संसकृत-का-स्वयं-शिक्षण

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संस्कृत का स्वयं-शिक्षक

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द्वितीय भाग

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लेखक

श्रीपाद दामोदर सातवलेकर

( अग्नि स्रुक्त, वैदिक देवता, वैदिक सभ्यता, वेद में जंतु शास्त्र, वेद में वद्यशास्त्र, उत्तम ज्ञान इत्यादि पुस्तकों का लेखक)

प्रकाशकः

राजपाल-प्रबंधकर्त्ता

सरस्वती आश्रम, लाहौर

प्रथमबार संवत् १६७३
१००० सन् १९१७

॥ ओऽम् ॥

सावधान होकर पढ़ें।

जिस समय “संस्कृत स्वयंशिक्षक” का पहला भाग प्रकाशित किया गया, उस समय न इसके निर्माण कर्त्ता श्री पंडित सातवलेकर जी को और ना मुझे ही आशा थी, कि यह पुस्तक जो सर्वथा नई शैली पर लिखी गई है, इतना सम्मान पाएगी, कि इसका पहला संस्करण केवल चारमास में समाप्त हो जाएगा। उर्दू हिन्दी समाचार पत्रों ने दिल खोल कर इसकी प्रशंसा की, स्थान नहीं कि उनकी सम्मतियों का इस जगह उल्लेख किया जावे, जनता ने, जिस में बड़े २ प्रसिद्ध कीर्तिवान् सनातनधर्मी और आर्यसमाजी दोनों संमिलत हैं, हृदय से इसका स्वागत किया, वह लोग, जो संस्कृत भाषा को प्रति कठिन समझ कर इसकी पढ़ाईसे निराश होचुके थे, उन्हों ने इसके प्रथम भाग को पढ़कर संस्कृत के पवित्र मंदिर में प्रवेश किया। सब से अधिक खुशी की बात यह है इस पुस्तक से मुसलमान भाईयों ने भी लाभ उठाया और इसकी शैली को पसंद किया। इस सन्मानता के लिऐ मैं पंडित जी की थोर से और अपनी ओर से जनता का धन्यवाद करता हूं, और संस्कृत के प्रचारकों की दृष्टि इस ओर प्राकर्षित करता हूं, कि जिस पुस्तक के द्वारा केवल चार मास में एक हज़ार मनुष्यों में संस्कृत का प्रचार होगया, क्या उनका कर्तव्य नहीं कि वह उस पुस्तक का अपने विद्यालयों पाठशालाओं और गृहोंमें प्रचार करके लेखक के उत्साह को बढ़ाएँ॥

पुस्तक के प्रथम भाग की अपेक्षा यह दूसरा भाग बहुत बड़ा है और उन दिनों की अपेक्षा काग़ज का मूल्य भी बहुत बढ़ चुका है तो भी इसका मूल्य केवल १।) सवा रुपया रखा गया है, इसकी कीमत पाठकों के लिए इतनी ही है कि वह संस्कृत का प्रचार करने के लिये इस पुस्तक की अपने इष्ट मित्रों से सिफारश करें॥

प्रकाशक

राजपाल

( उप सम्पादक प्रकाश) लाहौर।

इस पुस्तक का अभ्यास करने का प्रकार

(१) इस पुस्तक का अभ्यास प्रारंभ करने के पूर्व इस पुस्तक ७ पृष्ठ पर दिये हुए प्रश्नों का यथा योग्य उत्तर देना चाहिए।

(२) प्रश्नों का उत्तर देने के पश्चात् प्रथम पाठ तक जो कुछ लिखा हुआ है उसे पढ़ना। तत् पश्चात् प्रथम पाठ से पढ़ने का प्रारंभ पाठक कर सकते हैं।

(३) हर एक पाठ का अभ्यास करने का प्रकार यह है :—
(अ) प्रथम सब पाठको एक बार पढ़ें।

(इ) तत् पश्चात् उस उस पाठ में जो व्याकरण के नियम यदि लिखे हैं उनको अच्छी प्रकार स्मरण करें। तथा हरएक नियम के जो उदाहरण दिये हैं उनको विचार की दृष्टि से देख, अच्छी प्रकार जान, नियमानुकूल उनको घटाकर देखें।

(उ) इतना होने के बाद जिन जिन शब्दों के रूप उस उस पाठ में दिये गये हैं उनको कण्ठ कर, पूर्व पाठों के शब्दों के साथ उनकी तुलना करके, उनकी विशेषता की घोर खास ध्यान दे दें। तथा चलाये हुवे शब्दों के साथ साथ जो जो समान शब्द दिये हैं उनको उसी प्रकार चला कर उनके सब रूप लिखें।

(ॠ) जब शब्द ठीक प्रकार स्मरण हों, तब उस पाठ में दिये हुए संस्कृत वाक्य, उनके भाषा में दिये हुए अर्थ की ओर न देखते हुए, पढ़ें।

(लृ) संस्कृत वाक्य तथा संस्कृत पाठ पढ़ने के समय, भाषा के अर्थ की ओर न देखते हुए हरएक वाक्य तथा हरएक संस्कृत पाठ बड़ी प्रावाज में पढ़ें। आवाज इतनी बड़ी हो कि जो १५/२० आदमी अच्छी प्रकार सुन सकें।

(ए) हर एक संस्कृत पाठ न्यूनन से न्यून दस बार पढ़ना तथा पढ़ने के समय भाषा में दिये हुए अर्थो से जहां तक होसके. वहां तक सहायता नहीं लेनी। परंतु पूर्व दिये हुऐ शब्द तथा वाक्य देखकर अपने आप अर्थ करने का यत्न करना जो पाठक पूर्व पाठ ठीक तैयार करके आगे चलेंगे उनको इस प्रकार अर्थ जानने में कोई कठिनता नहीं होगी।

(ऐ) जहां परीक्षा के प्रश्न दिये हैं वहां उनके उत्तर दिये बिना आगे नहीं बढ़ना। अन्यथा दुबारा पढ़ने का व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ेगा।

(ओ) जहां पूर्व पाठ दुबारा पढ़ने के लिये लिखा है. वहां पाठक अवश्य उनको ‘दुबारा पढ़ें। यद्यपि उनकी राय में पूर्व के पाठ उनको ठीक स्मरण होंगे। तो भी दुबारा पढ़ना उनके लाभ के लिये ही होगा यह उन्होंने ध्यान रखना चाहिये।

(औ) हर एक पाठ में कई विशेषण दिये हैं। उनके रूप विशेष्य के अनुसार किस प्रकार बदलते रहते हैं यह बात विशेष सूक्ष्म दृष्टि से देखनी उचित है।

(अं) प्राचीन ग्रंथों में से जो जो कथायें दीं हुई हैं उनको प्रारंभ से अंत तक स्मरण (याद) करना उचित है। जो पाठक उन को अच्छी प्रकार स्मरण(याद) करेंगे न केवल वे अच्छी संस्कृत बोल सकेंगे परन्तु प्रौढ संस्कृत में व्याख्यान भी दे सकेंगे। परन्तु जो पाठक इन कथाओं को स्मरण नहीं करेंगे वे इस योग्यता से वंचित रहेंगे।

(अः) हर एक पाठ में दिये हुवे समास विवरण को ध्यान से देखना उचित है। इस प्रकार जो पाठक पढ़ेंगे उनको ही इस पुस्तक माला से लाभ हो सकेगा॥

   ग्रंथ लेखक।

‘संस्कृत स्वयं शिक्षक’ के प्रथम भाग
की
परीक्षा के नियम।

(१) परीक्षा के लिये २ घण्टे का समय निश्चित है।

(२) प्रश्नों के उत्तर लिखने के समय पुस्तक, देख कर लिखना नहीं चाहिए।परन्तु केवल स्मरण से लिखना चाहिये।

(३) जिनको आर्यभाषा (हिंदी) के नागरी अक्षर लिखने का बहुत अभ्यास नहीं ऐसे उर्दू दोभाईयों के लिये चार घण्टे का समय दिया जा सकता है। परन्तु शर्त यह है कि पाठक जिस समय प्रश्नों के उत्तर लिखने के लिये बैठे उस समय से लेकर उत्तर का लेख समाप्त होने तक बीच में उठे नहीं।

(४) प्रश्नों के उत्तर लिखे जाने पर उसी समय उस लेख को बंद करके डाकद्वारा मेरे पास रवाना करना चाहिए और साथ अपना पूरा पता देना चाहिए। ताकि परिणाम की सूचना भेजी जा सके।

(५) जो समय के अदर ठीक उत्तर देंगे वे दूसरा भाग प्रारंभ कर सकते हैं। जो समय के अंदर संपूर्ण प्रश्नों का उत्तर न सकेंगे उनके लिये आवश्यक है कि वे प्रथम भाग को दुबारा अथवा मेरे उत्तर का इंतजार करें, और जिन २ हिस्सों को

दुबारा देखने के लिये मैं लिखूंगा उन २ को दुबारा देखें तत् पश्चात् दूसरे भाग को प्रारंभ करें।

(६) प्रश्नों का उत्तर स्थिाही से कागज के एक ओर लिखना चाहिए और जहां तक होसके पढ़ा जाने योग्य सुवाच्य लिखना चाहिए।

(७) जो शुद्ध किये हुऐ प्रश्न पत्र प्रपने देखने के लिये वापस चाहते हैं वे एक आने का टिकट भेजने की कृपा करें।

(८) उत्तर लिखने से पहिले पाठकों को उचित है कि वे सब प्रश्नों को एक बार पढ़ें। और बाद उत्तर लिखना प्रारंभ करें।

आशा है कि पाठक इन नियमों का पालन करेंगे।

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संस्कृत स्वयं शिक्षक प्रथम भाग की
परीक्षा के प्रश्न

(१) निम्न शब्दों का अर्थ भाषा में लिखिएः—

दासः । मह्यम् । तस्मै । खनति । क । पादत्राणं । मिष्ठम् । रजकः । हसनम् । विष्टरः । पुत्रेण । पिहितम् । नेत्राभ्याम् । विषम् । प्रपा । तडागः । निःशेषं । परीक्ष्य ।

(२) निम्न लिखित शब्दों के लिए संस्कृत शब्द दीजियेः—

तब । वैसा । सियाही । कलम । पूरी । देख \। कह । मेरे लिये । पीयेगा। नहीं तो । गिर गया । कीचड़ । आयो। प्रवीण । गया । टेबल । खोला । गेंद । घूमना । दोस्त । जंगल ।गुन्हा ।

(३) जिसप्रकार ‘गच्छति’ क्रिया के ‘गच्छति, गच्छसि, गच्छामि, गमिष्यति, गमिष्यसि, गमिष्यामि ऐसे रूप बनते हैं, उस प्रकार निम्न क्रियाओं के उक्त प्रकार के है है रूप लिखिएः—

नयति । आगच्छति । पठति । पिबति । भवति । प्रक्षालयाती स्थापयति । पीडयति । दर्शयति । परीक्षते । पालयति ।

(४) जैसे ‘पठति’ के ‘पठित्वा, पठितुं’ ये दो रूप बनते हैं वैसे निम्न क्रियाओं के दो दो रूप देकर उनका अर्थ दीजिये :—

पालयति । दर्शयति । करोति । चलति । नयति । पिबति । खादति । गृह्णाति । स्थापयति । अटति । लिखति । भक्षयति ॥

(५) निम्न शब्दों के संधि जोड़कर लिखिए :—

कदा + अपि । न+एव । न+अस्ति । पुष्पं + आनय अधुना + आलेख्यं + आनयति । त्वं+अत्र । यद्+ अत्र । त्वं+अपि ।

(६) जोड़े हुए निम्न शब्दों को खोलकर अलग थलग लिखिएः—

(१) त्वमिदानीं जलमानयसि।
(२) स कदात्र पुस्तकमानयिष्यति।
(३) कपाटमुद्घाटयाहमभ्यन्तरे तेन सहागन्तुमिच्छामि।
(४) पूर्वमहमद्य किमपि कर्तुमिच्छामि।
(५) यदहमिदानीं त्वामाज्ञापयामि किमिति न करोषि तत्।
(६) स इदानीमेव गृहाद्बहिर्गतः।
(७) स भोजनायाद्य पक्कमन्नमानयति।

(७) निम्नलिखित विशेषणोंके पुल्लिंगी, स्त्रीलिंगी, नपुसकलिंगी रूप दीजियेः—

श्वेत । मधुर । शोभन । उद्यमशील । अंध । पीत । रक्त। सर्व । पुष्ट । कृत । दृष्ट । शील । उष्ण । शुद्धायोम्य ।

(८) निम्न वाक्यों का अनुवाद भाषा में कीजिएः—

(१) तस्य वस्त्रं मया प्रक्षालितम्।

(२) तेन बालकेन तस्मै वृषभाय प्रभूतं शुद्धं जलं दत्तम्।

(३) यज्ञमित्रः प्रातःकाले शुद्धे स्थाने उपविश्य एकाग्रेण मनसा संध्यां अग्निहोत्रं च करोति।

(४) अहं एतत् पुस्तकं गृहं नयामि।

(५) तस्मिन् स्थाने श्वनः अस्ति, तं गृहीत्वा शीघ्रं अत्र आगच्छ।

(६) स प्रातः प्रतिदिनं कुत्र गच्छति।

(७) यथा वानरः वृक्षं आरोहति न तथा मनुष्यः कर्तुं शक्नोति।

(९) भाषा के निम्न वाक्यों के संस्कृत वाक्य लिखिए :—

(१) बंदर रात्रि में वृक्ष के ऊपर सोता है।
(२) वैद्य रोगी मनुष्य के लिये दवा देता है।
(३) सुनार सोने का गहना बनाता है।
(४) उसके घर घोड़ा है तथा बिल्ली भी है।
(५) तूं कल सवेरे घूमने के लिये चलेगा।
(६) उस बालक ने वहां तालाब में एक मेंढक देखा।
(७) वह कलकत्ता शहर में रहता है उसका नाम बंशधर है।
(८) ठग के मुंह में मीठा भाषण तथा हृदय में विष होता है।

(९) मैं आंखों से देखता हूं और मुख से पढ़ता हूं।
(१०) वह शूर पुरुष अब जंग में गया है।

(१०) पाठ ४४ में जो संस्कृत भाषा में नारद की कथा दी हुई है उसको पुस्तक खोलकर प्रथम तीन वार जल्दी पढ़िए। फिर ध्यान से दो वार आहिस्ते २ पढ़िए, और पुस्तक बंद करके, पुस्तक देखते हुवे उस कथा को जैसी लिख सकेंगे वैसी कागज पर लिखिए।

(केवल इसी प्रश्न के लिये पाठक पुस्तक को देख सकते हैं)

(११) किसी एक दिन का अपना व्यवहार संस्कृत में लिखिए। सवेरे किस समय उठे। स्नानादिक किस समय किया। क्या क्या अभ्यास किया। भोजन क्या किया।किन मित्रों से मिले। सायंकाल को क्या किया। किस समय सोये। इत्यादि जो कुछ लिखना उचित है।

(१२) संस्कृत स्वयं शिक्षक के प्रथम भाग में जो जो धर्म के विषय के वाक्य आये हैं। उनमें से जो जो आपको स्मरण हों वे वाक्य जैसे स्मरण हैं उन्हें वैसे ही लिखिए।

(१३) निम्र वाक्य अशुद्ध हैं, उनको ठीक शुद्ध करके लिखिएः—

स वदामि।
त्वं गच्छामि।
अहं यः तत्र गमिष्यामि।
त्वं श्वः मद्रासनगरं गतः।

रामः संध्यां करोमि।
अहं श्वेतं मालां आनयामि।
स रक्ता वस्त्रं गृह्णाति।
शुद्धा नवनीतं शोभनः अस्मि।
तत्र पक्का फलं स भक्षयामि।

(१४) ऐसे चार वाक्य लिखिये कि जिनमें निम्न शब्दों का प्रयोग हुवा है। प्रत्येक वाक्य में एक या दो शब्द आजांय।

शीघ्रं । अध्यापकः । रामस्य । आलस्यं । दीपं । कोलाहलः । मंत्रः । नित्यं । ईश्वरः । मिष्टम् \।

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“संस्कृत भाषा के स्वयं शिक्षक”

के

द्वितीय भाग के विषय में एक दो शब्द।

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थोड़े दिनों के पूर्व मैंने ‘संस्कृत का स्वयं शिक्षक’ का प्रथम भाग प्रसिद्ध किया था। उस समय मुझे ऐसी आशा नहीं थी, कि २/३ महिनों के अंदर ही उसके प्रथम बार की पुस्तकें सब की सब लग जांयगीं और द्वितीय भाग की मांग इतनी जलदी हो जायगी। परन्तु बड़ी खुशी की बात है कि, इतने अल्प समय में प्रथम भाग की सब पुस्तकें प्रायः लग चुकीं हैं और द्वितीय भाग की मांग बड़े जोर शोर से होरही है जिस की पूर्ति के लिए यह द्वितीय भाग लिखा है।

इस द्वितीय भाग में प्रायः सब आवश्यक नाम तथा सर्व नामों के रूप बनाने का सुगम प्रकार बताया है। तथा संधि के अत्यंत आवश्यक नियम भी दिये हुए हैं। इसमें अभ्यास क्रम ऐसा रक्खा है कि जिससे पाठकगणा नाटक, रामायण, महाभारत के

सुगम भागों को पढ़कर समझ सकें। रामायण, महाभारत, बाणभट्ट की कादंबरी, दशकुमार चरित, वेणीसंहार, मुद्रा राक्षस, शाकुंतल, उत्तरराम चरित्र, पंचतंत्र, हितोपदेश, कथा कुसुमांजली आदि संस्कृत पुस्तकों से उद्धृत किये हुए ३०, ४० कथा प्रसंग इस पुस्तक में दिये हुए हैं। और शैली ऐसी रक्खी है कि, पढ़ते पढ़ते स्वयं इस योग्यता को प्राप्त होगें कि बिना किसी की सहायता के उक्त कथाओं को स्वयं जान सकेगें।

‘संस्कृत स्वयं शिक्षक’ की शैली की विशेषता इस एक बात से सिद्ध होती है, कि, इसके प्रथम भाग के पढ़ने से कईयों की योग्यता संस्कृत में बात चीत करने तथा पत्र लिखने तक पहुंच चुकी है। मेरे पास ‘स्वयं शिक्षक के पाठकों से केई चिट्ठीयां संस्कृत में आयीं हैं। वे लिखते हैं कि संस्कृत में पत्र लिखने का धैर्य उनको केवल ‘स्वयं शिक्षक’ पढ़ने से ही हुआ है।

‘स्वयं शिक्षक’ प्रणाली की विशेषकर दो खूबियां हैं। एक खूबी यह है कि जो इन पुस्तकोंको पढ़ते हैं उनमें संस्कृत अभ्यास के विषय में आत्म विश्वास बढ़ता है तथा दुसरी खूबी यह है कि, बड़ी आसानी से पढ़ने वालों का प्रवेश संस्कृत में होता है।

कई लोक पूंछते हैं कि, ‘स्वयं शिक्षक’ प्रणाली में ऐसा कौन सा जादू है, कि जिससे संस्कृत भाषा इतनी जलदी आजायगी। इस प्रकार के प्रश्न करने वालों को उत्तर इतना ही है कि वे हमारे छे पुस्तकों में से न्यून से न्यून चार पुस्तकें पढ़ कर देखें कि हमारी प्रतिक्षाके अनुकूल कार्य होता है अथवा नहीं। सच बात तोयह

है कि जो ‘स्वयं शिक्षक’ की पुस्तकें पढ़ेंगे, उनको कहने की आवश्यकता नहीं, और जो नहीं पढ़ेंगे उनको कहने से कोई लाभ नहीं। तथापि सर्व साधारण के लिये इतना कहा जा सकता है कि संस्कृत में हजार से अधिक धातु हैं। परन्तु सब धातु विशेष प्रयोग में पाने वाले नहीं है, प्रायः तीनसों धातु ऐसे हैं कि जिनका प्रयोग होकर सब संस्कृत ग्रंथ भांडार बना है। इन धातुओं से शब्दों का विस्तार कैसा होता है और उनके प्रयोग आसानी से किस प्रकार किये जा सकते हैं। इसका वर्णन तीसरे भाग मे प्रारंभ होकर चौथे भाग में समाप्त होगा। ये दो भाग हमारी खास प्रणाली के दर्शक होंगे। तीसरे और चौथे भाग को पढ़ने की योग्यता पाठकों में उत्पन्न करने का कार्य प्रथम तथा द्वितीय भागों ने किया है। इसलिये आशा है कि, पाठक इनको पढ़कर लाभ उठायेंगे।

लाहौर
१-१-१७

             ग्रंथकर्ता

मूलाक्षर—व्यवस्था।

(१) स्वर.

अ आ, इ ई, उ ऊ, ऋ ॠ,ऌऌृ , ए ऐ, ओऔ, अं, अः ।

(१) कण्ठ स्थान के स्वर—अ आ आ–३—०

(२) तालु „ „ — इई ई–३—०

(३) ओष्ठ „ „ — उऊ ऊ–३—०

(४) मूर्धा „ „ —ऋ ऋ ऋ–३—०

(५) दन्त्य „ „ —ऌ (लृ1) ऌ–३—०

(६) कण्ठताल„ „ —ए ऐ

(७) कुण्ठौष्ट„ „ —ओ औ

(८) अनुस्वार (नासिका स्थान) —अं, इं, ऊं, एं, इत्यादि

(९) विसर्ग (कण्ठ स्थान) Xअः, इः, जः ओः इ०

(१०)ह्रस्व स्वर अ, इ, उ, ऋ, ऌ,

(११) दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ऋृ,(*लृ)

(१२) प्लुत स्वर आ^(३), ई^(३), ऊ^(३), ऋ^(३), ऌ^(३),

ह्रस्व स्वर के उच्चारण की लंबाई की एक मात्रा, दीर्घ स्वर का उच्चारण दो मात्रा, प्लुत स्वर का तीन मात्रा का उच्चारण होता। अर्थात् जितना समय ह्रस्व के लिये लगता है, उसके दुगणादीर्घ के लिये, तथा तीन गुणा प्लुत के लिये लगता है। दूर से किसी को पुकारने के समय अंतिम स्वर प्लुत होता है जैसा ‘हे धनंजया—३—०अत्र आगच्छ’ हे धनंजया—३—० यहां आ)।

इस वाक्य में “धनंजय” के यकार मेंजो आकार है वह प्लुत है, और उसकी उच्चारण की लंबाई तीन गुणा है। शहरों में मार्ग पर तथा स्टेशन आदि पर चीजें बेचने वाले अपनी चीजों के विषय में प्लुत स्वर से पुकारते हैं। जैसेः—

(१) —खटा—३—इमां—३—०

(२) हिंदू—पा—३—नी—३—०

(३) चा—गा—३—रम्—०

इत्यादि सैंकड़ों स्थानों पर प्लुत स्वर का श्रवण होता है। वेदों के मंत्रों में जहां (३) तीन संख्या दी हुवी रहती है, उसके पूर्व का स्वर प्लुत बोला जाता है। मुरगी ‘कु-कू-कू-३-’ऐसा आवाज देती है उसमें पहिला उ ह्रस्व, दूसरा दीर्घ तथा तीसरा प्लुत होता है।

इन स्वरों के भेदों के सिवाय ‘उदात्त, अनुदात्त, स्वरित’ ऐसे प्रत्येक स्वर के तीन भेद है। जो केवल वेद में आते हैं। इनका वर्णन आगे के विभागों में होगा। अ॒-अ-अ॑-ऐसे स्वर वेद में आते हैं।

(१३) गुण स्वर—अ, ए, ओ, अर्, अ‍ल्

(१४) वृद्धि स्वर—आ, ऐ, औ, आर, आल्

उक्त गुण वृद्धि क्रम से अ, इ, उ, ऋ, ऌ इन स्वरों की समझनी चाहिये। इस प्रकार स्वरों का सामान्य विचार समाप्त हुआ।

(२) व्यंजन।

(१) कण्ठ स्थान—कवर्ग–क, ख, ग, घ, ङ

(२) तालु स्थान—चवर्ग–च, छ, ज, झ, ञ

(३) मूर्धा स्थान—टवर्ग–ट, ठ, ड, ढ, ण

(४) दन्त्य स्थान—तवर्ग-त, थ, द, ध, न

(५) ओष्ठ स्थान—पवर्ग-प, फ, ब, भ, म

इन पच्चीस व्यंजनों को ‘स्पर्श वर्ण’ कहते हैं।

(६) अंतस्थ व्यंजन—य (तालु स्थान ) व ( दन्त्य तथा ओष्ठ स्थान) र (मूर्धास्थान), ल ( दन्त्यस्थान )

‘य्, र्, ल्, व्’ इन चार वर्णों को ‘अंतस्थ व्यंजन’ कहते हैं।

(७) उष्म व्यंजन—श (तालव्य), ष (मूर्धन्य), स ( दन्त्य ) ह (कण्ठ्य) ‘श्, ष्, स्, ह्’ इन चार वर्णों को ‘उष्म व्यंजन’ कहते हैं।

(८) मृदु व्यंजन—ग, घ, ङ; ज, झ, ञ;

         ड, ढ, ण;  द, ध, न;

         ब, भ, म; य, र, ल, व,

इन वीस व्यंजनों को मृदु व्यंजन कहते हैं। क्योंकि इनका उच्चारण मृदु-अर्थात्-नरम, कोमल होता है।

(९) कठोरव्यंजन—क, ख च, छ, ट, ठ; त, थ, प, फ्, श, ष, स

इन तेरह व्यंजनों को कठोर व्यंजन बोलते हैं। इसलिये कि इनका उच्चारण कठोर-अर्थात्—सख्त होता है।

(१०) अल्प प्राण—व्यंजन—क, ग, ङ;च, ज, ञ;
ट, ड, ण; त, द, न;
प, ब, म;य, व, र, ल;

इन उन्नीस व्यंजनों को अल्प प्राण कहते हैं। क्योंकि इनका उच्चारण करने के समय मुख में हवा के ऊपर ओर नहीं दिया जाता।

(११) महा प्राण—व्यंजन—ख, घ;छ, झ
ठ, ढ, थ, ध
फ, भः श, ष स ह

इन चौदह व्यंजनों को महा प्राण कहते हैं। इसलिये कि इनके उच्चारण के समय मुख में हवा को बहुत दबाना पडता है।

(१२) अनुनासिक व्यंजन —ङ, ञ, ण; न; म;

ये पांच अनुनासिक कहलाते हैं। क्योंकि इनका उच्चारण नाक के द्वारा होता है।

(१३) कठ नासिका स्थान—ङ
(१४) तालु नासिका „—ञ
(१५) मूर्धा नासिका„—ण
(१६) दंत नासिका „—न
(१७) औष्ठ नासिका „—म

इस प्रकार व्यंजनों की सामान्य व्यवस्था है। इस से जो और सुक्ष्म भेद है वे अगले विभागों में बताये जांयगे।

वर्णोंकी उत्पत्ति।

मुख के अंदर स्थान स्थान पर हवा को दबाने से भिन्न भिन्न वर्णों का उच्चारण होता है। मुख के अंदर पांच विभाग किये हैं (प्रथम भाग में जो चित्र दिया है वह देखिऐ ) उनको स्थान कहते हैं। इन पांच विभागों में से प्रत्येक विभाग में एक एक स्वर उत्पन्न होता है। स्वर उसको कहते हैं कि जो एक ही आवाज में बहुत देर तक बोला जासके। जैसाः—

अ———————————————————————- अ————————————-

इ———————————————————————–ई—————————————

उ———————————————————————-ऊ————————————–

ऋ———————————————————————ऋृ—————————————

ऌ———————————————————————ॡ————————————-

(‘ॠ ऌ’ स्वरों के उच्चारण के विषय में प्रथम भाग में जो सुचना दी हुई है उसको स्मरण रखना चाहिए। उत्तर हिंदुस्थान के लोग इसका उच्चारण ‘री’ तथा ‘ल्री’ ऐसा करते हैं । यह बहुत ही शुद्ध है।कभी ऐसा उच्चारण नहीं करना चाहिए। ‘री’ में ‘र इ’ ऐसे दो वर्ण मूर्धा और तालु स्थान के हैं। ‘ऋ’ यह केवल मूर्धा स्थान का शुद्ध स्वर है। केवल मूर्धा स्थान के शुद्ध

स्वरका उच्चारण मूर्धा और तालु स्थान के दो वर्ण मिला कर करना अशुद्धि है और ‘उच्चारण की दृष्टि से बड़ी भारी गलती है।

“ॠ को उच्चारण, “ध‘‘‘र्म"धर्म शब्द बहुत लंबा बोला जाय, और ध और म के बीच का रकार बहुत वार बोला जाय तो उसमें से एक रकार के आधे के बराबर है। इस प्रकार जो ‘ऋ’ बोला जाता है वह एक जैसा लंबा बोला जा सकता है। छोटे लड़के आनंद से अपनी जिव्हाको हिला हिला कर इस् ऋकार को बोलते रहते हैं।

जो लोग इसका उच्चारण ‘री’ करते हैं उनको ध्यान देना चाहिये कि ‘रो’ लंबी बोलने पर केवल ‘ई’ रहती है। जो कि तालु स्थान की है। इस कारण यह ‘री’ उच्चारण सर्वथैव शुद्ध है।

‘ऌ’ कार का ‘ल्री’ उच्चारण भी उक्त कारणों से प्रशुद्ध है। उत्तरीय लोगों को चाहिए कि वे इन दो स्वरों का शुद्ध उच्चारण करें। अस्तुः—

पूर्व स्थान में कहा है कि, जिनका लंबा उच्चारण होता है वे स्वर कहलाते हैं। गवय्ये लोक स्वरों को ही गा सकते हैं। व्यंजनों को नहीं। क्योंकि व्यंजनों का लंबा उच्चारण होता ही नहीं। इन पांच स्वरों में भी ‘अ इ उ’ ये तीन स्वर अखंडित पूर्ण है और ‘ॠ, ल’ ये खंडित स्वर हैं। पाठकगण इनके उच्चारण की ओर ध्यान देंगे तो उनको पता लगेगा कि खंडित तथा अखंडित इनको क्यों कहते हैं। जिनका उच्चारण एक रस जैसा होता है वे

अखंडित, पूर्ण स्वर होते हैं तथा जिनका उच्चारण एक रस नहीं होता है उनको खंडित बोलते हैं। इन पांच स्वरों से व्यंजनों की उत्पत्ति हुई है, जिसका क्रम आगे दिया हैः—

**मूल स्वर **

अ इ ऋ ऌ उ

इनको दबाकर उच्चारण करते करते एकदम उच्चारण बंद करने से निम्न लिखित व्यंजन बनते हैं :—

ह य र ल व

इनका मुख में उच्चारण होने के समय हवा के लिये कोई रुकावट नहीं होती। जहां इनका उच्चारण होता है उसी स्थान पर पहिले हवा का आघात करके फिर उक्त व्यंजनों का उच्चारण करने से निम्न व्यंजन बनते हैं :—

घ झ द ध भ

इनको जोर से बोला जाता है। इनके ऊपर जो बल-जोर होता है, उस जोर को कम करके यही वर्ण बोले जाय तो निम्न वर्ण बनते हैं :—

ग ज ड द ब

इनका जहां उच्चारण होता है उसी स्थान के थोड़े से ऊपर के भाग में विशेष बल न देने से निम्न वर्ग बनते हैं :—

क च ट त प

इनका हकार के साथ जोरदार उच्चारण करने से निम्न वर्ण बनते हैं :—

ख छ ठ थ फ

अनुस्वार पूर्वक इनका उच्चारण करने से इन्हीं के अनुनासिक बनते हैं :—

अङ् क पञ् च घण् टा इन् द्र कम् वल

सकार का तालु, मूर्धा तथा दंत्य स्थान में उच्चारण किया जाय तो क्रम से श्, ष्, स् ऐसा उच्चारण होता है ‘ल’ का मूर्धा स्थान में उच्चारण करने से ‘ल’ बनता है।

इस प्रकार वर्णों की उत्पत्ति होती है। इस व्यवस्था से वर्णों के शुद्ध उच्चारण का भी पता लग सकता है।

ऊपर जहां जहां व्यंजन लिखे हैं वे सब ‘क, ख, ग,’ ऐसे अकारान्त लिखे हैं। इससे उच्चारण करने में सुगमता होती है। वास्तव में वे ‘क्, ख्, ग्’ ऐसे प्रकार रहित हैं इतनी बात पाठकों के ध्यान धरने योग्य है।

वर्णों के ऊपर बहुत विचार संस्कृत में किया हुआ है। उसमें से एक अंश भी यहां नहीं दिया। हम ने जो कुछ थोड़ासा दिया है उससे पाठकों के ध्यान में आजायगा कि संस्कृत की वर्ण व्यवस्था बहुत सोचकर बनायी हुई है। अन्य भाषाओं की तरह ऊट पटांग नहीं है।

संस्कृत में कोमल पदार्थों के नाम कोमल वर्णों में पाये जाते हैं। जैसाः—कमल, जल, अन्न इत्यादि।

कठोर पदार्थों के नाम में कठोर वर्ण पाये जायेंगे। जैसाः—खर, प्रस्तर, गर्दभ, खङ्गइत्यादि।

कठोर प्रसंग के लिये जो शब्द होंगे उनमें भी कठोर वर्ण पाये जायेंगे। जैसाः—युद्ध, विद्रावित, भ्रष्ट, शुष्क इत्यादि।

आनंद के प्रसंगों के लिये जो शब्द होंगे उनमें कोमल अक्षर पाये जायेंगे।जैसाः—आनंद, ममता, सुमन, दया इत्यादि।

इस प्रकार बहुत लिखा जा सकता है। परन्तु विस्तार भय से यहां इतना ही पर्याप्त है। यह वर्णन यहां इसलिए लिखा है कि पाठकगण भी इस प्रकार सोचते रहेंगे, तो उनको आगे जाकर बड़ा लाभ होगा, तथा प्रसंग के अनुसार शब्दों को प्रयोग में लाकर संस्कृत के वाक्यों में वे विशेष गौरव ला सकेंगे। आशा है कि पाठक इसका विचार करेंगे।

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संस्कृत का स्वयं शिक्षक

**द्वितीय भाग **

१ — प्रथमः पाठः।

जिन पाठकों ने “संस्कृत स्वयं-शिक्षक” का प्रथम भाग अच्छी प्रकार पढ़ा है, और उसमें जो वाक्य तथा नियम दिये हुए हैं उनको ठीक ठीक याद किया है, तथा जिन्होंने प्रथम भाग के परीक्षा प्रश्नों का उत्तर ठीक ठीक दिया है अर्थात् जो परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं,उनको ही द्वितीय भाग के अभ्यास से लाभ होगा। जो प्रथम भाग की पढ़ाई ठीक प्रकार न कर द्वितीय भाग को प्रारंभ करेंगे उनकी पढ़ाई आगे जाकर ठीक ठीक नहीं होगी, तथा वे लोग अपनी संस्कृत में उन्नति नहीं कर सकेंगे। इसलिए पाठकों से प्रार्थना है कि वे किसी अवस्था में भी शीघ्रता न करें, तथा पहिली पढ़ाई कच्ची रखकर आगे बढ़ने का यत्न न करें।

संस्कृत भाषा उन लोगों के लिये सुगम होगी जो “स्वयं शिक्षक” की शैली के साथ साथ अपनी पढ़ाई करेंगे। परन्तु जो शीघ्रता करेंगे और कच्ची भूमि पर मकान बनायेंगे। उनको आगे बहुत मुश्किल में फंसना पड़ेगा। इसलिये पाठक लोगों को उचित है कि, वे प्रथम, द्वियीय तथा तृतीय भागों में दिये हुए

किसी विषय को कच्चा न रक्खें. और बार बार उसको याद करके सब विषयों की जागृति सदैव रखने का यत्न करें।

जिन पाठकों ने “स्वयं शिक्षक” का प्रथम भाग पढ़ा होगा, उनके मन में इस शिक्षा प्रणाली की सुगमता विस्पष्ट होगयी होगी। इस दूसरे पुस्तक से पाठकों की योग्यता निःसंदेह बहुत बढ़ेगी। इस पुस्तक में ऐसी व्यवस्था की हुई है कि इसके पढ़ने से पाठक न केवल संस्कृत में अच्छी प्रकार बात चीत करने में समर्थ होगें, परन्तु वे रामायण, महाभारत तथा नाटक आदि संस्कृत ग्रंथों के सुगम अध्यायों को स्वयं पढ़ सकेंगे। इस लिये प्रार्थना है कि पाठक हर एक पाठ के प्रत्येक नियम तथा वाक्य की ओर विशेष ध्यान दें।

प्रथम पुस्तक में शब्दों की सात विभक्तियों का उल्लेख किया हुआ है। परन्तु उस पुस्तक में केवल एक ही वचन के रूप दिये हैं। अब इस पुस्तक में तीनों वचनों के रूप दिये जाते हैं।

(१) नियम—संस्कृत में तीन वचन हैं (१) एक वचन, (२) द्विवचन, तथा (३) बहुवचन।हिंदी भाषा में केवल दो वचन हैं एक वचन, तथा अनेक वचन।

एक वचन से एक संख्या का बोध होता है जैसाः—एकःआम्रः(एक आम )

द्विवचन से दो संख्या का बोध होता हैजैसाः—द्वौ आम्रौ( दो आम )

बहुवचन से तीन या तीन से अधिक (अर्थात् दो से अधिक) संख्या का बोध होता है। जैसाः—त्रयः आम्राः ( तीन आम ) पंच आम्राः (पांच आम), दश आम्राः ( दश आम )

हिंदी भाषा में दो संख्या बताने वाला कोई वचन नहीं। परन्तु संस्कृत में दो संख्या बताने वाला “द्विवचन" है। सर्वत्र संस्कृत में दो संख्या के लिये द्विवचन का ही उपयोग करना आवश्यक है यह बात पाठकों को अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये। अब सातों विभक्तियों के तीनों वचनों में शब्दों के रूप नीचे देते हैं।

अकारान्त पुंल्लिंगी ‘देव’ शब्द के रूप।

एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा (१) देवः देवै÷ देवाः •
द्वितीया (२) देवं देवौ÷ देवान्
तृतीया (३) देवेन देवाभ्यां+ देवैः
चतुर्थी (४) देवाय देवाभ्यां + देवेभ्यः*
पंचमी (५) देवात् देवाभ्यां + देवेभ्यः*
षष्ठी (६) देवस्य देवयोः x देवानाम्
सप्तमी (७) देवे देवयोः x देवेषु
संबोधन (हे) देव (हे) देवै÷ (हे) देवाः*

इस प्रकार सब अकारान्त पुंल्लिंगी शब्दों के रूप होते हैं। पाठकों ने ध्यान से देखा होगा कि भिन्न विभक्तियों के कई रूप एक जैसे होते हैं। इस शब्द में जो जो रूप एक जैसे हैं, उनके ऊपर चिन्ह किया है। “÷, +, x,•, * ” ये चिन्ह हैं जो उक्त प्रकार के समान रूपों पर लगाये हैं अगर पाठक इन समान रूपों को ध्यान में रक्खेंगे तो कण्ठ करने का उनका परिश्रम बच जायगा। यह समान रूप ध्यान में आने के लिये “काल” शब्द के रूप नीचे दिये हैं और जो समान रूप हैं वहां कोई रूप दिया नहीं है।

एकवचन द्विवचन बहुवचन
प्रथमा (१) कालः कालौ कालाः
संबोधन (हे) काल (हे)„ (हे)„
द्वितीया (२) कालम् कालान्
तृतीया (३) कालेन कालाभ्यां कालैः
चतुर्थी (४) कालाय कालेभ्यः
पंचमी (५) कालात्
षष्ठी (६) कालस्य कालयोः कालानाम्
सप्तमा (७) काले कालेषु

उक्त रूप देने के समय संबोधन के रूप सदृश होने के कारण प्रथमा विभक्ति के साथ दिये हुए हैं। इन् रूपों को

देखने से पता लगेगा कि कौन सी विभक्तियों के कौन से रूप समान होते हैं।

अब पाठकों को उचित है, कि वे इन रूपों को ध्यान में रक्खे, या कण्ठ करें। क्योंकि इसी शब्द के समान सब प्रकारान्त “पुंलिंगी शब्दों के रूप होंगे।

धनंजय, देवदत्त, यशदत्त, नारायण, कृष्ण, नाग, भद्रसेन मृत्युंजय, इत्यादि प्रकारान्त पुंलिंगी शब्द ठीक उक्त प्रकार से चलते हैं। जिन प्रकारन्त पुलिंगी शब्दों केअंदर “र” अथवा “ष” वर्ण हुआ करता है, उन शब्दों की तृतीया विभक्ति का एकवचन तथा षष्ठि विभक्ति का बहुवचन करने में नकार का ‘ण’ बनाना पड़ता है।जैसाः—

एकवचन द्विवचन वहुवचन
रामः रामौ रामाः
रामं रामान्
रामेण रामाभ्यां रामैः
रामाय रामेभ्यः
रामात्
रामस्य रामयोः रामाणाम्
रामे रामेषु

संबोधन के रूप पूर्ववत् पाठक बना सकेंगे। इस शब्द में तृतीया का एकवचन “रामेण” तथा षष्ठी का बहुवचन “रामाणां” इन दो रूपों में नकार के स्थान पर णकार हुवा है, निम्नलिखित शब्दों के रूप होते हैंः—

पुरुष, नृप, नर, रामस्वरूप, सर्प, कर, रुद्र, इंद्र, व्याघ्र, गर्भ, इत्यादि अकारान्त पुंलिंगी शब्दों के रूप उक्त प्रकार से बनते हैं।

परन्तु कई ऐसे शब्द हैं कि जिनमें “र अथवा ष’ आने पर भी नकार का णकार नहीं बनता। जैसा—

**कृष्णेन । कृष्णानाम् । **

**कर्दमेन ।कर्दमानाम् । **

नर्तनेन ।नर्तनानाम् ।

इस विषय में नियम ये हैंः—

(२) नियम—जिस शब्द में र अथवा षहो, और उसके परे ‘न’ आजाय तो उस न का बनता है। जैसाः—

कृष्ण, तृष्णा, विष्णु, इत्यादि शब्दों में षकार के बाद नकार आने से नकार का णकार बन गया है।

सुचना—पदान्त के नकार का एकार नहीं बनता जैसा—रामान्, करान् इ०।

(३) नियम —“र अथवा ष” और “न’ इनके बीच में, कोई स्वर, ह, य, व, र, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार इन वर्णों में से एक अथवा अनेक वर्ग, आने पर भी नकार का है। जैसाः—

रामेण, पुरुषेण, नरेण, इत्यादि शब्दों में इस नियमानुसार णकार बना है। इन दो नियमों को अधिक स्पष्ट करने के लिए उनको निम्न प्रकार लिखते हैंः—

“र” के पश्चाद् “न” आने से “न” का “ण” बनता है।

“ष” „ “न” „ “न” ,, ण " ।

[TABLE]

र् + [आ+म+ए+]न्+अ=रामेन = रामेण। इस शब्द में र् और न के मध्य में “आ + म् +ए” ये तीन वर्ण आये हैं इस प्रकार अन्य शब्दों के विषय में जानना चाहिये।

क्+ऋृ+ष्+[ण्]+ए+न्+अ = कृष्णोन। इस शब्द में षकार और नकार के बीच में आने से नकार का णकार नहीं हुआ।

क्योंकि जो वर्ण बीच में होने पर भी णकार बनता है ऐसा ऊपर लिखा है, उन वर्णों में या नहीं है। इसी कारण “मर्त्येन” शब्द में नकार का एकार नहीं होता है। देखिएः—

म्+र्+[त्]+य्+ए+न+अ = मर्त्येन। इनमें अनिष्ट तकार बीच में है और उसके होने से नकार का णकारनहीं बनता है।

पाठकों को उचित है कि वे इन नियमों को बार बार पढ़ कर अच्छी प्रकार समझ लेवें। ताकि आगे भ्रम न पड़े।

वाक्य

[TABLE]

[TABLE]

इन वाक्यों में जो जो शब्द हैं, उनके अर्थ भाषा के वाक्यों से जाने जा सकते हैं, इसलिए उनके अलग अर्थ नहीं दिये।

२ द्वितीयः पाठः।

शब्द-पुल्लिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

क्रियापद

[TABLE]

धातुसाधित

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

इतर।

[TABLE]

विशेषणों का उपयोग और उनके लिंग।

[TABLE]

[TABLE]

पूर्वोक्त शब्दों में “मूषकः, शावकः, काकः, बिडालः, मार्जारः; कुक्कुरः, व्याघ्रः” इत्यादि अकारन्त पुलिंगी शब्द हैं और उनके रूप पूर्वोक्त देव, राम शब्दों के समान होते हैं। पाठकों को उचित है कि वे इन शब्दों के सब रूप लिख कर रक्खें, और उनका उक्त रूपों के साथ मिलान करके ठीक करें। “भ्रष्टः, दृष्टः, संवर्धितः, सव्यथः” इत्यादि शब्द भी प्रकारान्त पुलिंगी विशेषण होने से देव राम व ही चलते हैं। विशेषणों का स्वयं कोई लिंग नहीं अनुसार चलते हैं इत्यादि होता, परन्तु वे विशेष्य के लिंग के वर्णन " संस्कृत स्वयं शिक्षक " केप्रथम भाग के पाठ ३६ मे देख लेना।

वाक्य।

संस्कृत भाषा
(१) अस्ति गंगा-तीरे हरिद्वारं नाम नगरम्
(२) अस्ति महाराष्ट्रे मुंबापुरीनाम नगरी
(३) बिडालः मूषकं खादति
(४) व्याघ्रः वृषभं खादितुं धावति
(५) बिडालःकुक्कुरं दृष्ट्वा पलायते
(६) स पुरुषः व्याघ्रं दृष्ट्वाविभेतिपलायते च
(७) ऋषिणा मूषकः व्याघ्रतां नीतः
(८) मुनिना व्याघ्रः मूषकत्वं नीतः
(६) स मुनिः अचिंतयत्
(१०) स पुरुषः सव्यथः अचिंतयत् वहपुरुष कष्टकेसाथ सोचने लगा

उक्त वाक्यों में, पाठकों के लिए कई बातें ध्यान में रखने योग्य है (१) संस्कृत में कथा के प्रारंभ में “अस्ति” आदि क्रिया के शब्द, वाक्य के प्रारंभ में आते हैं। जिनका भाषा में वाक्य के अंत में अथ करना होता है। जैसा—

सस्कृत में—‘अस्ति’ गौतमस्य तपोवने कपिलो नाम मुनिः।

भाषा में—गौतम के आश्रम में कपिल नामक मुनि ‘ह’ संस्कृत में इस प्रकार की वाक्य रचना ललित-अच्छी-समझी जाती है।

४ नियम—किसी शब्द को’त्व अथवा ता’ ये शब्द जोड़ने से उसका भाव वाचक नाम बनता है। जैसाः वृद्धः — बुढ्ढा, वृद्धत्वं—बुढ्ढापन।मूषकः—चूहा,मूषकता—चूहापन। पुरुषः—मनुष्य, पुरुषत्व—पुरुषपन।पशुः—पशु, हैवान, पशुत्व—पशुता—हैवानपन।

५ नियम—विशेषण का कोई अपना लिंग नहीं होता है परन्तु विशेष्य के लिंग के अनुसार ही विशेषणों के लिंग बनते है। जैसाः—

पुल्लिंगी स्त्रीलिंगी नपुंसकलिंगी
भ्रष्टः पुरुषः भ्रष्टा स्त्री भ्रष्टं पुष्पम्
दृष्टः पुत्रः दृष्टा नगरी दृष्ट पुस्तकम्
संवर्धितः वृक्षः संवर्धिता कीर्तिः संवर्धितं ज्ञानम्
सव्यथः व्याघ्रः सव्यथा नारी सव्यर्थं मित्रम्

इसी प्रकार अन्यान्य विशेषणों के संबंध में भी जानना चाहिए (इस नियम के विषय में स्वयं शिक्षक भाग प्रथम का ३६ वां पाठ देखिए)।

अब हितोपदेश नामक ग्रंथ से एक कथा नीचे देते हैं। पूर्वोक्त शब्द और वाक्य जिन्हों ने कण्ठ किये होंगे, वे पाठक इस कथा को अच्छी प्रकार समझ सकते हैं। इसलिए पाठकों को उचित है, कि वे भाषा में दिया हुवा अर्थ न देखते हुए केवल संस्कृत पढ़कर ही अर्थ लगाने का यत्न करें । जब संपूर्ण कथा का अर्थ लग जाय तो संपूर्ण पाठ को कंठ करें और पश्चात भाषा के वाक्य देख कर उसका संस्कृत बनाने का यत्न करें।

[१] मुनिमूषकयोः कथा [१] ऋषि और चूहे की कथा
(१) अस्ति गौतमस्य महर्षेः तपोवने महातपा नाम मुनिः तेन आश्रम-संनिधाने मुषिकशावकः काकमुखाद् भ्रष्टो दृष्टः

[TABLE]

[TABLE]

उक्त कथा में आये हुए कुछ समासों का वर्णन :—

(१) आश्रमसंनिधानम्—आश्रमस्य संनिधानम्। आश्रमस्य समीपं इत्यर्थः।

(२) मुषकशावकः—मुषकस्य शावकः।

(३) काकमुखम्—काकस्य मुखम्।काकस्य तुण्डम्।

( ४ ) नीवारकणाः—नीवाराणां कणाः। नीवारायां धान्यविशेषाणां कणाः अंशाः।

(५) व्याघ्रता—व्याघ्रस्य भावः व्याघ्रता। व्याघ्रत्वं इत्यर्थः।

(६) मूषकत्वम्—मूषकस्य भावः मूषकत्वम्।

(७) सव्यथः—व्यथया सहितः सव्यथः। दुःखेन युक्त इत्यर्थः।

(८) स्वरूपाख्यानम्—स्वस्य रूपं स्वरूपम्। स्वरूपस्य आख्यानं स्वरूपाख्यानम्। स्वरूपकथा इत्यर्थ

———

३ तृतीयः पाठः।

प्रथम पाठ में अकारान्त पुंलिंगी शब्दों के रूप बताये हैं। संस्कृत में आकारान्त पुलिंगी शब्द बहुत ही थोड़े हैं, तथा उनके रूप भी बहुत प्रसिद्ध नहीं हैं, इसलिये उनका चलाने का प्रकार यहां नहीं दिया जाता। प्रायः पाठकों के देखने में प्रायगा कि, प्राकारान्त शब्द स्त्रीलिंगी होते हैं। और अकारान्त शब्द स्त्रीलिंग नहीं हुआ करते। किस शब्द का कौनसा अन्त है यह ध्यान में ने के लिये कई शब्द नीचे दिये हैं, उनकी ओर ठीक ध्यान देने से अन्त वर्ण का ठीक ठीक बोध हो जायगाः—

(१) अकारान्त,—देव, रामकृष्णा, धनंजय, ज्ञान, आनंद इ०
(२) आकारान्त—रमा, विद्या, गंगा. कृपा, अंबा, अक्का इ०
(३) इकारान्त—हरि, भूपति, अग्नि, रवि, कवि, पति इ०
(४) ईकारान्त—लक्ष्मी, तरी, तंत्री, नदी, स्त्री, वाणी इ०

(५) उकारान्त—भानु, विष्णु, वायु, शंभु, सुनु, जिष्णु इ०
(६) ऊकारन्त—चमू, वधू, श्वश्रू, यवागू, चम्पू, जम्बु इ०
(७) ऋकारान्त—दातृ, कर्तृ, भोक्तृ, गंतु, पातृ, वक्तृ इ०
(८) ऐकारान्त—रै(धन)
(९) ओकारान्त—द्यो, गो,
(१०) ककारान्त—वाक्, सर्वशक्
(११) तकारान्त—सरित्, भूभृत्, हरित्
(१२) दकारान्त—शरद्, तमोनुद्, बेभिद्
(१३) सकारान्त—चंद्रमस्, तस्थिवस्, मीटुस्, मनस् इ०
(१४) नकारान्त—युवन् श्वन्

इत्यादि शब्द देखने से पाठक जान सकेंगे कि किस शब्द के अंत में कौनसा वर्ण है।

अब इकारान्त पुंलिंगी “हरि” शब्द के रूप देखिएः—

**एकवचन ** द्विचन बहुवचन
हरिः हरी हरयः
सं० (हे) हरे (हे )„ (हे)„
हरिम् हरीन्
हरिणा हरिभ्यां हरिभिः
हरये हरिभ्यः
हरेः
हर्य्यौ हरीणाम्
हरौ हरिषु

इसी प्रकार भूपति, अग्नि, रवि, कवि इत्यादि शब्दों के रूप बनते हैं। प्रथम पाठ में दिये हुए नियम ३ के अनुसार “हरि, रवि’ आदि शब्दों के रूपों में नकार का णकार होता है।

प्रथम पाठ के नियम १ में कहा है कि एकवचन एक संख्या का बोधक, द्विवचन दो संख्या का बोधक, तथा बहुवचन तीन अथवा तीन से अधिक संख्या का बोधक होता है। जैसाः—

(१) एकवचन—रामस्य चरित्रम् = (एक) राम का (एक) चरित्र।

(२) द्विवचन—मुनिमूषकयोः कथा = मुनि और मूषक (इन दोनों) की कथा। रामस्य बांधव = (एक) राम के (दो) भाई

(३) बहुवचन—श्रीकृष्णभीमार्जुनाः जरासंधस्य गृहं गताः = श्रीकृष्णा, भीम तथा अर्जुन ( ये तीनों ) ( एक ) जरासंध के (एक) घर को गये । कुमारेण आम्राः अनीताः= (एक) लड़का (दो से अधिक) आम लाया।

इस प्रकार वचनों द्वारा संस्कृत में संख्या का बोध होता है। हिंदी भाषा में दो संख्या का बोध करने के लिये कोई खास वचन का चिन्ह नहीं है। संस्कृत की विशेषता और पूर्णता इसी व्यवस्था द्वारा प्रतीत होती है। अब हर एक विभक्ति के तीनों वचनों का उपयोग किस प्रकार किया जाता है यह बताने के लिये कुछ वाक्य नीचे देते हैंः—

(१) प्रथमा विभक्ति।

वाक्य में प्रथमा विभक्ति कर्ता का स्थान बताती है। (कर्ता वह होता है कि जो क्रिया करता है)

(१) रामः राज्यं अकरोत् = राम राज्य करता था।

(२) रामलक्ष्मणौ वनं गच्छतः=राम लक्ष्मण (ये दो) बन को जाते हैं।

(३) पांडवाः श्रीकृष्णस्य उपदेशं शृण्वन्ति = (तीन अथवा तीन से अधिक) पांडव श्रीकृष्णका उपदेश सुनते हैं।

इन तीन वाक्यों में क्रम से “रामः, रामलक्ष्मणौ, पांडवाः " ये शब्द एक-द्वि-बहुवचन के हैं। उस उस वाक्य में जो जो क्रिया पायी है उस उस क्रिया के ये कर्ता हैं।

** (२) द्वितीया विभक्ति।**

वाक्य में जो कर्म होता है वह द्वितीया विभक्ति में होता है। (क्रिया जिस कार्य को बताती है वह कर्म है)

(१) दशरथः राज्यं करोति = दशरथ राज्य करता है।

(२) कृष्णः कर्णौ पिधाय तिष्ठति=कृष्ण (दोनों) कान बंद करके खड़ा है।

(३) देवदत्तः ग्रंथान् पठति=देवदत्त (तीन या तीन से अधिक) ग्रंथों को पढ़ता है।

इन तीन वाक्यों में “राज्यं, कर्णौ, ग्रंथान्” ये तीनों शब्द द्वितीया विभक्ति के हैं और वे उस उस वाक्य के क्रिया के कर्म है। क्रिया का करने वाला उस क्रिया का कर्ता होता है और जो कार्य किया जाता है वह उस क्रिया का कर्म होता है अर्थात “दशरथः राज्यं करोति” इस वाक्य में “दशरथ” यह कर्ता, “राज्यं” यह कर्म, तथा “करोति” यह क्रिया है। इसी प्रकार अन्यान्य वाक्यों में जानना चाहिए।

(३) तृतीया विभक्ति।

क्रिया का जो साधन होता है उसकी तृतीया विभक्ति होती। उसको संस्कृत में ‘करण’ बोलते हैं।

(१) कृष्णवर्मा खड्गेन व्याघ्रं अहनत्। =कृष्णवर्मा (ने) तलवार से शेर को मारा।

(२) सनेत्राभ्यां सूर्यं पश्यति। =वह (दोनों) आंखों से सूय को देखता है।

(३) अर्जुनः बाणैः युद्धं करोति। =अर्जुन (दो से अधिक) बाणों के साथ युद्ध करता है।

इन तीन वाक्यों में “खङ्गेन, नेत्राभ्यां वाणैः” ये तीन शब्द तृतीया विभक्ति के हैं। और यह उस उस क्रिया के साधन है। अर्थात् हनन करने का वह साधन, देखने का नेत्र साधन और युद्ध करने का बाण साधन है।

(४) चतुर्थी विभक्ति

क्रिया जिस के लिये की जाती है, उसकी चतुर्थी विभक्ति होती है। जिसको संस्कृत में ‘संप्रदान’ कहते है।

(१) राजा ब्राह्मणाय धनं ददाति=राजा ब्राह्मण के लिये धन देता है।

(२) स पुत्राभ्यां मोदकौ ददादि=वह ( दो ) पुत्रों को ( दो ) लड्डू देता है।

(३) कृपणः याचकेभ्यः द्रव्यं नैव ददाति=कृपण (दो से अधिक) मांगने वालों को द्रव्य नहीं देता।

इन तीन वाक्यों में " ब्राह्मणाय पुत्राभ्यां याचकेभ्यः” ये तीन शब्द चतुर्थी विभक्ति में हैं और वे बता रहे हैं कि तीनों वाक्यों में जो दान क्रिया है वह किन के लिये है।

(५) पंचमी विभक्ति

वाक्य में पंचमी विभक्ति अपादान अर्थात् “से” अर्थ में आती है। अपादान का अर्थ ‘छोड़ना, अलग होना’ इत्यादि है।

(१) स नगरात् ग्रामं गच्छति=वह नगर से गांव को जाता है।

(२) रामः वसिष्ठवामदेवाभ्यां प्रसादं इच्छति=राम वसिष्ठ वामदेव (इन दोनों) से प्रसाद चाहता है।

(३) मधुमक्षिका पुष्पेभ्यः मधु गृह्णाति = शहद की मक्खी (दो से अधिक) फूलों से शहद लेती है।

इन तीनों वाक्यों में “नगरात्, वसिष्ठवामदेवाभ्यां पुष्पेभ्यः” ये शब्द पंचम्यन्त हैं। और यह विभक्ति किस से किस का अपादान (छुटकारा) है यह बात बताती हैं।

(६) षष्ठी विभक्ति

वाक्य में षष्ठी विभक्ति ‘संबंध’ अर्थ में आती हैं।

(१) तद् रामस्य पुस्तकं अस्ति। =वह राम का पुस्तक है।

(२) रामरावणयोः सुमहान् संग्रामः जातः। =राम रावण (इन दोनों ) का बड़ा भारी युद्ध हुआ।

(३) नगराणां अधिपतिः राजा भवति। =शहरों का स्वामी राजा होता है।

इन तीनों वाक्यों में षष्ठ्यन्त शब्दों से पता लगता है कि “पुस्तक, संग्राम, अधिपति” इनका किनके साथ मुख्य संबंध(अर्थात् अधिकार अथवा स्वामि संबंध ) है।

(७) सप्तमी विभक्ति

वाक्य में सप्तमी विभक्ति ‘अधिकरण, स्थान, अर्थ में आती है।

(१)** नगरे** बहवः पुरुषाः सन्ति। =शहर में बहुत पुरुष हैं।

(२) तेन कर्णयोः अलंकारौ धृतौ। =उसने (दो) कानों में(दो) भूषणा-जेवर-धारण किये।

(३) पुस्तकेषुआलेख्यानि सन्ति।= ( दो से अधिक) पुस्तकों के अंदर ( दो से अधिक ) तसवीरें हैं।

इन वाक्यों में तीनों सप्तम्यन्त शब्द ‘स्थान (अधिकरण) अर्थ बताते हैं। अर्थात् पुरुषों का नगर स्थान है, अलंकारों का कान तथा आलेख्यों का पुस्तक स्थान है।

संबोधन विभक्ति

पुकारने के समय में संबोधन का प्रयोग होता है।

(१) हे धनंजय, अत्र आगच्छ। = हे धनंजय, यहां आ।

(२) हे पुत्रौ, तत्र गच्छतम्। =हे (दोनों) लड़को, वहां जाओ।

(३) हे मनुष्याः, शृणुत। है (दो से अधिक) मनुष्यो, सुनो।

इस प्रकार सब विभक्तियों के अथ तथा उपयोग हैं। पाठकों को उचित है कि वे बारंबार इनका विचार करके इन विभक्तियों के अर्थो को ठीक ठीक ध्यान में रखें और कभी भूल न जाय, क्योंकि इसका आगे बहुत संबंध है। उक्त विवरण ठीक ध्यान में आने के लिये उसका सारांश नीचे देते हैंः—

विभक्ति अर्थ भाषा में प्रत्यय

(१) प्रथमा——–कर्ता——क्रिया का करने वाला……….ने

(२) द्वितीया——कर्म——जो किया जाता है……………को

(३) तृतीया——करण——जो क्रिया का साधन है……….ने, से, द्वारा

(४) चतुर्थी—–संप्रदान——जिसके लिये किया हो………..के लिये

(५) पंचमी———अपादान——जिससे वियोग होता है………………से

(६) षष्ठो————संबंध———एक का दूसरे के ऊपर अधिकार….का

(७) सप्तमी——अधिकरण——स्थान, आश्रय…………………………..में

(८) संबोधन——आह्वान———पुकारना ……………………………….हे

इन विभक्तियों के अर्थ तथा उपयोग पाठकों को ध्यान में रखने चाहिए। संस्कृत वाक्य बनाना तथा प्राचीन पुस्तकों का अर्थ लगाना इन्हीं के द्वारा होता है। जब उक्त बातें ठीक स्मरण हो जायेगी तो पश्चात् निम्न लिखित शब्द कण्ठ कीजिये॥

४ चतुर्थः पाठः।

क्रिया

[TABLE]

**शब्द—पुल्लिंगी **

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

गलहस्तिका—गला पकड़ना मृत्तिका —मट्टी

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

उक्त शब्द कंठ करने के पश्चाद निम्न वाक्य स्मरण कीजिये।

वाक्य

संस्कृत भाषा
(१) कश्चित् पुरुषः स्वमित्रं द्रष्टुं इच्छति
(२) मित्रस्य संनिकाशं गत्वा स किं पृच्छति
(३) स मित्रसंनिकाशं गत्वा, अनुकूलं संभाष्य, पश्चात् तं आपृच्छ्य, गृहं आगमिष्यति
(४) स किं प्रतिवदति
(५) एवं स प्रतिकूल वचनं श्रुत्वा कुपितः
(६) स किं क्षते क्षारं प्रक्षिपति
(७) तेन चौरः गलहस्तिकयागृहाद् बहिः निःसारितः
(८) स रुग्णः सकोपं उच्चैः अवदत्

[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

[सूचना—भाषा में “इति” का सब स्थान पर भाषान्तर नहीं होता है। तथा संस्कृत के मुहाविरे भी भाषा के मुहाविरों से भिन्न हैं। यहां संस्कृत की शब्द रचना के अनुकूल ही भाषा की वाक्य रचना रक्खी है। इस कारण भाषा का भाषान्तर जैसा चाहिये वैसा नहीं होगा। पाठक यह बात ध्यान रख कर भाषा का भाव ध्यान में लावें]।

समास—विवरणम्।

(१) स्वमित्रम्—स्वस्य मित्रं स्वमित्रम्। स्ववयस्यः।

(२) ज्वरार्तः—ज्वरेण आर्तः पीडितः। ज्वरपीडितः।

(३) ज्वरावेगः—ज्वरस्य आवेगः ज्वरावेगः।

(४) सादरम्—आदरेण सहितम्। आदरयुक्तम्।

(५) सकोपम—कोपेन सहितं सकोपम्।सक्रोधम् इत्यर्थ।

(६) मंदधी—मंदाधीः यस्य सः मदधीः। मंदबुद्धि इत्यर्थः।

५ पञ्चमः पाठः।

पूर्व पाठों में अकारान्त तथा इकारान्त पुंल्लिंगी शब्दों के रूप दिये हैं। दीर्घ ईकारान्त शब्द संस्कृत में हैं, परन्तु उनके प्रयोग बहुत प्रयुक्त नहीं होते, इसलिये उनको छोड़कर यहां उकारान्त पुंल्लिगी शब्द के रूप देते हैं।

**एकवचन ** द्विवचन बहुवचन
(१) भानुः भानू भानवः
संबो० हे भानो हे „ हे„
(२) भानुं भानून्
(३) भानुना भानुभ्यां भानुभिः
(४) भानवे भानुभ्यः
(५) भानोः
(६) भान्वोः भानूनाम्
(७) भानौ भानुषु

इसी प्रकार सुनु, शम्भु, विष्णु, वायु, इन्दु विधु इत्यादि उकारान्त पुंल्लिंगी शब्दों के रूप जानने चाहिए। पाठकों को उचित है, कि वे इन शब्दों के रूप सब विभक्तियों में बनाकर कागज पर लिखें, तथा पूर्वोक तृतीय पाठ में दिये हुवे प्रकार से हर एक रूप को वाक्य में प्रयुक्त करने का यत्न करें। इस प्रकार बनाये हुए वाक्य कागज पर लिखने चाहिए। अगर दो विद्यार्थी साथ पढ़ते हों, तो एक दूसरे को शब्दों के रूप सब विभक्तियों में परस्पर पूछकर हर एक रूप का उपयोग भी परस्पर पूछना चाहिए।जिससे सब विभक्तियों के रूपों की उपस्थिति ठीक ठीक हो जायगी तथा उनका उपयोग कैसा करना चाहिए इसका भी ज्ञान हो जायगा।परन्तु जहां पढ़ने वाला अकेला ही हो, वहां सब रूप तथा वाक्य, जो जो नये बनाये हों, वे सब कागज पर लिखने चाहिए। और उनको बार बार पढ़कर सब को स्मरण करना चाहिए।

संस्कृत में जहां जहां दो स्वर अथवा दो व्यंजन पास पास आ जाते हैं वहां वे खास रीति से मिल जाते हैं। हमने “स्वयं शिक्षक” के प्रथम भाग में तथा इस द्वितीय भाग में भी जहां तक हो सका वहां तक इस प्रकार के संधि नहीं दिये हैं। तथापि पाठक देखेंगे कि प्रथम भाग की अपेक्षा इस द्वितीय भाग में इस प्रकार के संधि अधिक दिये हैं।

ये संधि किस स्थान पर करने तथा किस स्थान पर न करने, इस विषय में निम्न लिखित नियम हैं।

(६) नियम—एक शब्द के अंदर जोड़ (संधि) अवश्य होने चाहिये। जैसा—रामेषु देवेषु, रामेण इ०

सप्तमी के बहुवचन का प्रत्यय ‘सु’ है। परन्तु इसके पीछे ‘ए’ होने से ‘सु’ का ‘षु’ बनता है। एक पद (शब्द) में होने से यह संधि आवश्यक है। तथा नियम ३ के अनुसार ‘रामेण’ में नकार का णकार करना अवश्य है क्योंकि यह एक पद है।

(७) नियम—धातु का उपसर्ग के साथ जहां संबंध होता है वहां संधि करना आवश्यक है। (केवल वेदों में धातुयों से उनका उपसर्ग अलग रहता है, इस कारण वहां यह नियम नहीं लगता )। उत् + गच्छति उद्गच्छति। निः+बध्यते = निर्बध्यते।

(८) नियम—समास में संधि अवश्य करनी चाहिये। जसा। जगत्+जननी=जगज्जननी।तत्+रूपं तद्रूपम्।

(१०) नियम—पद्यों में बहुतांश में संधि करना आवश्यक है।

(१०) नियम—बोलने के समय बोलने वाला मनुष्य चाहे संधि करे अथवा न करे। अर्थात् जो बोलने वाला हो उसकी इच्छा पर यह निर्भर है। जहां बोलने वाले को सुभीता हो, यहां वह संधि करे, जहां न हो, न करे। अथवा जहां संधि करके

बोलने वाला सुनने वाले को अर्थ का परिचय सुगमता से करा सके, वहां संधि करना, अन्यत्र न करना।

इस १० वें नियम के अनुसार स्वयं शिक्षक के प्रथम द्वितीय भाग में बहुत स्थानों पर संधि नहीं किये है।जहां आवश्यक प्रतीत हुआ वहां किये हैं। ‘स्वयं शिक्षक’ का उद्देश संस्कृत भाषा में विद्यार्थियों का सुगमता से प्रवेश कराना है। इस उद्देश की पूर्ति के लिये प्रथम अवस्था में संधि न करना अत्यंत आवश्यक है। अगर प्रथमारंभ में सब संधि करके वाक्य का एक सूत्र बनाया जाय तो पाठक घबरा जांयगे। तथा उनकी बुद्धि में संस्कृत का प्रवेश नहीं होगा।

इस समय तक जो जो संस्कृत की पुस्तकें बनीं हैं उनमें सब स्थानों पर संधि किये हुवे रहने से पाठक उनको स्वयं नहीं पढ़ सकते, न उनसे स्वयं लाभ उठा सकते हैं। संधियों का पत्थर तोड़ कर संस्कृत मंदिर में शीघ्र प्रवेश कराने का कार्य इन स्वयं शिक्षा के पुस्तकों का है। पाठक भी इस बात को स्वीकार करेंगे कि उनका प्रवेश संस्कृत मंदिर में इन पुस्तकों द्वारा सुगमता से होरहा है।

अब हमने जो ऊपर १०वां नियम दिया हुवा है उसका परिज्ञान ठीक होने के लिये एक उदाहरण देते हैं।

** (१) ततस्तमुपकारकमाचार्यमालोक्येश्वरभावनयाह।**

यह वाक्य सब संधि करके लिखा है। इसमें बड़े संधि प्रायः कोई नहीं है। तथापि सब जोड़ कर लिखने से पाठक इस

को वैसा नहीं जान सकते जैसा निम्न प्रकार से लिखित जान सकते हैंः—

** (२) ततः तं उपकारकं आचार्य आलोक्य ईश्वरभावनया आह।**

(पश्चात् उस उपकार करने वाले याचार्य को देखकर ईश्वर की भावना से ( अर्थात् आदर भाव से ) कहा।

उक्त दोनों वाक्य एक ही हैं परन्तु प्रथम वाक्य कठिन है और दूसरा आसान है। इसका कारण, द्वितीय वाक्य में कोई संधि नहीं किया।बोलने वाला इसी प्रकार अपने मर्जी के अनुसार संधि करेगा अथवा नहीं भी करेगा।

कई समझते हैं कि, संस्कृत में सब जोड़ अवश्य करने चाहिए।परन्तु यह उनकी भूत है। वाक्य बोलने वाला स्वकीय इच्छा से जहां चाहिए वहां संधि करेगा, जहां न चाहिए वहां जैसे के वैसे शब्द रहने देगा।यह बात सब संधियों के विषय में जाननी चाहिये। इसी कारण हमने बहुत थोड़े स्थानों पर संधि किये हैं। इस पुस्तक में मुख्य मुख्य संधियों के नियम अवश्य दिये जायेंगे। पाठकों को उचित है, कि वे इन नियमों को अच्छी प्रकार समझ कर, जहां जहां संधि करने की आवश्यकता हो वहां चहां नियमानुसार संधि किया करें।

कई लोक समझते हैं कि ये संधि केवल संस्कृत में ही है। परन्तु यह उनकी भूल है। फ्रेंच जर्मन यादि भाषाओं में भी ये संधि हैं। इंग्लिश में भी ये संधि हैं, देखियेः—

( १ ) It is—इट् इझ्—यह वाक्य “इटोझ” ऐसा ही बोला जाता है।

(२) It is arranged out of court.

इट् इझ्अरेंज्डआउट ऑफ कोर्ट

यह वाक्य निम्न लिखित प्रकार बोला जाता हैः—

इ—टो—झारंभडाउटाफ् कोर्ट

इस प्रकार इंग्लिश मैं सहस्रों स्थानों पर बोलने वाले के इच्छानुरूप संधि होते हैं। परन्तु अंग्रेजी के व्याकरण में इनके विषय में कोई नियम नहीं दिया है। केवल इसी कारण लोक समझते हैं कि आंग्रेजी में कोई सन्धिनहीं होता।

ठीक इसी प्रकार हिंदी भाषा में भी स्थान स्थान पर सन्धिहोते हैं, देखियेः—

आप कब घर में जाते हैं।

यह वाक्य निम्नलिखित प्रकार बोला जाता हैः—

आष्कब्धर्मे जाते हैं।

अर्थात बोलने वाला “आप, कब, घर” इन तीनों शब्दों के अन्त के अकारका लोप करके बोलता है। परन्तु भाषा के व्याकरणोंमें इस विषय में कोई नियम दिया नहीं। संस्कृत का व्याकरण ऋषि लोकों ने अपनी सूक्ष्म बुद्धि से बनाया है, इस कारण उसमें सब नियम यथायोग्य दिये हैं। अस्तु। इस से यह सिद्ध हुवा

कि सब भाषाओं में हैं। सन्धि करना या न करना वक्ता के तथा अवसर उपरनिर्भर है।

वाक्य।

१ नृपेण तस्मै धनं दत्तम
२ रामः सीतया सह वनं गतः
३ अपराधं विना तेन स दण्डितः
४ कुमारेण कण्ठे माला धृता
५ मया तस्य वार्ता अपि न श्रुता
६ त्वया सुखं प्राप्तम्
७ कृष्णस्य उपदेशेन अर्जुनस्य मोहः नष्टः
८ गंगाया उदकं स्नानार्थं अत्र आनय
९ ते गृहं गच्छन्ति
१० जनास्तं2 मुनिं नैव3 निंदन्ति

६ षष्ठः पाठः।

शब्द—पुंल्लिगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

वाक्य

संस्कृत भाषा
(१) अस्ति कलिकाता—नगरे सूर्यशर्मा नाम विप्रः
(२) प्रभावती नाम्नी भार्या सुशीला अस्ति
(३) एकदा सा नदीतीरे स्नानार्थं गता
(४) सूर्यशर्मा ब्राह्मणः गृहे स्थितः
(५) स अचिंतयत् वह सोचने लगा
(६) यदि सत्वरं अहं न गमिष्यामि
(७) अन्यः कोऽपि तत्र गमिष्यति
(८) तस्य भार्या स्नानं कृत्वा शीघ्रं एव गृहं आगता
(९) सूर्यशर्मा स्वभार्योआगतां अवलोक्य अवदत्
(१०) देवि ! प्रहं इदानीं बहिर्गन्तुं इच्छामि
(११) पत्नी व्रुते भगवन्, कुत्र गन्तुं इच्छा इदानीम्
(१२) राज्ञः गृहे निमंत्रणं अस्ति
(१३) तर्हि गंतव्यम् शीघ्रमेव आगन्तव्यम्
(१४) सत्वरं पाकादिकं सिद्धं भविष्यति

[TABLE]

[TABLE]

समास—विवरण।

(१) अविवेकः————————न विवेकः अ-विवेकः। अविचारः।

(२) विप्रः——————————विशेषेण प्राज्ञः विप्रः। विशेषज्ञानयुक्तः।

(३) सत्वरं————————————त्वरया सहित सत्वरं। शीघ्रं।

(४) बालकरक्षणार्थं——————बालकस्य रक्षणं, बालकरक्षणम्। बालकरत्तणस्य अर्थः, बालक रक्षणार्थः तं
बालक रक्षणार्थम्।

(५) बालकसमीपं———————बालकस्य समीपं बालकसमीपम्।

(६) कृष्णसर्पः————————कृष्णश्च असौ सर्पश्च कृष्णसर्पः।

(७) रक्तविलिप्तमुखपादा————रक्तेन विलिप्तः रक्त खिलिप्तः। मुखंच पादः च मुखपादौ। रक्तविलिप्तौ
मुखपादौ यस्य स रक्तविलिप्त मुखपादः।

(5) तश्चरणौ—————————तस्य चरणौ तच्चरणौ।

(६) उपकारकः————————उपकारं करोति इति उपकारकः।

(१०) भावितचेताः———————भावितं चेतःमनः यस्य स भवितचेताः।

सन्धि किये हुए कुछ वाक्य।

(१) मूर्खो4 भार्यामपि5 वस्त्रं न ददाति———मूर्ख, धर्मपत्नी को भी कपड़े नहीं देता।

(२) वसिष्ठो6राममुपदिशति7——————वसिष्ट रामको उपदेश देता है।

(३) विप्रास्तत्वं8 जानन्ति———————पंडित लोक तत्व जानते हैं।

(४) पर्वते वृक्षास्सन्ति9————————पर्वत पर वृक्ष है।

(५) अग्निर्गृहं10दहति————————आग घर जलाती है ।

(६) आचार्यस्तं11 नापश्यत्12——————गुरुने उसको नहीं देखा।

(७) मूल्यम13दत्त्वैव14 तेन धान्यमानीतम्15 — कीमत न देकर वहधान लाया।

(८) नमस्ते16——————————— तेरे लिये नमस्कार।

(९) नमो भगवते17 वासुदेवाय————— नमस्कार भगवान वासुदेव के लिये।

(१०) नमस्तुभ्यम्18————————————तुम्हारे लिये नमस्कार।

(११) वसिष्ठविश्वामित्रभारद्वाजेभ्यो नमः19————वसिष्ट, विश्वामि, भारद्वाज इनके लिये नमस्कार

(१२) साधुभिर्जनै20 स्तव21 मित्रत्वमस्ति22—————साधु जनों के साथतेरी मित्रता है।

(१३) श्रीरामचंद्रो जयतु23—————————श्रीरामचन्द्र का जय हो।

(१४) श्रीधरो नद्यां24 स्नाति—————————श्रीधर नदी में स्रान करता है।

(१५) त्वामभिवादये25——————————तुमको ( मैं ) नमस्कार करता हूं।

७ सप्तमः पाठः।

पूर्वोक्तछ पाठों में अकारान्त, इकारान्त, तथा उकारान्त पुलिंगी शब्द चलाने का प्रकार बताया है। इकारान्त तथा उकारान्त पुंलिंगी शब्द एक जैसे ही चलते हैं। इकारान्त पुलिंगी शब्दों में जहां “य” आता है वहां उकारान्त पुलिंगी शब्दों में " व " आता है, तथा “इ और ए” के स्थान पर क्रमश “उ और प्रो” आते हैं। यह सुविज्ञ पाठकों के ध्यान में आया होगा। इतनी बात ध्यान में रखने से शब्द कराठ करने की बहुत सी मेहनत बच जायगी।

दीर्घ आकारान्त, ईकारान्त तथा उकारान्त पुंलिंगी शब्द बहुत प्रसिद्ध न होने के कारण इस समय नहीं देते हैं। उनका विचार आगे करेंगे। अव क्रम प्राप्त ऋकारान्त शब्द के रूप देखिएः—‘धातृ’ (ऋकारान्त; पुंलिंगः ) शब्दः।

एकवचन द्विवचन बहुवचन

(१) धाता—————धातारौ————धातारः

सं० हे धातः (धातर्)——हे „ ————हे„

(२) धातारम्———— " ———धातृृन्

(३) धात्रा————— धातृभ्याम्———धातृभिः

(४) धात्रे————— „ ———धातृभ्यः

(५) धातुः————— „ ——— „

(६) धातुः————— धात्रोः ———धातॄणाम्

(७) धातरि————— „ ———धातृषु

इसी प्रकार कर्तृ, नेतृ, नप्तृ, शास्तृ, जज्ञातु, दातृ, शातृ, विधातु, इत्यादि शब्द चलते हैं। पाठकों को उचित है कि वे इनसब शब्दों के रूप कागजों पर लिखे, ताकि सब विभक्तियों के रूप ठीक ठीक स्मरण हो जांय। जितना बल पाठक गया इन शब्दों की तैयारी में लगा देंगे उसी प्रमाण से उनकी संस्कृत बोलने लिखने यादि की शक्ति बढ़ेगी। अस्तु।

पूर्वोक्त छेपाठों में पाठकों ने देखा होगा कि वाक्यों में कई शब्द अकेले होते हैं। तथा कई शब्द दो दो तीन तीन अथवा अधिक शब्द मिल कर बनते हैं। दो अथवा दो से अधिक शब्दों से बने हुए शब्द समुदाय को “समास” कहते हैं। जैसाः— रामकृष्ण, गंगाधार, कृष्णार्जुन, ज्वरार्त, तपोवन, मुनिमूषक इ०। ये तथा इस प्रकार के सहस्त्रों सामासिक शब्द संस्कृत में प्रतिदिन प्रयुक्त होते हैं। समासों द्वारा थोड़ा बोलने से बहुत अर्थ निष्पन्न होता है।

(१) ‘गंगायाः लहरी’ ऐसा कहने की अपेक्षा ‘गंगालहरी’ इतना कहने से ही ‘गंगा की लहर’ ऐसा अर्थ उत्पन्न होता है।

(२) “पीत अबरं यस्य सः” इतना कहने की अपेक्षा ‘पीतांबर’ इतना ही कहने से ‘पीला है वस्त्र जिसका, (वह विष्णु) इतना अर्थ निष्पन्न होता है।

(३) तस्य वचनं तद्वचनम्।

(४) प्रजायाः हितं=प्रजाहितम्।

** (५) भरतस्य पुत्रः**=भरतपुत्रः।

इस प्रकार प्रन्यान्य शब्दों के विषय में जानना चाहिए। जब पाठकों के पास इस प्रकार का सामासिक शब्द प्राजायगा तब प्रथम उनके पद अलग अलग करके, और पूर्वा पर संबंध देख कर उन पदों का अर्थ लगाना। जैसः—

(१) अकीर्तिकरम्=अ+ कीर्ति + करं=न कीर्तिः=अकीर्तिः अकीर्तिंकरोति इति=अकीर्तिकरम्।

(२) मूषकशावकः=पूषक + शावकः = मूत्रकस्य शावकः=मूषकशावकः।

** (३) रक्तविलिप्तमुखपादः** = रक्त + विलित + मुख+पादः=रक्तेन विलिप्तं=रक्तविलिप्तम्। मुखं च पादःमुखपादौ।रक्तविलिप्तौ मुखपादौ यस्य सः= रक्तविलिप्तमुखपादः।

इस प्रकार समासों का विग्रह करने का प्रकार होता है। ऐसा करने से समास का अर्थ खुल जाता है। समासों के प्रकार बहुत है। उन सब का वर्णन हम आगे करेंगे। यहाँ केवल नमूना बताय

११ नियम—संस्कृत में प्रकार के बाद माने वाले विसर्ग के सन्मुख प्रमाने से उस प्रकार सहित विसर्ग का ओ होता है। और आगे का प्रकार गुप्त हो जाता है तथा प्रकार के स्थान पर, प्रकार का सूचक ऽ ऐसा चिन्ह लिखते हैं।

ऽ यह चिन्ह प्रवश्यमेव लिखना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं। कोई लिखते हैं कोई नहीं लिखते। बोलने में प्रकार का उच्चार नहीं होता। ( परन्तु बोलने वाले की इच्छा हो तो प्रकार का उच्चारण भी कर सकता है। अर्थात् संधि का नियम वता जिस समय चाहे उसी समय प्रयोग में आसकता है ) जैसेः—

(१) कः अपि = कोऽपि।

(२) रामः अगच्छत = रामोऽगच्छत्। अः+अ=ओऽ

(३) धन्यः अस्मि=धन्योऽस्मि।

१२ नियम—पदान्त के अनुस्वार का म् होता है। और उसके आगे जो स्वर आजायगा उस स्वर के साथ वह मकार मिल जाता है। जैसेः—

(१) किं अस्ति = किमस्ति।

(२) वधं अभिकांक्षन=वधमभिकांक्षन्।

(३) इदं ओषधम् = इदमौषधम्।

इस प्रकार सब संधि जोड़कर वाक्य लिखने से पाठकों को स्वयं पढ़ने में बड़ी कठिनता ( दिक्कत ) होगी, इसलिये इस

पुस्तक मैं किसी किसी स्थान पर संधि किये हैं, अन्य स्थानों पर किये नहीं। पाठकों को उचित है कि इन नियमों के अनुसार वे पाठों में जहां जहां संधि नहीं किया है वहां वहां प्रवश्य संधि बनायें।और हर एक पाठ संधि करके लिखदें। ताकि संधियों का अभ्यास दृढ़ होजावे।

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

वाक्य

संस्कृत भाषा
(१) पुरा किल कृष्णकृत्यो नाम एकः क्षत्रियः प्रासीत्
(२) स दुष्टाशयोऽन्यायेन राज्यमकरोत्
(३) तेन बहवः क्षत्रियाः कारागृहे स्थापिताः
(४) तस्मिन राज्ये शासति न कोऽपि सुखं प्राप्तवान्

___________________________________________________________________________________________

यह सती सप्तमी है। संस्कृत में इस प्रकार के प्रयोग बहुत याते हैं। जिसका वर्णन हम आगे विस्तार पूर्वक करेंगे।

(५) सर्वे धार्मिकाः तस्य राज्यं त्यक्त्वा अन्यत्र गताः
(६) श्रीकृष्णाः तस्य वधमिच्छन् तस्य राजधानीं गतः
(७) तेन सह भीमोऽपि आसीत्
(८) भीमसेनः कृष्णकृत्येन सह मल्लयुद्धमकरोत्

[TABLE]

[TABLE]

[TABLE]

समास—विवरणम्।

(१) दुष्टाशयः—————————————दुष्टः आशयः यस्य स दुष्टाशयः। दुरात्मा।

(२) भीमार्जुनसहितः——————————भीमः व अर्जुनः च भीमाजुनौ।भीमार्जुनाभ्यां सहितः भीमार्जुन
सहितः।

(३) मधुपर्कदानं———————————मधुपर्कस्य दानं मधुपर्कदानम्।

(४) कृष्णभीमार्जुनाः——————————कृष्णश्चभीमश्च अर्जुनश्च कृष्णभीमार्जुनाः।

(५) देवकीनंदनः———————————देवक्याः नंदनः देवकीनंदनः।

(६) सकलजनपदक्षत्रियवधः———————लकलं च तत् जनपदं च सकल जनपदं।सकलजनपदस्य क्षत्रियाः सकलजनपदक्षत्रियाः। ‘सकलजनपदक्षत्रियाणांसकलजनपदक्षत्रियवधः।

————

८ अष्टमः पाठः।

संस्कृत में पुलिंग के ऌकारान्त, एकारान्त, ऐकारान्त, ओकारान्त तथा प्रकारान्त शब्द हैं, परन्तु उनमें बहुत ही थोड़े ऐसे हैं कि जो व्यावहारिक वार्तालाप में आते हैं। इसलिये इनको छोड़कर व्यंजनान्त पुलिंगी शब्दों के रूपों का प्रकार अव लिखते हैंः—

अन्नन्तः पुल्लिंगो ‘ब्रह्मन्’ शब्दः।

एकवचन द्विवचन **बहुवचन **
(१) ब्रह्मा ब्रह्माणौ ब्रह्माणः
(सं) (हे)ब्रह्मन् (हे) „ (हे)„
(२) ब्रह्माणम् ब्रह्मणः
(३) ब्रह्मणा ब्रह्मभ्याम् ब्रह्मभिः
(४) ब्रह्मणे ब्रह्मभ्यः
(५) ब्रह्मणः
(६) ब्रह्मणः ब्रह्मणोः ब्रह्मणाम्
(७) ब्रह्मणि ब्रह्मसु

इसी प्रकार “अन्” है अंत में जिन के ऐसे ‘आत्मन्, यज्वन, सुशर्मन्, कृष्णावर्मन्, अनर्धन’ इत्यादि अनन्त शब्द चलते हैं। पाठकों को उचित है कि वे इनको स्मरण करके इन शब्दों के रूप लिखें।अन्नन्त शब्दों में कई ऐसे शब्द हैं कि जिन के रूप “ब्रह्म” शब्द से कुछ भिन्न प्रकार के होते हैं, उनमें “राजन्” शब्द मुख्य हैः—

अन्नन्तः पुल्लिंगो ‘राजन्’ शब्दः।

(१) राजा राजानौ राजानः
(सं) (हे) राजन् (हे) „ (हे) „
(२) राजानम् राज्ञः

[TABLE]

इस शब्द के समान ‘मज्जन्, सीमन, महिमन्, गरिमन्, लधिमन्, सुनामन् दुर्गामन् प्रणिमन्” इत्यादि शब्द चलते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे इनके रूप बनाकर लिखे। ताकि इनके रूप बनाना वे न भूल जांय। अब कुछ स्वर संधि के नियम लिखते हैं।

१३ नियम— अ‚इ‚ऊ‚ ऋ इन स्वरों के सन्मुख सजातीय ह्रस्व अथवा दीर्घ यही स्वर आगये तो उन दोनों स्वरों का एक सजातीय दीर्घ स्वर बनाता है। जैसेः—

[TABLE]

इनके उदाहरण नीचे दिये हैं उनको देखने से उक्त नियम ठीक प्रकार समझ में आवेगा।

[अ]

वसिष्ठ + आश्रमः= वसिष्ठाश्रमः = अ + आ =आ

रमा + आनंदः = रमानंदः= आ + आ =आ

दिव्य + अरुणः= दिव्यारुणः = अ + अ=आ

देवता + अंशः= देवतांशः=आ + अ = आ

इन उदाहरणों में प्रथम दो शब्द दिये हैं, पश्चात् उनका संधि बना कर रूप दिया है, तत्पश्चाद्कौनसे स्वर मिलने से कौनसा स्वर हुवा है यह बताया है।इसी प्रकार अन्य स्वरों के उदाहरण नीचे दिये हैंः—

[इ]

कबि + इष्टम्=कवीष्टम् =— इ+इ = ई

नदी + इच्छा = नदीच्छा =—ई + इ = ई

कवि + ईश्वरः = कवीश्वरः—इ + ई = ई

लक्ष्मी+ ईश्वरः=लक्ष्मीश्वरः = ई + ई = ई

[उ]

भानु+उदयः=भानूदयः=—उ+उ=ऊ

चमू + ऊर्मिः=—चमूर्भिः=—ऊ+ऊ=ऊ

वधू + उच्छिष्टम् = वधूच्छिष्टम्= ऊ+उ=ऊ

सुनू+ ऊरुः =—सुनूरुः=—ऊ+ऊ=ऊ

ॠकार के संधि प्रसिद्ध नहीं है इसलिये नहीं दिये हैं।

पाठकों को चाहिये कि वे इस संधि नियम को ठीक स्मरण रखै । क्योंकि यह नियम बहुत उपयोगी है। अब नीचे कुछ शब्द दिये हैं उनको कंठ कीजियेः—

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

नपुसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

धातुसाधित।

भेतव्यं—भीने योग्य रक्षितव्यं—रक्षा करने योग्य

क्रिया।

[TABLE]

वाक्य।

संस्कृत भाषा
(१) मालवदेशस्य राजा / कंचित् पुरुषं दुर्गस्य वृत्तमपृच्छत्
(२) किमर्थं स राजा तमेव पुरुषमपृच्छत्
(३) यतः स पुरुषःदुर्गप्रदेशाद् आगतः
(४) पुरुषेणराज्ञे किं कथितम्
(५) दुर्गपालः कृपणोऽधार्मिकः क्रूरोऽविनीतः च अस्ति इति पुरुषोऽवदत्
(६) तद् आकर्ण्यराजा क्रोधंप्राप्तः वह सुन कर राजा क्रोध को प्राप्त हुआ
(७) पुरुषेण उक्तम् क्रोधः किमर्थं क्रियते
(८) यः पुरुषः ईश्वराद् विभेति, स इतरस्मात् कस्माद् अपि न बिभेति
(१) राजा तस्य वचनेन तुष्टः सन् तस्म दीनाराणां सहस्रं ददौ
(१०) यः सत्यं वदति तं ईश्वरः सदैव रक्षति
(११) अतः सर्वे सत्यमेव वदन्ति
(५) कृतार्थं सत्यवादित्वम् [५] सच बोलने से कृतकारिता
(१) मालवाधिपतिः दर्पसारः दुर्गात् आगत कचित् पुरुष दुर्गपाल-गतं उदन्तं अपृच्छत्
(२) पुरुषः अब्रवीत् स दुगपालः पीनः यौवन-सुलभेन तेजसा बलेन च युक्तः स्वर्गाधिपतिरिव कालं नयति
(३) दर्पसारः प्राह ‘नाहं तस्य शरीरस्वास्थ्यं पृच्छामि
(४) पुरुषोऽभाषत स कृपणः अधमशीलः दुर्विनीतः करः च अस्ति’
(५) पुरुषोऽकथयत् तस्य स्वामी स्वयमेव अन्याय-प्रवृत्तः अस्ति
(६) राजा उवाच पुरुष, न आनासि कोऽहमिति
(७) राजा अगदत् एतद् वृत्तान्तंमम अग्रे कथयितुं कथं न बिभेषि
(८) पुरुषः अवदत् ईश्वराद् बिभ्यत्पुरुषः तदितरस्मात् अपि न बिभेति
(६) तथा च सत्यं वदन् जनोऽसत्यं मनसाऽपि न चिंतयति नहीं डरता
(१०) अनेन वचनेन तुष्टो राजा पुरुषस्य आर्जवं दृष्ट्वा तस्मै दीनारसहस्रंअददात् (१०) इस भाषण से खुष हुवे हुवे राजा ने, पुरुष की सरलता को देखकर उसको,
अवदत् च सत्यभाषणे कृतनिश्चयेन पुरुषेण न कस्मादपि भेतव्यम्
(११) यतः स सदा ईश्वरेण रक्षितव्यः सत्यवादी इह अमुत्र च बहुमानं लभते

समास—विवरणम्

(१) मालवाधिपतिः—मालवस्य अधिपतिः मालवाधिपतिः।

(२) शरीर स्वास्थ्यम्—शरीरस्य स्वास्थ्यं शरीरस्वास्थ्यम्।

(३) अधर्मशीलः—न धर्मः अधर्मः। अर्धमेशीलं यस्य स धर्मशीलः।

(४) भ्रष्टाधिकारः—भ्रष्टः अधिकारः यस्मात् स भ्रष्टाधिकारः।

(५) अन्यायप्रवृत्तः—अन्याये प्रवृत्तः प्रन्यायप्रवृत्तः।

(६) दीनारसहस्रं—दीनाराणां सहस्रं दीनारसहस्रम्।

(७) सत्यभाषणं—सत्यं च तत् भाषणं सत्यभाषणम्।

(८) कृतनिश्चयः—कृतः निश्वयः येन स कृतनिश्चयः।

_____________

९नवमः पाठः।

नकारान्त पुल्लिंगी शब्दों में ‘श्वन्, युवन् मघवन्’ इन शब्दों के रूप कुछ विलक्षण प्रकार से होते हैं। उनको नीचे देते हैंः—

नकारान्तः पुल्लिंगः ‘श्वन्’ शब्दः।

(१) श्वा श्वानौ श्वानः
सं० (हे)श्वन् (हे)„ (हे)„
(२) श्वानम् शुनः
(३) शुना श्वभ्याम् श्वभिः
(४) शुने श्वभ्यः
(५) शुनः
(६) शुनोः शुनाम्
(७) शुनि श्वसु

नकारान्तः पुल्लिंगो ‘युवन्’ शब्दः।

(१) युवा युवानौ युवानः
सं० (हे) युवन् (हे)„ (हे)„
(२) युवानम् यूनः
(३) यूना युवभ्याम् युवभिः
(४) यूने युवभ्यः
(५) यूनः
(६) यूनोः यूनाम्
(७) यूनि युवसु

नकारान्तः पुल्लिंगो ‘मघवन्’ शब्द।

(१) मघवा मघवानौ मघवानः
सं० (हे) मघवन् (हे)„ (हे)„
(२) मघवानम् मघोनः
(३) मघोना मघवभ्याम् मघवभिः
(४) मघोने मघवभ्यः
(५) मघोनः
(६) मघोनोः मघोनाम्
(७) मघोनि मघवसु

श्वन् (कुत्ता), युवन् (जवान), मघवन् (इन्द्र) ये इनके अर्थ हैं। इनके प्रयोग संस्कृत में बहुत बार आते हैं। इसलिये पाठकों को चाहिये कि वे इनका ठीक ठीक स्मरण रखें। अब कुछ संधि के नियम देतें हैंः—

**१४ नियम—**पदान्त के मकार के सन्मुख क, च, ट, त, प, इन पांच वर्गों में से कोई व्यंजन आजाय तो उस मकार का अनुस्वार बनता है अथवा उसी वर्ग का अनुनासिक (पांचवा व्यंजन) बनता है। जैसाः—

पीतम् + कुसुमम् = पीतं कुसुमम्, अथवा पीषङ्कुसुमम्,

रक्तम् + जलम् = रक्तं जलम् „ रक्तजलम्

चक्रम् + ढौकति = चक्रं ढौकति „ चक्रण्ढौकति;

पुस्तकम् + दर्शय = पुस्तकं दर्शय „ पुस्तकन्दर्शय;

दुग्धम्+ पीतम् = दुग्धं प्रीतम् „ दुग्धम्पीतम्

१५ नियम—शब्द के अंदर के अनुस्वार अथवा मकार के सन्मुख पूर्वोक्त पांच वर्ग के व्यंजन आने से, उस अनुस्वार अथवा मकार के, उसी वर्ग का अनुनासिक बनता है। जैसाः—

अलंकारः = अलङ्कारः (जेवर)

पंचांगम् = पञ्चाङ्गम् (जंत्री)

मंदिरम् = मन्दिरम् (घर)

पंडितः = पण्डितः (विद्वान)

पंपा = पम्पा ( एक सरोवर)

परन्तु आजकल यह नियम कुछ शिथिल हुआ है। छपाई के तथा लिखने के सुभीते के लिये दोनों प्रकार के रूप छापे तथा लिखे जाते हैं। पाठकों को यहां ध्यान देना चाहिये कि ये नियम विशेषतया उच्चारण के लिये होते हैं। अनुस्वार लिखा जाय प्रथवा परसवर्ण-अनुनासिक लिखा जाय दोनों का उच्चारण एक ही प्रकार का होना चाहिये।जसाः—

गंगा }
गङ्गा } इन दोनों का उच्चारण “गङ्गा” ऐसा ही करना चाहिये गङ्गा) भाषा में भी यह नियम बहुतांश में है “कंगी, घंटा, धंदा, अंदर, " जंग, गंज, गुंफा” इत्यादि शब्द कड़ी, घण्टा, धन्दा, अन्दर, जङ्ग, गञ्ज, गुम्फा” ऐसे ही बोले जाते हैं। कोई गलती से ‘घम्टा, धदा ’ ऐसा उच्चारण करेगा तो उसकी उसी समय हंसी हो जायगी। यही बात संस्कृत शब्दों की भी समझनी चाहिये।

तथा नियम १२ के विषय में भी समझना चाहिये कि, अनुस्वार लिख कर मागे अलग स्वर भी लिखा जाय तो दोनों का मिलकर उच्चारण करना चाहिये। जैसाः—

गृहं आगच्छ = ( इसका उच्चारण)=गृहमागच्छ

तं आनय = „ =तमानय

वृक्षम् आलोक्य= „ = वृक्षमालोक्य

दृष्टम् अस्ति= „ = दृष्टमस्ति

सुगमता के लिये किसी प्रकार लिखा जाय परन्तु उच्चारण एक जैसा होना चाहिये। परन्तु किसी कारण वक्ता उनको अलग बोलना चाहे तो अलग भी बोल सकता है। इस पुस्तक में पाठकों के सुभीते के लिते मकार, अनुस्वार तथा स्वर बहुत स्थान पर अलग ही छापे हैं। यंब कुछ शब्द नींच देते हैं।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

इतर–शब्द

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

वाक्य

संस्कृत भाषा
(१) नृपतिर्भूमिं26 रक्षति
(२) वृक्षे खगाः कूजन्ति
(३) पर्वतस्य शिखरे मृगाश्चरन्ति27
(४) उद्याने बालाश्चरन्ति 28
(५) मागें रथाश्चरन्ति29
(६) ततो नरपतिर्रति30दुरं गत्वा वनं दर्शितवान्
(७) अनंतरं रामस्वरूपोऽर्चित31यत्
(८) शृणुत, मयाद्यै3233लेखो लेख34नीयः
(६) तथाऽनुष्ठि35तेऽश्व36पतिर्नल37मुवाच38
(१०) शृणु, एते ग्रामरक्षकास्त्वया39 हताः एतत्त्वया40 नैव41 साधु कृतम्

[TABLE]

(५)अनंतरं शिलीमुखो नाम शशकः चिंतयामास अनेन गजयूथेन पिपासाकुलेन42 प्रत्यहं43अत्र अगन्तव्यम्
(६) अतो विनश्यति अस्मत्कुलम् ततो विजयो नाम वृद्धशशको अवदत
(७) ‘मा विषीदत मया अत्र प्रतीकारः कर्तव्यः’
(८) गच्छता च तेन आलोचितम् ‘कथं मया गजयूथस्य समीपे स्थित्वा वक्तव्यम्
(९) तथा अनुष्ठिते यूथ-xथ उवाच ‘कः त्वम्
ऽहम् भगवता चंद्रेश भवदन्तिकं प्रेषितः
(१०) यूथपतिः आह ‘कार्यं उच्यताम्’
(११) तद् अहं तदाज्ञया ब्रवीमि शृणु, यद् एते चंद्रसरो-रक्षकाः44 शशकाः त्वया निःसारिताः तत् न युक्तं कृतम्
(१२) यतः ते चिरं अस्माकं रक्षिताः अत एव मे शशांक इति प्रसिद्धिः

[TABLE]

समास—विवरणम्।

(१) तृषार्तः————तृषया आर्तः तृषार्तः। पिपासाकुल इत्यर्थः।

(२) यूथपतिः———यूथस्य पतिः यूथपतिः। युथनाथः।

(३) निमज्जनस्थानम्————निमज्जनाय स्थानं निमज्जनस्थानम्।

(४) तत्तीरावस्थिताः————तस्य तीरं तचीरं। तत्तीरे अवस्थिताः ततीरावस्थिताः।

(५) अस्मत्कुलम्—————अस्माकं कुलं अस्मत्कुलम्।

(६) चंद्रसरोरक्षकाः————चंद्रस्य सरः चंद्रसरः। चन्द्रसरसः रक्षकाः चंद्रसरो रक्षकाः।

(७) अज्ञानं———————न ज्ञानं अज्ञानम्।

(५) वारान्तरं——————अन्यः वारः वारान्तरम्।

(६) देशान्तरं——————अन्यः देशः देशान्तरम्।

(१०) ग्रामान्तर—————अन्यः ग्रामः ग्रामान्तरम्।

———:0:———

१० दशमः पाठः।

इन्नतः पुल्लिंगः’करिन्’ शब्दः

(१) करी करिणौ करिणः
सं० (हे) करिन् (हे) „ (हे)„
(२) करिणम्
(३) करिणा करिभ्याम् करिभिः
(४) करिणे करिभ्यः
(५) करिणः
(६) करिणोः करिणाम्
(७) करिणि करिषु

इस प्रकार ‘हस्तिन् (हाथी), दण्डिन् (दण्डी), श्रृंगिन ( सींग वाला), चक्रिन् (चक्र बाला), स्रग्विन् ( मालाधारी) इत्यादि शब्द चलते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे इन शब्दों को चलाकर अपना अभ्यास दृढ़ करें।

वस्वन्तः पुल्लिंगो ‘विद्वस्’ शब्दः

(१) विद्वान् विद्वांसौ विद्वांसः
सं० (हे) विद्वन् (हे)„ (हे)„
(२) विद्वांसं विदुषः
(३) विदुषा विद्वद्भ्याम् विद्वद्भिः
(४) विदुषे विद्वद्भ्यः
(५) विदुषः
(६) विदुषोः विदुषाम्
(७) विदुषि विद्वत्सु

इस शब्द के समान ‘तस्थिवस (खड़ा), सेदिवस ( बैठा हुवा), शुधुवस् (सुनने वाला), दाश्वस् (दाता), मीढुस (सिंचक), जगन्धम् (संचारक), इत्यादि वसवंत शब्द चलते हैं। जिनके प्रत में (वस्) प्रत्यय होता है उनको वस्वंत् शब्द कहते हैं।

संस्कृत में एक शब्द के समान ही कई शब्दों के रूप हुवा करते हैं। जब पाठक एक शब्द को स्मरण करेंगे तब उनको उसके समान शब्द के रूप बनाने की शक्ति आजायगी। इसी प्रकार कई एक पुल्लिंगी शब्दों के रूप बनाने में पाठक इस समय

तक योग्य होगये हैं। अकारान्त, इकारान्त, उकारान्त, ऋकारान्त, श्रनन्त, इन्नन्त, वस्वन्त, नान्त इतने पुल्लिंगी शब्द पाठकों को स्मरण होचुके हैं। और इनके समान शब्दों के रूप व पाठक बना भी सकते हैं। पुल्लिंगी शब्दों में मुख्य मुख्य अब दो चार शब्द देने हैं। तत्पश्चात कुछ सर्वनाम के रूप बताकर, नपुंसकलिंगी शब्दों के रूप दिखलाने हैं। इसलिये पाठकों से सविनय निवेदन है कि वे देरी की पर्वाह न करते हुवे हर एक पाठ को पक्का बना कर आगे बढ़ें, नहीं तो आगे ऐसा समय आवेगा कि न तो पिछला स्मरण है और न आगे कदम बढ़ सकता है।

संस्कृत स्वयं शिक्षक में जो पढ़ाई का क्रम दिया है वह बहुत ही सुगम है, जो पाठक प्रत्येक पाठ लक्ष्य पूर्वक दस बार पढ़ेंगे उनको सब बातें कराठ हो जायगीं, इसमें कोई संदेह नहीं। परन्तु पाठकों के पुरुषार्थ की भी आवश्यकता है। उसके बिना कार्य नहीं चलेगा। अस्तु। अव कुछ व्याकरण के नियम देते हैंः—

विसर्गः

** १६ नियम**—क, ख, प, फ के पूर्व ओ विसर्ग आता है वह जैसा का वैसा ही रहता है। जैसेः—दुष्टः पुरुषः। कृष्णाः कसः। गतः खगः। मधुरः फलागमः।

** १७ नियम**—पदान्त के विसर्ग का च, छ के पूर्व श्ब् बनता है, ट, ठ के पूर्व बनता है, और त, थ के पूर्व स् बनता है। जैसाः—

पूर्णः + चंद्र—पूर्णश्चंदः

हरेः + छत्रम्—हरेश्छत्रम्

रामः + तत्र—रामस्तत्र

कवेः + टीका—कवेष्टीका

** १८ नियम**—पदान्त के विसर्ग के सन्मुख ‘श, ष, स,’ आने से, विसर्ग का श, ष, स, बनता है, परन्तु किसी समय विसर्ग ही कायम रहता है। जैसेः—

धनंजयः + सर्वः = धनंजयस्सर्वः (अथवा ) धनंजयः सर्वः

देवाः + षट् = देवाष्षट्। (,, ) देवाः षट्

श्वेतः + शंखः = श्वेतश्शंखः (,, ) श्वेतः शंखः

ये नियम अच्छी प्रकार ध्यान में आने के पश्चात् निम्न लिखित शब्दों को स्मरण कीजियेः—

शब्द—क्रियापद

[TABLE]

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

वाक्य।

संस्कृत भाषा
(१) वानरा वृक्षे45तिष्ठन्ति
(२) सर्पो वनमगच्छत्46
(३) मम शरीरं ज्वरेण कृशं जातम्
(४) कुमारस्य एकः शुचिः करोऽस्ति47 तथा अन्यो न48
(५) मया सह तौ कुमारौ नगरं गच्छतः
(६) अहं तत्र यामि यत्र पंडिताः वसंति49 मै वहां जाता हूं जहां पंडित लोग रहते हैं
(७) यस्य बुद्धिर्बलम50पि तस्यैव जिसकी बुद्धि (होती है) शक्ति भी उसी की है
(८) खगा वृक्षा51डुयन्ते52 पक्षि वृक्ष से उड़ते हैं
(९) तस्य हस्तान्माला53 पतिता उसके हाथों से माला गिरी है
(१०) तत्र नैव गमिष्यामि वहां नहीं जाउंगा
**[७] उदराऽवयवानाम्कथा **
(१) एकदा हस्तपादाद्यवयवाः व्यचिंतयुन् यद् वयं54 भ्राम्यामः संगृहीमश्च55
(२) इदं उदरं प्रायासान् प्रकृत्वा सुखं खादति
(३) यद्अद्ययावज्जातं56 तद् अस्तु नाम प्रद्यप्रभृति इदं श्रमित्वा आत्मनो भर्म57 कुर्यात् न प्रस्माकं प्रनेन प्रयोजनम्
(४) एवं सशपथं सर्वे निश्चिक्युः हस्तों ऊचतुः
(५) मुखं उवाच अहं शपथं करोमि
(६) दन्ता ऊचुः58 यदि अस्य कृते ग्रासं चर्चा- मो59 भंगः उपेतु अस्मान्
(७) एवं शपथेषु कृतेषु योनिश्वयः कृतस्तस्य60पालनं आवश्यकं बभूव
(८) एवं जाते सर्वे अवयवाः अशुष्यन् अस्थिचर्म—मात्रं प्रवाशिनट्
(९) तदा न साधु कृतं अस्माभिः” इति सर्वेषां चक्षुषी उन्मीलिते उदरेगा विना वयं अगतिकाः
(१०) तत् स्वयं न श्राम्यति परं यावद् वयं तस्य पोषं विदध्मः तावद् अस्माकं पोषणं भवति इति सर्वे सम्यग् जज्ञिरे
(११) तात्पर्यम्—कस्मिंश्चित् काले एकस्यां राजधान्यांचिरयुद्धप्रसंगात् राज्ञः कोशागारे धनसंकोचे समुत्पन्ने स राजा प्रजाभ्यो बलिं जग्राह
(१२) तत् प्रजा नाभिमेनिरे ता ‘उपद्रवोऽयं61’ इति गणयित्वा नगराद् बहिः आवासं रचयामासुः
(१३) तत्र वर्तमानाभिः ताभिः संहतिः कृता ता मिथो अमं त्रयन्त
(१४) अतः परं न वयं राज्ञे किं अपि दास्यामः इति सर्वा निश्चिक्युः
(१५) तासां एवं निर्णीयं संप्रधार्य राजाऽऽत्मनोऽमात्यं62 तान् प्रति प्रेषयामास
(१६) सोऽमात्यः63 प्रजाभ्यः ‘उदरावयवानां कथां’ निवेद्य तासां आनुकूल्यं प्राप राजा प्रजाश्च64 सुखं अन्वभवन्
(१७) यदि वयं राज्ञे भागधेयं न दद्याम, तस्य व्ययोपयोगाय धनं न शिष्यते एवं समापतिते तस्कराबद्धपरिकरा दिवाऽपि65 लुण्ठनं विधास्यन्ति
(१८) एको ऽन्यं66न अनुरोत्स्यते मर्यादातिक्रमः प्रमाथाश्च67उद्भविष्यन्ति

समास—विवरणम्।

(१) हस्तपादाद्यवयवाः——————हस्तश्व पादश्व हस्तपादौ। हस्तपादौआदी येषां ते हस्तपादादयः। हस्तपादादय अवयवाः।

(२) आनुकूल्यं—————————अनुकूलस्य भावः आनुकूल्यम्।

(३) बद्धपरिकराः————————बद्धाः परिकरा यैः ते बद्धपरिकराः।

(४) मर्यादातिक्रमः————————मर्यादाया अतिक्रमः मर्यादातिक्रमः।

(५) सशपथं———————————शपथेन सह सशपथम्।

परीक्षा के प्रश्न।

( पाठकों को उचित है कि वे इन प्रश्नों का उत्तर देकर आगे बढ़े। अगर उत्तर न दे सकें तो पिछला हिस्सा दुबारा पढ़ें)

(१) निम्न शब्दों के सब विभक्तियों के रूप लिखियेः—हृषीकेशः । कविः । क्रतुः । कर्तृ । युवन् । दण्डिन् । दाश्वस् । रात्रः । भूपः । भूपतिः । यशस्विन् । स्रग्विन् ।

(२) निम्न शब्दों के सब विभक्तियों के एक वचन के रूप झटपट् लिखियेः—आनंदः । केशः । रविः । निधिः । विष्णुः । जिष्णुः । भर्तृ । गंतु । चक्रिन् । दण्डिन् । विद्वस् । जगन्वस् ।

(३) निम्न शब्दों का षष्ठी का बहुवचन लिखियेः—यशपालः ।गंगाधरः । पाठकः । वाचकः । दर्शकः । शंभुः । वायुः । अग्निः। भूपतिः । हस्तः । कर्णः । करिन् । हस्तिन् ।

(४) निम्न शब्दों के संधि कीजिये :—

[TABLE]

(५) निम्न जुड़े हुवे संधियों को खोलकर लिखिये :—

ग्रामरक्षकास्त्वया निहताः।
गृहाद्वहिर्बालाश्चरन्ति।
अद्यैष रथो योजनीयः।
अश्वपतिर्नलमुवाच।
पतद्द्दष्टन्त्वयाऽधुना।

(६) निम्न वाक्यों का संस्कृत बनाइये :—

मैं सवेरे उठकर संध्या करता हूं।
जो निश्चय किया उसका पालन करना अवश्य हुवा।
वह झूठ नहीं बोलता।
भूखे लोगों ने अवश्य माना है। (क्षुधाकुलः भूखा)
सुनो जो अब मैं बोलता हूँ।

(७) मुनि और मूषक की कथा तीन वार पढ़कर संस्कृत में लिखिये :—

(८) निम्न समासों का विवरण लिखिये :—

वारान्तरम् ।सबंधुः। सशपथं । देशान्तरं । वस्त्राछादितः । मंत्रद्रष्टा । दुग्धपानं । अश्वपृष्ठं । धर्मचर्या । धनुकूलता ।

_____________

११ एकादशः पाठः।

तकारान्तः पुल्लिंगो ‘धीमत्’ शब्दः

(१) धीमान् धीमन्तौ धीमन्तः
सं० (हे) धीमन् (हे)„ (हे)„
(२) धीमन्तम् धीमतः
(३) धीमता धीमद्भ्याम् धीमद्भिः
(४) धीमते धीमद्भ्यः
(५) धीमतः
(६) धीमतोः धीमतोः धीमताम्
(७) धीमति धीमत्सु

‘धीमत्’ शब्द ‘मत्’ प्रत्यय वाला है। ‘मत्’ प्रत्यय वाले तथा ‘वत्, यत्’ प्रत्यय वाले शब्द इसी प्रकार चलते हैं।

मत् प्रत्यय वाले शब्द—श्रीमत्, बुद्धिमत्, आयुष्मत्, इ०

यत् प्रत्यय वाले शब्द—भगवत्, मघवत्. ( सर्वनाम ) भवत्, यावत्, तावत्, एतावत् इ०

यत् प्रत्यय वाले शब्द—कियत्, इयत् इ०

ये सब शब्द पुल्लिंग में धीमत् शब्द के समान ही चलते हैं। पाठकों को उचित है कि वे इस शब्द की और विशेष ध्यान दें।संस्कृत में मत्, वतु, प्रत्यय वाले शब्द बहुत हैं और उनका उपयोग भी बारंबार होता है। इसलिये इन शब्दों को ठीक स्मरणा रखना चाहिये। अगर पाठक कंठ करने की अपेक्षा शब्दों की

विशेषता की ओर ध्यान देंगे और उस विशेषता को ध्यान में रखेंगे तो उनका कार्य बहुत शीघ्र और सुगमता पूर्वक होगा।

कौनसीविभक्ति के कौन से वचन के रूप समान होते हैं। कौन से विभक्ति के वचन में किस प्रकार का विशेष कहां उत्पन्न होता है यही बातें स्मरण रखने कीं होतीं हैं। जहां जहां समान रूप प्रांत हैं वहां वहां इस पुस्तक में (,, ) पेसा चिन्ह दिया है। जिस से पता लगेगा कि वहां का रूप पूर्व विभक्ति के समान ही है। अस्तु।

तकारान्तः पुल्लिंगो ‘महत्’ शब्द

(१) महान् महान्तौ महान्तः
सं० ( हे ) महान् (हे)„ (हे)„
(२) महान्तं
(३) महता महद्भयाम् महद्भिः
(४) महते महद्भयः
(५) महतः
(६) महतोः महताम्
(७) महति महतः महत्सु

पूर्वोक्त धीमत् और महत् शब्द में विशेष वह है कि, धीमत् शब्द के (प्रथमाका एक वचन छोड़कर) प्रथमा, संबोधन और द्वितीया के रूपों में मका मा नहीं होता है। परन्तु महत् शब्द के रूपों में ह का हा होता है। जैसा :—

(१) धीमान् धीमन्तौ धीमन्तः—प्रथमा

(१) महान् महान्तौ महान्तः—प्रथमा

इसी प्रकार अन्यान्य विशेष पाठकों को जानने चाहिये अब कुछ संधि के नियम देते हैं :—

** १९नियम—**‘सः’ शब्द के अन्त का विसर्ग, प्र के सिवाय कोई अन्य वर्ण सन्मुख ष्याने पर, लुप्त हो जाता है। जैसाः—

सः + भागतः = स आगतः

सः + गच्छति = स गच्छति

सः + श्रेष्ठः= स श्रेष्ठः

‘सः’ के सामने म आने से दोनों का ‘सोऽ’ बनता है। ( देखो नियम ११ पाठ ७ पृष्ठ ७५) जैसा :—

सः + अगच्छत्=सोऽगच्छत्

सः+अवदत् अस्ति=सोऽवदत्

सः+ अस्ति=सोऽस्ति

** २० नियम—** जिस के पूर्व प्रकार है ऐसे पदान्त के विसर्ग के पश्चाद् मृदु व्यंजन ष्याने से, उस प्रकार और विसर्ग का ‘ओ’ बन जाता है। जैसाः—

मनुष्यः+गच्छति=मनुष्यो गच्छति

अश्वः+मृतः=अश्वो मृतः

पुत्रः+लब्धः=पुत्रो लब्धः

अर्थः+गतः=अर्थो गतः

**२१ नियम—**जिस के पूर्व आकार है ऐसा पदान्त का विसर्ग, उसके सन्मुख स्वर अथवा मृदुष्यंजन माने से, लुप्त हो जाता है। जैसाः—

मनुष्याः+अवदन्=मनुष्या अवदन्

असुराः+गताः = असुरा गताः

देवा+आगताः = देवा आगताः

वृक्षाः + नष्टाः = वृक्षा नष्टाः

** २२ नियम—** अ-आको छोड कर अन्य स्वरों के बाद माने वाले विसर्ग का र् बनता है, अगर उनके सन्मुख स्वर अथवा मृदुव्यंजन आया हो। जैखाः—

हरिः+अस्ति = हरिरस्ति

भानुः+उदेति= भानुरुदेति

कवेः आलेख्यम् =कवेरालेख्यम्

ऋषिपुत्रैः+आलोचितम्= ऋषिपुत्रैरालोचितम्

देवै+दत्तम् = देवैर्दत्तम्

हरे+मुखम् = हरेर्मुखम्

हस्तैः+यच्छति=हस्तैर्यच्छति

निसर्ग के पूर्व अ अथवा आआने पर नियम २० तथा २१ के अनुसार संधि होंगे।

** २३ नियम**—व्यंजनके सामने र् व्यंजन माने से पहिले र का लोप होता है और उस लुप्त रकार का पूर्व स्वर दीर्घ होता है। जैसाः—

ऋषिभिः+रचितम्=ऋषिभीरचितम्

भानुः+राधते=भानूराधते

शस्त्रैः + रक्षितम्=शस्त्रै रक्षितम्

हरेः+रक्षक=हरे रक्षकः

पाठकों को चाहिये कि वे इन संधि नियमों को बारंबार पढकर ठीक ठीक स्मरण रखें। यद्यपि संधि न किया हुवा संस्कृत प्रशुद्ध नहीं समझा जाता, तथापि प्राचीन पुस्तकें पढने के लिये संधि नियमों के परिज्ञान के सिवाय काम नहीं चल सकता। तथा नियमानुसार प्रगल्भ संस्कृत बोलने के लिये स्थान स्थान पर संधि करने की आवश्यकता होती है। इसलिये पाठकों को संघि नियमों की ओर दुर्लक्ष्य नहीं करना चाहिये।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकालेंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

**[८] विप्र-व्याघ्रयोः कथा **
(१) अहमेकदा68 दक्षिणारण्ये चरन् अपश्यम् एको वृद्ध69व्याघ्रः स्नातः कुशहस्तः सरस्तीरे व्रूते
(२) भो भोः पान्थाः इदं सुवर्ण-कंकणं गृह्यताम्
(३) भाग्येनैतत्70 संभवति किंतु अस्मिन् आत्मसंदेहे प्रवृत्तिर्न71 विधेया
(४) यतो जाते72ऽपि समीहितलाभे अनिष्टाच्छुभा73 गतिः न जायते
(५) किंतु सर्वत्र अर्थार्जने प्रवृत्तिः संदेह एव उक्तं व संशय अनारुह्य नरो भद्राणि न पश्यति
(६) तत् निरूपयामि तावत् प्रकाशं व्रूते
(७) पान्थोऽवदत्74 कथं मारात्मके त्वयि विश्वासः
(८) अनेक—गो—मानुषाणां वधान्मृता75 मे पुत्रा दाराश्च वंशहीनश्च76अहम्
(९) ततः केनचिद्धार्मिकेणाहं77आदिष्टः दानधर्मादिक चरतु भवान्
(१०) तदुपदेशादिदानों78 अहं स्नानशीलो दाता वृद्धो गछित-नख-दन्तो न कथं विश्वासभूमिः
(११) मम च एतावान् लोभविरहो येन79 स्वहस्तस्थं अपि सुवर्णकंकणंयस्मै कस्मैचिद् दातुं इच्छामि
(१२) तथापि व्याघ्रो मानुषं खादति इति लोकापवादो दुर्निवारः यतः लोकः गतानुगतिकः
(१३) त्वं च अतीव दुर्गतस्तेन80 तुभ्यं दातुं सयत्नोऽहम्81 तदत्र82 सरसि स्नात्वा सुवर्ण- कंकणं गृहाण
(१४) ततो यावद् असौ तद्वचः प्रतीतो लोभात् सरःस्नातुं प्रविशति तावत् महापंके निमग्नः पलायितुं अक्षमः
(१५) पंके पतितं दृष्ट्वा व्याघ्रोऽवदत् अहह महापंके पतितोऽसि
(१६) इति उक्त्वा शनैः शनैः उपगम्य तेन व्याघ्रेण धृतः स पान्थः अचिन्तयत्

[TABLE]

समास—विवरणम्

(१) कुशहस्तः———————कुशाः हस्ते यस्य सः कुशहस्तः।

(२) लोभाकुष्टः———————लोभेन आकुष्टः लोभाकृष्टः।

(३) आत्मसंदेहः———————आत्मनः संदेहः यस्मिन् स श्रात्मसंदेहः।

(४) अनेकगोमानुषाणां—————गावः मानुषाश्च गोमानुषाः। अनेकाश्च ते गोमानुषा अनेकगोमानुषाः।

(५) दानधर्मादिकं———————दानं च धर्मश्च दानधर्मौ। दानधर्मी आदी यस्य स दानधर्मादिः। तदेव दानधर्मादिकम्।

(६) अविचारितं————————न विचारितं अविचारितम्।

१२ द्वादशः पाठः।

ऋकारान्तः पुल्लिंगः ‘पितृ’ शब्दः।

[TABLE]

चतुर्थ पाठ में ‘धातृ ’ शब्द दिया है। उसमें और इस ‘पितृ’ शब्द में प्रथमा, संबोधन और द्वितीया के रूपों में कुछ फरक है देखियेः—

धातृ—धाता—धातारौ—धातारः

पितृ—पिता—पिरौ—पिरः

जैसा धातृ शब्द के रकार के पूर्व आ है वैसा पितृ शब्द के रकार के पूर्व नहीं हुवा। यह विशेष भ्रातृ, जामातृ, देवृ, शंस्तृ, सव्येष्टृ, नृ, इन के शब्दों में भी पाया जाता है। देखिये :—

भातृ—भ्राता—भ्रातरौ—भ्रातरः (भाई)

जामातृ—जामाता—जामातरौ—जामातरः (दामाद)

देवृ——देवा देवरौ देवरः (देवर)

नृ———ना नरौ नरः (मनुष्य)

शंस्तृ——शंस्ता शंस्तरौ शंस्तरः (स्तुति करने हारा

सव्येष्टृ—सव्येष्टा सव्येष्टरौ सव्येष्टरः (रथवान)

प्रथमा, संबोधन तथा द्वितीया के रूपों का यह विशेष ध्यान में रखने के बाद तृतीया आदि अन्य विभक्तियों के रूप धातृ शब्द के समान ही होते हैं। उनके अंदर कोई विशेष नहीं। केवल ‘नृ’ शब्द के षष्टी-बहुवचन के “नृृणाम, नृणाम्” ऐसे दो रूप होते हैं। इतना ही विशेष है।

इन्नन्तः पुल्लिंगः ‘पथिन्’ शब्दः।

(१) पन्थाः पन्थानौ पन्थानः
सं० (हे) (हे)„ (हे)„
(२) पन्थानम्
(३) पथा पथिभ्याम् पथिभिः
(४) पथे पथिभ्यः
(५) पथः
(६) पथः पथोः पथाम्
(७) पथि पथिषु

इस प्रकार ‘मथिन्, ऋभुक्षिन् आदि शब्द चलते हैं।

इकारान्तः पुल्लिंगः ‘सखि’ शब्दः।

(१) सखा सखाया सखायः
सं० (हे) सखे (हे)„ (हे)„
(२) सखायम् सखीन्
(३) सख्या सखिभ्याम् सखिभिः
(४) सख्ये सखिभ्यः
(५) सख्युः
(६) सख्योः सखीनाम्
(७) सख्यौ सखिषु

‘सखि’ इकारान्त होने पर भी ‘हरि’ शब्द के समान रूप नहीं होते हैं। यह बात पाठकों को ध्यान में रखनी चाहिए। इस प्रकार पति आदि शब्द हैं, जो विशेष प्रकार से चलते हैं। जिनका विचार हम आगे करेंगे। अब कुछ व्याकरण के नियम देते हैंः—

** २४ नियम—** विसर्ग के पूर्व अकार हो तथा उसके बाद के सिवाय दूसरा कोई स्वर आजाय तो विसर्ग का लोप हो जाता है। जैसाः—

रामः + इति=राम इति

देव + इच्छति=देव इच्छति

सूर्य + उदयते=सूर्य उदय

२५ नियम— शब्दान्त के ‘ए, ऐ, ओ, औ, इनके सामनेकोई स्वर आने से उनके स्थान में क्रमशः ‘आय्, आय्, अव्, आव्’ ऐसे प्रदेश होते हैं।

ए+अ = अय

ऐ+अ = आय

ओ+अ= अव

औ+अ=आव

ने+अ=नय

भो+अ=भव

गै+अ=गाय

** २६ नियम—** पदान्त के न् कार के पूर्व ‘अ, इ, उ, ऋ, ऌ इनमें से कोई एक स्वर हो और उसके पश्चात् कोई स्वर आजाय तो, उस नकार का द्वित्व होता है। जैसाः—

अस्मिन् + उद्याने=

तस्मिन + इति= तस्मिन्निति

आसन् + अत्र=आसन्नत्र

उक्त नकार दीर्घ स्वर के पश्चात् प्राजाय तो उसका द्वित्व नहीं होता है। जैसाः—

तान् + अपि = तानपि

ऋषीन्+इच्छति=ऋषीनिच्छति

रवीन्+उपास्ते=रवीनुपास्ते

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

विशेषणों का उपयोग।

[TABLE]

(१) बुद्धिहीना विनश्यन्ति।

(१) कस्मिंश्चि83दधि84ष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः परं मित्रभावं उपगताः वसन्ति स्म। (२) तेषां त्रयः शास्त्रपारं गताः परन्तु बुद्धिरहिताः। एकस्तु85 बुद्धिवान् केवलं शास्त्रपराङ्मुखः।

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(१) (परं मित्रभावं उपगताः)–बड़े मित्र बन गये। (२) (शास्त्रपराङ्मुखः )–शास्त्र न पढा हुवा।

(३) अथ तैः कदाचिन् मित्रैः मंत्रितम्। को गुणो विद्या86या येन देशान्तरं गत्वा भूपतीन् परितोष्य अर्थोपार्जना न क्रियते। (४) तत् पूर्वदेशं गच्छामः। तथाऽनुष्ठिते87 किंचिन् मार्गंगत्वा तेषां ज्येष्ठतरः प्राह। (५) अहो अस्माकं एकश्चतु88र्थो मूढः89 केवलं बुद्धिमान्। न च राजप्रतिग्रहो बुद्धया लभ्यते विद्यां विना। तत् न अस्मै स्वोपार्जित दास्यामि। (६) तद् गच्छतु गृहम्। ततो द्वितीये90न अभिहितम्। अहो न युज्यते एवं कर्तु यतो वयं बाल्यात् प्रभृति एकत्र क्रीडिताः। (७) तद् आगच्छतु महानुभावोऽस्मदु91पार्जित-वित्तस्य संविभागी भविष्यति इति। (८) उक्तं च ‘प्रयं निजः परो वा इति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां

_________________________________________________________________________

(३) ( भूपतीन् परितोष्य अर्थोपार्जना न क्रियते) राजाओं को खुश कर द्रव्यप्राप्ति नहीं की जाती है ( ४ ) ( न च राजप्रतिग्रहो बुध्या लभ्यते )–नहीं राजा से दान बुद्धि के कारण मिलता है। (५) ( न युज्यते एवं कतुम्)– नहीं योग्य है ऐसा करना। ( ६ ) ( वयं बाल्यात् प्रभृति एकत्र क्रीडिताः)–हम बचपन से एक स्थान पर खेले हैं। (७) (वित्तस्य संविभागी )–द्रव्य का हिस्सेदार। ( ८) ( अयं निजः परावात गणना लघुचेतसाम् )–यह अपना (यह ) पराया ऐसी गिनती छोट दिल वालों की (ह) । (उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्)-

तु वसुधैव92 कुटुंबकम्’। इति। (६) तद् आगच्छतु एषोऽपि93 इति। तथाऽनुष्ठिते94 तैमर्गा95श्रितैरटव्याम्96 मृतसिंहस्य अस्थीनि दृष्टानि। (१०) ततश्च97एकेन अभिहितम्। यद् अहो विद्याप्रत्ययः क्रियते। किंचिद् एतत् सत्वं मृतं तिष्ठति। तद् विद्याप्रभावेण जीवसहित कुर्मः। (११) अहं अस्थिसंचयं करोमि। ततश्च एकेन औत्सुक्याद् अस्थिसंचयः कृतः। (१२) द्वितीयेन चर्म-मांस-रुधिरं संयोजितम्। तृतीयोऽपि98 यावद् जीवं संचारयति तावद् सुबुद्धिना निषिद्धः। (१३) भोः तिष्ठतु भवान्। एष सिंहो निष्पाद्यते। यदि एनं सजीबं करिष्यसि ततः सर्वानपि स व्यापादयिष्यति। (१४ ) स प्राह। धिङ्मूर्ख,99 नाहं विद्याया विफलतां करोमि। ततः तेन अभिहितम्। तर्हि प्रतीक्षस्व क्षणम्। यावद् अहं वृक्षं आरोहामि।

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उदार बुद्धि वालों का पृथ्वी ही परिवार है। (१) (तैः मार्गाश्रितैः)—उनके मार्ग का आश्रय लेने पर—चलने पर। (१०) (विद्याप्रत्ययः क्रियते)–विद्या का अनुभव लिया जाता है। (जीव-संहितं कुर्मः)–सञ्जीव करेंगे।(११) (अस्थिसचयं करोमि )–मैं हड़ियां रचता हूं। (१२) (पावज्जीवं संचारयति )–जब जीव डालने लगा। (१३) ( तावत् सुबुद्धिना निषिद्धः )—तब सुबुद्धि ने मना किया। (२४) (विद्याया विफलतां करोमि)—विद्या को निष्फल करूंगा।

(१५) तथानुष्ठिते यावत् सजीवः कृतः तावत ते त्रयो ऽपि100 सिंहेनोत्थाय101 व्यापादिताः। (१६) स च पुनः वृक्षाद् अवतीर्य गृहं गतः। अतोऽहं ब्रवीमि ‘बुद्धिहीना विनश्यन्ति इति।

पंचतंत्रम् ४ ।

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(१५) ( प्रतीक्षस्व क्षणम्)–ठहर क्षण भर। (१६) (सिंहेनोत्थाय व्यापादिताः)–शेर ने उठ कर मारे।

सूचना—इस पाठ का भाषा में भाषांतर नहीं दिया हैं। पाठक पढ कर ही समझने का यत्न स्वयं कर सकते हैं। जो कुछ कठिन वाक्य हैं उन्हीं का भाषांतर दिया है।

समास—विवरणम्।

(१) ब्राह्मणपुत्राः— ब्राह्मणस्य पुत्राः ब्राह्मणपुत्राः।

(२) शास्त्रपराङ्मुखः—शास्त्रात् पराङ्मुखः शास्त्रपराङ्मुखः।

(३)अर्थोपार्जना—अर्थस्य उपार्जना अर्थोपार्जना।

(४) अस्मदुपार्जितं—अस्माभिः उपार्जितं अस्मदुपार्जितम्।

(५) लघुचेतसां—लघु चेतः यस्य सः लघुचेताः। तेषां लघुचेतसाम्।

(६) मृतसिंहः—मृतः च असौ सिंहः च मृतसिंहः।

(७) सुबुद्धिः—सुष्टु बुद्धिः यस्य सः सुबुद्धिः।

१३ त्रयोदशः पाठः।

इकारान्तः पुल्लिंगः ‘पतिः’ शब्दः।

(१) पतिः पती पतयः
सं० (हे) पते (हे)„ (हे)„
(२) पतिम् पतीन्
(३) पत्या पतिभ्याम् पतिभिः
(४) पत्ये पतिभ्यः
(५) पत्युः
(६) पत्योः पतीनाम्
(७) पत्यौ पतिषु

सुचना—पंचमी तथा षष्टी के एक वचन में जिन जिन शब्दों के अंत में ‘त्यः प्रथवा ख्यः’ जैसे रूप प्रायेंगे वहां ‘त्युः ख्युः’ ऐसे रूप हुवा करते हैं। जैसेः—

पति पति शब्द का—पत्युः

सखि „ —सख्यु

वास्तव में तृतीया चतुर्थी के एक वचन के अनुकूल पंचमी षष्टी के एक वचन का रूप ‘पत्यः, सख्यः’ ऐसा होना चाहीये था, परन्तु उक्त कथन के अनुकूल ‘पत्युः, सख्यु’ ऐसा होता है। इस शब्द में एक और विशेष है। जिस समय पति शब्द समास के अंत में होता है उस समय उसके रूप पूर्वोक्त ‘हरि’ शब्द के ( पाठ ३ पृ. ४३ देखो ) समान होते हैं। तथा जिस समय अलग रहता है उस समय ऊपर लिखे हुवे रूप होते हैं। देखीयेः—

इकारान्तः पुल्लिंगो ‘भूपति’ शब्दः।

(१) भूपतिः भूपती भूपतयः
सं० (हे)भूपते (हे)„ (हे)„
(२) भूपतिम् भूपतीन्
(३) भूपतिना भूपतिभ्याम् भूपतिभिः
(४) भूपतये भूपतिभ्यः
(५) भूपतेः
(६) भूपत्योः भूपतीनाम्
(७) भूपतौ भूपतिषु

इसी प्रकार ‘पृथ्वीपति, गजपति, नरपति’ इत्यादि पत्यन्त सामासिक शब्दों के विषय में जानना चाहिये। पाठकों को उचित है कि वे ‘पति’ शब्द की इस विशेषता को ठीक ध्यान में रखें। नहीं तो समासान्त पति शब्द तथा केवल पति शब्द इनके रूपों गडबड होने में कोई देरी नहीं लगेगी। अस्तु। अव कुछ व्याकरण के नियम देखीयेः—

** २७ नियम—** इ, उ, ऋ, ल, इनके सामने विजातीय स्वर आने पर इनके स्थान में क्रमशः ‘य, व, र, ल’ ये आदेश होते हैं। जैसाः—

हरि+अंगम् = हर्यगम्

देवी+ अष्टकम् = देव्यष्टकम्

भानु+ इच्छा=भान्विच्छा

स्वभु + आनंदः=स्वभ्वानंदः

धातृ +अशः = धात्रंशः

शक्ल् + अन्तः = शक्लन्तः

स्पष्टी करण के लिये उक्त शब्दों के अक्षर कैसे बदलते हैं यह नीचे दिया है।

हर्यंगम्

[ह्+अ]+[र्+इ]+[अं]+[ग्+अ]+म्=ह्+अ+श्+य्+अं+ग्+अ+म्॥

भान्विच्छा

[भ्+आ]+[न्+उ]+[इ]+च्+छ्+आ=भ्+आ+न्+व्+इ+व्+छ्+आ

इस प्रकार अन्य संधियों के विषय में जानना चाहिये। पाठकों को उचित है कि वे हरएक संधि के वर्ग इस प्रकार लिख कर कौन से वर्ग के स्थान पर कौनसा प्रादेश होता है यद देखें ‘और सोच कर ठीक संधि नियम के अनुकूल संधि किया करें।

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

**[१०] अवदातं कर्म **
(१) शृणोतु आर्था मे पराक्रमम् योऽसौ102 आर्याया हस्ती103 स महामात्रं व्यापाद्य आलानस्तंभ बभञ्ज
(२) ततः स महान्तं संक्षोभ कुर्वन् राजमार्ग अवतीर्णः अत्रान्तरे उद्घुष्टं जनेन
(३) ‘अपनयत बालकजनम् आरोहत वृक्षान् भित्तीश्च104
(४) करी कर-चरण-रदनेन अखिलं वस्तुजातं विदारयन्नास्ते105 एतां नगरीं नलिन-पूर्णां महासरसीं इव मनुते स्म
(५) तेनततः कोऽपि106 परिव्राजकः समासादितः तच परिभ्रष्ठ-दंड-कुण्डिका-भाजनं यदा स चरणैर्मर्दयितुं107 उद्यक्तोबभूव108, तदा परिव्राजकं परित्रातुं दृढ़मतिं अकरवम्
(६) एवं संप्रधार्य सत्वरं लोहदण्डं एकं तरसा गृहीत्वा तं हस्तिनं अहनम्
(७) विंध्य -शैल-शिखराभं महा- (७) विंध्यपर्वत के शिखर

[TABLE]

समास—विवरणम्।

(१) करीकरचरणरदनेन————————ननकरः च चरणः च करचरणौ। करिणः करचरणौ करीकरचरणौ। करीकरचरणयोः रदनंकरीकरचरणरदनं। तेन
करीकरचरणरदनेन।

(२) नलिनपूर्णां———————————नलिनैः पूर्णाम्।

(३) परिभ्रष्टदण्डकुंडिकाभाजनम्———दगडः च कुंडिकाभाजनं चदण्डकुंडिकाभाजने। परिभ्रष्टे दण्डकुण्डिकाभाजने यस्मात् स परिभ्रष्टदण्डकुंडिकाभाजनः।

(४) लोहदगडः—————————लोहस्यदण्डः लोहदण्डः।

(५) स्वप्रावारकः————————स्वस्य प्रावारकः स्वप्रावारकः।

(६) विनीतवेषः—————————विनीतः वेषः यस्य स विनीतः वेषः।

(७) महाकायः—————————महान् कायः यस्य स महाकायः

१४ चतुर्दशः पाठः।

अकारान्तः पुल्लिंगो ‘वि‍श्’ शब्दः।

[TABLE]

इस शब्द के प्रथमा संबोधन के एकवचन के रूप दो दो होते हैं। प्रायः जिस शब्द के अंत में व्यंजन होता है उसके दो रूप संभवनीय है। इस शब्द के समान, ‘विश्वसृज्, परिमृज्, देवेज़, परिव्राज्, विभ्राज्, राजू, सुवृश्च्, भृज्ज्, त्विष्, द्विष्, रत्नमुष्, प्रावृष्, प्राच्छु, प्राशू, लिहू’ इत्यादि शब्द चलते हैं। तथा ‘छ्, श ष्, ह्’ ये व्यंजन जिनके अंत में होते हैं ऐसे शब्द इसी शब्द केसमान चलते हैं। सुभिता के लिये ‘परिव्राज्’ शब्द के रूप नीचे देते हैंः—

जकारान्तः पुल्लिंगः ‘परिव्राज्’ शब्द।

[TABLE]

इसी प्रकार चलने वाले शब्द संस्कृत में अनेक हैं। कईयों के विशे रूप नीचे देते हैं। जिनको देख कर पाठक सुभिता से विभक्तियों के रूप बना सकेंगे।

(१) जकारान्तः पुल्लिंगों’ ‘ऋत्विज’ शब्द।

१ प्रथमा ऋत्विक्-ग् ऋत्विजौ ऋत्विजः
३ तृतीया ऋत्विजा ऋत्विग्भ्याम् ऋत्विग्भिः
६ षष्टी ऋत्विजः ऋत्विजोः ऋत्विजाम्
७ सप्तमी ऋत्विजि ऋत्विक्षु

अन्य विभक्तियों के रूप पाठक स्वयं बना सकते हैं।

(२) चकारान्तः पुल्लिंगो ‘पयोमुच्’ शब्दः।

(१) पयोमुक्-ग् पयोमुचौ पयोमुचः
(४) पयोमुचे मयोमुग्भ्याम् पयोमुग्भ्यः
(७) पयोमुचि पयोमुचोः पयोमुक्षु

(३) जकारान्तः पुल्लिंगो ‘विश्वसृज्’ शब्दः।

(१) विश्वसृट्-ड् विश्वसृजौ विश्वसृजः
(४) विश्वसृजा विश्वसृड्भ्याम् विश्वसृड्भिः
(७) विश्वसृजः „सृड्भ्य

(४) ‘देवेज्’ शब्दः।

(१) देवेट्-ड् देवेजौ देवेजः
(४) देवेजे देवेड्भ्याम् देवेड्भ्यः
(७) देवेजि देवजोः देवेट्सु

(५) ‘राज्’ शब्दः।

(१) राट्-ड् राजौ राजः
(३) राजा राड्भ्याम् राड्भिः
(६) राजः राजोः राजाम्
(७) राजि राजोः राट्सु

(६) ‘द्विष्’ शब्दः।

(१) द्विट्-ड् द्विषौ द्विषः
(२) द्विषा द्विड्भ्याम् द्विड्भिः
(५) द्विषः द्विड्भ्यः
(७) द्विषि द्विषोः द्विट्सु

(७) ‘प्रावृष्’ शब्दः।

(१) प्रावृट्-ड् प्रावृषौ प्रावृषः
(७) प्रावृषि प्रावृषोः प्रावृट्सु

(८) ‘लिह्’ शब्दः।

(१) लिट्-ड् लिहौ लिहः
(३) लिहा लिड्भ्याम् लिड्भिः
(७) लिहि लिहोः लिट्सु

(६) रत्नमुष्शब्दः।

(१) रत्नमुट्-ड् रत्नमुषौ रत्नमुषः
(४) रत्नमुषे रत्नमुड्भ्याम् रत्नमुड्भ्यः
(७) रत्नमुषि रत्नमुषोः रत्नमुट्सु

(१०) ‘प्राच्छ्’ शब्दः।

(१) प्राट्-ड् प्राच्छौ प्राच्छः
(३) प्राच्छा प्राड्भ्याम् प्राड्भिः
(७) प्राच्छि प्राच्छोः प्राट्सु

(११) ‘प्राश्’ शब्दः।

(१) प्राट्-ड् प्राशौ प्राशः
(३) प्राशा प्राड्भ्याम् प्राड्भिः
(७) प्राशि प्राशोः प्राट्सु

इस पाठ में ये विशेष शब्द दिये हैं। इनक रूप जो विलक्षण होते हैं वे दिये हैं। बाकी रहे हुवे रूप पाठक स्वयं बना सकते हैं। प्रथमा विभक्ति के रूप व्यंजनांत हरएक शब्द के दो दो होते हैं। उनका संक्षेप से संकत ऊपर किया है। जैसा ‘परि- व्राट् - ड्’ इसका मतलब ‘परिव्राट्, परिव्राड’ ऐसा पाठक समझें। नहीं तो समझने में भ्रम होगा। इस पाठ में १, २, ३, ४ इत्यादि अंक प्रथमा द्वितीया आदि विभक्तियों के द्योतक समझने चाहिये।

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

विंशतिः—बीस परिदेवना—शोक

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

इतर

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

(११) सर्प—मंडूकयोः कथा।

(१) अस्ति जीर्णोद्याने मंदविषो नाम सर्पः। सोऽति109जीर्णतया आहारमपि110 अन्वेष्टुं अक्षमः सरस्तीरे पतित्वा स्थितः। (२) ततो दूरादेव111 केन चिन् मंडूकेन दृष्टः पृष्टश्चः। किमिति त्वं आहारं नान्विष्यसि112। ( ३ ) भुजगोऽवदत्113। गच्छ भद्र, मम मंदभाग्यस्प प्रश्नेन किम्। ततः संजात-कौतुकः स च भेकः

________________________________________________________________________

(१) (सोऽतिजीर्णतया)—वह बहुत बुड्डाक्षीणहोने से। ( आहारमापि अन्वेष्टुं अक्षमः )—भक्ष्य धूड़ने के लिये अशक्त है। (३) (गच्छ भद्र)—जाव भाई। ( मम मंदभाग्यस्य प्रश्नेन किं )—

सर्वथाकथ्यतां इत्याह। (४) भुजंगोऽपि114 आह। भद्र,। ब्रह्मपुरवासिनः श्रोत्रियस्य कौंडिन्यस्य पुत्रः विंशतिवर्षदेशीयः सर्वगुण–संपन्नो दुर्दैवान् मया नृशंसेन दष्टः। (५) ततः सुशीलनामानं तं पुत्रं मृतं आलोक्य मूच्छितः कौंडिन्यः पृथिव्यां लुलोट। अनंतरं ब्रह्मपुरवासिनः सर्वे बांधवास्तत्र115 आगत्य उपविष्टाः। (६) तथा च उक्तम्। आहवे व्यसने दुर्भिते राष्ट्रविवे राजद्वारे स्मशाने च यस्तिष्ठति116 स बांधव इति। (७) तत्र कपिलो नाम स्नातकोऽवदत्117। अरे कौंडिन्य !

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मेरे (जैसे) दुर्दैवी को प्रश्न ( पूछकर तुम्हें ) क्या ( लाभ है )। (संजात–कौतुकः)–जिसको उत्सुकता होगई है ऐसा। ( सर्वथा कथ्यतां )—सब (हाल ) कहिये। ( ४ ) ( ब्रह्मपुरवासिनः )—ब्रह्मपुर में रहने वाले। (विंशति-वर्ष-देशीयः)—बीस साल आयु का। (५) ( सुशीलनामानं तं पुत्रं मृतं आलोक्य)—सुशील नामक उस पुत्र को मग हुवा देखकर। (६) (आहवे व्यसने दुर्भिक्षे राष्ट्रविवे राजद्वारे स्मशाने च यः तिष्ठति स बांधवः)—युद्ध, कष्ट, प्रकाल, गदर, राजा की कचेरी, समशान इन स्थानों में जो (मदत देने के लिये) ठहरता है वही भाई है। (७) ( मूढोऽसि )

मूढोऽसि तेन एवं प्रलपसि विलपसि च। (८) शृणु। यथा महोदधौ काष्ठं च काष्ठं च समेयातां समेत्य च व्यपेयाताम् तद्वद् भूत-समागमः। ( 2 ) तथा पंचाभिः निर्मिते देहे पुनः पंचत्वं गते तत्र का परिदेवना। (१०) तद् भद्र, आत्मानं अनुसंधेहि शोकचर्ची च परिहर इति। ततः तद्वचनं निशम्य (१०) प्रबुद्ध इव कौडिन्य118 उत्थाय अब्रवीत्। ( ११ ) तद् अलं गृहनरक–वासेन। बनं एव गच्छामि। कपिलः पुनः आह।

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तूं मूर्ख है। (तेन एवं प्रलपसि विलपसि)—इसलिये इस प्रकार रोते पीटते हो। (८) (यथा महोदधौ काष्ठं च० समेयातां )—जिस प्रकार बड़े समुद्र में एक लकड़ी दूसरी लकड़ी के साथ मिलती है। ( समेत्य च व्यपेयाताम् )—और एक होकर फिर अलग होती है। ( भूत-समागमः )—प्राणियों का सहवास। ( ९) ( पंचभिः निर्मिते देहे )—पांचों (भूतों से ) बना हुवा देह (पुनः पंचत्वं गते) फिर पांचों (तत्वों) में जाने पर ( तत्र का परिदेवना ) वहां किस लिये शोक (करते हो)। (१०) (आत्मानं अनुसंधोह)—अपने आपको समझ, (११) (अलं गृहनरक–वासेन )—वस (अब) काफी है नरक

रामिणां बनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति। ( १२ ) अकुत्सिते कर्मणि यः वर्तते तस्य निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम्। (१३) कौंडिन्यो व्रुते। एवमेव। ततोऽहं शोकाकुलेन ब्राह्मणेन शप्तः। यद् अद्यआरभ्य मंडूकानां वाहनंभविष्यसि। इति। (१४) अतः ब्राह्मण-शापाद् वोढुं मंडूकान् अत्र तिष्ठामि। अनंतरं मंडूकेन गत्वा मंडूक-नाथस्य अग्रे तत् कथितम्। (१५) ततोऽसौ119आगत्य मंडूक-राजस्तस्य120 सर्पस्य पृष्ठं आरूढवान्। स च सर्पः तं पृष्ठे कृत्वा चित्रपदक्रमं बभ्राम। (१६) परेद्युःचलितुं असमर्थं तं दर्दुराधिपतिरुवाच121। किं अद्य भवान् मंदगतिः।

_____________________________________________________________________________________________

रूप इस घर में रहना।(१२) (रागिणां वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति )—लोभियों के लिये जंगल में भी दोष पैदा होते हैं। (निवृत्त-रागस्य गृहं तपोवनं)—निर्लोभी मनुष्य के लिये घर ही तपोवन है। (१३) ( अहं ब्राह्मणेन शप्तः)—मुझे ब्राह्मण ने शाप दिया। ( अद्य आरभ्य )— आज से। (१४) ( वोढुं मंडूकान् )—मेडकों को उठाने के लिये। (१५) (तं पृष्ठे कृत्वा) —उसको पीठ पर उठाकर। (चित्रपदक्रमं बभ्राम )—विचित्र प्रकार नाचता हुवा घूमने लगा। (१६) (किं अद्य भवान् मंदगतिः)—क्यों आज आप थक गये।

सर्पो व्रुते। (१७) देव आहार-विरहाद् असमर्थोऽस्मि। मंडूक राजः आह। अस्मदाज्ञया भेकान् भक्षय। (१८) ततो गृहीतोऽयं122 महाप्रसाद। इति उक्त्वा। क्रमशो मंडूकान् खादितवान्। अथो निर्मंडूकं सरो विलोक्य, भेकाधिपतिः अपि तेन भक्षितः।

__________________________________________________________________________

(१७) (गृहीतः अयं महाप्रसादः ) लिया यह महाप्रसाद। ( मंडूकान् खादितवान् )—मंडकों को खाया। ( निर्मडूकं सरः विलोक्य)— मेंडकों से खाली (हुवा हुवा) तालाव देखकर।

सूचना—इस पाठ का भाषांतर नहीं दिया है। पाठक स्वयं जान सकेंगे। कठिन वाक्यों का हि केवल अर्थ दिया है।

समास-विवरणम्।

(१) जीर्णोद्यानं——————जीर्णं च तद् उद्यानं चजीर्णोद्यानम्।

(२) मंदविषः——————मंदं विषं यस्य स मंद विषः।

(३) भुजगः———————भुजैः गच्छति इति भुजगः। भुजः बाहु।

(४) ब्रह्मपुरवासी—————ब्रह्मपुरे वमति इति ब्रह्मपुरवासिन्।ब्रह्मपुरवासी।

(५) सर्वगुणसंपन्नः————सर्वैः गुणैः संपन्नः सर्वगुणसंपन्नः।

(६) भूत-समागमः————भूतानां समागमः भूतसमागमः।

(७) शोकाकुलः—————————शोकेन आकुलः शोकाकुलः।

(८) मंडूकनाथः—————————मंडूकानां नाथः मंडूक-नाथः।

(६) दर्दुराधिपतिः————————दर्दुराणां अधिपतिः दर्दुराधिपतिः।

(१०) निर्मडूकं—————————निर्गताः मंडूकाः यस्मात् तत् निर्मडूकं।

१५ पंचदशः पाठः।

सकारान्तः पुल्लिंगः ‘चन्द्रमस्’ शब्दः।

(१) चंद्रमाः चंद्रमसौ चंद्रमसः
सं० (हे) चंद्रमः (हे)„ (हे)„
(२) चंद्रमसम्
(३) चंद्रमसा चंद्रमोभ्याम् चंद्रमोभिः
(४) चंद्रमसे चंद्रमोभ्यः
(५) चंद्रमसः
(६) चंद्रमसोः चंद्रमसाम्
(८) चंद्रमसि चंद्रमस्सु

इस प्रकार ‘वेधस्, सुमनस्, दुर्मनस्’ इत्यादि शब्द चलते हैं।

सकारान्तः पुल्लिंगो ‘ज्यायस्’ शब्दः।

(१) ज्यायान् ज्यायांसौ ज्यायांसः
सं० (हे) ज्यायन् (हे)„ (हे)„
(२) ज्यायांसम् ज्यायसः
(३) ज्यायसा ज्यायोभ्याम् ज्यायोभिः
(४) ज्यायसे ज्यायोभ्यः
(५) ज्यायसः
(६) ज्यायसोः ज्यायसाम्
(७) ज्यायसि ज्यायस्सु

इस शब्द के समान सब ‘यस्’ प्रत्ययान्त पुल्लिंगी शब्द चलते हैं। ‘कनीयस् गरीयस्, श्रेयस, लघीयस्, महीयस्’ इत्यादि शब्दों के रूप ज्यायस्, शब्द के समान ही होते हैं।

सकारान्तः पुल्लिंगः ‘पुम्स’ शब्दः।

(१) पुमान् पुमांसौ पुमांसः
सं० (हे) पुमन् (हे)„ (हे)„
(२) पुमांसम् पुंसः
(३) पुंसा पुंभ्याम् पुंभिः
(४) पुंसे पुंभ्यः
(५) पुंसः
(६) पुंसो पुंसाम्
(७) पुंसि पुंसु

इस शब्द के रूपों में विशेष यह है कि ‘भ्याम्, भिः, भ्यः सु’ इन व्यंजनादि प्रत्ययों के व्यागे होने पर ‘पुम्स्’ के सकार का लोप होता है। तथा स्वरादि प्रत्यय मागे आने पर नहीं होता।

हकारान्तः पुल्लिंगो ‘अनडुह्’ शब्दः।

(१) अनड्वान् अनड्वाहौ अनड्वाहः
सं० (हे)अनड्वन् (हे)„ (हे)„
(२) अनड्वाहम् अनडुहः
(३) अनडुहा अनडुद्भ्याम् अनडुद्भिः
(४) अनडुहे प्रनडुद्भयः
(५) अनडुहः
(६) अनडुहः अनडुहोः अनडुहाम्
(७) अनडुहि अनडुत्सु

इस शब्द में विशेष यह है कि द्वितीया के बहुवचन से ‘ड्व’ के स्थान पर ‘डु’ होता है। तया स्वरादि प्रत्ययों के समय अंत में ‘ह’ हरता है और व्यंजनादि प्रत्ययों के सयय ‘ह’ के स्थान पर ‘द्’ होता है। परन्तु ‘सु’ प्रत्यय के पूर्व ‘त’ होता है।

इस प्रकार साधारण और विशेष पुल्लिंगी शब्द किस प्रकार चलते हैं इसका प्रकार बताया। अब कई शब्द ऐसे हैं कि जिन का प्रयोग बहुत नहीं पाया जाता है और जिनके कुछ विलक्षण से रूप होते हैं उनके रूपों का प्रकार यहां नहीं दिया है। अर्थात् इस पाठ को स्मरण करने से पाठकों के पास विशेष उपयोगी पुल्लिंगी शब्द चलाने का ज्ञान आाजायगा। जो कुछ शब्द बाकी रहते हैं उनका वर्णन ‘स्वयंशिक्षक’ के तृतीय विभाग में होगा।

पाठकों से यहां इतनी प्रार्थना है कि वे इन १५ पाठों को दुबारा स्मरण करके प्रच्छा दृढ बनायें। ताकि कोई बात भूल न

जाय। जब ये १५ पाठ ठीक ठीक स्मरण होंगे तब ही यागे बढने कायन करें।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

[TABLE]

इतर।

अग्रतः—आगे प्रतीपं—विरुद्ध

यिक्रा।

[TABLE]

विशेषणों का उपयोग।

[TABLE]

**[१२] मृत्य—धर्माः **
(१) भृत्या अपि123 त एव124 ये संपतेः विपत्तौ सविशेषं सेवन्ते
(२) समुन्नम्यमानाः सुतरां अवनमन्ति आलाप्यमाना न समालापाः सज्जायन्ते
(३) स्तूयमाना नोत्सिच्यन्ते क्षिप्यमाणा न125 अपरागं गृह्णन्ति
(४) उच्यमाना न126प्रतीपं भाषन्ते पृष्ठाहित127प्रिय विज्ञपयन्ति
(५) अनादिष्टाः कुर्वन्ति कृत्वा न जल्पन्ति
(६) कथ्यमानाअपि128 लज्जां उद्वहन्ति महाहवेष्वग्र129तो ध्वजभूता इव130 लक्ष्यन्ते
(७) दानकाले पलाय्य पृष्ठतो निलीयन्ते धनात्स्नेहं भूयांस मन्यन्ते
(८) जीवितात् पुरोमरणं अभिवांछन्ति गृहाद् अपि स्वामिपादमूले सुखं तिष्ठन्ति

[TABLE]

समास—विवरणम्।

(१) भृत्यधर्माः———————————भृत्यस्य सेवकस्य धर्माः कर्तव्याणि।

(२) सविशेषं————————————विशेषेण सहितं सविशेषम्।

(३) दानकालः———————————दानस्य कालः दानकालः।

(४) स्वामिपाद मूलं—————————स्वामिनः पादौ स्वामिपादौ।स्वामिपादयोः मूलं स्वामि-पाद-मूलम्।

(५) असंतोषः———————————न संतोषः असंतोषः।

(६) अस्वाधीनसकलेंद्रियवृत्तयः—————सकलानि च तानि इंद्रियाणिसकलेंद्रियाणि। सकलेंद्रियाणां वृत्तयः
सकलेंद्रिय वृत्तयः। न स्वाधीनाअस्वाधीनाः। स्वाधीनाः सकलेंद्रिय-
वृत्तयःयेषां ते अस्वाधीनसकर्जेद्रियवृत्तयः।

(७) अनपहत-करचरेणाः———————करौच चरणौ च करचरणाः। न अपहतः अनपहतः। अनपहताः करचरणाः येषां तेअनपहतकरचरणाः।

१६ षोडशः पाठः।

पूर्व पाठ में पाठकों से प्रार्थना की है कि वे पूर्वोक्त १५ पाठों का अध्ययन परिपूर्ण होने से पूर्व ही इस पाठ का प्रारंभ न करें। द्विवार या त्रिवार पूर्व पाठों का अध्ययन करके उनमें दिये हुवे नियमादि की अच्छी उपस्थिति होने के बाद इस पाठ को प्रारंभ करें।

पहिला अध्ययन कच्चा करके ही आगे बढ़ने की इच्छा प्रायः विद्यार्थियों में हुवा करती है। परन्तु पाठकों को ध्यान रखना चाहिए कि इस प्रकार की इच्छा मागे के उन्नति की घातक है। इसलिये पाठकों को उचिन है कि वे इस प्रकार की घातक इच्छा के काबू में न आकर और समय का ख्याल न करते हुवे जो कुछ हर दिन पढ़ना है, उसको (थोड़ा ही क्यों न हो ) दृढ़ करने का यत्न करें। तथा आठ दिनों के अध्ययन के पश्चाद् किये हुवे पाठों को दुबारा स्मरण करें, तथा एक महीने के अध्ययन के पश्चाद् किये हुवे पाठों को नये सिरे से पुनः अध्ययन करें। तथा संपूर्ण पुस्तक समाप्त होने पर फिर उसी का दुबारा अध्ययन कर के तत्पश्चाद् दूसरा पुस्तक प्रारंभ करें। इस प्रकार करने से ही पाठकों का अध्ययन ठीक ठीक होगा, तथा उनका प्रवेश संस्कृत मंदिर में होगा। अर्थात जो पाठक इस प्रकार अध्ययन करेंगे वे ही इस स्वयं शिक्षक ग्रंथमाला से अपनी उन्नति कर सकते हैं। अस्तु।

अब पाठकों ने पूर्वोक्तl पाठ ठीक स्मरण किये हैं ऐसा समझ कर उनके आगे के अध्ययन के लिये एक दो पाठों में कुछ सर्वनामों के रूप देकर पश्चात् नपुंसकलिंगी शब्दोंके रूप बनाने का प्रकार लिखेंगे। आशा है कि पाठक पूर्ववत् उसको भी दृढ़ता पूर्वक स्मरण करेंगे।

प्रायः सर्वनामों के लिये संबोधन नहीं होता है। परन्तु ‘सर्व विश्व’ आदि कई ऐसे सर्वनाम हैं कि जिनका संबोधन होता भी है। नाम वह होते हैं कि जो पदार्थों के नाम हों। जैसाः—कृष्णः, रामः, गृहं, नगरं, दीपः, लेखनी, पुस्तकं इत्यादि। तथा सर्वनाम उनको बोलते हैं कि जो नामों के बदले भाते हैं। जैसा—सः (वह), त्वं (तू), अहं ( मैं ), सर्व (सब), उभ (दो), कः (कौन), अयं (यह ), इत्यादि।

अकारान्तः पुल्लिंगः ‘सर्व’ शब्दः।

(१) सर्वः सर्वौ सर्वे
सं० (हे) सर्व (हे)„ (हे)„
(२) सर्वम् सर्वे
(३) सर्वेण सर्वाभ्याम् सर्वैः
(४) सर्वस्मै सर्वेभ्य
(५) सर्वस्मात्
(६) सर्वस्य सर्वयोः सर्वेषाम्
(७) सर्वस्मिन् सर्वेषु

इसी प्रकार ‘विश्व, एक, उभय’ इत्यादि सर्वनामों के रूप

होते हैं। ‘उभ’ सर्वनाम का केवल द्विवचन में ही प्रयोग होता है। जैसा :—

[TABLE]

इतने ही रूप सातों विभक्तियों के ‘उभ’ शब्द के होते हैं। “उभ” शब्द का “दो” ऐसा ही अर्थ होने से एकवचन तथा बहुवचन उसका संभव ही नहीं। इस कारण इस सर्वनाम के एकवचन–बहुवचन के रूप होते ही नहीं।

अकारान्तः पुल्लिंगः ‘पूर्व’ शब्दः।

(१) पूर्वः पूर्वौ पूर्वे,पूर्वाः
(२) पूर्वम्
(३) पूर्वेण पूर्वाभ्याम् पूर्वैः
(४) पूर्वस्मै, पूर्वाय पूर्वेभ्यः
(५) पूर्वस्मात्, पूर्वात्
(६) पूर्वस्य पूर्वयो पूर्वेषाम्
(७) पूर्वस्मिन्, पूर्वे पूर्वेषु

इस शब्द के जिस जिस विभक्ति के दो दो रूप होते हैं वे वहां ही दिये हैं पाठक सोचेंगे तो उनको पता लगेगा कि यह शब्द किसी अंश में ‘देव’ शब्द के समान ही चलता है और किसी अंश में ‘सर्व’ शब्द के समान चलता है। इसलिये इसके दो दो रूप होते हैं।

‘पूर्व’ शब्द के समान ही ‘पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर’ इत्यादि शब्द चलते हैं।

‘स्व’ तथा ‘अन्तर’ ये दो सर्वनाम ऐसे हैं कि इनके, ‘पूर्व’ तथा ‘देव’ इन दो शब्दों के समान रूप होते हैं। इस विषय में नियम यह है :—

** २८ नियम—** ‘आत्मीय, स्वकीय’ अर्थ में ‘स्व’ के रूप ‘पूर्व’ के समान होते हैं। परन्तु ‘जाति और धन’ अर्थ में ‘स्व’ शब्द के रूप ‘देव’ शब्द के समान होते हैं।

** २६ नियम—**‘बाह्य, परिधानीय’ इन अर्थो में ‘अंतर’ शब्द ‘पूर्व’ शब्द के समान चलता है। परन्तु दूसरे अर्थ में उनके ‘देव’ शब्द के समान रूप होते हैं। जैसा :—

स्वः— (१) स्वः स्वौ स्वे, स्वाः
(५) स्वस्मात्, स्वात् स्वाभ्याम् स्वेभ्यः
(७) स्वस्मिन्, स्वे स्वयोः स्वेषु
अंतरः— (२) अंतरम् अंतरौ अंतरे, अंतरान्
(३) अंतरेगा अंतराभ्याम् अंतरैः
(४) अंतरस्मै, अंतराय अंतरेभ्यः
(६) अंतरस्मात्, अंतरात्
(७) अंतरस्मिन्‚ अंतरे अंतरयोः अंतरेषु

इन दो शब्दों के अन्य विभक्तियों के रूप पाठक स्वयं बना सकते हैं। पाठकों को उचित है कि वे इन दोनों शब्दों के दोनों प्रकार के रूप अलग २ बनाकर कागज पर लिखें।

** ३० नियम—** " प्रथम " सर्वनाम का पुल्लिंग में केवल प्रथमा विभक्ति का ‘पूर्व’ शब्द के समान रूप होता है। अन्य विभक्तियों का ‘देव’ शब्द के समान होता है। इसी प्रकार ‘कतिपय, अर्ध, अल्प, चरम, द्वितय, त्रितय, चतुष्टय, पञ्चतय’ इत्यादि सर्वनामों के रूप होते हैं।

(१) प्रथमः प्रथमौ प्रथमे, प्रथमाः
(२) प्रथमं प्रथमान्

शेष देव शब्द के समान है।

पाठकों को चाहिये कि वे इनके रूप बनाकर लिखें, ताकि किसी प्रकार का संदेह न रहे।

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

अन्य

परमार्थतः—वास्तव में भूमिष्टं—जमीन में गाड़ा हुवा

विशेषणों का उपयोग

[TABLE]

(१३) चारुदत्त—सदने चौर्यम्।

(१) गच्छतिकाले कस्मिंश्चिद्83 दिने गांधर्व श्रोतुं गतः चारुदत्तः, अतिक्रांतायां अर्धरजन्यां गृहं आगत्य समैत्रेयः सुष्वाप। (२) सुप्तयोरुभयोः131 शर्विलक इति132 कश्चिद ब्राह्मणचारः स्तेयन द्रव्यं आप्तुं चारुदत्तस्य सदनं संधिं उत्पाद्य प्रविवेश।

_____________________________________________________________________

(१) (गच्छति काले )—समय जाने पर। ( अतिक्रांतायां अर्धरजन्यां )—आधी रात होने पर। (२) (सुप्तयोः उभयोः)—दोनों सो जाने पर। (सांधिंउत्पाद्य प्रविवेश )—सुराख करके

(३) प्रविश्य च मृदंग—पणव—वीणा—वंशादीनिवाद्यानि पुस्तकांश्च133 दृष्ट्वापरं विषादं अगच्छत्। (४) आत्मानं वक्ति च ‘कथं नाट्याचार्यस्य गृहं इदम्। अथवा परमार्थतो134 दरिद्रोऽयम्135। उत राजभयाच् चौर136-भयाद् वा भूमिष्ठं द्रव्यं धारयति’। (५) ततः परमार्थदरिद्रोऽयं इति निश्चित्य, भवतु गच्छामि इति गन्तुं व्यवसिते मैत्रेय उदस्वप्नायत137। (६) ‘भो वयस्य, सन्धिः इव दृश्यते, चौरमिव पश्यामि। तद् गृहातु भवान् इदं सुवर्णभाण्डम्’ इति। (७) ततः च तद्वचनाद् इतस्ततो दृष्ट्वा जर्जर—स्नान—शाटी—निबद्धं अलंकरणभाण्ड उपलक्ष्य ग्रहीतुमना अपि ‘न

____________________________________________________________________________________

घुसगया। (३) (परं विषादं अगच्छत)—बहुत दुःख कोप्राप्तहुवा। ( ४ ) ( आत्मानं वक्ति)—अपने आपसे बोलता है। (परमार्थतः दरिद्रः)—वास्तव में गरीब। (भूमिष्ठं द्रव्यं धारयति) भूमि के अंदर पैसारखता है। (५) (मैत्रेयः उदस्वप्नायत )—मैत्रेय को स्वप्ना मार्गेया। (७) ( इतस्ततो दृष्ट्वा )—इदर उदर देख कर।( जर्जर—स्नानशाटी निबंद्ध )—स्नान करने के पुराने कपडे में बांधा हुवा। ( ग्रहीतुमना)

युक्तं तुल्यावस्थं कुलपुत्रजनं पीडयितुम्। तद् गच्छामि।’ इति मनश्चकार138। (८) ‘ततो मैत्रेय139श्चारुदत्तं140 उद्दिश्य पुनः उदस्वप्नायत। ‘भोवयस्य। शोपितोऽसि141 गोब्राह्मणकाम्यया, यदि एतत् सुवर्णभांडम् न गृह्णासि। (६) ततो निर्वापिते142 प्रदीपे ‘इदानीं करोमि ब्राह्मणस्य प्रणयम्’ इति भांडं जग्राह शर्विलकः मैत्रेयस्य हस्ताद्। (१०) ग्रहण—काले च मैत्रय उत्नायमानः आह—“भो, वयस्य, शीतलस्ते143 हस्तग्रहः इति”। ( ११ ) तस्मिन् चौरे निष्क्रामति गृहाद् रदनिका प्रबुद्धा सत्रासम् ’ हा धिक्, हा धिक्। अस्माकं गृहे संधिं कर्तित्वा चौरो निष्क्रामति। ( १२ )

_______________________________________________________________________________________

लेने की इच्छा। ( न युक्तं तुल्यावस्थं कुलपुत्रजनं पीडयितुं )—समान अवस्था में रहने वाले कुलीन मनुष्यों को कष्ट देना योग्य नहीं। ( इति मनश्चकार )—ऐसा दिल किया। (८) (शापितोऽसि गोब्राह्मणकाम्यया)—शाप है तुझे गाय और ब्राह्मण के शपथ का। (९) (निर्वापिते प्रदीपे)—दीप बुझाने पर। (१०) (शीतलस्ते हस्तग्रहः )—थंडा हैं तेरा हाथ का स्पर्श। ( १२ )

आर्य मैत्रेय उत्तिष्ठोत्तिष्ठ144। अस्माकं गृहे संधिं कृत्वा चीरो निष्क्रान्तः’ इति उच्चैः आक्रंद। सोऽपि उत्थाय चारुदत्तं प्रबोधयामास। (१३) चारुदत्तस्तु ‘आशान्वितः चौरोऽस्माकं महतीं निवासरचनां दृष्ट्वा सन्धिच्छेदनखिन्न इव निराशो गतः। सुहृद्भ्यः किं असौ कथयिष्यति, तपस्वी—सार्थवाह—सुतस्य गृहं प्रविश्य न किंचिन् मया समासादितम्’ इति तं एव चौरंअनुशुशोच।

मृच्छकटिकम्।

___________________________________________________________________

(उत्तिष्ठोत्तिष्ठ)—उठो ऊठो (उच्चैः आनंद)—ऊंचे से बोली। (१३) ( आशान्वितः चौरः)—आशा युक्त चोर। ( महतीं निवासरचनां दृष्ट्वा )—बडा महल देख कर (संधि–छेदन–खिन्न इव निराशो गतः )—छेद करके दुःखी बनकर निराश होकर गया। ( न किंचिन्मया समासादित) नहीं कुछ भी मैंने प्राप्त किया।

_______________________________________________________________________________

समास—विवरणम्।

(१) समैत्रेयः—————————मैत्रेयेण सहितः समैत्रेयः।

(२) मृदंग-पगाव-वंशादीनि———मृदंगश्च पणवश्व वंशश्च मृदंगपणववंशाः। मृदंगपणववंशानि आदीनि येषां तानि मृदंगपणववंशादीनि।

(३) भूमिष्ठं—————————भूम्यां तिष्ठति इति भूमिष्ठम्।

(४) आशान्वितः———————आशया अम्बितः आशान्वितः।

(५) जर्जर-स्नानशाटी-निबद्ध———स्नानार्थं शादी स्नानशाटी। जर्जराचासौ स्नानशाटी च जर्जरस्नान शादी। अर्जरस्नानशाटयानिबद्धं

जर्जस्नानशाटीनिबद्धम्।

(६) सत्रासं——————————त्रासेन सहितं सत्रासम्।

१७ सप्तदशः पाठः।

‘यद्’ शब्दः (पुल्लिंगः)

(१) यः यौ ये
(२) यं यान्
(३) येन यैः
(४) यस्मै याभ्याम् येभ्यः
(५) यस्मात्
(६) यस्य ययोः येषाम्
(७) यस्मिन् येषु

इसी प्रकार ‘अन्य अन्यतर, इतर, कतर, कतम, त्व’ इत्यादि सर्वनामों के रूप बनते हैं। ‘अन्यतम’ सर्वनाम के रूप ‘देव’ शब्द के समान होते हैं यह अवश्य ध्यान में रखना चाहिये। नहीं तो उनके रूप ‘यद्’ के समान बनाकर पाठक भूल करेंगे।

‘किम्’ शब्दः (पुल्लिंगः)

(१) कः कौ के
(२) कम् कान्
(३) केन काभ्याम् कैः

इत्यादि ‘यद्’ शब्द के समान ही रूप होते हैं।

‘तद्’ शब्दः (पुलिगः)

(१) सः तौ ते
(२) तम् तौ तान्
(३) तेन ताभ्याम् तैः

इत्यादि ‘यद्’ शब्द के समान ही रूप होते हैं।

‘द्वि’ शब्दः (पुल्लिंगः)

इसका केवल द्विवचन ही होता है।

(१) द्वौ (५) द्वाभ्याम्
(२) द्वौ (६) द्वयोः
(३) द्वाभ्याम् (७) द्वयोः
(४) द्वाभ्याम्

‘त्रि’ शब्दः (पुंसि)

इस शब्द का केवल बहुवचन मेही प्रयोग होता है।

(१) त्रयः (५) त्रिभ्यः
(२) त्रीन् (६) त्रयाणाम्
(३) त्रिभिः (७) त्रिषु
(४) त्रिभ्यः

‘चतुर्’ शब्दः (पुंसि) बहुवचनमेव।

(१) चत्वारः (४-५) चतुर्भ्यः
(२) चतुरः (६) चतुर्याम्
(३) चतुर्भिः (७) चतुर्षु

‘पञ्चन्, षष्, सप्तन्, अष्टन्, नवन, दशन्, एकादशन्, द्वादशन्, त्रयोदशन्, चतुर्दशन्, पञ्चदशन्, षोडशन, सप्तदशन्, अष्टादशन्’ ये शब्द इसी प्रकार नित्य बहुवचनान्त चलते हैं।

(१-२) पञ्च षट् सप्त अष्टौ नव दश

(३) पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिःअष्टभिः नवभिः दशभिः

(४-५ ) पञ्चभ्यः षड्भ्यः सप्तभ्यः अष्टाभ्यः नवभ्यः दशभ्यः

(६) पञ्चानाम् षण्णाम् सप्तानाम् अष्ठानाम् नवानाम् दशानाम्

(७ पञ्चसु षट्सु सप्तसु अष्टासु नवसु दशसु

इसी प्रकार ‘एकादश’ वगैरे शब्द चलाने चाहिए। पाठकों को चाहिए कि वे इन सब शब्दों के रूप बनाकर लिखें। ताकि कभी भूल न हो जाय। क्योंकि ये शब्द बहुत उपयोगी हैं और दैनिक व्यवहार में प्रयुक्त होते हैं इसलिये इनकी ओर विशेष ध्यान देना उचित है।

** ३१ नियम—**

पदान्तके ‘न्’ के पश्चाद्’ च अथवा छ’ आनेसे न्का अनुस्वार व श् बनता है

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उदाहरणः—तान् +चोरान् =तांश्चोरान्

सर्वान्+ छात्रान्=सर्वांश्छात्रान्

तस्मिन् + टीका=तस्मिंष्टीका

तान्+ तरुन्=तांस्तरून्

कान्+ जनान्=काञ्जनान्

यान्+ शत्रुन् = याञ्च्छत्रून्

ता + डिंभान्= ताण्डिंभान्

तान् + लोकान्=तांल्लोकान्

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

उक्तिः—भाषणा कुक्षिः—पेट, बगल

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

विशेषणों का उपयोग

[TABLE]

________________

(१४) सिंहानुचराणाम् कथा।

(१) अस्ति कस्मिंश्चिद् वनोद्देशे मदोत्कटो नाम सिंहः। तस्य सेवकास्त्रयः145 कुको व्याघ्रो जंबूकश्च146। (२) अथ तैर्भ्रमद्भिः सार्थाद् भ्रष्टः कश्चिद् उष्ट्रोदृष्टः147 पृष्टश्च148। कुतो भवान्149 आगतः। ( ३ ) स च आत्मवृत्तांतं अकथयत्। ततस्तैर्नीत्वाऽसौ150 सिंहाय समर्पितः। तेन अभयवांच दत्वा चित्रकर्ण इति151 नाम कृत्वा स्थापितः। ( ४ ) अथ कदाचित् सिंहस्य शरीर- वैकल्याद् भूरि-दृष्टिकारणात् च आहारं अलभमानास्ते152 व्यग्रा बभूवुः153

____________________________________________________________________________

(१)(वनोदेशे )—जंगल के एक स्थान में। (मदोत्कटः)—घमंड से भरा डुबा—सिंह का नाम। (२) (सार्थाद्भष्टः कश्चिदुष्ट्रो दृष्टः)—काफला से ष्यलग हुवा हुबा कोई एक ऊंठ देखा। (पृष्टश्च ) और पूछ। (कुतो भवानागतः )—कहां से आप आये। (३) ( ततस्तैर्नीत्वाऽसौ सिंहाय समर्पितः) नंतर उनोने लेजाकर यह सिंह के लिये अर्पण किया। ( तेन अभयवाचं दत्वा )—उसने अभयवचन देकर। (४) (शरीर—चैकल्पात )—शरीर अस्वस्थ होने से । (भूरि

(५) ततस्तैः154 आलोचितम्। चित्रकर्णेएव यथा स्वामी व्यापादयति तथाऽनु155ष्ठीयताम्। (६) किं अनेन कण्टकभुजा। व्याघ्र उवाच। स्वामिनाभय156वाचं दत्वाऽनुगृहीतः। तत्कथं एवं संभवति। (७) काको व्रुते। इह समये परिक्षीणः स्वामी पापं अपि करिष्यति। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्। (८) इतिसंचित्य सर्वे सिंहान्तिकं जग्मुः। सिंहेन उक्तम्। आहारार्थ किंचित प्राप्तम्। (९) तैः उक्तम्। यत्नाद् अपि न प्राप्तम्।

____________________________________________________________________________

वृष्टिकारणात्) बहुत वर्षा होने से। (५) (तैरालोचितं)—उनों ने सोचा। (यथा स्वामी व्यापादयति तथा ऽनुष्ठीयतां )—जैसा स्वामी खायगा वैसा कीजिये। ( ६ ) ( किमनने कण्टकभुजा)—क्या इस कांटे खाने वाले ने (करना है)(अनुगृहीतः ) मेहरबानी की (तत् कथमेव संभवति)—तो कैसे ऐसा हो सकता है। (७) (परिक्षणः) अशक्त। (बुभुक्षितः किं न करोति पापं )—भूखा कौनसा पाप नहीं करता। (८) (इति संचिंत्य) इस प्रकार विचार करके। (सर्वे सिंहान्तिकं जग्मुः ) लब शेर के पास गये। (आहारार्थं) भोजन के लिये। (९ ) ( कोऽधुना जीवनोपायः )—कौनसा अब

किंचित्। सिहेनोक्तम्157। कोऽधुना158 जीवनोपायः। (१०) देव स्वाधीनाहार-परित्यागात् सर्वनाशः अयं उपस्थितः। (११) सिंहेनोक्तम्।अत्र आहारः कः स्वाधीनः। काकः कर्णे कथयति। चित्रकर्ण इति (१२) सिंहो भूमि स्पृष्ट्वा कर्णौ स्पृशति। अभयवाचं दत्वा धृतोऽयं159 अस्माभिः। तत् कथं संभवति। (१३) तथा च सर्वेषु दानेषु अभयप्रदानं महादानं वदन्ति इह मनीषिणः। (१४) काको ब्रूते नासौ160स्वामिना व्यापादयितव्यः। किंतु अस्माभिरेव161 तथा कर्तव्यं यथा असौ स्वदेहदानं अंगी ___________________________________________________________________________

जिंदा रहने के लिये उपाय है। (१०) (स्वाधीनाऽऽहारपरित्यागात्) अपने पास का भोजन छोडने से। ( सर्वनाशो ऽयमुपस्थितः )—सबका यह नाश आरहा है। (११) (अत्राहारः कः स्वाधीनः )—यहां कौनसा भोजन अपने पास है। ( १२ ) ( भूमिं स्पृष्ट्वा कर्णौ स्पृशति )—जमीन को स्पर्श करके कानों को हाथ लगाता है। (१३) (सर्वेषु दानेषु अभयदानं महादानं वदन्ति )—सब दानों में अभयदान बड़ा दान है ऐसा विद्वान कहते हैं। (१४) (असौ स्वदेहदानमंगीकरोति )— यह अपना शरीर देना स्वीकार करेगा।

करोति। (१५) सिंहः तत् श्रुत्वा तुष्णीं स्थितः। ततोऽसौ119 वायसः कूटं कृत्वा सर्वान् आदाय सिंहान्तिकं गतः। (१६) अथ काकेन उक्तम्। देव यत्नाद् अपि आहारो न प्राप्तः। अनेकोपवास-खिन्नः स्वामी। ( १७ ) तद् इदानीं मदीयमांसं उपभुज्यताम्। सिंहेन उक्तम्। भद्र वरं प्राणपरित्यागः न पुनः इदृशी कर्मणि प्रवृत्तिः। (१८) जंबूकेन अपि तथोक्तम्। तः सिंहेन उक्तम्। मैवम्। अथ चित्रकर्णोऽपि जातविश्वासः तथैव आत्मदानं आह। (१९) तद् वदन् एव असौ व्याघ्रेण कुक्षिं विदार्य व्यापादितः सर्वैर्भक्षितश्च162। अतोऽहं163

_____________________________________________________________________________________________

(१५) ( तूष्णीं स्थितः )—चुपचाप रहा। ( वायसः कूटं कृत्वा)—कौवा कपटक सलाह करके (सर्वानादाय सिंहान्तिकं गतः) सब को लेकर शेरके पास गया। (१६) ( अनेकोपवास-खिन्नः)—अनेक उपवासों में दुःखित। (१७) (मदीयमांसं उपभुज्यताम् )—मेरा गोश्त खाव। ( वरं प्राणपरित्यागः )—मरना अच्छा है। ( न पुनः कर्मणि ईदृशी प्रवृत्तिः) —परन्तु कर्म में ऐसा प्रयत्न ठीक नहीं। (१८) (जातविश्वासः) जिसका विश्वास हुवा है। (आत्मदानमाह)—आपना दान बोला। (१९) ( कुक्षिं विदार्य)—बगल फाड कर।

ब्रवीमि सतां आप मतिः खलोक्तिभिःदोलायतइति164

हितोपदेशः।

( सतामपि मतिःखलाोक्तिभिदोलायते ) —सज्जनों की भी बुद्धि दुष्टों के भाषण से चंचल होती हैं।

१८ अष्टादशः पाठः।

‘अस्मद्’ शब्दः

( इनके तीनों लिंगों में समान ही रूप होते हैं)

(१) अहम् आवाम् वयम्
(२) माम्, मा आवाम्, नौ अस्मान्, नः
(३) मया आवाभ्याम् अस्माभिः
(४) मह्यं‚मे आवाभ्यां‚ नौ अस्मभ्यं,नः
(५) मत् आवाभ्याम् अस्मत्
(६) मम, मे आवयोः, नौ अस्माकं, नः
(७) मयि आवयोः अस्मासु

इस शब्द के द्वितीया, चतुर्थी, षष्ठी इन तीनों विभक्तियों के प्रत्येक वचन के दो दो रूप होते हैं। इसी प्रकार ‘युष्मद्’ शब्द के भी होते हैं। देखिये :—

(१) त्वम् युवाम् यूयम्
(२) त्वां‚ त्वा युवाम्, वाम् युष्मान्,वः
(३) त्वया युवाभ्याम् युष्माभिः
(४) तुभ्यम्‚ ते युवाभ्याम्, वाम् युष्मभ्यं, वः
(५) त्वत् युवाभ्याम् युष्मत्
(६) तव,ते युवयोः, वाम् युष्माकं‚ वः
(७) त्वयि युवयोः युष्मासु

इस शब्द के द्वितीया, चतुर्थी तथा षष्ठी के प्रत्येक वचन के दो दो रूप होते हैं।

‘अदस्’ शब्दः (पुंसि)

(१) असौ अमू अमी
(२) अमुम् अमून्
(३) अमुना अमूभ्याम् अमीभिः
(४) अमुष्मै अमीभ्यः
(५) अमुष्मात्
(६) अमुष्य अमुयोः अमीषाम्
(७) अमुष्मिन् अमीषु

३२ नियम—

पदान्त के स का ‘च, छ. श् सामने आने पर च् बनता है।

„ „ ज्ञ झ „ ज् „

„ „ ट् ठ् „
ट् „

„ „ ड ढ „ ड् „

„ „ ल् „
ल् „

उदाहरणः—

तत् + चरणौ= तच्चरणौ

तत् + छाया=तच्छाया

तत् +शास्त्रम् =तच्छास्त्रम्

तत् + जलम्=तज्जलम्

यत् + भर्भरः=यज्झर्भरः

तत् +टीका=तट्टीका

यत् + जयनं=यड्डयनम्

तस्मात् + लोकात्=तस्माल्लोकात्

यह नियम बहुत उपयोगी है। जहां जहां संभव हो वहां वहां नियम का उपयोग करके ठीक प्रकार से संधि करने चाहिए। ताकि संधि करने का अभ्यास दृढ़ हो जाय।

३३ नियम—‘त्’ के बाद अनुनासिक आने से ‘त्’ का ‘न्’ होता है तथा विकल्प से ‘द्’ भी होता है।

तत् +मनः =तन्मनः, तद्मनः

यत् + नमनम्=यन्नमनम्, यद्नमनम्

तस्मात् + नित्यम् = तस्मान्नित्यम्, तस्माद् नित्यम्

यहां पाठकों ने स्मरण रखना चाहिए कि नकार होने वाला पहिला रूप ही बहुत प्रसिद्ध है।

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

निःसारता—खुष्की, सार न होना निःश्रीकता—निःसारता

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

कथा में आये हुए विशेष शब्दों के अध्यात्मिक अर्थ

[TABLE]

ये अर्थ वास्तविक इन शब्दों के नहीं परन्तु कथा के प्रसंग से माने हुए है। इतना पाठकों को ध्यान रखना चाहिये।

**[१५] प्रबोधकृद् रूपकम् **
(१) अस्ति विश्वमंडलेषु नवद्वारं नाम नगरम् तत्र च बभूव पतिः आनंदधर्मा नाम
(२) आसीच्च165अस्य कोऽपि106 सचिवः अन्ये च नियोज्याबहवः166
(३) सरल-तम-मतिरसौ167 भूपः सर्वेषु अपि एतेषु तथा विश्व सिति तथा च स्निह्यति तथैव
चैतान्168पालयति, यथैते169सर्वेऽपि170 प्रत्येकं वयमेव भूपाला इति मन्यन्ते स्म
(४) गच्छता च कालेन विभवसहजेन अनात्मज्ञ-भावेन आक्रान्ताः सर्वेऽपि स्वतरं निकृष्टं आत्मानं एव व प्रधानं मन्वाना आनंदधर्माणं अपि अधिचिक्षिपुः
(५) उपकंपन च विवादं अन्योऽन्यम्171 अथ एवं विवदमाना एतेकमपि सार्वभौमं उपगत्य प्रोचुः
(६) सार्वभौमः प्राह भद्रमुखाः श्रूयतां तत्वम्
निःसारतां चानुपयुक्त172तां चोपग173च्छेयुः स एव प्रधानतमः
(७) तत् क्रमशः उपक्रम्य निश्चयतां कः प्रधान इति तद् आकर्ण्यप्रसन्नान्तराः सर्वेऽपि तथा कर्तु प्रतिश्रुतवन्तः
(८) अथैतेषु174 प्रथमं प्रातिष्ठत कोऽपि नियोज्यः प्रकाशानन्दो नाम175
(९) आ-वत्सरं च देशान्तरे पर्यट्य प्रत्यावृत्तोऽयं176 अन्यान् पप्रच्छ कथं वा भवन्तो मयि177 गतेऽवर्वन्त इति
(१०) अन्ये प्राहुः यथा एक-सदन-वर्तिषु पुरुषेषु एकस्मिन् मृते, अपरे वर्तेरंस्तया178 इति
(११) ततोऽपरः सौरभानंदो नाम प्रायात् तस्मिन् प्रतिनिवृते स्पर्शानंदः
(१२) अथ महीपतिः आनंदवर्मा प्रस्थातुं उपाक्रमत प्रतिष्ठमान एव179 च अस्मिन्विकल-विकला इवअभवन् अन्ये
(१३) निःश्रीकतां च अवापुः ऊचतुश्च180सांजलिवंधम्
(१४) भवन्तं अन्तरा हि निश्चेतना इव181 संवृत्ताः स्म इति

[TABLE]

समास—विवरणम्।

(१) प्रबोधकृत—————————प्रबोधं ज्ञानं करोतीति प्रबोधकृत्। ज्ञानकृत्।

(२) नवद्वारं——————————नव द्वाराणि यस्मिन् तत् नवद्वारम्। नवद्वारयुक्तम्।

(३) सरल-तम-मतिः———————अतिशयेन सरला सरलतमा। सरलतमा मतिः ग्रस्य स सरल तममतिः। सरलतमबुद्धिः।

(४) विभव-सहजः————————विभनेन सहजायते इति विभवसह-जः।

(५) अनात्मशभाव————————आत्मानं जानाति इति आत्मज्ञः। न आत्मज्ञःअनात्मज्ञः।अनात्मज्ञस्य भावः। आत्मज्ञानहीनता।

(६) प्रसन्नांतरः—————————प्रसन्नं अंतरं येषां ते प्रसंन्नान्तराः। हृष्टमनस्काः।

(७) अविच्छिन्न-सुखशालि-तां————अविच्छिन्ना चासौ सुखशालिता च अविच्छिन्नसुखशालिता

१९एकोनविंशः पाठ

‘एतद्’ शब्दः (पुंसि)

(१) एषः एतौ एते
(२) एतम्, एनम् एतौ,एनौ एतान्,एनान्
(३) एतेन, एनेन एताभ्याम् एतैः
(४) एतस्मै एतेभ्यः
(५) एतस्मात्
(६) एतस्य एतयोः,एनयोः एतेषाम्
(७) एतस्मिन् „ „ एतेषु

‘इदम्’ शब्दः (पुंसि)

(१) अयम् इमौ इमे
(२) इमम्,एनम् इमौ,एनौ इमान्,एनान्
(३) अनेन,एनेन आभ्याम् एभिः
(४) अस्मै एभ्यः
(५) अस्मात्
(६) अस्य अनयोः एनयोः एषाम्
(७) अस्मिन् „ „ एषु

इन दोनों शब्दों के जिन जिन विभातियों के दो दो रूप होते हैं वे ऊपर दिये हैं। ये दोनों शब्द अत्यंत उपयोगी हैं इस कारण पाठकों को चाहिए कि वे इनको ठीक प्रकार से स्मरण करें, और कभी न भूलें।

‘प्रथम’ शब्दः (पुल्लिंग में)

(१) प्रथमः प्रथमौ प्रथमे, प्रथमाः
(२) प्रथमं प्रथमान्
(३) प्रथमेन प्रथमाभ्याम् प्रथमैः

देव शब्द के समान इसके शेष रूप होते हैं, केवल प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के दो रूप होते हैं। नियम ३० में ( पृ० १६६ पर) इस बात का उल्लेख किया है। वही बात स्पष्टहोने के लिये यहां लिखी है। इसी प्रकार ‘द्वितय, त्रितय’ इत्यादि नियम ३० में कहे हुवे शब्दों के विषय में जानना चाहिए।

‘द्वितीय’ शब्दः (पुंसि)

(१) द्वितीयः द्वितीयौ द्वितीये, द्वितीयाः
(२) द्वितीयम् द्वितीयान्
(३) द्वितीयेन द्वितीयाभ्याम् द्वितीयैः
(४) द्वितीयस्मै, द्वितीयाय द्वितीयेभ्यः
(५) द्वितीयस्मात् द्वितीयात्
(६) द्वितीयस्य द्वितीययोः द्वितीयानाम्
(७) द्वितीयस्मिन् द्वितीये द्वितीयेषु

इसी प्रकार तृतीय शब्द के रूप होते हैं। पूर्वोक्त ‘द्वितय, त्रितय’ शब्द तथा यहां कहे हुवे ‘द्वितीय, त्रितीय’ शब्द भिन्न भिन्न हैं। यह बात पाठकों ने भूलनी नहीं चाहिए।

इस प्रकार सर्वनामों के रूपों का विचार हो गया। यहां तक नाम, तथा सर्वनाम का जो विचार हुवा है, तथा जो जो रूप दिये हैं, वे सब पुल्लिंग में समझने चाहिए। स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग के शब्दों के रूप भिन्न प्रकार से होते हैं। उनका आगे वन होगा।

**३४ नियम—**पदान्त के ‘त्’ का सामने ‘श्’ आने से च् बनता है तथा शकार का विकल्प से छ बनता है।

**३५ नियम—**पदान्त के ‘न्’ का सामने ‘श्’ आने से ञ्बनता है तथा शकार का विकल्प से छ बनता है। उदाहरणः—

तत् + शस्त्रम्=तच्शस्त्रम्, तच्छस्त्रम्

तान् + शावकान्=ताञ्शावकान्, ताञ्छावकान्

३६ नियम—‘ञ् और श’ के बीच में, तथा ‘ञ्और छ’ के बीच में विकल्प से ‘च्’ लगाया जाता है। उदाहरणः—

तान् + शत्रून्—ताञ्शत्रून्, ताञ्छत्रून्, ताञ्च्शत्रून्, ताञ्च्छत्रून्।

इस प्रकार इस संधी के चार रूप बनते हैं।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

पीठं—आसन रत्नं—जेवर,

विशेषण।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

(१६) श्रीरामचन्द्रस्य राज्याभिषेकः।

(१) श्रीरामचन्द्रः दशरथस्य आदेशाद् वनं गत्वा तत्र लंकाधिपति रावणं निहत्य, चतुर्दश-संवत्सरान्ते, भार्यया सतिया, भ्रात्रा लक्ष्मणेन, हनुमत्प्रभृतिभिः वानरैः सह अयोध्यां राजधानीं प्रतिनिववृते। (२) तदा श्रीरामचन्द्रस्य मातरः भरतः, शत्रुघ्नः मंत्रिणः, सकलाः पौराश्च182 आनंदस्य परां कोर्टि अधिजग्मुः। (३) ततो भरतः सुग्रीव उवाच, हे प्रभो ! श्री रामचंद्रस्य अभिषेकार्थं शुभं सिन्धुजलमानेतुं183 दृतान् आशु प्रेषय इति। (४) तदनु सुग्रीवो वानर184श्रेष्ठान् तस्मिन् कर्मणि नियोजयामास । (५) ते जलपूर्णान् सुवर्णकलशान सत्वरं

________________________________________________________________________________________

(१) ( चतुर्दश—संवत्सरान्ते )—चौदा वर्षों के पश्चात्। ( भ्रात्रा लक्ष्मणेन सह )—माई लक्ष्मण के साथा (२) (श्रीरामचंद्रस्य—मातरः )—श्रीरामचंद्र की माताएं। (सकलाः पौराः)—नगर के सब लोक।(आनंदस्य परां कोटिं अधिजग्मुः) आनंद की उच्चतम अवस्था को प्राप्त हुवे। (३) (दुतानाशु प्रेषय)—सेवकों को शीघ्र भेज। ( ४ ) ( तस्मिन्कर्मणि नियोजयामास)—उस कार्य में लगाये।

समानिन्युः। ( ६ ) तत्पश्चाद् रामस्य अभिषेकार्थं शत्रुघ्नो वसिष्ठाय निवेदयामास। (७) ततो वसिष्ठो185 मुनिः186 सीतया सह रामं रत्नमये पीठे सन्निवेशयांचकार। (८) अनंतरं सर्वे मुनयः श्रीरामभद्रं पावनजलैरभिषिषिचुः। ( 2 ) तत्पश्चाद महार्हं रत्नकिरीटं वशी वसिष्टः श्रीरामचंद्रस्य मूर्धनि स्थापयामास। (१०) तदानीं रामस्य शीर्षोपरि पाण्डरं छत्रं शत्रुघ्नो जग्राह। (११) सुग्रीव-विभीषणौ दिव्ये श्वेतचामरे दधतुः। ( १२ ) तस्मिन् काले इन्द्रः परमप्रीत्या धवलं मुक्ताहारं श्रीरामचंद्राय समर्पयांचकार। (१३) एवं प्रजावत्सले सत्य धर्मात्मनि रामचन्द्रे राज्ये अभिषिच्यमाने सर्वे जानपदाः आनंदस्य परां कोटिं गताः। (१४) तस्मिन् काले रामो दिने187भ्यो भूरि188 द्रव्यं ददौ। (१५) ततः सुग्रीवादयः सर्वे तेन यथार्ह पूजिताः विसृष्टाश्च॥

_____________________________________________________________________

(समानिन्युः) लाये। (८) (पावन—जलैः अभिषिषिचुः )—शुद्ध जलों से अभिषेक किया। (१३) इस प्रकार प्रजापालक, सत्यप्रतिज्ञ धर्मात्मा रामचंद्र का राज्य के ऊपर अभिषेक होने के समय सब लोक आनंद की अंतिम सीमा तक पहुंचे।

समास—विवरणम्।

(१) सिंधुजलं————————सिंधोः जलं सिंधुजलम्।सिंधुदकम्।

(२) वानरश्रेष्ठान्———————वानरेषु श्रेष्ठान् वानरश्रेष्ठान्।

(३) जलपूर्णान्———————जलेन पूणः जलपूर्णः। तान् जलपूर्णान्।

(४) सुग्रीवविभीषणौ—————सुग्रीवश्च विभीषणश्च सुग्रीवविभीषणौ।

(५) पावनजलं———————पावनं च तत् जलं च पावनजलम्।

(६) मुक्ताहारः———————मुक्तानां हारः मुक्ताहारः।

(७) सुग्रीवादयः———————सुग्रीवः आदिः येषां ते सुग्रीवादयः।

(८) सत्यसंधः————————सत्या संधायस सः सत्यसंधः। सत्य प्रतिज्ञः।

परीक्षा के प्रश्न।

पाठकों को उचित है वे इन प्रश्नों का ठीक उत्तर देने के पश्चात् हि आगे का अभ्यास प्रारंभ करें।

(१) निम्न शब्दों के सातों विभक्तियों के पुल्लिंगी रूप लिखीयेः—

मुकुंदः । बालकः । रविः । वायुः । सूनुः । पतिः । चंद्रमस् । नप्तृ । उद्गातृ । नृ । पितृ । ब्रह्मन् राजन् । प्रपन् ।

(२) निम्न लिखित शब्दों के सब विभक्तियों में द्विवचन के हि पुल्लिंगी रूप लिखीयेः—

कविः।पालकः । जिष्णुः । नरपति। शुचिः । विश् । यः । कः । सर्वः । कतिपयः । द्वितीय । अहं ।

(३) निम्न शब्दों के सब विभक्तियों में एकवचन के पुल्लिंगी रूप लिखीयेः—

त्वं । असौ । अयं । एषः । सः । कः । भूभृत् ।

चंद्रः । त्वष्टृ । भोक्तृ । करिन् । पथिन् । विद्वस् ।

(४) पाठ १७ में लिखीहुई ‘सिंहानुचराणां कथा’ पांच वार पढ कर संस्कृत में लिखीये । यह कोई आवश्यक महिं कि सब शब्द जैसे के वैसे हि आजाय। परन्तु कथा का सब आशय लिखा जाना चाहिये।

(५) निम्न समासों का विवरणा कीजियेः—

[TABLE]

(६) निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में हि अर्थ लिखिये

मित्रेण उक्तम्।

स भूमिं दृष्ट्वा चलति।

अहं भोजनं कृत्वा भाषणं करोमि।

(७) निम्न लिखित शब्दों के संधि कीजिये।

[TABLE]

२० विंशः पाठः।

वहां तक पाठकों के १९पाठ हो चुके हैं। तथा पुल्लिंगी नामों के रूपों का तथा सर्वनामों के रूपों का विचार हो चुका है। नपुंसकलिंगी नामों के रूप बनाने का प्रकार बताना है। इस कारण पाठकों से प्रार्थना करनी उचित है कि वे पूर्वोक्त १९पाठों को प्रारंभ से दुबारा पढ़ें, और कोई पाठ शिथिल हुंवा हो तो उसको ठीक ठीक स्मरण रखें। अगर उनका पूर्वोक १९ पाठों में से थोड़ासा भी हिस्सा कश्या रहा, तो आगे के पाठों के ऊपर किये हुवे उनके परिश्रम व्यर्थ चले जायेंगे। क्योंकि अब नपुंसकलिंगी शब्दों का प्रकरण प्रारंभ होना है, और नपुंसकलिंगी शब्द तृतीया विभक्ति से सप्तमी विभक्ति तक प्रायः पुल्लिंगी शब्दों के समान ही चलते हैं। इसलिये अगर पाठक पुल्लिंगी शब्द भूले होंगे, तो वे किसी प्रकार भी नपुंसकलिंगी शब्दों के रूप नहीं बना सकेंगे। इस कारण आवश्यक है कि वे पूर्वोक्त पाठों को अवश्य दुबारा पढ़कर, आगे के पाठ पढ़ने का यत्न करें। और अपनी संस्कृत में उन्नति करें।अब नपुंसकलिंगी शब्दों के रूप देते हैं।

अकारान्त नपुंसकलिंगो ‘ज्ञान’ शब्दः।

(१) ज्ञानम् ज्ञाने ज्ञानानि
सं० (हे) ज्ञान (हे)„ (हे)„
(२) ज्ञानम्
(३) ज्ञानेन ज्ञानाभ्याम् ज्ञानैः
(४) ज्ञानाय ज्ञानेभ्यः
(५) ज्ञानात्
(६) ज्ञानस्य ज्ञानयोः ज्ञानानाम्
(७) ज्ञाने ज्ञानेषु

पाठक देखेंगे कि तृतीया से सप्तमी पर्यंत सब रूप “देव” शब्द के रूपों के समान ही होते हैं। केवल प्रथमा, संबोधन तथा द्वितीया इन्हीं के रूप अलग हुए हैं। उनमें भी प्रायः प्रथमा और द्वितीया के एक जैसे ही है। संबोधन में भी एकबचन के रूप में कुछ भेद है, बाकी के दो रूप प्रथमा के समान ही हैं।

ज्ञान शब्द के समान ही ‘फल, धन, वन, कमल, गृह, नगर, भोजन, वस्त्र, भूषण’ इत्यादि अकारान्त नपुंसकलिंगी शब्दों के रूप होते हैं। पाठकों ने इनके रूप बनाकर लिखने चाहिए।

इकारान्तः नपुंसकलिंगो ‘वारि’ शब्दः।

(१) वारि वारिणी वारीणि
सं० (हे) वारे,वारि (हे)
(२) वारि (हे) ”
(३) वारिणा वारिभ्याम् वारिभिः
(४) वारिणे वारिभ्यः
(५) वारिणः
(६) वारिणोः वारीणाम्
(७) वारिणि वारिषु

उकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘मधु’ शब्दः।

(१) मधु मधुनी मधूनि
सं० (हे) मधो,मधु (हे) (हे) ”
(२) मधु
(३) मधुना मधुभ्याम् मधुभिः
(४) मधुने मधुभ्यः
(५) मधुनः
(६) मधुनोः मधूनाम्
(७) मधुनि मधुषु

इस प्रकार ‘वस्तु, जतु, अश्रु, वसु’ इत्यादि उकारान्त नपुंसकलिंगी शब्द चलते हैं। पाठकों ने इनके रूप बनाने चाहिए।

इकारान्त नपुंसकलिंगः ‘शुचि’ शब्दः।

(१) शुचि शुचिनी शुचीनि
सं० (हे) शुचे,शुचि
(२) शुचि
(३) शुचिना शुचिभ्याम् शुचिभिः
(४) शुचये, शुचिने शुचिभ्यः
(५) शुचेः, शुचिन
(६) ” ” शुच्योः, शुचिनोः शुचीनाम्
(७) शुचौ, शुचिनि ” ” शुचिषु

इस प्रकार ‘अनादि, दुर्मति, कुमति, सुमति’ इत्यादि इकारान्त नपुंसकलिंगी शब्द चलते हैं। जिन विभक्तियों के दो दो "

रूप होते हैं उनकी ओर पाठकों ने विशेष ध्यान देना उचित है। शब्द में नकार न होने पर भी विभक्ति के रूपों में नकार आता है यह विशेष यहां ध्यान में रखने योग्य है । यह नकार कहां आता है, तथा कहां नहीं यही ध्यान से देखना चाहिये ।

शब्द-पुल्लिगा

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

(१७) श्रेयः सत्ये प्रतिष्ठितम्।

(१) कस्य चित् पुरुषस्य एकं वृक्षं लुनतो हस्तात् सहसा निस्सृतः कुठारो189 जलमभजत्। (२) ततः स शुशोच मुक्तकण्ठं च अरोदीत्। (३) तस्य विलापं श्रुत्वा वरुणे आविरासीत्। (४) तं वरुणं स पुरुषः शोककारणं अचकथत्। (५) तदं

(१) (वृक्षं लुनतः)—दरख्त काटने वाले का। **(२) (मुक्तकंठं अरोदीत्)—**खुले गले से रोया। (३) (वरुण आविरासीत्)—

वरुणो जलान्तः प्रविश्य सुवर्णमयं कुठारं हस्तेन आदाय उदमज्जत। तस्मै पुरुषाय तं कुठारं दर्शयित्वा पृच्छति। रे ! किमयं ते परशुः इति। (६) स उवाच। नायं मदीय इति। ततः भूयोऽपि190 निमज्ज्य राजतं कुठारं उददधिरत। (७) तं दृष्ट्वा नायं आप मम191 इति स उवाच। (८) तृतीये उन्मज्जने तस्य नष्टं कुठारं गृहीत्वादगच्छत्192। तं स मुदां स्वचिकार। (९) तदा तस्य पुरुषस्य सरलतां दृष्ट्वा संतुष्टो वरुणः सुवणराजतौ द्वौ अपि कुठारौ तस्मै पारितोषिकत्वेन ददौ। (१०) वृत्तं एतत् श्रुत्वा कश्चित् कुटिलो मनुष्यः सरितं गत्वा स्वकीय कुठारं बुद्धिपूर्वं सलिले अपातयत्। कुठारनाशं सत्पीकृत्य परिदेवितुं प्राक्रंस्त च। तच्छ्रुत्वा193 यथा पूर्वंवरुण आजगाम। (११) स सलिले निमज्य सौवर्णं परशुं आदाय अपृच्छत् किं अयं ते परशुः इति। (१२) तं सुवर्णपरशुं दृष्ट्वा तस्य बुद्धिभ्रंशो

______________________________________________________________

वरुणा प्रकट हुवा। **(६) (नायं मदीयः)—**नहीं यह मेरा। **(भूयोऽपि निमज्य)—**फिर डुबकी लगा कर। (९) (पारितोषिकत्वेन ददौ) बक्षीश के तौर पर दिये। (१०) (कुठार–नाशं सत्याकृत्य)—

जातः। (१३) स वरुणमुवाच। बाढं अयमेव मम कुठार इति। (१४) एवमुक्त्वा लोभेन वरुणस्य हस्तात् तं आदातुं प्रवृत्तः। (१५) तदा वरुणस्तं194 निर्भर्त्स्य सुवर्णंकुठार अदत्त्वा तस्य कुठारमपि तस्मै न ददौ।

_______________________________________________________________

कुहाड का नाश सत्य करने के लिये। (१३) (वाढे)–सच, निश्चय से। (१४) (आदातुं प्रवृत्तः)–लेने के लिये तैयार हुवा।

समासाः।

[TABLE]

२१ एकविंशः पाठः।

उकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘लघु’ शब्दः।

(१) लघु लघुनी लघुनि
सं० हे) लघो, लघु
(२)
(३) लघुना लघुभ्याम् लघुभिः
(४) लघवे, लघुने
(५) लघोः, लघुनः लघुभ्यः
(६) ” ” लघ्वोः, लघुनोः लघूनाम्
(६) लघौ, लघुनि ” ” लघुषु

वास्तव में लघु अथवा शुचि ये विशेषण हैं। विशेषणों का कोई अपना खास लिंग नहीं होता है। जिस समय ये विशेषण पुल्लिंगी शब्द का गुण वर्णन करते हैं, उस समम ये पुल्लिंगी शब्द के समान चलते हैं, तथा जिस समय ये नपुंसक लिंगी शब्द के गुणों का वर्णन करते हैं, उस समय ये हि नपुंसक लिंगी शब्दों के समान चलते हैं। पुलिंग में शुचि शब्द के हरि शब्द के समान रूप होते हैं, तथा लघु शब्द के भानु शब्द के समान रूप होते हैं।

पाठ २० में शुचि शब्द का तथा इस पाठ में नपुंसकलिंगी लघु शब्द का चलाने का प्रकार बताया हैं। जिन विभक्तियों के दो दो रूप होते हैं उनके रूप वहीं दिये हैं उनको पाठकों ने ठीक ध्यान में रखना चाहिये।

लघु शब्द वत् नपुंसकलिंगी ‘पृथु, गुरु, ऋजु’ इत्यादि शब्दों के रूप बनते हैं। ‘कति’ शब्द तीनों लिंगों में एक जैसा ह चलता है तथा वह हमेशा बहुवचन में हि चलता हैः—

‘कति’ शब्दः।

[TABLE]

इकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘दधि’ शब्दः।

(१) दधि दधिनी दधीनि
सं० (हे) ”
(२)
(३) दध्ना दधिभ्याम् दधिभिः
(४) दध्ने दधिभ्यः
(५) दध्नः
(६) दध्नो दधीनाम्
(७) दध्नि दधिषु

सकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘मनस’ शब्दः।

(१) मनः मनसी मनांसि
सं०
(२)

तृतीया विभक्ति से ‘चंद्रमस्’ शब्दवत् रूप होते हैं। (पृष्ठ १५४ देखिये) ‘पयस्, महस्, वचस्, श्रेयस्, तरस, तमस्, रजस्’ इत्यादि शब्दों के रूप इसी प्रकार बनते हैं। जैसेः—

(१) पयः पयसी पयसि, इत्यादि०

ऋकारान्त नपुंसकलिंगो ‘धातृ’ शब्दः।

(१) धातृ धातृणी धातृृणि
सं० धातः, धातृ
(२) धातृ
(३) धात्रा, धातृणा धातुभ्याम् धातृभिः
(४) धात्रे, धातृणे ” ” धातृभ्यः
(५) धातुः, धातृणः ” ” ” ”
(६) ” ” धात्री, धातृणोः धातॄणाम्
(७) धातरि, धातृणि ” ” धातृषु

इस प्रकार ‘कर्तृ, नेतृ, ज्ञातृ’ इत्यादि ऋकारान्त नपुंसकलिंगीशब्दों के रूप होते हैं।

शब्द–पुल्लिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

प्रभातं—सवेरा अभीष्टं—इच्छित

विशेषण

अन्वेषित—धुंडा हुवा

क्रिया

[TABLE]

(१८) यद्भविष्यो विनश्यति।

(१) कस्मिंश्चित्195 जलाशये, अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमतिः, यद्भविष्यश्चेति196 त्रयो197 मत्स्याः सन्ति। (२) अथ कदाचित् तं जलाशयं दृष्ट्वा आगच्छद्भिः मत्स्यजीविभिः उक्तं। (३) यद्, अहो ! बहुमत्स्योऽयं198 ह्रदः। कदाचिद् अपि नाऽस्माभि199रेन्वोषितः200। तद् अद्य आहारवृत्तिः संजाता। सन्ध्यासमयश्च201 संभूतः। ततः प्रभातेऽत्र202आगन्तव्यमिति निश्चयः। (४) अतस्तेषां203 तद् वज्र-पातोपमं वचः समाकर्ण्य अनागत-

__________________________________________________________________

(१) किसी एक तालाव में अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति तथा यद्भविष्य इस नाम के तीन मत्स्य है। **(२) (आगच्छद्भिः मत्स्य-जीविभिः उक्तं)–**आने वाले धीवरों ने कहा। **(३) (बहुमत्स्यः अयं ह्रदः)–**यह तालाब बहुत मछीयें वालाहैं। **(आहारवृत्तिः संजाता)–**भोजन का सबंध होगया। **(प्रभाते अत्र आगन्तव्यम्)–**सवेरे यहां आना चाहिये। (४) (वज्रपातोपमं वचः)–

विधाता सर्वान् मत्स्यान् आहूय इदं ऊचे। (५) अहो श्रुतं भवद्भिर्यन्204 मत्स्य-जीविभिः अभिहितम्। तद् रात्रौ अपि किंचित गम्यतां समीपवर्ति सरः। (६) तन् नूनं प्रभात-समये मत्स्य-जीविनोऽत्र समागभ्य मत्स्य-संक्षयं करिष्यन्ति। (७) एतन मम मनसि वर्तते। तन् न युक्तं सांप्रतं क्षणं अपि अत्राऽवस्थातुम्205। (८) तद् आकर्ण्य प्रत्युत्पन्नमतिः प्राह। अहो सत्यमभिहितं भवता। ममाऽपि206 अभीष्टं एतत्। तद् अन्यत्र गम्यताम्। (९) अथ तत् समाकर्ण्यप्रोच्चै र्विहस्य207 यद्भविष्यः प्रोवाच। (१०) अहो न भवद्भयां मंत्रितं सम्य गेतत। यतः किं तेषां वाङ्मात्रेणापि पितृपैतामहिकं सरः एतत्

______________________________________________________________

वज्र के आघात के समान भाषण। (५) (गम्यतां समीपवर्ति सरः)–जाइये पास के तालाब के पास। (८) **(ममापि अभीष्टमेतत्)–**मुझे भी यही इष्ट है। **(तत्समाकर्ण्य प्रोच्चैः विहस्य प्रोवाच)–**वह सुनकर ऊंचा हंसकर बोला। (१०) **(सम्यगेतत्)–**यह ठीक है। **(किं तेषां वाङ्मात्रेणापि पितृपैतामहिकं सरः एतत् त्यक्तुं युज्यते)–**क्या इनके बड़बड़ से (हमारे) बाप दादा के संबंध

त्यक्तुं युज्यते। (११) तद् यद् आयुः-क्षयोऽस्ति208 तद् अन्यत्रगतानामपि मृत्युर्भविष्यति एव। तदहं न मास्यामि। भवद्भयां च यत् प्रतिभाति तत् कार्यम्। (१२) अथ तस्य तं निश्चयं ज्ञात्वा अनागत-विधाता, प्रत्युत्पन्नमतिश्च निष्क्रान्तौ सह परिजनेन। (३३) अथ प्रभाते तैर्मत्स्य209-जीविभिर्जलैस्तम्210 जलाशयं आलोड्य यद्भविष्येण सह स जलाशयों निर्मत्स्यतां नीतः।

___________________________________________________________________

का यह तालाब छोड़ना अच्छा है। (११) (भवद्भ्यां च यत्प्रतिभाति तत्कार्यं)–आप जैसा जानते हैं वैसा कीजिये। **(१२) (सह परिजनेन)–**परिवार के साथ। **(१३) (स जलाशयः निर्मत्स्यतां नीतः)–**वह तालाव मत्स्यहीन किया।

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समासाः।

(१) जलाशयः——जलस्य आशयः जलाशयः।

(२) मत्स्यजीविभिः——मत्स्यैः जीवन्ति इति मत्स्य-जीविनः। तैः मत्स्यजीविभिः।

(३) बहुमत्स्यः——बहवः मत्स्याः यस्मिन् स बहुमत्स्यः।

(४) समीपवर्ति——समीपं वर्तते इति समीपवर्ति।

(५) प्रत्युत्पन्नमतिः——प्रत्युत्पन्ना मतिः यस्य सः प्रत्युत्पन्नमतिः।

(६) निर्मत्स्यतां——निर्गताः मत्स्याः यस्मात् स निर्मत्स्यः। निर्मत्स्यस्य भावः निर्मत्स्यता।

—————

२२ द्वाविंशः पाठः।

सकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘धनुस्’ शब्दः।

[TABLE]

आगे ‘चद्रमस्’ शब्द के समान इसके रूप होते (पृ० १५४ देखीये) इसी प्रकार ‘चक्षुस्, हविस्’ इत्यादि शब्दों के रूप बनाने चाहिए।

नकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘नामन्’ शब्दः

(१) नाम नाम्नी, नामनी नामानि
सं०
(२)
(३) नाम्ना नामभ्याम् नामभिः
(४) नाम्ने नामभ्यः
(५) नाम्नः
(६) नाम्नः नाम्नोः नाम्नाम्
(७) नाम्नि, नामनि नामसु

इसी प्रकार ‘लोमन्, सामन्, व्योमन, प्रेमन्’ इत्यादि शब्दचलते हैं।

नकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘अहन्’ शब्दः।

(१) अहः अह्नी,अहनी अहानि
सं० अहर ” ”
(२) अहः ” ”
(३) अह्ना अहोभ्याम् अहोभिः
(४) अह्ने अहोभ्यः
(५) अह्नः
(६) अह्नोः अह्नाम्
(७) अह्नि,अहनि अहस्सु

तकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘जगत्’ शब्दः।

(१) जगत् जगती जगन्ति
सं०
(२)
(३) जगता जगद्भ्याम् जगद्भिः

इत्यादि रूप होते हैं। इसी प्रकार ‘बृहत, पृषत्’ इत्यादि शब्द चलते हैं।

इकारान्तो नपुंसकलिंगो ‘अक्षि’ शब्दः।

(१) अक्षि अक्षिणी अक्षीणि
सं० ” अक्षे
(२)
(३) अक्ष्णा अक्षिभ्याम् अक्षिभिः
(४) अक्ष्णे अक्षिभ्यः
(५) अक्ष्णः
(६) अक्ष्णोः अक्ष्णाम्
(७) अक्ष्णि,अक्षणि अक्षिषु

इसी प्रकार ‘अस्थि, सक्थि’ आदि शब्दों के रूप होते हैं।

(१) अस्थि अस्थिनी अस्थीनि
(३) अस्थ्ना अस्थिभ्याम् अस्थिभिः
(४) अस्थ्ने अस्थिभ्यः
(५) अस्थ्नः
(६) अस्थ्नोः अस्थ्नाम्
(७) अस्थ्नि,अस्थनि अस्थिषु

‘वारि’ शब्द के समान हि अन्य रूप होते हैं।

सान्तः ‘आयुस्’ शब्दःनपुंसके।

(१) आयुः आयुषी आयुंषि
सं०
(२)
(३) आयुषा आयुर्भ्याम् आयुर्भिः
(४) आयुषे आयुर्भ्यः
(५) आयुषः
(६) आयुषोः आयुषाम्
(७) आयुषि आयुष्षु

इसी प्रकार ‘अर्चिस्’ शब्द के रूप होते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे इनके साथ पुल्लिंगी शब्दों के रूपों की तुलना करें। और परस्पर विशेष बातों को ध्यान रखें।

शब्द–क्रियाएं

[TABLE]

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

[TABLE]

(१९) श्रम-विभागः

**(१) रुक्मिणी—**सखि कमले ! श्वः प्रभाते मे वहु करणीयम्। तत् कथं निर्वर्त्यं इति चिन्ताकुलं मे मनः। (२) कमला—काऽत्र चिन्ता। अहं तव साहाय्यं करिष्यामि नर्मदामपि तत्कर्तुमुपदे211क्ष्यामि। इत्यावयोः212 साहाय्येन सुलभा कार्यसिद्धिः। (३) रुक्मिणी—अपि नर्मदा प्रतिपद्यते

(१) (मे बहु करणीयं)—मुझे बहुत कार्य है। (कथं निर्वत्यं)—कैसा किया जाय। (२) (कात्र चिंता)—कौनसी यहां चिंता । (इत्यावयोःसाहाय्येन सुलभा कार्यसिद्धिः)—इस प्रकार हम (दोनों के) सहाय्य से कार्य की सिद्धि सुगम होगी। (३) (आप

तत्कर्तुम। यावत्तमेव213 पृच्छामि। अयि नर्मदे ! प्रभाते मम बहु करणीयम्। कच्चिदल्पं214 साहाय्यं करिष्यसि।** (४) नर्मदा—**ततः को मे लाभः। तन्न कर्तुमुत्सहे215। पुनर्ममापि प्राभातिकं अस्त्येव216। तत् का करिष्यति। (५) कमला सखि नर्मदे ! मैवं217रुक्मिणी—वचः अवज्ञातुं अर्हसि। अन्योऽन्य साहाय्यं मनुष्यधर्मः। तत् साहाय्यं कुर्वत्याः तव किं हीयते। तव गृहकृत्यं च अल्पम्। तत् पश्चाद् अपि एकाकिन्या सुकरम्। तत्रापि चेद् अन्यापेक्षा अहं साहाय्यं

**नर्मदा प्रतिपद्यते)—**क्या नर्मदा मानेगी। **(कच्चिदल्पं)—**कुछ थोड़ा। **(४) (तन्न कर्तुमुत्सहे)—**वह करने के लिये (मैं) उत्साहित नहीं हूं। **(प्रभातिकं)—**सवेर का कार्य। **(५) (अवज्ञातुं अर्हसि)—**अपमान करने के लिये योग्य हो। **(अन्योन्य-सहाय्यं)—परस्पर मदत करनी।(साहाय्यं कुर्वत्यास्तव किं हीयते)—**मदत करने से तुम्हारी क्या हानी है। **(एकाकिन्या सुकरं)—**अकेली से भी किया जा सकता है। **(चेद् अन्यापेक्षा)—**अगर दूसरे की जरूरत है।

करिष्यामि। **(६) नर्मदा—**न श्रामयामि त्वाम्। अहं एव एकाकिनी तल्लघु लघु समाप्य विश्रांति सुखं कथं न अनुभवेयम्। **(७) कमला—**सुखं निर्विश्यतां विश्रांतिसुखम्। तथा कर्तुंका निषेधति। परं एतावदेव218 पृच्छामि तव गृहकृत्यं त्वं एकाकिनी लघुतरं करिष्यसे किम्। **(८) नर्मदा—**असंशयत्वद्वितीया219 एव। **(९) कमला—**तर्हि साहाय्यं किमिति नानु220मन्यसे। **(१०) नर्मदा—**स्वावलंब एव अहं बहु मन्ये। न परसाहाय्यम् आत्मबलेनैव221 सर्वाः किया निर्वर्तयामि। **(११) रुक्मिणी—**अभि नर्मदे। स्वावलंबः ममापि206 बहुमतः।____________________________________________________________________

**(६) (न श्रामयामि त्वां)—**तुमको कष्ट नहीं दूंगी। **(तल्लघु लघु समाप्य)—**वह जल्दी जल्दी समाप्त करके। (७) (सुखं निर्विश्यतां विश्रांत-सुखं) आराम से लीजिये विश्राम का आनंद। **(लघुतरं करिष्यसे)—**अधिक जलदी करेगी। (८) (असंशयं तु अद्वितीया एव) निःसंशय अकेली हि। **(९) (किमिति नानुमन्यसे )—**क्यों नही मानती। (११) (स्वावलंबः ममापि बहुमतः )—

किंतु आत्मबलातिगे कार्ये परसाहाय्यप्रार्थनं आवश्यकं भवति न हि एकपुरुष-साध्याः सकलाः क्रियाः। कोऽपि222गृहवस्त्रादिकं सकलं वस्तुजातेस्वयमको223 निर्मातुं न प्रभवेत्। किमुत च तत्तत्-शिल्पिसंधनिर्मितं एव सुभगम्। अतः विपश्चितः परस्परं श्रमान् विभज्य एकैकमेव विषयं अंगीकृत्य तं सर्वात्मना परिशीलयन्ति। तस्मिन् नैपुण्यं उपगताः च लोकाऽऽराधनाय प्रवर्तन्ते। एवं श्रमविभागेन संसारयात्रा सुखकरी भवति। **(१२) कमला—**परिचिन्त्यतां परराष्ट्राणां उद्योगपद्धतिः

__________________________________________________________________

स्वावलंबन—**(अपने ऊपर हि निर्भर रहना)—**मुझे बहुत पसंद है। **(एकपुरुषसाध्याः सकलाः क्रियाः)—**एक मनुष्य से सिद्ध होने वाले सब कार्य। **(निर्मातुं न प्रभवेत्)—**उत्पन्न करने के लिये समर्थ नहि होगा। **(अतः विपश्चित०———परिशीलयन्ति)—**इसलिये विद्वान परस्पर श्रमों को बांट कर, एक एक बात को हि अपनी सी करके, उसी को सब तनमन से विचारते हैं। **(तस्मिन्———सुखकरी भवति)—**उसी में प्रवीणता संपादन करके लोक सेवा के लिये प्रवृत्त होते हैं, इस प्रकार श्रमविभाग से संसार यात्रा सुखमय होती है। (पर-राष्ट्राणां) दूसरे देशों की। **(१२) (आ-फलोदयकर्माणः)—**फल प्राप्त होने तक काम करने

आफलोदयकर्माण उद्यमशीला यूरोपीया निजाद्भुतकृत्यैः लोकान् विस्मापयन्ति। सुसंस्कृतं सुजातं च वस्तुजातं निर्मिमीते। तस्य श्रमविभाग एव224 बीजम्। **(१३) रुक्मिणी—**पाणितलस्थे निदर्शने कुत इयद्दूरम्225। अस्माकं गृहव्यवस्था एव सुक्ष्मदृष्ट्या विलोक्यत \। गृहपतिः सकलारंभमूलं धनं अर्जयति। तेन च धान्यादि वस्तुजातं क्रीत्वा गृहिण्यै समर्पयति। सा तत्साधु व्यवस्थाप्य पाकादि च निष्पाद्य सकलं कुटुंबं सुखयति। सोऽयं जीवनक्रमः श्रमविभागेन एव सुखकरो भवति नान्यथा। विभक्तः खलु श्रमोऽतीव226 सुसहो भूत्वा महते फलोदयाय

____________________________________________________________________

वाले। **(निजाद्भुतकृत्यैर्लोकान् विस्मापयन्ति)–**अपने अद्भुत कामों से दूसरों को आश्चर्ययुक्त करते हैं। **(१३) (पाणितलस्थे निदर्शने कुत इयद्दूरम्)–**हाथ के तले पर का (पदार्थ) देखने के लिये इतना दूर क्यों (जाना है)। (सकलारंभमूलं) संपूर्ण कार्यों के प्रारंभ में उपयोगी–जिससे सकल कार्य बन सकते हैं। **(पाकादि निष्पाद्य)–**अन्नपका कर। **(विभक्तः श्रमः सुसहो भवति)–**बांटा हुवा श्रम सहा जासकता है। (महते फलोदयाय

कल्पते। **(१४) नर्मदा–**स्फुटतरं अज्ञासिषं श्रमविभागतत्वम्। युवाभ्यां विद्यतं च तत् सम्यक् प्रविष्टं मे हृदयम्। अधुना शिरसा धारयामि युवयोः वचः। यावच्छक्यं च तव अर्थसाधने प्रयतिष्ये। **(१६) रुक्मिणी–**प्रीताऽस्मि युवयोः परमादरेण।
___________________________________________________________________

**कल्पते)–**महान फल प्राप्ति के लिये होता है। **(१४) (स्फुटतरं अज्ञासिषं)–**अधिक स्पष्टता से जान लिया। (युवाभ्यां विद्यतं) तुम दोनों ने समझाया हुवा (शिरसा धारयामि युवयोः वचः) शिरसे धरती हूं तुम दोनों का भाषण। (तव अर्थ-साधने प्रयतिष्ये) तुम्हारा कार्य सिद्ध करने में प्रयत्न करूंगी। **(१५) (प्रीतास्मि युवयोः परमादरेण)–**खुश होगयी हूं तुम दोनों के बड़े आदर से।

समासाः।

(१) चिन्ताकुलं————चिंतया आकुलं चिन्ताकुलम्।

(२) कार्यसिद्धिः————कार्यस्य सिद्धिःकार्य सिद्धिः।

(३) रुक्मिणीवचः————रुक्मिण्याः वचः रुक्मिणी-वचः।

(४) अन्यापेक्षा————अन्यस्य अपेणा अन्यापेक्षा।

(५) लघुतरं————अतिशयेन लघु लघुतरम्।

(६) आत्मबलातिगे————–आत्मनः बलं आत्मबलम्। आत्मबलं अतिक्रम्य गच्छति इति आत्मबलातिगम्।

(७) शिल्पिसंघनिर्मित—————शिल्पिनाम् संघः शिल्पिसंघः। शिल्पि संघेन निर्मितं शिल्पिसंघनिर्मितम्।

(८) आफलोदयकर्माणः————फलस्य उदयः फलोदयः। फलोदयपर्यंतं कर्म कुर्वन्ति इति आफलोदयकर्माणः।

(६) पाणितलस्थः————पाणेःतलः पाणितलः। पाणितले तिष्ठतीति पाणितलस्थः।

(१०) सूक्ष्मदृष्टिः————सूक्ष्मा चासौ दृष्टिश्च सूक्ष्मदृष्टिः।

२३ त्रयोविंशः पाठः।

२२ पाठ हो चुके हैं। और इतनी अवधि में मुख्य मुख्य पुल्लिंगी तथा नपुंसकलिंगी शब्दों के सातों विभक्तियों के रूप बनाने का ज्ञान पाठकों को हो चुका है। अब सर्वनामों के नपुंसकलि। में कैंसे रूप होते हैं, इसका ज्ञान इस पाठ में देना है। सर्वनामों के तृतीया से सप्तमी पर्यंत विभक्तियों के रूप पूर्वोक्त पुल्लिंगी सर्वनामों के समान ही होते हैं। केवल प्रथमा द्वितीया के रूपों की विशेषता ही पाठकों ने ध्यान में रखनी है।

‘सर्व’ शब्दः (नपुंसके)

(१) सर्वम् सर्वे सर्वाणि
सं० सर्व सर्वे सर्वाणि
(२) सर्वम् सर्वे सर्वाणि

शेष रूप ‘सर्व’ शब्द के पुल्लिंगी रूपों के समान ही होते हैं (पृष्ठ १६३) इसी प्रकार ‘विश्व, एक, उभ, उभय’ इनके रूप होते

हैं। ‘उभ’ शब्द द्विवचन में ही चलता है तथा ‘उभय’ शब्द के लिये द्विवचन नहीं है। यह विशेष ध्यान में रखना चाहिये।

इसी प्रकार ‘पूर्व, पर, अवर, दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व, तर नेम’ इत्यादि शब्द चलते है। ‘स्व, अंतर’ के विषय में जो कुछ पूर्व लिखा है वह ध्यान में रखना चाहिये (पाठ १६ नियम २८, २९, ३० पृष्ठ १६५ देखिये)। अर्थात् ‘स्व, अंतर इनके अर्थ भेद से ‘ज्ञान’ शब्द के समान, तथा ‘सर्व’ शब्द के समान रूप होंगे।

‘प्रथम’ शब्द ‘ज्ञान’ शब्द के समान ही नपुंसक में चलता। इसी प्रकार ‘चरम, द्वितय, त्रितय, चतुष्टय पञ्चतय, अल्प, अर्ध कतिपय’ इत्यादि शब्द चलते हैं।

‘द्वितीय, तृतीय’ ये दो सर्वनाम ‘सर्व’ शब्द के समान ही नपुंसकलिंग में चलते हैं।

‘यद्’ शब्ःनपुंसके।

(१) यत् ये यानि
(२) यत् ये यानि

शेष रूप पुल्लिंगी ‘यद्’ शब्द के समान होते हैं। (पृष्ठ १७२)

इसी प्रकार ‘अन्य, अन्यतर, इतर, कतर, कतम, त्व’ इत्यादि सर्वनाम के नपुंसकलिंग में रूप होते हैं। ‘अन्यतम’ शब्द नपुंसकलिंग में ‘ज्ञान’ के समान चलता है।

नपुंसके ‘किम’ शब्दः।

(१) किम् के कानि
(२) किम् के कानि

अन्य रूप पुल्लिंगी ‘किं’ शब्द के समान होतेहैं। (पृष्ठ १७३)

नपुंसके ‘तद्’ शब्दः।

(१—२) तत् ते तानि

अन्य रूप ‘तद्’ शब्द के पुल्लिंगी रूपों के समान ही होते हैं। (पृष्ठ १७३)

नपुंसके ‘एतद्’ शब्दः।

(१) एतत् एते एतानि
(२) एतत्,एनत् एते, एने एतानि, एनानि

अन्य रूप ‘एतद्’ शब्द के पुल्लिंगी रूपों के समान ही होते हैं। (पृष्ठ १९१)

नपुंसके ‘इदम्’ शब्दः।

(१) इदम् इमे इमानि
(२) इदम्, एनत् इमे, एने इमानि, एनानि

अन्य रूप पुल्लिंगी ‘इदं’ शब्द के समान होते हैं। यहां इन दो सर्वनामों के दो दो रूप होते हैं यह बात ध्यान में रखनी चाहिए।

नपुंसके ‘अदस्’ शब्दः।

(१) अदः अमू अमूनि

इस पाठ के पश्चात् स्त्रीलिंगी शब्दों के रूपों का विचार होना है, इसलिये पाठकों से प्रार्थना है कि वे पूर्व २३ पाठों को दुबारा पढ़ें और सब व्याकरण के नियम, शब्दों के रूप तथा वाक्य ठीक ठीक याद करें। जो प्राचीन पुस्तकों में से कथायें दीं हैं, उनको अच्छी प्रकार कण्ठ करें। प्राचीन पुस्तकों की कथायें हरएक पाठ में इसीलिये दीं हैं कि पाठक उनको कण्ठ करें। इस प्रकार कथायें कराठ करने से पाठकों की भाषा प्रौढ होगी, वे अच्छी संस्कृत भाषा में प्रवीण होंगे। जो ऐसा नहीं करेंगे उनकी उन्नति की जिम्मेवारी उन्हीं के शिर पर रहेंगी । यह यहां कहने की आवश्यकता नहीं ।

शब्द–पुल्लिंगी

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

अन्य

[TABLE]

(२०) भीष्मो धृतराष्ट्रादीनां सन्धिमुपदिशति

न रोचते विग्रहो मे पांडुपुत्रैः कथंचन।
यथैव227 धृतराष्ट्रो मे तथा पाण्डुरसं228शयम्॥ १ ॥

—————————————————————————————————————

(२०) भीष्मपितामह धृतराष्ट्रादिकों को सुलाह का उपदेश करता है।

(पाण्डु-पुत्रैः सह) पांडवों के साथ (विग्रहः) युद्ध, झगड़ा (कथंचन) किसी प्रकार भी (मे न रोचते) मुझे पसंद नहीं। (यथा एव मे धृतराष्ट्रः) जैसा मेरे लिये धृतराष्ट्र है (तथा प्रसंशयं पाण्डुः) वैसा ही निश्चय से पाण्डुहैं॥ १ ॥

गांधार्याश्च229 यथा पुत्रास्तथा230 कुन्तीसुता मम।
यथा च मम ते रक्ष्याधृतराष्ट्र! तथा तव॥ २ ॥

**दुर्योधन यथा राज्यं त्वमिदं231 तात पश्यसि।
मम पैतृकमित्येवं232 तेऽपि पश्यन्ति पांडवाः॥ ३ ॥ **

यदि राज्यं न ते प्राप्ता पाण्डवेया यशस्विनः।
कुत एव तवापीदं233 भारतस्यापि कस्य चित्॥ ४ ॥

—————————————————————————————————————

(यथा च गांधार्याः पुत्राः) और जैसे गांधारी के पुत्र (तथा मम कुन्ती-सुताः) वैसे ही मेरे लिये कुन्ती के लड़के हैं। (यथा व मम ते रक्ष्याः) और,जैसे मैं ने वे रक्षणीय हैं (धृतराष्ट्र, तथा तव) हे धृतराष्ट्र ! वैसे ही तुम्हारे हैं॥ २ ॥

(दुर्योधन) हे दुर्योधन ! हे (तात) हे प्रिय (यथा त्वं इदं राज्यं) जैसा तुम यह राज्य (मम पैतृकं इति) मेरे पिता का है ऐसा (पश्यसि) देखते हो (एवं ते पाण्डवाः अपि) इस प्रकार वे पाण्डव भी (देखते हैं)॥ ३ ॥

(ते यशस्विनः पाण्डवेयाः) वे कीर्तिमान पांडव (यदि राज्यं न प्राप्ताः) अगर राज्य को प्राप्त न हुए (कुतः तव अपि इदं एव) कैसा तुमको ही यह (प्राप्त होगा) (कस्य भारतस्य अपि चित्) किसी भारत के लिये भी (कैसा मिलेगा)॥ ४ ॥

**अधर्मेण च राज्यं त्वं प्राप्तवान् भरतर्षभ।
तेऽपि234 राज्यमनुप्राप्ताः पूर्वमेवेति235 मे मतिः॥ ५ ॥ **

**मधुरेणैव236 राज्यस्य तेषामर्धं प्रदीयताम्।
एतद्धि पुरुषव्याघ्र हितं सर्वजनस्य च॥ ६ ॥ **

अतोऽन्यथा चेत् क्रियते न हितं नो भविष्यति।
तवाप्यकीर्तिः237 सकला भविष्यति न संशयः॥ ७ ॥

——————————————————————————————————————

(भरतर्षभ) हे भरतश्रेष्ठ ! (त्वं अधर्मेण राज्यं प्राप्तवान्) तूं अधर्म से राज्य को प्राप्त होगये हो। (ते अपि पूर्वं एव) वे पहिले ही (राज्यमनु प्राप्ताः) राज्य को प्राप्त हुए (इति मे मतिः) ऐसा मेरा मत है॥ ५५ ॥

(मधुरेण एव) मीठेपन से ही (राज्यस्य अर्धं) राज्य का आधा भाग (तेषां प्रदीयतां) उनको दीजिये। (पुरुषव्याघ्र) हे पुरुष श्रेष्ठ ! (हि पतत् सर्व जनस्य हितं) कारण यही सब लोकों का हितकारी है॥ ६ ॥

(चेत् अतः अन्यथा क्रियते) अगर इस से भिन्न किया जाय (नः हितं न भविष्यति) हमारा हित नहीं होगा। (तव अपि सकला अकीर्तिः) तेरी भी सब दुष्कीर्ति (भविष्यति न संशयः) होगी इसमें कोई संदेह नहीं॥ ७ ॥

**कीर्ति-रक्षणमातिष्ठ कीर्तिर्हि परमं बलम्।
नष्टकीर्तेर्मनुष्यस्य238 जीवितं ह्यफलं239 स्मृतम्॥ ८ ॥ **

**दिष्ट्या ध्रियन्ते पार्थो हि240 दिष्ट्या जीवति सा पृथा।
दिष्ट्या पुरोचनः पापो न सकामोऽत्ययं241 गतः॥ ९ ॥ **

न मन्येत तथा लोको दोषेणात्र242 पुरोचनम्।
यथा त्वां पुरुषव्याघ्र लोको दोषेण गच्छति॥ १० ॥

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(कीर्ति-रक्षण आतिष्ठ) कीर्ति की रक्षा करो (कीर्तिः हि परमं बलं) कारण कीर्ति हि बड़ा बल है। (हि नष्टकीर्तेः मनुष्यस्य) कारण जिसकी कीर्ति नाश हुवी हैं ऐसे मनुष्य का (जीवितं अफलं स्मृतम्) जीवन निष्फल हैऐसा कहते हैं॥ ८ ॥

(दिष्ट्या हि पार्थाः ध्रियन्ते) सुदैव से पांडवजिंदा रहे हैं (सा पृथा दिष्ट्या जीवति) वह कुंती सुदैव से जिंदा है। (पापः पुरोचनः) पापी पुरोचन राजा (दिष्ट्या सकामः) सुदैव से कृतकार्य होकर (अत्ययं न गतः) सिद्धि को प्राप्त न हुवा॥ ९॥

(लोकः अत्र तथा) जन यहां वैसा (पुरोचनं दोषेण न मन्येत) पुरोचन को दोष से (युक्त) नहीं मानेंगे (पुरुषव्याघ्र ! यथा त्वां) हे मनुष्यश्रेष्ठ ! जिस प्रकार तुमको (लोकः दोषेण गच्छति) लोक दोष से (युक्त) समझते हैं॥ १० ॥

**तदिदं जीवितं तेषां तव किल्विषनाशनम्।
संमन्तव्यं महाराज पाण्डवानां सुदर्शनम्॥ ११ ॥ **

**न चापि तेषां वीराणां जीवतां कुरुनंदन।
पित्र्यंशः शक्य आदातुमपि वज्रभृता स्वयम्॥ १२ ॥ **

**सर्वेऽवस्थिता धर्मे सर्वे चैवैक-चेतसः।
अधर्मेण निरस्ताश्च तुल्ये राज्ये विशेषतः॥ १३॥ **

यदि धर्मस्त्वया कार्योयदि कार्यंप्रियं च मे।
क्षेमं च यदि कर्तव्यं तेषामर्धं प्रदीयताम्॥ १४ ॥

महाभारतम्

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(तत् इदं तेषां जीवितं) वह यह उनका जीवित है (तव किल्विषनाशनं) तुम्हारे पाप का नाशक है। इसलिये (महाराज) हे महाराज ! (पाण्डवानां सुदर्शनं संमंतव्यं)पाण्डवों का उत्तम दर्शन मानिये॥ ११ ॥

(कुरुनंदन) हे कुरुपुत्र ! (तेषां वीराणां जीवतां) उन वीरों के जिंदगी तक (स्वयं वज्रभृता अपि) स्वयं इंद्र ने भी (पित्र्यंशः आदातुं अपि च न शक्यः) पैतृक धन लेना भी शक्य नहीं॥ १२ ॥

(ते सर्वे धर्मे अवस्थिताः) वे सब धर्म में ठहरे हैं। (सर्वे च एकचेतसः) और सब एक दिल वाले हैं। (विशेषतः तुल्ये राज्ये) विशेष कर समान राज्य में (अधर्मेण निरस्ताः च) अधर्म से हटाये हैं॥ १३ ॥

(यदि त्वया धर्मः कार्यः) अगर तूं ने धर्म करना है (यदि मे प्रियं च कार्त्यं) अगर मेरे लिये प्रिय करना है। (च यदि क्षेमं कर्तव्यम्) और अगर कल्याण करना है (तेषां अर्धं प्रदीयताम्) उनको आधा (भाग) दीजिये॥ १४ ॥

सुचना—इस पाठ में श्लोकों के पदों का अन्वय जैसा होना चाहिये वैसा कर के ( ) कंस में दिया है। पाठको को उचित है कि, वे श्लोक में शब्दों का क्रम तथा अर्थ में अन्वय के शब्दों का क्रम देख लें और अन्वय बनाना सीखें।बोलने के समय जैसी शब्दों की पूर्वापर रचना होती है उस प्रकार शब्दों की रचना को अन्वय कहते हैं। श्लोकों में छंद के अनुसार इधर उधर शब्द रखे जाते हैं।

२४ चतुर्विंशः पाठः।

अगर पाठकों ने पूर्व २३ पाठ दुबारा याद किये हों, तो वे आगे चलने के योग्य है। अन्यथा नहीं। पूर्व पढे हुवे पाठों को दुबारा स्मरण करने की प्रार्थना जहां जहां की हुवी है, वहां पाठक, अपनी संमति की पर्वाह न करते हुए, मेरे कहने के अनुकूल पूर्व पाठों को दुयारा यादकरेंगे तो उनका ही लाभ अधिक होगा। आशा है कि पाठक वैसाहि करेंगे और अपनी उन्नति करेंगे। जिस समय पूर्वोक्त २३ पाठों को दुबारा पढ़ना समाप्त होगा उस समय निम्नलिखित प्रश्नों में उनकी परीक्षा होगी। जो पाठक प्रश्न पढते हि उनका ठीक ठीक उत्तर उसी समय दे सकेंगे वे आगे का अभ्यास कर सकेंगे, परन्तु जो शीघ्र उत्तर नहीं दे सकेंगे उनको पुनः पूर्व पाठ पढने होंगे।

परीक्षा के प्रश्न।

(सूचना—प्रत्येक प्रश्न पढते हि दस निमेषके अंदर उसका उत्तर देने का प्रारंभ होना चाहिए)।

(१) निम्नलिखित शब्दों के सातों विभक्तियों में केवल एकवचन के रूप लिखियेः—

(पुल्लिंगी शब्द)—रथः। कालः। रुद्रः। मुनिः। पाण्डुः। दातु। भोक्तृ। विधातृ। राजन्। गरिमन्। अणिमन्। स्वामिन्। करिन्।

(नपुंसकलिंगी शब्द)—वनं। स्वरूपं। चचनं। पयस्। श्राद्धं। वर्मन्। वारि। जगत्। शुचि। मधु। पीठं।मांस। धनं।

(२) निम्नलिखित शब्दों के संधि कीजियेः—

[TABLE]

(३) निम्न शब्दों के केवल द्विवचन के रूप सब विभक्तियों में लिखियेः—

(पुल्लिंगी—कविः। सूनुः। वसिष्ठः। हस्तिन्। दण्डिन्।यः। कः। नृ। शास्तृ। सखि। पतिः। शंस्तृ।

(४) निम्न शब्दों के बहुवचन के रूप लिखियेः—

(नपुंसकलिंगी)—बाल्यं। चापल्यं। नलिनं। शुचि। कार्पण्यं। लघु।

(५) निम्न संधियों को खोल कर लिखियेः—

(१) मूका इव। (२) पाण्व इव। (३) अलभमानास्तुभ्यम्।

(४) मदोत्कट। (५) सेवकास्त्रयः। (६) तदुत्तरम्। (७) अथापार्जनं। (८) भानुरुदयते। (९) नमस्ते।

(६) आप कोई एक कथा संस्कृत में लिखिये। कथा ऐसी हो कि वह इस पुस्तक में न आई हो। आप अपनी मर्जी के अनुकूल एक कथा लिखिये।

(७) पृ० १०९पर दी हुवी “उदरावयवानां कथा” पांच वार पढ कर संस्कृत में लिखिये।

(८) श्रीरामचंद्र का जीवन चरित्र पचास पंक्तियों में लिखिये।

(९) विसर्ग के संधि के विषयमें जो जो नियम दिये हैं वे लिखिये।

(१०) आज के दिन प्रातः से आपने जो जो कार्य किया हो उसे संस्कृत में थोडे शब्दों में लिखिये।

(११) किसी विषय में आप अपने मित्र को पत्र लिख रहे हैं ऐसा समझ कर एक छोटासा पत्र संस्कृत में लिखिये।

शब्दः–पुल्लिंगी।

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

(२१) बक—कुलीरयोः कथा

(१) अस्ति कस्मिंश्चित प्रदेशे नाना जलचर-सनाथं सरः। तत्र च कृताश्रयः एकः बकः वृद्धभावं उपागतः मत्स्यान् व्यापादयितुं असमर्थः। ततश्च क्षुत्क्षाम-कंठः सरस्तीरे उपविष्टो

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(१) **नाना-जलचर-सनात्थं)–**बहुत प्राणी जिस में है ऐसा (तत्र कृताश्रयः)–वहां रहने वाला। (तुत्ता क्षुत्क्षामकंठः……. रुरोद) भूक से जिसका गला थका हुवा है ऐसा (वह) तालाव के किनारे

रुरोद। एकः कुलीरको नानाजलचरसमेतः समेत्य तस्य दुःखेन दुःखितः सादरं इदं ऊचे। (२) किमद्य त्वया आहारवृत्तिर्न अनुष्ठीयते। स बक आह। वत्स सत्यं उपलक्षितं भवता। मया हि मत्स्यादनं प्रति परमवैराम्यतया सांप्रतं प्रायोपवेशनं कृतम्। तेन अहं समीपगतानपि मत्स्यान् न भक्षयामि। (३) कुलीरकस्तच्छ्रुत्वा243 प्राह। किं तद् वैराम्यकारणम्। स प्राह। अहं अस्मिन् सरसि जातो वृद्धिं गतश्च। तन्मया एतच्छ्रुतं244 यद् द्वादशवार्षिकी अनावृष्टिः संपद्यते लग्ना। (४) कुलीरक आह। कस्मात् तच्छ्रुतम्।बक आह। दैवज्ञ मुखात्। वत्स पश्य ! एतत् सरः स्वल्पतोयं वर्तते। शीघ्रं

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पर बैठ कर रोने लगा। (नानाजलचर समेतः) बहुतजल में विचरने वाले प्राणियों के साथ। **(२) (सत्यमुपलक्षितं भवता)–**ठीक आपने देखा। **(मया हि…………न भक्षयामि)–**मैंने तो मत्स्यभक्षण के विषय में उपोषण (व्रत) किया हैं। उससे मैं पास आने वाले मच्छियों को भी नहीं खाता। (३) (जातो वृद्धिगतश्च) उत्पन्न होकर बड़ा होगया। **(तन्मया…..लग्ना)–**तो मैंने यहसुना कि बारा साल की अनावृष्टि लगी है। (४) (शीघ्रं शोषं

शोषं यास्यति। अस्मिन् शुष्के यैः सह अहं वृद्धिं गतः सदैव क्रीडितश्च ते सर्वे तोयाभावान् नाशं यास्यन्ति। तत् तेषां वियोगं द्रष्टुं अहं असमर्थः तेन एतत् प्रायोपवेशनं कृतम्। (५) ततः स कुलीरकस्तदाकर्ण्यअन्येषामपि जलचराणां तत्तस्य वचनं निवेदयामास। अथ ते सर्वे भयत्रस्तमनसस्तं245 अभ्युपेत्य पप्रच्छुः। तात, अस्ति कश्चिदुपायः येन अस्माकं रक्षा भवति। (६) बक आह। अस्ति। अस्ति अस्य जला शयस्य नातिदूरे प्रभूतजलसनाथं सरः। तद् यदि मम पृष्ठं

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यास्यति) शीघ्र हि खुष्क होगा ! **(अस्मिन्……..नाशं यास्यन्ति)–**यह खुष्क होने पर जिनके साथ मैं बड़ा हुवा और हमेशा खेला वे सब जल के अभाव से नाश को प्राप्त होंगे। (५) (ततः स……..निवेदयामास)–पश्चात् उस केंकडेने वह सुनकर अन्य जल निवासियों को भी उसका भाषण निवेदन किया। (अथ…….. पप्रच्छु)–नंतर वे सब भय से डरे हुवे मन वाले उसके पास जाकर पूछने लगे। (६) (अस्ति अस्य……… नयामि)–इस तालाब के पास ही बहुत जल से युक्त एक तालाब।अगर कोई मेरे पीठ पर बैठेगा तो मैं उसको वहां ले जाऊंगा।

कश्चिदारोहति तदहं तं तत्र नयामि। (७) अथ ते तत्र विश्वासमापन्नास्तात246 मातुल इति ब्रुवाणा247अहं पूर्वं अहं पूर्वं इति समन्तात् परितस्थुः। (८) सोऽपि दुष्टाशयः क्रमेण तान् पृष्ठे आरोप्य जलाशयस्य नातिदूरे शिलां समासाद्य तस्यां आक्षिप्यस्वेच्छया तान् भक्षयित्वा स्वकीयां नित्यां आहार वृत्तिंमकरोत्248। (९) अन्यस्मिन् दिने तं कुलीरक आह। तात ! मया सह ते प्रथमः स्नेहः संजातः। तत् किं मां परित्यज्य अन्यान् नयसि। तस्माद् अद्य मे प्राणत्राणं कुरु। (१०) तदाकर्ण्य सोऽपि दुष्टश्चिंतितवान्249। निर्विरणोऽहं250

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(७) (अथ ते…….. परितस्थुः)–पश्चात् वे वहां विश्वास करने वाले पिता, मामा ऐसा बोलने वाले, मैं पहिले, मैं पहिले पेना (कहते हुवे उसके) इधर उधर ठहरे। **(८) (शिलां…. मकरोत्)–**पत्थर प्राप्तकरके, उसके ऊपर फेककर अपनी इच्छा के अनुसार उनको भक्षण करके अपना नित्य का भोजन का कार्य करता था। **(९) (मां परित्यज्य)–**मुझे छोड़कर। **(१०) (सोऽपि दुष्टःचिंतितवान्)–**उस दुष्ट ने सोचा। (निर्विण्णो…….. स्थाने

मत्स्यमांसभक्षणेन। तदद्य एनं कुलीरकं व्यंजन–स्थाने करोमि। (११) इति विचिन्त्य तं पृष्ठमारोप्य251 तां वध्यशिलां उद्दिश्य प्रस्थितः। कुलीरकोऽपि252 दूरादेव253 अस्थिपर्वत अवलोक्यमत्स्यास्थीनि परिज्ञाय तं अपृच्छत्। तात ! कियद्दूरे स जलाशयः। (१२) सोऽपिमंदधीः जलचरोऽयं254 इति मत्वा स्थले न प्रभवति इति सस्मितं इदं आह। कुलीरक ! कुतोऽन्यो255 जलाशयः। मम प्राणयात्रा इयम्।त्वां अस्यां शिलायां निक्षिप्यभक्षयामि। (१३) इत्युक्तवति तस्मिन् कुपितेन कुलीरकेन

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**करोमि)–**मत्स्य मांस भक्षण से घृणा हुवी है, तो आज इस केंकडे की मैं चटणी बनाऊंगा। **(११) (वध्यशिलां उद्दिश्य स्थितः)–**वध करने के पत्थर की दिशा से चला। **(मत्स्यास्थीनि परिज्ञाय)–**मच्छियों की हड्डियां जानकर। **(१२) (सस्मितमिदमाह)–**हंसता हुवा ऐसा बोला। **(कुतोऽन्यो जलाशयः)–**कहां दूसरा तालाव। **(मम प्राणयात्रा इयं)–**मेरी प्राणों की रक्षा यह। **(१३) (इति उक्तवति……..मृतश्च)–**ऐसा उसने बोला, इससे क्रोधित केंकडे

स्ववदनेन ग्रीवायां गृहीतो मृतश्च। अथ स तां बक-ग्रीवां समादाय शनैः शनैस्तज्जलाशयं256 आससाद। (१४) ततः सर्वैरेव जलचरैः पृष्टः। भोः कुलीरक ! किं निमित्तं त्वं पश्चादागातः। कुशलकारणं तिष्ठति। समातुलोऽपि नायातः। तत्किं चिरयति। (१५) एवं तैः अभिहिते कुलीरकोऽपि विहस्य उवाच। मूर्खाः सर्वे जलचरास्तेन257 मिथ्यावादिना वंचयित्वा नातिदूरे शिलातले प्रक्षिप्य भक्षिताः। तन् मया तस्य अभिप्रायं ज्ञात्वा ग्रीवा इयं आनीता। (१६) तदलं संभ्रमेण। अधुना सर्वजलचराणां क्षेमं भविष्यति।

पंचतंत्रम्

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ने अपने मुख से गले में पकड़ा और मर गया। **(शनैः…….. आससाद)–**आस्ते २ उस तालाब के पास पहुंचा। **(१४) (कुशल कारणं तिष्ठति)–**कुशल है ना। **(१५) (तैः अभिहिते)–**उनके कहने पर। (मूर्खाः………आनीता)–मूर्ख सब जल निवासी प्राणी उस असत्यभाषी ने ठगाकर पास के पत्थर पर फेंककर खाये।इसलिये मैं ने उसका मतलब जानकर यह गला लाया। **(१६) (तदलं…….. भविष्यति)–**तो बस (है अब) घबराना। अब सबजलनिवासियों का कल्याण होगा।

२५ पञ्चविंशः पाठः।

पुल्लिंगी तथा नपुंसक–लिंगी शब्दों के रूप बनाने में पाठक अबप्रवीण होगये हैं। क्योंकि इस समय तक पाठकों ने न्यून से न्यून तीन वार पूर्वोक्त पाठों को स्मरण किया है। अब स्त्रीलिंगी शब्दों के रूप बनाने का प्रकार लिखते हैं।

संस्कृत में कोई अकाशन्त शब्द स्त्रीलिंगी नहीं है। आकारान्त शब्द प्रायः स्त्रीलिंगी हुवा करते हैं। कई थोड़े ऐसे शब्द हैं कि जो आकारान्त होने पर भी पुल्लिंगी हैं। परन्तु उनको छोड़ा जाय तो बाकी के सब आकारान्त शब्द स्त्रीलिंगी हैं।

आकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘विद्या’ शब्दः।

(१) विद्या विद्ये विद्याः
सं० विद्ये
(२) विद्याम्
(३) विद्यया विद्याभ्याम् विद्याभिः
(8) विद्यायै विद्याभ्यः
(५) विद्यायाः
(६) विद्ययोः विद्यानाम्
(७) विद्यायाम् विद्यासु

पुल्लिंग में द्वितीया के बहुवचनमें तथा तृतीयाके एकवचन में नकारप्रायः रहता है जैसा–रामान्, रामेण। परंतु स्त्रीलिंग में नहीं रहता। जैसा—विद्याः, विद्यया॥ अस्तु। इस प्रकार ‘गंगा,

रमा, कृपा, मज्जा, जिह्वा, भार्या, माला, गुहा, शाला, बाला, पत्रिका’ इत्यादि शब्दों के रूप होते हैं।

‘अंबा, अक्का, अल्ला’ इत्यादि शब्दों के संबोधन के एकवचन के ‘अम्ब, अक्क, अल्ल’ ऐसे रूप होते हैं। शेष रूप उक्त ‘विद्या’ के समान हि होते हैं।

ईकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘लक्ष्मी’ शब्दः।

(१) लक्ष्मीः लक्ष्म्यौ लक्ष्म्यः
सं० लक्ष्मि
(२) लक्ष्मीम् लक्ष्मीः
(३) लक्ष्म्या लक्ष्मीभ्याम् लक्ष्मीभिः
(४) लक्ष्म्यै लक्ष्मीभ्यः
(५) लक्ष्म्याः
(६) लक्ष्म्योः लक्ष्मीणाम्
(७) लक्ष्म्याम् लक्ष्मीषु

इसी प्रकार ‘नदी’ शब्द के रूप होते हैं। परंतु प्रथमा का एकवचन ‘नदी’ ऐसा विसर्ग रहित होता है, इतनी बात ध्यान में रखनी चाहिये। बाकी के रूपों में कोई भेद नहीं। नदी शब्द के समान हि ‘श्रेयसी, कुमारी, बुद्धिमती, वाणी, सखी, गौरी’ इत्यदि स्त्रीलिंगी शब्दों के प्रथमैकवचन में विसर्ग रहित रूप होकर शेष रूप लक्ष्मीवत् होते हैं।

‘तरी, तन्त्री, अवी, स्तरी’ इनके रूप लक्ष्मी के समान हि होते हैं।

३७ नियम—‘च, छ, ट, ठ, श्’ इनको छोड़ कर अन्य कठोर व्यंजन के पूर्व आने वाला ‘त्’ वैसा हि रहता है। जैसाः—

[TABLE]

३८ नियम—‘ज, झ, ड, ढ, ल’ इनको छोड कर अन्य मृदु व्यंजन तथा स्वर के पूर्व के ‘त्’ कार का ‘द्’ होता है। जैसाः—

[TABLE]

शब्द–पुल्लिंगी।

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

(२२) टिट्टिभी-समुद्रयोः कथा

(१) कस्मिंश्चित् समुद्रैकदेशे258 टिट्टिभदंपती वसतः। ततोगच्छति259 काले टिट्टिभी गर्भ आधत्त। आसन्न-प्रभवा सा टिट्टिभं ऊचे। (२) भो कांत, मम प्रसव-समयो वर्तते। तद्विचि260न्त्यतां किमपि निरुपद्रवं स्थानं येन तत्र अहं अण्डमोक्षणं करोमि।

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**(१) (टिट्टिभ-दंपती वसतः)—**टिट्टिभ पत्ती के स्त्रीपुरुष

स आह–भद्रे! रम्योऽयं समुद्र–प्रदेशः। तदत्रैव प्रसवः कार्यः। सा प्राह–अत्र पूर्णिमादिने समुद्रवेला चलति। सा मत्तगजेन्द्रानपि261 आकर्षति। तद्दूरं262अन्यत्र किंचित्स्थानं अन्वेष्यताम्। (४) तच्छ्रुत्वा विहस्य टिट्टिभ आह। भद्रे न युक्तमुक्तं263 भवत्या। का मात्रा समुद्रस्य यो मम दूषयिष्यति प्रसूतिम्। तद्विश्रब्धा264 अत्रैव गर्भं मुंच। (५) तच्छ्रुत्वा193 समुद्रः चिंतयामास। अहो गर्वः पक्षिकटिस्य अस्य। तन्मया265 अस्य प्रमाणं कुतूहलादपि266 द्रष्टव्यम्। किं मम एषोऽण्डाऽपहारे करि-

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रहते हैं। (गच्छति काले) समय होने पर। (३) **तदत्रैव प्रसवः कार्यः)–**तो यहां ही प्रसृति करनी योग्य है। (समुद्र-वेला चलति) समुद्र की मर्यादा हिलती है–पानी बढ़ता है। (सा मत्तगजेंद्रान अपि आकर्षति) वह उन्मत बड़े हाथियों को भी खेचती है। **(४) (न युक्तं उक्तं भवत्या)–**तुमने ठीक नहीं कहा। (का मात्रा…. प्रसूतिम्) क्या मजाल है समुद्र की जो मेरी प्रसृती को बिघाडेगा। (५) (अहो……..कीटस्य अस्य)–अरे

ष्यति। इति चितयित्वा स्थितः। (६) अथ प्रसवानंतरं प्राणमात्रार्थं गतायाः टिटिभ्याः समुद्रोऽण्डानि267 अपजहार। अथ आयाता सा प्रसवस्थानं शून्यं अवलोक्य प्रलपंती टिट्टिभं ऊचे। (७) भो मूर्ख, कथितं आसीन् मया ते यत्समुद्रवेलया अण्डानां नाशो भविष्यतीति268।तद्रुततरं269 व्रजाव इति। परं मूढतया अहंकारं आश्रित्य मम वचनं नाऽकरोः270। (८) स आह–भद्रे–किं मां मूर्ख संभावयसि। तत् पश्य मे बुद्धि प्रभावं यावद् एनं दुष्टं समुद्रं शोषयामि। (९) सा प्राह–अहो, कस्ते271 समुद्रेण सह विग्रहः। अथवा साधु इदं उच्यते।

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क्या अभिमान है इस पक्षी के कीड़े का। **(६) (अथ…….. अपजहार)–**नंतर प्रसूति के पश्चात् भोजन ढूंड़ने के लिये गये हुवे टिटिभी के अण्डे समुद्र ने हरण किये। (शून्यं अवलोक्य) खाली देखकर। (७) **(मूढतया……ऽकरोः)–**मूर्खता से अभिमान धरकर मेरा वचन नहीं किया। **(८) ( मूर्ख संभावयासि)–**मूर्ख समझते हो। (८) (आत्मनः) अपनी (परस्य च) और शत्रु की (शक्तिं) शक्ति (अविदित्वा) न जानकर जो (समुत्सुकः) जोष से भरा हुवा (अभिमुखः व्रजन्) चढ़ाई करने के लिये सीधा जाता

अविदित्वाऽऽत्मनः272 शक्तिं
परस्य च समुत्सुकः।
व्रजन्न273भिमुखो नाशं
याति वह्नौ पतंगवत्॥

(१०) टिट्टिभ आह–प्रिये मा मा एवं वद। येषां उत्साहशक्ति274र्भवति ते स्वल्पा अपि गुरून् अपि विक्रमन्ते। तदनया275 चंच्वाअस्य सकलं तोयं शुष्कस्थलतां नयामि। (११) टिट्टिभी आह। भो कांत, यत्र जाह्नवी नवनदीशतानि” गृहीत्वा नित्यमेव प्रविशति तथा सिंधुश्च276 तत् कथं एतादृशं समुद्रं विप्रुषवाहिन्या चंच्वाशोषयिष्यसि। (१२) तत् किं अश्रद्धेयेन उक्तेन इति। स आह–अनिर्वेदः श्रियो मूलम्।

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है वह (नाशं याति) नाश को प्राप्त होता है। जैसा(वह्नौ) अग्नि में (पतंग-वत्) पतंग के समान। (१०) (ते स्वल्पा०…….. विक्रमन्ते)–वे छोटे होने पर भी बड़ों को जीतते है। (अनया चंच्वा) इस चोंचसे। (१२) (नवनदी शताति)–नौ सौं नदियां। (विप्रुषवाहिन्या चंच्वा) एक बूंद धरने वाली चोंच से। (१२) अनिर्वेदः श्रियो मूलं)–उत्साह धन का मूल है। (लोह-सन्निभा)

मम चंचुः लोहसंनिभा। अहोरात्राणि दीर्घाणि। तत् किं समुद्रो न शुष्यति। (१३) सा प्राह। यदि त्वया अवश्यं समुद्रेण सह वैरानुष्ठानं कार्यं तद् अन्यानपि विहगान आहूय सुहृज्जन-सहित एवं समाचर। यतः असाराणामपि277 बहूनां समवायो दुर्जयः। (१५) सम्यङ् मंत्रितं भवत्या इत्युक्त्वा278 स बकसारस-मयूरादीन् आहूय—भोः पराभूतोऽहं समुद्रेण अण्डापहारेण तत् चिंत्यतां अस्य शोषणोपाय279 इति प्रोवाच। (१६) ते समय प्रोचुः। अशक्ता वयं अस्मिन् कर्माणि। तदस्माकं280 स्वामी वैनतेयोऽस्ति281। तत्सकाशं गत्वा एतत्परिभव-स्थानं तस्मै निवेदयामः। येन स्वजाति-परिभव-कुपितो वैरानृण्यं गच्छति। (१६) तथा निश्चित्य सर्वे ते गरुडस्य सकाशं गत्वा टिट्टिभ-

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लोहे के समान।(१४) (असाराणां अपि बहूनां समवायो दुर्जयः)-अनेक दुर्बलों का समूह जीतने के लिये अशक्य है । (१५) (सम्यक् मंत्रितं भवत्या)- तू ने ठीक सलाह दी। (येन स्व०……….गच्छति) जिससे स्वजाति के अपमान से क्रोधित
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वृत्रांतंतस्मै अकथयन्। (१७) तं समाकर्ण्य गरुडः कोपाविष्टः सन् समुद्र-शोषण-निश्चयं चकार।अत्रांतरे विष्णुदूत आगत्य तं उवाच । (१८) भो, गरुत्मन्, देवकार्येण श्रीभगवान् अमरावतिंयास्यति, तत् सत्वरं त्वया आगम्यताम् इति। (१६) गरुडः साभिमानं प्राह-भो दूत, किं मया कुभृत्येन श्रीभगवान् करिष्यति। तद् गत्वा वद, अन्यो भृत्यो वाहनाय स्थाने क्रियताम्। मदीयो282 नमस्कारश्च भगवते वाच्यः। (२०) दूत आह-भो वैनतेय, त्वया कदाचिदपि283 भगवंतं प्रति न एतादृग् अभिहितम्। तत् कथय किं ते भगवता अपमानस्थानं कृतम्। (२१) गरुड आह–भगवदाश्रय284भूतेन समुद्रेण अस्मटिट्टिभा285ण्डानि अपहृतानि। तद् यदि निग्रहं न करोति तदहं भगवतो न भृत्य इति, एषनिश्चय286स्त्वया वाच्यः। (२२) अथ दूतमुखेन कुपितं वैनतेयं ज्ञात्वा भगवान् सत्वरं तत्सकाशं

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हुवा हुवा वैर को प्राप्त होगा। (१९) (साभिमानं प्राह)–घमंड से बोला। (२०) (एतादृक् अभिहितं)–ऐसा कहा। (२१)(यदिनिग्रहं न करोति) अगर उसकोदगड न देगा।

जगाम्। वैनतेयोऽपि गृहागतं भगवंतं अवलोक्य त्रपाऽधोमुखः287 प्रणम्य उवाच। (२३) भगवन्, त्वदाश्रयोन्मत्तेन288 समुद्रेण मम भृत्यस्य अण्डानि अपहृत्य मे अपमानस्थानं कृतम्। परं युष्मलज्जया289 अहं तं स्थलतां न नयामि। यतः स्वामिभयात् शुनोऽपि प्रहारो न दीयते। (२४) तच्छ्रुत्वा भगवान् आह-सत्यमभिहितम्। तद् आगच्छ येन अण्डानि समुद्राद्आदाय टिट्टिभं संभावयामः। (२५) तथा अनुष्ठिते समुद्रो भगवता निर्भर्त्स्य आग्नेयं शरं संधायअभिहितः । भो दुरात्मन् दीयतां टिट्टिभाण्डानि। नोचेत् स्थलतां त्वां नयामि। (२६) ततः समुद्रेण सभयेन अण्डानि तानि प्रदत्तानि। टिट्टिभेनापि स्वभार्यायै समर्पितानि।

पंचतंत्रम्

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(२३) (त्रपाधोऽमुखः) लज्जा से नीचे मुंह करके। (स्वामि भयात्……..दीयते) मालिक के भय से कुत्ते को भी मार नहिं दिया जाता। (२४) (टिट्टिभं संभावयामः) टिट्टिभ का सम्मान करें (२५) (तथा…….. अभिहितः) वैसा करने पर समुद्र को भगवान ने निंदा करके आग्नेय बाण को लगाकर कहा।

समासाः।

(१) समुद्रैकदेशः ———— समुद्रस्य एकदेशः।
(२) आसन्न प्रभवा ———— आसन्नः प्रभवः यस्याः।
(३) अण्ड मोक्षणं ———— अण्डानां मोक्षणम्।
(४) मत्तगजेन्द्रः ———— मत्तश्चासौ गजेंद्रश्च।
(५) समुद्रवेला ———— समुद्रस्य वेला।
(६) बुद्धिप्रभावं ———— बुद्धयाः प्रभावम्।
(७) अभिमुखः ———— अभितः मुखं यस्य।
(5) विप्रुषवाहिनी ———— विप्रुषं वहतीति।
(६) अश्रद्धेयं ———— श्रद्धातुं योग्यं श्रद्धेयं। न श्रद्धेयं
अश्रद्धेयम्।
(१०) सुहृज्जन सहितः ————सुहृज्जनेन सहितः।
(११) वैनतेयः ———— विनतायाः अपत्यं वैनतेयः।
(१२) आग्नेयं ———— अग्नेः इदं आग्नेयम्।
(१३) स्वभार्या ———— स्वस्य भार्या।

(२६) षट्विंशः पाठः।

ऊकारान्तः स्त्रीलिंगः ‘चमू’ शब्दः।

(१) चमूः चम्वौ चम्वः
सं चमु चम्वौ चम्वः
(२) चमूम् चम्वौ चमूः
(३) चम्वा चमूभ्याम् चमूभिः
(४) चम्वै चमूभ्याम् चमूभ्यः
(५) चम्वाः चमूभ्याम् चमूभ्यः
(६) चम्वाः चम्वोः चमूनाम्
(७) चम्वाम् चम्वोः चमुषु

इसी प्रकार ‘वधू, श्वश्रू, जम्बू, कर्कन्धू, दिधिषू, यवागू, चम्पू,’ इत्यादि ऊकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द चलते हैं।

ईकारान्तः स्त्रीलिंगः ‘स्त्री’ शब्दः ।

(१) स्त्री स्त्रियौ स्त्रियः
(सं०) स्त्रि स्त्रियौ स्त्रियः
स्त्रियम्, स्त्रीम् स्त्रियौ स्त्रियः,स्त्रीः
स्त्रिया स्त्रीभ्याम् स्त्रीभिः
स्त्रियै स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्यः
स्त्रियाः स्त्रीभ्याम् स्त्रीभ्यः
स्त्रियाः स्त्रियोः स्त्रीणाम्
स्त्रियाम् स्त्रियोः स्त्रीषु

इस प्रकार एक स्वर वालो ईकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द चलते हैं।

३९नियम—क्, च्, ट्, त्, प्’ इनके सामने मृदु व्यंजन आने से इनके स्थान पर क्रमशः “ग, ज, ड्, द्, ब्” होते हैं

वाक् + जन्म = वाग्जन्म। त्रिष्टुप्+गंधः =त्रिष्टुब्गंधः।
भभृत् + भ्याम् = भूभृद्भ्याम् !। वषट् + जनः = वषड्जनः।

शब्द—पुल्लिंगी ।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी ।

अशरीरिणी—आकाशवाणी विदिश्—उपदिशा
प्रतिकृतिः—मूर्ति सहधर्मचारिणी—धर्मपत्नी

नपुंसकलिंगी ।

निर्माणं—उत्पत्ति बाष्पं—भांफ, आंसु
सत्रं—यज्ञ वज्रं—तलवार
कुसुमं—फूल उरस्ताडनं—छाती पीटनी
अब्रह्मण्यं—दुःखकी पुकार चेतस्—चित्त, मन
चतुरंगबलं—चार प्रकारकीसेना शास्त्रं—शास्त्र

विशेषण।

विश्रांता—विश्राम किया हुवा दृष्ट—देखा हुवा
वल्लभ—प्रिय प्रक्रांत—प्रारंभ किया हुवा

[TABLE]

क्रिया।

समाश्वसिहि—सावधान हो अत्याहितं—बुरा हुआ
परिणीतं—विवाह किया अर्हति—योग्य होता है

अन्य।

संप्रति—अब यथाशास्त्रं—शास्त्रानुकूल
सांप्रतं—आजकल हंत—अरेरे
शांतंपापं,—च् च्, ये क्या !

(२३)आत्रेयीवनदेवतयोः सीतारामविषयकः संलापः।

(१) आत्रेयी—विश्रांताऽस्मि290 (विश्रांताऽस्मि )— आराम किया, थकावट दूर होगयी। स्त्रीलिंग में । इसी का पुल्लिंगमें (विश्रांतोऽस्मि ) ऐसा बनेगा।") भद्रे। संप्रति अगस्त्या-

श्रमस्य पंथानं ब्रूहि। (२)वनदेवता—इतः पञ्चवटामनु291 प्रविश्य गम्यतामनेन292 गोदावरीतीरेण । (३) आत्रेयी–(सबाष्पा) अपि एषा पंचवटी। अपि सरिद् इयं गोदावरी। अपि अयं गिरिः प्रस्रवणः। अपि वनदेवता जनस्थान-वासिनी वासंती त्वम्। (४) **वासंती—**अस्ति एतत् सर्वम्।
(५) **आत्रेयी—**वत्से जानकि।

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(२) (पंचवटी अनुप्रविश्य) पंचवटी में प्रवेश करके। (३) (सबाष्पा) (आंखों में आंसूंलाकर) (अपि…….. त्वम्)–क्या यही तपोवन। क्या यही पंचवटी। क्या यही गोदावरी नदी। क्या यही प्रस्त्रवण पर्वत। क्या तू ही जनस्थान वासी वनदेवता॥ (इसका तात्पर्य यह है कि आत्रेयीकहती है कि ‘क्या यही पंचवटी है कि जहां सीतादेवी एक समय रही थी’ और ऐसा कहते हुवे उनको बड़ा दुःख होता है, क्योंकि अब सीताका त्याग श्रीरामचंद्र ने किया है) इसी प्रकार सब स्थान पर समझ लेना (५) (सः एषः )–वह यही (ते वल्लभबंधुवर्गः) तुमारा प्रिय बंधुगण है कि जो (प्रासंगिकानां कथानां विषयः) प्रासंगिक कथाओं का विषय है। और यह (नामशेषां आप त्वां) तुमारा मृत्यु होने पर भी (दृश्यमानः) नजर आता है। और यही (नः) हमको (प्रत्यक्ष–दृश्यांइव)

स एष ते वल्लभ-बंधुवर्गः।
प्रासंगिकानां विषयः कथानाम्॥
त्वां नामशेषामपि293 दृश्यमानः।
प्रत्यक्षदृश्यामिव294 नः करोति॥१॥

** (६)** वासंती–(सभयं स्वगतम्) कथं नामशेषां इति आह। (प्रकाशं) अत्याहितं सीतादेव्याः । **(७)आत्रेयी—**न केवलमत्याहितम्295। सापवादमपि296(८) वासंती–कथमिव।(१)आत्रेयी—(कर्णे) एवं एवम्। **(१०) वासंती—**अहह दारुणो297दैवनिघार्तः(इति मूर्च्छाति) (११) आत्रेयी—

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साक्षात्तुमारा दर्शन होता है ऐसा (करोति) करता है॥अर्थात् पंचवटी आदि देखने से तुम्हारा स्मरण होता है। इस समय आत्रेयी समझती हेकि सीता बन में छोडने के कारण मर चुकी है।(नामशेषा) मरी हुवी । (सापवादं) प्रकीर्ति-बदनामी-से भरा हुवा॥ (६) (कर्णे) कान में सीता के विषय में बात कहती है कि धोबी ने कीई हुवी निंदा सुनकर रामचंद्र ने सीता को बन में छोड़ दिया इत्यादि०॥ (१०) (निर्घातः) प्रहार, आघात।

भद्रे, समाश्वसिहि समाश्वसिहि। (१२) **वासंती—**हा प्रियसखि । हा महाभागे ! ईदृशास्ते298निर्माण भागः। रामभद्र रामभद्र ! अथवा अलं त्वया ! आर्येआत्रेयि ! अथ तस्माद अरण्यात् परित्यज्य निवृत्ते लक्ष्मणे सीतादेव्याः किं वृत्तम् इति काचिदस्ति299 प्रवृत्तिः। (१३) **आत्रेयी—**नहि नहि। (१४) वासंती— हा कष्टम् ! आर्याऽरुंधतीवासिष्ठााधीष्ठते रघुकुलगृहे जीवंतीषु च प्रवृद्धराज्ञीषु कथमिदं जातम्। **(१५) आत्रेयी—**ऋष्यशृंगसत्रे गुरुजनः तदा आसीत्। संप्रति परिसमाप्तं तद् द्वादशवार्षिकं सूत्रम्। ऋष्यशृङ्गेणच संपूज्य विसर्जिता300 गुरवः। ततो भगवती अरुंधती नाहं वधूविरहितां

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(१२) (ईदृशः ते निर्माणभागः) हाय यही तुम्हारा जन्म का भाग॥अर्थात् ऐसे बदनामी के लिये हि तेश जन्म है॥ (अलं त्वया) वस तुमारा।तुम से क्या कहें ॥ (निवृत्ते लक्ष्मणे) लक्ष्मण वापस होने के बाद।(का चिद् अस्ति प्रवृत्तिः) कुछ पता है॥(१४) (आर्या…….. जातं)-श्रेष्ठ अरुंधति और वसिष्ठ रघुकुल में रहते हुवे तथा वृद्ध गणियों के मौजूदगी में यह प्रकार कैसा हुवा॥ (१५) (विसर्जिताः गुरवः)–गुरुओंको वापस भेजा।

अयोध्यां गमिष्यामि इत्याह। तदेव301राममातृभिः अनुमोदितम्। तदनुरोधात् भगवतो वसिष्ठस्य परिशुद्धा वाचो यथा वाल्मीकि तपोवनं गत्वा तत्र वत्स्याम इति।

** (१६) वासंती—अथ स राजा किमारंभः संप्रति।(१७)** आत्रेयी—तेन राज्ञा क्रतुः अश्वमेधः प्रक्रान्तः।(१८) **वासंती—**अहह। धिक् ! परिणीतमपि302। **(१९)।आत्रेयी—**शांतं पापम्। (२०) वासंती— का तर्हि यज्ञ सह—धर्मचारिणी। **(२१) आत्रेयी—**हिरण्मयी सीताप्रति कृतिः। **(२२) वासंती—**हंत भोः।

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(वधूविरहितां अयोध्यां) लडकी–(सीता)- जहां नहीं है ऐसे अयोध्या को। (परिशुद्धा वाचः) शुद्ध भाषण।

(१६) स राजा किं आरंभः संप्रति)– उस राजा राम) ने क्या प्रारंभ किया है अब। (१८) (परिणीतं अपि)–क्या शादी भी की ! (१९) (शांतं पापं)–च् च्छेः, ऐसा कभी होसकता है ? शिव शिव। (इस प्रकार का भाव यहां है)। (२१) (हिरण्मयी…….. कृतिः) -सोने की सीता की मूर्ति। (२२) (वज्रादपि

वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति॥२॥

**(२३) आत्रेयी—**विसृष्टश्च303 वामदेवानुमंत्रितः मेध्योऽश्वः304। उपकल्पिताश्च यथाशास्त्रं तस्य रक्षितारः। तेषां अधिष्ठाता च लक्ष्मणात्मजः चंद्रकेतुः दत्तदिव्यास्त्र संप्रदायः चतुरंग–साधनान्वितोऽनुप्रहितः305(२४) वासंती—(स स्नेह–कौतुकं) कुमार–लक्ष्मणस्यापि पुत्रःहंत मातर्जीवामि। **(२५) आत्रेयी–**अत्रान्तरे ब्राह्मणेन मृतं पुत्रं उत्क्षिप्य

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कठोराणि)–वज्र से भी कठिन (कुसुमाद् अपि मृदूनि) फूल से भी नरम ऐसे (लोकोत्तराणां चेतांसि)श्रेष्ठों के मन (हि कःविज्ञातुं अर्हति) कौन जान सकता है। (२३) (वामदेवानु-मंत्रितः)–वामदेव ॠषी ने जिसको अभिमंत्रित किया है। (दत्तदिव्य…….. प्रहितः) जिसको दिव्य अस्त्रों की परंपरा दी हैं, तथा चार प्रकार की सेना जिसके साथ है ऐसा (अनुप्रहितः) (साथ भेजा है। (२४) (मातः जीवामि)–हे माता मैं बच गयी। (आश्चर्य का यह प्रकाशक भाषण है)। (२५) (सोरस्ताडनं

राजद्वारे सोरस्ताडनं अब्रह्मण्यं उद्घोषितम्। ततो न राजाऽपराधं अन्तरेण प्रजासु अकालमृत्युः चरति इति आत्मदोषं निरूपयतिकरुणामये रामभद्रे सहसैव अशरीरिणी वाग् उदचरत्।

(२६) शंबूको नाम वृषलः
पृथिव्यां तप्यते तपः।
शीर्षच्छेद्यः स ते राम
तं हत्वा जीवम द्विजम्॥३॥

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………..उद्घोषितम्)—छाती पीटते हुवे दुःख की पुकार की। (ततो उदचरत्) नंतर राजा के दोषके बिना प्रजा में अकाल मृत्यु नहीं होता है इसलिये अपना दोष दयामय रामचंद्र ने मानने पर अकस्मात् आकाश वाणी होगई। (२६) (शंबूकः नाम वृषलः)– शंबूक नामक शूद्र (पृथिव्यां तपः तप्यते) पृथ्वी पर तप करता है। (राम, स ते शीर्ष–छद्यः) हे राम वह तू ने शिरच्छेद करने योग्य है। (तं हत्वा द्विजं जीवय ) उसको मारकर ब्राह्मण को जिंदा कर (इति उपश्रुत्य ) ऐसा सुनकर। (कृपाणपाणिः) जिसके हाथ में तलवार है। (शुद्रतापसान्वेषणाय ) तप करने

इत्युपशृत्य306 एव कृपाणपाणिः पुष्पकं विमानमारुह्य सर्वादिशो307 विदिशश्च308शूद्रतापसान्वेषणाय जगत्पतिः संचरितुं आरब्धवान्। **(२७) वासंती—**शंबूको नाम धूमपः शूद्रोऽस्मिन्नेव जनस्थाने तपश्चरति तदपि रामभद्रः पुनरपीदं309 वनं अलंकुर्याद्। **(२८) आत्रेयी–**भद्रे गम्यतेऽधुना। **(२१) वासंती—**एवमस्तु। कठोरीभूतो दिवसः।

उत्तररामचरितम्

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वाले शूद्र को धूंडने के लिये। (२७) (शंबूको……..अलंकुर्यात्)—शंषूक नामक धूम्रपान करने वाला शूद्र इसी जनस्थान में तप करता है। तो रामचंद्र फिर इस वन को सुशोभित करेंगे॥

२७ सप्तविंशः पाठः।
इकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘रुचि’ शब्दः।

१. रुचिः रुची रुचयः
सं रुचे रुची रुचयः
रुचिम् रुची रुचीः
(३) रुच्या रुचिभ्याम् रुचिभिः
(४) रुच्यै, रुचये रुचिभ्याम् रुचिभ्यः
(५) रुच्याः, रुचे रुचिभ्याम् रुचिभ्यः
(६) रुच्याः, रुचेः रुच्योः रुचीनाम्
(७) रुच्याम्, रुचौ रुच्योः रुचिषु

इस शब्द के चतुर्थी से सप्तमी पर्यंत एकवचन के दो दो रूप होते हैं, एक ‘लक्ष्मी’ शब्द के समान तथा दूसरा ‘हरि’ शब्द के समान होता है। यह बात पाठकों ने अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये। इस प्रकार ‘स्तुति, मति, बुद्धि, शुचि’ आदि शब्द चलते हैं।

उकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘धेनु’ शब्दः।

(१) धेनुः धेनू धेनवः
सं० धेनो धेनू धेनवः
(२) धेनुम् धेनू धेनूः
(३) धेन्वा धेनुभ्याम् धेनुभिः
(४) धेन्वै, धेनवे धेनुभ्याम् धेनुभ्यः
(५) धेन्वाः, धेनोः धेनुभ्याम् धेनुभ्यः
(६्) धेन्वाः, धेनोः धेन्वोः धेनूनाम्
(७) धेन्वाम्, धेनौ धेन्वोः धेनुषु

इसी प्रकार ‘रज्जु, हनु, तनु, लघु’ इत्यादि स्त्रीलिंगीशब्द चलते हैं।

इस शब्द के भी चतुर्थी से सप्तमी पर्यंत एकवचन के दो दो रूप होते हैं, एक ‘चमू’ शब्द के समान तथा दूसरा ‘भानु’ शब्द के समान होता है। इकारान्त स्त्रीलिंगी शब्दों से ईकारान्त स्त्रीलिंगी शब्दों में कौनसा भेद है तथा उकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंगी शब्दों में कौनसी भिन्नता है इसका विचार पूर्वोक्त रूप देखकर पाठकों ने करना चाहिये। इस पाठ में ह्रस्व इकारान्त तथा ह्रस्व उकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द दिये हैं तथा २६ वेंपाठ में दीर्घ ईकारान्त तथा दीर्घ अकारान्त शब्द दिये हैं। पाठकों को चाहिये कि वे इनकी परस्पर तुलना करके परस्पर विशेषता का स्मरण रखे।

धकारान्तः स्त्रीलिंगः ‘समिध्’ शब्दः।

(१) समित् समिधौ समिधः
सं० समित् समिधौ समिधः
(२) समिधम् समिधौ समिधः
(३) समिधा समिद्भ्याम् समिद्भिः
(४) समिधे समिद्भ्याम् समिद्भः
(५) समिधः समिद्भ्याम् समिद्भः
(६) समिध समिधोः समिधाम्
(७) समिधि समिधोः समित्सु

इस प्रकार ‘सरित् हरित्, भूभृत, शरद्, तमोनुद्, बेभिद्, क्षुद्, चेच्छिद्, मुयुध्, गुप्, ककुभ्, आग्नमथ्, चित्रलिख्, सर्वशक्’ ये शब्द चलते हैं। इनके पुल्लिंग स्त्रीलिंगके रूप समान होते हैं। उक्त

शब्दों में ‘सरित्, शरद्, क्षुध्, ककुभ्’ ये शब्द स्त्रीलिंगी हैं। इनके थोड़े से रूप नीचे देते हैं। जिनको देखकर पाठक अन्य रूप बना सकेंगेः–

[TABLE]

पाठकों को चाहिये कि वे इनके अन्य विभक्तियों के रूप बनाकर लिखें और उनको ‘संमिध्’ के रूपों के साथ तुलना करके देखें कि ठीक हुवे है या नहीं।

शब्द–पुल्लिंगी

श्यालः—साला नागरिकः—पुलीस का अफसर
पाटश्चरः—चोर प्रतिग्रहः—दान
धीवरः—मच्छी मारने वाला आजीवः—जीविका, धंदा,
भावमिश्रः—सज्जन, सभ्य मनुष्य उद्गालः—हूक, मच्छी पकडनेका कांटा
आगमः—प्राप्ति, वेद आवुत्तः—साला, बहिनका पति
अवसरः—समय शौंडिकः—शराब-मद्य-बेचने
गृध्रः —गीध वाला, कलाल
मुहूर्तः—दो घडी साक्षिन्—गवाही
आपणः—दुकान, बाजार राजन्—राजा
भावः—सज्जन गंडभेदकः—जेब चोर, गट्ठी चोर

स्त्रीलिंगी।

कादंबरी—शराब, सरस्वती, जातिः—कौम
अनुकंपा—कृपा, दया

नपुंसकलिंगी।

अंगुलीयकं—अंगुठी मरणं— मृत्यु
शासनं—दण्ड, राज्य चलाना जालं—जाला
सुमनस्—फूल, पुष्प, अच्छेमन वाला मद्यं—शराब

विशेषण।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

अन्य

मुहूर्तम्—थोडी देर साक्षिकं—गवाही में रखकर

(२४) अंगुलीयकः प्राप्तिः

(ततः प्रविशति नागारिकः श्यालः–
पश्चाद् बद्धपुरुषमादाय रक्षिणौ च)

(१) रक्षिणौ—(ताडयित्वा) अरे कुंभीरक310, कथय कुत्र त्वया एतद् राजकीयं अंगुलीयकं समासादितम्। (२) पुरुषः—(भीति-नाटितकेन) प्रसीदन्तु भावमिश्राः। अहं न ईदृशकर्मकारी ! (३) प्रथमः— किं शोभनो ब्राह्मण इति कलयित्वा राज्ञा प्रतिग्रहो दत्तः। **(४) पुरुषः—**शृणुत

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**(ततः प्रवि०……… रक्षिणौ च)**अनंतर प्रवेश करता है राजश्यालक थानेदार और पीछे से हाथकडियां डाले हुए एक पुरुष को लेकर दो पुलीस।

(१) (कुंभीरक)- यह उस पुरुष का नाम है। **(२) (भीति नाटितकेन)-**डरनेका भाव बताकर। (प्रसीदन्तु भावमिश्राः) आप सज्जन कृपा कीजिये। (ईदृश कर्मकारी) ऐसा कर्म करने वाला। (३) (किं शोभनो…….. दत्तः)- क्याउत्तम ब्राह्मण ऐसा समझ कर (तुम्हें) राजा ने दानदिया। (४) (शक्रावताराभ्यंतर

इदानीम्। अहं शक्रावताराभ्यंतरवासी धीवरः। **(५) द्वितीयः—**पाटच्चर ! किमस्माभिः जातिः पृष्टा ! (६) श्यालः— सूचक, कथयतु सर्वमनुक्रमेण। मा एनं अंतरे प्रतिबंधय। (७) उभौ— यद् आवृत्त आज्ञापयति। कथय। **(५) पुरुषः—अहं जालोद्गालादिभिः मत्स्य–बंधनोपायैः कुटुंब–भरणं करोमि। (६) श्यालः–विशुद्ध इदानीं आजीवः।(१०)पुरुषः—**सहजं किल यद् विनिंदितं न खलु तत् कर्म विवर्जनीयम्। **(११) श्यालः—**ततस्ततः। **(१२) पुरुषः—**एकस्मिन् दिवसे खण्डशो311 रोहित-मत्स्यो मया कल्पितः। यावत् तस्य उदराभ्यंतरे इदं रत्नभासुरं अंगुलीयकं

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वासी)—शक्रावतार गांव का रहने वाला।(६) (कथयतु….क्रमेण)– क्रम से सब कहने दो।(८) (अहं…..करोमि )–मैं जाल और हुक आदि मच्छी पकड़ने के साधनों से कुटुंब का पोषण करता हूँ ।(१०) (सहजं…..वर्जनीयं )- जन्म से उत्पन्न हुवा २ जो कुछ भी काम हो वह निंदनीय (होने पर भी) वह कार्य छोडना नहि चाहिये।

(११) (ततः ततः)—बाद क्या हुवा? (१२) (कस्मिन्…….

दृष्टम्। पश्चाद् अहं तस्य विक्रयाय दर्शयन्गृहीतो भावमिश्रैः। मारयत वा मुञ्चत वा । अयं अस्य आगमवृत्तान्तः। (१३) श्यालः— जानुक, विस्रगंधी गोधादी मत्स्यबन्ध एव निःसंशयम्। **(१४) रक्षिणौ—**तथा। गच्छ, अरे गण्ड-भेदक।

(सर्वे परिक्रामन्ति)

** (१५) श्यालः—**सूचक, इमं गोपुरद्वारे अप्रमत्तौ प्रतिपालयतं। यावद् इदं अंगुलीयकं यथागमनं भर्तुर्निवेद्य312 ततः

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कल्पितः)–एक दिन रोहित मच्छी के मैने टुकडे किये । (पश्चात्……. मिश्रैः) पश्चात् मैं उसके विक्रीके लिये बताता (था इतने में) आप सज्जनों ने मुझे पकडा। (१३) (विस्रगंधी)– जिसको मच्छी की बदबू आती है, (गोधादी) गाोधा जानवर को खाने वाला (मत्स्यबंध) मच्छि पकडने वाला हि (निःसंशयं) निःसंदेह है। (१४) (सर्वे परिक्रामन्ति) सब (इदर उधर घूमते हैं)। (१५) (इमं……..पालयतं)–इसको गोपुर के दरवाजे पर (तुम दोनों ने) ध्यान से रखना। (यावत्……. निष्क्रामामि) जब (कि मैं) इस

शासनंप्रतीक्ष्य निष्क्रामामि । **(१६) उभौ—**प्रविशतु आवुत्तः स्वामिप्रसादाय।

(इति निष्क्रान्तः श्यालः)

**(१७) प्रथमः—**जानुक, चिरायते खलु आवुत्तः।

(१८) द्वितीयः— ननु अवसरोपसर्पणीया राजानः।

(१९) **प्रथमः—**जानुक, प्रस्फुरतो313 मम हस्तौ अस्य वधार्थं।

(इति पुरुषं निर्दिशति)

** (२०)** **पुरुषः—**नार्हति भावोऽकारण314मारणं भावयितुम्।

(२१) द्वितीयः— (विलोक्य) एष नौ स्वामी पत्रहस्तो315राज-

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अंगुठी का आगमन वृत्तान्त राजा को निवेदन कर उनसे दण्डके बाबद पूछ कर आता हूं। (१७) (चिरायते … आवुत्तः) राजश्यालक को (वापस) आने के लिये देरी लगी ! (१८) (अवसरोपसर्पणीयाः राजानः)–राजाओं के पास अवसर मिलने पर जाना होता है। (२०) (नार्हति…..भावयितुं)–योग्य नहि आप सज्जन को विना कारण मारने का भाव लाने के लिये। (२१) ( एष……..दृश्यते )–यह हमारा स्वामी हाथ में पत्र लेता हुवा राजा से दंड

शासनं प्रतीक्ष्य इतोमुखो दृश्यते। गृध्रवलिर्भविष्यसि शुनोमुखं वा द्रक्ष्यसि।

(प्रविश्य)

**(२२) श्यालः—**मुच्यतां एष जालोपजीवी। उपपन्नः खलु अंगुलीयकस्य आगमः। (२३) **सूचकः—**यथा आवृत्तो भणति। **(२४) द्वितीयः—**एष यमसदनं प्रविश्य प्रतिनिवृत्तः। (२५) पुरुषः—(श्यालं प्रणम्य ) भर्तः ! अथ कीदृशो मे आजीवः। **(२६) श्यालः—**एष भर्त्रा अंगुलीयक-मूल्यसंमितः प्रसादोऽपि316 दापितः।

(इति पुरुषं प्रयच्छति)

(२७) पुरुषः—(सप्रणामं प्रतिगृह्य) भर्तः, अनुगृहीतो

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आज्ञा लेकर इसी ओर आरहा है ऐसा दीखता है। (गृध्रबलिः विष्यति) या तो यह गीध की शिकार होगा अथवा कुत्ते का मुंह वेगा। (२५) (भर्तः……आजीवः)–हे स्वामिन् ! अब मेरा गुजारा कैसे होगा। (२६) (एषः……..दापितः)–यह राजा ने अंगुठी के मूल्य के बराबर प्रसाद भी दिया है। (२७) (अनुगृहीतो

ऽस्मि। **(२८) सूचकः—**एष नामानुग्रहः। यत् शूलाद् अवतार्य हस्तिस्कंधे प्रतिष्ठापितः। (२९) जानुकः— आवुत्त, पारितोषिकं कथयति, तेन अंगुलीयकेन भर्तुः संमतेन भवितव्यम् इति। **(३०) श्यालः—**न तस्मिन् महार्हंरत्नं भर्तुर्बहुमतं317 इति तर्कयामि। तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतः318 जनः। प्रकृतिगंभीरोऽपि319 मुहूर्तं पर्युत्सुकमना आसीत्।

अभिज्ञानशाकुंलतम्।

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ऽस्मि)–मेरे पर बड़ी कृपा होगई। (२८) (एषः……प्रतिष्ठापितः)–इसका नाम है प्रसाद। जो कि शूल पर से (फांसी पर से) उतार कर हाथी पर बिठलाया। (२९) (तेन……..इति)–वह अंगुठी राजा को प्यारी होगी (३०) (न……..आसीत्)–उसमें मूल्यवान रत्न है इसलिये उनसे प्यार होगई ऐसा मैं नहीं समझता। परन्तु उसके दर्शन से राम के प्रिय दोस्त (का स्मरण हुवा) स्वभावतः गंभीर होते हुवे कुछ देर तक बडा उत्सुक जैसा विदित हुवा।

२८ अष्टाविंशः पाठः।

चकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘वाच्’शब्दः।

(१) वाक् वाचौ वाचः
सं० वाक् वाचौ वाचः
(२) वाचम् वाचौ वाचः
(३) वाचा वाग्भ्याम् वाग्भिः
(४) वाचे वाग्भ्याम् वाग्भ्यः
(५) वाचः वाग्भ्याम् वाग्भ्यः
(६) वाचः वाचोः वाचाम्
(७) वाचि वाचोः वाक्षु

इसी प्रकार ‘स्रज्, दिश्, उष्णिह्, दृश्, त्विष्, प्रावृष्’ इत्यादि शब्द चलते है। जिनके थोड़े रूप नीचे देते हैं :—

[TABLE]

इ० रूपों कों देखकर अन्य रूप पाठको ने स्वयं बनाना चाहिये

ऋकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘मातृ’ शब्दः।

(१) माता मातरौ मातरः
सं० मातः, मातर् मातरौ मातरः
(२) मातरम् मातरौ मातृृः
(३) मात्रा मातृभ्याम् मातृभिः
(४) मात्रे मातृभ्याम् मातृभ्यः
(५) मातुः मातृभ्याम् मातृभ्यः
(६) मातुः मात्रोः मातृणाम्
(७) मातरि मात्रोः मातृषु

इसी प्रकार ‘दुहितृ, ननान्दृ, यातृ’ ये शब्दचलते हैं।

ऋकारान्तः स्त्रीलिंगः ‘स्वसृ’ शब्द।

(१) स्वसा स्वसारौ स्वसारः
सं० स्वसः, स्वसर् स्वसारौ स्वसारः
(२) स्वसारम् स्वसारौ स्वसृः
(३) स्वस्रा स्वसृभ्याम् स्वसृभिः

शेष रूप ‘मातृ ’ शब्द के समान होते हैं। प्रथमा द्वितीया संबोधन के रूपों में ‘स्व’ शब्द के सकार में प्रकार दीर्घ होता है, वैसा ‘मातृ’ शब्द के तकार में प्रकार दीर्घ नहीं होता इतना ही इन दोनों शब्दों भेद है ।

स्वसृ—स्वसा स्वसारौ स्वसारः
मातृ—माता मातरौ मातरः

इस प्रकार प्रथमा द्वितीया संबोधन के रूपों में भेद है।अन्य रूप समान हैं।

ओकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘द्यो’ शब्दः।

(१) द्यौः द्यावौ द्यावः
सं० द्यौः द्यावौ द्यावः
(२) द्याम् द्यावौ द्याः
(३) द्यवा द्योभ्याम् द्योभिः
(४) द्यवे द्योभ्याम् द्योभ्यः
(५) द्योः द्योभ्याम् द्योभ्यः
(६) द्योः द्यवोः द्यवाम्
(७) द्यवि द्यवोः द्योषु

इसी प्रकार ‘गो’ शब्द चलता है :-

(१) गौः गावौ गावः
सं० गौः गावौ गावः
(२) गाम् गावौ गाः

शेष ‘द्यो’ शब्द के समान रूप होते है।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

[२५] **अर्जुन—**प्रतिज्ञातवधस्य जयद्रथस्य मातादुर्योधनमभयं320 याचते।

(प्रविश्य)

(१) प्रतीहारी— (सोद्वेगं उपसृत्य )–जयतु जयतु महाराजः। महाराज, एषा खलु जामातुः सिंधुराजस्य माता दुःशला च प्रतीहार-भूम्यां तिष्ठति। (२) दुर्योधनः—(स्वगतम्) किंजयद्रथ-माता दुःशला चेति। कचिदभिमन्युवधाऽमर्षितैः पाण्डुपुत्रैर्न321 कच्चिद् अत्याहितं भवेत्। (प्रकाशं) गच्छ, प्रवेशय शीघ्रम्। **(३) प्रतीहारी—**यन्महाराज322 आज्ञापयति। (इति निष्क्रान्ता)

——————————————————————————————

(अर्जुनप्रति०…….. याचते) अर्जुन ने जिसके वध की प्रतिज्ञा की है उस जयद्रथ की माता दुर्योधन के पास अभय मांगती है।

(सोद्वेगं उपसृत्य)–कष्ट से आगे होकर। (प्रतीहारभूम्यां तिष्ठति) देवडी पर है। (२) (क्वचित्……..भवेत्)– कदाचित् अभिमन्यु के मृत्यु से गुस्से चढे हुवे पांडवों ने कुच्छ बुरा भला

(ततः प्रविशति संभ्रांता जयद्रथमाता दुःशला च)

** (४) उभे—(सास्रं दुर्योधनस्य पादयोः पततः)(५) माता—परित्रायतांपरित्रायतां परित्रायताम् कुरुनाथः।(६) दुःशला—**(रोदीति) (७) राजा—(ससंभ्रमं उत्थाय)–अम्ब समाश्वसिहि। किमत्याहितम्। अपि कुशलं समराङ्गणेषु अप्रतिरथस्य जयद्रथस्य। **(८) माता—**जात, कुतः कुशलम्। **(९) राजा—**कथमिव323(१०) माता—(साशंकम्) अद्य खलु पुत्रवधामर्षितोद्दीपितेन324 गांडीविना अन

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किया तो नहीं होगा ? (४) (पादयोः पततः)–दोनों पांव पर गिरते हैं। (७) (संसंभ्रमं उत्थाय )–गडबड से उठकर। (समरांगणेषु) युद्ध भूमी के ऊपर। (अप्रतिरथः) जिसके बराबर का कोई लढवय्या नहीं है ऐसा लढनेवाला। (८) (कुतः कुशलं)–कहां से कुशल है। (१०) ( अद्य…….. प्रतिज्ञातः)-आज निश्चय से पुत्र के मृत्यु के कारण गुस्से चढे हुवे अर्जुन ने सूर्य अस्त होने से पहिले उसका वध करने की प्रतिज्ञा की है।

स्तमिते दिवसनाथेतस्य वधः प्रतिज्ञातः। (११) राजा—(सस्मितं आत्मगतं) इदं तद् अश्रुकारणं अंबायाः दुःशलायाश्च। पुत्रशोकाद् उत्तप्तस्य किरीटिनःप्रलपितैः एवं अवस्था। अहो मुग्धत्वं अबलानाम्। (प्रकाशं) अंब, कृतं विषादेन। वत्से दुःशले, अलं अश्रपातेन। कुतश्च अयं अस्य धनंजयस्प प्रभावो दुर्योधन-बाहु-रक्षितस्य महाराज-जयद्रथस्य विपत्तिंउत्पादयितुम्। **(१२) माता—**जात, यतो बंधु325वधोद्दीपितकोपानला वीरा अनपेक्षित-शरीराः परिक्रामन्ति। (१३) राजा—(सोपहासं) एवं एतत्। सर्वजन-प्रसिद्धं एव

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(११) (इदं …….. उत्पादयितुं)- यही आंसुओंका कारण है माता जी का तथा दुःशला जी का पुत्र के शोक से गुस्से चढे हुए अर्जुन बडबडाने से ऐसी अवस्था होगई। अरे स्त्रियों की मूर्खता है। (बाहर) माता जी ! अब दुःख बस कीजिये।काफि दुःशले। अबआंसू डालने बस कीजिये। कहां है इस अर्जुन का सामर्थ्य जो कि दुर्योधन के बाहुओं से रक्षित हुवे हुवे महाराज जयद्रथ के लिये कष्ट देके। (१२) (यतः…….. क्रामन्ति)- कारण बंधु के मृत्यू से जिनके गुस्से की आग बढगई हैं ऐसे शूर पुरुष विशिष्ट शरीरों से युक्त होकर इदर उदर घूमते हैं। (१३) पांडवों का गुस्सा

अमर्षित्वं पांडवानाम्। (१४) **माता—**असमाप्त-प्रतिज्ञाभरस्प आत्मवधोऽस्य प्रतिज्ञातः। **(१५) राजा—**यदि एवं आनंदस्थानेऽपि326 ते विषादः। ननु वक्तव्यं उत्सन्नः खलु सानुजो327 युधिष्ठिर इति। मातः शक्तिरस्ति328 धनंजयस्य वाऽन्यस्य329 कुरुशतपरिवार-वर्धित-महिम्नो330 महाविक्रमस्य नामापि ग्रहितुं ते तनयस्य। **(१६) भानुमती—**आर्यपुत्र, यद्यप्येवं331 तथापि गुरुकृत-प्रतिज्ञा-भरो332 धनंजयो निदानं खलुशंकायाः।

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सब दुनियां में प्रसिद्ध है। (१४) प्रतिज्ञा पूर्ण न होने पर अपने वध की उनो ने प्रतिज्ञा की है। (१५) अगर ऐसा है तो आनंद के स्थान में तुम दुःख करती हो। सचमुच कहिये कि बंधु सहित युधिष्ठिर उखडगया। माता जी ! ताकद है इस अर्जुन अथवा दूसरे किसी की भी (कि जो) सौं कौरवों की महिमा जिसने बढाई है ऐसे प्रतापशाली तुम्हारे लड़के का नाम भी ले सके। (१६) (यद्यपि)-यद्यपि ऐसा है तथापि भयानक प्रतिक्षा करने के कारण अर्जुन संशय के लिये तो कारण हुवा ही है।

**(१७) माता—**जाते साधु कालोचितं त्वया मंत्रितम्। **(१८) राजा—**आः मम अपि नाम दुर्योधनस्य शंकास्थानं पांडवाः। अपि भानुमति।विज्ञात-पाण्डव-प्रभावे त्वं अपि एवं आशंकसे। कः कोऽत्र भोः। जैत्रं मे रथं उपपादय यावद् अहमपि तस्य अप्रगल्भस्य मिथ्या-प्रतिज्ञा-वैलक्षण्य-संपादितं अशस्त्रपूतं मरणं उपदिशामि।

(इति निष्क्रांताः सर्वे)

वेणीसंहारं

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(१७) (साधु)– ठीक, समय के योग्य तुम ने सलाह दी। (१८) (मम)- मुक्त दुर्योधन जैसे के मन में भी पांडवों के बाबद शंका होगी ! हे भानुमति पांडवों का शौर्य जानने पर भी तुम इस प्रकार संशय करती है। कौन है यहां। मेरा जैत्र रथ भटपट।जबतक मैं उस मूर्ख (अर्जुन) को झूठी प्रतिज्ञा करने से प्राप्त हुवा हुवा शस्त्र से पवित्र न हुवा हुवा मरण समझा देता हूं। (यहां तात्पर्य यह है कि क्षत्रिय के लिये युद्ध में शस्त्रों से हुवा हुवा मृत्यु पवित्र समझा जाता है। अर्जुन की प्रतिज्ञा पूर्ण न होने से उसका जो मृत्यु होगा वह शस्त्रों से न होने के कारण पवित्र होगा अर्थात बदनामी के लिये होगा।

२६ एकोनत्रिंशः पाठः।

ईकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘धी’ शब्दः।

(१) धीः धियौ धियः
स० धीः धियौ धियः
(२) धियम् धियौ धियः
(३) धिया धीभ्याम् धीभ्यः
(४) धियै, धिये धीभ्याम् धीभ्यः
(५) धियाः,धियः धीभ्याम् धीभ्यः
(६) धियाः,धियः धियोः धियाम्, धीनाम्
(७) धियाम्,धियि धियोः धीषु

इस प्रकार ‘सुधी, दुर्धी, शुद्धधी, ह्री, श्री सुश्री, भी’ इत्यादि शब्द चलते हैं। पाठकों को चाहिए कि वे धीशब्द के समान इन शब्दों के रूप बनाकर लिखे।

ऊकारान्त स्त्रीलिंगो ‘भूः’ शब्दः।

(१) भूः भुवौ भुवः
सं० भूः भुवौ भुवः
(२) भुवम् भुवौ भुवः
(३) भुवा भूभ्याम् भूभिः
(४) भुवै, भुवे भूभ्याम् भूभ्यः
(५) भुवाः, भुवः भूभ्याम् भूभ्यः
(६) भुवाः, भुवः भुवोः भुवाम्, भूनाम
(७) भुवाम् भुवि भुवोः भूषु

इस प्रकार ‘सुभू, भ्रू, सुभ्रू’ इत्यादि शब्द चलते हैं। पाठकों को चाहिये कि वे इन शब्दों के रूप बनाकर लिखे।

वकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘दिव्’ शब्दः।

(१) द्यौः दिवौ दिवः
सं० द्यौः दिवौ दिवः
(२) दिवम् दिवौ दिवः
(३) दिवा द्युभ्याम् द्युभिः
(४) दिवे द्युभ्याम् द्युभ्यः
(५) दिवः द्युभ्याम् द्युभ्यः
(६) दिवः दिवोः दिवाम्
(७) दिवि दिवोः द्युषु

पाठकों ने इस शब्द के रूपों के साथ ‘द्यो’ शब्द के रूपों की तुलना करनी चाहिये। और दोनों का विशेष ध्यान में रखना चाहिए।

सकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘भास’ शब्दः ।

(१) भाः भासौ भासः
सं० भाः भासौ भासः
(२) भासम् भासौ भासः
(३) भासा भाभ्याम् भाभि
(४) भासे भाभ्याम् भाभ्यः
(५) भासः भाभ्याम् भाभ्यः
(६) भासः भासोः भासाम्
(७) भासि भासोः भास्सु

इस प्रकार सकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द चलते हैं॥

शब्द-पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

विशेषण।

[TABLE]

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

[TABLE]

अन्य।

पुरः—सामने पृष्ठतः—पीछे से

(२६)अपविद्ध-बालकस्य वृत्तान्तः।

(१) कदाचिद् वामदेव-शिष्यः सोमदेव शर्मा नाम कंचिद् एकं बालकं राज्ञः पुरो निक्षिप्य अभाषत। (२) “देव, रामतीर्थे स्नात्वा प्रत्यागच्छता मया काननाऽवनौ333 वनितया कयाऽपि धार्यमाणं एनं उज्वलाकारं कुमारं विलोक्य सादरं अभाणि।

(३) स्थविरे, का त्वम्। एतस्मिन् अटवीमध्ये बालकं उद्वहन्ती किमर्थं आयासेन भ्रमसि। (४) वृद्धया अपि अभाषि। मुनिवर, कालयवननाम्नि द्वीपे कालगुप्तो नाम धनाढ्यो वैश्यवरः कश्चिद् अस्ति। (५) तन्नंदिदीं नगनानंदकारिणीं सुवृत्तां नाम एतस्माद् द्वीपाद् आगतो मगधनाथ मंत्रि-संभवो रत्नोद्भवो नाम रमणीयगुणालयो भ्रांतभूवलयो मनोहारी व्यवहारी उपगम्य

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(१) (काननावनौ)-जंगल में। (३) (स्थविरे)-हे वृद्ध-स्त्रि। (५) (मगधनाथमंत्रि-संभव)-मगध राजा के मंत्रि का

सु-वस्तु-संपदा श्वशुरेण संमानितोऽभूत्334। (६) कालक्रमेणनतांगी गर्भिणी जाता। ततः सोदर-विलोकन-कुतूहलेन रत्नोद्भवः कथंचित् श्वशुरं अनुनीय अनया सह प्रवहणं आरुह्य पुष्पपुरं अभिप्रतस्थे। (७) कल्लोल-मालिकाऽभिहतः335 पोतः समुद्रांऽभसि336 अमज्जत। गर्भभराऽलसां337 तां ललनां धात्रीभावेन कल्पिताऽहं338 कराभ्यां उद्वहन्ती फलकं एकं अधिरुह्य तीरभूमि अगमम्। (८) सुहृज्जन-परिवृतो रत्नोद्भवस्तत्र339 निमग्नोवा केनोपायेन तीरमगमद्340 वा न जानामि। क्लेशस्य परां काष्ठां अधिगता सुवृत्ता अस्मिन् अटवीमध्ये अद्य सुतं असूत। (९) प्रसव वेदनमा-विचेतना सा प्रच्छायशीतले तरुतले निवसति। विजने वने स्थातुं अशक्यतया जनपद-गामिनं अन्वेष्टुं उक्तया मया विवशायाः तस्याः समीपे बालकं निक्षिप्य गन्तुं अनुचितं इति कुमारोऽपिअनामि इति।

———————————————————————————————

पुत्र। (६) (रमणीयगुणालयः)-सद्गुणी। (भ्रांतभूवलयः) जिसने पृथ्वी का चक्कर लगाया। (९) (प्रच्छायशीतले तरुतले)-घनदाट

(१०) तस्मिन् एव क्षणे वन्यो341 वारणःकश्चिद् अदृश्यत। तं विलोक्य भीता सा बालकं निपात्य प्राद्रवत्। अहं समीप-लता-गुल्मं प्रविश्य परीक्ष्यमाणो अतिष्ठम्। (११) निपतितं बालकं पल्लव-कवलमिव आददति गजपती कंठीरवो भीमरवो महाग्रहेण न्यपतत्। (१२) भयाकुलेन दंतावलेन झटिति वियति समुत्पात्यमानो बालको न्यपतत्। चिरायुष्पत्तया स च उन्नततरु-शाखा-समासीनेन वानरेण केन चित् पक्क-फल-बुद्ध्यापरिगृह्य फलेतरतया विततस्कंध-मुले निक्षिप्तोऽभूत् (१३) सोऽपि मर्कटः क्वचिद् अगात्।बालकेन सत्व-संपन्नतया सकल-क्लेश सहेन अभावि। केसरिणा करिणं निहत्य कुत्रचिद् अगामि। (१४) लता-गृहात् निर्गतोऽहमपि तेजः पुज्जं बालकं शनैः अवनिरुहाद् अवतार्य वनान्तरे वनिता अन्विष्य अविलोक्य एनं आनीय गुरवे निवेद्य तन्निदेशेन भवन्निकटं आनीतवान् अस्मि" इति। (१५) सर्वेषां सुहृदां एकदा एव अनुकूल-दैवाभावेन महदाश्चर्यं विभ्राणो राजा रत्नोद्भवः

———————————————————————————————

छांव वाले वृक्ष के नीचे। (११) (पल्लव-कवलं )-पत्तों का कौर।

कथं अभवद् इति चिंतयन् तन्नंदनं पुष्पोद्भवनामधेयें विधाय तदुदंतं ‘व्याख्याय सुश्रुताय विषाद-संतोषौअनुभवन् तद् अनुज-तनयं समर्पितवान्।

दशकुमारचरितम्।

३० त्रिंशः पाठः।

ऐकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘रै’शब्दः।

(१) राः रायौ रायः
सं० राः रायौ रायः
(२) रायम् रायौ रायः
(३) राया राभ्याम् राभिः
(४) राये राभ्याम् राभ्यः
(५) रायः रायोः राभ्यः
(६) रायः रायोः रायाम्
(७) रयि रायोः रासु

पुल्लिंग में ‘रै’ शब्द इसी प्रकार चलता है। कोई मेद नहीं होता॥

पकारान्त स्त्रीलिंगः ‘अप’ शब्दः।

‘अप्’ शब्द सदैव बहुवचन में हो चलता है। इस लिये इस के एक वचन द्विवचन के रूप नहीं होते हैं।

(१)आपः (२) अपः
(सं०) आपः (३)अद्भिः

[TABLE]

आकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘जरा’ शब्दः।

प्रथमा सम्बोधन के एक वचन में तथा ‘भ्यां, भिः, सु’ प्रत्यय आगे आने पर ‘जरा’ शब्द में कोई भेद नहीं होता है। परन्तु अन्य वचनो में ‘जरा’ शब्द के लिये ‘जरस्’ ऐसा आदेश विकल्प से होता है॥

[TABLE]

‘जरा’ शब्द ‘विद्या’ के समानहि चलता है परन्तु जिस समय उस के स्थान में ‘जरस्’ प्रदेश होता है, उस समय वह सकारान्त शब्द के समान रूप बनता है।

‘अजर, निर्जर’ शब्द पुल्लिंग में होने से वे ‘देव’ शब्द के समान चलते हैं। परन्तु उक्त विभक्तियों के वचन में उन को भी ‘अजरस, निर्जरस्’ ऐसे प्रदेश होते है। अर्थात् इन के

भी ‘जरा’ शब्द के समान दो दो रूप बनते है। जैसाः—

(३) निर्जरसा, निर्जरेण।
(३) अजरसा, अजरेण।

इतर विभक्तियों के वचन पाठक स्वयं बनायेगे।

शब्द—पुल्लिंगी।

[TABLE]

स्त्रीलिंगी।

अक्षौहिणी—प्रायः दो लाख सैनिकों का पथक श्लाघा—स्तुति न

विशेषण।

[TABLE]

नपुंसकलिंगी।

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

(२७) समरालोकः।

(ततः प्रविशति सप्रहारः पुरुषः।)

(१) **पुरुषः—**आर्याः। अपि नाम अस्मिन् उद्देशे सारथि—द्वितीयः दृष्टः युष्माभिः महाराज-दुर्योधनो न वेति342। कथं न कोऽपि मंत्रयते। भवतु। बद्धपरिकराणां पुरुषाणां समूहः दृश्यते। तत्र गत्वा प्रक्ष्यामि। (२) कथं एते खलु स्वस्वामिनः गाढप्रहारस्य घनसन्नाहजाल-दुर्भेद्यमुखैः कंकपत्रै हृदयात् शल्यानि उद्धरन्ति। तत् खलु एते न जानन्ति।
——————————————————————————————
(१) (अस्मिन् उद्देशे)-इस ओर। (सारथि-द्वितीयः) जिसके साथ एक सारथि है।
(कथं न कोपि मंत्रयते)
कोई भी क्यों उत्तर नहीं देता है। (बद्ध परिकराणां) जिन्होंने अपने चोगे बांधे हैं। (२) (गाढ प्रहारस्य)–जिस पर बहुत मार हुवी है। (घन-सन्नाह-जालदुर्भेद्य-मुखैः) लोहे के कोट के घने जाल के

__________________________________________________________

तत्+न+एतिऽपि।

भवतु। अन्यतः विचेष्यामि। (३) (अन्यतो विचित्य) इमे खलु अपरे प्रभूततराः संकलिता वरिमानुषाः। तदत्र गत्वा प्रक्ष्यामि। (उपगम्य) हं हो ! जानीथ कस्मिन् उद्देशेकुरुनाथो वर्तते इति। कथमेतेऽपि मां दृष्ट्वा अधिकतरं रुदन्ति। तन्नैतेऽपि जानन्ति। हा दुष्करं खलु अत्र वर्तते। (४) एषा वीरमाता समर-विनिहितं पुत्रकं श्रुत्वा रक्तांशुकनिवसनया समग्रभूषणया वध्वा सह अनुम्रियते। (सश्लाघं) साधु। अन्यस्मिन्नपि जन्मान्तरे अनिहतपुत्रका भविष्यसि। भवतु। अन्यतो विचेष्यामि। (अन्यतो विलोक्य) (५) अयमपरो बहुमहार-निहत कायोऽकृत प्रतीकार एवं योधसमूहः इमं

———————————————————————————————

कारण भेद करने के लिये जिनके मुंह कठिन हुवे हैं। (xxxxxx उद्धरन्ति) (शरीर में घुसे हुवे) कांटों को बाहर निकालते है।(अन्यतो विचेष्यामि)-दुसरी ओर धुंडूंगा। (३) (प्रभूतरा)-बहुत। (हंहो) अहो, अरे। (४) (एषा…..भविष्यसि)-यह वीर माता युद्ध में मरे हुवे पुत्र को सुनकर लाल कपड़े तथा सारे भूषण पहने हुए उसकी स्त्री के साथ मरती है। (स्तुती करके) वाह वीर माता वाह, दूसरे जन्म में न मरे हुवे पुत्र की माता होजाओगी। अर्थात तुम्हारे सामने पुत्र का मृत्यु नहीं होगा। (५) ( बहु-प्रहार-निहतकायः)-बहुत मार पड़ने से जिसका (काय )

शून्यासनं तुरंगमंउपलक्ष्य रोदिति।(६) नूनं एषां अत्रैव स्वामि व्यापादितः। तन्न त्वेतेऽपि जानन्ति। भवतु। अन्यतो प्रक्ष्यामि। (सर्वतो विलोक्य) कथं सर्व एव अवस्थानुरूपं व्यसनमनुभवन् भागधेय-विमुखतया पर्याकुलो जनः (७) तत् किमत्र वा उपलप्स्ये। भवतु स्वयमेवात्र विचेष्यामि। (परिक्रभ्य) दैवमिदानीं उपालप्स्ये। अहो दैव ! एकादशानां अक्षौहिणीनां नाथो, ज्योष्ठो भ्रतृशतस्य, भर्ता गांगेय-जयद्रथ-द्रोणांऽगराज-शल्य-कृप-कृतवर्माऽश्वत्थाम-प्रमुखस्य राजचक्रस्प, सफल-पृथिवी-मंडलैकनाथ महाराजदुर्योधनोऽपि अन्विष्यते। (८) न जाने कस्मिन्नुद्देशे स वर्तत इति। (विचिंत्य निश्वस्य

———————————————————————————————

xxxफुटा है। (अकृत-ब्रण प्रतीकारः) जिनके व्रणों का प्रतिकार नहीं किया है। (शून्यासनं तुरंगमं) जिस के आसन पर कोई बैठा नहीं ऐसा घोड़ा। (व्यसनं) कष्ट (भागधेय विमुखतया) देव उलटा होने से। (७) एका दशानां……..अन्विष्यते) ग्यारह अक्षौहिणी सैन्य का मालिक, सौ भाइयों का बड़ा भाई, शीष्म-जयद्रथ आदि वीरों गजाओं का पोषकसंपूर्ण पृथ्वी का राजा महाराज दुर्योधन भी धुंडा जाता है। अर्थात् दुर्दैव से ऐसी अवस्था आती है कि इतना बड़ा आदमी भी धूंड धूंड कर मिलना मुष्कील होता है। (८) (लूनकेतुवंशः)

च)। अथवा किमत्र दैवमुपालमे। (अन्यतो विलोक्य) यथा अत्रैष लूनकेतुवंशो रथो दृश्यते तदहं तर्कयामि अवश्यमेतेन महाराजदुर्योधनस्य विश्रामोद्देशेन भवितव्यम्।

वेणी-संहारम्

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जिस रथका झंडे का खम्बा टूटा है। (विश्रामोद्देश) विश्राम का स्थान॥

३१ एकत्रिंशः पाठः।

स्त्रीलिंगी नामों के रूप बनाने का प्रकार पूर्व पाठ तक समाप्त होगया। अब पाठक पुल्लिंगी, स्त्रीलिंगी तथा नपुंसकलिंगी नामों के सातों विभक्तियों के रूप बनाने में समर्थ होगये हैं संस्कृत भाषा बोलने लिखने में इन्ही रूपों की बडी भारी आवश्यकता होती हैं। इस लिये पाठकों को उचित है कि समय समय पर पूर्व बताये हुवे शब्दों को देखते रहें ताकि वे उनकी विशेषता को न भूले।

अबपाठकों को बताना है कि, स्त्रीलिंगी सर्व नामों के रूप किस प्रकार होते हैंः—

आकारान्तः स्त्रीलिंगः ‘सर्वा’ शब्दः।

(१) सर्वा सर्वे सर्वाः
सं० सर्वे सर्वे सर्वाः
(२) सर्वाम् सर्वे सर्वाः
(३) सर्वया सर्वाभ्याम् सर्वाभिः
(४) सर्वस्यै सर्वाभ्याम् सर्वाभ्यः
(५) सर्वस्याः सर्वाभ्याम् सर्वाभ्यः
(६) सर्वस्याः सर्वयोः सर्वासाम्
(७) सर्वस्याम् सर्वयोः सर्वासु

इसी प्रकार ‘पूर्वा, परा,अवरा, दक्षिणा, उत्तरा, अपरा, अधरा, नेमा’ इत्यादि सर्वनामों के रूप होते हैं।

‘प्रथमा, चरमा, द्वितया, त्रितया, अल्पा, अर्धा, कतिपया’ इत्यादि सर्वनाम स्त्रीलिंगी होते हुवे भी ‘विद्या’ के समान चलते हैं। इनके पुल्लिंगी रूप ‘देव’ के समान चलते हैं। ऐसा पाठ १६ \। १७ देखीये पृ० १६२ पर लिखा है यह पाठक भूले नहीं होंगे। अर्थात तीनों लिंगों में ये शब्द सर्वनाम होने पर भी तीनों लिंगों के नामों के समान रूप बनाते हैं।

द्वितीया, तृतीया’ इनके रूप दो दो प्रकार के होते हैं। जैसा :—

आकारान्तः स्त्रीलिंगो ‘द्वितीया’ शब्दः

(१) द्वितीया द्वितीये द्वितीयाः
सं० द्वितीये द्वितीये द्वितीयाः
(२) द्वितीयाम् द्वितीये द्वितीयाः
(३) द्वितीयया द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभिः
(४) द्वितीयस्यै, द्वितीयायै द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभ्यः
(५) द्वितीयस्याः, द्वितीयायाः द्वितीयाभ्याम् द्वितीयाभ्याम्
(६) द्वितीयस्याः, द्वितीयायाः द्वितीययोः द्वितीयानाम्
(७) द्वितीयस्याम् ,द्वितीयायाम् द्वितीययोः द्वितीयासु

इसी प्रकार तृतीया शब्द चलता है।

स्त्रियाम् ‘यद्’ शब्द।

(१) या ये याः
(२) याम् ये याः
(३) यया याभ्याम् याभिः
(४) यस्यै याभ्याम् याभ्यः
(५) यस्याः याभ्याम् याभ्यः
(६) यस्याः ययोः यासाम्
(७) यस्याम् ययोः यासु

इसी प्रकार ‘अन्या, अन्यतरा, इतरा, कतरा, कतमा, त्वा’ इत्यादि सर्वनामों के रूप होते हैं।

‘अन्यतमा’ शब्द के सर्वनाम होते हुवे भी विद्या के समानरूप बनते हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिऐ।

शब्द - पुल्लिंगी

संहारः—नाश मदः—नशा
बभ्रुः—एक यादव का नाम मुसलभावः—मुसलपन
अहन्—दिन स्नेहः—मैत्री
युवन्—जवान उपहासः—मखौल, हंसी, ठट्ठा
विप्रलंभः—धोखा, छल क्रोधः—गुस्सा
कलहः—टंटा, झगड़ा पतंग—टिड्रो, दीवे पर उड़ने वाला प्राणी पतिंगा
वह्निः—आग कुरुः—कुरुदेश
अंतकः—यम योगः—( ध्यान ) योग, हठयोग
लुब्धकः—शिकारी

स्त्रीलिंगी

दिदृक्षा—देखने की इच्छा द्वारका—द्वारका शहर
दया—कृपा बंधुता—भाईपन
रथ्या—बाजार, रथ का मार्ग तीर्थयात्रा—तीर्थों में घूमना
जिघांसा—हनन करने की इच्छा युवती—स्त्री
यदृच्छा—दैव देवी—देवता

नपुंसकलिंगी

पानं—पीना संक्रमणं—गमन
प्रभासं—प्रभास तीर्थ आयुधं—शस्त्र

विशेषण

अनुशप्तः—शाप दिया हुवा घोर—भयानक
अमित—अगणित कतिपय—कई एक
पुरोगम—अग्रेसर, आगे जाने वाला प्रमत्त—उन्मत्त, पागल
आविष्ट—युक्त धर्षित—बेइज्जती, जुल्म किया हुवा
निवृत्त—वापस हुवा हुवा विषगण—दुःखित
शासत्—राज्य चलाने वाला

अन्य

क्षिप्रं—शीघ्र शीघ्रं—जलदी

क्रिया।

निहत्य—हनन करके न्यरौत्सीत्—रोका
अप्राक्षीत्—पूछा (उन्होंने) व्यस्त्रातीत्—छोड़ा
व्यनशन्—नाश हुवे भूषयित्वा—कपड़े पहनकर
अव्राजिषु—गये जनिष्यति—पैदा करेगी
आनैर्षुः—लाये जायेत—होगा
आभाषिषत—बोले एत्य—आकर
अभाक्षः—सेवन किया समजनि—उत्पन्न हुवा
अशाप्सुः—शाप दिया प्रत्यपादि—प्राप्त हुवा
न्यवात्सुः—रहे अबोधिषत—जाना
अग्रहीषुः—लिया अग्रसीत्—खाया
प्रमाथिषुः—मारा ( उन्होंने ) अश्रौषीत्—सुना
आदिशत्—आज्ञा की निवेदय—कह
अवधार्य—जानकर आस्थाय—बैठकर

(२५) जनमेजय–पृष्टो वैशंपायनो यादव
संहारवृत्तान्तं कथयति।

(१) केन अनुशप्ता यादवा अन्योन्यं निहत्य व्यनशन् इति जनमेजयो वैशम्पायनं अपाक्षीत्। स चैवं अवादीत्। (२) युधिष्ठिरस्य शासतः षड्विंशे वर्षे कणव–नारद–विश्वामित्राःत्रयो343 मुनयः कृष्णदितया द्वारकां अव्राजिषुः। यादवास्तान्344रथ्यासु परिभ्रमतो345 दृष्ट्वा तदुपहास–कृत–मतयः कंचिद् युवानं स्त्रीमिव भूषयित्वा समीपं आनैषुः। (३) आभाषिषत च। इयं स्त्री पुत्रकामस्य बभ्रोः अमिततेजसः। ऋषयः साधु जानीत किं इयं जनिष्यति। तद्विप्रलंभ–धर्षितास्ते346 मुनयः परं क्रोधं——————————————————————————————————————

(१) (अन्योन्यं निहत्य ) एक दूसरे को मारकर। (२) ( युधिष्ठिरस्य शासतः ) युधिष्ठिर के राज्य शासन के। रथ्यासु परिभ्रमतो दृष्ट्वा ) बजार में घूमते हुए देखकर। ( तदुपहास–कृतमतयः ) उनकी ठट्ठा करने की बुद्धि से। (३) ( अमिततेजसः) बेशुमार तेज वाला। ( तद् ….इति ) इस ठट्ठा से अपमानित हुए हुए वे मुनि वहुत क्रोध को प्राप्त

अभाक्षुः अशाप्सुः च यादवकुल- विनाशकं घोरं मुसलं अस्ययूनोजायेत347 इति। (४) अथ निवृत्ते मुनिजने कतिपयैः अहोभिः कृष्णपुरोगमा यादवस्तीर्थ348यात्रायै प्रास्थिषत। प्रभासं एत्य च तत्रैव ते न्यवात्सुः। तेषां पानमदाविष्टानां महान् कलहः समजानि। (५) अन्योन्य–जिघांसया यद् यद् आयुधं ते अग्रहीषुस्तत्349 तन् मुसलभावं प्रत्यपादि। तैर्मुशलैस्ते परस्परं प्रमाथिषुः। प्रमत्ता इव स्नेहं दयां बन्धुतां वा न किल अवोधिषत। अवधीत् पितरं पुत्रः पिता पुत्रं अघातयत्। (६) पतंगान् इव वह्निस्तान् तदा अन्तकः अग्रसीत। पति–विना–कृतानां युवतीनां महान्तं आक्रोशं कृष्णो यदा अश्रौषीत तदा विषरणमना दारुकं आदिक्षत्। ( ७ ) भद्र कुरून् गत्वा सर्वं इमं वृत्तान्तं पांडवेभ्यो निवेदय क्षिप्रं च अर्जुनं आनय इति। पुनः प्रभासं प्रतिनिवृत्य स बलरामं दिवं गतं अद्राक्षीत्। (८) आत्मनोऽपि——————————————————————————————————————————
हुवे और उन्होंने शाप दिया। कि यादव कुल का संहार करने वाला मुसल इस जवान से उत्पन्न होगा।

(५) (आत्मनोऽपि^(….)न्यरौत्सीत्) अपना भी जाने का समय आया हैं ऐसा जानकर योग लगाकर इन्द्रियों को रोका। दैव से शिकारी का बाण लग कर प्राणों को छोड़ा।

संक्रमणकालोऽयं इतेि अवधार्य योगं आस्थाय इंद्रियाणि न्यरौत्सीत। यदृच्छया च लुब्धक-शर-विद्धः प्राणान् व्यस्राक्षीत्।

३२ द्वात्रिंशः पाठः।
स्त्रियां ‘किम्’ शब्दः।

(१) का के काः
(२) काम् के काः
(३) कया काभ्याम् काभिः
(४) कस्यै काभ्याम् काभ्यः
(५) कस्याः काभ्याम् काभ्यः
(६) कस्याः कयोः कासाम्
(७) कस्याम् कयोः कासु

स्त्रियाम् ’ तद्’ शब्दः।

(१) सा ते ताः
(२) ताम् ते ताः
(३) तया ताभ्याम् ताभिः
(४) तस्यै ताभ्याम् ताभ्यः
(५) तस्याः ताभ्याम्
(६) तस्याः तयोः तासाम्
(७) तस्याम् तयोः तासु

इसी प्रकार ‘त्यद्’ सर्वनाम के स्त्रीलिंग के रूप होते हैं।

(१) त्या त्ये त्याः
(२) त्याम् त्ये त्याः

इत्यादि ’ तद्’ शब्द के समान रूप होते हैं।
स्त्रियां ’ एतद् ’ शब्दः ।

(१) एषा एते एताः
(२) एताम्, एनाम् एते, एने एताः, एनाः
(३) एतया, एनया एताभ्याम् एताभिः
(४) एतस्यै एताभ्याम् एताभ्यः
(५) एतस्याः एताभ्याम् एताभ्यः
(६) एतस्याः एतयोः, एनयोः एतासाम्
(७) एतस्याम् एतयोः, एनयोः एतासु

शब्द - पुल्लिंगी ।

सुहृत्—मित्र मदनः—काम
अनलः—अग्नि पिशाचः—भूत
अनिलः—वायु मनोरथः—इच्छा

स्त्रीलिंगी ।

विधवा—जिसका पति मरा हो
ऐसी स्त्री दक्षिणा—दक्षिण दिशा

नपुंसकलिंगी

परिदेवनं—शोक दुष्कृतं—पाप
दाक्षिण्यं—दक्षता प्रतिवचनं—उत्तर,जवाब
स्मितं—किंचित हास्य वचनं—भाषण

विशेषण।

हत—मरा हुवा आपतित—आपड़ा
वञ्चित—ठगाया हुवा उत्सन्न—विनष्ट, बरबाद
दुर्विनीत—रूखा, गुस्ताख मुषित—चुराया हुवा
शून्य—खाली परिचित—घरेलू, वाकिफ
अपरिचित—नावाकिफ् निर्घृण—निर्लज्ज, बेशर्म
दग्ध—जला हुवा

क्रिया।

प्रतिपालय—रक्षा करो याचे—मांगता हूं
वह—उठाव, लेजाव, उपैमि—पास होता हूं

अन्य।

कृते—के लिये ऋते—विना, सिवाय

(२९) कपिंजलस्य प्रियसुहृत्पुंडरीककृते परिदेवनम्।

( १ ) हा हतोऽस्मि। हा दग्धोऽस्मि। हाः किमिदं350 आपतितम्। किं वृत्तम्। उत्सन्नोऽस्मि। दुरात्मन् मदनपिशाच पाप निर्घृण किमिदं अकृत्य अनुष्ठितम्। (२) आः पापे————————————————————————————————————
(१) (हा हतोऽस्मि) हाय जल गया हूं। (उत्सन्नोऽस्मि) बरबाद हो गया हूं। (किमिदं अकृत्यमनुष्ठितं) क्या यह करने अयोग्य कर छोड़ा है। (२) (दुर्विनीते महाश्वेते) हे क्रूर

दुष्कृतकारिणि दुर्विनीते महाश्वेते, किं अनेन ते अपकृतम्। आः पाप दुश्चरित चन्द्र चांडाल, कृतार्थोऽसि। इदानीं अपगत–दाक्षिण्य दक्षिणानिल–हतक, पूर्णास्ते351 मनोरथाः। कृतं यत्कर्तव्यम्। वह इदानीं यथेष्टम्(३) हा भगवन् श्वेतकेतो पुत्रवत्सल, न वेत्सि मुषितं आत्मानम्। हा धर्म, निष्परिग्रहोऽसि। हा तपः, निराश्रयं असि। हा सरस्वति, विधवाऽसि। (४) हा सत्य, अनाथमसि352। हा सुरलोक, शुन्योऽसि। सखे,

—————————————————————————————————————————————
माहाश्वेते। (कृतार्थोऽसि) धन्य हो। (अपगत–दाक्षिण्यदक्षिणानिल हतक) दक्षता से रहित दक्षिण दिशाके अधम वायो। (वह इदानीं यथेष्टं) बहते रहो अब अपनी इच्छानुसार। (३) (न वेत्सि, मुषितमात्मानं) क्या नहीं जानते हो अपने आपको ठगाया हुवा ! (निष्परिग्रहोऽसि) असहाय हो। अर्थात् पुंडरीक मरने से अब तुम्हारी मदत करने बाला कोई नहीं रहा। इसी प्रकार आगे के क्यों में जानना चाहिए।(हा सरस्वति विधवासि) हे विद्यादेवी तूं अब विधवा हो गई हो। पुंडरीक मरने के पश्चात् तुम्हारा भोक्ता कोई भी रहा नहि इस प्रकार मृत्यु के पश्चात् के शोक के समय अत्युक्ती के भाषण, हुवा करते हि हैं। (४) (कथं …….. यासि) कसा

प्रतिपालय माम्। अहमपि भवन्तं अनुयास्यामि। न शक्नोमि भवन्तं विना क्षणमपि अवस्थातुं एकाकी। (५) कथं अपरिचित353इव, अदृष्टपूर्व354 इव, अद्य मां एकपदे उत्सृज्य प्रयासि।कुतस्तवेयं355 प्रतिनिष्ठुरता। कथय त्वदृते356 क्व गच्छामि। कं याचे। कं शरणं उपैमि। (६) अन्धोऽस्मि संवृत्तः। शून्या मे दिशो जाताः। निरर्थकं जीवितम्। अप्रयाजेनं तपः। निःसुखाश्च357लोकाः। केन सह परिभ्रमामि। कं आलपामि। केन वार्तां करोमि। (७) उत्तिष्ठ त्वम्। देहि मे प्रतिवचनम्। क्व तत्ममोपरि358, सुहृत्, प्रेम। क्व सा स्मितपूर्वाभिभाषिता च।

कादंबरी।

————————————————————————————————————————————————————

नावाकिफ जैसा, पहिले न देखा हुवा जैसा, आज मुझे एक पांव पर छोड़कर जाते हो। (त्वदृते ) तेरे बिना। ( कं शरणमुपौमि )किल की शरण जाऊं। (६) (अधोऽस्मि संवृत्तः) मैं अंधा हो गया (अप्रयोजनं तपः) निष्कारण तप हुन ( निःसुखाश्च लोकाः) लोक सुख रहित हुए हैं। (केन वार्ता करोमि) किस के साथ बोलूं। (७) ( क्व तन्ममोपरि प्रेम ) कहां वह मेरे ऊपर का प्रेम। (क्व……. भाषिता) कहां वह हास्य पूर्वक भाषण।

३३ त्रयस्त्रिंशः पाठः।

स्त्रियाम् ‘इदम्’ शब्दः।

(१) इयम् इमे इमाः
(२) इमाम्, इनाम् इमे, एने इमाः, एनाः
(३) अनया,एनया आभ्याम् आभिः
(४) अस्यै आभ्याम् आभ्यः
(५) अस्याः आभ्याम् आभ्यः
(६) अस्याः अनयोः, एनयोः आसाम्
(७) अस्याम् अनयोः, एनयोः आसु

स्त्रियां ‘अदस्’ शब्दः।

(१) असौ अमू अमूः
(२) अमुम् अमू अमूः
(३) अमुया अमूभ्याम् अमूभिः
(४) अमुष्यै अमूभ्याम् अमूभ्यः
(५) अमुष्याः अमूभ्याम् अमूभ्यः
(६) अमुष्याः अमूयोः अमूषाम्
(७) अमुष्याम् अमूयोः अमूषु

‘द्वि’ शब्द स्त्रीलिंग में नपुंसकलिंगी ‘द्वि’ शब्द के समान ही चलता है। (देखिये पाठ २३ पृ० २२६ ) इसका द्विवचन में ही प्रयोग होता है।

‘त्रि’ शब्द का बहुवचन में ही प्रयोग होता है। इसके स्त्रीलिंग के रूप नीचे दिये हैं :—

स्त्रियां ‘त्रि’ शब्दः।

(१) तिस्रः (५) तिसृभ्यः
(२) तिस्रः (६) तिसृणाम्
(३) तिसृभिः (७) तिसृषु
(४) तिसृभ्यः

(यहां ‘तिसृृणाम्’ पेसा रूप नहीं होता है। स्मरण रहे )

स्त्रियाम् ‘चतुर्’ शब्दः।

(१) चतस्रः (५) चतसृभ्यः
(२) चतस्रः (६) चतसृणाम्
(३) चतसृभिः (७) चतसृषु
(४) चतसृभ्यः

( यहां ‘सृ’ दीर्घ नहीं होता है )

‘विंशति’ शब्द स्त्रीलिंगी है। इसके रूप ‘रुचि’ शब्द के समान होते हैं। प्रायः इसका प्रयोग एकवचन में ही हुवा करता है। परन्तु प्रकरणानुसार अन्य वचनों में भी होता है। जैसाः—

पुस्तकानां विंशतिः——बीस किताबें
विंशतिः पुस्तकानि——बीस किताबें

पंडितानां (द्वे) विंशती——चालीस पंडित (दो बीस पंडित)
विद्यार्थिनां त्रयः विंशतयः——विद्यार्थियों के तीन बीस(६० विद्यार्थी)

इस प्रकार प्रकरण के अनुसार सव वचनों में प्रयोग हो सकता है।

‘त्रिंशत्, चत्वारिंशत्, पञ्चाशत्’ ये शब्द स्त्रीलिंगी हैं। इनके रूप ‘सरित्’ शब्द के समान होते हैं।

(देखिये पाठ २७ पृ० २६८ )

‘षष्ठि, सप्तति, अशीति, नवति’ ये शब्द स्त्रीलिंगी हैं। इनके रूप ‘रुचि’ शब्द के समान होते हैं। (देखिये पाठ २७ पृ० २६५)

‘कोटि’ शब्द का स्त्रीलिंग है। इसके रूप ‘रुचि’ शब्द के समान ही होते हैं।

‘पंचन, षष्, सप्तन्, अष्टन्, नवन्, दशन्’ इनके स्त्रीलिंगी रूप पुंल्लिंग के समान ही होते हैं। (पाठ १७ पृ० १७४ देखिये)

शब्द—पुल्लिंगी

[TABLE]

[TABLE]

नपुंसकलिंगी

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

क्रिया

[TABLE]

अन्य

प्रतिमात्रं—बहुत स्वस्ति—कल्याण, सुरक्षितता

(३०) भार्गवदाशरथ्योः संगतं संग्रामावतरणं च।

( ततः प्रविशतः राम–लक्ष्मणौ )

** (१) लक्ष्मणः**–आर्य किं पुनरिदं ब्रह्मक्षत्रवर्णात्मकं चित्रमिदं स्फुरति। (२) रामः–वत्स न विदितं ते। ननु अयं स भगवान् भार्गवो येन क्रौंचमहीधर-शिखरं विद्धं, छिन्नं च यस्य क्रीडाकुठारेण हैहयपतेः काननम्। **(३) लक्ष्मणः–**तर्हि विस्मयशीलो भगवान्। (४) रामः–विस्मयशीलानां शिखामणिः इति वक्तव्यम्।
—————————————————————————————————————————————
(भार्गव …….. अवतरणं च) परशुराम और रामचन्द्र इनका मिलना और युद्ध के लिये तैयार होना। (प्रविशतः) दोनों प्रवेश करते हैं। (१) (आर्य…….. स्फुरति) हे श्रेष्ठ ! क्या फिर यह ब्राह्मण तथा क्षत्रिय इन दो वर्णों से युक्त हुवा २ यह विचित्रसा चमकता है। (२) (वत्स……..काननं) लड़के, तुम्हें पता नहीं ! सचमुच यह वही भगवान् परशुराम है जिसने क्रौंच पर्वत का शिखर छेदन किया और जिसके खेलने के कुहाडे से हैहयपती का वन छिन्नभिन्न होगया। ( ४ ) (विस्मय–शीलानां……वक्तव्यं)–प्राश्चर्य कारकों का शिखामणि (अर्थात सब से

(उभौ परिक्रामतः)

** (५) राम :–( अंजाल बद्ध्वा) भगवन्, भृगु–कुल–शिरः–शिखंडक, एष सानुजस्य मे प्रश्रय–रमणीयः प्रणामः।
** (६) जामदग्न्यः
–समरविजयी भूयाः। (७) रामः–भगवन्, भृगुकुल–मौलि–माणिक्य, अनुगृहीतोऽस्मि।
** (८) भार्गवः**–(स्वगतं। सकरुणं ) रामे चंद्राऽभिरामे विनयवति शिशौकिं प्रकुप्याऽतिमात्रम्। (विमृश्य सक्रोधं) हुं चापं चंद्रमौलेश्चपलमतिरसाविक्षुभंजं बभञ्ज॥ ( पुनः सानुक्रोशं) बाला वैधन्यदीक्षां जनकनृपसुता नार्हतीयं
—————————————————————————————————————————————
बडा आश्चर्य कारक ऐसा कहो। (५) (भृगुकुलशिरः शिखंडक)–भृगुकुल के शिर की चोटी अर्थात् भृगुकुल के सब मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ।(सानुज…….प्रणाम): भाई के साथ मेरा यह नम्रतासे रमणीय हुवा २ नमस्कार है। (अनुज) छोटा भाई (भूयाः) हो(माणिक्य) जेवर लाल (८) (स्वगतं सकरुणं)–अपने में दयासे युक्त होकर (चंद्राभिरामे) चांद के समान रमणीय (विनयवति शिशौ) नम्रता युक्त ऐसे लडके (गमे) रामचंद्रमे (अतिमात्रं प्रकुप्य किं) बहुत गुस्सा करके क्या करना है। (विमृश्य सक्रोधं) सोच कर क्रोध के साथ। (हुं) हंः (चंद्रमौलेः चापं) महादेव का धनुष्य

मदस्त्रात्। ( पुनर्विचिन्त्य सामर्षे) आः शान्तो मे कुठारः कथमयमधुना रेणुकाकण्ठशत्रुः ॥ ( प्रकाशं) दाशरथे, इयं असौ मे त्वयि समुदाचारानुसारिणी वाग्वृत्तिरेव।(९) रामः—( विहस्य)मनोवृत्तिस्तु कीदृशी।**(१०) भार्गवः—**चण्डीश-कार्मुक–विमर्दकयोः तव बाह्वोः दर्पं कठिनेन अनेन कुठारेण शातयामि। **( ११ ) रामः—**भगवन्, निग्रहाऽनुग्रहयोः स्वाधीनोऽयं जनः। परं ते कोपबीजं ज्ञातुं इच्छामि। **(१२) भार्गवः—**अहो दर्पान्धता !

—————————————————————————————————————————————
(असौ चपलमतिः) यह चंचल बुद्धि वाला (इक्षुदण्डं बभज्ज) ईंख के दण्डे के समान तोड दिया। (पुनः सानुक्रोशं) फिर सदयता से ( जनक नृपसुता) राजा जनक की कन्या ( इयं बाला) यह लड़की (मदस्त्रात्) मेरे अस्त्र से (वैधव्यदीक्षां) वैधव्य व्रत के लिये (न अर्हति ) योग्य नहीं है। ( पुनः विचिन्त्य सामर्षं ) पुनः सोचकर क्रोध से। (आः) अरे (रेणुकाकण्ठशत्रुः) रेणुकाके कण्ठका शत्रु (अयं मे कुठारः) यह मेरा कुल्हाढ़ा (कथं अधुना शान्तः) किस प्रकार अब शांत होगया। ( दाशरथे……वृत्तिरेव) हे रामचंद्र ! यह मेरा तुझ में सदाचारानुसारिणी वाचाका प्रयोग है। (१०) ( चण्डीश……शातयामि) महादेव का धनुष्य तोडने वाले तुम्हारे बाहुओं का गर्व इस कठिन कुल्हाढेसे छीलता हूं। (११) (निग्रहा……ऽयंजनः) पकड़ेने छोड़ने

ननु रे न भग्नं किं त्वया जगद्गुरुशरासनम्। **(१३) रामः—**भगवन्, अलीक-लोक-वार्तया निरपराधे मयिमुधा कोपकलंकितोऽस्मि। **(१४) भार्गवः—**तत् किं स्वस्ति। हर–कार्मुकाय। ( १५ ) रामः—नहि नहि।(१६) भार्गवः—तत् कथं निरपराधोऽसि।(१७) रामः—

मया स्पृष्टं नवा स्पृष्टं
कार्मुकं पुरवैरिणः।
भगवन् आत्मनैवेदं
अभज्यत करोमि किम् ॥

**(१८) भार्गवः—**आः कथं रे चंदनदिग्धं नाराचं निधाय
————————————————————————————————————————————————————
के लिये यह मनुष्य (मैं) आपके आधीन है। (१३) (अलीक……कलंकितोऽस्मि ) असत्य लोक वार्ता से मेरे जैसे निरपराधी पर कोध से व्यर्थ धब्बा लगा है। (१४) ( तत्……कार्मुकाय) तो क्या महादेव का धनुष ठीकहि है।

(१७) ( मया स्पृष्टं नघा स्पृष्टं ) मैंने स्पर्श किया न किया (पुरवैरिणः कार्मुकं ) महादेव के धनुष्य को (भगवन् प्रात्मना एव ) महाराज अपने आपहि ( इदं प्रभज्यत ) यह टूटा है (करोमि किम ) करूं क्या ? (१८) (आः कथं……प्रवीरो भव)

हृदयं मे शीतलयसि। तद् अलं अनेन। (कुठारं उद्यम्प ) हे राम, हरकार्मुकभंग–संजात–पातक। तव एष कठोरधारो निष्करुणः कुठारः कण्ठं विशतु। तत् प्रवीरो भव।

(११) रामः—

हारः कण्ठं विशतु यदि वा
तीक्षणधारः कुठारः।
स्त्रीणां नेत्रायधिवसतु नः
कज्जलंवा जलं वा॥
संपश्यामो ध्रुवामिह सुखं
प्रेतभर्तुर्मुखं वा।
यद्वा तद्वा भवतु न वयं
ब्राह्मणेषु प्रवीराः॥

———————————————————————————————————————————————————
अर किस प्रकार चंदन से लिपटा हुवा बाण लगाकर मेरा हृदय शांत करना चाहते हो ? बस अब इस से ( कुल्हाढ़ा ऊपर करके ) हे राम, महादेव के धनुष्य क भंग से बने हुवे पापी। ( एष कठोर धारः निष्करुणः कुठारः ) यह तीक्ष्ण धार वाला निर्दय परशु ( तव कंठं विशतु ) तुम्हारे गले में प्रवेश करे। ( तत् प्रवीरो भव ) इस लिये शूर वनो। (१६) (हारः कंठं विशतु) माला गले में प्रवेश करे। (यदि वा ) अथवा ( तीक्ष्णधारः कुठारः ) तीक्ष्णा धारा वाला कुल्हाड़ा \। ( नः स्त्रीणां ) हमारे स्त्रियों के

** (२०) जामदग्न्यः—(सामर्षे) कथं मां प्रणतिपात्रे मुनिमात्रं मन्यसे। कथं तत्रियजाति-गर्वितो ब्राह्मणजातिं तृणाय मन्यसे। स एष जामदग्न्यः खलु अहं यः क्षत्रकंठविगलदुष्णाऽसृजोंऽजलीन् समर्प्य पितंस्तोषयामास। तदलम्।(२१) राम :—**हे भृगुतिलक, आत्मनो यशोवित्तं मुधा मा हारय। **(२२) जामदग्न्यः—**कथं रे हारयिष्यामि। (वि-—————————————————————————————————————————————
(नेत्राणि कज्जलं जलं वा अधिवसतु) नेत्रों में कज्जल अथवा जल रहे। काजल सौभाग का लक्षण है तथा जल रोने का लक्षण है। ( इह ध्रुवं सुखं संपश्यामः ) यहां अटल सुख देखें ( वा प्रेतभर्तुः मुख) अथवा यम का मुंह देखें \। ( यत् वा तद् वा भवतु ) यह अथवा वह हो परन्तु ( वयं ब्राह्मणेषु प्रवीराः न ) हम ब्राह्मणों में हि शूर नहीं। इस प्रकार परशुराम का रामने अपमान करने के लिये भाषण क्रिया ( २० ) ( प्रणतिपात्रं ) नमस्कार योग्य ( तृणाय मन्यसे ) घांस के समान समझते हो॥ ( क्षत्रिय-कंठ-वि-गलद्-उष्णा-असृजः ) क्षत्रियों के गले से चलने वाले गरम खून के ( अंजलीन् समर्प्य ) अंजलीयों का अर्पण करके ( पितॄन् तोषयामास ) पितरों को तृप्त किया (२१) ( मुधा मा हारय) व्यर्थ न खो।(२२) ( वाग्-डंबर-पंडितेषु ) बड़ बड़ करने में प्रवीण ( युष्मासु ) ऐसे तुम्हारे लिये ( प्रचुरा वाणी ) बहुत भाषण ( किं नाम ) किस लिये ( प्रयुंजे ) उपयोग

सूक्ष्य ) अथवा—

किं नाम वाग्डंबरपंडितेषु।
युष्मासु वाणीः प्रचुरा प्रयुञ्जे॥
बाणान् रिपु-प्राणहरान् मदीयान्।
सर्वेऽपि यूयं सहिताः सहध्वम्॥

** (२३) रामः—**ननु अहमेव सहिष्ये। **(२४) भार्गवः—**रे तव गुरुरपि कौशिको मन्नाराचभयात् पद्मासनं भगवंतं ब्राह्मीं तनुं ययाचे। **(२५) रामः—**कथं गुरुं अपि अधिक्षिपसि। तदतः परं न सहिष्ये। (साटोपं) अये जामदग्न्य! तत् कुलिश कठिनं कोदण्डं रामेण एव अनेन भग्नम्। भवतु तत् त्रैयक्षं वा नारायणीयम् वा। मम दोर्विलासः तन्न गणयति। (२६) जामदग्न्यः—(सहर्षं) साधु रे क्षत्रिय–पोत, यत् किल जा——————————————————————————————————————————————
करूं। रिपु–प्राणहरान्) शत्रु के प्राणों का हरणकरने वाले (मदीयान् बाणान्) मेरे बाणों को (यूयं सर्वेऽपि सहिताः) तुम सब मिलकर (सहध्वं) सहन करो। (२४) (मन्नाराच–भयात्) मेरे बाणों के भय से (ब्राह्मीं तनुं ) ब्राह्मण का शरीर (२५) (गुरुं अपि अधिक्षिपसि) गुरु की भी मान हानी करते हो। (साटोपं) अभिमान से। (कुलिश–कठिनं कोदण्डं) वज्र के समान सख्त धनुष्य। (मम दोः विलासः तत् न गणयति) मेरे बाहुओं का खेल उसको नहीं गिनता है। (२६) (चण्डधाम्नः)

मदग्न्य-नाम्नः चण्डधाम्नः पुरतो खद्योत इव विद्योतसे।

**(२७) रामः—**अलं अलं वाग्डंबरेण अनेन। क्रियतां यथाऽभिलषितम्। **( २८ ) भार्गवः—**यदि शक्तोऽसितद् एहि। समरक्षमां क्षमां अवतरामः।

( इति निष्क्रान्तौ )

प्रसन्नराघवम्

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प्रचंड कीर्ति वाले ( खद्योत इव विद्योतसे) जुगनु के समान चमकते हो।

(२७) (अलं वाग्डंवरेण ) बड़ बड़ बस करो ( क्रियतां यथा-भिलषितं ) करो जैसी इच्छा हो। ( २८ ) ( समरक्षमां क्षमां अवतरामः ) युद्ध सहन करने वाली भूमी पर उतरें॥

३४ चतुस्त्रिंशः पाठः।

संस्कृत भाषा के मुख्य मुख्य शब्द चलाने का ज्ञान अब पाठकों को होचुका है। अब विभक्तियों के रूपों को बनाने का प्रकार लिखते हैं। शब्दों को प्रत्यच लगकर विभक्तियों के रूप किस प्रकार बनते हैं इसका संक्षेप से विवरण अव करना है। अकारान्त पुल्लिंगी शब्द चलाने के लिये निम्न लिखित प्रत्यय होते हैंः—

अकारान्त पुल्लिंगी शब्दों के लिये
प्रत्यय

प्रथमा : अः
संबोधन अः
द्वितीया म् न्
तृतीया इन भ्याम् ऐः
चतुर्थी भ्याम् भ्यः
पंचमी त् भ्याम् भ्यः
षष्ठी स्य योः नाम्
सप्तमी योः सु

उक्त प्रत्यय लगकर अकारान्त पुल्लिंगी शब्दों के रूप किस प्रकार बनते हैं, देखिये :—

[TABLE]

[TABLE]

इस प्रकार सब अकारान्त पुल्लिंगी शब्दों के रूप होते हैं ।’ नकार का णकार तृतीयैकवचन में तथा षष्ठी बहुवचन में नियम ३ के अनुकूल होता है (पाठ १ पृ० ३०, ३१ देखिये)।

सब प्रकारान्त पुल्लिंगी नाम इसी प्रकार चलते हैं । * ‘न्, भ्याम्, य, त्, नाम’ यह प्रत्यय सामने आने से पूर्व अकार का ‘आ ’ बनता है । तथा ’ भ्यः, सु ’ ये प्रत्यय आगे आने से पूर्व प्रकार का ‘ए’ बनता है ।

शब्द

अम्बा—माता अभिरत—प्रेम किया हुआ
वनिता—स्त्री एकाकिन्—अकेला
तातः—पिता एकाकिनी—अकेली
दासजनः—सेवक युगं—युग, सहस्रों वर्षो का अवधि
सख्यः—मित्र
सकृदू—एकवार निधनं—मृत्यु
वत्सल—प्रेमी कृच्छ्रं—कष्ट
अनुरक्त—प्रेमी निबंधनं—संबंध
अपराद्धम्—अपराध किया कौलीन—कुलीनता, बुरा काम
मंदभागिन्—दुर्भागी, अभागी प्राणिमि—जिंदा रहता हूं
नृशंल—क्रूर पूरय—पूर्णकर
इषत्—थोड़ा अचक्ष्व—कह
आर्तः—दुःखित, कष्टी आलप—बोल

(३१) महाश्वेता पुण्डरीकनिधनं अनुशोचति।

(१) हा अंब, हा तात, हा तख्यः, हा नाथ, जीवित निबंधन, आचक्ष्व क मां एकाकिनीं अशरणां अकरुण विमुच्य यासि। पृच्छ तरलिकां त्वत्कृते मया याऽनुभूताऽवस्था359। युगसहस्रायमाणः कृच्छ्रेण नीतो दिवसः। प्रसीद। (२) सकृदपि आलप। दर्शय भक्तवत्सलताम्। ईषद् अपि—————————————————————————————————————————
(निधनं अनुशोचति) मृत्यु के बाद रोति है। (१) (जीवित निबंधन) जीवन के आश्रय। (विमुच्य यासि)छोड़कर जाते हो। (मया………अवस्था) मैंने तुम्हारे लियेजो अवस्था-हा-लत-अनुभव की। (युगसहस्रा…..दिवसः) सहस्र युगों के समान कष्ट से दिन समाप्त किया। (२) (सकृद् अपि आलप)

विलोकय। पूरय मे मनोरथम्। आर्ताऽस्मि। भक्ताऽस्मि \। अनुरक्ताऽस्मि। अनाथाऽस्मि। बालाऽस्मि। अगतिकाऽस्मि। दुःखिताऽस्मि। अनन्यशरणाऽस्मि। (३) किमिति न करोषि दयाम्। कथय किमपराद्धम्। किंवा नाऽनुष्ठितं360 मया। कस्यां वा नाऽऽज्ञायां361 आदृतम्। कस्मिन् वा त्वदनुकूले362 नाभिरतम्। येन कुपितोऽसि (४) दासजनं अकारणात् परित्यज्य व्रजन् न बिभेषि कौलीनात्। आः अहं अद्यापि प्राणिमि। हा, हता ऽस्मि मंदभागिनी। धिङ्363 मां दुष्कृतकारिणीम्। यस्याः कृते तव इयं ईदृशी दशा वर्तते। (५) नास्ति मत्सदृशी नृशंस–हृदया, या एवं विधं भवन्तं उत्सृज्य गृहं गत-
——————————————————————————————————————————
एक बार तो बोल। (ईषद् अपि विलोकय) थोड़ा तो देख। आर्ता अस्मि) मैं कष्टी हूं। (अगतिका अस्मि) निरुपाय हूं। (३) (कथय किमपराद्धं) कह क्या अपराध किया। (कस्यां वा न आज्ञायां आदृतं) किस आजा में आदर नहीं किया। (४) (दास जनं……कौलीनात्) सेवकों को निष्कारण छोड़कर जाने में होने वाली बुराई से डरते नहीं हो। (धिक् मां दुष्कृतकारिणीं) धिक्कार है मुझे पाप करने वाली को॥

(५) (नृशंस हृदया ) क्रूर मन वाली। (किं मे गृहेण) क्या

वती। किं मे गृहेण किं अंबया, किं तातेन, किं बंधुभिः, किं परिजनेन। हाः कं उपयामि शरणम्। (६) मयि दैव दर्शय दयाम्। विज्ञापयामि त्वाम्। कुरु कृपाम्। पाहि वनितां अनाथाम्। प्रयच्छत अस्य प्राणान्।

कादंबरी————————————————————————————————————

मुझे घर से (किं अंवया ) क्या माता से ( मैंने करना है ) ( कं उपयामि शरणं ) किस को जाऊं शरण। (६)(दर्शय दयां) दया बताव ( पाहि वनितां अनाथां ) रक्षा करो अनाथ स्त्री की।( प्रयच्छत ) दीजिये ॥

३५ पञ्चत्रिंशः पाठः।
आकारान्त स्त्रीलिंगी नामों के रूप बनाने के लिये प्रत्यय
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पूर्व पाठ में तथा इस पाठ में<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734855309Screenshot2024-12-22134423.jpg"/>ऐसी चार लकीरें डाल कर किन किन विभक्तियों के प्रत्यय समान होते हैं, यह बताया है
‘भ्याम् ’ प्रत्यय सब शब्दों के लिये एकसा ही रहता है। जैसा :—

देवता—देवताभ्याम् दिव्—धुभ्याम्
कवि—कविभ्याम् राजन्—राजभ्याम
विष्णु—विष्णुभ्याम् पूषन्—पूषस्याम्
पितृ—पितृभ्याम् चंद्रमस्—चंद्रमोभ्याम्
राज्—राडभ्याम् लक्ष्मी—लक्ष्मीभ्याम्

इस प्रकार अन्य शब्दों के विषय में जानना चाहिये।अकारान्त पुंल्लिगी शब्दों का अन्तिम प्रकार इस प्रत्यय के आगे आने से दीर्घ होता है ऐसा पूर्व पाठ में कहा हैं । जैसाः—

सूर्य—सूर्याभ्याम्

‘भ्यः’ प्रत्यय भी (अकारान्त पुल्लिंगी शब्दों को छोड़कर) सब शब्दों के लिये समान आता है। जैसाः—

कृपा—कृपाभ्यः स्त्री—स्त्रीभ्यः
भूभृत्—भूभृद्भ्यः द्यो—द्युभ्यः
नदी—नदीभ्यः गो—गोभ्यः
वधू—वधूभ्यः वायु—वायुभ्यः

इस प्रत्यय के सामने होने से अकारान्त पुल्लिंग शब्दों के अंतिम प्रकार के स्थान पर ‘ए’ होता है । जैसाः—

कृष्णः—कृष्णेभ्यः

‘या, योः’ये प्रत्यय लगने से पूर्व प्राकारान्त स्त्रीलिंगी शब्दों के ‘आ’ का ‘अ’ होता है। जैसाः—

रमा—रमया, रमयोः वनिता—वनितया, वनितयोः
निष्ठा—निष्ठया, निष्ठयोः आज्ञा—आज्ञया, आज्ञयोः

शब्द–पुल्लिंगी।

आकन्दः—शोक, रोना धन्विन्—धनुष्य चलाने वाला
दशग्रीवः—रावण शरी—बाण मारने वाणा
आमयः—रोग वनस्पति—वृत्त, (छोटा या बड़ा)
संश्रवः—वचन, सुनना हेतुः—कारण
विषयः—देश खरः—गधा
भारः—बोझ

स्त्रीलिंगी।

गिर्—बात वैदेही—सीता
वरारोहा—सुंदर स्त्री जिह्वा—जबान
दारा—धर्मपत्नी

नपुंसकलिंगी।

तुणडं—तोंड चीरं—वल्कल, वृक्षों केछिलके के कपड़े
वासस्—कपड़ा वल्कलं—वल्कल, वृक्षों केछिलके के कपड़े
विमर्षणं—अत्याचार वृन्तं—फल का आधार

विशेषण।

अपहरन्—अपहार करने वाला पुराण—पुराणा
आभा—समान अनुतिष्ठन्—करनेवाला
ध्रुव—स्थिर प्रसुप्त—सोया हुवा
शुभा—उत्तम, कल्याणकारी यशस्विन्—यशवाला
धीर—शूर, धैर्यशाली अनामय—निरोगता, तनदुरुस्ती
कुशलिन्—स्वस्थ, आराम दर्शयन्—बतानेवाला

क्रिया।

आह्वयते—आह्नान करता है शायिष्य से—सुलाये जाओगे
हर्तुं—हरण करने के लिये व्याजहार—बोला
निरैक्षत्—देखा विसृज—छोड़
गर्हयेत्—निंदा होगी परामृशेत्—अत्याचार करेगा
ददर्श—देखा

अन्य।

मुहूर्तं—घड़ीभर सांप्रतं—अव

———————

(३२) सीतामपहरन्तं रावणं जटायुर्युद्धाय आह्वयते।

सीताक्रन्दं प्रसुप्तोऽसौ जटायुरथ शुश्रुवे।
निरैक्षद् रावणं क्षिप्रं वैदेहीं च ददर्श सः॥१॥
ततः पर्वतशृंगाभः तीक्ष्ण–तुण्डः खगोत्तमः।
वनस्पतिगतः श्रीमान् व्याजहार शुभां गिरम्॥२॥
दशग्रीव स्थितो धर्मे पुराणे सत्य–संश्रवः।
भ्रातस्त्वं निंदितं कर्म कर्तुं नार्हसि सांप्रतम्॥३॥

—————————————————————————————————————————

(सीतां……आह्वयते) सीता का हरण करने वाले रावण को जटायु युद्ध के लिये पुकारता है। (अथ) नंतर (असौ प्रसुप्तः जटायुः) इस सोये हुए जटायु ने (सीता क्रंद) सीता का रोना (शुश्रुवे) सुना। ( क्षिप्रं रावणं निरैक्षत् ) तत्काल रावण को देखा (सः वैदेहीं च ददर्श) उस ने सीता को भी देखा॥१॥(ततः) नंतर (पर्वत शृंगाभः, तीक्ष्णतुंड) पर्वत के शिखर के समान, सीखे मुंह वाला (वनस्पति गतः श्रीमान् खगोत्तमः) वृक्ष के बीच में रहने वाला श्रीयुत पक्षि श्रेष्ठ (शुभां गिरं व्याजहार) उत्तम भाषण बोला॥२॥हे (दशग्रीव) रावण (पुराणे धर्मे स्थितः) सनातन धर्म में रहने वाला (सत्य संश्रवः) सत्य प्रतिज्ञा करने वाला (त्वं) तूं है (भ्रातः) भाई, (सांप्रतं निंदितं कर्म कर्तुं) अव निंदा के योग कर्म करने केलिये (न अर्हसि) योग्य नहीं हो॥३॥(गुध्राणां) गीधों का (राजा) राजा (महा-

जटायुर्नाम गृध्राणामस्मि राजा महाबलः।
राजा सर्वस्य लोकस्य महेन्द्रवरुणोपमः॥४॥
लोकानां च हिते युक्तो रामो दशरथात्मजः।
तस्यैषा लोकनाथस्य धर्मपत्नी यशस्विनी॥५॥
सीता नाम वरारोहा यां त्वं हर्तुमिहेच्छसि।
कथं राजा स्थितो धर्मे परदारान् परामृशेत्॥६॥
न तत् समाचरेद्धीरो यत्परोऽस्य विगर्हयेत्।

——————————————————————————————————————————

बलः जटायुः नाम) बड़ा शक्तिमान् जटायु नामक मैं (अस्मि) हूं। (महेन्द्र वरुणोपमः) इन्द्र वरुण के समान (सर्वस्य लोकस्य राजा) लोकों का राजा॥४॥(च लोकानां हिते युक्तः) और लोकों के कल्याणा में तत्पर (दशरथात्मजः रामः) दशरथ का पुत्र राम है। (तस्य लोकनाथस्य) उस राजा को (एष यशस्विनी धर्मपत्नी) यह यश वाली पत्नी है॥५॥(सीता नाम वरारोहा) सीता नामक सुंदर स्त्री है (यां त्वं इह हर्तुं इच्छसि) जिसको तुम यहां हरण करना चाहते हो। (धर्मे स्थितः राजा) धर्म में रहने वाला राजा (परदारान् कथं परामृशेत्) दूसरे के स्त्रि के साथ किस प्रकार अत्याचार कर सकता है॥६॥(धीरः तत् न समाचरेत्) शूर पुरुष ने वह नहीं करना चाहिये (परः यत् अस्य विगर्हयेत्) दूसरा मनुष्य जो इस का कार्य निंदेगा। (यथा आत्मनः) जैसी अपनी (तथा अन्येषां दाराः विमर्षणात् रक्ष्याः)

यथात्मनस्तथाऽन्येषां दारा रक्ष्या विमर्षणात्॥ ७॥

अर्थं वा यदि वा कामं शिष्टाः शास्त्रेष्वनागतम्।
व्यवस्यन्त्यनुराजानं धर्म पौलस्त्यनन्दन॥८॥

राजा धर्मस्य कामस्य द्रव्याणां चोत्तमो निधिः।
धर्मः शुभं वा पापं वा राजमूलं प्रवर्तते॥ ६॥

विषये वा पुरे वा ते यदा रामो महाबलः।
नापराध्यति धर्मात्मा कथं तस्यापराध्यसि॥ १०॥

———————————————————————————————————————————————————

वैसीं दूसरे की स्त्री अत्याचार से रक्षा करने योग्य है॥७॥

हे (पौलस्त्यनन्दन) हे पुलस्तिक पुत्र ! (शास्त्रेषु आनगतं) शास्त्र ग्रंथों में न अये हुए (अर्थ वा यदि कामं) द्रव्य या काम के लिये (धर्म वा) धर्म के किये (शिष्टाः राजानं अनु व्यवस्यन्ति) शिष्टलोक राजा के अनुसार चलते हैं॥८॥

(धर्मस्य, कामस्य द्रव्याणां च) धर्म काम और द्रव्य इनका (उत्तमः निधिः राजा) उत्तम खजाना राजा है। (धर्मः शुभं वा पापं वा) धर्म तथा पुण्य और पाप (राजमूलं प्रवर्तते) राजा से ही प्रवृत्त होता है॥६॥

(महाबलः धर्मात्मा रामः) महाशक्तिमान् धर्मात्मा राम (ते पुरे वा विषये वा) तुम्हारे नगर में अथवा देश में (न अपराध्यति ) अपराध नहीं करता है (तस्य कथं अपराध्यसि) उस का क्यों अपराध करते हो॥ १० ॥

क्षिप्रं विसृज वैदेहीं मा त्वा घोरेण चक्षुषा।
दहेद्दहनभूतेन वृत्रामेंद्राशनिर्यथा॥ ११॥

सर्पमाशीविषं बध्वा वस्त्रान्ते नावबुध्यस।
ग्रीवायां प्रतियुक्तं च कालपाशं न पश्यसि॥१२॥

स भारः सौम्य भर्तव्यो यो नरं नावसादयेत्।
तदन्नमपि भोक्तव्यं जीर्यते यदनामयम्॥१३॥

यत्कृत्वा न भवेद्धर्मो न कीर्ति र्न यशो ध्रुवम्।

—————————————————————————————————————
(क्षिप्रं वैदेहीं विसृज) अभी सीता को छोड़। वह ( दहन भूतेन ) अग्नि के समान (घोरेण चक्षुषा ) भयानक आंख से (त्वा मा दहेत्) तुझे न जलाये (यथा वृत्रं अशनिः ) जिस प्रकार वृत्र (राक्षस) को (विद्युत् जलाती है )॥११॥

(आशीविषं सर्पं) जालिम विष वाले सांप को (वस्त्रांते बध्वा) कपड़े के अंदर बांधकर (न अवबुध्यसे) जानते नहीं हो ( च ग्रीवायां प्रतिमुक्तं कालपाशं न पश्यसि ) और गले में पड़े हुवे यम के पाश को देखते नहीं हो॥१२॥

हे (सौम्य ) सज्जन ! ( स भारः भर्तव्यः) वही बोझ उठाना चाहिये (यः नरं न अवसादयेत्) जो मनुष्य को नहीं गिरायगा। (अन्नं अपि तद् भोक्तव्यं) अन्न भी वही खाना चाहिये (यत् अनामयं जीर्यते) जो बीमारी न करता हुवा हजम होजाय॥१३॥

(यत् कृत्वा) जो करके (धर्मः न, कीर्तिः न, ध्रवं यशः न

शरीरस्य भवेत्खेदः कस्तत्कर्म समाचरेत्॥१४॥

षष्ठिवर्ष–सहस्राणि जातस्य मम रावण।
पितृपैतामहं राज्यं यथावदनुतिष्ठतः॥१५॥

वृद्धोऽहं त्वं युवा धन्वी सरथः कवची शरी।
न चाप्यादाय कुशली वैदेहीं मे गमिष्यसि॥ १६॥

न शक्तस्त्वं बलाद्धर्तुंवैदेहीं मम पश्यतः।
हेतुभिर्न्याय–संयुक्तै र्ध्रृवां वेदश्रुतीमिव॥१७॥

—————————————————————————————————————————
भवेत् ) धर्म, कीर्ति और स्थिर यश नहीं होता है और (शरीरस्य खेदः भवेत्। शरीर को कष्ट होता है ( तत् कर्म कः समाचरेत् ) वह काम कौन करेगा॥ १४॥

हे रावण ! (मम जातस्य) मेरे पैदा हुवे हुवे (पितृपैतामहं राज्यं यथावद् अनुतिष्ठतः) बाप दादा का राज्य पहिले के समान चलाते हुवे ( षष्ठिवर्ष सहस्राणि) साठ हजार वर्ष हुए॥ १५॥

ऐसा (अहं वृद्धः) में बूढ़ा हूं। (त्वं युवा धन्वी सरथः कवची शरी) तूं जबान, धनुर्धर, रथयुक्त, कवचयुक्त, बाण मारने वाला है। परन्तु (मे) मेरी ( वैदेहीं प्रादाय ) सीता को लेकर ( कुशली न गमिष्यसि ) आराम से नहीं जाओगे॥ १६॥

(मम पश्यतः) मेरे देखते हुवे ( वैदेहीं वलात् हर्तुं न शक्तः) सीता को बल से हरा करने के लिये समर्थ नहीं हो। जिस प्रकार न्यायसंयुक्तैःहेतुभिः) न्याय के तर्क जाल से (ध्रुवां वेदश्रुतीं इच) नित्य वेद श्रुती (हठायी नहीं जासकती )॥ १७॥

युध्यस्व यदि शूरोऽसि मुहूर्तं तिष्ठ रावण।
शायिष्यसे हतो भूमौ यथा पूर्वं खरस्तथा॥१८॥

असकृत् संयुभे येन निहता दैत्यदानवाः।
न चिराच्चीरवासास्त्वां रामो युधि हनिष्यति॥१९॥

अवश्यं तु मया कार्यं प्रियं तस्य महात्मनः।
जीवितेनापि रामस्य तथा दशरथस्य च॥२०॥

तिष्ठ तिष्ठ दशग्रीव मुहूर्तंपश्य रावण।
वृन्तादिव फलं त्वां तु पातयेयं रथोत्तमात्॥२१॥

रामायणम्

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(यदि शूरः असि) अगर शूर हो तो (मुहूर्तं तिष्ट) घड़ी भर ठहर।हे रावण युध्यस्व ) युद्ध कर। ( यथा पूर्वं खरः) जिस प्रकार खर राक्षस पूर्व समय में (तथा भूमौ हतः शाययिष्यसे ) उस प्रकार जमीन पर मरा हुवा तुमको सुलाया जायगा॥ १८ ॥

(येन संयुगे दैत्य–दानवाः ) जिसने युद्ध में राक्षस और दैत्य (असकृत् निहताः ) अनेक वार मारे हैं। (चीरवासाः रामः) वल्कल पहनने वाला वह राम युधि त्वां ) युद्ध में तुमको (न चिरात्) बहुत देर से नहीं, शीघ्र ही ( हनिष्यति) मारेगा॥ १९ ॥

(तस्य महात्मनः) उस महात्मा ( रामस्य तथा दशरथस्य च) राम और दशरथ का ( जीवितेनापि अवश्यं प्रियं कार्यं ) जीवन से भी जरूर प्रिय करना है॥ २० ॥

हे दशग्रीव रावण ! ( मुहूर्तं तिष्ठ तिष्ठ ) घड़ी भर ठहर २ ( वृन्तात् फलं इव) जड़ से फल गिराने के समान (त्वां रथोत्तमात् पातयेयं) तुमको उत्तम रथ से गिराऊंगा॥ २१ ॥

३६ षटत्रिंशः पाठः।
अकारान्त नपुंसकलिंगी नामों के लिये प्रत्यय।

(१)… म् …. … … …. आनि
सं…. " … …. " … …. "
(२)…. " … …. " …. … "

शेष विभक्तियों के प्रत्यय अकारान्त पुलिंगी शब्द के प्रत्ययों के समान हैं।

धन+ म्=धनम्
धन + इ =धने
धन+ आनि = धनानि

अन्य रूप पुलिंगी नामों के समान होते हैं (पाठ ३४ पृष्ठ ३२५ देखीये)

शब्द—पुल्लिंगी।

विग्रहः—युद्ध, लढाई मौहूर्तिकः—ज्योतिषी
शुकः**—**तोता उत्साहः—जोष, फुर्ती
सर्वतः—सब प्रकार से आत्मोदयः—अपनी उन्नति
संकीर्तयति—कहता है उत्कर्षः—उन्नति
संक्षेपः—सारांश अपकर्षः—अवनति
मंत्रयितुं—सला करने के लिये

स्त्रीलिंगी।

प्रकृतिः—स्वभाव परभूमिः—शत्रूका स्थान
श्रीः—धन दौलत परज्यानिः—शत्रूका नाश, हानी
वार्ता—वृत्तान्त, हकीकत व्यसनिता—आपत्ति
धीः—बुद्धि यात्रा—चढाई, हमला,तीर्थयात्रा

नपुंसकलिंगी

कनकं—सुवर्ण, सोना शुभलग्नं—उत्तम मुहूर्त
यात्राकरणं—चढाई करना आह्वानं—युद्धके लिये ललकारना

विशेषण

आहूत—बुलाया हुवा अवध्य—वध के अयोग्य
सुधी—बुद्धीमान सांत्वयन्—शांत करने वाला
शिष्टः—बड़ा, सन्माननीय उचित—योग्य
अतिक्रमणीय—उल्लंघन करने योग्य अनुचित—अयोग्य
अनतिक्रमणीय—उल्लंघन करने अयोग्य उदित—उदय हुवा हुवा, कहा हुवा
आवेदित—कहा हुवा

क्रिया

निर्णीय—निश्चय करके व्याचष्ट—बोला, कहा
अवस्थातुं—रहने के लिये गलहस्तयति—गला पकडता है
प्रबोध्य—समझा कर गलहस्तयसि—गला पडते हो

(३३) विग्रहः।

(१) ततः सभांकृत्वा आहूतः शुकः काकश्च। शुकः किंचिदुन्नतशिरो दत्तासन उपविश्य ब्रूते। भो हिरण्यगर्भ त्वां महाराजाधिराजः श्रीमच्चित्रवर्णः समाज्ञापयति। (२) यदि जीवितेन श्रिया वा प्रयोजनमस्ति तदा सत्वरं आगत्य, अस्मच्चरणौ प्रणम। नोचेद् अवस्थातुं स्थानान्तरं चिन्तय (३) राजा सकोपं आह। आः सभायां कोऽपि अस्माकं नास्ति य एनं गलहस्तयति। (४) उत्थाय मेघवर्णो ब्रूते-देव, आज्ञापय। हन्मि दुष्टं शुकम्। (५) सर्वज्ञो राजानं काकंच सांत्वयन् ब्रूते–श्रृणु तावत्।

——————————————————————————————————————————

(विग्रहः) युद्ध की तैयारी (१) (अहूतः शुकः काकः च) तोते और कौवे को बुलाया। (किंचिद्उन्नतशिराः) थोड़ा सा ऊ पर सिर करके। (दत्तासनः) जिसको आशन दिया है। (चित्रवर्णः समाज्ञापयति) महा० चित्रवर्ण आज्ञा करता है। (२) (यदि……प्रणम) अगर जीवित और धनदौलत तुम चाहते हो तो शीघ्र कर हमारे चरणों पर नमस्कार कर। (नोचे०……चिन्तय) नहीं तो रहने के लिये दूसरा स्थान देख। (३) (य एनं गल हस्तयति) जो इस को गला पकड कर बाहर निकालेगा (४) (हन्मि दुष्टं शुकं) मैं दुष्ट तोते को मारता हूं। (५) (सर्वज्ञ……संकीर्तयति) सर्वज्ञ मन्त्री राजा को और कौवे को शांत करके बोला—सुनो तो सही। दूत सब प्रकार से अवध्य है। क्योंकि

दूतः सर्वतोऽवध्यः। यतो राजा दूत-मुखो विद्यते। दूतोक्तैः स्वापकर्षं परोत्कर्षं वा सुधीर्न मन्यते। अवध्यभावेन अकुतोभयो दूतः सर्वं संकीर्तयति। (६) ततो राजा काकश्च स्वां प्रकृतिं आपन्नौ। शुकोऽपि उत्थाय चलितः। पश्चाच् चक्रवाकेण आनीय प्रबोध्य कनकालंकारादिकं दत्वा समापतो ययौ। (७) शुको विंध्याचलं गत्वा राजानं प्रणतवान्। तमालोक्य चित्रवर्णो राजा आह। शुक, का वार्ता। कीदृशोऽसौ दशः। (८) शुको ब्रूते–देव, संक्षेपादियं वार्ता संप्रति युद्धोद्योगः क्रियताम्। देशश्चाऽसौ कर्पूरद्वीपः स्वर्गैकदेशः। कथं वर्णयितुं

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राजा दूत मुख है ( अर्थात् राजा का मुख दूत ही है )। दूत के कहने से अपना अपमान अथवा दूसरे का मान कोई समझदार समझता नहीं। वध होने का भय न रहने से सब प्रकार से निडर होकर दूत सब कुछ कहता है। (६) (स्वां प्रकृतिं आपन्नौ ) अपनी होश पर आगये। ( चक्रवाकेण आनीय प्रबोध्य ) चक्रवाने ले आकार समझाकर ( कनकालंकारादिकं दत्वा ) सोने के गहने दे कर (संप्रषितः ययौ ) अच्छी प्रकार वापस भेजा हुआ गया। (७) ( राजानं प्रणतवान् ) राजा को नमस्कार किया। ( तं आलोक्य ) उसे देखकर। (८) ( देव……क्रियतां ) हे राजा सारांश से यही कहना है कि अब जंग की तैयारी कीजिये। ( कर्पूरद्वीपः स्वर्गैक देशः ) कर्पूरदीप स्वर्गके एक हिस्से के समान

शक्यते। (६) तत् सर्वान् शिष्टान् आहूय राजा मंत्रयितुं उपविष्टः। आह च संप्रति कर्तव्यविग्रहे यथाकर्तव्यं उपदेशं ब्रुत। विग्रहः पुनरवश्यं कर्तव्यः। (१०) दुरदर्शी नाम गृध्रो ब्रूते–देव व्यसनितया विग्रहो न विधिः। राजाऽऽह। मम बलानि तावद् अवलोकयतु मंत्री, तदा एतेषां उपयोगो ज्ञायताम्। एवं आहूयतां मौहूर्तिकः। (११) निर्णीय शुभलग्नं कार्यार्थं ददातु। मंत्री ब्रूते–तथापि सहसा यात्रा–करणं अनुचितम्। राजा आह–मंत्रिन्, मम उत्साह–भंगं सहसा मा कृथाः। विजिगीषुः यथा परभूमिं आक्रमति तथा कथय। (१२) गृधो

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है। ( कथं वर्णयितुं शक्यते ) किस प्रकार वर्णन किया जासकता है। ( ६ ) ( मंत्रयितुं उपविष्टः ) सलाह करने के लिये बैठ गया। ( संप्रति…..कर्तव्यः ) अब युद्ध कर्तव्य ( है इस में ) जो कुछ करना चाहिए इसका उपदेश की जिये। (१०) ( व्यसनितया विग्रहः न विधिः ) कष्ट के कारण युद्ध करना ऐसा विधि नहीं है। ( मम बलानि ) मेरी फौज। ( आहूयतां मौहूर्तिकः ) ज्योतिषी को बुलाइये। ( ११ ) ( सहला यात्रा करणंअनुचितं ) एकदम चढ़ाई उचित नहीं। ( मा कृथाः) न की जिये। ( विजिगी०……कथय ) विजय की इच्छा करने वाला शत्रू की भूमी पर जिस प्रकार हमला करेगा वैसा कहिये। ( राजाऽऽदेशः न अनति

व्रूते–तत् कथयामि। किन्तु तदनुष्ठितमेव फलप्रदम्। राजाऽऽदेशश्चाऽनतिक्रमणीय इति यथाश्रुतं निवेदयामि। (१३) ततो मंत्री विग्रहपराणि कामन्दकीनीति–शास्त्र–वचनानि विस्तरतो व्याचष्ट। ततो राजाऽऽह–आः किं बहुनोदितेन। आत्मोदयः परज्यानिः इति द्वयाद् व्यतिरिक्तो न कश्चिन्नीति पदार्थोऽस्ति। (१४) मंत्रिणा विहस्य उक्तम्–सर्वं सत्यमेतत्। तत उत्थाय राजा मौहूर्तिकावेदित–लग्ने प्रस्थितः॥

हितोपदेशः
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क्रमणीयः ) राजा की आज्ञा उल्लंघन करने योग्य नहीं। (यथाश्रुतं) जिस प्रकार कहते हैं. जिस प्रकार शास्त्रों में कहा है। (१३) (ततः…..व्याचष्ट ) नन्तर मन्त्री नेंयुद्ध के विषय में कामन्दक रचित नीति शास्त्र के वचन विस्तार से कहे। ( किं बहुना उदितेन ) क्या बहुत बोलने से। ( आत्मो… ऽस्ति ) अपनी उन्नति और शत्रु का नाश इन दो के सिवाय अन्य कोई नीति शब्द का अर्थ नहीं। (१४) मौहूर्तिका-वेदित लग्ने प्रस्थितः ) ज्योतिषीने कहे हुवे मुहूर्त पर चल पड़ा॥

३७ सप्तत्रिंशः पाठः।
इकारान्त तथा उकारान्त पुल्लिंगी शब्दों के लिये।
प्रत्यय

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प्रथमा का एकवचन - रविः, शंभुः।

प्रथमा, संबोधन तथा द्वितीया के द्विवचन में कोई प्रत्यय नहीं है। परन्तु अन्तिम ‘इ, उ’ दीर्घ होते हैं - रवी, शंभू।

प्रथमा और संबोधन के बहुवचन में तथा चतुर्थी के एकवचन में अन्तिम ‘इ’ के स्थान में ‘अय्’ तथा ‘उ’ के स्थान में ‘अब्’ होता हैः - रवयः, शंभवः। रवये, शंभवे॥

संबोधन के एकवचन में अन्तिम इकार का ‘ए’ तथा उकार का ‘ओ’ होता है। रवे शंभो।

द्वितीया तथा षष्ठी के बहुवचन के समय अन्तिम ‘इ, उ’ दीर्घ होते हैं - रवीन् शंभून्। रवीनाम्। शंभूनाम्।

तृतीया में कोई फरक नहीं होता है—रविणा, शंभुना \। रविभ्याम्, शंभुभ्याम्। रविभिः, शंभुभिः।

चतुर्थी पंचमी के द्विवचन बहुवचन में कोई भेद नहीं होता है—रविभ्याम्, रविभ्यः। शंभुभ्याम् शंभुभ्यः।

पंचमी षष्ठी के एकवचन में अंतिम इकार के स्थान में ‘ए’ तथा उकार के स्थान में ‘ओ’ होता है—रवेः। शंभोः।

षष्ठी सप्तमी के द्विवचन में इकार के स्थान पर‘य् ’ और उकार के स्थान पर ‘व्’ होता है—रव्योः। शंभ्वोः।
सप्तमी एकवचन में अंतिम ‘इ, उ’ का लोप होता है—रवौ, शंभो।

सप्तमी बहुवचन में कोई भेद नहीं होता—रविषु, शंभुषु।

इस प्रकार अन्यान्य शब्दों के प्रत्ययों के विषय में जानना चाहिए। रूपों को देखकर प्रत्ययों का ज्ञान हो सकता है।

शब्द-पुल्लिंगी

अमात्यः —मंत्री, विभवः—दौलत, संपति
श्रेष्ठिन्—व्यौपारी व्याधिः—बीमारी
कृतान्तः—मृत्यु, यम गृहजनः—स्त्री प्रादि, घर के लोग
निवापांजलिः—बीजमुष्टी, दान मृतकतर्पण भंगः—टूटाणा
निवापः—ब्रीज मृतक को पानी देना शूलायतनाः—शूल पर चढानेवाले लोक
एकदेशः—एक हिस्सा
प्रयासः—कष्ट उपालंभः—मखौल
पादपः—वृक्ष शूलः—शूल, फांसी देनेका खंबा

नपुंसकलिंगी।

चारित्रं—धार्मिक जीवन अपथ्यं—रास्ते पर न चलना,नापसंद
महाव्यसनं—बडा कष्ट साललं—जल
बाष्पं—आंसुं जलं—उदक
आयतनं—स्थान

विशेषण।

दीन—अनाथ विषम—समान नहि, कष्टकारक असमान
भीरु—डरपोक गुर्वी—बडी
समुद्वहमान—करने वाला

क्रिया।

अपसरत—दूर हो जाइये प्रतीथ—मानते हो
अपेत—दूर हो जाइये प्रेक्षध्वं—देखीये
समाघ्राय—सूंघ कर भणितव्यं—कहने योग्य
भेतव्यं—डरने योग्य भणथ—कहते हो
निवर्तस्व—वापस हो अनुकंपन्ते—दया करते हैं
समर्पयति—देता है, देगा

अन्य

देशान्तरं—अन्य देश में सबाष्पं—आंख में आंसु लाकर

(३४) अमात्यो राक्षसः आत्मनः परं मित्रं चन्दन-
दासं महाव्यसनान्मोचयति।

(ततः प्रविशति चाण्डालः)

** (१) चाण्डालः—**अपसरत, अपसरत। अपेत अपेत। यदि प्राणान् विभवं कुलं कलत्रं च रक्षितव्यं तद् विषमं राजाऽपथ्यं सुदूरेण परिहरत। ( २ ) अपि च। अपथ्ये सेविते व्याधिः मरणं वा पुरुषस्य भवति। राजाऽपथ्ये पुनः सेविते सकलं अपि कुलं म्रियते। (३) तद् यदि न प्रतीथ तद् अत्र प्रेक्षध्वम् एनं राजाऽपथ्यकारिणं श्रेष्ठिचंदनदासं—————————————————————————————————————————

(अमात्यो……..मोचयति) राक्षस नामक मंत्री अपने परममित्र चंदनदास को बडी तखलीफ से बचाता है। (१) (यदि…….परिहरत) अगर प्राण, धन, कुल, स्त्री आदि की रक्षा करनी हो तो कष्ट कारक राजा के विरोधी आचरण दूर से त्याग दीजिये। (२) (अपि च……भवति) अगर प्रवश्य-( खानपान में बेपरहेजी)-किइतो मनुष्य को व्याधि या मरण होता है। ( राजा …… म्रियते राजा का विरोध करने से संपूर्ण कुल मर जाता है। (३) (एनं…….नीयमानं) राजा का नापसंद काम करने वाले इस सेठ

सपुत्रकलत्रं वधस्थानं नीयमानम्। ( ४ ) ( आकाशे भुत्वा) आर्याः किं भणथ ! अस्ति अस्य कोऽपि मोक्षोपाय इतेि। आर्याः, अस्ति अमात्पराक्षसस्य गृहजनं यदि समर्पयति। (५) (पुनराकाशे) किं भणथ। एष शरणागतवत्सल आत्मनो जीवितमात्रस्य कारणे ईदृशं अकार्यं न करिष्यति इति। आर्याः, तेन हि अवधारयत अस्य सुखां गतिम्। किमिदानीं युष्माकं अत्र प्रतीकार–विचारेण। ( ६ ) (ततः प्रविशति द्वितीयचांडालानुगतः वध्यवेषधारी शूलं स्कंधेन आदाय कुटुंबिन्या पुत्रेण च अनुगम्यमानः चन्दनदासः)।(७) चन्दनदासः—(सवाष्पम्) हा धिक् ! हा धिक् ! अस्मादृशानां आप नित्यं चारित्र-भंग-भीरूणां चोरजनोचितं
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चंदनदास को स्त्री पुत्र के साथ वधस्थान के पास लिया जाता है। (४) (मोक्षोपायः) छूटने का उपाय। (५) (एषः न करिष्यति ) यह शरणआये हुवों का रक्षा करने वाला केवल अपने जीवन के लिये इस प्रकार का कुकर्म नहीं करेगा। (तेन…… गतिः) उस से जानीये इसकी संतोषकारक गति अर्थात् इसकी गति आनंदकारक होगी ऐसा समझीये। (किं इदा० विचारेण ) क्या अब तुम्हारे यहां प्रतीकार करने के विचार से होता है। (७) (ततः प्रवि०……चन्दनदासः) नंतर प्रवेश करता है दूसरे चांड ल के

मरणं भवति इति नमः कृतान्ताय। (८) अथवा न नृशंसानां उदासीनेषु, इतरेषु वा, विशेषोऽस्ति (समन्ताद् अवलोक्य) भोः प्रियवयस्य विष्णुदास कथं प्रतिवचनमपि न मे प्रतिपद्यसे (९) अथवा दुर्लभाः ते खलु मानुषाः ये एतस्मिन् काले दृष्टिपथेऽपि तिष्ठन्ति। एतेऽस्मत्प्रिय-वयस्याअश्रुपातमात्रेण कृत-निवाप-सलिला इव कथमपि प्रतिनिवर्तमानाः शोकदीनवदना बाष्प-गुर्व्या दृष्ट्या मां अनुगच्छन्ति। (१०) चाण्डालः—
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साथ वध का पोशाख धारण किया हुवा शूल को कंधे पर लेकर स्त्री पुत्र के साथ चंदनदास। (७) (अस्मादृशानां……कृतान्ताय ) हमारे जैसे लोकों का कि जो सदा धर्माचरण का भंग करने के लिये डरने वाले हैं उनका भी चोरों के समान मरण होता है। इस कारण नमस्कार है इस यम को। ( 5 ) ( अथवा.. . विशेषः अस्ति अथवा क्रूर पुरुषों के लिये उदासीन अथवा इतर इनमें कोई विशेष प्रतीत नहीं होता है, अर्थात् उनकी क्रूरता सब पर एकसी चलती है। ( समंतात् ) चारों ओर (भोः प्रिय०……प्रतिपद्यसे) हे प्रिय मित्र विष्णुदास, कैसा उत्तर भी मुझे नहि देते हो। (९) (एते अस्मत्……अनुगच्छन्ति ) ये हमारे प्रियमित्र, आंसुऐं बह कर जैसे जल से तर्पण कर रहे हैं, वे कैसे भी वापस होते हुवे, शोक से दीन मुख करके, आंसुओं से भरे हुए दृष्टी के साथ मेरे पीछे पीछे चलते हैं। (१०) (तद्……परिजनं) इसलिये छोड

आर्य, चन्दनदास, आगतोऽसि वध्यस्यानं तद् विसर्जय परिजनम्। (११) चन्दनदासः—कुटुंबिनि, निवर्तस्व सांप्रतं सपुत्रा। न युक्तं खलु अतः परं अनुगंतुम्।(१२) कुटुंबिनी—( सबाष्पम् ) परलोकं प्रस्थित आर्य न देशांतरम्। **(१३) चंदन०—आर्ये, अयं मित्र-कार्येण मे विनाशः, न पुनः पुरुषदोषेण। तद् अलं विषादेन।(१४) कुटुं०—आर्य, यद्येवं तद् इदानीं अकालः कुलजनस्य निवर्तितुम्। (१५) चंदन०—**अथकिं व्यवसितं कुटुंबिन्या। **(१६) कुटुं०—**भतुश्चरणौ364अनुगच्छन्त्या आत्मानुग्रहो भवति इति।दुर्व्यवसितं इदं

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परिवार को। ( ११ ) (निवर्तस्व……..अनुगन्तुं ) पीछे जा अब लडके के साथ। नहि हैं योग्य सचमुच इस से परे आना। (१३) (अयं……विषादेन ) यह मित्र के कार्य से मेरा नाश है, नहीं फिर मनुष्य के दोष से। इसलिये बस कर दुःख। (१४) (अकालः…..निवर्तितुं) यह समय नहि परिवार के वापस होने के लिये। (१५) (किं व्यवसितंकुटुबिन्या) क्या प्रारंभ किया है (मेरे) स्त्री ने। (१६) (भर्तुः…….भवति) पति के पीछे चलने से अपना लाभ होता है। (१७) (दुर्व्यव० अनुग्रहीतव्यः ) बहुत

त्वया। अयं पुत्रकोऽश्रुत365-लोक-संव्यवहारो बालोऽनुग्रहीतव्यः366। **(१८) कुटुं०—**अनुगृह्णन्तु एनं प्रसन्ना देवताः। जात पुत्रक, पत पश्चिमयोः पितुः पादयोः। ( ११ ) पुत्रः—( पादयोर्निपत्य367) किं इदानीं मया तात - विरहितेन अनुष्ठातव्यम्। (२०) चंदन०— पुत्र, चाणक्यविरहिते देशे वस्तव्यम्। **(२१) चांडालः—**आर्य चंदनदास। निखातः शुलः, तत सज्जो भव। (२२) कुटुं०— आर्याः, परित्रायध्वं परित्रायध्वम्। **(२३) चंदन०—**आर्ये, अथ किं अत्र आक्रंदसि। स्वर्गंगतानां तावद् देवा दुःखितं परिजनं अनुकंपन्ते। अन्यच्च, मित्रकार्येण मे विनाशो न अयुक्त-कार्येण। तत् किं हर्षस्थानेऽपि रुद्यते। (२४) प्रथमश्चांडालः368 अरे
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बुरा किया यह तूनें। यह लडका जिसको लोक व्यवहार का ज्ञान नहि ऐसा केवल बालक है इसके ऊपर दया कर। (१८) (पत……पादयोः) पड पिता के अंतिम पांवों पर। ( २० ) ( चाणक्य ……वस्तव्यं) जहां चाणक्य नहि हैं ऐसे देश में रहना। (२९) ( निखातः शूलः) गाड दिया। (सज्जो भव) तैयार हो। (२३) (किं प्राक्रंदसि )

बिल्वपत्र, गृहाण चन्दनदासम्। स्वयमेव परिजनो गमिष्यति।**(२५) द्वितीयः चांडालः—**अरे वज्रलोमन्, एष गृह्णामि। **(२६) चंदन०—मुहूर्तं तिष्ठ यावत् पुत्रके सान्त्वयामि। ( पुत्रकं मूर्ध्नि समाघ्राय) जात, अवश्यं भवितव्ये विनाशे मित्रकार्यं समुद्रहमानो विनाशं अनुभवामि।(२७) पुत्रः—तात, किं इदमपि भणितव्यम्। कुलधर्मः खलु एषोऽस्माकम्। ( इति पादयोः पतति )।(२८) चाण्डालः—**अरे गृहाण एनम्। (२९) कुटुं०—(सोरस्ताडनम् ) आर्य, परित्रायस्व, परित्रायस्व। ( प्रविश्य पटाक्षेपेण)। (३०) राक्षसः—भवति न भेतव्यम्। भोः भोः शुलायतनाः न खलु व्यापादयितव्यः चन्दनदासः।(३१) चंदन०—(सवाष्पं ) अमात्य किमिदम्।
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क्यौं रोती है। (तत्……रुद्यते) तो हर्ष के स्थान में रोया क्यौं जाता है। (२६) (पुत्रकं सांन्त्वयामि) लडके को शांत करता हूँ। ( मूर्ध्नि समाघ्राय) शिर में सूंघकर।(मित्रकार्य समुद्वहमानः) मित्र का कार्य करने वाला। (२७) (किं इदमपि भणितव्यं) क्या यह भी बोलना चाहिये। (२६) (सारस्ताडनं) छाती पीटकर। (पटाक्षेपेण) कपडे को झटका देकर। (३०) ( न खलु व्यापा०……चन्दनदासः)

(३२) राक्षसः—त्वदीय—सुचरितैकदेशस्य अनुकरणं किल एतत्। (३३) चंदन० सर्वं अपि इमं प्रयासं निष्फलं कुर्वता त्वया किं अनुष्ठितम्। (३४) राक्षसः सखे स्वार्थ एव अनुष्ठितः। कृतं उपालंभेन। भद्रमुख, निवेद्यतां दुरात्मने चाणक्य। (३५)वज्र०—किमिति। (३६) राक्षसः—अहं अमात्य—राक्षसोऽस्मि (३७) प्रथमः चांडा०—त्वं तावत् चंदनदासं गृहीत्वा इह एतस्य श्मशानपादपस्य छायायां मुहूर्त तिष्ठ यावदहं आचार्य चाणक्यस्य निवेदयामि गृहीतोऽमात्य-राक्षस (३८) द्विती० चांडा०—अरे वज्रलोमन् गच्छं।

(इति सपुत्रदारेण चंदनदासेन सह निष्क्रांतः)

मुद्राराक्षसम्।

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न मारो चंदनदास को। (३२) ( त्वदीय…….एतत् ) तुम्हारे उत्तम आचरण के एक अंश का अनुकरण है सचमुच यह। (३३) (सर्वं …….अनुष्ठितं ) सब इस कष्ठ को विफल करके तूनें क्या यह किया। (३४) (कृतं उपालंभेन ) बस होगया मखौल।(३५) (त्वं ……राक्षसः) तूं तो चंदनदास को लेकर यहां ही इस शमशान वृक्ष के छाया में घंडी भर ठहर, जबतक मैंआचार्य चाणक्य को कहता हूं कि पकड़ा है मंत्री राक्षस।

सुचना—इस पाठ में तथा आगामी पाठ में अथवा किसी पाठ में जिस जिस स्थान पर पाठकों को कोई कठिनता उपस्थित होगी तो उस उस पाठ को पाठक विचार पूर्वक बार बार पढते रहेंगे तो उनका समाधान स्वयं हो जायगा । तथा कथा में आयें हुए किसी वाक्य का अर्थ ध्यान में न आया तो विचार पूर्वक उस संपूर्ण कथा को बार बार पढने से उस अर्थ का प्रकाश उन के मन में होगा ।

३८ अष्टात्रिंशः पाठः ।
शब्द —पुल्लिंगी

[TABLE]

स्त्रीलिंगी

[TABLE]

[TABLE]

विशेषण

[TABLE]

क्रिया।

[TABLE]

[TABLE]

अन्य।

[TABLE]

(३५) वेणी-संहार-महोत्सवः।

(नेपथ्ये)

(१) भो भो समंतपंचक संचारिणो योधाः, कृतं अस्मद्द-र्शन-त्रासेन। कथय कस्मिन्नुद्देशे याज्ञसेनी सन्निहिता।

** (२) युधिष्ठिरः—**(सहसा उत्थाय) पांचालि, न भेतव्यं न
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(वेणी संहार महोत्सवः) वेणी बांधने का उत्सव। (नेपथ्ये ) पड़दे के पीछे। (१) (कृतं अ०……. त्रासेन ) बस की जिये अब हमारे दर्शने से दुःखी होना। ( कस्मिन्……सन्निहिता ) कहां है द्रौपदी। (२) (दुर्योधन हतक) हे दुष्ट दुर्योधन। (अपनया…

भेतव्यम्। उपानीयतां पे सज्जं धनुः। दुरात्मन् दुर्योधनहतक, आगच्छ। अपनयामि ते गदाकौशल—संभूतं भुजदर्पं शिलीमुखासारेण।

( ततः प्रविशति—क्षतज—सिक्त—सर्वांगो भीमसेनः )

** (३) भीमसेनः—**(उद्धतं परिक्रामन् ) भोः भोः समन्त पंचक-संचारिणः सैनिकाः कोऽयमावेगः। **(४) युधिष्ठिरः—**कः कोऽत्र भोः। सनिषंगं धनुरुपनय। कथं न कश्चित् परिजनः। भवतु बाहुद्वयेन एव दुरात्मानं गाढं आलिंग्यज्वलनं अभिपातयामि। ( परिकरं बध्नाति ) (५) द्रौपदी—(भयात् परिक्रामति ) ( ६ ) भीमः— तिष्ठ, तिष्ठ, भीरु, क्व अधुना गम्यते। ( इति केशेषु ग्रहीतुं इच्छति ) (७) युधिष्ठिरः—
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…सारेण) दूर करता हूं गदा युद्ध की प्रवीणता से उत्पन्न हुए हुए तुम्हारे बहुओं के गर्व को, प्राणों के आघात से। (ततज-सिक्त सर्वांगः) घाबके खून से भरा हुआ सब अंग हैं जिसका। (३) (कः अयं आवेगः) क्यों यह गडबड। (४) (सनिषंगं…अपमय) सब साधनों के साथ धनुष्य लाव। (ज्वलनं अभिपातयामि) आग में फेंकता हूं। (परिकरं बध्नाति) चोगा बांधता है। (६) (क्व अधुनागम्यते) कहां अब जाती है। (७) (बिष्ठुरं अलिंग्य)

(भीमं निष्ठुरं आलिग्य )—दुरात्मन्, भीमार्जुनशत्रो सुयोवन हतक, **(८) भीमः—अये, कथं आर्यः सुयोधनशंकया निर्दयं मां आलिंगति। (९) कंचुकी—(उपगम्य सहर्षं) महाराज, बंध्यसे। अयं खलु आयुष्मान् भीमसेनः सुयोधनक्षतजाऽरुणित-शरीरांबरो दुर्लक्ष्य—व्यक्तिः। अलं अधुना संदेहन। (१०) चेटी—(द्रौपदीं आलिंग्य) देवि, पूरित-प्रतिज्ञाभरो नाथो देव्याःवेणीसंहारं कर्तुं त्वां अन्वेषयति।(१५) द्रौपदी—**हञ्जे, किं मां अलीक-वचनैः आश्वासयसि

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क्रूरता के साथ अलिंगन देकर, जोर से पकड़ कर। (८) (अये…आलिंगति) अरे कैसा बडा ( भाई धर्मराज ) दुर्योधन के संशय से क्रूरता से मुझे आलिंगन देता है। ( ९ ) ( महाराज, वंच्यसे ) हे हमाराजा ! ठगते हो अर्थात् तुम जो इसको दुर्योधन समझ रहेहो यह ठीक नहीं। ( सुयोधन- क्षत-जाऽरुणित-शरीरांऽबरः ) दुर्योधन के घावें से निकले हुए रक्त से लाल हुए हुए शरीर तथा वस्त्र जिनके ( ऐसा भीमसेन )। ( दुर्लक्ष्य व्यक्तिः ) पहचानने के लिये कठिन। (१०) ( देवि……अन्वेषयति ) हे देवी ! पूर्ण किया हुआ है प्रतिज्ञा का भार जिसने ऐसा पति देवी की वेणी बांधने के लिये तुम को ढूंढ रहा है। (११) (अलीक वचनैः आश्वासयसि) झूटे भाषण से अश्वासन दे रही है॥

(१२) कंचुकी—महाराज। वञ्च्यसे। (१३) युधिष्ठिरः—जयंधर, अपि सत्यं नायं मम वैरी सुयोधन हतकः।(१४) भीमः—देव, अजातशत्रो कुतो अद्यापि सुयोधन हतकः।(१५) युधिष्ठिरः—( स्वैरं मुक्त्वा भीमं अवलोकयन् अश्रूणि मार्जयति )।* (१६) भीमः—( पादयोः पतित्वा ) जयतु आर्यः। (१७) युधिष्ठिरः—वत्स, बाष्पजलांतरितनयनत्वान् न पश्यामि ते मुखचंद्रम्। तत् कथय कच्चित् जीवति भवान् समं किरीटिना। (१८) भीमः—निहतसकलरिपुपक्षे त्वयि नराधिपे जीवति भीमोऽर्जुनश्च।(१९) युधिष्ठिरः—( सस्नेहं पुनः गाढं आलिंगति )।**(२०) भीमः—**आर्य, मुंचतु मां क्षणं एकं भवान्।
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(१३) (अपि……हतकः) अरे यह सच है क्या, कि यह मेरा शत्रु दुर्योधन नहीं है। (१४) (आजातशत्रो) हे धर्मराज (१५) (अश्रूणिमार्जयति) आंसू पूंछता है। ( १७ ) ( बाष्पजलान्तरितनयनत्वात् ) आंसुं के जल से भरे हुवे आंख होने के कारण। ( समं किरीटिना) अर्जुन के साथ। (१८) (निहत०……अर्जुनश्च ) जिसका शत्रुका सब पक्ष मारा गया है, ऐसा तूं राजा होने पर भीम तथा अर्जुन

**(२१) युधिष्ठिरः—किं अपरं अवशिष्टम्।(२२) भीमः—**आर्य सुमहद् अवशिष्टम्। संयच्छामि तावद् अनेन दुर्योधन-दुःशासन-रुधिरोक्षितेन पाणिना पांचाल्याः दुःशासनावकृष्टं केशहस्तम्। (२३) राजा—सत्वरं गच्छतु भवान्। अनुभवतु तपस्विनी वेणीसंहार–महोत्सवम्।(२४) भीमः—भवति पांचाल- राजकन्ये। दिष्टया वर्षसे रिपुकुलक्षयेण। (२५) द्रौपदी—(उपसृत्य ) जयतु जयतुनाथः। (भयाद् अपसर्पात)। (२६) भीमः—राजपुत्रि, अलं एवं मामवलोक्य त्रासेन। बुद्धिमतिके क संप्रति भानुमती या उपहसाति पांडवदारान्। (२७) द्रौपदी—आज्ञापयतु नाथः। (२८) भीमः—स्मरति वा भवती, यन् मया——————————————————————————————————————————
जिंदा हैं। (२१) किं .. शिष्टं) क्या और बाकी है। (२२) सुमहत् अवशिष्टं) बहुत कुछ रहा है। (संयच्छामि केश इस्तं ) दुर्योधन दुःशासन के खून से भरे हुवे हाथों से द्रौपदी के दुःशासन ने खेंचे हुवे बालों के गुच्छे को तबतक बांधता हूं। (२४) (दिष्ट्या वर्धसे रिपुकुलक्षयेण) सुदैव (तूं) से बढती है शत्रू के कुल के नाश से। (२६) (बुद्धिमतिके) हे बुद्धिमति नामक स्त्रि। ( क्व…..दारान् ) कहां है अव भानुमति जो हंसती थी पाडवों के स्त्रियों को। (२८) ( स्मरति……आसीत् ) याद है तुमको जो मैं ने प्रतिशा की

प्रतिज्ञातं आसीत्। **(२९) द्रौपदी—**नाथ स्मरामि, अनु भवामि च। **(३०) भीमः—**संपम्यतां इदानीं धार्तराष्ट्रकुलकालरात्रिः दुःशासन-विलुलिता वेणी। **(३१) द्रौपदी—**नाथ विस्मृताऽस्मि एतं व्यापारम्। नाथस्य प्रसादेन पुनरपि शिक्षिष्ये। **( ३२ ) चेटी—वेणीं बध्नाति।(३३) युधिष्ठिरः—**देवि, एष ते वेणी—संहारोऽभिनंद्यते नभस्तल-संचारिणा सिद्धजनेन।

वेणीसंहारम्।—————————————————————————————————————————

थी।(३०) (संयम्यतां …….वेणी) बांधीये अब धृतराष्ट्र पुत्रों के कुल की काल-(मृत्यु)-रात्री जैसी दुःशासन ने बिघाडी हुई वेणी। (३१) ( नाथ…… व्यापारं ) हे पति। भूलगई हूं इस व्यवसाय को। (३३) (देवि……सिद्ध अनेन ) हे पत्नी ! यह तुम्हारा वेणी बांधने का उत्सव आनंदित किया जाता है आकाश में संचार करने वाले सिद्ध लोकों ने।

३६ एकोन चत्वारिंशत् पाठः।

शब्द–पुल्लिंगी।

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स्त्रीलिंगी।

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नपुंसकलिंगी।

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विशेषण।

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क्रिया।

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अन्य।

अहनिशं—तदा, दिनरात

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संस्कृत स्वयं-शिक्षक
तीसरा भाग

संस्कृत स्वयं शिक्षक का तीसरा भाग लिखा जारहा है। आशा है कि ४ महीनों के अंदर पाठकों के हाथ में पहुंचेगा। इस पुस्तक में स्वयं शिक्षक प्रणाली की जो खास विशेषता है वह प्रारंभ होगी और चतुर्थ भाग तक चलेगी। इस पुस्तक में वर्तमान, भूत, तथा भविष्य कालों के अत्यंत उपयोगी क्रियापदों के रूप बनाने की विधि बतायी जायगी। संधि प्रकरण का अत्यंत उपयोगी भाग समाप्त होगा और पाठकों की योग्यता नये शब्द बनाने तक पहुंच जायगी। साधारण बातचीत तो क्या परंतु इसके पढ़ने स विशेष रीति से लिखने पढ़ने बोलने का अभ्यास निसंदेह होजायगा। इस पुस्तक के पढ़ने से पाठक जान सकेंगे कि स्वयं शिक्षक की प्रणाली की विशेषता क्या है। आशा है कि पाठक इससे लाभ उठावेंगे॥

** राजपाल**
प्रबंधकर्त्ता सरस्वती आश्रम लाहौर।

संस्कृत स्वयं-शिक्षक
प्रथम भाग
(द्वितीय वार )

संस्कृत स्वयं शिक्षक के प्रणाली से संस्कृत पढ़ने वालों को कितना लाभ होरहा है यह बात, इस प्रथम भाग की पहिले वार की सव पुस्तकें ३, ४ महीनों में लग चुकीं और दूसरी वार छापने की बड़ी आवश्यकता हुई, इससे सिद्ध होती है। दूसरी बार छापने के समय इसको बढ़ानेतथा अधिक उपयोगी करने का विचार था इस लिये जैसाका वैसा ही दुबारा छापना पसंद नहीं किया। अब इसप्रथम भाग को बहुतांश में फिर लिखकर डेढ़ गुणे तक बढ़ादिया है। ३०, ४० शब्दों के एकवचन के रूप दिये हैं तथा सैकड़ों समान शब्द ऐसे दिये हैं कि जिनके सब विभक्तियों के रूप पाठक स्वयं बना सकते हैं। इसमें व्याकरण का हिस्सा भी बढ़ाया हुआ है तथा वाक्य प्रायः दो गुणा अधिक बढ़ाये हैं। आशा है उत्साही पाठकों को पहिले से यह पुस्तक अधिक उपयोगी होगी॥

** राजपाल
प्रबंधकर्त्ता सरस्वती आश्रम लाहौर।**

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  1. “ऌ स्वर के लिये दीर्घ नहीं है।परंतु ध्यान में रखना चाहिये कि, विवृत प्रयत्न ल वर्ग के लिये दीर्घत्व नहीं है, ईषत्स्पृष्ट प्रयत्न के ऌ वर्ण के लिये दीर्घत्व है। इन प्रयत्नों का विचार आगे के विभागों में होगा।” ↩︎

  2. “जनाः+तं।” ↩︎

  3. “न+एव।” ↩︎

  4. “मूर्खः+भार्यो।” ↩︎

  5. “भार्याम्+अपि।” ↩︎

  6. “वसिष्ठः+रामं।” ↩︎

  7. “रामं + उपदिशति। " ↩︎

  8. “विप्राः+तत्वम्।” ↩︎

  9. “वृक्षाः+सन्ति।” ↩︎

  10. “अग्निः+गृहं। " ↩︎

  11. “आचार्यः + तं।” ↩︎

  12. “न + अपश्यत्।” ↩︎

  13. " मूल्य + अदत्वा।” ↩︎

  14. " प्रदत्त्वा + एव” ↩︎

  15. “धान्यं + आनीतं।” ↩︎

  16. “नमः + ते।” ↩︎

  17. “नमः + भगवते।” ↩︎

  18. “नमः + तुभ्यम्।” ↩︎

  19. “भारद्वाजेभ्यः + नमः।” ↩︎

  20. “साधुभिः + जनैः।” ↩︎

  21. “जनैः + तव।” ↩︎

  22. “मित्रत्वं + अस्ति।” ↩︎

  23. “चंद्रः + जयतु।” ↩︎

  24. “श्रीधरः +नद्यां। " ↩︎

  25. “त्वां + प्रभिवादये। " ↩︎

  26. " नृपतिः+भूमिं।” ↩︎

  27. “मृगाः+चरन्ति।” ↩︎

  28. “बालाः+चरन्ति। " ↩︎

  29. “रथाः+ चरन्ति।” ↩︎

  30. “नरपतिः+अति।” ↩︎

  31. “स्वरूपः+अर्चित०।” ↩︎

  32. “मया+अद्य।” ↩︎

  33. “अद्य+एषः।” ↩︎

  34. " लेखः + लेख०।” ↩︎

  35. “तथा+ अनुष्ठि०।” ↩︎

  36. " अनुष्ठिते + अश्व०।” ↩︎

  37. “पतिः+नलं।” ↩︎

  38. “नलं+उवाच।” ↩︎

  39. “रक्षकः+त्वया।” ↩︎

  40. " एतत्+त्वया।" ↩︎

  41. “न+ एवः।” ↩︎

  42. “पिपासा + आकुल।” ↩︎

  43. “प्रति + अहन्” ↩︎

  44. “सरः+ रक्षकाः।” ↩︎

  45. “वानराः + वृक्षे।” ↩︎

  46. “वनं+अगच्छत्। " ↩︎

  47. " करः+अस्ति।” ↩︎

  48. “अन्यः+न।” ↩︎

  49. “पंडिताः + वसन्ति।” ↩︎

  50. " बुद्धिः+बलं।" ↩︎

  51. “खगाः+वृक्षात्।” ↩︎

  52. “वृक्षात्+डयन्ते।” ↩︎

  53. " हस्तात्+माला।" ↩︎

  54. “यत्+वयं।” ↩︎

  55. “गृहीनः+च। " ↩︎

  56. “यावत्+जातं।” ↩︎

  57. “आत्मनः+ भर्म। " ↩︎

  58. “दन्ताः + ऊचतु।” ↩︎

  59. “चर्चामः+मंगः। " ↩︎

  60. “कृतः+तस्य।” ↩︎

  61. “उपद्रवः+अयं।” ↩︎

  62. “राजा + आत्मनः।” ↩︎

  63. “सः+अमात्यः।” ↩︎

  64. “प्रजाः+च।” ↩︎

  65. “तस्कराः+बद्धपरिकरः+दिवा+अपि।” ↩︎

  66. “एकः+अन्यं।” ↩︎

  67. “प्रमाथाः+च।” ↩︎

  68. “अहं + एकदा। " ↩︎

  69. “एकः + वृद्धः।” ↩︎

  70. “भाग्येन+एतत्।” ↩︎

  71. “प्रवृत्तिः+न।” ↩︎

  72. “यतः + जाते।” ↩︎

  73. “अनिष्टात्+ शुभा।” ↩︎

  74. “पान्थः + अवदत्।” ↩︎

  75. “वधात् + मृता।” ↩︎

  76. “हीनः + च।” ↩︎

  77. “धामिषेण + अहं।” ↩︎

  78. " देशात् + इदानीं।” ↩︎

  79. “विरहः + येन।” ↩︎

  80. “दुर्गतः + तेन।” ↩︎

  81. “सयत्न+ अहं।” ↩︎

  82. " तद + अत्र।” ↩︎

  83. “कस्मिन् + चित्।” ↩︎ ↩︎

  84. “चित् + अधि०।” ↩︎

  85. " एकः+तु। " ↩︎

  86. “कः + गुणाः + विद्या०।” ↩︎

  87. “तथा + अनुष्ठिते।” ↩︎

  88. " एकः+चतु०।" ↩︎

  89. “चतुर्थः+मूढः। " ↩︎

  90. “ततः+द्वितीय०।” ↩︎

  91. “महानुभावः+अस्मद्।” ↩︎

  92. " वसुधा + एव। " ↩︎

  93. “एषः+अपि।” ↩︎

  94. “तथा+अनु०।” ↩︎

  95. “तै+मार्गा०।” ↩︎

  96. “तैः +अटव्यां।” ↩︎

  97. “ततः+च।” ↩︎

  98. “तृतीयः+अपि।” ↩︎

  99. “धिक्+मूर्ख।” ↩︎

  100. “त्रयः+अपि।” ↩︎

  101. “सिंहेन + उत्थाय।” ↩︎

  102. " यः+असौ।” ↩︎

  103. “आर्यायाः +हस्ती।” ↩︎

  104. “भित्तीः+च।” ↩︎

  105. “विदारयन् + आस्ते।” ↩︎

  106. " कः+अपि।" ↩︎ ↩︎

  107. “चरणैः+ मर्दयितुं। " ↩︎

  108. “उद्युक्तः+बभूव।” ↩︎

  109. “सः+अति।” ↩︎

  110. “आहारं+अपि।” ↩︎

  111. “दुरात्+एव।” ↩︎

  112. “न+अन्विष्यसि।” ↩︎

  113. “भुजगः+अवदत्। " ↩︎

  114. " भुजगः+अपि।” ↩︎

  115. “बांधवाः+तत्र।” ↩︎

  116. “यः + तिष्ठति।” ↩︎

  117. “स्नातकः+अवदत्” ↩︎

  118. “कौंडिन्यः+उत्थाय।” ↩︎

  119. " ततः+असौ।” ↩︎ ↩︎

  120. “राजः+तस्य” ↩︎

  121. “पतिः +उवाच।” ↩︎

  122. “गृहीतः+अयम्।”

                         हितोपदेशः।
    
     ↩︎
  123. “भृत्याः+अपि। " ↩︎

  124. “ते + एव।” ↩︎

  125. “माणाः+न।” ↩︎

  126. “मानाः+न।” ↩︎

  127. “पृष्टाः + हित। " ↩︎

  128. “मानाः+अपि।” ↩︎

  129. “हवेषु + अग्र०।” ↩︎

  130. “भूताः+इव।” ↩︎

  131. “सुप्तयोः +उभ०।” ↩︎

  132. “शर्विलकः+इति।” ↩︎

  133. “पुस्तकान् +च।” ↩︎

  134. " परमार्थतः + दरिद्रः।” ↩︎

  135. “दरिद्रः+अयं।” ↩︎

  136. " भयात्+चौरः " ↩︎

  137. “मैत्रेयः +उदस्व०।” ↩︎

  138. “मनः+चकार।” ↩︎

  139. “ततः + मैत्रेयः।” ↩︎

  140. “मैत्रेयः + वारुदत्त०। " ↩︎

  141. “शापितः +असि।” ↩︎

  142. “ततः + निर्वा०।” ↩︎

  143. “शीतलः+ते।” ↩︎

  144. “उत्तिष्ठ + उत्तिष्ठ” ↩︎

  145. “सेवकाः+त्रय।” ↩︎

  146. “जंबूकः+च।” ↩︎

  147. “उष्ट्रः+दृष्टः।” ↩︎

  148. “पृष्टः+च। " ↩︎

  149. “कुतः +भवान्।” ↩︎

  150. " ततः+तैः+नीत्वा+असौ।” ↩︎

  151. “कणः+ इति।” ↩︎

  152. “मानाः+ते।” ↩︎

  153. “व्यग्राः+बभूवुः।” ↩︎

  154. “ततः+तैः।” ↩︎

  155. " तथा + अनु०” ↩︎

  156. " स्वामिना + अभय।” ↩︎

  157. " सिंहेन+उक्तं। " ↩︎

  158. “कः+अधुना। " ↩︎

  159. “धृतः+अयं।” ↩︎

  160. “न+असौ।” ↩︎

  161. “अस्माभिः+एव।” ↩︎

  162. " सर्वैः+भक्षितः।” ↩︎

  163. “अतः+अहं।” ↩︎

  164. “दोलायते + इति।” ↩︎

  165. " आसीत्+च। " ↩︎

  166. " नियोज्याः+ बहवः। " ↩︎

  167. " मतिः+असौ।" ↩︎

  168. “ब+एतान्।” ↩︎

  169. “यथा+एते।” ↩︎

  170. " सर्वे+अपि। " ↩︎

  171. “अन्यः+अन्यं।” ↩︎

  172. “च+अनुपयु०। " ↩︎

  173. " च+उपग०।” ↩︎

  174. “अथ+एतेषु।” ↩︎

  175. “प्रकाशानंदः + नाम।” ↩︎

  176. “वृत्तः +अयं।” ↩︎

  177. “भवन्तः+मयि।” ↩︎

  178. “वर्तेरन्+तथा।” ↩︎

  179. “मानः+एव।” ↩︎

  180. “ऊचतुः+च।” ↩︎

  181. “चेतना+इव।” ↩︎

  182. “पौराः+च।” ↩︎

  183. “जल+आनेतुं। " ↩︎

  184. “सुग्रीवः + वानर०।” ↩︎

  185. “ततः+ वसिष्ठ०” ↩︎

  186. “वसिष्ठः+मुनिः।” ↩︎

  187. “रामः + दीने०।” ↩︎

  188. “दीनेभ्यः+भूरि।” ↩︎

  189. “कुठारः+जलं। २ वरुणः+आवि०।” ↩︎

  190. “भूयः+अपि।” ↩︎

  191. “मम+इति।” ↩︎

  192. “गृहीत्वा+उदग०।” ↩︎

  193. “तत्+श्रुत्वा।” ↩︎ ↩︎

  194. “वरुणः+तं।” ↩︎

  195. “कस्मिन्+वित्।” ↩︎

  196. “भविष्यः+च।” ↩︎

  197. “त्रयः+मत्स्या।” ↩︎

  198. “मत्स्यः+अयं।” ↩︎

  199. “न+अस्माभिः।” ↩︎

  200. “अस्माभिः+अन्वेषितः” ↩︎

  201. “समयः+च।” ↩︎

  202. “प्रभाते+अत्र।” ↩︎

  203. “अतः+तेषां।” ↩︎

  204. " भवद्भिः+यत्।” ↩︎

  205. “अत्र+अवस्था०।” ↩︎

  206. “मम+अपि।” ↩︎ ↩︎

  207. “प्र+उच्चै+विहस्य।” ↩︎

  208. “क्षयः+अस्ति।” ↩︎

  209. “तैः+मत्स्यः।” ↩︎

  210. “जीविभिः+जालैः+तत्।” ↩︎

  211. “कर्तुं+उपदे०।” ↩︎

  212. “इति+आवयो।” ↩︎

  213. “यावत्+ताम्+एव।” ↩︎

  214. “कच्चिद्+अल्पं।” ↩︎

  215. “कर्तुं+उत्सहे।” ↩︎

  216. “अस्ति+एव।” ↩︎

  217. “मा+एवं।” ↩︎

  218. “एतावद्+एव।” ↩︎

  219. “तु+अद्वितीया।” ↩︎

  220. “न+अनु।” ↩︎

  221. “बलेन+एव।” ↩︎

  222. “कः+अपि।” ↩︎

  223. “स्वयं+एकः” ↩︎

  224. " विभागः+एव।" ↩︎

  225. “इयत्+दूरं।” ↩︎

  226. " श्रमः+अतीव।" ↩︎

  227. “यथा+एव” ↩︎

  228. “पाण्डुः+असं०।” ↩︎

  229. “गांधार्याः+च” ↩︎

  230. “पुत्राः+तथा।” ↩︎

  231. “त्वं+इदं।” ↩︎

  232. “पैतृकं +इति+एवं।” ↩︎

  233. “तव+अपि+इदम्।” ↩︎

  234. " ते+अपि।" ↩︎

  235. “पूर्वं+एव+इति।” ↩︎

  236. “मधुरेण+एव।” ↩︎

  237. “तव+अपि+अकीर्तिः।” ↩︎

  238. “कीर्तेः+मनुष्य०।” ↩︎

  239. " हि+अफलं।" ↩︎

  240. “पार्थाः+हि।” ↩︎

  241. “सकामः+प्रत्ययं।” ↩︎

  242. “दोषेण+अत्र।” ↩︎

  243. “कुलीरकः+तत्+श्रुत्वा।” ↩︎

  244. “एतत्+श्रुतं।” ↩︎

  245. “मनसः+तं।” ↩︎

  246. “मापन्नाः+तात।” ↩︎

  247. “ब्रुवाणाः+अहं।” ↩︎

  248. “वृत्ति+अकरोत्।” ↩︎

  249. “दुष्टः+चिंतितवान्।” ↩︎

  250. “निर्विष्णाः+अहं।” ↩︎

  251. " पृष्टं+आरोप्य।" ↩︎

  252. “कुलीरकः+अपि।” ↩︎

  253. “दूरात्+एव।” ↩︎

  254. “चरः +अयं।” ↩︎

  255. “कुतः+अन्यः।” ↩︎

  256. “शनैः+तत्+जला०।” ↩︎

  257. “चराः+तेन।” ↩︎

  258. “समुद्ग + एक०।” ↩︎

  259. “ततः + गच्छ०।” ↩︎

  260. “तत् + विचि०।” ↩︎

  261. “गज+इन्द्रान्+अपि।” ↩︎

  262. “तत्+दूरं।” ↩︎

  263. “युक्तं+उक्तं।” ↩︎

  264. “तत्+विश्रब्धा।” ↩︎

  265. “तत्+मया।” ↩︎

  266. “कुतूहलात्+अपि।” ↩︎

  267. “समुद्रः+अण्डा०।” ↩︎

  268. “भविष्यति+इति।” ↩︎

  269. “तत्+द्रुत०।” ↩︎

  270. “न+अकरोः।” ↩︎

  271. “कः+ते।” ↩︎

  272. " विदित्वा + आत्म०।"

     ↩︎
  273. “व्रजन् +अपि०।” ↩︎

  274. “शक्तिः + भव०।” ↩︎

  275. “तत्+अनया।” ↩︎

  276. “सिंध‍+न।” ↩︎

  277. “साराणं+अपि।” ↩︎

  278. “इति+उक्त्वा।” ↩︎

  279. “शोषण+उपाय।” ↩︎

  280. “तत्+अस्माकं।” ↩︎

  281. “वैनतेयः+अस्ति।” ↩︎

  282. “मदीयः+नमः।” ↩︎

  283. “चित्+अपि।” ↩︎

  284. “भगवत्+आश्रय।” ↩︎

  285. “अस्मत्+टिट्टिभ।” ↩︎

  286. “निश्वयः+त्वया।” ↩︎

  287. “त्रपा+अधः+मुखः।” ↩︎

  288. “त्वत्+आश्रय+ उन्मते०।” ↩︎

  289. “युष्मत्+लज्ज०।” ↩︎

  290. “(१ ↩︎

  291. “वटीं+अनु।”

     ↩︎
  292. “गम्यतां+अने०।” ↩︎

  293. “शेषां+अपि।”

     ↩︎
  294. “दृश्यां + इव।” ↩︎

  295. “केवलं+अत्याहितं।” ↩︎

  296. “वादं+अपि।” ↩︎

  297. “दारुणः+दैव०।” ↩︎

  298. “ईदृशः+ते।” ↩︎

  299. “काचित् +अस्ति।” ↩︎

  300. “विसर्जिताः + गुरवः।”

     ↩︎
  301. “तत्+एव।” ↩︎

  302. “परिणीतं +अपि।” ↩︎

  303. “विसृष्टः+च।”

     ↩︎
  304. “मेध्य+अश्वः।” ↩︎

  305. “साधन+अन्वितः+अनु।”

     ↩︎
  306. “इति + उपश्रुत्य।”

     ↩︎
  307. “दिशः + विदिशः।” ↩︎

  308. “विदिशः+च।” ↩︎

  309. “पुनः+अपि+इदं।” ↩︎

  310. “कुंभीरक यह धीवर का नाम है। सूचक, जानक ये दो पोलिसों के नाम है। नागरिक यह थानेदार के समान पोलिस अफसर का ओहदा है जो एक शहर के ऊपर हुकुमत करता है।” ↩︎

  311. “खण्डशः + रोहित०।” ↩︎

  312. “भर्तुः + निवेद्य।” ↩︎

  313. “प्रस्फुरतः+मम।” ↩︎

  314. “भावः + अकारण।” ↩︎

  315. “पत्रहस्रः+राज०।”

     ↩︎
  316. “प्रसादः+अपि” ↩︎

  317. “भर्तुः+बहु।” ↩︎

  318. “भर्तुः+अभि०।” ↩︎

  319. “गंभीरः+अपि॥” ↩︎

  320. “दुर्योधनं+अभयं।” ↩︎

  321. “पुत्रैः +न।” ↩︎

  322. “यत्+महा०।” ↩︎

  323. “कथं+इव।” ↩︎

  324. “वध+अमर्षित+उद्दीपितेन।” ↩︎

  325. “यतः+बंधु।” ↩︎

  326. “स्थाने+अपि” ↩︎

  327. “स अनुजः + युधि०।” ↩︎

  328. “शक्तिः+अस्ति।” ↩︎

  329. " वा+अन्य०” ↩︎

  330. “महिम्नः+महा०।” ↩︎

  331. “यदि+अपि+एवं।” ↩︎

  332. “भरः+धनंजयः+ निदानं।” ↩︎

  333. “कानन+अवनौ।”

     ↩︎
  334. “मानितः+अभूत।” ↩︎

  335. “मालिका+अभिहतः।” ↩︎

  336. “समुद्र+अंभसि।” ↩︎

  337. “भरा+अलसा।” ↩︎

  338. “कलिता+अहं।” ↩︎

  339. “उद्भवः+तत्र।” ↩︎

  340. “वीरं+अगमद्।” ↩︎

  341. “वन्यः+वारणः।” ↩︎

  342. " वा+इति" ↩︎

  343. “मित्राः + त्रयः” ↩︎

  344. “यादवाः+तान्” ↩︎

  345. “भ्रमतः +दृष्ट्वा” ↩︎

  346. “धर्षिताः+ते” ↩︎

  347. “यूनः + जायेत” ↩︎

  348. “यादवाः+तीर्थ०” ↩︎

  349. “ग्रहीषुः+तान्” ↩︎

  350. " किं + इदं + आपतितम्।" ↩︎

  351. “पूर्णाः+ते।” ↩︎

  352. “अनाथं+असि।” ↩︎

  353. “अपरिचितः + इव” ↩︎

  354. “अदृष्टपूर्वः +इव” ↩︎

  355. “कुतः+तव+इयं” ↩︎

  356. “त्वत् + ऋते” ↩︎

  357. “सुखाः+व” ↩︎

  358. “तत् + मम+उपरि” ↩︎

  359. “या + अनुभूता + अवस्था” ↩︎

  360. “न+अनुष्ठितं " ↩︎

  361. “न+आज्ञायां” ↩︎

  362. “त्वत्+अनुकूले+न अभिरतं” ↩︎

  363. “धिक् + मां” ↩︎

  364. " भर्तुः+चरणौ” ↩︎

  365. “पुत्रकः+अश्रुत” ↩︎

  366. “बालः + अनुग्रहीतव्यः” ↩︎

  367. “पादयोः + निपत्य” ↩︎

  368. “प्रथमः + चांडालः” ↩︎