[[संस्कृत सोपानम् Source: EB]]
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संस्कृत सोपानम्
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प्रथमः पाठः।
कर्तृकारकं प्रथमा विभक्ति
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| ( सः ) | ( त्वम् ) | ( अहम् ) |
| क्रुध्यति | क्रुध्यसि | क्रुध्यामि |
इसी प्रकारज्वलति, हृष्यति इत्यादि
भाषा में अनुवाद करो।
अस्ति परमात्मा। यः धावति सः श्राम्यति। अयं खेलति। कः हसति? वृक्षः फलति। सिंहः गर्जति। पापी बिभेति। कुक्कुरः भषति। रामः क्रुध्यति। प्रहरी जागर्त्ति। मयूरः नृत्यति। अलसः निद्राति। प्रणाली वहति। उद्यमी तिष्ठति॥
संस्कृत में अनुवाद करो
।
वह डरता है। यह जागता है। कृष्ण खेलता है। पहरेदार दौड़ता है। कौन नाचता है? कुत्ता उठता है। शेर ऊंघता है॥
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द्वितीयः पाठः।
द्वितीया विभक्तिः ( कर्म कारक )
अलसं, एकाकिनं, कर्त्तारं, स्वसारं, पितरं, आत्मानं, राजानं, भवन्तं, कर्म्म, यं, तं, इमं, कं, त्वां, मां सर्व्वंइत्यादि॥
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स्मरति। विस्मरति। कर्षति। वर्षति। वपति। नमति। तरति। प्रविश्ति। चोरयति। चिन्तयति।
निषेधति। चलति। क्षिपति। मानयति। याति। पाति। आयाति। शिक्षयति। आह्वयति। रञ्जयति इत्यादि॥
भाषा में अनुवाद करो।
छात्रः पुस्तकं पश्यति। अन्नं पचति सूपकारः॥ घटं निर्म्माति कुम्भकारः। ज्ञानी पापं त्यजति। मुखं धावति ब्राह्मणः। राजा लोकं पालयति। शत्रुं मारयति वीरः। सर्पं मारयति नकुलः। ईश्वरं भजति साधुः। भक्तः परमात्मानं स्तौति। परं जयति चतुरः। उद्यमी कार्यं पूरयति। द्रव्यं जिघ्रति पशुः। मत्स्यं गृह्णाति धीवरः। गुरुः शिष्यं पृच्छति। पथिकः पारं गच्छति। गीतं शृणोति हरिणः। अक्षरं लिखति बालकः। अजं क्षेत्रं नयति छागपालः। उत्थापयति भारं वाहिकः। दुर्जनः परं निन्दति। सः त्वां कथयति। अयं मां ताडयति। अहं तं पृच्छामि। त्वं कं आह्वयसि? इमं परिचिनोति सः। अयं त्वां मृगयति। अहं तं पश्यामि। आरोहति तरुं कपिः। अग्निःकाष्ठ
दहति। शिशुःस्तनं चूषति। अयं चणकं चर्बयति। मुद्गरं घूर्णयति मल्लः। य पाठशालां याति, अहं तं पश्यामि। गुणं शंसति सुजनः। आदिशति भृत्यं स्वामी। शृगालः प्रणालीं लंघयति। अहं राजानं परिचिनोमि॥
संस्कृत में अनुवाद करो।
बिल्ली सांप को मार डालती है। आग जलती है। साधु ईश्वर की स्तुति करता है। वह मेरी निन्दा करता है। मैं तुझ को देखता हूं। वह भार उठाता है। छात्र मुझे पाठशाला को ले जाता है। मैं तुझ को पहेचानता हूं। वह फूलसूंघता है। वह मुझे आज्ञा देता है। ज्ञानी शास्त्र पढ़ता है॥
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तृतीयः पाठः।
तृतीया विभक्तिः, करण
कारक
।
दात्रेण। अग्निना। बन्धुना। विद्यया। लेखन्या ।बुद्ध्या। ज्ञानिना। भ्रात्रा। भवता। वर्म्मणा।
प्रेम्णा। येन। तेन। केन। अनेन। सर्वेण। त्वया। मया॥
भाषा में अनुवाद करो।
दात्रेण घासं कर्त्तयति कृषिकः। अग्निना दीपं ज्वालयति स्त्री। अहं बन्धुना सह संलपामि। विद्यया सर्व्वं जानाति पण्डितः। अक्षरं लेखन्या लिखति बालकः। बुद्ध्या विचारयति धीमान्। ज्ञानिना सह मिलति साधुः। अयं भ्रात्रा सह संलपति। वर्म्मणा गात्रं आवृणोति सैनिकः। छात्रः प्रेम्णा पाठं अभ्यस्यति। त्वं येन सह संलपसि, अहं तेन सह पठामि। त्वं केन सह पठसि? अनेन सह पाठशालां याति माधवः। अहं त्वया सह विचारयामि। अयं मया सह न वदति। नेत्रेण शब्दं शृणोति सर्पः। अन्येन कर्णेन शृणोति। मुखेन कथयति सर्व्वः। घ्राणेन जिघ्रति तन्तुवायः। सूत्रेण पटं वयति। धनी सुखेन वसति। दरिद्रः क्लेशेन जीवति। दुर्जनः परेण सह कलहं करोति। दुर्जनेन सह न मिलति
सुशीलः। अयं हस्तेन मुद्गरं उत्तोलयति। शकटेन विदेशं गच्छति सः॥
संस्कृत में अनुवाद करो।
वह दूसरे के साथ झगड़ा करता है। यह मेरे साथ जाता है। मैं उस से बात चीत करता हूं। मैं उस को हाथसेपकड़ता हूं। वह सुख से रहता है। वह विद्या से दूसरे को जीत लेता है। मैं इस के साथ नहीं पढ़ता। विद्या से धन प्राप्त करता है। राम मेरे साथ जाता है। इन्द्र तेरे साथ पढ़ता है। अग्नि से काठजलाता है॥
______________
चतुर्थः पाठः
चतुर्थी विभक्तिः, सम्प्रदान कारक।
दरिद्राय। ऋषये। गुरवे। कन्यायै। जनन्यै। शान्त्यै। संन्यासिने। मात्रे। यस्मै। तस्मै। कस्मै। अस्मै। सर्व्वस्मै। अन्यस्मै। तुभ्यं। मह्यं॥
भाषा में अनुवाद करो।
दरिद्राय धनं ददाति दयालुः। लड्डुकाय स्पृहयति बालकः। पाचकः पाकाय गच्छति। छात्रः खेलनाय धावति। भोजनाय मूषिकं गृह्णाति बिडालः। विक्रयाय द्रव्यं रक्षति वणिक्।वंगवासी स्नानाय तैलं मर्दयति। युद्धाय प्रस्तौति वीरः। गुरवे नमः। त्वं विश्रमाय तिष्ठसि।
संस्कृत में अनुवाद करो।
मैं खाने को जाता हूं। वह न्हाने के लिये तेल मलता है। वह संन्यासी को अन्न देता है। मैं माता को नमस्कार करता हूं। तू पढ़ने के लिये बैठता है। छात्र लड़ाई के लिए दौड़ते हैं।
——ः०ः——
पञ्चमः पाठः।
——:०ः——
पञ्चमी विभक्तिः, अपादान कारक
युद्धात्। अग्नेः। शत्रोः। प्रपायाः। नगर्य्याः। भूमेः। संन्यासिनः। मातुः। आत्मनः। राज्ञः।
भवतः। कर्म्मणः। तस्मात्। यस्मात्। कस्मात्। अस्मात्। सर्व्वस्मात्। अन्यस्मात्। त्वत्। मत्॥
भाषा में अनुवाद करो।
बिभेति युद्धात् कापुरुषः। वृक्षात् पत्रं पतति। पापात् आत्मनं रक्षति साधुः। बिलात् निर्गच्छति शृगालः। प्रासादात् पश्यति राजा। पल्वलात् उत्तिष्ठति शूकरः। पथिकः शकटात् अवतरति। अग्नेः स्फुलिंगः उत्पतति। अहं शत्रोः न बिभेमि। प्रपाया जलं पिबति पिपासुः। नगर्य्याःअहं आयामि॥
संस्कृत में अनुवाद करो
वह पाप से डरता है। यह महल से निकलता है। वह वृक्ष से गिरता है। वह शत्रु से नहीं डरता है। तूरथ से उतरता है। राजा महल से गिरता है। शत्रु युद्ध से भागता है॥
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षष्ठः पाठः।
——:०ः——
षष्ठी विभक्तिः, सम्बन्ध।
पुष्पस्य। कवेः। गुरोः। विद्यायाः। नद्याः।
श्रुतेः। स्वामिनः। पितुः। आत्मनः। राज्ञः। भवतः कर्म्मणः। यस्य। तस्य। कस्य। अस्य। सर्व्वस्य। अन्यस्य। तव। मम॥
भाषा में अनुवाद करो।
भ्रमरः पुष्पस्य रसं पिबति। पिशुनः परस्य हानिं वाञ्छति। यः विद्यायाः गुणं जानाति, सः गुरोः आदेशं पालयति। अहं कवेः श्लोकं पश्यामि। अहं नद्याःतीरं यामि। आर्यः श्रुतेः शासनं मानयति। स्त्री स्वामिनः सेवां करोति। अयं पितुः वाक्यं श्रुणोति। मूर्खः आत्मनः कर्म न विचारयति। सुजनः तस्य गुणं वर्णयति। मूर्खाःतस्य हानिं वाञ्छति। त्वं कस्य वार्तां पृच्छसि? अस्य पिता धनं अर्जयति। मम भ्राता राजभाषां पठति। सः तव गृहं आगच्छति। पण्डितः शास्त्रस्य अर्थं बोधति। अस्य भगिनी चित्रं लिखति॥
संस्कृत में अनुवाद करो।
वह गुरु का गुण जानता है। वह पिता का वाक्य सुनता है।
मूर्ख शास्त्र का अर्थ नहीं समझता। इस का भाई धन कमाता है। वह मेरे घर से आता है। तू नदी के किनारे को जाता है। वह अंग्रेजी पढ़ता है॥
सप्तमः पाठः।
सप्तमी विभक्तिः, अधिकरण कारक।
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नगरे। रात्रौ। शाखायां। संन्यासिनि। पितरि । आत्मनि। भवति। कर्म्मणि। यस्मिन्। तस्मिन्। कस्मिन्। अस्मिन्। अन्यस्मिन्। सर्वस्मिन्। त्वयि। मयि॥
यत्र। तत्र। कुत्र। अत्र। सर्व्वत्र। अन्यत्र। यदा। तदा। कदा। इदानीं। अन्यदा। सर्वदा। एकदा। अद्य। श्वः। परश्वः। ह्यः॥
भाषा में अनुवाद करो।
क्षेत्रे अग्निः ज्वलति। नगरे राजा वसति। ग्रामे वसति ग्रामीणः। आरम्भे विचारयति पण्डितः।
निदाघे जलं शुष्यति। रात्रौ उलूकाः विचरंति। गुरौ भक्तिं करोति शिष्यः। वृक्षस्य शाखायां कूजति कोकिला। नद्यां तिष्ठति कुम्भीरः। उत्साही कर्म्मणि लगति। यस्मिन् पुरुषे धर्मः न अस्ति, तस्मिन्विश्वासः न भवति। कस्मिन् शास्त्रे त्वं विश्वसिषि? अस्मिन् वेदशास्त्रे अहं विश्वसिमि। सर्वस्मिन्स्थाने परमात्मा अस्ति। त्वयि कः दयां करोति? ईश्वरः मयि दयां करोति। त्वं यत्र गच्छसि, तत्र किं पश्यसि? अहं सर्वत्र ईश्वरस्य सृष्टिं पश्यामि। त्वं कुत्र पठसि? अहं अत्र विद्यालये पठामि। इदानीं अहं श्रांतःअस्मि। अत्र वटच्छाया अस्ति। अत्र वसामि। त्वं कदा खेलसि? यदा अहं पाठं पूरयामि, तदा खेलामि। सर्वदा खेलनं शोभनं न भवति॥
संस्कृत में अनुवाद करो।
मैं शहर में हूं। दिन में उल्लू को दिखाई नहीं देता। यह कहाँ पढ़ता है ? अब मैं जाता हूं। यह आपकी स्तुति करता है। दुर्बुद्धिघर में पाठ नहीं याद करता। वृक्ष की टहनी पर पक्षी
बोलता है। मैं नदी में न्हाता हूं। संसार सब को खाता है। बालक यहां बैठा है। इस कर्म में हानि नहीं है। इस नगर में पाठशाला है। मेरा भाई तुम्हारे विद्यालय में पढ़ता है॥
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अष्टमः पाठः।
आत्मनेपदम्।
भाषा में अनुवाद करो।
शिशुः शेते। उद्यमी वर्धते। विद्वान् शोभते। परिश्रमी विद्यां लभते। सुशीलः सर्वेण सह प्रणयेन वर्त्तते। अयं ज्ञानाय शास्त्रं शिक्षते। अध्ययनात् । पलायते कुबुद्धिः। कुटीरवासी वर्षणात् उद्विजते। भारतस्यकल्याणाय यतते आर्य्यसमाजः। अज्ञानी खेलने रमते। साहसी युद्धे जयं लभते। उड्डयते पक्षी। भद्रजनः सर्वंआद्रियते। केदारः स्मयते। अयं विस्मयते। दयालुः दीनं दयते।वृक्षः कम्पते। माता पुत्रं क्षमते। अधीनः सर्वं सहते। भिक्षां याचते भिक्षुकः। सबलःशत्रुंआक्रमते। त्वं शेषे। त्वं वर्धसे। अहं शये। अहं वर्धे। अयं डयते॥
संस्कृत में अनुवाद करो।
वह सोता है। जो पढ़ने से भाग जाता है, उस का मैं आदर नहीं करता। सारस उड़ता है। जो मुसकराता हैं, उस को मैं देखता हूँ। लता कांपती है। गुरू शिष्य पर क्षमा करता है। केदार दुःख सहता है। राम परीक्षा के लिये यत्न करता है। राम भरत को शिक्षा देता है। कृष्ण यत्न के बिना धन लाभ करता है।
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नवमः पाठः।
अनुज्ञा।
हिन्दी में अनुवाद करो॥
त्वं उद्यमी भव। विद्यां अर्जय। दुर्जनेन सह न मिल। दरिद्राय धनं देहि। अध्ययनात् न बिभीहि। धर्म्मात्न पत। परस्य धनं मा गृहाण। प्रभाते उत्तिष्ठ। शौचं कुरु। मुखं धाव। पाठाय निजस्थाने उपविश। पाठकाले अन्येन सह न संलप। पाठे चित्तं योजय। सत्यं वद। गुरोः उपदेशं शृणु। अधार्म्मिकः नश्यतु। स गच्छतु। भवान् करोतु। अयं ददातु। तवकल्याणं भवतु। विद्यालाभाय यतस्व।
संस्कृतमें अनुवाद करो॥
दूसरे के साथ झगड़ा मत करो। मेरा पुस्तक दो। अपनी पुस्तक ले लो। सवेरे पढ़ो। इस स्थान में बैठो। यहां आजाओ। पापी मरे। तू कोशिश कर॥
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दशमः पाठः॥
सम्बोधनम्।
राम ! याहि, तव माता त्वां आह्वयति ! सीते ! इह आगच्छ ! हरे ! क्व ! गच्छसि ! गुरो ! अहं ! किं करवाणि ! भवति ! मनसा पठ ! बुध ! गात्रं परिष्कुरु ! प्रिय ! पाठंशिक्षस्व ! राजन् ! प्रजां रञ्जय॥
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संस्कृत सोपान
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स्वर और उनके भेद।
** १—**यह १३ अक्षर स्वर हैं—अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ
, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ।
** २—**इनमें से पहले नौ अर्थात् अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, ऌ यह सजातीय स्वर हैं।
** ३—**सजातीयों में छोटा अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ह्रस्व स्वर हैं। और बड़ा आ, ई, ऊ, ॠ, दीर्घ स्वर हैं। और ए, ऐ, ओ, औ भी दीर्घ स्वर हैं।
स्वर सन्धि।
** १—**सजातीय दो स्वर मिलकर एक दीर्घ होजाता है अर्थात् अ+अ=आ; अ+आ=आ; आ+अ=आ; आ+आ=आ इसी तरह इ आदि को जानो1।
उदाहरण
मुर+अरिः=मुरारिः,
परम+आत्मा = परमात्मा
दया+अर्णवः=दयार्णवः
दया+आनन्दः=दयानन्दः
कवि+ईश्वरः=कवीश्वरः
रघु+उत्तमः=रघूत्तमः
पितृ+ऋणम्=पितॄणम्
**२—**अ, आ से परे इ, ई हो तो दोनों मिलकर ए होजाता है।
** उदाहरण—**देव + इन्द्रः=देवेन्द्रः
गण+ईशः=गणेशः
**३—**अ, आ से परे उ, ऊ हो, तो दोनों मिलकर ओ हो जाता है ।
नील+उत्पलम्=नीलोत्पलम्
गङ्गा+ऊर्मि=गङ्गोर्मि
**४—**अ, आ से परे ऋ हो तो दोनों मिलकर अर् होजाता है।
परम+ऋषिः=परमर्षि
महा+ऋषिः=महर्षिः
**५—**अ, आ से परे ए, ऐ हो तो दोनों मिलकर ऐ होजाता है।
तब+एव=तवैव
महा+ऐश्वर्यम्=महैश्वर्यम्
**६—**अ, आ से परे ओ, औ हो, तो दोनों मिलकर औ हो जाता है ।
**७—**इ, ई से परे कोई स्वर हो, तो इ, ई को य होजाता है।
यदि+अपि=यद्यपि
नदी+ओघः=नद्योघः
**८—**उ, ऊ से परे कोई स्वर हो, तो उ, ऊ को व होजाता है।
मधु+अस्ति=मध्वस्ति
**९—**ऋ से परे कोई स्वर हो, तो ऋ को र् होजाता है।
पितृ+ईशः=पितृशः
**१०—**ए, ओ जब पद के अन्त में हो, और परे ह्रस्व अ हों, तो वह लुप्त होजाता है लुप्त अ इस तरह लिखा जाता है ऽ
ते+अत्र=तेऽत्र
प्रभो+अत्र=प्रभोऽत्र
**११—**अ भिन्न कोई स्वर परे हो, तो ए को अय् और ओ को अव् हो जाता है। और य्, व् उड जाते हैं।
ते+इह=तय्+इह=त इह
प्रभो+एहि=प्रभव्+एहि = प्रभ एहि
**१२—**ए, ओ जब पद के अन्त में न हो, तो ए ओ को अय्, अव् होता है, और य्, व् बने रहते हैं, उड़ नहीं जाते।
ने+अति=नयति
भो+अति=भवति
**१३—**ऐ, औ, जब पद के अन्त में हो, और परे कोई स्वर हो, तो ऐको आय्, और औ को आव् हो जाता है। आय्का य् उड़ जाता है, आव् का व् बना रहता है।
श्रियैxउद्यतः=श्रियायxउद्यतः=श्रिया उद्यतः
तौxअत्र=तावxअत्र=तावत्र
**१४—**अपदान्त हों, तो भी आय्, आव् होता है। और य्भी बना रहता है।
नैxअकः=नायxअक=नायकः
पौxअकः=पाव्xअकः=पावकः
नित्यक्रिया प्रकरणम्।
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पाठ ( १ )
आज्ञा—भो शिष्य ! उत्तिष्ठ प्रातःकालःजातः॥
उत्तरं—उत्तिष्ठामि॥
प्रश्न —अन्ये सर्वे विद्यार्थिनः उत्थिताः न वा ?
उ०—अधुना तु नोत्थिताः खलु॥
आ०—तान् अपि सर्वान् उत्थापय॥
उ०—सर्वे उत्थापिताः॥
प्र०—सम्प्रत्यस्माभिः किं कर्त्तव्यम् ?
उ०—आवश्यकम् शौचादिकम् कृत्वा सन्ध्या-वन्दनम्॥
प्र०—आवश्यकम् कृत्वा सन्ध्योपासिता, अतः परं अस्माभिः किं करणीयम् ?
उ०—अग्निहोत्रं विधाय पठत॥
प्र०—पूर्वं किं पठनीयम्॥
उ०—वर्णोच्चारणशिक्षाम् अधीध्वम्॥
प्र०—पश्चात्किम् अध्येतव्यम्॥
उ०—किंचित् संस्कृतोक्ति बोधः क्रियताम्॥
प्र०—पुनः किं अभ्यसनीयम् ?
उ०—यथा योग्यव्यवहारानुष्ठानाय प्रयतध्वम्।
कुतःऽनुचित व्यवहार कर्तुः विद्यैव न जायते॥
प्र०—कः विद्वान् भवितुम् अर्हति?
उ०—यः सदाचारी प्राज्ञः पुरुषार्थी भवेत्॥
प्र०—कीदृशात् आचार्यात् अधीत्य पण्डितः भवितुं शक्नोति।
उ०—अनूचानतः।
प्र०—अथ किम् अध्यापयिष्यते भवताऽहम् ?
उ०—अष्टाध्यायी महाभाष्यम्॥
प्र०—किं अनेन पठितेनभविष्यति ?
उ०—शब्दार्थ सम्बन्ध विज्ञानम्॥
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( १ ) इन में सन्धियें बतलाओ—सम्प्रत्यस्माभिः। शौचादिकांसन्ध्योपासिता। वर्णोच्चारण। संस्कृतोक्ति-।व्यवहारानुष्ठानाय विधैव। भवताहम्।
( २ ) क्या सवेरा हो गया; हां, अब सब को उठा दो। हरिदेव ! अब क्या करना है? आवश्यक शौचादिक करके और सन्ध्यावन्दन करके पढ़ो ! कैसे गुरु से पढ़ना चाहिये; पूरे विद्वान से !.
संस्कृत-गुरो ! उत्थापिताः सर्वे विद्यार्थिनः। अधुनाऽस्माभिः किं करणीयम्? पठनीयम्। किं पठनीयम् ? अष्टाध्यायी महाभाष्यम्। कीदृशात् आचार्यात् पठनीयम् ? अनूचानतः।
पढ़ो ! प्रयत्न करो। क्या होगा? किस का अभ्यास करना चाहिये?
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भोजन प्रकरणम्।
—:–०–:—
पाठ ( २ )
नित्यः स्वाध्यायः जातः भोजन समयः आगतः गन्तव्यम्॥
प्र०—तबपाकशालायाम् प्रत्यहं भोजनाय किं किं पच्यते?
उ०—शाकसूपौदश्वित्कौदनापूपादयः॥
प्र०—किं वः पायसादिमधुरेषु रुचिः नास्ति ?
उ०—अस्ति खलु परन्त्वेतानि कदाचित् कदाचित् भवन्ति॥
प्र०—कदाचित् शष्कुली श्रीखण्डादयः अपि भवन्ति न वा॥
उ०—भवन्ति परन्तु यथर्त्तुयोगम्॥
सत्यम् अस्माकम् अपि भोजनादिकम् एवम् एव निष्पद्यते॥
प्र०—त्वं भोजनं करिष्यसि न वा?
उ०—अद्य न करोम्य जीर्णताऽस्ति॥
अधिक भोजनस्येदम् एव फलम्॥
बुद्धिमता तु यावत् जीर्यते तावत् एव भुज्यते॥
अतिस्वल्पे भुक्तं शरीरबलं ह्रसत्यधिके चातः सर्वदा मिताहारी भवेद्॥
यः अन्यथाऽऽहारव्यवहारौ करोति सः कथं न दुःखी जायेत॥
येन शरीरात् श्रमो न क्रियते सः नैव शरीर सुखम् आप्नोतीति॥
( १ ) सन्धियें बतलाओ। प्रत्यहं। शाकसूपौदश्विक्तौदना पूपादयः। पायसादि। नास्ति। परन्त्वेतानि। यथर्तुयोगम्। भोजनादिकम्। करोम्यजीर्णतास्ति। भोजनस्येदम्। हसत्यधिके। चातः। मिताहारी। अन्यथाऽऽहारेनैव। आप्नोतीति। येनात्मना।
२—पठनसमयआगतः, पठनीयम्। त्वं किं करिष्यसि? भोजनं करिष्यामि। अधिकं भोजनं न करणीयम्। अजीर्णता भवति। कदागच्छेयम्। श्वः। यः शुभं न करोति, सःसुखं नाप्नोति।
३—भोजन के लिये क्या २ पकता है; आप को भोजन करना चाहिये। अभी नहीं करूंगा। दूसरे पहर करूंगा। आसन पर बैठ। जो उलटा काम करता है, वह दुःखी होता है। शरीर
का बल कैसे घटता है, आपने बड़ी कृपा की। कभी २ अवश्य आया करो॥
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सभा प्रकरणम्।
—:-०-:—
पाठ ( ३ )
इदानीं सभायां काचित् चर्चा विधेया॥
प्र०—धर्मः कि लक्षणः अस्तीति पृच्छामि?
उ०—वेदप्रतिपाद्धः न्याय्यः पक्षपात रहितः यः च परोपकारसत्याऽचरणलक्षणः।
प्र०—ईश्वरः कः अस्तीति ब्रूहि?
उ०—यः सच्चिदानन्दस्वरूपः सत्यगुणकर्मस्वभावः।
प्र०—मनुष्यैः परस्परं कथं वर्तितव्यम् ?
उ०—धर्मसुशीलता परोपकारैः सह यथायोग्यम्।
( १ ) अस्तीति। सत्याचरण। परोपकारैः।
( २ ) श्वः सभायां धर्मचर्चा विधेया। भवता सभायां आगन्तव्यम्। कदाऽऽगच्छेयम्। अद्य द्वितीयप्रहरमध्ये। अहंत्वां पृच्छामि. ब्रूहि, ईश्वरः किं लक्षणः। मया कथं वर्तितव्यम्।
( ३ ) आज सभा में क्या चर्चा है।
धर्मचर्चा है।
धर्म का क्या लक्षण है?
ईश्वर का स्वरूप क्या है, और उस के गुणकर्म स्वभाव कैसे हैं?
_______________
पाठ ( ४ )
सायंकाल कृत्य प्रकरणम्।
—:-०-:—
इदानीं तु सन्ध्यासमयः आगतः सायं सन्ध्याम्उपास्य भोजनं कृत्वा भ्रमणं कुरुत।
प्र०—अद्य त्वया कियत् कार्यं कृतम्?
उ०—एतावत् कृतं एतावत् अवशिष्टम् अस्ति।
आ०—इदानीं सामगानं क्रियताम्।
आ०—वीणादीनि आनीयन्ताम्।
उ०—आनीतानि।
आ०—वाद्यताम्। गीयताम्।
प्र०—कस्य रागस्य समयः वर्तते।
उ०—षड्जस्य।
आ०—इदानीं तु दश घटिका प्रमिता रात्रिः आगता शयीध्वम्
आ०—गम्यताम् स्वस्व स्थानम्।
आ०—स्व स्व शय्यायां शयनं कर्तव्यम्।
सत्यम् एवम् एव ईश्वर कृपया सुखेन रात्रिः गच्छेत् प्रभातं भवेत्।
( १ ) वादित्राणि आनीयन्ताम्।
( २ ) त्वया सन्ध्यामुपास्य किं करणीयम्। भोजनं। पुनः किं करणीयम्। भ्रमणम्। कियत्कार्यं अवशिष्टं अस्ति। एतावत्। मया सर्वमेव कार्यं कृतम्, न किमप्यवशिष्टम्। वादित्राणि त्वयाऽऽनीतानि।
( ३ ) मुझे सैर करके भोजन करना चाहिये। तुझे कल दूसरे पहर आना चाहिये। अब किस काम का समय है। कब सोना चाहिये। रात आगई। अब भोजन करो, फिर भ्रमण करो, फिर भजन गाओ, फिर सो जाओ
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देश देशान्तर प्रकरणम्।
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पाठ ( ५ )
प्र०—भवान् एतान् जानाती मे महाविद्वांसः सन्ति।
प्र०—किं नामानः एते कुत्रत्याः खलु?
उ०—विष्णुमित्रः अयं कुरुक्षेत्रवास्तव्यः॥
सोमदत्तः अयं माथुरः॥
अयं सुशर्मा पर्वतीयः॥
अयम् आश्वलायनः दक्षिणात्यः अस्ति॥
अयं जयदेवः पाश्चात्यः वर्त्तते॥
अयं कुमारभट्टः वाङ्गः विद्यते॥
अयं कापिलेयः पाताले निवसति॥
अयं चित्रभानुः हरिवर्षस्थः॥
इमौ सुकामसुभद्रौ चीननिकायौ॥
अयं सुमित्रः गंधारस्थायी॥
अयं सुभटः लंकाजः॥
इमे पञ्च सुवीर—अतिबल—सुकर्म—सुधर्म—शतधन्वानाः—मारवाः॥
एते मया आमन्त्रिताः स्व स्वस्थानात् आगताः॥
इमे शिव—कृष्ण—गोपाल—माधव—सुचन्द्र—प्रक्रम
**भूदेव—**चित्रसेन महारथाः—अत्रत्याः सन्ति॥
अहो भाग्यं मे यत् भवत् कृपयैतेषाम् अपि समागमः जातः॥
अहम् अपिसभवतः सर्वान् एतान् निमन्त्रयितुम् इच्छामि॥
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अस्माभिः भवत् निमन्त्रणम् ऊरीकृतम्
**प्र०—**प्रीतः अस्मि परंतु भवद् भोजनार्थं किं किं पक्तव्यम्? यत् यत् भोक्तुं इच्छास्ति तत् तत्आज्ञापयन्तु॥
**उ०—**भवान् देशकालज्ञः कथनेन किं यथायोग्यम् एव पक्तव्य॥
सत्यम् एवम् एव करिष्यामि॥
उचिष्ठत भोजनसमयः आगतः पाकः सिद्धः वर्तते॥
**आ०—**भो भृत्य ! पाद्यम् अर्घ्यम् आचमनीयं जलं देहि॥
**उ०—**इदम् आनीतं गृह्यताम्॥
**आ०—**भोः पाचकाः ! सर्वान् पदार्थान् क्रमेण परिवेविष्ट॥
**उ०—**भुञ्जीध्वम्॥
**प्र०—**भोजनस्य सर्वे पदार्थाः श्रेष्ठाः जाताः न वा?
**उ०—**अत्युत्तमाः संपन्नाः किं कथनीयम्॥
**प्र०—**भवता किञ्चित् पायसं ग्राह्यं वा यस्येच्छास्ति?
**उ०—**प्रभूतं भुक्तं तृप्ताः स्मः॥
तर्हिउत्तिष्ठत॥
जलं देहि॥
गृह्यताम्॥
आ०—ताम्बूलादीनि आनीयताम्॥
उ०—इमानि सन्ति गृह्णन्तु॥
______________
( १ ) जानातीमे। कृपयैतेषाम्।
( २ ) कुत्रत्यः इमे? मथुरावास्तव्याः। दाक्षिणात्याः अप्यत्र सन्ति? सन्ति बहवः। अहं तान् निमन्त्रये। अत्र कश्चित् पाश्चात्यः वर्तते। वर्तते। कः असौ। अयं मुग्धानलः एवपाश्चात्यः। किंनामाऽयं कुत्रत्यः च। जयदेव नामा अत्रत्य एव। कृपया श्वः अवश्यम् आन्तव्यम्।
( ३ ) अपने २ स्थान से सब आगए। बंगाली कुमारभट्ट नहीं आया। मथुरा के लोग बड़े विद्वान हैं। अहो भाग्य ? जो आप का समागम हुआ। मारवाड़ के लोग बड़े वीर होते हैं। यह सब लंका के लोग हैं। चीनी हरदेव इन को जानता है। आपने कुछ जल लेना है। बहुत खाया। बहुत अच्छा, ऐसा ही करूंगा पान ला, यह लीजिये। भोजन परोसो। खाओ। अब तृप्त हो गए। तब उठो।
क्षेत्र वपन प्रकरणम्।
पाठ ( ६ )
आ०—क्षेत्राणि कर्षन्तु॥
प्र०—बीजानि उप्ताति न वा ?
उ०—उप्तानि॥
प्र०—अस्मिन् क्षेत्रे किं उप्तम्॥
उ०—व्रीहयः
प्र०—एतस्मिन्?
उ०—गोधूमाः॥
प्र०—अस्मिन् किं वपन्ति?
उ०—तिलमुद्गमाषाढकीः॥
प्र०—एतस्मिन् किं उप्यते?
उ०—यवाः॥
प्रह०—संप्राति केदाराः पक्वाःनवा॥
उ—पक्वाःसन्ति॥
आ—यदि पक्वाःतर्हि लुनंतु॥
इदानीं कृषीवलाः अन्योन्यं केदारान्व्यतिलुनन्ति॥
ऐषमः धान्यानि प्रभूतानि जातानि, अतः एकैकस्याः मुद्रायाः गोधूमाः खारीप्रमिताः अन्यानि तन्दुलादीन्यपि किंचित् अधिकन्यूनानि मिलन्ति।
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( १ ) एकैकस्याः। तण्डुलादीन्यपि॥
( २ ) कृषीवलाः क्षेत्राणि कर्षन्ति।क्वचिद् बीजान्यापिवपन्ति। एतस्मिन् क्षेत्रे मया गोधूमाः उप्यन्ते। ऐषमः मया स्वस्थानं गन्तव्यम्। प्रभूतानि धान्यानि तदा भवन्ति, यदा वृष्टिः अधिका भवेत्।
( ३ ) अब क्यारे पके खडे हैं। किसान एक दूसरे के पके क्यारों को काटते हैं। इस वर्ष जौ बहुत हुए। इस क्यारे में इस वर्ष कुछ नहीं बोया।
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गवादिदोहन प्रकरण।
पाठ (७)
प्र०—इयं गौः दुग्धंददाति न वा?
**उ०—**ददाति॥
** प्र०—**इयं महिषी कियत् दुग्धं ददाति॥
**उ०—**दश प्रस्थान्॥
**प्र०—**तवाजावयः सन्ति न वा?
**उ०—**सन्ति॥
**प्र०—**प्रतिदिनं तेभ्यः कियद् दुग्धं जायते?
**उ०—**पञ्च खार्यः॥
** प्र०—**नित्यं किं परिमाणे घृतनवनीते भवतः?
**उ०—**सार्द्धद्वादश प्रस्थे॥
** प्र०—**प्रत्यहं कियत् भुज्यते कियत् च विक्रीयते?
**उ०—**सार्धद्विप्रस्थं भुज्यते दशप्रस्थं च विक्रीयते॥
**प्र०—**तत्र त्वया कदापि सिंहः दृष्टः न वा?
**उ०—**बहुवारं दृष्टः॥
**प्र०—**नदी पूर्णा वर्तते कथम् आगतः?
**उ०—**नौकया॥
आरोहत हस्तिनं गच्छेम॥
अहं तु रथेनागच्छामि॥
अहम् अश्वोपरि स्थित्वा गच्छेयं शिविकायां वा पश्य शारदं नभः कथं निर्मलं वर्तते॥
**प्र०—**चन्द्रः उदितः न वा?
**उ०—**इदानीं तु नोदितः खलु॥
कीदृश्यः तारकाः प्रकाशन्ते॥
सूर्योदयात् चलन् आगच्छामि॥
**प्र०—**क्वापि भोजनं कृतं न वा ?
**उ०—**कृतं मध्यान्हात् प्राक्॥
अधुनात्र कर्तव्यम्॥
करिष्यामि॥
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** ( १ )** तवाजावयः। प्रत्यहम्। रथेनागच्छामि। अश्वोपरि
( २ ) गौः दुग्धं ददाति। महिष्यपि ददाति। ममाजावयः अत्र सन्ति। मया नवनीतं भुज्यते। त्वया दुग्धं विक्रीयते। घृतं देहि। सार्धद्विप्रस्थं नवनीतमानय। अद्यमया सिंहः दृष्टः, पूर्वमपि मया बहुवारं सिंहः दृष्टः, त्वया तु कदापि न दृष्टः। शारदं नभः निर्मलं भवति। अहं शिविकायां गच्छेयम्, उत अश्वोपरि स्थित्वा?
** ( ३ )** यह गौ दस सेर दूध देती है। भेड बकरियें कहां हैं? घी और माखन ला। हाथी पर चढ़ो। मैं घोड़े पर चढ़ता हूं। आज नदी भरपूर है। नौका से पार चलें। आज जल निर्मल नहीं। भोजन कब किया था, दुपहर से पहले तारे चमकते हैं।
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क्रयविक्रय प्रकरणम्॥
पाठ ( ८ )
**प्र०—**एतत् रूप्यैकेन कियत् मिलति?
**उ०—**त्रि त्रि प्रस्थम्॥
**प्र०—**तैलस्य कियत् मूल्यम्?
**उ०—**मुद्रापादेन सेटकद्वयं प्राप्यते॥
**प्र०—**अस्मिन् नगरे कतिहट्टाः सन्ति?
**उ०—**पञ्च सहस्राणि॥
**प्र०—**अस्य किं मूल्यम्?
**उ०—**पञ्चरुप्याणि॥
**आ०—**गृहाणेदं वस्त्रं देहि॥
**प्र०—**अद्यश्वः घृतस्य कः अर्घः?
**उ०—**एकया मुद्रया सपादप्रस्थं विक्रीणते॥
**प्र०—**गुडस्य कः भावः?
**उ०—**अष्टभिः पणैः एक सेटकमात्रं ददति॥
**आ०—**त्वम् आपणं गच्छइलाम् आनय॥
**उ०—**आनीता गृहाण॥
**प्र०—**कस्य हट्टे दधिदुग्धे अच्छे प्राप्नुतः?
**उ०—**वनपालस्य॥ सः सत्येनैव क्रयविक्रयौ करोति॥
**प्र०—**श्रीपतिः वणिक् कीदृशः अस्ति?
**उ०—**सः मिथ्याचारी॥
**प्र०—**अस्मिन् संवत्सरे कियान् लाभः व्ययः च जातः?
**उ०—**पञ्च लक्षाणि लाभः लक्षद्वयस्य व्ययः च। मम खल्वस्मिन् वर्षे लक्षत्रयस्य हानिः जाता।
**प्र०—**कस्तूरी कस्मात् आनीयते?
**उ०—**नयपालात्।
**प्र०—**बहुमूल्यम् आविकं कुतः आनयन्ति?
**उ०—**कश्मीरात्॥
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( १ ) रुप्यैकेन ! गृहाणेदम्
( २ ) रूप्याणि गृहाण। वस्त्राणि देहि। तैलस्य कोऽर्घः। एकया मुद्रया पञ्चप्रस्थं मिलति। आपणं गच्छ। घृतम् आनय। अयं वैश्यः मिथ्याकारी। अस्य लक्ष त्रयस्य हानिः सञ्जाता। कश्मीराद् आगतः अस्मि। तत आविकं आनीतम्।
( ३ ) इलायची ला। लाया हूं, लीजिये। आज कल तैल का क्या भाओ है। यहां पांच हजार रुपये हैं। इस वर्ष मुझे बहुत लाभ हुआ। खर्च भी बहुत हुआ। कस्तूरी नयपाल से लाते हैं॥
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गमनागमन प्रकरणम्।
पाठ ( ९ )
**प्र०—**कुत्र गच्छसि?
**उ०—**पाटलिपुत्रकम्।
**प्र०—**कदाऽऽगमिष्यसि?
**उ०—**एकमासे
**प्र०—**सः क्व गतः?
**उ०—**शाकम् आनेतुम्
**प्र०—**अयं रक्तोष्णीषः क्व गच्छति?
**उ०—**स्व गृहम्
**प्र०—**अस्य कदा जन्माभूत्?
**उ०—**पञ्च सम्वत्सराः अतीताः
**आ०—**परेद्युः ग्रामे गन्तव्यम्।
**उ०—**गमिष्यामि।
**प्र०—**भवान् परेद्युः क्व गन्ता?
**उ०—**अयोध्याम्।
**प्र०—**तत्र किं कार्यम् अस्ति?
**उ०—**मित्रैः सह मेलनं कर्तव्यम् अस्ति।
**प्र०—**कदा आगतः असि?
**उ०—**इदानीम् एव आगच्छामि।
( १ ) इन में संधियें निकालो-कदाऽऽगमिष्यसि। रक्तोष्णीषः। जन्माभूत्।
( २ ) रामः क गतः। पाटलिपुत्रकम्। कदाऽऽगमिष्यति। परश्वः। रामः स्वगृहं गच्छति। तव कदा जन्माऽभूत्। द्वादश संवत्सरा अतीताः।
( ३ ) कल कहां जाओगे। वहां क्या काम है। यह लाल पगड़ी बाला कब आया है। आज वह कहां गया। लाहौर। क्या करने। फल लाने॥
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मिश्रित प्रकरणम्।
पाठ ( १० )
इदानीं शीतं निवृत्तम् उष्णसमयः आगतः।
**प्र०—**हेमन्ते क्व स्थितः?
**उ०—**वंगेषु॥
पश्य मेघोन्नतिं कथं गर्जते विद्युत् विद्योतते च॥
अद्य महती वृष्टिः जाता यथा तडागाः नद्यः च पूरिताः।
शृणु मयूराःसुशब्दयन्ति॥
**प्र०—**कस्मात् स्थानात् आगतः?
**उ०—**जङ्गलात्॥
रोग प्रकरणम्।
पाठ ( ११ )
**प्र०—**अस्य कीदृशः रोगः वर्तते?
**उ०—**जीर्णज्वरः अस्ति।
औषधं देहि॥
ददामि॥
परन्तु पथ्यं सदा कर्तव्यं, कुतः, न हि पथ्येन विना रोगः निवर्तते॥
अयं कुपथ्यकारित्वात् सदा रुग्णः वर्तते॥
अस्य पित्तकोपः वर्तते॥
मम कफः वर्द्धते औषधं देहि ?
निदानं कृत्वा दास्यामि॥
अस्य महान्तौ कासश्वासौ स्तः॥
मम शरीरे तु वातव्याधिः वर्तते॥
**प्र०—**संग्रहणी निवृत्ता न वा?
**उ०—**अद्यपर्यन्तं न निवृत्ता॥
**प्र०—**औषधं संसेव्यं पथ्यं करोषि न वा?
**उ०—**क्रियते, परं तु सुवैद्यः न मिलति कश्चित् यः सम्यक्परीक्ष्य औषधं दद्यात्॥ तृषाऽस्तिचेत् जलं पिब॥
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( १ ) तृषास्ति।
( २ ) तस्य कदा ज्वरः अभूत्। त्रीणि दिनान्यतीतानि।
कस्यौषधं सेव्यते। हरिदत्तस्य। सुवैद्योऽसौ हरिदत्तः। पथ्यं क्रियते न वा। क्रियते, यथा यथा वैद्यः कथयति। गच्छ हट्टं, औषध मानय। आनीतं, गृह्यताम्।
( ३ ) इस को संग्रहणी है औषध दे। मेरे शरीर में पित्त का कोप है। मैं औषध सेवन करके पथ्य करता हूं। आज तक वह उस का रोग नहीं छूटा। क्योंकि वह कुपथ्य कर लेता है।
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अथात्मीय प्रकरणम्।
( पाठ १२ )
**प्र०—**तव ज्येष्ठः बंधुः भगिनी च काऽस्ति?
**उ०—**देवदत्तः सुशीला च॥
भो बन्धो ? अहं पाठाय व्रजामि॥
गच्छ प्रिय ? पूर्णां विद्यां कृत्वा आगन्तव्यम्॥
**प्र०—**भवतः कन्या अद्य श्वः किं पठन्ति?
**उ०—**वर्णोच्चारणशिक्षादिकं दर्शनशास्त्राणिचाधीत्य इदानीं धर्मपाकशिल्पगणितविद्या अधीयते॥
**प्र०—**भवत् ज्येष्ठया किं किम् अधीत्येदानीं किं क्रियते॥
**उ०—**वर्णज्ञानम् आरभ्य वेदपर्यन्ताः सर्वाः विद्या विदित्वेदानी बालिकाः पाठयति॥
**प्र०—**तया विवाहः कृतः न वा ?
**उ०—**इदानीं तु न कृतः परन्तु वरं परीक्ष्य स्वयंवरं कर्तुम् इच्छति॥
यदा कश्चित् स्वतुल्यः पुरुषः मिलिष्यति, तदा विवाहं करिष्यति॥
**प्र०—**तव मित्रैः अधीतं न वा॥
**उ०—**सर्वे एव विद्वांसः वर्तन्ते यथाहंतथैवतेऽपि, समान स्वभावेषु मैत्र्याः संभवात्?
**प्र०—**तव पितृव्यः किं करोति?
**उ०—**राजव्यवस्थां॥
**प्र०—**इमे किं तव मातुलादयः?
**उ०—**बाढम्, अयं मम मातुलः, इयं पितृष्वसा, इयं मातृष्वसा इयं गुरुपत्नी अयं च गुरुः॥
**प्र०—**इदानीम् एते कस्मै प्रयोजनायैकत्र मिलिताः?
**उ०—**मया सत्कारायाहूताः सन्तः आगताः॥
इमे मे मातामही श्वशुरश्यालादयः संति॥
इमे मम मित्रस्य स्त्री भगिनी दुहितृ जामातरः सन्ति॥
इमौ मम पितृव्यस्य श्यालदौहित्रौ स्तः॥
**प्र०—**त्वत् गृहनिकटे के के निवसन्ति?
**उ०—**ब्राह्मणक्षत्रियविट्शूद्राः॥
इमे राजसमीपनिवासिनः॥
____________
( १ ) यथाऽहं। तथैव प्रयोजनायैकत्र।
( २ ) अयं मम ज्येष्ठः बन्धुः। अस्य कन्याः वर्णोच्चारणशिक्षां पठन्ति। ते विद्यार्थिनः गणितविद्याः अधीयते। भो बन्धो पाठाय गच्छ। सर्वे विद्वांसः अत्रायाताः।
( ३ ) आपकी बड़ी बहिन क्या करती है। लडकियां पढ़ाती है। मेरे सब मित्रों ने शास्त्र पढ़े हैं। उसकी कन्याएं आजकल क्या
पढ़ती हैं। सारी विद्याएं पढ़कर अब पढ़ाती हैं। जा प्यारे, पूर्ण विद्या करके आना॥
यह इसका चाचा है, यह साला है, यह दोहता है, यह मामा है।
___________________
अथ लेख्य लेखक प्रकरणम्।
( पाठ १३ )
मनुष्यः लेखाभ्यासं सम्यक् कुर्यात्॥
अयम् उत्तमम् अक्षरविन्यासं करोति॥
लेखनीं सम्पादय॥
मसीपात्रम् आनय॥
पुस्तकं लिख॥
**प्र०—**तत्र पत्रं लिखित्वा प्रेषितं न वा?
**उ०—**प्रेषितं पञ्च दिनानि व्यतीतानि तस्य प्रत्युत्तरम्। अप्यागतम्॥
**प्र०—**सुवर्णाक्षराणि लिखितुं जानासि न वा?
**उ०—**जानामि तु परन्तु सामग्री संचयने लेखे च विलम्बः भवति॥
यदि अंगुष्ठतर्जनीभ्यां लेखनीं गृहीत्वा मध्यमोपरि संस्थाप्य लिखेत् तर्हि प्रशस्तः लेखः जायेत॥
अयम् अतीव शीघ्रं लिखति॥
एतस्य लेखनी मन्दा चलति॥
**प्र०—**यदि त्वम् एकाहं सततं लिखेः, तर्हि कियतः श्लोकान्लिखितुं शक्नुयाः?
**उ०—**पञ्च शतानि॥
यदि शिक्षां गृहीत्वा शनैः शनैः लिखितुं अभ्यस्येत्तर्हि अक्षराणां सुन्दरं स्वरूपं स्पष्टता च जायते॥
**प्र०—**अस्मिन् लाक्षारसे कज्जलं संमेलितं नवा?
**उ०—**मेलितं तु, न्यूनं खलु वर्तते॥
मनुष्यैः यादृशःपठनाभ्यासः क्रियेत तादृशः एव लेखाऽभ्यासः अपि कर्तव्यः॥
**प्र०—**मया वेदपुस्तकं लेखयितव्यम् अस्ति, एकेन रूपेण कियतः श्लोकान् दास्यसि?
**उ०—**अत्युत्तमानि ग्रहीष्यसि चेत्, तर्हि शतत्रयं, मध्यमानि चेत्, शतपंचकम्, साधारणानि चेत्सहस्रं श्लोकान्दास्यामि॥
शतत्रयं एवग्रहीष्यामि परन्तु अत्युत्तमं लिखित्वा दास्यसि चेत्॥
वरम् एवम् करिष्यामि॥४॥
______________
( १ ) प्रत्युत्तरम्। अप्यागतम्। सुवर्णाक्षराणि।
( २ ) लेखनी मानय। पत्रं लिख। तथा लिख, यथा प्रशस्तः लेखः जायेत। अंगुष्ठतर्जनीभ्यां लेखनीं गृहाण। मध्यमायाश्चो परि संस्थापय। इदानीं लिख। पश्य कीदृग् अक्षराणां सुन्दरं रूपं स्पष्टताच जायते। अद्य कियतः श्लोकान् लिखित्वा दास्यसि॥ पञ्चशतानि। अत्युत्तमं लिखित्वा देहि। त्वंलिखितुं जानासि। जानामि तु, परं यादृशः लेखाभ्यासः मम, न स शोभनः। यादृशः पठनाभ्यासः, तादृशः एव लेखाभ्यासोऽपि कर्तव्यः।
( ३ ) इस लाखरस में स्याही मिला। दवात ला। लिख। तू बहुत अच्छे अक्षर लिखता है। आज वहां एक पत्र लिख कर भेजदे। पहले जो पत्र भेजा था, उस का तो उत्तर आगया। नरोत्तम सुनहरी अक्षर लिखने जानता है। एक सप्ताह में तू कितने श्लोक लिख सकता है। पांच सहस्र। एक रुपये के कितने श्लोक लिखदेगा। तीन सौ भी,पांच सौ भी, सहस्र भी। तीन सौ कैसे, पांच सौ कैसे और सहस्र कैसे। तीन सौ अत्युत्तम, पांच सौ मध्यम, सहस्र साधारण।
______________
राज सभा प्रकरणम्।
पाठ ( १४ )
तिष्ठ भो देवदत्त ! त्वया सह गच्छामि राजसभाम्॥
**प्र०—**सभा शब्दस्य कः पदार्थः?
**उ०—**या सत्यासत्यनिर्णयाय प्रकाशयुक्ता वर्तते॥
**प्र०—**तत्र कति सभासदः सन्ति?
**उ०—**सहस्रम्॥
या मम ग्रामे सभाऽस्ति तत्र खलु पञ्चशतानि सभासदः सन्ति॥
**प्र०—**इदनीं सभायां कस्य विषयस्योपरि विचारः कर्तव्यः
**उ०—**युद्धस्य॥
**प्र०—**तेन सह युद्धं कर्तव्यं न वा?
**प्र०—**यदि कर्तव्यं तर्हि कथम् ?
पापिष्ठः चेत् तर्हि तेन सह योद्धव्यम् एव॥
________________
( १ ) सत्या सत्य। सभाऽस्ति। विषयस्योपरि।
( २ ) इयं राजसभा वर्तते। अस्यां सहस्रं सभासदः सन्ति। इदानीं इमे कस्य विषयस्योपरि विचारं कुर्वन्ति। युद्धस्य। केन सह युद्धं कर्तव्यम्। असुरैः सह। पापिष्ठा असुराः, तैः सह योद्धव्यम् एव॥
( ३) सभा शब्द का क्या अर्थ है। तेरे ग्राम में भी एक सभा है। उसमें कितने सभासद हैं। तीन सौ। आज सभा में किस विषय पर विचार हो रहा है। युद्ध के विषय पर। किस के साथ युद्ध होने वाला है। असुरों के साथ॥
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* राजप्रजा सम्बन्ध प्रकरणम् *
पाठ ( १५ )
** **भोः राजन् ! ममायम् ऋणं न ददाति॥
**प्र०—**यदाऽनेन गृहीत तदानींतनःकश्चित् साक्षी वर्तते नवा?
**उ०—**अस्ति॥ तर्ह्यानय। आनीतः अयम् अस्ति।
**प्र०—**भोः साक्षिन् ! त्वम् अत्र किञ्चित् जानासि नवा?
**उ०—**जानामि। यादृशं जानासि तादृशं सत्यं ब्रूहि?
सत्यं वदामि।अस्मात् अनेनमत् समक्षे सहस्रं मुद्राः गृहीताः।
भोः भृत्य ! तं शीघ्रम् आनय।
आनायामि।
गच्छ राजसभायां राज्ञा त्वम् आहूतः असि। चलामि।
भोः राजन् ? उपस्थितः सः।
**प्र०—**त्वयाऽस्यऋणं कुतः नादायि?
**उ०—**अस्मिन् समये तु मम सामर्थ्यं नास्ति षट् मासानन्तरं दास्यामि॥
**प्र०—**पुनः विलम्बं तु न करिष्यसि ?
**उ०—**महाराज ! कदापि न करिष्यामि।
गच्छ गच्छ धनपाल ! यदि सप्तमे मास्ययं न दास्यति तर्हि एनं निगृह्य दापयिष्यामि। अयं मम शतं मुद्रा गृहीत्वाऽधुना न ददाति॥
**प्र०—**किंच भो यदयं वदति तत् सत्यं नवा?
**उ०—**मिथ्यैवाऽस्ति॥
अहं तु जानाम्यपि नास्य मुद्रा मया कदापि स्वीकृता
**प्र०—**उभयोः साक्षिणः सन्ति नवा?
**उ०—**सन्ति॥
**प्र०—**कुत्र वर्तन्ते॥
इमे उपतिष्ठन्ते॥
**प्र०—**अनेन युष्माकं समक्षे शतं मुद्राः दत्ताः नवा॥
**उ०—**दत्ताः खलु॥
**प्र०—**अनेन शतं मुद्राः गृहीताः नवा?
**उ०—**वयं न जानीमः॥
प्राड्विवाकेनोक्तम्॥
अयम् अस्य साक्षिणः च सर्वे मिध्यावादिनः सन्ति।
कुतः इदम् एतेषां परस्परविरुद्धं वचः अस्ति। यतः त्वया मिथ्यालपितम् अतः एव तवैकसंवत्सर पर्यंतं कारागृहे वधः क्रियते॥
अयम् उत्तमर्णः त्वदीयान् पदार्थान् गृहीत्वा विक्रीय वा स्वर्णं ग्रहीष्यति॥
अयं मदीयानि पञ्चशतानि रूप्याणि सीकृत्य न ददाति।
**प्र०—**कुतः न ददासि॥
**उ०—**मया नैव गृहीताः कथं दद्याम्।
अयं मम लेखः अस्ति पश्य तम्।
आनय।
गृह्यताम्।
अयं लेखःमिथ्या प्रतिभाति।
तस्मात् त्वं षण्मासान् कारागृहे वस, तवेमे साक्षिणः च द्वौद्वौ मासौ तत्रैव वसेयुः॥
( १ ) इन में सन्धियें निकलो—++र्ह्यानय, मास्ययं गृहीत्वाधुना, मिभ्यैवास्ति, जानाम्यपि, नास्य, प्राड्विवाकेनोक्तम्, मिथ्याऽऽलपितम्। स्वर्णम्।
( २ ) त्वया कस्मात् ऋषंगृहीतम्। यज्ञदत्तान्। कतिमुद्राः गृहीताः। सहस्रम्। हरिदेवेन ++ऋणं +दायि। साक्षिणः सन्ति। सन्ति। कति। त्रयः। तेषां समक्षे हरिदेवेन मुद्राः गृहीताः परोक्षे वा। समक्षे एव। तर्हि राजसभायां निवेदय। बाढम्, एवं करोमि। लेखोपारे हरिदेवस्य हस्ताक्षराणि विद्यन्ते, साक्षिणामपि हस्ताक्षराणि विद्यन्ते, कथं न स्वीकरिष्यति। न स्वीकरिष्यति चेत्, तर्हि राजा एनं निगृह्य दापयिष्यति॥
( ३ ) हे राजन् ! यह साहुकार कहता है, हरिदेव मेरा ऋण नहीं देता। तो हरिदेव को शीघ्र लाओ। महाराज ! हरिदेव उपस्थित है। हरिदेव तू इसका ऋण क्यों नहीं देता। महाराज अभी मेरा सामर्थ्य नहीं। अच्छा तो बरस के अन्दर २ अवश्य दे देना, नहीं तो फिर दण्ड मिलेगा, महाराज ऐसा ही करूंगा॥
इस के साक्षी सब झूठ बोले हैं, इसलिये इनको दण्ड दो। और यह इसका लेख भी मिथ्या प्रतीत होता है, इस लिये इस को भी दण्ड दो॥
धर्मोपदेशः ( गौतम धर्मसूत्रेभ्यः )
ओम्-वेदो धर्ममूलम्॥१॥
तद्विदां स्मृतिशीले॥२॥
उपनयनं ब्राह्मणस्याष्टमे॥३॥
एकादश द्वादशयोः क्षत्रिय वैश्ययोः॥४॥
ब्रह्मचारी॥५॥
सत्यवचनम्॥६॥
बहिः सन्ध्यत्वं च॥७॥
आहूतोऽध्यायी॥८॥
युक्तः प्रियहितयोः॥९॥
शिष्य शिष्टि रवधेन॥१०॥
विद्यान्ते गुरुरर्थेन निमन्त्र्यः॥११॥
पञ्चानां यज्ञानामनुष्ठानं देवपितृ मनुष्य भूत ब्रह्मणाम्॥१२॥
द्विजातीना मध्ययन मिज्यादानम्॥१३॥
ब्राह्मणस्याधिकाः प्रवचनयाजनप्रतिग्रहाः॥१४॥
राज्ञोऽधिकं रक्षणं सर्वभूतानाम्॥१५॥
योगश्चविजये॥१६॥
संग्रामे संस्थानमनिवृत्तिश्च॥१७॥
वैश्यस्याधिकं कृषिवणिक् पाशुपाल्य कुसीदम्॥१८॥
अर्थ—
** १—**ओ३म्, वेद धर्म का मूल है
२—(तथा) वेद के जानने वालों के स्मृति और आचार
** ३—**ब्राह्मण का उपनयन आठवें वर्ष हो
**४—**क्षत्रिय का ग्यारहवें और वैश्य का बारहवें
५—( उपनयन हो जाने के पीछे ) ब्रह्मचारी बने
**६—**सत्य बोले
७—( दोनों काल ) बाहर जाकर सन्ध्या करे
८—[ जबगुरु ] बुलावे, तब आकर पढ़े
९—[ गुरुके ] प्रिय और हित में सावधान हो
१०—( गुरुभी ) शिष्यों को शिक्षा देता हुआ मारे नहीं
११—( शिष्य ) जब विद्या पढ़ चुके, तो गुरु को दक्षिणा देवे
**१२—**देवयज्ञ, पितृयज्ञ, मनुष्य यज्ञ भूतयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ इन पांच यज्ञों को किया करे
**१३—**वेद पढ़ना, यज्ञ करना और दान देना सारे द्विजों [ ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ] का धर्म है
** १४—**वेद पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना यह धर्म ब्राह्मण के अधिक हैं
**१५—**सब लोगों की रक्षा करना क्षत्रिय का अधिक धर्म है
** १६—**और विजय में सावधान होना
**१७—**और युद्ध में मरना और पीठ न दिखलाना
**१८—**खेती, व्यापार, पशुओं का पालन और व्याज यह वैश्य का अधिक है
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“संस्कृत ग्रन्थों में इनका कहीं कोई प्रयोग नहीं। और ऌदीर्घ तो है भी कहीं नहीं। यह निश्चय करादो। इ, ई, के और उ, ऊ के भी अ की न्यांई चारों चारों भेद अध्यापक को चाहिये, कि समझाए। और ॠ काएक ही भेद है। सन्धि स्थल में दीर्घ ॠ कहीं नहीं। और ऌभी प्रयुक्त संस्कृत में कहीं नहीं। वैयाकरणों ने जो दीर्घ ॠ औरऌ की सन्धियां दिखलाई हैं, वह नए प्रयोग घड़-घड़ कर दिखलाईं हैं।” ↩︎