[[संस्कृततृतीयपुस्तकम् Source: EB]]
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[TABLE]
ओ३म्
संस्कृत–
तृतीय-पुस्तकम्
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बलदं सकलं मतिदं विमलं सवितारमजं विनयेन विभुम्
अनघंभगवन्तमतीव विधुंप्रणपत्य नमामिनमाम्यहकम्
अइउण्^(१)॥१॥ ऋलृक्^(२)॥२॥ एओङ्^(३)॥३॥ ऐऔच्^(४)॥४॥ हयवरट्^(५)॥५॥ लण्^(६)॥६॥ ञमङणनम्^(७)॥७॥ झभञ्^(८)॥८॥ घढधष्^(९)॥९॥जबगडदश्^(१०)॥१०॥ खफछठथचटतव्^(११)॥११॥ कपय्^(१२)॥१२॥ शषसर्^(१३)॥१३॥ हल्^(१४)॥१४॥
इति प्रत्याहारसूत्राणि।
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१— अण्। २— अक् इक्, उक्,। ३— एङ्। ४—अच्, इच् एच् ऐच्,। ५– अट्। ६— अण् इण् यण्। ७— अम् यम्, ङम्। ८— यञ्। ९— झष् भष्। १०— अश्, हश्, वश् भश्, जश् बश्। ११— छव्। १२—यय्, मय्, झय् खय्, चय्,। १३—यर् झर् खर्, चर्, शर्,। १४— अल् हल् बल्,रल् झल् शल्,। इतने पत्याहार जानने चाहियें॥
(प्रत्याहार के प्रत्येक वर्णका ज्ञान)
१॥ अण्—अ इ उ॥ २॥अक्— अ इ उ ऋृ लृ॥ ३॥ अच्— अ इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ॥ ४॥ अट् — अ इ उ ऋृ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र॥ ५॥ अण्— अ इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल॥ ६॥ अम् — अ इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न॥ ७॥ अश्—अ इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द॥ **८॥ अल्—**अ इ उ ॠ ऌ ए ओ ऐ औ ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह॥ ९॥ इक्— इ उ ऋृ लृ॥ १०॥ इच् — इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ॥ ११॥ इण् —इ उ ऋृ लृ ए ओ ऐ औ ह य व र ल॥ १२॥ उक्— उ ऋृ लृ॥ १३॥ एङ्— ए ओ॥ १४॥ एच् — ए ओ ऐ औ॥ १५॥ ऐच्— ऐ औ॥ १६॥ हश्— ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द॥ १७॥ हल्— ह य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह॥ १८॥ यण्— य व र ल १९॥ यम्— य व र ल ञ म ङ ण न॥ २०॥ यञ्— य व र ल ञ म ङ ण न झ भ॥ २१॥ यय्— य व र ल ञ म ङ ण न
झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प॥**२२॥ यर्—**य व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स॥ **२३॥ वश्—**व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द॥ २४॥ वल्— व र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह॥ २५॥ रल्— र ल ञ म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स ह॥ २६॥ मय्— म ङ ण न झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प॥ २७॥ ङन्— ङ ण न॥ २८॥ झष्— झ भ घ ढ ध॥ २९॥ झय्— झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प॥ ३१॥ झर्— झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स॥ **३२॥ झल्—**झ भ घ ढ ध ज ब ग ड द ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष ह॥ **३३॥ भष्—**भ घ ढ ध॥ ३४॥ जश्— ज ब ग ड द॥ ३५॥ बश्— ब ग ड द॥ ३६॥ खय्— ख फ छ ठ थ च ट त क प॥ ३७॥ खर्— ख फ छ ठ थ च ट त क प श ष स॥ ३८॥ छव्— छ ठ थ च ट त॥ ३९॥ चय्— च ट त क प॥ **४०॥ चर्—**च ट त क प श ष स॥ ४१॥ शर्— श ष स॥ **४२॥ शल्—**श ष स ह।
अथाऽच्स^(१)न्धिप्रकरणम्॥
(१) **^(५)इको य^(६)णचि^(७)॥**६। १। ७७॥इकः स्थानेयण् स्यादचि संहितायां विषये। इक् (इ, उ, ऋ, लृ)के स्थानमें यण् (य, व, र, ल) हो अच् परे तो सन्धिकरनेमें जैसे दधि-आनय = द, ध्, य्-आनय = दध्यानय।(तू दहीला) मधु-अत्र= म ध् व्-अत्र= मध्वत्र (शहदयहां)। पितृ-अर्चा= पि त् र्-अर्चा= पित्रर्चा (पिताकी पूजा) लृ-उच्चारणम्= ल्-उच्चारणम्= लुच्चारणम्।(लृ का बोलना)॥ (२) एचोऽयवायावः॥ ६। १।७८॥ एचः क्रमादय् अव् आय् आव् इमेस्युरचि।एच् (ए, ओ, ऐ, औ) प्रत्याहारको क्रम (सिलसिलेबार) से अय् अव्, आय्, आव् ये आदेश हों (यानी उनकी जगहपर होजावें) अच् परे हो तो। जैसे—चे अनम्=च्-अय्-अनम्= चयनम् (इकट्ठा करना) लो-अनम्=ल-अव्-अनम्= लवनम् (काटना, छेदना) चै-अकः =च्-आय्-अकः = चायकः (इकट्ठा करनेवाला)। लौ-अकः =
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१.दो वर्ण परस्पर निकट होनेसे मिलजाते हैं, उस का नाम संधि है जिसमें स्वरोंका मेलहोता है वह स्वरसन्धि और जिसमें व्यज्जन का मेलहोता है वह हल्सन्धि कहा जाता है।
ल्-आव्-अकः = लावकः॥ (३) अदेङ् गुणः1॥ १।१।२॥अत् एङ् च गुणसञ्ज्ञः स्यात्॥ अत् (अ) और एङ् (ए, ओ) गुण संज्ञक हों अर्थात् इनको गुण कहते हैं। (४) आद्गुणः॥ ६। १। ८७॥ अवर्णादचिपरे पूर्व परयोरेको गुणादेशः स्यात्। अवर्ण (ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत तीनों प्रकारका अकार) से अच् परे होतो पूर्व और परके स्थानमें एक गुण (३) आदेश हो। जैसे-मनुज-इन्द्रः = मनुज्-ए-न्द्रः मनुजेन्द्रः (राजा)। गङ्गा- उदकम् = गङ्ग्-ओ-दकम् गङ्गोदकम् (जङ्गाजल) यहां मनुजके जकार का अकार और इन्द्रकी इ इन दोनोंको मिलकर ए होगया गङ्गाके अन्तका आ और उदक का उ इन दोनोंको मिलके ओ होगया। (५) उ^(१)रण्^(१) रप^(१)रः॥ १। १। ५२॥ उःस्थानेऽण्प्रसज्यमान एव रपरः प्रवर्त्तते। ऋ के स्थानमें में जो अण् (अ, इ, उ) आदेश हो वह रपर् हुआ ही प्रवृत्त हो (अर्, इर्, उर्) इसमें अण् प्रत्याहारके अक्षरों से परे र् दिखलाया है-जैसे—कृष्ण-ऋद्धिः = इसमें (४) गुण हुआ तव’उरण् रपरः’- इस सूत्रसे कृष्ण के णकार का अकार और ऋद्धिकी ॠ को मिलकर अर् गुण हुआ तब कृष्ण^(१)र्द्धिः(कृष्णकी वृद्धि) सिद्ध हुआ। एवमेच
तव-लृकारः= तव् अल् कारः= तवल्कारः (तेरी ऌ)। (६) लोपः^(१) शाकल्य^(६)स्य॥ ८।३।१९॥ अवर्णपूर्वयो ≍पदान्तयोर्यवयोर्लोपो वाऽशि परे। अश् परे हो तो अवर्णपूर्वक पदान्त (सुप् और तिङ् जिसके अन्तमें हो) पकार और वकारका विकल्पसे लोप हो। जैसे-कवे इह= यहां (२) कव् अय् इह= कव इइ। और द्वितीय पक्षमें जहां यकारका लोप नहीं हुआ वहां कवयिह (हे कवि यहां) प्रभो-आशु= (२) प्रभ्-अव्-आशु= प्रभ आशु। द्वितीय पक्षमें प्रभवाशु (हे स्वामिन जल्दी)॥ (७) वृ^(१)द्धिरा^(१)दैच्^(१)॥ १।१।१॥ आदैच् वृद्धिसंज्ञः स्यात्॥ आ और ऐच् (ऐ, औ) की वृद्धि संज्ञा (इस्म) हो। (८) वृ^(१)द्धिरेचि^(७)॥ ६॥१॥८८॥ आदेचि परे वृद्धिरेकादेशः स्यात्॥ अवर्ण से एच् (ए, ओ, ऐ, औ) परे हो तो पूर्व और परके स्थान में एक वृद्धि आदेश हो। जैसे-तत्र-एकदा= तत्रैकदा (वहां एक समय) गङ्गा-ओघः= गङ्गौघः (गङ्गा का वेग) आर्य्य-ऐश्वर्य्यम्= आर्यौश्वर्य्यम् (आर्योकी प्रभुता, इकबाल)। पण्डित-औदार्य्यम्= पण्डितौदार्य्यम् (पण्डित की उदारता, फैयाज़ी)। यहां पर तत्र में त्र का अ और एकदा का ए इन दोनों को मिलकै ऐ हुई गङ्गाके अन्तका आ
और ओघ का ओ इन दोनोंको मिलके औ हुआ। आर्य्य के यकार का अ और ऐश्वर्य की ऐ इन दोनोंको मिलके ऐ हुई। पण्डित के त का अ और औदार्यका औ इन दोनों को मिलके औ हुआ। (९) उपस^(१)र्गाःक्रिया^(७)योगे॥ १।४।५९॥ प्रादयः क्रियायोगे उपसर्गसंज्ञाः स्युः॥ प्रादिक क्रिया के योग में उपसर्ग संज्ञक हों॥ प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव, निस्, निर्, दुस्, दुर्, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि, उप, एते प्रादयः। (१०) उप^(५)सर्गादृ^(७)तिधा^(७)तौ॥ ६।१।९१॥ अवर्णान्तादुपसर्गादृकारादौ धातौ परे वृद्धिरेकादेशः स्यात्॥ अवर्ण है अन्त में जिस के ऐसे उपसर्ग (९) से ऋकार है आदि में जिसके ऐसा धातु परे हो तो पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश हो। जैसे-प्र-ऋच्छति= प्र्-आर्-च्छति= प्रार्च्छति प्र का अ और ऋच्छति की ॠ इन दोनों को मिलके आर् वृद्धि हुई॥(११) ए^(७)ङि पररूप^(१)म्॥ ६।१।९४॥ आदुपसर्गादेङादौधातौपरे पररूपमेकादेकादेशः स्यात्॥ अवर्णान्तउपसर्ग (९) से एङ् (ए, ओ) है आदि में जिसके ऐसा धातु परे हो सो पररूप एकादेश हो। जैसे-प्रएजते = प्रेजते (वह बहुत
कांपताहै)। उप-ओषति = उपोषति (बह बहुत जलता है) यहांपर प्र का अ एजते के एकाहीरूप होगया अर्थात् उसमें जो मिला। उप में प का अ ओषति के ओ का ही रूप होगया अर्थात् ओ में जामिला। (१२) अ^(३)चोऽन्त्या^(१)दिटि॥ १।१।६४॥ अचां मध्ये योन्त्यः स आदिर्यस्य तट्टि संज्ञंस्यात्॥ अचों के मध्य में जो अन्तका अच् वह है आदि में जिस समुदाय के वह टि संज्ञक हो। जैसे—मनस् यहां नकार में अकार अन्तका अच् है इससे आगे सकार हल्है उसके सहित अस् मात्र की टि संज्ञा हुई (१३) ओमा^(७)ङोश्च^(अ)॥ ६।१।९५॥ ओमि आङिचात् परे पररूपमेकादेशः स्यात्॥ अकारसे ओम् अथवा आङ् परे हो तो पूर्व पर के स्थान में पररूप एकदेश हो। जैसे—शिवाय्—ओम्-नमः= शिवायोन्नमः (कल्याणकारी परमात्माके लिये नमस्कृतिः)। शिव आङ्-इहि = शिव-एहि = (४) शिबेहि। यहां शिवायके यकार का अकार पररूप ओकार होगया। ङ् की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है आ और इहि की इकोगुण होकर ए होता है पश्चात्शिव के वकार का अकार पररूप हो जाताहै अर्थात् ए का ही रूप होजाता है॥ (१४) अकः^(५)सव^(७)र्णे दी^(१)र्घः॥ ६।१।१००॥
अकःसवर्णेऽचिपरे पूर्वपरयोर्दीर्घ एकादेशः स्यात् अक् (अ इ, उ, ऋ, लृ) से सवर्णी अच् परे हो तो पूर्व तथा परके स्थान में दीर्घ एकादेश हो। जैसे प्रजा-अरिः= प्रजारिः(प्रजाका दुश्मन)। कवि-ईशः= कवीशः। (कवियोंका स्वामी) भानु-उदयः= भानूदयः (सूर्य का निकलना) भ्रातृऋद्धि= भ्रातॄद्धिः(भाईकी वृद्धि)। (१५) ए^(५)ङःपदा^(५)न्तादति^(७)॥ ६।१।१०८॥ पदान्तादेङोऽति परे पूर्वरूपमेकादेशः स्यात्। पदान्तके एङ् (ए, ओ) से अ परे हो तो पूर्व रूप एकादेश हो। जैसे—नृपते अव= नृपतेऽव हे राजन्! वचा) यहां ह्रस्व अ को पूर्वरूप एकार होगया। पूर्वरूप में अकार का “ऽ” यह चिह्न होता है। प्रभो-अलम्= प्रभोऽलम्। (हे स्वामिन्! बस)॥ (१६) दूराद्^(५) हू^(७)ते च॥ ८।२।८४॥ दूरात् सम्बोधने वाक्यस्य टेः प्लुत स्यात्। दूर से पुकारने में वाक्यकी टि (१२) को प्लुत हो। जैसे-अत्रेहि देवदत्त ३। जिस अक्षर के आगे तीनका अक्षर हो उसको प्लुत समझना चाहिये॥ (१७) प्लुतप्रगृह्या^(१) अचि^(७) नित्य^(१)म्॥ ६।१।१२४॥ एतेऽचि प्रकृत्या स्युः॥ प्लुतसंज्ञक और प्रगृह्य संज्ञक अच्-परे हो तो नित्य प्रकृति से (ज्योंके त्यों) बनेर हैं। जैसे—
आगच्छ चैत्र ३अत्र (हे चैत्र ! यहां आ) यहां चैत्र ३. अत्र वाक्य की टि को प्लुत होनेसे (१४) से सन्धि नहीं हुआ॥ (१८) इदुदेद्द्विवच^(१)नं प्रगृह्य^(१)म्॥ १।१।११। ईदूदेदन्तं द्विवचनं प्रगृह्यसंज्ञं स्यात्। ईदन्त ऊदन्त और सदन्तजो द्विवचनान्त शब्दरूप उनकी प्रगृह्य (१७) संज्ञा हो। जैसे कवी-इमौ = कवी इमौ। साधू- एतौ = साधू एतौ। सुते-इमे = सुते इमे। यहांपर प्रगृह्य संज्ञा होने से (१४) कवी इमौसन्धि नहींहुआ। (१९) ^(६)अदसो मा^(५)त्॥ १।१।१२॥ अस्मात् परावीदूतौ प्रगृह्यौ स्याताम्॥ अदस शब्द के मकार से परे ईदन्त और ऊदन्त शब्द प्रगृह्य संज्ञकहों। जैसे—अमी-ईश्वराः = अमी ईश्वराः(ये मालिक)। अमू-आर्य्यौ = अमू आर्य्यौ (बेदोनों आर्य्यहैं) प्रगृह्य संज्ञा होजाने से (१४, १) स० कार्य नहीं हुआ। (२०) ओत्^(१)॥ १।१।१५॥ ओदन्तो निपातः प्रगृह्यः स्यात्॥ ओदन्त जो निपात वह प्रगृह्य संज्ञक हो। जैसे अहो आश्चर्य्यम् = अहो आश्चर्यम् (अह! अचम्भे की बात है) प्रगृह्य संज्ञाहोने से (२) से सन्धि नहीं हुआ॥ (२१) ^(५)अचो रहाभ्यांद्वे^(१)॥ ८।४।४५॥ अच उत्तरौ यौ रेफहकारौ ताभ्यामुत्तरस्य यरोद्वे वा स्याताम्॥ अच् से परे जो रेफ हकार और
रेफ हकारसे परे जो यर् उसको विकल्प से द्वित्व (दो) हो जैसे-बारि-अमलम् = बार्य अमलम् = (५) बार्य्यमलम् (साफ पानी)। द्वितीय पक्ष में जहां द्वित्वं न हुआ बहां बार्यमलम्। एवमेव गौरी-औ = गौर्य्यौ। अथवा गौर्य्यौयहां रेफ से परे यकार को विकल्पसे द्वित्व हुआ है (२२) ^(७)ऋत्यर्कः^(६)॥ १।१।१२७॥ अति परे पदान्ता अकः प्राग्वद् वा॥ ऋृकार परे हो तो पदान्त अक्को विकल्प से ह्रस्वादे श हो। जैसे-ब्रह्मा-ऋृषिः = ब्रह्म ऋृषिः। द्वितीय पक्ष में (४, ५) स० से ब्रह्मर्षिः (वेदके अर्थ को जानने वाला)॥
इत्यच्सन्धिः॥
अथ हल्सन्धिः॥
(२३) ^(६)स्तोः श्चु^(१)ना श्चुः॥ ८।४।३९॥ सकारतवर्गयोः शकारचवर्गाभ्यां योगे शकारचवर्गौ स्याताम्॥ सकार और तवर्ग(त थ द ध न) को शकार और चर्वग (च छ ज झ ञ) के योग (मेल) में शकार और चवर्गादेश हो। जैसे—वाल्सशेते=बाल्शशेते (बालकहोता है) बालस्-चिनोति = बालश्चिनोति (लड़का इकट्ठा करता है) सत्-चित् = सच्चित् (आत्मा)। जगत्-जीवनम् = जगज्जीवनम्-
(संसार में जीना)। शार्ङ्गिन् जय = शार्ङ्गिञ्जय (हे धनुष्धारी! जीत)॥(२४) शात्^(५)॥ ८।४।४३॥शात् परस्य तवर्गस्य श्चुत्वं न स्यात्। शकार से परे तवर्गका योगहो तो तवर्गको चवर्गादेश न हो। जैसे—विश्- नः = विश्नः (घुसना)। प्रश्-नः प्रश्नः (पूंछना)॥(२५) ^(३)ष्टुना ^(१)ष्टुः॥ ८।४।४०॥ स्तोः ष्टुना योगे ष्टुःस्यात्॥ सकार और तवर्ग को षकार और टवर्गकेयोगमें षकार और टवर्गादेश (ट ठ ड ढ ण) हों। जैसे—बालस्-षष्ठः = बालष्षष्ठः (छठा बालक)। बालस्-टीकते =बालष्टीकते। (बालक जाता है) पेष्-ता = पेष्टा (पीसने वाला)।तत्-टीका=तट्टीका (उसका तिलक)। चक्रिन्! ढौकसे = चक्रिण्ढौकसे(अयिचक्रधारी, हथियार वाले) तू जाता है)। (२६) न पदा^(५)न्ताट्टोर^(५)नाम्^(४)॥८।४।१॥ पदान्ताट्टवर्गात्परस्याऽनामस्तोः ष्टुर्न स्यात्। पदान्त टवर्ग से परे नाम शब्द के नकार को छोड़कर सकार और तवर्गको षकार और टवर्गादेश न हो। जैसे—षट्-सन्तः = षट्सन्तः (छः होतेहुये) षट्-ते = षट्ते(वे छह)॥ (२७) ^(६)तोःषि^(७)॥ ८।४।४२॥ तवर्गस्य षकारे परे न ष्टुत्वम्॥ षकारपरे हो तो तवर्ग को षकार और टवर्गादेश न हो। जैसे—सन्-षष्ठः= सन्षष्ठः (छठाहोताहुआ)
यहांपर (२५) से नकार को णकार नहीं हुआ॥ (२८) झलां^(६) जशो^(५)ऽन्ते^(७)॥ ८।२।३९॥ पदान्ते झलांजशः स्युः॥ पदान्तमें झल् के स्थान में जश् आदेश हो जैसे-वाक्-ईशः = वागीशः (वाणीका स्वामी)।(२९) य^(६)रोऽनु^(७)नासिकेऽनु^(१)नासिको वा॥ ८।४।४४॥ यरःपदान्तास्याऽनुनासिके परे अनुनासिको वा स्यात्॥ पदान्त यर् से अनुनासिक (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) परे होतो यर् को विकल्प से अनुनासिका देश हो। जैसे-एतत्-मन्त्रम्=एतन्मन्त्रम्।यह सलाहा जब अनुनासिक न हुआ तब एतद् मन्त्रम् (२८) से दकार हुआ॥(३०) ^(६)तोर्लि^(७)॥८।४।५९॥ तबर्गस्य लकारे परे परसवर्णादेशःस्यात्॥ तवर्ग से लकार परे होतो पर सवर्णदेश हो। जैसे-बृहत्-ललाटम् = बृहल्ललाटम् (वड़ामाथा) विद्वान्-लिखति = विद्वांल्लिखति (विद्वान् लिखता है)॥ (३१) खरि^(७)^(अ)च॥ ८।४।५४॥ खरिझलां चरः स्युः खर् परे हो तो झलों को चर् आदेश हो। जैसे भेद्-तव्यम्-भेतव्यम् (फाड़ना चाहिये)॥ (३२) झ^(५)यो^(६)होऽन्यतरस्याम्^(अ)॥ ८।४।६१॥ झयः परस्य हस्य वा पूर्वसवर्णः झय्से परे हकार को पूर्वसवर्णादेश विकल्प से हो। जैसे बृहत्-होमः =बृहद्धोमः (बड़ा हवन) द्वितीय पक्षमें(२८)
से बृहद्होमः॥ (३३) ^(६)शश्छो^(१)ऽटि^(७)॥ ८।४।६१॥ झयः परस्य शस्यछोवाऽटि। झय् से परे शकार को छकार विकल्पसे हो। अट् परे हो तो। जैसे-परिक्षित्-शासनम् = परिक्षिच् (२३) शासनम् = परिक्षिच् - छासनम्= परीक्षिच्छासनम् (परिक्षित् की आज्ञा)।(३४) मो^(६)ऽनुस्वा^(१)रः॥ ८।३।२३॥मान्तस्य पदस्याऽनुस्वारो हलि॥ हल् परे हो तो पदान्त मकार को अनुस्वार हो। जैसे—गृहम्-याति = गृहंयाति (घर को जाता है)॥ (३५) ^(७)नश्चा^(अ)ऽ^(६)पादातस्य^(७)झलि॥ ८।३।२४॥ नस्य मस्य चापदान्तस्य झल्यनुस्वारः॥ झल् परे हो तो अपदान्त नकार और मकार को अनुस्वारादेश हो। जैसे-यशान्-सि = यशांसि (कीर्ति)। अधिजिगाम् -सते = अधिजिगांसते (वह पढ़ना चाहता है)॥(३६) अनुस्वा^(६)रस्य ^(७)ययि परस^(१)वर्णः॥ ८।४।५९॥ यय् प्रत्याहार परेहो तोअनुसार को परसवर्णादेश हो। जैसे-शाम्-तः = शां (३५) तः= शान्तः (शान्तिवाला (३७) ^(अ)वापदान्त^(६)स्य॥ ८।४।५८॥ पदान्तस्य अनुस्वारस्य ययि परे परसवर्णो वा स्यात्॥ यय् प्रत्याहार परे तो पदान्त अनुस्वार को विकल्प से पर
सवर्णादेश हो। जैसे-त्वम् करोषि = त्वं (३४) करोष त्वङ्करोषि। पक्षमें त्वं करोषि (तू करता है)॥
इति हल्सन्धिः
अथ विसर्गसन्धिः॥
(३८) खरवसा^(७)नयोर्विसर्जनीयः^(९)॥ ८।३।१५॥ खरि अवसाने च पादन्तस्य रस्य विसर्गः। खर् प्रत्याहार परेहो अथवा अवसान में पदान्त रेफ को विसर्ग हो। जैसे-बृक्षस्-छादयति= वृक्षरू (४१) छादयतिबृक्षः (३८) छादयति= बृक्षस्-(३९) छादयति = बृक्षश्छादयति (२३) (तरु ढांकता है)॥ (३९) वि^(३)सर्जनीस्यसः^(१)॥ ८।३।३४॥ विसर्जनीयस्यसः स्यात्खरिपरे॥खर्परे हो तो विसर्जनीय (:) को सकारादेश हो। जैसे-वालःतरति = बालस्तरति (लड़का तैरता है)॥ (४०) ^(अ)वाशरि^(७)॥ ८।३।३६॥ शरि विसर्गस्य विसर्गेा वा॥ शर् प्रयाहार परे हो तो विसर्ग को बिकल्प से बिसर्ग हो। जैसे-बालःशेते = वालः शेते पक्षमें (३९) बालस्- (शेते= बालश्शेते (वह लड़का सोवा है)। (४१) सस^(७)जुषोः रुः^(१)॥ ८।२।६६॥
पदान्तस्य सस्य सजुवश्च रुः स्यात्॥ पदान्त सकार और सजुष शब्द के सकार को रु (र्) आदेश हो। जैसे-शिवस् अर्च्यः= शिव रु अर्च्यः॥ (४२) अ^(६)तोरोर^(६)प्लुता^(५)दप्लु^(७)ते॥ ६।१।११३॥ अप्लुतादतः परस्य रोरुः स्यादप्लुतेति। ह्रस्व अकार से परे रुको उकारादेश हो ह्रस्व अकार परे हो तो। जैसे (४१) शिव रु अर्च्यः। इस स्थान में वकार के अन्तर्गत अप्लुत अकार में परे रु है और रु से आगे अर्च्य का अप्लुत अकार है अतएव रु के स्थान में ‘उ’ हुआ तब शिव-उ-अर्च्यः(४) से शिवो-अर्च्यः (१५) = शिवोऽर्च्यः (ईश्वर पूजनीय है)॥ (४३) ह^(७)शि ^(अ)च॥ ६।१।११४॥ अप्लुतात् अतः परस्य रोः उः स्याद् हशिपरे। अप्लुत अ मे परे रु को उकारादेश हो हश् प्रत्याहार परे हो तो। जैसे-शिवस्-वन्द्यः = इस में प्रथम सकार के स्थान में (४१) से रु हुआ तब शिव रु-वन्द्यः=शिव शब्दके वकार में जो अकार है वह अल्पुत है इस से परे रु है और रु से परे वन्द्य का वकार हश् प्रत्याहार में है तब रु के स्थान में ‘उ’ हुआ शिव-उ वन्द्यः = (४) शिवोवन्धः (ईश्वर वन्दना करने योग्य है)॥ (४४) भोभगोअघोअपूर्वस्य यो^(१)ऽशि^(७)॥८।३।
१७॥ एतत् पूर्वस्य रोर्यादेशोऽशि॥ अश् परे हो तो भोस्भगोस् अघोस् तथा अर्वण है पूर्व जिस के ऐसे रु के रेफको यकारादेश हो। जैसे-भोस्-आगच्छ= (४१) भो रु-आगच्छ = भो य्-आगच्छ (६) भो आगच्छ (हे आ)।(४५) **ह^(७)लि सर्वे^(६)षाम्॥ ८।३।२२॥**भो भगो अघो अपूर्वस्य यस्य लोपः स्याद्धलि॥हल् प्रत्याहार परे हो तो सर्व वैयाकरणो के मत में भोस् भगोस् अघोस् और अवर्ण पूर्वक यकार का लोप हो। जैसे-भोस्-भृत्य! = (४४) भोरू भृत्य! = (४३) भोय्-भृत्य! = (४४) भो भृत्य! (हे नौकर!)। एवमेव भगोस् - नमस्ते = भगो नमस्ते (हे ऐश्वर्यवान तेरे लिये प्रणाम है) ऐसे ही अघोस्-याहिअघो याहि (रे तू आ)। बालास्-यत्र = (४१) वाला रु-यत्र = (४३) वाला य्-यत्र = (४४) वाला यत्र (लडके जहां) (४६) **रो^(६) रि^(७)॥ ८।३।१४॥**रेफस्य रेफे परे लोपः॥ रेफ (र्) से रेफ परे होतो पूर्व रेफ का लोपहो। जैसे-पुनर् रमते = पुन-रमते॥ (४७)ढ्र^(७)लोपे पूर्वस्य^(६) दी^(१)र्घाेऽणः॥६।३।१११॥ ढ्ररेफयोलोप निमित्तयोः पूर्वस्याणो दीर्घः॥ लोप निमित्तक ढ और रेफ परे होतो पूर्व अण् को दीर्घ हो। जैसे- (४६) से
पुन-रमत = पुनारमते (फिर खेलता है)। एवमेव पतिस् रम्यः = पति रु-(४१) रम्यः = पति (४६) रम्यः होकर (४७) से दीर्घ होकर पतीरम्यः (सुन्दर-स्वामी) एवमेव भानुस्-राजते = भानु रु-(४१) राजते = भानु (४६) राजते = भानू (४७) राजते (सूर्य्ये चमकता है)॥
इति विसर्गसन्धिः॥
अथ सुबन्तप्रकरणम्।
(सर्वादि) प्रोनाउन।
सर्व १ (सव) विश्व २ (सम्पूर्ण) उभ ३ (दो) उभय ४ (दो अवयव विशेष) डतर और डतम यह प्रत्यय हैं, इन प्रत्ययों के अन्तवाले शब्द लिये जाते हैं जैसे -कतर ५ (दो में से कौन) कतम ६ (सव मे कौनसा) अन्य ७ (दूसरा) अन्यतर ८ (दो में से एक) इतर९ (दूसरा) त्वत् १० त्व ११ (दूसरा) नेम १२ (आधा) सम १३ सिम १४ (सर्व) पूर्व १५ (पहिला) पर १६ (अनला) अवर १७ (अन्तिका) दक्षिण १८ (दहिना) उत्तर १९ (बायां) अपर २० (द्वितीय) अधर २१ (नीचे) स्वः
२२ (अपना) अन्तर २३ (वीच) त्यद् २४ तद् २५ (वह) यद् २६ (जो) एतद् २७ इदम् २८ (यह) अदस् २९ (वह) एक ३० (एक) द्वि ३१ (दो) युष्मद् ३२ (तुम) अस्मद् ३३ (हम) भवतु ३४ (आप) किम् ३५ (कौन)॥
इति सर्बादिः॥
(पुँल्लिङ्ग अकारान्त सर्वशब्दः)
सर्वः, सर्वौ, सर्वे, १ सर्वम्, सर्वौ, सर्वान् २ सर्वेण, सर्वाभ्याम्, सर्वैः ३ सर्वस्मै, सर्वाभ्याम्, सर्वेभ्यः ४ सर्वस्मात्, सर्वाभ्याम्, सर्वेभ्यः ५ सर्वस्य, सर्वयोः, सर्वेषाम् ६ सर्वस्मिन् सर्वयोः, सर्वेषु ७ हे सर्व! हे सर्वौ, हे सर्वे ८ इसी प्रकार विश्व, अन्य, अन्यतर, इतर, कतर, कतम, सम, सिम, नेम और एक शब्द के रूप होते हैं॥
(उभशब्दः) यह शब्द दो वचन में ही आता है॥उभौ १ उभौ २ उभाभ्याम् ३, ४, ५ उभयोः ६, ७॥(उभयशब्दः) इस में दो वचन नहीं होता। उभयः, उभये १ उभयम्, उभयान् २ उभयेन, उभयैः ३ उभयस्मै, उभयेभ्यः ४ उभयस्मात्, उभयेभ्यः ५ उभयस्य, उभयेषाम् ६ उभयस्मिन, उभयेषु ७ हे उभय? हे उभये! ८॥ पूर्व, पर,अवर दक्षिण, उत्तर, अपर, अधर, स्व, अन्तर, इन नव शब्दोंके
प्रथमा विभक्तिके बहुवचन पञ्चमी तथा सप्तमी के एक वचन में भेद है, जैसे—पूर्वाः पूर्वे १ पूर्वात्, पूर्वस्मात् ५ पूर्वे, पूर्वस्मिन् ७।शेषरूप सर्वके तुल्य होते हैं॥ प्रथम = पहिला। चरम = पिछिला। द्वितीय = दूसरा तृतीय = तीसरा। अल्प = थोड़ा।अर्ध = आधा। कतिपय = कुछ। उक्त प्रथमादि शब्दोंके बहुवचन में भेद है। जैसे प्रथमाः, प्रथमे, शेष विभक्तियों के रूप बालक के समान होते हैं। द्वितीय और तृतीय शब्दों के चतुर्थी पञ्चमी तथा सप्तमी विभक्ति के एक वचन में दो २ रूप होते हैं जैसे द्वितीयस्मै, द्वितीयाय ४ द्वितीयस्मात्, द्वितीयात्५ द्वितीयस्मिन्, द्वितीये ७ तृतीयस्मै तृतीयाय ४तृतीयस्मात्, तृतीयात् ५ तृतीयस्मिन्, तृतीये ७। शेषरूप बालक के समान होते हैं॥
प्रकाशः = रोशनी। पङ्कजः = कमल। वैयात्यम्= बेशर्मी।उपयोगः = इस्तेमाल। भारः = बोझा। निवासः = रहना।प्रतिबन्धः = रुकावट। प्रथितः = मशहूर। निहितम् = रक्खा हुआ। परस्परम् = आपस में। दुर्विनीतः = अशिक्षित, वेतमीज़।युगुलम्। दो।सम्पर्कः = मेल। प्रतिक्षणम् = हरवक्त। पर्य्यवसानम् = अन्त। कारागारः = जेलखाना। कर्त्तनम् = काटना। अर्ज्जनम् = इकट्ठा करना। भेषजम् = दवा।
खर्ज्जनम् = खुजलाना। मार्जनम् = शुद्ध करना।भर्जनम् = भूनना, भूंजना।विमर्दः = व्याघात, धक्कमधक्का।विमर्दनम् = घोटना। मर्दनम् = रगड़ना॥
(निर्जर शब्दः) जो बुड्ढा न हो।
निर्जरः निर्जरौ, निर्जसौ, निर्जराः, निर्जरसः १ निर्जरम्, निर्जरसम्, निर्जरौ, निर्जसौ, निर्जरान्, निर्जरसः २। निर्जरेण, निर्जरसा, निर्जराभ्याम्, निर्जरैः। ३ निर्जराय, निर्जरसे, निर्जराभ्याम्, निर्जरेभ्यः। ४ निर्जरात्, निर्जरसः, निर्जराभ्याम्, निर्जरेभ्यः। ५ निर्जरस्य, निर्जरसः, निर्जरयोः, निर्जरसोः, निर्जराणाम्, निर्जरसाम्। ६ निर्जरसि, निर्जरे, निर्जरयोः, निर्जरसोः, निर्जरेषु। ७ हे निर्जर! हे निर्जरौ, हे निर्जरसौ, हे निर्जराः हे निर्जरसः ८॥
(पु० अकारान्त विश्वपा शब्दः) ईश्वर।
विश्वपाः, विश्वपौ, विश्वपाः १ विश्वपाम्, विश्वपौ विश्वपाः २ विश्वपा, विश्वपाभ्याम्, विश्वपाभिः ३ विश्वपे, विश्वपाभ्याम्, विश्वपाभ्यः ४ विश्वपः, विश्वपाभ्याम्, विश्वपाभ्यः, ५ विश्वपः, विश्वपोः विश्वपाम् ६ विश्वपि, विश्वपोः विश्वपासु ७ हे विश्वपाः!
हे विश्वपौ, विश्वपाः८। इसी प्रकारनिधिपा (कोषाध्यक्ष) गोपा (ग्वाला) शंखध्मा (शंखवजाने वाला) आदि समस्त आकारान्त शब्दों के रूप होते हैं॥
(भाषावनाओ)
धर्मस्य प्रकाशाय विद्यां पठामि। अत्र पङ्कजस्योपयोगस्याऽऽवश्यकता नाऽस्ति। ते भारं तत्र कथं नयन्ति। अस्माकमत्र निवासे प्रतिबन्धोऽस्ति। भवन्तः शाटानां कर्त्तने प्रथिताः सन्ति। कस्य पुस्तकानि निहितानि सन्ति। परस्परं यूयं विमर्दं कथमकार्ष्ट। खलस्य सम्पर्कः प्रतिक्षणं दुःख दो भवति। विश्वपि ते विश्वासोनास्ति॥
(संस्कृत बनाओ)
आपके व्याख्यान का कभी अन्त भी होगा। इस शहर के जेलखाने में कितने वन्दी हैं। पापों का इकट्ठा करना अच्छा न होगा। घरका शुद्ध करना सदा अच्छा है। ईश्वर में उसका विश्वास नहीं है। इस खजानची के पास कितने रुपये हैं॥
(हाहा शब्दः) शोक की आवाज।
हाहाः, हाहौ, हाहाः१ हाहाम्, हाहौ, हाहान् २ हाहा,
हाहाभ्याम्, हाहाभिः ३ हाहै, हाहाभ्याम्, हाहाभ्यः ४ हाहाः, हाहाभ्याम्, हाहाभ्यः ५ हाहाः, हाहौः, हाहाम् ६ हाहे, हाहौः, हाहासु ७ स० हे हाहाः, हे हाहौ, हे हाहाः ८॥
(ह्रस्व इकारान्त असि शब्दः) तरवार।
असिः, असी, असयः १ असिम्, असी, असीन् २ असिना, असिभ्याम्, असिभिः ३ असये, असिभ्याम्, असिभ्यः ४ असेः, असिभ्याम्, असिभ्यः ५ असेः, अस्योः, असीनाम् ६ असौ, अस्योः, असिषुः, ७ स० हे असे! हे असी! हे असयः!॥
इसी प्रकार— निधि (खजाना) विधि (तरकीव) आधि (मनकी पीड़ा) व्याधि (बीमारी) उपाधिः (पदवी) पयोधि (समुद्र) प्रणधि (दूत) सन्धि (मेल) अग्नि (आग) अहि (सांप) कवि (शायर) ग्रन्थि (गांठ) पाणि (हाथ) छदि (छत) दुर्मति (बेवकूफ) नाभि (टूंडी) गिरि (पहाड़) राशि (समूह) प्रतिनिधि (एवजी) रवि (सूर्य) इकारान्त पुँल्लिङ्ग शब्दों के रूप होते हैं॥
(उकारान्त वायु शब्दः) हवा।
वायुः, वायू, वायव १ वायुम्, वायू, वायून्, २ वायुना, वायुभ्याम्, वायुभिः ३ वायवे, वायुभ्याम्, वायुभ्यः
४ वायोः, वायुभ्याम्, वायुभ्यः ५ वायोः, वाय्वोः, वायूनाम् ६ वायौ, वाय्वोः, वायुषु ७ स० हे वायो! हे वायू! हे वायवः!॥इसीप्रकार—मन्यु (क्रोध) पशु (ढोर) ऊरु (जङ्घा) प्रभु (स्वामी) पटु (चतुर) बटु (बालक) चटु (प्यारा वचन) सन्तु (धागा) तर्कु (तकला) धातु (मस्दर) पङ्गु (लङ्गड़ा) पिचु (कपास) बन्धु (भाई) बाहु (भुजा) भविष्णु (होनहार) भीरु (डरपोक) मृत्यु (मौत) परमाणु (ज़र्रा) चाटुचटु (खुशामदी) असु (प्राण) आखु (चूहा) इषु (वाण)क्रतु (यज्ञ) रिपु (दुश्मन्) सूनु (लड़का) चरिष्णु (चालाक) उकारान्त पुल्लिङ्ग शब्दों के रूप होते हैं॥
(सखिशब्दः) मित्र।
सखा, सखायौ, सखायः १ सखायम्, सखायौ, सखीन् २ सख्या, सखिभ्याम्, सखिभिः ३ सख्ये, सखिभ्याम्, सखिभ्यः ४ सख्युः, सखिभ्याम्, सखिभ्यः ५ सख्युः, सख्योः, सखीनाम् ६ सख्यौ, सख्योः, सखिषु ७ स० हे सखे! हे सखायौ, हे सखायः॥
(पतिशब्दः) मालिक।
पतिः, पती, पतयः १ पतिम्, पती, पतीन् २ पत्या, पतिभ्याम्, पतिभिः ३ पत्ये, पतिभ्याम्, पतिभ्यः ४ पत्युः,
पतिभ्याम्, पतिभ्यः ५ पत्युः, पत्योः, पतीनाम् ६ पत्यौ, पत्योः, पतिषु ७ स० हे पते! हे पती! हे पतयः!॥
(भाषा बनाओ)
प्रभो! पङुरयं क्रतुं कर्तुं वाञ्छति। पटो! वटोरिदं शकटं भविष्यति। अस्य शाटस्य तन्तवो वरं न सन्ति। मम बाह्वोर्बलं भविष्यति तर्हि द्रक्ष्यामि। चाटुचटोर्वचनानि नो मन्यामहे। अयं तर्कः कीदृशोऽस्ति। कस्य धातोरिदं रूपं भवति। तत्रत्यानां भीरूणां सूनुनामियं वार्त्ताऽस्ति। मृत्योरिमां वेलां भवत्सु के जानन्ति। अस्माकमयमसिः सर्वेष्वसिषु वरमस्ति
(संस्कृत बनाओ)
खजाने में इस समय कितना रुपया है। यह पदवी आप के लिये किस चतुर आदमी ने दी है। समुद्र में डरपोक आदमी कव जाते हैं। ऐसे काम वेवकूफ लड़कोंके होते हैं। इस मकान की छत पर क्या कोई मनुष्य रहते हैं?। पहाड़ में जाकर आपने क्या २ देखा। उन लड़कों के हाथों में कौन २ पुस्तक हैं?।
(बहुवचनान्त क^(१)ति2 शब्दः) कितने।
कति १ कति २ कतिभिः ३ कतिभ्यः ४ कतिभ्यः ५ कतीनाम् ६ कतिषु ७॥
(बहुवचनान्त त्रिशब्दः) तीन।
त्रयः १ त्रीन् २ त्रिभिः ३ त्रिभ्यः ४ त्रिभ्यः त्रयाण ६ त्रिषु ७॥
(द्विवचनान्त द्विशब्दः) दो
दौ १ द्वौ २ द्वाभ्याम् ३, ४, ५, द्वयोः ६, ७॥
(ईकान्त पपीशब्दः) सूर्य।
पपीः, पप्यौ, पप्यः १ पपीम्, पप्यौ, पपीन् २ पप्या, पपीभ्याम्, पपीभिः ३ पप्ये, पपीभ्याम्, पपीभ्यः ४ पप्यः, पपीभ्याम्, पपीभ्यः ५ पप्यः पप्योः, पप्याम् ६ पपी, पप्योः, पपीषु ७ स० हे पपीः, हे पप्यौ, हे पप्यः॥
कुविन्दः = जुलाहा। नेजकः = रजकः, धोबी। सन्दर्भः = रचनम्, बनाना। संरम्भः = कोपः, गुस्सा। समासः = संक्षेप, मुख्तासेर। व्यासः = बिस्तार, फैलाव। वैषम्यम् = विरोधः, बरखिलाक। कोविदारः = कचनाल। गताक्षरः= मूर्ख। पेषकः = उलूकः, उल्लू। परिवादः = असूया, निन्दा। अलीकम् = मृषा, झूठ। प्रतीकारः = प्रायश्चित्तम्, उपाय।
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प्रणयः= स्नेह।आयासः = परिश्रम। प्रयासः = प्रयत्न॥
(बहुश्रेयसी शब्दः)
बहुत कल्याणमद स्त्रियों वाला।
बहुश्रेयसी, बहुश्रेयस्यौ, बहुश्रेयस्यः १ बहुश्रेयसीम्, बहुश्रेयस्यौ, बहुश्रेयसीन् २ बहुश्रेयस्या, बहुश्रेयसीभ्याम्, बहुश्रेयसीभिः ३ बहुश्रेयस्यै, बहुश्रेयसीभ्याम्, बहुश्रेयसीभ्यः ४ बहुश्रेयस्याः, बहुश्रेयसीभ्याम्, बहुश्रेयसीभ्यः५ बहुश्रेयस्याः, बहुश्रेस्योः, बहुश्रेयसीनाम् ६ बहुश्रेयस्याम्, बहुश्रेयस्योः, बहुश्रेयसीषु ७ स० हे बहुश्रेयसि, हे बहुश्रेयस्यौ, हे बहुश्रेयस्यः। इसीप्रकार अलिलक्ष्मी शब्द के रूप होते हैं, प्रथमा में अति लक्ष्मीः रूप होता है।
(संस्कृत बनाओ)
आप जानते हैं सूर्य कितने हैं?। जी हां जानता हूं बहुत हैं। यहां के जुलाहों का काम कैसा चलता है। आपका धोबी कपड़ोंको कव देगा क्योंकि हमको शीघ्र ही आवश्यकता है। इस किताबकी रचना कैसी होगी यह मैं जानना चाहता हूं। गुस्से से आपस में विरोध होता है अतएव आप ऐसा न करें।
(भाषा बनाओ)
अहं समासेन वदिष्यामि न तु व्यासेन। वार्त्तेयं गताक्षराणामस्त्यतो वयं न श्रोष्यामः। अयं पेचकः साधूनां सदा परिवादं करोत्यतोऽस्य भेषजमस्माभिः कर्त्तव्यम्। तेषां पङ्गुनां वचनान्यलीकानि न च सत्यानि। भवतामायासस्य प्रणयस्य च ते श्लाघामकार्षुः। कतीनां मनुष्याणामत्र भोजनं भविष्यति द्वयोरथबा त्रयाणाम्?॥
(प्रधी शब्दः) महा बुद्धिमान्।
प्रधीः, प्रध्यौ, प्रध्यः १ प्रध्यम्, प्रध्यौ, प्रध्यः २ प्रध्या, प्रधीभ्याम्, प्रधीभिः ३ प्रध्ये, प्रधीभ्याम्, प्रधीभ्यः ४ प्रध्यः, प्रधीभ्याम्, प्रधीभ्यः ५ प्रध्यः, प्रध्योः, प्रध्याम् ६ प्रध्यि, प्रध्योः, प्रधीषु ७ स० हे प्रधीः, हे प्रध्यौ, हे प्रध्यः। इसी प्रकार ग्रामणी (गांव का मालिक) सेनानी (फौज का अफसर) के रूप होते हैं परंतु सप्तमी के एक वचन में भेद है जैसे—ग्रामण्याम्। सेनान्याम्।
(नी शब्दः) लेजानेवाला।
नीः, नियौ, नियः १ नियम्, नियौ, नियः २ निया, नीभ्याम् ,नीभिः ३ निये, नीभ्याम्, नीभ्यः ४ नियः
नीभ्याम् ,नीभ्यः५ नियः, नियोः, नियाम् ६ नियाम्, नियोः, नीषु ७ स० हे नीः, हे नियौ, हे नियः॥
(सुश्री शब्दः) श्रेष्ठशोभायुक्त।
सुश्रीः, सुश्रियौ, सुश्रियः १ सुश्रियम्, सुश्रियौ, सुश्रियः २ सुश्रिया, सुश्रीभ्याम्, सुश्रीभिः ३ सुश्रिये, सुश्रीभ्याम्, सुश्रीभ्यः ४ सुश्रियः, सुश्रीभ्याम्, सुश्रीभ्यः ५ सुश्रियः, सुश्रीयोः, सुश्रियाम् ६ सुश्रियि, सुश्रियोः, सुश्रीषुः ७ स० हे सुश्रीः, हे सुश्रियौ, हे सुश्रियः। इसी प्रकार यवकी (जौ खरीनने वाला) शुद्धधी (पवित्र बुद्धिवाला) सुधी (अच्छी बुद्धि वाला)शब्दों के रूप होते हैं॥
(सुखी शब्दः) सुखकी इच्छा करनेवाला।
सुखीः, सुख्यौ, सुख्यः १ सुख्यम्, सुख्यी, सुख्यः, २ सुख्या, सुखीभ्याम्, सुखीभिः ३ सुख्ये, सुखीभ्याम्, सुखीभ्यः ४ सुख्युः, सुखीभ्याम्, सुखीभ्यः ५ सुख्युः, सुख्योः, सुख्याम् ६ सुख्यि, सुख्योः, सुखीषु ७ हे सुखीः, हे सुख्यौ, हे सुख्यः। इसी प्रकार सुती (पुत्र की इच्छा करने वाला) शब्दके रूप समझो॥
(क्रोष्टु शब्दः) शृगाल, स्यार।
क्रोष्टा, क्रोष्टारौ, क्रोष्टारः १ क्रोष्टारम्, क्रोष्टारौ, क्रोष्टून्
क्रोष्टुना, क्रोष्ट्रा, क्रोष्टुभ्याम्, क्रोष्टुभिः ३ क्रोष्टवे, क्रोष्ट्रे, क्रोष्टुभ्याम्, क्रोष्टुभ्यः ४ क्रोष्टोः, क्रोष्टुः, क्रोष्टुभ्याम्, क्रोष्टुभ्यः ५ क्रोष्टोः, कोष्टुः, क्रोष्ट्वोः, क्रोष्ट्रोः, क्रोष्टूनाम ६ क्रोष्टौ, क्रोष्टरि, क्रोष्ट्वोः, क्रोष्ट्रोः, क्रोष्टुषु ७ स० हे क्रोष्टो ! हे क्रोष्टारौ! हे क्रोष्टारः!॥
अनुनयः, = विनयः, आजिजी। नीहारः = कुहिरा। प्रातराशः = कलेबा, सुबह का भोजन। प्रचयः = समूह। प्राचीनम् = पुराना। अर्वाचीनम् = नया। उपचयः = वृद्धि, तरक्की। अपचयः = हानि, नुकसान। बीजम् = कारण। पर्यवस्था = विरोध। बहिरङ्गम् = बाहरी। अन्तरङ्गम् = भीतरी। कुङ्कुमम् = केशर। पर्युषितम् = वासी। अरण्यम् = वन। विचक्षणः = होशियार। कृपणः = सूम। पाणिपीडनम् = विवाह। इषीका = सीक। वितानम् = तम्बू। श्रान्तः = थकाहुआ। दलम् = पत्र। वार्षिकम् = सालाना। उपयोगः = इस्तेमाल। वियोगः = जुदाई। प्रयोगः = नुसखा। नियोगः = आज्ञा। पहटः = ढोल। झल्लकम् = मनीरा। महर्घम् = महगा। सुलभम् = सस्ता। क्लेदनम् = भिगोना। उपालम्भः = शिकायत। आरोहः =
ऊंचाई। परिणाहः = मुटाई। आयामः = लम्बाई। विस्तृतिः = चौड़ाई। चित्तम् = तबीयत
(ऊकारान्त हूहू शब्दः) हूहू करनेवाला।
हूहूः, हूह्वौ, हूह्वः १ हूहूम्, हूह्वौ, हूहून् २ हूह्वा, हूहूभ्याम्, हूहूभिः ३ हूह्वे, हूहूभ्याम्, हूहूभ्यः ४ हूहूवः, हूहूभ्याम्, हूहूभ्यः ५ हूह्वः, हूह्वोः, हूह्वाम्, ६ हूह्वि, हूह्वोः, हूहूषु ७ स० हे हूहूः, हे हूह्वौ, हे हूह्वः॥
(अतिचमूशब्दः) बहुत सेनावाला।
अतिचमूः, अतिचम्वौ, अतिचम्वः १ अतिचमूम् अतिचम्वौ, अतिचमून २ अतिचम्वा, अतिचमूभ्याम्, अतिचमूभिः ३ अतिचम्वै, अतिचमूभ्याम्, अतिचमूभ्यः ४ अतिचम्बाः, अतिचमूभ्याम्, अतिचमूभ्यः ५ अतिचम्वाः, अतिचम्वोः, अतिचमूनाम् ६ अतिचम्वाम्, अतिचम्वोः, अतिचमूषु ७ स० हे अतिचमु! हे अतिचम्वौ हे अतिचम्वः॥
(खलपू शब्दः) दुष्टों को पवित्र करनेवाला।
खलपूः, खलप्वौ, खलप्वः १ खलप्वम्, खलप्वौ, खलप्वः २ खलप्वा, खलपूभ्याम्, खलपूभिः ३ खलप्वं, खलपूभ्याम्, खलपूभ्यः ४ खलप्वः, खलपूभ्याम्, खलपूभ्यः ५ खलप्वः
खलप्वोः, खलप्वाम् ६ खलप्वि, खलप्वौः, खलपूषु ७ स० हे खलपूः! हे खलप्वौ, हे खलप्वः! ८
इसी प्रकार सुलू (अच्छे प्रकार काटनेवाला) वर्षाभू (वर्षा में पैदा होने वाला) दृन्भू (वज्र) करभू (हाथ में उत्पन्न होने वाला) पुनर्भू (फिर होने वाला) शब्दों के रूप होते हैं॥
(स्वभूशब्दः) ईश्वर
स्वभू, स्वभुवो, स्वभुवः, १ स्वभुवम्, स्वभुवौ, स्वभुवः, २ स्वभुवा, स्वभूभ्याम्, स्वभूभिः ३ स्वभुवे, स्वभूभ्याम्, स्वभूभ्यः ४ स्वभुवः, स्वभूभ्याम्, स्वभूभ्यः ५ स्वभुवः, स्वभुवोः, स्वभुवाम् ६ स्वभुविः, स्वभुवोः, स्वभूषु ७ स० हे स्वभूः! हे स्वभुवौ, हे स्वभुवः॥
(ऋकारान्त धातृ शब्दः ) धारण या पोषण-करनेवाला॥
धाता, धातारौ, धातारः १ धातारम्, धातारौ, धातॄन् २ धात्रा, धातृभ्याम्, धातृभिः३ धात्रे, धातृभ्याम्, धातृभ्यः ४ धातुः, धातृभ्याम्, धातृभ्यः५ धातुः, धात्रोः, धातॄणाम् ६ धातरि, धात्रोः, धातृषु ७ स० हे धातः! हे धातारौ! हे धातारः! इसी प्रकार
कर्तृ बनानेवाला। भर्त्त = (पति) नप्तृ = (नाती, धेवता) होतृ = होम करनेवाला। प्रशास्तृ = (हुक्म करनेवाला) वक्तृ = (कहनेवाला)
(ऋकारान्त भ्रातृशब्दः) भाई।
भ्राता, भ्रातरौ, भ्रातरः १ भ्रातरम्, भ्रातरौ। इन पांचवचनों के सिवाय समस्त रूप धातृ के समान होते हैं, पितृ = पिता। जामातृ = दामाद। देवृ = देवर। नृ = मनुष्य शब्द में के रूप भ्रातृ के समान होतेहैं परन्तु नृशब्द के षष्ठी विभक्ति के बहु वचन में भेद है जैसे नॄणाम्, नृणाम्।
(ऐकारान्त रेशब्दः) धन
राः, रायौ, रायः १ रायम्, रायौ, रायः २ राया, राभ्याम् राभ्यः ४ रायः, राभ्याम्, राभ्यः ५ रायः, रायोः, रायाम् ६ रायि, रायोः, रासु ७ स० हे राः! हे रायौ! हे रायः!॥
(ओकारान्त गोशब्दः) बैल
गौः, गावौ, गावः १ गाम्, गावौ गाः २ गवा, गोभ्याम्, गोभिः ३ गवे, गोभ्याम्, गोभ्यः। गोः, गोभ्याम्, गोभ्यः ५ गोः, गवोः, गवाम् ६ गवि, गवोः, गोषु ७ स० हे गौः! हे गावौ! हे गावः!॥
(संस्कृत बनाओ)
इस बन में स्यार बहुत रहते हैं। उन दोनो बालकों में विनय बहुत है। आन रात्रि में कुहिरा गिरेगा। ये सब काम पुराने हैं एकभी नया नहीं। विद्याकी वृद्धि सबको करना चाहिये। उसके कहने में विरोध है।
(भाषा बनाओ)
किमत्र बीजं येन भवन्तोऽत्र नाऽऽगच्छन्ति?। प्रचुराणि बीजानि सन्ति सातीदानी वक्तुं न वाञ्छामः। भवद्भिः प्रातराशः कृतः? वायुनोत्खातास्तरवो विश्वेऽस्माकम्। बहिरङ्गंकार्य्यमस्त्यन्तरङ्गंवा?। पर्युषितमशनं कदापि नो अशनीयम्। किं भवन्तः खलप्वः सन्ति?॥
इत्यजन्तपुँल्लिङ्गः॥
अथाऽजन्तस्त्रीलिङ्गः (सर्वाशब्दः)।
सर्वा^(१), सर्वे, सर्वाः १ सर्वाम्, सर्वे, सर्वाः २ सर्वया, सर्वाभ्याम्, सर्वाभिः २ सर्वस्यै, सर्वाभ्याम्, सर्वाभ्यः ४ सर्वस्याः, सर्वाभ्याम्, सर्वाभ्यः ५ सर्वस्याः, सर्वयोः, सर्वासाम्, ६ सर्वस्याम्, सर्वयोः, सर्वासु ७ स० हे सर्वे, हे सर्वे, हे सर्वाः
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१ इसी प्रकार विश्वा, अन्या, अन्यतरा, इतरा, कतरा, कतमा, समा, सिमा, नमा, एका शब्दों के रूप होते है॥
(इकारान्त मतिशब्दः) बुद्धि।
मतिः, मती, मतयः १ मतिम्, मती, मतीः २ मत्या, मतिभ्याम्, मतिभिः ३ मत्यै, मतये, मतिभ्याम्, मतिभ्यः ४ मत्याः, मतेः, मतिभ्याम्, मतिभ्यः ५ मत्याः, मतेः, मत्योः, मतीनाम् ६ मत्याम्, मतौ, मत्योः मतिषु ७ हे मते! हे मती, हे मतयः।
इसी प्रकार धृति, (धीरज) कृति (करना) भृति (नौकरी) नति (प्रणाम) नीति (न्याय) नामि (भगिनी, बहिन) ब्रतति (वेल) तति (पङ्क्ति) छवि (शोभा) जग्धि (भोजन) क्षिति (पृथ्वी) क्षति (हानि) यष्टि (लाठी) उष्टि (निवास) गति (चाल) समिति (सभा) प्राप्ति (लाभ) मुष्टि (घूंसा, मुक्का) स्मृति (याददास्त) विस्मृति (भूल) भ्रान्ति (झूँठी समझ) वृत्ति (जीविका) कीर्ति (यश) दृष्टि (देखना) कृषि (खेती) प्रतिपत्ति (सिद्धि) विपत्ति (आफत) उपस्थिति (हाजिरी) नीवे (कमरबंध) चुल्लि (चुल्ला) पद्धति रास्ता शब्दों के रूप होते हैं।
(ईकारान्त नदीशब्दः) दरिया।
नदी, नद्यौ, नद्यः १ नदीम्, नद्यौ नदीः २ नद्या, नदी-
भ्याम्, नदीभिः ३ नद्यै, नदीभ्याम्, नदीभ्यः ४ नद्याः, नदीभ्याम्, नदीभ्यः ४ नद्याः, नद्योः, नदीनाम् ६ नद्याम्, नद्योः, नदीषु ७ हे नदि! हे नद्यौ हे नद्यः। इसी प्रकार कुटी (कोठरी) मैत्री (दोस्ती) लिपी (कापी) शैली (रीति) श्रेणी (जमात्) नारी (स्त्री) सखी (सहेली) कर्त्री (करने वाली) हर्त्री (चुराने वाली ) क्रोष्ट्री (शृगाली) पुत्री (लड़की) चोली (अंगिया) देहली (चौखट) महती (बड़ी) महिषी (भैंस) छागी (बकरी) गर्दभी (गदही) शष्कुली (पूड़ी) घृतचौरी (कचौड़ी) तन्त्री (सितार)
(श्री शब्दः) शोभा
श्रीः, श्रियौ, श्रियः १ श्रियम्, श्रियौ, श्रियः २ श्रिया, श्रीभ्याम्, श्रीभिः ३ श्रिये श्रियै, श्रीभ्याम्, श्रीभ्यः ४ श्रियः श्रियाः, श्रीभ्याम्, श्रीभ्यः ५ श्रियः श्रियाः, श्रियोः, श्रियाम् श्रीणाम् ६ श्रियि श्रियाम्, श्रियोः, श्रीषु ७
(स्त्रीशब्दः) नारी
स्त्री, स्त्रियो, स्त्रियः १ स्त्रियम् स्त्रीम्, स्त्रियौ, स्त्रियः, स्त्रीः २ स्त्रिया, स्त्रीभ्याम्, स्त्रीभिः ३ स्त्रियै, स्त्रीभ्याम्, स्त्रीभ्यः ४ स्त्रियाः, स्त्रीभ्याम्, स्त्रीभ्यः ५ स्त्रियाः स्त्रियोः, स्त्रीणाम् ६ स्त्रियाम्, स्त्रियोः, स्त्रीषु ७ स० हे स्त्रि, हे स्त्रियौ, हे स्त्रियः॥
(उकारान्त धेनुशब्दः) गाय।
धेनुः, धेनू, धेनवः १ धेनुम्, धेनू, धेनूः २ धेन्वा, धेनुभ्याम्, धेनुभिः ३ धेन्वै, धेनवे, धेनुभ्याम्, धेनुभ्यः ४ धेन्वाः, धेनोः, धेनुभ्याम्, धेनुभ्यः ५ धेन्वाः, धेनोः धेन्वोः, धेनूनाम् ६ धेन्वाम्, धेनौ, धेन्वोः, धेनुषु ७ स० हे धेनो! हे धेनू, हे धेनवः इसी प्रकार रज्जु (रस्सी)।
(ऊकारान्त वधू शब्दः) बहू।
वधूः, वध्वौ, वध्वः १ वधूम्, वध्वौ, वधूः २ वध्वा, वधूभ्याम्, वधूभिः, ३ वध्वै, वधूभ्याम्, वधूभ्यः ४ वध्वाः, वधूभ्याम्, वधूभ्यः ५ वध्वाः, वध्वोः, वधूनाम् ६ वध्वाम्, वध्वोः, वधुषु ७ स० हे वधु! हे वध्वौ, हे वध्वः। इसी प्रकार श्वश्रू (सास) भ्रू (भौंह) इस के रूप पु० स्वयम्भू के समान होते हैं अलाबू (तुम्वी) तनू (शरीर) खर्जू (खाज) शब्दों के रूप होते हैं।
(ऋकारान्त दुहितृ शब्दः) लड़की
दुहिता, दुहितरौ, दुहितरः १ दूहितरम्, दुहितरौ, दुहितॄः २ दुहित्रा, दुहितृभ्याम्, दुहितृभिः ३ दुहित्रे, दुहितृभ्याम्, दुहितृभ्यः ५ दुहितुः, दुहित्रोः, दुहितृणाम् ६ दुहितरि,
दुहित्रोः, दुहितृषु ७ हे दुहितः, हे दुहितरौ, हे दुहितरः। इसी प्रकार मातृ (मा)।
(स्वसृ शब्दः) बहिन।
स्वसा, स्वसारौ, स्वसारः १ स्वसारम्, स्वसारौ, स्वसृः शेष रूप दुहितृवत् —
(औकारान्त द्योशब्दः) आकाश।
द्यौः, द्यावौः, द्यावः १ द्याम्, द्यावौ, द्याः २ द्यवा, द्योभ्याम्, द्योभिः ३ द्यवे, द्योभ्याम्, द्योभ्यः ४ द्योः, द्योभ्याम्, द्योभ्यः ५ द्योः, द्यवोः, द्यवाम् ६ द्यवि, द्यवोः, द्यवि ७।
(औकारान्त नोशब्दः) नाव।
नौः, नावौ, नावः १ नावम्, नावौ, नावः २ नावा, नौभ्याम्, नौभिः ३ नावे, नौभ्याम्, नौभ्यः ४ नावः, नौभ्याम्, नौभ्यः ५ नावः, नावोः, नावाम् ६ नावि, नावोः, नौषु॥
नैर्मल्यम् = पवित्रता। मालिन्यम् = मलिनता। काठिन्यम् = कठिनता। आनुकूल्यम् = अनुकूलता। प्रातिकूल्यम् = प्रतिकूलता। प्राचुर्यम् = बहुतायत। दार्ढ्यम् = मज़बूती। नैर्बल्यम् = कमजोरी। पाण्डित्यम् = विद्वत्ता, आलिमपना। मौर्ख्यम् = मूर्खता। वैचित्र्यम् = विचित्रता, अजीवपना।
वैशिष्ट्यम् = विशेषता। कौशल्यम् = कुशलता। कौटिल्यम् = कुटिलता। न्यौनाधिक्यम् = तरमीम। सौकर्य्यम् = आसानी। वैपरीत्यम् = उलटा। आकस्मिकम् = अचानक। सुषिरम् = घुना हुआ। गर्त्तम् = गड्ढा। विनिमयः = बदला। अभिज्ञानम् = निदर्शन, नमूना। प्रहारः = चोट। विहारः =भ्रमण
इत्यजन्तस्त्रीलिङ्गप्रकरणम्।
अथाजन्तनपुंसकलिङ्गप्रकरणम्।
(सर्वशब्दः) सब
सर्वम्, सर्वे, सर्वाणि १ सर्वम्, सर्वे, सर्वाणि शेष रूप पुँल्लिङ्गवत्॥
(कतरच्छब्दः) कौन
कतरत् द्, कतरे, कतराणि १ हे कतरत्! कतरे, कतराणि २ शेषरूप सर्ववत् एवमेव कतमत् इतरत् अन्यत् अन्यतरत् शब्दों के भी रूप होते हैं॥
(आकारान्त श्रीपा शब्दः) धनपालक।
श्रीपम्, श्रीपे, श्रीपाणि १, २ शेष रूप पुस्तकवत्।
(इकारान्त वारिशब्दः) पानी।
वारि, वारिणी, वारीणि १ वारि, वारिणी, वारीणि २
वारिणा, वारिभ्याम्, वारिभिः ३ वारिणे, वारिभ्याम्, वारिभ्यः ४ वारिणः, वारिभ्याम्, वारिभ्यः ५ वारिणः, वारिणोः, वारीणाम् ६ वारिणि, वारिणोः, वारिषु ७ हे वारि! हे वारे॥
(दधिशब्दः) दही।
दधि, दधिनी, दधीनि, १ दधि, दधिनी, दधीनि २ दध्ना, दधिभ्याम्, दधिभिः ३ दध्ने, दधिभ्याम्, दधिभ्यः ४ दध्नः, दधिभ्याम्, दधिभ्यः ५ दध्नः, दध्नोः, दध्नाम् ६ दधनि, दध्नि, दध्नोः, दधिषु ७ इसीप्रकार अस्थि (हाड़) अक्षि (आंख) सक्थि (ऊरू) के रूपहोते हैं और शेष इकारान्त नपुंसक शब्दों के रूप वारिवत् समझो॥
(संस्कृत बनाओ)
मैने और सबपाठशाला देखी हैं परंतु आपकी पाठशाला कभी भी नहीं देखी। मेरी बुद्धिमें तुम्हारी यह बात नहीं आती। क्या वे सब हानि और लाभ को मानते हैं?। उनकी याददास्त बहुत अच्छी है मैंने कई बार परीक्षा की है। तुमने लाठी उसकी मुष्टि में मारी थी। कमरबन्ध अच्छा नहीं लगता है। नदी में स्त्रियां स्नान करने को जाती हैं। तुम्हारी बहू की अब तबियत कैसी।
(भाषाबनाओ)
भवतो दुहितुः पाणिपीडनं कस्मिन् मासे भविष्यति। अस्माकं मातुरियमाज्ञानाऽस्त्यतो वयं गन्तुं न वाञ्छामः। यज्ञदत्तस्य मैत्र्या मदीया महती हानिरभूत्। अनुनयेन लिखामि दलं प्रभो!। गताक्षराणां न शृणोमि वार्त्ताम्। अलीकं नेजकस्येदं कथनं विश्वं मया श्रुतम्।
(उकारान्त मधुशब्दः) शहद।
मधु, मधुनी, मधूनि १ मधु, मधुनी, मधूनि २ मधुना, मधुभ्याम्, मधुभिः ३ मधुने, मधुभ्याम्, मधुभ्यः, ४ मधुनः, मधुभ्याम्, मधुभ्यः ५ मधुनः, मधुनोः, मधूनाम् ६ मधुनि, मधुनोः मधुषु ७ स० हे मधु! मधो! मधुनी, मधूनि॥
(ऋकारान्त धातृ शब्दः)
धातृ, धातृणी, धातॄणि १ धातृ, धातृणी, धातॄणि १ धात्रा, धातृणा, धातृभ्याम्, धातृभिः ३ धातृणे, धात्रे, धातृभ्याम्, धातृभ्यः ४ धातृणः, धातुः, धातृभ्याम्, धातृभ्यः ५ धातृणः, धातुः, धातृणोः धात्रोः, धातॄणाम् ६ धातृणि, धातरि, धातृणोः, धात्रोः, धातृषु ७ स० हे धातः! हे धातृ! हे धातृणी! हे धातॄणि।
(प्ररिशब्दः) जिस कुल में अधिक धनहो॥
प्ररि, प्ररिणी, प्ररीणि १ प्ररि, प्ररिणी, प्ररीणि २ प्ररिणा, प्रराभ्याम्, प्रराभिः ३ प्ररिणे, प्रराभ्याम्, प्रराभ्यः ४ प्ररिणः, प्रराभ्याम्, प्रराभ्यः ५ प्ररिणः, प्ररिणोः, प्ररीणाम् ६ प्ररिणि, प्ररिणोः प्ररिषु ७ स० हे प्ररे, हे प्ररिणी, हे प्ररीणि॥
इत्यजन्त नपुंसकलिङ्ग प्रकरणम्॥
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अथ हलन्तपुँल्लिङ्ग प्रकरणम्।
(हान्त लिह् शब्दः) चाटनेवाला।
लिड् लिट्, लिहौ, लिहः १ लिहम्, लिहौ, लिहः २ लिहा, लिह्भ्याम्, लिड्भिः ३ लिहे, लिड्भ्याम्, लिड्भ्यः ४ लिहः, लिड्भ्याम्, लिड्भ्यः ५ लिहः, लिहोः, लिहाम् ६ लिहि, लिहोः, लिट्सु लिट्त्सु ७ स० हे लिट्, हे लिहौ, हे लिहः
(हान्त दुह् शब्दः) दुहनेवाला।
धुकूग्, दुहौ, दुहः १ दुहम्, दुहौ, दुहः २ दुहा, धुग्भ्याम्, धुग्भिः ३ दुहे, धुग्भ्याम्, धुग्भ्यः ४ दुहः, धुग्भ्याम्, धुग्भ्यः ५ दुहः, दुहोः, दुहाम् ६ दुहि, दुहोः, धुक्षु ७ स० हे धुग्क्, हे दुहौ, हे दुहः॥
(हान्त द्रुह् शब्दः) द्रोही।
ध्रुक् ध्रुग् ध्रुट् ध्रुड्, द्रुहौ, द्रुहः, १ द्रुहम्, द्रुहौ, द्रुहः २ द्रुहा, ध्रुग्ड्भ्याम्, ध्रुग्ड्भिः ३ द्रुहे, ध्रुग्-ड्भ्याम्, ध्रुग्ड्भ्यः ४ द्रुहः, ध्रुग्ड्-भ्याम्, ध्रुग्-ड्भ्यः ५ द्रुहः, द्रुहोः, द्रुहाम् ६ द्रुहि, द्रुहोः, ध्रुट्सु, ध्रुट्त्सु, ध्रुक्षु ७ स० है ध्रुक् ग्-ट्-ड्, हे दुहौ, हे द्रुहः। इसी प्रकार मुह (वे सुध होनेवाला) के रूप होते हैं।
(स्नुह् शब्दः) उगलनेवाला
स्नुक्-ग्-ट्-ड्, स्नुहौ, स्नुहः १ स्नुहम्, स्नुहौ, स्नुहः २ स्नुहा, स्नुग्ड्भ्याम्, स्नुग्ड्-भिः ३ स्नुहे, स्नुग्-ड्-भ्याम्, स्नुग्ड्भ्यः ४ स्नुहः, स्नुग्ड्भ्याम्, स्नुग्ड्भ्यः ५ स्नुहः, स्नुहोः, स्नुहाम् ६ स्नुहि, स्नुहोः, स्नुक्षु, स्नुट्सु, स्नुट्त्सु ७ स० हे स्नुक् ग्-ट्-ड्, हे स्नुहौ, हे स्नुहः। इसी प्रकार स्निह् (स्नेहकर्त्ता) शब्द के रूप होते हैं॥
(विश्ववाह् शब्दः) सर्व संसार का धारक।
विश्ववाट्-ह्, विश्ववाहौ, विश्ववाहः १ विश्ववाहम्, विश्ववाहौ, विश्वौहः २ विश्वौहा, विश्ववाड्भ्याम्, विश्ववाड्भिः ३ विश्वौहे, विश्ववाड्भ्याम्, विश्ववाड्भ्यः ४ विश्वौहः, विश्ववाड्भ्याम्, विश्ववाड्भ्यः ५ विश्वौहः, विश्वौहोः,
विश्वौहाम् ६ विश्वौहि, विश्वौहोः, विश्ववाट्त्सु विश्ववाट्सु ७ स० प्रथमावत्।
(अनडुह् शब्दः) बैल।
अनड्वान्, अनड्वाहौ, अनड्वाहः १ अनड्वाहम्, अनड्वाहौ, अनडुहः २ अनडुहा, अनडुद्भ्याम्, अनडुद्भिः ३ अनडुहे, अनडुद्भ्याम्, अनडुद्भ्यः ४ अनडुहः, अनडुद्भ्याम्, अनडुद्भ्यः ५ अनडुहः, अनडुहोः, अनडुहाम्, ६ अनडुहि, अनडुहोः, अनडुत्सु ७ स० हे अनड्वन्! हे अनड्वाहौ, हे अनड्वाहः॥
(भाषा बनाओ)
भवतोऽस्य शकटस्याऽनड्वाहौ वरं स्तः। भक्तोऽवलेहं वाञ्छन्ति तर्हि तत्रागच्छन्तु। द्रुहि भवति तेषां विश्वासो न भविष्यति। इयं कस्य पुत्री देहल्यां तिष्ठति युवां जानीयः? अस्माकं कुट्यां तस्कराः प्रविष्टाः संति सत्वरमागन्तु भवन्तः। क्षिताविदानीं यूयं न शेध्वं कुतो वृश्चिका अत्र निर्गच्छन्ति। भवन्तावस्मिन् विषये मह्यं कां सम्मतिं दत्तः। तत्र तृतीयस्मिन् गृहे के गमिष्यन्ति, अहं तु न गच्छामि।
(संस्कृत बनाओ)
इस समाज का वार्षिक उत्सव कब होगा। आपजानते
हैं धर्म के कामों में विघ्न हुआ ही करते हैं। इस संसारमें हमारी रक्षा करने वाला परमात्मा है। शहद में दही मिलाकर कैसा होता है। आपको इस समय कौन बीमारीहै उसी का इलाज हो। इस शीशी की दवा नई है अथवा पुरानी॥
(तुरासाह् शब्दः) सूर्य, बिजली।
तुराषाट् ड्- तुरासाहौ, तुरासाहः १ तुरासाहम्, तुरासाहौ, तुरासाहः २ तुरासाहा, तुराषाड्भ्याम्, तुराषाड्भिः ३ तुरासाहे, तुराषाड्भ्याम्, तुराषाड्भ्यः ४ तुरासाहः तुराषाड्भ्याम्, तुराषाड्भ्यः ५ तुरासाहः, तुरासाहोः, तुरासाहाम् ६ तुरासाहि, तुरासाहोः, तुराषाट्त्सु तुराषाट्सु ७ स० प्रथमावत्
(सुदिव् शब्दः) श्रेष्ठ आकाश।
सुद्यौः, सुदिवौ, सुदिवः १ सुदिवम् सुदिवौ, सुदिवः २ सुदिवा, सुद्युभ्याम्, सुद्युभिः ३ सुदिवे, सुद्युभ्याम्, सुद्युभ्यः ४ सुदिवः, सुद्युभ्याम, सुद्युभ्यः ५ सुदिवः, सुदिवोः, सुदिवाम् ६ सुदिवि, सुदिवोः, सुद्युषु ७ स० प्रथमावत्॥
(रेफान्त चतुर् शब्दः) चार
चत्वारः १ चतुरः २ चतुर्भिः ३ चतुर्भ्यः ४, ५ चतुर्णाम् ६ चतुर्षु॥७॥
(प्रशाम् शब्दः) अतिशान्त।
प्रशान्प्रमामौ, प्रशामः१ प्रशामम्, प्रशामौ, प्रशामः २ प्रशामा, प्रशान्भ्याम् प्रशान्भिः ३ प्रशामे प्रशान्भ्याम्, प्रशान्भ्यः ४ प्रशामः, प्रशान्भ्याम् प्रशान्भ्यः ५ प्रशामः, प्रशामोः, प्रशामाम् ६ प्रशामि, प्रशामोः, प्रशान्सु ७ स० हे प्रशान्! हे प्रशामौ! हे प्रशामः॥
(इदम् शब्दः) यह।
१ अयम्, इमौ, इमे २ इमम्, इमौ, एनौ, इमान् एनान् ३ अनेन एनेन, आभ्याम्, एभिः ४ अस्मै, आभ्याम्, एभ्यः ५ अस्मात्, आभ्याम्, एभ्यः, ६ अस्य, अनयोः, एनयोः, एषाम् ७ अस्मिन्, अनयोः एनयोः, एषु॥
(राजन् शब्दः) राजा
राजा, राजानौ, राजानः १ राजानम् राजानौ राज्ञः, २ राज्ञा, राजभ्याम्, राजभिः ३ राज्ञे, राजभ्याम्, राजभ्यः ४ राज्ञः, राजभ्याम्, राजभ्यः५ राज्ञः, राज्ञोः, राज्ञाम् ६ राज्ञि, राजनि, राज्ञोः, राजसु ७ स० हे राजन्! हे राजानौ! हे राजानः॥
(यज्वन् शब्दः) यज्ञ करनेवाला।
यज्वा, यज्वानौ, यज्वानः १ यज्वानम्, यज्वानौ,
यज्वनः २ यज्वना, यज्वभ्याम्, यज्वभिः ३ यज्वने, यज्वभ्याम्, यज्वभ्यः ४ यज्वनः यज्वभ्याम्, यज्वभ्यः ५ यज्वनः, यज्वनोः, यज्वनाम् ६ यज्वनि, यज्वनोः, यज्वसु ७ स० हे यज्वन्, हे यज्वानौ, हे यज्वानः।
इसी प्रकार ब्रह्मन् शब्द के रूप होते हैं॥
(वृत्रहन् शब्दः) बादल को दूर करनेवाला।
वृत्रहा, वृत्रहणौ, वृत्रहणः १ वृत्रहणम्, वृत्रहणौ, वृत्रघ्नः २ वृत्रघ्ना, वृत्रहभ्याम्, वृत्रहाभिः ३ वृत्रघ्ने, वृत्रहभ्याम्, वृत्रहभ्यः ४ वृत्रघ्नः, वृत्रहभ्याम्, वृत्रहभ्यः ५ वृत्रघ्नः, वृत्रघ्नोः, वृत्रघ्नाम् ६ वृत्रहणि, वृत्रघ्नि, वृत्रघ्नोः, वृत्रह्सु ७ स० हे वृत्रहन्, हे वृत्रहणौ, हे वृत्रहणः। इसी प्रकार शार्ङ्गिन् (धनुषधारी) यशस्विन् (यशवाला) अर्यमन् (सूर्य) शब्दों के रूप होते हैं।
(मघवन् शब्दः) सूर्य, बिजली।
मघवान्, मघवन्तौ, मघवन्तः १ मघवन्तम्, मघवन्तौ, मघवतः २ मघवता, मघवद्भ्याम्, मघवद्भिः ३ मघवते, मघवद्भ्याम् मघवद्भ्यः ४ मघवतः, मघवद्भ्याम्, मघवद्भ्यः ५ मघवतः, मघवतोः, मघवताम् ६ मघवति, मघ-
वतोः, मघवत्सु ७ स० हे मघवन्! हे मघवन्तौ, हे मघवन्तः॥
मघवा, मघवानौ, मघवानः १ मघवानम्, मघवानौ, मघोनः २ मघोना, मघवभ्याम्, मघवभिः ३ मघोने, मघवभ्याम्, मघवभ्यः ४ मघोनः, मघवभ्याम्, मघवभ्यः ५ मघोनः, मघोनोः, मघोनाम् ६ मघोनि, मघोनोः, मघवसु ७ स० हे मघवन्! हे मघवानौ, हे मघवानः॥
(युवन् शब्दः) जवान।
युवा, युवानौ, युवानः १ युवानम्, युवानौ, यूनः २ यूना, युवभ्याम्, युवभिः ३ यूने, युवभ्याम्, युवभ्यः ४ यूनः, युवभ्याम्, युवभ्यः ५ यूनः, यूनोः, यूनाम् ६ यूनि, यूनोः, युवसु ७ स० हे युवन्! हे युवानौ, हे युवानः॥
(अर्वन् शब्दः) घोड़ा।
अर्वा, अर्वन्तौ, अर्वन्तः १ अर्वन्तम्, अर्वन्तौ, अर्वतः २ अर्वता, अर्वद्भ्यम्, अर्वद्भिः ३ अर्वते, अर्वद्भ्याम्, अर्वद्भ्यः ४ अर्वतः, अर्वद्भ्याम्, अर्वद्भ्यः ५ अर्वतः, अर्वतोः, अर्वताम् ६ अर्वति, अर्वतोः, अर्वत्सु ७ स० हे अर्वन्, हे अर्वन्तौ, हे अर्वन्तः॥
प्राची = पूर्व, मशरक़। प्रतीची = पश्चिम, मगरव।
उदीची = उत्तर, शुमाल। अवाचा = दक्षिण, जनूब। आग्नेयी = पूर्व और दक्षिण के बीचकी दिशा। नैर्ऋती = दक्षिण और पश्चिम के मध्य की दिशा। वायवी = पश्चिम और उत्तर के बीचकी दिशा। ऐशानी = उत्तर और पूर्व के बीचकी दिशा। राजकीयम् = सरकारी। यौष्माकीणम् = तुम्हारा। आस्माकीनम् = हमारा। तावकीनम् = तेरा। मामकीनम् = मेरा। सायन्तनम् = शामका। प्रातस्तनम् = सुबह का। श्वस्तनम् = आगामी कलका। ह्यस्तनम् = गये कलका। दोषातनम् = रात्रिका। ईषद्धसनम् = मुसकराना। परिसर्गः = लपेटना। परिष्कारः = सजावट। मार्जनम् = शुद्ध करना।
(पथिन् शब्दः) मार्ग।
पन्थाः, पन्थानौ, पन्थानः १ पन्थानम्, पन्थानौ, पथः २ पथा, पथिभ्याम्, पथिभिः २ पथे, पथिभ्याम्, पथिभ्यः ४ पथः, पथिभ्याम्, पथिभ्यः ५ पथः, पथोः, पथाम् ६ पथि, पथोः, पथिषु ७ इसी प्रकार मथिन् (बिलोने वाला) ऋभुक्षिन् (अन्तरिक्ष) शब्दों के रूप जानो।
(नान्त3 पञ्चन् शब्दः) पांच।
पञ्च १ पञ्च २ पञ्चभिः ३ पञ्चभ्यः ४, ५ पञ्चानाम्
६ पञ्चसु ७ इसी प्रकार सप्तन् (सात) नवन् (नौ) दशन् (दस) शब्दों के रूप होते हैं।
(अष्टन् शब्दः) आठ।
अष्टौ, अष्ट १ अष्टौ, अष्ट २ अष्टभिः, अष्टाभिः ३ अष्टभ्यः, अष्टाभ्यः ४ अष्टभ्यः, अष्टाभ्यः ५ अष्टानाम् ६ अष्टसु, अष्टासु ७॥
(ऋत्विज् शब्दः) हवनकर्त्ता।
ऋत्विक्,–ग्, ऋत्विजौ, ऋत्विजः १ ऋत्विजम्, ऋत्विजौ, ऋत्विजः २ ऋत्विजा, ऋत्विग्भ्याम्, ऋत्विग्भिः ३ ऋत्विजे, ऋत्विग्भ्याम्, ऋत्विग्भ्यः ४ ऋत्विजः, ऋत्विग्भ्याम्, ऋत्विग्भ्यः ५ ऋत्विजः, ऋत्विजोः, ऋत्विजाम् ६ ऋत्विजि, ऋत्विजोः, ऋत्विक्षु ७ स० प्रथमावत्।
(भाषा बनाओ)
एभिर्बालकैरिदानीं जलं न पीतम् पीत्वाऽऽगमिष्यन्ति। आस्माकीना वडवा प्राच्यां गतोदीच्यां वा। वयमिदानीं प्रतीच्या आगच्छामोऽतो न जानीमः। ह्यस्तनं तावकीनं किं कार्यमस्ति। सायन्तनस्य कार्यस्य स्मृतिरस्ति नास्ति वा?। नगरस्यैशान्यां मुरादाबादस्य राजकीया महती पाठशालास्ति।
(संस्कृत बनाओ)
ये किस राजके घोड़े हैं क्या आप जानते हैं?। यह तुम्हारे आठ दिनका काम है या दशका?। इस वनमें चार रास्ते हैं इस लिये मैं किस रास्ते से जाऊँ। तुम सब आठ आदमियों में से युद्धके लिये कौन जायगा। जवानोंका काम जवान ही करते हैं लड़के नहीं करते।
(युज् शब्दः) मिलनेवाला।
युङ्, युञ्जौ, युञ्जः १ युञ्जन् युञ्जौ, युजः २ युजा, युग्भ्याम्, युग्भिः ३ युजे, युग्भ्याम्, युग्भ्यः ४ युजः, युग्भ्याम्, युग्भ्यः ५ युजः, युजोः, युजाम् ६ युजि, युजोः, युक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(सुयुज् शब्दः) सम्यग् मिला हुआ
सुयुक् ग्, सुयुजौ, सुयुजः १ सुयुजम्, सुयुजौ, सुयुजः २ सुयुजा, सुयुग्भ्याम् सुयुग्भिः ३ सुयुजे, सुयुग्भ्याम्, सुयुग्भिः ४ सुयुजः सुयुग्भ्याम्, सुयुग्भ्यः ५ सुयुजः, सुयुजोः, सुयुजाम् ६ सुयुजि, सुयुजोः, सुयुक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(खञ्ज् शब्दः) लूला।
खन्, खञ्जौ, खञ्जः १ खञ्जम्, खञ्जौ, खञ्जः २
खञ्जा, खन्भ्याम्, खन्भिः ३ खञ्जे, खन्भ्याम्, खन्भ्यः ४ खञ्जः, खन्भ्याम्, खन्भ्यः ५ खञ्जः, खञ्जोः, खञ्जाम् ६ खञ्जि, खञ्जोः, खन्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(विश्वराज् शब्दः) ईश्वर।
विश्वाराट्-ड्, विश्वराजौ, विश्वराजः १ विश्वराजम्, विश्वराजौ, विश्वराजः २ विश्वराजा, विश्वराड्भ्याम्, विश्वाराड्भिः,३ विश्वराजे, विश्वाराड्भ्याम्, विश्वाराड्भ्यः ४ विश्वराजः, विश्वाराड्भ्याम्, विश्वाराड्भ्य ५ विश्वराजः, विश्वराजोः, विश्वराजाम् ६ विश्वराजि, विश्वराजोः, विश्वाराट्त्सु, विश्वाराट्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(भृस्ज् शब्दः) भून (ज) ना
भृट्-ड्, भृज्जौ, भृज्जः १ भृज्जम्, भृज्जौ, भृज्जः २ भृज्जा, भृड्भ्याम्, भृड्भिः ३ भृज्जे, भृड्भ्याम् भृड्भ्यः ४ भृज्जः, भृड्भ्याम्, भृड्भ्यः ५ भृज्जः, भृज्जोः, भृज्जाम् ६ भृज्जि, भृज्जोः, भृट्त्सु भृट्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(त्यद् शब्दः) वह।
त्यः, त्यौ, त्ये, १ त्यम्, त्यौ, त्यान् २ त्येन, त्याभ्याम्, त्यैः ३ त्यस्मै, त्याभ्याम्, त्येभ्यः ४ त्यस्मात्, त्याभ्याम्,
त्येभ्यः ५ त्यस्य, त्ययोः, त्येषाम् ६ त्यस्मिन्, त्ययोः, त्येषु
(एतद् शब्दः) यह
एषः, एतौ, एते, १ एतम् एनम्, एतौ एनौ, एतान् एनान् २ एतेन एनेन, एताभ्याम्, एतैः ३ एतस्मै, एताभ्याम्, एतेभ्यः ४ एतस्मात्, एताभ्याम्, एतेभ्यः ५ एतस्य, एतयोः एनयोः, एतेषाम् ६ एतस्मिन, एतयोः एनयोः, एतेषु ७
(सुपाद् शब्दः) अच्छे पैर वाला
सुपाद्-त्, सुपादौ, सुपादः १ सुपादम्, सुपादौ, सुपदः २ सुपदा, सुपाद्भ्याम्, सुपाद्भिः ३ सुपदे, सुपाद्भ्याम्,सुपाद्भ्यः ४ सुपदः, सुपाद्भ्याम्, सुपाद्भ्यः, ५ सुपदः, सुपदोः, सुपदाम् ६ सुपदि, सुपदोः, सुपात्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(अग्निमथ् शब्दः) अग्नि मथने वाला।
अग्निमद्-त्, अग्निमथौ, अग्निमथः १ अग्निमथम्, अग्निमथौ, अग्निमथः २ अग्निमथा, अग्निमद्भ्याम्, अग्निमद्भिः ३ अग्निमथे, अग्निमद्भ्याम्, अग्निमद्भ्यः ४ अग्निमथः, अग्निमद्भ्याम्, अग्निमद्भ्यः ५ अग्निमथः, अग्निमथोः, अग्निमथाम् ६ अग्निमथि, अग्निमथोः, अग्निमत्सु ७
(प्राञ्च् शब्दः) पूर्वदिशा।
प्राङ्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः १ प्राञ्चम्, प्राञ्चौ, प्राचः २ प्राचा, प्राग्भ्याम्, प्राग्भिः ३ प्राचे, प्राग्भ्याम्, प्राग्भ्यः, ४ प्राचः, प्राग्भ्याम्, प्राग्भ्यः ५ प्राचः, प्राचोः, प्राचाम् ६ प्राचि, प्राचोः प्राक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(प्रत्यञ्च् शब्दः) उत्तर दिशा
प्रत्यङ्, प्रत्यञ्चौ, प्रत्यञ्चः १ प्रत्यञ्चम्, प्रत्यञ्चौ, प्रतीचः २ प्रतीचा, प्रत्यग्भ्याम्, प्रत्यग्भिः ३ प्रतीचे, प्रत्यग्भ्याम्, प्रत्यग्भ्यः ४ प्रतीचः, प्रत्यग्भ्याम्, प्रत्यग्भ्यः ५ प्रतीचः, प्रतीचोः, प्रतीचाम् ६ प्रतीचि प्रतीचोः, प्रत्यक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(उदच्शब्दः) उत्तरदिशा
उदङ्, उदञ्चौ, उदञ्चः १ उदञ्चम्, उदञ्चौ, उदीचः २ उदीचा, उदग्भ्याम्, उदग्भिः ३ उदीचे, उदग्भ्याम्, उदग्भ्यः ४ उदीचः, उदग्भ्याम्, उदग्भ्यः ५ उदीचः, उदीचोः, उदीचाम् ६ उदीचि, उदीचोः, उदक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(सम्यच्शब्दः) मनोहर
सम्यङ्, सम्यञ्चौ, सम्यञ्चः १ सम्यञ्चम्, सम्यञ्चौ, समीचः २ समीचा, सम्यग्भ्याम्, सम्यग्भिः ३ समीचे,
सम्यग्भ्याम्, सम्यग्भ्यः ४ समीचः, सम्यग्भ्याम्, सम्यग्भ्यः ५ समीचः, समीचोः, समीचाम्६ समीचि, समीचोः, सम्यक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(सहाञ्च् शब्दः) साथ चलनेवाला
सध्र्यङ्, सध्र्यञ्चौ, सध्र्यञ्चः १ सध्र्यञ्चम, सध्र्यञ्चो, सध्रीचः २ सध्रीचा, सध्र्यग्भ्याम्, सध्र्यग्भिः ३ सध्रीचे, सध्र्यग्भ्याम्, सध्र्यग्भ्यः ४ सध्रीचः, सध्र्यग्भ्याम्, सध्र्यग्भ्यः ५ सध्रीचः, सीध्रीचोः, सध्रीचाम् ६ सध्रीचि, सध्रीचोः, सध्र्यक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(तिरसञ्च शब्दः) तिरछी चालवाला।
तिर्यङ्, तिर्यञ्चौ, तिर्यञ्चः १ तिर्यञ्चम्, तिर्यञ्ची, तिरश्चः २ तिरश्चा, तिर्यग्भ्याम्, तिर्यग्भिः ३ तिरश्चे, तिर्यग्भ्याम्, तिर्यग्भ्यः ४ तिरश्चः, तिर्यग्भ्याम्, तिर्यग्भ्यः ५ तिरश्चः, तिरश्चाः, तिरश्चाम् ६ तिरश्चि, तिरश्चोः, तिर्यक्षु ७ स० प्रथमावत्।
(प्राञ्च् शब्दः) पूजावाचक।
प्राङ्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः १ प्राञ्चम्, प्राञ्चौ, प्राञ्चः २ प्राञ्चा, प्राङ्भ्याम्, प्राङ्भिः ३ प्राञ्चे, प्राङ्भ्याम्, प्राङ्भ्यः ४ प्राञ्चः,
प्राङ्भ्याम्, प्राङ्भ्यः ५ प्राञ्चः, प्राञ्चोः, प्राञ्चाम् ६ प्राञ्चि प्राञ्चोः प्राङ्षु-प्राङ्क्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(क्रुञ्च् शब्दः) तिरछा चलनेवाला।
क्रुङ्, क्रुञ्चौ, क्रुञ्चः १ क्रुञ्चम्, क्रुञ्चौ, क्रुञ्चः २ क्रुञ्चा, क्रुङ्भ्याम्, क्रुङ्भिः ३ क्रुञ्चे, क्रुङ्भ्याम्, क्रुङ्भ्यः ४ क्रुञ्चः, क्रुङ्भ्याम्, क्रुङ्भ्यः ५ क्रुञ्चः, क्रुञ्चोः, क्रुञ्चाम् ६ क्रुञ्चि, क्रुञ्चोः, क्रुङ्षु क्रुङ्क्षु ७ स० प्रथमावत्॥
लवपुरम् = लाहौर। जयपुरम् = जयपुर। योधपुरम् = जोधपुर। उदयपुरम् = उदयपुर। लक्ष्मणपुरम् = लखनौ। पुरुषपुरम् = पेशावर। कर्णपुरम् = कानपुर। वाराणसी = बनारस। प्रयागः = इलाहाबाद। कालिकता = कलकत्ता। मुम्बापुरी = बम्बई। मयराष्ट्रम् = मेरठ। अजमीढः = अजमेर। स्रुघ्नः = आगरा। पाटलिपुत्रम् = पटना। अवन्तिपुरी = उज्जैन। कृष्णपुरी = मथुरा॥
(पयोमुच् शब्दः) बादल।
पयोमुक्-ग्, पयोमुचौ, पयोमुचः १ पयोमुचम्, पयोमुचौ, पयोमुचः २ पयोमुचा, पयोमुग्भ्याम्, पयोमुग्भिः ३ पयोमुचे, पयोमुग्भ्याम्, पयोमुग्भ्यः ४ पयोमुचः, पयोमु-
ग्भ्याम्, पयोमुग्भ्यः ५ पयोमुचः, पयोमुचोः, पयोमुचाम् ६ पयोमुचि, पयोमुचोः, पयोमुक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(महत् शब्दः) बड़ा।
महान्, महान्तौ, महान्तः १ महान्तम्, महान्तौ, महतः २ महता, महद्भ्याम्, महद्भिः ३ महते, महद्भ्याम्, महद्भ्यः ४ महतः, महद्भ्याम्, महद्भ्यः ५ महतः, महतोः, महताम् ६ महति, महतोः, महत्सु ७ स० महन्! हे महान्तौ, हे महान्तः।
(ददत् शब्दः) देता हुआ
ददत्, ददतौ, ददतः १ ददतम, ददतौ ददतः २ ददता, ददद्भ्याम्, ददद्भिः ३ ददते, ददद्भ्याम्, ददद्भ्यः ४ ददतः, ददद्भ्याम्, ददद्भ्यः १ ददतः, ददतोः, ददताम् ६ ददति, ददतोः, ददत्सु ७ स० प्रथमावत् इसी प्रकार जक्षत् (खाताहुआ) जाग्रत् ( जागताहुआ) दरिद्रत् (कंगाल होताहुआ) शासत् (शिक्षा करताहुआ) चकाशत् (प्रकाश करता हुआ) के रूप होते हैं
(तादृश शब्दः) तैसा
तादृक्-ग्, तादृशौ तादृशः १ तादृशम्, तादृशौ, तादृशः
२ तादृशा, तादृग्भ्याम्, तादृग्भिः ३ तादृशे, तादृग्भ्याम्, तादृग्भ्यः ४ तादृशः, तादृग्भ्याम्, तादृग्भ्यः ५ तादृशः, तादृशोः, तादृशाम् ६ तादृशि, तादृशोः, तादृक्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(विश् शब्दः) प्रवेशकर्त्ता
विट्-विड्, विशौ, विशः १ विशम् विशौ, विशः २ विशा, विड्भ्याम्, विड्भिः २ विशे, विड्भ्याम्, विड्भ्यः ४ विशः, विड्भ्याम्, विड्भ्यः ५ विशः, विशोः, विशाम् ६ विशि, विशोः, विटत्सु, विट्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(नश्शब्दः) नाशवान्
नक्-ग्, ट् ड्, नशौ, नशः १ नशम्, नशौ, नशः २ नशा, नड्-ग्भ्याम्, नड्-ग्भिः ३ नशे नड्-ग्भ्याम्, नड्-ग्भ्यः ४ नशः, नड्-ग्भ्याम्, नड्-ग्भ्यः ५ नशः, नशोः नशाम् ६ नशि, नशोः, नक्षु, नट्त्सु, नट्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(भाषा बनाओ)
युष्माकं युञ्जः खञ्जः सन्ति। एते राजानो विश्वराजि विश्वासं कुर्वन्ति। तस्मै सुपदे नमोऽस्तु मे। एतस्याऽग्निमथो भृज्जः पात्रं वरं नास्ति। भवतस्तरवो नगरात् प्राचि प्रतीचि उदीचि वा दिशि सन्ति। तिरश्चां कुटिला गतिः। यादृक् करणं ताद्रक् भरणम् मितीश्वरीयनियमः।
(षष् शब्दः) छः
षट् ड् १ षट्ड्, २ षड्भिः ३ षड्भ्यः, षट्भ्यः ५ षण्णाम् ६ षट्त्सु षट्सु ७
(पिपठिस् शब्दः) पढ़ने की इच्छा करनेवाला
पिपठीः, पिपठिषौ, पिपठिषः, १ पिपठिषम्, पिपठिषौ, पिपठिषः २ पिपठिषा, पिपठीर्भ्याम्, पिपठीर्भिः, ३ पिपठिषे, पिपठीर्भ्याम्, पिपठीर्भ्यः ४ पिपठिषः, पिपठीर्भ्याम्, पिपठीर्भ्यः ५ पिपठिषः, पिपठिषोः, पिपठिषाम् ६ पिपठिषि, पिपठिषोः, पिपठीःषु-ष्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(चिकीर्ष् शब्दः) करनेकी इच्छा करनेवाला।
चिकीः, चिकीर्षौ, चिकीर्षः १ शेष रूप पिपठिष्वत्॥
(विद्वस् शब्दः) आलिम।
विद्वान्, विद्वांसौ, विद्वांसः १ विद्वांसम्, विद्वांसौ, विदुषः २ विदुषा, विद्वद्भ्याम्, विद्वद्भभिः ३ विदुषे, विद्वद्भ्याम्, विद्वद्भ्यः ४ विदुषः, विद्वद्भ्याम्, विद्वद्भ्यः ५ विदुषः, विदुषोः विदुषाम्६ विदुषि, विदुषोः विद्वत्सु ७ हे विद्वन्! हे विद्वांसौ, हे विद्वांसः॥
(पुंस् शब्दः) पुरुष।
पुमान्, पुमांसौ, पुमांसः१ पुमांसम्, पुमांसौ, पुंसः २
पुंसा, पुंभ्याम्, पुंभिः ३ पुंसे, पुंभ्याम्, पुंभ्यः ४ पुंसः, पुंभ्याम्, पुंभ्यः ५ पुंसः, पुंसोः, पुंसाम् ६ पुंसि, पुंसोः, पुंसु ७ हे पुमन्, हे पुमांसौ, हे पुमांसः।
(उशनस् शब्दः) शुक्र।
उशना, उशनसौ, उशनसः १ उशनसम्, उशनसौ, उशनसः २ उशनसा, उशनोभ्याम्, उशनोभिः ३ उशनसे, उशनोभ्याम्, उशनोभ्यः ४ उशनसः, उशनोभ्याम्, उशनोभ्यः ५ उशनसः, उशनसोः, उशनसाम् ६ उशनसि, उशनसोः, उशनस्सु ७ स० हे उशनन्–उशनः–उशन, हे उशनसौ, हे उशनसः॥
(अनेहस् शब्दः) समय
अनेहा, अनेहसौ, अनेहसः १ अनेहसम्, अनेहसौ, अनेहसः २ अनेहसा, अनेहोभ्याम्, अनेहोभिः ३ अनेहसे, अनेहोभ्याम्, अनेहोभ्यः ४ अनेहसः, अनेहोभ्याम्, अनेहोभ्यः ५ अनेहसः, अनेहसोः, अनेहसाम्, ६ अनेहसि, अनेहसोः, अनेहस्सु,७ स० हे अनेहः! हे अनेहसौ, हे अनहसः
(वेधस् शब्दः) विधाता
वेधाः, वेधसौ, वेधसः १ शेषरूप अनेहस्वत्॥
(अदस् शब्दः) वह
असो, अमू, अमी १ अमुम्, अमू, अमून् २ अमुना, अमूभ्याम्, अमीभिः ३ अमुष्मै, अमूभ्याम्, अमीभ्यः ४ अमुष्मात्, अमूभ्याम्, अमीभ्यः ५ अमुष्य, अमुयोः, अमीषाम् ६ अमुष्मिन्, अमुयोः, अमीषु ७॥
(धनिन् शब्दः) धनवान्
धनी, धनिनौ, धनिनः १ धनिनम्, धनिनौ, धनिनः २ धनिना, धनिभ्याम्, धनिभिः ३ धनिने, धनिभ्याम्, धनिभ्यः ४ धनिनः, धनिभ्याम्, धनिभ्यः५ धनिनः, धनिनोः, धनिनाम् ६ धनिनि, धनिनोः, धनिषु ७ स० हे धनिन्! हे धनिनौ हे धनिनः
(क्वसु प्रत्ययान्त तस्थिवस् शब्दः) ठहराहुआ।
तस्थिवान्, तस्थिवांसौ, तस्थिवांसः १ तस्थिवांसम्, तस्थिवांसौ, तस्थुषः २ तस्थुषा, तस्थिवद्भ्याम्, तस्थिवद्भिः ३ तस्थुषे, तस्थिवद्भ्याम्, तस्थिवद्भ्यः ४ तस्थुषः, तस्थिवद्भ्याम्, तस्थिवद्भ्यः ५ तस्थुषः, तस्थुषोः, तस्थुषाम् ६ तस्थुषि, तस्थुषोः, तस्थिवत्सु ७ स० हे तस्थिवन्!॥
(शुश्रुवस् शब्दः) सुनताहुआ
शुश्रुवान्, शुश्रुवांसौ, शुश्रुवांसः १ शुश्रवांसम्, शुश्रवां-
सौ, शुश्रुवुषः२ शुश्रुवुषा, शुश्रुवद्भ्याम्, शुश्रुवद्भिः३ शुश्रूषुषे, शुश्रुवद्भ्याम्, शुश्रुवद्भ्यः ४ शुश्रुवुषः, शुश्रुवद्भ्याम्, शुश्रुवद्भ्यः ५ शुश्रुवुषः, शुश्रुवुषोः, शुश्रुवुषाम् ६ शुश्रुवुषि, शुश्रुवुषोः, शुश्रुवत्सु ७। स० हे शुश्रुवन्!॥
इति हलन्तपुँल्लिङ्गप्रकरणम्॥
बलिष्ठः = बहुत बलवान्। कनिष्ठः = छोटा। घनिष्ठः = बहुत गाढा। दविष्ठम् = बहुतदूर। पटिष्ठः = बहुतचतुर। धर्म्मिष्ठः = बहुत धर्मात्मा। पापिष्ठः = बडा पापी। भूयिष्ठम् = बहुतही। हस्ताक्षेपः = दस्तन्दाजी॥
अथ हलन्तस्त्रीलिङ्ग प्रकरणम्।
(हान्त उपानह् शब्दः) जूता
उपानत्, द् उपानहौ, उपानहः १ उपानहम्, उपानहौ, उपानहः २ उपानहा, उपानद्भ्याम्, उपानद्भिः ३ उपानहे, उपानद्भ्याम्, उपानद्भ्यः ४ उपानहः, उपानद्भ्याम्, उपानद्भ्यः ५ उपानहः, उपानहोः, उपानहाम् ६ उपानहि, उपानहोः, उपानत्सु ७ स० प्रथमावत्॥
(हान्त उष्णिह् शब्दः)
उष्णिक्, ग्, उष्णिहौ, उष्णिहः १ उष्णिहम्, उष्णिहौ,
उष्णिहः २ उष्णिहा, उष्णिग्भ्याम्, उष्णिग्भिः३ उष्णिहे, उष्णिग्भ्याम्, उष्णिग्भ्यः ४ उष्णिहः, उष्णिग्भ्याम्, उष्णिग्भ्यः ५ उष्णिहः, उष्णिहोः, उष्णिहाम् ६ उष्णिहि, उष्णिहोः, उष्णिक्षु ७ स० प्रथमावत्।
(वान्तोदिव् शब्दः) आकाश
द्यौः, दिवौ, दिवः १ दिवम्, दिवौ, दिवः २ दिवा, द्युभ्याम्, द्युभिः ३ दिवे, द्युभ्याम्, द्युभ्यः ४ दिवः, द्युभ्याम्, द्युभ्यः ५ दिवः, दिवोः, दिवाम् ६ दिवि, दिवोः द्युषु
(रेफान्तो गिर् शब्दः) वचन
गीः, गिरौ, गिरः १ गिरम्, गिरौ, गिरः २ गिरा, गीर्भ्याम्, गीर्भिः ३ गिरे, गीर्भ्याम्, गीर्भ्यः ४ गिरः, गीर्भ्याम्, गीर्भ्यः ५ गिरः, गिरोः, गिराम् ६ गिरि, गिरोः, गीर्षु॥ एवं ‘पुर्’ शब्दस्यरूपाणि विज्ञेयानि॥
(रेफान्तश्चतुर् शब्दः) चार
चतस्रः १ चतस्रः २ चतसृभिः ३ चतसृभ्यः ४ चतसृभ्यः ५ चतसृणाम् ६ चतसृषु॥
(मान्तः किम् शब्दः) कौन
का, के, काः १ काम, के, काः २ कया, काभ्याम्,
काभिः३ कस्यै, काभ्याम्, काभ्यः ४ कस्याः, काभ्याम्, काभ्यः ५ कस्याः, कयोः, कासाम् ६ कस्याम्, कयोः, कासु॥
(मान्त इदम् शब्दः) यह
इयम्, इमे, इमाः १ इमाम्, एनाम् इमे, एने इमाः एनाः २ अनया, एनया आभ्याम्, आभिः ३ अस्यै, आभ्याम्, आभ्यः ४ अस्याः, आभ्याम्, आभ्यः ५ अस्याः, अनयोः, एनयोः आसाम् ६ अस्याम्, अनयोः, एनयोः आसु।
(दान्तस्त्यद् शब्दः)
स्या, त्ये, त्याः १ त्याम्, त्ये, त्याः २ त्यया, त्याभ्याम्, त्याभिः ३ त्यस्यै, त्याभ्याम्, त्याभ्यः ४ त्यस्याः, त्याभ्याम्, त्याभ्यः ५ तस्याः, तयोः, त्यासाम् ६ त्यस्याम्, त्ययोः, त्यासु॥ एव मेव तद् यद् एतद् शब्दानां रूपाणि बोध्यानि॥
(चान्तः वाच् शब्दः) वाणी
वाक्, ग्, वाचौ, वाचः १ वाचम्, वाचौ, वाचः २ वाचा, वाग्भ्याम्, वाग्भिः ३ वाचे, वाग्भ्याम्, वाग्भ्यः ४ वाचः, वाग्भ्याम्, वाग्भ्यः ५ वाचः वाचोः, वाचाम् ६ वाचि, वाचोः, वाक्षु॥
(पान्तोऽप् शब्दः) जल
आपः १ अपः २ अद्भिः ३ अद्भ्यः ४ अद्भ्यः ५ अपाम् ६ अप्सु ७॥
(शान्तोदिश् शब्दः) दिशा
दिक्, ग्, दिशौ, दिशः १ दिशम्, दिशौ, दिशः २ दिशा, दिग्भ्याम्, दिग्भिः ३ दिशे, दिग्भ्याम्, दिग्भ्यः ४ दिशः, दिग्भ्याम्, दिग्भ्यः ५ दिशः दिशोः, दिशाम् ६ दिशि, दिशोः, दिक्षु॥
(भाषा बनाओ)
भवतेयमुपानत् कियतामूल्येन क्रीता?। तिसृभिर्मुद्राभिः। द्यौः शान्तिः। चतस्रोऽवस्था शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित्परिहाणिश्चेति। अद्यस्त्रीसमाजे कासांकासां विदुषीनामबलानां व्याख्यानानि भविष्यन्ति?। श्रीमत्याः सरलादेव्याः सावित्रीदेव्याः प्रियंवदायाश्च। वाचमुवाचकौत्सः। अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति। चतसृषुदिक्षु परिभ्रम्य समागतोऽहम्॥
(संस्कृत बनाओ)
आपने यह जूता कितने में लियाहै। चार रूपये में। हे
परमात्मन्! आशाक शान्तिमय हो। देहकी चार दशा होतीहै बृद्धियौवन सम्पूर्णता और चतुर्थी ह्रासयुक्त। आजमहिला परिषद् में किन २ विदुषी स्त्रियोंके व्याख्यान होंगे?। श्रीमती सरलादेवी सावित्रीदेवी और प्रियंवदाजीके। जल से शरीर के अवयव शुद्ध होतेहैं। चारों दिशामें घूमकर आयाहूँ॥
(शान्तो दृश्शब्दः) देखना।
दृक्, ग्, दृशौ, दृशः १ दृशम्, दृशौ, दृशः २ दृशा, दृग्भ्याम्, दृग्भिः ३ दृशे दृग्भ्याम्, दृग्भ्भ्यः ४ दृशः, दृग्भ्याम्, दृग्भ्यः ५ दृशः, दृशोः, दृशाम्६ दृशि, दृशोः दृक्षु॥
(षान्तस्त्विष् शब्दः) प्रकाश
त्विट्, ड्, त्विषौ, त्विषः १ त्विषम्, त्विषौ, त्विषः २ त्विषा, त्विड्भ्याम्, त्विड्द्भिः ३ त्विषे, त्विड्भ्याम्, त्विड्भ्यः ४ त्विषः, त्विड्भ्याम्, त्विड्भ्यः ५ त्विषः, त्विषोः त्विषाम् ६ त्विषि, त्विषोः, त्विट्त्सु, त्विट्सु ॥
(षान्तः सजुष् शब्दः) साथमें॥
सजूः, सजुषौ, सजुषः १ सजुषम्, सजुषौ, सजुषः २ सजुषा, सजूर्भ्याम्, सजूर्भिः ३ सजुषे, सजूर्भ्याम्, सजूर्भ्यः ४ सजुषः, सजूर्भ्याम्, सजूर्भ्यः५ सजुषः, सजुषोः, सजुषाम् ६ सजूषि, सजुषोः, सजूःषु, ष्षु॥ एवमाशीः॥
(सान्तोऽदस् शब्दः) वह
असौ, अमू, अमूः १ अमूम्, अमू, अमूः २ अमुया, अमूभ्याम्, अमूभिः ३ अमुष्यै, अमूभ्याम्, अमूभ्यः ४ अमुभ्याः, अमूभ्याम्, अमूभ्यः ५ अमुष्याः, अमुयोः, अमूषाम् ६ अमुस्याम्, अमुयोः अमूषु॥
इतिहलन्त स्त्रीलिङ्गप्रकरणम्॥
सहृदयः = दयालु प्रवणः = चतुष्पथ, चौराहा। धावल्यम् = सफेदी। अधीरः = भीरुः। कथङ्कारम् = क्यों। अङ्कः = गोद। साधुवादः = मुवारिकवादी। शुभसंवादः = खुशखबरी। क्षुभितः = व्याकुल। हर्षः = खुशी। विषादः = रंज। प्रणिपातः = अदव। प्रकम्पनम् = कांपना। चङ्क्रर्मणम् = बार२घूमना । तोलनम् = तोलना। मापनम् = नापना। प्रभातम् = प्रातःकाल, सुबह। प्रवरः = श्रेष्ठ, अच्छा।
भाषा वनाओ॥
सहृदयानां मित्राणामुपदेशं हृदि धारयामेि। चतुष्पथे सन्ति न वञ्चकास्ते। ददामि साधुवादांस्ते। कीदृशः शुभसंवादः श्रोतुमिच्छामि भो सखे! हर्षविषादौ कथङ्कारं भवतः। अभूत्सनम्रः प्रणिपातशिक्षया। विषं चङ्क्रमणं रात्रौ। प्रभातं
प्रभूतं तमस्तद्गतम्। वचस्तत्र प्रयोक्तव्यं यत्रोक्ते लभते फलम्। मद्यपानां मांसाशकानां च बुद्धिर्विपरीता भवति, अत एव बुद्धिमद्भिराभ्यां दूरंस्थेयम्।
संस्कृतवनाओ॥
मेहरवानमित्रों के उपदेशको हृदयमें धारण करताहूं। वेवञ्चक चौराहे पर नहींहैं। आपकेलिये मुवारिकवादी देता हूं हे मित्र! कैसी खुशखबरी है उसको सुनना चाहताहूं। हर्ष विषाद क्यों होता है? प्रणपातकी शिक्षा से वह नम्र हुआ॥
अथ हलन्त नपुंसकलिङ्गप्रकरणम्।
(स्वनडुह् शब्दः) सुन्दर बैल वाला कुल।
स्वनडुद् -त्, स्वनडुही, स्वनड्वांहि १ स्वडुद्-त्, स्वनडुही, स्वनड्वांहि २॥ *
(वार् शब्दः) जल
वाः, वारी, वारि१ वाः, वारी, वारि २ वारा, वार्भ्याम्, वार्भिः ३ वारे, वार्भ्याम्, वार्भ्यः ४ वारः, वार्भ्याम्, वार्भ्यः५ वारः, वारोः, वाराम्, ६ वारि, वारोः, वार्षु ७ स० प्रथमावात्॥
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* प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के जहां केवल रूप लिखे गये हों वहाँ शेषरूप पुँल्लिङ्गवत् समझना चाहिये॥
**(किम् शब्दः) कौन। **
किम्, के, कानि १ किम्, के, कानि २॥
(इदम् शब्दः) यह।
इदम्, इमे, इमानि १ इदम्, एनत्, इमे, एने, इमानि, एतानि २॥
(एतद् शब्दः) यह।
एतत्, एते, एतानि १ एतत्, एते, एतानि २॥
(ब्रह्मन् शब्दः) ईश्वर।
ब्रह्म, ब्रह्मणी, ब्रह्माणि १ ब्रह्म, ब्रह्मणी, ब्रह्माणि २॥
(अहन् शब्दः) दिन।
अहः, अहनी, अहानि १ अहः, अहनी, अहानि २ अह्ना, अहोभ्याम्, अहोभिः ३ अह्ने, अहोभ्याम्, अहोभ्यः ४ अह्नः, अहोभ्याम्, अहोभ्यः ५ अह्नः, अह्नोः, अह्नाम् ६ अह्नि, अह्नोः, अहस्सु ७ स० प्रथमावत् ॥
(दण्डिन् शब्दः) दण्ड ग्रहणकर्त्ता कुल।
दण्डि, दण्डिनी, दण्डीनि १ दण्डि, दण्डिनी, दण्डीनि २॥
(सुपथिन् शब्दः) सुपथगामी कुल
सुपथि, सुपथी, सुपन्थानि १ सुपथि, सुपथी, सुपन्थानि २
(ऊर्ज् शब्दः) वलीकुल।
ऊर्क्-ग्, ऊर्जी, ऊनर्जि १ ऊर्क्-ग्, ऊर्जी, ऊनर्जि २ ऊर्जा, ऊर्ग्भ्याम्, ऊर्ग्भिः ३ ऊर्जे, ऊर्ग्भ्याम्, ऊर्ग्भ्यः ४ ऊर्जः, ऊर्ग्भ्याम्, ऊर्ग्भ्यः ५ ऊर्जः, ऊर्जोः, ऊर्जाम् ६ ऊर्जि, ऊर्जोः, ऊर्क्षु ७ स० प्रथमावत्॥
(तद् शब्दः) वह
तत्, ते, तानि, १ तत्, ते तानि २
(यद् शब्दः) जो
यद्, ये, यानि १ यद्, ये, यानि २
(शकृत् शब्दः) विष्ठा
शकृत्, शकृती, शकृन्ति १ शकृत, शकृती, शकृन्ति २ शकृता, शकृद्भ्याम्, शकृद्भिः ३ शकृते, शकृद्भ्याम्, शकृद्भ्यः ४ शकृतः, शकृद्भ्याम्, शकृद्भ्यः ५ शकृतः, शकृतोः, शकृताम् ६ शकृति, शकृतोः, शकृत्सु, स० प्रथमावत्॥
(ददत् शब्दः) देताहुआ कुल
ददत्-द्, ददती, ददन्ति–ददति १ ददत्-द्, ददती, ददन्ति-ददति २
(तुदत् शब्दः) पीडा देताहुआ कुल
तुदत्-द्, तुदन्ती, तुदती, तुदन्ति १ तुदत्-द्, सुदन्ती-
तुदती, तुदन्ति २ शेषरूप ददत् शब्दके समान।
(भात् शब्दः) प्रकाश
भात्-द्, भाती, भान्ती, भान्ति, १ भात्-द्, भान्ती-भाती, भान्ति २ शेष रूप तुदत् पुंवत्॥
(पचत् शब्दः) पकाताहुआ कुल
पचत्, पचन्ती, पचन्ति १ पचत्, पचन्ती, पचन्ति २
(दीव्यत् शब्दः) खेलताहुआ कुल
दीव्यत्-द्, दीव्यन्ती, दीव्यन्ति १ दीव्यत्-द्, दीव्यन्ती, दीव्यन्ति २ शेष रूप तुदत् वत्॥
(धनुष् शब्दः) चाप।
धनुः, धनूषी, धनूंषि १ धनुः, धनुषी, धनूंषि २ धनुषा, धनुर्भ्याम्, धनुर्भिः ३ धनुषे, धनुर्भ्याम्, धनुर्भ्यः ४ धनुषः, धनुर्भ्याम्, धनुर्भ्यः ५ धनुषः, धनुषोः, धनुषाम् ६ धनुषि, धनुषोः, धनुःषु-धनुष्षु ७ स० प्रथमावत्॥
इसीप्रकार चक्षुष् (आंख) हविष (होमकी सामग्री) पयस् (जल) ओकस् (स्थान) शब्दों के रूप होते हैं॥
(सुपुंस् शब्दः) श्रेष्ठ पुरुषोंका कुल
सुपुम्, सुपुंसी, सुपुमांसि १ सुपुम्, सुपुंसी, सुपुमांसि २ सुपुंसा, सुपुंभ्याम्, सुपुंभिः३ सुपुंसे, सुपुंभ्याम्, सुपुंभ्यः ४
सुपुंसः, सुपुंभ्याम्, सुपुंभ्यः ५ सुपुंसः, सुपुंसोः, सुपुंसाम् ६ सुपुंसि, सुपुंसोः, सुपुंसु ७ स० प्रथमावत्॥
(अदस् शब्दः) वह
अदः, अमू, अमूनि १ अदः, अमू, अमूनि २
इति हलन्तनपुंसकलिङ्गाः शब्दाः समाप्ताः॥
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याचनम् = मांगना। नर्त्तनम् = नाचना। कर्त्तनम् = काटना। निक्षेपणम् = फेंकना। प्रेषणम् = भेजना। वादनम् = बजाना। शयनम् = सोना। जागरणम् = जागना। अवलम्बनम् = सहारा। करणम् = करना। भरणम् = भरना। धरणम् = धरना। अध्ययनम् = पढ़ना। अध्यापनम् = पढ़ाना। मानम् = तौलना। दर्शनम् = देखना। निष्क्रमणम् = निकलना। प्रवेशनम् = घुसना। अवगुण्ठनम् = घूंघट। लुण्ठनम् = लेटना। आरोहणम् = चढ़ना। लम्बनम् = लटकना॥
अङ्गीकृतं सुकृतिनः परिपालयन्ति = अच्छे पुरुष अपने कौल को पूरा करते हैं। परोपकाराय सतां विभूतयः = सज्जनों का ऐश्वर्य दूसरों की मदद के लिये होता है। अधि-
कस्याधिकं फलम् = अधिक का अधिक फल होता है।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति = बुरे रास्ते पर चलनेवाले को भाई भी छोड़ देता है। अल्पविद्योमहागर्वी = थोड़ी विद्यावाला बहुत घमण्डी होता है। अविद्याजीवनं शून्यम् = विना विद्या के जीना बेफायदा है। अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयङ्करः = चञ्चल चित्तवाले पुरुष की प्रसन्नताभी डर को पैदा करने वाली होती है।
कस्यचित् किमपि नो हरणीयम् = किसीका कुछ भी न चुराना चाहिये। कुगेहिनीं प्राप्य गृहे कुतः सुखम्? = खोटी औरत को पाकर घर में कहां सुख। क्षितितले किं जन्म कीर्तिं विना = भूमि पर विना यश के जन्म निष्फल है। गतं न शोचामि कृतं न मन्ये = गये हुये का शोच नहीं करता और किये हुये का घमण्ड नहीं करता॥
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः = हित करनेवाला और मन को आनन्द देनेवाला वचन दुर्लभ है। गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणः = गुणी गुणको जाना करता है निर्गुणी नहीं। चिन्ता समं नास्ति शरीरशोषणम् = फिक्र के बराबर और कोई देह को सुखानेवाला नही है।
छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति = थोड़े दुःख में बहुत दुःख समुपस्थित होजाते हैं। दर्दुरा यत्र वक्तारस्तत्र मौनं हि शोभनम् = जहांपर मेडक व्याख्याता हों वहां पर चुप रहना ही अच्छा है। नये च शौर्ये च वसन्ति सम्पदः = न्याय और शूरतामें ही धन रहता है। निर्वाणदीपे किमु तैलदानम् = दीपकके समाप्त होजाने पर तेल देना निष्फल है। मतिरेव बलाद्गरीयसी = बुद्धि बलसे भी बड़ी है। मूर्खस्य किं शास्त्रकथा प्रसङ्गः = मूर्खको शास्त्रकी कथासे क्या। रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि = प्रथम किये हुये पुण्य रक्षा करते हैं। विद्या समं नास्ति शरीरभूषणम् = विद्याके बराबर और शरीरका जेवर नहीं है। विनाशकाले विपरीतबुद्धिः = कष्ट होनेके समय बुद्धि उलटी होजाती है। सम्पूर्णकुम्भो न करोति शब्दम् = पूरा भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता। संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति = सोहवतसेही दोष और गुण होते हैं। अर्द्धो घटो घोषमुपैति नूनम् = आधाघड़ा जरूरही बोलताहै। न पर्वताग्रे नलिनी प्ररोहति = पहाड़की चोटीपर कमलिनी नहीं पैदा होती। अन्धस्य दृष्टिरिव पुष्टिरिवातुरस्य = पीडित पुरुषकी पुष्टि अन्धे की दृष्टि के समान है।
साधारणोपदेशः।
ईश्वरः सर्वव्यापकोऽस्ति। यौष्माकीणानि समानि कार्याणीश्वरः पश्यति’तेन किमप्यज्ञातंनास्ति। तद्गृहं शीघ्रं नश्यति यस्मिन् गृहे सदा कलहोभवति। सज्जनां यत्कर्मारभते तन्मध्ये न त्यजन्ति। विपदि धैर्यमेव सहायतां ददाति। विद्यासमं नास्ति धनं जगत्याम्। प्रतिवासिभिः सहमेलनं रक्षणीयं जनैः समैश्चसह बन्धुवद् वर्तितव्यम्। शरीरं पवित्रं रक्षणीयं पवित्रैर्बालकैः सह समेजनाः स्नेहं कुर्वन्ति। अधर्मेण यद् धनमर्ज्यते4 तन्नतिष्ठति यथाऽऽगच्छति तथैव गच्छति।
साधारणोपदेशः (२)
कश्चिदपिजीवो न क्लेशनीयः, यथात्मनि सुखदुःखे भवस्तथैव सर्वत्र विज्ञेयम्। यः शुद्धभावेन कार्यं करोति जगदीश्वरस्तस्य सहायतां करोति। परोपकारिणो जनाः सुखिनो भवन्ति। योऽन्येषां वृद्धिं दृष्ट्वा विषीदति स सर्वदा दुःखं लभते। यत्कार्यं स्वकीयेऽधिकारेभवेत् तत्सत्यतया कार्यम्। यो युष्माकं विश्वासं कुर्यात्तेन सह विश्वासघातो-
न कर्तव्यः। कटुभाषणं कदापि न विधेयम्, कटुवचनं शायकवद् हृदि क्षतं5 करोति। दुर्जनानां सङ्गतिः कदापि न कर्तव्या, अनया हानिरेव भवति न च लाभः। दुर्जनाः स्वमित्रैः सहविश्वासघातं6 कुर्वन्ति, अतएव इत्थंभूतेषु नरेषु विश्वासो न विधेयः। धर्मकार्येषु विघ्नाबाहुल्येन भवन्ति, अत एव तत्करणे विलम्बो न कर्तव्यः।
साधारणोपदेशः (३)
शुभकर्मणां शुभं फलं भवति, अशुभकर्मणां चाशुभम्। मित्रं तदेवास्ति यदापत्काले न विजहाति7। शत्रुर्मधुरालापमपि8 कुर्यात्तथापि तस्य विश्वासो न कार्यः। महतामाज्ञा सर्वदा मन्तव्या, अनेनैव युष्माकं कल्याणमस्ति। अविचार्य9 किञ्चिदपित्कार्यं न कार्यम्, नतु पश्चात्पश्चात्तापं करिष्यथ। असत्यं न भाषणीयम्, असत्यभाषिणां10कश्चिदपि विश्वासं न करोति। सविद्यस्य11 नरस्य सर्वत्र प्रतिष्ठा भवति, मूढस्य12 चाऽप्रतिष्ठा भवति। सर्वेषां शुभचिन्तकतायां स्थेयं न चाऽशुभ चिन्तकतायाम्। मरणान्ते पापपुण्यमन्तरा13 नान्यत् सत्रा गच्छति। सर्वैः सह मधुरालापेन भाव्यं कटुवचनं केनापि सहनोच्चरणीयम्॥
साधारणोपदेशः (४)
सद्गुणैर्मनुष्याः पूज्यन्ते गुणमन्तरा कस्या प्यादरो न भवति। यथा शुकान् सारिका14श्च जनाः पालयन्ति न च काकान्15। शिक्षाप्रदानि वाक्यानि न रोचन्ते16, इदं प्रायकं दृष्टम् यथा यावत्कटुकं भेषजं न पीयते तावद् ज्वरो न नश्यति। महतां समीपे निवासेन लघवो17ऽपि महीयन्ते,18 इदं प्रत्यक्षमस्ति यथा लता वृक्षसदृशी वर्धते। उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये। पयः पानं भुजङ्गानां19 केवलं विषवर्धनम्। पापकर्माणि कृत्वा कश्चित् सुखं न कामयेत20 स कथं सुखभाग्21 भवेत्, यथा-अर्कवृक्षा22रोपणेन किमसौ आम्रो भवितुमर्हति अपितु न।
साधारणोपदेशः (५)
वेदः सत्यविद्यानां पुस्तकमस्ति तस्य पठनं पाठनं श्रवणं श्रावणं च मनुष्यमात्रस्य परमधर्मोऽस्ति। सत्यग्रहणकरणे असत्यस्य च परित्यागे सर्वदासर्वैरुद्यतेन भाव्यम्। सर्वाणि कर्माणि धर्मानुसारेण सत्यमसत्यं च विचार्य कर्तव्यानि। सर्वैः सहप्रीतिपूर्वकं धर्माणुसारेण यथायोग्यं वर्त्तितव्यम्॥ शिशवः! प्रभातमुत्थाय प्रागीश्वरस्य ध्यानं कुरुत येन युष्म-
दर्थं नानाविधानि23 वस्तूनि विरचितानि24। प्रातरुत्थाय यत्कार्यं क्रियते तस्मिन्मनः सम्यग् लगति। यथा पठनं प्रभाते भवति न तथेतरस्मिन् काले संजायते। प्रातःकाले यत् स्म्रियते न तच्छीघ्रं विस्म्रियते, बुद्धिश्च विवर्धते।
साधारणोपदेशः (६)
उपहासो25 बैरस्य मूलमस्ति, अत एवोपहासः केनापि सह न कर्तव्यः। यदि कश्चिद् युष्माकमुहपासं कुर्यादेवं वैरं च मन्येत तथापि युष्माभिर्नैवं कार्यम्, एवमेव करणेन युष्माकं कल्याणं भविष्यति। यो नरोऽनुपकारे26 उपकारं27 करोति स उत्तमः, योऽनुपकारेऽनुपकरं करोति स मध्यमः, यश्चोपकारेऽनुपकारं कुरुतेऽसौ नीचः। मातापित्राचार्याणां ये बालका अज्ञांमन्तारस्त एव सुखं भोक्तारो भवन्ति। अभिवादनशीलस्य28 नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्त आयुर्विद्यायशोबलम्। निम्नलिखितानां महानुभावानां जीवनचरितानि पठितुं योग्यानि। श्रीयुत शिवराजस्य महाराजप्रतापस्य विक्रान्तस्य रणजीतसिंहस्य। वेदमतप्रचारकस्य स्वामिदयानन्दस्य च॥
साधारणोपदेशः (७)
दुःखे केवलमीश्वर एव साहाय्यं करोति। तेनैव, अस्मदीयानि शरीराणि मातुरुदरे विरचितानि। तेनैव च सकलानीन्द्रियाणि दत्तानि। यैरिन्द्रियै रूपरसगन्धस्पर्शशब्दादीन् विषयान् गृह्णीमः। यथा नेत्रेण रूपं पश्यामः। जिह्वयारसमास्वादामहे। नासिकया गन्धं जिघ्रामः। त्वचा स्पर्शं विजानीमः। श्रोत्रेण शब्दं शृणुमः। इमानि विश्वानीन्द्रियाणि ज्ञानसाधनानि सन्ति। नेत्रे विकारेसति वयं द्रष्टुमसमर्थाः। सर्वं जगद् ध्वान्तमयं प्रतीयते। रसनायां विकारे सति मधुराम्ललवणकटुकषायतिक्तरसान् विज्ञातुमसमर्थाः। एवमेव सर्वत्र विज्ञेयम्। य इत्थमुपकर्ताकिं तस्याज्ञा नहि मन्तव्या? अपितु, अवश्यमेव मन्तव्या स्वप्नेऽपि न विस्मर्तव्या॥
साधारणोपदेशः (८)
धर्मस्य सार्वभौमानि कानि लक्षणानि? इति जिज्ञासा वर्तते। धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीरविद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥१॥ वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्॥ इति मनुमहाराजेन धर्मचिह्नानि प्रदर्शितानि। किमेतानि सार्वजनीनानि, उताहो विरुद्धानि?
विज्ञानदृष्ट्यातु सार्वजनीनानि परन्त्बन्धपरम्परयाग्रहदोषवृद्ध्या विरुद्ध विद्ययाच्चेदं सकलं प्रतीपं प्रतीयते। वेदविहितानि च यानि कर्माणि सन्ति तानि सार्वजनीनानि न तत्र पक्षपातत्वं प्रवरेण नरेण कदापि विज्ञेयम्॥
(पुत्र्याः पित्रे पत्रम्) प्रयागतः।
श्रीमनज्ञानध्वान्त29निवारक! विज्ञानप्रकाशक! प्रेमाकर30! परमपूज्यतम! पितः! अभिवादये
भवन्तमिमं हर्षप्रदं समाचारं श्रावयामि-वार्षिक्यां परीक्षायां सर्वासु कन्यकास्वहं प्रथमां संख्या सम्प्राप्तास्मि, पारितोषिके मह्यं पञ्चरूप्यकाणि विश्वेषां वेदानां समानि पुस्तकानिकौशेय31वस्त्रसंवेष्टितानि च मिलितानि येनेदानीं महमतीव संहर्षास्मि32 नूतनायां कक्षायामधुना मे प्रवेशो भविष्यति, अतएव नव्यानां पुस्तकानामावश्यकता भविष्यति तदर्थं विंशतिर्मुद्राः प्रेषणीयाः। मातुश्चरणौ संगृह्य मुहुर्मुहुः प्रणमामि—शेषं कुशलम्।
भावत्की33 पुत्री प्रियंवदा
माघशुक्ला १५ १९६७ वि०
मित्राय-पलाशम्। कर्णपुरतः।
प्रियतमाय सहृदयाय सुहृज्जनाय धर्मदत्ताय नमोऽस्तु। सखे! अद्यप्रभाते भावत्कं पलाशं समुपलब्धम् अधीच34 च सकलः35 समाचारोऽबोधि36।
आत्मनीनां37 परीक्षोत्तीर्णतां समाकर्ण्य38 प्रसीदामि39 परन्तु भावत्की33मनुत्तीर्णतां40 विज्ञाय विषीदामि41। अधुना पश्चात्तापकरणेन किं भवति यद् भूतं तद् भूतम्। ‘हेयं दुःखमनागतम्’ अनागतानि च यानि दुःखानि तेषां दूरीकरणाय नरेण प्रवरेण42 प्रयतितव्यमिति। येऽश्चारोहा43 भवन्ति त एव तु पतन्ति न च पेष्ट्र्यः44। नेदमवद्यं45 कार्यं यत्र च लज्जत भवान्। स्वकीयान् वर्तमानान् विचारान् विहाय पुनरापे विद्यालयगमनेन भाव्यमितिशम्॥
भवत्सखः-
त्रिविक्रमः। चैत्र शुक्लापञ्चमी ५ १९६७ वि०
कथा प्रथमा (१)
जले प्रतिबिम्बितस्य शुनः।
कश्चिंच्छ्वा46 मुखेऽपूपशकलं47 धृत्वा नद्याः परं गच्छन्नन्त48-
रात्मनः प्रतिबिम्बं49 तोये50ऽपश्यत्। तदाऽसौऽचिन्तयत्—‘यदयमपरः कुक्कुरो51ऽपूपखण्डं गृहीत्वा गच्छति’ इति। तस्मात्तं शकलं जिघृक्षु52र्लोभेन मुखमपावृत्य53 तदादातुं यावत् प्रवृतस्ता54वत्तन्मुखादपूपशकलमुदके पतितं तन्नद्यां जगाम। पुनः स तन्न लेभे॥
तात्पर्यम्।
य ईश्वरेण दत्तेऽर्थे55 सन्तोषमनवाप्या56ऽन्यस्यार्थं गृहीतुं वाञ्छति तस्येतर57स्माल्लाभो न जायत एव। अन्यच्च स्वीयोऽर्थोऽपि नश्यति॥
कथा द्वितीया (२)
जम्बुकद्राक्षाफलानाम्58।
कश्चिज्जम्बुकः क्षुत्क्षामकण्ठः59 परिभ्रमन् द्राक्षामण्डपमभ्यैत् तत्रागत्योर्ध्व विलोकयता तेन बहवो दर्शनीयाः60 पक्वफलानां स्तवका लम्बमाना61 अदर्शिषत62। परंच मण्डपस्योच्छ्रिततयैकमपि63 फलं न विबिन्दे। उत्पतस्तुंशश्राम। अन्ततः64 कि
यद्दूरं गत्वा पश्चाद्द्राक्षामण्डपे दृष्टिं विधाय भर्त्सनापूर्वमिदमाह65 ‘गृह्णातु नाम कोऽप्येतानि फलानि। अहंत्वपक्वा न्यम्लानी66ति संत्यज्य गच्छामि’।
तात्पर्यम्॥
केचन67 नरा अलभ्यवस्तुनि68 कमपि दोषेमारोप्या69त्मनो70 लघिमानं71 छादयन्ति72। नेदं साधुकृत्यम्॥
कथा तृतीया (३)
आदित्येक्रमेलयोः73।
एकदा कश्चित् क्रमेलक् आदित्यं सप्रश्रयं74 याचितवान्—“भो आदित्य! यथा गोमहिषादयः शृङ्गिणः कृता भवता तथा किमहं न क्रिये। विषाणैरा75प्तैरहं शत्रुभ्यस्त्राणं76 विधास्यामि। एतां मे विज्ञपिं श्रोतुमर्हति देवः”। तं भगवानादित्योवदति “रे मूढ! यन्मया तुभ्यं दत्तं तदलं विचार्यैव दत्तम्। तेन सन्तुष्टेन त्वया भाव्यम्। तदकृत्वा यदन्यस्मै दत्तं तत्पुरस्कृत्य तद्याचसे। अस्य धृष्टत्वस्य दण्डं तर्ह्याप्नुहि। तव कर्णौ ह्रस्वौ। भविष्यतस्त्वं चातिभार वाहको भविष्यसि”॥
तात्पर्यम्।
अस्मिञ्जगतीशेन यद्यद्दत्तं तत्तदुपपन्नमेव77। ये तदन्यथा
कर्त्तुं यतन्ते तेऽसमीक्ष्यकारिणो78 मूढा इति वक्तव्यम्। ईदृशानामुपाया निष्फला भवन्ति। अपि च ते दुःखभाजो79 भवन्ति॥
कथा चतुर्थी (४)
पात्रयोः।
मृत्पात्रं रीतिपात्रं80 च नद्यास्तीर आस्ताम्। ऊर्ध्वप्रदेशादागतेन81 पूरणो82ह्यमानयोस्तयोर्मृत्पात्रं चिन्तापरं बभूव। रीतिपात्राभिधाते83 संवृत्तेऽहं भङ्क्तास्मि इति। दुःखितं तद्दृष्ट्वा रीतिपात्र तदुवाच “भोः, मा बिभीहि84। अहं त्वां रक्षिष्यामि” इति। मृत्पात्रं तदवदत्—भातर्दूरत एवं मां प्रतिभाषस्व85। त्वत्तोऽहमतीव बिभेमि। यतः परस्पराभिघाते नाशो ममैव भविष्यति॥
तात्पर्यम्।
श्रीमता सार्धं सम्बन्ध आप्तभावो86 वा दरिद्रं विपदि पातयति। श्रीमतः प्रातिवेश्य कलहेऽयं कलहं करोतु, स वा कलहं करोतु, दरिद्र एव नश्यति॥
कथा पञ्चमी (५)
हंसीमनुजयोः।
कस्यचिन्मनुजस्यावासे एका हंसी बभूव। सा प्रत्यहं87 स्वर्णस्यै88कमण्डं निचिक्षेप89। तद्गृह्णतस्तस्याशापचिलिरिष्टा90। परं तया उपचयोऽभवत्। सोऽचिन्तयत्—“अण्डनिर्गमस्थान मासादये91यमपारं धनमेकपद एवं लभेय92”। तदा स तस्या उदरं विदारयामास93। ततोयावदन्तरवलोकयति94 तावद्रिक्त95मेव ददर्श। पश्चाद् बह्वतप्यत96॥
तात्पर्यम्।
ईश्वरोजगदात्मा यं प्रति त्यागभोगापालं भविष्णु97 धनं ददाति तस्य संग्रहेच्छा चेन्मितव्ययेन98 तस्मादेव किञ्चित् स उद्धरेत्99। इदमनादृत्य100 योऽतिलोभेनाऽकाण्ड101 श्रीमान् भवितुमीहमानो102 महति साहस103 आत्मानं योजयति स साहसे बन्ध्य104 प्रयत्नो भूत्वा मूलधनमपि हारयति105॥
अष्टाध्यायी-भाष्य॥
जिसका क्रम इसप्रकार है, मूलसूत्र पदच्छेद विभक्ति वार्तिक संस्कृतवृत्ति तथा भाषावृत्ति एवं उदाहरण विशेष टिप्पनियोंके सहित है, मू० ३) सजिल्द ३।) डाकव्यय॥)
काशीकी प्रथमा व मध्यमापरीक्षा।
रघुवंश—द्वितीय सर्गसे पञ्चम सर्गतक सान्वयपर्यायवाचक शब्दयुक्त मू०।
रामायण महाभारत (परीक्षासङ्कलितांश) साँन्वय पर्यायवाचक शब्दयुक्त, मू०।
तर्कसङ्ग्रह–प्रत्येक परिभाषापर सलक्षण भिन्न २ संख्या देकर न्यायके गूढार्थको प्रचलित भाषामें सम्यक्दर्शायौह, मू०।
श्रुतबोध—सलक्षण सान्वय-पर्यायवाचकशब्दयुक्त
किरातार्जुनीयमाद्यसर्गत्रयम्—सान्वय-पर्यायवाचकशब्दयुक्त, मू०।
माघाद्यं सर्गद्वयात्मकम्—सान्ययपर्यायवाचकशब्दादियुक्त।
संस्कृतशिक्षा—परीक्षा देनेवाले तथा संस्कृत बोलनेका अभ्यास करनेवाले एवं अनुवादमें उत्तीर्ण होनेवाले विद्यार्थियोंके लिये यह अनर्घ्यरत्न है मू० प्रथमभाग, द्वितीय भाग, तृतीय भाग ,चतुर्थभाग डाकव्यय सब पुस्तकों का भिन्न होगा।
पुस्तकें मिलनेका पता—
**
प० जीवारामार्यः - मुरादाबाद.**
]
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“जलतुम्बिकान्यायेन रेफस्योर्ध्वगमनम्।” ↩︎
-
" इसके तीनो लिङ्गोमें ऐसे ही रूप होते हैं।" ↩︎
-
“पञ्चन्, सप्तन्, अष्टन्, नवन्, दशन् शब्दो के रूप तीनों लिङ्गो में सम होते हैं।” ↩︎
-
“इकट्ठा किया जाता है॥” ↩︎
-
“घाव” ↩︎
-
“धोखा देना” ↩︎
-
“छोड़ता है।” ↩︎
-
“मीठा बोलना” ↩︎
-
“विना विचारके” ↩︎
-
“झूठ बोलने वालोंका” ↩︎
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“पढ़े लिखेका” ↩︎
-
“मूर्खकी” ↩︎
-
“विना” ↩︎
-
“मैना” ↩︎
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“कव्वोंको” ↩︎
-
“अच्छे लगते हैं” ↩︎
-
“छोटे” ↩︎
-
“बड़े होजाते हैं” ↩︎
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“सांपोंका” ↩︎
-
“चाहे” ↩︎
-
“सुखी” ↩︎
-
“आकड़ेका पेड़” ↩︎
-
“बहुत तरह के” ↩︎
-
“बनाये हैं” ↩︎
-
“हँसीठट्टा” ↩︎
-
“बुराई” ↩︎
-
“भलाई” ↩︎
-
“प्रणाम कर्ता की” ↩︎
-
“अन्धकार” ↩︎
-
“प्रेमकीखान” ↩︎
-
“रश्मी” ↩︎
-
“खुश हूं " ↩︎
-
“आपकी” ↩︎
-
“पढ़कर” ↩︎
-
“सब” ↩︎
-
“जाना” ↩︎
-
“अपनी " ↩︎
-
“सुनकर” ↩︎
-
“प्रसन्न हू” ↩︎
-
“फेल” ↩︎
-
“दुखी हूं " ↩︎
-
“श्रेष्ठ” ↩︎
-
“सवार” ↩︎
-
“पीसनेवाली” ↩︎
-
“निन्दितः” ↩︎
-
“कोईकुत्ता” ↩︎
-
“पुये के टुकड़ेको” ↩︎
-
“जाताहुआ” ↩︎
-
“अपनी परछाई” ↩︎
-
“जल में” ↩︎
-
“कुत्ता” ↩︎
-
“पकडने वाला " ↩︎
-
“मुखको खोलकर” ↩︎
-
“लगा” ↩︎
-
“दिये हुये पदार्थ में” ↩︎
-
“सन्तुष्ट न होकर” ↩︎
-
“दूसरे से” ↩︎
-
“स्यार अंगूरोका” ↩︎
-
“भूंख से घवड़ाया हुआ” ↩︎
-
“सुन्दर” ↩︎
-
“लटकते हुये” ↩︎
-
“देखे” ↩︎
-
“ऊंचे होनेसे” ↩︎
-
“आखिरकार” ↩︎
-
" झिड़का के साथ यह बोला " ↩︎
-
“कच्चे और खट्टे” ↩︎
-
“कोई " ↩︎
-
“न प्राप्त होने योग्य पदार्थ में” ↩︎
-
“दोषलगाकर " ↩︎
-
“अपनी” ↩︎
-
“क्षुद्रभावको” ↩︎
-
“ढांकते हैं” ↩︎
-
“सूर्य और ऊंटका " ↩︎
-
“प्रेमके साथ " ↩︎
-
“सींगोंसे” ↩︎
-
“वचाव” ↩︎
-
“उचित है” ↩︎
-
“विचारशून्य” ↩︎
-
“दुःखके भागी " ↩︎
-
“पीतलका वर्तन " ↩︎
-
“ऊपरकी ओरसे आये हुयेसे।” ↩︎
-
“जलके समूहसे” ↩︎
-
“पीतलके पात्रका धक्का लगनेपर” ↩︎
-
“न डर " ↩︎
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“कहिये” ↩︎
-
“विश्वासका होना " ↩︎
-
“नित्य” ↩︎
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“सोनेका " ↩︎
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“छोड़तीथी " ↩︎
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“मनोरथहानिइष्टथी” ↩︎
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“प्राप्तकरू " ↩︎
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“लेलूं” ↩︎
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“फाड़डाला” ↩︎
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“देखता है” ↩︎
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“खाली " ↩︎
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“बहुत दुःखी हुआ " ↩︎
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“होनहार " ↩︎
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“उचितखर्चकरनेसे” ↩︎
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“निकाले " ↩︎
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“अनादरकरके” ↩︎
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“विनासमयके” ↩︎
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“चेष्टा करता हुआ” ↩︎
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“विना विचारे” ↩︎
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“प्रयत्नमें बन्धाहुआ " ↩︎
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“खोवैठता हैं " ↩︎