[[संस्कृतवाचनपाठमाला Source: EB]]
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NOTE
The following changes have been effected in the present edition of the Sanskrit Course of Reading
Part I—
(1) With a view to break monotony caused by a continuous string of prose lessons, lessons in verse have been interspersed at small intervals under suitable headings.
(2) Three lessons in the old editions found hard by average pupils have been eliminated.
(3) Notes at the end have undergone a revision.
The verses are chosen from their collection at the end of the book and grouped separately as indicated above.
These features, we think, will add to the utility of the book which, we are happy to note, has already been well received by the student-world.
New Poona College,
Poona. July, 1927
The Editor
This edition is a mere reprint of the previous edition of 1927.
Sir Parashuram Bhau College,
Poona City. June, 1929
The Editor
This edition is a mere reprint of the previous edition of 1929.
Sir Parashuram Bhau College,
Poona City. May 1936.
The Editor
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| पाठः | |
| १. | बालकमण्डूकानाम् |
| २. | त्रयाणां धूर्तानाम् |
| ३. | अजशृगालयोः |
| ४. | लोभाविष्टस्य वञ्चकस्य |
| ५. | काकजम्बूकयोः |
| ६. | दुर्जनसंवासो वर्जनीयः |
| ७. | दैवं क्वचित् पौरुषाद् बलीयः |
| ८. | ध्रुवाणि परित्यज्याध्रुवनिषेवणं नेष्टम् |
| ९. | स्वेच्छाचारिणोऽजस्य |
| १०. | व्याघ्रचर्मप्रच्छन्नस्य रासभस्य |
| ११. | धार्मिकस्य विक्रमस्य राज्ञः |
| १२. | सूर्यहिमवाय्वोः |
| १३. | आत्मघातिनां बकानाम् |
| १४. | मायाविनो मर्कटस्य |
| १५. | सिंहमार्जारयोः |
| १६. | स्वशब्दकार्कश्येन खिन्नस्य मयूरस्य |
| १७. | सिंहमूषकयोः |
| १८. | कुक्कुरगर्दभयोः |
| १९. | वाग्देवीवन्दनम् |
| २०. | हस्तिशृगालयोः |
| २१. | राजार्थिनां भेकानाम् |
| २२. | मक्षिकापिपीलिकयोः |
| २३. | बुद्धिर्यस्य बलं तस्य |
| २४. | कत्थनशीलस्य पथिकस्य |
| २५. | अजवृकयोः |
| २६. | जले पश्यन्त्याः शम्बर्याः |
| २७. | शुन्योः |
| २८. | विदग्धं प्रतिवचनम् |
| २९. | संहतिः कार्यसाधिका |
| ३०. | विलक्षणवरप्रार्थना |
| ३१. | अलौकिकी पतिभक्तिः |
| ३२. | श्रीरामचरितम् |
| ३३. | विद्याप्रशंसा |
| ३४. | जाले गृहीतस्य पक्षिणः |
| ३५. | अनक्षरो लिपिन्यासो यद्विद्याध्ययनं विना |
| ३६. | भूतानुकाम्पिन्याः कन्यकायाः |
| ३७. | तपसः प्रभावः |
| ३८. | मृगयाविहारिणो राज्ञः |
| ३९. | अविमृश्यकारिणां भ्रातॄणाम् |
| ४०. | महोग्रस्य दुर्भिक्षस्य |
| ४१. | अद्भुतः स्वप्नवृत्तान्तः |
| ४२. | कस्यचित्कृपणस्य मनोरथाः |
| ४३. | दुर्लभमाध्वीकस्य जम्बुकस्य |
| ४४. | सिंहपशूनाम् |
| ४५. | श्वेहामृगयोः |
| ४६. | मेषव्याघ्रयोः |
| ४७. | अविदग्धस्य बधिरस्य |
| ४८. | परीक्षितस्य राज्ञो विक्रमार्कस्य |
| ४९. | नीलीभाण्डे पतितस्य क्रोष्टोः |
| ५०. | ऋक्षपान्थानाम् |
| ५१. | राज्ञो नहुषस्य कथा |
| ५२. | टिट्टिभीसागरयोः |
| ५३. | अनुत्तमो नृपः |
| ५४. | उद्यमप्रशंसा |
| ५५. | जराभिभूतस्य मृगेंद्रस्य |
| ५६. | बिडालशृगालयोः |
| ५७. | कूर्मगरुडयोः |
| ५८. | छद्मवैद्यस्य दर्दुरस्य |
| ५९. | वृकबकयोः |
| ६०. | जम्बूकसारसयोः |
| ६१. | हंसपदकांक्षिणो बकस्य |
| ६२. | मुनिमूषकयोः |
| ६३. | अविवेकोऽनुशयाय कल्पते |
| ६४. | विचक्षणस्य मन्त्रिणः |
| ६५. | जरासन्धकथा |
| ६६. | कृतार्थं सत्यवादित्वम् |
| ६७. | असहचरेण न प्रवस्तव्यम् |
| ६८. | अतिलोभो विनाशाय |
| ६९. | सिंहशावकक्रोष्टूनाम् |
| ७०. | शिबिराजकथा |
| ७१. | व्यपदेशेऽपि सिद्धिः स्यात् |
| ७२. | उदरावयवानाम् |
| ७३. | व्यासवाल्मीकिकालिदासादीनां प्रशंसा |
| ७४. | आकृतयो बहुशो विसंवादिन्यः |
| ७५. | विप्रव्याघ्रयोः |
| ७६. | मातरं बन्धनान्मोचयतो गरुडस्य |
| ७७. | सिंहानुचराणाम् |
| ७८. | ग्राम्यनागरिकमूषकयोः |
| ७९. | विश्वासघातिन आखुभुजः |
| ८०. | दशरथशापवृत्तांतः |
| ८१. | टिट्टिभीशावकानाम् |
| ८२. | त्रयाणां मत्स्यानाम् |
| ८३. | बुद्धिहीना विनश्यन्ति |
| ८४. | प्लवमीनानाम् |
| ८५. | अनल्पसाधनस्य गोमायोः |
| ८६. | गोस्थानगतशम्बरस्य |
| ८७. | नलराजकथा |
| ८८. | सर्पमण्डूकयोः |
| ८९. | चतुर्णां मूर्खपंडितानाम् |
| ९०. | महाभारतकथा |
| ९१. | सज्जनप्रशंसा |
| ९२. | अवदातं कर्म |
| ९३. | श्रीरामस्य वनविनिवर्तने भरतयत्नः |
| ९४. | चारुदत्तसदने चौर्यम् |
| ९५. | कविप्रशंसा |
| ९६. | जीवितनिरपेक्षस्य वीरस्य |
| ९७. | सुभाषितप्रशंसा |
| ९८. | अशोकवनिकां प्राप्तस्य हनुमतः |
| ९९. | अन्योक्तिकलापः |
| १००. | आपद्गतस्य शुकस्य मनःसंकल्पाः |
| १०१. | अर्जुनविषादः |
| १०२. | राज्ञः पुत्राय संदेशः |
| १०३. | मनोरमाविलापः |
| १०४. | ध्रुवकथा |
| १०५. | संकीर्णपद्यानि टिप्पणी |
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SANSKRIT COURSE OF READING
FIRST PART
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संस्कृतवाचनपाठमाला
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प्रथमः खण्डः
1.THE BOYS AND THE FROGS.
१.बालकमण्डूकानाम्
केचिद्बालकाः पाठशालाया गृहं निवर्तमानाः कस्यचित्तडागस्य समीपमगच्छन्। तस्य पयसि विहरतो बहून् मण्डूकांस्तेऽपश्यंस्तेष्वश्मनः प्रक्षेप्तुमारभन्त च। तेषां मध्यादेको वृद्धो दर्दुरस्तानागत्याभाषत। भो बालकाः, यूयमस्मासूपलान् किमस्यथ? वयं सुखेन कालं नयामस्तद्यूयं न सहध्ये किमिति। तद्वचः श्रुत्वा हरिर्नाम बालोऽवदत्। क्रीडार्थमेवास्माभिर्दृषदः क्षिप्यन्ते। इत्युक्ते स दर्दुरः प्रत्यभाषत। भो बटवः, दृषदां प्रक्षेपणं युष्माकं केवलं क्रीडैव जायते, अस्माकं तु तन्मरणमेव। तदस्मात् कर्मणो विरमतेति। तत्सर्वमाकर्ण्य तेषां मध्यात् कश्चित् पटुमतिर्बालोऽगदत्। वयस्याः, सत्यं वदत्यसौ मण्डूकः। एतान् कारणं विना किमिति वयं पीडयाम? तद्वयं गृहमेव गच्छाम स्वपाठांश्च शिक्षामहा इति।
Apte’s Progressive Exercises.
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2.THE THREE ROGUES.
२.त्रयाणां धूर्तानाम्
अस्ति गौतमस्यारण्ये प्रस्तुतयज्ञः कश्चिद् ब्राह्मणः। स यज्ञार्थं ग्रामान्तराच्छागमुपक्रीय स्कन्धे कृत्वाऽऽगच्छन् धूर्तत्रयेणावलोकितः।
ततस्ते धूर्ता यद्येष च्छागः केनाप्युपायेन लभ्यते तदा नो मतिप्रकर्षो भवतीति समालोच्य वृक्षत्रयतले क्रोशान्तरेण तस्य ब्राह्मणस्यागमनं प्रतीक्षमाणाः पथि स्थिताः। तत्रैकेन धूर्तेन गच्छन् स ब्राह्मणोऽभिहितः। भो ब्राह्मण, किमिति कुक्कुरःस्कन्धेनोह्यते? विप्रेणोक्तम्। नायं श्वा किन्तु यज्ञच्छागः। अथानन्तरस्थितेनान्येन धूर्तेन तथैवोक्तम्। तदाकर्ण्य ब्राह्मणश्छागं भूमौ निधाय तं मुहुर्निरीक्ष्य पुनः स्कन्धे कृत्वा च दोलायमानमतिश्चलितः। ततस्तृतीयधूर्तवचनं तथैव श्रुत्वा स्वमतिभ्रमं निश्चित्य च्छागं त्यक्त्वा स्नात्वा च स ब्राह्मणो गृहमियाय।छागस्तु तैर्धूर्तैर्नीत्वा भक्षितः।
हितोपदेशः
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3.THE GOAT AND THE FOX.
३.अजशृगालयोः
कश्चिच्छृगालः पानीयं पातुं कामपि वापीं गतो जले निपपात। तेन बहिर्निर्गन्तुं बहवो यत्नाश्चक्रिरे परं स वन्ध्यप्रयत्नो जज्ञे। अत्रान्तरे कोप्यजस्तत्रागत्य तमन्वयुङ्क्त। अपि मधुरं जलम्? वञ्चक उवाच। मधुरमिति किं वच्मि? केवलं पीयूषमेव। वारंवारं तन्निपीयापि तृप्तिं न लभे। न शक्नोम्येतद्धातुम्। एतन्निशम्याजोऽन्तः प्रविवेश। सपद्येव तस्य दीर्घशृङ्गयोः पदं निधाय जम्बूको बहिर्जगाम। अजस्तु मज्जनोन्मज्जनमसकृदनुभूय ममार।
तात्पर्यम्—‘प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते’इति सर्वत्र फलति। यद्यल्लोक आचरति तत्रतत्र स्वार्थानुष्ठानमस्त्येव। परहिताय यतमाना विरलाः। अतो यः कोऽपि मनः प्रलोभयति तस्य सत्यव्रतत्वं सम्यगनिश्चित्य नरस्तस्मिन् न विश्वस्यात्।
ईसब्नीतिकथाः
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4.THE GREEDY JACKAL
४.लोभाविष्टस्य वञ्चकस्य
कोऽपि जम्बूकश्चिरमाहारार्थं तत्रतत्र भ्रमति स्म। परं किमपि सत्त्वं तेन नासादितम्। अथ निराशो निवर्तमानो दिष्ट्या कमप्यजशिशुमपश्यत्। तं च बलात् कण्ठे गृहीत्वा व्यापाद्य मुखेनादाय नदीतीरेण गृहाभिमुखं प्रस्थितः। तदानीं स नद्यास्तीरोपान्ते शयानं कमपि नक्रमवालोकयत्। असंतुष्टः स मूढस्तमवलोक्य सद्यो मुखगतं मांसं भूमौ निक्षिप्य तमुपासर्पत्। उपायन्तं तं दृष्ट्वा जागरूकःस मकरः सहसा प्रवाहं प्राविशत्। अथ वञ्चितः स वञ्चकः खिन्नः क्षणं तत्र स्थित्वा भग्नाशो निवृत्तः। अत्रान्तरे कुतोऽपि कोऽपि गृध्रः समागत्याजमांसमप्यपाहरत्। अथ तदप्यलभमानो नितान्तं विषण्णः स शृगालः स्वबुद्धिं निन्दन्निराहारः स्ववासं गतः।
ईसब्नीतिकथाः
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5.THE CROW AND THE JACKAL
५.काकजम्बूकयोः
कश्चित्काको महान्तं मांसखण्डं मुखेनादायोड्डिड्ये। तुङ्गवृक्षशिखरं च गत्वा निषसाद। एतदुदीक्षमाणः कश्चिज्जम्बूकस्तस्य तरोस्तलमाससाद। कपटेन तत्सौन्दर्यं प्रशंसितुमारेभे च। रे वयस्य, सत्यमहं ब्रवीमि यत्त्वन्निकाशो रम्योऽण्डजो नाद्ययावन्मया दृष्टः। अहो सुन्दराणि अहो कोमलानि तव पतत्त्राणि। कथं ते शरीरकांतिं वर्णयामि? तवावयवसौष्ठवं विस्मृतानिमेषेण चक्षुषाऽवलोकनीयम्। निखिलंतवानुकूलमस्ति। अतस्तव स्वरमाधुर्यमस्त्येवेति तर्कयामि। यदि स स्वरो मधुरः स्यात्ततः कः शक्नोति त्वया तुलामधिरोढुम्? काक इमां कपटस्तुतिं श्रुत्वा कोऽहमिति विसस्मार। ततः कांश्चिद्भावविशेषानभिनीयात्मन्यचिंतयत्। अस्य स्वरभ्रांतिं व्यपोहामीति। एवं निश्चित्य
गातुमारब्धः। गानप्रवृत्तस्यैवतस्य मुखान्मांसखण्डो भूमिमापेदे। तं गृहीत्वा तन्मौर्खमुपहसञ्जम्बूक इष्टं देशं जगाम।
ईसब्नीतिकथाः
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6.BAD COMPANY SHOULD BE AVOIDED.
६.दुर्जनसंवासो वर्जनीयः
अस्त्युज्जयिनीवर्त्मनि प्रान्तरे महान् पिष्पलीवृक्षः। तत्र हंसकाकौ निवसतः। कदाचिद् ग्रीष्मसमये परिश्रान्तः कश्चित् पथिकस्तरुतले धनुष्काण्डं सन्निधाय सुप्तः। क्षणान्तरे तन्मुखाद् वृक्षच्छायापगता। ततः सूर्यतेजसा तन्मुखं व्याप्तमवलोक्य कृपया तद्वृक्षस्थितेन हंसेन पक्षौ प्रसार्य पुनस्तन्मुखे छाया कृता। ततो निर्भरनिद्रासुखिना तेनाध्वन्येन मुखव्यादानं कृतम्। अथ परसुखमसहिष्णुःस्वभावकुटिलः स काकस्तस्य मुखे स्वभुक्तशेषं निम्बफलबीजं पातयित्वा पलायितः। ततो यावदसौ पान्थ उत्थायोर्ध्वं निरीक्षते तावत्तेनावलोकितो हंसः। काण्डेन हत्वा व्यापादितश्च।
हितोपदेशः
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7.FATE SOMETIMES BAFFLES EXERTION.
७.दैवं क्वचित् पौरुषाद्बलीयः
मृगग्रहणाय वनेषु पर्यटन् कोऽपि मृगयुर्महतीं वागुरां मृगमार्गे प्रसार्य पुनरागमनाय गतः। गते तस्मिन् मुहूर्तादनन्तरं तरस्वी कोऽपि मृगः स्वच्छन्द्रं धावंस्तस्यां वागुरायां लग्नचरणो बद्धः। अथ महता प्रयत्नेन दन्तैः पाशांछित्त्वा वागुरां बलाद् भङ्क्त्वा स व्याध- भयात् पलायितुमारभत। पलायमानश्च मार्गमध्ये महता दावाग्निना प्रतिबद्धः। अथ तमपि कृच्छ्रेण समुल्लंघ्य पुनः पलायनपरोऽभवत्। अत्रान्तरे कोऽपि मृगयुः सरभसमागत्य तदुपरि शरान् प्रावर्षत्। ततो भीतभीतः स हरिणो महता वेगेन धावञ् शरगोचरमतीत्य गतः।
परन्त्वन्ते गभीरे कुत्रापि जीर्णकूपे निपत्य हन्त मृतः। अत एवाहुः क्वचिद्दैवं पौरुषाद्बलीय इति।
कथाकुसुममञ्जरी
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- A BIRD IN THE HAND IS WORTH
TWO IN THE BUSH.
८.ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवनिषेवणं नेष्टम्
भालचंद्रो नाम कोऽपि बालो कंचिन्महोत्सवं द्रष्टुकामः किञ्चिन्नगरं प्रस्थितः। वर्त्मनि क्षुधया पिपासया चातीव पीडितोऽभवत्। तडागादीनामभावादुदकमपि तस्य दुर्लभं जातम्। सूर्यातपोऽपि कठोरस्तप्यते स्म। अथ नितान्तं श्रान्तः स कस्यचिदाम्रतरोर्मूलं प्राप्तः। तत्र किञ्चिदाम्रफलं पतितं दृष्ट्वा सतृष्णो जग्राह। तदाघ्रायाम्लरसं मन्वानो वृक्षमवालोकयत्। तत्र तेन श्लाघ्यतमं किंचित् फलं दृष्टम्। ततः स सद्यो हस्तगतं फलं दूरतः प्रक्षिप्य वृक्षाग्रस्थं फलं लक्ष्यीकृत्य पाषाणखण्डानि प्राक्षिपत्। परं सर्वाणि तानि लक्ष्यादपराद्धान्यभवन्। अथातीव श्रान्तः ‘अहो मूढेन मया वृक्षाग्रस्थितं फलमवलोक्य हस्तगतमपि फलं दूरतः प्रक्षिप्तम्। धिगिमां मदीयां बुद्धिम्’ इति वदन् यथेच्छं गतः। अतो यावदध्रुवं वस्तु करगतं न भवति तावद् ध्रुवमर्थं न परित्यजेत्।
कथाकुसुममञ्जरी
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9.THE SELF-WILLED GOAT.
९.स्वेच्छाचारिणोऽजस्य
कश्चिदजः स्वेच्छया चचार। एकदा हलधुरायां नियुक्तं कमप्युक्षाणं विलोक्य तमाह ‘अरे उक्षन्, त्वं स्वामिनः कृते स्कन्धे कुशमूढ्वा यामचतुष्टयमपि हलं चालयसि। ततोऽहं जाने यथा त्वं कोऽपि हीनवृत्तिरतिभारवाहकः सत्त्वोऽसि। पराधीनतैव ते प्रिया। अन्य-
थैवं न व्यधास्यः। पश्य कथमहं कालं नयामि। स्वैरं गच्छामि। शीतलच्छायामध्यासे। नृत्यामि। इतस्तत उत्पतामि। तृषितः सन्नच्छं निर्झरगतं वारि पिबामि। त्वं कलुषमपि जलं न लभसे’ इति। स उक्षा सर्वमप्यवहितेन मनसा शुश्राव। किञ्चिदप्यनुक्त्वा हलकर्षणे भूयः प्रयुक्तः। ततः कियति काले याते ग्रामदेवतामुद्दिश्य कोऽप्युत्सव आजगाम। तस्मिन् दिने तस्याजस्य स्वामी कुसुममालाभिस्तमलङ्कृत्य देवताया उपहारं कर्तुं तमनयत्। तस्य ग्रीवायां यावत्सोऽसिधेनुकां। व्यापारयति तावत्स उक्षा तत्रागत्य तं कर्णे पृच्छति—“रे मूर्ख, किं दृष्टस्तव स्वेच्छाचारस्योदर्कः? अद्ययावत्ते स्वामी यत्त्वां जीवन्तं रक्षितवांस्तदेतदर्थमेव। ब्रह्यधुनाकतरस्यावस्था साधीयसी तव वा मम वा”।
ईसब्नीतिकथाः
10.THE ASS IN THE TIGER’S SKIN.
१०. व्याघ्रचर्मप्रच्छन्नस्यरासभस्य
अस्ति कस्मिंश्चिदधिष्ठाने शुद्धपटो नाम रजकः प्रतिवसति स्म। तस्यैको रासभोऽस्ति। स घासाभावादतिदुर्बलः। अथ तेन रजकेन क्वापि व्याघ्रचर्म प्राप्तम्। ततश्चाचिन्तयत्—अहो शोभनमापतितम्! एतच्चर्म परिधाप्य रासभं रात्रौ क्षेत्रेषुत्सृजामि येन व्याघ्रं मत्वा तं समीपवर्तिनः क्षेत्रान्न निष्कासयन्ति। तथानुष्ठिते रासभो रात्रौ यथेच्छं यवभक्षणं करोति। रात्रिशेषे भूयो रजकस्तं स्वाश्रयं नयति। एवं गच्छता कालेन स रासः पीवरतनुर्जातः। बन्धनमपि कृच्छ्राद् नीयते। अथान्यस्मिन्नहनि स मदोद्धतो दूरादन्यरासभशब्दं शृण्वंस्तारस्वरेण शब्दायितुमारब्धः। अथ ते क्षेत्रपा रासभोऽयं व्याघ्रचर्मप्रतिच्छन्न इति मत्वा लकुटपाषाणशरैस्तं व्यापादितवन्तः।
11.THE RIGHTEOUS KING VIKRAMA.
११.धार्मिकस्य विक्रमस्य राज्ञः
उज्जयिन्यां विक्रमो नाम धार्मिको भूपालो बभूव। तस्य शीलं परीक्षितुं सुरभिर्महीमाजगाम। आगत्य च कुत्रापि तदागमनमार्गे दुर्बला सती महति पङ्के मग्ना परं विषादमभिनयन्ती स्थिता।विक्रमोऽपि तामालोक्य जातकरुणः सद्यः पङ्कमवगाह्य स्वयमेव तां बहिराकृष्य तीरमानयत्। अथ च शुद्धजलैः प्रक्षाल्य घासमुष्टिं दत्त्वा तां कण्डूयनादिभिरुपाचरत्। ततस्तस्याव्याजानुकम्पया प्रीता सा तमाह। भो राजन्, अहं किल सुरभिः। तव धार्मिकतां परीक्षितुं स्वर्गाद् भुवमागता। अनया तव परोपकारदीक्षया परं तुष्टाऽस्मि। वाञ्छितं वरं प्रार्थयस्वेति। अनन्तरं विक्रमस्तां प्रणम्योवाच, भगवति यदि तुष्टाऽसितदद्यारभ्य मम गृहे वस्तुमर्हसीति। तदानीं कामधेनुरपितेथत्युक्त्वा तदाप्रभृति तदीया भूत्वा तस्य गृहे न्यवसत्।
कथामञ्जरी
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12.THE SUN AND THE COLD WIND.
१२.सूर्यहिमवाय्वोः
एकदा सूर्यहिमवायू मम शक्तिरधिका मम शक्तिरधिकेति विवदितुमारेभाते। अत्रान्तरे कंबलवान् कश्चित्पान्थस्तेन पथा गच्छन्नुभाभ्यां ददृशे। तं दृष्ट्वोभावपि सममन्येताम् ‘योऽस्य कम्बलमासयति स एव श्रेयान्’ इति। तदाऽऽदौ हिमवायुरग्रेसरो बभूव। स यथायथा कम्बलमासयितुं प्रबलं वातुं प्रववृते तथातथा स पान्थोऽधिकं स्वकम्बलेन शरीरं प्रावृणोत्। ततो वायुः शश्राम पूषा चाग्रतोऽभवत्। स प्रथमं नमसि विकीर्णानि हिमजनकानि सर्वाण्यभ्राणि व्यलाययत्। हिमं च निरास्यत्। ततः शनैरात्मनश्चण्डकिरणांस्तस्य शरीरे युयोज। अनेन सोऽल्पेनैव कालेनोष्मणा विह्वलो
भूत्वा कम्बलं तत्याज निकटवर्तिन्यां वृक्षवाटिकायां शीतलच्छायां च भेजे।
ईसब्नीतिकथाः
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13.CRANES BRINGING ABOUT THEIR
OWN DESTRUCTION.
१३.आत्मघातिनां बकानाम्
अस्त्युत्तरापथे गृध्रकूटो नाम पर्वतः। तत्रैरावतीतीरे न्यग्रोधपादपे बका निवसन्ति। तस्य वृक्षस्याधस्ताद्विवरे सर्पस्तिष्ठति। स च तेषां बालापत्यानि खादति। अथ शोकार्तानां बकानां विलापं श्रुत्वा केनचिद्बकेनाभिहितम्। एवं कुरुत यूयम्। मत्स्यानादाय नकुलविवरादारभ्य सर्पविवरं यावत् पंक्तिक्रमेणैकैकशो विकीर्य धत्त। ततस्तदाहारलुब्धैर्नकुलैरागत्य सर्पो द्रष्टव्यः स्वभावविद्वेषाद् व्यापादयितव्यश्चेति। तथानुष्ठिते तद् वृत्तम्। ततस्तत्र वृक्षे नकुलैर्बकशावकानां रावः श्रुतः। पश्चात्तैर्वृक्षमारुह्य बकशावकाः खादिताः।
हितोपदेशः
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14.THE CRAFTY MONKEY.
१४.मायाविनो मर्कटस्य
सुमन्दो नाम कोऽपि वृषलः कमपि मर्कटमपोषयत्। स च प्रभूतमाहारमाहरन् पुष्टाङ्गः संजातः। एकदा वृषलस्तेनानुगतः पाथेयं दध्यन्नमादाय कार्यवशेन ग्रामान्तरं प्रस्थितः। मार्गे च क्षुधितस्तडागमेकमपश्यत्। अथ कस्यापि वृक्षस्य मूले पाथेयं निक्षिप्य तडागमवतीर्य दन्तानशोधयत्। अत्रान्तरे स दुष्टमर्कटः पाथेयं निःशेषं भक्षयित्वा हस्तलग्नेन दध्ना समीपे स्थितस्य कस्यचिदजस्य मुखं विलिप्य किमप्यजानान इव दूरे स्थितः। वृषलो दन्तान् विशोध्य यावदागत्य पश्यति तावत्पाथेयं निःशेषं भक्षितं दृष्टम्। अजश्च
दध्ना लिप्तमुखः समीपे स्थितः। अनन्तरं स मूढस्तमेवाजं दधिभक्षकं मन्यमानो दण्डेन प्रहृत्य जीवशेषं तं व्यसृजत्। दुष्टाः स्वयमपराध्य निरपराधं साधुं सापराधं प्रदर्शयन्ति। तच्चाविमर्शिनो मूढा यथावदवगच्छन्ति साधुश्च दण्डमनुभवति।
कथाकुसुममञ्जरी
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15.THE LION AND THE CAT.
१५.सिंहमार्जारयोः
अस्त्युत्तरापथेऽर्बुदशिखरनाम्नि पर्वते महाविक्रमो नाम सिंहः। तस्य पर्वतकंदरमधिशयानस्य केसराग्रं कश्चिन्मूषकः प्रत्यहं छिनत्ति। ततः केसराग्रं लूनं दृष्ट्वा कुपितः पञ्चाननो विवरान्तर्गतमुन्दुरुमलभमानोऽचिन्तयत्। क्षुद्रारातिर्विक्रमान्नैव लभ्यते। तमाहन्तुं तत्सदृशः सैनिकः पुरस्कार्यः। इत्यालोच्य तेन ग्रामं गत्वा दधिकर्णनामा बिडालो यत्नेनानीय मांसाहारं दत्त्वा स्वगुहायां स्थापितः। अनन्तरं तद्भयादाखुरपि बिलान्न निःसरति। तेनासौ मृगेन्द्रोऽक्षतकेसरः सुखं स्वपिति। मूषकशब्दं यदायदा शृणोति तदातदा सविशेषं पललाहारदानेन तं मार्जारं संवर्धयति। अथैकदा स आखुः क्षुधापीडितो बहिः सञ्चरन् बिडालेन प्राप्तो व्यापादितश्च। अनन्तरं स सिंहो यदा कदाचिदपि तस्य मूषकस्य शब्दं विवरान्न शुश्राव तदोपयोगाभावाद्बिडालस्याप्याहारदाने मन्दादरो बभूव। ततोऽसावाहारविरहाद्दधिकर्णोऽवसन्नो बभूव।
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16.THE PEACOCK DISCONTENTED WITH
HIS HARSH VOICE.
१६.स्वशब्दकार्कश्येन खिन्नस्य मयूरस्य
एकदा मयूरस्य स्वशब्दः कर्कशः इति महान् खेदो बभूव। ततस्तेन सरस्वती प्रार्थिता। भोः कारुणिके देवि, तव वाहनभूतोऽहं
स्वरे पिकेन जेतव्य इतीदं त्वत्कीर्तेर्दूषणम्। पश्य कोकिले कूजितुं प्रवृत्ते निखिला लोका एकताना भवन्ति। किन्तु कूजनार्थमाननं विकासयन्तं मामुपहसन्ति। एवं बर्हिणः प्रार्थनां श्रुत्वा देवी समादधाति। भो नीलकण्ठ परभृतो मधुरेण स्वरेण सुखीति मन्यसे तर्हि लावण्येन महत्त्वेन च त्वमपि तथैवेति। बर्हिणस्तामाह, भगवति सरस्वति, वाचि माधुर्यं न चेत्केवलेनाङ्गलावण्येन किम्? देवी प्रतिबभाषे, रे भुजङ्गभुक्, तुभ्यं सौंदर्यं, गरुडाय बलं, कोकिलाय सुस्वरः, कीराय मनुजवाक्, पारावताय शान्तिरितीश्वरेणैकैकं प्रति गुणो दत्त एकैकः। यथेमे विहगाः स्वस्वगुणेनैव तुष्टास्तथा त्वयाऽपि तुष्टेन भवितव्यम्। नोचेत्फलशून्यामाशां संवर्द्ध्यस्वयं दुःखभारभविष्यसीति।
संस्कृतेसब्नीतिपुस्तकम्
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- THE LION AND THE MOUSE.
१७. सिंहमूषकयोः
कश्चित्सिंहो ग्रीष्मसमये वने प्रच्छायशीतले रसालतले सुखं सुष्वाप। तत्र बहवो मूषकास्तमर्दयामासुः। तैरुपद्भुतः प्रबुध्य यावदितस्ततो विलोकयति तावदेकं मूषकमीक्षांचक्रे। तं करे धृत्वा यावद्विदारयितुं प्रवृत्तस्तावत्स आखुर्दैन्यपरीतः सप्रश्रयमूचे। भोः स्वामिन् विक्रान्तस्त्वम् मृगाधिपः। अहं तु भवत्पुरोऽतीव रङ्कः। किं मे स्नाऽऽत्मनः करं दूषयसि। मह्यं प्राणदानमेव कर्तुं स्वाम्यर्हति। एतानि चान्यानि च करुणवचनानि श्रुत्वा सिंहस्तस्य दयाञ्चक्रेतं चामुञ्चत्। कालेन स एवसिंहो वनेऽटंस्तस्यैवाम्रवृक्षस्य निकटे मृगयुप्रसारिते जाले निपपात। तदाखिलसारव्ययेनापि मोचयितुमात्मानं न शशाक। ततो भग्नाशो भूत्वोज्जगर्ज। श्रवणपथगतायां तस्यां गर्जनायां पूर्वोपकृतो मूषको द्रुततरमागत्य जगाद, राजन् न
भेतव्यम्। अयमस्मि किङ्करः। स्वस्थ एधि। एवमुक्त्वा स्वदशनैर्जालग्रन्थीनाशु चिच्छेद सिंहं च मोचयामास।
प्रभूणामल्पैरपि प्रयोजनमस्त्येव। अल्पा अपि महत् कार्यं साधयन्ति। अतः प्रभव आत्मभुजपालितेषूपजीविषु दयामेव कुर्युः। अभ्युदये यदि वयं जनानुपकुर्याम तर्हि तेऽपि विपद्यस्मानुपकुर्युः। यद्यपि सर्वे कृतज्ञा न भवन्ति तथापि तेषां कश्चिदुत्पद्येत यस्य साहाय्येनास्माकं संकटानि नश्येयुः।
ईसब्नीतिकथाः
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- THE ASS AND THE DOG.
१८. कुक्कुरगर्दभयोः
अस्ति वाराणस्यां कर्पूरपटको नाम रजकः। स चैकदा निशीथसमये गाढनिद्रामापन्नः। तदानीं तद्गृहद्रविणं हर्तुं चौरः प्रविष्टः। तस्य प्राङ्गणे गर्दभो बद्धस्तिष्ठति कुक्कुरश्चोपविष्टोऽस्ति। अथ गर्दभः श्वानमाह। सखे भवतस्तावदयं व्यापारः। तत्किमिति त्वमुच्चैः शब्दं कृत्वा स्वामिनं न जागरयसि? कुक्कुरो ब्रूते। भद्र मम नियोगस्य चर्चा त्वया न कर्तव्या। त्वमेव किन्न जानासि यथा तस्याहर्निशं गृहरक्षां करोमि? यतोऽयं चिरान्निर्वृतो ममोपयोगं न जानाति तेनाधुना ममाहारदाने मन्दादरः। असति विधुरदर्शने स्वामिन उपजीविषु मन्दादरा भवन्ति। गर्दभो ब्रूते, शृणु रे बर्बर। कार्यकाले यो धनिनं द्रव्यादि याचते स किंभृत्यः। कुक्कुरो ब्रवीति। यस्तु कार्यकाले भृत्यान् संभाषेत स किंप्रभुरस्ति। ततो गर्दभः सकोपमाह। अरे दुष्टमते पापीयांस्त्वम्, यद्विपत्तौ स्वामिकार्योपेक्षां करोषि। भवतु तावत्। यथा स्वामी जागरिष्यति तन्मया कर्तव्यम्। यतो
भृत्यः स्वामिनं सर्वभावेन सेवेतेत्युक्तम्। इत्युक्त्वोच्चैश्चीत्कारशब्दं कृतवान्। ततः स रजकस्तेन चीत्कारेण प्रबुद्धो निद्राभङ्गामर्षादुत्थाय गर्दभं लगुडेन ताडयामास।
हितोपदेशः
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- SALUTATION TO THE GODDESS OF
LEARNING
१९. वाग्देवीवन्दनम्
तद्दिव्यमव्ययं धाम सारस्वतमुपास्महे।
यत्प्रसादात्प्रलीयन्ते मोहान्धतमसच्छटाः॥१॥
शारदा शारदाम्भोजवदना वदनाम्बुजे।
सर्वदा सर्वदाऽस्माकं सन्निधिं सन्निधिं क्रियात्॥२॥
करबदरसदृशमखिलं भुवनतलं यत्प्रसादतः कवयः।
पश्यन्ति सूक्ष्ममतयः सा जयति सरस्वती देवी॥३॥
शरणं करवाणि शर्मदं ते, चरणं वाणि चराचरोपजीव्यम्।
करुणामसृणैः कटाक्षपातैः, कुरु मामम्ब कृतार्थसार्थवाहम्॥४॥
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥५॥
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- THE FOX AND THE ELEPHANT.
२०. हस्तिशृगालयोः
अस्ति ब्रह्मारण्ये कर्पूरतिलको नाम हस्ती। तमवलोक्य सर्वे शृगालाश्चिन्तयन्ति स्म। यद्ययं केनाप्युपायेन म्रियते तदास्माकमेतद्देहेन मासचतुष्टयस्य भोजनं भविष्यति। तदैकेन वृद्धशृगालेन
प्रतिज्ञातम्। मया बुद्धिप्रभावादस्य मरणं साधयितव्यम्। अनन्तरं स वञ्चकः कर्पूरतिलकसमीपं गत्वा साष्टाङ्गपातं प्रणम्योवाच। देव दृष्टिप्रसादं कुरु। हस्ती ब्रूते कस्त्वम्, कुतः समायातः? सोऽवदज्जम्बूकोऽहम्। सर्वैर्वनवासिभिः पशुभिर्मिलित्वा भवत्सकाशं प्रस्थापितः। यद्विना राज्ञावस्थातुं न युक्तम्, तदत्राटवीराज्येऽभिषेक्तुं भवान् सर्वस्वामिगुणोपेतो निरूपितः। तद्यथा लग्नवेला न विचलति तथा कृत्वा सत्वरमागम्यतां देवेन। इत्युक्त्वोत्थाय चलितः। ततोऽसौ राज्यलोभाकृष्टः कर्पूरतिलकः शृगालवर्त्मना धावन् महापङ्के निमग्नः। ततस्तेन गजेनोक्तम्। सखे शृगाल, किमधुना विधेयम्? पङ्के निपतितोऽहं म्रिये। परावृत्य पश्य। क्रोष्टुना विहस्य भाषितम्। देव मम पुच्छकावलम्बनं कृत्वोत्तिष्ट। यन्मद्विधस्य वचसि त्वया प्रत्ययः कृतस्तदनुभूयतामशरणं दुःखम्। ततो महापङ्के निमग्नः करी फेरवैर्भक्षितः।
हितोपदेशः
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- THE FROGS ASKING FOK A KING.
२१. राजार्थिनां भेकानाम्
कस्मिंश्चित्कासारे निवसन्तो भेका एकदा समेत्य मन्त्रयाञ्चक्रिरे नैतद्युक्तं यद्वयं स्वैरं चरामो यथेष्टं कुर्मश्च। यद्यस्माकं कोऽपि स्वामी स्यात्तर्हि समीचीनं भवेत्। यतस्तस्य तन्त्रे वयं वर्तिष्यामहे। ततः सर्वे मिलित्वा विष्णुं प्रार्थयाञ्चक्रिरे। ‘भो भगवन् राजानं देहि’ इति। विष्णुरपि तेषां वचोऽङ्गीकृत्य गृह्णीतेत्याभाष्य दारुखण्डमेकं वियतोऽपातयत्। तस्मिन् पतिते तदाघातेनासमन्ताज्जलमालोडितं महाञ् शब्दश्चाभवत्। भीतिग्रस्तास्ते तस्मादारान्नेयुः। कतिपयैः क्षणै-
स्तन्निश्चलं बभूव। ततो निश्चेष्टं दृष्ट्वा शनैःशनैस्तदुपजग्मुस्तदारुरुहुस्तेन सह चिक्रीडुश्च। तदा ‘अचेतनोऽयं राजा नापेक्षितः। अस्मात्साधुतरो राजा याचनीयः’ इति मिथः संमन्त्र्य भूयोऽपि विष्णुं तुष्टुवुः। ततो विष्णुः क्रौञ्चं प्रेषयामास। स आगत एव मण्डूकान् विदार्यात्तुमारेभे। तदा सकलकुलनाशमसहमानाः पुनर्विष्णुं प्रार्थितवन्तः। ‘इतोऽन्यः कश्चिद्राजा प्रेष्यताम्। नोचेत् पूर्वावस्थाभाजो वयं विधेयाः’इति। विष्णुस्तच्छ्रुत्वोवाच। ‘नाहमिदानीमेवंकरोमि। यो मया प्रथमं दत्तः स वो नारोचत। अतः स्वापराधस्य फलं भुज्यताम्’ इति। तात्पर्यम्—यस्यां स्थितौ भगवान् कमपि स्थापयति सा तेन न गर्हणीयान्या च न वाञ्छनीया। वाञ्छिता चेद्यादृशीमाप्नुयात्तादृशीमपभुञ्जीत। तत्र भगवन्तं नोपालभेत। एकं राजानमप्रियं मत्वान्यमिच्छन्ति ते तस्यैव वशे व्रजन्ति। यदि सोऽर्दयति तर्हि कस्तत्रोपालभ्यः।
ईसब्नीतिकथाः
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22 THE BEE AND THE ANT.
२२. मक्षिकापिपीलिकयोः
एकदा स्वस्वमहत्त्वविषये मक्षिकापिपीलिकयोर्महान्संघर्षः समपद्यत। मक्षिका पिपीलिकामगदत्। ‘अये मम महत्त्वविषये न कोऽपि सन्देग्धि। पश्य यागादिषु यद्वस्तुजातं संचीयते तत्प्रथममहमास्वादे, ततो देवताः। देवमन्दिरेषु यदुन्नतं स्थानं तन्मदीयम्। तत्र यावती मे स्थितिस्तावती न कस्यापि। राजसभां यातीं न कोऽपि मां प्रतिबध्नाति। अहं राज्ञोंऽसे निषीदामि। स्वैरमहमायासैर्विनायथेप्सितं भक्षयामि पिबाम्युपभुञ्जे च,। एवंविधया मया-
तीव दीना त्वं सादृश्यं कथमिच्छसि?’। पिपीलिका निखिलं तद्वचोऽवधार्य प्रत्युवाच। ‘अये, अपि शृणोषि? महतां गृहेऽभ्यवहारो भूषणं सति निमन्त्रणे। परं लोकैर्धिक्कृता निःसारिताऽपि त्वं पात्रान्निस्त्रपा सती न निष्क्रामसि। त्वं प्रगल्भं वदसि यदहं राजकुलं व्रजामि राज्ञोंऽसे वसामीति। तत्रापि शृणु। मिथ्यावादोऽयम्। यतोऽहं पूर्वमेकदा धान्यकणानादाय गृहं प्रस्थिता युष्मज्जातीयामेकां यन्नाम ग्रहीतुमपि वाङ् न प्रसरति तादृग्वस्तुनि समासीनातदास्वादनलोलुपामालोकितवती। यत्त्वमात्थ देवमन्दिरेऽहं चिरं निवसामीति तत्राप्यवधारय तस्य हेतुम्। न ते गृहम्। न कश्चिदुद्योगः। अतः कालं नेतुं त्वं तत्र वससि। त्वमहमिव निदाघकाले धान्यं न संगृह्णासि। अतो हेमन्ते निरशनेन म्रियसे। वयं तूद्यमिन्योऽतस्तेष्वेव दिवसेषु खाद्यपेयैरुष्णगृहनिवासेन च सुखं जीवामः’।
ईसब्नीतिकथाः
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- KNOWLEDGE IS POWER.
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य
अस्ति मन्दरनाम्नि पर्वते दुर्दान्तो नाम सिंहः। स च सर्वदा पशूनां वधं कुर्वन्नास्ते। ततः सर्वैः पशुभिर्मिलित्वा स सिंहो विज्ञप्तः। मृगेन्द्र किमर्थमेकदा बहुपशुघातः क्रियते? यदि प्रसादो भवति तदा वयमेव भवदाहारार्थं प्रत्यहमेकैकं पशुमुपढौकयामः। ततः प्रभृत्येकैकं पशुमुपकल्पितं भक्षयन्नास्ते। अथ कदाचित् कस्यचिद् वृद्धशशकस्य वारः समायातः। सोऽचिन्तयत्। यद्यहं पञ्चत्वं गमिष्यामि तत् किं मे सिंहानुनयेन। तन्मन्दंमन्दं गच्छामि। ततः सिंहोऽपि क्षुधापीडितः कोपात्तमुवाच। कुतस्त्वं विलम्बादागतोऽसि। शशकोऽब्रवीत्। देव नाहमपराधी। आगच्छन् पथि सिंहान्तरेण बलाद् धृतः।
तस्याग्रे पुनरागमनाय शपथं कृत्वा स्वामिने निवेदयितुमत्रागतोऽस्मि।सिंहः सकोपमाह। सत्वरंगत्वा दुरात्मानं दर्शय। क्व सदुरात्मा तिष्ठति?ततः शशकस्तं गृहीत्वा तस्मै गभीरकूषं दर्शयितुं गतः।अत्रागत्य स्वयमेव स्वामी पश्यतु।इत्युक्त्वा तस्मिन् कूपजले तस्यैव सिंहस्य प्रतिबिम्बं दर्शितवान्। ततोऽसौक्रोधाध्मातो दर्पात्तस्योपर्यात्मानं निक्षिप्य पञ्चत्वं गतः।
हितोपदेशः
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24.THE BOASTING TRAVELLER
२४.कत्थनशीलस्य पथिकस्य
कश्चित्पुरुषश्चिरभ्रान्तभूवलयःस्वं पुरं न्यवर्तत। स देशान्तरेषु यानि कौतुकानि ददर्शतानि संस्तुतजनेभ्योऽयथातथं वर्णयामास। कथाप्रसंगेनानर्थभाषी सः ‘अलकापुरीं गतोऽस्मि।तत्रत्याः पञ्चदशहस्तानुत्पतन्ति।परन्तु यदा मया सह ते पणमकुर्वत तदाहमिव न कोऽप्युदपतत्’इति जजल्प। समीपस्था जनास्तु नेदं परमार्थेन जगृहुः।तद् दृष्टवा स तान् प्रत्याययितुं बहूञ् शशपथानकरोत् सुभाषितानि च दृढीकरणार्थं युयोज।अत्रान्तरे तेषामेको वदति ‘आर्यकिमिति कृच्छ्र आत्मानं पातयसि? प्रकोष्ठे धृतस्य पारिहार्यस्य ज्ञाने किमादर्शेन प्रयोजनम्?किमित्यस्मभ्यमधुना प्रत्यक्षं न दर्शयसि? अलकापुरस्थितमात्मानं भावय। यथा च तत्रोदपतस्तथा भूयोऽप्यत्र किन्नोत्पतसि?’ विकत्थनपराय तन्नारोचत। ततः स विलक्षो भूत्वा तूष्णीं बभूव।
ईसब्नीतिकथाः
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25.THE LAMB AND THE WOLF.
२५.अजवृकयोः
एकदा धर्मकाल आतपक्लान्त एकोऽजशिशुः पिपासार्दित भूत्वा जलं पातुमदूरवर्तिनीमल्पसतिमगच्छत्।तत्रोन्नतप्रदेशे जलंपिबन्तं
वृकमीक्षित्वा निम्नप्रदेशभाग्जलमादातुमारेभे।वृकस्तु दूरात्तं दृष्ट्वा केनापि निमित्तेन कलहं समुत्पाद्याहमेनंभक्षयामीति मनसि चकार। ततस्तमभिगत्योचे।‘आः पाप! कथं मया तृट्शमः कर्तव्यो यद्येवं जलमाविलयसि?किन्निमित्तोऽयमनुचितारम्भ इति तूर्णंनिवेदय। नो चेद्वध्यो भवसि’। भीतः सोऽजशिशुः सविनयमवदत्। ‘भो वृकश्रेष्ठ, यदत्रभवान् वदति तत्कथं भवेत्? त्वत्तो यज्जलंवहति तदहं पिबामि। एवं स्थिते मया कलुषितं जलंप्रतीपं त्वां कथं प्रवहेत्?’। वृकोऽवदत् ‘अस्तु नामैतत्। त्वमधमोऽसि। षण्मासात्प्राङ्मांत्वमशप इत्यहमशृणवम्’। सशिशुःप्रत्यवदत् ‘हा कष्टम्! कथमस्य संभवः?यस्य जातस्यमम मासत्रयमपि न पूर्णं सोऽहं षण्मासात्प्राग्भवन्तमशपमिति कथं संभवेत्?’वृकोऽत्रापि निरुत्तरोऽभवत्। ततो महताऽऽवेशेन नेत्रे विस्फार्यदन्तैर्दन्तान् विघट्टन् पादाघातैर्भुवंकम्पयन्निव तमुपसंगम्य तारस्वरेणोवाच। ‘भो दास्याःपुत्र,त्वंयदि नाशपस्तर्हिशप्त्रा तव पित्रा भाव्यम्। नो विशेषः’। एवमुक्त्वा स तंदीनमहन्। तात्पर्यम्—दुष्टाशयवतो बलवतोऽग्रेसत्यं मां त्रास्यत इति कत्वा दुर्बलो न तिष्ठेत्।
—ईसब्नीतिकथाः
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26.THE STAG AT THE POOL.
२६. जले पश्यन्त्याः शम्बर्याः
काऽपि शम्बरी नदीजलं पिबन्त्यम्भसि प्रतिबिम्बितमात्मनो रूपं दृष्ट्वा परां मुदमवाप। ततः पादप्रभृति शिरःपर्यन्तं सर्वावयवानेकैकशो निरूपयन्त्युवाच। ‘ममाननस्य शोभयित्रेतद्विषाणयुगलंमे शिरसि कियन्मनोहरमस्ति?अहो रुचिरे मे नयने याभ्यांकमलान्यप्यधःक्रियन्ते!अहो मेऽङ्गं कुसुमसदृशम्! किन्तु, इमे पादा
मे लज्जामावहन्ति! एते कृशा दुर्दर्शनाश्च विद्यन्ते। एषामभावोऽपि श्रेयान्!’एवं विचिन्तयन्त्यां पादवैरूप्यविषये दुर्मनायमानायां तस्यां व्याधाः समापेतुः। तदागमनं परिज्ञाय सा पलायत। तेऽपि तामन्वसरन्। ततस्तान् वञ्चयितुमपथेन गन्तुं प्रवृत्ता सा शाखालग्नाभ्यां शृङ्गाभ्यां रुद्धा सती पपात। अनुपदं धावद्भिः सन्निकर्षवर्तिभिस्तैरपि सा सद्योऽहन्यत। तदा सा मनस्युवाच। ‘कष्टम् कष्टम्! ये मे हीनत्वमानयन्तीत्यहमब्रवं तेऽस्मिन्कृच्छ्रे मामरक्षन्। परं यन्निमित्तो ममाहङ्कारो जातस्तदेव नाशायाभवत्’।
—ईसब्नीतिकथाः
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- THE TWO BITCHES.
२७. शुन्योः
काचित् प्रसवोन्मुखी शुन्यपरां प्रार्थयाञ्चक्रे। ‘आर्येतव मन्दिरं मह्यमेकमासं वस्तुं देहि। प्रसवादूर्ध्वं तद् भवदधीनं करिष्ये’। सा तथेत्युक्त्वा स्ववेश्म गृहोपस्करं बहिर्नीत्वा तन्निध्नमकरोत्। ततो मासि याते गृहस्वामिनी शुनी प्रसूतां शुनीं सुखं प्रष्टुमागता सप्रश्रयमुवाच। ‘भवति, अविकलैरवयवैः प्रसूतिवेदना भवत्योत्तीर्णेति तोषमाप्नवम्। अधुना बालकैः सह हिण्डमानां बहिश्चरन्तीं भवतीं कदा द्रक्ष्यामीत्युत्कण्ठितं मे चेतः।’तस्या आशयं विदित्वा प्रसूता शुनी तां प्रतिबभाषे। ‘लज्जेऽहं खलु यन्मया भवत्या गेहं बहुकालमध्युषितम्। अनेन मे वासेन भवती बलवदक्लिश्यत। परं का गतिः? मम शिशवो लघुत्वान्मामनुप्रयातुमशक्ताः। अतः पक्षपर्यन्तं यदि कृपया गेहे वासं दास्यस्युपकृता भवामि’। गृहस्वामिनी शालीनतया पक्षावधिकं वासमन्वमन्यत। पक्षे गतेऽपि सा गृहं नामुञ्चत्। तदा सा-
ऽपरा भूयोऽप्युवाच। ‘यत्त्वं गृहान्न निर्गच्छसि तत् किं प्रसह्यनिर्वासनमिच्छसि? अधुना मे गृहे वास इष्टः’। तच्छ्रुत्वा प्रसूता शुन्याह। ‘किं त्वं हठान्मां निर्वासयितुमिच्छसि? निर्वासय मां तर्हि यदि शक्नोषि। व्यक्तमहं कथयामि बलात्कारेणानिर्वासिताऽहं गेहं त्वदायत्तं नैव करोमि’। तात्पर्यम्—यस्याधीनं किमपि वस्तु स एव तस्य स्वामी भवति। अतो यो न विश्वसनीयोऽथवा यो वञ्चक इति संदिह्यते तस्मा उपभोगार्थं दानं बुद्धिमान्यम्।
—ईसब्नीतिकथाः
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- A CLEVER REPLY.
२८. विदग्धं प्रतिवचनम्
कदाचिद्राजा बहिरुद्यानं मध्येमार्गं प्रत्यागच्छन्तं कमपि विप्रं ददर्श। तस्य करे चर्ममयं कमण्डलुं वीक्ष्य तं चातिदरिद्रं ज्ञात्वा मुखश्रिया विराजमानं चावलोक्य तुरगं तदग्रे निधायाह। विप्र, चर्मपात्रं किमर्थं पाणौ वहसीति। स च विप्रो नूनं मुखशोभया मृदूक्त्या च तं भोज इति विचार्याह। देव, वदान्यशिरोमणौभोजे पृथिवीं शासति लोहताम्राभावः समजायत। तेन चर्ममयं पात्रं वहामीति। राजाह—भोजे शासति लोहताम्राभावे को हेतुः? तदाविप्रः पठति—
तस्य श्रीभोजराजस्य द्वयमेत्र सुदुर्लभम्।
शत्रूणां शृङ्खलैर्लोहं ताम्रं शासनपत्रकैः॥१॥
—Bombay Matriculation Paper, 1876.
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- UNION IS STRENGTH.
२९. संहतिः कार्यसाधिका
अथ कदाचिदासन्ननिधनो महर्षिस्तनयान् समाहूयादिदेश। भोः पुत्राः शरभारमाहरतेति। तथानुष्ठितेऽसौ बभाषे। युष्माभिरेकैकशोऽयं संघातो भङ्क्तव्य इति। तेषु न कोऽपि तत्कर्तुं शशाक। तदनु स महर्षिस्तान् बाणान् वियुयोज। यूयमेकैकं बाणं पृथक् पृथक् भङ्क्तेति स उवाच। तैस्तदानीं सर्वेंऽपि शरा लीलया भग्ना इत्यालोक्य स प्राह। वत्साः, यावद्यूयं समस्तास्तावदरिरपि युष्माकं भेदनाय नालम्। व्यस्ताश्चेद्यूयं हेलया विनश्येत। अतः संहतिः कार्यसाधिकेति कविवचो मनसि निधाय तदनुरोधेन सर्वदा वर्तितव्यमित्येव मदुपदेशतात्पर्यम्।
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- A STRANGE BOON ASKED FOR.
३०. विलक्षणवरप्रार्थना
एकदा मृन्मयपात्रजीर्णकम्बलधनः कश्चिदन्धो देवायतनं जगाम। तत्र च केवलनैराश्यात् सर्वदोपासनापरायणो भूत्वा सर्वथाऽनशनेन कष्टमयजीवितत्यागे मतिं चकार। प्रीतो देवस्तस्याविर्बभूव वरं वृणीष्वेति च तमुवाच। कस्त्वमिति सोऽन्धो विदग्धवत् तं पप्रच्छ। महादेवोऽहमिति तेन प्रत्युक्तः पुनर्बभाषे। यावदहं त्वां प्रत्यक्षीकर्तुमक्षमस्तावत् कथं मया तव वचसि विश्वासः कर्तव्य इति। क्षणादेव तस्य दृष्टिः प्रत्यर्पिता देवेन। जानुनी क्षितितले निधाय सोऽहं राजाधिकारमनुभवन्तं नप्तारं द्रष्टुं जीवेयमिति ययाचे। एवं स एकेनैव वरेण दृष्टिं दीर्घमायुः सम्पदं चाप्तवान्।
— Solutions of Sanskrit Papers.
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- UNCOMMON DEVOTION TO HUSBAND.
३१. अलौकिकी पतिभक्तिः
अथ कदाचिन्नरमणिर्मृगयां कर्तुंवनमियाय। तत्र च श्वापदं प्रतीक्षमाणं प्रच्छन्नं कञ्चिद् व्याधं दृष्टवान्। अचिरादेवैकः कृष्णसर्पस्तमदशत्। स मृगयुश्च तदनन्तरं विषवेगवशात् पञ्चत्वं गतः। असौ राजा तु वर्तिष्यमाणं वृत्तान्तं निपुणं निरूपयन्निश्चलस्तस्थौ। अल्पेनैव कालेन निजभर्तारमन्विष्यन्ती लुब्धकभार्या तत्राजगाम। भूमावुपरतमवस्थितं च तमालोकितवती। तदवस्थं दयितं समीक्ष्य सा शोकावेगमसहमाना मुक्तकण्ठं सुचिरं रुरोद। अनन्तरं काष्ठानिसमाहृत्य वल्लभशरीरमग्निसात्कर्तुं चितां विरचयामास। शवे दह्यमाने साऽऽत्मनः शरीरान्मांसपिण्डांछित्त्वा प्रज्वलितायां चितायामक्षिपत् परलोकनवप्रवासिनः प्रियस्य पदवीमनुजिगमिषुरचिरान्ममार च।
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- THE STORY OF SHREERAMA
३२. श्रीरामचरितम्
श्रीमद्भास्वत्कुलोत्पन्नस्य राज्ञो दशरथस्य भगवानब्जनाभो रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नरूपेण पुत्रत्वमाययौ। रामोऽपि बाल एव विश्वामित्रयज्ञरक्षणाय गच्छंस्ताटकां जघान। यज्ञे च मारीचमिषुणाऽऽहत्य दूरं चिक्षेप सुबाहुप्रमुखांश्च क्षयमनयत्। दर्शनमात्रेणैवाहल्यामध्वनि कृतार्थांचकार। जनकगृहे च माहेश्वरं चापमनायासेनैव बभञ्ज। जनकराजतनयां वीर्यशुल्कां सीतां भार्यां लेभे। सकलक्षत्रक्षयकारिणमशेषहैहयकुलधूमकेतुभूतं च परशुराममपास्तवीर्यबलावलेपं चक्रे। पितृवचनाच्चागणितराज्याभिलाषो भ्रात्रा सौमित्रिणा जायया च जानक्या समन्वितो वनं विवेश। विराधखरदुषणादीन् कबन्धवालिनौ च जघान। बद्ध्वा चाम्भोनिधिमशेषरक्षः-
कुलक्षयं च कृत्वा दशाननाहृतां तद्वधापहृतकलङ्कामनलप्रवेशशुद्धामशेषामरसंस्तूयमानां वैदेहीमयोध्यामानिन्ये। तत्र राज्येऽभिषिक्तो बन्धुसहायो प्रजारञ्जनदीक्षितो दीर्घं कालं राज्यधुरां नयेनोवाह।
—विष्णुपुराणम्.
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- VERSES IN PRAISE OF LEARNING.
३३. विद्याप्रशंसा
अपूर्वः कोऽपि कोशोऽयं विद्यते तव भारति।
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति संचयात्॥१॥
अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम्।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः॥२॥
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
अहार्यत्वादनर्घ्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा॥३॥
हर्तुर्न गोचरं याति दत्ता भवति विस्तृता।
कल्पान्तेऽपि न या नश्येत् किमन्यद्विद्यया समम्॥४॥
सद्विद्या यदि का चिन्ता वराकोदरपूरणे।
शुकोऽप्यशनमाप्नोति रामरामेति च ब्रुवन्॥५॥
न चोरहार्यं न च राजहार्यं, न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।
व्यये कृते वर्धत एव नित्यं, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्॥६॥
मातेव रक्षति पितेव हिते नियुङ्क्ते
कान्तेव चापि रमयत्यपनीय खेदम्।
लक्ष्मीं तनोति वितनोति च दिक्षु कीर्तिम्
किंकिं न साधयति कल्पलतेव विद्या॥७॥
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम्
विद्या भोगकरी यशःसुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम्
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः॥८॥
—सुभाषितरत्नाकरः
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- A BIRD CAUGHT IN A NET.
३४. जाले गृहीतस्य पक्षिणः
कतिपयैरहोभिरहमात्मानं सञ्जातपक्षपुटमपश्यम्। उदङ्मुखश्च वियति समुत्पतनमारब्धवान्। अचिरादध्वखिन्नस्य मम विश्रामोऽवश्यकर्तव्यतामापतितः। द्रुमशाखायां सुप्तप्रतिबोधितोऽहमात्मानं जाले गृहीतमैक्षे। मम पुरस्तात् कञ्चिद्वनचरं पुरुषं तिष्ठन्तमवालोकयम्। तमहमपृच्छं च। भद्र कस्त्वम्? किमिति त्वयाहं जाले गृहीतः? यद्यामिषतृष्णया तर्हि सुप्तस्यैव मम प्राणान् किन्नापाहरः? अहं तव किमपि विप्रियं नाकरवम्। किमर्थं त्वं कुतूहलैकवशो म बन्दिजनदुःखमनुभावयसि? मयि दयां कुरु। मुञ्च माम्। वल्लभजनं द्रष्टुकामेन मया दीर्घप्रवासोऽङ्गीकृतः। कालान्तराक्षमं मे हृदयम्। विहङ्गमस्यैनं करुणालापं निशम्यार्द्रान्तःकरणः स पुरुषस्तं झटिति मोचयामास। विहगस्तु परमां मुदं निर्विशन्नम्बरपथं स्वच्छन्दं विचरति स्म।
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- LEARNING WITHOUT STUDY IS LIKE
WRITING WITHOUT LETTERS.
३५. अनक्षरो लिपिन्यासो यद्विद्याध्ययनं विना।
आसीद् वाराणस्यां भार्गवो नाम कश्चिद् द्विजः। स पित्रा क्लिश्यमानोऽपि शैशवे विद्यां नाध्यैत। अनन्तरं सर्वैर्गर्ह्यमाणोऽनुशया-
न्वितो विद्यासिद्धये तपस्तप्तुं गङ्गातटं ययौ। आश्रितोग्रतपसं वारयिष्यन्निन्द्रस्तं द्विजच्छद्मनोपससर्प। आसीनश्च तटात् सिकता उद्धृत्योद्धृत्य सोर्मिणि वारिणि पश्यतस्तस्य चिक्षेप। तद् दृष्ट्वा मुक्तमौनो भार्गवोऽश्रान्तः किमिदं करोषीति सकौतुकं तं पप्रच्छ। निर्बंधपृष्टः शक्रोऽवदत्। प्राणिनां ताराय गङ्गायाः सेतुं बध्नामीति। ततो भार्गवोऽब्रवीत्। अहो मौर्खम्! ओघहार्याभिः सिकताभिः किं कदाचन गङ्गायाः सेतुर्बध्यत इति। तच्छ्रुत्वेन्द्र उवाच। एवंवित्त्वं विना पाठं विना श्रुतं केवलैर्ब्रतोपवासाद्यैर्विद्यां साधयितुं कस्मादुद्यतोऽसि ?
इयं शशविषाणेच्छा व्योम्नि वा चित्रकल्पना।
अनक्षरो लिपिन्यासो यद्विद्याध्ययनं विना॥
एवं यदि भवेन्न कोऽप्यधीयीतेति। एवमुक्तः स द्विजो विचार्य तपसो विरराम।
—Bombay Matriculation Paper, 1892.
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- A KIND-HEARTED GIRL.
३६. भूतानुकम्पिन्याः कन्यकायाः
अङ्गीकृतदीर्घप्रवासः कश्चित्पथिकोऽध्वन्येकां वापीं प्राप्तः। तत्र च सलिलमुदञ्चन्तीं काञ्चिद् बालिकां ददर्श। पिपासार्दितस्तां स गण्डूषमात्रं पयो ययाचे। स तस्मै पूर्णमुदकुम्भं ददे। उवाच च, अत्रभवाञ् जलं पिबतु। अवसिते जलपाने भवदधिष्ठितस्य पशोः कृतेऽहं जलमुद्ग्रहीष्यामि। एवमुक्तः स वारि पपौ। पश्चात् सा पशुमपि तोयं पाययामास। अनन्तरं निर्गमिष्यन् स तामभिदधे। वत्से भगवत्याअरुन्धत्याः पदं त्वयानुविहितम्। सा सस्मितमुवाच। अस्त्वेतत् किन्तु सर्वभूतानुकम्पिनां महानुभावानां मुनीनां मार्गो नादृतो भगवता। स तां प्रतिबभाषे। जाते राजतात् काञ्चनादपि च
चारुतरैराभरणैरलंकृताऽसीति मन्ये। भूयात्ते दीर्घमायुर्वर्धतां चेयं तव कल्याणिनी प्रवृत्तिः !
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- THE POWER OF PENANCE.
३७. तपसः प्रभावः।
आसीद् भुवि प्रथितो गाधिर्नाम महान् क्षत्रियः। तस्य पुत्रः प्रतापवान् विश्वामित्रो बभूव। अथ स तनयमभिषिच्य राज्ये महातपा देहन्यासे मनश्चक्रे। तदानीं प्रजाः प्रणतास्तमूचुः। हे महाप्राज्ञ न गन्तव्यमरण्याय तपसे। अस्मान्रक्षोभयात् त्रायस्व। एवमुक्तो गाधिः प्रकृतीः प्रत्यभाषत। ‘मम सुतो विश्वस्य गोप्ता भविष्यति’इति। ततो नृपतिर्विंश्वामित्रं निवेश्य राजपदे त्रिदिवं जगाम। अनन्तर नरपतिर्विंश्वामित्रो राक्षसेभ्यो महाभयं शुश्राव। नगराच्चतुरङ्गबलान्वितो निर्ययौ। दूरमध्वानं यात्वा वसिष्ठाश्रममभ्यगच्छत्। तस्य सैनिकास्तत्र बहूनालयांश्चक्रुः। अथ ब्रह्मण आत्मजो भगवान् वसिष्ठः सकलं तपोवनं भज्यमानं ददर्श। गाधिजन्मने क्रुद्धो मुनिसत्तमः ‘घोरान् पुरुषान् सृज’इति स्वां गां प्रार्थयामास। सा सपदि घोरदर्शनान् पुरुषान् निर्ममे। ते गाधिपुत्रस्य बलमासाद्य सर्वतो बभञ्जुः। सैन्यं विद्रुतं श्रुत्वा तपः शरीरसामर्थ्यात् परतरं मन्यमानस्तस्मिन्नेव मनो दधे।
—महाभारतम्।
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- A KING GOING A-HUNTING.
३८. मृगयाविहारिणो राज्ञः
विरूढवेतसे कस्मिंश्चिन्नदीरोधसि सुखं प्रसुप्तं महाकायं कंचिन्मृगराजं नृपतिरीक्षाञ्चक्रे। धनुर्वेदनिपुणः स तस्मिन् सिंहे शरं सन्धाय
तं व्यापादितवान्। तदानीं हर्षनिर्भरा भूपतेः पार्श्वानुचरा जयघोषमुदीरयामासुः। किन्तु तेन जयध्वनिनानतिदूरवर्त्यज्ञातसमुपस्थितिरन्योऽविकलः पञ्चाननः प्रबोधितः। निमिषमात्रेण स मृगाधिपोऽवनिपालं विद्युज्जवेनाभ्यपतत्। स्वमुखे राज्ञो हस्तं गृहीत्वा तं तस्य शरीराद्वियुयोज। अनेनोद्वेगकारिणा व्यतिकरेण विरतो मृगयाविहारः। आर्द्रव्रणं तं पार्थिवमनुयायिवर्गो नगरं निनाय। तत्र स केसरिदशनविषवेगात्परासुर्बभूव।
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- IN DISCREET BROTHERS.
३९. अविमृृश्यकारिणां भ्रातृृणाम्
अस्त्यत्र धरातले ब्रह्मस्थलाभिधो ग्रामविशेषः। तत्रत्यस्य विष्णुस्वामिनाभ्नो द्विजवरस्यात्मानुरूपायां भार्यायां चत्वारः सुता उत्पेदिरे। अधीतवेदेषूत्क्रान्तशैशवेषु तेषु भार्यानुगतः स दिवं प्रययौ। ततस्त आनाथ्यदुःखिता गोत्रजैर्हृतसर्वस्वा मिथः सल्ँलप्य मातामहगृहं भैक्ष्यपाथेयाः प्रतस्थिरे। तत्र मातामहाभावान्मातुलैर्दत्तसंश्रयास्तैः सह भुञ्जाना यथापूर्वं स्वाध्यायनिरता बभूवुः। किन्त्वल्पेनैव कालेनाकिञ्चनास्ते भोजनाच्छादनादिषु न केवलं मातुलादीनां किन्तु गृहकर्मकराणामप्यवज्ञापात्रतां जग्मुः। स्वजनसंस्फूर्जदवमानहतात्मानोऽर्थानां शरदभ्रचलां गतिं प्रेक्ष्य येन गुणेनार्थहरिणा हठाद् बद्धा आनीयन्ते तस्य सम्पादने मतिं चक्रुः। समागमे संकेतस्थानमुक्त्वा चत्वारश्चतस्रो दिशो भेजिरे। अथ मिलिताः केन किं शिक्षितमित्यन्योन्यं प्रष्टुमारेभिरे। ज्येष्ठ उवाच। शक्नोम्यहं यस्य कस्यचित् प्राणिनोऽस्थिशकलं प्राप्य क्षणात् तत्रोचिंतमांसमुत्पादयितुम्। द्वितीयोऽवदत्। अहं तत्र प्राणिसम्भवि लोमत्वचं निर्मातुं समर्थः। तृतीयोऽब्रवीत् जाना-
म्यहं जातत्वङ्मांसलोमनि तस्मिन् प्राण्यवयवान् स्रष्टुम्। चतुर्थ उवाचोत्पन्नावयवाकृतिं प्राणैः संयोजयितुमवैमीति। एवं प्रकटितस्वस्वविज्ञानास्तेऽस्थिखण्डायाटवीमटन्तः प्रापुर्विधिवशादेकं सिंहास्थिखण्डम्।दुःखोदर्कोऽयमधिगम इत्यविचार्यैव तस्मिन् स्वंस्वं कौशलं दर्शयामासुः। तदोद्धतसटाभारो दंष्ट्रासंकटमुखः खरनखाङ्कुशो भैरवदर्शनः सिंह उत्तस्थौ। धावित्वा च स्वनिर्मातृृंस्तानेव चतुरो भ्रातृञ्जघान वनं विवेश च।
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- A TERRIBLE FAMINE.
४० महोग्रस्य दुर्भिक्षस्य
अस्ति त्रिगर्तो नाम जनपदः। तत्रासन् गृहपतयस्त्रयः स्फीतसारधनाः सोदर्या धनकधान्यकधन्यकाख्याः। तेषु जीवत्सु न ववर्ष वर्षाणि द्वादश दशशताक्षः। क्षीणसारं सस्यम्। ओषध्यो वन्ध्याः। न फलवन्तो वनस्पतयः। क्लीबा मेघाः। क्षीणस्त्रोतसः स्रवन्त्यः। पङ्कशेषाणि पल्वलानि। विरलीभूतं कन्दमूलफलम्। गलिताः कल्याणोत्सवक्रियाः। बहुलीभूतानि तस्करकुलानि। अन्योन्यमभक्षयन् प्रजाः। पर्यलुंठन्नितस्ततो बलाकपांडुराणि नरशिरःकपालानि। पर्यहिण्डन्त शुष्काः काकमण्डल्यः। शून्यीभूतानि नगरग्रामखर्वटादीनि। तदानीं ते भ्रातरो गृहपतयः सर्वधान्यनिचयमुपभुज्याजाविकं गवलगणं गवां यूथं दासीदासजनमपत्यानि ज्येष्ठमध्यमभार्ये च क्रमेण भक्षयित्वा कनिष्ठभार्या धूमिनी श्वो भक्षणीयेति समकल्पयन्। अथ कनीयान् धन्यकः प्रियां स्वामत्तुभक्षमस्तया सह तस्यामेव निश्यपासरत्।
—संस्कृतपाठावली
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- A WONDERFUL DREAM.
४१. अद्भुतः स्वप्नवृत्तान्तः
अद्य जाने स्वप्ने गङ्गास्रोतसि सुप्तोऽहं शरत्समयवर्षिणा जलधरेण पीतोऽस्मि। ततः स्वातिनक्षत्रस्थिते सूर्ये समुद्रं गतो महामेघः। तत्रासौ स्थूलस्थूलैर्जलबिन्दुभिर्वर्षितुं प्रववृते। तदाहं चतुःषष्ठ्या मुक्ताशुक्तिभिर्मुखमुद्घाट्य जलबिंदुभिः समं पीतो मुक्ताफलमण्डलं भूत्वा तासां गर्भेऽतिष्ठम्। ततः परिणते काले जलधेः कर्षितास्ताः शुक्तयो विदारिताश्च। चतुःषष्ठिमुक्ताफलत्वं गतोऽहमेकेन श्रेष्ठिना क्रीतः सुवर्णलक्षेण। तेनानीय वेधकारैर्वेधितं तन्मुक्ताफलमण्डलमेकावली च गुम्फिता। तां करण्डिकायां कृत्वा स श्रेष्ठी पञ्चालाधिपस्य नगरं कान्यकुब्जं गतः। तत्र सा राज्ञा कोट्या सुवर्णानां क्रीता। सा चैकावली राज्ञा महिष्याः कण्ठे दत्ता। ततो ज्योत्स्नाधवले निशीथसमये तयोः परिरम्भे दृढं पीडितोऽहं भङ्गमभजम्।
—कर्पूरमञ्जरी.
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- A MISER’S PROSPECTS.
४२. कस्यचित् कृपणस्य मनारथः
अस्ति देवीकोटनाम्नि नगरे देवशर्मा ब्राह्मणः। तेन महाविषुवत्संक्रान्त्यां सक्तुपूर्णशराव एकः प्राप्तः। ततस्तमादायासौ कुम्भकारस्य भाण्डपूर्णमण्डपिकैकदेशे रौद्रेणातपेनाकुलितः सुप्तः। ततः सक्तुरक्षार्थं हस्ते दण्डमेकमादायाचिन्तयत्। यद्यहं सक्तुशरावं विक्रीय दश कपर्दकान् प्राप्स्यामि तदात्रैव तैः कपर्दकैर्घटशरावादिकमुपक्रीय विक्रीयानेकधा वृद्धैस्तैर्धनैः पुनःपुनः पूगवस्त्रादिकमुपक्रीय विक्रीय लक्षसंख्यानि धनानि कृत्वा विवाहचतुष्टयं करिष्यामि।
अनन्तरं तासु सपत्नीषु सविशेषं रूपयौवनवती या तस्यामधिकानुरागं करिष्यामि! अनन्तरं सञ्जातामर्षास्तत्सपत्न्योयदा द्वन्द्वंकरिष्यन्ति तदा कोपाकुलोऽहं ता इत्थं लगुडेन ताडयिष्यामीत्यभिधाय तेन लगुडः क्षिप्तः। येन सक्तुशरावश्चूर्णितो भाण्डानि च बहूनि भग्नानि! ततस्तेन शब्देनागतेन कुम्भकारेण तथाविधानि भाण्डान्यवलोक्य ब्राह्मणस्तिरस्कृतो मण्डपिकागर्भाद्बहिष्कृतश्च।
—हितोपदेशः
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43.THE FOX AND THE GRAPES.
४३. दुर्लभमाध्वीकस्य जम्बुकस्य
कोऽपि जम्बुको वनाद्वनमाहारार्थमटन् कंचिद्द्राक्षामण्डपमपश्यत्। तत्र च पक्वानि द्वाक्षाफलानि विलोक्य चिन्तयति स्म।अहं तावद् द्राक्षाप्रियः। मत्पत्नी तु द्विगुणम्। ‘एकः स्वादु न भुञ्जीत’इति च प्राज्ञाः कथयन्ति।अतः पत्न्या सहेमान्याकण्ठंभक्षयिष्यामि। अनेन सा मयि दृढतरमनुरक्ता भवेत्। एवं चिन्तयित्वा द्राक्षागच्छं लक्ष्यीकृत्योद्बाहुरसकृदुत्पतति स्म। परंमण्डपस्योन्नतत्वात्तन्नालभत। अथ गुच्छान्तरंसंलक्ष्योत्पतितस्तदपि न लभते स्म। एवं बहुवारं प्रयत्यापि फलमेकमप्यलभमानः श्रान्तः।अथतानि दुर्लभानि मत्वान्तर्लज्जितोऽपि बहिः ‘धिगिमान्यम्लानि फलानि’इति वदन् स्वच्छन्दं गतः। दर्लभे वस्तुनि जनाः प्रायो दोषमुद्भावयन्ति। विरक्तिं च प्रदर्शयन्ति।
—इसब्नीतिकथाः
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44.THE LION AND THE OTHER BEASTS.
४४.सिंहपशूनाम्.
एकदा कैश्चित् पशुभिः सिंहेन सह समयःकृतो यदस्माभिःसर्वैरकैमत्येन वर्तितव्यम्, लब्धमात्रं च समंविभजनीयम्।एकस्मि-
न्नहनि सिंहवृकशृगालतरक्षुभिर्मिलित्वैकोमृगो व्यापादितः। शृगालस्तं चतुर्धा विबभाज। तदा सिंहः पुरो भूत्वा तेषामेकं भागमङ्गुल्या निर्दिश्याह। शृणुत भोः सत्वाः, मम भागधेयोऽयमित्येनं विभागमहं गृह्णामि। द्वितीयोऽयमपि मयैव ग्रहीतव्यः यतो यद्भवद्भिर्विक्रान्तं तन्मदीयेनैव प्रभावेण। ततस्तृतीयं भागं निर्दिश्य सशिरःकम्पं ब्रूते, इमंभागमप्यहमाददे यतोऽहं वो राजा यूयं च मे प्रकृतयः। अतो भक्तिप्रह्वेण चेतसा यूययेनं मे दास्यथैव। तुरीयोऽयं भागस्तु मया रक्षणीयः। यतो यूयं जानीथ विषमोऽयं कालः। सेनापरिग्रहोऽस्माकमदभ्रो धान्यादिभोज्यवस्तुसंग्रहस्त्वल्प इति। यतो नीतिरेवेदृशी यद्भविष्यदापदर्थे सद्य एवोपायः कर्तव्यः। किमभिमतं वो यदहं वच्मि? नेत्युच्यते चेन्नाहं दोषेण स्पृश्ये, यूयमेव नङ्क्ष्यथेति सम्यग्विचारयतेति। तात्पर्यम्। बलवतां दुर्बलानां च मैत्री न चिरस्थायिनी। बलवन्तः समयकाले शपथं कुर्वन्ति। परं सति प्रसङ्गे समयभङ्गं कर्तुं न विलम्बन्ते।अतो बलवतां सङ्ग एव वाच्यः।एकदा तेषांवशगो भूत्वा तैर्विप्रलब्धःसन् किमेमिरेवं वञ्चयितव्यमित्यन्यस्याग्रे सविस्मयं पृच्छातीव वाच्या।
—ईसब्नीतिकथाः
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45.THE DOG AND THE WOLF.
४५.श्वेहामृगयोः
कश्चिदीहामृगो बहुभिरुपवासैः कृशो भक्ष्यार्थं भ्रमन् कस्यांचिज्ज्योत्स्नाधवलायां रात्रौ कस्यचित्कृषीवलस्य गोष्ठेमांसलाङ्गमेकं श्वानं ददर्श। कुशलप्रश्नानन्तरं स ईहामृगः श्वानमाह। भोः श्वन् रुचिर-
देहो दृश्यसे। सत्यं वदामि, त्वमिव पीनशरीरो दर्शनीयाकृतिः कोऽपि श्वाऽद्ययावन्मया न दृष्टः। ब्रूहि म एतत्कारणम्। त्वत्तः शतगुणमपि यते परं कुक्षिपूरमपि भक्ष्यं न विन्दे। श्वाऽऽह। भो वृक, यथाहं करोमि तथा त्वं करोषि चेत् सुखी भविष्यसि। ईहामृगः पप्रच्छ। भोः श्वन्, किं तद्यत्त्वं कुरुषे? श्वाऽऽह। नान्यत्किमपि। मत्स्वामिनोऽलिन्दमध्यास्य नक्तं चौरान् प्रतिबध्नामि। वृकोऽवदत्। सौम्य एतदहं सर्वभावेन करिष्ये। रे योऽहं वने भ्राभ्यामि हिमवृष्टीःसहे तेन मया च्छायामाश्रित्योदरपूरं भक्ष्यं लब्धं चेत्किमन्यदाशास्यम्? एवं संवदतोस्तयोर्वृकः शुनो गले दामनिर्मितं व्रणमलक्षयत्। तं दृष्ट्वैव स श्वानं पृच्छति। वयस्य किमेतत्ते गले दृश्यते ? श्वाऽऽह। आं, न किंचित्। दुश्चेष्टितोऽहं लोकान् दशामीति हेतोर्मे स्वामी मां दिवा दाम्ना बध्नाति रात्रौ सभ्यग्रक्षणं भवेदिति च सायं मां मुञ्चति। ततोऽहं राजेव स्वैरं व्रजामि। मम भक्ष्यविषयेऽयं क्रमः। स्वामी मे स्वहस्तेनोच्छिष्टं ददाति। अन्येऽपि गृहवासिनो मनुजा। मम दयन्ते। पात्रेष्वपूपादि भक्ष्यं शिष्टं चेन्मद्विनान्यस्मै कस्मा अपि न प्रयच्छति। अनेन मे पनित्वम्। अतोऽहं ब्रवीमि। यदि त्वमहमिव करिष्यसि सुखं विन्दस इति। एतस्मिन्नवसरे वृकोऽपससार। तं श्वाऽह्वत्। रे, एह्येहि। किमपसरति भवान्? वृको दूरादेव तमाहूय वदति। तत्सुखं नाभिलषामि। तवाक्षय्यमस्तु तत्। निरवरोधतास्ति चेन्मया सार्धं कथां कुरु। त्वमिव बन्धमुपेत्य राजाऽपि भवितुं नाशंसे।
—ईसन्नीतिकथाः
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46. THE TIGER AND THE LAMB
४६. मेषव्याघ्रयोः
ग्रीष्मे सूर्यातपेन तप्तः कोऽप्यजशिशुःपिपासाकुलो जलं पातुं गिरिनदीमगच्छत्। तत्रोर्ध्वदेशे जलं पिबन्तं भीषणं कमपि शार्दूलं विलोक्य भीतः स्वयं निम्नतरं देशं गत्वा जलं पिबति स्म। तादृशं तं भीरुमवलोक्य नृशंसः स व्याघ्रः स्वमनस्येवमचिन्तयत्। अहो अतिबालोऽयमजशिशुः। अस्य मांसं रुधिरं चातीव मधुरं भवेत्। अतः स्वयमेवैनं निगृह्यव्यापाद्य भक्षयामि। एवं चिन्तयित्वा निरागसं तं साधुमेवमभाषत। रे दुष्ट किमेवं निर्भयो मया पीमानमुदकं कलुषयसि? तदाकर्ण्य भीतभीतः स साधुः सविनयं प्रत्यभाषत। भोः शार्दूल किमेवमकारणं कुप्यसि। ऊर्ध्वे हि देशे तिष्ठति भवान्।अहं तु निम्नदेशस्थः। सत्येवं मया मलिनीकृतं सलिलं कथं तव सकाशमागच्छेत्? यत्तु जलं त्वत्तो वहति तत्किलाहं पिबामि। तन्माऽमर्षं कुरु। तच्छ्रुत्वा स मूर्खस्तदुपरि प्रतिवक्तुमजा- नानः प्राह। रे भवत्वेतत्। त्वं किल षण्मासात् प्राङ् मां निन्दितवानिति श्रुतम्। किं तत्र कारणम्? अजशिशुः प्रत्युवाच। है द्वीपिन्, जातस्य मम मासद्वयमपि न पूर्णम्। सोऽहं षण्मासात्प्राग् भवन्तं निन्दितवानिति कथं युज्यते? अथ तस्यापि प्रतिवचनमजानानः स मूढः स्वमौढ्यं गूहमानः प्राह? अहो विस्मृत्य मयोक्तम्! न त्वं निन्दितवान्। परं तव पिता तत् कृतवानिति श्रुतम्। पितृकृतस्य ऋणस्येव तत्कृतस्यापराधस्यापि पुत्र एव प्रतिवादीति। तदप्याकर्ण्य स बुद्धिमानेवं प्रत्यभाषत। किमेवमसंभावितं भाषसे! मृगाणां हि मातेव ज्ञायते, न पिता। तन्मम पिता भवन्तमशपदिति कथ संभाव्यते।
एवमजाशिशोर्युक्तियुक्तानि प्रतिवचनानि समाकर्ण्य बुद्धिहीनः स शार्दूलस्तस्मिन् कथंचिदपराधं स्थापयितुं नाबुधत्। अथ मन्दधीः प्रतिवचनकुण्ठितमतिः शेषं कोपेन पूरयेदिति न्यायेन कृपणमजबालं व्यापाद्य भक्षितवान्।
—कथाकुसुममञ्जरी.
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47. A FOOLISH DEAF MAN.
४७. अविदग्धस्य बधिरस्य
कोऽपि बधिरः स्वमित्रं ज्वरार्तं श्रुत्वा तं द्रष्टुमिच्छन् गृहात् प्रस्थितः। पथि व्रजन्नेवमचिन्तयत्। मित्रसकाशं गत्वा, अपि सह्यो ज्वरावेग इति पृच्छेयम्। किंचिदिव स इति स प्रतिवदेत्। ततः किमौषधं सेवस इति पृच्छेयम्। इदमौषधं सेव इति स प्रतिभाषेत। अनन्तरं कस्ते चिकित्सक इति मया पृष्टेऽसौ मम चिकित्सक इति स प्रतिवदेत्। अथ तत्तदनुरूपं संभाष्य मित्रमापृच्छय गृहमागमिष्यामि। एवं चिन्तयन्मित्रं प्राप्य सादरमपृच्छत्। वयस्य, अपि सह्यो ज्वरावेग इति। तथैव वर्तते, न विशेष इति स प्रत्यवदत्। बधिर आह, भगवतः प्रसादेन तथैव वर्तताम्। कीदृशमौषधं सेवसे? ज्वरार्तः प्रत्यब्रवीत्। ममौषधं मृत्तिकैवेति। वयस्यः प्राह। तदेव भद्रतरम्। कस्ते चिकित्सकः? रुग्णः सकोपमब्रवीत्। मम भिषग्यम एवेति। बधिरः प्रोवाच। स एव समर्थस्तं मा परित्यजेतिएवं प्रतिकूलानि प्रतिवचनानि श्रुत्वा स रोगी दुःसहेन कोपेन समाविष्टः परिजनमादिशत्। भोः किमयमेवं क्षते क्षारं प्रक्षिपति? निष्कास्यतामयमर्धचंद्रप्रदानेनेति। अथ स बधिरो मन्दधीः परिजनेन गलहस्तिकया बहिर्निःसारितः।
—कथाकुसुममञ्जरी.
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48. KING VIKRAMARKA PUT TO THE TEST.
४८. परीक्षितस्य राज्ञोविक्रमस्य
एकदा सुरपतिरमरावत्यां सिंहासने समुपविष्टोऽभूत्। तमष्टाशीतिः सहस्राण्यृषीणां त्रयस्त्रिंशत् कोट्यो निर्जरसामुपासत। तत्र देवर्षिनारदःकथाप्रसङ्गेन विक्रमार्कस्य भूपतेरौदार्यं धैर्यंच भृशमस्तौत्। तच्छ्रुत्वा विस्मयमानेषु देवेष्विन्द्रेण कामधुग्भणिता। भगवति मर्त्यलोकं गत्वा विक्रमार्कस्य गुणान् परीक्षस्वेति। ततः सुरभिरत्यन्तदुर्बलं गोरूपं धृत्वा यावद्विक्रमार्को मार्गेण समायाति तावत्स्वयं सभीपतो महापङ्के निमग्ना कातर शब्दमकरोत्। तां तथा दुःखितां दृष्ट्वा दयमानो महीपतिस्तस्या उद्धरणाय नितरां प्रायस्यत्। धेनुमुद्धर्तुंप्रयतमानस्य तस्यरविरस्तंगतः। बहुलीभूतेऽन्धकारे व्याघ्रभयाद् भूपतिस्तत्रैव गोरक्षणपरोयावत्सूर्योदयं तस्थौ। राज्ञो दयादीन् गरिष्ठान् गुणान् निरीक्ष्य सुरभिश्चेतस्यकरोत्, अहो भूभृतोऽस्यापूर्वं कारुण्यम्। अथवा,
**दाने दयायां दाक्षिण्ये ज्ञाने तपसि विक्रमे।
विस्मयः कोऽत्र कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥१॥ **
इति। ततः पङ्कात् स्वयमेवोत्थिता सुरभिर्भूपतिमभाषत। भोराजंस्तुष्टास्मि ते गरिष्ठान् गुणानवलोक्य। कामधेनुरहं तव परीक्षायै स्वर्गादागता। तदीप्सितं वरं वृणीष्वेति। अत्रान्तरे कश्चिदकिश्चनो ब्राह्मण आगत्य राजानमाशिषोपगृह्य तं दारिद्र्यनाशमयाचत। तस्यानुग्रहार्थं पार्थिवः सुरभिं व्यजिज्ञपत्। यदि प्रसन्ना भगवती विप्रस्येप्सितसिद्धिरस्त्विति। भूपतेस्तादृशौदार्येण विस्मिता सुरभि-
र्भूयस्तमाह। साधु महानुभाव साधु। विरलाः स्वार्थपरेऽस्मिन् संसारे भवादृशः परोपकारिणः। सुष्ठुक्तं लोके ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ इति। परं प्रीतास्मि ते गुणगणैः। तदस्तु नाम यथात्रभवानाहेति।
—कथा कुसुममञ्जरी.
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49. A JACKAL FALLEN INTO AN INDIGO VAT.
४९ नीलीभाण्डे पतितस्य क्रोष्टोः
अस्त्यरण्ये कश्चिच्छृगालः स्वेच्छया नगरोपान्ते भ्राम्यन्नीलीभाण्डे पतितः। पश्चात्तत उत्थातुमसमर्थः प्रातरात्मानं मृतवत् संदर्श्यस्थितः। अथ नीलीभाण्डस्वामिना मृत इति मत्वा तस्मात्समुत्थाप्य दूरे नीत्वापसारितस्तस्मात्पलायितः। ततोऽसौ वनं गत्वा नीलवर्णमात्मानं विलोक्याचिन्तयत्। ‘अहमिदानीमुत्तमवर्णः। तदहं स्वकीयोत्कर्षं किं न साधयामि?’ इत्यालोच्य शृगालानाहूय तेनोक्तम्।‘अहं भगवत्या वनदेवतया स्वहस्तेनारण्यराज्ये सर्वौषधिरसेनाभिषिक्तः। तदद्यारभ्यारण्येऽस्मदाज्ञया व्यवहारः कार्यः। शृगालाश्च तं विशिष्टवर्णमवलोक्य साष्टाङ्गपातं प्रणम्योचुः। यथाऽऽज्ञापयति देवः।’ इत्यनेनैव क्रमेण सर्वेष्वरण्यवासिषु तस्याधिपत्यं बभूव। ततस्तेन व्याघ्रसिंहादीनुत्तमपरिजनान् प्राप्य सदसि शृगालानवलोक्य लज्जमानेनावज्ञया दूरीकृताः स्वज्ञातयः। ततो विषण्णाञ् शृगालानवलोक्य केनचिद् वृद्धशृगालेनैतत् प्रतिज्ञातम्।‘मा विषीदत। यदनेनानाभिज्ञेन नीतिविदो मर्मज्ञा वयं स्वसमीपात् परिभूतास्तद्यथायं नश्यति तथा विधेयम्। यतोऽमी व्याघ्रादयो वर्णमात्रविप्रलब्धाः शृगालम ज्ञात्वा राजानमिमं मन्यन्ते। तद्यथायं परिचितो भवति तथा कुरुत। तत्र चैवमनुष्ठेयम्। यत्सर्वे सन्ध्यासमये तत्सन्निधाने महारावमेकदैव करिष्यथ। ततस्तं शब्दमाकर्ण्य जातिस्वभावात्तेनापि
शब्दः कार्यः। यतो यो यस्य स्वभावः स तस्य नित्यं दुरतिक्रमः। श्वा यदि राजा क्रियते तत्किमुपानहं नाश्नाति?ततः शब्दादभिज्ञाय स व्याघ्रेणहन्तव्यः। ततस्तथानुष्ठिते सति तद् वृत्तम्। आत्मपक्षं परित्यज्य यः परपक्षेषु रतो भवति स परैर्हन्यते।
—हितोपदेशः
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50. THE BEAR AND TRAVELLERS.
५० ऋक्षपान्थानाम्
कौचित्पान्थौ देशान्तरं प्रतस्थाते। तौ सशपथं समयं चक्रतुर्यद्वर्त्मनि संकट आपतितेऽन्योन्यस्य व्यभिचारो मा भवत्विति। तत एकस्मिन् गहने गच्छन्तौ तौ कश्चिदृक्षः प्रत्यभिससार। तदा तयोरेकश्चपलाङ्गः कृशोऽविलम्बितं विद्रुतो वृक्षमारुरोह। अन्यः स्थूलत्वाद् द्रुतगमनाक्षमः प्राणानायम्य विगतचेष्टो भूमौ सुष्वाप। स ऋक्षस्तत्रागत्य कर्ण आघ्राय शवोऽयमिति मत्वा पीडामकृत्वा निववृते। ऋक्षे गते वृक्षमारूढः पुरुषः शनैरवतीर्य सस्मितं भाषते। ‘सौम्य, स ऋक्षः कर्णे किं तुभ्यमकथयत्? यतोऽहं वृक्षगतः स ऋक्षः किमपि कर्णे त्वाममन्त्रयतेत्यपश्यम्’। स प्रतिबभाषे ‘स ऋक्षस्त्वादृशेषु शठेषु विश्वासं मा कुर्विति मामादिदेश’। तात्पर्यम्—यदा प्रयोजनं नास्ति तदा बहवो लाभं दर्शयन्ति विश्रम्भार्हाणि च वचांसि भाषन्ते। परं तेषु विषमे तिष्ठन् पुरुषो विरलः। यो लोकरीतिं वेद स ईदृशेषु नः विश्वसिति। मुधा कोऽपि न भाषेत। श्रोत्राऽपि वक्तुर्वचनमात्रे विश्वासो न कार्यः। तेनोभयोरपि हानिर्भवतिः।
—ईसब्नीतिकथाः
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51. THE TALE OF NAHUSHA.
५१. राज्ञोनहुषस्य कथा
पुरा किल चंद्रवंश्यो नहुषनामा कोऽपि भूपो बभूव। स सर्वाः प्रजाः स्वाः प्रजा इव पालयञ्शतमश्वमेधानाजहार। चिरमिह भुक्तभोगो जीवितान्ते दिवमारुरोह। तत्र च शताश्वमेधफलभूतं प्रभूतभोगवैभवं देवराज्यं प्राप। तेन च श्रीमदान्धः सप्तर्षिभिः स्वारूढां शिबिकां वाहयामास। तेष्वन्यतमो वामनाकृतिरगस्त्योऽपि तस्य शिबिकावाहको बभूव। अथ कदाचित् स देवेन्द्रः पौलोम्याः सदनं प्रतस्थे। खर्वेण कुम्भसम्भवेन मुनिना प्रांशुभिरन्यैश्चोद्यमाना शिविका भृशं चकम्पे। तदसहमानो नहुषो महर्षाीनुच्चावचैर्दुर्वचनैर्निन्दन् वामनतया मन्दगमनमगस्त्यं‘सर्प सर्प’ इति त्वरयामास। ततो जातकोपो महर्षिः श्रीमदान्धं पूज्यावमन्तारं च तं दण्डनार्हंमन्वानः ‘सर्पो भव’ इति शशाप। शापसमकालमेव स मूढः सर्पतां प्राप्य तस्याः शिविकाया अवाक्शिराः पपात। सप्तर्षयोऽपि यथाभिलषितं जम्मुः।
—महाभारतम्
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52. THE LAPWING AND THE SEA.
५२. टिट्टिभीसागरयोः
दक्षिणसमुद्रतीरे टिट्टिभदम्पती निवसतः। तत्र चाऽसन्नप्रसवा टिट्टिभी भर्तारमाह ‘नाथ प्रसवयोग्यस्थानं निभृतमनुसन्धीयताम्’। टिट्टिभोऽवदत्। ‘भार्ये, नन्विदमेव स्थानं प्रसूतियोग्यम्’। साऽब्रूत, ‘समुद्रवेलया प्लाव्यते स्थानमेतत्।’ टिट्टिभोऽभाषत। ‘किमहं निर्बलो येन गृहावस्थितः समुद्रेण निग्रहीतव्यः?’ सा विहस्याऽह ‘स्वामिन्, उभयोर्महदन्तरम्। बलीयसा स्पर्धा नैवोचिता’। ततः,
कृच्छ्रेण स्वामिवचनात्तत्रैव प्रसूता सा। एवत्सर्वं श्रुत्वा समुद्रेणापि तच्छक्तिज्ञानार्थं तदण्डान्यपहृनानि। ततः सा शोकार्ता पतिमाह। ‘प्रिय, कष्टमापतितम्। अण्डानि मे नष्टानि।’ सोऽवदत्। ‘प्रिये, मा बिभिहि।’ इत्युक्त्वा पक्षिणां मेलकं कृत्वा पक्षिस्वामिनो गरुडस्य समीपं गतः। तत्र तेन सकलवृत्तान्तो भगवतो गरुत्मतः पुरो निवेदितः। देव, समुद्रेणाऽहं विजालयावस्थितो विनापराधेनैव निगृहीत इति। ततस्तद्वचनमाकर्ण्यवैनतेयेन प्रभुर्भगवान्नारायणः सृष्टिस्थितिप्रलयहेतुर्विज्ञप्तः। सोऽर्णवमण्डदानायाऽदिदेश। ततो भगवदाज्ञां मौलौ निधाय सरित्पतिना तान्यण्डानि टिट्टिभाय समर्पितानि।
—हितोपदेशः
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53. A. MODEL KING.
५३. अनुत्तमो नृपः
अथ कदाचित् केचित् यक्षा ब्राह्मणवर्णमात्मानमभिनिर्माय समनुचरन्तो ददृशुः प्रत्यरण्यचरमन्यतमं गोपालकं छायाद्रुममूले सोपानत्कं संनिषण्णम्। समुपेत्य चैनमूचुः। ‘भो गवां संरक्षाधिकृत, एवं निर्जनसम्पातेऽस्मिन्नरण्ये विचरन्नेकाकी कथं न बिभेषि?’ स तानालोक्योवाच। ‘कुतो वा भेतव्यम्?’ यक्षा ऊचुः। ‘किं त्वया न श्रुतपूर्वं यक्षराक्षसानां निसर्गराद्रैाप्रकृतिरिति?’ तदा स गोपालकः प्रहस्यैतानुवाच। ‘स्यादेवमन्यत्र। अत्र त्वस्ति नः स्वस्त्ययनविशेषो यदस्माकमप्रधर्षणीयप्रभावो राजा सर्वाऽत्मना प्रजाहितेऽप्रमत्तो जागर्ति। तेन न प्रसहन्तेऽस्य विषयवासिनं जनं हिंसितुमुपद्रवाः।’ यक्षाः प्रोचुः। किंकृतोऽयमस्य राज्ञः प्रभावः?’ गोपाल उवाच। स्वमाहात्म्याधि-
गतोऽयं प्रभावो महाराजस्य। यतः प्रजानुराग एवं तस्य बलमन्यत्तु राज्यालङ्कार एव। स नो रुषं वेत्ति परुषं न भाषते। प्रतिश्रुतं सम्यग्रक्षति। धर्म एव तस्य चक्षुः। सत्पुरुषपूजार्थमेवार्थसंचयः अपरं च एमवाश्चर्यपरम्परामयोऽपि दुर्जनधनं गर्वं स न समालम्बते।
Bombay Matriculation Paper, 1895
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54. EXERTION EXTOLLED.
५४. उद्यमप्रशंसा
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाःII
उद्यमः साहसं धैंर्य बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र साहाय्यकृद्धरिः॥
योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका॥
अगच्छन्वैनतेयोऽपि पदमेकं न गच्छति॥
पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्दैवमिति कथ्यते।
तस्मात्पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति॥
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥
न लभन्ते विनोद्योगं जन्तवः सम्पदां पदम्।
सुराः क्षीरोदविक्षोभमनुभूयामृतं पपुः॥
नात्युच्चशिखरो मेरुर्नातिनीचं रसातलम्।
व्यवसायद्वितीयानां नाप्यपारो महोदधिः
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मीर्
दैवं प्रधानमिति कापुरुषा वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः?॥८॥
—सुभाषितमाला.
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55. THE LION WORN OUT WITH YEARS.
५५. जराभिभूतस्त मृगेन्द्रस्य.
वार्द्धकात् क्षीणशक्तिः कश्चित्पञ्चाननो नितान्तमशरण आसन्नमृत्यूर्भूमौ प्रसारितगात्रमशेत। एको भल्लूकः सम्मुखमागत्य पुराणवैरप्रतिमोचनाय दंष्ट्रास्तस्मिन् सन्धाय तमभिदुद्राव। तदनन्तरं चिरन्तनशत्रोर्वैरनिर्यातने कृतसंकल्पो बलीवर्दः श्रृंगाभ्यां तस्य त्वत्रं निरभिनद्। एवमवस्थिते स्वयमक्षतेन जीर्णमृगेन्द्रोऽधिक्षप्तव्य इति दृष्ट्वाऽस्योपरि स्वद्वेषभावं प्रकटीकर्तुमयमेव समय इति च मनसि कृत्वा रासभो मृगराजमुखे पादप्रहारांश्चकार। तदनूज्जिहानजीवितः कण्ठीरव एवमुज्जगार। ओजस्विभिः कृतो मानभङ्गः प्रकामं हृदयदाही, किन्तु मया कथंकथमपि सोढव्यः। यत्त्वहं त्वादृशेन मृगापसदेन परिभवास्पदं कृतस्तद् द्विगुणितं मरणम्।
Solutions of Sanskrit Papers.
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56. THE CAT AND THE JACKAL.
५६. बिडालशृगालयोः
कश्चित् स्थूलोतुः क्रोष्टा चारण्ये प्रच्छायशीतले शिलातले राजनीतिविषये गोष्टीसुखमन्वभूताम्। तदा क्रोष्टा ललाप, भो मार्जार, अत्रस्थानस्मान् यदि महद् व्यसनमुपतिष्ठेत् तर्ह्यहं सहस्रप्रकारैरात्मानं रक्षिप्यामि। परन्तु तवार्थेऽहमतीव क्लिश्ये कथं त्वं भवसीति। बिडालोऽवादीत्। ‘सखे, एकां युक्तिमहं दृढं जाने। सा निष्फला
चेद्दुर्गतिं प्राप्स्यामि।’गोमायुराह ‘एवं चेद्बलवती मे चिता मन्दभाग्यस्य तव कृते। एकां द्वे वा युक्ती ते शिक्षयामि। परं त्वमपि जानासि नायं काल उपदेशस्य। स्वार्थ एवेदानीमनुष्ठातव्यः। बाढम्। प्रणामः प्रणामः। साधयामि तावदहम्’ एतावदुक्त्वा प्रचलितः। अस्मिन्नेवान्तरे श्वभिरनुसृता व्याधास्तस्यानुपदमेव प्राप्ताः। तदा बिडालो वृक्षारोहणरूपामेकामेव युक्तिमज्ञासीत्तामाश्रित्याऽत्मा रक्षितस्तेन। जम्बुकस्य सहस्रस्य युक्तीनामेकाप्युपयुक्ता नाभवत्। तस्य व्यस्तचेतसश्चत्वारि पञ्च वा पदानि यातोऽनुधावन्तः श्वानः पराजयं चक्रुः।
—ईसब्नीतिकथाः
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57. THE EAGLE AND THE TORTOISE.
५७. कूर्मगरुडयोः
कश्चित्कूर्मो भूमौ गतागतैर्निर्वेदं प्रपेदे। विहायोविहारी भूत्वेतस्ततः सृष्टिचमत्काराणां कियद्रामणीयकं तद् द्रष्टव्यमिति तस्य मनस्युत्पन्ना मतिः। स सर्वान् पक्षिणोऽभाषत।‘यो मां वियत्पथेन। नेष्यति सृष्टिसौन्दर्यं च दर्शयिष्यति तस्मा अहं भूगर्भान्तर्गता मया ज्ञाता रत्नखनीर्दर्शयिष्यामि’। श्रुत्वैतत्तार्क्ष्यः कच्छपं खं नीत्वा भूगोलवर्तिनोऽखिलांश्चमत्कारान् दर्शयाञ्चकार। ततः कच्छपमुवाच। ‘भोः कुत्रेदानीं ते रत्नाकराः? दशय तूर्णम्। तदा कच्छपो भ्रान्तचित्तवद् व्यवहर्तुं प्रवृत्तः। तदुदीक्ष्य खगेश्वरश्चुक्रोध। तस्य मर्मसु च नखरं व्यापार्य तमहन्। तात्पर्यम्— यदि प्रतिज्ञा नोत्तीर्यते तर्हि हानिर्जायते। ये महान्तस्ते मानभङ्गमाप्नुवन्ति। ये साधारणास्ते।
मानगङ्गं प्राप्य शरीरपीडामनुभवन्ति। यस्तु केवलं मिथ्याभाषी परवञ्चकः स सर्वस्वं हारयित्वा प्राणानपि जहाति।
—ईसन्नीतिकथाः
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58. THE QUACK FROG.
५८ छद्मवैद्यस्य दर्दुरस्य.
कश्चिद्वाचाटो नाम मण्डुक एकदा सरसो निष्क्रम्योच्चैःस्थलमध्यासाञ्चक्रे। तत्रस्थस्तारस्वरेण सर्वान् वनपशूनाकार्य वदति ‘भोः सत्त्वाः शृणुत। अहं कुशलो भिषगस्मि। गदमात्रस्यापोहने प्रभवामि।’ एतावदुक्त्त्वात्मनो नैपुण्यं प्रकटयितुमायुर्वेदाद्वचनान्युज्जगार। वन्यपशवस्तेषामभिप्रायं नाजानन्। परमयं कोऽपि महांश्चिकित्सक इति तेषामभात्। अतो यद्यत्स निजगाद तत्तत्सर्वं तेषां सम्मतमभवत्। तत्र कोऽपि क्रोष्टाऽऽसीत्। स एतन्न सेहे। स भर्त्सयन् मण्डूकमाह। ‘रे पामर ते मुखं संकुचितम्। किलासावृतं ते वपुर्निस्तेजस्कं च। स त्वमन्येषां रोगान् दूरीकरोमीति वदन् किं न लज्जसे?’ तात्पर्यम्—य आत्मनो दोषान् दूरीकर्तुं न शक्नोति सोऽन्यस्य दोषान् विप्रक्रप्टुं न यतेत। योऽन्यमुपदिशति स तथाचरेद्यथास्याचरणे न कोऽपि सन्दिह्यात्। एवं सति तस्योपदेशो मान्यो भवति। यो दोषोऽन्यैस्त्याज्य इति वयं लोक उपदिशामस्तेन दोषेण वयमेव लिप्यामहे यदि, तर्हि कथं स उपदेशो मान्यो भवेत्? वयं चोपहास्याः कथं न भवेम?
—ईसब्नीतिकथाः
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- THE WOLF AND THE CRANE.
५२. वृकबकयोः
कश्चिद्वृको मेषमेकं व्यापाद्याग्रसत्। तस्यैकमस्थि तस्य गले रुद्धम्। तत आर्तः स उच्चैरटन् वने बभ्राम। ययं सत्त्वं मार्गे ददर्श तंतमतिकरुणया वाचोदैरयत्। ‘सौम्य यदि कृपया गलगतमिदमस्थि निष्कासयसि तर्ह्यनल्पं पारितोषिकं ते दास्यामि’। तत एको बकः पारितोषिकलोभेन पुरो भूत्वाऽभयशपथं कारयित्वा तदानने स्वां लम्बां ग्रीवां निवेश्य तन्निष्कासयांबभूव। ततो बकं पारितोषिकं याचमानं वृको विस्फारितचक्षुर्ब्रवीति। ‘रे अधम, अदृष्टपूर्वस्त्वत्सदृशो मूर्खः! तव ग्रीवां मे गल आसीत्तामचर्वित्वा त्वं मया जीवन्मुक्तः। एतावताप्यसन्तुष्टः पारितोषिकं याचसे?’तात्पर्यम्— केचनैवंविधा अधमाः सन्ति यत्तेषामुपकरणे द्वौ दोषावुपजायेते। एकस्तावदनर्हाणां साहाय्यकरणम् द्वितीयस्तु तैः संबंधं कृत्वा विपद उपनयनम्। यत उपकारिष्वप्यपकारकरणं दृष्टानां स्वभाव एव। एतादृशेभ्यो हानिं विना मोक्षे जाते महाल्ँलाभो जात इति ज्ञेयम्।
—ईसन्नीतिकथाः
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- THE FOX THE STORK.
६०. जम्बुकसारसयोः
कश्चिज्जम्बुक एकदा सारसं स्वगृहे भोजनाय न्यमन्त्रयत। तस्य परिहासकाम्यया चारुस्थाल्यां पायसं निधाय तस्य पुरोऽस्थापयत्। तत्पात्त्रमुभयतः स्थित्वोभौ भक्षयितुं प्रववृताते। परं सारसो दीर्घचञ्चुत्वादायासैरपि पात्रस्थं पायसमास्वादितुमक्षमो बभूव। अत्रान्तरे जम्बूकः सर्वं तद् भक्षयित्वा पात्र लिलेह। सारसोऽप्य
लब्धाभ्यवहारो विलक्षो भूत्वा गृहं वव्राज। तज्जम्बूकस्य कौटिल्यं मनसि संस्थाप्यान्यस्मिन्दिने सारसो जम्बूकमाह्वयत्। आलिञ्जर आम्ररसं निक्षिप्य तस्याग्रेऽवास्थापयत्। तस्यालिञ्जरस्य तनूदरकण्ठतया जम्बूकस्य मुखप्रवेशस्यानवकाश आसीत्। तदा सारस आत्मनो लम्बां ग्रीवामन्तः प्रवेश्यैवं खादितव्यमिति तस्मै निदर्शयांबभूव। तथा कृत्वोपदेशव्याजेन यथेष्टं रसं पीत्वा तृप्तिमव्यगच्छत्। प्राशनकाले यदायदा सारसो ग्रीवां बहिश्चकर्ष तदातदा ये बिन्दवस्तस्यालिञ्जरस्योपरि पेतुस्तान् वारंवारमालिह्य जम्बूकः समाहितो बभूव। परं हृद्यतीव तप्तोऽभवत्। ततो निर्गमकाले स सारसं व्याजहार। ‘सखे यत्त्वं कृतवांस्तद्युक्तमेव। यथाहमकरवं तथैव त्वमपि कृतवान्। अतो मयाऽऽत्मा न खेदयितव्यः’।
—ईसन्नीतिकथाः
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- THE CRANE ASPIRING TO PASS FOR A SWAN.
६१. हंसपदकांक्षिणो बकस्य.
अस्ति भागीरथीतीरे श्वेताङ्गो नाम बकः। स कदाचिन्मानसनिवासिनां हंसानां गुणान् रसिकैरुपवर्ण्यमानानाकर्ण्य सञ्जातेर्ष्यश्चिन्तयामास। ‘अहो को हि नामास्मदपेक्षया हंसेषु विशेषो येन मन्दा अमी तानेव प्रशंसन्ति। यथा वयमेवं तेऽपि श्वेतकायास्तोयाधारसंचारिणश्च। भवतु। अतः परं हंसेनैव मया भवितव्यम्’। एवं विचिन्त्य सोऽयं मूढधीः प्रफुल्लकल्हारभासुरेषु सरःसु विहर्तुमारेभे। हिमांशुखण्डधवलानि च मृणालान्यास्वादयन् राजहंसतामेवात्मनः प्रकाशयामास। अत्यजच्च बकजात्युचितं मत्स्यव्यापादनम्। अथ कदाचित्स्नानार्थमुपस्थितेन केनापि मुग्धमतिना दारकेण कौतुका–
द्गृहीतोऽयमानीतश्चात्मनः सदनम्। गृहवर्तिनो वृद्धास्तु तमवलोक्य “भ्रान्तोऽसि वत्स येन त्वयाऽयं धूर्तशिरोमणिहंर्सइति गृहीतः’ इत्यब्रुवन्। श्वेताङ्गस्तु तदाकर्ण्य रोषमभिनयन् प्राह। ‘धिङ्मूढानपरीक्ष्यवादिनो युष्मान्ये हंसकुललब्धजन्मानमपि मां बक इति प्रजल्पथ!” तदाकर्ण्य कोऽपि चतुरमतिः सविनयमब्रवीत्। ‘युज्यते महाभाग, कुतोऽन्यथा तवैतच्छुक्लत्वम्? भवतु।अपनीयतां कोपः। आस्वाद्यतां चैतत् क्षीरम्’ एवमभिधाय सलिलमिश्रमस्मै पय उपजहार। सोऽपि मन्दात्मा निःशेषमप्येतत् प्राशितवान्। तदवलोक्य च तेनाभिहितः। धूर्त बकहतक न जातु कर्मसादृश्याज्जातिर्विपरिवर्तते। रथवाहनमात्रेण गर्दभोऽश्वायेत किम्? तद्गच्छ, ज्ञातोऽसि’। सोऽपि लज्जितो यथागतं प्रतिजगाम।
—गद्यकुसुमहारः
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- THE SAGE AND THE MOUSE.
६२. मुनिमूषकयोः
अस्ति गौतमस्य महर्षेस्तपोवने महातपा नाम मुनिः। तेनाश्रमसन्निधाने मूषकशावकः काकमुखाद् भ्रष्टो दृष्टः। ततः स स्वभावदयात्मना तेन मुनिना नीवारकणैः संवर्धितः। ततो बिडलास्तं मूषकं खादितुमुपधावति। तदवलोक्य मूषकस्तस्य मुनेः क्रोडं प्रविवेश। ततो मुनिनोक्तम्। ‘मूषक त्वं मार्जारो भव’। ततः स बिडालःकुक्कुरं दृष्ट्वा पलायते। ततो मुनिनोदितम्। ‘कुक्कुराद् विभेषि? त्वमेव कुकुरो भव।’ स कुक्कुरो व्याघ्राद् बिभेति। ततस्तेन मुनिना कुक्कुरो व्याघ्रः कृतः। अथ व्याघ्रमपि तं मूषकनिर्विशेषं पश्यति स मुनिः। अथ तं मुनिं व्याघ्रं च दृष्ट्वा सर्वे वदन्ति।
‘अनेन मुनिना मूषको व्याघ्रतां नीतः’। एतच्छ्रुत्वा स व्याघ्रः सव्यथोऽचिन्तयत्। ‘यावदनेन मुनिना जीवितव्यम्, तावदिदं मे स्वरूपाख्यानमकीर्तिकरं न पलायिष्यते’। इत्यालोच्य मुनिं हन्तुं गतः। ततो मुनिना तज्ज्ञात्वा पुनर्मूषको भवेत्युक्त्त्वा मूषक एव कृतः।
—हितोपदेशः
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- A THOUGHTLESS ACTION LEADS TOREPENTANCE
६३. अविवेकोऽनुशयाय कल्पते।
अस्त्युज्जयिन्यां माधवो नाम विप्रः। तस्य भार्या प्रसूता। सा बालापत्यस्य रक्षार्थं पतिमवस्थाप्य स्नातुं गता। अथ ब्राह्मणाय राज्ञः पार्वणश्राद्धं दातुमाह्वानमागतम्। तच्छ्रुत्वा स विप्रः सहजदारिद्यादचिन्तयत्। ‘यदि सत्वरं न गच्छामि तदा तत्रान्यः कश्चिच्छ्राद्धं ग्रहीष्यति। किन्तु बालकस्यात्र रक्षको नास्ति। तत्किं करोमि? यातु। चिरकालपालितमिमं नकुलं पुत्रनिर्विशेषं वालकरक्षार्थं व्यवस्थाप्य गच्छामि’। तथा कृत्वा गतः। ततस्तेन नकुलेन बालकसमीपमागच्छन् कृष्णसर्पो दृष्ट्वा व्यापादितः खण्डितश्च। ततोऽसौ नकुलो ब्राह्मणमायान्तमवलोक्य रक्तविलिप्तमुखपादः सत्वरमुपगम्य तच्चरणयोर्लुलोठ। ततः स विप्रस्तथाविधं तं दृष्ट्वा बालकोऽनेन खादित इत्यवधार्य नकुलं व्यापादितवान्। अनन्तरं यावदुपसृत्य पश्यति ब्राह्मणस्तावद्बालकः सुस्थः सर्पश्च व्यापादितस्तिष्ठति। ततस्तमुपकारकं नकुलं तदवस्थवलोक्य भावितचेताः स परं विषादं गतः।
—हितोपदेशः
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- A SKILFUL MINISTER.
६४. विचक्षणस्य मन्त्रिणः
कश्चिद्राजा यौवनेऽतीव मृगयाशील आसीत्। अनेन हेतुना स प्रजापालनेऽनवहितोऽभवत्। एकदा वनं मृगयार्थंगत उलूकानां संघद्वयं विवदमानमपश्यत्। तद्दर्शनेन विस्मितो राजा मन्त्रिणमवददस्य कलहस्य किं कारणम्? पक्षिणां भाषां त्वं जानासीति हेतुना त्वां पृच्छामि। मन्त्री प्रत्यभाषत। वधूवरपक्षावेतावुभौ संघौ। वरपक्षोऽद्य पशूनां चत्वारिंशतं शवानि याचते। वधूपक्षोऽधुना केवलं चत्वारि शवानि ददाति। किन्तु राजा सुहृदामुपदेशमनादृत्य प्रजापालनमनवेक्षमाणः प्रतिदिनं मृगयामभ्यस्येच्चेदशीतिं शवानि दातुं स प्रतिशृणोति। एतदेव तयोर्विवादवस्तु। तच्छ्रुत्वा राजाऽतीव निर्विण्णो भूत्वा मृगयां विहाय प्रजापालने मतिमकरोत्।
—पाठावली–प्रथमः परिच्छेदः
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- THE TALE OF JARASANDHA.
६५. जरासन्धकथा.
पुरा किल जरासन्धो नाम कोऽपि नागायुतबलः क्षत्रिय आसीत्। स दुरात्मा महावीरान् क्षत्रियान् युद्धे निर्जित्य स्ववेश्मनि निरुध्य मासिमासि कृष्णचतुर्दश्यामकेकैं हत्वा तद्बलिं भैरवायाकरोत्। एवं सकलजनपदक्षत्रियवधे दीक्षितस्य तस्य दुष्टाशयस्य वधमभिकाङ्क्षन् भगवान् वासुदेवो भीमार्जुनसहितस्तद्गृहं विप्रवेषेण प्रविवेश। स तु तान् वस्तुतो विप्रानेव मन्वानो दण्डवत्प्रणम्य यथोचितमासनेषु समुप्रवेश्य मधुपर्कदानेन संपूज्य धन्योऽस्मि, कृतकृत्योऽस्मि, किमर्थं भवन्तो मद्भवनमागतास्तद्वक्तव्यम्, यद्यदभिलषितं तत्तत्सर्वं भवतां प्रदास्यामी–
त्युवाच। तदाकर्ण्य भगवान् वासुदेवः प्रहसन् पार्थिवं तमब्रवीत्। भद्र, वयं कृष्णभीमार्जुना युद्धार्थं समागताः। अस्माकमन्यतमं द्वन्द्वयुद्धार्थ वृणीष्वेति। सोऽपि महाबलस्तथेति वदन् द्वन्द्वयुद्धाय भीमसेनं। वरयामास। अथ भीमजरासन्धयोर्भीषणं मल्लयुद्धं पंचविंशतिं वासरान् प्रवर्तते स्म। अन्ते च भगवता देवकीनन्दनेन संबोधितः स वायुसूनुस्तस्य शरीरं द्विधा कृत्वा भूमौ निपातयामास। एवं बलिष्ठं जरासन्धं पांडुपुत्रेण घातयित्वा तेन कारागृहीतान् पार्थिवान् वासुदेवो मोचयामास। तेऽपि तं भगवन्तं बहुधा स्तुवन्तः स्वान् स्वाञ्जनपदान् प्रतिपेदिरे।
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- TRUTHFULNESS REWARDED.
६६. कृतार्थ सत्यवादित्वम्
मालवाधिपतिर्दर्पसारो दुर्गादागतं कञ्चित् पुरुषं दुर्गपालगतमुदन्तमपृच्छत्। पुरुषोऽब्रवीत्। ‘स दुर्गपालःपीनो यौवनसुलभेन तेजसा बलेन च युक्तः स्वर्गाधिपतिरिव कालं नयति।’ दर्पसारः प्राह। ‘नाहं तस्य शरीरस्वास्थ्यं पृच्छामि। किन्तु कथं स प्रजाः शास्तीति मह्यं कथय’। पुरुषोऽभाषत। ‘स कृपणोऽधर्मशीलो दुर्विनीतः क्रूरश्चास्ति’। राजाऽभाषत‘प्रजाभिर्दोषांस्तस्य स्वामिने कथयित्वा किमर्थं भ्रष्टाधिकारो न कारितः?’। पुरुषोऽकथयत्। ‘तस्य स्वामी स्वयमेवान्यायप्रवृत्तोऽस्ति’। राजोवाच। ‘पुरुष न जनासि कोऽहमिति। पुरुषः प्रत्यभाषत। ‘जानामि त्वां दुर्गपालस्य ज्येष्ठं भ्रातरं मालवाधीशम्।’ राजाऽगदत्। एतं वृत्तान्तं ममाग्रे कथयितुं कथं न विभेषि?पुरुषोऽवदत्। ‘ईश्वराद् विम्यत्पुरुषस्तस्मादितरस्मात् कस्मादपि न
बिमेति तथा च सत्यं वदञ्जनोऽसत्यं मनसाऽपि न चिन्तयति। अनेन वचनेन तुष्टो राजा पुरुषस्यार्जवं दृष्ट्वा तस्मै दीनारसहस्रमददादवदच्च सत्यभाषणे कृतनिश्चयेन पुरुषेण न कस्मादपि भेतव्यम्। यतः स सदेश्वरेण रक्षितव्यः। अण्वपि सत्यं पर्वत तुल्यमसत्यं नाशयितुमलम्। सत्यवादीहामुत्र च बहुमानं लभते। निन्दकानां निन्दामगणयित्वा ये न्याय्ये वस्तुनि सत्यं वदितुं यतन्ते तेषामन्यतमस्त्वमसीति मे भाति।
—पाठावली–द्वितीयः परिच्छेदः
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- NEVER TRAVEL WITHOUT A COMPANION.
६७. असहचरेण न प्रवस्तव्यम्
कस्मिंश्चिदधिष्ठाने ब्रह्मदत्तो नाम ब्राह्मणः प्रतिवसति स्म। स च प्रयोजनवशाद् ग्रामं प्रस्थितः स्वमात्राभिहितो यद्वत्स, कथमेकाकी व्रजसि? तदन्विष्यतां कश्चिद् द्वितीयः सहायः। स आह ‘अम्ब, मा मयं गमः। निरुपद्रवोऽयं मार्गः। कार्यवशादेकाकी गमिष्यामि’। अथ तस्य तं निश्चयं ज्ञात्वा समीपस्थवाप्याः सकाशात्कर्कटकमादाय मात्राभिहितः। ‘वत्स, अवश्यं यदि गन्तव्यं तदेष कर्कटोऽपि सहायो भवतु। तदेनं गृहीत्वा गच्छ’। सोऽपि मातुर्वचनादुभाभ्यां पाणिभ्यां तं संगृह्य कर्पूरपुटिकामध्ये निधाय पात्रमध्ये संक्षिप्य शीघ्रं प्रस्थितः। अथ गच्छन् ग्रीष्मोष्मणा सन्तप्तो मार्गस्थं कंचिद् वृक्षमासाद्य तत्रैव प्रसुप्तः। अत्रान्तरे वृक्षकोटरान्निर्गत्य सर्पस्तत्समीपमागतः। सोऽपि कर्पूरसुगन्धसहजप्रियत्वात्तं परित्यज्य वस्त्रं विदार्याम्यन्तरगतां कर्पूरपुष्टिकामतिलौल्यादमक्षयत्। सोऽपि कर्कटस्तत्रैव स्थितः सन् सर्पप्राणानपाहरत्। ब्राह्मणोऽपि यावत्प्रबुद्धः पश्यति तावत्समीपे कृष्ण-
सर्पों निजपार्श्वे कर्पूरपुटिकोपरि स्थितस्तिष्ठति। तं दृष्ट्वा व्यचिन्तयत्। कर्कटेनायं हत इति। प्रसन्नो भूत्वाऽब्रवीत्। भोः सत्यमभिहितं मम मात्रा यत्पुरुषेण कोऽपि सहायः कार्यो नैकाकिना गन्तव्यमिति। ततो मया श्रद्धापूरितचेतसा तद्वचनमनुष्ठितम्। तेनाहं कर्कटेन सर्पव्यापादनाद्वक्षितः। एवमुक्त्वासौ विप्रो यथाभिप्रेतं गतः
—पञ्चतन्त्रम्.
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68 EXCESSIVE GREED LEADS TO DESTRUCTION.
६८. अतिलाभो विनाशाय।
अस्ति मालवविषये पद्मगर्भाभिधानं सरः। तत्रैको वृद्धो बकः सामर्थ्यहीन उद्विग्नमिवात्मानं दर्शयित्वा स्थितः। स च केनचित् कुलीरकेण दृष्टः पृष्टश्च। किमिति भवानत्राहारत्यागेन तिष्ठति? बकेनोक्तम्। भद्र शृणु, मत्स्या मम जीवनहेतवः। ते चावश्यं कैवर्तैरागत्य व्यापादयितव्या इति वार्ता नगरोपान्ते मया श्रुता। अतो वर्तनाभावादेवास्तन्मरणमुपस्थितमिति ज्ञात्वाऽऽहारेऽप्यनादरः कृतः। ततः सर्वैर्मत्स्यैरालोचितम्। इह समये तावदुपकारक एवायं। लक्ष्यतेऽस्माकम्। तदयमेव यथाकर्तव्यं पृच्छ्यताम्। तथा चोक्तम्— उपकर्त्रारिणा सन्धिः कार्य इति। मत्स्या ऊचुः। भो बक, कोऽत्र रक्षणोपायः? बको ब्रूते। अस्ति रक्षणोपायो जलाशयान्तराश्रयणम्। तत्राहमकैकशो युष्मान्नयामि। मत्स्या आहुः। एवमस्तु। ततोऽसौ बकस्तान् मत्स्यानेकैकशो नीत्वा खादति। अनन्तरं कुलीरकस्तमुवाच। भो बक, मामपि तत्र नयेति। ततो बकोऽप्यपूर्वकुलीरमांसार्थी सादरं तं नीत्वा स्थले धृतवान्। कुलीरोऽपि मत्स्यकण्टकाकीर्णंतत्स्थलमालोक्याचिन्तयत्। हा हतोऽस्मि मन्दभाग्यः! भवतु। इदानीं समयोचितं व्यवहरामि। इत्युक्त्वा स कुलीरस्तस्य ग्रीवां
चिच्छेद। स बकः पञ्चत्वं गतः। अतोऽहं ब्रमीमि, नरोऽतिलोभान्निधनमाप्नोतीति।
—हितोपदेशः
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- THE LION’S CUBS AND THEJACKAL.
६९. सिंहशावकक्रोष्टूनाम्.
कस्मिंश्चिद्वनोद्देशे सिंहदंपती प्रतिवसतः स्म। अथ सिंही पुत्रद्वयं सुषुवे। सिंहोऽपि नित्यमेव मृगान् व्यापाद्य सिंह्यै ददाति। अथ कदाचित्तेन किमपि नासादितम्। वने भ्रमतोऽपेि तस्य रविरस्तङ्गतः। अथ तेन स्वगृहमागच्छता शृगालशिशुः प्राप्तः। स च बालकोऽयमिति मत्वा यत्नेन दंष्ट्रामध्यगतं कृत्वा भार्यायै जीवन्तमपि समर्पितवान्। ततस्तयाभिहितम्। ‘भोः कान्त, आनीतं किंचिदस्माकं भोजनम्?’ केसरी प्राह‘प्रिये, मयाद्यैनं शृगालशिशुं परित्यज्य न किञ्चित्सत्त्वमासादितम्। स च मया बालोऽयमिति मत्वा न व्यापादितः। इदानीमेनं भक्षयित्वा पथ्यं कुरु। प्रभातेऽन्यदुपार्जयिष्यामि।’ साह। ‘भोःप्रिय, त्वया बालकोऽयमिति कृत्वा न व्यापादितः। तदहं कथमेनं स्वोदरार्थे हन्मि?। उक्तं च। प्राणत्यागेऽपि नैव कार्यमकार्यमिति। तस्मान्ममायं तृतीयः पुत्रो भविष्यति।’ इत्युक्त्वा तमपि स्वस्तनक्षीरेण पुष्टिमनयत्। एवं ते त्रयोऽपि शिशवः परस्परमज्ञातजातिविशेषा एकत्रविहारिणो बाल्यमतिवाहयन्ति। अथ कदाचित्तत्र वने भ्राम्यन् वनगजो दृष्टस्तैः। तं दृष्ट्वा तौ सिंहसुतौ द्वावपि कुपिताननौ तं प्रति प्रचलितौ यावत्तावत्तेन शृगालसुतेनाभिहितम्। ‘अहो, गजोऽयमस्मत्कुशत्रुः। तन्न गन्तव्यमेतस्याभिमुखम्’। एवमुक्त्वा गृहं प्रभावितः। तावपि
ज्येष्ठत्रासान्निरुत्साहतां गतौ। ततो द्वावपि पित्रोरग्रतो विहसन्तौ ज्येष्ठभातृचेष्टितमूचतुर्यथा गजं दृष्ट्वा दूरतोऽपि नष्टः। सोऽपि तदाकर्ण्य कोपाविष्टः प्रस्फुरिताधरपल्लवस्ताम्रलोचनस्त्रिशिखां भ्रुकुटीं कृत्वा तौ निर्भर्त्सयन् परुषतरवचनान्युवाच। ततः सिंह्यैकान्ते नीत्वा प्रबोधितः। ‘वत्स, मैवं कदाचिज्जल्प। भवदीयलघुभ्रातरावेतौ’। अथासौ प्रभूतकोपाविष्टस्तामुवाच। ‘किमहमेताभ्यां शौर्यरूपेण विद्याभ्यासेन वा न्यूनो येन मामुपहसतः?। तन्मयाऽवश्यमेतौ व्यापादनीयौ’। तदाकर्ण्य सिंही तस्य जीवितमिच्छन्ती प्राह।‘हे पुत्रक, त्वं शूरः कृतविद्यो दर्शनीयश्चासि। किन्तु यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नोऽसि तत्र गजो नैव हन्यते। शृगालसुतस्त्वं कृपया मया स्वकीयक्षीरपानेन पुष्टिं नीतः। तद्यावदेतौ त्वां शृगालं न जानीतस्तावद् द्रुतं गत्वा स्वजातिमध्ये भव।नो चेदाभ्यां हतो मृत्युपथमेप्यसि’। सोऽपि तद्वचनं श्रुत्वा भयव्याकुलमनाः क्षणात् प्रनष्टः।
—पञ्चतन्त्रम्–४
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- THE STORY OF KING SHIBI.
७०. शिबिराजकथा.
उशीनरेषु सर्वभूतहिते रतः परमधार्मिकः सकलसत्त्वाभयप्रदः शिबिर्नाम नरपतिरासीत्। तस्य धर्म परीक्षितुं सुरेन्द्रः श्येनवेषेण मायाकपोततनुं वैश्वानरमन्वपतत्। तदानीं श्येनभीतः कपोतः शिबेरङ्कं समाशिश्राय। अथ श्येनो मनुजवाचा राजानमाह। ‘राजन्, क्षुधितस्य मे भक्ष्यमिमं कपोतं मुञ्च। अन्यथा मां मृतं विद्धि। ततः कस्ते धर्मो भवेत्?’ इत्युक्तो महाकारुणिकः शिविः कपोतमोचनमनिच्छंस्तं विहङ्गराजमब्रवीत्। ‘हे श्येनराज, भवद्भीत्या मामेष
शरणं गतः। नायं त्याज्यः। एतन्मात्रमन्यन्मांसं ग्रहीतुमर्हति भवान्’। महीपतेरिदं वचनमाकर्ण्य श्येनस्तन्मानसं जिज्ञासुः प्रत्युवाच। ‘राजन्, यद्येवं तर्हि तत्प्रमाणमात्मपल्लं मे प्रयच्छ। तद्यथातृप्ति भक्षयित्वा स्वमालयं गमिष्यामि’। अथ राजा तथेत्युक्त्वा सादरं कृपाणमादायाऽत्मनो मांसमुत्कृत्य तत्तुलामारोपयत्। यथायथा नृपः स्वकं मांसं समुत्कृत्यारोपयत् तथातथा स कपोतस्तुलायामभ्यधिको बभूव। यदा नृपोऽसकृन्मांसं समुत्कृत्य निर्मांसोऽभवत्तदा श्येनपरितोषाय स्वयं तुलामारुरोह। एतन्महदाश्चर्यमालोक्य वृन्दारका हर्षनिर्भरा मन्दारपारिजाताद्यैः प्रसूनैर्भपमवाकिरन्। ततस्ताविन्द्रवैश्वानरौ श्येनकपोतयो रूपे परित्यज्य परमप्रीत्या राजानमक्षततनुं तेनतुस्तस्मै बहून् वरान् दत्त्वाऽन्तर्धानमीयतुश्च।
—महाभारतम्
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- A SUCCESSFUL DEVICE.
७१. व्यपदेशेऽपि सिद्धिः स्यात्।
कदाचिद्वर्षास्वपि वृष्टेरभावात्तृषार्तो गजयूथो यूथपतिमाह। ‘नाथ कोऽभ्युपायोऽस्माकं जीवनाय? नास्त्यत्र क्षुद्रजन्तूनां निमज्जनस्थानम्। वयं तु निमज्जनाभावान्मृता इव। क्व यामः? किं कुर्मः?’। ततो हस्तिराजो नातिदूरं गत्वा निर्मलं हृदं दर्शितवान्। ततो दिनेषु गच्छत्सु तत्तीरावस्थिता गजपादाहतिभिश्चूर्णिताः क्षुद्रशशकाः। अनन्तरं शिलीमुखो नाम शशकश्चिन्तयामास। अनेन गजयूथेन पिपासाकुलितेन प्रत्यहमत्त्रागन्तव्यम्। अतो विनश्यत्यरमत्कुलम्। ततो विजयो नाम वृद्धशशकोऽवदत्। ‘मा विषीदत। मयात्र प्रतीकारःकर्तव्यः’। ततोऽसौ प्रतिज्ञाय चलितः। गच्छता च तेनाऽलोचि-
तम्। ‘कथं मया गजयूथसमीपे स्थित्वा वक्तव्यम्? यतो गजः स्पृशन्नपि हन्ति। अतोऽहं पर्वतशिखरमारुह्य यूथनाथं संवादयामि। तथानुष्ठिते यूथनाथ उवाच। ‘कस्त्वम्? कुतः समायातः?’। स ब्रूते शशकोऽहम्। भगवता चन्द्रेण भवदन्तिकं प्रेषितः’। यूथपतिराह। ‘कार्यमुच्यताम्’। विजयो ब्रूते। ‘उद्यतेष्वपि शस्त्रेषु दूतोऽन्यथा न वदति। सदैवावध्यभावेन स यथार्थस्यैव वाचकः। तदहं तदाज्ञया ब्रवीमि। शृणु। यदेते चन्द्रसरोरक्षकास्त्वया शशका निःसारितास्तन्न युक्तं कृतम्। यतस्ते चिरमस्माकं रक्षिताः। अत एव मे शशाङ्क इति प्रसिद्धिः। एवमुक्तवति दूते यूथपतिर्भयादिदमाह।’ इदमज्ञानतः कृतम्। पुनर्नागमिष्यामि। शशक उवाच, यद्येवं तदत्र सरसि कोपात्कम्पमानं भगवन्तं शशाङ्कं प्रणम्य प्रसाद्य गच्छ’। ततो रात्रौ तेन यूथपतिश्चन्द्रसरो नीतस्तज्जले चञ्चलं चन्द्रविम्बं दर्शयित्वा प्रणामं कारितश्च। उक्तं च शशकेन।’ देव, अज्ञानादनेनापराधः कृतः। ततः क्षम्यताम्। नैवं वारान्तरं विधास्यते’ इक्युक्त्वा प्रस्थापितः।
—हितोपदेशः
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72. THE BELLY AND THE MEMBERS.
७२. उदारावयवानाम्.
एकदा हस्तपादाद्यवयवा व्यचिन्तयन्। यद्वयं श्राम्यामः संगृहूणीमश्च। किं तर्हीदमुदरमायासानकृत्वा सुखं खादति?यदद्ययावज्जातं तदस्तु नाम। अद्यप्रभृतीदं श्रमित्वात्मनः पोषणं कुर्यात्। नास्माकमनेन प्रयोजनम्। एवं सशपथं सर्वे निश्चिक्युः। हस्तावूचतुः। यद्यस्योदरस्यार्थेऽङ्गुलिमपि चालयेव त्रुट्यन्तु नावखिलाङ्गुल्यः।
मुखमुवाच। अहं शपथं करोमि। यद्यस्यार्थ एकमपि ग्रासं गृह्णामि कृमय आक्रामन्तु माम्। दन्ता ऊचुः। यद्यस्य कृते ग्रासं चर्वामो भङ्ग उपैत्वस्मान्। एवं शपथेषु कृतेषु यो निश्चयः कृतस्तस्य पालनमावश्यकं बभूव। एवं जाते सर्वेऽवयवा अशुष्यन्, अस्थिचर्ममात्रम वाशिष्यत। तदा ‘न साधु कृतमस्माभिः’ इति सर्वेषां चक्षुषी उन्मीलिते। ‘उदरेण विना वयमगतिकाः। तत् स्वयं न श्राम्यति। परं यावद्वयं तस्य पोषं विदध्मस्तावदस्माकं पोषणं भवतीति’सर्वे सम्यग्जज्ञिरे। तात्पर्यम्—स्मिंश्चित्काल एकस्यां राजधान्यां चिरयुद्धप्रसङ्गाद्राज्ञः कोशागारे द्युम्नसंकोचे समुत्पन्ने स राजा प्रजाभ्यो बलिं जग्राह। तत् प्रजा नाभिमेनिरे। ता उपद्रवोऽयमिति गणयित्वा नगराद्बहिरावासं रच्यामासुः। तत्र वर्तमानाभिस्ताभिः संहतिः कृता। ता मिथोऽमन्त्रयन्त। वयं क्लिश्यामहे। राजा त्वस्मत् किमिति मुधा गृह्णाति? अतःपरं न वयं राज्ञे किमपि दास्यामः। इति सर्वा निश्चिच्युः। तासामेतं निर्णयं संप्रधार्य राजाऽऽत्मनोऽमात्यं तान् प्रति प्रेषयामास। सोऽमात्यः प्रजाभ्य उदरावयवानामेनां कथां निवेद्य तासामानुकूल्यं प्राप। राजा प्रजाश्च सुखमन्वभूवन्। यदि वयं राज्ञे भागधेयं न दद्याम तस्य व्ययोपयोगाय धनं न शिष्यते। एवं समापतिते तस्करा बद्धपरिकरा दिवापि लुण्ठनं विधास्यन्ति राजा प्रजाश्च सममेव नशिष्यन्ति।
—ईसब्नीतिकथाः
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73. IN PRAISE OF VYASA, VALMEEKI, KALIDAS AND OTHER POETS.
७३. व्यासवाल्मीकिकालिदासादीनां कवीनां प्रशंसा.
कवीन्दुं नौमि वाल्मीकिं यस्य रामायणीं कथाम्।
चन्द्रिकामिव चिन्वन्ति चकोरा इव साधवः॥१॥
सदूषणापि निर्दोषा सखरापि सुकोमला।
नमस्तस्मै कृता येन रम्या रामायणी कथा॥२॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम्।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम्॥३॥
लौकिकानां हि साधूनामर्थं वागनुवर्तते।
ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति॥४॥
श्रवणाञ्जलिपुटपेयं विरचितवान् भारताख्यममृतं यः।
तमहमरागमतृष्णं कृष्णद्वैपायनं वन्दे॥५॥
अचतुर्वदनो ब्रह्मा द्विबाहुरपरो हरिः।
अभाललोचनः शम्भुर्भगवान् वादरायणः॥६॥
व्यासगिरां निर्यासं सारं विश्वस्य भारतं वन्दे।
भूषणतयैव संज्ञां यदङ्कितां भारती वहति॥७॥
उपमा कालिदासस्य भारवेर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः॥८॥
यस्याश्चोरश्चिकुरनिकरः कर्णपूरो मयूरो
भासो हासः।कविकुलगुरुः कालिदासो विलासः।
हर्षो हर्षो हृदयवसतिः पञ्चबाणस्तु बाणः।
केषां नैषा कथय कविताकामिनी कौतुकाय॥९॥
—सुभाषितावलिः
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74. APPEARANCES ARE OFTEN DECEPTIVE.
७४. आकृतयो बहुशो विसंवादिन्यः
कस्मिंश्चिदधिष्ठाने कुम्भकारः प्रतिवसति स्म। स कदाचित् पानमत्तोऽर्धभग्नकर्परतीक्ष्णाग्रस्योपरि महता वेगेन धावन् पतितः। ततः कर्परकोटया पाटितललाटो रुधिरप्लाविततनुः कृच्छ्रादुत्थाय
स्वाश्रयं गतः। ततश्चापथ्यसेवनात्स प्रहारस्तस्य करालतां गतः। कृच्छ्रेण नीरोगतां नीतः। अथ कदाचिद् दुर्भिक्षपीडिते देशे स कुम्भकारः क्षत्क्षामकण्ठः कैश्चिद्वाजसेवकैः सह देशान्तर गत्वा कस्यापि राज्ञः सेवको बभूव। सोऽपि राजा तस्य ललाटे विकरालं प्रहारक्षतं वीक्ष्य चिन्तयामास—यद्वीरः पुरुषः कश्चिदयम्। नूनमेतेन समरे ललाटपट्टे संमुखप्रहारः प्राप्तः। अतस्तं संमानादिभिः सर्वेषां राजपुत्राणां सकाशाद्विशेषप्रसादेन पश्यति। तेपि राजपुत्रास्तस्य तं प्रसादातिरेकं पश्यन्तः परमेर्ष्याधर्मं वहन्तो राजभयान्न किंचिदूचुः। अथान्यस्मिन्नहनि तस्य भूपतेर्विग्रहे समुपस्थिते वीरसंभावनायां क्रियमाणायां, प्रकल्प्यमानेषु वाजिषु, योधेषु च प्रगुणीक्रियमाणेषु, तेन भूभुजा स कुलालःप्रस्तावानुगतं पृष्टो निर्व्यञ्जने। यद्भो राजपुत्र, कस्मिन् संग्रामेऽयं प्रहारो ललाटे लग्नः? स आह। ‘देव नायं शस्त्रप्रहारः। कुलालोऽहं प्रकृत्या। मद्गेहेऽनेककर्पराण्यासन्। अथ कदाचित् मद्यपानं कृत्वा निर्गतः प्रधावन् कर्परोपरि पतितः। तस्य प्रहारविकारोऽयं मे ललाट एवं विकरालतां गतः’तदाकर्ण्य राजा सव्रीडमाह।‘अहो वञ्चितोऽहं राजपुत्रानुकारिणानेन कुलालेन। तद्दीयतां द्रागेतस्य चन्द्रार्थः’। तथानुष्ठितेकुम्भकार आह। ‘मा मैवं कुरु। पश्य मे रणे हस्तलाघवम्’। राजा। प्राह। ‘भोः सर्वगुणसंपन्नो भवान्। तथापि गम्यताम्। यतो यस्मिन् कुले त्वमुत्पन्नस्तत्र विक्रमस्य नामापि न श्रयते।’
—पञ्चतन्त्रम्
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75. A TIGER AND A BRAHMAN.
७५. विप्रव्याघ्रयोः
अहमेकदा दक्षिणारण्ये चरन्नपश्यम्। एको वृद्धव्याघ्रः स्नातः कुशहस्तः सरस्तीरे ब्रूते। भो भोः पान्थाः, इदं सुवर्णकङ्कणं गृह्य-
ताम्। ततो लोभाकृष्टेन केनचित् पान्थेनाऽलोचितम्। भाग्येनैतत्संभवति। किंत्वस्मिन्नात्मसंदेहे प्रवृत्तिर्न विधेया। यतो जातेऽपि समीहितलाभेऽनिष्टाच्छुभा गतिर्न जायते। किंतु सर्वत्रार्थार्जने प्रवृत्तिःसंदेह एव। उक्तं च— संशयमनारुह्य नरो भद्राणि न पश्यति।तन्निरूपयामि तावत्। प्रकाशं ब्रूते। कुत्र तव कङ्कणम्?। व्याघ्रो हस्तं प्रसार्य दर्शयति। पान्थोऽवदत्। कथं मारात्मके त्वयि विश्वासः? व्याघ्र उवाच। शृणु रे पान्थ। प्रागेव यौवनदशायामतिदुर्वृत्त आसम्। अनेकगोमानुषाणां वधाद् मे मृताः पुत्रा दाराश्च। वंशहीनश्चाहम्।\। ततः केनचिद्धार्मिकेणाहमादिष्टः। दानधर्मादिकं चरतु भवान्। तदुपदेशादिदानीमहं स्नानशीलो दाता वृद्धो गलितनखदन्तो न कथं विश्वासभूमिः? मम चैतावाल्ँलोभविरहो येन स्वहस्तस्थमपि सुवर्णकङ्कणं यस्मै कस्मैचिद्दातुमिच्छामि। तथापि व्याघ्रो मानुषं खादतीति लोकापवादो दुर्निवारः। यतो लोको गतानुगतिकः। मया च धर्मशास्त्राण्यधीतानि। त्वं चातीव दुर्गतः। तेन तुभ्यं दातुं यत्नोऽहम्। तदत्र सरसि स्नात्वा सुवर्णकङ्कणं गृहाण।ततो यावदसौ तद्वचःप्रतीतो लोभात् सरः स्नातुं प्रविशति तावन्महापङ्के निमग्नः पलायितुमक्षमः। तं पङ्के पतितं दृष्ट्वा व्याघ्रोऽवदत्। अहह, महापङ्के पतितोऽसि! अतस्त्वामहमुत्थापयामि। इत्युक्त्वा शनैरुपगम्य तेन व्याघ्रेण धृतः स पान्योऽचिन्तयत्। मया भद्रं न कृतं यदत्र मारात्मके विश्वासः कृतः। स्वभावो हि सर्वान् गुणानतीत्य मूर्ध्नि वर्तते। अन्यच्च। ललाटे लिखितं प्रोज्झितुं कः समर्थः? इति चिन्तयन्नेवासौ व्याघ्रेण व्यापादितः खादितश्च। अतोऽहं ब्रवीमि सर्वथाऽविचारितं कर्म न कर्तव्यम्।
—हितोपदेशः
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76. GARUD LIBERATING HIS MOTHER.
७६. मातरं बन्धनान्मोचयतो गरुडस्य.
पुरा किल कद्रूर्विनता चेति कश्यपस्य द्वे भार्ये बभूवतुः। कद्रूर्बहून्नागान् सुषुवे। विनतायास्तु गरुत्मानरुणश्चेति द्वावेव पुत्रौ जज्ञाते। अतो नागाः काद्रवेया इति संज्ञां प्रापुर्गरुत्मांश्च वैनतेय इति। अथ कदाचित् कथाप्रसंगेन ते सपत्न्यौ मिथो विवादमारेभाते। श्यामा रवेरश्वा इति कद्रूःप्रोवाच। सितास्त इत्यपरा। एवं विवदमानेते पणं ववन्धतुः। यस्या वचनं मिथ्या भवेत्तयान्या दासीभावेनोपचर्येति। ततो जयार्थिनी कद्रर्निजात्माजानहूयाभिदधे। भो यद्यहं भवतां मान्या तद्रवेरश्वान् सर्वत आवृणुत येन ते श्यामलाःस्युरिति। ततस्तैस्तथा कृते कद्रः श्यामीभूतान् रवेश्वान् विनतायै दर्शितवती। सा चैवं कैतवेन जिता पणबन्धेनावशा सपत्न्या गेहे दासीभावं प्रपेदे। ततो भ्रातृमुखेनैतं वृत्तान्तं गरुत्माञ्शुश्राव। दुःखितश्च त्वरितं कद्धूमियाय। तत्र नागास्तमभितः परिवव्रुर्दास्या अयं पुत्र इति चोपजहसुः। अश्रुत्वेव तेषां दुरुक्तानि संयम्य क्रोधं कहूं सविनयं प्रणम्य तार्क्ष्यो मातुर्दास्यान्मुक्तिं ययाचे। तदा काद्रवेयाः सुचिरं संचिन्त्यैवमूचुः। भो गरुत्मन् सुधामाहृत्य नः प्रयच्छ। ततो मातरं मोचयिष्यसीति। तथेति तेभ्यः प्रतिश्रुत्य गरुत्मान् क्षीराब्धिं ययौ। तत्र तस्य गुणैर्भगवान् विष्णुः परं तुतोष। तस्मै वरौ प्रददौ च। एकेन वरेण स सुधाकलशं लेभsरेपण सविषा अपि नागास्तस्य भक्ष्या बभूवुः। एवं संपादितार्थो निवृत्य गरुडः कद्रूमुपाययौ। उवाच च। भोः काद्रवेया इदममृतमानीतं दर्भसंस्तरे स्थापयामि। ममाम्बां मोचयित्वेदं सवः पीयतामिति। तच्छ्रुत्वातीव हृष्टास्ते वैनतेयाय मातरं प्रतिददुः। वेगेन च पीयूषकलशमभिपेतुः। तस्मिन्नेव क्षणे शक्रो दभसंस्तरात्क-
लशमपजहार। तेन नागाः परं विषादं भेजुः। अमृतलवाकाङ्क्षया च लिलिहुःसंस्तीर्णान् दर्भान्। ततः पाटितजिह्वास्ते द्विजिह्वताञ् जग्मुः। तान्मूढान् निहत्य गरुडोऽपि दिनेदिने प्राणयात्रां चक्रे।
—महाभारतम्.
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77. THE LION AND HIS SERVANTS.
७७. सिंहतदनुचराणाम्
अस्ति कस्मिंश्चिद्वनोद्देशे मदोत्कटो नाम सिंहः। तस्य सेवकास्त्रयः काको व्याघ्रो जम्बुकश्व। अथ तैर्भ्रमद्भिः सार्थाद् भ्रष्टः कश्चिदुष्ट्रो दृष्टः पृष्टश्च। कुतो भवानागतः? स चात्मवृत्तान्तमकथयत्। ततस्तैर्नीत्वाऽसौ सिंहाय समर्पितः। तेनाभयवाचं दत्त्वा चित्रकर्ण इति नाम कृत्वा स्थापितः। अथ कदाचित्सिंहस्य शरीरवैकल्याद् भूरिवृष्टिकारणाच्चाहारमलभमानास्ते व्यग्रा बभूवुः। ततस्तैरालोचितम्। चित्रकर्णमेव यथा स्वामी व्यापादयति तथाऽनुष्ठीयताम्। किमनेन कण्टकभुजा? व्याघ्र उवाच। स्वामिनाऽभयवाचं दत्त्वानुगृहीतस्तत्कथमेवं संभवति?। काको ब्रूते। इह समये परिक्षीणः स्वामी पापमपि करिष्यति। यतः क्षुधार्ता महिला स्वपुत्रं त्यजेत्। क्षुत्पीडिता भुजङ्गी स्वमण्डं खादेत्। बुभुक्षितः किं न करोति पापम्? क्षीणा नरा निष्करुणा भवन्ति। अन्यच्च। मत्तः क्रुद्धो लुब्धो भीरुस्त्वरायुक्तश्च धर्मविन्न भवति। इति संचिन्त्य सर्वे सिंहान्तिकं जग्मुः। सिंहेनोक्तम्। किमाहारार्थं प्राप्तम्? तैरुक्तम्। यत्नादपि न प्राप्तं किंचित्। सिंहेनोक्तम्। कोऽधुना जीवनोपायः? काको वदति। देव स्वाधीनाहारपरित्यागात्सर्वनाशोऽयमुपस्थितः। सिंहेनोक्तम्। अत्राहारः क. स्वाधीनः? काकः कर्णे कथयति। चित्रकर्ण
इति। सिंहो भूमिं स्पृष्ट्वा कर्णौ स्पृशति। अभयवाचं दत्त्वा धृतोऽयमस्माभिः। तत्कथमेवं संभवति?तथा च सर्वेषु दानेष्वभयप्रदानं महादानं वदन्तीह मनीषिणः। अन्यच्च शरणागते सम्यग्रक्षिते, अश्वमेधस्य फलं लभ्यत इति। काको ब्रूते। नासौ स्वामिना व्यापादयितव्यः। किंत्वस्माभिरेव तथा कर्तव्यं यथासौ स्वदेहदानमङ्गीकरोति। सिंहस्तच्छ्रुत्वा तूष्णीं स्थितः। ततोऽसौ लब्धावकाशो वायसः कूटं कृत्वा सर्वानादाय सिंहान्तिकं ततः। अथ काकेनोक्तम्। देव यत्नादप्याहारो न प्राप्तः। अनेकोपवासखिन्नः स्वामी। तदिदानीं मदीयमांसमुपभुज्यताम्। सिंहेनोक्तम्। भद्र, वरं प्राणपरित्यागो न पुनरीदृशि कर्मणि प्रवृत्तिः। जम्बूकेनापि तथोक्तम्। ततः सिंहेनोक्तम्। मैवम्। अथ व्याघ्रेणोक्तम्। मद्देहेन जीवतु स्वामी। सिंहेनोक्तम्। न कदाचिदेवमुचितम्। अथ चित्रकर्णोऽपि जातविश्वासस्तथैवात्मदानमाह। तद्वदन्नेवासौ व्याघ्रेण कुक्षिं विदार्यं व्यापादितः सर्वैर्भक्षितश्च। अतोऽहं ब्रवीमि, सतामपि मतिः खलोक्तिभिर्दोलायत इति।
—हितोपदेशः
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78. THE COUNTRY-MOUSE AND THE TOWN–MOUSE.
७८. ग्राम्यनागरिकमूषकयोः
कश्चिदृजुस्वभावो ग्राम्यो मूषिक आसीत्। तस्य गृह एकदा कश्चनापरो दर्शनीयाकृतिः पीनशरीरो नागरिकमूषिक आयात्। पूर्वसंस्तववशात्स ग्राम्यो मूषिकस्तं परमप्रीत्याऽतिथिवदुपाचरत्। बिलगतैर्भक्ष्यपेयैः क्षेत्रमध्यादुपानीतैः कोमलगोधूमकणिशैः कलायपुटैः पूर्वसंगृहीतैरपूपशकलैश्च तं संतोषयामास। एवं ग्रामसाध्यैर्बहुभिर्वस्तु,
भिरुपचरितोऽपि स तुष्टिं नावाप। ततः कालेन स नागरिको ग्राम्यमुवाद। तात, यदि भवते रोचते तर्हि विशङ्केन मनसा किञ्चिदुच्यते मया। तदवहितो भव। कथं भवानस्मिन्मलिने स्थले निवसति? इदमरण्यम्। इतस्ततस्तृणवृक्षव्रततिविषमाद्रिनिर्झरैर्विना न किमपि दृग्गोचरं भवति। अत्रत्येभ्यः पक्षिविरावेभ्यो मानुषशब्दा न किं सुखतराः? अस्मान्निर्जनप्रदेशाद्राजधानी न किं सुखावहा?तर्हि मद्वचनमङ्गीकृत्य नगरं प्रतिष्ठस्व। तत्र भवान् सुखं वत्स्यति। अलं विचार्य। द्रुततरमागम्यताम्। क्षणिकोऽयं संसारः। अत्र लब्धो मुहूर्त एकोऽप्यानन्देन नतेव्यः। इत्येतान्यन्यानि चैवंविधानि तस्य व्यामोहकवचनानि श्रुत्वा स जरठो ग्राम्यमूषिको मुमोह। ततस्तावुभौ नगराय प्रतस्थाते। निशामुखे नगरं विविशतुः। अदूर एव किञ्चिद्धर्म्यं ददृशतुश्च। तत्र पूर्वदिन एव विवाहमङ्गलं निर्वर्तितमासीत्। तन्मंदिरं प्रविश्य कोष्ठागारं जग्मतुः। तन्नानाविधभोज्यैः पूर्णममानुषं चासीत्। एवं दृष्ट्वा स ग्राम्यो हृष्टमना बभूव। स नागरिकस्तमुवाच। भो महत्तर, अस्याः शालाया मध्य उपविशतु भवान्। अहमेकैकशः पदार्थनानयामि। तानास्वाद्य रसभेदः सर्वेषां मह्यं निवेदनीयः। एवमुक्त्वा नागरिकः प्राघुणिकं प्रत्येकैकं वस्तु फलानि मोदकापूपादीनि च क्रमशो ददौ। सोऽपि तानादाय नेत्रे निमील्य तानास्वादयन्नास्ते। आस्वादनकाले च ‘अहह कियत्यस्य माधुरी!’ इत्युदीरयति स्म। एवं द्वित्रान्मुहूर्तान् यापयित्वा यावदवलोकयतस्तावत्कश्चित्पुरुषस्तत्रागत्य कोष्ठागारस्य द्वारमुदघाटयत्। ततः संभ्रमणोभावपि कोणे निलिल्यतुः। एतस्मिन्नेव काले द्वौ स्थूलवपुषावोतू तत्रागच्छताम्। उच्चै रुरुवतुश्च।
तं बिडालशब्दं श्रुत्वा ग्राम्यस्य हृदयं भयादवेपत। स मन्दं तं नागरिकं प्राह। भो नागरिक, यद्येवंविधं ते सुखं तत्तवाक्षय्यमस्तु। ग्राम एव मे श्रेयान्। तत्रगता क्षेत्रोद्धृता शिम्बिका वरम्। न चात्रत्यं सोद्वेगमपूपमण्डकास्वादनम्।
—ईसब्नीतिकथाः
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79. THE TREACHEROUS CAT.
७९. विश्वासघातिन आखुभुजः।
आस्ति भागीरथीतीरे गृध्रकूटनाम्नि पर्वते महान् पर्कटीवृक्षः। तस्य कोटरे दैवदुर्विपाकाद् गलितनखनयनो जरद्गवनामा गृध्रः प्रतिवसति। अथ कृपया तज्जीवनाय तद्वृक्षवासिनः पक्षिणः स्वाहारात् किञ्चित्किञ्चिदुद्धृत्य ददति। तेनासौ जीवति। शावकानां च रक्षणं। करोति। अथ कदाचिद्दीर्घकर्णो नाम मार्जारः पक्षिशावकान् भक्षयितुं तत्रागतः। ततस्तमायान्तं विडालमालोक्य खगशिशुभिः कोलाहलः कृतः। तच्छ्रुत्वा जरद्गवेनोदितम्। कोऽयमायाति?दीर्घकर्णो गृघ्रवलोक्य सभयमाह। हा हतोऽस्मि। अधुनास्य सन्निधाने पलायितुमक्षमः। तद्यथा भवितव्यं तद्भवतु। इदानीं तावद्विश्वासमुत्पाद्यास्य समीपमुपगच्छामि। इत्यालोच्योपसृत्याब्रवीत्। आर्य त्वामभिवन्दे। गृध्रोऽवदत्। कस्त्वम्? सोऽवददाखुभुगहम्। गृध्रो ब्रूतेदूरमपसर। नो चेद्धन्तव्योऽसि मया। ओतुरभाषत। श्रूयतां तावदस्मद्वचनम्। ततो यद्यहं वध्यस्तदा हन्तव्यः। यतो जातिमात्रेण कश्चित् क्वचिद्धन्यते पूज्यते वा? व्यवहारं परिज्ञाय वध्यो वा पूज्यो वा भवेत्। गृध्रो वदति। ब्रूहि किमर्थमागतोऽसि? सोऽगदत्। अहमत्र गङ्गातीरे नित्यस्नायी ब्रह्मचारी चान्द्रायणव्रतमाचरंस्तिष्ठामि। यूयं धर्मज्ञानरता विश्वासभूमय इति पक्षिणः सर्वे सर्वदा ममाग्रे प्रस्तुवन्ति। अतो भव–
दभ्यो विद्यावयोवृद्धेभ्यो धर्मं श्रोतुमिहागतः। भवन्तश्चैतादृशा धर्मज्ञा यन्मामतिथिं हन्तुमुद्यताः। यदि वा धनं नास्ति तदा प्रीतिवचसाप्यतिथिः पूज्य एव। अपरं च निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु साधवो दयां कुर्वन्ति। गृध्रोऽवदत्। मार्जारो मांसरुचिः। विहगडिम्भाश्चत्र निवसन्ति। तेनाहमेवं ब्रवीमि। तदाकर्ण्य बिडालो भूमिं स्पृष्ट्वा कर्णौ स्पृशति। ब्रूते च। मया धर्मशास्त्रं श्रुत्वा वीतरागेणेदं दुष्करं व्रतमध्यवसितम्। परस्परं विवदमानानामपि धर्मशास्त्राणामहिंसा परमो धर्म इत्यत्रैकमत्यम्। एवं विश्वास्य स मार्जारस्तरुकोटरे स्थितः। ततो दिनेषु गच्छत्सु विहङ्गमशावकानाक्रम्य कोटरमानीय प्रत्यहं खादति। येषामपत्यानि खादितानि तैः शौकार्तैर्विलपद्भिरितस्ततो जिज्ञासा समारब्धा। तत्परिज्ञाय मार्जारः कोटरान्निःसत्य बहिः पलायितः। पश्चात् पक्षिभिरितस्ततो निरूपयद्भिस्तत्र तरुकोटरे शात्रकास्थीनि प्राप्तानि। अनन्तरमनेनैव जरद्गवेनास्माकं शावकाः खादिता इति सर्वैः पक्षिभिर्निश्चित्य गृध्रो व्यापादितः। अतोऽहं ब्रवीमि। अज्ञातकुलशीलस्य वासो नैव देयः।
—हितोपदेशः
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80. DASHARATHA’S CURSE.
८०. दशरथशापवृत्तान्तः
सभार्ये रामे वनं गते दशरथः परमशोकार्तः कौसल्यामाह। देवि, इदं दुःखं स्वयंकृतमेव मयानुप्राप्तम्। तद्यथा। पुरा प्रावृट्समयेव्यायामार्थमहं सरयूनदीमगच्छम्। अथान्धकारे नर्दतो वारणस्येव जले पूर्यमाणस्य कुम्भस्य घोषमहमशृणवम्। ततः शरमुदधृत्याभिलक्ष्यमपातयम्। अथ तत्क्षण एव, हाहा हतोऽस्मि! को मम वधेनार्थी स्यात्? ‘किं वाऽस्य मयाऽपकृतम्? नेममात्मवधमनुशोचामि किंतु मद्वधे वृद्धावन्धौ च पितरावनुशोचामीत्यादिक्रन्दनध्वनिमशृणवम्।
ततो विषण्णमनास्तं देशमुपागम्य सरय्वास्तीरे वाणेन हतं तापसमपश्यम्। मामुद्वीक्ष्येदं क्रूरं वच उवाच। राजन् वने निवसता मया किं वा तवापकृतं यद्गुर्वर्थमंभो हर्तुकामोऽहं त्वया बाणेन मर्मण्यभिहतः? हते मयि वृद्धावन्धौ दुर्बलौ च मम पितरावाहतादेवेति विद्धि। तत्तौ। शीघ्रं गत्वेमं वृत्तान्तं श्रावय पितरं च प्रसादय। न त्वां कुपितोऽपि शपेत्। राजन्, ब्रह्महत्याकृतस्तापो हृदयादपनीयताम्। यतो नाहं ब्राह्मणः किन्तु वैश्येन शूद्रायां जातः। इत्युक्त्वा प्राणांस्त्यक्तवति तस्मिन्नहं तं घटमादाय तत्पितुराश्रमं गतः। मत्पदशब्दं श्रुत्वा स मुनिरभाषत। पुत्र, किं चिरायसि? इयं ते माता पिपासिता। त्वयि प्राणाः समासक्ता। कथं त्वं नाभिभाषसे?तच्छ्रुत्वा विह्वलमना अहमब्रवम्। नाहं तव पुत्रः किन्तु दशरथो नाम क्षत्रियोऽस्मि यथा च मयाऽज्ञानात्तव पुत्रको हतस्तच्छ्रयताम्। इत्युक्त्वा पुत्रवधप्रकारं परमदुःखितोऽकथयम्। तदाकर्ण्य बाप्पपूर्णवदनो निःश्वसञ्शोकमूर्च्छितो मुनिः कृताञ्जलिमुपस्थितं मामवदत्। इदं महत्पापं खलु त्वया कृतम्। ज्ञानपूर्वं कृतं चेद्वज्रिणमपि स्वस्थानाच्च्यावयेत्। किन्त्वज्ञानात्त्वया कृतमिदम्। तेन जीवसि, न शतधा दीर्णोऽसि। अधुना नय नौ तं देशमिति मामभ्यभाषत च। अथाहं तौ तत्र नीत्वा पुत्रमस्पर्शयम्। तं स्पृष्ट्वा पितरौ बहुविधं विलेपतुः। विलप्य स मुनिर्भार्यया सहोदकं कर्तुं प्रावर्तत। अनन्तरं कृताञ्जलिमुपस्थितं मामुवाच। अद्यैव जहि मां राजन् मरणे नास्ति मे व्यथा। यथा पुत्रमरणजं मे साम्प्रतमिदं दुःखमेवं त्वमपि पुत्रशोकेन कालं करिष्यसि। इति मयि शापं न्यस्य करुणं विलप्य देहं चितामारोप्य च तन्मिथुनं स्वर्गमभ्ययात्। तद्देवि तस्यायं पापकर्मणो विपाकोऽद्य समुपस्थितः।
कौसल्ये चक्षुषा त्वां न पश्यामि। स्मृतिर्मम विलुप्यते। एते विवस्वतो दूता मां त्वरयन्ति। धन्याः खलु ते नरा ये रामस्य पद्मपत्रेक्षणं सुन्दरं चारुनासिकं ताराधिपसमं मुखं द्रक्ष्यन्ति। हा महाबाहो राघव, हा पितृप्रिय, हा कौसल्ये, हा कुलपांसुले कैकेयि, इति राममातुः सुमित्रायाश्च सन्निधौ शोचन् राजा दशरथो जीवितान्तमुपागच्छत्।
—रामायणोद्धृतः
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81. THE LARK AND HER YOUNG ONES.
८१ टिट्टिभीशावकानाम्
काचिट्टिट्टिभ्येकस्मिन् क्षेत्रे नीडं कृत्वोवास। यदा तत्क्षेत्रं पक्वमभवत्तदा सा चिन्तयाऽऽक्रम्यत। साऽऽह, ‘मम शावका नातिपरिस्फुटपक्षाः। यद्यस्य क्षेत्रस्य स्वाम्युड्डयनाक्षमेप्वेषु सस्यलवनं कारयेत् का मे गतिर्भवेत्?’ ततः प्रभृति प्रत्यहं यदा साऽऽहारसंचयनाय बहिर्जगाम तदा सा शावकानादिशत्। ‘मम परोक्षे यद्यत्कोऽप्यत्रागत्य वदति तत्सर्वं गृहं प्रत्यागतायै मह्यमाख्येयं युष्माभिः’ इति। कदाचित्तस्य क्षेत्रस्य स्वामी पुत्रद्वितीयः क्षेत्त्रमागत्य तमभिदधे। ‘पुत्र लवनयोग्यमिदं क्षेत्रम्। याहि। श्वः प्रातरस्य लवने सहाया भवितुमर्हथेतीष्टाप्तजनान् विज्ञापय’। एतत्ते शावकाः प्रत्यागतायै मात्रे यथावन्निवेदयामासुः। सकिलकिलं तां परिवृत्य ‘झटिति नयास्मानितोऽन्यत् स्थलम्’ इति ययाचिरे। मातोवाच—।‘बालाः स्वस्थाः स्त। यथा क्षेत्रस्वामी सस्यलवनविषये प्रातिवेश्येष्विष्टाप्तेषु च विश्वसिति तथाहं दृढं जाने सस्यलवनं श्वो न भविता’ इति। अन्येद्युर्यदा सा बहिर्जगाम तदा पूर्ववत्तानादिदेश। अतस्ते क्षेत्रपतेरुक्तिं प्रति बद्धावधानास्तस्थुः। स क्षेत्रमागम्याहूतानपेक्षांचक्रे परं कोऽपि नायात्। अन्यच्च मध्यमहूनः सविताऽऽरूढः। अतः स
सूनुमकथयत्। पुत्रक, इष्टाप्तप्रातिवेश्येषु विश्वासो न कार्यः। याहि तर्हि। श्व आत्मनो बन्धुवर्गं विज्ञापय—।भवन्तः सस्यसंचयेऽवश्यंसाहाय्यं कर्तुमर्हन्तीति। तच्छ्रुत्वा शावका अतीव बिभ्युः। आगताया एव जनन्यै यथाश्रुतं निवेदयामासुः। तदा सोवाच। ‘अर्भकाः, यद्येवं मा बिभीत। यतो बन्धुवर्गः स्वजनस्य हितं प्रति जागरूकःकार्यं करिष्यतीति मिथ्यैव। श्वः किल यद् ब्रतीति तत्समाहिताः शृणुत मह्यं च निवेदयत’ इति। अपरेद्युरपि स्वामी तत्रागत्य बन्धुजनांश्चिरं प्रतिपालयामास। तेऽपि नाययुः। तदा स पुत्रमाह ‘भीमक गच्छाधुना। श्वोद्वे लवित्रे तेजिते कुरु। आवामेव सस्यं। लुनाव’। इमां वार्तां शावका जनन्यै न्यवेदयन्। एतदाकर्ण्य साह। ‘डिम्भाः, अधुनात्रास्माकं वासो नोचितः। यतो यः स्वयं किमपिकर्माङ्गीकरोति स प्रायस्तस्यान्तं यायात्’। ततः सा शावकान् सद्योऽन्यत्र निनाय। अपरेऽहनि स स्वामी सपुत्र आगत्य सस्यलवनं व्यधत्त।
—ईसब्नीतिकथाः
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82. THE THREE FISHES.
८२ त्रयाणां मत्स्यानाम्.
अस्ति मगधदेशे फुल्लोत्पलाभिधानं सरः। तत्र चिरं संकटविकटनामानौ हंसौ निवसतः। तयोर्मित्रं कम्बुग्रीवनामा कूर्मश्च प्रतिवसति। अथैकादा धीवरैरागत्य तत्रोक्तम्। यदात्रास्माभिरद्योषित्वा प्रातर्मत्स्यकुर्मादयो व्यापादयितव्याः। तदाकर्ण्य कूर्मो हंसावाह।सुहृदौ। श्रुतोऽयं धीवरालापः?। अधुना किं मया कर्तव्यम्? हंसावाहतुः। ज्ञायतां पुनस्तावत्प्रातर्यदुचितं तत् कर्तव्यम्। कूर्मो ब्रूते मैवम्, यतो दृष्टव्यतिकरोऽहमत्र। तथा चोक्तम्। अनागतविधाता
प्रत्युत्पन्नमतिश्चेति द्वौ सुखमेधेते। यद्भविष्यस्तु विनश्यत्यसंशयम्। तावाहतुः कथमेतत्?। कूर्मः कथयति। पुराऽस्मिन्नेव सरस्येवंविधेषुधीवरेषूपस्थितेषु मत्स्यत्रयेणालोचितम्। तत्रानागतविधाता नामैको मत्स्यः। तेनोक्तम्। अहं तावज्जलाशयान्तरं गच्छामि। इत्युक्त्वा हृदान्तरं गतः। अपरेण प्रत्युत्पन्नमतिनाम्ना मत्स्येनाभिहितम्। भविप्यदर्थे प्रमाणाभावात् कुत्त्रमया गन्तव्यम्? तदुत्पन्ने यथाकार्यमनुष्ठेयम्। तथा चोक्तम्। य उत्पन्नामापदं समाधत्ते स बुद्धिमान्। ततो यद्भविप्येणोक्तम्। यदभावि तन्न भावि भावि चेत्तदन्यथा न। इत्ययं चिन्ताविषघ्नोऽगदः किं न पीयते? ततः प्रातर्जालेन बद्धः प्रत्युत्पन्नमतिर्मृतवदात्मानं संदर्श्य स्थितः। ततो जालादपसारितो यथाशक्त्युत्प्लुत्य गभीरं नीरं प्रविष्टः। यद्भविप्यश्च धीवरैः प्राप्तो व्यापादितः।
—हितोपदेशः।
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83. DULLARDS GO TO RUIN.
८३. बुद्धिहीना विनश्यन्ति
कस्मिंश्चिदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणपुत्राः परं मित्रभावमुपगता वसन्ति स्म। तेषां त्रयः शास्त्रपारं गताः परन्तु बुद्धिरहिताः। एकस्तु बुद्धिमान् केवलं शास्त्रपराङ्मुखः। अथ तैः कदाचिन्मित्रैर्मन्त्रितम्। को गुणो विद्यया येन देशान्तरं गत्वा भूपतीन् परितोप्यार्थोपार्जना न क्रियते? तत्पूर्वदेशं गच्छामः। तथानुष्ठिते कंचिन्मार्गं गत्वा तेषां ज्येष्ठतरः प्राह। अहो, अस्माकमेकश्चतुर्थो मूढः, केवलं बुद्धिमान्। न च राजप्रतिग्रहो बुद्धया लभ्यते विद्यां विना। तन्नास्मै स्वोपार्जितं दास्यामि। तद्गच्छतु गृहम्। ततो द्वितीयेनाभिहितम्। भोःसुबुद्धे, त्वं गच्छ स्वगृहं यतस्ते विद्या नास्ति।
ततस्तृतीयेनाभिहितम्। अहो, न युज्यत एवं कर्तुं यतो वयं बाल्यात्प्रभृत्येकत्रक्रीडिताः। तदागच्छतु महानुभावोऽस्मदुपार्जितवित्तस्य संविभागी भविष्यति। उक्तं च। अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकमिति। तदागच्छत्वेषोऽपीति। तथानुष्ठिते तैर्मार्गाश्रितैरटव्यां मृतसिंहस्यास्थीनि दृष्टानि। ततश्चैकेनाभिहितम्। यदहो विद्याप्रत्ययः क्रियते। किंचिदेतत्सत्त्वं मृतं तिष्ठति। तद्विद्याप्रभावेण जीवसहितं कुर्मः। अहमस्थिसंचयं करोमि। ततस्तेनौत्सुक्यादस्थिसंचयः कृतः। द्वितीयेन चर्ममांसरुधिरं संयोजितम्। तृतीयोऽपि यावज्जीवं संचारयति तावत्सुबुद्धिना निषिद्धः। भोः, तिष्ठतु भवान्। एष सिंहो निष्पाद्यते। यद्येनं सजीवं करिष्यसि ततस्सर्वानपि स व्यापादयिष्यति। इति तेनोक्तः स प्राह। धिङ् मूर्ख, नाहं विद्याया विफलतां करोमि। ततस्तेनाभिहितम्। तर्हि प्रतीक्षस्व क्षणं यावदहं वृक्षमारोहामि। तथानुष्ठिते यावत् सजीवः कृतस्तावत्ते त्रयोऽपि सिंहेनोत्थाय व्यापादिताः। स च पुनर्वृक्षादवतीर्य गृहं गतः। अतोऽहं ब्रवीमि, बुद्धिहीना विनश्यन्तीति।
—पञ्चतन्त्रम्-४
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84. THE FROG AND THE FISHES.
८४. प्लवमीनानाम्
कस्मिंश्चिज्जलाशये शतबुद्धिः सहस्त्रबुद्धिश्च द्वौ मत्स्यौ निवसतः। अथ तयोरेकबुद्धिर्नाम मण्डूको मित्रतां गतः। एवं ते त्रयोऽपि जलतीरे कंचित्कालं वेलायां सुभाषितगोष्ठीसुखममुभूय भूयोऽपि सलिलं प्रविशन्ति। अथ कदाचित्तेषां गोष्ठीगतानां जालहस्तधीवराः प्रभूतैर्मत्स्यैर्व्यापादितैर्मस्तके विधृतैरस्तमनवेलायां तस्मिञ्जलाशये समायाताः। ततः सलिलाशयं दृष्ट्वा मिथः प्रोचुः। अहो, बहुमत्स्योऽयं ह्रदो
दृश्यते स्वल्पसलिलश्च। तत्प्रभातेऽत्राऽगमिष्यामः। एवमुक्त्वा स्वगृहं गताः। मत्स्याश्च विषण्णवदना मिथो मन्त्रं चक्रुः। ततो मण्डूक आह। भोः शतबुद्धे, श्रुतं धीवरोक्तं भवद्भ्याम्? तत्किमत्र युज्यते कर्तुं पलायनमवष्टम्भनं वा? यत्कर्तुं युक्तमस्ति तदादिश्यतामद्य। तच्छ्रुत्वा सहस्रबुद्धिः प्रहस्याह। भोः पुत्र, मा बिभिहि। यतो वचनस्मरणमात्रादेव भयं न कार्यम्। न भेतव्यम्। उक्तं च। सर्वेषां दुष्टचेतसां खलानामभिप्राया न सिध्यन्ति। तेनेदं जगद्वर्तत इति। तत्तावत्तेषामागमनमपि न सम्पत्स्यते। भविष्यति वा तर्हि त्वां बुद्धिप्रभावेणाऽत्मसहितं रक्षिष्यामि। यतोऽनेकाः सलिलगतिचर्या अहं जानामि। तदाकर्ण्य शतबुद्धिराह। भो युक्तमुक्तं भवता। सहस्त्रबुद्धिरेव भवान्। अथवा साध्विदमुच्यते। यद् बुद्धेरगम्यं लोके किंचिन्न विद्यत इति। ततो वचनश्रवणमात्रादपि पितृपर्यायागतं जन्मस्थानं त्यक्तुं न युज्यते। तन्न कदाचिदपि गन्तव्यम्। मण्डूक आह। मम तावदेकैव बुद्धिः पलायनपरा। तदहं जलाशयान्तरमद्यैव सभार्यो यास्यामि। एवमुक्त्वा स मण्डूको रात्रावेवान्यजलाशयं गतः। धीवरैरपि प्रभात आगत्य जघन्यमध्यमोत्तमजलचरा मत्स्यकर्ममण्डककर्कटादयो गृहीताः। तावपि शतबुद्धिसहस्त्रबुद्धी सभार्यौपलायमानौ चिरमात्मानं गतविशेषविज्ञानै रक्षन्तौ जाले पतितौ व्यापादितौ च।
—पञ्चतन्त्रम्–४
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85. THE RESOURCEFUL JACKAL
८५. अनल्पसाधनस्य गोमायोः
अस्ति कस्मिंश्चिद्वने महाचतुरको नाम शृगालः प्रतिवसति स्म। तेन कदाचिदरण्ये स्वयं मृतो गजः समासादितः। तस्य समन्ताद् भ्रमति। परं कठिनत्वचं भेत्तुं न शक्नोति। तत्रान्तरे भ्रमंस्तत्र प्रदेशे कश्चित्सिंहः समायातः। तं दृष्ट्वा स क्षितितलविन्यस्तमौलिः प्रणम्य प्रोवाच। स्वामिन्, त्वदीयो लाकुटिकः सन्नहं गजं रक्षामि। तद्भक्षयतु स्वामी। तं दृष्ट्वा सिंह आह। भो नाहमन्यहतं सत्त्वं कदाचिद्भक्षयामि। तन्मया प्रसादीकृत एष ते गजः। तच्छ्रुत्वा सानन्दमाह। युक्तमेतत्स्वामिनः। उक्तं च। अन्त्यावस्थां गतोऽपि महान् स्वगुणान्न जहाति। तदाकर्ण्य सिंहो गतः। अथ तस्मिन् कश्चिद् व्याघ्रः समायातः। तमपि दृष्ट्वा व्यचिन्तयत्। कथमेको दुरात्मा सिंहस्तावत्प्रणिपातेनापवाहितः। तदस्य कथमतिवाहनं भविष्यति? शूरोऽयं भेदं विना साध्यो न भविष्यति। सर्वगुणसंपन्नोऽपि भेदेन बध्यते। एवं संप्रधार्य तस्याभिमुखो भूत्वेषदुन्नतकन्धरः प्रोवाच। माम अद्य भवानत्त्रमृत्युमुखं प्रविष्टः। एष गजो व्यापादितः सांप्रतं सिंहेन। स च मां रक्षपालं निधाय स्नानार्थं गतः। तेन च मह्यं निवेदितं गच्छता–यदि व्याघ्रः समागच्छति तन्मे सुगुप्तं निवेदनीयं येन मया निर्व्याघ्रं वनं कार्यम्। व्याघ्रेणैकेन मया हतो गजः शून्ये भक्षयित्वोच्छिष्टतां नीतः। तच्छ्रुत्वा भयत्त्रस्तमनाः स आह। भो भगिनीसुत, देहि मे प्राणदक्षिणाम्। त्वया चिरायागतस्य तस्य मदीया किंवदन्ती नाख्येया। एवमुक्त्वा सत्वरं प्रनष्टः। अथ तस्मिन् गते कश्चिद्वानरः समायातः। तमपि दृष्ट्वा व्यचिन्तयत्। दृढदंष्ट्रोऽयम्। तदस्य पार्श्वाद्गजचर्मच्छेदं कारयामि। एवं निश्चित्य
तमुवाच। भो भगिनीसुत चिराद् दृष्टोऽसि। अपरं बुभुक्षितः समागतस्त्वतिथिश्च। एष गजः सिंहेन हतस्तिष्ठति। अहं तु रक्षपालः। अतो वदामि मांसं भक्षयित्वा तृप्तिं कृत्वा व्रज यावत्स नागच्छति। स आह। माम, यद्येवं तन्न कार्यं मे मांसाशनेन। यतो जीवन्नरो भद्रशतानि पश्येत्। तदहं यास्यामि।शृगाल आह। भो विश्रब्धो भक्षय त्वम्। तस्यागमनं दूरतोऽहं ते निवेदयामि। तथानुष्ठिते चर्मभेदं जातं विज्ञाय तेनाभिहितम्, भो भगिनीसुत गम्यताम्। एष सिंहः समायाति। तच्छ्रुत्वा सोऽपि प्रनष्टः। अथ यावदसौ वानरकृतद्वारेण तन्मांसं भक्षयति तावदपरःशृगालः संक्रुद्धः प्राप्तः।तमपि दृष्ट्वाऽचिन्तयत्। उत्तम प्रणिपातेन शूरं भेदेन नीचमल्पप्रदानेन समशक्तिं च पराक्रमैर्योजयेत्। ततस्तं जित्वा स्वदंष्ट्राभिर्विदार्य दिशोभाजं कृत्वा स्वयं सुखेन चिरकालं तन्मांसं बुभुजे।
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—पञ्चतन्त्रम्–४
86. THE STAG IN THE OX-STALL.
८६. गोस्थानगतशम्बरस्य
केचिद् व्याधकौलेयकाः कञ्चिच्छम्बरं वनतरुकदम्बकात् प्रसह्य निष्कासयामासुः। सोऽतिशयं धावन् किंचित् खेटकगोस्थानकं प्रविश्य तृण्यायां निलीय स्थितः। तत्रत्यः कश्चिद् वृषभस्तं निरीक्ष्याह। अरे, अत्त्राऽगच्छता त्वया मनसि किं चिन्तितम्? यस्माद्भयमवाप्य निलीय स्थितोऽसि तस्य निधनस्यावाप्तिरत्र तूर्णं भविप्यतीति मन्ये। शम्बरस्तमुवाच। भोः सखायो युष्माभिः सर्वैर्मोनावलम्बः कृतश्चैन्ममात्रावस्थितिर्निर्विघ्ना भविष्यति। समयविशेषं दृष्ट्वाऽहमस्मात्स्थलात् सत्वरमेप्यामि। एवमुक्त्वा स तत्राऽसायमासीत्। संध्यासमय एव गोपालःप्रथमं यावनालकाण्डपुलकान् गृहीत्वा तद्गोस्थानकमाययौ। परन्तु तेन शम्बरो न दृष्टः। तत–
स्तत्राऽगतो गोष्ठाधिकार्यपि तं नापश्यत्। ततः सम्भूता मुदः शम्बरस्यात्मनि न प्रबभूवुः। तदा स शम्बरस्तान् वृषानाह। यूयं धन्याः स्थ। अद्याहं यज्जीवामि स वः श्रेयःप्रभावः। भवादृशाः परोपकारिणः क्वापि न विद्यन्त इति मन्ये। तदाकर्ण्यैकोऽनड्वानाह। त्वयाऽस्मात्स्थलात् सम्यग्विधया निर्गम्य स्वस्थलं गन्तव्यमित्यस्मन्मनसि वर्तते। ईश्वरानुकम्पात एतद्गहाधिपोऽत्र नागच्छतु! यतस्तस्य शतं नयनानि सन्ति। तस्मिन्नागते तत्सन्निधावस्यां तृण्यायां तवनिलीयावस्थानं दुर्घटम्। एवं वृषे वदति प्राग् बहिर्गतो गेहाधिपतिर्भवनमाययौ। किंचादावेव तद्गोष्ठं गत्वा सेवकान् कोपेनोपालभ्याऽह। रे राम, एतस्य बलीवर्दस्य पुरो यावनालकाण्डाः कुतो न सन्ति? नित्यमहमुच्चै रटामि तथापि वस्त्रपा नास्ति कथम्? रे सुवर्ण, अन्यांश्चतुरः पुलकानानीयैतस्यानडुहः पुरो निक्षिप। अहो जाल्माःइमे भृत्याः! एवमतिकोपेन ज्वलन्निव सेवकोपालम्भं कृत्वेतस्ततो भ्रमति तस्मिन् सर्वत्र निरीक्षमाणे तृण्यान्तरस्थे शम्बराङ्गे तस्याक्षिगोचरे अभवताम्। स तदैव तान् सेवकानाह। अरे किमिदमस्यां तृण्यायाम्? अरे धावत, अरे धावत। तच्छ्रुत्वैव तत्किङ्करा लोहकाष्ठकृताञ्शस्त्रविशेषान् गृहीत्वा धावन्तस्तस्मिन्नेव समये तं शम्बरं जघ्नुः।
—संस्कृतेसब्नीतिपुस्तकम्.
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87. THE STORY OF KING NALA.
८७. नलराजकथा.
निषधेषु वीरसेनमहीपालतनुजोपरमधार्मिकः शुचिर्नलो नाम पार्थिवो बभूव। स कदाचित्सरः स्नातुं गतो हंसानीक्षांचक्रे। अथ तेष्वेकं राजहंसं कुतूहलाज्जग्राह। गृहीतो हंसराजो दिव्यस्तं मनुजा-
धिपं मानवगिरोवाच। राजन्, तवोपकारं कुर्याम्। मां मुञ्च विदर्भाणां पत्युर्भीमस्य विनयादिगुणसंपन्ना सुरैरपि स्पृहणीया दमयन्तीति कन्यास्ति। तस्यास्त्वं सदृशो भर्ता सा च तव सदृशी भार्या। युवयोस्तुल्यसंयोगेऽहं दूतो भवामि। तथेति नलराजेन मुक्तो विहंगमो विहायसा गत्वा विदर्भदेशमासाद्य दमयन्तीमभाषत। हे दमयन्ति, नलो नाम निषधेषु भूपतिरस्ति। यदि त्वं तस्य भार्या स्यास्ते जन्म सफलं भवेत्। त्वमसि स्त्रीरत्नम्। नलश्च पुरुषरत्नम्। विशिष्टाया विशिष्टेन संगमो गुणवान् भवेत्। समयोरेव विवाहो विवादश्च शोभत इति नीतिविदो वदन्ति। अतो मे वाचं प्रपूजयेति। तं दिव्यहंसंसत्याभिभाषिणं मत्वा सा प्रोवाच। विहगोत्तम नलादन्यं नाहं वृणे। तस्य महात्मनो राज्ञोऽनन्यसुलभा गुणा मया श्रुतपूर्वाः। मां तेन योजयितुमर्हसि। अनेन कर्मणा ते महत् पुण्यं भविष्यति। अयि विहंगपुङ्गव, अन्यथा मे मरणं शरणम्। इत्युक्त्वाऽऽभरणैः खगोत्तंसमलङ्कृत्य नलं प्रति तं प्रेषयामास। ततो हंसः प्रस्थाय निषधान् प्राप्तः। तत्त्र नलाय दमयन्तीगतं वृत्तान्तं न्यवेदयत्। तदनु यथाकामं जगत्यां संचचार। अत्रान्तरे भीमभूप आत्मदुहितुरुद्वाहाय स्वयंवरं चक्लृपे। तदानीं भीमकन्यां वुवर्षवो बहवो राजानः कुण्डिनपुरं समागताः। चत्वारो दिक्पाला अपि तच्छ्रुत्वा नलरूपधारिणः सद्यस्त्वरान्विता भीमकराजधानीं प्रापुः। अथ स्वयंवरमण्डपे भीमनन्दिनी नलरूपधरान् पञ्च पुरुषान् दृष्टवती। ततश्च जातसंदेहा मेधाविनी सा तेषु चतुरः पुरुषान् दिक्पालानूहाञ्चक्रे। अथ वीरसेनसुतं नलं जिज्ञासमानाऽसौ दिक्पालाञ्शरणंवव्राज। प्रीताश्च ते स्वंस्वं रूपमदर्शयन्। ततश्च सा सुमुखी करधृतं हारं नलकण्ठे न्यवेशयत्। अथ विदर्भाधिपो दुहितृवत्सलः
प्रीत्या यथाविधि तयोर्विवाहमङ्गलं चक्रे। ततो नलस्तया भीमकन्यया साकं विविधानि संसारसुखानि निर्विशन् धर्माचरणेन कालं गमयामास। कदाचिन्नरमणिरक्षालितचरण एव सन्ध्यामुपास्य सुष्वाप। दमयन्तीकृते पूर्व बद्धवैरोऽनेनाशचिनाऽऽचारेण लब्धावसरः कलिर्भूभृतो देहं प्रविवेश। तेन नलो विलुप्तमतिर्धर्म्यमाचारं विहाय यथारुच्याचचार। अथ दुरात्मना पुष्करेण द्यूते हृतविभवो नृपतिर्वनं दयितया सार्धं विवेश। तत्रापि कलिना बहुविधैश्छलैः पीडितः स पृथिवीपतिः स्वाङ्गसुप्तां भैमीमरण्ये विजन एकाकिनीमुत्सृज्य वनान्तरं प्रस्थितः। गच्छंश्च महान्तं दारुणं दावं ददर्श। तस्मिन्कर्कोटकनामा पन्नग आसीत्। नागेन प्रार्थितो राजा तं वनानलान्मोचयामास। कर्कोटकप्रसादेन पापात्मना कलिना मुक्तो नलः सभार्यः शाश्वतीः समाः पृथिवीं शशास।
—महाभारतम्.
188. THE FROG AND THE SERPENT.
८८. सर्पमण्डूकयोः
अस्ति जीर्णोद्याने मन्दविषो नाम सर्पः। सोऽतिजीर्णतयाऽऽहारमप्यन्वेष्टुमक्षमः सरस्तीरे पतित्वा स्थितः। ततो दूरादेव केनचिन्मण्डूकेन दृष्टः पृष्टश्च। किमिति त्वमाहारं नान्विष्यसि? भुजगोऽवदत्। गच्छ भद्र, मम मन्दभाग्यस्य प्रश्नेन ते किम् ? ततः सञ्जातकौतुकः स भेकः सर्वथा कथ्यतामित्याह। भुजङ्गोऽप्याह। भद्र, ब्रह्मपुरवासिनः श्रोत्रियस्य कौण्डिन्यस्य पुत्रो विंशतिवर्षदेशीयः सर्वगुणसम्पन्नो दुर्दैवान्मया नृशंसेन दष्टः। ततः सुशीलनामानं तं पुत्रं मृतमालोक्य मूर्च्छितः कौण्डिन्यः पृथिव्यां लुलोठ। अनन्तरं ब्रह्मपुरवासिनः सर्वे बान्धवास्तत्राऽगत्योपविष्टाः। तथा चोक्तम्। आहवे
व्यसने दुर्भिक्षे राष्ट्रविप्लवे राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव इति। तत्र कपिलो नाम स्नातकोऽवदत्। अरे कौण्डिन्य, मूढोऽसि। तेनैवं प्रलपसि। शृणु। यथा महोदधौ काष्ठं च काष्ठं च समेयातां समेत्य च व्यपेयातां तद्वद् भूतसमागमः। अन्यच्च। पञ्चभिर्निर्मिते देहे पुनः पञ्चत्वं गते तत्र का परिदेवना? अतः संसार विचारयतां शोकोऽयमज्ञानस्यैव प्रपञ्चः। तद्भद्र, आत्मानमनुसन्धेहि शोकचर्चा च परिहरेति। ततस्तद्वचनं निशम्यप्रबुद्ध इव कौण्डिन्य उत्थायाब्रवीत्। तदलमिदानीं गृहनरकवासेन। वनमेव गच्छामि। कपिलः पुनराह। रागिणां वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति। अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते तस्य निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम्। लिङ्गं धर्मकारणं नैव। कौण्डिन्यो ब्रूते। एवमेव। ततोऽहं शोकाकुलेन ब्राह्मणेन शप्तः। यदद्यारभ्य मण्डूकानां वाहनं भविष्यसीति। कपिलो ब्रूते। संप्रत्युपदेशासहिष्णुर्भवान्। शोकाविष्टं ते हृदयम्। तथापि कार्यं शृणु। सङ्गः सद्भिः कर्तव्यः। सङ्गो हि सतां भेषजमिति। एतच्छ्रुत्वा स कौण्डिन्यः कपिलोपदेशामृतप्रशान्तशोकानलो यथाविधि दण्डग्रहणं कृतवान्। अतो ब्राह्मणशापात् मण्डूकान्वोढुमत्र तिष्ठामि। अनन्तरं तेन मण्डूकेन गत्वा मण्डूकनाथस्य जालपाढ़नाम्नोऽग्रे तत्कथितम्। ततोऽसावागत्य मण्डूकराजस्तस्य सर्पस्य पृष्ठमारूढवान्। स च सर्पस्तं पृष्ठे कृत्वा चित्रपदक्रमं बभ्राम। परेद्युश्चलितुमसमर्थं तं दर्दुराधिपतिरुवाच। किमद्य भवान्मन्दगतिः? सर्पो ब्रूते। देव, आहारविरहादसमर्थोऽस्मि। प्लवराडवदत्। अस्मदाज्ञया भेकान् भक्षय। ततो गृहीतोऽयं महाप्रसाद इक्युक्त्वा क्रमशो मण्डूकान् खादितवान्। अथो निर्मण्डूकं सरो विलोक्य भेकाधिपतिरपि तेन भक्षितः।
—हितोपदेशः
89. FOUR LEARNED FOOLS.
८९. चतुर्णां मूर्खपण्डितानाम्.
कस्मिंश्चिदधिष्ठाने चत्वारो ब्राह्मणाः परस्परं मित्रत्वमापन्ना वसन्ति स्म। बालभावे तेषां मतिरजायत। ‘भो देशान्तरं गत्वा विद्याया उपार्जनं क्रियते’। अथान्यस्मिन् दिवसे ब्राह्मणाः परस्परं निश्चयं कृत्वा विद्योपार्जनार्थं कान्यकुब्जं गताः। तत्र च विद्यामठे गत्वा पठन्ति। एवं द्वादशाब्दान् यावदेकचित्ततया विद्याकुशलास्ते सर्वे सञ्जाताः। ततस्तैश्चतुर्भिर्मिलित्वोक्तम्। वयं सर्वे विद्यापारं गताः। तदुपाध्यायमुत्कलापयित्वा स्वदेशं गच्छामः। तथैव क्रियतामित्युक्त्वा प्रचलिताः। यावत्कंचिन्मार्गं यान्ति तावद् द्वौ पन्थानौ समायातौ। उपविष्टाः सर्वे। तत्रैकः प्रोवाच। केन मार्गेण गच्छामः? एतस्मिन्समये तस्मिन् पत्तने कश्चिद्वणिक्पुत्रो मृतः। तस्य दाहार्थे महाजनो गतोऽभूत्। ततश्चतुर्णां मध्यादेकेन पुस्तकमवलोकितम्। तत्र ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’ इति वचनं दृष्टम्। ततः स उवाच महाजनमार्गेण गच्छामः। अथ ते पण्डिता यावन्महाजनमेलापकेन सह यान्ति तावद्रासभः कश्चित्तत्र श्मशाने दृष्टः। अथ द्वितीयेन पुस्तकमुद्घाट्यावलोकितम्। आतुरे व्यसने दुर्भिक्षे शत्रुसंकटे राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धव इति। उक्तं च। तदहो अयमस्मदीयो बान्धवः। ततः कश्चित्तस्य ग्रीवायां लगति। कोऽपि पादौ प्रक्षालयति। अथ यावद्दिशामवलोकनं ते पण्डिताः कुर्वन्ति तावत्कश्चिदुष्टो दृष्टः। तैश्चोक्तम्। एतत् किम्? तावत्तृतीयेन पुस्तकमुद्धाट्योक्तम्। धर्मस्य त्वरिता गतिः। एष धर्मस्तावत्। चतुर्थेनोक्तम्। इष्टं धर्मेण योजयेत्। अथ तैः स रासभ उष्ट्रग्रीवायां बद्धः।
केनचिद्रजकस्याग्रे तत् कथितम्। यावद्रजकस्तेषां मूर्खपण्डितानां प्रहारकरणाय समायातस्तावत्ते प्रनष्टाः। यावदग्रे स्तोकं मार्गंयान्ति तावत् काचिन्नद्यासादिता। तस्या जलमध्ये पलाशपत्रमायातं दृष्ट्वा पण्डितेनैकेनोक्तम्। आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति। एतत् कथयित्वा तत्पत्रस्योपरि पतितो यावन्नद्या नीयते तावत्तं नीयमानमवलोक्यान्येन पण्डितेन केशान्तं गृहीत्वोक्तम्। सर्वनाशे समुत्पन्ने, अर्धं त्यजति पण्डितः। अर्धेन कार्यं कुरुते सर्वनाशो हि दुःसहः। इत्युक्त्वा तस्य शिरश्छेदो विहितः। अथ तैः पश्चाद्गत्वा कश्चिद् ग्राम आसादितः। तेऽपि ग्रामीणैर्निमन्त्रिताः पृथक्पृथग्गृहेषु नीताः। तत एकस्य सूत्रिका घृतखण्डसंयुक्ता भोजने दत्ता। ततो विचिन्त्य पण्डितेनोक्तम्, यद्दीर्घसूत्री विनश्यति। एवमुक्त्वा भोजनं परित्यज्य गतः। तदा द्वितीयस्य मण्डका दत्ताः। तेनाप्युक्तम्, अतिविस्तरविस्तीर्णं न तद्भवेच्चिरायुषम्। स च भोजनं त्यक्त्वा गतः। अथ तृतीयस्य वटिकाभोजनं दत्तम्। तत्रापि पण्डितेनोक्तम्। छिद्रेप्वनर्था बहुलीभवन्ति। एवं तेऽपि त्रयः पण्डिताः क्षुत्क्षामकण्ठा लोकैर्हस्यमानास्ततः स्थानात्स्वदेशं गताः। अतोऽहं ब्रवीमि। शास्त्रकुशला अपि लोकाचारविवर्जिता हास्यतां यान्तीति।
—पञ्चतन्त्रम्
90. THE STORY OF THE MAHABHARAT.
९०. महाभारतकथा.
ऐकमत्ये दायादा न प्रायस्तिष्ठन्ति। कौरवपाण्डवा अत्र निदर्शनम्। पुरा किल भरतवंश्यौपाण्डुधृतराष्ट्रौ नृपती बभूवतुः। पाण्डोः पृथा माद्री चेति द्वे भार्ये ववृताते। धृतराष्ट्रस्य तु गान्धारीत्येकैव। पाण्डोः पञ्च सूनवोऽभवन्। ते पाण्डवा इति लोके प्रथिताः सन्ति।
तेषां नामानि युधिष्ठिरभीमार्जुननकुलसहदेवा इति बभूवुः। एतेषां पूर्वेषां त्रयाणां पृथाया उत्पन्ना इति पार्था इति व्यावहारिकं नाम। नकुलसहदेवौ यमौ माद्रीसुतौ। धृतराष्ट्रस्य गान्धार्या उत्पन्ना दुर्योधनदुःशासनादयः शतंसुता आसन्। कपटद्यूते धार्तराष्ट्राः पाण्डवानां सर्वस्वापहरणं चक्रुः। तेषां धर्मपत्नीं पतिव्रतां द्रौपदीं, द्यूतनिर्जिता दासीति, गुरुजनाधिष्ठिते नृपसदस्येकाम्बरां दुर्योधनाज्ञया केशेप्वाकृष्य दुःशासन आनिन्ये। तत्र च तस्या वस्त्रमप्यपहर्तुं स दुष्टोऽग्रजस्याज्ञया प्रववृते। एतान्निकारान्सोढुमसमर्था अपि सर्वे पाण्डवाः ‘ज्येष्ठो भ्राता पितुः समः’ इति स्मृतिवचनमनुरुध्य कथमपि ज्येष्ठभ्रातुर्युधिष्ठिरस्य शासने तस्थुः। सोदरास्ते ततो द्वादश वर्षाणि वनमध्यषुः। ततोऽज्ञातवासमङ्गीकृत्य सत्यसन्धास्ते प्रतिज्ञाभङ्गभीरुतया निभृतमेकं वत्सरं विराटस्याऽवासेऽनुचितारम्भास्तस्थुः। कुरून्प्रतिनिवृत्य कुलस्य शान्तिमिच्छन् युधिष्ठिरो दुर्योधनेन सन्धातुमियेष। अतः श्रीवासुदेवं दूतकर्मणि न्ययुङ्क्त। प्रतिपन्नदौत्यो भगवान् देवकीनन्दनः पाण्डवप्रियचिकीर्षया हस्तिनापुरं ययौ। इंद्रप्रस्थं वृकप्रस्थं जयन्तं वारणावतमिति चतुरो ग्रामानन्यं च कंचित् पञ्चमं मे देहीति सुयोधनाय सन्देशं निवेद्य प्रज्ञाचक्षुषे स्वयमपि धर्म्यं पथ्यं शिष्टसम्मतं च सन्धिमन्त्रं ददौ। किन्तु दुरात्मभिर्दुर्योधनप्रभृतिभिरात्मजैराकृष्टचेता विलुप्तविवेकस्तदखिलमवज्ञाय निजकुलविनाशकृति सङ्गरे मतिं विदधौ। ततः केनचित्कालेन प्रवृत्तमतिभीषणं तुमुलं च युद्धं कुरुक्षेत्रे कौरवपाण्डवसेनयोः। तस्मिन् भीष्मद्रोणप्रमुखाः सर्वे कुरुसेनान्यो विनष्टा बहूनि राजन्यकुलानि विलयं गतानि दुर्योधनाद्या भ्रातरश्च शतं पञ्चत्वमिताः। ततो धर्मराजः पैत्र्ये राज्येऽभिषिक्तो वसुमतीं नयेन शशास। अविवेकमूलो दायादकलहो नियतं विनाशायैवेत्यस्याः पुरातनकथायास्तात्पर्यम्।
—संस्कृतपाठावली.
91. VERSES IN PRAISE OF THE GOOD.
९१. सज्जनप्रशंसा.
यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रिया।
चित्ते वाचि क्रियायां च साधूनामेकरूपता॥१॥
वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि कोहि विज्ञातुमर्हति॥२॥
उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।
संपत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥३॥
महाजनस्य संसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्॥४॥
शैलेशैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजेगजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वनेवने॥५॥
ते धन्याः पुण्यभाजस्ते तैस्तीर्णः क्लेशसागरः।
जगत्सम्मोहजननी यैराशाशीविषा जिता॥६॥
काचः काञ्चनसंसर्गाद्धत्ते मारकतीं द्युतिम्।
तथा सत्सन्निधानेन मूर्खो याति प्रवीणताम्॥७॥
किमत्र चित्रं यत्सन्तः परानुग्रहतत्पराः।
न हि स्वदेहशैत्याय जायन्ते चन्दनद्रुमाः॥८॥
परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्।
धर्मे स्वीयेत्वनुष्ठानं कस्यचित्तु महात्मनः॥९॥
कुसुमस्तबकस्येव द्वे वृत्ती तु मनस्विनः।
सर्वेषां मूर्ध्नि वा तिष्ठेद् विशीर्येत वनेऽथवा॥१०॥
वित्ते त्यागः क्षमा शक्तौ दुःखे दैन्यविहीनता।
निर्दम्भता सदाचारे स्वभावोऽयं महात्मनाम्॥११॥
सज्जना एवं साधूनां प्रथयन्ति गुणोत्करम्।
पुष्पाणां सौरभं प्रायस्तन्वते दिक्षु मारुताः ॥१२॥
गङ्गा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुस्तथा।
पापं तापं च दैन्यं च घ्नन्ति सन्तो महाशयाः॥१३॥
सन्तः स्वतः प्रकाशन्ते गुणा न परतो नृणाम्।
आमोदो न हि कस्तूर्याः शपथेन विभाव्यते॥१४॥
विवेकः सह संपत्त्या विनयो विद्यया सह।
प्रभुत्वं प्रश्रयोपेतं चिह्नमेतन्महात्मनाम्॥१५॥
निर्गुणेष्वपि सत्त्वेषु दयां कुर्वन्ति साधवः।
न हि संहरते ज्योत्स्नां चंद्रश्चाण्डालवेश्मसु॥१६॥
स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन्।
कर्पूरः पावकस्पृष्टः सौरभं लभतेतराम्॥१७॥
अमृतं किरति हिमांशुर्विषमेव फणी समुद्गिरति।
गुणमेव वक्ति साधुर्दोषमसाधुः प्रकाशयति॥१८॥
क्षारं जलं वारिमुचः पिबन्ति, तदेव कृत्वा मधुरं वमन्ति॥
सन्तस्तथा दुर्जनदुर्वचांसि, पीत्वा च सूक्तानि समुद्गिरन्ति॥१९॥
धवलयति समग्रं चन्द्रमा जीवलोकं
किमिति निजकलङ्क नात्मसंस्थं प्रमार्ष्टि।
भवति विदितमेतत्प्रायशः सज्जनानां
परहितनिरतानामादरो नात्मकार्ये॥२०॥
पिबन्ति नद्यः स्यवमेव नाम्भः, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः,।
नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः, परोपकाराय सतां विभूतिः॥२१॥
क्षुद्राः सन्ति सहस्रशः स्वभरणव्यापारमात्रोद्यताः
स्वार्थो यस्य परार्थ एव स पुमानेकः सतामग्रणीः।
दुष्पूरोदरपूरणाय पिबति स्रोतः पतिं वाडवो
जीमूतस्तु निदाघसम्भृतजगत्सन्तापविच्छित्तये॥२२॥
तरुमूलादिषु निहितं जलमाविर्भवति पल्लवाग्रेषु।
निभृतं यदुपक्रियते तदपि महान्तो वहन्त्युच्चैः॥२३॥
वदनं प्रसादसदनं हृदयं सदयं सुधामुचो वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥२४॥
यदमी दशन्ति दशना रसना तत्स्वादसौख्यमनुभवति।
प्रकृतिरियं विमलानां क्लिश्यन्ति यदन्यकार्येषु॥२५॥
उपकर्तुं प्रियं वक्तुं कर्तुं स्नेहमकृत्रिमम्।
सज्जनानां स्वभावोऽयं केनेन्दुः शिशिरीकृतः॥२६॥
घृष्टं-घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धम्
छिन्नं-छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादु चैवेक्षुदण्डम्।
दुग्धं-दुग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्णं
प्राणान्तेऽपि प्रकृतिविकृतिर्जायते नोत्तमानाम्॥२७॥
छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः
इति विमृशन्तः सन्तः संतप्यन्ते न ते विपदा॥२८॥
सज्जनस्य हृदयं नववीतं यद्वदन्ति कवयस्तदलीकम्
अन्यदेहविलसत्परितापात्सज्जनो द्रवति नो नवनीतम्॥२९॥
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92. A HEROIC DEED.
९२. अवदातं कर्मः
शृणोत्वार्या मे पराक्रमम्। योऽसावार्याया हस्ती स महामात्रं व्यापाद्यालानस्तम्भं बभञ्ज। ततः स महान्तं संक्षोभं कुर्वन् राज-
मार्गमवतीर्णः। अत्रान्तर उद्घुष्टं जनेन, ‘अपनयत बालकजनमारोहत वृक्षान् भित्तीश्च। हस्तीत एति’ इति। करी करचरणरदनेनाखिलं वस्तुजातं विदारयन्नास्ते। एतां नगरी नलिनपूर्णां महासरसीमिव मनुते स्म। तेन ततः कोऽपि परिव्राजकः समासादितः। तं च परिभ्रष्टदण्डकुण्डिकाभाजनं यदा स चरणैर्मर्दयितुमुद्युक्तो बभूव तदा परिव्राजकं परित्रातुं दृढमतिमकरवम्। एवं संप्रधार्य सत्वरं लोहदण्डेमेकं तरसा गृहीत्वा तं हस्तिनमहनम्। विन्ध्यशैलशिखराभं महाकायमपि तं जर्जरीकृत्य स परिव्राजको मया मोचितः। ततः ‘शूर, साधु साधु’ इति सर्वोऽपि जन उच्चैरुदघोषयत्। तत एकेन विनीतवेषेणोर्ध्वं विलोक्य दीर्घं निःश्वस्य स्वप्रावारकोऽयं ममोपरि क्षिप्तः। तमहं गृहीत्वेमं वृत्तान्त-
मार्यायै निवेदयितुमागतः।
—संस्कृतवाचनपाठावली.
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93. BHARAT TRYING TO INDUCE RAMA
TO RETURN FROM THE FOREST.
९३. श्रीरामस्य वनविनिवर्तने भग्तयत्नः
रामे चित्रकूटं गते दशरथो नृपः सुतं विलपन् दिवं जगाम। गते तस्मिन् वसिष्ठप्रमुखैर्द्विजै राज्याय नियुज्यमानो भरतस्तन्नैच्छत्। पूज्यं रामं भ्रातरं प्रसादयितुं स गुरुणा मातृभिः सैनिकैश्च सह वनं जगाम। भारद्वाजाश्रमं प्राप्य तत्रैकं दिनमुषित्वा रामसन्निधिं प्रययौ। चित्रकूटमनुप्राप्य सैनिकान् दूरे संस्थाप्य च रामदर्शनाकाङ्क्षी राघवः स्वयमेवाग्रेऽगच्छत्। मार्गे मुनिमण्डलमवलोक्य तत् पप्रछ। सीतया लक्ष्मणेन च सार्धं रघूद्वहः कुत्रास्त इति। ऋषय ऊचुः। अग्रे गिरेः पश्चाद्गङ्गाया उत्तरे तटे काननमण्डितं कदलीखण्डसंवृत-
माम्रचम्पकादिवृक्षसंकुलं रम्यं विविक्तं रामसदनमास्ते। एवं मुनिभिर्वर्णित रघुराजभवनमालोक्य भरतो हर्षनिर्भरो बभूव। तदनु नववल्कलाम्बरधरं प्रसन्नवक्त्रं तरुणारुणद्युतिं जटाकिरीटिनं दूर्वादलश्यामलमायतेक्षणं जनकात्मजां विलोकयन्तं सौमित्रिणा सेव्यमानं रघूत्तमं शुत्रा हर्षाच्चाभिदुद्राव। तत्पादयुगलं जग्राह च। रामस्तमाकृष्य दोर्भ्यां परिष्वज्य नेत्रजलैः सिषेत्र। अङ्कस्योपरि पुनः पुनस्तं सन्निवेश्य प्रभुः संपरिषस्वजे। अथ ता मातरः सर्वास्त्वरान्विता राघवं द्रष्टुकामास्तत्र प्राप्ताः। रामः स्वमातरं वीक्ष्य द्रुतमुत्थाय पादयोः साश्रु ववन्दे। इतरे च जनन्यौ रघुनन्दनोऽभिवंद्य समागतं मुनिपुङ्गवं वसिष्ठं प्रणनाम। उवाच च। अप्यस्ति मे तातः कुशली?मद्विरहदुःखितो मां किमाहेति? वसिष्ठः प्रत्युवाच।हे राम, त्वद्वियोगाभितप्तात्मा राम-रामेति सीतेति लक्ष्मणेति परिचिन्तयन् राजा ममारेति। गुरोस्तत्कर्णशूलाभं वचः श्रुत्वा हा हतोऽस्मीति रुदन् रामः सलक्ष्मणः पतितः। मातरश्चानुरुरुदुः। वसिष्ठः शान्तवचनैस्तेषां शुचं शमयामास। अथ प्राप्तसंज्ञ रामचंद्रं भरतोऽब्रवीत्। हे महाभाग, आत्मानमभिषेचय। पित्र्यं राज्यं पालय। प्रजापरिपालनं हि क्षत्रियाणां धर्मः बहुविधैर्यज्ञैरिष्ट्वा पुत्रानुत्पाद्य तान् राज्ये समारोप्य वनं गमिष्यसि। इदानीं वनवासस्य कालो नास्त्येव ते। प्रसीद मे। मम मातुर्दुष्कृतं किञ्चित्स्मर्तुं नार्हसि। पाहि नः। इत्युक्त्वा भ्रातुश्चरणौ शिरस्याधाय भक्तितो रामस्य पुरो दण्डवत् पपात। राघवस्तमुत्थाप्याङ्कमारोप्य चोवाच। वत्स, यत्त्वयोक्तं तत्तथैव। किन्तु ‘नव वर्षाणि पञ्च च दण्डकारण्य उषित्वा पश्चात् समाविश। इदानीं भरतायेदं राज्यं मया दत्तमिति’ मां तातोऽब्र-
वीत्। राघव पित्नैव स्वराज्यं तव दत्तम्। दण्डकारण्यं च मह्यम्। अतः पितुर्वचः कार्यमात्राभ्यां यत्नतः। यस्तु पितुर्वचनमुल्लंग्य स्वतंत्नो वर्तते स जीवन्नेव मृतको निरयं व्रजेत्। तस्मात्त्वं राज्यं प्रशाधि। वयं तु दण्डपालकाः सञ्जाता इति। भरत उवाच। स्त्रीजितस्य भ्रान्तहृदयस्य पितुर्वचनं सत्यमिति न ग्राह्यम्। राम उवाच। मैवं ब्रूहि। पूर्वं प्रतिश्रुतं कैकेय्यै सत्यवादी सत्यलोपभयाद्ददौ। महतामसत्यान्नरकादप्यधिका भीतिः। तस्यै प्रतिश्रुतमहमपि करिष्यामि। राघवः सन् वाक्यं कथमहमसत्यं कुर्याम् इति। भ्रातुरुदितमाकर्ण्य भरतो बभाषे। तातवचनादहमेव चतुर्दशसमाश्चीरवसनो वने वत्स्यामि। त्वं यथासुखं राज्यं कुर्विति। रामः प्रत्युउवाच। भरत पित्रा ते राज्यं दत्तं मह्यं स वनं दत्तवान्। यद्यहं व्यत्ययं कुर्यां तर्हि पूर्ववत्स्थितमेवासत्यमिति। भरत उवाच। अहमपि लक्ष्मण इव त्वां सेवितुमागमिष्यामि। नो चेत्प्रायोपवेशनेनैतत् कलेवरं त्यक्ष्यामि। इत्येवं निश्चयं कृत्वाऽऽतपे दर्भानास्तीर्य प्राङ्मुख उपनिवेश। एतादृशं भरतमालोक्य वसिष्ठस्तमाह। तात रामस्य विनिवर्तने त्यजाग्रहम्। सैनिकैर्मातृभिश्च पुरं व्रज। रावणं सकुलं हत्वा रामः शीघ्रमेवागमिष्यति। इत्याकर्ण्य गुरोर्वाक्यं विस्मयान्त्रितो रामभद्रं प्राह। राजेन्द्र राज्याय तव पादुके देहि। तयोस्तवागमनं यावत् सेवां करिष्यामीति। ततो रामस्ते तस्मै ददौ। मुदान्वितो भरतस्ततो रामं परिक्रम्य पुनःपुनः प्रणनाम। गद्गदया गिरा चोवाच। राम नवपञ्चसमान्ते दिवसे यदि नागमिष्यसि तर्हि महानलमहं प्रविशामीति। वाढमिति रामस्तं संन्यवर्तयत्।
—रामायणम्
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94. THEFT IN CHARUDATTA’S HOUSE.
९४. चारुदत्त सदने चौर्यम्.
गच्छति काले कस्मिंश्चिद्दिने गान्धर्वं श्रोतुं गतश्चारुदत्तोऽतिक्रान्तायामर्धरजन्यां गृहमागत्य समैत्रेयः सुष्वाप। सुप्तयोरुभयोः शर्विलक इति कश्चिद् ब्राह्मणचौरः स्तेयेन द्रव्यमाप्तुं चारुदत्तस्य सदनं सन्धिमुत्पाद्य प्रविवेश। प्रविश्य च मृदङ्गपणववीणावंशादीनि वाद्यानि पुस्तकांश्च दृष्ट्वा परं विषादमगच्छत्। आत्मानं वक्ति च। ‘कथं नाट्याचार्यस्य गृहमिदम्? अथवा परमार्थतो दरिद्रोऽयम्। उत राजभयाच्चौरभयाद्वा भूमिष्ठं द्रव्यं धारयति। ततः परमार्थदरिद्रोऽयमिति निश्चित्य भवतु गच्छामीति गन्तुं व्यवसिते मैत्रेय उदस्वप्नायत ‘भो वयस्य, सन्धिरिव दृश्यते। चौरमिव पश्यामि। तद्गृह्णातु भवानिदं सुवर्णभाण्डम्’ इति। ततश्च तद्वचनादितस्ततो दृष्ट्वा जर्जरस्नानशाटीनिबद्धं दीपप्रभयोद्दीपितमलङ्करणभाण्डमुपलक्ष्य ग्रहीतुमना अपि ‘न युक्तं तुल्यावस्थं कुलपुत्रजनं पीडयितुम्। तद् गच्छामि’ इति मनश्चकार। ततो मैत्रयश्चारुदत्तमुद्दिश्य पुनरुदस्वप्नात। ‘भो वयस्य, शापितोऽसि गोब्राह्मणकाम्यया यद्येतत्सुवर्णभाण्डं न गृह्णासि’। ततः शर्विलकोऽनतिक्रमणीया भगवतीगोकाम्या ब्राह्मणकाम्या चेति तज्जिघृक्षुःप्रदीपनिर्वापणार्थं धृतमाग्नेयं कीटकं प्रावेशयत्। तेन निर्वापिते प्रदीपे ‘इदानीं करोमि ब्राह्मणस्य प्रणयम्’ इति भाण्डं जग्राह मैत्रैयस्य हन्तात्। ग्रहणकाले च मैत्रेय उत्स्वप्नायमान आह— ‘भो वयस्य, शीतलस्तेऽग्रहस्तः’ इति। अनन्तरं स चौरो वसन्तसेनागृहं गतः। तस्मिन्निष्क्रामति गृहाद्रदनिका प्रबुद्धा सत्रासम् ’ हा धिक्, हा धिक्! अस्माकं गृहे सन्धिं कर्तित्वा चौरो निष्क्रामति। आर्य मैत्नेय, उत्ति-
ष्ठोत्तिष्ठ। अस्माकं गृहे सन्धि कर्तित्वा चौरो निष्क्रान्तः’ इत्युच्चेश्चन्द्र। सोऽप्युत्थाय चारुदत्तं प्रबोधयामास। चारुदत्तस्तु “आशान्वितश्चौरोऽस्माकं महतीं निवासरचनां दृष्ट्वा सन्धिच्छेदनखिन्न एव निराशो गतः सुहृद्भ्यः कथमसौ कथयिष्यति तपस्वी ‘सार्थवाहसुतस्य गृहं प्रविश्य न किञ्चिन्मया समासादितम्?’ इति तमेव चौरमनुशुशोच। ततश्च मैत्रेयः स्मृत्वा चारुदत्तमुवाच— “भो वयस्य त्वं सर्वकालं भणसि ‘मूर्खो मैत्रेयः’ ‘अपण्डितो मैत्रेयः’ इति। सुष्ठु मया कृतं तत्सुवर्णभाण्डं भवतो हस्ते समर्पयता। अन्यथा दास्याः पुत्रेणापहृतं भवेत्। चारुदत्तो ग्रहणमस्मरन् मैत्रेयमाह। ‘वयस्य, अलं परिहासेन’ इति। मैत्रेयो वदति। ‘भो यथा नामाहं मूर्खस्तत्किं परिहासस्यापि देशकालं न जानामि?’ इति। चारुदत्तोऽभाषत— ‘वयस्य। कस्यां वेलायां सम- र्पितं तत् सुवर्णभाण्डम्’। मेत्रेयः - ‘भोः, यदा त्वं भणितोऽसि शीतलस्तेऽग्रहस्त इति?’। चारुदत्तः— ‘कदाचिदेवमपि स्यात्’ इति सर्वतो निरूप्य सहर्षं सुहृदमाह। वयस्य प्रियं ते निवेदयामि। हृतं तत्। स चौरो गतः कृतार्थः। मैत्रेयेण ततः ‘न्यासः खलु सः’ इति स्मारितः सद्यो मोहमुपगतः।
—मृच्छकटिकम्
——————————
९५. कविप्रशंसा
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः।
नास्ति येषां यशः काये जराभरणजं भयम्॥१॥
तत्त्वं किमपि काव्यानां जानाति विरलो भुवि।
मार्मिकः को मरंदानान्तरेण मधुव्रतम्॥२॥
दिवमप्युपयातानामाकल्पमनल्पगुणगणा येषाम्।
रमयन्ति जगन्ति गिरः कथमिव कवयो न ते वन्द्याः॥३॥
हे राजानस्त्यजत सुकविप्रेमबन्धे विरोधम्
शुद्धा कीर्तिः स्फुरति भवतां नूनमेतत्प्रसादात्।
तुष्टैर्बद्धं तदलघु रघुस्वामिनः सच्चरित्रं
कुद्धैर्नीतस्त्रिभुवनजयी हास्यमार्गं दशास्यः॥४॥
वल्मीकप्रभवेण रामनृपतिर्व्यासेन धर्मात्मजो
व्याख्यातः किल कालिदासकविना श्रीविक्रमाङ्को नृपः।
भोजश्चित्तबिह्लणप्रभृतिभिः कीर्तिं परां प्राप्तिः
ख्यातिं यान्ति नरेश्वराः कविवरैः स्फारैर्न भेरीखैः॥५॥
—सुभाषितरत्नाकरः
——————————
98. A DESPERATE WARRIOR.
९६. जीवितनिरपेक्षस्य वीरस्य.
दुर्योधनो मूर्च्छितः सारथिना समरादपवाहितो यावत्संज्ञां लभते तावत्सूतेन दुःशासनवधस्य वार्ता तस्य कथिता। तां श्रुत्वा पुनरपि स मोहमियाय। पुनरुपलब्धसंज्ञाय तस्मै रणभूमेः कर्णेन प्रेषितो लेखहारी कश्चित् सप्रहारः पुरुष आगत्य पत्रिकामर्पयामास— ‘स्वस्ति। महाराज दुर्योधन समारङ्गणात् कण्ठे गाढमालिङ्ग्य कर्णो विज्ञापयति—
अस्त्रग्रामविधौ कृती न समरेष्वस्यास्ति तुल्यः पुमान्
भ्रातृभ्योऽपि ममाधिकोऽयममुना जेयाः पृथासूनवः।
त्वत्संभावित इत्यहम्, न च हतो दुःशासनार्ग्मिया,
त्वं दुःखप्रतिकारमेहि भुजयोवीर्येण बाप्पेण वा॥
गृहीतपत्रिकार्थेन दूयमानमनसा दुर्योधनेन समरवृत्तान्तं पृष्टः सुन्दरको विज्ञापयामास, ‘देव, अद्य तावद्दुःशासनवधामर्षितेन स्वामिनाङ्गराजेनाविज्ञातशरसन्धानमोक्षेण शिलीमुखसंघातवर्षिणाभियुक्तो मध्यमपार्थो भीमसेनहतकः। ततः करितुरगपदातिसमुद्भूतधूलिनिवहेनान्धीकृतमुभयबलम्। तदानीं तुमुलं युद्धं समापेदे। तस्मिन् कर्णसूनुः कुमारवृषसेनो हतः’। कुमारवृषसेननिधनवृत्तान्तेन राजा पुनरपि शोकाकुलो मोहमाप। समाश्वस्य सुन्दरकं पप्रच्छ। ‘भद्र, किमारम्भं मे मित्रमङ्गराजः?’। सुन्दरकः— ‘देव, अपनीतशरीरावरण आत्मवधकृतनिश्चयः स्वयमेव समरं मार्गयते’ इति। साहसमतिं तं वारयन्दुर्योधनः सुन्दरकहस्ते तत्समयोचितं प्रतिसंदेशं प्रेषयामास। स्वयं च समरभूमिमवतरितुमिच्छ्न्यावत् प्रतिष्ठते तावत् ‘तातो धृतराष्ट्रोऽम्बा गान्धारी च भवन्तं द्रष्टुमागतौ’ इति परिजनेन कथितम्। तौ द्रष्टुमनिच्छन्नपि ‘कष्टं बीभत्समाचरितं दैवेन’ इति दैवमुपालभमानोऽपि ताभ्यां दर्शन ददौ। तावागत्य दुर्योधनं प्रबोधयाञ्चक्रतुः। ‘वत्स, अकालस्ते समरस्य। त्वमपि तात एकोऽन्धयुगुलस्यावयोर्मार्गोपदेशकश्च चिरं जीव। किं मे राज्येन वैरेण वा? एष तेऽञ्जलिः। निवर्तस्व समव्यापारात्। सन्धत्तामिदानीं युधिष्ठिरस्य समीप्सितेन पणेन’। किन्तु दुर्योधनस्तद्वचनं नानुमेने। समराय कृतनिश्चयं चात्मानं कथयामास।
—वेणीसंहारम्.
९७. सुभाषितप्रशंसा.
भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।
तस्माद्धि काव्यं मधुरं तस्मादपि सुभाषितम्॥
संसारकटुवृक्षस्य हे फले अमृतोपमे।
सुभाषितरसास्वादः सङ्गमः सुजनैः सह॥२॥
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम्।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते॥३॥
धर्मो यशो नयो दाक्ष्यं मनोहारि सुभाषितम्।
इत्यादिगुणरत्नानां संग्रही नावसीदति॥४॥
बालादपि ग्रहीतव्यं युक्तमुक्तं मनीषिभिः।
रवेरविषये किन्न प्रदीपस्य प्रकाशनम्॥५॥
नायं प्रयाति विकृतिं विरसो न यः स्यात्
न क्षीयते बहुजनैर्नितरां निपीतः।
जाड्यं निहन्ति रुचिमेति करोति तृप्तिम्
नूनं सुभाषितरसोऽन्यरसातिशायी॥६॥
—सुभाषितमाला.
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98. HANUMAN IN THE ASHOKA–GARDEN.
९८. अशोकवनिकां प्राप्तस्य हनुमतः
ततः सीतान्वेषणकामो मारुतिर्लङ्कां जगाम। सूक्ष्मतनुर्भूत्वा तत्र रात्रौ पुरीं परितो बभ्राम। तदनु कपिकुञ्जरो नृपालयं प्रविवेश। तत्रापि जानकीमपश्यन् मरुत्सुतः शीघ्रं सुरद्रुमसंबाधां रत्नसोपानवापिकां नानापक्षिमृगाकीर्णांस्वर्णप्रासादशोभितामशोकवनिकां प्राप। तत्र पवनात्मजः प्रतिवृक्षं सीतां व्यचिनोत् परं विफलप्रयत्नो बभूव। पुनः किञ्जिद्दूरं गत्वाऽत्यन्तनिबिडच्छदमदृष्टातपं स्वर्णवर्णविहंगमं शिंशपावृक्षं ददर्श। तन्मूले भूमौ शयानां मलिनाम्बरधारिणीं राम-रामेति शोचन्तीं एकवेणीं कृशां दीनां त्रातारं नाभिगच्छन्तीं भूतलमवतीर्णांवनदेवतामिव शुभां जनकनन्दि-
नीमीक्षाञ्चक्रे। तां वीक्ष्य शाखापर्णलीनो वानरो धन्योऽस्मि कृतकृत्योऽस्मीति हर्षवचनमुदीरयामास। निधनाय कृतबुद्धिं जानकीं समीक्ष्य हनुमान् किञ्चिद्विचार्य सूक्ष्मरूपस्तस्याः श्रोत्रगं वचो मन्दंमन्दमुवाच। इक्ष्वाकुकुलप्रदीपो दशरथो नाम महान् राजाऽयोध्याधिपतिरासीत्। तस्य लोकविश्रुताः सर्वलक्षणोपलक्षिता अमरनिभाश्चत्वारो रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्ननामानः पुत्राः। ज्येष्ठो रामो भ्राता लक्ष्मणेन भार्यया सीतया च सह पितुर्वचनाद्दण्डकारण्यमागतः। स महामना गौतमतीरे पञ्चवटीमध्युवास। दुरात्मना रावणेन तत्रस्था जनकनन्दिन्यपहृता। ततो दुःखार्तस्तां मार्गयमाणो राघवः पक्षिराजं जटायुषं भुवि पतितमपश्यत्। तस्मै शीघ्रं दिवं दत्त्वोपागच्छदृष्यमूकनामानं नगश्रेष्ठम्। तत्र सुग्रीवेण मैत्रीं कृत्वा तद्भार्यापहारिणं वालिनं रघुनन्दनो जघान सुग्रीवं च राज्येऽभिषिषेच। सुग्रीवस्तु वानरान् समानाय्य सीतायाः परिमार्गणे तान् परितः प्रेषयामास। तेषामहमेकः सुग्रीवसचिवो हरिः सम्पातिवचनाच्छतयोजनं समुद्रमुल्लंघ्यशुभां जानकीं विचिन्वञ् शनैरशोकवनिकां प्राप्तः। इह च दुःखसंप्लुतां राममहिषीं देवीं जानकीं दृष्ट्वा कृतकृत्योऽस्मीत्युक्त्वा बुद्धिमत्तरो वानरपुङ्गव उपरराम। सीता तत् सर्वं श्रुत्वा परं विस्मयमाययौ। ‘वायुना व्योम्नि समुदीरितमिदं किं श्रुतम्? अयं स्वप्नो वा मनोभ्रान्तिर्वेयम्?येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितं स महाभागः प्रियवादी ममाग्रतो दृश्यताम्’। इदं जानकीवचो निशम्य वायुपुत्रः पादपशाखातः शनैरवतीर्य सीतायाः पुरस्तात् प्राञ्जलिः समवस्थितः। तं दृष्ट्वा रावणोऽयं मां मोहयितुं मायया वानराकृतिर्भूत्वात्र प्राप्त इति मनसि
कृत्वा जानकी भृशं बिभाय। परं चिन्तापरा तूष्णीमधोमुख्यासीत्। एतदवस्थां तामालोक्य कपिराह। हे देवि, यथाविधं मां विशंकसे तथाविधो नाहम्। माये शङ्कां त्यज। कोसलेन्द्रस्य रामस्य दासोऽहम्। हे शुभप्रदे, हरीन्द्रस्य सुग्रीवस्य सचिवोऽहम्। हे कल्याणि, अखिलप्राणभूतस्य वायोः पुत्रोऽस्मि। एतन्निशम्य जानकी प्राह। वानराणां मनुष्याणां च सङ्गतिः कथं घटते यतस्त्वं रामभद्रस्य दासोऽहमिति भाषसे? प्रीतो मारुतिस्तामाह। शबर्या नोदितो राम ऋष्यमूकं जगाम। तत्रस्थः सुग्रीवो रामलक्ष्मणौ दृष्टवान्। भीतश्च रामस्य हृदयं ज्ञातुं मां प्रेषयामास। ब्रह्मचारिवपुर्धृत्वाऽहं रामसन्निधिं गतः। दाशरथेःसद्भावं ज्ञात्वा स्कन्धोपरि तं सलक्ष्मणं निधाय सुग्रीवसमीपमनयम्। तत्र च तयोस्तेन सख्यमकरवम्। सुग्रीवस्य भार्या वालिना हृताऽऽसीत्। तं वालिनं रामो जघान। सुग्रीवं राज्येऽभ्यषेचयच्च। सुग्रीवो भवत्याः परिमार्गणे महाबलान् वीरान् वानरान् दिग्भ्यः प्रेषयामास। भवत्या अन्वेषणार्थं गच्छन्तं मां दृष्ट्वा सादरं राघवोऽवदत्। हे मारुतनन्दन, त्वयि मेऽशेषं कार्यं स्थितम्। मम लक्ष्मणस्य च कुशलं सीतायै ब्रूहि। मन्नामाक्षरमुद्रितमिदमङ्गुलीयकं परिज्ञानार्थं तस्यै दीयताम्। इत्युक्त्वा मह्यं स्वाङ्गुलीयकं दत्तवान्। हे देवि, मयेदं प्रयत्नेनानीतम्। पश्येदम्। इति दिव्यै मुद्रिकां प्रददौ। तांरामनामाङ्कितां मुद्रिकांवीक्ष्य सीता प्रमुदिता बभूव। तां शिरसि धृत्वाऽऽनन्दनीरं दृशोरुद्वहन्ती वैदेही प्राह। कपे, मम प्राणदाता त्वमसि। हे सौम्य त्वया मम दुःखादिकं दृष्टमखिलमत्र। तत् सर्वं रामाय कथय। हे सत्तम, मासद्वयावधि मे प्राणाः स्थास्यन्ति। रामो नागमिष्यति चेत्स्वलो मां
भक्षयिष्यति। अतः कपीन्द्रेण सुग्रीवेण समन्वितो राघवः सपुत्रं सवलं रावणमाहवे हत्वा मां सत्वरं मोचयतु। हनुमानपि तामाह। देवि, सलक्ष्मणो रामः शीघ्रमागमिष्यति। दशमुखं बलाद्धत्वा त्वामयोध्यां समानेष्यति। अत्र नैव संशयः। गमनायानुज्ञां देहि मे। येन राघवो मयि विश्वस्यात्तदभिज्ञानं किञ्चिन्मह्यं देहि। ततः कमललोचना सीता केशपाशान्ते स्थितं चूडामणिं दत्तवती। तमादाय तां भूयोभूयः प्रणम्याश्वास्य चाञ्जनानन्दन आनन्दनिर्भरो निववृते।
—अध्यात्मरामायणम्
——————
99. A COLLECTION OF VERSES ILLUSTRATIVE
OF THE FIGURE OF SPEECH KNOWN
AS** अन्योक्ति.**
९९. अन्योक्तिकलापः
अखिलेषु विहंगेषु हन्त स्वच्छन्दचारिषु।
शुक पंजरवासस्ते मधुराणां गिरां फलम्॥१॥
विधिरेव विशेषगर्हणीयः करट त्वं रट कस्तवापराधः।
सहकारतरौ चकार यस्ते सहवासं सरलेन कोकिलेन॥२॥
किं केकीव शिखंडमंडिततनुः किं कीरवत्पाठकः
किंवा हंस इवाङ्गनागतिगुरुः शारीव किं सुस्वरः।
किंवा हन्त शकुन्तराजपिकवत् कर्णामृतं सिंचति
काकः केन गुणेन कांचनमये व्यापारितः पञ्जरे॥३॥
मा कुरु गुरुतावर्गं लघुरन्यो नास्ति सागर त्वत्तः।
जलसंग्रहमन्यस्मात्त्वयि सति कुर्वन्ति पोतस्थाः॥४॥
आपेदिरेऽम्बरपथं परितः पतङ्गा
भृङ्गा रसालमुकुलानि समाश्रयन्ते।
संकोचमंचति सरस्त्वयि दीनदीनो
मीनो नु हन्त कतमां गतिमभ्युपैतु॥५॥
उदितवति द्विजराजे कस्य न हृदयं मुदं परां धत्ते।
संकुचसि कमल यदयं हर-हर वामो विधिर्भवतः॥६॥
आघ्रातं परिचुम्बितं परिमुहुर्लीढ़ं पुनश्चर्वितम्
त्यक्तं वा भुवि नीरसेन मनसा तत्र व्यथां मा कृथाः।
हे सद्रत्न तवैतदेव कुशल यद्वानरेणादरा-
दन्तःसारविलोकनव्यसनिना चूर्णीकृतं नाश्मना॥७॥
किं ते नम्रतया किमुन्नततया किंवा घनच्छायया
किंवा पल्लवलीलया किमनया वाऽशोकपुष्पश्रिया।
यत्त्वन्मूलनिषण्णखिन्नपथिकस्तोमः स्तुवन्नन्वहं
न स्वादूनि मृदूनि खादति फलान्याकण्ठमुत्कण्ठितः॥८॥
पत्राणि कंटकशतैः परिवेष्टितानि
वार्ताऽपि नास्ति मधुनो रजसान्धकारः।
आमोदमात्ररसिकेन मधुव्रतेन
नालोकितानि तव केतकि दूषणानि॥९॥
गात्रं कंटकसंकटं प्रविरलच्छाया न चायासहा
निर्गन्धः कुसुमोत्करस्तव फलं न क्षुद्विनाशक्षमम्।
बुब्बूलद्रुममूलमेति न जनस्तत्तावदास्तामहो
अन्येषामपि शाखिनां फलवतां गुप्त्यै वृतिर्जायसे॥१०॥
कमलिनि मलिनीकरोषि चेतः
किमिति कैरवहेलिताऽनभिज्ञैः।
परिणतमकरन्दमार्मिकास्ते
जगति भवन्तु चिरायुषो मिलिन्दाः॥११॥
अस्ति यद्यपि सर्वत्र नीरं नीरजमंडितम्।
रमते नैव हंसस्य मानसं मानसं विना॥१२॥
उत्तुंगमत्तमातंगमस्तकन्यस्तलोचनः।
आसन्नेऽपि च सारंगे न वाञ्छां कुरुते हरिः॥१३॥
हारं वक्षसि केनापि दत्तमज्ञेन मर्कटः।
लेढि जिघ्रति संक्षिप्य करोत्युन्नतमासनम्॥१४॥
दिव्यं चूतरसं पीत्वा गर्वं नायाति कोकिलः।
पीत्वा कर्तुमपानीयं भेको रटरटायते॥१५॥
कर्पूरधूलीरचितालवालः
कस्तूरिकाकुंकुमलिप्तदेहः।
सुवर्णकुंभैः परिषिच्यमानो
निजं गुणं मुंचति किं पलाण्डुः॥१६॥
अस्यां सखे बधिरलोकनिवासभूमौ
किं कूजितेन किल कोकिल कोमलेन।
एते हि दैवहतकास्तदभिन्नवर्णं
त्वां काकमेव कलयन्ति कलानभिज्ञाः॥१७॥
व्यालाश्रयापि विफलापि संकटकापि
वक्रापि पंकिलभवापि दुरासदापि।
गन्धेन बन्धुरसि केताकि! सर्वजन्तो-
रेको गुणः खलु निहन्ति समस्तदोषान्॥१८॥
चातकस्य मुखचंचसंपुटे
नो पतंति यदि वारिबिन्दवः।
सागरीकृतमहीतलस्य किम्
दोष एष जलदस्य दीयते॥१९॥
दानार्थिनो मधुकरा यदि कर्णतालै-
र्दूरीकृताः करिवरेण मदान्धबुद्ध्या।
तस्यैव गण्डयुगमण्डनहानिरेषा
भृङ्गाः पुनर्विकचपद्मवने वसन्ति॥२०॥
ऊर्णां नैष बिभर्ति नैष विषयो दोहस्य वाहस्य वा
तृप्तिर्नास्य महोदरस्य बहुभिर्घासैः पलालैरपि।
हा कष्टं कथमस्य पृष्ठशिखरे गोणी समारोप्यते
को गृह्वाति कपर्दकैरिमामिति ग्राम्यैर्गजो हस्यते॥२१॥
पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभिः।
धन्या महीरुहो येभ्यो निराशा यान्ति नार्थिनः॥२२॥
हे हेमकार परदुःखविचारमूढ
किं मां मुहुः क्षिपसि वारशतानि वह्नौ।
दुग्धे पुनर्मयि भवन्ति गुणातिरेका
लाभः परं खलु मुखे तव भस्मपातः॥२३॥
तृष्णां धरायाः शमयत्यशेषां
यः सोऽम्बुदो गर्जति गर्जतूच्चैः।
यस्त्वेष कस्यापि न हन्ति तृष्णां
स किं वृथा गर्जति निस्त्रपोऽब्धिः॥२४॥
यास्यति जलधरसमयः, तव च समृद्धिर्लघीयसी भविता।
तटिनि! तटद्रुमपातन-पातकमेकं चिरस्थायि!॥२५॥
—अन्योक्ति संग्रहः
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100. THE THOUGHTS OF A PARROT IN
DISTRESS.
१००. आपद्गतस्य शुकस्य मनःसंकल्पाः
अतिकष्टास्वप्यवस्थासु जीवितनिपरेक्षा न भवन्ति खलु जगति प्राणिनां प्रवृत्तयः। नास्ति जीवितादन्यदभिमततरमिह जगति सर्वजन्तूनाम्। उपरतेऽति ताते यदहमविकलेन्द्रियः पुनरेवं प्राणिमि। धिङ् मामकरुणमकृतज्ञम्। अहो खलं मे हृदयम् ! मया हि लोकान्तरगतायामम्बायां नियम्य शोकावेगमा प्रसवदिवसात्परिणतवयसापि सता तैस्तैरुपायैः संवर्धनक्लेशमतिमहान्तमपि स्नेहवशादुगणयता यत्तातेन परिपालितस्तत्सर्वमेकपदेविस्मृतम्। अतिकृपणाः खल्वमी प्राणाः। यदुपकारिणमपि तातं क्वापि गच्छन्तमद्यापि नानुगच्छति। सर्वथा न कञ्चिन्न खलीकरोति जीविततृष्णा यदीदृगवस्थमपि मामायासयति जलाभिलाषः। अद्यापि दूर एव सरस्तीरम्। तथाहि—जलदेवतानपुररवानुकारी दूरेऽद्यापि कलहंसविरुतमेतत्। अस्फुटानि श्रूयन्ते सारसरसितानि। विप्रकर्षाद् विरलःसञ्चरति नलिनीखण्डपरिमलः। दिवसस्येयं कष्टा दशा वर्तते। तथा हि— रविरम्बरतरलमव्यवर्ती स्फुरन्तमातपमनबरतं करैर्विकिरति। अधिकां स उपजनयति तृषाम्। संतप्तपांसुपटला भूः। अतिप्रबलपिपासावसन्नानि गन्तुमल्पमपि मे नालमङ्गकानि। अप्रभुरस्म्यात्मनः। सीदति मे हृदयम्। अन्धकारतामुपयाति चक्षुरपि। अपि नाम खलो विधिरनिच्छतोऽ पि मे मरणमुपपादयेत्?
—कादम्बरी.
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101 THE DESPONDENCY OF ARJUNA.
१०१. अर्जुनविषादः
कुरुक्षेत्रे युद्धाय सन्नद्धं पाण्डवानीकं दृष्ट्वा राजा दुर्योधन आचार्य-
मुपसंगम्येदं वचनमब्रवीत्। ‘भो गुरो, धीमता तव शिष्येण द्रुपदपुत्रेण व्यूढामिमां महतीं चमूं पश्य। अत्र भीमार्जुनसमा महेष्वासा विराटद्रुपदकुन्तिभोजप्रभृतयो महारथाः सौभद्रदौपदेययुधामन्युप्रमुखाश्च विक्रान्ता दृश्यन्ते। हे द्विजोत्तमः, भवान् भीष्मकृपकर्णमुखाश्चास्माकं विशिष्टाः सेनान्यो वर्तन्ते। अन्ये च मदर्थे त्यक्तजीविता नानाशस्त्रप्रहरणा युद्धविशारदा बहवः शूराः स्थानेऽस्मिन्मिलिताः। भवन्तः सर्वे सर्वेष्वयनेषु यथाभागमवस्थितास्तत्रभवन्तं भीष्ममभिरक्षन्तु’ इति। ततः प्रतापवान् कुरुवृद्धः पितामहो राज्ञस्तस्य हर्षं सञ्जनयन्नुच्चैः सिंहनादं विनद्य शङ्ख दध्मौ। तदनु विविधाः शङ्खा भेर्यश्च सहसैवाभ्यहन्यन्त। स शब्दस्तुमुलोऽभवत्। अनन्तरं श्वेतहयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ माधवपाण्डवौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः। इतरे च पाण्डवीया महारथाः सर्वे सर्वशः पृथक्पृथक् शङ्खान्दध्मुः। स तुमुलो घोषो नभश्च पृथिवीं च व्यनुनादयन् धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्। अथ धार्तराष्ट्रान् व्यवस्थितान् वीक्ष्य शस्त्रसम्पाते प्रवृत्ते कपिध्वजः पाण्डवो धनुरुद्यम्य हृषीकेशमिदं वाक्यमाह। ‘हे अच्युत, उभयोः सेनयोमध्ये मे रथं स्थापय। यावदहं दुर्बुद्धेर्धार्तराष्ट्रस्य प्रियत्रिकीर्षून् योत्स्यमानानवस्थितान्निरीक्षे’। एवमुक्तो हृषीकेशो रथोत्तमं सेनयोर्मध्ये स्थापयित्वोवाच। ‘हे पार्थ, पश्यैतान् समवेतान् कुरून्’ इति। तदा कौन्तेयः पितामहानाचार्यान् भ्रातृृन् पुत्रान् पौत्रान्सखीञ् श्वशुरान् सुहृदः सर्वान् बन्धूंश्चावस्थितांस्तत्र दृष्टवान्। तेन च परया कृपयाऽऽविष्टो विषीदन्नर्जुन इदमब्रवीत्। ‘हे कृष्ण, इमं स्वजनं युद्धाय समुपस्थितं समीक्ष्य मम गात्राणि सीदन्ति, मुखं परिशुप्यति, वेपथू रोमहर्षश्च शरीरे जायते, हस्ताद् गाण्डीवं स्रंसते, त्वगपि परिदह्यते। अत्रावस्थातुं न शक्नोमि। मनो मे भ्रमतीव।
हे केशव, विपरीतानि निमित्तानि पश्यामि। न विजयं कांक्षे। गोविन्द, किं नो राज्येन भोगैर्जीवितेन वा? येषामर्थे नो राज्यं भोगाः सुखानि च काङ्क्षितानि त इमे पितामहा आचार्याः पितरः श्वशुरा मातुलाः श्यालाः पुत्रास्तथैव सम्बन्धिनोऽपि प्राणान् धनानि च त्यक्त्वाऽत्र युद्धेऽवस्थिताः। हे मधुसूदन, त्रेलोक्यराजस्यापि हेतोर्घ्नतोऽप्येतान्न हन्तुमिच्छामि, किं नु महीकृते? हे जनार्दन, धार्तराष्ट्रान्निहत्य का नःप्रीतिः? एतानाततायिनो हत्वास्मान् पापमेवाश्रयेत्। तस्मान्माधव, स्वबान्धवान् वयं हन्तुं नाहः। कथं हि स्वजनं हत्वा सुखिनः स्याम? यद्यप्येते लोभापहतचेतसः कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकं न पश्यन्ति तत् प्रपश्यद्भिरस्माभिरस्मात् पापान्निवर्तनं कथं न ज्ञेयम्? कुलक्षये सनातनाः कुलधर्माः प्रणश्यन्ति। धर्मे नष्टेऽधर्मः कृत्स्नं कुलमभिभवति। उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम। अहो बत महत्पापं कर्तुं वयं व्यवसिता यद्राज्यसुखलोभेन स्वजनं हन्तुं समुद्यताः! यदि शस्त्रपाणयो धार्तराष्ट्रा रणे मामप्रतीकारमशस्त्रं च हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्। हे अरिसूदन, सङ्ख्ये पूजार्हौभीष्मद्रोणौ कथामेषुभिः प्रतियोत्स्यामि? महानुभावान् गुरुनहत्वा भैक्ष्यमपीह लोके भोक्तुं श्रेयः। अर्थकामान्गुरून् हत्वा रुधिरप्रदिग्धान् भोगान् कथं भुञ्जीय? न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। कार्पण्यदोषोपहतस्वभावो धर्मसंमूढचेतास्त्वां पृच्छामि यन्निश्चितं श्रेयः स्यात्तन्मे ब्रूहि। अहं ते शिष्यः। त्वां प्रपन्नं मां शाधि। भूमावसपत्नमृद्धं सुराणामप्याधिपत्यमवाप्य यदिन्द्रियाणामुच्छोषणं मम शोकमपनुद्यात्तन्न प्रपश्यामि’। एवमुक्त्वा जिष्णुः शोकसंविग्नमानसः सशरं चापं विसृज्य, ‘न योत्स्ये’ इति च गोविन्दमभिधाय तूष्णीं सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
—श्रीमद्भगवद्गीता,
———————
102. A KING’S MESSAGE TO HIS SON
१०२. राज्ञः पुत्राय संदेशः
एवं च क्रमेणाधीताशेषविद्यं समारूढयौवनं चावगम्य गृहगमनायानुमोदितमाचार्यैश्चन्द्रापीडमानेतुं राजा तारापीडो बलाधिकृतं बलाहकनामानमाहूय बहुतुरगपदातिपरिवृतमतिप्रशस्तेऽहनि प्राहिणोत्। स गत्वा विद्यागृहं द्वाःस्थैः समावेदितः प्रविश्य क्षितितलावलम्बितचूडामणिना शिरसा प्रणम्य सविनयमासने राजपुत्रानुमतो न्यषीदत्। स्थित्वा च मुहूर्तमात्रं बलाहकश्चन्द्रापीडमुपसृत्य दर्शितविनयोऽब्रवीत्। ‘कुमार, महाराजः समाज्ञापयति। पूर्णा नो मनोरथाः। अधीतानि शास्त्राणि। शिक्षिताः सकलाः कलाः। गतोऽसि सर्वास्वायुधविद्यासु परां प्रतिष्ठाम्। अनुमतोऽसि विनिर्गमाय विद्यागृहात्सर्वाचार्यैः। उपगृहीतशिक्षमवगतकलाकलापं पौर्णमासीशशिनमिवोद्गतं पश्यतु त्वां जनः। व्रजन्तु सफलतामतिचिरदर्शनात्कण्ठितानि लोकलोचनानि। अयमत्रभवतो दशमः संवत्सरो विद्यागृहमधिवसतः। प्रविष्टोऽसि षष्ठमनुभवन् वर्षम्। एवं सम्पिण्डितेनामुना षोडशेन प्रवर्धसे। तदद्यप्रभृति निर्गत्य दर्शनोत्सुकाभ्यो दत्त्वा दर्शनमखिलमातृभ्योऽभिवाद्य च गुरूनपगतनियन्त्रणो यथासुखमनुभव राज्यसुखानि। संमानय राजलोकम्। पूजय द्विजातीन्। परिपालय प्रजाः। आनन्दय बन्धुवर्गम्’ इति।
—कादम्बरी.
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103. THE LAMENTATION OF MANORAMA.
१०३. मनोरमाविलापः
हा वत्स वैशम्पायन, अद्यापि मदङ्कलालनोचितो बाल एवासि। कथं त्वमेकाकी व्यालशतसहस्रभीषणे निर्मानुषे तस्मिन्नरण्ये स्थितः? केन निद्रासुखदायि ते शयनीयमुपकल्पितम्? कस्त्वयि बुभुक्षिते तृषिते
सुषुप्सति वा दुःखितः? समानसुखदुःखा वधूरपि पुत्रक न त्वयोपात्ता। आगतमात्रस्यैव ते पितरमनुज्ञाप्यात्यर्थं वधूमुखमालोकयिष्यामीति यन्मया चिन्तितं तन्मे मन्दपुण्याया न सम्पन्नम्। अपरं तवापि दर्शनं दुर्लभं भूतम्। वत्स, यत्र तेऽवस्थातुमभिरुचितं नय तत्रैव मामपि पितरं विज्ञप्य। त्वामपश्यन्ती न जीवामि। तात, त्वयाऽहं शैशवेऽपि नावमानिता। कुतस्तवयमेकपद ईदृशी निष्ठुरता जाता। जन्मनः प्रभृति न दृष्टमेव यस्य कुपितमाननं तस्य ते कुतोऽयमेवंविधो मय्यकस्मादेव कोपो यदेवं परित्यज्य स्थितोऽसि? गतोऽप्यागच्छ। शिरसा प्रसादयामि त्वाम्। कोऽपरोऽस्ति मे? देशान्तरपरिचयान्मुक्तो नामास्मासु स्नेहः। क्षणमप्यनन्तरितदर्शनस्य चन्द्रापीडस्योपरि कथं तवेदृशी निःस्नेहता जाता? तात, भद्रकं ते नापतितम्। सर्व एव सुखं स्थापनीयो गुरुजनो दुःखं स्थापितः। न जानाम्येवं कृत्वा किं त्वया प्राप्तव्यम्।
—कादम्बरी
104. THE TALE OF DHRUVA,
१०४. ध्रुवकथा
स्वायम्भुवस्य मनोः प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ बभूवतुः। उत्तानपादस्य सुनीतिः सुरुचिरिति द्वे भार्ये आस्ताम्। तयोः पत्युः सुरुचिःप्रेयसी। नेतरा, यत्सुतो ध्रुव आसीत्। एकदा सुरुचेः पुत्रमुत्तममङ्कमारोप्य लालयन् राजा स्वाङ्कमारुरुक्षं ध्रुवं नाभ्यनन्दत्। तदानीमतिगर्विता सुरुचिः काण्वतो राज्ञः सपत्न्यास्तनयं ध्रुवं प्राह। ‘वत्स, नृपात्मजोऽपि त्वं यन्मया कुक्षौ न गृहीतोऽतो नृपतेर्धिष्ण्यं नार्हस्यारोढुम्। बालोऽसि। दुर्लभेऽर्थे तव मनोरथः’ इति मातुः सपत्न्या विद्धो दंडहतोऽहिरिव रुषा श्वसन्नवाचं पितरं हित्वा
रुदन् मातुः सकाशं स जगाम। निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्ठं तं बालं सुनीतिरुत्सङ्ग उदुह्य पौरमुखात् सपत्न्या गदितं निशम्य नितान्तं विव्यथे। धैर्यमुत्सृज्य दावाग्निपरीता बाललतेव सन्तापदह्यमाना सा विललाप। दीर्घं श्वसती वृजिनस्य पारमपश्यन्ती बालकमाह। ‘वत्स, सुरुच्या यदभिहितम् तत्सत्यम्। दुर्भगाया मे त्वं पुत्रोऽसि। मम स्तन्येन च वृद्धः उत्तम इवाध्यासनमिच्छसि चेद्भगवतो विष्णोश्चरणारविन्दमाराधय। तव पितामहो भगवान् मनुर्यमिष्ट्वा दिव्यं पदमवाप तं भक्तवत्सलं परमेश्वरं मनस्यवस्थाप्याश्रय’ इति। एवं मातुः सञ्जल्पितं वच आकर्ण्य स बाल आत्मानं संनियम्य पितुः पुरान्निश्चक्राम। तदानीं तदाकर्ण्य नारदो ध्रुवपरीक्षार्थं तत्सन्निधिं प्राप। विस्मितोऽघघ्नेन पाणिना बालकस्य मूर्धानं स्पृष्ट्वोवाच। ‘वत्स, क्व च ते वयः क्व चेयं विरक्तिः? क्व मृणालकाण्डवपेलवं ते वपुः क्व च तीव्रयागसमाधिसंरम्भः? विरमास्मादङ्गीकृतादर्थात्। निवर्ततामेष निष्फलो निर्बन्धः। यद्देवविहितं तेन देही सुखदुःखयोरात्मानं तोषयंस्तमसः पारमृच्छति। गुणाधिकेऽनुरागं कुर्यात्। गुणहीनेऽनुक्रोशं दर्शयेत्। समानेन मैत्रीं वान्विच्छेत्। एवं कुर्वन्नरस्तापैर्नाभिभूयते’। इदं नारदवचनं श्रुत्वा ध्रुवः प्रत्युवाच। ‘भगवन्, घोरं क्षात्रमुपेयिवानहं परमविनीतः। सुरुच्या दुर्वचोबाणैर्मम हृदयं विदीर्णम्। ब्रह्मन्, अस्मत्पितृभिरन्यैरप्यनधिष्ठितं त्रिभुवनोंत्कृष्टं पदं जिगीषामि। भगवतः परमेष्ठिन आत्मजो भवानर्कवज्जगतो हितार्थं वीणां वितुदन्नटन्नास्ते। तद् ब्रवीतु यन्मे निश्चितं निःश्रेयसाय कल्पेत’ इति। नारद उवाच। ‘भद्र, प्रीतोऽस्मि ते सर्गेण। तात, यमुनायाः शुचि तटं गच्छ। तत्र पुण्यं मधुवनम-
धिवस। तस्मिन् भगवतः पादपद्मस्य परिचर्यामनन्यमनसा कुरुष्व। तेन प्रसन्नो भगवान् दिव्यमचलमीप्सितं पदं ते दास्यति’। ततो मुनिवचनानुरोधेन राजतनयस्तपोवनं प्राप्तः। तस्यैकान्तभक्त्याऽचिरात्प्रसन्नो भगवान् हरिस्तस्मै ध्रुवं स्वपदं ददौ। तेन प्रीतमना ध्रुवः स्वनगरं प्राप। अनुशयान्वितस्तत्तातस्तं महाभागवतं निरतिशयेन प्रेम्णा परिष्वज्यानन्दस्य परां कोटिमधिजगाम। सुनीतिः सुरुचिश्चेति मातरौ परमुदन्विते अश्रुभिध्रुवं स्नपयामासतुः। उत्तमोऽपि सुरुचितनयो भ्रातरं गाढमालियानन्देन पुलकिततनुः सञ्जातः। प्रजाश्चाखिला अमिततेजसः प्रसादितपरेशस्यावाप्तापवर्गस्य साधोः पुण्यदर्शनेनात्मानं कृतार्थं मेनिरे। गच्छता कालेनोत्तानपादो राजर्षिर्ध्रुवं राज्ये निवेश्य शान्तिं जगाम। नृपसत्तमो ध्रुवश्विरं प्रजापालनं नयेन कृत्वा पुत्रन्यस्तसमस्तराज्यभरःसमातृको दिव्यं धाम ययौ।
—श्रीमद्भागवतपुराणम्.
105. MISCELLANEOUS VERSES
१०५. संकीर्णपद्यानि
चिन्तनीया हि विपदामादावेव प्रतिक्रिया।
न कूपखननं युक्तं प्रदीप्ते वह्निना गृहे॥१॥
क्षान्तितुल्यं तपो नास्ति न तोषात्परमं सुखम्।
नास्ति तृष्णापरो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥२॥
यः स्वभावो हि यस्यास्ति स नित्यं दुरतिक्रमः।
श्वा यदि क्रियते राजा स किं नाश्नात्युपानहम्॥३॥
सा श्रीर्या न मदं कुर्यात् स सुखी तृष्णयोज्झितः।
तन्मित्रं यस्य विश्वासः पुरुषः स जितेन्द्रियः॥४॥
सत्यं शौर्यं दया त्यागो नृपस्यैते महागुणाः।
एभिर्मुक्तो महीपालः प्राप्नोति खलु वाच्यताम्॥५॥
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम्।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम्॥६॥
स्थान एव नियोज्यन्ते भृत्याश्चाभरणानि च।
न हि चूडामणिः पादे नूपुरं मूर्ध्नि धार्यते॥७॥
लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् क्रुद्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्खश्छन्दोऽनुवृत्तेन याथातथ्येन पण्डितम्॥८॥
यौवनं धनसंपत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता।
एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम्॥९॥
कलहान्तानि हर्म्याणि कुवाक्यान्तं च सौहृदम्।
कुराजान्तानि राष्ट्राणि कुकर्मान्तं यशो नृणाम्॥१०॥
अपि संपूर्णतायुक्तैः कर्तव्याः सुहृदो बुधैः।
नदीशः परिपूर्णोऽपि चन्द्रादयमपेक्षते॥११॥
बलिना सह योद्धव्यमिति नास्ति निदर्शनम्।
प्रतिवातं न हि घनः कदाचिदुपसर्पति॥१२॥
पिबन्ति मधु पद्मेषु भृङ्गाः केसरधूसराः।
हंसाःशैवालमश्नन्ति धिग्दैवमसमञ्जसम्॥१३॥
यदि सन्ति गुणाः पुंसां विकसन्त्येव ते स्वयम्।
न हि कस्तूरिकामोदः शपथेन विभाव्यते॥१४॥
अजरामरवत् प्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्।
गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरत्॥१५॥
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥१६॥
माता मित्रं पिता चेति स्वभावात् त्रितयं हितम्।
कार्यकारणतश्चान्ये भवन्ति हितबुद्धयः॥१७॥
येन शुक्लीकृता हंसाः शुकाश्च हरितीकृताः।
मयूराश्चित्रिता येन स ते वृत्तिं विधास्यति॥१८॥
तृष्णां चेह परित्यज्य को दरिद्रः क ईश्वरः।
तस्याश्चेत् प्रसरो दत्तो दास्यं हि शिरसि स्थितम्॥१९॥
यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवाणि निषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यति अध्रुवं नष्टमेव हि॥२०॥
दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः।
ससर्पे च गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥२१॥
बलवानपि निस्तेजाः कस्य नाभिभवास्पदम्।
निःशंकं दीयते लोकैः पश्य भस्मचये पदम्॥२२॥
यदि न स्यान्नरपतिः सम्यङ् नेता ततः प्रजा।
अकर्णधारा जलधौ विप्लवेतेह नौरिव॥२३॥
पयःपानं भुजङ्गानां केवलं विषवर्धनम्।
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शांतये॥२४॥
महानप्यल्पतां याति निर्गुणे गुणविस्तरः।
आधाराधेयभावेन गजेन्द्र इव दर्पणे॥२५॥
यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति॥२६॥
अमितगुणोऽपि पदार्थों दोषेणैकेन निन्दितो भवति।
सकलरसायनमहितो गन्धेनोग्रेण लशुन इव॥२७॥
लोभश्चेदगुणेन किं, पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना॥२८॥
कस्यापि कोऽप्यतिशयोऽस्ति स तेन लोके
ख्यातिं प्रयाति न हि सर्वविदस्तु सर्वे।
किं केतकी फलति किं पनसः सपुष्पः
किं नागवल्ल्यपि च पुष्पफलैरुपेता॥२९॥
काचं मणिं काञ्चनमेकसूत्रे, मुग्धा निबध्नन्ति किमत्र चित्रम्।
विचारवान् पाणिनिरेकसूत्रे श्वानं युवानं मघवानमाह॥३०॥
अतिपरिचयादवज्ञा सन्ततगमनादनादरो भवति।
मलये भिल्लपुरन्ध्री चन्दनतरुकाष्ठमिन्धनं कुरुते॥३१॥
सौमित्रिर्वदति विभीषणाय लंकां देहि त्वं भुवनपते विनैव कोशम्।
एतस्मिन् रघुपतिराह वाक्यमेतद्र विक्रीते करिणि किमंकुशे विवादः॥३२॥
धूलिधूसरसर्वाङ्गो विकसद्दन्तकेसरः।
आस्ते कस्यापि धन्यस्य द्वारि दन्ती गृहेऽर्भकः॥३४॥
राजंस्त्वत्कीर्तिचन्द्रेण तिथयः पौर्णिमाः कृताः।
मद्गेहान्न बहिर्याति तिथिरेकादशी भयात्॥३४॥
बालस्यापि रवेः पादाः पतन्त्युपरि भूभृताम्।
तेजसा सह जातानां वयः कुत्रोपयुज्यते॥३५॥
सिंहः शिशुरपि निपतति मदनलिनकपोलभित्तिषु गजेषु।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः॥३६॥
सञ्चारिणी काञ्चनवल्लरीव, विद्युल्लता वा पतिता नभस्तः।
घृतस्य धारा पतिता न जाने, दिवं गता वाथ भुवं गता वा॥४७॥
एकस्य दुःखस्य न यावदन्तं, गच्छाम्यहं पारमिवार्णवस्य।
तावद् द्वितीयं समुपस्थितं मे, छिद्रेष्वनर्था बहुलीभवन्ति॥४८॥
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥४९॥
बोधितोऽपि बहुसूक्तिविस्तरैः, किं खलो जगति सज्जनो भवेत्।
स्नापितोऽपि बहुशो नदीजलैर्गर्दभः किमु हयो भवेत् क्वचित्॥५०॥
लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातं
भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च।
श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते॥५२॥
मतिरेव बलादू गरीयसी, यदभावे करिणामियं दशा।
इति घोषयतीव डिंडिमः, करिणो हस्तिपकाहतः क्वणन्॥५२॥
द्यूतेन धनमिच्छन्ति मानमिच्छन्ति सेवया।
भिक्षया भोगमिच्छन्ति ते दैवेन विडम्बिताः॥५३॥
मौनान्मूर्खः प्रवचनपटुर्चाटुलो जल्पको वा
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः।
धृष्टः पार्श्वे वसति नियतं दूरतश्चाप्रगल्भः
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः॥५४॥
सीदन्ति सन्तो विलसन्त्यसन्तः, पुत्रा म्रियन्ते जनकश्चिरायुः।
परेषु मैत्री स्वजनेषु वैरं, पश्यन्तु लोकाः कलिकौतुकानि॥५५॥
मलिनैरलकैरेतैः शुक्लत्वं प्रकटीकृतम्।
तद्रोषादेव निर्याता वदनाद्रदनावलिः॥५६॥
रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम्।
सुधां विना न प्रययुर्विरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः॥५७॥
विधौ विरुद्धे न पयः पयोनिधौ, सुधौघसिन्धौ न सुधा सुधाकरे।
न वाञ्छितं सिध्यति कल्पपादपे, न हेम हेमप्रभवे गिरावपि॥५८॥
स्वयं महेशः श्वशुरो नगेशः, सखा धनेशस्तनयो गणेशः।
तथापि भिक्षाटनमेव शम्भोर्बलीयसी केवलमीश्वरेच्छा॥५९॥
दैवे विमुखतां याते न कोऽप्यस्ति सहायवान्।
पिता माता तथा भार्या भ्राता वाथ सहोदरः॥६०॥
शशिदिवाकरयोर्ग्रहपीडनं, गजभुजङ्गमयोरपि बन्धनम्।
मतिमतां च विलोक्य दरिद्रतां, विधिरहो बलवानिति मे मतिः॥६१॥
जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यम्
मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिम्
सत्सङ्गतिः कथय किन्न करोति पुंसाम्॥६२॥
संतप्तायासि संस्थितस्य पयसो नामापि न श्रूयते
मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं सन्मौक्तिकं जायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसर्गतो जायते॥६३॥
सा रम्या नगरी महान् स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्
पार्श्वे तस्य च सा विदग्धपरिषत्ताश्चंद्रबिम्बाननाः।
उन्मत्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः
सर्वंयस्य वशादगात् स्मृतिपथं कालाय तस्मै नमः॥६४॥
किमपेक्ष्य फलं पयोधरान् ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः।
प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया॥६५॥
गुणायन्ते दोषाः सुजनवदने, दुर्जनमुखे
गुणा दोषायन्ते,तदिदमपि नो विस्मयपदम्।
महामेघः क्षारं पिबति, कुरुते वारि मधुरम्
फणी क्षीरं पीत्वा, वमति गरल दुःसहतरम्॥६६॥
रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्त तुरगा
निरालम्बो मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि।
रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः
क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे॥६७॥
तृणानि नोन्मूलयति प्रभञ्जनो मृदूनि नीचैः प्रणतानि सर्वतः।
समुच्छ्रितानेव तरून् प्रबाधते महान् महत्स्वेव करोति विक्रमम्॥६८॥
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः सन्तापितो मस्तके
वाञ्छन्देशमनातपं विधिवशात्तालस्य मूलं गतः।
तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापः॥६९॥
पौलस्त्यः कथमन्यदारहरणे दोषं न विज्ञातवान्
रामेणापि कथं न हेमहरिणस्यासम्भवो लक्षितः।
अक्षक्रीडनदोषमप्यहह नो धर्मः कथं ज्ञातवान्
प्रत्यासन्नविपत्तिमूढमनसां प्रायो मतिः क्षीयते॥७०॥
नलिकागतमपि कुटिलं न भवति सरलं शुनः पुच्छम्।
वद्वत्खलजनहृदयं बोधितमपि नैव याति माधुर्यम्॥७१॥
अन्यस्मालब्धपदः प्रायो नीचोऽपि दुःसहो भवति।
रविरपि न दहति तादृग्यादृगयं दहति वालुकानिकरः॥७२॥
खलः कदाचिद्भजते न साधुतां बहुप्रकारैः परिषेव्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निंबवृक्षो मधुरत्वमेति॥७३॥
क्षणमात्रं ग्रहावेशो याममात्रं सुरामदः!
लक्ष्मीमदस्तु मूर्खाणामादेहमनुवर्तते॥७४॥
विषभारसहस्त्रेण गर्वं नायाति वासुकिः।
वृश्चिको बिंदुमात्रेण प्रोर्ध्वं वहति कण्टकम्॥७५॥
गौरवं प्राप्यते दानान्न तु वित्तस्य संचयात्।
स्थितिरुच्चैः पयोदानां पयोधीनामधः स्थितिः॥७६॥
लाघवं कर्मसामर्थ्यं दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः।
बिभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते॥७७॥
नित्यं हिताहारविहारसेवी, समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरः क्षमावानाप्तोपजीवी च भवत्यरोगः॥७८॥
आहवेषु च ये शूराः स्वाम्यर्थे त्यक्तजीविताः।
भर्तृभक्ताः कृतज्ञाश्च ते नराः स्वर्गगामिनः॥७९॥
सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रियवादिनः।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥८०॥
सर्पाः पिबन्ति पवनं न च दुर्बलास्ते
शुष्कैस्तृणैर्वनगजा बलिनो भवन्ति।
कन्दैः फलैर्मुनिवरा गमयन्ति कालं
सन्तोष एव पुरुषस्य परं निधानम्॥८१॥
अहो दुर्जनसंसर्गान्मानहानिः पदे पदे।
पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभिहन्यते॥८२॥
बलीयसा हीनबलो विरोधं न भूतिकामो मनसापि वांछेत्।
न बध्यते वेतसवृत्तिरत्न व्यक्तं प्रणाशो हि पतङ्गवृत्तेः॥८३॥
अप्रकटीकृतशक्तिः शक्तोऽपि जनस्तिरस्त्रियां लभते।
निवसन्नन्तर्दारुणि लङ्घ्यो वह्निर्न तु ज्वलितः॥८४॥
गात्रेसङ्कुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गता -
श्चक्षुर्भ्राम्यति रूपमेव ह्रसते वक्त्रं च लालायते।
वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते
हा कष्टं जरयाभिभूतपुरुषः पुत्रैरवज्ञायते॥८५॥
दाता क्षमी गुणग्राही स्वामी दुःखेन लभ्यते।
शुचिर्दक्षोऽनुरक्तश्च जाने भृत्योऽपि दुर्लभः॥८६॥
दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्।
वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतच्चतुष्टयं लोके॥८७॥
मित्रंप्रीतिरसायनं नयनयोरानंदनं चेतसः
पात्रंयत्सुखदुःखयोः सह भवेन्मित्रं तु तद् दुर्लभम्।
ये चान्ये सुहृदः समृद्धिसमये द्रव्याभिलाषाकुला-
स्ते सर्वत्र मिलन्ति, तत्त्वनिकषग्रावा तु तेषां विपत्॥८८॥
सृष्टः सृष्टिकृता पुरा किल परित्रातुं जगन्मण्डलं
त्वं चण्डातप निर्दयं दहसि यज्ज्वालाजटालैः करैः।
संरम्भारुणलोचनो रणभुवं प्रस्थातुकामोऽधुना
जानीमो भवता न हन्त विदितो दिल्लीश्वरो वल्लभः॥८९॥
वहति विषधरान् परिजन्मा शिरसि मषीपटलं दधाति दीपः।
विधुरपि भजतेतरां कलङ्कम् पिशुनजनं खलु बिभ्रति क्षितीन्द्राः॥९०॥
तापत्रयं खलु नृणां हृदि तावदेव यावन्न ते चलति देव कृपाकटाक्षः।
प्राचीललाटपरिचुम्बिनि भानुबिम्बे पङ्केरुहोदरगतानि कुतस्तमांसि॥९१॥
सुजनाः परोपकारं शूरः शस्त्रं धनं कृपणाः।
कुलवत्यो मन्दाक्षं प्राणात्यय एव मुञ्चन्ति॥९२॥
सपदि विलयमेतु राज्यलक्ष्मीरूपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतान्तो मम तु मतिर्न मनागपैतु धर्मात्॥९३॥
कनकभूषणसंग्रहणोचितो यदि मणिस्त्रपुणि प्रणिधीयते।
न स विरौति न चापि न शोभते भवति योजयितुर्वचनीयता॥९४॥
को लाभो गुणिसङ्गमः, किमसुखं प्राज्ञेतरैः सङ्गतिः
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्त्वे रतिः।
कः शूरो विजितेन्द्रियः, प्रियतमा काऽनुव्रता, किं धनं
विद्या, किं सुखमप्रवासगमनं, राज्यं किमाज्ञाफलम्॥९५॥
कलारत्नं गीतं गगनतलरत्नं दिनमणिः
सभारत्नं विद्वान्, श्रवणपुटरत्नं हरिकथा।
निशारत्नं चन्द्रः किल सदनरत्नं सुगृहिणी
महीरत्नं श्रीमाञ् जयति रघुनाथो नृपवरः॥९६॥
दानाय लक्ष्मीः सुकृताय विद्या चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय।
परोपकाराय वचांसि यस्य धन्यस्त्रिलोकीतिलकः स एव॥९॥
कस्त्वं भोः, कथयामि दैवहतकं मां विद्धि शाखोटकं
वैराग्यादिव वक्षि, साधु विदितं कस्मादिदं कथ्यते।
वामेनात्रवटस्तमध्वगजनः सर्वात्मना सेवते
न च्छायाऽपि परोपकारकृतये मार्गस्थितस्यापि मे॥९८॥
प्रथमवयसि पीतं तोयमल्पं स्मरन्तः
शिरसि निहितभारा नारिकेला नराणाम्।
ददति जलमनल्पं स्वादु तज्जीवनान्तं
न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति॥९९॥
भवति हृदयहारी कोऽपि कस्यापि हेतु-
र्न खलु गुणविशेषः प्रेमबन्धप्रयोगे।
किसलयितवनान्ते कोकिलालापरम्ये
विकसति न वसन्ते मालती कोऽत्र हेतुः॥१००॥
इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषा-
मितश्च शरणार्थिनः शिखरिणां गणः शेरते।
इतोऽपि वडवानलः सह समस्तसंवर्तक-
रहो विततमूर्जितं भरसहं च सिन्धोर्वपुः॥१०१॥
—सुभाषितरत्नाकरः
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NOTES.
1
दृषदां… मरणमेव—The throwing of stones is a mere play to you but, it is nothing short of death to us. रम् —preceded by वि, आ, परि or उप, is Parasm. अस्मात् कर्मणो विरमत— Stop doing this or cease from this (cruel sport). Words denoting विराम ‘cessation,’ ‘refraining’ govern the Abl. case and hence the word कर्मन्in that case here. अश्मन् m., उपल m., दृषद् f. = a stone. मण्डूकः, दर्दुरः— A frog पटु— a. clever. अस्मासु …अस्यथ— Words like अस् cl. 4 क्षिप्, मुच having the sense of ’throwing ’ or ‘darting’, govern the Loc. of that against which anything is thrown.
2
अस्ति— Ind.—Often used at the commencement of a tale or narrative in the sense of ‘so it was’, ’there’ or merely as an expletive. Here it should be treated as an expletive. प्रस्तुतयज्ञः— प्रस्तुतो यज्ञो येन सः— Bah. Com. ग्रामान्तरम्— अन्यो ग्रामः ; Karm. Comp. The word अन्तर meaning ‘another’ stands second in a Karm. Comp. and the compound is neuter. स्कन्धे कृत्वा— Throwing across the shoulder. क्रोशान्तरे— Gen. Tat. Com. meaning ‘at the interval of a kos.’ सेकन्धेनोह्यते—Is borne on the shoulder. With verbs meaning ‘carrying’, ‘placing’ that on which a thing is carried or placed is put in the Instr. case. अनन्तरस्थित— posted next. दोलायमान— Wavering and hence perplexed. It is a Pres. Part. from दोलाय— Atm., a denominative form from दोला meaning ‘a swing.’ Roots thus derived from nouns are conjugated like roots of the Ist conjugation. दोलाय—
मानमतिः— with his mind wavering. दोलायमाना मतिर्यस्य सः Bah. Com. चलितः—Resumed his journey. The past passive participles of roots implying motion and of intransitive roots generally have an active sense. आत्मौपम्येन— From his own analogy. गौतमः— Name of a sage. प्रस्तुत p. p.— commenced, begun. छागः— a goat. प्रकर्षः— Excellence, highest merit, glory, victory. कुक्कुरः— a dog.
3
वन्ध्य a.— Fruitless वन्ध्यः प्रयत्नो यस्य सः ; Bah. Comp— अत्रान्तरे— In the mean— while. अपि is used at the beginning of a sentence, in asking questions. ममार-मृ takes the Parasmaipada in all non-conjugational tenses except the Aorist and the Benedictive. प्रयोजनमनुद्दिश्य— Without having some motive or object in view. इति सर्वत्र फलति— This proposition is true everywhere. पानीयम्— Water. अन्वयुङ्क्त— asked वञ्चकः— a jackal. पीयूषम्— nectar. सपरि— Ind.—Instantly, immediately. हातुम्Inf. of हा a cl. 3, to abandon. निशम्य— having heard. असकृत्ind. Often मन्दः— a dull–headed man, a block–head. उन्मज्जनम्— Emerging, rising up. प्रलोभयति caus. of प्रलुभ्— allures, attracts.सत्यव्रतत्वम्—Adherence to truth, veracity. सम्यक् Ind. properly, rightly. अनिश्चित— Without or before ascertaining. स्वार्थष्टानानम्— Attainment of one’s object.
4
भ्रमति स्म— Wandered. स्म— Ind.— A particle added to the present tense of verbs giving them the sense of the past tense. निराशः—निर्गता आशा यस्य सः Bah. Comp. दिष्टया— Ind. meaning luckily or fortunately; strictly the Instr. sing. of दिष्टि luck. कण्ठे गृहीत्वा— Holding or seizing by the neck. Roots implying ’to seize’ often govern the Loc. of that which is seized or caught hold of. अभिमुखम् Towards, in the direction of. शयान Prе.
part,of शी ’to lie down.’ आविष्टp. p. seized or filled with, full of, overpowered or overcome. उपान्तःBorder, edge, margin, bank. मकरः, नक्रः— a crocodile, shark. सद्यस्— Ind. Instantly, forthwith. उपायन्— Prе. p. masc. nom. sing. of इ with उपand आ—Coming, approaching. जागरूक ad. Watchful, vigilant. सहसा Ind. suddenly. वञ्चकःA jackal. नितान्तम् adv. exceedingly.
5
यत्— That. अद्ययावत्— As yet, upto now. अहो सुन्दराणि!— How beautiful or charming! विस्मृतनिमेषं—विस्मृता निमेषा येन तत् Bah. Comp. निमेष—Twinkling of the eye, winking. भावविशेषानभिनीय— Gesticulating particular feelings. स्वर भ्रान्तिं व्यपोहामि— I shall remove his doubt as regards (the melody of) my voice. गातुमारब्धः— Вegan singing. Mark the active use of the passive participle आरब्ध. त्वन्निकाशः— Like you. अण्डजः a bird पतत्रम्— a wing. सौष्टवम्— Excellence, elegance. कपटस्तुतिःFaise praise. कः… अभिरोढुम्—? Who could stand comparison with you?
6
संवास— m. Company, association. उज्जयिनीवर्त्मनि— on the road leading to उज्ज० वृक्षच्छाया— The shade of a tree. यावत्-तावत्— when-then. When the traveller having got up looked upwards, then the swan being observed &c. Or the expression may be taken to mean ‘as soon as’, ’no sooner than’, ‘scarcely-when’ & प्रान्तरम्— A dreary tract of land, a forest. काण्डः-ण्डम्— An arrow. धनुश्च काण्ड चैतयोः समाहारः स द्वं. Comp. निर्भर a. sound. अध्वन्यः—a traveller. व्यापाहितp p. of the caus.of पद् with वि and आ; to kill पलायित p. p. of अय् Ist conj. Atm with परा, र् being changed to ल— Fled. पातयित्वा Absol. of the caus. of पत्— Having put or thrown into. व्यादानम्— Opening or
breaking open. भुक्तशेषन्—Remnants of what is eaten,leavings of food. प्रसार्य Abso. of the caus. of सृwith प्र.
7
लग्नौ चरणौ यस्य स लग्नचरणःलग्न— Past Passive—participle of लग् IP. ’to adhere to.’ पलायमान— Pres. Part. of अय् I Atm. with परा, the र् being changed to ल. पलायन— पर at the end of a compound & means absorbed or engrossed in, intent on, solely devoted to, &c. भीतभीतः— The repetition shows intensity of feeling. The expression means ’exceedingly alarmed.’ शरगोचरः— The scope or range of an arrow. अतीत्य—Having gone beyond, Absolutive from इ with अति. ग्रहणम्— Seizing, catching. मृगयुः— A hunter, fowler. वागुरा f. A trap, net, snare, toils, meshes. तरस्विन् a. Quick, swift. मुहूर्तः — A moment, any short portion of time, दावाग्निःForest— conflagration. कृच्छ्रेण Ind. with great difficulty. पौरुषम् industry. सरभसम adv. In headlong haste. बलीयःa nom. sing. neut. Stronger. हन्तInd Alas!
8
पिपासा— Desider. noun from पा ’to drink’, meaning thirst, desire for drinking. महोत्सवः— A great festival; महत् as the first member of a Kamı. and Bah. Comp. becomes महा; महानुत्सवो महोत्सवः Karm. Comp. अम्लरसं— अम्लो रसो यस्य तत् Bah. Comp. लक्ष्यीकृत्य— Aiming at, it is a च्चि form. Vide Rules 13 and 14, Lesson XVIII of Bhandarkar’s Second Book of Sanskrit. लक्ष्यादपराद्धान्यभवन्— Missed the aim. धिक्— Ind.-Fie upon! generally governs the Acc. case. यावत्-तावत्—As long as-so long. आतपः The heat of the Sun. कठोर a. fierce, severe, sharp. सतृष्णं— तृष्णया सहेति, स. व. With eagerness, eagerly. मन्वानः Pre. p. Mas. nom. sing. of मन् 8 Atm. to consider,
think. हस्तगत Acc. Tat. Comp. अर्थःan object, thing, article. ध्रुवं a. certain, sure.ध्रुवं वस्तु The thing in one’s possession.
9
कृते-Ind. used with Gen. or in compounds meaning ‘for the sake of,’ ‘on account of.’ यथा—That. ते प्रिया-Dear to thee. Words having the sense of ‘dear to’ are used with the Gen. case. शीतलच्छायामध्यासे—I sit under the cool shade (of a tree.) आस् with अधि governs the acc. of the place where the action is performed. ग्रामदेवतामुद्दिश्य—In honour of the tutelary deity of a village. यावदसिधेनुकां &c.–When he was about to use his knife &c. हलधुरायां-हलस्य धूः, तस्याम्. To the yoke of the plough. चालय caus. of चल्, draw अच्छ ad. clean, clear. कलुष ad. Turbid. अवहित p. p. attentive. उदर्कःResult. उक्षा Nom. sing. of उक्षन् a bullock. रक्षितवान् Act. p. p. mas. nom. sing. of रक्ष Protected, saved. याम—a watch, one-eighth part of the day. कियति काले याते-After some time had elapsed. व्यधास्यः—conditional 2nd pers. sing. of धा with वि; would have done. स्वैरम् adv. At will. कतर pron. ad. who or which of two. साधीयसी compar. in ईयस्, nom. sing. f. of बाढ a. better. उपहारःasacrifice, victim. कर्षणम् drawing.
10
चर्मणा प्रच्छन्नः—चर्मप्रच्छन्नः—Instr. Tat. Comp. परिभाष्य–Absolutive of the causal of धा with परि.गच्छता कालेन-In course of time, as time rolled on. अथ—On another occasion. शब्दायितुम् To bray; a denominative from शब्द. आरम्भ has an active sense. रासभःAn ass. रजकः A washer- an घासःMeadow or pasture grass. अभावःWant or absence of. शोभनम्—A lucky incident. क्षेत्रम्—A field. निष्कासयन्ति–drive away, eject. उत्सृजामि–let in. तथानुष्टिते When it was so done. रात्रिशेषे At the close of night.
भयःInd. again. आश्रयः–Residence. पीवर–a. fat. कृच्छ्रात् Ind. With difficulty. बन्धनम्–A post to which an animal is tied. उद्धृत p. p. excited, inflamed. तारस्वरःA loud or shrill sound. आरब्धः(Act. sense) began. क्षत्रपःlandlord, one employed to guard a field. लकुटःA club, cudgel. व्यापादितवन्तःAct. p. p. nom. pl. mas.of the caus.ofपद् with वि and आ,Killed, destroyed.
11
आरभ्य–Ind. Since, from. It is used generally with the Abl. and is sometimes found used with an adverb as in the persent case. प्रभृति is similary used. अभिनयन्ती–Pres. p. Fem. Nom. Sing of नी with अभि, jecticulating जाता करुणा यस्मिन् सः; ब. स. In whom the feeling of pity was roused. मुष्टिःm. and f. a handful, fistful. कण्डूयनम् Scratching, rubbing. उपचर् to serve; wait or attend upon. अव्याज a. Genuine or real. परम् adv. greatly, supremely, वस्तुमर्हसि–Kindly reside, दीक्षा–Dedicating one’s self to, self-devotion.
12
आसयति–Causes to put off; Causal of अस् to throw. अग्रेसरःअग्र सरतीति–Upapada Tat. Comp. विवदितुम् (विवद I Atm.) to quarrel, dispute. The sun. कंबलः An upper garment of wool, a blanket.
13
उत्तरापथ–The Northern regions or country. नाम–Ind.–Named,by name. अधस्तात् or अधः–Ind. ‘below’,‘beneath,’ ‘under.’ It is used as a preposition with the Gen. विवरादारभ्य–Vide note on आरभ्य in Lesson II. विकीर्य धत्त–Have them spread. एकैकशःInd.–One by one. यावत्–Upto. आरभ्य–यावत् From-to स्वभाव विद्वेषः–Natural
antipathy. न्यग्रोधःThe Indian fig-tree. पादपः A tree. अधस्तात् Ind. below–governs the gen. case. पंक्तिक्रमेण–In a row. रावःa sound. शावकःa young one, cub.
14
कार्यवशेन–On business. ग्रामान्तरम्–Ancther village, अन्यो ग्रामोः Karm. Comp. अजाननः–नजनानः–Pres. part. from ज्ञा 9 Atm.–ignorant. इव–Pretending to be, as if. किमपि–At all. For the use of यावत्-तावत्–Vide noth on the same in Lesson 8. जीवशेषं व्यसृजत्–Allowed him to escape only with life. वृषलःa Shudra. हृwith आto eat. पाथेयम्–पथि साधु provisions for the journey. दध्यन्नम् Instr. Tat. Comp Rice mixed with curdled milk.निःशेषम् adv. completely. अविमर्शिन् a Inconsiderate, foolish, silly. यथावत् adv. As real. अवगच्छन्ति consider.
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महाविक्रमः–Mark herein the change of महत् to महाकंदरमधिशयानः–Lying in a cave. शी with अधि governs the Acc. तत्सदृशः–तेन सदृशःInstr. Tat. (omp. सविशेषम्–With particular care. मन्दादरः–मन्द आदरो यस्य सः–Bah. Comp.–Caring little for, neglectful. विरह–Absence, want. केशरः–रम् The mane as of a lion पञ्चं (विस्तृतं) आननं यस्य सः–a lion. आखुः, उन्दुरुः a mouse अरातिः an enemy. पुरस्कार्यः pot. p. p. should be sent forth. अक्षत p. p. uninjured, unhurt. पललम्–Flesh. p. p. cut off.
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समादधाति–Replies. नीलकण्ठः–An epithet of a peacock from the colour of his neck which is blue. त्वयापि भवितव्यम्–you should also be. भवितव्यम्–A Potential Pass. Part. used impersonally. For the impersonal use of this part. Vide art. 157 (a), Apte’s Guide. फलशून्यामाशां संवर्ध्य, Having cherished vain or fruitless hopes. बर्हिन् m. बर्हिणः A peacock. परभृतः–a cuckoo कूजितुम्,
to coo, warble. एकतान a closely attentive, concentrated on one object only. लावण्येन किम्—what is the use of the beauty? किम् n. pron. is frequently used with instr. of nouns in the sense of ‘what is the use of?’.
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प्रच्छाय—प्रकृष्टा छाया यत्र—Shady. दय्I Atm. to take compassion on, to pity;generally governs the Gen. case. दैन्यपरीतः—Overcome by grief or misery. अखिलसारव्ययेन—With all his strength or might. यावद्विदायितुं प्रवृत्तस्तावत् &c.—Was about to tear him off when &c. सप्रश्रयम्—Respectfully, modestly. श्रवणपथः—श्रवणयोः पन्थाः, पथिन् at the end of Tat. comp. becomes पथ भेतव्यम्—Рot. Pass.Part. of भी. प्रयोजनम्—Use, need or necessity. It is used with the instr. of that which is needed and with the Gen. of the user. रसालःThe mango-tree. परित a.overpowered, overcome. विक्रान्त a. brave, warlike, valiant. असन् n. blood. स्वाम्यर्हति—May it please your majesty. जालम् a net. ग्रन्थिः a knot.
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विधुरदर्शनं—The sight of danger or alarm. बर्बर—A fool or block-head. किंभृत्यः—कुत्सितो भृत्यः—A bad servant किंप्रभुः ‘a bad master,’ to be similarly dissolved. पापीयान्–Compar. in ईयस् mas. of पाप—Sinful. सर्वभावेन—Heart and soul, with all one’s heart. वाराणसी—Benares. निशीथः—Midnight. द्रविणम्money, riches, wealth. नियोगःduty. निर्वृत a. happy. असति विधुरदर्शने—When there is no danger in view. अमर्षः Anger. लगुडःa club. चीत्कारः The cry of an ass or elephant. रक्षा—Protection. कृतवान् Act. p. p, Masc. Nom. sing. of कृ.
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(1) धाम… मह—We wait upon the majestic splendour of the goddess of Learning. मोहान्धतमसच्छटाः—The
streaks or mass of thick darkness of infatuation. This and the following four verses are in praise of सरस्वती the goddess of learning (2) शरदि भवं शारदम् अम्भसि जातम्—अम्भोजम्. शारदांभोजमिव वदनं यस्याः सा वदनमेवाम्बुजम्। सन्निधिः Proximity, सतां—सद्वस्तूनां निधिः—The receptacle of blessed things. क्रियात्—Benedictive 3rd pers. sing. of कृ. (3) बदरं The fruit of jujube. (Mar. बोर) सूक्ष्ममतयः—Sharp-witted, of acute intellect. (4) अम्ब Voc. sing. of अम्बा, mother. चराचरोपजीव्यम्—The means of subsistence of the moveable and the immoveable world (5) प्रभृतिf. Beginning, commencement; (generally used at the end of a Bah. comp.) निःशेष…अपहा Destroying completely the dullness (of intellect.)
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साष्टाङ्गपातं प्रणम्य—Having fallen prostrate on the ground in reverence. (Lit.having bowed (to him) touching the ground with the eight parts of his body.) दृष्टिप्रसादं कुरु—Favour me with a glance. भवान् निरूपितः—Your honcur has been selected. लग्नवेला—An auspicious moment, lucky conjuncture. न विचलित—Is not lost or missed वचसि प्रत्ययःConfidence in words; words denoting ‘confidence’, ‘belief’ generally govern the Loc. of that in which ‘belief’ is placed. अशरणदुःखम्—Misery for which there is no help or remedy. ब्रह्मारण्यम्—Name of a forest. प्रतिज्ञातम्—Declared, took a vow. वंचकः, क्रोष्टा, फेरवः—A jackal. मद्विध a. like me. सकाशम् adv. near.
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समेत्य—Absolutive of इ with सम् and आ—Having assembled together. In यदयं&c. mark the use of यद् as a relative pronoun standing for a sentence. दारुखण्डमपातयत्—Threw down a log. मिथः संमन्त्र्य—Having
taken counsel together. स आगत एव-आरेभे—Who no sooner arrived among them than he began laying hold of them and devouring them. तस्य वशे व्रजन्ति—They have to submit to him. समीचिनम्a. fit, proper, right.तन्त्रम्—Government, administration. दारु n. wood. आघातः Splash. आसमन्तात् adv. all around. आलोडितम् a. Shaken, agitated. आरात्Ind. near. कतिपय a. some निश्चल, निश्चेष्ट, अचेतन a. Motionless. क्रौचःA curlew, heron. नो चेद् If not. पूर्वावस्था—विधेयाःऽhould be restored to the former condition. स्थापयति—places. उपालभ्य—a. to be blamed, blamable.
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सति निमन्त्रणे—When there is an invitation. Loc. Absolute construction, for the use of which vide Sec. 121, Apte’s Guide. प्रगल्भम्—Proudly. निस्त्रपा—निर्गतात्रपा यस्याः सा. Bah. Com.—Shameless. संघर्षःContest for superiority. सन्देग्धि is in doubt. वस्तुजातम् a collection of things. यन्नाम—प्रसरति–To utter whose name I blush. निदाघकालःHot season. निरशनम्—A fast. पेयम् A drink, beverage.
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वधं कुर्वन्नास्ते—Keeps on killing. The root आस्, whenused with the Pres. Part. of roots, expresses continuity of the action expressed by them. Mark also भक्षयन्नास्ते below. ततःप्रभृति—Since then. पंचत्वं गम्—To die; lit. go to the state of being five, i.e. the five elements पृथ्वी, अप, तेजस, वायु and आकाश, of which the body is composed. किं सिंहानुनयेन?—What is the use of conciliating the lion? किम् in the sense of ‘use’ or ’need’ governs the Instr. of that which is needed and the Gen. of the user. Vide Sec. 59, Apte’s Guide. सिंहान्तरम्— Another lion. Karm. Comp. अन्यः सिंहः उपढौकयामःPresent, offer, (Caus. of ढौक्I Atm.).
उपकल्पितम् p. p. offered. शशकःa hare, rabbit. वारः a turn. आध्मात p. p. inflamed; from ध्मा with आ.
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अयथातथम्—Not as it should be, extraordinarily. अनर्थभाषी—Talking nonsense तत्रत्याः—People living there. प्रत्याययितुम्—To convince; causal infinitive of इ with प्रति. परमार्थेन ग्रह—To believe. प्रकोष्ठे… प्रयोजनम्—No candle is needed to see the sun. विकत्थनपराय तन्नारोचत—The boaster did not like that. रुच् and other verbs, having a similar sense, govern the dative of the person pleased or satisfied. चिरभ्रान्तभूवलयः—Who had long wandered over the earth. कौतुकानि—Curiosities. संस्तुतजनः—Acquaintances. कथाप्रसङ्गेन—In the course of conversation. किमिति Ind. Why? दृढीकरणार्थम्—To bear out (his statements). प्रकोष्ठः—The fore-arm. परिहार्यA bracelet. विलक्ष a. ashamed. तूष्णीं (Ind.) भू Be or remain silent. भावय-Consider. विकत्थनपर a. Given to boasting.
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आविलय v.t. from आविल ad. meaning. ’turbid,’ ‘muddy.’ अत्रभवान्—Your honour. When respect is to be shown, भवत् is preceded by अत्र and तत्र or सः, the former referring to a person that is near, the latter to one who is at a distance, or absent from the speaker. Vide Sec. 197, Apte’s Guide. एवं स्थिते—Such being the state. षण्मासम्—षण्णां मासानां समाहारः Dwigu Comp. शप्त्रा तव पित्रा भाव्यम्—It must be thy father who abused (me). Mark the impersonal use of भू here. नो विशेषः—It makes no difference. अल्पसरित् f. A rivulet. निम्नप्रदेश—Low ground or land. किन्निमित्तः? a. किं निमित्तं यस्य सः, ब. स. आरंभः an act. तूर्णम् Ind. quickly. त्वत्तः—From you. कलुषित a. turbid. प्रतीप a. opposite. Ind.-governs the Abl. case. निरुत्तर a. non-plussed, silenced दास्याः-पुत्रः a
compound-word meaning a whore-son, used as a term of abuse. आशयः Mind, object, meaning.
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अधःक्रियते—Is eclipsed or thrown in the background. मे लज्जामावहन्ति—Bring shame or disgrace to me. दुर्मनायमान—Troubled in mind, sad, disconsolate, vexed; Den. form from दुर्मनस a. अपथ—A bad road. अनुपदम्—Close behind; पदानां पश्चात् Adv. Comp मुद्—f. pleasure, joy. पादपर्यन्तम्—From top to bottom. एकैकशः adv. severally निरूपयन्ती—closely examining. शोभयितृ a beautifying. दुर्दर्शन a. ugly. विषाणयुगलम् A pair of horns. वैरूप्यम्—ugliness. कष्टम् Ind. alas! कृच्छ्रम्—a. difficulty. सन्निकर्षवर्ति a. living in vicinity.
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प्रसवोन्मुखी—About to be delivered or confined प्रसव—Child-birth, delivery, confinement. ऊर्ध्वम्—Ind.-After, governs the Abl. case. अध्युषितम् p. p. of वस् with अधिgoverning a noun in the Acc. case. सुखं प्रष्टुम्—To inquire after health. मामनु—After me हठात् निर्वासयितुम् (वस् with निर् caus.) To eject forcibly व्यक्तम्—Plainly. उपस्करः Furniture. अधीन, निघ्न a consigned to one’s care सप्रश्रयम् adv. Respectfully. अविकलैरींद्रियैःWithout injury to the limbs of the body. प्रसूतिवेदना—pangs of delivery. अविकलैः—अवतीर्णा—Safely brought to bed. हिण्डमाना pre. p. f. Nom. Sing. of हिण्ड I A.—Wandering, roaming over. बलवत् adv. very. अक्लिश्यत—put to trouble or inconvenience. का गतिः What help (is there)? पक्षावधिक a. (पक्ष+अवधि+क) पक्षः अवधिः ( मर्यादा) यस्य सः, ब. स. Extending over a month. प्रसह्य Ind. By force, forcibly. अनिर्वासिता a. not driven out.
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बहिरुद्यानम्—Adv.comp. उद्यानाद् बहिः—Outside the garden.
मध्येमार्गम्—Adv. comp. मार्गस्य मध्ये—On the way. किमर्थम्—कस्मै इति Tat. Comp. Why? वदान्यशिरोमणिः—The foremost of donors; शिरोमणिः Lit. means head-jewel. शासनपत्रकाणि—Copper-plate-grants.
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युष्माभिर्भङ्क्तव्यः—Each of you should break (the bundle). बाणान् वियुयुजे—Separated the arrows. पृथक्-पृथक्—Separa tely. भेदनाय नालम् Cannot break (your power.) अलम् Ind. Sufficient for (with Dat. or inf.) व्यस्ताः विनश्येत—If you are separated, you will be easily destroyed.
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मृन्मयपात्रजीर्णकंबलधनः—Who had no property but an earthen pot and a tattered blanket. केवलनैराश्यात्—In sheer despair. जीवितत्यागे मतिं चकार—Resolved to end his life. सर्वथाऽनशनेन—By abstaining from food altogether. प्रीतो…बभूव—The deity being pleased appeared before him. विदग्धवत् पप्रच्छ—Shrewdly inquired. यावदक्षमः…कर्तव्यः—How can I believe you, unless I see you with my own eyes? द्रष्टुं जीवेयम्—Should live to see. जानु—n. a knee. आयतनम्—Abode. तस्याविर्बभूव Appeared before him. प्रत्यक्षीकर्तुम् (च्विform) to see with my own eyes. प्रत्यर्पिता—given back, restored. विदग्धवत् Like a shrewd or clever man.
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श्वापदं प्रतीक्षमाणः—Lying in wait for game. विष-गतः—Died from the effects of the poison. वर्तिष्यमाणं—निरूपयन्—Watching what might happen. तदवस्थः—सा अवस्था यस्य सः—Reduced to that condition, lying in that condition. अग्निसात् कर्तुम्—To burn, consign to fire. प्रियस्य…जिगमिषुः—Desirous of following the way of her husband. मृगया—Hunting, chase. अचिरात्—Ind. soon-निपुणम् Adv. carefully. अवलोकितवती Act. p. Fem. Saw. मुक्तकण्ठम् Adv. मुक्तः कण्ठः यस्मिन् कर्मणि तत् यथा स्यात् तथा. Bittterly. वल्लभः Husband. मृगयुः, लुब्धकः—A hunter, fowler.
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अब्जनाभः—अब्जं नाभौ यस्य सः—Bah. Comp. Mark the change of the final vowel to अ—Vishnu. कृतार्थांचकार- Blessed her, made her happy. माहेश्वरम्—of महेश्वर, that is शिव. वीर्यशुल्का—वीर्यं शुल्कं यस्याः सा—The price given for whom was valour. हैहय Name of कार्तवीर्य who had a thousand arms and was slain by परशुराम अशेषहैहय- कुलधूमकेतुभूतः—The enemy of the whole race of हैहय. अपास्तवीर्यबलावलेपं चक्रे—Made him give up his pride of valour and strength; rendered him void of the pride of valour and strength. तद्वधाहृतकलंका, तस्य वधस्तद्वधः—Gen. Tat. Comp. तद्वधेनापहृतः कलको यस्याः सा—Whose stain was wiped off by his destruction. राज्यधुरा—राज्यस्य धूरिति—Gen. Tat. Comp. Mark the change of the final र् to रा. For formation vide (a) Lesson XIX, of Dr. Bhandarkar’s Second Book of Sanskrit. प्रजारंजनदीक्षितः—Who had taken the vow of keeping his subjects contented. भास्वत् m. The sun. पुत्रत्वमाययौ—Was born a son to. ताडका Name of a female friend, daughter of सुकेतु, wife of सुन्द and mother of मारीच. सुबाहु name of a demon. अहल्या The wife of गौतम. दर्शनमात्रेणैव By a mere glance or look. विराध, खर, दूषण, कबंध are names of demons. वाली a Monkey killed by राम.रक्षःकुलम् the race of demons. दश आननानि यस्य सः—ब. स. रावणः
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व्ययतः—By use. तस् (तसिल्) is a termination used in the sense of the Abla. case. (3) न उत्तमो यस्मात्—तदनुत्तमम्—The very best or highest. (4) गोचरं न याति—Does not fall into the hands of. (7) हिते नियुङ्क्ते Urges to good action. (8) रूपमधिकम्—The higher type of handsomeness. प्रच्छन्नगुप्तम्—Concealed and well-protected. भोगकरी यशःसुखकरी—Places within (his) reach enjoyments, honour and happiness. विहीन—Destitute of.
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सञ्जातपक्षपुटमात्मानमपश्यम्—I became aware that my wings were (now) grown. अचिरात्…पतितः—I was soon exhausted and compelled to halt. सुप्तप्रतिबोधित—आदौ सुप्तः पश्चात् प्रतिबोधितःKarm. Comp.—First asleep and then awakened. मम पुरस्तात्—Standing before me. पुरस्तात् Ind. governs the Gen. case. किमिति Why? किमर्थम् …भावयसि—Why do you make me experience the woe of a captive from mere curiosity? मयि दयां कुरु—Have compassion on me. द्रष्टुकामः—द्रष्टुं कामो यस्य सः—Desirous of seeing or visiting. कालान्तराक्षमं हृदयम्—My heart will not brook delay. मुदं निर्विशन्—Enjoying pleasure. अबरपथः—अंबरमेव पन्थाः—The sky. अंबरपथं विचरति स्म—Flew into the sky. कतिपय a some, several. उदङ्मुखः with his face towards the North. भद्र—Sir; good man! झटिति Ind. immediately.
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पित्रा क्लिश्यमानोऽपि—Though pressed by his father. अनुशयान्विताः—Stung with remorse. विद्यासिद्धये—For the acquisition of learning. वारयिष्यन् Fut. Part. Wishing to dissuade (him from). ब्राह्मणच्छद्मना—in the guise of a ब्राह्मणःआसीनः—Pre. Part. of आम्—Sitting. सिकताः—Sand. This word is fem. and pl. उद्धृत्योद्धृत्य—Repeatedly taking up. सोर्मि-ऊर्मिभिः सहितं—Bah. Com.—Full of waves. पश्यतस्तस्य—Gen. Ab. Constr. While the ब्राह्मण was looking on. मुक्तमौनः—मुक्तं मौनं येन सः—Bah Comp.—Who gave up his vow of silence. निर्बंधपृष्टः—Being importuned. प्राणिनाम…बध्नामि—I construct a bridge over the Ganges for animals to pass over. अहो मौर्खम्—Ah! What afolly! ओघहार्याभिः सिकताभिः with sand which is swept
away by the current. इयं…कल्पना—This is either a desire for the horn of a hare or thinking of drawing pictures in the sky. विचार्य—After due consideration. तपसो विरराम—Desisted from penance. Vide note on the use of रम् and वि in Extract I. शैशवम्—Childhood. अनुशयःRepentance.
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सलिलमुदञ्चन्ती बालिका—A girl drawing water (from a well). गण्डूषमात्रम्-गण्डूष एव—mouthful or handful (of water), that is a draught. तां पयो ययाचे—Begged water of her. याच्is a root taking two objects; तांis theअकथित or indirect object. उदकुंभः—उद्नः कुंभः- Gen. Tat.—A jar of water. भवदधिष्ठित—On which you ride. पशोः कृते—For the beast; कृते Ind.—for; it governs the Gen. case. पशुमपि तोयपाययामास Gave water also to the beast to drink. निर्गमिष्यन् Fut. part.—When about to depart. भगवत्या…विहितम् My daughter has walked in the good way of our mother. अरुंधती. वर्धतां…प्रवृत्तिः—May this your philanthropic turn of mind prosper or gain ground! भूयात—Benedictive 3rd pers. sing. of भू अवसितp. p. finished. (सो with अव). उक्त—p. p. addressed or spoken to. रजतम्—Silver. अनुभावः—Dignity, majesty, power.
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महातपाः—महत्तपो यस्य सः—Whose penance was great. देहन्यासे मनश्चक्रे—Thought of leaving his body; made up his mind to abandon, or resolved upon abandoning, his body. अस्मान्महाभयात्त्रायस्व—Save us from this great danger. In the case of words implying ‘fear, and protection from dauger,’ that from which the fear, or danger proceeds is put in the Abl. case. See Sec. 78, Apte’s Guide. गाधिजन्मने क्रुद्धः—Angry with the son of
गाधि—Mark the Dative of गाधिजन्मन् used with क्रुध्. घोरदर्शनः—घोरं दर्शनं यस्य सः—Of dreadful sight. तस्मिन्नेव मनो निदधे Made up his mind to devote himself to the acquisition of that alone. रक्षोभयम् रक्षोभ्यो भयम्—Abl. Tat. Fear of demons.प्रकृतिः f. subjects निवेश्यcaus. abso of निविश—having placed. त्रिदिवं जगाम Died. आलयः—An abode.
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विरूढवेतसे-विरूढा वेतसा यस्मिन् तत्,—तस्मिन्;Containing tall reed-grass. मृगरराजः—मृगाणां राजेति; Mark the change of राजन् to राज at the end of the Comp—The lord of beasts, the lion धनुर्वेदनिपुणः—Skilful in the use of bow. शरं सन्धा—To aim an arrow. जयघोष्मुदीरयामासुः—Raised a shout of joy for victory.अनतिदूरवर्ती—That was hard by. अज्ञातसमुपस्थितिः—of whose presence they were not aware. प्रबोधितः—Was roused from sleep. निमिषमात्रेण in an instant. अवनिपालं विद्युज्जवेनाभ्यपतत्—Rushed on the king with the swiftness of lightning. तं शरीराद्वियुयुजे—Tore it from his body. अनेन…विहारः—This sad accident put a stop to the sport. अनुयायिवर्गः—The party, the followers. आर्द्रव्रण—Whose wounds were fresh. केसरी…बभूव—The effects of the poison of the animal’s bite terminated his life; he died from the effects of the poison of the animal’s bite. रोधस् n. bank. विकरालa. Fierce,dreadful. प्रबोधित p. p. (caus. of बुध्with प्र)roused from sleep.
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ग्रामविशेषः—An excellent village. आत्मानुरूपा—Worthy of himself द्विजवरस्य भार्यायां चत्वारः सुता उत्पेदिरे—The eminent Brahmin had four sons by his wife भार्यानुगतो दिवं प्रययौ—Went to heaven being followed by his wife. आनाथ्यदुःखिताः—Miserably situated through (their) forlorn state. हृतसर्वस्वाः—Deprived of all possessions. मिथःसंलप्य—
Having privately held a consultation. यथापूर्वम्—As before. अवज्ञापात्रतां जग्मुः—Became the object of disres- pect. येन गुणेन…मतिचक्रे—Resolved upon acquiring that (merit) rope by means of which the deer in the form of wealth may be brought perforce, being bound. समागमे संकेतस्थानमुक्त्वा—having fixed the place of meeting. चतस्रो दिशो भेजिरे—Took to four quarters. तत्रोचितम्—Fit for the piece. प्राणैः संयोजयितुम्—To put life in. विधिवशात्—Through fate or charce. दुःखोदर्काधिगमः—Acquisition resulting in misery. उद्धृतजटाभारः—With the mass of his mane standing up. खरनखांकुशः—Whose sharp nails formed his goad. गोत्रजः—A relation. मातामहःMother’s father. मातुलः—Mother’s brother. स्वाध्याय—The study of वेदःगृहकर्मकराः—Menial servants in a hodse bold. संस्फूर्जत् pre. p. bursting forth. शरदभ्रचला a. as unsteady as the autumnal cloud. गतिः f. fate, destiny. संकटa. impassable. अंकुशःa goad भैरव a. dreadful.
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सोदर्याः—Whole brothers. तेषु जीवत्सु—During their life-time. न…अक्षः—There was no rain for 12 years. दशशताक्षः—दशशतं अक्षीणि यस्य सः, अक्षि becomes अक्ष at the end of a Bah. Comp. क्षीणसारम्—withered. पङ्कशेषाणि—पङ्कः शेषो येषां तानि—Mere beds of earth; with nothing but mud remaining in them. विरलीभूतम्—Became rare. अवहीनाः कथाः—There was an end to all gossips. गलिताः—Were not observed. बहुलीभूतानि—Multiplied पर्यलुण्ठन्नितस्ततः—Rolled here and there. शून्यीभूतानि—Were depopulated. उपभुज्य—Having consumed. अत्तुमक्षमः—Not prepared to eat up. अपासरत्—Fled away. जनपदः—A country. स्फीत abundant, plentiful. स्फीततर धनं येषां ते—passing rich. दशशताक्षः—Indra. सस्यम्—grains. वन्ध्य abarren क्लीबa waterless स्रवन्ती—a stream. क्षीणस्रोतस् a dried up. कपालम्–
A skull-bone शुष्क p p. Thin. खर्वटम्—Hamlet, अजाविकम्—A flock of sheep. गवलः—The wild buffalo. गो Cattle. यूथम्—A herd. समकल्पयन्—proposed मण्डली—A group. proposed
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अद्य जाने स्वप्ने—Today, I fancy, in my dream. स्वातिनक्षत्रस्थिते सूर्ये—The sun having entered the स्वाति—constellation. स्थूलस्थूलैर्जलबिन्दुभिः—In very large drops. चतुःषष्ट्या मुक्ताशुक्तिभिः—Mark the agreement of चतुःषष्टि, a sing. fem.noun with मुक्ताः, a plural substantive. विंशति, त्रिंशत्, &c. and their compounds are fem. and sing, whatever the number and gender of the noun they qualify. सुवर्णलक्षेण क्रीतः—Was bought for one hundred thousand gold coins. The price at which a thing is bought is put in the Instr. case. सुवर्णानां कोट्या क्रीता—below, is another instance, illustrating the same point. श्रेष्ठी—The head of a mercantile guild. एकावली—A singlestring of pears. परिरम्भः—An embrace. दृढम् adv. closely. पीडित p. p. pressed.
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विषुवत्संक्रान्ति—The entrance of the sun into the Zodiacal signs Aries or Libra at the vernal or autumnal equinox. संक्रान्ति is the apparent passage of the sun from one Zodiacal sign to another. कपर्दक—A cowrie used as a coiu.लक्षसंख्यानि धनानि कृत्वा—Raising my fortune till it could be reckoned by lacs. अनैकधा वृद्धैस्तैर्धनैः—With the money thus increased manifold. सपत्न्यः—समानः पतिर्यासां ताः, Bah Com. co-wives. तथाविधानि–तथा विधा येषां तानि, Bah. Comp. तस्यामधिकानुरागं करिष्यामि—will show greater affection to her. Words showing ’love’ ‘attachment’ ‘regard’ govern the Loc. of the person or thing for whom or which love &c. is shown. तथा…अवलोक्य—Discovering the pots in that condition. सक्तु m. pl. The flour of barley; barley-meal. शराव—An
earthen pot. मण्डपिका—A small shed, shop. रौद्र—a. Dreadful. आकुलित a.oppressed. पूगः—Betel-nut. अमर्षः—Anger. निरस्कृत p. p. reproached. बहिष्कृत p. p. cast out. गर्भः an interior.
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आकण्ठम्—Adv. Comp. कण्ठं मर्यादीकृत्येति. मय्यनुरक्ता—Attached to me. Vide note on तस्यामधिकानुरागंin the preceding passage. गुच्छान्तरम्—अन्यो गुच्छः—Karm. Com. लक्ष्यीकृत्य (च्वि- form) having aimed at. उद्बाहुः a. उद्गतौ बाहू यस्य सः ब. स. With hands up-lifted असकृत् Ind. often. उन्नतत्वम् Height. अन्तर्लज्जित p. p. ashamed within himself. स्वच्छन्दम् adv. at will. प्रायःInd. generally. उद्भावयन्ति—Find. विरक्तिःIndifference.
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लब्धमात्रम्—Everything obtained. यद् Relative pro. standing for the following sentence. समयःAn agreement. ऐकमत्यम् Unanimity. समम् adv. equally तरक्षु m. a. hyena. चतुर्धा adv. in four ways, into four parts. निर्दिश्—to point. भागधेयःa. portion, lot. विक्रान्तम्—p. p. fought bravely. सशिरःकम्पम् adv Shaking the head. प्रह्वa. humble. दास्यथ 2nd fut. 2nd per. plu. of दा to give parasm. तुरीयःa. The fourth विषमोऽयं कालःThese are hard times. अदभ्र a plentiful. भविष्यदापद् f. Impending calamity. नीति The right course. नाहं दोषेण स्पृश्ये—I shall not be at fault. नङ्क्ष्यथ 2nd fut. 2nd pers. pl. of नश—willperish. सति प्रसङ्गेL Abso. construction, when the time comes. सड्गः—association. वाच्य blamable. वशगः—a. servant विप्रलब्धः—p. p deceived. पृच्छा,—a question.
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अद्य यावत्—Until now. कुक्षिपूरम्—A णमुल्—or gerund in अम्—sufficient to fill the belly. मम दयंते—Pity me. Mark the
gen. of the object. कृषीवलः—A farmer. गोष्ठः—ष्ठं a cow-pen. पीन, मांसलa. fat.—शतगुणम् adv. a bundred times. अलिन्दः—terrace before a house-door. नक्तम् Ind. At night. सर्वभावेन Adv. most heatrily उदरपूरम्—णमुल् or gerund in अम्. meaning the same as कुक्षिपूरम्—above आँ-Ind. verily. दुश्चष्टितa. wicked, mischievous. दिवा Ind. by day. सायम् ind. by night. स्वैरम्—adv. at will. अपूपः acake. निरवरोधता Freedom. सार्धम् ind. with (governs the Instr.) तवाक्षय्यमस्तु तत्—May yon enjoy it for ever?
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गिरिनदी—mountain-torrent, a rill. सत्येवम्—This being the case, under these circumstances. विगृह्य—Having picked a quarrel with.निरागस् a. innocent.कलुषय—Denom. from कलुष a—turbid भीतभीतः p. p.—अतिशयेन भीतः। मलिनीकृतम् (मलिन + कृतम्. च्वि)—rendered impure, soiled. अमर्षः—Anger. जानानः—Pre. part. Atm. masc. nom. sing. of ज्ञा 9. द्वीपी— m. A tiger. निंदितवान्—p. act. part. masc. nom sing. of निन्द् भक्षितवान्, श्रुतवान्, कृतवान् are similar other forms in this lesson. प्रतिवादी a. Answerable (for). युक्तियुक्त a. consistent with logic. कुंठितमति—a non-plussed. शेष कोपेन पूर्—to make up by anger what is deficient in argument. कृपण—a. poor, helpless.
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न विशेषः—Nothing better; no change for the better क्षार—A corrosive or acid substance. क्षते क्षारं प्रक्षिप्—To make bad worse, to add insult to injury, aggravate the pain which is already unbearable. अर्धचंद्रः—Thehand bent into a semi-circle-as for thepurpose of seizing or clutching anything. अर्धचंद्र दा—To seize by the neck and turn out. गलहस्तिका—Seizing by the throat, चिकित्सकः—A physician प्रतिगद्—to reply आप्रच्छ्
Atm.—to take one’s leave. आविष्ट p. p. overpowered. filled with.
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समीपतः—Close by, at hand, धेनु…गतः—The sun went down while he was trying to lift up the cow. यावत्सूर्योदयम्—Till sun-rise. गरिष्ठ—Superlative in इष्ठfrom गुरु. अकिंचन—न विद्यते किंचन यस्य Tat. Com आशिषा उपगृह्णाति—Favours with a blessing तं दारिद्र्यनाशमयाचत—Begged him to remove his poverty याच् takes two objects. कातरः शब्दः—A cry of distress. बहुलीभूत—p. p. (च्वि) widely spread. सुरभिःThe heavenly cow. दाक्षिण्यम् courtesy. बहुरत्नाबहूनि रत्नानि यस्यां सा Containing many jewels (in her interior). व्यजिज्ञपत् Aor. 3rd pers. sing. of ज्ञा (caus) with वि. Made a request to. स्वार्थपरa. intent on gaining one’s ends, selfish.
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आत्मानं मृतवत् संदर्श्य—Feigning himself dead, वर्णमात्रविप्रलब्ध Deceived by mere colour. समुत्थाप्य—Abso. of the caus. of स्थाwith सम् & उद्—Having lifted up. साष्टांगपातम् adv. With the eight limbs prostrated. आधिपत्यम्— Sovereignty. ज्ञातिःmasc. a relation. परिचित p. p. known, exposed. आरावः—a sound.
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विषमे तिष्ठन्—Standing by in difficulties. व्यभिचारः Separation, disunion.विद्रुतःp. p. ran off प्राणानायम्य—Having held his bre-ath. विगतचेष्ट a. Motionless सौम्य, Voc. Gentle sir, good sir. विश्रम्भाहाणि a. Worthy of confidence.
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अवाक्शिराः—Having the head hung downwards. सप्तर्षयः—the seven sages, a कर्मधा० Compound सप्तर्षीन्
वाहयामास—Vide Sec. 45 (a), Apte’s Guide, for the use of वह्, in the causal. वंशे भवः—वंश्यः—A Descendant. पौलोमी—Indra’s wife. अश्वमेधःA horse-sacrifice. आजहार—Performed खर्वa. Dwarfish, short in stature. कुंभसंभवः—अगस्त्यमुनिः—कुंभात्संभवो यस्य सः, ब. स. प्रांशु a. Tall. शिबिका—A palanquin उह्यमान pre. p. pass. from वह्—One who is being carried. उच्चावच aHigh and low, vehement and mild त्वरयामास—caused (them) to hasten, from त्वर् Atm (caus).
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दंपती जाया च पतिश्च Dwandva Comp. वैनतेयः—विनताया अपत्य पुमान्—The son of विनता, गरुड. आसन्नप्रसव—About to bring forth or lay eggs. सरित्पतिना By the lord of the rivers. पति at the end of a compound follows the general rules of declension निभृतं adv. Out of sight, in a corner. अनुसन्धा—to find out. कृच्छ्रेण adv. Anyhow. तच्छक्तिज्ञानार्थम् To test his strength. पक्षिणां मेलकं कृत्वा—Having called the birds to-gether. गरुत्मत् ….—गरुडः. पुरतः—Ind. governs the gen. निगृहीत p. p. Kept down. held in check, punished. मौलिः m. The head. सृष्टिस्थिति-प्रलयहेतुः—The cause of the creation, maintenance and destruction (of the world).
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छायाद्रुमः—छायाप्रधानो द्रुमः, उत्तरपदलोपी समासः—A shady tree, a large umbrageous tree सोपानत्कम्—उपानद्भ्यां सह यथा स्यात् तथा—With his shoes on. ब्राह्मण-निर्माय—Having put on the dress of a Brahmin. प्रत्यरण्यचर—Roaming from forest to forest. संरक्षाधिकृतः—Appointed to look after or watch. निर्जनसंपात—Not frequented by men श्रुतपूर्वम्, पूर्वं श्रुतम्—Heard of before. अत्र त्वस्ति…विशेषः—In our case we have a very special means of avoiding evil. यत्-
Namely सर्वात्मना—With all his heart. प्रजाहिते जागर्ति—Is watching the good of his subjects. आश्चर्यपरंपरामयः Full of a series of wonders. निसर्गः—Nature रौद्र a. Fierce. अप्रधर्षणीय a. invincible. अप्रमत्त p. p. vigilant विषयः—A country. प्रसहन्ते—Venture. उपद्रवाः—Calemities.
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(3) विनताया अपत्यं पुमान्—वैनतेयः गरुडः (4) तस्मात्…सिध्यति—Fate does not succeed without industry (5) उद्यमेन समः—Like industry तृ. त. स. कृत्वा यम्—Resorting to which. (6) The second half of the verse refers to the churning of the ocean of milk by the gods and the demons. (4) व्यवसायः द्वितीयः येषां ते, Bah. Comp. अपारः- न विद्यते पारो यस्य सः, ब. स. (8) पुरुषसिंहः—पुरुषेषु सिंह इव, सिंह—The best or pre-eminent of a class, being used at the end of the comp. कापुरुषः—कुत्सितः पुरुषः—Karm. comp. आत्मशक्त्या adv. as far as it lies in (your) power.
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पंचाननः—पंचं (विस्तृतं) आननं यस्य. Bah. Comp.—A lion. अशरण—न विद्यते शरणं यस्य सः Bah. Comp.—Helpless. आसन्नमृत्युःdrawing his last breath. प्रसारितगात्रमशेत—Lay stretched on the ground. पुराण…मोचनाय—To satisfy his ancient grudge चिर…संकल्प—Determined to be revenged on an old enemy. स्वयं…अधिक्षेप्तव्यः—The old lion could thus be treated with impunity. उज्जिहानजीवितः—Dying—उज्जिहानं जीवितं यस्य सः Bah. Comp. कथंकथमपि सोढव्यः—I could have managed any-how to bear, ओजस्विभिः—…हृदयदाही—the insults of the powerful were bad enough, तद द्विगुणितं मरणम्—Is dying a double death. वार्द्धकम् Old age. भल्लूकः—A bear. कण्ठीरवः Lion. अपसदः at the end of comp. is used in the sense of ‘vile’, ‘accursed’, ‘wretched.’
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स्थूलोतुः—A fat cat, Mark the Sandhi here. अन्वभूताम्—3rd per. dual of भू with अनु’to experience’ (AoristIst variety) दुर्गतिं प्राप्स्यामि—Shall be helpless. अज्ञासीत्—Aorist, 6th var. 3rd pers sing. of ज्ञा to know. तामाश्रित्य रक्षित आत्मा—He saved himself resorting to it. व्यस्तचेताः—One whose mind is troubled. क्रोष्टा—A jackal. प्रच्छायशीतल—Cool on account of thick shade. राजनीतिः Politics. विषये—relating to. गोष्ठीसुखम् Pleasure of conversation (at a meeting). तवार्थे…भवसीति—I feel much afflicted at the thought as to how you would fare. युक्तिःA stratagem. दृढम्—Well thoroughly. दुर्गतिं प्राप्स्यसि—Shall come to grief.गोमायुः—A jackal स्वार्थःOne’sown interests बाढम् adv. Very well! साधयामि—I go my way. तावद् Ind.—Well then. यातः—Gen. sing. of यात् pre. p. masc.
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यदि प्रतिज्ञा नोत्तीर्यते—If the vow cannot be fulfilled गतागतम् n. Going and corning, frequent visits निर्वेदः—Disgust विहायस् n The sky. रामणीयकम्—Beauty. वियत्पथेन—(Mark the ending of the compound) Through the sky. दर्शयिष्यति—2nd fut. 3rd pers. sing. of the caus. of दृश्—will show. तार्क्ष्यः—The eagle. खम् n. The sky. साधारण a. ordinary. common हारयित्वा—Having lost. व्यवहर्तुम—to act. मर्मसु व्यापार्य—Having penetrated into vital parts.
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उच्चैःस्थलम्—A high place. आकार्य—Having called out. गदमात्रस्यापोहने प्रभवामि—I am able to cure uuny disease whatever. छद्मवैद्यः—A quack किलासीकृतम् aHas white leprous spots on it. निस्तेजस्कम् a. निर्गतं तेजो यस्मात् तत्—Whose lustre is gone. दूरीकरोमिa.(दूर+करोमि च्वि)
Remove. विप्रक्रष्टुम्– to drive out. यदि…लिप्यामहे– If we ourselves are full of draw–backs.
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त्वं जीवन्मुक्तः–You are let off alive. अदृष्टपूर्वः–पूर्वं दृष्टो दृष्टपूर्वः– न दृष्टपूर्वः अदृष्टपूर्वः Notseen before. उदैरयत् (उद् + ईर् 10) called out to, said. निवेश्यAbs. of the caus. of नि+ विश्–Having put in.उपनयनम्– Drawing upon oneself. मोक्षः–Freedom.
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पायसं– पयसो विकारः– Rice boiled in milk; an oblation of milk, rice and sugar. उभयतः– Ind. –on both sides. It governs the accusative case. काम्या–A wish, desire. अभ्यवहारः–Food, meal. विलक्ष a wonder–struck. तनु a. small, slender. आलिंजरः–A large earthen water–jar. अवकाशः–Room. व्याजम्–Pretext, pretence. समाहित–p.p.satisfied. निर्गमः–departure.
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सञ्जातेर्ष्यः– सञ्जाता ईर्ष्या यस्य सः Bah. Comp.— Being jealous. को हि नाम…विशेषः– What advantages does the swan possess over us? येन For which. हंसेनैव मया भवितव्यम्– I should like to become a swan myself. बकजात्युचितम्–Usual with cranes. रोषमिवाभिनयन्–Feigning anger. बकहतक–Wretched crane. अश्वायते– Den. of अश्व– Shall become a horse, that is, can vie or cope with a horse. सलिलमिश्रं– सलिलेन मिश्रम्– Instru. Tat. उपजहार– offered मन्दात्मा– a. Dull–headed, stupid. विपरिवर्तते– Changes. Simply being an animal used in drawing a carriage. यथागतम्– Ind. by the same way as he came. रसिकः– An appreciator of excellence or beauty. मानसम्– Name of a lake in Tibet. तोयाधारः– A lake, a well, any reserveir of water. कल्हारम्– A lotus. भासुर– a. Resplendent,
shining. हिमांशुः—The moon. व्यापादनम्—Destruction. मुग्ध— मति a.Foolish, stupid. दारकः A boy. अपरीक्ष्यवादिन् Thoughtless, inconsiderate.
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स्वभावदयात्मना—स्वभावतो दयाशील आत्मा यस्य सः— तेन Bah. Comp.— Kind by nature. मूषिकनिर्विशेषम्— Like a mouse— यावदनेन जीवितव्यम्— So long as the sage should live. न पलायिष्यते— Will not die out or vanish. इदं स्वरूपाख्यानम्— This talk about my real nature.नीवारः— Rice growing wild or without cultivation. क्रोडः— The chest, the part wild between the shoulders.
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पार्वणश्राद्धम्—The ceremony of offering oblations to the manes at a पर्वन् viz. the days of the full and the new moon. पुत्रनिर्विशेष— Just like my own son. सुस्य— Perfectly at ease or safe. मुखपादम्— मुखं च पादौ च— Collective Dwandwa Comp. When & Dwandwa Comp. consists of words signifying the limbs of the body of an animal, it is neuter and singular. श्राद्धम्—The gifts to be given to a Brahmin at श्राद्ध. भावितचेताः Whose heart was pervaded with emotion. विषादं गतः— Was smitten with sorrow. व्यवस्थाप्य (abs. of the caus. of वि+अव+स्था) Having charged one (with). आह्वानम्— Invitation. सहजदारिद्र्यम्— Poverty from birth तथा विभा यस्य सः— तथाविधः—ब. स.— Reduced to that condition.
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मृगयाशीलः— मृगया शीलं यस्य सः Bah. Comp.—indulging in wild or addicted to game, विवदमान— Pres. part. of विवद्— 1st conj. Atm. to quarrel, to dispute. वधूवरम्— वधूश्च वरश्च Col.
Dwandwa. अशीति शवानि Mark here the agreement of अशीती(fem. and sing.) with शवानि (neuter and pl.) विवादवस्तु—The subject of dispute, the matter at issue. मतिमकरोत्—Resolved upon, decided on अनवहितः—p. p. inattentive, negligent, careless, indifferent. उलूकः—An owl. अनादृत्य—Abs. of अन्–आ–दृ 0thAtm. Having disregarded. अनवेक्षमाणः—Pres. p.–not attending to. अभ्यस्—to practise. प्रतिश्रु–to promise. निर्विण्ण p. p sad, dejected.
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नागायुतबल—Possessed of the strength of a thousand elephants. दुरात्मा—दुष्ट आत्मा यस्य सःBah. Comp.–Wicked, evil–minded. दीक्षित—P. P. of 1st conj. Atm.–Prepared for, having taken a vow of. वस्तुतः—In reality. The termination तस् is added to certain nouns in the sense of the Abl. case. दण्डवत् प्रणम्य—Falling Pro–strate. मधुपर्क—A mixture of honey, a respectful offering made to a guest or to the bride-groom on his arrival at the door of the house of the bride. Its usual ingredients are the following five articles–viz. दधि, सर्पिः, जलम्, क्षौद्रम and सिता. महाबल—Bah. Com. Of great strength पंचविंशतिं वारसान् Vide note on अशीतिं शवानि in 64. कारागृहीत—Thrown into prison, made prisoners. बहुधा Adv. in many ways. जनपदः A country. मन्वान—pre. p. from मन् 8, Atm–Thinking. यथोचितम् Ind. Properly. समुपवेश्य—Having seated. अन्यतमः—One of many. महत् बलं यस्य सः—महाबलः मल्लयुद्धम्—A wrestling or boxing match; pugilist c encounter, संबोधित a. Advised. द्विधा कृ–To split into two parts. निपातयामास—Caused to fall down. घातयित्वा—Abs. of the caus. of हन्—Having caused to be killed. मोचयामास—(caus. perf.)–Set free.
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यौवनसुलभ—Natural to youth. ईश्वराद्बिभ्यत्पुरुषः—A god-fear, cng man. governs the Abl. case. दुर्गः—A fortress,citadel, castle. उदन्तःNews, पीनp. p. of प्यायIst Atm.–iat. कारित caus. p. p. of कृ. भ्रष्टाधिकार a. One who has lost his office or authority. आर्जवम्— Straightforwardness. न्याय्य a. Proper.equitable, just, right. अगणयित्वा—Not minding. अमुत्रInd. In another world. अलम् strongenough. भेतव्यम्—Рot. p. p. should fear. दीनार—A parcular gold coin.
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प्रयोजनवशात्—On come business. अम्ब—Voc. sing. of अम्ब—Mother. मा भैषीः—Do not be afraid. अभैषी.is 2nd pers Sing. Aorist of भी. It loses the temporal augment because the prohibitive particle मा is used with it and has the sense of the Imperative. Vide 2, Lesson XXII. of Dr. Bhandarkar’s 2nd Book of Sanskrit. कार्यवशात् is the same as प्रयोजनवशात् above. निरुपद्रवः—Free from danger. सकाशात् Ind. ‘from’. ‘सहजप्रियत्वम्—Natural fondness (for). श्रद्धापूरितचेतसा—with wind filled with faith (in his mother’s words.) सर्पव्यापादनात्—From being killed by the serpent. यथाभिप्रेतम्—As intendedor desired, at pleasure. प्रवस्—To travel. कर्कटकः—A crab. पुटिका—A small box. अतिलौल्यम्—Excessive passion or desire.
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मालवविषये—In the country called मालव (मालवा). पद्मगर्भम्—पद्मानि गर्भे यस्य तत्. पद्मगर्भाभिधानम्—पद्मगर्भं अभिधानं यस्य तत्—By name पद्मगर्भ. उद्विग्नमिवात्मानं दर्शयित्वा—Feigning himself sad or dejected. भद्रVoc. Sing.–friend. जीवनहेतवः The means of livelihood. ते च…नव्याः—They are sure to be
killed by fishermer coming here वर्तनाभावात्—For want of means of subsistence. मरणमुपस्थितम्—Death is imminent. आहारेऽप्यनादरः कृतः—Do not think of eating even. आलोचितम्—Thought to themselves. इह समये तावत्—This time at least. तदयमेव यथाकर्तव्यं पृच्छ्यताम्—Let us then consult him as to what is best to be done. जलाशयान्तरम्—अन्यो जलाशयः—Karm Comp. आश्रयणम्—Going or removing to. अ…पूर्व—Not tasted before. स्थले धृतवान्—Placed him on the ground. हा हतोऽस्मि मन्दभाग्यः—Alas! I am undone, an unlucky fellow! समयोचितं व्यवहरामि—I will act as the occasion requires पञ्चत्वं गतः—Died, expired. कैवर्तः—A fisherman एकैकशः—Adv. one by one. मांसार्थी—A desirous of flesh. कुलीरकः—A crab.
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वनोद्देशः—A part of a forest. दम्पती जाया च पतिश्च—Dwandwa Comp. वने भ्रमतोऽपि…गतः—While yet he was wandering in the forest, the sun set. परित्यज्य—Except इति मत्वा—with the thought, thinking that. एनं भक्षयित्वा पथ्यं कुरु—This will serve as your meal. प्राणत्यागेऽपि—Even when life is in imminent danger. बाल्यमतिवाहयन्ति—Passed their childhood. कुपिताननैः—With angry looks तस्याभिमुखम्—Before him, in front of him ज्येष्ठत्रासात्—On account of the fright taken by the eldest brother, निरुत्साहतां गताः—Becaine void of spirit or energy. यथा—That प्रस्फुरिताधरपल्लवः—With his sprout-like lower lip throbbing. त्रिशाखां भ्रुकुटीं कृत्वा—With the eye-brow knit up in three lines. न्यून—Inferior, less. येन—For which मृत्युपंथ—मृत्योः पन्थाः Tat. Comp. मृत्युपंथमेष्यसि—will die. भयव्याकुलमनाः—Overcome with tear at heart. अकार्यम्—A bad deed. विशेषः—difference. चेष्टितम्—conduct. परुष a harsh, hard.
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उशनर—Name of a country and hence in the plu. श्येनवेशेन—In the form or disguise of a hawk. मायाकपोत—A phantom pigeon; false or illusory pigeon. जिज्ञासु—Desid. adj. from–Desirous of knowing, wishing to know. यथातृप्ति—adv. Comp. वैश्वानरः—Fire. अनुपत्—Closely follow, chase. कारुणिक a kind. विहंगराजः—(Mark the change at the end of the compound) the king of birds. एतन्मात्रम् a. So much. ग्रहीतुमर्हति भवान्—You will kindly take. पललम्—Flesh. यथातृप्ति Adv. To one’s satisfaction. कृपाणः aSword. उत्कृत्यInd. Having cut off. (कृत् 6 with उद्). तुलामारोपय—to put in the balance. स्वकम् a. His own. वृन्दारकाः The gods. प्रसूनैः…किरन्—Showered flowers on the King. अक्षत p. p. unbroken, uninjured, whole.
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दिनेषु गच्छसु—Loc. Ab. constr.—As days rolled on. प्रत्यहम्—अहन्यहनीतिAdv. Comp.—Every day. For formation vide II. D. Lesson XX. of Dr. Bhandarkar’s 2nd Book of Sanskrit. प्रतिज्ञाय चलितः—Set out having undertaken (to achieve that). स्पृशन्नपि—Though only touching. संवादयामि—I will address. अन्यथा न वदति—Does not speak falsely. यथार्थस्यैव वाचकः—Always speaks the truth. अवध्यभावेन—On account of immunity from death. तदाज्ञया ब्रवीमि—I speak by his order. प्रसाद्य—Having pleased or propitiated. यूथपतिः प्रणामं कारितः—The Lord of the herd was made to bow down. वारान्तरम्—Another time, again. प्रस्थापितः—p. p. of the caus. of स्था with प्र ’to set out’.–Was sent away.व्यपदेशेऽपि सिद्धिः स्यात्—Success can be obtained even by using a name or a title. वर्षा f. pl. The rainy season. चन्द्रसरस्—Name of alake. आहतिः f. a stroke, hit.
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श्रम्यामः—We toil, labour.संगृह्णीमः—We lay by, store up. सुखम् adv. ’happily.‘भर्मन् n. Support, nourishment. नास्माकमनेन प्रयोजनम्—We have nothing to do with this. Vide note on किं सिंहानुनयेनin 22 or see 52, Apte’s Guide. चालयेव—Shall move. आक्रामन्तु—Shall attack or fall upon. भङ्गः—Fall, destruction. इति सर्वेषां चक्षुषी—So the eyes of all opened to their duty or interest. अगतिकाः—Helpless. चिरयुद्धप्रसङ्गात्—On account of a long continued war. द्युम्नसंकोचे समुत्पन्ने—When the money in the treasury ran low. बहिस् Ind. governs the abl. case. आवासः—An abode, residence. संहतिः कृता—Made strike. मिथः अमन्त्रयन्त—Took counsel together. मुधा—For nothing, giving (us) nothing in return. भागधेयम्—Lot, share व्ययः—Expense. दिवा…स्यन्ति Will plunder in broad day-light. समम् Iud. All at once, together.
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(1) कविषु इन्दुरिव Karm. Comp. (2) In this verse दूषण and are used in a double sense. दूषण—A fault or blemish; the name of a demon also. खर Hard letters and a demon of that name. This is a good example of the well-known figure, an विरोधाभासः, apparent contradiction contradiction or incongruity. (4) अर्थं वागनुवर्तते—The speech follows the sense. वाचमर्थोऽनुधावति—The sense follows the speech or words. (5) विरचितवान् m. act. p. p. of रच् withवि. भारतं आख्या यस्य तत्–भारताख्यम्. कृष्णद्वैपायनव्यासः, अविद्यमानः रागः यस्य सः अरागः—तंअरागं. अविद्यमाना तृष्णा यस्य सः अतृष्णः, तम् अतृष्णम् (6) अचतुर्वदनः—Without four faces चतुर्णां वदनानां समाहारः चतुर्वदनम्—न विद्यते चतुर्वदनं यस्य सः
ब्रह्मा is described as having four faces द्वौ बाहू यस्य सः द्विबाहुः Having two arms. अपरः—Another. हरिः—इंद्रः. भाले लोचनं यस्य सः भाललोचनः—शिव, who is represented as having a third eye on the forehead. न भाललोचनः—अभाललोचनः नञ् त. स. Not having an eye on the forehead. बादरायणः—व्यासः.(8) उपमा—The figure called simile or comparison. भारवि…A Sanskrit poet, the author of किरातार्जुनीयम्. अर्थगौरवम्…The depth of meaning. दण्डी—Another Sanskrit poet—, The author of दशकुमारचरितम् and काव्यादर्श. पदलालित्यम् the loveliness or charm of words. माघ The author of शिशुपालवधम् a Sanskrit poem. (9) A lovely or beautiful woman. केषां कौतुकाय न? In whom will (she) not produce a feeling of admiration? चोर, मयूर, हास, हर्ष, बाण and कालिदास are well-known Sanskrit poets.
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करालतां गतः—Festered. नीरोगतां नीतः—Was cured or healed. दुर्भिक्षपीडितः—Famine-stricken क्षुत्क्षामकण्ठः—क्षुधा क्षामः कण्ठो यस्य सः—Bah. Com. With his throat parched with hunger. राजपुत्राणां…पश्यति–Look upon him with greater favour than all other princes. प्रस्तावानुगतम् Adv. Suited to the occasion. निर्व्यजने—Adv. plainly, in a straight-forward manner. प्रमत्त a. Intoxicated. अर्धभग्नp. p. half-broken. कर्परम an earthen pot. कोटीf. an end. पाटित p. p. torn, split up. प्लावितp. p. covered with. अपथ्यसेवनात्—By eating unwholesome food. प्रहारः—A wound, scar. दुर्भिक्षपीडित p. p. Famine-striken. विकराल—a. Terrible. प्रहारक्षतम्—The wound caused by a blow. ललटपट्टे—On the tablet of the forehead. संमुखप्रहारः—A blow in the front. संमान—Honour परमेर्ष्याधर्मं वहन्तः—Entertaining feeling of great jealousy. विग्रहे समुपस्थिते—When hostilities arose. प्रकल्प्यमान pre. p. pass.–
(were.) being prepared. सन्नह्यमान—pre. pass. p. being caparisoned कुलालः—The potter. प्रकृत्या By birth. निर्गत p. p. Gone abroad. प्रहारविकारः—Wound caused by the blow. सव्रीडम् adv. With shame. अनुकारिन् a. Resembling. द्राक् Ind. At once.
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दक्षिणारण्यम्—The southern forest. कुशहस्तः कुशा हस्ते यस्य सः—With grass in his hand (paw); Bah. Comp. भाग्येन संभवति—Happens by good luck. किंतु… विधया—But I must not proceed in a matter where there is a personal risk. शुभा गतिर्जायते—The result is good or auspicious.न संशय…पश्यति—A man does not see good fortune unless he embarks on an adventure. तन्निरूपयामि तावत्—I will, therefore, see it carefully. कथं मारात्मके त्वयि विश्वासः?—How can I trust you who are murderous or ferocious? गलितनखदंतः—नखानि दंताश्चैतेषां समाहारो नखदंतम्, Sam. Dawandwa Comp. गलितं नखदंतं यस्य सःBah. Comp.–Have lost my claws and teeth. विश्वासभुमिः—An object of confidence. लोभविरहः—Freedom from avarice. यस्मै कस्मैचित्—To anybody whatsoever. लोकापवादो दुर्निवारः—The (indiscriminate) talk of the people is difficult to be warded off. लोको गतानुगतिकः—People are blind followers of one another. तुभ्यं दातुं सयत्नः–Trying to give you. यावत्…अक्षमः—No sooner did the traveller enter the lake for bathing than he stuck into deep mud and was unable to run away. त्वामुत्थापयामि—I will lift you out. स्वभावो… वर्तते—Nature predominates over all things. ललाटे…समर्थः—Who is able to efface what is written on the forehead? सर्वथा…कर्तव्यम्—Nothing rash should at all be done. धार्मिकः—a pious man. दुर्गत—a. Distressed. तद्वचः प्रतीत—a. Believing in his words.
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कथाप्रसंगेन—In the course of conversation. सपत्न्यौ—समानः पतिर्ययोस्ते. Bah. Comp. Co-wives. पणं बबन्धतुः—Betted or pledged themselves to wager. उपचर्या—Should be served; Pot. Passive Part. of चर् with उप. तमभितः—Round him. अभितःAdv. governs a noun in the Acc. case. दास्याः पुत्राः—Is used as a term of abuse. तथेति तेभ्यः प्रतिश्रुत्य–श्रु with ’to promise’ governs the dative of the person to whom the promise is given. कलशमभिपेतुः—Intransitive verbs sometimes become transitive when preceded by a preposition; hence अभिपेतुः has कलश for its object here. पाटितजिह्वाः—With their tongues split or cleft. दासीभावं प्रपदे—Was reduced to the position ofslave. प्राणायात्रां चक्रे—maintained himself.
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सार्थाद् भ्रष्टः—Strayed from the herd. असौ…समर्पितः—He was presented to the lion. अभयवाचं दा—To give one’s word of safety. चित्रकर्ण…स्थापितः—Named him चित्रकर्ण and retained him in his service. किमनेन कंटकभुजा—What have we to do with this thorn–eater? तैरालोचितम्…They fell a–thinking. शरीरवैकल्यात्…Owing to (lion’s) indisposition. अभयवाचं दत्त्वा धृतोऽयमस्माभिः–We have ratained him here by pledging our word of safety. किंत्वस्माभिरेव…करोति But we shall so contrive it that he will consent to offer his body. तुष्णीं (Ind.) स्थितः—Remained silent. लब्धावकाशः—लब्धोऽवकाशो येन सः Bah.–Comp.–Getting an opportunity, availing himself of the opportunity. भद्र…प्रवृत्तिः—Friend, better to part with life than to proceed to do a deed like this. जातविश्वासः—having got confidence, being inspired with confidence. सतामपि…दोयायते—The mind of the good even wavers on hearing the words of the wicked.
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पूर्वसंस्तववशात्—On account of former acquaintance.अतिथिवदुपाचरत्—Treated him like a guest. अत्रत्य—Of thisplace. सुखं वत्स्यति—Will live happily. अलं विचार्य—Enough of thinking. द्वित्राः—द्वै वा त्रयो वा —Bah.Comp.—Two or three यापयित्वा—Absolutive of the Caus. of या—Having passed. वा स्थूलवपुषौ स्थूले वपुषी ययोस्तौ—Fat—bodied.
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दैवदुर्विपाकात्—Through adverse fate. गलितनखनयनः—नखानि च नयने च नखनयनम् Sam. Dwandwa; गलितं नखनयनं यस्य सः Bah. Comp.—With his talons and eyes gone or lost. Alas! I am undone! It is all up with me!कोलाहलः कृतः—Raised a cry. तद्यथा… भवतु—So let things take what course they may. विश्वासमुत्पाद्य—Having inspired confidence (in him). नो चेद्धन्तव्योऽसि मया—or else I shall kill you. तावत—In the first place. ततो…हन्तव्यः—Then if you think I should be killed, let it be so done. जातिमात्रेण…वा Is any one killed or honoured merely because he belongs to a particular caste? व्यवहार…भवेत् It is only on one’s conduct being fully known that one is found fit to merit death or honour. ममाग्रे प्रस्तुवन्ति—In my presence praise, declare before me. विद्यावयोवृद्ध—Advanced in knowledge and years. धर्मज्ञ—Conversant with religious law. प्रीतिवचसाऽपि—With kind words at least. मांसरुचिः—Fond of flesh. परस्पर…ऐकमत्यम् Although the religious texts disagree with one another (in other respects) still they are quite at one in this that abstinence from killing is the highest duty. एवं विश्वास्य Having thus inspired confidence (in the vulture) दिनेषु गच्छत्सु—Loc. Abso.Constr.—As days passed on. आक्रम्य—Having attacked. प्रत्यहम्—Adv. Comp.—every day. जिज्ञासा समारब्धा—An enquiry
was set on foot. इतस्ततो निरूपयद्भिः—Making a close search here and there.निश्चित्य—Having come to the conclusion. अज्ञात…देयः—Shelter should never be given to one whose family and disposition are not known.
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सभार्यः—भार्यया सहेति—Bah. Camp.—Accompained by his wife, with his wife. इदं…प्राप्तम्—I myself am the cause of the misfortune that has now overtaken me.तद्यथा—It is as follows, अभिलक्ष्यं शरमपातयम्—Discharged an arrow in the direction of the mark. को……स्यात्—Who may be longing for my death?किं—कृतम—What wrong have I done to him? देश—A spot or a place.गुर्वथम्—For the sake of my parents. हर्तुकामः—हर्तु कामो यस्य सः—Bah Camp.—Desirous of fetching. मर्मण्यभिहतः Struck in the vital part. Mark the use of मर्मन् in the Loc. with a verb meaning ’to strike.’ इमं वृत्तान्तं पितरं श्रावय—Please inform my father of this accident.ब्रह्महत्याकृतस्तापः—The distressing thought of having killed a ब्राह्मण.वैश्येन…जातः—Born of a woman of शूद्र caste from वैश्य. किं चिरायसि?—Why are you late in coming? It is a verb fromचिर ad. The sing. of any of the oblique cases of चिर may be used adverbially in the sense of ’long’, ‘after a long time,’ ’long since,’ at last.’ ‘finally.’ ज्ञानपूर्वम्—Adv.—Intentionally, knowingly. कृताञ्जलिः—कृतोऽञ्जलिर्येन सः—Bah. Com.—With my hands folded. च्यावयेत— Would turn out, तेन—Therefore. न शतधा दीर्णोऽसि—Are not cut into a hundred pieces or parts.उदकं कर्तुं—To offer libation of water. कालं करिष्यसि—Shall meet with death. तस्यायं…समुपस्थितः—The fruit of that sinful deed has today accrued to me. पद्मपत्रेक्षणः —पद्मपत्रे इवेक्षणे यस्य सः—Bah. Com.—Having eyes resembling lotus—petal. मांत्वरयन्ति—Cause me to hasten. कुलपांसनी—A disgrace to my family.
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चिंतयाऽऽक्रम्यत—Was overpowered by anxiety. नातिपरिस्फुटपक्षाः—With wings not fully grown. का गतिर्भवेत्?—What will befall me, what will be my fate? परोक्षम्—अक्ष्णोः परम्—Adv. Comp.—In (my) absence पुत्रद्वितीयः— पुत्रो द्वितीयो यस्य सः—Bah. Comp.—Accompanied by (his) son. सहाया भवितुमर्हथ—You will kindly help us. यथावत्—Exactly as it had happend. मात्रे निवेदयामासुः—The indirect object of विद् with नि Caus. is put in the dative case. इष्टाप्तेषु विश्वसिति—Wordsimplying ‘belief,’ ‘confidence,’ generally govern the Loc. of that in whom belief is placed. Vide sec. 68 (a), Apte’s Guide. उक्तिं प्रति बद्धावधानाः—Attentive to his words.
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अथैकदा—Once upon a time. उषित्वा—Absolutive of वस ’to dwell.’ अस्माभिर्व्यापादयितव्या We shall kill. दृष्टव्यतिकरोऽहमत्र—I have had experience in this matter. अनागतविधाता—A proper name meaning ‘provider against an evil not come.‘प्रत्युत्पन्नमतिः—A proper name, meaning ‘ready—witted. ‘यद्भविष्यः—A proper name meaning come what may.‘जलाशयांतरम्—अन्यो जलाशयः—Karm. Comp.—Another pond. भविष्यदर्थे…गंतव्यम्—Since thereis no certainty of furture events happening as expected, where can I go? तदुत्पन्ने…अनुष्ठेयम्—Sowhen an emergency arises I shall act as the occasion would require.उत्पन्नामापदं समाधत्ते—Encounters or surmounts a difficulty as it arises. चिंताविषध्नः—Destroying the poison of anxiety. यथाशक्ति—Adv. Com.—To the utmost of one’s power.
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शास्त्रपारं गताः—Who had mastered sciences. शास्त्रपराङ्मुखाः—A verse to the study of sciences. को गुणः—What is the
use? कंचिन्मार्गे गत्वा—Having gone some distance. बाल्यात्—Since child—hood.प्रभृति—Ind. governs a noun in the Abl. case. अहो विद्याप्रत्ययः क्रियते—Let us make an experiment of our learning. जीवसहितं कुर्मः—Make alive. यावज्जीवं संचारयति—When he was about to put in life. एषः…निष्पाद्यते—Here is a lion being created, here a lion will be brought into being यावदहं…आरोहामि—Till I climb a tree. प्रतीक्षस्व—Wait.
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मित्रतां गतः—Became a friend. जलतीरे वेलायां—On the banks.गोष्ठीगतानां तेषां—Gen. Ab. in the sense of the Loc. Ab.—While engaged in talking.जालहस्ताःजालं हस्ते येषां ते—Bah. Camp.—With nets in (their) hands. मिथो मन्त्रं चक्रुः—Took counsel together. किमत्र युज्यते—What is proper to be done now? वचनस्मरणमात्रादेव—Merely by remembering the words spoken. खलानां…सिध्यन्ति—The motives or objects of the wicked do not succeed. तेन…इति Hence this world exists. सलिलगतिचर्याः—The modes of moving in water.बुद्धेरगम्यं—Inaccessible to the mind or talent.पितृपर्यागतं—Handed down from the ancestors in succession. पलायनपरा—Inclining me to run away. गतिविशेषाः—Special movements.
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स्वयं मृतः—Naturally dead. क्षितितलविन्यस्तमौलिः—With the head bent low in adoration प्रसादीकृताः—Presented. अंत्यावस्थां—Though reduced to the last extremity. कथम्—Some—how. अपवाहितः—Got rid of. अयं—भविष्यति—He is not likely to be won over by भेद (sowing discord). बध्यते—Is won or gained over. मां रक्षपालं निधाय—Having placed me as guard. सुगुप्तम्—Secretly. येन—So that. मया कार्यम्—I should render. उच्छिष्टतां नीतः—was defiled. प्राणदक्षिणां देहि मे—Give me the gift of my life, which
means ‘save my life.’ जीवन्नरो…पश्यति—If a man lives he can see or enjoy hundreds of good things. दिशोभाजं कृत्वा—Having made him take to quarters, i.e. put him to fight.
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निलीय स्थितः—Lay concealed. अत्र…चिंतितम्—With what object in view did you come here? निधनस्य…भविता—You will soon die. समयविशेषः—A favourable opportunity. आसायम्—Till evening, till it was dusk. मुदः…प्रबभूवुः—He could not contain his great joy, that is, he was exceedingly delighted. स वः श्रेयःप्रभावः—It is due to your greatness or generosity. अक्षिगोचरे अभवताम्—Were seen or discovered.
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कुतूहलात्—Out of curiosity. मानवगिरा—ln human accents ते जन्म सफलं भवेत्—Your birth will have attained its fruit that is, yon will be blessed or happy. स्त्रीरत्नम्—A best woman. विशिष्टया…भवेत् Happy will be the union of two excellent persons.शेभते—Appears to advantage. मे वाचं प्रपूजय—You will be pleased to do as I have said. अनन्यसुलभाः—Not to be easily found or met with in others, uncommon. श्रुतपूर्वा—पूर्वं श्रुता—Heard of before. मां…अर्हसि…You will kindly unite me to him. अन्यथा…शरणम्—Otherwise I shall findshelter in death. दमयन्तीगतं—About दमयन्ती. यथाकामम्—Adv. Com.—At will. अत्रांतरे—In the meanwhile. चक्लृपे—Held वुवूर्षवः—Desid. adj. Desirous of choosing. जातसंदेहा—जातःसंदेहो यस्याः—With adoubt arising in her mind. जिज्ञासमाना—Pres. part. Atm. of ज्ञा(Desid.) desirous to know. तयोर्विवाहमंगलं चक्रे—Celebrated the auspicious ceremony of their marriage. साकं Ind.—With, governs the Instr. case.धर्माचरणेन कालं गमयामास—Led a pious life. पूर्वबद्धवैरः—Who hda
already conceived hatred (to). लब्धावसरः—Getting or finding an opportunity. धर्म्याः—धर्मादनपेताः—Not far from righteousness. यथारुचि—Adv. Comp.—As he liked, uncontrolled, wantonly. शाश्वतीः समाः—For eternal years, for all time to come. समाः—Years, is a feminine noun generally used in the plural.
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सरस्तीरे पतित्वा स्थितः—Stretched himself on the bank of a lake and so lay there. मम मन्दभाग्यस्य प्रश्नेन किम्?—What have you to do by questioning me, an unlucky creature? संजातकौतुकः—His curiosity being roused. सर्वथा…आह—Insisted on his telling it. विंशतिवर्षदेशीयः—About twenty years old. यस्तिष्ठति—Who stands by. तत्र का परिदेवना—What occasion is there for sorrow or wailing? पञ्चत्वं गते—Is reduced to these five (again). अतः…प्रपञ्चः—Therefore to those who take a right view of the worldly existence, such sorrow is the outcome of ignorance. प्रपञ्च—Lit, means ’expansion’, आत्मानमनुसंधेहि—Compose yourself. शोकचर्चां परिहर—Give up indulgence in sorrow.प्रबुद्ध इव—Appearing to be enlightened on the subject. अलम्…..वासेन—Away with the residence in the hell of a house. रागिणाम्…प्रभवन्ति—Temptations over—take those who are affected by passions. निवृत्तरागः—One whose passions are subdued. यद् That. अद्यारभ्य—From today. आरभ्य Ind. Meaning ‘from," governs the Abl. case. उपदेशासहिष्णुः—impatient of (listening to) advice. शोकाविष्टम्—heavy with grief. दण्डग्रहणं कृतवान्—Took the holy staff, that is, became an ascetic. चित्रपदक्रमं बभ्राम—Moved about stepping beautifully. परेद्युः—The next day. आहारविरहात्—For want of food. अस्मदाज्ञया—By our order; we command
you. गृहितोऽयं महाप्रसादः—This great favour is accepted. निर्मंडूकम्—void of frogs.
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तेषां मतिरजायत—A thought occurred to them. देशान्तरम् अन्यो देशः—Karm. Comp.—Another country or place. द्वादशाब्दान् यावत् For twelve years. विद्याकुशलः—विद्यासु कुशलः—Tat. Comp. तत्—Therefore. उत्कलापयित्वा—Absolutive of उत्कलापय—Den. of उत्कलाप—Taking leave of अभूत—Acrist 3rd pers. of भू. महाजनो…पन्थाः—That is the way by which many people go. यस्तिष्ठति—Who stands. धर्मस्य त्वरिता गतिः—The motion of religion is fast. इष्टं धर्मेण योजयेत्—A friend should be united to धर्म समासादिता—Was reached. पत्रम्—Leaf. यावन्नद्या नीयते—While he was being carried along the current of the river. पृथक्—पृथक्—Separately. सूत्रिका—A kind of dish called शेवई in Marathi. दीर्घसूत्री—A thing having long threads. मण्डका—A dish called मांडे, a kind of wheaten cake. अतिविस्तरविस्तीर्णं—Very extensive, occupying a very large area or space. वटिका—A kind of cake, आंबोली in Marathi, made of rice and udida. छिद्राणि—Holes. बहुली भवंति—Multiply. हस्यमानाः—Ridiculed or laughed at. शास्त्रकुशलाः—शास्त्रेषु कुशलाः—Loc. Tat. Comp.—Well—versed in sciences. लोकाचार विवर्जिताः—Not knowing the ways of the world. In this story the words महाजनः, पन्थाः, तिष्ठति etc. are misunderstood by the fools. Their real meanings are given below. महाजनः—The great or virtuous. पन्थाः—The proper course. तिष्ठति—Stands by. धर्मः—A meritorious deed, a pious act. गतिः—The effect or result. इष्टः—A relative or friend. पत्रम्—A boat. सर्वनाशः—The destruction of the whole (wealth or property). दीर्घसूत्री—A dilatory person. छिद्राणि—Weak points.
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वंश्यौ—वंशे भवौ—Descendants. धर्मपत्नी—धर्मार्थे पत्नी—Dat. Tat. Comp.—A lawful wife. पतिव्रता पतिर्व्रतं यस्या सः—A woman loyally devoted to her husband, a chaste woman. अनुरुध्य—In accordance with. शासने स्था—To obey. सदाराः—दारैः सह—Bah. Comp. वनमध्यूषुः—Lived in the forest. वस् with अधि Governs a noun in the Acc. case. सत्यसंधाः—सत्या सन्धा येषां ते—True to their promise. प्रतिज्ञाभंगभीरुतया—Lest their vow should be broken. अनुचितारंभाः—Taking upon themselves duties not suited to them. दुर्योधन…इयेष—Wished to make peace with दुर्योधन, प्रतिपन्नदौत्यः—प्रतिपन्नं दौत्यं येन सः—Bah. Comp. One who has undertaken the duty of a Vakil. चिकीर्षा—Desid. noun Desire to do. निवेद्य—Absolutive of the Caus. of विद् with नि—Having communicated. संगरे मतिं विदधौ—Made up his mind to fight. पंचत्वमिताः—Died, were slain.पैत्र्यम् पितुरागतम्—Coming from father, paternal, ancestral. अविवेकमूलः—अविवेको मूलं यस्य सः—Arising out of folly or indiscretion. नियतं विनाशाय—Is sure to result in destruction.
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(1) साधूनां…रूपता—The virtuous are the same in mind, words &c. (2)लोकोत्तरा—Extraordinary,unusual, uncommon. (4) श्रियं धत्ते—Assumes the beauty of. (5)शलै शलै—On everymountain. (6)तीर्ण—P. P.तृ.तृष्णाशीविषा A female serpent in the form of excessive desire. (7) मरकतस्य इयम् मारकती adj. Belonging to an emerald. प्रवीणतां याति—Becomes wise or prudent. (8) यत्—stands for the following sentence.तत्पर—Closely intent on, exclusively devoted to. (10) मनस्विनो द्वयी वृत्तिः—High—minded people have a two—fold course of action. विशीर्येत Pot. Pass. 3rd pers. sing. of 9P. May fade or wither द्वयी—द्वौ अवयवौ यस्याः(13)
महान् आशयो येषां ते—Large—minded (14) स्वतःInd of themselves, independently of others. परतःन do not depend on others. विभाव्यते—is not ascertained or determined. (16) न संहरते—does not withhold from. (17) आपद्गतः आपदं गतःAcc. Tat लभतेतराम्— gets more or in ahigher degree. (18) हिमाः अंशवः यस्य सः हिमांशुः—The cool—rayed one, the moon. उद्गिरति—ejects, vomits; गॄ with उद् 6. P. (20) आत्मनि संस्था यस्य सः; तम् adj. आत्मकार्ये आदरो न Do not care or mind their own affairs. (22) सहस्रशः Adv. By thousand, thousands of व्यापार…उद्यताः—Busy only in the act of filling themselves यस्य स्वार्थः परार्थः एव—Whose self—interest is doing good to others. स्रोतसां पतिः—स्रोतःपति—The ocean. दुःखेन पूर्यते इति दुष्पूरम् adj. insatiable. संभृत adj. (to संताप) meaning caused or intensified. (23) निहितम् Poured आविर्भवति Becomes manifest. निभृतं…उच्चैः—What is done by way of obliging them in private is openly or Eoudly proclaimed by the large—minded. (24) सुधां मुञ्चन्तीति सुधामुचः उ.त.स. (२५) तत्स्वादसौख्यम्—The pleasure of its flavour or taste. क्लिश्यन्ति—Endure trouble for. शिशिररीकृतः च्वि comp. अशिशिरः शिशिरः सम्पद्यमानः कृतः
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महान्तं संक्षोभं कुर्वन्—Making terrible confusion. राजमार्गमवतीर्णः—Scoured off along the high road. उद्धुष्टंजनन—The people shouted out. अपनयत बालकान्—Carry off the children. आरोहत वृक्षान्—Get up the trees. करी…आस्ते—elephant was tearing everything to pieces with his trunk, feet and tasks, करचरणरदनम्—करश्चचरणाश्च रदनौ चैतेषां समाहारः—Sam. Dwandwa Comp—When a Dwandwa Com.consists of words denoting the limbs of the body of an animal, it is Sing. and Neuter महासरसी—महती चासौ सरसी च—Karm. Comp.—A large tank तेन समासादितः Then a holy man came in his way. परित्रातुं दृढमतिमकरवम्—
Determined to rescue the mendicant. तं…मोचितः—Brought him down and saved the saint.विनीतवेषः—One having a simple or modest dress on. ममोपरि क्षिप्तः—Threw at me. दीर्घंनिःश्वस्य—Heaving a deep sigh. इमं वृत्तान्तं…निवेदयितुम्—To acquaint your ladyship with this account.
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तरुणारुणद्युतिम्—तरुणारुणस्येव द्युतिर्यस्य सः…तम्—Possessing the splendour of the newly risen sun.सन्निवेश्य—Absolutive of the caus. of विश् with संनि—Having placed. द्रष्टुकामाः—द्रष्टुं कामो यासां ताः—Desirous of seeing. मुनिपुंगव—The best of sages. अप्यस्ति मे तातःकुशली—I hope my father is doing well. कर्णशूलाभं वचः—Words causing ear—ache, that is, words causing pain to the mind. प्रप्तसंज्ञः—One who has recovered consciousness. समारोप्य—Absolutive of the caus. of रुह with सम् and आ.—Having placed. मातुः…नार्हसि—You will not at all mind my mother’s evil deed. भक्तितः—Out of devotion to उत्थाप्य—Absolutive of the caus. of स्था with उद्—Having caused him to stand or rise. स्त्रीजितस्य…ग्राह्यम्—The word given by a hen—pecked husband with his mind confused, should not be considered to have been properly given कैकेय्यै प्रतिश्रुतम्—Promised to कैकेयी; प्रतिश्रु ’to promise’ governs the dative of the person to whom the promise is given. राघवः…कुर्याम्—How can I, a descendant of रघु, be false to my father’s promise (which is as good as my own word.)? चीरवसनः—Clothed in bark. वत्स्यामि—Ist Pers. Sing. 2nd Fut. of वस्. to live, the final स्being changed to त्in combination with, स्य an impersonal termination with an initial स. प्राङ्मुखः—with his face turned towards the east. तवागमनम् यावत्—
Till you come back. नवपञ्चसमान्ते— At the end of fourteen years. संन्यवर्तयत् Sent back.
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गांधर्वम्–गंधर्वस्येदम्— Music, singing. समैत्रेयः–मैत्रेयेण सह— Bah. Comp.— Accompanied by मैत्रेय, a Brahmin friend and companion of चारुदत्त सुप्तयोरुभयोः— Loc. Abso. constr.— While both of them were asleep. शर्विलकः— A Brahmin of high family, a skilful robber, proud of his descent and skill in burglary. सन्धिः— A hole. मृदंगः Drum. पणवःA kind of drum. वीणा Lute वंशः— Reedipe. परमार्थतः— Really. भूमिष्टं द्रव्यं धारयति. Has his treasure concealed under ground. गन्तुं व्यवसिते— When he was about to उदस्वप्नायत— Talked in sleep, prattled in a dream. जर्जरस्नानशाटी— A tattered bathing garment. ग्रहीतुमनाः– ग्रहीतुं मनो यस्य सः— Desirous of taking. शापितोसि …. गृह्णासि— If you do not take this pot containing gold coins, you would commit the sin of disappointing the kine and Brahmins काम्या— Desire, wish. अनतिक्रमणीया— Not to be disregarded तज्जिघृक्षुः— Desirous of satisfying it. प्रदीपनिर्वापणार्थम्— To put out the lamp. आग्नेयः कीटकः— Firc-flying worm. बोधयामा— Awakened or roused from sleep. दास्याःपुत्रः— Aluk. Tat. Comp.— sed as term of abuse; a whore–on- यथा नामाहं मूर्खः— &c.— Am I such a fool as not to &c. कृतार्थः— Successful. स्मारितः— Was reminded ( of )
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(1) रसः सिद्धो येषां ते Bah. Comp.; conversant with sentiment. (2) अन्तरेणind.— without, except. It governs a noun in the acc. case. (3) आ— To the end of (4) हास्यमार्गे नीतः— Was held up to ridicule, दश आस्यानि यस्य सः दशास्यः, रावणः त्रयाणां भुवनानां समाहारः— त्रिभुवनम्— द्वि. स. (5) वल्मीकात् प्रभवो यस्य सः— वाल्मीकिः.
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मूर्छित— P. P. of मूर्च्छIst. Parasm.— To faint, to swoon. अपवाहितः— Carried away यावत्– तावत् As soon as he recovered consciouness. इमाम्— The following. अस्त्रग्रामविधौ कृती— Well–versed in the use of all weapons. त्वत्संभावित इत्यहम्— Thus was I honoured by you or this was your estimate of me. दुःखप्रतिकारमेहि— Seek a retribution of your grief. समरवृत्तान्तं पृष्टः— Being asked the account of the battle. अमर्षित— Angry. अङ्गराज–अङ्गानां राजा— The king of the Angas, Karna. अविज्ञातशरसन्धानमोक्षः— Whose aiming and discharging arrows could not be noticed. शिलीमुखाः— Arrows अभियुक्तः— Attacked. भीमसेनहतकः— The wretched भीमसेन, धूलिनिवहः— A cloud of dust किमारम्भः–कः आरंभोयस्य सः— Bah. Comp. What is he about? अपनीतशरीरावरणः— Who had cast off his armour. प्रतिसंदेशः— A reply, a message in return.कष्टं…दैवेन-— Alas! Fate has worked ont a very loathsome thing! दुर्योधनं प्रबोधयांचक्रतुः— Advised Dur. as to what he should do. अकालस्ते समरस्य—This is not the time for you to fight. तात्— My dear son. मार्गोपदेशक—Guide or support. चिरं जीव— Be lon-lived! किं मे…वा— Оf what use to me is either the kingdom or hostility? एष तेऽञ्चलिः— Here I fold my hands in supplication, that is, I beg you to change your resolution to fight. सन्धत्तामिदानीं…पणेन— Let the terms proposed by युधिष्ठिर be accepted now.
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(1) अमृतेन उपमा ययोस्ते. Bah. Com. (2) रत्नमिति संज्ञा— The name “jewel” “gem”. (5) ग्रहीतव्यम्— Pot. p. p. of ग्रह.
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सीतान्वेषणकामः— With a desire to seek for सीता. पुरीं परितः— Around the city; परितः Ind. governs the Acc. case. कपिकुञ्जरः— The excellent monkey, that is मारुति. The word कुंजर at the end of a compound means anything pre–eminent or excellent of its class. व्याघ्र, पुंगव, ऋषभ, सिंह, शार्दूल, नाग &c. are used similarly. अशोकवनिका— Ashoka garden, so named because it abounded in अशोकtrees. पवनात्मज— The son of wind, (one of the five principal elements viz. पृथ्वी, आप, &c.) मारुति अदृष्टातपः— whose interior the rays of the sun could not penetrate. स्वर्णवर्णविहंगमः— In which sat birds having golden wings. शिंशपा—A kind of tree. प्रतिवृक्षम्— Adv. Comp. वृक्षे वृक्षे इति. एकवेणी— Wearing a single braid of hair (as a mark of separation from her husband.) सूक्ष्मरूपः— Assuming a very subtle form. तस्याः श्रोत्रगं वच उवाच— Whispered in such a low tone as just to reach her ears. पितुर्वचनात्—At the bidding of his father. दण्डकारण्यं— Name of a celebrated district in the Deccan situated between the rivers Narmada and Godavari. This vast region was said to be tenuntless in the time of Rama. पंचवटीमध्युवास— Lived in पंचवटी, a part of the दण्डकारण्य where the Godavari rises and where Rama dwelt for a considerable time with his beloved. It is two miles from Nasik. वस् ’to dwell’ with अधि governs the. Acc. case; and hence पंचवटी in that case here. पक्षिराजः**—**पक्षिणां राजेति— The king of birds, viz. जटायु. दिवं दत्त्वा— Con- ferring upon him final emancipation. The गौतमी— Godavari, समानाय्य— Absolutive of the caus. of नी with समा— Having assembled together. सीतया … प्रेषयामास Sent them in all directions in search of सीता. सुग्रीव— A wellknown monkey–king, brother of वाली, king of किष्किंधा He made an alliance with who placed him on the
throne of किष्किंधा, on the death of वाली in battle संपातिः— The elder brother of जटायु,who was a great friend of king दशरथ. महिषी— A crowned queen. वानरपुंगवः— The excellent monkey, named मारुति. Vide note on ‘कपि कुंजरः’ above. एतदवस्था— एषा अवस्था यस्याः सा— Who was reduced to this condition. देवि— O Revered lady! आनंदनीरं दृशोरुद्वहन्ती— With joyful tears in her eyes; with her eyes filled with tears of joy. हे सौम्य!—O gentle one! मासद्वयावधि— For two months. अभिज्ञानं— A recognition. कमललोचना— कमले इव लोचने यस्याः सा— Lotus–eyed. चूडामणिः— A crest–jewel; a jewel worn on the top of the head, अंजनीनंदनः— The son of अंजनी, मारुतिः, सुरदुमसंबाधा— Abounding in celestial trees. दुःखसंपलुताः— Overwhelmed with sorrow.
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(1)स्वच्छन्दचारिणः— Roaming or flying at will. (3) व्यापारितः— caus. p. p of पृ with वि and आ, put into, placed in. (5) परितः— Ind. round, about; governs a noun in the acc. case. (6) द्विजानां राजा–द्विजराजः The moon. दीन– दीनः— extremely helpless, destitute. (7) तत्र व्यथां मा कृथाः—do not be sad on that account. The temporal augment of an aorist form is dropped when used in conjunction with मा, the prohibitive particle. The form with मा has then the sense of the imperat. अकृथाः Aorist 2nd pers. sing. of कृ atm. (4th variety.) तवैतदेव कुशलम् &c. Consider even this to be your good fortune that you are not reduced to powder; &c. (8) अहन्यहनि–अन्वहम् every day. आकण्ठम् adv. to their heart’s content.] उत्कण्ठा संजाता अस्य उत्कंठितः (9) आमोदमात्ररसिकः— The appreciator of flavour only. (10) तत्तावदास्ताम्— That apart. (11) मलिनीकरोषि (च्वि— comp.) चिरमायुर्येषां ते— long-lived. (12) मानसं विना— Without the lake called
मानस. (15) रटरटायते— Shouts loudly. (17) दैवहतकाः— unfortunate, unlucky. (19) सागरिकृतः (च्वि— Comp.) turned into an ocean. (20) कर्णतालाः— The flappings of the ear. (21) समारोप्यते caus. pass. pre. 3rd pers. sing. of रुह् with सम् & आ.— is placed. (22) येभ्यो निराशां न यान्ति— at whose hands they do not experience disappointment. (23) विचारे मूढः— विचारमूढः— Void of judgment, discrimination. (24) तृष्णां हन्ति— Satisfies thirst निर्गता त्रपा यस्मात् सः— निस्त्रपः Shameless. (25) जलधरसमयः— The rainy season. लघीयसी— f . comparat in ईयस् from लघु, a. भविता, Ist fut. 3rd pers. sing.
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अतिकष्टाः— Very trying अवस्थाः— Circumstances. जीवितनिरपेक्षाः— Regardless of life. प्रवृत्तयः— Tendencies or bents of mind; ways of action अभिमततरम्— Dearer. अविकलेन्द्रियः— With my limbs unimpaired or perfect. अकरुणः— न विद्यते करुणा यस्य सः— Ruthless, cruel. The final vowel of a Bahuvrihi Compound, if its last member is a feminine noun ending in आ, is shortened, when no क is added,’ Sec. 10, lesson XX of Dr. Bhandarkar’s 2nd Book of Sanskrit मया तत् सर्वमेकपदे विस्मृतं— I have forgotten all that in a moment. आ प्रसवदिवसात्From the day of my birth परिणतवयाः परिणतं वयो यस्य सः—Bah. Comp.— Advanced in age, aged, old. तैस्तैरुपायैः— By every effort. When तद् is repeated, it has the sense of ‘several’ ‘various.’ ’every.’ कृपणाः— Mean; wretched. न खलीकरोतीति न— The two negatives make one emphatic affirmative— Does pinch or pain. जीविततृष्णा— Ardent desire for life. ईदृगवस्थः—ईदृक् अवस्था यस्य सः — One reduced to this condition. तथा हि Ind.— Because, since. अनुकारी— Imitating. कलहंस and सारस are names of birds, the
(former meaning ‘a swan’ and the latter ‘The Indian crane.’ अतिकष्टा—Extremely hard to bear, inten-sely hot. अंबरतलमध्यवर्ती Occupying the middle portion of the sky, right over-head. स्फुरत्— Burning. अवसन्न— Adj.-Drooping, spiritless. अलम्— Ind. Able. अप्रभुरस्म्यात्मनः— I have no control over myself, I am helpless. सीदति— Sinks down with dejection. अन्धकारतामुपयाति चक्षुः— My sight grows din. अपि नाम— Indeed; I wish; would that.
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कुरुक्षेत्रे— On the field of ‘Kuru’ (the present Panipat), the common ancestor of the contending parties, पाण्डव and धार्तराष्ट्र in the impending war. आचार्यः— Drona, the son of Bharadwaja. व्यूढा— Arrayed. महेष्वासाः— महान्त इष्वासा— Karm. Comp.— Mighty bowmen. भीमार्जुनसमाः— भीमार्जुनाभ्यां समाः— Equal to भीम and अर्जुन महारथः— A warrior able to fight alone ten thousand bowmen. विशिष्टाः— Chief. मदर्थे त्यक्तजीविताः— Renouncing their lives for my sake. नानाशस्त्रप्रहरणाः— With diverse weaponsand missiles. युद्धविशारदाः— Well-skilled in war. सर्वेषु अयनेषु— in the rank and file. यथाभागम्— In their respective divisions. अवस्थिताः— Firmly standing. तत्रभवान्— Revered. सिंहनादं विनद्य— Sounding a lion’s roar. उच्चैः— Ind.-On high. सहसैवाभ्यहन्यन्त— Suddenly blured forth. श्वेतैर्हयैर्युक्ते— Yoked to white horses. पाण्डवीयाः— Taking side with the sons of Pandu. सर्वशः—In all directions. तुमुलो घोषः— Tumultuous uproar व्यनुनादयन्— Filling. व्यदारयन्— Rent. व्यवस्थित— Arrayed. शस्त्रसंपातः— The discharge of missiles. कपिध्वजः— Whose crest is apе. उद्यम्य— Taking up (his bow). स्थापय— Stay, stop. यावद— So that. प्रियचिकीर्षवः— Desirous of pleasing. योत्स्यमानाः— About to fight, ready to fight.
उक्तः— Addressed, spoken to हृषीकेशः— Krishna परया कृपयाऽऽविष्टः— Deeply moved to pity विषीदन्नब्रवीत्— Uttered in sadness. सीदान्त— Fail परिशुष्यति— Is parched वेपथु…. जायते— My body quiversand my hair stands on end.गाण्डीवम्— the bow of अर्जुन.स्रंसते— Slips. परिदह्यते— Burns allover. भ्रमति – Is whirling विपरीतानि निमित्तानि— Adverseomens. श्रेयो नानुपश्यामि— I foresee no advantage. हे गोविंद…वा— What is a kingdom to us, O Govind? what is enjoyment, or even life? किम्in the sense of ‘use’ governs the Instr. of the thing needed and Gen. of the user. येषामर्थे— For whose sake. मधुसूदन— The destroyer of मधु (a demon). त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोरपि— Even for the sake of the sovereignty of the three worlds. घ्नतोपि— Even though trying to kill (me). किं नु महीकृते—How then for earth? का नः प्रीतिः— What pleasure be ours ? एतान्…आश्रयेत्—Killing these desperadoes, a sin will but take hold of us. लोभोपहतचेतसः— With minds overpowered by greed. कुल… पश्यन्ति— See no guilt in the destruction of a family, no crime in the hostility to friends. तत्… ज्ञेयम्— Why should not we learn to turn away from such a sin who see it (the evils in the destruction of a family )? सनातनाः कुलधर्माः— The immemorial family traditions. अधर्म… भवति— Lawlessness overcomes the whole family. अहो बत..उद्यताः— Alas! In committing a great sin are we engaged, we who are endea vouring to kill our kindred from greed of the pleasures of kingship. उत्सन्नकुलधर्माणाम्— Of those whose family customs are extinguished. नरके नियतं वासो भवति— The abode is ever-lastingly in hell. इत्यनुशुश्रुम So we have heard. शस्त्रपाणयः— Weapon-in-hand अप्रतीकारः— Unresisting. अशस्त्रः— Unarmed. तन्मे क्षेमतरं भवेत् That would for me be the better. इषुभिःप्रतियोत्स्यामि— Shall attack with arrows in return. भैक्ष्यमपि… श्रेयः—Better to eat even
the beggar’s crust. रुधिरप्रदिग्धा भोगाः— Blood-besprinkled feasts. अर्थकामाः— Wealth-wishers. कतरन्नो गरीयः— Which for us be the better? यदि वा जयेम— That we conquer them. यदि वा नो जयेयुः— Or they conquer us. कार्पण्यदोषोपहत–स्वभावः— My heart is weighed down with the weakness of despondency. धर्मसंमूढचेताः— With my mind confused as to dnty (धर्म). त्वां प्रपन्नः— Suppliant to you. यन्निश्चित ब्रूहि— Tell me which is decidedly better. असपत्नम्— Unrivalled. ऋद्धम्— Prosperous. यद् प्रपश्यामि— I do not see that which would drive away this anguish of mind that withers up my senses. शोकसंविग्नमानसः— With his mind overborne by grief, रथोपस्थ उपाविशत्— Sank down on the seat of the chariot.
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अधीताशेषविद्यः— अधीता अशेषविद्या येन सः— Who had completed his study of all the arts. समारूढयौवनः— Grown to youth. अवगम्य— Learning. बलाधिकृतः— A commanding officer. बलाहकनामा— By name बलाहक. बहुतुरगपदातिपरिवृतः— With a large escort of cavalry and intutry. अतिप्रशस्त Ad.— Very auspicious. विद्यागृह The place of learning. द्वाःस्थैः समावेदितः— Announced or usherd in by the porters. क्षितितलावलंबितचूडामणिना— Adj to शिरसा— With the head bent till its crest-jewel rested on the ground. राजपुत्रानुमतः— By the prince’s permission मुहूर्तमात्रं स्थित्वा— After a short pause. दर्शितविनयोऽब्रवीत्— Respectfully gave the king’s message. महाराजः समाज्ञापयति— The king bids me Bay. गत… प्रतिष्ठाम्— You have gained the highest skill in all the martial sciences. उपगृहीतशिक्षः— One who has received training. पौर्णमासीशशिनमिवोद्गतं— Like the full- moon newly risen व्रजन्तु… लोचनानि— Let the eyes of the world, long eager to behold you, fulfil their true
function.अयं…वसतः— This is now the tenth year of your abode in the school. प्रविष्ट…वर्षम्—You entered it havingreached the sixth year. एवं….प्रवर्धसे— This year, then, so reckoned, is the sixteenth of your life. अपगतनियं त्रणो…सुखानि—Free from all restraint you will experi— ence, at your will, the pleasures of the court. आनंदय बंधुवर्गम्— Gladden the kinsfolk.
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मदङ्कलालनोचितः— Fit to be fondled on my lap. व्यालशत–सहस्रभीषण Ad.— Dreadful on account of a hundred thou sand serpents (residing therein).निद्रासुखदायि—Giving the pleasure of sound sleep.—उपकल्पितम्Made, prepared. आगतमात्राय— Just when you return, as soon as you come back. अनुज्ञाप्य— Having persuaded; lit. having made him give his consent. मन्दपुण्य— Possessing little merit and hence wretched, miserable. संपन्न Adj.— Acquired, experienced. एकपदे Ind.—All of a sudden. मुक्तो नाम… जाता— Granted that you have left all affection for us; yet how could you be so cruel to चन्द्रापीड, from whom you never knew separation even for a moment? सुखं स्थापितः— Who ought to be made comfor table or happy. दुःखं स्थापितः— Rendered unhappy or miserable. भद्रकं ते नापतितम्—Good fortune has not fallen to your lot.
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स्वायंभुवः— The son of स्वयंभूः तयोः … प्रेयसी— Of them सुरुचि was dearer to her husband. नंतरा &c.— Not the other, whose son was ध्रुव. आरोग्य— Absolutive of the caus. of रुह् with आ— Having placed. लालयन्— Fondling, caressing. आरुरुक्षुः Desid. adj. Desirous of mounting. नाभ्यनन्दत्—
Did not welcome. शृण्वतो … राज्ञः— Notwithstanding the king was listening, that is, in the king’s presence. सपत्नी–समानः पतिर्यस्याः सा— A co-wife. कुक्षौ गृहीतःConceived by me. दुर्लभेऽर्थेतव मनोरथः— You desire for a thing that you can never have. अवाच् Silent स्फुरिताधरोष्ठः— Whose lower lip was trembling or throbbing. उत्सङ्ग उदुह्य— Having placed him in her lap. दवाग्निपरीताः Encircled by wild fire. संताप— Heat or anxiety. दीर्घं श्वसती— Heaving a long sigh. वृजिनस्य पारमपश्यन्ती— At a loss to know how to get. out of the fix. दुर्भग— Unfortunate, miserable. अध्यासनम्— A high place, the throne. चरणारविदम् The lotus-like foot. भक्तवत्सल— Kind to devotees. आश्रयते— Resorts to, rests in ध्रुवपरीक्षार्थम्— To put ध्रुव to the test. अघघ्न— The destroyer of sin, holy, purifying.क्व ….विरक्तिः— Where your tender age and where this spirit of resignation! मृणालकाण्डपलवम्— As tender as a lotus stalk. ताव्रयोग समाभिसंरंभः— Ardent desire for the absorption of the soul in profound contemplation. विरमास्मादंगीकृतादर्थात् Desist from this undertaking. निवर्ततामेष निष्फलो निर्बंधः— Let this your vain resolve stand over. दैवविहितम्— Ordained by Fate. तमसः पारमृच्छति— Gets over the difficulty.तापैर्नाभिभूयते— Is not overpowered by anxieties. अनाधष्टितम्— Not obtained or experienced मधुवनम्— The Aga-The name of a forest. एकांतभक्ति.— Exclusive devotion. भागवत-भगवतोऽयम— A devotee of भगवान् (God) स्नपयामासतुः— Bathed आनंदेन पुलकिततनुः— with hair standing on his person with joy. जिदीषामि— Desid. Ist pers. sing. present of जि— I desire to conquer, that is, to get. प्रसादित परेशः Who had propitiated the Almighty. अवाप्तापवगः— Who had secured salvation. राज्ये निवेश्य— Having placed on the throne. पुत्रन्यस्तसमस्तराज्यभरः— Having entrusted the whole responsibility of government to his son समातृकाः–मातृभ्यां सह Bah.— with
his mothers. शांतिं जगाम— Died, expired. दिव्यं धाम ययौ— Went to the divine abode.
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[1] प्रतिक्रिया— Remedy. [2] दयापर-दयायाः अपरः— Other than kindness or mercy. (4)यस्य विश्वासः— Who is faithful. पुरुशः— A man worth the name. (5) वाच्यतां प्राप्नोति— Becomes an object of ridicule. [7] स्थाने एव— In proper place alone. नियोज्यन्ते–युज् caus. pass. चूडामणि The jewel for the crest. [8] गृहणीयात्—One shoul dwin over. [12] योद्धव्यम्— Pot. P. P. प्रतिवातं–अव्ययीभाव समास. वातं प्रति— Towards or in the face of wind. [15] गृहीत इव केशेषु— As if seized by the hair [17] हिता or हिते वृद्धिर्येषां ते हितबुद्धयः Having the welfare at heart, kindly disposed. [18] अशुक्लाःशुक्लाःसम्पद्यमानाः कृताः शुक्कीकृताः made white. अहरिताःहरिताः सम्पद्यमानाः कृताः हरितकृिताः— Rendered green. Both चि्वcompounds [22] भस्मनःचयः A heap of ashes ष. त. स. निर्गतं तेजः यस्यः सः निस्तेजाःBah. compound. [ 28 ] अगुणाः— Bad qualities. अ—(नञ्) here shows opposition. किम्expresses use or need and governs the instrumental of that which is used or needed. [32] एतस्मिन्— When it was so said by लक्ष्मण, where— upon. [33] द्वारि Loc. sing. of द्वारf. [34] पाद and भूभृत् have each a double sense here. पाद Rays and feet; and भूभृत् kings and mountains. तेजसः… उपयुज्यते— Age is of no account in the case of persons who are born with heroic lustre in them. [30] कपालेभित्ति— The rampart—like temples, broad and massive temples. [33] समत्वमेति— stands comparison with. [39]वरम् ind. with न genearally followed by च, तु, or पुनः, is used in the sense of better than, ‘better—but not’ to express preference. वरम् is used with the clause containing the thing preferred in the Nom. case and न&.c with the clause containing the thing to which the
first is preferred. This latter also is put in the Nom. case. [40] फणां कुरुते— Expands the hood [ 42 ] छिद्रबहुलम्— full of holes स्थिरतरा दृशो येषां ते— With steady and vigilant eyes. [43] तृण जल सन्तोषैविहिता वृत्तिस्ते तृण … वृत्तयस्तेषाम्, तृण… वृत्तीनाम् Living on grass, water, and content— ment ( respectively ). निष्कारणवैरिणःUnprovoked ene- mies. [45] वसिष्ठवनिता–अरुन्धती; the wife of वसिष्ट [46] प्रधानम्– मुख्यं चिनम् दिग अम्बरं यस्य सः– शिवः विषम् हालाहलम्. [48] यावत्… तावत्— No sooner than छिद्र n. A weak point. बहुलीभवन्ति— Multiply. छिद्रे… भवन्ति— misfortunes multiply बहुलीभवन्ति—Multiply. where there are weak points, misfortunes never come single. [50] स्नापितः— caus. p. p. of स्ना Bathed. [51] धीरं… भुङ्क्ते— Looks grave and eats after hundreds of flattering words. पुङ्गव at the end of a comp. indicates excellence. Compare the similar use of words as ऋषभ, कुञ्जर &c. [57] न.. धीराः— The self-possessed do not desist from resolve taken. [58] हेम्नः प्रभवो हेमप्रभवः–मेरुः बलीयसी f. compar in ईयस from बलवत् ad [60] सहोदरः– समानं उदरं यस्य सः— a brother of whole blood; Bah. comp. [64] सा— That, celebrated. वशात् ( Abl. case, used adverbially) Through the force or power or influence of स्मृतेः पन्थाः स्मृतिपथः, तम् अगात्— Aorist 3rd pers. sing. of which is a substitute for to go. [60] गुणायन्ते— Denom. of गुण— Become virtues or good qualities दोषायन्ते Denom. of दोष, Become faults. [67] यमिताः— Controlled, restrained. restrained. निरालम्बाः— Without support. [69 ] अनातपः– न विद्यते आतपः यस्मिन् सः विधिवशात्— By chance, accidentally [70] पौलस्त्य–पुलस्त्यस्यापत्यं पुमान्– रावणः अन्येषां दाराः— तेषां हरणम् दार— wife m & pl. विज्ञातवान् m. p. act. part. of ज्ञा with वि. [73] परिसेव्यमान— Pre Pass, Part of सेव् with परि. [74] आदेहम्— To the end of life. [76] उच्चैः स्थितिः— A high position as opposed to अधःस्थितिः—A low position. [79 ] भर्तृभक्ताः— Devoted to their
master. [80] पथः अनपेतम्–पथ्यम्— Not far from the right path and hence wholesome, beneficial. [81] गमयन्ति—caus. Pre. 3rd pers. plu. of गम्[82] मुद्गरः— hammer, mallet. [83] भूतिः कामो यस्य सः— Desirous of welfare. वेतसस्येव वृत्तिर्यस्य सः— of a bending or yielding nature and hence humble. [84] अन्तर्दारुणि In the interior of a piece of wood. [85] लालायते Denom, of लाला— slabbers. शुश्रूषत्— Desid. pre. 3rd pers. sing. of श्रु— serves, attends to. [87] त्यागनियुक्तम्coupled with charity. [89] चण्डः आतपः यस्य सः सूर्यः, प्रस्थातुं कामो यस्यः सः प्रस्थातुकामः— Desirous of starting or setting out. An infinitive with its final nasal dropped is used before काम and मनस् standing at the end of a Bah. Comp. [90] पटीरीज्जन्म यस्य सः— Sandal. बिभ्रति— Patronise [91] चलति— Falls upon. [92].मन्दाक्ष n.— The feeling of shame. कुलनत्यः— Ladies of a noble extract. प्राणानाम्अत्ययःThe destruction oflife. [93] न मनागपैतु धर्मात्— shall not deviate an inch from the righteous path. [95] प्राज्ञेभ्यः इतरे— Abl. पं. त. स.— Other than the wise. अनुकूलं व्रतं यस्याः सा — Following the will of her lord, devoted to her lord. समयच्युति—Let ting off an opportunity. आज्ञाफलम्—That which places one in command. [96] रत्नम्— any thing which is the best of its kind. [98] दैवहतकः— Unfortunate, miserable. वामेन— ‘To the left, out of the way. सर्वात्मना— With all (their) heart. सेवते Resorts to. [100] सञ्जातानि किसलयानि येषां ते. वनान्ताः— The regions of the forest. [101] इतः is repeated in this verse and has the sense of here there’, ‘in one place-in another.’ शरणम्— Shelter. संवर्तका are fires that destroy the universe at the end of the creation. वडवानलः— The submarine fire भरसहम्— Enduring. सिन्धोर्वपुः— The expanse of the ocean.
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