द्व समास को जहाँ-जहाँ एकवद्भाव किया है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र स नपुमकम् (२।४।१७) से नपुंसकलिङ्ग भी हो जाता है । एकवद्भाव करने का सर्वत्र यही प्रयोजन है कि दो में द्विवचन तथा बहुतों में बहुवचन प्राप्त था, सो एकवभाव कहने से एकवचन ही हो । यहाँ से ‘द्वन्द्वः’ को अनुवृत्ति २।४।१६ तक जायेगी। अनुवादे चरणानाम् ॥२।४।३॥ अनुवादे ७॥१॥ चरणानाम् ६॥३॥ अनु०-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थ: अनुवादे गम्यमाने चरणानां द्वन्द्व एकवद्भवति ।। उदा०-उदगात् कठकालापम् । प्रत्यष्ठात् कठकौथुमम् ॥ शाक भाषार्थ:- [चरणानाम ] ‘चरणवाचियों का जो द्वन्द्व उसको [अनुवादे] अनुवाद गम्यमान होने पर एकवद्भाव हो जाता है || PEPR FES सवाची उदा०–उदगात् कठकालापम् । प्रत्यष्ठात् कठकौथुमम (प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाण से जानकर कोई कहता है- कठों और कालापों की उन्नति हुई, कठों और कौथुमों की प्रतिष्ठा हुई) ॥ अध्वयु क्रतुरनपुंसकम् ॥२॥४॥४॥ अध्वयु क्रतुः ११॥ अनपुंसकम् ११॥ स०- अध्वर्योः (सम्बन्धी) क्रतुः, अध्वर्युक्रतुः, षष्ठीतत्पुरुषः । न नपुसकम् अनपुंसकम्, नत्रतत्पुरुषः ॥ अन०-द्वन्द्वः एकवचनम् ॥ अर्य:-अध्वर्युवेदे विहितो यः क्रतुः स अध्वयु क्रतुरित्युच्यते । प्रनपुंसकलिङ्गानाम् अध्वयुऋतुवाचिमां शब्दानां द्वन्द्वसमास एकवद भवति ॥ उदा० चरण शाखा के प्रवर्तक ग्रन्थ का नाम है। चरण की बहत सी शाखायें होती हैं, सो शाखा के आदि ग्रन्थ का नाम ही चरण है। हम यहां वैदिक विद्वान रिसर्च स्कालर श्री. पं० भगवद्दत्त जी के ग्रंथ “वैदिक वाङ्मय का इतिहास” से उद्धरण उपस्थित करते हैं-“शाखा चरण का अवान्तर विभाग है। जैसे शाकल, वाष्कल, वाजसनेय, चरक आदि चरण हैं । इनकी आगे क्रमश: ५, ४, १५ और १२ शाखायें हैं। इस विचार का पोषक एक पाठ है-जमदग्निप्रवराय वाजसनेयचरणाय यजुर्वेदकण्वशाखाध्यायिने …।” (देखो पृ० १७३, सं० द्वि०, प्रथमभाग) । उन शाखाओं के अध्येतानों के लिए भी गौणरूप से इन शब्दों का प्रयोग होता है। उदाहरणों में अध्येताओं के लिए कठ आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । पादः ] द्वितीयोऽध्यायः । २४३ अर्काश्च अश्वमेधश्च =अर्काश्वमेधम् । सायाह्नश्च अतिरात्रश्च =सायाह्लातिरात्रम् । सोमयागराजसूयम् ।। Pm भाषार्थः-[अध्वर्युक्रतुः] अध्वर्यु (यजुर्वेद) में विहित जो क्रतु=यज्ञवाची शब्द, वे [अनपुसकम् ] नपुसकलिङ्ग में वर्तमान न हों, तो उनका द्वन्द्व एकवद्भाव को प्राप्त होता है । विहित्य महामा का उदा०-अर्काश्वमेधम् (अर्कयज्ञ और अश्वमेघ यज्ञ)। सायाह्नातिरात्रम् सायाह्नयज्ञ और अतिरात्रयज्ञ) । सोमयागराजसूयम् (सोमयाग और राजसूय यज्ञ) ॥ अध्ययनतोऽविप्रकृष्टाख्यानाम् ॥२॥४॥५॥ोऽनुनी अध्ययनतः अ. ॥ अविप्रकृष्टाख्यानाम् ६॥३॥ स०-न विप्रकृष्टा अविप्रकृष्टा, नजतत्पुरुषः । अविप्रकृष्टा पाख्या येषां ते अविप्रकृष्टाख्याः, तेषां ….",बहुव्रीहिः । अनु०-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः –अध्ययननिमित्तेन येषां शब्दानाम अविप्रकृष्टाख्या ==समीपाख्या अस्ति, तेषां द्वन्द्व एकवद् भवति ।। उदा०-वैयाकरणनरुक्तम् । पदक क्रमकम् । क्रमकवात्तिकम् ॥ पत भाषार्थ:- [अध्ययनत:] अध्ययन के निमित्त से [अविप्रकृष्टाख्यानाम ] समीप को प्राख्यावाले जो शब्द हैं, उनका द्वन्द्व एकवद्भाव को प्राप्त होता है ।। उदा०–वैयाकरणनै रुक्तम् (व्याकरण और निरुक्त के अध्येता) । पदकक्रम कम (पदपाठ और क्रमपाठ के अध्येता । मकवात्तिकम (क्रमपाठ तथा वत्ति के अध्येता) ॥ व्याकरण पूर्ण करने के पश्चात् निरुक्त पढ़ा जाता है । एवं वेद का पदपाठ पढ़ लेने के पश्चात् क्रमपाठ पढ़ते हैं । सो ये सब अध्ययन के निमित्त से समीप को आख्यावाले शब्द हैं, इन्हें एकवदभाव हो गया है । स नपुंसकम् (२।४।१७) से नपुंसकलिंग हो ही जायेगा । क्रमादिभ्यो वुन (४।२।६०) से पदक तथा क्रमक में वुन् प्रत्यय हुआ है । तथा ऋतूक्थादि० (४।२।५६) से वात्तिक में ठक् प्रत्यय हुआ है ॥ लोग जातिरप्राणिनाम् ॥२॥४॥६॥ हिसार भोजन भी जाति: ॥१॥ अप्राणिनाम् ६।३।। स०- न प्राणिन: अप्राणिनः, तेषा, नन् तत्पुरुषः ॥ अनु० -द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः-अप्राणिवाचिनां जातिशब्दानां द्वन्द्व एकवद् भवति ।। उदा०–पाराशस्त्रि। धानाशकुलि । खट्वापीठम् । घटपटम् ॥ २४४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः _भाषार्थ:-[अप्राणिनाम् ] प्राणिरहित [जाति:] जातिवाची शब्दों का जो द्वन्द्व हैं, उसे एकवद्भाव होता है,॥ उदा०-पाराशस्त्रि (करौंत एवं प्रारी) । घामाशष्कुलि (सत्त और पूरी)। खट्वापीठम् (खाट और चौकी) । घटपटम् (घड़े और कपड़े) ॥ पूर्ववत् नपुंसकलिङ्ग होकर, शस्त्री और शष्कुली को ह्रस्वो नपुंसके प्राति० (१।२।४७) सूत्र से ह्रस्व हो गया है ॥ THEY विशिष्टलिङ्गो नदी देशोऽग्रामाः ॥२।४।७।। विमान विशिष्टलिङ्गः १३१॥ नदी ११॥ देशः १३१॥ अग्रामाः १॥३॥ स०-विशिष्टं भिन्न लिङ्ग यस्य स विशिष्टलिङ्गः, बहुव्रीहिः । न ग्रामाः अग्रामाः, नञ्तत्पुरुषः ।। अनु-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः-विशिष्टलिङ्गानां भिन्नलिङ्गानां नदीवाचिना देशवाचिनां च शब्दानां द्वन्द्व एकवद भवति, ग्रामवाचिशब्दान वजयित्वा ॥ उदा० - उदयश्च इरावती च उद्धय रावति । गङ्गा च शोणं च गङ्गाशोणम् । देश:-कुरवश्च कुरुक्षेत्रञ्च कुरुकुरुक्षेत्रम् । कुरुकुरुजाङ्गलम् ॥ भाषार्थ:-[विशिष्टलिङ्गः] भिन्नलिङ्गवाले [नदी] नदीवाची, तथा [देशः] बेशवाची शब्दों का जो द्वन्द्व है, उसे एकवद्भाव होता है, [अग्रामा:] ग्रामवाची शब्दों को छोड़कर ॥ नसक उदा०-उद्धघरावति (उद्ध्य’ और इरावती)। गङ्गाशोणम (गङ्गा तथा सोन नदी) । बेश-कुरुकुरुक्षेत्रम् (कुरु तथा कुरुक्षेत्र नामक देश) । कुरुकुरुजाङ्गलम (कुरु तथा कुरुजाङ्गल देश) ॥ र उदाहरण में उद्धघ पुल्लिङ्ग तथा इरावती स्त्रीलिङ्ग है, अतः विशिष्ट= भिन्नलिङ्गवाले नदीवाची शब्द हैं । इसी प्रकार कुरु पुल्लिङ्ग तथा कुरुक्षेत्र और कुरु जाङ्गल नपुंसकलिङ्ग हैं । सो भिन्न लिङ्गवाले देशवाची शब्द हैं । अतः एकवदभाव होकर पूर्ववत् कार्य हुपा है । ग्राम भी देश में आ जाते हैं, अतः ग्रामवाची शब्दों को छोड़कर कह दिया है ॥ १. उद्धध का वर्तमान नाम उझ है । यह जम्मू प्रान्त के जसरोटा जिले में होती हुई कुछ दूर पंजाब में बहकर गुरुदासपुर जिले में रावी के दाहिने किनारे पर मिल गई है । इरावती वर्तमान रावी का नाम है ॥ देखो-पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ५२, हिन्दी सं० ।। होश पाद:] लि द्वितीयोऽध्यायः २४५ किमी तक्षद्रजन्तवः ॥२॥४८॥ कामका क्षुद्रजन्तवः १॥३॥ स०-क्षुद्राश्च ते जन्तवश्च क्षुद्रजन्तवः, कर्मधारयतत्पुरुषः॥ अनु० - द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थ:-क्षुद्रजन्तुवाचिनां शब्दानां द्वन्द्व एकवद्भवति ॥ उदा०-यूकाश्च लिक्षाश्च यूकालिक्षम् । दंशमशकम् । कीटपिपीलिकम् ॥ भाषार्थ:-[क्षुद्रजन्तवः] क्षुद्रजन्तुवाची शब्दों का द्वन्द्व एकवद्भाव को प्राप्त होता है । क्षुद्र जन्तु से नेवले से लेकर सूक्ष्म जीव लिये जायेंगे । महाभाष्य में क्षुद्र की व्याख्या कई ढंग से की गई है। उदा०-यूकालिक्षम (जू और लीख) । वंशमशकम (डाँस और मच्छर)। कोटपिपीलिकम् (कौड़ी और चिऊंटी)॥ wins येषां च विरोधः शाश्वतिकः ॥२॥४।६।। या ass पेषां ६।३॥ च प्र० ॥ विरोधः ११॥ शाश्वतिकः १।१॥ अनु०-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थ:-येषां जीवानां शाश्वतिकः= सनातन: सार्वकालिक: विरोध:= वैरं तद्वाचिशब्दानां द्वन्द्व एकवद् भवति ॥ उदा.-मार्जारमूषकम् । अहिन कुलम् ॥ भाषार्थ:-[येषां] जिन जीवों का [शाश्वतिकः] शाश्वतिक =सनातन [विरोध:] विरोध है, तद्वाची शब्दों का द्वन्द्व [च] भी एकवद्भाव को प्राप्त होता है । विमानमा ई. उदा०–मार्जारमूषकम् (बिल्ली और चूहा) । महिनकुलम् (सांप और नेवला) ॥ बिल्ली जहाँ भी चुहे को देखेगी, उसे खा लेगी । नेवला साँप को देखते हो मार डालेगा। इस प्रकार इनका आपस में स्वाभाविक =सनातन विरोव है । शूद्राणामनिरवसितानाम् ॥२।४।१०। ___ शूद्राणाम् ६।३॥ अनिरवसितानाम् ६३॥ १०-न निरवसिता अनिरव सिताः, तेषां…..",नज तत्पुरुषः ॥ अनु०-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः- अनिग्वसित शूद्रवाचिशब्दानां द्वन्द्व एकवद्भवति ॥ यभक्ते पात्रं संस्कारेण (मार्जनेन) शुध्यति तेऽनिरवसिता: । उदा०-तक्षायस्कारम । रजकतन्तुवायम् । रजककुलालम् ॥ ___ भाषार्थः–[अनिरवसितानाम् ] अनिरवसित [शूद्राणाम् ] शूद्रवाची शब्दों का जो द्वन्द्व समास है, वह एकवद्भाव को प्राप्त होता है। जिन शूद्रों के भोजन के पात्र मार्जन करने के पश्चात् शुद्ध माने जाये, वे अनिरवसित शूद्र कहे जाते हैं । तथा जिनके शुद्ध नहीं माने जाते, वे निरवसित होते हैं ॥ की जा कि क फकी अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती २४६ [चतुर्थः उदा० -तक्षायस्कारम (बढ़ई और लुहार) । रजकतन्तुवायम (धोबी और जुलाहा) । रजककुलालम् (धोबी और कुम्हार) ॥ तक्ष अयस्कारादि अनिरवसित काली मि गवाश्वप्रभृतोनि च ॥२।४।११॥ मानी शाह कि गवाश्वप्रभृतीनि १॥३॥ चम० ॥ स०-गवाश्वं प्रभृति येषां तानि गवाश्व प्रभृतीनि, बहुव्रीहिः । अनु - द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः-गवाश्प्रभृतीनि द्वन्द्वरूपाणि कृतकवद्भावानि साधूनि भवन्ति ॥ उदा०-गवाश्वम् । गवाविकम् । गवैडकम् । प्रजाविकम् ॥ भाषार्थ:–इस एकवभाव के अधिकार में [गवाश्वप्रभृतीनि] गवाश्च इत्यादि शब्द एकवद्भाव किये हुये जैसे पढ़े हैं, वैसे [च] ही साधु समझे जाते हैं ।। उदा०-गवाश्वम् (गौ और घोड़ा)। गवाविकम् (गौ और भेड़)। गवंडकम् (गौ और भेड़) । अजाविकम् (बकरी और भेड़)। किश - गो अश्व का समास चार्थे द्वन्द्वः (२।२।२६ से) होकर, एकवद्भाव, तथा अवङ स्फोटायनस्य (६।१।११६) से अवङ, प्रादेश होकर गवाश्वम् बना है ॥ lish विभाषा वृक्षमृगतृणधान्यव्यञ्जनपशुशकुन्यश्ववडवपूर्वापराधरो त्तराणाम ॥२।४।१२।। विभाषा ॥१॥ वृक्षमृग….. घरोत्तराणाम् ६।३॥ स०-वृक्षमृग. इत्यत्र इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन-द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थः-वृक्ष, मृग, तृण, धान्य, व्यञ्जन, पशु, शकुनि, अश्ववडव, पूर्वापर, अधरोत्तर इत्येतेषां द्वन्द्वो विभाषा एकवद् भवति ॥ उदा.-प्लक्षाश्च न्यग्रोधाश्च प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यग्रोधा: । मृग- रुरवश्च पृषताश्च रुरुपृषतम, रुरुपृषताः । तृण-कुशकाशम्, कुशकाशाः । धान्य - व्रीहियवम, वीहियवाः । व्यञ्जन-दधिधृतम्, दधिघृते । पशु-गोमहिषम, गोमहिषाः । शकुनि-तित्तिरिकपिजलम, तित्तिरिकपिजलाः । अश्ववडम, अश्ववडवो। पूर्वा परम्, पूर्वापरे । अधरोत्तरम्, अधरोत्तरे ॥ हो भाषार्थ:-[वृक्ष. ..“णाम ] वृक्ष, मृग, तृण, धान्य, व्यञ्जन, पशु, शकुनि, अश्ववडव, पूर्वापर, अधरोत्तर वाची शब्दों का जो द्वन्द्व समास, वह १. शूद्र वास्तव में वह होता है, जिसको पढ़ाने पर भी कुछ न आये । जन्म से तो सब शूद्र होते ही हैं, विद्या और संस्कार से द्विज बनते हैं। तक्ष और अयस्कार भी द्विज बन सकते हैं, और द्विज भी तक्ष अयस्कार बन सकते हैं, यह भी एक पक्ष है ॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २४७ [विभाषा] विकल्प से एकवद्भाव को प्राप्त होता है ।। वृक्ष, तृण, धान्य, व्यञ्जनवाचियों के द्वन्द्व में प्राणिरहित जातिवाची शब्द होने से जातिरप्राणिनाम (२।४।६) से नित्य एकवद्भाव प्राप्त था, यहाँ विकल्प कर दिया है । शेष में किसी से प्राप्त नहीं था, विकल्प विधान कर दिया है । यह प्राप्ताप्राप्त विभाषा है ।। (उदा० -प्लक्षन्यग्रोधम्, प्लक्षन्यनोधाः । मग-रुरुपृषतम् (रुरु हरिणविशेष और श्वेतबिन्दुवाला हरिण), रुरुपृषता: । तृण-कुशकाशम् (कुश और काश), कुश काशाः । धान्य-व्रीहियवम् (चावल और जौ), बोहियवाः । व्यञ्जन-नधितम्, (दही और घी), दधिघृते । पशु-गोमहिषम् (गायें और भैसें),गोमहिषाः । शकुनि तित्तिरिकपिञ्जलम् (तीतर और चातक), तित्तिरिकपिञ्जलाः । अश्ववडवम (घोड़ा और घोड़ी), अश्ववडवो । पूर्वापरम् (पूर्व और पर), पूर्वापरे । अध रोत्तरम् अधरोत्तरे ॥ पूर्व वदश्ववडवी ( २।४।२७) से अश्ववडवौ में पूर्ववत् लिङ्ग हुआ है। यहां से “विभाषा’ की अनुवृत्ति २।४।१३ तक जायेगी ॥ विप्रतिषिद्धं चानधिकरणवाचि ॥२।४।१३॥काजीर विप्रतिषिद्धम १३१।। च अ०॥ अनधिकरणवाचि ११॥ स०-अधिकरणं वक्ति इति अधिकरणवाचि, उपपदम (२०१६) इत्यनेन तत्पुरुषः समासः । न अधिकरणवाचि अनधिकरणवाचि, नजतत्पुरुषः ॥ अनु०-विभाषा, द्वन्द्वः, एक. वचनम् ॥ अर्थ:-विप्रतिषिद्धानां परस्परविरुद्धानाम् अनधिकरणवाचिना=अद्रव्य वाचिनां द्वन्द्वसमास एकवद् भवति विकल्पेन ॥ उदा०-शीतोष्णम्, शीतोष्णं । सुखदुःखम्, सुखदुःखे । जीवितमरणम्, जीवितमरणे ॥ भाषार्थ:-[विप्रतिषिद्धम ] विप्रतिषिद्ध = परस्पर विरुद्ध [अनधिकरणवाचि] अनधिकरणवाची=अद्र व्यवाची’ शब्दों का जो द्वन्द्व, उसको [च] भी विकल्प से एकवद्भाव होती है ।। ठण्ढा और गर्म प्रादि शब्द परस्पर विरोधी विप्रतिषिद्ध हैं ॥ उदा०-शीतोष्णम् (ठण्डा और गरम), शीतोष्णे । सुखदुःखम् (सुख और दुःख), सुखदुःखे । जीवितमरणम् (जीना और मरना), जीवितमरणे ॥ कान दधिपयप्रादीनि ॥२।४।१४॥ ययार न अ० ॥ दधिपयादीनि १।३।। स०–दधि च पयश्च दधिपयसी, दधिपयसी १. अधिकरण किसी द्रव्य = मूर्त पदार्थ का ही हो सकता है,क्रिया या गुण का नहीं । अतः यहाँ अधिकरण शब्द से द्रव्य लिया गया है, अनधिकरणवाची का अर्थ सामान EFFEEPIFEDDFIDOE अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः आदिनी येषां, तानि दधिपयादीनि, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ॥ अनु०-द्वन्द्वः, एकवचनम् । अर्थ:–दधिपयादीनि द्वन्द्वशब्दरूपाणि न एकवद्भवन्ति । उदा०-दधिपयसी। सपिर्मधुनी । मधुसपिषी॥ ॥ Patमरा या भाषार्थ:- [दधिपयप्रादीनि] दधिपयसी प्रादि शब्दों को एकवद्भाव [न] नहीं होता है ।। उदा०-दधिपयसी (वही और दूध) । सपिर्मधुनी (घी और शहद)। मधु सर्पिषी ॥ व्यञ्जनवाची होने से उदाहरणों में विभाषा वृक्ष० (२।४।१२) से एक वद्भाव प्राप्त था, निषेष कर दिया है । गण के प्रौर शब्दों में भी पूर्वसूत्रों से एक बद्भाव प्राप्त होने पर यह निषेधसूत्र है ॥ क्या यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति २।४।१५ तक जायेगी ॥ हावाम अधिकरणैतावत्त्वे च ॥२॥४॥१५॥ अधिकरणैतावत्त्वे ७॥१॥ च अ० ॥ स०-एतावतो भावः एतावत्त्वम , अधिकरणस्य एतावत्त्वम् अधिकरणैतावत्त्वं, तस्मिन् …..",षष्ठीतत्पुरुषः । अनु० न, द्वन्द्वः, एकवचनम् ॥ अर्थ:-अधिकरणेतात्त्वे गम्यमाने द्वन्द्वः एकवद् न भवति । समासावयवभूतपदानाम् अर्थोऽधिकरणम् उच्यते, तस्य एतावत्त्वं परिमाणं =संख्या ।। उदा०-चत्वारो हस्तपादाः । दश दन्तोष्ठा: ॥ -एक भाषार्थ:-[अधिकरणैतावत्त्वे] अधिकरण का परिमाण कहने में, जो द्वन्द्व समासः, वह [च] भी एकवद्भाव को प्राप्त नहीं होता है । उदा०-चत्वारो हस्तपादा: (चार हाथ और पैर) । दश बन्तोष्ठाः (दस दांत और मोठ) ॥
- यहाँ समास के अवयवभूत पद हाथ पैर गा दन्तोष्ठ के अर्थ समास के अधि करण हैं। उन हाथ पैर तथा दन्तोष्ठों को इयत्ता परिमाण चार तथा दस से प्रकट हो रही है। इस प्रकार अधिकरण का एतावत्या कहा जा रहा है । प्राणियों का अगयन होने से द्वन्द्वश्च प्राणि (२।४२) से एकगभाग प्राप्त था, यहाँ इयत्ता गम्यमान होने पर निषेध कर दिया है। न यहाँ से ‘अधिकरणतावत्त्वे’ को अनुवृत्ति २।४।१६ तक जायेगी। विभाषा समीपे ॥२।४।१६।। विभाषा ११॥ समीपे ७॥१॥ अनु०-प्रधिकरणैतावत्त्वे, द्वन्द्वः, एकवचनम् ।। अर्थः-प्रधिकरणताबस्त्रस्य समीपेऽर्थे गम्यमाने, द्वन्द्वः विभाषा एकवद् भवति । पादः] द्वितीयोऽध्यायः २४६ उदा०-उपदशं दन्तोष्ठम, उपदशाः दन्तोष्ठाः । उपदशं जानुजङ्घम् । उपदशा: जानुजङ्घाः॥ भाषार्थ:-अधिकरण के एतावत्त्व का [समीपे] समीप अर्थ कहना हो, तो द्वन्द्व समास में [विभाषा] विकल्प से एकवद्भाव होता है ॥ पूर्व सूत्र से नित्य निषेध प्राप्त था, विकल्प कर दिया । उदा०-उपदशं दन्तोष्ठम् (दश के लगभग दाँत और अोठ), उपदशाः दन्तोष्ठाः । उपदशं जानुजङ्घम (दश के लगभग घुटने और जङ्घा), उपदशाः जानुजङ्घाः ।। दन्तोष्ठ आदि अधिकरण (द्रव्य) हैं। उनका एतावत्त्व देश से प्रकट हो रहा है, तथा उप से समीप अर्थ भी प्रतीत हो रहा है ।। आका [लिङ्ग-प्रकरणम्]ीला कि शासन विधाका स नपुंसकम् ।।२।४॥१७॥ बन स: ११॥ नपुसकम् १।१॥ अर्थः-अस्मिन् एकवद्भावप्रकरणे यस्य एक वद्भावो विहितः, स नपुंसकलिङ्गो भवति ॥ उदा०—पञ्चगवम् । दशगवम् । द्वन्द्वः-पाणिपादम् । शिरोग्रीवम् ॥ भाषार्थ:- इस एकवदभाव-प्रकरण में जिस (द्विगु और द्वन्द्व) को एकवद्भाव विधान किया है, [स:] वह [नपुंसकम् ] नपुसकलिङ्ग होता है । तत्-तत् सूत्र में इसके उदाहरण प्रा ही गये हैं ।। पञ्चगवम् में तद्धितार्थोत्तर० (२।१५०) से समास, तथा संख्यापूर्वो० (२।१।१०) से द्विगु संज्ञा, एवं गोरतद्धितलुकि (५॥४॥ ६२) से समासान्त टच् प्रत्यय भी हुआ है । पश्चात् अवादेश होकर पञ्चगवम् बना है । द्विगुरेकवचनम् (२।४।१) से एकवद्भाव होकर नपुसकलिङ्ग होता है । यहाँ से ‘नपुसकम्’ को अनुवृत्ति २।४।२५ तक जायेगी ।। अव्ययीभावश्च ।२।४।१८॥ अव्ययीभावः १११॥ च प्र० ॥ अनु०-नपुंसकम् ।। अर्थ:–अव्ययीभावः समासो नपुसकलिङ्गो भवति ॥ उदा-अधिस्त्रि । उपकुमारि । उन्मत्तगङ्गम् । लोहितगङ्गम् ॥ भाषार्थ:- [अव्ययीभावः] अव्ययीभाव समास [च] भी नपुंसकलिङ्ग होता है। नपुंसकलिङ्ग होने से १।२।४७ से ह्रस्व हो जाता है। अधिस्त्रि की सिद्धि है ३२ प हैना जानाष्टमन जिलाधि । २५० अष्टाध्याय [चतुर्थः परि० १।१।४० में देखें । उन्मत्तगङ्गम में प्रत्यपदार्थे० (२।१।२०) से समास हुआ है । नपुंसकलिङ्ग होने से पूर्ववत ह्रस्व हो गया ॥ पनि । यो कुराक तत्पुरुषोऽनकमधारयः ।।२।४।१६।।प्रशा तत्पुरुषः १३१।। अनकर्मधारयः १।१।। स०-नञ् च कर्मधारयश्च न कर्म धारयः, समाहारो द्वन्द्वः । न नकर्मधारयः अनकर्मधारयः, नञ्तत्पुरुषः । अनु० नपुसकम् ॥ अर्थः-नजतत्पुरुष कर्मधारयतत्पुरुषं च विहाय योऽन्यस्तत्पुरुषसमासः स नपुसकलिङ्गो भवति, इत्यधिकारो वेदितव्यः ।। उदा०-ब्राह्मणानां सेना ब्राह्मणसेनम, ब्राह्मणसेना । असुरसेनम, असुरसेना ।। बदभाव भाषार्थ:–[अनज कर्मधारय:] नञ्तत्पुरुष तथा कर्मधारय तत्पुरुष को छोड़कर, जो अन्य [तत्पुरुषः तत्पुरुष, वह नपुंसकलिङ्ग में होता है । यह अधिकार २।४।२५ तक जानना चाहिये । उदा०–ब्राह्मणसेनम्, ब्राह्मणसेना ( ताह्मणों की सेना) । असुरसेनम्, असुर सेना (असुरों की सेना) ॥ इन संज्ञायां कन्थोशीनरेषु ॥२।४।२०।। सवाला संज्ञायाम् ७।१।। कन्था १११।। उशीनरेषु ७।३।। अनु०-तत्पुरुषोऽनकर्म धारयः, नपुसकम ॥ अर्थः-संज्ञायां विषये अनकर्मधारयः कन्थान्तस्तत्पुरुषो नपुंसकलिङ्गो भवति, सा चेत्कन्था उशीनरेप’ भवति ।। उदा०—सौशमीनां कन्था सोशमिकन्थम । आह्वरकन्थम् ।। भाषार्थ:- [संज्ञायाम] संज्ञाविषय में नत्र तथा कर्मधारय तत्पुरुष को छोड़कर [कथा] कन्थान्त तत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होता है, [उशीनरेषु] यदि वह कन्था उशीनर जनपद सम्बन्धी हो । कन्था’ नगर को कहते हैं ॥ उदा०-सौश मिकन्थम् (सौशमि लोगों का नगर)। अाह्वरकन्थम् (आह्वर लोगों का नगर) । नपुंसकलिङ्ग होने से ह्रस्वो नपुंसके ० (१।२।४७) से ह्रस्व हो गया है || D P PR उपज्ञोपक्रम तदाद्याचिख्यासायाम ॥२॥४॥२१॥ गित उपज्ञोपक्रमम् ॥१॥ तदाद्याचिख्यासायाम् ७१।। उपजायतेऽसौ उपज्ञा । १. उशीनर एक जनपद (जिला) का नाम था। मम्भवत: यह रावी और चनाव के बीच का निचला भूभाग था। देखो-पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ०६८ ॥ प्रयः २. देखो-पाणिनिकालीन भारतवर्ष, पृ० ८२ ।। माल एव अपात पादः] द्वितीयोऽध्यायः २५१ उपक्रम्यतेऽसौ उपक्रमः ॥ स०-उपज्ञा च उपक्रमश्च उपज्ञोपक्रमम, समाहारो द्वन्द्वः । पाख्यातुमिच्छ। == याचिख्यासा । तयोः (उपज्ञोपक्रमयोः) आदिः तदादिः, षष्ठीतत्पुरुषः । तदादेः प्राचिख्यामा तदाद्याचिख्यासा, तस्याम , षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-तत्पुरुषोऽनकर्मधारयः, नपुसकम् ।। अर्थः - अनकर्मधारयः उपज्ञान्त उपक्रमान्तश्च तत्पुरुषो नपुंसकलिङ्गो भवति, यदि तयोः उपज्ञोपक्रमयोरादे:= प्रथमस्य प्राचिख्यामा भवेत् ॥ उदा० - पाणिनेः उपज्ञा पाणिन्युपज्ञम् अकालक, व्याकरणम् । व्याड्य पज्ञं दुष्करणम्’ नन्दोपक्रमाणि मानानि ॥ जाम 22 भाषार्थ:–[उपज्ञोपक्रमम् ] उपज्ञान्त तथा उपक्रमान्त तत्पुरुष नपुंसकलिङ्ग में होता है, नत्र कर्मधारय तत्पुरुष को छोड़ कर [तदाद्याचिख्यासायाम] यदि उप ज्ञेय तथा उपक्रम्य के प्रादि =प्रथमकर्ता को कहने की इच्छा हो ।। उपज्ञा किसी नई सूझ को कहते हैं, तया उपक्रम किसी चीज के प्रारम्भ करने को कहते हैं । उपज्ञा तथाक्रम में भेद इतना है कि उपज्ञा सर्वया नई वस्तु नहीं होती, किन्तु उसमें कोई विशेष सूक ही होती है। जैसे कि पाणिनि से पूर्व भी और व्याकरण थे, उसमें केवल ‘अकाल क व्याकरण’ बनाने की उपज्ञा पाणिनि ने की है। किन्तु उपक्रम सर्व या नये निर्माण को कहते हैं । जैसे बाटों का नया प्रारम्भ नन्द का ही है । उदा०-पाणिन्युपज्ञम अकालक व्याकरणम् (काल की परिभाषा से रहित व्याकरणरचना पाणिनि की ही उपज्ञा है) । व्याड्य पज्ञ दुष्करणम् (दुष्करण नामक विधि व्याडि की उपज्ञा है) । नन्दोपक्रमाणि मानानि (नन्द ने पहले-पहल तौलने के बांटों का प्रारम्भ किया) ॥ TRIPeling-TEE छाया बाहल्ये ।।४॥२॥ r ) छाया १।१।। बाहुल्ये १।। अनु० – तत्पुरुषोऽनकर्मधारयः, नपुसकम् ॥ अर्थः–बाहुल्ये =बहुत्वे गम्यमाने अनकर्मधारयश्छायान्तस्तत्पुरुषो नपुसकलिङ्गो भवति ॥ उदा० - शलभच्छायम् । इक्षुच्छायम् ॥ भाषार्थ:- [वाहुल्ये] बाहुल्य अर्थात बहुत्व गम्यमान हो, तो नकर्मधारय तत्पुरुष को छोड़कर । [ छाया ] छायान्त जो तत्पुरुष है, वह नपुंसकलिङ्ग में होता है । उदा०-शलभच्छायम (पतंगों की छाया) । इक्षुच्छायम (ईख की छाया)॥ उदा हरणों में शलभ इत्यादि का बाहुल्य प्रकट हो रहा है ॥ विभाषा सेनासुराच्छाया० ना १. न्यास में इसी सूत्र पर ‘दशहष्करणम’ पाठ है । इस से प्रतीत होता है कि व्याडि के ग्रन्थ में दम स्थलों पर हुकरण था। दुष्करण अथवा हुष्करण वैसी ही. विधि है, जैसी धातुपाठ में ‘वृत्करण विधि उपलब्ध होती है । २५२ अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः (२।४।२५) से विकल्प से छायान्त तत्पुरुष को नपुसकलिङ्ग प्राप्त था। यहाँ बाहुल्य गम्यमान होने पर नित्य विधान कर दिया है ।। सभा राजाऽमनुष्यपूर्वा ।।२।४।२३॥ सभा १॥१॥ राजाऽमनुष्यपूर्वा ११॥ स०-न मनुष्यः अमनुष्यः, नत्र - तत्पुरुषः । राजा च अमनुष्यश्च राजामनुष्यो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । राजामनुष्यौ पूर्वी यस्याः सा राजाऽमनुष्यपूर्वा (सभा), बहुव्रीहिः ॥ अनु०-तत्पुरुषोऽनकर्मधारयः, नपुंसकम् ॥ अर्थ:-अनञ्कर्मधारयः सभान्तस्तत्पुरुषो नपुंसकलिङ्गो भवति, सा चेत् सभा राजपूर्वा अमनुष्यपूर्वा च भवति ॥ उदा०-इनसभम् । ईश्वरसभम् । अमनुष्य पूर्वा-रक्ष:सभम । पिशाचसभम् ॥ ज Eि भाषार्थ:-नकर्मधारय तत्पुरुष को छोड़कर [राजाऽमनुष्यपूर्वा] राजा और अमनुष्य पूर्वपदवाला जो [सभा] सभान्त तत्पुरुष, वह नपुंसकलिङ्ग में होता है। यहाँ स्वं रूपं शब्द० (१।१।६८) से राजा शब्द का ही ग्रहण होना चाहिये, उसके पर्यायों का नहीं । किन्तु जितपर्यायवचनस्यैव, राजाद्यर्थम (वा० १.१.६८) इस वात्तिक से राजा के पर्यायों का ही ग्रहण होता है, राजा शब्द का नहीं। रक्षः पिशाच मनुष्य नहीं हैं ॥ उदा०-इनसभम् (राजा की सभा) । ईश्वरसभम् । अमनुष्यपूर्वा- रक्षः– सभम् (राक्षसों की सभा)। पिशाचसभम् ।। __ यहां से सभा’ की अनुवृत्ति २।४।२४ तक जायेगी । तक कि प्रशाला च ॥२॥४॥२४॥ अशाला ११॥ च अ०॥ स०-न शाला अशाला, नञ्तत्पुरुषः । अन० - सभा, तत्पुरुषोऽनकर्मधारयः, नपुंसकम ।। अर्थः-शालाभिन्ना या सभा तदन्तो नत्र - कर्मधारयभिन्नस्तत्पुरुषो नपुंसकलिङ्गो भवति ।। उदा०-स्त्रीणां सभा स्त्रीसभम । दासीसभम् ॥ भाषार्थ:- [अशाला] शाला अर्थ से भिन्न जो सभा तदन्त नकर्मधारयभिन्न तत्पुरुष [च] भी नपुसकलिङ्ग में होता है ।। P उदा०—स्त्रीसभम् (स्त्रियों को सभा) । दासीसभम् (दासियों को सभा) । स्त्रीसभम् आदि’ में शाला नहीं कहा जा रहा है, स्त्रियों का समुदाय कहा जा पादः] द्वितीयोऽध्यायः विभाषा सेनासुराच्छायाशालानिशानाम् ॥२४॥२५॥ कीमत विभाषा ११॥ सेनासुराच्छायाशालानिशानाम् ६।३।। स०-सेना च सुरा च छाया च शाला च निशा च सेनासुराच्छायाशालानिशाः, तासाम , इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-तत्पुरुषोऽनञ कर्मधारयः, नपुसकम् ॥ अर्थ:-सेना, सुरा, छाया, शाला, निशा इत्येतदन्तोऽनज कर्मधारयस्तत्पुरुषो विकल्पेन नपुंसकलिङ्गो भवति ।। उदा० ब्राह्मणसेनम , ब्राह्मणसेना। असुरसेनम , असुरसेना। यवसुरम्, यवसुरा । कुड्य च्छायम , कुडघच्छाया । गोशालम, गोशाला । श्वनिशम , श्वनिशा ॥ भाषार्थ:-[सेनासुराच्छायाशालानिशानाम्] सेना, सुरा, छाया, शाला, निशा अन्तवाला जो नञ् और कर्मधारय को छोड़कर तत्पुरुष समास वह नपुसकलिङ्ग में [विभाषा] विकल्प से होता है । पूर्व सूत्रों में से किसी से नपुंसकलिङ्ग नहीं प्राप्त था, सो यहाँ अप्राप्त-विभाषा है । उदा०-ब्राह्मणसेनम, ब्राह्मणसेना । असुरसेनम् , असुरसेना (असुरों की सेना)। यवसुरम् (जौ की शराब), यवसुरा । कुड्यच्छायम् (दीवार की (छाया), कुड्यच्छाया । गोशालम (गोशाला), गोशाला । श्वनिशम (कुत्तों की रात), इवनिशा ॥ षष्ठ्यर्थं तत्र तस्येव (५।१।११५) वतिः ।। स०-द्वन्द्वश्च तत्पुरुषश्च द्वन्द्वतत्पुरुषौ, तयोः ….. ,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।।अर्थ:- द्वन्द्वसमासस्य तत्पुरुषसमासस्य च परस्येव लिङ्ग भवति ॥ उदा०-कुक्कुटश्च मयूरी च कुक्कुटमययौं इमे, मयूरीकुक्कुटौ इमौ । गुणवृद्धी वृद्धिगुणौ । तत्पुरषे-अर्ध पिपल्या: अर्धपिप्पली, अधकोशातकी, अर्ध नख रजनी ।। भाषार्थः । द्वन्द्वतत्पुरुषगो:] द्वन्द्व तथा तत्पुरुष समास का [परत पर के समान अर्थात् उत्तरपद का [लिङ्गम् ] लिङ्ग होता है । समास में जब प्रत्येक पद भिन्न लिङ्गोंवाले होते हैं तो कौन लिङ्ग हो ? द्वन्द्व समास में तो सारे पद प्रधान होते हैं, सो किसी भी पद का लिङ्ग हो सकता था। अत: नियम किया कि परवत लिङ्ग ही हो । तथा तत्पुरुषसमास तो उत्तरपद प्रधान ही होता है, सो परबत लिङ्ग सिद्ध ही था, पनः एकदेशी तत्पुरुष समास के लिए यहाँ परवत् लिङ्ग कहा है । क्योंकि वह उत्तरपद प्रधान नहीं होता । शा इस उदा.-कुक्कुटमयौं हमे (मुर्गा और मोरनी), मयूरीकुक्कुटौ इमौ । गण अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः वृद्धी, वृद्धिगुणौ । तत्पुरुष में–अर्धपिप्पली । अर्धकोशातकी। अर्धनखरञ्जनी (मेंहदी का प्राधा भाग) ॥ 11 उदाहरण में मयूरी पद जब उत्तरपद है, तबपर वत् लिङ्ग होने से स्त्रीलिङ्ग, तथा जब कुक्कुट उत्तरपद है, तब परबत लिङ्ग होकर पुल्लिङ्ग हो गया है। इसी प्रकार गणवृद्धी में भी जानें । गुणवृद्धी वृद्धि गणौ, राजदन्तादि (२।२।३१) में पढ़ा है ।। अर्ध नपुसकम् (२।२।२) से अर्धपिप्पली प्रादि में समास हुआ है । पूर्ववदश्ववडवौ ॥२।४।२७॥ ने पूर्ववत् अ० ॥ अश्ववडवौ १।२।। स०- अश्वश्च वडवा च अश्ववडवौ, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अर्थः-प्रश्ववडवशब्दयो: पूर्ववत लिङ्ग भवति ॥ विभाषा वृक्षा० । २।४।१२) इत्यनेन अश्ववडव शब्दयोः एकवद्भावो विकल्पेनोक्तः, तत्रैकवद्भा वादन्यत्र परवल्लिङ्गतायां प्राप्तायामिदमारभ्यते ।। उदा०– अश्ववडबौ ।। कि भाषार्थ:– [अश्ववडवौ ] अश्व वडवा शब्दों के द्वन्द्व समास में [पूर्ववत् ] पूर्ववत् लिङ्ग हो । पूर्व सूत्र से परबत् लिङ्ग प्राप्त था, उसका अपवाद विधान किया है ।। विभाषा वृक्षमृग० (२।४।१२)सूत्र से अश्व वडव शब्दों को विकल्प से एकवद्भाव कहा है । सो एकवद्भावपक्ष में तो स नपुंसकम् (२।४।१७)से नपुंसकलिङ्ग हो गया । जिस पक्ष में एकवदभाव नहीं हुआ, उस पक्ष में इस सूत्र की प्रवृत्ति होती है । पूर्ववत लिङ्ग कहने से समास को अश्व के समान लिङ्ग हो गया। यहाँ विभाषा वृक्ष सूत्र में पठित होने से वडवा के टाप को निवृत्ति हो जाती है। मदिह यहां से ‘पूर्ववत्’ को अनुवृत्ति २।४।२८ तक जायेगी। शिकार हेमन्तशिशिरावहोरात्रे च च्छन्दसि ।।२।४।२८॥ - हेमन्तशिशिगै १२॥ अहोरात्रे श२।। च अ०॥ छन्दसि ७१॥ स० हेमन्तदच शिशिरं च हेमन्त शिशिरौ, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । ग्रहश्च रात्रिश्च अहोरात्रे, इतरेतरयोगद्वन्दः ॥ अन–पूर्ववत् ॥ अर्थः – हेमन्तशिशिरशब्दयोः अहोरात्र शब्दयोश्च द्वन्द्वसमासे छन्दसि विषये पूर्ववत् लिङ्ग’ भवति । डदा०–हेमन्तशिशिरा वृतू । व! द्रविणाम (यजु० १०।१४) । अहोरात्रे ऊर्ध्वष्ठीवे (यजु० १८।२३) । अहानि च राजयन अहारावाणि ॥ भाषार्थः- [हेमन्तशिशिरौ] हेमन्त और शिशिर शब्द, [च] तथा [अहो रात्रे ] ग्रहन और रात्रि शब्दों का द्वन्द्व समास में [छन्दसि] छन्द विषय में पूर्ववत् लिङ्ग होता है । यहाँ परवत लिङ्ग प्राप्त था, पूर्ववत लिङ्ग कर दिया है। हेमन्त पुल्लिङ्ग है, शिशिर नपुंसकलिङ्ग है, पूर्ववत् लिङ्ग करने से हेमन्तशिशिरौ पुल्लिङ्ग
- २५५ पाद:] द्वितीयोऽध्यायः हो गया। इसी प्रकार प्रहः नपुसक लिङ्ग है और रात्रि स्त्रीलिङ्ग है, सो पूर्ववत् लिङ्ग होकर अहोरात्रे नपुसकलिङ्ग हो गया है ॥ राज्ञाहाहा: पुसि ।।२।४।२६॥ शिरात्राहाहाः १२३॥ पुसि ७।१॥ स०-रात्रश्च अह्नश्च अहश्च रात्राहाहा:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अर्थ:-रात्र अह्न ग्रह इत्येतेषां पुंस्त्वं भवति ॥ रात्रालाहानां कृतसमासान्तानां ग्रहणम ॥ उदा०-द्वयो रात्र्योः समाहारः द्विरात्रः। त्रिरात्रः । चतूरात्रः । पूर्वाह्नः । अपराहुः । मध्याह्नः। यहः । त्र्यहः ।। भाषार्थ:- [रात्राहाहाः] रात्र अह्न प्रह इन कृतसमासान्त शब्दों को [पुसि] पुलिङ्ग होता है ॥ परवल्लिङ्ग (२।४।२६) का अपवाद यह सूत्र है । Folf a अपथं नपुसकम् ।।२।४।३०।। नियतन समाति अपथम ११॥ नपुसकम ११॥अर्थ:-अपथशब्दो नपुसकलिङ्गो भवति ॥ उदा० -अपथम इदम् । अपथानि गाहते मूढः ॥ । भाषार्थ:-नसमास किया हुआ जो [अपथम] अपथ शब्द है, वह [नपुंसकम् ] नपुसकलिङ्ग में हो ॥ उदा.-अपथम् इदम् (यह कुमार्ग है)। अपथानि गाहते मूढः ।। Dars विज जिनका कि यहाँ से ‘नपुंसकम्’ को अनुवृत्ति २।४।३१ तक जायेगी । काय । अर्धर्चा:पुसि च ॥२॥४॥३१॥ अर्धर्चा: १।३॥ पुसि ७।१॥ च अ० ॥ अनु०-नपुसकम ।। अर्थः–अर्धर्चा दयः शब्दा: पुसि, चकारात नपुंसके च भवन्ति ॥ उदा० —अर्धर्चः, अर्धर्चम । गोमयः, गोमयम ।। +भाषार्थः- [अर्धर्चा:] अर्धर्चादि शब्द [पुसि] पुल्लिङ्ग में, [च] चकार से नपुंसकलिङ्ग में भी होते हैं । अर्धर्चाः में बहुवचन निर्देश होने से अर्धर्चादिगण लिया गया है ॥ ERHISTक क hirani उदा०–अधर्चः (आधी ऋचा), अर्धर्चम् । गोमयः (गाय का गोबर), गोमयम् ॥ का [अन्दादेश-प्रकरणम्] समाज पिपीता, 25 15 जि इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ ॥२।४।३२॥ माता - इदम: ६॥१॥ अन्वादेशे ७॥१॥ अश १॥१॥ अनुदात्त: १।१।। तृतीयादी ७।१।। २५६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थ: अादिश्यते इति प्रादेशः, पश्चात् प्रादेशः अन्वादेश: ।। स०-तृतीया पादिर्यस्याः सा तृतीयादिः, तस्यां ……,बहुव्रीहिः ॥ अर्थः-अन्वादेशे वर्तमानस्य इदंशब्दस्य तृतीयादौ विभक्तौ परतः अनुदात्त: ‘अश्’ आदेशो भवति ।। उदा०-प्राभ्यां छात्रा भ्यां रात्रिरधीता (आदेशवाक्यम), अथो आभ्यामहरप्यधीतम । अस्मौ छात्राय कम्बलं देहि, अथोऽस्मौ शाटकमपि देहि । अस्य छात्रस्य शोभनं शीलम , अथोऽस्य प्रभूतं स्वम ॥ “भापार्थ:–[अन्वादेशे] अन्वादेश में जो वर्तमान [इदम:] इदम् शब्द, उसको [अनुदात्तः] अनुदात्त [अश] अश अादेश होता है, [तृतीयादौ ] तृतीयादि विभक्यिों के परे रहते ॥HIRENERAP
- उदा०—प्राभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरधीता (प्रादेशवाक्य), अथो आभ्यामहरप्य धीतम (इन छात्रों के द्वारा रातभर पढ़ा गया, तथा इन छात्रों ने दिन में भी पढ़ा) । अस्मै छात्राय कम्बल देहि, अयोऽस्मै शाटकमपि देहि (इस छात्र को कम्बल दो, तथा इसे धोती भी दो) । अस्य छात्रस्य शोभनं शीलम्, अयोऽस्य प्रभूतं स्वम् - (इस छात्र की सुशीलता अच्छी है, और यह धनवान् भी है) । कहे हुये वाक्य के पीछे उसी को कुछ और कहने को ‘अन्वादेश’ कहते हैं । उदाहरण में ‘प्राभ्यां छात्राभ्यां रात्रिरधीता’ यह आदेश वाक्य है, उसके पश्चात् उन्हीं छात्रों के विषय में कुछ और कहा है, सो यह अन्वादेश है । इसी प्रकार और उदाहरणों में भी समझे ।। भ्याम इत्यादि तृतीयादि विभक्तियों के परे रहते अश आदेश हो गया है । प्रश् आदेश होने पर रूप में भेद नहीं होता है। केवल स्वर का ही भेद है। जब अव्यय सर्व० (५।३१७१) से प्रकच करेंगे. उस समय रूप में भी भेद होता है । शित् होने से अश सारे इदम के स्थान में होता है । अन्वादेश से अन्यत्र ऊडिदम्पदाद्यप्पुम्रदयुभ्यः ( ६।१।१६५) से विभक्ति को उदात्त होकर आभ्याम ऐसा स्वर रहेगा । अन्वादेश स्थल में अनुदात्त अश अादेश होकर विभक्ति को भी अनुदात्तौ सुप्पिती (३।१॥३) से अनुदात्त हो गया । सो आभ्याम् ऐसा स्वर रहा । अन्वादेश स्थल में ऊडिदम्प० (६।१।१६५) नहीं लगता । क्योंकि वह अन्तोदात्त से उत्तर विभक्ति को उदात्त करता है, यहाँ अनुदात्त अश् से उत्तर है || AATHA । यहाँ से ‘इदमोऽन्वादेशे, अनुदात्त:’ को अनवृत्ति २।४।३४ तक जायेगी । तथा ‘अ’ को अनुवृत्ति २।४।३३ तक जायेगी ।। एकदस्त्रतसोस्त्रतसौ चानुदात्तौ ॥२।४।३३।। लिन एतदः ६।१।। तसोः ७२।। तसौ श२।। च अ०॥ अनुदात्तौ .२॥ स० परि त्रश्च तश्चेति त्रतसौ, तयोः……",इतरेतरयोगद्वन्द्वः । एवं तसावपि ॥ अनु० —- ३ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २५७ अन्वादेशेऽशनुदात्त: ।। अर्थ: अन्वादेशे वर्तमानस्य ‘एतद’ शब्दस्य त्रतसोः प्रत्यययो: परतोऽनुदात्त: ‘अश’ प्रादेशो भवति, तौ चापि त्रतसावनुदात्तौ भवत: ॥ उदा. एतस्मिन् ग्रामे सुखं वसामः, अथो अत्र युक्ता अधीमहे । एतस्मात छात्रात् छन्दो ऽधीष्व, अथो अतो व्याकरणमप्यधीष्व ॥ भाषार्थ:-अन्वादेशविषय में वर्तमान जो [एतदः] एतद् शब्द, उसे अनुदात्त अश् प्रादेश होता है, [वतसोः] त्र तस् प्रत्ययों के परे रहते, [च] और वे [त्रतसौ] त्र तस प्रत्यय [अनुदात्तौ] अनुदात्त भी होते हैं ।। इदम को अनुवृत्ति का सम्बन्ध इस सूत्र में नहीं लगता, अगले सूत्र में लगेगा | उदा०-एतस्मिन ग्रामे सुखं वसामः, अथो अत्र युक्ता अधीमहे (इस ग्राम में हम सुख से रहते हैं, और यहाँ लगकर पढ़ते भी हैं) । एतस्मात् छात्रात् छन्दोऽधीष्व, प्रथो अतो व्याकरणमप्यघीष्व (इस छात्र से छन्द पढ़ो, और इससे व्याकरण भी पढ़ो)।। ‘अथो अत्र’ ‘अथो अत: ये अन्वादेश हैं। अतः त्र (५।३।१०), तस (५।३।७) के परे रहते एतद् को प्रश आदेश होकर अत्र और अत: बना ॥ लिति(६।१।१८७)से प्रत्यय से पूर्व को उदात्त प्राप्त था, अनुदात्त विधान कर दिया है । यहाँ से ‘एतदः’ की अनुवृत्ति २।४।३४ तक जायेगी। द्वितीयाटोस्स्वेनः ॥२।४।३४॥ किया. यानी द्वितीयाटौस्सु ७।३॥ एनः १३१॥ स०-द्वितीया च टा च अोस च द्वितीया टोस:, तेषु……,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-एतदः, इदमोऽन्वादेशे अनुदात्त: ॥ अर्थः-द्वितीया टा प्रोस् इत्येतासु विभक्तिष परतोऽन्वादेशे वर्तमानयोः इदमेतद् शब्दयोरनुदात्त एन’ आदेशो भवति ।। उदा०–इमं छात्रं छन्दोऽध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय । टा–अनेन छात्रेण रात्रिरधीता, अथो एनेन अहरप्यधीतम । प्रोस-अनयोश्छात्रयो: शोभनं शीलम , अथो एनयोः प्रभूतं स्वम ॥ एतद:- एतं छात्र छन्दोऽध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय । एतेन छात्रेण रात्रिरधीता, अथो एनेन अहरप्यधीतम् । एतयोश्छात्रयोः शोभना प्रकृतिः, अथो एनयो: मृदुवाणी॥ भाषार्थः- [द्वितीयाटौस्सु] द्वितीया, टा, प्रोस् विभक्तियों के परे रहते अन्वादेश में वर्तमान जो इदम् तथा एतद् शब्द उनको अनुदात्त [एन:] एन आदेश होता है । उदा०-इम छात्रं छन्दोऽध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय (इस छात्र को छन्द पढ़ाओ, और इसे व्याकरण भी पढ़ानो)। टा-मनेन छात्रेण रात्रिरधीता, २५८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः अथो एनेन प्रहरप्यधीतम् (इस छात्र ने रात्रिभर पढ़ा, और इसने दिन में भी पढ़ा)। मोस-अनबोश्छात्रयोः शोभनं शीलम् , प्रथो एनयोः प्रभूतं स्वम् (इन दोनों छात्रों का स्वभाव अच्छा है, और ये खूब धनवाले भी हैं) ॥ एतद् का-एतं छात्रं छन्दो ऽध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय । एतेन छात्रेण रात्रिरधीता, अथो एनेन अहरप्यषीतम् । एतयोश्छात्रयोः शोभना प्रकृतिः, अथो एनयोः मृदुवाणी ॥ एन+अम् =एनम , एन (टा) इन =एनेन, एन + प्रोस् = एनयोः, अन्वादेश विषय में हो गया है। न [प्रार्धधातुक-प्रकरणम्] ३) गोलार्धधातुके ।।२।४॥३५॥ आर्धधातुके ७॥१॥ अर्थः- आर्धधातुके’ इत्यधिकारसूत्रम् ॥ इतोऽग्रे वक्ष्य माणानि कार्याणि आर्धधातुकविषये भवन्तीति वेदितव्यम् । अग्ने उदाहरिष्यामः ॥ भाषार्थ:-यह अधिकारसूत्र है, २१४१५७ तक जायेगा । यहाँ से आगे जो कार्य कहेंगे, वे [आर्धधातुके] प्रार्धधातुक विषय में होंगे। प्रार्धधातुक में विषय सप्तमी है, अर्थात् आगे प्रार्धधातुक का विषय आयेगा, यह मानकर (परे न हो तो भी) आधधातुक पाने से पहले ही कार्य होंगे। उन विशेष-सप्तमी तीन प्रकार की होती है । पर-सप्तमी, विषय-सप्तमी, निमित्त-सप्तमी, सो यहाँ विषयसप्तमी है। निमित्त-सप्तमी विङति च (११११५) में है । तथा परसप्तमी के अनेकों उदाहरण हैं, जहाँ पर ‘परे रहते’ ऐसा कहा जाये, वह पर-सप्तमी है। तथा विषयसप्तमी वह है, जहाँ वह प्रत्यय अभी पाया न हो, केवल यह विवक्षा हो कि ऐसा विषय प्रागे आयेगा, सो ऐसा मानकर कार्य हो जाये । यथा अस्तेभूः (२१४१५२) में प्राधंधातुक का विषय प्रायेगा, ऐसी विवक्षा में प्रार्धधातुक प्रत्यय लाने से पूर्व ही भू आदेश कर देते हैं । विषय-सप्तमी का विशेष प्रयोजन अस्तेभूः (२१४१५२), ब्रवो वचिः, चक्षिङः ख्याज (२१४१५३-५४) में ही है, न कि सब सूत्रों में । प्रार्घधातुकं शेष: (३।४।११४) से धातोः (३।१।६१) के अधिकार में धातु से आनेवाले शेष प्रत्ययों की प्रार्धधातुक संज्ञा कही है। का प्रदो जन्धिय॑प्ति किति ।।२।४।३६॥ - अदा ६॥१॥ जग्धिः १११॥ ल्यप लप्तसप्तम्यन्तनिर्देशः ॥ ति ७१॥ किति ७॥१॥ स०-कितीत्यत्र बहुव्रीहिः ।। अन०-प्रार्धधातुके ।। अर्थः- अदो जग्धिरादेशो भवति ल्यपि आर्धधातुके परतः, तकारादौ किति चार्घघातुके परतः ।। उदा० प्रजग्ध्य। विजम्ध्य । जग्धः। जग्धवान ।। पाद:] द्वितीयोऽध्यायः । २५६ भाषार्थः- [अद:] अद् को [जग्धिः] जग्धि प्रावेश होता है, [ल्यप्ति किति] ल्यप् तथा तकारादि कित पार्षधातुक के परे रहते ॥ जग्धि में इकार उच्चारण के लिए लगाया है, वस्तुतः ‘जग्ध्’ प्रादेश होता है । । यहाँ से ‘अदः’ की अनुवृत्ति २।४।४० तक जायेगी। लुङ सनोर्घस्लु ॥२।४।३७॥ लुङ्सनो: ७।२॥ घस्ल १३१॥ स०-लुङ् च सन् च लुङ्सनौ, तयो: ……, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-अद:., आर्धधातुके । अर्थ:-लुङि सनि चार्धधातुके परत: अद्धातो: ‘घस्लु’ प्रादेशो भवति ॥ उदा-अघसत् । सनि–जिघत्सति, जिघत्सतः॥ __भाषार्थ:-[लुङ्सनोः] लुङऔर सन् आर्षधातुक के परे रहते अद् धातु को [घस्ल] घस्लू आदेश होता है । म प्रा- यहाँ से ‘घस्लु’ की अनुवृत्ति २०४१४० तक जायेगी। PA घत्रपोश्च ॥२॥४॥३८॥ घापोः ७।२।। च अ०॥ स०-घन च अप च घनपो, तयोः…..",इतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अदः, घस्लु, प्रार्धधातुके ।। अर्थः-घमि अपि च आर्धधातुके परतः अदो ‘घस्लु’ प्रादेशो भवति ॥ उदा०-घासः । प्रघसः॥ भाषार्थः- [घनपो:] घञ् और अप प्रार्घधातुक के परे रहते [च] भी अद् धातु को घस्लु प्रादेश होता है । उदा०-घासः (भोजन) । प्रघसः (भोजन)॥ अद् धातु से भावे (३।३।१८) से घन होकर घस्ल प्रादेश हुमा है। परि० १११ भाग: के समान सिद्धि समझे । प्रघसः में उपसर्गेऽदः (३३३३५६) से अप प्रत्यय हुआ है । यहाँ वृद्धि जित् णित् प्रत्यय परे न होने से नहीं हुई ॥ यहाँ से ‘घनपोः’ को अनुवृत्ति २।४।३६ तक जायेगी। बहुलं छन्दसि ॥२॥४॥३९॥ बहुलम १।१। छन्दसि ७।१॥ अनु०–घनपो:, अद:, घस्ल, आर्धधातुके । अर्थः-छन्दसि विषये घमि अपि चार्धधातुके परतो बहुलम् अदो ‘घस्लु’ प्रादेशो भवति ।। उदा० –प्रश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने (अथ० १९३५५६) । न च भवति अष्टा महो दिव आदो हरी इव (ऋ० १११२१८) । अपि-प्रघसः। न च भवति-प्रादः । अन्यत्रापि बहुलग्रहणात-घस्तां नूनम् (यजु० २११४३) । सग्धिश्च मे (यजु० १८९) २६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थ: भाषार्थ:- [छन्दसि] छन्दविषय में घन अप् परे रहते अद् को घस्ल प्रादेश [बहुलम्] बहुल करके होता है । बहुल कहने से घञ् तथा अप् परे रहते घस् प्रादेश हो भी गया, और नहीं भी हुआ है । एवं जहाँ घन अप परे नहीं भी था, वहाँ भी घस्लु भाव हो जाता है । यथा-‘घस्ताम्’ लङ् लकार में,तथा सग्धि क्तिन् परे रहते भी हो गया । सिद्धि परि० १।१।५७ में देखें। लिट्यन्यतरस्याम् ॥२॥४॥४०॥ लिटि ७.१।। अन्यतरस्याम अ० ॥ अनु०-अदः, घस्लु, प्रार्धधातुके । अर्थ: लिटि परतोऽदो अन्यतरस्यां ‘घस्लु’ आदेशो भवति ॥ उदा०–जघास, जक्षतुः, जक्षुः । पक्षे–प्राद, आदतुः, प्रादुः॥ भाषार्थ:-[लिटि] लिट् परे रहते अद् को [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से घस्ल प्रादेश होता है । परि० ११११५७ में जक्षतुः जक्षुः की सिद्धि देखें । जघास में णल के परे अत उपधाया: (७२।११६) से वृद्धि हो गई, यही विशेष है। यहाँ असंयोगा० (१।२।५) से कित्वत् न होने से उपधालोप नहीं हुआ । जब घस्लु प्रादेश नहीं हुआ, तब पाद प्रादतुः बन गया है । यहाँ से सारे सूत्र की अनुवृत्ति २।४१४१ तक जायेगी। वेत्रो वयिः ॥२।४।४१।। वेनः ६।१॥ वयिः १११॥ अनु०-लिट्यन्यतरस्याम,प्रार्धधातुके।। अर्थः-वेज: स्थाने ‘वयि:’ आदेशो विकल्पेन भवति लिटयार्धधातुके परत ॥ उदा०-उवाय, ऊयतुः, ऊयुः, ऊवतुः, ऊवुः । ववो, ववतुः, ववुः ॥
- भाषार्थ:- [वेब ] वेञ् को [वयिः] वयि प्रादेश विकल्प से लिट् प्रार्धधातुक के परे रहते हो जाता है। स हनौ वध लिङि ॥२।४।४२।। हन: ६।१।। वध लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ लिङि ७१॥ अनु० - प्रार्धधातुके ॥ अर्थ:-हनो वध आदेशो भवति लिङयार्धधातुके परतः ॥ उदा०-वध्यात् । वघ्या स्ताम । वध्यासुः ॥ ___भाषार्थ:-[हनः] हन को [वध] वध प्रादेश प्रार्धधातुक [लिङि] लिङ के परे रहते हो जाता है। लिङाशिषि (३।४।११६) से प्राशीलिङ ही प्रार्धधातुक होता है, विधिलिङ नहीं॥ यहाँ से ‘हनो वध’ की अनुवृत्ति २।४।४४ तक जायेगी॥ (9) DET) पादः] द्वितीयोऽध्यायः २६१ र लुङि च ॥२॥४॥४३॥ सानो लुङि ७॥१॥ च अ० ॥ अनु०-हनो वध, आर्धधातुके ॥ अर्थः-लुङयार्घ धातुके परतो हन्धातो: ‘वध’ आदेशो भवति ॥ उदा०–अवधीत । अवधिष्टाम् । अवधिषुः ॥ भाषार्थ:- [लुङि] लुङ प्रार्धधातुक के परे रहते [च] भी हन को बघ आदेश हो जाता है ।। अवधीत की सिद्धि परि० १।११५६ में देखें । अवधिष्टाम में भी पूर्ववत् तस् को साम , तथा प्रादेशप्रत्यययोः (८।३।५६) से स को ष, ष्टुना ष्टुः (८।४।४०) से त् को ट् होकर अवधिष्टाम बना । शेष पूर्ववत् ही है । अवधिषुः में झि को जुस सिजभ्यस्त० (३।४।१०६) से होकर अवधिष् उस == अवधिषुः पूर्ववत् सब कार्य होकर बन गया है । प्रात्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् ।।२।४।४४।। आत्मनेपदेषु ७।३।। अन्यतरस्याम् अ० ॥ अनु०-हनो वध, आर्धधातुके ॥ अर्थः-लुङ्लकारे आत्मनेपदेषु प्रत्ययेषु परतो हनो वध आदेशो विकल्पेन भवति ॥ उदा०—आवधिष्ट, प्रावधिषाताम, प्रावधिषत । आहत पाहसाताम , आहसत ॥ शाहका गानाकर भाषार्थः-लुङ लकार में [आत्मनेपदेषु] आत्मनेपदसंज्ञक प्रत्ययों के परे रहते [अन्यतरस्याम्] विकल्प करके हन को वध आदेश होता है । सूत्र १।२।१४ में पाहत आदि की सिद्धि समझे । यहाँ आङो यमहनः (१३।२८) से प्रात्मनेपद होता है ॥ प्रा अट् वध इट् स् ता वध इस् त, इस अवस्था में पूर्ववत् षत्व तथा ष्टुत्व होकर प्रावषिष्ट बन गया। इणो गा लुङि ।।२।४।४५।। इणः ६।१॥ गा लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ लुङि ७॥१॥ अनु०-प्रार्धधातुके ॥ अर्थ:- इण्धातोः ‘गा’ आदेशो भवति लुङ्यार्धधातुके परतः ॥ उदा०-अगात् । अगाताम् । अगु: ॥ म भाषार्थ:-[इणः] इण को [गा] गा आदेश [लुङि[ लुङ प्रार्धधातुक परे रहते हो जाता है ॥ अट् गा स् त् इस अवस्था में सिच् का लुक् गातिस्थाघ ० (२।४१७७) से होकर अगात् बना । शेष सब पूर्ववत् है । अगुः में झि को जुस् प्रातः (३।४।११०) से हुआ है। s यहां से ‘इणः’ को अनुवृत्ति २।४।४७ तक जायेगी। २६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः णौ गमिरबोधने ॥२॥४॥४६॥ णौ ७१॥ गमिः १११॥ प्रबोधने ७१॥स-न बोधनम अबोधनम्, तस्मिन, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-इणः, आर्धधातुके ॥ अर्थ:-णी प्रार्धधातुके परतः प्रबोधनार्थस्य =अज्ञानार्थस्य इणो गमिरादेशो भवति ॥ उदा०-गमयति । गमयत: । गमयन्ति ।। भाषार्थ:-[णौ] णिच् प्रार्धधातुक के परे रहते [अबोधने] प्रबोधनार्थक अर्थात् प्रज्ञानार्थक इण् धातु को [गमि:] गमि आदेश हो जाता है ।। गमि में इकार उच्चारणार्थ है ॥ र उदा०-गमयति (भेजता है) । गमयतः । गमयन्ति ।। णिजन्त की सिद्धि हम बहुत बार कर आये हैं, सो उसी प्रकार समझे ।। यहाँ से ‘गमि:’ को अनुवृत्ति २।४।४८ तक, तथा अबोधने की अनुवृत्ति २।४।४७ तक जायेगी। सनि च ॥२॥४॥४७॥ सनि ७१॥ च अ०॥ अनु०-गमिरबोधने, इणः, आर्धधातुके ॥ अर्थः अबोधनार्थस्य ‘इणः’ सनि आर्धधातुके परतो गमिरादेशो भवति ।। उदाo-जिग मिषति । जिगमिषत: । जिगमिषन्ति ॥जाना भाषार्थ:-[सनि] सन् प्राधधातुक प्रत्यय के परे रहते [च] भी अबोधनार्थक इण धातु को गमि प्रादेश हो जाता है। उदा०–जिगमिषति (जाना चाहता है) । जिगमिषतः । जिगमिषन्ति ।। सन्नन्त की सिद्धियाँ भी हम पूर्व दिखा चुके हैं, उसी प्रकार समझे। अभ्यास के ग को ज कुहोश्च: (७।४।६२) से होकर, सन्यत: (७।४७९) से इत्व हो गया है । । यहाँ से ‘सनि’ को अनुवृत्ति २।४।४८ तक जायेगी। 10 से इङश्च ॥२।४।४।। इङः ६१॥ च प० ॥ अनु०-सनि, गमिः, आर्धधातुके । अर्थ:- इङधातोः सन्यार्धधातुके परतो गमिरादेशो भवति ॥ उदा-अधिजिगांसते । अघिजिगांसेते ॥ । भाषार्थ:- [इङः] इक धातु को [च] भी सन् प्रत्यय के परे गमि प्रादेश हो जाता है ॥ उदा०-अधिजिगांसते (पढ़ना चाहता है) । अधिजिगांसते ॥ __ पूर्ववत् सनः (१।३।६२) से उदाहरण में प्रात्मनेपद होगा । अज्झनगमां० (६।४१६) से ग के प्रको दीर्घ, तथा म को अनुस्वार नश्चापदान्तस्य झलि पाद:] द्वितीयोऽध्यायः २६३ (८।३।२४) से हो गया है। शेष सिद्धि सन्नन्त के समान ही है। इङ धातु का अधि पूर्वक ही प्रयोग होता है, अतः वैसे ही उदाहरण दिये हैं । यहाँ से ‘इङः’ की अनुवृत्ति २१४१५१ तक जायेगी ॥ गाङ् लिटि ॥२।४।४६॥ । गाङ् १०१।। लिटि ७१॥ अनु०–इङः, प्रार्धधातुके ॥ अर्थः- इङ: गाङ् आदेशो भवति लिटयार्धधातुके परत: ॥ उदा०-अघिजगे । अधिजगाते । अधिजगिरे ॥ mshain? insEETI भाषार्थ:-इङ को [गाङ] गाङ आदेश [लिटि] लिट लकार परे रहते होता है ।। उदा०–अधिजगे (उसने पढ़ा) । अधिजगाते । अधिजगिरे। लिटस्तझयो० (३।४11) से त को एश, तथा आतो लोप० (६।४१६४) से आकारलोप होकर-‘अघि गए’ इस अवस्था में द्विवंचनेऽचि (११११५६) से स्थानिवद्भाव होकर, लिटि धातोर० (६।१८) से द्वित्व हुआ, और ‘अधिगा ग् ए’ ऐसा बनकर, पूर्ववत् अभ्यासकार्य होकर अधिजगे बन गया । यहाँ से ‘गाङ’ को अनुवृत्ति २।४।५१ तक जायेगी। and विभाषा लुङ्लुङोः ।।२।४।५०॥ न करे विभाषा ११॥ लुङलुङो: ७।२॥ स०–लुङ् च लुङ् च लुङलङौ, तयोः…–, इतरेतरयोगेद्वन्द्वः ॥ अनु०-इङः, गाङ्, आर्धधातुके ॥ अर्थ:- इधातोविभाषा गाङ् आदेशो भवति लुङि लुङि चार्धधातुके परतः ॥ उदा-अध्यगीष्ट, अध्यगीषाताम् । पक्षे-अध्यष्ट, अध्यैषाताम् । लुङ–अध्यगीष्यत, अध्यगीष्येताम् । पक्षे-अध्यष्यत, अध्यष्येताम् ॥ कति भाषार्थ:-इङ धातु को [विभाषा] विकल्प से गाङ् आदेश [लुङ लुङोः] लुङ, लुङ, लकार परे रहते हो जाता है ॥ यहाँ से ‘विभाषा’ को अनुवृत्ति २।४१५१ तक जायेगी ॥ णौ च संश्चङोः ॥२४॥५१॥ णौ ॥१॥ च अ० ॥ संश्चङोः ७।२॥ स०-सन् च चङ् च संश्चडौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-विभाषा, गाङ्, इङः, आर्धधातुके ॥ अर्थ:-सनपरे चपरे च णिचि परत इङ्घातोविकल्पेन गाङ् आदेशो भवति ॥ उदा.- अघिजि गापयिषति, अध्यापिपयिषति । चङि-अध्यजीगपत्, अध्यापिपत् ॥ २६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः 4 TTC भाषार्थ:-[संश्चडोः] सन् परे है जिससे तथा चङ परे है जिससे ऐसा जो [णौ] णिच्, उसके परे रहते [च] भी इङ धातु को विकल्प से गाङ प्रादेश होता है ।। अस्तेमूः ॥२४॥५२॥ अस्तेः ६१॥ भूः १३१॥ अनु०-प्रार्धधातुके ॥ अर्थः- अस् धातो: स्थाने ‘भू’ इत्ययमादेशो भवति आर्धधातुके विषये ।। उदा०-भविता, भवितुम्, भवितव्यम् ॥ भाषार्थ:-प्रार्धधातुक का विषय यदि उपस्थित हो, तो [अस्ते:] अस् धातु को [भूः] भू आदेश होता है । परि० १।१।४८ में सिद्धियाँ देखें ।। - ब्रवो वचिः ।।२।४।५३॥ ब्रुव: ६॥१॥ वचि: ११॥ अनु०-प्रार्धधातुके । अर्थः—ार्धधातुके विषये ब्र धातोः वचिरादेशो भवति ॥ उदा०-वक्ता, वक्तुम, वक्तव्यम् ॥ भाषार्थ:-प्रार्धधातुक विषय में [ब्रुव:] ब्रूज् धातु को [वचि:] वचि प्रादेश होता है ॥ परि० ११११४८ में सिद्धि देखें । वचि में इकार उच्चारण के लिये है, वस्तुत: वच् प्रादेश होता है ।। भोपायः ।। चक्षिङः ख्याञ् ॥२।४।५४॥ दिया। चक्षिङः ६।१।। ख्याञ् १११॥ अनु०-प्रार्धधातुके ॥ अर्थ:– चक्षिधातो: ख्याञ् आदेशो भवति आर्धधातुके विषये ॥ उदा०-आख्याता, पाख्यातुम , प्रख्यातव्यम् ॥ भाषार्थ:- [चक्षिङ:] चक्षिङ् धातु को [ख्यान ] ख्याञ् प्रादेश प्रार्धधातुक विषय में होता है । व उदा०-याख्याता (कहनेवाला) । आख्यातुम् । पाख्यातव्यम् ।। पूर्ववत् परि० १६११४८ के समान ही सिद्धियां हैं । चक्षिक के ङित् होने से स्थानिवत् होकर नित्य आत्मनेपद प्राप्त होता था, उसे हटाने के लिए रुयाज में अकार अनुबन्ध लगाया है। यहाँ से ‘चक्षिङः ख्या’ को अनुवृत्ति २।४१५५ तक जायेगी। वा लिटि ।।२।४।५।। वा अ० ॥ लिटि ७१॥ अनु०-चक्षिङ: ख्याञ्, आर्धधातुके । अर्थः लिट्यार्धधातुके परतः चक्षिङः ख्याञ् आदेशो वा भवति ॥ उदा.-पाचख्यो, आचख्यतुः, प्राचख्युः । पाचचक्षे, अचचक्षाते, पाचच क्षिरे ॥ पादः] पिल द्वितीयोऽध्यायः
- २६५ भाषार्थ:-[लिटि] लिट् पार्धधातुक के परे रहते चक्षिङ धातु को [वा] विकल्प से ख्याञ् प्रादेश होता है ।। उदा०-प्राचल्यो (उसने कहा), प्राचख्यतुः, प्राचख्युः । प्राचचक्षे, प्राचचक्षाते, पाचचक्षिरे ॥ प्राचख्यतुः प्राचख्युः की सिद्धि परि० १।१।५८ के पपतुः पपुः के समान जानें । केवल यहाँ ख्याञ् प्रादेश ही विशेष हैं। प्राचख्यौ में ‘णल’ को प्रात प्रौ णलः (७।१।३४) से औकारावेश होकर वृद्धि एकादेश हो गया है। प्राचचक्षे में चक्षिङ को ख्याञ् प्रादेश नहीं हुआ है । सो पूर्ववत् द्वित्व अभ्यासकार्य, और ‘त’ को एश् (३।४।८१) होकर पा च चक्ष ए=नाचचक्षे बना । प्राचचक्षिरे में झ को इरेच् (३।४।८१) हो गया है ॥ मीकि यहाँ से ‘वा’ को अनुवृत्ति २।४।५६ तक जायेगी । अजय अजेय॑घनपोः ॥२।४।५६॥ ए का अजेः ६।१॥ वी लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। अघनपोः ७।२॥ स०-घञ् च अप् च घनपो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न घनपो अघनपो, तयोः-…” ,नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-बा, प्रार्धधातुके ॥ अर्थः-अजघातो: ‘वी’ आदेशो विकल्पेन भवति प्रार्घघातुके परतः, धनपौ वर्जयित्वः ॥ उदा०-प्रवेता, प्राजिता । प्रवेतुम्, प्राजितुम् । प्रवेतव्यम्, प्राजितव्यम् ॥ विनि ति हिला कि भाषार्थ:- [अजेः] अज धातु को [वी] वी आदेश विकल्प से प्रार्धधातुक परे रहते होता है [अघनपो:] घञ् अप् प्रार्धधातुकों को छोड़कर ॥ उदा०-प्रवेता (ले जानेवाला), प्राजिता । प्रवेतुम, प्राजितुम् । प्रवेतव्यम , प्राजितव्यम् ॥ परि० १।११४८ के समान ही सिद्धियाँ हैं । जब ‘अज’ मावेश नहीं हुआ, तो सेट होने से इडागम, तथा जब ‘वी’ आदेश हुआ, तो एकाच उपदेशे० (७।२।१०) से इट निषेध होकर, सार्वधातु० (७।३।८४) से गुण हो गया ॥ यहाँ से ‘अजेः’ को अनुवृत्ति २।४।५७ तक जायेगी॥ की शान्ति वाका वा यौ ॥२॥४॥५७॥ वा: ११॥ यौ ७।१॥ अनु०-प्रजे:, प्रार्धधातुके । अर्थः-अजे: ‘वा’ ‘आदेशो भवति यौ=ौणादिके युचि प्रत्यये परतः।। उदा०–वायुः ॥
- भाषार्थ:–अज को [वा]वा आदेश होता है, औणादिक[यो] युच् आषधातुक प्रत्यय के परे रहते ॥ यहाँ यु को युवोरनाको(७।१।१)से अन आदेश नहीं होता, क्योंकि अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः युवोरनाको से सानुनासिक यु बु को ही अन अक आदेश होते हैं, और यह निरनु नासिक यु है ॥ यजिमनिशुन्धिदसिजनिभ्यो युच् (उणा० ३।२०) इस उणादिसूत्र से युच् प्रत्यय होता है । सो बाहुलक से अज धातु से भी युच् प्रत्यय हो जाता है ।। शिशिर डालक-प्रकरणम् 1 ण्यक्षत्रियार्षत्रितो यूनि लुगणियोः ॥२।४।५८॥ शिश ण्यक्षत्रियार्षञितः ५॥१॥ यूनि ७१॥ लक १॥१॥ अणिोः ६।२॥ स० इत् यस्य स जित्, ण्यश्च क्षत्रियश्च प्रार्षश्च निच्च ण्यक्षत्रियार्षनित, तस्मात् ……, बहुव्रीहिगर्भसमाहारो द्वन्द्वः । अण च इन च अणिो , तयोः ….”, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अर्थः- ण्यन्तात् गोत्रप्रत्ययान्तात् क्षत्रियवाचिगोत्रप्रत्ययान्तात्, ऋषिवाचिगोत्रप्रत्य यान्तात्, जितगोत्रप्रत्ययान्ताच्च युवापत्ये विहितयोः अणिझोलुंग भवति ॥ उदा० कौरव्यः पिता, कौरव्यः पुत्रः । क्षत्रिय–श्वाफल्कः पिता, श्वाफल्कः पुत्रः । पार्ष वासिष्ठः पिता, वासिष्ठः पुत्रः । जित्-बैद: पिता, बंदः पुत्रः । अण:-तैकायनि: पिता, तैकायनि: पुत्रः ।। या भाषार्थ:-[ण्यक्षत्रियार्षजित:] ण्यन्त गोत्रप्रत्ययान्त, क्षत्रियवाचि गोत्रप्रत्ययान्त, ऋषिवाची गोत्रप्रत्ययान्त, तथा ञ् जिनका इतसंज्ञक हो ऐसे जो गोत्रप्रत्ययान्त शब्द, उनसे जो [यूनि] युवापत्य में पाये [अणिजोः] अण और इञ् प्रत्यय, उनका [लुक] लुक् हो जाता है । ___ण्य, क्षत्रिय, आर्ष से युवापत्य में अण् का उदाहरण नहीं मिलता, अतः ‘जित् से उत्पन्न अण’ का ही उठाहरण दिया है | usa । यहाँ से ‘यूनि’ की अनुवृत्ति २।४।६१ तक, तथा ‘लुक’ को अनुवृत्ति २।४।८३ तक जायेगी। सरिया पैलादिभ्यश्च ॥२॥४॥५६॥ पैलादिभ्य: ५॥३॥ च अ० ॥ स०–पैल आदिर्येषां ते पैलादयः, तेभ्यः ….. बहुव्रीहिः ॥ अनु०-यूनि लुक ॥ अर्थः-पैलादिम्यो गोत्रवाचिभ्य: शब्देभ्य: युवापत्ये विहितस्य प्रत्ययस्य लग् भवति ॥ उदा०- पैल: पिता, पैलः पुत्रः ॥ भाषार्थ:-गोत्रवाची जो [पैलादिभ्यः] पलादि शब्द उनसे [च भी युवापत्य में विहित जो प्रत्यय उसका लुक हो जाता है ।। पीला शब्द से गोत्रापत्य में पीलाया वा (४२११८) से अण् प्रत्यय हुआ है। तदन्त से पुनः युवापत्य में जो अणो द्वयचः (४११११५६) से फिज़ प्राया, उसका लुक पाद:] द्वितीयोऽध्यायः २६७ 501515 प्रकृत सूत्र से हो गया, सो पिता पुत्र दोनों पैल कहलाये ॥ पैलादि गण में जो इनन्त शब्द हैं, उनसे यविनोश्च (४।१।१०१) से युवापत्य में प्राप्त फक् का, तथा जो फिञ् प्रत्ययान्त शब्द हैं, उनसे युवापत्य में तस्यापत्यम् (४।१।६२) से प्राप्त प्रण का लक हो गया है ॥ इञः प्राचाम् ॥२।४।६०॥ इञः ५।१।। प्राचाम ६।३।। अनु०-यूनि लुक् ।। अर्थः-प्राचां गोत्रे विहितो य इञ तदन्तात् युवप्रत्ययस्य लग् भवति ॥ उदा० -पान्नागारिः पिता, पान्नागारिः पुत्रः । मान्थरैषणिः पिता, मान्थरैषणिः पुत्रः ॥ भाषार्थ:- [प्राचाम्] प्राग्देशवाले गोत्रापत्य में विहित जो [इञः] इज प्रत्यय, तदन्त से युवापत्य में विहित प्रत्ययों का लुक होता है ॥ गोत्र में अत इञ् (४।१।६५) से इञ् हुआ था। सो युवापत्य में जो यजिनोश्च (४।१।१०१) से फक् प्राया, उसका लुक हो गया है । न तौल्वलिभ्यः ॥२।४।६१॥ _न अ० ॥ तौल्वलिभ्य: ५॥३॥ अनु०–यूनि लुक् ।। अर्थः-पूर्वेण प्राप्तो लुक प्रतिषिध्यते । गोत्रवाचिभ्यः तौल्बल्यादिभ्यो युवापत्ये विहितस्य प्रत्ययस्य लुङ् न भवति ॥ उदा०-तौल्वलिः पिता, तौल्वलायनः पुत्रः ।। भाषार्थ:-गोत्रवाची [तौल्बलिभ्यः] तौल्वलि प्रादि शब्दों से विहित जो युवापत्य में प्रत्यय, उसका लुक् [न] नहीं होता है । सब गणपठित शब्दों में गोत्रापत्य में इञ् पाता है। सो उससे पाये जो युवापत्य में यजिञोश्च (४११०१) से फक पायेगा, उसका लुक नहीं हमा। तो तौल्वलायन: पुत्रः प्रादि प्रयोग बने । इस प्रकार पूर्व सूत्र से जो लुक् की प्राप्ति थी, उसका यह निषेधसूत्र है ।। तौल्वलिभ्य: में बहुवचन ग्रहण करने से तौल्वल्यादि गण लिया गया है। 1111कार 57818 मागी आग तद्राजस्य बहष तेनैवास्त्रियाम् ।।४।६२॥ लिया तद्राजस्य ६।१॥ बहुष ७।३।। तेन ३।१।। एव अ० ॥ अस्त्रियाम ७।१।। स० न स्त्री अस्त्री, तस्याम् …..,नजतत्पुरुषः । अनु०-लुक ॥ अर्थ:-अस्त्रीलिङ्गस्य बहुषु वर्तमानस्य तद्राजसंज्ञकस्य प्रत्ययस्य लुग्भवति, यदि तेनैव तद्राजसंज्ञकेनैव कृतं बहुत्वं स्यात् ॥ उदा०–अङ्गाः, वङ्गाः, मगधाः, कलिङ्गाः ॥ शायरी भाषार्थ:- [बहुष] बहुत्व अर्थ में वर्तमान [तद्राजस्य] तद्राजसञ्जक अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः प्रत्यय का लुक हो जाता है [स्त्रियाम] स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर, यदि वह बहुत्व [तेनैव] उसी तद्राजसज्ञक कृत हो ॥ ते तद्राजाः (४।१।१७२), तथा ज्यादयस्त द्राजा: (५।३।११६) से तद्राज संज्ञा कही है । यहाँ से ‘बहुषु तेनैव’ को अनुवृत्ति २।४७० तक जायेगी, तथा ‘अस्त्रियाम्’ की अनुवृत्ति २।४।६५ तक जायेगी। यस्कादिभ्यो गोत्र ॥२।४।६३॥ यस्कादिभ्यः ५॥३॥ गोत्रे ७१॥ स०-यस्क आदिर्येषां ते यस्कादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-लुक, बहुषु तेनैवास्त्रियाम् ॥ अर्थ:-यस्कादिभ्यो विहितो यो गोत्रप्रत्ययः तस्य बहुषु वर्तमानस्य अस्त्रीलिङ्गस्य लुग भवति, यदि तेनैव-गोत्रप्रत्य येनैव कृतं बहुत्वं स्यात् ।। उदा०-यस्का: । लभ्याः ॥ भाषार्थ:- [यस्कादिभ्यः] यस्कादिगण-पठित शब्दों से विहित बहुत्व अर्थ में जो [गोत्रे] गोत्रप्रत्यय उसका लुक हो जाये, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर, यदि वह बहुत्व उस गोत्रप्रत्यय कृत हो । यस्काः आदि में गोत्रापत्य में यस्कस्य गोत्रापत्यानि बहूनि इस अर्थ में शिवादिभ्योऽण (४।१।११२) से जो अण् आया, उसका प्रकृत सूत्र से तत्कृत बहुत्व होने से लुक हो गया है । सो यास्कः, यास्को, यस्का: ऐसे रूप चलेंगे ।। यहाँ से ‘गोत्रे’ को अनुवृत्ति २१४१७० तक जायेगी। यत्रञोश्च ॥२।४।६४॥ लियबजोः ६२॥ च अ० ॥ स०-यञ् च अञ् च यजौ, तयोः………., इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-गोत्रे, लुक्, बहुषु तेनैवास्त्रियाम् ॥ अर्थः-गोत्रे विहितस्य या प्रत्ययस्य अप्रत्ययस्य च लग भवति, तत्कृतं गोत्रप्रत्ययकृतं यदि बहुत्वं स्यात्, स्त्रीलिङ्गं विहाय ।। उदा०–गर्गाः, वत्साः । अत्र -बिदाः, उर्वाः ॥ भाषार्थः-गोत्र में विहित जो [यो:] यञ् और अञ् प्रत्यय उनका [च] भी तत्कृत बहुत्व में लुक होता है, स्त्रीलिङ्ग को छोड़कर ।। गर्गाः की सिद्धि परि० १।१०६२ में देखें । बिदा: उर्वा: में अनुष्यानन्तर्ये (४।१।१०४) से बहुत अपत्यों को कहने में जो अन् प्रत्यय आया था, उसका लुक प्रकृत सूत्र से होकर तन्निमित्तक वृद्धि प्रादि भी हटकर बैदः, बैबौ, बिदाः ऐसे रूप चलेंगे ।। अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठगोतमाङ्गिरोभ्यश्च ।।२।४।६५।। चीन के 32 अत्रिभगु……… रोभ्य: ५॥३॥च अ०॥ स०–अत्रिश्च भृगुश्च कुत्सश्च वसिष्ठश्च गोतमश्च अङ्गिराश्चेति अत्रिभृगुकुत्सवसिष्ठगोतमाङ्गिरसः, तेभ्य:-.”, पादः ] द्वितीयोऽध्यायः २२६६ इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-गोत्रे, लुक्, बहुषु तेनैवास्त्रियाम् ॥ अर्थ:- अत्रि, भृगु, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अङ्गिरस इत्येतेभ्यः शब्देभ्यो गोत्र विहितस्य प्रत्ययस्य तत्कृतबहुवचने लग भवति, स्त्रीलिङ्ग विहाय ।। उदा०-अत्रयः, भृगवः, कुत्साः , वसिष्ठाः, गोतमा:, अङ्गिरसः॥ ___भाषार्थ:-[अत्रि…..भ्यः] अत्रि, भृग, कुत्स, वसिष्ठ, गोतम, अङ्गिरस् इन शब्दों से तत्कृतबहुत्व गोत्रापत्य में विहित जो प्रत्यय उसका, [च] भी लुक् हो जाता है ॥ अत्रि शब्द से इतश्चानिञः (४।१।१२२) से बहुत्व में जो ढक् प्रत्यय हुमा उसका लुक होकर अत्रयः (अत्रि के पौत्रादि) बना । एकवचन द्विववचन में ढक का लुक न होने से ‘आत्रेयः, प्रात्रेयौं’ बनेगा। शेष भृगु आदियों से ऋष्यन्धक० (४।१।११४) से प्रण प्रत्यय बहुत्व अर्थ में हुआ है, सो उसका लक् हो गया । भृगु को जसि च (७।३।१०६) से गुण होकर भगवः बना है । बह्वच इञः प्राच्यभरतेषु ॥२॥४॥६६॥ किया बह्वच: ५।१।। इनः ६१॥ प्राच्यभरतेषु ७।३॥ स०-बहवोऽचो यस्मिन् स बह्वच्, तस्मात्, बहुव्रीहि ॥ प्राक्षु भवाः प्राच्याः, प्राच्याश्च भरताश्च प्राच्य भरताः, तेषु … ,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-गोत्रे, लुक, बहुषु तेनैव ॥ अर्थः–बह्वच शब्दात् प्राच्यगोत्रे भरतगोत्रे च य इन विहित: तस्य गोत्रप्रत्ययकृत बहुवचने लुग भवति ।। उदा०-पन्नागाराः, मन्थरैषणा: । भरतगोत्र-युधिष्ठिरा:, अर्जुनाः॥ भाषार्थ:- [बह्वचः] बह्वच शब्द से [प्राच्यभरतेषु] प्राच्यगोत्र तथा भरतगोत्र में विहित जो [इनः] इञ् प्रत्यय उसका, तत्कृतबहुवचन में लुक् हो जाता है ॥ उदा०-पन्नागाराः, मन्थरैषणाः (मन्थरेषण नामक व्यक्ति के बहुत से पौत्र प्रपौत्र प्रादि)। भरतगोत्र में-युधिष्ठिराः, अर्जुनाः॥ पन्नागार युधिष्ठिर प्रादि बह्वच शब्द हैं । सो उनके बहुत से पौत्र आदिकों को कहने में गोत्रप्रत्यय जो अत इञ् (४।१।६५) से इज. पाया था, उसका लुक हो गया है ।। एकत्व द्वित्व अर्थ में लुक न होने से ‘पान्नागारिः, पान्नागारी’ बनता है ।। न गोपवनादिभ्यः ॥२।४।६७॥ न अ० ॥ गोपवनादिभ्य: ५।३॥ स०-गोपवन प्रादिर्येषां ते गोपवनादय:, तेभ्यः …..,बहुव्रीहिः॥ अनु-गोत्रे, लुक, बहुषु तेनैव ॥ अर्थः- गोपवनादिभ्यः परस्य गोत्रे विहितस्य प्रत्ययस्य तत्कृतबहुवचने लङ न भवति ॥ विदाद्यन्तर्गणोऽयं गोपवनादिः, तत्र अनृष्या० (४।१।१०४) इत्यनेन विहितस्य ‘अ’ प्रत्ययस्य य बोदच (२।४।६४) इति लक प्राप्तः प्रतिषिध्यते ॥ उदा०-गौपवनाः, शैग्रवाः ।। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [चतुर्थः 3 भाषार्थ:-[गोपवनादिभ्यः] गोपवनादि शब्दों से परे गोत्रप्रत्यय का तत्कृत बहुवचन में लुक [न] नहीं होता है ।। गोपवनादिगण बिदादिगण के अन्तर्गत ही है । सो अनुष्यानन्तर्ये०(४।१।१०४)से हुये गोत्रप्रत्यय अ का बहुत्व में योश्च (२।४।६४) से लुक प्राप्त था। उसका इस सूत्र ने प्रतिषेध कर दिया, तो गौपवनाः ही बना ।। र यो तिककितवादिभ्यो द्वन्द्वे ।।२।४।६८। * तिककितवादिभ्यः ५॥३॥ द्वन्द्वे ७१॥ स०–तिकश्च कितवश्च तिककितवी, प्रादिश्च प्रादिश्च आदी, तौ आदी येषां ते तिककितवादयः, तेभ्यः…….,द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ।। अनु०-गोत्रे, लक, बहुष तेनैव ॥ अर्थः - द्वन्द्वसमासे तिकादिभ्यः कितवादिभ्यश्च परस्य गोत्रे विहितस्य प्रत्ययस्य तत्कृतबहुवचने लग भवति । उदा० तेकायनयश्च कैतवायनयश्च तिककितवाः । वाङ्खरयश्च भाण्डीरथयश्च वङ्खर भण्डीरथाः ॥ भाषार्थ:-[तिककितवादिभ्यः] तिकादि एवं कितवादिगण-पठित शब्दों से [द्वन्द्वे ] द्वन्द्व समास में तत्कृतबहुत्व में प्राये हुए गोत्रप्रत्यय का लुक होता है । उदाहरण “तिककितवाः” में तिक कितव इन दोनों शब्दों से तिकादिभ्यः फिञ् (४।१।१५४) से फिज प्रत्यय होकर उसका लुक हुआ है । ‘वङ्खरभण्डीरथाः’ में दोनों शब्दों में अत इञ् (४।१६६५) से इञ् प्रत्यय होकर लुक हुआ है । चार्थे द्वन्द्वः (२।२।२६) से द्वन्द्व समास सर्वत्र हो ही जायेगा। का उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामद्वन्द्व ॥२।४।६६।। शिकार उपकादिभ्यः ५३३॥ अन्यतरस्याम अ० ॥ अद्वन्द्वे ७१॥स०-उपक प्रादिर्येषां ते उपकादयः, तेभ्यः “बहुव्रीहिः । न द्वन्द्वः अद्वन्द्वः, तस्मिन् ,नजतत्पुरुषः ॥ अनु० गोत्रे, लक, बहुषु तेनैव ।। अर्थ:-उपकादिभ्यः शब्देभ्यो गोत्रे विहितस्य प्रत्ययस्य तत्कृतबहुवचने विकल्पेन ल ग भवति, द्वन्द्वे चाद्वन्द्वे च ।। उदा०-उपकलमकाः, भ्रष्टक कपिष्ठला:, कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः । एते त्रयः शब्दाः कृतद्वन्द्वास्तिककितवादिष पठिताः, एतेष पूर्वेण नित्यं लक भवति, अद्वन्द्वे त्वनेन विकल्पो भवति । उपका: प्रौपकायनाः, लमका: लामकायना: इत्यादयः । परिशिष्टानां तु द्वन्द्वेऽद्वन्द्वे सर्वत्र विकल्पो भवति ॥ भाषार्थ:- [उपकादिभ्यः] उपकादि शब्दों से परे गोत्र में विहित जो तत्कृत बहुवचन में प्रत्यय उसका लुक [अन्यतरस्याम] विकल्प से होता है [अद्वन्द्वे ] द्वन्द्व समास में भी और अद्वन्द्व समास में भी॥ यहाँ ‘अद्वन्द्वे’ ग्रहण ऊपर से आनेवाले ‘द्वन्द्वे’ के अधिकार की समाप्ति के लिये है, पादः] द्वितीयोऽध्यायः २७१ न कि “द्वन्द्व समास में न हो” इसलिए है । अतः यहाँ द्वन्द्व और अद्वन्द्व दोनों में ही विकल्प होता है ॥ उपकलमकाः, भ्रष्टककपिष्ठलाः, कृष्णाजिनकृष्णसुन्दराः ये तीन शब्द द्वन्द्व समास किये हुए तिककितवादि गण में पढ़े हैं। इनमें पूर्व सूत्र से ही नित्य लुक् होता हैं, यहाँ अद्वन्द्व में विकल्प के लिए पाठ है। यथा उपकाः, प्रोपकायनाः; लमकाः, लामकायनाः प्रादि । शेष गणपठित शब्दों में द्वन्द्व एवं अद्वन्द्व दोनों में विकल्प होता है ॥ उपक तथा लमक शब्दों से नडादिभ्यः फक (४११६६) से गोत्रप्रत्यय फक् हुआ था, उसी का इस सूत्र से लुक हुआ है। अद्वन्द्व में विकल्प होने से पक्ष में श्रवण भी हो गया है । भ्रष्टक एवं कपिष्ठल शब्दों से प्रत इञ् (४।१।६५) से गोत्र प्रत्यय इञ् हुआ है, उसी का इस सूत्र ने लुक कर दिया है । एवं कृष्णाजिन तथा कृष्णसुन्दर से पूर्ववत् इञ् प्रत्यय हुआ था, उसी का यहाँ लुक् हो गया है । प्रागस्त्यकौण्डिन्ययोरगस्ति कुण्डिनच ॥२।४७०॥ आगस्त्यकौण्डिन्ययोः ६॥२॥ अगस्तिकुण्डिनच् ११॥ स०-प्रागस्त्यश्च कौण्डिन्यश्च प्रागस्त्यकौण्डिन्यौ, तयोः .. …,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अगस्तिश्च कुण्डिन च्च अगस्तिकुण्डिनच्, समाहारो द्वन्द्वः । अनु०–गोत्रे, लुक, बहुषु तेनैव ॥ अर्थः प्रागस्त्य कौण्डिन्य इत्येतयोः शब्दयो: गोत्रे विहितस्य प्रत्ययस्य तत्कृत बहुवचने लुग भवति, परिशिष्टस्य च प्रकृतिभागस्य अगस्ति कुण्डिनच् इत्येतो आदेशौ भवतः ॥ उदा-अगस्तयः, कुण्डिना: ॥ भाषार्थ:- [भागस्त्यकौण्डिन्ययोः] आगस्त्य तथा कौण्डिन्य शब्दों से गोत्र में विहित जो तत्कृतबहुवचन में प्रत्यय, उसका लुक हो जाता है, शेष बची अगस्त्य एवं कुण्डिनी प्रकृति को क्रमशः [अगस्तिकुण्डिनच्] अगस्ति और कुण्डिनच् आदेश भी हो जाते हैं । आगस्त्य कौण्डिन्य शब्द गोत्रप्रत्यय उत्पन्न करके यहाँ निर्दिष्ट हैं ।।। सुपो धातुप्रातिपदिकयोः ॥२।४।७१॥ सुप: ६३१॥ धातुप्रातिपदिकयो: ६॥२॥ स०-धातुश्च प्रातिपदिकञ्च धातु प्रातिपदिके, तयोः…..–,इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन-लक ।। अर्थः-धात्वव यवस्य प्रातिपदिकावयवस्य च सुपो लुग भवति ॥ उदा०-पुत्रीयति, घटीयति । प्रातिपदिकस्य–कष्टश्रित:, राजपुत्रः ॥ भाषार्थ:- [धातुप्रातिपदिकयो:] धातु और प्रातिपदिक के अवयव [सुप:] सुप् का लुक हो जाता है। कार किया कि कोस २७२ अष्टाध्यायौ-प्रथमावृत्ती शप्रदिप्रभृतिभ्यः शप: ।।२।४।७२॥ अस्याः । अदि: प्रभृतिभ्य ५॥३॥ शपः ६।१।। स०-प्रदिप्रभृति येषां ते अदिप्रभृतयः, तेभ्य: ………..,बहुव्रीहिः ॥ अनु०-लक ॥ अर्थ:-अदादिगणपठितेभ्यो धातृभ्य उत्तरस्य शपो लुग् भवति ।। उदा०–अत्ति । हन्ति । द्वेष्टि | लोक म भाषार्थ:-अदिप्रभृतिभ्यः अदादि धातुओं से परे जो शप:] शप आता है, उसका लुक हो जाता है ।। ‘अद् शप्, ति, हन् शप् ति’ यहाँ शप का लुक होकर अद् ति रहा, खरि च (८।४।५४) से द को त होकर–अत्ति (खाता है), हन्ति (मारता है ) बना । ‘विष शप ति’ में शप का लुक होकर गुण, तथा ष्टुना ष्टुः(१।४।४०) से ष्टुत्व होकर द्वेष्टि (द्वेष करता है) बना है ॥ यहाँ से ‘प्रदिप्रभृतिभ्य’ की अनुवृत्ति २।४।७३ तक, तथा ‘शप:’ की अनुवृत्ति २।४१७६ तक जाती है। Treyaz बहुलं छन्दसि ।।२।४।७३॥ बहुलम १२१।। छन्दसि ७॥१॥ अनु०-लक, अदिप्रभतिभ्यः शपः॥ अर्थः छन्दसि वैदिकप्रयोगविषये शपो बहुलं लग् भवति ॥ उदा०-वृत्रं हनति (ऋ० ८८६।३) । अशयदिन्द्रशत्रः (ऋ० १॥३२॥१०) । बहुलग्रहणसामर्थ्याद अन्यगणस्थे भ्योऽपि लुग भवति-त्राध्वं नो देवा: (ऋ० २।२६।६) ॥ भाषार्थ:- [छन्दसि [ वैदिक प्रयोग विषय में शप् का लुक [बहुलम् ] बहुल करके होता है । जहाँ प्राप्त है वहाँ नहीं होता, जहाँ नहीं प्राप्त है वहाँ हो जाता है ॥ हन् शीङ अदादिगण की धातु हैं, सो लुक प्राप्त था, नहीं हुआ । अशयत शीङ धातु का लङ लकार का रूप है । शोङ को गुण तथा शप् परे मानकर अयादेश हो गया है । बङ पालने भ्वादिगण को धातु है, सो लुक प्राप्त नहीं था, हो गया है । लोट में ध्वम् प्रादेश होकर त्राध्वं रूप बना है ॥ यहाँ से ‘बहुलम्’ को अनुवृत्ति २।४७४ तक जाती है ।। कति यहोऽचि च ॥२।४।७४॥ यडः ६।१।। अचि ७॥१॥ च अ०॥ अनु०-बहुलम्, लक ॥ अर्थ:-अचि प्रत्यये परतो यङो बहुलं लग भवति, बहुलग्रहणाद् अनच्यपि भवति ॥ उदा० लोलवः । पोपुवः। मरीमृजः । सरीसृपः । अनच्यपि-पापठीति, लालपीति ।। भाषार्थः- [अचि] अच् प्रत्यय के परे रहते [यङ:] यङ का लक हो जाता है, [च] चकार से बहुल करके अच् परे न हो तो भी लक हो जाता है ।। ऊपर से छन्दसि को अनुवृत्ति नहीं आती, अतः भाषा और छन्द दोनों में प्रयोग बनेंगे ।। पादः] द्वितीयोऽध्यायः २७३ जुहोत्यादिभ्यः श्लुः ॥२।४।७५॥ जुहोत्यादिभ्य: ५॥३॥ श्लुः १११॥ स-जुहोति आदिर्येषां ते जुहोत्यादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-शपः ॥ अर्थ:-जुहोत्यादिभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य शप: श्लुर्भवति ।। उदा०-जुहोति । बित्ति । नेनेक्ति ॥ भाषार्थ:-[जुहोत्यादिभ्यः] जुहोत्यादिगण की धातुओं से उत्तर जो शप उसका [श्लः] श्लु हो जाता है, अर्थात् श्लु कहकर प्रदर्शन होता है ॥ यहाँ से ‘जुहोत्यादिभ्य: श्लु’ को अनुवृत्ति २।४१७६ तक जायेगी। शाल बहुलं छन्दसि ॥२।४।७६।। बहुलम १।१।। छन्दसि ७।१॥ अनु० -शप:, जुहोत्यादिभ्यः श्लः ॥ अर्थः– छन्दसि =वैदिकप्रयोगविषये जुहोत्यादिभ्य: परस्य बहुलं शपः श्ल रादेशो भवति ॥ उदा०–दाति प्रियाणि (ऋ० ४।८।३), धाति प्रियाणि । पूर्णां विवष्टि (ऋ० ७॥ १६।११), जनिमा विवक्ति ॥ भाषार्थ:-[छन्दसि] छन्दविषय में जुहोत्यादि धातुनों से परे शप को श्लु प्रादेश [बहुलम् ] बहुल करके होता है ॥ गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु ॥२॥४७७॥ गातिस्थाघुपाभूभ्यः ५॥३॥ सिचः ६।१॥ परस्मैपदेषु ७॥३॥ ॥ स.–गाति श्च स्थाश्च घश्च पाश्च भूश्च गातिस्थाघुपाभुवः, तेभ्यः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-लक ।। अर्थ -गा स्था घु पा भू इत्येतेभ्यो धातुभ्य: परस्य सिचो लग भवति परस्मैपदेषु परतः ।। उदा०-अगात् । अस्थात् । घु-प्रदात्, अधात् । अपात् । अभूत् ।। भाषार्थ:–[गातिस्थाघुपाभूभ्य:] गा, स्था, संज्ञक धातु, पा और भू इन धातुओं से परे [सिच:] सिच का लुक हो जाता है [परस्मैपदेषु] परस्मैपद परे रहते ॥ समा उदा.-प्रगात् (वह गया)। प्रस्थात् (वह ठहरा) । घु-प्रदात (उसने दिया), प्रधात्(उसने धारण किया)। अपात्(उसने पिया)। प्रभूत (वह हुआ)। यहाँ ‘गाति’ से इणो गा लुङि (२।४।४५) से विहित ‘गा’ प्रादेश का, तथा ‘पा’ से पीने अर्थवाली ‘पा’ धातु का ग्रहण है ॥ दाधा घ्वदाप् (१।१।१६) से घु संज्ञा होती है ।। लुङ २७४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः लकार में हम पहले सिद्धियाँ दिखा चुके हैं, उसी प्रकार यहाँ भी समझे। कुछ भी विशेष नहीं है । हम यहाँ से सिचः को अनुवृत्ति २२४७६ तक, तथा ‘परस्मैपदेषु’ की अनुवत्ति रा७८ तक जायेगी। विभाषा घ्राधेट्शाच्छासः ।।२।४।७८॥ विभाषा ११॥ घ्राधेटशाच्छास: ५॥१॥ स०-घ्राश्च घेट च शाश्च छाश्च साश्चेति घ्राधेटशाच्छासाः, तस्मात् …,समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-सिच:, परस्मैपदेषु, लुक ।। अर्थः -घ्रा घेट शा छा सा इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य सिचः परस्मैपदेषु परतो विकल्पेन लग भवति ॥ उदा०-अघ्रात, अघ्रासीत् । अघात, अधासीत् । अशात, प्रशासीत् । अच्छात्, अच्छासीत् । असात, असासीत् ।। भाषार्थ:-[घ्राधेटशाच्छासः] घ्रा, घेट, शा, छा, सा इन धातुओं से परे [विभाषा] विकल्प करके परस्मैपद परे रहते सिच का लुक् हो जाता है। पेट धातु घुसंज्ञक है, सो पूर्व सूत्र से नित्य सिच का लुक प्राप्त था, विकल्प विधान कर दिया है । शेष धातुनों से लुक अप्राप्त था, सो विकल्प कह दिया है । उवा०-अघ्रात, अघ्रासीत् । अधात, अघासीत् । प्रशात, प्रशासीत् (उसने पतला किया) । अच्छात्, अच्छासीत् । असात, असासीत् (उसने समाप्त कर लिया) । सिच् के अलुक् पक्ष में ‘अप्रा सिच् ईट त्’ परि० १११।१ अलावीत् के समान बनकर, यमरमनमातां सक च (७१२१७३) से सक और इट् आगम होकर ‘न घ्रा सक् इट् सिच ईट त’ बना। इट ईटि (का२।२८) से सिच के ‘स’ का लोप, तथा अनुबन्ध लोप होकर ‘म ब्रास इ ई त’, सवर्ण दीर्घ होकर अघ्रासीत् बन गया है । इसी प्रकार अन्य सिद्धियों में भी समझे । अच्छात में छे च (६।११७१) से तुक् आगम, तथा श्चुत्व विशेष है॥ यहाँ से ‘विभाषा’ की अनुबत्ति २।४७६ तक जायेगी। शाम तनादिभ्यस्तथासोः ॥२।४।७।। तनादिभ्यः ५॥३॥ तथासोः ७२॥ स०-तन प्रादिर्येषां ते तनादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः । तश्च थाश्च तथासौ, तयोस्तथासोः, इतरेत रयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-विभाषा, सिचः, लुक । अर्थ:-तनादिभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य सिचो विभाषा लग भवति तथासो: परतः ।। उदा०-अतत, अतनिष्ट । असात, असनिष्ट । थास्-अतथा:, अतनिष्ठाः । असाथा:, असनिष्ठाः॥ पादः] द्वितीयोऽध्यायः २७५ भाषार्थ:-[तनादिभ्यः] तनादिगण की धातुओं से उत्तर जो सिच, उसका [तथासोः] त और थास् परे रहते विकल्प से लुक् होता है । जिजामह उदा -अतत (उसने विस्तार किया), अतनिष्ट । अतथाः (तुमने विस्तार किया), अतनिष्ठाः । असात (उसने दिया), असनिष्ट । असाथा:, असनिष्ठाः (तुमने दान दिया) ॥ सिच् के लुक पक्ष में अनुदात्तो० (६।४।३७) से ‘तन्’ के न का लोप हो गया, तथा जनसनखनां० (६।४।४२) से ‘सन्’ के न को आकार हो गया । अलुक पक्ष में इट् मागम होकर प्रतनिष त, अतनिष था, इस अवस्था में ष्टुत्व होकर प्रतनिष्ट, प्रतनिष्ठास बना । पूर्ववत् रुत्व विसर्जनीय होकर प्रतनिष्ठाः हो गया ।। मन्त्रे घसह्वरणशवृदहावच्कृगमिजनिभ्यो लेः ।।२।४।८।। मन्त्रे ७।१।। घस …… जनिभ्य: ५॥३॥ ले: ६।१।। स०-घसश्च ह्वरश्च णशश्च व च दहश्च अाच्च वृज् च कृ च गमिश्च जनिश्च घसहर जनयः, तेभ्यः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० -लक ।। अर्थः-मन्त्रविषये घस, ह्वर, णश, वृ, दह, प्रात्, वृज, कृ, गमि, जनि इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य ले:-च्लिप्रत्ययस्य लुग भवति ।। उदा० - प्रक्षन्नमीमदम्त (ऋ० ११२।१) । बर्-माह्वमित्रस्य त्वम् । नश् प्रणङ मर्त्यस्य (ऋ० १॥१८॥३) । वृशोः सामान्येन ग्रहणम् –सुरुचो वेन प्राव: (यजु० १३।३)। दह-मा न आ धक् (ऋ० ६.६१।१४।। प्रात् इत्यनेन आकारान्तस्य ग्रहणम् —ाप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षम् (ऋ० १११५॥१) । वृज्-मा नो अस्मिन् महाधने परा वर्क (ऋ० ८७५।१२) । कृ-अक्रन कर्म कर्मकृत: (यजु० ३।४७) । गमि - अग्मन् (ऋ० १।१२१।७) । जनि-प्रज्ञत वा अस्य दन्ताः (ऐ० ब्रा० ७।१४।१५) ॥ शामियाजा को भाषार्थ:- [मन्त्र] मन्त्रविषय में [घस…….जनिभ्यः] घस, हव, णश, वृ, दह, आत = आकारान्त, वृज, कृ, गमि, जनि इन धातुपों से उत्तर जो [ले:] लि अर्थात् चिल प्रत्यय उसका लुक हो जाता है ।। यहाँ से ‘ले:’ की अनुवृत्ति २।४१८१ तक जायेगी। ती ____प्रामः ।।२।४।८१॥ प्रशिक्षण का प्राम: ५॥१॥ अनु०-ले:, लुक ॥ अर्थ:-ग्राम उत्तरस्य लेलुग भवति ॥ उदा०-ईहांचक्रे, ऊहांचक्रे, ईक्षांचक्रे निnिg भाषार्थ:- [प्रामः] आम् प्रत्यय से उत्तर लि का लुक् हो जाता है । सिद्धियां परि० १।३।६३ में देखें ।। यहाँ सामर्थ्य से ले से लिट का ग्रहण होता है, न कि चिलका ।। २७६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः अव्ययादाप्सुपः ॥२।४।८२॥ है। अव्ययात् ॥१॥ प्राप्सुपः ६।१॥ स०-ग्राप् च सुप् च प्राप्सुप्, तस्य, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-लुक् ॥ अर्थ:-अव्ययाद् उत्तरस्य प्रापः सुपश्च लुग् भवति ।। उदा०-तत्र शालायाम् । यत्र शालायाम् । सुप-कृत्वा, हृत्वा ॥ frg भाषार्थ:–[अव्ययात् ] अव्यय से उत्तर [प्राप्सुपः] प्राप=टाप, डाप, चाप् स्त्रीप्रत्यय, तथा सुप् का लुक् हो जाता है । 2 उदा०–तत्र शालायाम् (उस शाला में) । यत्र शालायाम् । सुपः-कृत्वा, हृत्वा ॥ तत्र यत्र की सिद्धि परि० १११।३७ में देखें । यहाँ विशेष यह है कि स्त्रीलिङ्ग में जब अजाद्यतष्टाप (४।१।४) से टाप पाया, तो अव्यय संज्ञा होने से उसका लुक प्रकृत सूत्र से हो गया है ॥ परि० ११३३६ में कृत्वा हृत्वा की सिद्धि देखें । अव्यय संज्ञा होकर कृत्वा हृत्वा के प्रागे जो सु माया था, उसका लुक हो गया है । पार यहाँ से ‘सुप:’ को अनुवृत्ति २।४।८३ तक जायेगी ॥ सामान व नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्याः ॥२।४।३।। न अ०॥ अव्ययीभावात् ५॥१॥ अतः ५॥१॥ अम् १॥१॥ तु अ० ॥ अपञ्चम्या: ६॥१॥ स०-न पञ्चमी अपञ्चमी, तस्याः…..”, न तत्पुरुषः ॥ अनु०-सुपः, लुक ॥ अर्थः—अतः=प्रदन्तात् अव्ययीभावसमासाद उत्तरस्य सुपो लुङ न भवति, तस्य सुपः ‘अम’ आदेशस्तु भवति, अपञ्चम्या:=पञ्चमी विभक्तिं विहाय ।। उदा० उपकुम्भं तिष्ठति । उपकुम्भं पश्य ॥ भाषार्थः- [अतः] अदन्त [अव्ययीभावात् अव्ययीभाव समास से उत्तर सुप का लुक् [न] नहीं होता है, अपितु उस सुप् को [अम्] अम् प्रादेश [तु] तो हो जाता है, [अपञ्चम्याः] पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर ॥ अव्ययीभावश्च (१।११४०) सूत्र से अव्ययीभाव समास अव्ययसंज्ञक होता है । सो पूर्वसूत्र से लुक की प्राप्ति थी, यहाँ निषेध कर दिया है । उपकुम्भं तिष्ठति (कुम्भ के समीप बैठता है) में ‘अव्ययं विभक्ति० (२।१।६) से समास हुआ है। उपकुम्भ शब्द प्रदन्त अव्ययीभावसंज्ञक है, सो इसके सुप् को अम् प्रादेश हो गया है। यहां से ‘अव्ययीभावादतोऽम्’ की अनुवृत्ति २।४१८४ तक जायेगी तृतीयासप्तम्योर्बहुलम् ॥२।४।८४॥ १. तृतीयासप्तम्योः ६।२॥ बहुलम् ११॥ स०-तृतीया च सप्तमी च तृतीया सप्तम्यौ, तयोः-.., इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अव्ययीभावादतोऽम् ॥ अर्थ: पाद:] द्वितीयोऽध्यायः २७७ अदन्तादव्ययीभावाद् उत्तरयोः तृतीयासप्तम्योविभक्त्योः स्थाने बहुलम अम्भावो भवति ॥ उदा०-उपकुम्भन कृतम्, उपकुम्भं कृतम् । सप्तमी-उपकुम्भ निधेहि, उपकुम्भं निधेहि ॥ _भाषार्थ:-अवन्त अव्ययीभाव स उत्तर[तृतीयासप्तम्योः]तृतीया और सप्तमी विभक्ति के स्थान में [बहुलम् ] बहुल से अम् आदेश होता है । पूर्व सूत्र से नित्य प्रम् प्रादेश पाता था, बहुल कर दिया । जब अम् आदेश नहीं हुआ, तो विभक्ति का लुक भी नहीं हुआ है। लुट: प्रथमस्य डारौरसः ॥२।४।८५॥ लुटः ६।१।। प्रथमस्य ६॥१॥ डारौरस: १॥३॥ स०-डाश्च रौश्च रश्च डारीरसः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अर्थः-लुडादेशस्य प्रथमपुरुषस्य स्थाने यथासङ्ख्यं डा रौ रस् इति त्रय अादेशा भवन्ति ॥ उदा०-कर्ता, कर्तारौ, कर्तारः ।। का भाषार्थ:–[लुटः] लडादेश जो (तिप् प्रादि), [प्रथमस्य] प्रथम पुरुष में उनको यथासङ्ख्य करके [डारौरसः] डा रौ रस प्रादेश हो जाते हैं ॥ सिद्धि परि० ११११६ के समान ही है। केवल यहाँ एकाच उप० (७।२।१०) से इट् का निषेष, और सार्वधातु० (७।३।८४) से ‘कृ’ को गुण, एवं उरणरपरः(१।१२५०) से रपरत्व होगा । कर्ता में अचो रहाभ्यां द्वे (८।४।४५) से ‘त्’ को द्वित्व भी हो जायेगा। तस् को रौ, झि को रस् आदेश होकर भी पूर्ववत् ही सिद्धि होगी। प्रात्मनेपद तथा परस्मैपद दोनों के स्थान में ये डा रौ रस् प्रादेश हो जाते हैं | र कम ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः॥