[[प्रथम-पाठावली Source: EB]]
[
[TABLE]
[TABLE]
[TABLE]
PREFACE.
—————
The present work, which is the first of a progressive series of readers, is intended for the use of beginners who have had elementary lessons in spelling and pronunciation.
The vocabulary of this book consists only of the most familiar words of the language. The use of compound words is carefully avoided. Such words as “पदार्थ, अभाव”. &c. are, however, used since they do not involve the usual intricacy of form or sense.
In the selection of subjects, the current English readers were largely consulted. The subjects included are interesting and instructive and are presented in a most comprehensible form. To heighten the effect of moral instruction fables are freely resorted to.
The lessons are so arranged as to make the earlier ones facilitate the study of the subsequent ones.
T. G.
Contents. | |||
1. | The sun. | 22. | Iron. |
2. | A boy. | 23. | Continued. |
3. | Continued. | 24. | A wicked traveller. |
4. | Classmates. | 25. | Continued. |
5. | A star. | 26. | The market-street. |
6. | A call to play. | 27. | A mule and an ass. |
7. | Continued. | 28. | A carpenter. |
8. | Do. | 29. | A foolish crow. |
9. | Do. | 30. | An old virgin. |
10. | The company of the good. | 31. | A dialogue. |
11. | Consideration. | 32. | Grass and roses. |
12. | A mountain. | 33. | The sovereignty ofIndia. |
13. | Moral. | 34. | Continued. |
14. | A lake. | 35. | Continued. |
15. | Continued. | 36. | The method of study. |
16. | The ant. | 37. | Avarice. |
17. | Continued. | 38. | The bat. |
18. | The detection of the thief. | 39. | The necessity of learning. |
19. | Schoolmaster. | 40. | Victoria Empress. |
20. | Continued. | 41. | God. |
21. | A writer. |
निवेदना।
—————
आङ्गलभाषापाठावलिभ्यो हृदयङ्गमान् बहून् विषयानुच्चित्य कतिपयान् स्वयमुल्लिख्य च सोपानक्रमेण बालानामुपकाराय मया विरचितासु ललितचूर्णकप्रायासु पाठावलीप्वेषा प्रथमा पाठावली। अक्षराणि धारया वाचयितुं शक्ता बाला एनामध्येतुमर्हन्ति। बालानां रुचिकराः सुकुमारा लौकिका विषयाः प्रतिपाठमस्यां प्रतिपाद्यन्ते। तेषु केचिद्वस्तूनां तत्त्वं, कल्पितकथारूपाः केचिन्नीतिं च बोधयन्ति। अत्रातिप्रसिद्धान्येव पदानि प्रयुक्तानि। समस्ताः शब्दाः प्रायेण न विद्यन्ते, विद्यमानास्तु कतिपये पदार्थः’ ‘अभावः’ ‘पाठशाला’ इत्यादयोऽतिप्रसिद्धत्वादसमस्तशब्दवदर्थतः स्वरूपतश्च सुगमा एव। अत्रोत्तरेषां पाठानां सुखावबोधो यथा स्यात्, तथा पूर्वे पाठा योजिताः।
त.गणपतिशास्त्रि।
विषयानुक्रमः | |||
विषयः | विषयः | ||
१. | सूर्यः. | २२. | अयः. (क) |
२. | बालः. (क) | २३. | अयः. (ख) |
३. | बालः. (ख) | २४. | दुष्टः पान्धः. (क) |
४. | सहपाठिनः. | २५. | दुष्टः पान्धः. (ख.) |
५. | नक्षत्रम्. | २६. | विपणिः. |
६. | क्रीडाया आह्वानम्. (क) | २७. | अश्वतरो गर्दभश्च. |
७. | क्रीडाया आह्वानम्. (ख) | २८. | तक्षा. |
८. | क्रीडाया आह्वानम्. (ग) | २९. | मूढः काकः. |
९. | क्रीडाया आह्वानम्. (घ) | ३०. | वृद्धा कुमारी. |
१०. | सद्भिः सहवासः. | ३१. | संवादः. |
११. | समीक्षा. | ३२. | तृणानि स्थलकमलानि च |
१२. | पर्वतः. | ३३. | भारतस्याधिपत्यम्. (क) |
१३. | नीतिः | ३४. | भारतस्याधिपत्यम्. (ख) |
१४. | सरः. (क) | ३५. | भारतस्याधिपत्यम्. (ग) |
१५. | सरः. (ख) | ३६. | अध्ययनस्य रीतिः |
१६. | पिपीलिका. (क) | ३७. | अत्याशा. |
१७. | पिपीलिका. (ख) | ३८. | वाग्गुदः. |
१८. | मुष्णतो ग्रहणम्. | ३९. | विद्याया आवश्यकता. |
१९. | उपाध्यायः. (क) | ४०. | विक्तोरिया चक्रवर्तिनी. |
२०. | उपाध्यायः. (ख) | ४१. | ईश्वरः. |
२१. | लेखकः. |
॥ श्रीः ॥
अ | आ | इ | ई | उ | ऊ | ऋ |
ॠ | लृ | लॄ | ए | ऐ | ओ | औ |
अं | अः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735282402Capture1.PNG"/>
क | ख | ग | घ | ङ | च | छ | ज | झ | ञ |
ट | ठ | ड | ढ | ण | त | थ | द | ध | न |
प | फ | ब | भ | म | य | र | ल | व | श |
ष | स | ह | ल | क्ष | ज्ञ |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735282415image_2024-12-27_122332103.png"/>
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | ० |
क | ख | ग | घ | ङ | च | छ |
का | खा | गा | घा | ङा | चा | छा |
कि | खि | गि | घि | ङि | चि | छि |
की | खी | गी | घी | ङी | ची | छी |
कु | खु | गु | घु | ङु | चु | छु |
कू | खू | गू | घू | ङू | चू | छू |
कृ | खृ | गृ | घृ | ङृ | चृ | छृ |
कॄ | खॄ | गॄ | घॄ | ङॄ | चॄ | छॄ |
क्लृ | ख्लृ | ग्लृ | घ्लृ | ङ्लृ | च्लृ | छ्लृ |
के | खे | गे | घे | ङे | चे | छे |
कै | खै | गै | घै | ङै | चै | छै |
को | खो | गो | घो | ङो | चो | छो |
कौ | खौ | गौ | घौ | ङौ | चौ | छौ |
कं | खं | गं | घं | ङं | चं | छं |
कः | खः | गः | घः | ङः | चः | छः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735283199image_2024-12-27_123638299.png"/>
ज | झ | ञ | ट | ठ | ड | ढ |
जा | झा | ञा | टा | ठा | डा | ढा |
जि | झि | ञि | टि | ठि | डि | ढि |
जी | झी | ञी | टी | ठी | डी | ढी |
जु | झु | ञु | टु | ठु | डु | ढु |
जू | झू | ञू | टू | ठू | डू | ढू |
जृ | झृ | ञृ | टृ | ठृ | डृ | ढृ |
जॄ | झॄ | ञॄ | टॄ | ठॄ | डॄ | ढॄ |
ज्लृ | झ्लृ | ञ्लृ | ट्लृ | ठ्लृ | ड्लृ | ढ्लृ |
जे | झे | ञे | टे | ठे | डे | ढे |
जै | झै | ञै | टै | ठै | डै | ढै |
जो | झो | ञो | टो | ठो | डो | ढो |
जौ | झौ | ञौ | टौ | ठौ | डौ | ढौ |
जं | झं | ञं | टं | ठं | डं | ढं |
जः | झः | ञः | टः | ठः | डः | ढः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735283512Capture.PNG"/>
ण | त | थ | द | ध | न | प |
णा | ता | था | दा | धा | ना | पा |
णि | ति | थि | दि | धि | नि | पि |
णी | ती | थी | दी | धी | नी | पी |
णु | तु | थु | दु | धु | नु | पु |
णू | तू | थू | दू | धू | नू | पू |
णृ | तृ | थृ | दृ | धृ | नृ | पृ |
णॄ | तॄ | थॄ | दॄ | धॄ | नॄ | पॄ |
ण्लृ | त्लृ | थ्लृ | द्लृ | ध्लृ | न्लृ | प्लृ |
णे | ते | थे | दे | धे | ने | पे |
णै | तै | थै | दै | धै | नै | पै |
णो | तो | थो | दो | धो | नो | पो |
णौ | तौ | थौ | दौ | धौ | नौ | पौ |
णं | तं | थं | दं | धं | नं | पं |
णः | तः | थः | दः | धः | नः | पः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735407876Screenshot2024-12-28231402.png"/>
फ | ब | भ | म | य | र | ल |
फा | बा | भा | मा | या | रा | ला |
फि | बि | भि | मि | यि | रि | लि |
फी | बी | भी | मी | यी | री | ली |
फु | बु | भु | मु | यु | रु | लु |
फू | बू | भू | मू | यू | रू | लू |
फृ | बृ | भृ | मृ | यृ | लृ | |
फॄ | बॄ | भॄ | मॄ | यॄ | लॄ | |
फ्लृ | ब्लृ | भ्लृ | म्लृ | य्लृ | ||
फे | बे | भे | मे | ये | रे | ले |
फै | बै | भै | मै | यै | रै | लै |
फो | बो | भो | मो | यो | रो | लो |
फौ | बौ | भौ | मौ | यौ | रौ | लौ |
फं | बं | भं | मं | यं | रं | लं |
फः | बः | भः | मः | यः | रः | लः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735407980Screenshot2024-12-28231544.png"/>
व | श | ष | स | ह | ल | क्ष | ज्ञ |
वा | शा | षा | सा | हा | ला | क्षा | ज्ञा |
वि | शि | षि | सि | हि | लि | क्षि | ज्ञि |
वी | शी | षी | सी | ही | ली | क्षी | ज्ञी |
वु | शु | षु | सु | हु | लु | क्षु | ज्ञु |
वू | शू | षू | सू | हू | लू | क्षू | ज्ञू |
वृ | शृ | षृ | सृ | हृ | लृ | क्षृ | ज्ञृ |
वॄ | शॄ | षॄ | सॄ | हॄ | लॄ | क्षॄ | ज्ञॄ |
व्लृ | श्लृ | ष्लृ | स्लृ | ह्लृ | ल्लृ | क्ष्लृ | ज्ञ्लृ |
वे | शे | षे | से | हे | ले | क्षे | ज्ञे |
वै | शै | षै | सै | है | लै | क्षै | ज्ञै |
वो | शो | षो | सो | हो | लो | क्षो | ज्ञो |
वौ | शौ | षौ | सौ | हौ | लौ | क्षौ | ज्ञौ |
वं | शं | षं | सं | हं | लं | क्षं | ज्ञं |
वः | शः | षः | सः | हः | लः | क्षः | ज्ञः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735408188Screenshot2024-12-28231544.png"/>
क्क | क्त | क्त्य | क्त्व | क्न | क्म | क्र | क्ल | क्व | क्ष्य | क्ष्म | क्ष्व | |
ख्य | ग्ध | ग्न | ग्म | ग्य | ग्र | ग्ल | ग्व | घ्न | घ्व | ङ्क | ङ्ख | ङ्ग |
ङ्घ | च्च | च्छ | च्न | च्म | च्य | च्र | च्व | ज्ज | ज्झ | ज्र | ज्न | ज्य |
ज्व | झ्र | झ्य | झ्व | ञ्च | ञ्ज | ट्ट | ठ्ठ | ड्ड | ढ्ढ | ट्य | ठ्य | ड्य |
ढ्य | ट्व | ठ्व | ड्व | ढ्व | ण्ट | ण्ठ | ण्ड | ण्ढ | ण्ण | ण्य | ण्व | त्त |
त्त्य | त्थ | त्र | त्र्य | त्न | त्प | त्म | त्व | त्स | त्प्र | त्फ्र | त्य | थ्य |
द्य | ध्य | द्ग | द्व | द्द | द्ध | द्घ | द्ब | द्ब्र | द्भ | भ्द्य | द्म | द्र |
द्न | व्द्य | ध्र | ध्न | ध्य | न्त | न्थ | न्द | न्ध | न्न | न्म | न्य | न्र |
न्व | प्त | प्र | प्न | प्य | प्प | प्म | फ्र | फ्ल | ब्र | ब्न | भ्र | भ्न |
भ्य | म्र | म्न | म्ल | म्य | ल्क | ल्व | ल्य | ल्ल | व्र | व्न | व्य | व्व |
श्र | श्च | श्च | श्व | श्न | श्ल | श्म | श्य | ष्क | ष्प्र | ष्फ्र | घ्र | ष्ट |
ष्ठ | ष्ट्य | ष्ठ्य | ष्ट्र | ष्ठ्र | ष्प | ष्फ | ष्ब | ष्ब | ष्भ | ष्म | ष्य | ष्र |
ष्व | स्क | स्ख | स्थ्य | स्त | स्थ | स्त्र | स्र | स्न | स्प | स्फ | स्म | स्य |
स्व | स्स | ह्ण | ह्व | ह्य | ह्म | त्क | कृ | थ्र | थ्न | ब्ज | ब्ध | श्श |
क्य | ख्य | ग्य | घ्य | ङ्य | च्य | छ्य | ज्य | झ्य | थ्य | फ्य | ब्य | भ्य |
ल्य | क्म | ख्म | ग्म | घ्म | च्म | छ्म | ज्ञ्य | म्प | म्फ | म्ब | म्भ | म्म |
य्य | ल्प | ल्ब | ल्भ | ल्म | ल्य |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735410048Screenshot2024-12-28235015.png"/>
रामः | कृष्णः | ग्रामः | अश्वः |
गजः | विप्रः | नृपः | वेदः |
ईश्वरः | जनकः | ब्राह्मणः | वृक्षः |
मनः पूतं कर्म समाचरेत्.
सत्यमप्यप्रियं न कथयेत्.
विद्या वितरेद्वाञ्छितमर्थम्.
सर्वं पश्येदात्मसमानम्.
पुरुषा विद्यया भान्ति राजानो विजयश्रिया।
श्रियोऽनुकूलदानेन लज्जया च कुलाङ्गनाः॥
पुस्तकस्था च या विद्या परहस्ते च यद्धनम्।
कार्यकाले समायाते न सा विद्या न तद्धनम्॥
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं सदैव तु॥
अहापयन्तः कालं चेत् प्रवर्तेमहि कर्मसु।
कल्याणानां समग्राणां सम्पद्येमहि भाजनम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735401638Screenshot2024-12-28213010.png"/>
श्रीः
प्रथमा पाठावली।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735401757Screenshot2024-12-28213213.png"/>
१.सूर्यः।
सूर्यः प्राच्यां दिश्युदयते। स प्रतीच्यां दिश्यस्तमयते। तस्य तेजसा पदार्थाः प्रकाशन्ते। तेन वयं जीवामः। पशवः पक्षिणश्च तेन जीवन्ति।
¹सूर्यः | ⁶प्रतीच्याम् | ¹¹वयम् |
²प्राच्याम् | ⁷अस्तम् | ¹²जीवामः |
³दिशि | ⁸तेजसा | ¹³पशवः |
⁴उदयते | ⁹पदार्थाः | ¹⁴पक्षिणः |
⁵सः | ¹⁰प्रकाशान्ते | ¹⁵च |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735401798Screenshot2024-12-28213213.png"/>
२.बालः (क)
रामो नाम कश्चिद् बालः प्रातः प्रबुध्यते स्म। तदानीं न सूर्य उदयते स्म।रामः प्रकाशस्याभावाद् दीपं तदा सम्पादयामास। दीपस्याग्रे स कांश्चित् क्षणान् पुस्तकं वाचयामास। ततः सूर्यः उदयाञ्चक्रे। बालः शीघ्रं स्नात्वाहारमकरोत्। ततः स पाठालयमगच्छत्।
¹नाम | ⁷अभावात् | ¹³ततः |
²कश्चिद् | ⁸दीपम् | ¹⁴स्नात्वा |
³बालः | ⁹सम्पादयामास | ¹⁵आहारम् |
⁴प्रातः | ¹⁰अग्रे | ¹⁶अकरोत् |
⁵प्रबुध्यते | ¹¹क्षणान् | ¹⁷पाठालयम् |
⁶तदानीम् | ¹²वाचयामास | ¹⁸अगच्छत् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735395443Screenshot2024-12-28194654.png"/>
३.बालः (ख)
उपाध्यायो राममधीतस्य पाठस्यार्थं पप्रच्छ।
सोऽर्थंसम्यगुवाच। तेनोपाध्यायो रामे प्रीतिं चकार। ततो रामस्य सहपाठिनो बालान् उपाध्यायः पाठस्यार्थमपृच्छत्। तेषु कश्चित् पाठस्यार्थं नावदत्। कश्चिदर्थमन्यथावदत्। कश्चिदर्थस्य कञ्चिदंशमवदत्। उपाध्यायस्तेषु त्रिषु कोपं चकार। न्यायेन च तान् स दण्डयामास।
¹उपाध्यायः | ⁶उवाच | ¹¹अंशम् |
²अधीतस्य | ⁷प्रीतिम् | ¹²त्रिषु |
³अर्थम् | ⁸सहपाठिनः | ¹³कोपम् |
⁴पप्रच्छ | ⁹अवदत् | ¹⁴न्यायेन |
⁵सम्यक् | ¹⁰अन्यथा | ¹⁵दण्डयामास |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735401987Screenshot2024-12-28213605.png"/>
४.सहपाठिनः।
बालाः केचित् सहपाठिनो दिनस्यान्ते कमप्याराममगच्छन्। तत्र रमणीया ओषधीर्वृक्षांश्च पश्यन्तस्ततइतस्ते परिचक्रमुः; कन्दुकेन च चिक्रीडुः। तेन तेषां श्रमोऽभवत्। तेषां देहः स्विद्यति स्म। तत-
स्ते सायन्तनं मन्दं मारुतं सेवमानाः सुखेन गृहमागच्छन्।
गृहमागच्छन्तस्ते प्रीत्या सँल्लापमकुर्वन्। तेषां पठने क्रीडने वा न कदाचिदपि मिथः कलहोऽभवत्। ते स्वभावाद् गुणवन्तोऽभवन्; अतस्तेषां मिथः स्नेहोऽवर्धत।
¹दिनस्य | ⁹रमणीयाः | ¹⁷ततइतः |
²अन्ते | ¹⁰ओषधीः | ¹⁸परिचक्रमुः |
³आरामम् | ¹¹पश्यन्तः | ¹⁹कन्दुकेन |
⁴चिक्रीडुः | ¹²मारुतम् | ²⁰मिथः |
⁵श्रमः | ¹³सेवमनाः | ²¹कलहः |
⁶स्विद्यति | ¹⁴गृहम् | ²²स्वभावात् |
⁷सायन्तनम् | ¹⁵सल्लापम् | ²³गुणवन्तः |
⁸मन्दम् | ¹⁶कदाचिदपि | ²⁴अवर्धत |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402127Screenshot2024-12-25231157.png"/>
५.नक्षत्रम्।
स्फुरस्फुराल्प! नक्षत्र!
कियन्मे जायतेऽद्भुतम्।
यत् त्वं व्योम्नि जगत्यूर्ध्वे
तावद्दूरेऽसि हीरवत्॥१॥
भास्वरेऽस्तं गते सूर्ये
भुवने तमसावृते।
स्वां प्रभां दर्शयस्यल्पां
सर्वांरात्रिं स्फुरत्स्फुरत्॥२॥
पान्थोऽभिनन्दति ध्वान्ते
लघुं तेज्योतिषः कणम्।
स नालंगम्यमध्वानं
ज्ञातुं, नो चेत् तथा स्फुरेः॥३॥
¹स्फुरस्फुर | ⁸भास्वरे | ¹⁵रात्रिम् |
²नक्षत्र | ⁹भुवने | ¹⁶पान्थः |
³कियत् | ¹⁰तमसा | ¹⁷अभिनन्दति |
⁴जायते | ¹¹आवृते | ¹⁸ध्वान्ते |
⁵अद्भुतम् | ¹²स्वाम् | ¹⁹अलम् |
⁶व्योम्नि | ¹³प्रभाम् | ²⁰अध्वानम् |
⁷हीरवत् | ¹⁴दर्शयसि | ²¹ज्ञातुम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402261Screenshot2024-12-28214037.png"/>
६.क्रीडाया आह्वानम्। (क)
बालः कोऽपि क्रीडायामतीवासक्तोऽवर्तत। स क्वचिद् दिने क्रीडायां चापल्यात् पाठालयं न जगाम। तस्य वयस्याः सर्वे पाठालयं गताः।अतः स क्रीडायां सहायमन्वेष्टुमारामं जगाम। स तत्र वृक्षस्य मूले चरन्तीं काञ्चिच्चटकां दृष्ट्वा ‘चटके! मया सह कीडितुमागच्छ’ इत्याह्वयत्।
चटकावदत्—‘बाल! बहवो मम शाबकाः सन्ति। ते मया पोषणीयाः। तेषामाहारो मयार्जनीयः। अतोऽलसवत् क्रीडितुं मम समयो नास्ति’ इति।
¹क्रीडायाम् | ⁷सहायम् | ¹³बहवः |
²अतीव | ⁸अन्वेष्टुम् | ¹⁴शाबकाः |
³आसक्तः | ⁹मूले | ¹⁵सन्ति |
⁴अवर्तत | ¹⁰चरन्तीम् | ¹⁶पोषणीयाः |
⁵चापल्यात् | ¹¹चटकाम् | ¹⁷अर्जनीयः |
⁶वयस्याः | ¹²आह्वयत् | ¹⁸अलसवत् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402380Screenshot2024-12-28213213.png"/>
७.क्रीडाया आह्वानम्। (ख)
अथ बालो मक्षिकामवादीत्—‘अयि मक्षिके! किमर्थं पुष्पेषु भ्रमन्ती श्राम्यसि! आगच्छमया सह क्रीडितुम्’ इति।
मक्षिकावादीत्—‘बालक! नाहमागच्छेयम्। य आत्मनो वृद्धिमिच्छति, तेनावश्यं व्यवसायःकार्य इति किं न जानासि? यद्यहं क्रीडेयम्, अन्या मक्षिका मामलसां वदेयुः; ता मधुकोशे मां भागेन शून्यां च कुर्युः’ इति।
¹मक्षिकाम् | ⁶वृद्धिम् | ¹¹जानासि |
²किमर्थम् | ⁷इच्छति | ¹²यदि |
³भ्रमन्ती | ⁸अवश्यम् | ¹³अन्याः |
⁴श्राम्यसि | ⁹व्यवसायः | ¹⁴मधुकोशे |
⁵आत्मनः | ¹⁰कार्यः | ¹⁵भागेन |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402437Screenshot2024-12-28214037.png"/>
८.क्रीडाया आह्वानम्। (ग)
अथ बालकः पिपीलिकामुवाद—‘अयि पिपीलिके! तिष्ठतिष्ठ। किं वेगेन धावसि? क्षणं मां प्रतीक्षस्व। प्रसीद मया सह क्रीडितुम्। त्वं चटकेव मक्षिकेव वा मम प्रार्थनां न निराकुर्याः’इति।
पिपीलिकावदत्—‘बाल! नाहं त्वया सहावस्थातुं शक्नोमि। न वयमीश्वरेण क्रीडायै सृष्टाः, किन्तु परिश्रमाय। यदि मे स्वीयं कृत्यं न स्यात्, तर्हि परकीयं कृत्यं कुर्याम्’ इति।
¹पिपीलिकाम् | ⁶इव | ¹¹सृष्टाः |
²तिष्ठतिष्ठ | ⁷प्रार्थनाम् | ¹²परिश्रमाय |
³धावसि | ⁸निराकुर्याः | ¹³स्वीयम् |
⁴प्रतीक्षस्व | ⁹शक्नोमि | ¹⁴कृत्यम् |
⁵प्रसीद | ¹⁰ईश्वरेण | ¹⁵परकीयम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402518Screenshot2024-12-28214037.png"/>
९.क्रीडाया आह्वानम्। (घ)
एवं बालः पिपीलिकयापि निराकृतो बभूव। अथ स स्वयमेवमचिन्तयत्—‘किमतः परं करोमि? मामेकं विना सर्वे प्राणिनः कञ्चिद्व्यवसायं कुर्वन्ति। हन्ताहं जड इवात्र वृथा कालं क्षिपामि। तस्माच्चटकेव मक्षिकेव पिपीलिकेव चाहं वर्तिष्ये’ इति।
ततः प्रभृति स बाल आलस्यं विहाय सम्यग् दिनेदिने पाठानपठत्।
¹स्वयम् | ⁶प्राणिनः | ¹¹क्षिपामि |
²एवम् | ⁷व्यवसायम् | ¹²ततःप्रभृति |
³अचिन्तयत् | ⁸हन्त | ¹³आलस्यम् |
⁴अतःपरम् | ⁹जडः | ¹⁴विहाय |
⁵विना | ¹⁰वृथा | ¹⁵अपठत् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402595Screenshot2024-12-28214037.png"/>
१०.सद्भिः सहवासः।
कश्चित् पुमान् मार्गे चरंस्तत्र स्थितं लोष्टमे-
कं करेण गृहीत्वाजिघ्रति स्म; तस्मात् प्रसरन्तं कमपि रमणीयं गन्धं चानुभवति स्म। तत‘इयान् रमणीयो गन्धः कथमनेनार्जितः’ इति चिन्तयन् पुरुषः परममाश्चर्यं प्रतिपेदे।
अथ तं लोष्टं कथयामास—‘भद्र! चिरमहं स्थलजानां कमलानां समीपे वासमफरवम्। तस्मादेतावान् मम हृद्यो गन्ध उत्पन्नः’इति।
गुणेन शून्योऽपि जनो गुणिभिः सह परिचयाद् गुणवान् भवति।
¹पुमान् | ⁸गृहीत्वा | ¹⁵गन्धम् |
²लोष्टम् | ⁹जिघ्रति | ¹⁶अनुभवति |
³करेण | ¹⁰प्रसरन्तम् | ¹⁷कथम् |
⁴इयान् | ¹¹कथयामास | ¹⁸कमलानाम् |
⁵अर्जितः | ¹²भद्र | ¹⁹वासम् |
⁶परमम् | ¹³चिरम् | ²⁰हृद्यः |
⁷प्रतिपेदे | ¹⁴स्थलजानाम् | ²¹परिचयात् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402668Screenshot2024-12-28194654.png"/>
११.समीक्षा।
कश्चिदन्धो भाण्डमंसे निधाय रात्रौ गाढे तमसि ज्वलितमलातं करे कुर्वन् विपणौ चचार। तं पुरुषः कश्चिदुवाच—‘रे मूढ! त्वां प्रति दिनस्य रात्रेश्च न खलु भेदो विद्यते। तदनेनालातेन किं ते फलम्?’ इति।
अन्धस्तं प्रहसन्नुवाच—इदमलातं न मम प्रकाशाय वहामि; किन्तु तव प्रकाशाय। अन्यथान्धकारे त्वं मामभिघट्टयेः; मदीयं भाण्डं च भञ्जयेः’ इति।
¹अन्धः | ⁷अलातम् | ¹³प्रहसन् |
²भाण्डम् | ⁸विपणौ | ¹⁴वहामि |
³अंसे | ⁹उवाच | ¹⁵अन्यथा |
⁴निधाय | ¹⁰भेदः | ¹⁶अन्धकारे |
⁵गाढे | ¹¹विद्यते | ¹⁷अभिघट्टयेः |
⁶ज्वलितम् | ¹²फलम् | ¹⁸भञ्जयेः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402790Screenshot2024-12-28214922.png"/>
१२.पर्वतः।
भूमेरत्युन्नतो भागः पर्वत इत्युच्यते। पर्वतेषु केषुचित् शिला बहुलाः सन्ति। केषुचित् शर्करा बहुलाः सन्ति। पर्वतेषु वनानि विद्यन्ते। वनेषु विविधा वृक्षाः प्ररोहन्ति। मृगाः पक्षिणोऽन्ये च विविधा जन्तवस्तेषु वसन्ति।
तत्र गतान् नरान् प्रायेण दुष्टा मृगा अभिद्रवेयुः। अतस्तेषां निग्रहाय तैर्नलिकं करे सज्जं कार्यम्।
अपिच पर्वतेभ्यो नद्य उत्पद्य भूमेः समन्तात् प्रवहन्ति।
¹अत्युन्नतः | ⁷प्ररोहन्ति | ¹³निग्रहाय |
²शिला | ⁸मृगाः | ¹⁴नलिकम् |
³बहुलाः | ⁹जन्तवः | ¹⁵सज्जम् |
⁴शर्कराः | ¹⁰वसन्ति | ¹⁶नद्यः |
⁵वनानि | ¹¹प्रायेण | ¹⁷समन्तात् |
⁶विविधाः | ¹²अभिद्रवेयुः | ¹⁸प्रवहन्ति |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735402898Screenshot2024-12-28215112.png"/>
१३. नीतिः.
मेधाया भूषणं विद्या
विद्याया भूषणं वचः।
वचसो भूषणं सत्यं
श्रेयस्तेनैव वर्धते॥१॥
त्रीणि यस्य विशुद्धानि
मनो वाणी च कर्म च।
सुकृतं वर्धते तस्य
प्रसीदन्ति च देवताः॥२॥
किं भूषणं नराणां?
कीर्त्तिः, किं कार्यमुच्यते? सुकृतम्;।
किं चक्षुः? सूक्ष्मा धीः,
का विद्या? योपकाराय॥३॥
¹मेधायाः | ⁵वर्धते | ⁹नराणाम् |
²भूषणम् | ⁶मनः | ¹⁰कीर्त्तिः |
³विद्या | ⁷वाणी | ¹¹चक्षुः |
⁴वचः | ⁸कर्म | ¹²सूक्ष्मा |
¹³सत्यम् | ¹⁵सुकृतम् | ¹⁷धीः |
¹⁴श्रेयः | ¹⁶देवताः | ¹⁸उपकाराय |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735403036Screenshot2024-12-28214037.png"/>
१४.सरः। (क)
यत्र जलं न प्रवहति अपितु स्तब्धं तिष्ठति, तत् सर इत्युच्यते। इदं समन्तात् तीरेण परिवृतं भवति। नद्याः कुल्याया वा जलमत्रानीयते। अस्य तीरे जलस्य प्रवेशाय निर्गमाय च शिलाभिरिष्टकाभिश्च प्रणाली क्रियते।
यदा नद्यां जलस्य समृद्धिर्भवति, तदा जलेन सरः पूर्णं भवति। अन्यदा तत्र जलं स्वल्पं भवति। ग्रीष्मे केषुचित् सरस्सु जलस्य कथैव न विद्यते।
¹स्तब्धम् | ⁶आनीयते | ¹¹समृद्धिः |
²सरः | ⁷प्रवेशाय | ¹²पूर्णम् |
³तरिणे | ⁸निर्गमाय | ¹³अन्यदा |
⁴परिवृतम् | ⁹इष्टकाभिः | ¹⁴ग्रीष्मे |
⁵कुल्यायाः | ¹⁰प्रणाली | ¹⁵कथा |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735403071Screenshot2024-12-28215112.png"/>
१५.सरः। (ख)
मनुष्यस्य स्नानाय पानाय च जलमावश्यकं भवति। येषु ग्रामेषु नद्यो न सन्ति, तेषां सर एव गतिः।सरस्सु पूर्णेषु मीना मण्डूका राजिलाश्चवसन्ति। तदानीं तेषु स्नानं न दुष्यति। ते हि जन्तवो दिनेदिने सरस्सु जायमानं मलं गृह्णन्ति। तेषु जले स्वल्पे जाते त एव जन्तवो मृता जलं दूषयन्ति। तदा तत्र स्नानं हितं न भवति।
यत्र सरसि जलस्यागम इव निर्गमो नास्ति, तत्रापि न स्नातव्यम्। यत्र पर्याप्तो निर्गमोऽस्ति, तस्य जलं शुद्धं कृत्वा पातव्यम्। सामान्यतस्तु सरसो जलं न पातव्यम्।
¹स्नानाय | ⁶ग्रामेषु | ¹¹मीनाः |
²आवश्यकम् | ⁷गतिः | ¹²मण्डूकम् |
³राजिलाः | ⁸मृताः | ¹³पर्याप्तः |
⁴दुष्यति | ⁹हितम् | ¹⁴पातव्यम् |
⁵मलम् | ¹⁰आगमः | ¹⁵सामान्यतः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735131146Screenshot2024-12-25182150.png"/>
१६। पिपीलिका। (क)
तन्वी कापि पिपीलिका स्थूलं तण्डुलमेकमलभत। गुरुतया तं तण्डुलं सा स्वयमुत्क्षेप्तुं लोठयितुं वा न शक्ताभवत्। अतः सा तदानीं सन्निहितां प्रातिवेशिकीं पिपीलिकां प्रार्थयत— ‘प्रसीदतु भवती तण्डुलमिमं मदीयं विवरं नयन्त्या मम साहाय्यं कर्तुम्’ इति।
‘अस्ति मेऽन्यत् कर्म सद्यः कर्त्तव्यम्। अतस्त्वं स्वस्यार्थे स्वयं परिश्रमं कुरु’ इति वदन्ती प्रातिवेशिकी शनैरपससार। गत्वा च सा सुखं क्वचित् सुष्वाप। तस्या हि बुद्धिःस्वभावाद् वक्राभवत्।
¹स्थूलम् | ⁶प्रातिवेशिकीम् | ¹¹सद्यः |
²तण्डुलम् | ⁷प्रार्थयत | ¹²स्वस्य |
³अलभत | ⁸भवती | ¹³अर्थे |
⁴गुरुतया | ⁹मदीयम् | ¹⁴शनैः |
⁵उत्क्षेप्तुम् | ¹⁰विवरम् | ¹⁵अपससार |
¹⁶लोठयितुम् | ¹⁸साहाय्यम् | ²⁰सुष्वाप |
¹⁷सन्निहिताम् | ¹⁹अन्यत् | ²¹वक्रा |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735137763Screenshot2024-12-25201217.png"/>
१७. पिपीलिका। (ख)
ततोऽन्या पिपीलिका पथि गच्छन्ती तां पिपीलिकां सहायमपेक्षमाणां दर्शनेन विज्ञायोपससार। स्वाभाविकात् सौजन्यात् तस्याः पिपीलिकायाः साहाय्यं च चकार।
पश्यत बालाः! क्षुद्रो जन्तुः पिपीलिका नाम। सासजातीये जन्तौ कियन्तं स्नेहमकरोत्? कियन्तमुपकारमकरोत्? यदि क्षुद्रेष्वपि जन्तुष्वेतादृशो गुणो दृश्येत, तर्हि मनुष्यैः स सम्पादनीय इत्यत्र विषये कः संशयः?
¹अपेक्षमाणाम् | ⁴सौजन्यात् | ⁷सजातीये |
²विज्ञाय | ⁵क्षुद्रः | ⁸एतादृशः |
³स्वाभाविकात् | ⁶जन्तुः | ⁹संशयः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735137712Screenshot2024-12-25201010.png"/>
१८.मुष्णतो ग्रहणम्।
कस्मिंश्चिदारामे नालिकेरमारोहन्तं कञ्चिद् गोपालं स्वामी दृष्ट्वापप्रच्छ—‘अरे गोपाल! किं निमित्तं वृक्षमारोहसि? इति।
‘गवामर्थे तृणानि लवितुम्’इति स उत्तरं ददौ। स्वामी ‘कुतो नालिकेरे तृणानि?’ इत्यवदत्।
‘अतः खल्वहं वृक्षादवरोहामि’ इति गोपालोऽवदत्।
एवं युक्त्या शून्यमुत्तरं वदन् स चौर इति स्वामिना दण्डितो बभूव।
¹मुष्णतः | ⁵स्वामी | ⁹लवितुम् |
²नालिकेरम् | ⁶निर्मित्तम् | ¹⁰ददौ |
³आरोहन्तम् | ⁷गवाम् | ¹¹युक्त्या |
⁴गोपालम् | ⁸तृणानि | ¹²चौरः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735148538Screenshot2024-12-25231157.png"/>
१९.उपाध्यायः। (क)
यः कञ्चिद्विद्यामध्यापयति, स तस्योपाध्यायः।
स गुरुरित्युच्यते। यः कस्यचिदन्तिके विद्यामधीते, स तस्य शिष्यः।स च्छात्र इत्युच्यते।
विद्यामर्थयमानो बालो लिपिमप्यजानन्नादौ गुरुमुपसरति। तादृशं तं गुरुर्महता प्रयासेन ग्रन्थस्य सर्वमर्थं कणशो बोधयति। शिष्य उपदिष्टमप्यर्थं विस्मृत्य यदि पृच्छति, तं तस्य गुरुः पुनःपुनरुपदिशति।अहो शिष्यं प्रति गुरुः कियतीं क्षमां कियतीं दयां च करोति।
¹विद्याम् | ⁷प्रयासेन | ¹³पुनःपुनः |
²अध्यापयति | ⁸ग्रन्थस्य | ¹⁴उपदिशति |
³अधीते | ⁹कणशः | ¹⁵अहो |
⁴लिपिम् | ¹⁰बोधयति | ¹⁶कियतीम् |
⁵आदौ | ¹¹उपदिष्टम् | ¹⁷क्षमाम् |
⁶महता | ¹²विस्मृत्य | ¹⁸दयाम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735148653Screenshot2024-12-25231355.png"/>
२०.उपाध्यायः।(ख)
अपिच।गुरुः श्रद्धालुं शिष्यं क्रमेण विविधान्
ग्रन्थान् अध्यापयति; शुभेष्वाचारेषु च तं प्रवर्तयति। एवं गुरुणा शिक्षितः शिष्यः प्रशस्तः पण्डितः सम्पद्यते।
तमेतं गुरुं शिष्यः सर्वदा बहुमन्येत; तस्मिन् कृतज्ञश्च भवेत्।
मनुष्यः प्रशस्तैर्भूषणैरलङ्कृतोऽपि विद्यां विना न शोभते, न पूजां लभते, न च रक्षां लभते। तस्मात् शिष्यो विद्याया दातारं ‘गुरुं पितरमिवोपचरेत्’।
¹श्रद्धालुम् | ⁷शिक्षितः | ¹³शोभते |
²क्रमेण | ⁸प्रशस्तः | ¹⁴पूजाम् |
³विविधान् | ⁹सम्पद्यते | ¹⁵रक्षाम् |
⁴शुभेषु | ¹⁰बहुमन्येत | ¹⁶दातारम् |
⁵आचारेषु | ¹¹कृतज्ञः | ¹⁷पितरम् |
⁶प्रवर्तयति | ¹²अलङ्कृतः | ¹⁸उपचरेत् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735148778Screenshot2024-12-25231600.png"/>
२१.लेखकः।
ग्राम्यः कश्चित् कमपि लेखकमुपगम्य ‘ममार्थे
कञ्चिल्लेखं लिख’ इति प्रार्थयत। सोऽब्रवीत्—‘मम पादे वेदना’ इति। ग्राम्य उवाच—‘नाहं त्वां यत्रक्वापि सञ्चारयितुमिच्छामि। तत् कस्य हेतोर्युक्त्या शून्यं व्याजमुल्लिखसि’ इति।
ततो लेखक उवाच—‘ममाक्षराणि मयैवैकेन वाचयितुं शक्यन्ते। तस्मान्मया लिखितं लेखं वाचयितुं मां नियमेन जना आह्वयन्ति। अतोऽहमवोचं पादे मे वेदनेति’।
¹ग्राम्यः | ⁵पादे | ⁹उल्लिखसि |
²लेखकम् | ⁶वेदना | ¹⁰वाचयितुम् |
³लिख | ⁷इच्छामि | ¹¹शक्यन्ते |
⁴प्रार्थयत् | ⁸व्याजम् | ¹²नियमेन |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735148866Screenshot2024-12-25231727.png"/>
२२.अयः। (क)
श्यामः कश्चिल्लोहोऽय इत्युच्यते। अनेन शिल्पं ये कुर्वन्ति, तेऽयस्काराः कर्मारा इति चोच्यन्ते।
अयस्कारा अयसा सूचीमसिं कीलं दर्वीं तालकं कुञ्चिकां च कुर्वन्ति। शिलाया दलने शक्तष्टङ्कः कर्तरी चायसा क्रियते। अयः स्वभावादतिकठिनम्। यदा तदद्नौपरितप्तं भवति, तदा किञ्चिन्मृदु भवति। तदैव तत्रायस्काराणां किया फलति।
¹श्यामः | ⁷दर्वीम् | ¹³अतिकठिनम् |
²लोहः | ⁸तालकम् | ¹⁴अग्नौ |
³शिल्पम् | ⁹कुञ्चिकाम् | ¹⁵परितप्तम् |
⁴सूचीम् | ¹⁰दलने | ¹⁶मृदु |
⁵असिम् | ¹¹टङ्कः | ¹⁷फलति |
⁶कीलम् | ¹²कर्तरी |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735146168Screenshot2024-12-25223227.png"/>
२३.अयः। (ख)
अस्त्ययोधनो नाम किञ्चित् साधनं, यत् कूट
नित्युव्यते, तेनायस्काराः परितप्तमयो घ्नन्ति। तच्च हन्यमानं नमति, विकसति, संकुचति, दीर्घं च भवति।अयसा कृतं साधनं घर्षणेन श्लक्ष्णतां नीतमु-
ज्ज्वलं भवति। अयसि मलो मुहुरुपजायते। अयसः शाणे घर्षणात् सोऽपगच्छति।
अस्त्ययसः कश्चित् प्रकारः, येन लेखन्यास्तुण्डानि विविधानि क्रियन्ते।अपिचायसा संस्कृतेन विचित्रं शिल्पं कुर्वन्ति निपुणाः कर्माराः।
[TABLE]
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735146719Screenshot2024-12-25224129.png"/>
२४.दुष्टः पान्थः। (क)
अन्धं कञ्चित् पथि तिष्ठन्तं पान्थः कश्चिदपश्यत्। ‘भोः किमर्थंपथि तिष्ठसि’ इति स तमपृच्छत्। अन्ध उवाच—‘भद्र! अहमन्धोऽस्मि। इतः
क्रोशे द्राक्षारामो नाम ग्रामोऽस्ति। स मया गन्तव्यः। अतः कमपि नेतारमपेक्षमाणोऽत्र तिष्ठामि। दिष्ट्या दयालुर्भवान् मम सहाय उपस्थितः।’इति।
दुष्टः पान्थः ‘भो अन्धाय साहाय्यस्य करणादधिकं पुष्यं लोके किमस्ति? अतः खलु तवार्थे क्षणमत्र विलम्बं करोमि सत्यप्यन्यस्मिन् कार्ये। अयं प्रदेशस्तस्यैव ग्रामस्य गोप्रचारः। एष गौरत्रैव प्रचारं कृत्वा तं ग्रामं गन्तुं सज्जो वर्तते। अस्य लाङ्गूलं चेत् त्वं दृढमवलम्बेथाः, अयं त्वां ग्रामं नयेत्’ इत्युक्त्वा तेनान्धेन गोर्लाङ्गूलं ग्राहयामास।
¹पथि | ⁶दयालुः | ¹¹गोप्रचारः |
²क्रोश | ⁷उपस्थितः | ¹²लाङ्गूलम् |
³नेतारम् | ⁸लोके | ¹³दृढम् |
⁴अपेक्षमाणः | ⁹अर्थे | ¹⁴अवलम्बेथाः |
⁵दिष्ट्या | ¹⁰विलम्बम् | ¹⁵ग्राहयामास |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735149195Screenshot2024-12-25232257.png"/>
२५.दुष्टः पान्थः। (ख)
गौस्तु लाङ्गूले ग्रहणात् क्षोभं प्राप्तस्तत इतोऽन्धं वेगेनाकर्षन् परिबभ्राम। तेन महान्तं क्लेशमनुभवन्नप्यन्धः पान्थस्य वाक्ये विश्वासाल्लाङ्गूलं न मुमोच।
पापः स पान्थस्तदेतत् सर्वं कौतुकात् पश्यन् स्थितः। किं बहुना? अन्ते गौः क्वचन गर्ते तमन्धं पातयामास।
प्रियेऽपि कस्यचिद् वचसि सहसा विश्वासो न कार्यः। दुष्टा हि जना अन्यं वञ्चयितुं प्रियं वाक्यं प्रयुञ्जते।
¹क्षोभम् | ⁶अनुभवन् | ¹¹पातयामास |
²प्राप्तः | ⁷विश्वासात् | ¹²प्रिये |
³आकर्षन् | ⁸मुमोच | ¹³सहसा |
⁴परिबभ्राम | ⁹कौतुकात् | ¹⁴वञ्चयितुम् |
⁵क्लेशम् | ¹⁰गर्ते | ¹⁵प्रयुञ्जते |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735149767Screenshot2024-12-25233227.png"/>
२६.विपणिः।
यस्यां वीथ्यां वणिजः क्रय्याणि वस्तूनि निधाय विक्रीणते, सा विपणिः। तत्र गोधूमा विविधानां शालीनां तण्डुला आढका मुद्गामाषा गुडः सिता इत्यादय आहारस्यानुकूलाः पदार्थाः क्रेतुं शक्यन्ते। केषुचिदापणेषु मूल्यवन्ति विचित्राणि वस्त्राणि भूषणानि च विक्रीयन्ते।
भारते वाणिज्यस्य परम उत्कर्षो मुम्बापुरेऽस्ति। ततोऽप्यधिको वाणिज्यस्योत्कर्षो युरोपखण्डे बहुषु नगरेषु वर्तते। धनस्य वर्धनेऽनुकूलेषूपायेषु वाणिज्यं मुख्य उपायः।
¹वीथ्याम् | ⁶शालीनाम् | ¹¹सिता |
²वणिजः | ⁷आढकाः | ¹²शक्यन्ते |
³क्रय्याणि | ⁸मुद्गाः | ¹³आपणेषु |
⁴विक्रीणते | ⁹माषाः | ¹⁴मूल्यवन्ति |
⁵गोधूमाः | ¹⁰गुडः | ¹⁵भारते |
¹⁶परमः | ¹⁸मुम्बापुरे | ²⁰उपायाः |
¹⁷उत्कर्षः | ¹⁹युरोपखण्डे | ²¹वाणिज्यम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735231365Screenshot2024-12-26221219.png"/>
२७.अश्वतरो गर्दभश्च।
लवणस्य भारं वहन्नश्वतर ऊर्णाया भारं वहन् गर्दभश्चस्नोतः किमपि तरतः स्म। तदा यदृच्छयाश्वतरस्य भारो जलेनाप्लुतो बभूव। तेन लवणस्य द्रवणात् स भारो लघुरभवत्।
तदेतदात्मनो भाग्यमश्वतरो गर्दभायावदत्। गर्दभस्त्वमन्यत—‘जले भारस्याप्लवनं लघूकरणस्य कश्चिदुपाय’ इति। ततोऽन्यत् स्रोतस्तरन् स गर्दभः स्वीयमूर्णाया भारं जले मज्जयन्नार्द्रमकरोत्। तेन स भारो गुरुतरोऽभवत्।
एकस्योपकाराय भवन् कश्चिदर्थोऽन्यस्थापकाराय भवति।
¹लवणस्य | ²अश्चतरः | ³ऊर्णायाः |
⁴गर्दभः | ⁹द्रवणात् | ¹⁴उपायः |
⁵स्रोतः | ¹⁰भाग्यम् | ¹⁵मज्जयन् |
⁶तरतः | ¹¹अमन्यत | ¹⁶आर्द्रम् |
⁷यदृच्छया | ¹²आप्लवनम् | ¹⁷गुरुतरः |
⁸आप्लुतः | ¹³लघूकरणस्य | ¹⁸अपकाराय |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735150875Screenshot2024-12-25235051.png"/>
२८.तक्षा।
यो दारुणि शिल्पं करोति, स तक्षा भवति। स वाश्या वृक्षादनेन च दारूणि तक्षति। दारुभिः स पेटीं मञ्चं विष्टरं प्रतिमामन्यानि चोपकरणानि सृजति। दारूणि गृहस्य निर्माणे बहुलमुपयुज्यन्ते। दारुषु शिल्पं कर्तुं कुशलास्तक्षाणः केरलेषु बहुलाः सन्ति।
¹दारुणि | ⁴तक्षति | ⁷विष्टरम् |
²वाश्या | ⁵पेटीम् | ⁸प्रतिमाम् |
³वृक्षादनेन | ⁶मञ्चम् | ⁹उपकरणानि |
¹⁰सृजति | ¹²बहुलम् | ¹⁴कुशलाः |
¹¹निर्मााणे | ¹³उपयुज्यते | ¹⁵केरलेषु |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735150513Screenshot2024-12-25234442.png"/>
२९.मूढः काकः।
कश्चन मूढः काको हंसमिवात्मानं धवलयितुमैच्छत्। ततः स जात्या सिद्धां वृत्तिं विहाय सरसः समीपे वसन् दिनेदिने पक्षौ महता श्रमेण क्षालयति स्म।
एवं श्राम्यतोऽस्य मास एकोऽतीतः। तथापि तस्य कृष्णत्वं प्राग्वदेव स्थितम्। तावन्तं कालमुचितस्याहारस्याकरणाच्च स काकः कृशो भूत्वा ममार।
स्वाभाविकं गुणमन्यथा कर्तुं न वयं शक्नुमः। या वृत्तिरीश्वरेणास्माकमुपकल्पिता, तयास्माभिः सन्तोष्टव्यम्।
¹काकः | ³धवलयितुम् | ⁵वृत्तिम् |
²हंसम् | ⁴जात्या | ⁶विहाय |
⁷पक्षौ | ¹¹तथापि | ¹⁵कृशः |
⁸क्षालयति | ¹²कृष्णत्वम् | ¹⁶अन्यथा |
⁹मासः | ¹³प्राग्वत् | ¹⁷उपकल्पिता |
¹⁰अतीतः | ¹⁴उचितस्य | ¹⁸सन्तोष्टव्यम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735230395Screenshot2024-12-26215606.png"/>
३०.वृद्धा कुमारी।
काचिदन्धा दरिद्रा वृद्धा कुमारीश्वरमुपासाञ्चक्रे। ईश्वरः प्रसन्नस्तस्या अग्र आविर्भूयावदत्—‘वरमेकं वृणीष्व’ इति। सा वरमवृणीत— ‘पुत्रान् मेक्षीरेण घृतेन च सहितमोदनं स्वर्णमये पात्रे भुञ्जानान् पश्येयम्’ इति।
न तावदन्धायास्तस्याः पतिरस्ति;कुतः पुत्राः? कुतो गावः? कुतो धनम्? बुद्धिमती सा तदेतत् सर्वमिष्टमेकस्मिन् वाक्ये सञ्जग्राह।
तत ईश्वरः’तथास्तु’ इत्यनुजग्राह;तस्या बुद्धिं चाभिननन्द।
¹कुमारी | ⁶वृणीष्व | ¹¹ओदनम् |
²उपासाञ्चक्रे | ⁷पुत्रान् | ¹²स्वर्णमये |
³अग्रे | ⁸क्षीरेण | ¹³भुञ्जानान् |
⁴आविर्भूय | ⁹घृतेन | ¹⁴पतिः |
⁵वरम् | ¹⁰सहितम् | ¹⁵अभिननन्द |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735230551Screenshot2024-12-26215828.png"/>
३१.संवादः।
उपाध्यायः—‘अये गङ्गाधर! को हेतुः? अद्य त्वं प्रश्नान् न सम्यक् समाहितवान् असि’
शिष्यः—‘सत्यमार्य! सत्यम्। अद्यतनस्य पाठस्य काठिन्यात्’
उपाध्यायः—‘अस्त्वद्यतनस्य पाठस्य पूर्वान् पाठान् अपेक्ष्य किञ्चित् काठिन्यम्। तथापि कठिनस्य पाठस्यार्थः किं न ज्ञातव्यः?
शिष्यः—‘नखल्वार्य! निवेदयामि स न ज्ञातव्य इति। किन्तु तस्य ज्ञानाय विशिष्य श्रमः कार्यः। सोऽयं श्रमो गृहे मया न कृतः।’
उपाध्यायः—कस्मात्?
शिष्यः—‘तस्य पर्याप्तः समयो मम ह्यो नासीत्. मम हि तातपादो दीर्घस्य कस्यापि लेखस्य प्रतिरूपणे मां नियुक्तवान्. तच्च पाठस्य चिन्तनं चेत्युभयं निर्वोढुं मया न पारितम्’
उपाध्यायः—‘यद्येवम्, अस्यार्थस्य प्रत्यायकं पितुर्लेखमानाय’
शिष्यः—‘तथा करोमि’
उपाध्यायः—‘अथवेदानीं तवैव वचसि प्रत्ययं कुर्वंस्त्वां क्षमे तावत्. अपि जानासि तत्र कारणम्?’
शिष्यः—‘न खल्वार्य! जानामि’
उपाध्यायः—‘यतस्त्वं सर्वदा सत्यवादी मया दृष्टोऽसि’,
¹अद्य | ⁴विशिष्य | ⁷पारितम् |
²प्रश्नान् | ⁵ह्यः | ⁸प्रत्यायकम् |
³समाहितवान् | ⁶प्रतिरूपणे | ⁹पितुः |
¹⁰आर्य | ¹⁴निर्युक्तवान् | ¹⁸इदानीम् |
¹¹अद्यतनस्य | ¹⁵चिन्तनम् | ¹⁹क्षमे |
¹²काठिन्यात् | ¹⁶उभयम् | ²⁰सर्वदा |
¹³पूर्वान् | ¹⁷निर्वोढुम् | ²¹सत्यवादी |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735233737Screenshot2024-12-26225153.png"/>
३२.तृणानि स्थलकमलानि च।
कश्चिद्रमणीयानि स्थलकमलानि जीर्णानां तृणानां पुञ्जेन संसृष्टानि दृष्ट्वाबभाषे—‘अहोबत गुणैः शून्यान्येतानि तृणानि कस्मै फलाय हृद्यानां स्थलकमलानां मध्ये स्थितिं कुर्वन्ति इति।
विषण्णानि तृणान्यूचुः—‘भद्र! मा तावदेवं वोचः। नहि प्रीतिर्वृद्धान् सहचरान् विस्मरति। सत्यमस्माकं सौन्दर्यं नास्ति, सौरभं नास्ति। तथापि वयमन्ये पदार्था इवेश्वरस्योद्याने जातानि स्मः।ईश्वरस्य प्रसादेन पुष्टानि तस्य किङ्कराणि वयम्। अस्माकमुपयोगो नास्माकमायत्तः, किन्तु भगवत आयत्तः’इति।
क्षुद्रतमपि वस्तु न निन्दनीयम्।
¹तृणानाम् | ⁶विषण्णानि | ¹¹उद्याने |
²पुञ्जेन | ⁷सहचरान् | ¹²पुष्टानि |
³संसृष्टानि | ⁸विस्मरति | ¹³किङ्कराणि |
⁴बभाषे | ⁹सौन्दर्यं | ¹⁴भगवतः |
⁵अहोबत | ¹⁰सौरभम् | ¹⁵आयत्तः |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735233881Screenshot2024-12-25235051.png"/>
३३.भारतस्याधिपत्यम्। (क)
अस्माभिरध्युष्यमाणमिदं भूखण्डं भारतमित्युच्यते इन्द्येति च। पुरात्र भारते नन्दश्चन्द्रगुप्तो विक्रमार्को भोज इति बहवो राजान आधिपत्यमवहन्। तेषु सत्यं दयौदार्यं नीतिः शौर्यमित्येते राज्ञामुचिता गुणा आसन्। सर्वथा धर्मं नीतिं चानुसरन्तो राज्यं ते परिपालयामासुः। तेषां चरित्राणि कानिचिद् ग्रन्थेषूक्तानि सन्ति। यद्यपि तदानीन्तनानि लोकस्य वृत्तानि शासनस्य रीतयो वा तेषु ग्रन्थेषु
विस्तरेण स्पष्टं न कथ्यन्ते, तथापि ते राजानो महान्त इत्यूहितुं शक्यते। अतएव तेषां कीर्त्तिमद्यापि जना गायन्ति।
¹अध्युष्यमाणम् | ⁷अनुसरन्तः | ¹³शासनस्य |
²आधिपत्यम् | ⁸राज्यम् | ¹⁴रीतयः |
³औदार्यम् | ⁹परिपालयामासुः | ¹⁵विस्तरेण |
⁴नीतिः | ¹⁰चरित्राणि | ¹⁶ऊहितुम् |
⁵शौर्यम् | ¹¹तदानीन्तनानि | ¹⁷कीर्त्तिम् |
⁶राज्ञाम् | ¹²वृत्तानि | ¹⁸गायन्ति |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234164Screenshot2024-12-26215828.png"/>
३४.भारतस्याधिपत्यम्। (ख)
अथ गच्छति काले राज्ञां हैन्दवे मते स्थितानां पौरुषं बलं च क्रमेण क्षीणमभवत्। तदा महम्मदीया राजानस्तान् जित्वा भारतमाचक्रमुः। प्रायेण भारतस्याधिपत्यं तेषां हस्तं प्राप। तेषु बहवो धर्म्ये पथि नातिष्ठन्।
तेऽन्यस्मिन् मते स्थितान् जनान् स्वीये मते प्रवेशयितुं महान्तं प्रयत्नमकुर्वन्। तत्र तैराचरितानि दुष्टानि कर्माणि वाचा वक्तुं न शक्यन्ते। तैः क्रियमाणाया हिंसाया मोचनं चिरं भारतीया न लेभिरे।
¹हैन्दवे | ⁷प्रायेण | ¹³वक्तुम् |
²मते | ⁸हस्तम् | ¹⁴हिंसाया |
³पौरुषम् | ⁹धर्म्ये | ¹⁵मोचनम् |
⁴क्षीणम् | ¹⁰प्रवेशयितुम् | ¹⁶चिरम् |
⁵महम्मदीयाः | ¹¹कर्माणि | ¹⁷भारतीयाः |
⁶जित्वा | ¹²वाचा | ¹⁸लेभिरे |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234228Screenshot2024-12-26215606.png"/>
३५.भारतस्याधिपत्यम्। (ग)
अथ तेष्ववसरेषु हिन्दूनां भाग्यादाङ्गलेयानां वणिजां सङ्घः कश्चिदिन्द्यामागत्य वाणिज्यं कुर्वन्नवर्तन। स सङ्घोबहुभिरुपायैर्भारतीयानां राज्ञां साहाय्यं सम्पाद्य वाणिज्यमवर्धयत्; वाणिज्येन धनं धनेन बलं च क्रमेण वर्धयामास।
अथ कालेन धनं बलं बुद्धिं नीतिं चाश्रित्य स सङ्घोभारतस्याधिपत्यमात्मन आयत्तं चकार। तच्चाधिपत्यमाङ्गलेयानां राज्ञ्यै देव्यै विक्तोरियाये १८५७ तमे क्रैस्तवे वर्षे समर्पयामास।
उद्यमो धैर्यं बुद्धिर्नीतिरित्येते गुणा यस्य वर्तन्ते, स महतः कल्याणस्य पात्रं भवति। अत्रोदाहरणमाङ्गलेयानां वणिजां सङ्घः।
¹आङ्गलेयानां | ⁶वर्धयामास | ¹¹धैर्यम् |
²संङ्घः | ⁷नीतिम् | ¹²बुद्धिः |
³आगत्य | ⁸आश्रित्य | ¹³कल्याणस्य |
⁴सम्पाद्य | ⁹समर्पयामास | ¹⁴पात्रम् |
⁵अवर्धयत् | ¹⁰उद्यमः | ¹⁵उदाहरणम् |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234340Screenshot2024-12-25231727.png"/>
३६.अध्ययनस्य रीतिः।
बालः क्लृप्ते काले पाठालयं गच्छेत्; स्वमाचारमनुसृत्य गुरवे प्रणाममाचरेत्। तेनानुज्ञात आसन उपविशेत्। पूर्वेद्युरधीते पाठे गुरुणा क्रिय-
माणानां चोद्यानां सम्यगुत्तरं वदेत्। नवे पाठे गुरुणाध्याप्यमानेऽवधानं कुर्यात्। तत्र कठिनानां पदानामर्थं पत्रे लिखेत्। आत्मना सह पठद्भ्यो बालेभ्य आत्मनोऽपकर्षे दृष्टे भृशं लज्जेत;उत्कर्षे दृष्टे गर्वमीषदपि न प्राप्नुयात्।
अपिच। वाक्यस्य वाचना अर्थस्य कथनं वाक्यस्य रचना इति बहवो बालस्य व्यापारा वर्तेरन्। तेषामनुष्ठाने यः क्रमो गुरुणा कल्पितः, तं बालोऽनुसरेत्। सायं गृहं गतोऽसौ रात्रौ, अनध्यायेषु च पाठं चिन्तयेत्। एवमध्ययनं कुर्वन् बालः पण्डितो भवेत्।
¹क्लृप्ते | ⁷पूर्वेद्युः | ¹³गर्वम् |
²आचारम् | ⁸नवे | ¹⁴वाचना |
³प्रणामम् | ⁹अवधानम् | ¹⁵रचना |
⁴अनुज्ञातः | ¹⁰पत्रे | ¹⁶कल्पितः |
⁵आसने | ¹¹अपकर्षे | ¹⁷सायम् |
⁶उपविशेत् | ¹²लज्जेत | ¹⁸अनध्यायेषु |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234442Screenshot2024-12-26215606.png"/>
३७.अत्याशा।
कस्यचित् पुरुषस्य गृहे हंसी काचिदवर्तत। सा सुवर्णमयमेकमण्डं दिनेदिने प्रसुवीत। अतिलोभी स पुरुष एतावता लाभेन न तृप्तोऽभवत्। स कदाचिदचिन्तयत्—‘यद्यहं हंसी हन्याम्,सर्वाणि सुवर्णमयान्यण्डानि युगपल्लभेय’इति। ततः स क्रूरस्तस्याः शरीरं विदारयामास। किन्तु तत्रैकमप्यण्डं न दृष्टवान्। मृता सा दीना हंसी कथमस्मै प्राग्वदण्डानि वितरेत्?
जनस्य सिद्धमप्यायमत्याशा परिलुम्पति।
किञ्च प्रवर्तयत्येषा जनं महति पातके॥
¹हंसी | ⁶हन्याम् | ¹¹प्राग्वत् |
²अण्डम् | ⁷युगपत् | ¹²वितरते |
³प्रसुवीत | ⁸क्रूरः | ¹³आयम् |
⁴अतिलोभी | ⁹विदारयामास | ¹⁴परिलुम्पति |
⁵तृप्तः | ¹⁰दीना | ¹⁵पातके |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234514Screenshot2024-12-26230451.png"/>
३८.वाग्गुदः।
पुरा पक्षिणां मृगाणां च मिथो युद्धं बभूव। तदा भीरुर्वाग्गुदो न मृगाणां पक्षं प्राविशत्; नापि पक्षिणां पक्षं प्राविशत्।स आत्मनः केवलं रक्षामचिन्तयत्। ततो मृगा जयं प्रापुः। वाग्गुदस्तानुपसृत्यावदत्—‘भो मृगाः! नाहं पक्षी भवामि। मम हि दन्ता विद्यन्ते। न खलु कश्चित् पक्षी दन्तवान् दृश्यते’ इति। अथ पक्षिणो जयं प्रापुः। भीतो वाग्गुदस्तानुपसृत्यावोचत्—भोः पक्षिणः! अहं पक्षी भवामि, न तु मृगः, अहं ह्याकाशे पतामि; न खलु मृग आकाशे पतति’ इति।
अतो मृगाः पक्षिणो वा वाग्गुदाय नाद्रुह्यन्; नापि तस्मिन् स्नेहमकुर्वन्। परन्तु स मृगैर्न स्वजातौ गृहीतः, न वा पक्षिभिः स्वकुले गणितः; तेन च स भृशमलज्जत। तत एव हेतोरद्यापि वाग्गुदोऽन्धकारे निलीन आत्मानं दिवा न प्रकाशयति।
¹युद्धम् | ⁵केवलम् | ⁹आकाशे |
²भीरुः | ⁶रक्षाम् | ¹⁰पतामि |
³वाग्गुदः | ⁷दन्तवान् | ¹¹अद्रुह्यन् |
⁴प्राविशत् | ⁸भीतः | ¹²प्रकाशयति |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234630Screenshot2024-12-26230647.png"/>
३९.विद्याया आवश्यकता।
मनुष्यः स्वयं भाषितुं परस्योपदेशान् ग्रहीतुं कर्तुभिष्टं च कार्यं सम्यक् कर्तुं शक्नोति। पशवः पक्षिणो वा नैवम्। अस्ति कापि बुद्धेः शक्तिर्मनुष्ये, या पशुषु पक्षिष्वन्येषु वा जन्तुषु नास्ति। तस्याः शक्तेः फलं विद्याया अभ्यास एव। विद्यायामभ्यस्तायां पुरुषः शास्त्रीयाणां लौकिकानां च तत्त्वानां ज्ञाता भवेत्। ततः पण्डित इति कीर्त्तिं प्राप्नुयात्। तस्य ज्ञानं लोकस्योपकाराय स्यात्। तेन च लोकस्योपकारे जायमाने तस्य धनं पुण्यं च वर्धेत।
तस्माद् विद्याया अभ्यासोऽवश्यं कार्यः।
¹भाषितुम् | ⁵शास्त्रीयाणाम् | ⁹जायमाने |
²उपदेशान् | ⁶लौकिकानाम् | ¹⁰ज्ञानम् |
³अभ्यासः | ⁷तत्त्वानाम् | ¹¹पुण्यम् |
⁴अभ्यस्तायाम् | ⁸ज्ञाता | ¹²वर्धेत |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234709Screenshot2024-12-26230805.png"/>
४०.विक्तोरिया चक्रवर्तिनी।
विक्तोरिया नाम राज्ञी आङ्गलेयानां राज्ञां कुले १८१९ तमे क्रैस्तवे वर्षे जन्म प्रपेदे; १८३७ तमे वर्षे किरीटमलभत। अस्या उदारा बुद्धिरुदारं चारित्रम्।
१८७७ तमाद् वर्षात् प्रभृत्येषा ‘भारतस्य चक्रवर्तिनी’ इति प्रख्यायते। अत्र भारते बहवो महान्तो राजान एतस्या आज्ञां शिरसा वहन्ति। अस्या मन्त्रसभया राज्यस्य कार्यं तथा सुष्ठु चिन्त्यते, यथा दुर्बलान् जनान् प्रबला न बाधेरन्; यथा च जनानां विद्या स्वातन्त्र्यं सुखं च समानानि स्युः। यदेदं भारतमन्येषां राज्ञां वशे स्थितं, तदा बहव उ-
पद्रवाः प्रजानामभवन्। एनया तु परिपाल्यमाने पाठालयाश्चिकित्सालयाश्च कल्पिताः सन्ति।
एनया समाना राज्ञी राजा वा पूर्वेषु राजसु नासीत्।
¹जन्म | ⁵चक्रवर्तिनी | ⁹सुष्ठु |
²किरीटम् | ⁶प्रख्यायते | ¹⁰बाधेरन् |
³उदारा | ⁷आज्ञाम् | ¹¹समानानि |
⁴चारित्रम् | ⁸मन्त्रसभया | ¹²वशे |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735234806Screenshot2024-12-26215606.png"/>
४१.ईश्वरः।
अस्ति सर्वेषां लोकानां कर्ता कश्चिदीश्वरो नाम। स मनुष्यान् मृगान् पक्षिण इतरांश्च जन्तून् ससर्ज। स एव भूमिं जलं सूर्यं चन्द्रं नक्षत्राणि वायुं चासृजत्। एतैः प्राणिनां महान् उपकारो भवति।
भूमौ हि प्राणिनो वासं कुर्वन्ति। तस्यामुत्पन्नं तृणं पर्णं फलं धान्यं च प्राणिनामाहारो भवति।
जलं जन्तूनां स्नानाय पानाय च कल्पते। धान्यस्य कृषिर्जलेन सिध्यति। जलेऽपि विविधा जन्तवो वसन्ति।
सूर्यस्तमो निराकृत्य समस्तं वस्तु दिवा प्रकाशयति। रात्रौ चन्द्रेण नक्षत्रैश्च तत् प्रकाश्यते।
वायुनैव प्राणिनां प्राणाजाताः। वायुरस्माकं श्रमं स्वेदं च हरति।
एवमन्यानपि बहून् पदार्थानस्माकमुपकारायेश्वरःसृष्टवान्। कारुण्यस्य निधिः स एव जागरे स्वप्ने सुषुप्तौ चास्मान् रक्षति। ये पापं नाचरन्ति, ये पुण्यमाचरन्ति, ये तस्मिन् भक्तिं कुर्वन्ति, तेषु स भगवान् प्रसन्नो भवति; तेभ्यश्च सर्वान् कामान् ददाति। स एष सर्वदास्माभिः स्मरणीयः।
सर्वज्ञं सर्वया शक्त्या
युक्तं सर्वस्य कारणम्।
विशुद्धं दययोपेतं
स्मरामो वयमीश्वरम्॥
¹ससर्ज | ⁸सिध्यति | ¹⁵भक्तिम् |
²उत्पन्नम् | ⁹हरति | ¹⁶कामान् |
³तृणम् | ¹⁰कारुण्यस्य | ¹⁷ददाति |
⁴पर्णम् | ¹¹निधिः | ¹⁸सर्वज्ञम् |
⁵धान्यम् | ¹²जागरे | ¹⁹युक्तम् |
⁶कल्पते | ¹³स्वप्ने | ²⁰कारणम् |
⁷कृषिः | ¹⁴सुषुप्तौ | ²¹स्मरामः |
सम्पूर्णेयं प्रथमा पाठावली.
शुभं भूयात्.
NOTES.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735397801Screenshot2024-12-28202608.png"/>
Lesson I. The Sun.
1. Sun. 2. Eastern. ई. f. 3. In the direction. श्. *f. * 4. Rises. अय्, (to go 1. a.) with उद्. 5. He. m. (तद् crude) f. सा. n. तद्. 6. Western. ई. f. 7. Decline.n. 8. By the splendour. स्. n. instr. 9. Things. *m. * 10. Appear. प्र+काश्, to shine. 1. a. प्रकाशः प्रकाशनम्. are abstract nouns. 11. We (अस्मद् crude). 12. We live. 1. p. 13. Animals. उ. m. 14. Birds. न्. m. 15. And. conj.
Lesson II. A Boy.
1. Named. ind. 2. A certain. अपि, चिद्or चन are often added to किम् to give it an indefinite sense. 3. Boy. 4. Morning. ind. 5. Awakes. बुध (to know. 4.a.) with प्र. प्रबुद्ध्यते स्म=awoke. स्म is an ind. A particle added on to the present tense of verbs giving them the sense of the past tense. 6. Then. ind. 7. By the absence. m. abl. 8. Light. acc. 9. Procured. caus. perf. of पद् (to go. 4. a.) with सम्. The Primary forms:—पद्यते(pr.) पेदे (perf.) 10. In front of; before. n. loc. 11. Moments: for a few moments: acc. of time. 12. Read. caus. perf. of वच्, to speak 2. p. 13. After that. ind. 14. Having bathed. ind. p. p. of स्ना, to bathe. 2. p. स्नाति (pr.) स्नानम् (abs. n). 15. Food. m.
16. Did. imperf. of कृ, 4. u. करोति, कुरुते (pr.) चकार, चक्रे (perf). 17. School. m. 18. Went to. imperf. of गम्, 1. p. गच्छति (pr.) जगाम (perf.) गच्छेत् (pot.) अगमत् (aor.) गमनम् (abs. n.) गन्तुम् (inf.) गत्वा ind. p. p. गम् with आ=To come.
Lesson III. (Continued.)
1. Teacher. 2. That has been learned. p. p. of इ, (to learn. 2. a.) with अधि. 3. meaning. m. अधीते(pr.) अध्ययनम्(ab. n.) अध्यापयति (caus). 4. Asked, perf. of प्रच्छ्, 6. p. पृच्छति (pr.) अप्राक्षीत् (aor.) This verb takes two objects like दुह्, याच् &c. 5. Correctly. ind. 6. Said. perf. of ब्रु, 2. u.उक्त्वा (ind. p. p.) वक्तुं ( inf.) उक्तम् (p. p.) वचनम् (abs. n.) 7. Pleasure. इ. f. acc. 8. Classmates. adj. to बालान्. न्. m. acc. pl. 9. Said. imperf.of वद्, 1. p. to say.वदति (pr.) उवाद (perf.) वदेत् (pot.) अवादीत् (aor.) वदितुम् (inf). 10. Erroneously. ind. lit. otherwise. 11. A part. m. 12. On the three. इ. loc. pl. त्रि (नित्यंबहुवचनान्तः) त्रयः m. तिस्रः f. त्रीणि n. 13. Anger. m. 14. Justly. m. instr. 15. Punished. perf. of दण्ड् 10. u. दण्डित (p. p.)
Lesson IV. Classmates.
1. Of the day. n. 2. In the end. m. 3. The garden. m. **4.**Played. perf. 3rd pl. of क्रीड्, 1. p. 5. Exhaustion. 6. Perspires. 4. p. 7. Belonging to the evening. a. सायं भवम्; the suffix तन is generally added to साय, चिर and other indeclinables denoting time in this sense. as, चिरन्तर, दोषातन &c. 8. gentle, soft. 9.
Pleasant. 10. The plants. इ or ई. f. acc. pl. 11. Looking. pr. p. of दृश्, 1. p. to see. पश्यति (pr.) ददर्श (perf.) अपश्यत्(imperf.) अद्राक्षीत् (aor.) दृष्ट्वा (ind. p. p.) द्रष्टुम् (inf.) दृष्ट (p. p.) दर्शनम् (abs. n.) 12. Wind. 13. Enjoying. pr. p. of सेव्, 1. a. 14. House. n. 15. Conversation. m. 16. Even once. m, 17. Here and there. ind. 18. Walked. perf. of क्रम्, (to walk. 1. p.) with परि. 19. With the ball. m. 20. Mutually. ind. 21. Quarrel. 22. Naturally. m. 23. Endowed with good qualities. गुणः एषामस्तीति गुणवन्तः. 24. Increased. aor. of वृध्, 1. a.
Lesson V. A Star.
1. Twinkle, Twinkle. imp. 1st sing. of स्फुर्, 6.p. आभीक्ष्ये (Frequency) द्वित्वम्. 2. Star! n. नक्षरतीति नक्षत्रम्. 3. How much. a. किं परिमाणमस्य कियत्, n. कियान्, m कियती. f. 4. Arises. pr. of जन्, 4. a. 5. Wonder. n. 6. In the sky. n. न्. 7. Like a diamond. हीरेण तुल्यम्, adv. 8. Blazing. 9. World n. loc. abs. सूर्ये is also in the loc. abs. 10. By darkness. n. स्. instr. sing. 11. Covered. p. p. of वृ (5. u.) with आ. loc. abs. 12. One’s own. a. to प्रभाम्. 13. Light. 14. Thou showest. caus. of दृश् (पश्य) to see. 1. p. 15. Night. acc. of time. 16. Traveller. 17. Admires or rejoices at. pr. of नन्द्,1. p. with अभि.18. In the dark. 19. Is able, can. ind. 20. Way. 21. To know. inf. of ज्ञा, 9. u. pr. जानाति, जानीते.
Lesson VI. A call to play.
1. In play. 2. Very much. ind. 3. addicted to. 4. Wasimperf. of वृत्, 1. a. 5. By fickleness. चपलस्य भावः
कर्म वा, तस्मात्.6. Associates (usually of the same age) वयसा तुल्याः. 7. Companion m. 8. To search. inf. 9. At thefoot. n. 10. Wandering. pr. p. f. 11. Hen-sparrow. 12. Called. imperf. of ह्वे, 1. u. 13. many. 14. The young ones of any animal. **15.**Are. pr.3rd. pl.of. अस्. 2.p. 16. Worthy of being nourished. पोष्टुं योग्याः. 17. Worthy of being procured अर्जयितुं योग्याः. 18. Like a lazy man. adv. अलसेन तुल्यम्.
Lesson VII. (Continued.)
1. Bee. 2. Why. ind. 3. Wandering. pr. p. 4. Exertest thyself. 2nd sing. 4. p. 5. Of oneself. न्. gen. 6. Progress. f. 7. Wishes. pr. 6. p. 8. Necessarily. 9. Industry. 10. That which should be done. कर्तुं योग्यः. 11. Knowest. see V. 21. 12. If. ind. 13. Others. 14. In the honeycomb. 15. By division. भागेन शून्या one who has no share.
Lesson VIII. (Continued.)
** 1.** Ant. 2. Stop! Stop! imp. 2nd. sing. of स्था, to stand, 1. p. 3. Runnest. 4. Look out for; await. imp. 2nd sing. ofईक्ष् (to see. 1. a.) with प्रति. 5. Be pleased. imp. 2nd. sing. of सद् (1. p.) with प्र. 6. Like. ind. 7. Request. f. 8. Repudiate. pot. 2nd. sing of कृ (to do. 8. u.) with निर्and आ. 9. Am able. 5 p. 10. By God. 11. Created. p. p. 12. For labour. 13. One’s own. स्वस्येदम्. 14. What ought to be done; duty. 15. What belongs to another. परस्येदम्.
Lesson IX. (Continued.)
1. Himself. adv. 2. Thus. adv. **3.**Thought. imperf. of चिन्त्, 10. p. स्वयमेवाचिन्तयत् Thought within himself. 4. Here-
after. ind. 5. Without. विना governs the acc. inst. or abl 6. Beings. न् nom. pl. प्राणः एषां अस्तीति तथा. 7.Effort. 8. Alas! ind. 9. An illiterate man. 10. In vain. ind. 11. I throw. 6. u. 12. From that time. ind. 13. Indolence. अलसस्य भावः. 14. Having given up. ind. p. p. 15. Learned. imperf. of पद्, 1. p.
Lesson X. The company of the good.
1. Man. स्. 2. Tile. m. & n. 3. With the hand. m. 4. This much. a. त्. इदं परिमाणमस्य. 5. Earned p. p.Vide VI. 17. 6. Highly great. a. 7. Attained. perf. of पद् (to go. 4. a.) with प्रति pr. प्रतिपाद्यते. 8. Having taken. ind. p. p. of ग्रह्,9. u. गृह्णाति, गृह्णीते. 9. Smells. घ्रा, 1. p. 10. Flowing out. pr. p. of सृ (1. p.) with प्र. 11. Narrated perf. of कथ्, 10. u. aor. अपकथत्.12. Oh! happy being. 13. Long. adv. The singular of any of the absolute cases of चिर may be used adverbially in the sense of “for a long time.” 14. Growing on land. a. स्थले जातानि स्थलजानि तेषाम्. 15. Scent. m. 16. Enjoys, experiences.The addition of the prefix अनु converts the intr. verb. भू, 1. p. into a tr. verb. 17.How. ind. 18. Of the lotuses. स्थलकमल means “rose”. 19. Residence. m. 20. Attractive. a. हृदयस्य प्रियः. 21. By acquaintance. m.
Lesson XI. Consideration.
1. A blind man. 2. Vessel. n. 3. On the shoulder. m. & n. 4. Having placed. ind. p. p. of धा (3. u.) with नि 5. Thick. a. 6. Burned. act. p. p. 7. Firebrand. m. & n. 8. In the market-street. f. 9. Vide III 6. 10. Difference. 11. Is; exists. 4. a. 12. Result. n. 13
Laughing.pr. p. 14. I carry. 1. u. perf. उवाह, ऊहे, aor. अवाक्षीत् अवोढ. 15. Otherwise. ind. 16. In the dark. m. & n. 17. Thou mayest knock again. pot. of घट्ट (10. u.) with अभि. 18. Thou mayest break. caus. pot. of भञ्ज्, 7. p.
Lesson XII. A Mountain.
1. Very high. a. 2. Stones. f. 3. Many. 4. Gravels.f. 5. Forests. 6. Various. a. 7. Shoot out; रुह् (1. p.) with प्र. 8. Beasts. 9. Creatures. 10. Dwell. 1. p. 11. Generally, ind. 12. Drive off. pot. 3rd. pl. of द्रु (to run. 1. p.) with अभि. (only the caus. has this sense). 13. For the purpose of killing. m. 14. Gun. 15. Reading. a. 16. Rivers. 17. On all sides. ind. 18. Flow.
Lesson XIII. Moral.
1. Of the intellect. 2. Ornament. n. 3. Learning 4. Words. स्.n. 5. Increases. वृध्, 1. a. 6. Mind. स्. n. 7. Word. 8. Deed. न् n. 9. Of men. 10. Fame. f. 11. Eye. स. n. 12. Keen. a. 13. Truth. n. 14. Glory,fame. स्. n. 15. Beneficence. 16. Deities. f. देवा एव. 17. Intellect. f. 18. For the good of. m.
Lesson XIV. A lake.
1. Still; stagnant. p. p. used actively of स्तम्ब् (1. a. 5. 9. p.) to block. 2. Lake. स् n. 3. By the bank. n. 4. Surrounded. p. p. of वृ with परि. 5. Of a small channel. 6. Is lead. pass. pr. 3rd. sing. of नी (1. u.) with आ. 7. For the entrance of. m. 8. For the exit of. m. 9. By bricks. 10. A drain or water course. 11. Richness. 12. Full or filled. p. p. of पृ. 13. At other times. 14. In the hot season. m. 15. Mention.
Lesson XV. (Continued.)
1. For bath. n. 2. Necessary. 3. A species of innocent snakes. 4. Is injurious. दुष्, 4. p. 5. Dirt. n6. In villages. 7. Resort. 8. Dead. p. p. of मृ, 4. a. 9. Wholesome. 10. Income. 11. Fishes. 12. Frogs. m. 13. Sufficient. 14. Fit for drink. पातुं योग्यम्.pot. p. 15. Generally. ind.
Lesson XVI. The ant.
1. Big. a. 2. Rice. m. 3. Gained. imperf. of लभ्, 1. a. 4. By greatness. गुरोर्भावः, तया. 5. To raise. inf. 6. Neighbour. 7. Requested. imperf. of अर्थ् (10. a.) with प्र. 8. Your ladyship. 9. Mine. मम इदम्, तत्. 10. Hole. n. 11. At once. ind. 12. One’s own. gen. 13. Affair or interest. m. loc. 14. Slowly. ind. 15. Withdrew. perf. of स् (to go. 1. p.) with अप. 2nd. sing. समर्थ 16. To roll. caus. inf. 17. Who came near. a. 18. Help. सहायस्य भावः, तत्. 19. Another. अ. n. sing. 20. Slept. perf. of स्वप्, 2. p. pr. 3rd. sing. स्वपिति. 21. Crooked. a.
Lesson XVII. (Continued.)
1. Requesting. pr. p. 2. Having known. act. p. p. 3. Naturally. स्वभावाद् भवं स्वाभाविकम्, तस्मात्. 4. Out of generosity. सुजनस्य भावः, तस्मात्. 5. Mean. a. 6. Creature. 7. Belonging to the same class. kindred. a. 8. Such. like this. a. 9. Doubt.
Lesson XVIII. The detection of the thief.
1. Of the thief. pr. p. 2. The cocoanut palm. m. **3.**Climbing. pr. p. 4. Shepherd. 5. Master. न्. 6.Cause.n.
7. Of the cows. 8. Grass. pl. 9. To cut. inf. 10. Gave. perf. of दा, 3. u. 11. Relevence. inst. with शून्य it means “irrelevent”. 12. A thief. another form is चोरः.
Lesson XIX. A Schoolmaster.
- Learning. 2. Teaches. caus. of इ (to learn. 2.a.) with अधि, its inseparable prefix. 3. Learns. 4. A letter of the alphabet. f. 5. At the beginning. 6. Great. a. 7. By effort. m. 8. Of the book. m. 9. Bit by bit. ind. 10. Makes (him) understand. caus. of बुध्, 1. u. 4. a. 11. Taught. p. p. of दिश् (to give. 6. p.) with उप. 12. Having forgotten. ind. p. p. of स्मृ (to remember. l. p.) with वि. 13. again and again. ind. 14. Teaches. 15. Oh! 16. Vide V. 3. 17. Patience. 18. Kindness.
Lesson XX. (Continued.)
- Diligent. 2. By degrees. 3. Various. 4. Good.a. 5. Behaviour. 6. Leads. caus. of वृत् (to behave l. a.)with प्र. 7. Instructed. p. p. 8. Commendable p. p. 9. Becomes. 10. Should respect. pot. 3rd. sing. of मन् (to know. 4. a.) with बहु. 11. Grateful. कृतं जानातीति तथा. 12. Adorned. p. p. कृ (to do. 4. u.) with अलम्. 13. Shines. 14. Respect. 15. Protection. 16. Giver. 17. Father. 18. Should respect. pot. 3rd. sing. of चर् (to walk. l.p.) with उप.
Lesson XXI. A writer.
- Rustic. ग्रामे भवः.2. Write. 3. Writer. imp. 2nd. sing. 4. Requested. imp. 1st. sing. 5. At the foot. m,
This word is generally declined also like पद्. 6. Pain. 7. I desire. 6. p. 8. Falsehood. m. 9. Picture to your mind. conceive. 10. To read. inf. 11. Can be (read) pass pr. 3rd. pl. 12. As a rule. m.
Lesson XXII. Iron.
1. Black. 2. Metal 3. Mechanical work. n. 4. Needle. 5. Sword m. 6. Wedge. m. 7. Spoon. 8. Bolt. 9. Key. 10. In breaking. 11. Astonecutter’s chisel. 12. Scissors. 13. Very hard. 14. In fire. 15. Molten. p. p. 16. Soft. 17. Becomes successful.
Lesson XXIII. (Continued).
1. Hammer. 2. Thing. n. 3. Strike. pr. 3rd. pl. of हन्, 2. p. 4. Bends. 1. p. 5. Becomes wide. 6. Refined. p. p.7. Contracts itself. pr. of कुव्, (6. p.) with सप्न्. 8. Long. 9. By rubbing. 10. Polish. 11. Bright. 12. Wonderful. 13. Frequently. 14. On the whetstone. 15. Variety. 16. Of a pen. 17. The points of instruments. 18. Skilful.
Lesson XXIV. A wicked traveller.
1. On the way. न्, loc. sing. 2. A quarter of a Yojana. 3. Leader. 4. Requiring. 5. By chance. ind. 6. Kind. 7. Having come near. p. p. कर्तरि क्तः. 8. In the world. 9. (For your) sake. 10. Delay. 11. The path of the cows. 12. Tail. n. 13. Firmly fast. adv. 14. (If) thou holdest. pot. a. लम्ब, (1. a.) with अव. 15. Caused (him) to grasp. caus. perf. of ग्रह्·
Lesson XXV. (Continued).
1. Disturbance. confusion. m. 2. Attained. act.
p. p. 3. Attracting. pr. p. 4. Moved to and fro. perf. of भ्रम् (1. p.) with परि. 5. Sorrow. m. 6. Experiencing. pr. p. 7. Out of faith. m. 8. Freed. perf. of मुच्, 6. u. pr. मुञ्चति. Out of delight. n. 10. Pit. m. loc. sing. 11. Made (him) to fall. caus. perf. of पत्, 1.p. 12. Favourable. 13. Rashly. ind. 14. To deceive. inf. 15. Use. pr. 3rd. pl. of युज्, to join. 7. u.
Lesson XXVI. The market-street.
- In the street. 2. Merchants., ज् nom. pl. 3. Things exhibited for sale in the market. This word should be distinguished from क्रेय which means “a thing fit to be purchased”. 4. Sell. pr. 3rd. pl. of क्री(to buy. 9. u.) with वि. 5. Wheat. 6. Of paddy. gen. pl. 7. Doll. 8. Pease. 9. Beans. 10 Molasses.11. Sugar. 12. लब्धुं शक्यतेCan be obtained. 13. In markets. 14. Precious. 15. In India. 16. Supreme. 17. Eminence. 18. In Bombay. 19. In the continent of Europe. 20. Means. 21.Commerce.
Lesson XXVII. A mule and an ass.
- Of salt. 2.A mule. 3 Of wool. 4 Ass. 5 Stream-6 Cross. pr. 3rd. du. of तृृ 1. p. 7. By chance. 8. Was wet, act. p. p. 9. By dissolution. 10. Fortune. 11. Considered. imperf. of. मन्. videXX, 10, 12. Immersing in water. 13. Of lightening (the burden). 14. Way. 15. Plunging. pr. p. 16. “Wet. 17. Greater. अतिशयेन गुरुः.Comp. of गुरुः. 18. Injurious. n.
Lesson XXVIII. A carpenter.
- On timber. उ. n.loc. sing. 2. By an axe. 3. By a hatchet. 4. Lessons. 5. Box. 6. Cot.m. 7.A Seat. m. 8. A Statue. 9. Tools. 10. Makes. 11. In the creation. 12. Mostly, 18. Are used. 14. Skilful. 15. In Kerala.
Lesson XXIX. A foolish crow.
- Crow. 2. The sacred swan. 3. To make white. inf. 4. By birth. 5. Profession. f. 6. Having forsaken.ind. p. p. 7. The two wings. 8. Washes. 9. Month. 10. Gone.act. p. p. 11. Even then. ind. 12. Blackness. 13. As before. ind. 14. Fitting. a. 15. Lean. 16. Otherwise. 17. Ordained. p. p. 18. Should be accepted with pleasure.
Lesson XXX. An old virgin.
- Virgin. 2. Worshipped. perf. of आस् (2.a) with उप3. In front n. 4. Having appeared. ind. p. p. 5. A boon. 6. Choose. imp. 2nd. sing. of वृ, 9.u. 7. Sons. 8. With milk. 9. With ghee. 10. With. 11. Rice 12. Golden. स्वर्णस्य विकारः तस्मिन्. 13. Eating. pr. p. 14. Husband. 15. Admired. perf. of नन्द(1. p.) with अभि.
Lesson XXXI. A Dialogue.
- To-day. 2. Questions. 3. Have answered. 4. In particular ind. p. p. 5. Yesterday. 6. In copying. 7. Concluded. p. p. 8. Creating belief. a. 9. Of (your) father, 10. Sir! 11. Of this day. अद्य भवः,तस्य. 12. Because of the difficulty. कठिनस्य भावः तस्मात्13. Preceding. a. 14. Was employed. 15. Committing to memory. 16. Both. 17. To carry out. inf. 18. Now. 19. I excuse. (you) 1. a. 20. Always. 21. Truth-ful सत्यं वदतीति तथा.
Lesson XXXII. Grass and roses.
- Of grass. 2. By the cluster. m. 3. Mingled. p. p. 4. Said. perf. of भाष् , 1. a. 5. Lo! ind. 6. Sorrow- ful. act. p. p. 7. Followers. सहचरन्तीति तथातान्. 8. For-
gets. 9. Beauty. n. सुन्दरस्य भावः. 10. Fragrance. 11. In the flower-garden. n. 12. Nourished. 13. Serving. a.14. God’s. 15. Dependent.
Lesson XXXIII. The Sovereignty of India.
- Being inhabited. pass. pr. p. of वस् (to dwell.1. p.) with अधि. 2. Sovereignty. अधिपतेर्भावः—तत्3. Generosity. उदारस्य भावः. 4. Justice. f. 5. Valour. शूरस्य भावः, कर्म वा.6. Of kings. 7. Obeying. pr. p. 8.Country. राज्ञः कर्म भावोवा. 9. Protected. perf. 3rd. pl. of पाल् (10. p.) with परि.10. Histories. 11. Which occurred then तदानीं भवानि. 12. Stories. 13. Of the sway. n. 14. Methods. f. 15. In detail. m. 16. To infer. inf. 17. Fame. f. 18. Sing. 3rd. pl. of गै 1. p.
Lesson XXXIV. (Continued).
- Belonging to the Hindus. 2. Religion. n. 3. Prowess. पुरूषस्य भावः. 4. Declined. p. p. of क्षी, to decline.1. p. 5. The Mahomedans. 6. Having conquered. ind. p. p. 7. Generally. ind. 8. Hand. m. 9. Just. धर्मादनपेते 10. To make (them) enter. inf. 11. Deeds. न्. 12. By word. 13. To speak. inf. 14. From the annoyance. 15. Delivery. n. 16. Long. ind. 17. The inhabitants of Bharata. भारते भवाः.18. Gained. perf. 3rd. pl. of लभ्, 1. a.
Lesson XXXV. (Continued).
- Of the English. 2. Community. 3. Having come. ind. p. p. of गम् (to go. 1. p.) with आ. 4. Having gained. ind. p. p. 5. Extended. caus. imperf. of वृध्, to thrive. 1. a. 6. Extended. 7. Policy. 8. Having
followed the course of. ind. p. p. 9. Handed over. caus. perf. 3rd. sing. of ऋ(to go. 1. p.) with सम्. 10. Effort. 11. Bravery. धीरस्य भावः12. Perception. 13. Of prosperity. 14. Object. n. 15. Illustration.
Lesson XXXVI. The method of study.
- Limited. p. p. 2. Custom. m. 3. Powing; Salutation. m. 4. Being ordered. p. p. 5. In the seat. 6. Should sit. pot. 3rd. sing. of विश्(to enter. 6. p.) with उप. 7. The previous day. ind. पूर्वस्मिन्नहनि.8. New. 9. Attention, 10. On paper. 11. Inferiority. m. loc. absolute. 12. Should be ashamed. pot. 3rd. sing. 13. Pride. m. 14. Reading. 15. Composition. 16. Ordered. caus. p. p. 17. In the evening. ind. 18. During holidays.
Lesson XXXVII. Avarice.
- The female swan. 2. Egg. 3. Used to bring forth. pot. 4. Ambitious. 5. Satisfied. 6. If I should kill. pot. of हन् . 7. Simultaneously. 8. Cruel. 9. Clove in two. 10. Pitiable. 11. As before. ind. 12. Should give. pot. 3rd sing. of तृृ (to cross. 1. p.) with वि. 13.Income. m. 14. Destroys. 15. In sin. n.
Lesson XXXVIII. The bat.
- War. n. 2. Cowardly. 3. Bat.वागेव गुदं यस्यसः 4. Entered. 5. Only. ind. 6. Protection. 7. Having teeth. 8. Afraid. act. p. p. 9. In the sky. m. 10. I fall. 11. Injured; imperf. of द्रुह्. 4. p. 12. Shows. caus. pr. of काश् (1. a.) with प्र.
Lesson XXXIX. The necessity of learning.
- To speak. inf. 2. Advices. 3. Exercise. 4. Having learat. p. p. 5. Scientific. शास्त्रे भवानाम् 6. Worldly. लोके विदितानाम्7. Of truths. 8. One who knows. 9. Caming into existence. pr. p. 10. Know- lelge. 11. Goodness. 12. Should thrive. pot.
Lesson XL. Victoria, Empress.
- Birth. न्n. acc. 2. Crown. n. 3. Generous. 4. Behavion: 5. Enpress. चक्रं ( सैन्य
न् ) वर्तप्रतीति तथा 6 Is celebrated. pass. pr. 3rd. sing. of चक्ष्(2. a.) with प्र. La non-conjugational tenses ख्या takes the place of चक्ष् and both the Atmanepada and Parasmipada forms are found; In the perfect these forms are taken optionally. ex. चख्यौ, चख्ये,चचक्षे,&c. 7. Command or Order. 8. By the Parliament. 9. Well. 10. Molest. pot. 3rd. pl. of
वाच्, 1. a. 11. Equal. 12. In the possession of. m. 13.
Hundred. 14. By the grace of.
Lesson XLI. Gɔd.
- Created. perf. of सृज्. 2. That have grown or arison. act. p. p. of पद् with उद् 3. Grass. 4. Loaf. n. 5. Grain. 6. Is worthy of. pr. of कृ
प् 1. a. 7. Agriculture. 8. Is effected by. pr. of सिध् 4. p. 9. Removes. off, pr. 3rd. sing. of हृ, 1. u. 10. Of kindness. 11. Seat. 12. When awake. m. 13. When half awake and half asleep. 14. In sleep. f. 15. Devotion. f. 16. Desires. 17. Gives. pr. of दा 3. p. 18. Omniscient. सर्वं जानातीति तथा, त
त्.19. Chase. n. 20. We remember pr. of
स्मृ,1. P.
॥श्रीः॥
द्वितीया पाठावली।
________
अनन्तशयनस्थ -
राजकीयसंस्कृतविद्यामन्दिराध्यक्षेण
तरुवै .गणपतिशास्त्रिणा
विरचिता।
__________
अनन्तशयने
संस्कृतभास्करमुद्रालयाधिपतिना
के. नारायणय्यङ्कारित्यनेन स्वकीयमुद्रालये
मुद्रयित्वा प्राकाश्यं प्रापिता.
___________
१९०२ क्रिस्त्वब्दः।
——————
'
PREFACE.
_____________
This book is styled the Second Reader. It will be easy to learn for those who are well-read in the First Reader, and the study of it, will help those who desire to take up the next higher number in the series.
A few easy compound words are used here and there in the different lessons.
T. G.
निवेदना.
———
इयं नाम ‘द्वितीया पाठावली’ इत्यभिधीयते. प्रथमपावलीमधीतवद्भिर्बालैरस्या अध्ययनं सुकरं, तृतीयपाठावलीमध्येतुकामानामनुकूलं च अस्यां समासवन्ति पदानि तत्रतत्राबाहुल्येन सुललितानि प्रयुक्तानि
त. गणपतिशास्त्री.
विषायनुक्रमः।
—————
[TABLE]
CONTENTS.
—————
1. Mother and father. | 1 |
2. Duty of men. | 2 |
3. Education. | 3 |
4. Air. | 5 |
5. The cause of poverty. | 6 |
6. Chemist. | 7 |
7. House. | 9 |
8. Selfishness. | 10 |
9. Food. | 12 |
10.Fate. | 11 |
11. Pearls. | 15 |
12. Quarrel. | 17 |
13. Who works for me? | 19 |
14. Slaughter of the wolf. | 21 |
15. The Cat and the Parrot. | 23 |
16. Echo. | 24 |
17. The Camel. | 25 |
18, Idleness. | 27 |
19. Idleness (continued.) | 29 |
20. Usefulness of life. | 30 |
21. The Horse. | 31 |
22. The man and the lion. | 32 |
23. The Whale. | 34 |
24. The Whale (continued.) | 35 |
25. The Fox. | 36 |
26. Catechism. | 37 |
27. Catechism (continued.) | 39 |
28. Backbiting. | 41 |
29. The king and the prisoners. | 42 |
30. Agreeable verses. | 44 |
31. Thoughtlessness. | 45 |
32. Metals. | 47 |
33. Courage. | 49 |
34. Courage (continued.) | 50 |
35. Mercy. | 51 |
36. Mercy (continued.) | 52 |
37. The spider and its web. | 53 |
38. The Sun and the Wind. | 55 |
39. The Himalayas. | 56 |
40.Advice. | 58 |
॥श्रीः॥
द्वितीया पाठावली
<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1735383143do.png"/>
१. माता पिता च.
माता तावद् दश मासानस्मान् कुक्षौ वहति; तदा जायमानं महान्तं क्लेशं रोगं च सहते; पथ्यैहारैर्गर्भं पुष्णाति. प्रसवस्य समये तस्या दुःखमियदिति वक्तुं न शक्यते. प्रायेण तदानीं स मृत्वैव पुनर्जायते. यावदन्नं स्वयं भक्षयितुमस्माकं शक्तिर्न जायते, तावत् स्तन्यं क्षीरं दत्त्वास्मान् जननी वर्धयति. अस्माकमारोग्याय सा स्वयमौषधं सेवते; अस्वादु चाशनं गृह्णाति अपिच प्रसूरस्माकमल्पमप्युपद्रवं जायमानमात्मन एव महान्तमुपद्रवं जातं मन्यते . अत्र विषये यथा माता, तथैव पिता.
स उक्तानां मातुः क्लेशानां परिहारे बहून् यत्नान् करोति। किञ्चैतौ मनसास्माकं हितं सर्वदा चिन्तयतः, वाचा वदतः, कर्मणा च कुरुतः. एताभ्यां वत्सलाभ्यां प्रयत्नेन वयं चिन्त्यमानाः सन्तो बलिनः पटवो युवानः सम्पद्यामहे**.**
पश्यत बालाः ! पित्रोः सकाशात् कियानुपकार ऋणमिवास्मास्वापततीति तस्मात् तौ दैववदस्माभिः पूजनीयौ.
यौ सहेते बहून क्लेशान्
वात्सल्यात् पोषणाय नः।
दैववत् पूजनीयौ ता-
वस्माभिः पितरौ सदा॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735383439Screenshot2024-07-14173336.png"/>
२. मनुष्याणां कृत्यम्.
पुरुषस्य बाल्ये माता पिता च रक्षकावित्यवदाम.यदासौ युवा सम्पन्नस्तदापि परस्य साहाय्यं विनात्मानं पोष्टुंनैव प्रभवति.
तथाहि— प्रशस्तेनैश्वर्येण युक्तः कश्चिद्राजापि सन् भोजनं शयनं विविधान् भोगांश्च भृत्यस्य प्रजायाश्च साहाय्येन विना कथं साधयेत् ? भृत्यः प्रजा वा राज्ञः सकाशाद्रक्षाया अलाभे कथं सुखं जीवेत् ? तथास्तिमान् जनः क्रेतव्यं वस्तु वणिजोऽभावे कुतो लभेत ? वणिक् च पण्यं वस्त्वस्तिमतोऽभावे कस्मै विक्रीणीत ? अपि च कश्चिदापदि दयया स्नेहेन वा परं चेन्न रक्षति, परस्तं कालान्तरे कथं रक्षेत् ? एवं तावन्मनुष्यान् प्रति मनुष्याणां साहाय्यं यौवनेऽप्यपेक्षितम् ; वार्धके तु सुतरामपेक्षितम्.
तदिदं साहाय्यमेकमेवावलम्ब्य यस्माल्लोकयात्रा प्रवृत्ता तस्मादिदमेव मानुषाणां कृत्यमिति निश्चयः.
मिथः साह्यं मनुष्याणामालम्ब्यैव प्रवर्तते।
लोकस्य यात्रा यत् तस्मात्कृत्यं तेषामिदं मतम्॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735383769m.png"/>
३. विद्या.
पशवः पक्षिणोऽन्ये च क्षुद्रा जन्तवो लोके
जीवन्ति। तेऽपि क्षुधि जातायामाहारं गृह्णन्ति, श्रमे जाते निद्रान्ति, स्वान्यपत्यानि रक्षन्ति, विरोधिने च दुह्यन्ति। तावन्मात्रस्य कर्मण आवश्यिका बुद्धिस्तेषामस्ति।मनुष्यस्य पुनस्ततो विलक्षणां कामपि बुद्धिं कारुणिक ईश्वरो दत्तवान्.अस्यामेव बहुधा संस्कारा आधातुं शक्यन्ते.मनुष्यस्तथा संस्कृताया बुद्धेर्बलाद् बलिनो जन्तून् दमयितुं सर्वं च लोकं वशयितुं शक्तो भवति.
बुद्धेः संस्कारो नाम लौकिकानां वस्तूनां तत्त्वस्यावगमनं प्राचीनानां तथाधुनिकानां समाचाराणां विज्ञानं चोच्यते. तच्च विद्याया अभ्यासाज्जायते। यदि मनुष्यो विद्याया अभ्यासे बुद्धिं न प्रवर्तयेत्, तर्हि स पशुना तुल्यः स्यात्.आत्मना दत्तां बुद्धिं वृथायमकरोदिति तं मूर्खमीश्वरो दण्डयेत्.
तस्माद्विद्याया अभ्यासो मनुष्याणामवश्यं कर्तव्यः.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735384029to.png"/>
४. वायुः
वायुरस्मान् परितः सर्वदा विद्यते। किन्त्वेनं न चक्षुषा गोचरयितुं शक्नुमः. व्यजनेन वीजने क्रियमाणे सुखस्पर्शं यं पदार्थमनुभवामः, स एव वायुः.यदायं वेगेन वाति, तदा वृक्षाणां पत्राणि शाखाश्च कम्पयति। कदाचिदयं महतो वृक्षानुन्मूलयति।
मनुष्यो मृगो वा वायुना विना न जीवेत्.विना वयमन्नं पानीयं वा कान्यपि दिनानि जीवितुं शक्नुमः.विना तु वायुं कतिपयैर्निमिषैर्म्रियेमहि ; वृक्षा ओषधयश्च न प्ररोहेयुः.
अस्मासूच्छ्वसत्सु वायुरस्माकं शरीरस्यान्तः प्रविश्य रक्तं शुद्धं करोति.अस्मासु निःश्वसत्सु शरीराद्वहिरागच्छन् वायू रक्ताद् गृहीतैर्दुष्टैर्वस्तुभिस्सम्मिश्रो दुष्टो भवति.अतो जनानां सङ्घेनाधिष्ठिते संवृते गृहे विद्यमानो वायुः प्राणानां हितो न भवति.
कालिघट्टे बहुभ्यो वर्षेभ्यः प्राक्१४३ मनुष्या द्वाभ्यां वातायनाभ्यामुपलक्षितायां संवृतायां क्वचन
कारायां रात्रौ निवेशिताः. तावतांजनानां पर्याप्तः शुद्धो वायुस्तत्र नासीत्.अतोऽपरेद्युः प्रातस्तेषु २३ जनाः केवलं मृतकल्पा जीवन्तो दृष्टाः.सेदानीं कालगर्त इत्युच्यते.
तस्मादस्माकमारोग्याय शुद्धो वायुरावश्यकः.निःश्वासेन दूषिते वायौ पुनः पुनरुच्छ्वसनमस्माकं बलं हरति; रोगं च जनयति.
_________________
५. दारिद्र्यस्य कारणम्.
यो धनिको भवितुमिच्छति, स लभ्यमानं धनं सर्वं न व्यययेत्.स आयान्न्यूनं व्ययं कुर्वन् यत्किञ्चिद् द्रव्यं यादृच्छिकस्य व्ययस्यार्थे रक्षेत्; रक्ष्यमाणं च धनं यथा वर्धेत, तथोपयुञ्जीत.
भारतीयास्तावत् प्रायेण व्ययमायतेरधिकं कुर्वन्ति.बहवो जनाः कन्याया विवाहेऽन्यस्मिन् वा तादृश्युत्सवे बन्धुः प्रातिवेशिको वा प्रचुरं धनं विनियुक्तवानिति कृत्वा स्वयमपि बहुलं धनं व्ययय-
न्ति.केचिदेतादृशाय व्ययाय ऋणमपि कुर्वन्ति.अथ यदि व्ययितावशिष्टं धनं कस्यचित् स्यात्, स तद् भूमौ स्थापयति.अपिच सर्वासु जातिषु स्त्रिय आभरणस्यार्थे महान्तं व्ययं कारयन्ति.त एते दारिद्र्यस्य हेतव आचाराः सर्वथा वर्जनीयाः.
सत्यं क्वचित्समये धनस्य भूमौ स्थापनमावश्यकमासीत्, यदा भारतखण्डमिदमाङ्गलेयानां साम्राज्यस्याधीनं नाभवत्, तदा हि तस्कराः क्रूराः सैनिकाश्च ग्रामान्नगराणि चाक्रम्यानवरतं व्याकुलयामासुः.तदानीं प्राणा अपि प्रजानां न स्वतन्त्राः, किमुत धनानि.सम्प्रत्याङ्गलराजशासनेन नीत्या परिपाल्यमानानामस्माकं न किञ्चिदपि भयमस्ति.अतो धनं भारतीयैर्भूमौ न स्थाप्यम्; न वान्येन प्रकारेण रक्षणीयम्.किन्तु लाभ हेतौ कर्मणि विस्रब्धं प्रयोक्तव्यम्.
६. रसवेदी।
पुरा चोलेषु कश्चिद्राजा बभूव.कोऽपि रस-
वेदी सुवर्णस्य सृष्टौशक्तमात्मानमभिनयस्तं राजानमाससाद.राजा मां बहूनां धनानां दानेन सम्भावयिष्यतीति तस्य बुद्धिरासीत्। राजा न किञ्चिद्वसु तस्मै दत्तवान्; किन्तु शून्यां विशालां पेटिकामेकामदात्.
तं रसवेदी पप्रच्छ— ‘देव! विदुषां विषये त्वामुदारं जनाः कीर्तयन्ति.तत् कुतो माये विपरीतं वर्तसे?" इति.लोकस्य वञ्चनायां रसवेदिनां सामर्थ्यं तेन राज्ञा प्रागेव ज्ञातम्.अतः स एवमुत्तरं ददौ—‘भोरसवेदिन् ! द्रविणं स्वयं स्रष्टुं शक्तोऽसि। तस्य ते द्रविणेन दत्तेन किं फलम् ? स्वयं सृज्यमानस्य धनस्य पेटिका केवलमावश्यिकेति कृत्वा पेटिकां तुभ्यं प्रादाम्’ इति.
वस्तुतो रसवेदिषु विश्वासो न कार्यः। ते हि सर्वंलोहं सुवर्णं करिष्याम इति जनान् प्रलोभयन्तिः तेभ्यस्ताम्रं रजतं चापहरन्ति.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1735384935to.png"/>
७. गृहाणि.
गृहाणि नाम तद्वासिनां जनानामारोग्ये बहुलमुपकारकाणि भवन्ति.अतस्तानि प्रयत्नात् समीचीनसन्निवेशानि कार्याणि.
न तावन्निम्ने प्रदेशे गृहं निर्मातव्यं,यत्र जलावरोधो भवेत्.अक्लिन्नेऽपि स्थले भूतलं द्वित्रपदान्युत्थाप्य तत्र गृहं सन्निवेशनीयम्। तथा सन्निवेशने रोगहेतुर्भूक्लेदोन जायेत.गृहस्य पटलं तथा प्रवणं विधेयं, यथा वृष्टिजलं तूर्णमभिष्यन्देत.
गृहस्य संस्थानानि निरङ्कशे वायोः सञ्चारेऽनुकुलानि कार्याणि. प्रायेण भारतीयानां गृहाणां मध्याङ्गणानि वायोर्वानेऽननुकूलानि; वातायनानि कवाटानि चोत्सर्गतः संख्यायामाकृतौ चाल्पानि दृश्यन्ते. तदेतन्न साम्प्रतम्.
संकुचितव
क्त्रावीथ्यो रोगं जनयन्ति.अतस्तत्र गृहाणि न कार्याणि. अपिच, तानि निबिडसंश्लिष्टानि न विधेयानि; नवा बहुतरैर्जनैरधिवस्तव्यानि.
शय्यागृहाणि मृद्भाण्डैःकाष्ठैः कुतृणैरन्यैश्चनानाविधैरुपकरणैर्नापूरणीयानि। अन्यथा तेष्वपेक्षिता वायुसम्पत्तिर्न स्यात्।
अवरतो वर्षस्य सकृद्गृहाणि सुधया लेपनीयानि। शुद्धिहेतुषु महार्घः कश्चित्
पदार्त्थःसुधा नाम। मारीप्रसङ्गेषु च गृहाणि सुधालेपेन संस्कार्याणि।
अनुदिनं सर्वाः कक्ष्या मार्जनीयाः; वारस्य द्विःसकृद्वाजलेन क्षालनीयाः।
किञ्च गृहं परितः सुखावहाश्छायादानक्षमा वृक्षा आवश्यकाः। किन्तु तैस्तथा बहुलैर्न भाव्यं, यथा सूर्यातपस्य समीरणस्य चातीव प्रतिरोधःस्यात्। गृहपरिसरे गुल्मस्य प्ररोहणं नानुमन्तव्यम्। वृक्षेभ्यः पतन्ति पत्राणि दिनेदिने दूरतो निरसनीयानि।
———————
८. स्वार्थपरता।
कश्चन वा मार्जारश्चाहारार्थिनौ कस्यचिद्
महानसस्य द्वारेऽतिष्ठताम्.सूदस्तावुद्दिश्य बहुलं भक्तशिष्टमन्नं व्यकिरत्.तद् ग्रहीतुमुपधावितयोस्त- योर्बलिष्ठःश्वा मार्जारं दूरतो विद्राव्य सर्वमन्नं स्वयमभक्षयत्.इयं नाम स्वार्थपरता— यत् श्वास्वोदरमेव केवलमचिन्तवत्.यथा श्वा, तथा मार्जारोऽप्यन्नं प्रतीक्षाञ्चक्रे.किन्तु बलाधिकः श्वा सर्वमन्नं स्वयं जग्राह.
शुनस्तावत् सदसद्विवेको नास्ति, नेश्वरविषया बुद्धिः, न वावदातरमणीयानामाचाराणां परिज्ञानम्.मनुष्याणां पुनस्ततो भिन्ना प्रकृतिराचारनियमश्चभिन्नः.तैर्हि स्वार्थपरतां विहाय न्याय्ये धर्म्ये च पथिवर्तितव्यमिति भगवतोऽनुशासनमस्ति.अनेनैवाभिप्रायेण कारुणिको भगवाञ्जन्त्वन्तरविलक्षणां सदसद्विवेचिनीं सर्वकार्यनिर्वहणक्षमां बुद्धिं मनुष्येभ्यो दत्तवान्.
अन्येभ्यो देयस्य न केवलं दानमात्रं मनुष्यैः कार्यम्; किन्तु तेषु स्नेहोऽपि निर्व्याजः कार्यः.स्वार्थपरतां हि लोके साधवो विगायन्ति। न खलु स्वार्थ-
परो जनो विश्वसनीयः सुकृती कृती वा भवति.यद्येकैको जनः स्वार्थमेव केवलमवेक्षेत, तर्हि सर्वो लोको दुःखैकरसो भवेत्। यदि बालानां यूनाञ्च मार्जारवत् श्ववच्च स्वार्थपरता स्याद्, अविश्रान्तो हि कलह उभयेषां भवेत्.
९. आहारः.
अस्माकं देहे तावदौष्ण्यस्य प्रतिनियता काचिन्मात्रा सर्वदापेक्षिता.यदि तस्या मात्राया हीनमतिरिक्तं वौष्ण्यं स्यात्, तदा देहोऽस्वस्थो भवति.शैत्येन पुनराक्रान्ते देहे सर्वाणीन्द्रियाणि निर्व्यापाराणि स्युः.तस्मादौष्ण्यं देहे सदा रक्षणीयम्.
अस्त्यस्माकमुदरे कश्चिदग्निः असौ ज्वालां प्रदर्शयन् लौकिकाग्निवन्न बहिरुपलभ्यते.किन्त्वयमन्ता स्थितो देहमखिलमुष्णयति.अतिशीतेऽपि कालेऽ
स्यैवः महिम्ना देहे सुरक्षित ऊष्मा तिष्ठति.
अस्वाग्नेरिन्धनमाहारो भवति, आहारस्या-
करणे देहे शीतिम्न उपलम्भात् करणे चोष्मणोऽवस्थानादाहार एवौष्ण्यस्य हेतुरिति वक्तुं शक्यते। तत्र शाल्यन्नं देहौष्ण्यत्राणे भृशमनुकूल आहारः। तथैव गुडो घृतं तैलं च।
आहारो देहस्य बलं जनयति, रक्तमांसरूपेण च परिणमति। शाल्यन्ने मांसपारेणामी सारः स्वल्पः।गोधूमे मुद्गेमाषे आढके च स बहुलो वर्तते। तेन गोधूमान्नभोजिनः शाल्यन्नभोजिभ्यो बलवत्तरा भवन्ति। आढकेन मिश्रं शाल्यन्नमतीव पुष्टिदं भवति। मधुररसा आहारा अतिमात्रं घृतं च न हितानि भवन्ति। तानि हि मांसं स्निग्धकोमलमापादयन्ति।
आहाराश्च पक्वाशयं प्राप्य यदि जीर्णा भवन्ति, तदास्माकं बलमावहन्ति। केचित्तु पदार्था अपक्वंफलं, पिष्टक इत्येवञ्जातीयकाः सुखमजीर्यन्तो भोक्तुरामयमुत्पादयन्ति। अतस्ते नाभ्यवहार्याः। अपिच, क्षुध्यनुपजातायां भोजनं न कर्तव्यम्। जातायां चाभुञ्जानेन न चिरमासितव्यम्।
——————————
१०. विधिः।
इदमित्थभितीशेन ललाटे लिखितां लिपिम्।
महतापि प्रयत्नेन नान्यथा कर्तुमीश्महे॥
इति कश्चिद्वाद आस्तिकजनमध्ये बहुलं प्रचरति। किन्तु सम्यक् कृतेष्वपि प्रयत्नेषुयस्य कार्यं न सिद्धं भवति, तादृशस्योद्यमशीलस्यैवायं वादःशोभते;न पुनरुद्यमहीनत्य।
उद्यमो नाम मनुष्याणां स्वधर्मो भवति। स एवं कार्यसिद्धेर्मुख्यं द्वारम्। यदि पुरुषो भवितव्यतामालम्ब्य पाकानुकूलंयत्नं न कुर्वीत, तदा करस्थस्तण्डुलः कथमोदनरूपतां प्रतिपद्येत ?
केचित् तावज्जना अलसतया मूढतया चैनं वादमाश्रित्य बहूननर्थान् सम्पादयन्ति। कश्चिन्मूढो मलप्रचुरे प्रदेशे वसन् कुत्सितेन चान्नेन देहयात्रां कुर्वन् रोगेणाभिभूयते। अस्यानर्थस्य हेतावात्मापराधे प्रत्यक्षेऽपि स आह—" मम भवितव्यतेदृशी" इति। तथा मातापितरौ चापलाद् दुष्टैः सहवासं कुर्वाणेषु
पुत्रेषु स्वयमुदासीनौ भूत्वा कालेन तेषु धूर्तचौरेषु जातेषु ‘तादृशी तेषां शिरोलिपिःकथमन्यथयितुं शक्यते ?’ इति वदतः।
वस्तुत एवम्प्राया जनाः स्वधर्मं परित्यज्येश्वरे कारुणिके स्वापराधमारोपयन्तः पापमर्जयन्ति। ईश्वरो हि धर्माधर्मयोर्विवेचने शक्तां बुद्धिमस्मभ्यं दत्तवान्। तथा यदि स्वधर्ममवधायानुतिष्ठेम, तर्हि पूर्वोक्ता अनर्था न जायेरन्। न वयमेतावता दैवमप्रमाणं ब्रूमः; परन्तु कर्तव्येषु पुरुषकारेषु नोपेक्षा कार्येेति।
———————
११. मौक्तिकानि।
आपाण्डुभास्वरः कश्चित्पदार्थो मौक्तिकं नाम। शुक्तिविशेषात् तदुत्पद्यते। मौक्तिकशुक्तेरीषत्प्रवणाकृती द्वौपुटौ वर्तेते। तौयथापेक्षं विधटयितुं घटयितुं च शक्येते। तयोः पृष्ठंस्वभावात् परुषम्; अन्तर्भागस्तु श्लक्ष्णः शुक्लभासुरश्च भवति।
मुक्ताशुक्तयः समुद्रे जायन्ते। तत्रापि क्वचित्क्वचिदेव भागे ता उपलभ्यन्ते। तस्मिन्नपि भागे न सर्वदा ताः सुलभाः; किन्तु प्रतिनियते काले। निपुणाः कैवर्ता जले चिरं निमज्ज्य तास्तलस्थाः कृच्छ्रेण सञ्चिन्वन्ति। अस्मिन् कर्मणि लङ्कायाः पश्चिमवेलावासिनां धीवराणामत्यद्भूतं सामर्थ्यं दृश्यते। तत्र हि जलस्य उपद्वाससतानां पदानामधस्तले मुक्ताशुक्तीनां स्थितिः। धीवरा नावारूढास्तत्र गत्वा मङ्क्ता, रमुन्मज्जनपरिहाराय रज्जुबद्धशिलान्यस्तपादं कृत्वा जलेऽवतारयन्ति। सच यावच्छक्ति जलस्याधस्तले चिरमवतिष्ठमानस्ततइतः शुक्तीरु
ञ्चित्य रज्जुमत्यां मञ्जूषायां निवेशयति। यदा चासौ मज्जनं न सहतेतदात्मानं शिलाबन्धान्मोचयन्नुन्मज्जति। ततः कांश्चित् क्षणान् विश्रम्य पुनरपि शुक्तिविचयाय पूर्ववन्मज्जति।
एताभ्यः शुक्तिभ्यो लभ्यमानेषु मुक्ताफलेषु कानिचिद् गुणवन्ति भवन्ति, तत्र कानिचिन्न।तत्र गुण-
बतां तेषां महन्मूल्यं भवति। एभिर्नानारूपाण्याभरणानि निर्मीयन्ते।
—————————
१२. कलहः (संवादः)
सोमगुप्तः— किमिति रे हरदत्त ! गौतमेनकलहायसे?
हरदत्तः— स कुत्सितेन नाम्ना मामाह्वयत्। तच्च न मह्यमरोचत। तेन मे कोपो जातः।
सोम—ततस्त्वं तस्मिन् किमाचरितवानसि ?
हर— अहमपि कुत्सितेन नाम्ना तं प्रत्याह्वयम्। अथ स मह्यमेकं प्रहारमदात् । ततोऽहमाह्वये तं कलहाय।
सोम— एवं तावद्युवां दण्डोपर्युद्गम्य विग्रहं कुर्वतोर्द्वयोः क्रीडनकयोः समानौ समपद्येथाम्।
हर—किमुच्यते भोः? किमार्योमन्यते ?— ‘तत्कृतः प्रहारो मया तूष्णीं प्रतिग्राह्य’ इति।
सोम—यदि स प्रतिगृह्येत, ततः को दोषो भवेत् ? किन्नाम नार्हसि त्वमन्येषु जनेषु स्नेहं कर्तुम्?
स चेन्निस्स्नेहस्त्वां ताडयेत्; त्वया स वक्तव्यो— ‘मा मां ताडय’ इति उपाध्यायो वा तदपराधं निवेदनीयः।
हर—आर्य! यद्युपाध्यायो न निवेद्यते, तर्हिमां ताडयन् स मया स्वयं नैव प्रतिताडनीय इति किं भवतोऽभिप्रायः ? यदि शक्नुयाम्, अवश्यं तं हन्याम्।
सोम— सोऽयं स्वप्रतिभानुसारी तवाध्यवसायः। किन्त्वयं युक्तो न वेति न विचारयसि।
हर—न खल्वेतद्युक्तम्, यत् कुनाम्ना स मामाह्वयत्।
सोम— सत्यम्। किन्तद्युक्तम् ? यत् पूर्वेद्युः शृण्वति मयि कुमारदासनामानं बालकं कुनाम्ना त्वमाह्वयः, स किं त्वां हन्तुमैच्छत् ?
हर— तस्य का शक्तिरस्ति मां हन्तुम्। वयसा बलेन चाल्पो हि स बालकः शक्रोम्यहमेकेन प्रहरेण तं भूमौ पातयितुम्।
सोम— साधु हरदत्त ! साधु। इदं ते मतं, बलाधि-
कस्त्वं दुर्बलं तं बालकं कुनाम्नामन्त्रयितुमर्हसि; स तु दुर्बलस्तूष्णीमासतुमिति। यदि तुभ्यं कुनामामन्त्रणेनात्मनि कृतापराधाय बलाधिकोऽहं कुप्येयं, ताडनञ्च दद्यां, तत् किं तव प्रियं भवेत् ?
हर— नैवार्य ! प्रियं भवेत्।
सोम— तर्हि यदात्मविषये प्रियं मन्यसे, तदेवान्यविषये त्वमाचर। मा तावदितः परमन्यस्मै द्रोहं कार्षीः।
हर— आर्य! गृहीत एष ते मया शिरसोपदेशः नाहमद्यप्रभृति कस्मैचिदपि दुह्येयम्।
१३. को मदर्थे प्रयस्यति ?
कापि योषित् स्वकुटीद्वारे निषण्णा कर्मकरणश्रमं प्रतिदिनमात्मनानुभूयमानं ध्यायंध्यायं दूयमाना दीर्घमुष्णञ्च निश्वसतीत्थं विललाप— ‘अहो बत! महन्मे कष्टमविच्छिन्नमीश्वरो विदधौ; यदहमा-
त्मानमन्यार्थे प्रत्यहं बलवदायासयामि; न तु मदर्थे कश्चिद आयस्यति’ इति।
तदानीं तदन्तिके गच्छन्ती बुद्धिमती काचित् प्रातिवेशिकी तद्वाक्यमाकर्ण्य सोपहासमुवाच। ‘किं ब्रवीषि सखि ! ’ न कोऽपि मदर्थे कर्म करोति’ इति। असंशयं त्वमतथ्यग्राहिणी मूढासि। पचसि हि त्वं तण्डुलमनुदिनम्। कथमसौ तव करमयासीत्? कः केदारे धान्यमुवाप ? कस्ततः परिणतं धान्यं लुलाव ? कस्तदवघातेन वितुषविशदं कृत्वा विपणिमानिनाय ? कटमासनञ्च क उदपादयत् ? महार्णवस्य जलात् को लवणमुद्भावयामास? दिनेदिने येन त्वं शाकान् खण्डयसि, सोऽयमसिः किं स्वयमेव प्रादुर्बभूव ? अयः किमात्मनैव भूमेर्निरगच्छत् ? उलूखलं मुसलादिकञ्च को निर्ममौ? किं पाकपात्रं त्वं निरमाः?
अपिच वस्त्रं प्रति सखि! किञ्चिदालोचयः इदं हि कार्पासतन्तुभिर्निर्मितम्। कर्षकाः कृष्टेषु क्षेत्रेषु
कार्पासबीजान्युप्त्वा तत्तूलं सञ्जगृहुः। तन्निरस्थिकं कृत्वा सूत्रणचणाः सूत्रयामासुः। तैश्च सूत्रैस्तन्तुवाया इदं वस्त्रमवयन्। यदि कर्षकादय उक्तरीत्या न व्याप्रियेरन्, कथं ते वस्त्रलाभः स्यात् ?
एवमल्पेऽस्मिन् कुटीरे त्वया दिवानिशमुपयुज्यमानानां पदार्थानामागमे विचार्यमाणे त्वदर्थे कृतप्रयासा जना असंख्याः प्रतीयन्ते। तस्मात् ‘न कोऽपि मदर्थे प्रयस्यति’ इति मा पुर्नब्रूहि’ इति।
———————
१४. वृकवधः।
प्रारस्देशे जीनो नाम कश्चिद् बालः पर्वतस्येपत्यकायां मात्रा सह कामपि कुटीमधिवसति स्म। तस्य पिता भटवृत्तिमाश्रयन् देशान्तरं जगाम। स गमनसमये जीनस्य हस्ते तस्य मातरं द्वे कनिष्ठे स्वसारौ च समर्पयामास। बालो द्वादशेऽपि वयसि वर्तमानः पित्रा समर्पितं भारं भक्त्या प्रीत्या च सम्यग् बभार।
स एकदा काष्ठाहरणाय स्वसृभ्यां साकं वनमागत्य क्वचित् काष्ठानिच्छिन्दन् स्वस्रोर्भयाक्रन्दं शुश्राव। ‘कुतोऽयं ध्वनिः’ इति सावेगं विवृत्य सर्वतो दत्तदृष्टिः स स्वसारावभिपतितुं सन्नह्यन्तं पीनं कमपि वृकं ददर्श। जीनस्तत्क्षणे स्वस्रोर्वृकस्य चाभ्यन्तरं प्रविश्य करस्थेन कुठारेण वृकं प्रजहार। किन्तु स प्रहारो न तीव्र आसीत्। अतस्तेन वृको व्रणितमात्रोऽभवत्; न पुनर्मारितः। ततः स कोपावेशाज्जीनमभिपत्य व्रणितमकरोत्। तथापि जीनो धैर्यममुञ्चन् वृकेण सह विग्रहमकरोत्; अन्ते च तं परशुना तीव्रं प्रहृत्य भूमौ पातयामास। एवं तावदतिबाल्ये महता साहसेन स्वसारावात्मानञ्च जीनो ररक्ष।
तामिमां वार्त्तांप्रान्सराज्यचक्रवर्ती नैपोलियः कर्णाकर्णिकया श्रुत्वा जीनं खलूर्यां प्रवेश्यायुधविद्यायां प्रवीणमकारयत्। ततो जीनस्तत्सेनायां समवेतः सुभटवृत्या जीवितकालं निनाय।
———————
१५. शुको विडालश्च।
ललना कापि मनोरमं शुकमेकं पुपोष। स तस्यां तथा विस्रब्धो बभूव, यथा स तस्या वासगृहमभितः पतेत्; आसने निषीदेत्; कराङ्गुलौ नृत्येत्; करतलस्थं भक्ष्यशकलं च भक्षयेत्।
बिडालोऽपि कश्चित् तस्या वशेऽवर्तत। स शुकपञ्जरवति तस्या वासगृहे मुहुरागत्य विहरन्नपि शुकस्य न कमप्युपद्रवं चकार। स हि शुकेन सह स्निग्धं व्यवहर्तुमुचितां शिक्षां बाल्ये ग्राहितः। एवं तौ शुकविडालौ मिथः प्रियौ सम्पन्नौ।
कदाचिदंसलग्नेन शुकेन साकं बिडालानुगता सा महानसं प्रविवेश। तत्र शुको भक्ष्यशकलमेकं भूतलगतं दृष्ट्वा तद् ग्रहीतुं तस्या अंसाद्यावदवपपात, तावत् साश्चर्यं पश्यन्त्यां तस्यां बिडालस्तं सन्दश्य गृह्णन् वेगादुत्प्लुत्य भित्तेरुपरिभागमाश्रितः। यद्यपि शुकापायभयेन तस्या मनस्तदानीमुद्विग्नमासीत्, तथाप्यपूर्वदृष्टस्यास्य विडालकर्मणो हेतुं तत्क्षणमेव
प्रत्यक्षयन्ती सा स्वस्थमानसा बभूव।
अन्यो हि तदा बिडालो महानसस्य द्वारे सन्निहितः तस्माच्छुकं रक्षितुमसौ विडाल एवमाचरितवान्। पलायिते चागन्तुके बिडाले ललनाबिडालः सद्यः शुकं विससर्ज। उड्डीय चासावक्षताङ्गः स्वामिनीमुपजगाम।
————————
१६. प्रतिध्वनिः।
कस्यापि वनस्यासन्ने कुत्रचित् केदारे क्रीडन् लक्ष्मणो नाम बालः कौतुकाद् ‘हंहो ’ इत्यच्चैरुद्धुष्यति स्म।
तदा तस्माद्वनाद् ‘हंहो’ इति प्रतिध्वनिरुदियाय।प्रतिध्वनिरित्ययं पदार्थो लक्ष्मणेन पूर्वं न ज्ञात आसीत्। अतः स तं प्रतिशब्दं श्रुत्वा साश्चर्यकातर उवाच—’ कस्तत्र वर्तते’ इति। पुनः ‘कस्तत्र वर्तते’ इत्येव प्रतिशब्द उत्पन्नः।
अथ ‘रे मूढ !’ इति तारं लक्ष्मणो जुघोष। प्रतिध्वनिरपि ‘रे मूढ!’ इत्येव वनान्निर्जगाम। एत-
च्छ्रवणेन लक्ष्मणः कोपाविष्टो बहुविधान्यधिक्षेपवचनानि प्रायुङ्क्त। तान्येव प्रतिध्वनिरूपाणि वनादपि निर्ययुः।
ततः स्ववचनसदृशं प्रतिवचनं केन वनात् प्रयुज्यत इति स्वयं ज्ञातुमशक्तो लक्ष्मणः सरभसं गृहमागत्य वने निलीय स्थितः कश्चिद् बालो गर्हितैर्नामभिर्मामाह्वयति’ इति पितरमावेदयामास।
पितोवाच— ‘वत्स ! लक्ष्मण ! स्ववचनानामेव प्रतिध्वनिं तथा त्वं श्रुतवानसि; न पुनरन्यस्य वचनम्। प्रथमं तव मुखाद् गर्हिता वाचो निर्गताः। ततस्तत्सरूपाः प्रतिनादा वनान्निस्सृताः।
यदि त्वं मधुरोदाराणि वचनानि प्रथमं प्रायोक्ष्यथाः, तर्हि मधुरोदारान् प्रतिशब्दानश्रोष्यः’।
प्रिया हि जनस्य वाणी प्रियां प्रतिवाणीं स्वयमुपहरति।
—————————
१७. उष्ट्रः।
सन्ति लोके केचिदतिविस्तीर्णाः प्रदेशाः, ये
मरव इति धन्वान इति चोच्यन्ते। तेषु न गृहाणि विद्यन्ते, न वृक्षाः, न नद्यो, नापि कूपाः।
तेषु यावद्दृष्टिपातं सिकताः शर्कराः शिलाश्चान्तरेण समन्तान्न किञ्चिद् द्रष्टुं शक्यम्।
“तादृशे प्रान्तरे यात्रां कुर्वता स्वस्य स्वानुयायिनाञ्चार्थे जलम् आहार इत्येवञ्जातीयकं पाथेयजातं बहुदिवसपर्याप्तं संग्रहीतव्यं भवति। न च तथाविधे मरुमार्गे महान्तं भारं वोढुमश्वाः शक्नुवन्ति। अतस्तेषामुपयोगाय महाबलः कश्चित् प्राणी कारुणिकेनेश्वरेण सृष्टोऽस्ति। सोऽयमुष्ट्रः क्रमेलक इति चाभिधीयते। यथा सागरपान्थानां महानौश्चिरोपभोगपर्याप्तान् पदार्थान् वहति, तथा क्रमेलको मरुपान्थानां सर्वान् भाण्डभारान् अनायासेन वहति। अतोऽयं ‘मरुमहानौः ’ इत्युच्यते।
अयं स्वामिना पृष्ठे समारोप्यमाणं भारं जानुभ्यां भूमौ निविशमानः प्रतीच्छति। आह्निके प्रयाणे निर्वृत्ते प्राप्ते च विश्रमावसरे भारावरोपणाय पुनस्तथा प्रह्वोभवति।
एष निराहारो बहून् दिवसान् प्रयातुं शक्नोति; प्रस्थास्यमानश्च बहुदिनपर्याप्तं जलं पिबति। नखल्वेतदाश्चर्यं, यत् क्रमेलकंआरभीयाः स्निह्यन्ति; स्तुतिपरैर्गीतैश्च तमुपगायन्ति। अश्वो हि स्वामिनं वहति, गौः क्षीरं ददाति, मेष आच्छादनार्था ऊर्णा वितरति, क्रमेलकस्त्वेषां त्रयाणां प्रयोजनमारभीयजनविषये निर्वर्तयति।
जीवन भाण्डादिवहनात्
क्षीरदानाच्च धन्वनि।
उष्ट्रो मृतस्तु मांसेन
लोमभिश्चोपकारकः॥
————————
१८. अलसता। (क)
अलसस्याध्ययनावस्था।
‘अहो कष्टमतिदारुणं पाठानां पठनं नाम। हन्त ! ममेदानीमेकस्मिन् पत्रपृष्ठे स्थितानि सर्वा-
ण्यपि पदान्यथैः सह धारणीयानि वर्तन्ते। एषा ममाशंसा, यत् पदार्न्यथवन्ति न स्युः।
भवतु; तानि पदानि वाचयामि तावत्। (पदम् ) " कारागृहम् " ( अर्थः ) " अपराधिनो यत्र निरुध्यन्ते, तत् स्थलम् " पाठालयस्योचितमिदमभिधानं ‘कारा’ इति। पाठालयो हि कारागृहमिति मम निश्चयः।
(पदम् ) " दण्डनम् " पुस्तकं विनाप्यस्य पदस्यार्थमहं जाने। क्षुद्रोऽयं पाठः। नाहमस्य धारणां कुर्याम।
(पदं ) " आनन्दकरम्” (अर्थः) " सन्तोषस्य जनकम्” एतदप्यहं जाने। आनन्दकरं नाम दोलान्दोलनं कन्दुकक्रीडनं च।
तदेतत् प्रयत्नेन माधवं बोधयेयं, यदि स मद्वाक्यं शृणुयात्। स खलु नवनवानां ग्रन्थानां परिशीलनमानन्दकरं मूढो मन्यते। पठनं, पठनं, पठनमिति कोऽयं व्यापारः। स ईषदपि न मे सर्वात्मनेरोचते। असंशयमहं यौवनदशायां पुस्तकस्य स्पर्शमपि न
कुर्याम्। अपि नाम सम्प्रत्येव मम यौवनमाविर्भवेत्। इत्युत्कण्ठमानोऽलसो बाल्यं निनाय।
१९. अलसता। (ख)
अलसस्य यौवनदशा।
अथाविर्भूते यौवने स एवं चिन्तयामास— कामं तरुण इदानीं सम्पन्नोऽस्मि। किन्तु बालदशायामाचरितस्य तथाविधस्य मौढ्यस्य फलमिदानीं दुःखमेव केवलं ममोपनतं वर्तते। अहं तदानीं पुस्तकान्यद्वेषम्; अधीतान् पाठान् अध्ययनार्थात् प्रयासादधिकतरेण प्रयासेन व्यस्मरम्।
पदेपदे मां पिता तदानुशास्ति स्म— ‘अयि पुत्रक ! श्रद्धया ग्रन्थमधीष्व। अन्यथा यौवने त्वमनर्हो भविष्यसि’ इति। ‘पुत्रक! कुरु, यत् ते पिता कर्तव्यमाह। देह्यवधानमध्येतव्येषु पुस्तकेषु। अन्यथा मूर्खस्येयं जननीति लोको मामुपहसिष्यति’ इति माता च मामनवरतमुपदिष्टवती।
वयस्यो मे माधवस्तु यथाकालं क्रीडन्नपि पाठालये गृहे च समयानहापयन् श्रद्धया ग्रन्थान् अधीतवान्। यद्यप्यावामिदानीं तारुण्यं तुल्यमवतीर्णौ, तथापि मामपेक्ष्य स विद्यया दूरं भिन्नोऽभवत्।
अतीतकालोऽहमिदानीमात्मव्यतिक्रमं जानामि। किं करोमि ? न खल्वध्ययनानुकूलो मे समयोऽस्ति यतो दिनेदिने ग्रासार्जनाय मया व्यापरितव्यम्।
२०. जीवितसाफल्यम्।
‘कस्य जीवन्ति धर्मेण पुत्रा मित्राणि बान्धवाः।
मफलं जीवितं तस्य नात्मार्थे को हि जीवति॥१॥
यस्य मित्राणि मित्राणि शत्रवः शत्रवस्तथा।
अनुकम्प्योऽनुकम्प्यश्च स जातः स च जीवति॥२॥
वाणी रसवती यस्य भार्या पुत्रवती सती।
लक्ष्मीर्दानवती यस्य सफलं तस्य जीवितम्॥३॥
स जीवति यशो यस्य कीर्त्तिर्यस्य स जीवति।
अयशोकीर्त्तिसंयुक्तो जीवन्नपि मृतोपमः॥४॥
चलं वित्तं चलं चित्तं चले जीवितयौवने।
चलाचलमिदं सर्वंकीर्त्तिर्यस्य स जीवति॥५॥
दिवसेनैव तत् कुर्याद्येन रात्रौ सुखं वसेत्।
तत् कुर्यादष्टभिर्मासैर्येन वर्षाः सुखं वसेत्॥६॥
पूर्वे वयसि तत् कुर्याद्येन वृद्धः सुखं वसेत्।
यावज्जीवं तु तत् कुर्याद्येन प्रेत्य सुखं वसेत्’॥७॥
————————
२१. अश्वः।
उदात्तप्रतिरुपकारी कश्चिन्मृगोऽश्वो नाम। एष सौम्यः कर्मसु प्रवणश्व। न तावदयमीश्वरेण मनुष्याणां बाधनाय सृज्यते स्म ; किन्तूपकाराय। असौ न कश्चिदपि जन्तुमाहारार्थे हन्ति; अपितु तृणानि पलालानि धान्यानि च केवलमभ्यवहरति।
क्रूरेण वृकेण लक्षीकृतोऽयं नात्मानं रक्षितुं शक्नोति। यद्यप्ययं शीघ्रं धावितुं शक्तः, तथापि शीघ्रतरमस्मादृको धावति। कुलीनोऽश्वो वाहनार्थे युद्धार्थे च विनियुज्यते; ग्राम्यस्तु भारवहने।
अश्व आत्मनः स्वामिनि स्निह्यति; ईषत् परिचया
च्च तं विजानाति।
अस्ति काचिदश्वारोहस्य कथा। कस्यचिदश्वारोहस्य वशे कश्चिदभिजातोऽश्वोऽवर्तत। तस्य स्वामिनि महती भक्तिरासीत्। स स्वामिनि स्वपृष्ठमध्यासीने यथा प्रीतिमान्, न तथा कारणान्तरेण प्रीतिमान् बभूव। अपिचासावोजस्वी गतिभेदेषु शिक्षित उत्साहवांश्च।
सादी कदाचित् तमारुह्य भीषणं युद्धं प्राविशत्; शत्रुणा च हतस्तस्मादश्वात् पपात। अथातीतेषु कतिपयेषु दिनेषूपलभ्यमाने सादिनः शरीरे स स्वामिभक्तस्तदन्तिके तिष्ठन् दृष्टः न खलु तावच्चिरमश्वः स्वामिनः शरीरमुपैक्षत; किन्तु त्यक्ताहारनिद्रो गृध्रवायसादीन् मांसाशिनः पक्षिण उत्सारयंस्तदन्तिके स्थित एव। पश्यतौदार्यमश्वस्य।
———————
२२. पान्थसिंहौ।
पान्थः कोऽपि दक्षिणस्यामाफ्रिकायां दीर्घां
यात्रामुद्दिश्य प्रतस्थे। गृहादतिदूरं पन्थानमतीत्य विस्तीर्णे क्वापि समभूमार्गे गच्छन्नयं नातिदूरे सिंहं कश्चिदपश्यत्। तत्समकालं सिंहोऽपि तं पश्यन् शनैश्शनैरनुगन्तुमारेभे। पान्थे त्वरितसञ्चारे त्वरितं मन्दसञ्चारे चमन्दं स चचार। अथ पान्थः स्थितः; सिंहोऽपि तस्थौ।
इत्थं यत्नेन सिंहस्यात्मानुवृत्तौ तात्पर्यमालक्ष्य ‘मृगेन्द्रोऽयमासायं मामनुगम्य तमसि प्रादुर्भूते हन्तुमिच्छति’ इति पान्थस्य बुद्धिरुत्पन्ना। न चासौ सिंहस्य गोचरात् पलायितुमशकत् यतस्तदपेक्षया सिंह आशुतरं धावितुं समर्थः। ततः पान्थः सिंहस्य वञ्चनायां कमप्युपायमुल्लिलेख।
सोऽधस्तान्महागर्तसंश्लिष्टमुन्नतं कमपि प्रपातमाजगाम। अवनतश्च भूत्वा तत्रस्थाया महाशिलायाः पश्चाद्भागे सिंहादृश्ये निलीयते स्म। ततो वृक्षशाखां शिलान्तरालदृष्टां काञ्चिदादाय स आत्मनः कञ्चुकेनोष्णीषेण च मनुष्याकृतिं कृत्वा स्वनिलयनशिलाया उपरि निवेशयामास।
कपटेन दूरमध्वानं मन्दंमन्दमनुगच्छन् सिंहोऽपि नातिचिरेण तत्रागतः; दृष्ट्वा च ते कञ्चुकोष्णीषे सद्यस्तत्राभिप्लुत्य महागर्ते भ्रष्टो ममार।
एवं पान्थ आपदं निस्तीर्याचिरेण गृहं प्रपेदे।
———————————
२३. तिमिः। (क)
अस्ति तिमिरिति कश्चिज्जलचरो जन्तुः।न केवलं जलचरेभ्यः प्राणिभ्यः, किन्तु स्थलचरेभ्योऽप्येष महत्तमः। अयं विशालस्यापि गृहस्योदरे न
भाति।
अयं मत्स्यविशेष इति साधारणो जनवादः। पण्डितास्तु कथयन्ति— यस्मादयं मनुष्यवत् श्वसिति, तस्मान्न मत्स्यजातिर्भवतीति।
अस्य स्थलवासाभावात् स
चारार्थे न चरणा अपेक्षिताः। अतश्चरणशू
न्य एवायमीश्वरेण सुष्टः एष वालस्य पक्षयोश्च बलेन समुद्रस्यान्तः स्वैरं तरति।
अस्यातिविशालमास्यकोटरमस्ति; न तु द-
न्ताः सन्ति।अतस्तनुकायानि यादांसि सङ्घशः कबलयन्नयं देहयात्रां करोति। अस्य महाकुक्षेराहारार्थेऽपेक्षितानि यादांस्येतावन्तीति न परिच्छेत्तुं शक्यन्ते।
मनुष्या महानावमारुह्य तिमिगोचरान् प्रदेशान् गच्छन्ति; अयश्शूलविशेषेण तिमिवेधनीनाम्ना तं मारयन्ति च। किन्तु तत्रोद्यमः परमं साहसं, यतस्तिमिरेकेन बालप्रहारेण नावं मज्जयेत्।
महानाविका मृतस्य तिमेर्भेदांसि तैलार्थे भाण्डेषु संगृह्य गृहमानयन्ति।
तिमेर्मुखभागस्थान्यस्थीनिच्छत्रावयवनिर्माणेऽन्यत्र चोपयुज्यन्ते। तिमिविशेषस्यावयवो
दीपवर्तिनिर्माण उपयुज्यते।
२४. तिमिः। (ख)
महाकायस्तिमिर्नाम राजा सकलयादसाम्।
मोदमानोऽम्बुधेर्मज्जन्नगाधेऽम्भसि खेलति॥१॥
जलस्याधस्तलं याति कदाचित् कौतुकात् तिमिः।
अथोपरितलं याति वालवीजनकेलये॥२॥
यतोयतोऽयं चरति नवा वीथीस्ततस्ततः।
प्रवर्तयति विस्तीर्णाः पारावारस्य वारिणि॥३॥
तिमिगोचरसञ्चारी प्रायः साहसिको जनः।
तद्वालैकप्रहारास्तमग्ननौको विपद्यते। ४॥
व्यादाय कोटराकारमास्यमम्बुनिधौ तिमिः।
सङ्ख्यातीतानि यादांसि गृह्णाति क्षुदुपागमे॥५॥
बहिष्कृत्य शिरोरन्धद्वारेणास्यगता अपः।
कुक्षिमापूरयत्येष गिरन् यादांसि केवलम्॥६॥
कण्ठीरव इवारण्ये मृगाणां, यादसां तिमिः।
साम्राज्यसुखमम्भोधौ निर्विशत्वकुतोभयम्॥७॥
———————
२५. जम्बुकः।
अजं कमपि चोरयित्वा वनमार्गेण नयन् कश्चिज्जम्बुको मृगवागुरायां संलग्नपादो बभूव।स यदा प्रयतमानोऽपि वागुरायाः स्वपादं मोचयितुं न
शशाक, तदा विषण्णोऽन्तिके चरन्तं कमपि शुनकं प्रार्थयामास’— भ्रातः ! प्रसीद। मोचय तावन्मामगतिमस्माज्जालाद्’ इति।
सोऽब्रवीत्— ’ नाहं शक्नोमि जालात् त्वां मोचयितुम्। किन्तु त्वया वहनीयमिममजं त्वदर्थेऽहं वहामि’ इति।
क्षणेन चासौ धूर्तः सविषादं पश्यतस्तस्य तमजमाकर्षन् स्वैरं ययौ।
दुर्जन उपकारं याचितोऽपकारं कुर्यात्।
———————
२६. प्रश्नोत्तरावली। (क)
गृहस्य कतमो भागः प्रथमं निबध्यते ? गृहमूलम्।
स कुत्र निबध्यते ? भूतलस्याधस्तात्।
किमर्थमसौ भूतलस्याधस्तान्निबध्यते ? गृहस्य दृढावस्थानाय वृष्टिजलस्य क्लेदस्य वा भित्त्यधोभागे प्रवेशनिरोधाय च।
तस्योपरि किं निर्भीयते? भित्तिः।
केन साधनेन तस्या निर्माणं भवति? धनेष्टकया शिलया वा चूर्णलेपसहितया भवति।
इष्टकायाः शिलायाश्चालाभे केन सा निर्मीयते? दारुणा अयसा वा।
शिलाः कुत आनीयन्ते? तदाकरात् पर्वतादेः।
कथभिष्टकायाः सृष्टिः? मृदेवेष्टकायन्त्रपरिच्छिन्नाग्निपक्वेष्टका सम्पद्यते।
कः शिलामिष्टकाकारां रचयति? अश्मतक्षा शिलां टङ्केन तष्ट्वाइष्टकाकारां करोति।
इष्टकादिना गृहनिर्माता केन नाम्ना व्यवहर्तव्यः? गृहकारुरिति वा इष्टकाचेतेति वा।
चूर्णलेपस्य कथं निष्पत्तिः? चूर्णवालुकाभ्यां जलमिश्राभ्याम्।
किं चूर्णं नाम? भौमः शिलाविशेषः पाकपुट्यां दाहेन संस्कृतश्चूर्णमित्युच्यते। शुक्तिरपि दाहेन संस्कृता चूर्णतां प्रतिपद्यते।
किमर्थं गृहकारवोभित्तौ चतुरश्रमन्तरं रचयन्ति ? कवाटाय वातायनाय च।
कवाटस्य का प्रकृतिः ? दारु।
यद् द्वाराद्विश्लिष्टं बहवोऽपि बालाश्चलयितुं न शक्नुवन्ति, कुतस्तादृशं कवाटं द्वारसंश्लिष्टमेको बालः सुखेन घटयति विघटयति च?तथानुगुण्येन कवाटस्य द्वारयन्थिषु संश्लेषणात्।
केन साधनेन द्वारग्रन्थयो निर्भीयन्ते ? अयसा पित्तलेन वा।
कथं कवाटं नियन्त्र्यते ? अर्गलेन तालकेन वा।
———————
२७. प्रश्नोत्तरावली। (ख)
वातायनानि कथं कल्प्यन्ते ? दर्पणानुषक्तैर्दारुमयैराधारैः।
किं निमित्तं वातायनानि दर्पणमयानि क्रियन्ते ? आलोकस्य गृहान्तः प्रवेशाय वातवृष्टिनिरोधाय च।
कथं दर्पणनिर्माणम् ? लवणविशेषमिश्रयाग्नेयशिलया सिकतया वा द्रवीकृतया।
किमर्थं वातायनानि विवृतानि कार्याणि ? शुद्धवायोः प्रवेशाय।
भित्तिनिर्माणानन्तरं गृहस्योर्ध्वभागः केनाच्छाद्यते ? पटलेन।
पटलस्य कथं निष्पादनम् ? कृशेष्टकाभिराच्छादितैर्दारुभिः।
कुटीरेषु कीदृशानि पटलानि ? तृणमयानि तालपत्रमयानि केरपत्रमयानि वा।
गृहस्यान्तर्देशः कथं विभज्यते ? कोष्ठ इति कक्ष्येति च।
गृहे पाककोष्ठो भोजनकोष्ठः शयनकोष्ठ इति बहवः कोष्ठाः किमर्थमपेक्षिताः ? पाककोष्ठे भोजनस्य भोजनकोष्ठे स्वापस्य च हितत्वाभावात् तत्तदर्थे पृथक् कोष्ठा आवश्यकाः।
किमर्थं भूतलस्याधस्तात् कोष्ठः क्रियते? गृहोपकरणानां पात्रादीनां रक्षणार्थम्।
गृहस्योपरिभूमिकायां विद्यमानानां कोष्ठानां क उपयोगः? कस्मिंश्चित् कोष्ठे लेखनादिव्यापाराः क्रियन्तेः कस्मिंश्चिद्विश्रम्यते; कस्मिंश्चिदिष्टजनैस्सह संभाषणं क्रियते।
कोष्ठे दिवा तिमिरं कथं सम्पादनीयम् ? द्वारस्य कवाटेन पिधानात्।
तत्र रात्रौ प्रकाशः कथं सम्पाद्यते ? दीपेन।
——————
२८. पैशुन्यम्।
कोऽपि मृगेन्द्रो वनेष्वतिमात्रपर्यटनात् किञ्विदस्वस्थशरीरोबभूव। अन्ये मृगास्तस्य कैङ्कर्यमाचरन्तस्तं परिवार्योपासाञ्चक्रिरे। तत्परिवारेष्वन्यतमो जम्बुकः परं तमुपासितुं नागमत्। तत्र कारणं जिज्ञासमाने मृगेन्द्रे वनगर्दभः सविनयं निवेदयामास— ‘एषु दिनेषु जम्बुकः स्वामिनमवजानाति। स ततइतः स्वामिनं रोगाभिभूतं शंसन् स्वच्छन्दमटति’ इति।
अनेन पैशुन्येन मृगराजस्य मनो जम्बुके कलुषमभवत्। तदेतद्विदित्वा जम्बुकः सिंहस्य स मीपमाजगाम। सिंहस्तु क्रोधकलुषया दृष्ट्या तं पश्यन्नपृच्छत् — ’ रे ! जम्बुक ! कुतस्त्वमेषु दिनेष्वत्र नागत’ इति।
स तं प्रणम्य विज्ञापयामास— ‘महाराज ! अस्वस्थो देव इति यदाहमज्ञासिषं, तदा प्रभृत्यनुगुणमौषधं सर्वतोऽन्विष्यन् कथमप्येभिर्दिनैर्वैद्यमुखात् तद् ज्ञातवानस्मि। ततो न मां देवो भक्तिशून्यं मन्तुमर्हति’ इति।
अथ सन्तुष्टेन मृगेन्द्रेण ‘किं तदौषधम्’ इति पृष्टो जम्बुकोऽवदत् — ’ कोष्णं वनगर्दभस्य रुधिरम्’ इति।
श्रुतमात्र एव तद्वाक्ये सहसा सिंहो वनगभं पुरस्स्थितमभिप्लुत्य तस्य रुधिरं पपौ।
———————
२९. राजा निगडिताश्च।
कश्चिद्राजा स्वराज्यस्य महाकारागृहं वारंवारं गत्वा पश्येत्।
स एकदा तत्र क्वापि प्रदेशे पञ्च निगडितान् पुरुषान् स्वव्यापाराय गच्छतोऽपश्यत्। आनाय्य च तानग्रतः पृथक् तेषां कारागृहप्रवेशे हेतुमपृच्छत्।
तेष्वेकोऽवदत्— ‘निरपराधेऽप्यात्मनि मुख्यसाक्षिणो मिध्यावादादपराध आरोपित’ इति।
अन्योऽब्रवीत्— ’ पूर्वसिद्धेन द्वेषेण प्राड्विवाकस्तं कारागृहे प्रवेशितवान्’ इति.
अपरोऽन्यथाग्रहादात्मानमपराधिपक्षे निक्षिप्तमुवाच.
इतरः’कृतापराधेऽन्यस्मिन् ग्राह्ये निरपराध आत्मा गृहीत’ इति जगाद।
उक्तैरेव कारणैस्ते सर्वे स्वेषां कारागृहान्मोचनमपि राजानं ययाचिरे।
अथ राजा तेभ्यो दृष्टिं निवर्त्य पञ्चमं पप्रच्छ— ’ कुस्त्वं कारां प्रविष्टोऽसि ? " इति।
स जगाद—’ हन्त ! अहं धनपेशिकां चोरितवानस्मि। न चाहमुत्सहे मोचनं त्वां याचितुम्’ इति।
राजावोचत्—’ यद्येवं, तर्हि न त्वमेतैः साधुशीलैरनपराधमात्मानं वदद्भिः सह वस्तुमर्हसि’ इति।
काराधिकारिणं चासावाज्ञापयामास— ‘विसर्जय तावदिमं छिन्नशृङ्खलं कारागृहात्।नह्ययं स्वापराधं मिथ्यावाददोषेण द्विगुणमकरोद्’ इति।
—————————
३०. चाटुश्लोकाः।
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृतिः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते॥१॥
पुरुषा विद्यया भान्ति राजानो विजयश्रिया।
श्रियोऽनुकूलदानेन लज्जया च कुलाङ्गनाः॥२॥
जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि।
प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तरं वस्तुशक्तितः॥३॥
उदारस्य तृणं वित्तं शूरस्य मरणं तृणम्।
विरक्तस्य तृणं नारी निस्स्पृहस्य तृणं जगत्॥४॥
पुस्तकस्था च या विद्या परहस्ते च यद्धनम्
कार्यकाले समायाते न सा विद्या न तद्धनम्॥५॥
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं सदैव तु॥६॥
कोकिलानां स्वरो रूपं नार्या रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपाणां रूपं शक्तिमतां क्षमा॥७॥
————————
३१. सहसा विधानम्।
कौचिद् दम्पती गृहे नकुलमेकं परिवर्धयामासतुः। यथायथा तौ नकुलेऽनुरागवन्तौ बभूवतुः, तथातथा स तयोरनुरागवान् विस्रब्धश्च बभूव। स हि तयोः शय्यायामुत्सङ्गे च स्वैरं मुहुः क्रीडन् सन्तुतोष।
तं तथोपलालयतोस्तयोः पुमपत्यमेकमजायत। स तेन शिशुना सह भ्रातृभावमिव दर्शयन् मुहुरहिंसया रेमे। दम्पत्योश्चकार्यान्तरे व्यापृतयोर्नकुलः पार्श्वे स्थित्वा शिशुमन्वासाञ्चक्रे। ततस्तस्मिन् शिशौ नकुले वा तुल्यैव दम्पत्योः प्रतिपत्तिरासीत्।
क्वचन दिने पत्यौ कृषिमवेक्षितुं गते, मञ्चप्रसुप्तं शिशुं वासगृहे नकुलसहायं विसृज्य जाया स्नानाय वापीं जगाम।
अथ मुहूर्तेऽतीते स्नात्वाजलपूर्णं कुम्भमादायागच्छन्ती सा गृहस्य द्वारोपान्ते स्थितं स्वागमनमार्गे दत्तदृष्टिं तं नकुलं ददर्श। ‘कुतो न खल्वयं शिशुं विहाय द्वारमायात’ इति चिन्तयन्ती च सा सत्वरं द्वारं प्रविश्य रक्तप्रवाहोपलिप्तं नकुलस्य देहं यावन्निर्वर्णयामास, तावद् दुर्दैववशात् शोकक्रोधाभ्यां ज्वलिता बभूव। तस्या ह्येवं बुद्धिरुत्पन्ना — ‘असंशयमयं नकुलस्तीक्ष्णैर्नखैः शिशुं विदारितवान्’ इति।
सद्य एव च क्रोधान्धहृदया सा नकुलस्य शिरसि जलकुम्भं चिक्षेप।
ततः सरभसं वासगृहं गता सा तस्मिन् मञ्चेसुखसुप्तमक्षताङ्गं प्रियं स्वशिशुं ददर्श; मञ्चस्य समीपे च च्छिन्नभिन्नावयवं कमपि भीमं सर्पकायम्।
उदारशीलः स नकुलः सर्पसन्निधानात् सं-
भावितां भ्रातुरापदमात्मना वारितां जनन्यै निवेदयितुं प्राग् वासगृहाद् द्वारोपान्तमागतः। तमेतं तस्य स्नेहौदार्यमधुरमभिप्रायं सर्पकायदर्शनोत्तरं विदितवती सा निष्प्रतीकारमनुतापंयावज्जीवमनुबभूव। पुत्रकल्पं पुत्ररक्षिणमात्मसंवर्धितं नकुलं मोहात् स्वयं हतवतीयमसमीक्ष्यकारिणी महापातकिनीति पतिर्बान्धवाश्च तां निनिन्दुः।
——————
३२. लोहाः।
लोहाः प्रायेण मृद्भिः शिलाभिर्लोहान्तरैर्वा व्यामिश्रा एवाकरादुपलभ्यन्ते; न शुद्धरूपाः। किन्तु ते क्षालनेन क्षोदनेन दाहेन वा मृदादेर्विभज्य शुचीक्रियन्ते।
तत्र सुवर्णं तावत् स्वभावाद् भास्वरगौरं गुरु मृदु च। तद् आस्त्रेलियायामुत्तरामेरिकायां च बहुलमुपलभ्यते।
तस्योत्पत्तिस्थानानि सुवर्णाकरा इत्युच्यन्ते। सुवर्णमाकरात् प्रायः कणश एव लभ्यते; कदाचित् तु राशिरूपेण। नदीनां पात्रेषु चेदं सिकतासङ्कीर्णमुपलभ्यते।
सुवर्ण गुणतो मूल्यतश्च सर्वेषु लोहेषु श्रेष्ठं भवति। अनेन नानारूपाणि नाणकानि भूषणानि पात्राणि च सृज्यन्ते।
रजतं दीप्रशुक्लवर्णं भवति। तस्य लोहान्तरापेक्षया मूल्यं गुरुत्वं चाधिकं, सुवर्णापेक्षया तु न्यूनम्। तस्यामेरिकायां प्राय उपलब्धिः।
रजतेन नाणकान्याभारणानि विचित्राणि भाजनानि चोत्पाद्यन्ते।
अरुणवर्णो लोहस्ताम्रं नाम। स बहुत्रोपलभ्यो मूल्ये रजतादतीवावरः। तेनापि नाणकं पात्राणि च निर्मीयन्ते।
आनीलधूसरं नागं नाम। तद् बहुषु भूभागेषूपलभ्यते। सर्वेषु लोहेषु तद् मृदुतमम्। अतस्तदना-
यासेन नानाकारं कर्तुं शक्यते। तेन गृहाणां पटलानि जलप्रणाल्यः पात्राणि च कल्प्यन्ते।
————————
३३. धैर्यम्। (क)
चपलाः केचिद् बालाः पठनसमयेषु निभृतं शीशब्दं कुर्वन्त उपाध्यायमबाधन्त। ‘मा कुरुत शीशब्दम्’ इत्यसकृदुपाध्यायेनोक्ताश्च ते तदाज्ञां नानुसरन्ति स्म।
अन्ते तेषु मुख्यमपराधिनं कमपि दण्डयित्वा ते त्रासनीया इति निश्चयमुपाध्यायोऽकरोत्।
अपरेद्युः प्रातरागतेषु बालेषु निश्शब्दे पाठालये कश्चिदुच्चैः शीशब्दः श्रुतः। सद्योऽपराधिनमुपलब्धुमुपाध्यायः सचकितमवस्थितांस्तानभितो दृष्टिं प्रसारयामास; जग्राह च गोविन्दनामानं कञ्चिद् अयमपराधीति।
यद्यपि स बाल आत्मानमनपराधं समर्थयामास, तथाप्युपाध्यायस्तस्य वाचि न विश्वासं चकार।
स हि बहुष्ववसरेष्वसत्यवादी प्रागुपाध्यायेन ज्ञात आसीत्।
वस्तुतस्तु नायमपराधी, किन्तु दामोदरो नाम बालकः। सोऽपराधिविचारणायां निर्णयमापतन्तं प्रतीक्षमाणः स्थितः।
———————
३४. धैर्यम्। (ख)
अथ यावदुपाध्यायो गोविन्दं दण्डयितुं करेण लगुडमाददे, तावद् दामोदर आसनात् सहसोत्थायोपाध्यायं निवेदयामास— ‘मा तावद् भवान् गोविन्दं दण्डयतु। एषोऽस्मि कृतापराधः। अहं हि दुष्करां कामपि गणनां लेखनफलके चिरमवहितेन मनसा साधयन् स्थितः। तस्या लेखनावकाशलाभाय फलके गणनान्तरं लिखितपूर्वं मार्जन गणनाया मुख्यांशमपि भ्रमादमार्जम्। तेन च कर्मणोपजनितया मनोव्यथयोपाध्यायसान्निध्यमपि विस्मृत्य रभसात् शूशब्दमकरवम्। सोऽयमपराधो न मया बुद्धिपूर्वं
कृतः यद्यार्य! भवांनपराधिनि दण्डमवश्यं प्रयोक्तुमिच्छति, तर्हि मयि प्रयुङ्क्ताम्’ इति।
उक्त्वा चैवं लगुडप्रहारं ग्रहीतुं वीरः स बालक उपाध्यायाभिमुखं करं प्रसारयामास।
उपाध्यायस्तु प्रीतस्तस्य करं गृह्णन्नुवाच— ‘साधु बालक ! साधु समाचरितवानसि। प्रत्येमि ते सत्यवादिताम्, अबुद्धिपूर्वं चापराधम्। न चाहं त्वां दण्डयितुमुत्सहे; त्वं ह्यस्थाने दण्डप्रयोगमसहमानः स्वापराधं स्वयं कीर्त्तयन् दण्डं याचमानो धीरोदारचरितः प्रियोऽसि मे जातः’ इति।
विसृष्टश्चोपाध्यायेन स स्वमासनमभजत।
दशवर्षदेशीयोऽसौ बालोऽनेन सदाचारेण न केवलंस्वयं बहुमानमलभत, अपि त्वन्येषां बालानां सदाचारमार्गोपदेशी चाभवत्।
३५. दया ( क )
कापि हेमन्तसायाह्ने नारी नवतिहायना।
क्षामदुर्बलसर्वाङ्गी वीथ्यां प्रचलिता शनैः॥१॥
शीतेन वर्धमानेऽपि जरामूलेऽङ्गवेपथौ।
यष्टिमालम्ब्य सा यत्नादग्रे द्वित्रपदान्यगात्॥२॥
अन्ते सा शीतवातेन बलादभिहता सती।
प्रवेपमानावयवा कुब्जीभूय पथि स्थिता॥३॥
अथ तेन पथा चेलुर्विसृष्टाः पाठमन्दिरात्।
उच्चकोलाहला बाला गणशः स्फारकौतुकाः॥४॥
ते क्रीडाकालतोत्साहास्त्वरमाणा गृहान् प्रति।
दृष्ट्वापि दीनां तां वृद्धां तूष्णीमेवात्यलङ्घयन्॥५॥
तस्याः कर्तुमशक्ताया एकमप्यग्रतः पदम्।
न ते साहायकं चक्रुर्दीनायाः करदानतः॥६॥
अन्ततस्तेषु सोत्साहः सौम्यः कश्चन बालकः।
पार्श्वमागत्य वृद्धाया इत्थमुच्चैरभाषत॥७॥
——————
३६. दया.(ख)
‘एहि मातः ! किमर्थं त्वं मार्गमध्ये विषीदसि।
करोम्यहं ते साहाय्यं यदीतो गन्तुमिच्छसि’॥८॥
स ततस्तदनुज्ञातः स्खलन्तीं तां पदेपदे।
गृहं निनाय शनकैः करालम्बनदानतः॥९॥
अनेन कर्मणा तृप्तमानसोऽथ स बालकः।
स्वं सङ्घंपुनरासाद्य बालानित्थमवोचत॥१०॥
‘अयि भो बालकाः ! कस्याप्यसौ माता तपस्विनी।
सर्वेषामविशेषेण दयनीयैव केवलम्॥११॥
अस्याः साह्यं न चेत्कुर्युः केऽपि दूरस्थिते सुते।
अवश्यं केऽपि तत् कुर्युः स्वकरालम्बदायिनः॥१२॥
आशिवायोजयद् बालं सा च शय्यां गता निशि।
‘ईशो दयावते तस्मै बालकाय प्रसीदतु॥१३॥
३७. ऊर्णनाभो जालं च।
कश्चिद् भूपतिरीश्वरसृष्टानां पदार्थानां प्रयोजनविज्ञानेऽतीव कौतुकवानवर्तत। स चिरं परीक्षमाणोऽपि कस्मै फलाय मक्षिका ऊर्णनाभाश्चसृष्टा इति ज्ञातुं न शशाक।
ततस्ते मानुषानुपयोगिन एवेति निश्चित्य स तेषां वधविनोदे रसिकोऽभवत्।
अथैकदा महति युद्धे शत्रुभिः पराजितोऽसौ कान्दिशीकः क्वचिदरण्ये परिभ्रम्य श्रान्तः कस्यापि वृक्षस्य मूलच्छायायां सुप्तोऽभवत्। तमेनमुपलभ्य कोऽपि शत्रुभटः खड्गपाणिर्यावन्निभृतपदमुपससर्प, तावन्मक्षिकयौष्ठदंशिन्या राजा प्रबोधितो जातः। प्रबुद्धश्रात्याहितमुपस्थितं पश्यन् सहसा तन्निवारणेनात्मानं ररक्ष।
तां च निशां तत्रैव वने कस्यांचन गुहायां स राजा निलीय स्थितः। कश्चिदुर्णनाभस्तस्या गुहाया द्वारं तन्तुजालपरीतं तया निशया व्यातनोत्। अपरेद्युः प्रातर्गुहास्थो राजा गुहासमीपे चरतोर्द्वयोः स्वान्वेषिणोः शत्रुभटयोः सल्लाँपं शुश्राव। तयोरेकोऽवदत्—‘असंशयमसावस्यां गुहायां निलीनस्तिष्ठति’ इति। अन्योऽब्रवीत्—‘नैतत् संभाव्यते, यत इदमूर्णनाभतन्तुजालं गुहाद्वारे निराकुलं दृश्यते। यद्यसौ गुहां प्रविष्टोऽभविष्यत् तर्हि अवश्यमिदं लूतातन्तुजालं
गुहाद्वारे त्रुटिताकुलमभविष्यद्’ इति।
अथ तां गुहां शून्यां निश्चित्य गतयोस्तयोः स राजा बद्धाञ्जलिरीश्वरं तुष्टाव— ‘भगवन् ! भवता पूर्वेद्युरहं मक्षिकामुखेन रक्षितोऽस्मि; अद्य पुनरूर्णनाभमुखेन। विचित्रैः प्रकारैर्मानुषाणां महान्तमुपकारमुपनयन्ति ते सृष्टयः’ इति।
———————
३८. सूर्यवायू।
पुरा कदाचित् सूर्यवाय्वोर्विवादो बभूव—‘कतर आवयोर्बलीयान्’ इति। अन्ते च ‘यः पान्थहस्तगतमिदं घटिकायन्त्रं पान्थेन त्याजयति, स आवयोर्बलीयान’ इति निर्णयसंविदं तात्रकल्पयताम्।
ततो वायुरात्मनः सर्वांशक्तिमाश्रित्यातिजवनोऽतिशीतः प्रचण्डो भूत्वा वातुमारेभे। पान्थस्तथाभूतेन वायुनाभिहन्यमानोऽपि प्रावारावृतशरीर आत्मनो घटिकायन्त्रं दृढेन मुष्टिना गृह्णन् कथमपि जुगोप।
एवं विफलयत्ने वायौ सूर्यः प्रकाशितुमारेभे। प्रसृतमात्रैरेव तस्य किरणैर्वायवीये जलबाप्पे शीतिम्नि चापनीते पान्थस्तत्कालसह्येनोष्मणा क्षणमिव सुखमनुबभूव। अयाविच्छिन्नं कांश्चित् क्षणान् दीप्यमाने सूर्ये असह्येनोष्मणाभिभूतः प्रक्षीणसत्त्वः पान्थो घटिकायन्त्रं दूरतः क्षिप्त्वा भूतले निषषाद।
अनेन प्रकारेण सूर्यो वायुं जिगाय। एतेन बलात्कारादनुनयः प्रशस्त इत्येष न्यायः स्पष्टो भवति।
३९. हिमालयः।
अस्ति भारतखण्डस्योत्तरस्यां सीमायां ७५० क्रोशानायंतो हिमालयो नाम सर्वोन्नतो गिरिः। स हिमस्य स्थानभूततया हिमालय इत्युच्यते। स विस्तीर्णाया हिन्दुस्थानस्य समभूमेः प्रभृति बहुश्रेणीरूपमात्मानं कृत्वानुक्रमेणोन्नम्रो वर्तते। तस्याधस्सानौ अनूपप्रदेशाः सन्ति, यान् वेणुभिर्दीर्घैस्तृणविशेषैश्च
निबिडसंछन्नानाश्रित्य वन्यमृगाः सुखं वसन्ति। तत्र त्रिसहस्राणि पदोन्नताः प्रथमश्रेणीप्रदेशाः महार्घदारुदा- यिभिर्वनैर्व्याप्ता वर्तन्ते।ततः सप्तसहस्राणि पदोत्सेधा भूमिरस्ति। तस्या बहुप्रस्रवणोपेताया बहवो भागा जनैरध्युषिता धान्यानि प्रसुवते।
महती मध्यमा श्रेणी तु अष्टादशसहस्राणि पदान्युन्नतास्ति। तस्याः कटकेषु गभीरा नानारूपा गुहा विद्यन्ते। अपिच, अत्युच्चाः संख्यातीता भृगवो भीपणास्तत्रोपलभ्यन्ते। तानप्यतिलङ्घयोर्ध्वं प्रसृतास्तुहिनावृता गिरिकूटाः स्त्राग्रैर्निर्भिन्दन्त इवेन्द्रम
णि चकमाकाशं लक्ष्यन्ते। तेषु च गिरिशृङ्गेषूद
ग्रतमंशृङ्ग आसमुद्रोपरितलात् एकोनत्रिंशत्सहस्राणिपदोन्नतामिति निश्चितम्।
तस्या गिरिश्रेण्या दक्षिणे पार्श्वे पञ्चदशसहस्राणि पदोन्नता शाश्वती हिमराजिरस्ति। प्रदेशोच्चता तावदुष्णमात्रां न्यूनयति। अत उच्चतरेषु भागेष्वोषधयो जायमाना अल्पाकृतयो भवन्ति; परमोच्चेषु तु नैव जायन्ते। तत्र तिबेतदेशप्रापिका बह्व्यःपद्धतयः सन्ति। ताभिर्भाण्डानि मेषेष्वारोप्य पान्था नयन्ति। तत्र
शुद्धवायुस्तथा स्वल्पः, यथा श्वसनमपि दुष्करम्।
अस्मिन् पर्वते लोकहितानि प्रशस्तानि वस्तूनि बहुलमुत्पद्यन्ते। अतोऽयं गुणत उन्नत्या च सर्वान् पर्वतानतिशेते।ततोऽस्य पर्वतराज इति प्रसिद्धिः।
४०. उपदेशाः।
यदि जीविते नः पक्षपातोऽस्ति, तर्हि वृथा कालं नेतुं नार्हामः।जनो हि कालस्यापव्ययात कुत्सितजीवितो भवति।रजतं सुवर्णं मोक्तिकं रत्नमित्येवञ्जातीयकं वस्तु नष्टमस्माभिर्भूयोऽर्जयितुं शक्यं; कालस्त्वतीतो नैव प्रत्यानेतुं शक्यः। अपिच, क्षणादिरूपाः सर्वे काला अस्माकं परमस्नेहास्पदस्यायुषोंऽशा भवन्ति। अत एव सकलान् पदार्थानपेक्ष्य कालो महार्घ इति पण्डिता वदन्ति।
किञ्च, कस्मैचित कार्याय पर्याप्ततयास्माभिर्निर्णीतः कालः कार्यगौरवाद्विघ्नोपनिपाताद्वा प्रायेणापर्याप्त उपलभ्यते।
सोऽयमत्यन्तापेक्षितः सर्वोत्तमः कालाख्यः पदार्थो धनमिव प्रशस्तेषु कार्येष्वप्रमादेन विनियोक्तव्यः। यस्त्वेनमस्थाने द्यूतादौ विनियुङ्क्ते, स्थानेऽप्यतिमात्रं विनियुङ्क्ते, सोऽपव्ययकारी जनैर्निन्द्यते।
असति विघ्ने कार्यं तदात्वे कुर्वीत, न तु श्वोर्थे विसृजेत्। प्रायशो हि कार्यकालं प्रोषितागतमिव प्रियं भ्रातरं विघ्नाः संपरिष्वजन्ते।
शुभा मे काला उपतिष्ठन्तामिति प्रत्याशया यत्नमकुर्वाणस्य पुंसः कोऽर्थः सिद्धो भवति ? यदि तन्द्रीं विहाय सम्यगुद्यमं कुर्वीमहि, तर्हि, तानिमान् कालान् शुभानापादयितुं वयमसंशयं प्रभवेम।
अहापयन्तः कालं चेत् प्रवर्तेमहि कर्मसु।
कल्याणानां समग्राणां संपद्येमहि भाजनम्॥
संपूर्णेयं द्वितीया पाठावली।
शुभं भूयात्।
——————
NOTES.
————
Lesson 1. Mother and father.
तावत्— ind. at first (before doing anything else). मासान् - अत्यन्तसंयोगे (uninterrupted continuity) द्वितीया. कुक्षिः- womb.. क्लेशः - pain. सह
ने— endures. पथ्यः- whole. some. गर्भः — foetus पुष्णाति—nourishes. पुत्र 9. P. मृत्वा – having died. ind. p. p. अस्वादु - unpleasant to the taste. वत्सलः–childloving. चिन्त्यमानाः- past pres. p. of चिन्त्, 10 U to take care of ऋणम्–debt दैववत् —like god. ind.
Lesson 2. Duty of men.
साहाय्यम्—help. सहायस्य भावः प्रजा- subject अस्तिमान् —अस्ति ind (wealth) अस्यास्तीति तथा. पण्यम् - article for sale. विक्रीणीत - pot. of क्री9. U with वि. to sell. यौवनम् youth. वार्धक्यम् - the course of worldly life
Lesson 3. Education.
क्षुत्-lunger दुह्यन्ति - दुह् to hurt 4. P. आवश्यिका - necessary. दमयतुं - to control. वशायतुं - to fuscinate.
Lesson 4. Air.
परितः- around. this word always governs द्वितीया.व्यजनम् -fan वीजनम् -fanning. वाति -blows.उन्मूलयति - plucks up by the roots. संवृतं - closed. कालिघट्टः -
Calcutta. वातायनम्—window. कारा—prison. पर्याप्तः—sufficient. मृतकल्पः—almost like dead. कालगर्तः—Black hole.
Lesson 5. The cause of poverty.
धनिकः—wealthy. आयः—income. यादृच्छिकः—accidental. विवाहः—marriage. अधीनम्—dependent. तस्करः—thief. सैनिकः—soldier, व्याकुलयामासुः—agitated. विस्रब्धम्—confidently. adverb.
Lesson 6. Chemist.
सुवर्णम्—gold. अभिनयन्—pretending. सम्भावयिष्यति—2. Fut. of सम्+भू+णिच् (causitive term.) to reward पेटिका—box. उदारम्—generous. द्रविणम्—wealth.
Lesson 7. House.
समीचीनसन्निवेशानि—well-situated. समीचीनः सन्निवेशः येषां तानि।द्वित्रपदानि—two or three feet. संस्थानानि—structures. मध्याङ्गणानि—central yards. सकुचितचक्राः—narrow and crooked. कुतृण—rubbish. नानाविधानि—नाना विधाः येषां तानि। अवरतः—at least. सुधा—lime. महार्घः—valuable. मारीप्रसङ्गः—मायीः(pestilence) प्रसङ्गः। अनुदिनम्—daily. वारः—week. सुखावहाः—pleasant. छायादानक्षमाः— छायायाः दाने क्षमाः। गुल्मः—bush.
Lesson 8. Selfishness.
श्वा—dog. मार्जारः—cat. महानसः—kitchen. सूद—cook. व्यकिरत्—scattered, imperf. जन्त्वन्तरविलक्षणाः—अन्यो जन्तुः जन्त्वन्तरं तस्माद् विलक्षणा —(extraordinary.) देयम्—दातुं योग्यम्। वेगायन्ति—वि + गै– to deride. कृती—blessed. दुःखैकरसः—
दुःखमेव एको रसः यस्य सः उभये—both.
Lesson 9. food.
औष्ण्यम्—heat. प्रतिनियता—fixed.मात्रा—measure. निर्व्यापाराणि—inactive. ऊष्मा—heat. इन्धनम्—fuel. शीतिमा—coolness. परिणमति—becomes. मांसपरिणामी—fleshforming. सारः—substance. गोधूमः—wheat. मुद्रः—pulse. आढकः—doll. शाल्यन्नभोजिनः—those who live upon rice. स्निग्धकोलम्—flaby and soft. पिष्टकः—cake. आमयः—disease.
Lesson 10. Fate.
लिपिः—character. ईश्महे—ईश् 2. A. to be able. उद्यमः—effort. द्वारम्—way. मलप्रचुरः—dirty. मातापितरौ—माता च पिता च तौ।अप्रमाणत्—not regarded as an authority. पुरुषकारः—human effort.
Lesson 11. Pearls.
शुक्तिविशेषः—oyster. पुटाः—shell. परुषम्—rough. श्लक्ष्णः—smooth. कैवर्ताः—fishermen. तलस्थाः—those which. lie in the bottom. धीवराः—fishermen. उपद्वासप्ततानि—द्व्यधिका सप्ततिः द्वासप्ततिः तस्या समीपे ये सन्ति तानि. नावारूढाः—नावं ( boat ) आरूढाः।रज्जुबद्धशिलान्यस्तपादः—रज्ज्वा ( rope ) बद्धा, सा चासौ शिला च रज्जुबद्धशिला तस्यां न्यस्तौ पादौ यस्य सः। यावच्छक्ति—as for as possible. मञ्जूषा—box.
Lesson 12. Quarrel.
कलहायसे—thou quarrelest. अरोचत—imperf of रुच, 1. A. to like. आह्नये—I challenge. विग्रहः—fight. क्रीडनम्—toy. तूष्णीम्—silently. in. स्वप्रतिभानुसारी—स्वस्य प्रतिभा ( audacity ) स्वप्रतिभा तांअनुसरतीति तथा. अध्यवसायः—attempt.
कुप्येयम्—pot. of कुप्, 4. P. to be angry with. कार्षीः—aor. of कृ 7. U. to do. When proceeded by the particle मा the augment अ or of the aorist is dropped.
Lesson 13. Who works for me.
स्वकुटीद्वारम्—स्वस्य कुटी स्वकुटी, तस्याः द्वारम्. ध्यायं ध्यायम्—often calling to mind. ind. अतथ्यग्राहिणी—one who takes a wrong view of things. केदारम्—field.उवाप—sowed. perf. of वप् 1. P. लुलाव—reaped. perf. of लू 9. U. वितुषविशदम्—विगतः तुषो ( husk ) यस्मात् तत् वितुषं तच्च विशदं च वितुषबिशंतं। असिः—knife. उलूखलम्—mortar.मुसलादिकम्—मुसलः( pestle ) आदिःयस्य तत्. निर्मभौ—perf. of मा 2. P. with निर्। निर् + मा to create. कार्पासितन्तुः—cotton thread. तत्तूलन्—तस्य तूलप् (cotton ) तत्तूलम् निरस्थिकम्—निर्गतं अस्थि ( kernal or stone ) यस्मात् तत् निरस्थिकम्।सूत्रणचणाः—those who are skilled in spinning. तन्तुवायाः—weavers. अवयन्—wove. imperf. of वे1. U. कुटीरम्—hut. असङ्ख्याः—न विद्यते सङ्ख्या येषां ते तथा.
Lesson 14. Slaughter of the wolf.
उपत्यका—a land at the foot of mountain. भटवृत्तिः—भटस्य ( soldier ) वृत्तिः(mode of leading life) कनिष्ठे—youngest. स्वसारौ—sisters. द्वादशम्—twelfth.भया—क्रन्दम्—भयेन आक्रन्दः(crying out). आभ्यन्तरम्—space between. कुठारः—axe. परशुः—axe. प्रान्स् राज्यचक्रवर्ती—प्रान्स् इति राज्यं तस्य चक्रवर्ती। कर्णाकर्णिकया—ear to ear. प्रवीणः—clever.
Lesson 15. The cat and the Parrot.
पतेत्—will fall. नृत्येत्—will distance ( play ) नृत् 4.
P. वासगृहम्—inner apartmentof a house. भित्तिः—wall. उद्विग्नम्—sorrowful. उड्डीय—having flown up. ind. p. p. of डी 4. A.
Lesson 16. Echo.
आसन्नम्—near. साश्चर्यकातरः—surprised. (one feeling astonishment and fear.) तारम्—loudly. जुघोष—घुष्to cry. con. perf. of घुष् 4 P. to cry. अधिक्षेपवचनानि—vilewords. गर्हिता—vile. प्रायोक्ष्यथाः—cond of युज् 7. U. with प्र. प्र + युज् to use श्रु—to hear. 1. 7.अश्रोष्यः—cond. of श्रु to hear 5. P.
Lesson 17. Camel.
मरवः — deserts. यावद्दृष्टिपातम्—as far as the eye can reach. सिकताः—sand. शर्कराः—gravel. प्रान्तरम्—long lone. some path. पाथेयजातम्—पथे हितानि पाथेयानि तेषां जातम्. सागरपान्थाः—sea-travellers. मरूमहानौः—ship of the desert. निविशमानः—pres. aet p. of विश् ( 6. P.) with नि.नि+विश्, A. to sit. प्रह्वः—kneeling. आरबीयाः—Arabians. ऊणी—wool.
Lesson 18. Idleness.
आशंसा—desire. दोलान्दोलनम्—दोलायां ( swing ) आन्दोलनं ( swinging ). नवनवग्रन्थपरिशीलनम्—नवनवानां ग्रन्थानां परिशीलनम्।
Lesson 19. ( continued )
मौढ्यम्—foolishness. अद्वेषम्—imperf. of द्विष्, 2. P. to dislike. अनुशास्ति अनु+शात् to instruct. दूरम्—highly. अनुशास्ति—pres.शास्, P. to instruct with अनु। आत्मव्यतिक्रमः— आत्मनो व्यतिक्रमः ( transgressing ) ग्रासार्जनाय—ग्रासस्य (food) अर्जनाय.
Lesson 20. Usefulness of life.
मित्राणि—friends. सत्ता—virtuous, यशः—glory. कीर्तिः—
renown. वित्तम्—wealth. चलाचलम्—unsteady. वर्षाः—rainy season, always fem. and in the plural. प्रेत्य—having died, ind. p. p. of ई ( 2. P.) with प्र.
Lesson 21. Horse.
उदात्तप्रकृतिः—of a noble nature. पलालानि—straw कुलीनः—of good breed. अश्वारोहः—mounted soldier. अभिजातः—of good breed. ओजस्वी—energetic. सादी—horse man. तावच्चिरम्—far so long a time. गृध्रवायसादयः—गृध्रः(eagle.) वायसश्चादिः येषां ते।
Lesson 22. The man and the lion.
गोचरः—grasp. अशकत्—aor. of शक् ( to be able 5. P.) उल्लिलेख—perf of लिख् 6. P. with उत् to determine प्रपातः—cliff. कञ्चुकः—dress. उष्णीषम्—head-dress.
Lesson 23 Whale.
तरति—तृृ, 1. P. to traverse. आस्यकोटरम्—आस्यं कोटरमिवआस्यकोटरम्। तनुकाव्यानि—तनुः ( then ) कायःयेषां तानि। यादांसि—aquatic animal. सङ्घशः—in heaps. ind. महानौः—ship. परिच्छेत्तुम्—inf. of छिद् (7. P.) with परि। to set limits to. तिमिवेधनीनामा—तिमिवेधनी (harpeea) इति नाम यस्य सःमेदांसि—fat. तिमिविशेषः—sperm whale. दीपवर्तिनिर्माणम्—दीपस्य वर्तिः दीपवर्तिः(candle) तस्याःनिर्माणम्।
Lesson 24. ( continued)
खेलति—sports. वालवीजनकेलिः—वालस्य वीजनं (blowing) वालवीजनम्। तदेव केलिः (sport). वीथिः—way पारावारः—sea. तस्य वालःतद्वालः एकःप्रहारःएकप्रहारः तद्वालाय एकप्रहरःतद्वालैकप्रहारः तेन अस्ता(tossed) मग्ना च नौः यस्य सः तद्वालैकप्रहरास्य मग्ननौकः व्यादाय—having opened. ind. p. p. शिरोरन्ध्रद्वारम्—शिरसि रन्ध्रं।
( hole ) शिरोरेन्ध्रंतस्य द्वारं ( way ) गिरन्—pres. act. p. of गॄ 6. P. to swallow. कण्ठीरवः—lion. साम्राज्यपुंखम्—pleasure derived from being an emperor. निर्विशति—feals. अकुतोभयम्—नास्ति कुतोऽपि भयं यस्य तत् not threatened from any quarter.
Lesson 25. Fox.
मृगवागुरा—मृगाणां वागुरा ( net ) मृगवागुरा। संलग्नपादः—संलग्नाः पादाः यस्य सः। जालम् - net. वहनीयम्—वोढु ( to bear ) योग्यम्। त्वदर्थे—तवअर्थे( ind ) त्वदर्थे। धूतिः—crafty. पश्यतस्तस्य—gen. case. showing disregard. ( वश्यन्तं ते अनादृत्य.)
Lesson 26. Catechism.
कतमः—which of many. गृहमूलम्—feuadation of a house. क्लेदः—damp भित्यधोभागे—भितेः(wall) अधोभागः।घनेष्टका—घना इष्टका brick. चूर्णलेपः—mortar. तदाकरः तासां—आकरः quarry. इष्टकायन्त्रपरिच्छिन्ना—इष्टकायाः यन्त्रं ( instrument ) यन्त्र तेन परिच्छिन्ना अश्मतक्षा—stone-cutter. टङ्कः—chisel. तष्ट्वा—having end off. इष्टकाचेता—इष्टकाभि चेता—building a brick. land. वालुका—sand. पाकपुटी—kiln. शुक्तिः—oyster. चतुरश्रम्—चतस्रः अश्रयः ( angles ) यस्य तत्। कवाटम्—door. वातायनम्—window. प्रकृतिः—material cause. विश्लिष्टम्—disjoined घटयति—closes. विवटयति—opens.द्वारग्रन्थयः—hinges. नियन्त्र्यते—pass. of यन्त्र् ( 1 & 10 U. ) fasten. अर्गलम्—latch. तालकम्—lock.
Lesson 27. ( continued.)
दर्पणानुषक्ताः—glazed.कि
मिगितन्— for what reason. ( words denoting cause, &c. are used in all cases). आलोकः—luminosity लवणविशेषमिश्रा—लवणविशेषेण (soda) मिश्रा.आग्नेयशिला—flint. द्रवीकृता—melted. आच्छाद्यते—pass.
of छद्, 10. U to cover.पटलम्—roof.कृसेष्टका—tile. कोष्ठः—room. कक्ष्या—inner apartment.उपरिभूमिका—upstair. विश्रम्यते—impersonal of श्रम् . 4.P. with विto rest. पिधानम्—hiding.
Lesson 28. Backbiting.
कैङ्कर्यम्—sorvileness. उपासाच्चक्रिरे—perf. of आस् ( 2 A. ) with उप to waitupon. जिज्ञासमानः—ज्ञातुं इच्छन् desiring to know. वनगर्दभः—zebra. अवजानाति—disregards. अज्ञा सिषन्—aor. of ज्ञा. अन्विष्यन्—searching. कोष्णम्—luke Warm. श्रुतमात्रम्—श्रुतमेव। अभिप्लुत्य—ind. p. p. of प्लु 1. P. with अभि to bound.
Lesson 29. The king and the prisoners.
महाकारागृहम्—chief prison. प्राङ्धिवाकः—judge, अन्यथाग्रहः—mistake. ययाचिरे—perf. of याच् 1. A.to beg.हन्त—alas! धनपेशिका—धनस्य पेशिका (purse) चोरितवान्—one who stole. वस्तुम्—ind. inf. of वस् to dwell. विसर्जय—release. छिन्नशृङ्खलः—छिन्नोशृङ्खला ( chains ) यस्य सः.
Lesson 30. Agreeable verses.
निर्वृतिः—satisfaction. खलः—talebearer. गुह्यम्—secret. विरक्तः—free from passion. प्रवासः—going abroad. कोकिलाः—cuckoos. क्षमा—forgiveness.
Lesson 31. Thoughtlessness.
दम्पती—जाया च पतिश्च। नकुलः—mungoose. विस्रब्धः—faithful. उत्सङ्गः—lap. उपलालयन्तौ—pres. p. of लल् (10. U.) with उप to caress. पुमपत्यम्—पुमांश्च तत् अपत्यं progeny च। रेमे—perf. of रम् 1. Ato sport. कार्यान्तरव्यापृतौ—अन्यत् कार्यं कार्यान्तरं, तस्मिन्व्यापृतौ अस्वासाञ्चक्रे—perf.of आस् with
अनु। (sat with.) प्रतिपत्तिः—affectionate behaviour. कृषिः—husbanding. मञ्चप्रसुप्तः मञ्चे( cradle ) प्रसुप्तः। वापी—tank. मुहूर्तः—period, द्वारोपान्तः—द्वारस्य उपान्तः side. रक्तप्रवाहोपलिप्तः — रक्तस्य प्रवाहेणउपलिप्तः ( besmeared.) निर्वर्णयामास—marked attentively. दुर्दैववशात्—unfortunately. विदारितवान्—one who tore. क्रोधान्धहृदया — क्रोधेन अन्धं ( unable to see anything. ) हृदयं यस्याः सा। चिक्षेप perf. of क्षिप् 6. U. to throw. स्नेहौदार्थमधुरः — स्नेहेन औदार्येण च मधुरः( charming ) निष्प्रतीकारः—निर्गतः प्रतीकारो ( remedy ) यस्मात् सः। अनुतापः—subsequent regret or sorrow. पुत्रकल्पः—ईषदअसमाप्तः पुत्रः almost equal to a son. असमीक्ष्यकारिणी—acting inconsiderately. निनिन्दुः—perf. of निन्द्1. P. to reproach.
Lesson 32. Metal.
व्यामिश्राः—compounded. क्षालनम्—washing. क्षोदनम्—crushing. भास्वरगौरम् bright and yellow. मृदु—soft. पात्राणि—beds of rivers. सिकतासङ्कीर्णम्—mixed with sand. नाणकानि—coins. दीप्रशुक्लवर्णम्—white and shining. उपलब्धिः—finding. अवरः—inferior. आनीलधूसरम्—bluish-gray. जलप्रणाल्यः—water pipes.
Lesson 33. Courage.
निभृतं—ind. unperceived. अबाधन्त—imperf. of बाध् 1. A. to bother. त्रासनीयाः—त्रासयितुं ( to terrify ) योग्याः—अपरेद्युः—another day. सचकितम्—afraid. जग्राह—perf. of ग्रह् 9. U. to hold. समर्थयामास—firmly declared. अपराधिविचारणा — अपराधिनःविचारणा ( investigation.) प्रतीक्षमाणः—expecting.
Lesson 34. ( continued.)
लगुडः—cudjel. दुष्करा—difficult. गणना—problem. लेखनफलकम्—slate. मार्जन्—pres. part. of मृज् 2. p. to rub. प्रयोक्तुम्—to bestow. प्रयुङ्क्ताम्—imp. of युज् 7. A. with प्र. धीरोदारचरितः—धीरं उदारं च चरितं यस्य सः। देशवर्षदेशीयः—nearly ten years old.
Lesson 35. Mercy.
वेपथुः—shiver. द्वित्रपदानि-द्वे त्रीणि वा द्वित्राणि, द्वित्राणि च तानि पदानि च। कुब्जीभूय ind. p.p. of कुब्जीभू ( to become crooked.) स्फारकौतुकाःस्पारं (extreme) कौतुकं (curiosity) येषां ते। विषीदसि सद् 1. P. with वि to regret.
Lesson 36. ( continued.)
स्खलन्ति pres. part. of स्खल् 1. P. to stumble. तपस्विनी—helpless.
Lesson 37. The spider and its web.
वधविनोदः—वध (killing) एव विनोदः(sport.) कान्तिशीकः—running away terrified. खड्गपाणिः—खड्गःपाणौ यस्य सः। निभृतपदम्—निभृतं (noiseless) पदं यस्मिन् कर्मणि तत्। ओष्ठदंशिनी—one who bites the lips. अत्याहितं—great calamity. निराकुलम—unspoiled. त्रुटिताकुलम् त्रुटितं (torn) च आकुलं च.
Lesson 38. Sun and wind.
घटिकायन्त्रं—time-piece. त्याजयति—causes to throw off. निर्णयसंवित्—निर्णयस्य संवित् ( agreement.) प्रावारावृतशरीरः—प्रावारेण आवृतं शरीरं यस्य सः। मुष्टिः—clenched hand. जुगोप—perf. of गुप् 1. P. to protect. वायवीयः—वायोरयं वायवीयः,जलबाष्पः—aqueeus vapour. ऊष्मा—heat. अनुनयः—conciliation.
Lesson 39. The Himalayas.
कोशः—a distance of 2 miles. बहुश्रेणीरूपः—बह्व्यः—श्रेण्यः ( range ) रूपं यस्य सः। अनूपप्रदेशाः—अनूपाः (apueous) च ते प्रदेशाश्च। बहुप्रस्रवणोपेता—बहुभिः प्रस्रवणैः(springs) उपेता।भृगवः—cliff. अतिशेते—excels-
Lesson 40. Advice
.
अपव्ययः—waste. परमस्नेहास्पदम्—परमस्य स्नेहस्यास्पदं object. आयुः—duration of life. तदात्वम्—current moment. प्रोषितागतः—one who has returned from foreign travel. सम्परिष्वजन्ते—स्वज् 1. A. to embrace with सं and परि। तन्द्री —laziness. कल्याणम्—happiness.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734793671prathama_patavali_12-removebg-preview.png"/>
[TABLE]
[TABLE]
PREFACE.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734592828PRATHAMA_PATAVALI_1-removebg-preview.png"/>
To those who have read the second reader of this series, the lessons in this—the third—present little or comparatively no difficulty except perhaps that required by a progressive series. It contains both prose and poetry pieces mostly selected from the various readers in other languages as well as from the Maha Bharata and other Standard Sanskrit works. In the object-lessons and in those on biology and on morals, special care is taken to avoid all unnecessary length and minute details. The Samasas used are not too long; the main object of using them being to acquaint the students with a method of giving concise expression to their thoughts. With a view to enrich the vocabulary of students difficult synonyms are used whenever an idea is repeated. Sometimes suggestive words are coined to express ideas new to the language.
T. G.
निवेदना.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612554PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
एषा तृतीयपाठावलीत्युच्यते। द्वितीयां पाठावलीमधीतवतां बालानां सुखेन ग्रहणयोग्याः पाठा अस्यां योजिताः। ते च गद्यरूपाः प्रायेण भाषान्तरपाठपुस्तकेभ्य उपात्ताः, पद्यरूपास्तु भारतादिभ्यःसङ्कलिताः। अत्र मनुष्यपशुपक्षिणां चरितं, स्थावरस्य स्वभावः, लौकिकी नीतिरित्येतावान् विषयोऽनतिसङ्ग्रहेण बालहृदयग्राहिण्या रीत्या प्रतिपादिताः; अदीर्घाः समासा अर्थसंक्षेपणरीतिज्ञानाय कतिपये प्रयुक्ताः, प्रसिद्धपदेन प्रथमं निर्दिष्टस्यार्त्थस्य पर्यायपदैः पुनः परामर्शः पर्यायपदपरिचयार्त्थंक्वचित् क्वचित् कृतः। पुराणकाव्यादावप्रसिद्धस्यार्त्थस्य प्रतिपादनाय नवोल्लिखितान्यपि कानिचित् पदानि झटित्यर्त्थसमर्पणे समर्त्थान्येव प्रयुक्तानि।
त. गणपतिशास्त्री.
विषयानुक्रमः.
विषयः | विषयः | ||
१ | मनुष्यस्य देहः शिरश्च. | २३ | श्वा मार्जारश्च. (क) |
२ | सद्बालानां लक्षणम् | २४ | „ (ख) |
३ | भूमिः स्थलम्. | २५ | गौर्महिषी अजा च. |
४ | निर्बन्धः. | २६ | ऋतवः. |
५ | वञ्चको भृत्यः. | २७ | कदली आम्रः. |
६ | शीलम्. | २८ | देवदर्शिनौ. |
७ | विज्ञानफलम्. | २९ | विद्यायामुद्योगः. |
८ | अश्वो गर्दभश्च. | ३० | अन्धानां गजदर्शनम्. |
९ | मूर्खा भृत्याः. | ३१ | सर्वानुरोधोद्यमः. |
१० | अपत्यविवादः. | ३२ | सामान्यनीतिः. |
११ | उपकारो न निष्फलः (क) | ३३ | चक्षुः. |
१२ | „ (ख) | ३४ | निमित्तम्. |
१३ | सत्पुत्राः. | ३५ | क्षमा. (क) |
१४ | जम्बुको द्राक्षा च. | ३६ | „ (ख) |
१५ | शुनको बकश्च. | ३७ | मातृभक्तिः. |
१६ | उदरमवयवान्तराणि च. | ३८ | हिंसारसः. |
१७ | नासा चास्यं च. | ३९ | अकृतज्ञोऽधमर्णः. |
१८ | जडसहवासः परमानर्थः. | ४० | कुडुम्बैकमत्यम्. |
१९ | निष्कुटःकेदारम्…….. | ४१ | मातापितृवाक्यलङ्घनम् |
२० | उद्यमः. | ४२ | व्यायामः. |
२१ | सत्यम्. | ४३ | विकत्थनः कुमारः. |
२२ | पृथिवी जलं च. | ४४ | तस्करसत्यशीलौ. |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734871039PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
श्रीः॥
तृतीया पाठावली.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612717PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
मनुष्यस्य देहः शिरश्च.
विधाता तावदस्मानसृजदिति यूयं जानीध्वे। यथा वयं वस्तु गृहाण्युत्पादयामः, एवमीश्वरोऽस्मज्जीवात्मनो वासाय शरीरं निर्मितवान्।
आत्मन आयतनभूते शरीरे शिरः कायः पाणिपादमिति त्रयो मुख्यभागाः सन्ति। अष्टवितस्तिमात्रेऽस्मिन् देहे शिर एव प्राधान्यादुत्तमाङ्गमित्युच्यते। यथा तदात्मन इच्छयोन्नन्तुमवनन्तुं पार्श्वयोर्विवलितुञ्च पटु स्यात्, तथा तत् सन्निवेशितम्।प्रासादस्थ इव वातायनविवरेणास्मन्मुखावस्थितस्य नयनस्य द्वारेणात्मा समन्ताद् विद्यमानानि वस्तूनि पश्यति। शिरसो भागौ कपालं मुखञ्च। कपालमतिदृढविचित्रसन्धानैरष्टभिरस्थिभिर्निष्पादितम्। तदभङ्गुरत्वाय प्रव-
णाकारमनुपघाताय लोमशाभिस्त्वग्भिराच्छादितं च वर्त्तते।
कपालान्तर्मस्तिष्कं वर्त्तते। तदेव बुद्धेः स्थानं प्राणाधारेष्वन्यतमं च। मुखे नयनाभ्यां सह नासाऽऽस्यं श्रोत्रे च वर्त्तन्ते।
मानुष एक एव स्वभावतः शिर उन्नमय्य चरतीत्यतः स इहफलादुत्कृष्टममुत्रफलमर्जयितुमर्ह इति, अन्ये सर्वे जन्तवोऽधोमुखा एव सञ्चरन्तीत्यतस्त इहसुखमात्रायार्हा इति च शक्यमुत्प्रेक्षितुम्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612756PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
२. सद्बालानां लक्षणम्.
सन्तो बालाः प्रातस्तरां प्रबुध्येरन्; शय्योत्थायमीश्वरं ध्यात्वा स्नानेन शुचयो भवेयुः, यतः शरीरशौचमारोग्यमुख्यकारणेष्वन्यतमम्। अनन्तरं ते धौतमंशुकं परिधाय यथाकुलाचारं जपित्वाधीतं पाठं सम्यगभ्यस्येयुः, अथ यथोपपन्नमन्नमभ्यवहृत्य प्रतिदिवसं यथाकालं पाठशालायां सन्निदधीरन्। नतु जातु-
चित् शिरोवेदनेति वा, उदरबाधेति वा, गृहे श्राद्धादिकमिति वा वृथा व्याजानुल्लिखन्तो गृह एव विश्राम्येयुः; कुत इति चेत्— ते तारुण्यावस्थायां जीविकाव्यापारेषु तथा व्याजोल्लेखनमशक्यमिति स्वयमेव जानीयुः। अभ्यस्तं पाठं तत्र सम्यग्विशोध्योपाध्यायस्योपदेशानेकाग्रमानसा गृह्णीयुः।
किञ्च ते पाठशालायामुपाध्यायस्य सच्छात्राणां वा वैमनस्यमल्पमप्यजनयन्तः सर्वदैव विनीता वर्तेरन्; स्वानि पुस्तकानि पांसुस्वेदादीनामनुषङ्गाद्रक्षेयुः; पुराणान् पाठान् मुहुश्चिन्तयेयुः, तत्र सम्यगप्रतिभातान् विषयान् सच्छात्रं गुरुं वा पृष्ट्वावधारयेयुः।
दैनंदिनाध्ययने वृत्ते गुरुणा दत्तायां गृहगमनाभ्यनुज्ञायां विद्यया सह कायबलस्याप्यवश्यार्जनीयतया ते समानवयस्कैर्बालैःसाकं क्रीडेयुः, अव्यायामो हि जनो रोगी भवेत्; रोगिणश्च बलं हीयेत; अबलश्चमहापण्डितोऽपि परस्यात्मनो वा नेषदप्युपकाराय कल्पे।
एतच्च मुख्यं लक्षणं सतां बालानां—यत् ते मातापित्रोर्हितोपदेशवाक्यान्यादरेण शृण्वन्तः सर्वेषु कृत्येषु तयोर्मतमनुसरेयुः।
यस्तु स्वच्छन्दवृत्तिः पित्रोर्हृदयं दुनोति, स बालको दण्डनामवश्यं लभेत।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612827PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
३. भूमिःस्थलम्.
अस्माभिरध्युष्यमाणा भूमिर्विपुला नारङ्गफलवन्निस्तलाकृतिश्च विद्यते। प्रायोऽस्याः 2/3भागौ, जलमयौ, 1/3 भागः स्थलम्। यद्येवं भूमेरवस्थितिर्नाभविष्यत्, तदा मनुष्यभोग्यः सर्वोऽपि स्थलभागो बहोः कालात् प्रागेव भृशमुच्छुष्को मरुरभविष्यत्। भूमावुन्नताः पर्वता गिरिपादा निम्नदेशा आजयश्च सन्ति। पर्वतेषु प्रस्रवणानां तच्छिखरेषुहिमघनानाञ्च भावात् तेभ्यो नगनिम्नगाः सिन्धवश्चोत्पद्य समन्तात् स्यन्दमानाः स्थलं कृष्यर्हं कुर्वन्ति। अनतिदन्तुरा भूमिराजिरित्युच्यते, समभूभिरिति च। उन्नतेऽवनते समे वा प्रायःसर्वस्मिन्नपि स्थलेनानाविधा वृक्षाः पुष्पलताः
सस्यानि तृणानि चोद्भिद्य भूमिमलङ्कुर्वन्ति।उष्णदेशेषुच्छायाया अवश्यमपेक्षणात् छायावृक्षा बहुला जायन्ते, स्तोकोष्णेषु तु न तथा।भूमेरतिशीतलयोर्दक्षिणोत्तरभागयोर्वृक्ष एव न प्ररोहति, किन्तु कृशानि लशुनानि तृणानि च केवलम्। भूमेरूर्ध्व ऊर्ध्वे शैत्यस्य अन्तरन्तरूष्मणश्च क्रमेणाधिक्यमुपलभ्यते। भूमेरुपरिकपालं क्रोशपञ्चशतीमात्रमिति, ततस्तस्या गर्भे बहुप्रकारा लोहादयः पदार्थाः क्वथिता द्रवीभूय प्रवहन्तीति च पण्डिता अभ्युह्य वर्णयन्ति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612856PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
४. निर्बन्धः.
कुतश्चिद् ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छन् पान्थः कश्चिद् द्रामिलः कस्यापि सरसस्तीरे स्थितस्य तरोरेककस्य मूले स्वीयमश्वं बद्ध्वा जलाभ्यर्णे पाथेयमभ्यवहरन्नासाञ्चक्रे। तदा कश्चन पथिको यवनस्तत्र विश्रमार्थमवतीर्य स्वीयमप्यश्वंतत्र वृक्षे बन्धुं तदन्तिकमुपससार।तथाभूतं तमालोक्य स भुञ्जानो द्रामिल उच्चैः-
कारमाचचक्षे —‘ममाश्वोबलवानदान्तश्च;दुर्बलं तवाश्वं मा तेन साकं भान्त्सीः’ इति। यवनस्तु ‘तत्रैव बध्नीयाम्’ इति सनिर्बन्धस्तं बद्ध्वा तत्रैव तीरे नातिनिकटोपविष्टो भोक्तुमारेभे। ततः क्षणान्मिथ आरब्धकलहं तदश्वयुगलं यावत् तत्स्वामिनौ द्रुततरमागत्य विनिवारयतस्तावद् द्रामिलाश्वोयवनाश्वंनिर्दंशनैः पादाघातैश्चप्रमीतं चकार। अथ कुपितो यवनो हठाद् द्रामिलमाकर्षन्प्राड्विवाकमुपगम्य ‘ममाश्व एतदश्वेन हतः; तदनेन तन्मूल्यं दाप्यम्’ इति प्रार्त्थयत। ततः ‘किमत्रोत्तरं वदसि’ इति प्राड्विवाकेन बहुकृत्वः पृष्टोऽपि द्रामिलःकिमप्यब्रुवन् मूक इव स्थितः। तदा प्राड्विवाको यवनं जगाद — ‘मूकः खल्वसौ;किमनेन कुर्याम्’ इति। पुनर्यवनोऽब्रवीत् — ‘आर्यमिश्र! कुहकोऽयं न तु मूकः यतो मय्यश्वबन्धनाय वृक्षमूलमुपसरति “तत्र त्वदश्वं मदश्वेन सह मा भान्त्सीर्मा भान्त्सीः” इत्युच्चैरुद्घोषति स्म’ इति। प्राड्विवाकस्तद्वाक्यं श्रुत्वा प्रहस्य ‘तर्हि त्वद-
श्वमूल्यमनेन दापयितुं न कश्चिद् न्यायोऽस्ति’ इत्युक्त्वा यवनं विसर्जयामास।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612964PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
५. वञ्चको भृत्यः.
कोऽपि धनिको महता मूल्येन क्रीतमेकं मरकतरत्नं स्वभृत्यस्य हस्ते समर्प्य ‘रत्नमिदं मम गृहिण्याः करं प्रापय’ इत्युक्त्वा तं प्राहिणोत्।स भृत्यो यथानियोगमकृत्वा तद्रत्नं लोभात् स्वायत्तं चकार। पश्चाद् गृहमागत्य ‘क्व तद् भृत्यानीतं रत्नम्?‘इति धनिके गृहिणीं पृच्छति सा ‘न किमप्यहं जानामि’ इत्यवोचत्। सद्यःस्वामिनाहूय ‘अपि तद्रत्नंयथानिदेशं प्रापयः!’ इति पृष्टो भृत्यः ‘अथकिं, प्रापयम्’ इत्युवाच। ततो धनिकेनेममर्त्थं निवेदितो राजा भृत्यमा-नाय्यापृच्छत। तदापि स ‘मत्स्वामिगृहिण्याः करे रत्नमार्पयम्’ इत्येवाब्रवीत्; तत्र च साक्षिसत्तांप्रति राजनि पृच्छति द्वौसाक्षिणौ विद्यमानावाह स्म। अथ तावप्यानायितौ भिन्नदेशस्थौ कारयित्वा राज्ञा प्रथमं
चोदिता धनिकगृहिणी ‘भृत्यो मरकतं मह्यं न दत्तवान् इत्य
ब्रूत।ततो धनिको भृत्यश्च रत्नस्य प्रमाणं प्रति प्रत्येकं पृष्टौ ‘तिन्त्रिणीबीजमात्रं तद्’ इत्यब्रूताम्। साक्षिणोस्तु प्रत्येकं पृष्टयोरेको ‘द्राक्षाफलप्रमाणम्’ इति, अपरो ‘लिकुचप्रमाणम्’ इति च व्यब्रूताम्।
एतेन राजा कूटसाक्षिणावेनौ निश्चित्य तयोर्दण्डमकल्पयत्। पश्चादेतौ सानुतापौ सत्यं विज्ञाप्य ‘क्षमस्वापराधम्’ इति राजानं प्रार्थयाञ्चक्राते। धूर्तो भृत्यस्तु स्वप्रयुक्तायाः परवञ्चनायाः स्वानर्त्थहेतुतां दृष्ट्वा तद्रत्नं प्रत्यर्पयामास। राजा च तद् गृहीत्वा धनिकाय ददौ।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734612993PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
६. शीलम्.
अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्चदानं च शीलमेतद्विदुर्बुधाः॥१॥
वृत्तं यत्नेन संरक्षेद्वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः॥२॥
यथा मलिनवस्त्रेण यत्र क्वाप्युपविश्यते।
एवं चलितवृतेन वृतशेषं न रक्ष्यते॥३॥
न कुलं वृत्तहीनानां प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्त्येष्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते॥४॥
अकुलीनः कुलीनो वा मर्यादां यो न लङ्घयेत्।
धर्मापेक्षी मृदुर्दान्तः स कुलीनशताद्वरः॥५॥
शीलं रक्षतु मेधावी प्राप्तुमिच्छुः सुखत्रयं।
प्रशंसां वित्तलाभं च प्रेत्य स्वर्गे च मोदनम्॥६॥
विदेशेषु धनं विद्या व्यसनेषु धनं मतिः।
परलोके धनं धर्मः शीलं सर्वत्र वै धनम्॥७॥
भुङ्क्ते मितं यः कृतसंविभागो
मितं च निद्रात्यमितं प्रयस्य।
स्वं याचितश्च द्विषतेऽपि दत्ते
जहत्यनर्त्थास्तमुदारशीलम्॥८॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734613023PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
७. विज्ञानफलम्.
‘ज्ञानं सर्वार्थसाधनम्’ इति वाक्यं विद्वन्मु-
खात् कोऽपि राजा निशम्य तस्य यथार्त्थतां परीक्षितुकामः स्वपुत्रयोर्द्वयोः कनीयांसं शास्त्राध्ययनाय सदाचार्यस्यान्तेऽवासयत्, ज्येष्ठाय च कालेकाले प्रचुरं धनमात्रं ददानोऽवर्तत।क्रमेण कनीयान् विद्यायां सदाचारे च परिनिष्ठितोऽभवत्। ज्येष्ठस्त्वनुक्षणमुपैधमाने धने मदमानभरितो बभूव। तयोर्यौवनदशामधिरूढयोः कुतोऽपि हेतोर्दवीयान् विदेशो गन्तव्य आसीत्। पूर्वजः सञ्चितं स्वधनमखिलं गृहीत्वा तमभि प्रतस्थे। अनुजः पुनर्विद्यामेव विदेशे सहायं मन्यमानः स्तोकमपि धनमनादाय तमन्वगच्छत्। प्रयाणके क्वचिद्रात्रौ चौरेषु धनपेटिकां लुण्ठितुमुद्युञ्जानेषु दैवात् तत्स्वामी प्राबुद्ध। ततस्ते तामलुण्ठित्वैव पलायन्त। अथापि तदा प्रभृति त्यक्तनिद्रं दिवानिशं धनरक्षणार्त्थेखिद्यमानं भ्रातरं दृष्ट्वानुजेनापि तत्र साहाय्यं कृतमासीत्। ईप्सितं च देशं तयोरासादितवतोर्ज्येष्ठः कनिष्ठाद् वियुज्य विवेकशून्यतया वृथाविनियुक्तसर्वद्रव्योऽधमर्णीभूयान्ते कारानिरोधं प्रपेदे। कनिष्ठस्तु तत्रत्यं राजकीयं
विद्वत्समाजमाश्रित्य तत्संवासरसिकोऽवर्तिष्ट। श्रुत्वा चास्य गुणोत्कर्षंतद्देशाधिप एनमाहूय स्वान्तिके वासयांबभूव; सुप्रीतश्चास्मै कन्यामात्मनः संप्रददे; सदारं चैनं प्रभूतधनपरिवारं कृत्वा स्वदेशं प्रति प्रास्थापयत्।
इत्थंभूतमेनं प्रत्यागतं वात्सल्यात् पिता भृशमभ्यनन्दत्। काले स कियति व्यतीते ज्ञानसत्यनीतिभिर्धैर्यदयादिभिश्च महागुणैः शोभमानं राजपदार्हमेनं मन्यमानः स्वराज्येऽभ्यषिञ्चत्। अथ प्राप्तराज्योऽयं विज्ञाय चरमुखाज्ज्येष्ठवृत्तान्तं भृशदुःखितस्तूर्णमेव तमृणाद् विमोच्य स्वपुरमानिनाय। एतेन—
“अशेषाभ्युदयोत्पादनिदानत्वान्न केवलम्।
इतरानपहार्यत्वादपि विद्योत्तमं धनम्॥”
इत्ययमर्थो निर्णीतः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734613078PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
८. अश्वो गर्दभश्च.
मृगा नाम नानाजातीयाः। तत्र केचिदारण्याः केचिज्जानपदाः तेषु केचिन्मनुष्याणां भृशमुपकाराय
भवन्ति। अश्वा हि तीक्ष्णबुद्धयो महनीयाः मृगाः।वन्याश्वा गर्दभेभ्योऽपि निकृष्टरूपाः। उभये चैते एष्याखण्डमध्ये बहुलाः सन्ति। अश्वाः स्वं स्वामिनं सम्यग् विजानन्ति; तस्य कैङ्कर्यं निर्व्याजमाचरन्ति; तद्वचनतात्पर्यं, प्रग्रहेण जानुभ्यां चरणाभ्यां च तेन क्रियमाणाः संज्ञाश्च विदित्वा तदनुसारेण वर्तन्ते। जवनास्ते निमेषद्वयेनार्धक्रोशं गच्छन्ति। पारसीकदेशोत्पन्नास्त उत्तमा इति प्रसिद्धाः। तान् पारसीकाः कुडुम्बानीव पुष्णन्ति। वृषभा इवाश्वाः शकटान् हलानि च कर्षन्ति; मनुष्यांस्ततोऽपि गुरुतरान् भारांश्चवहन्ति। गर्दभा अप्येवम्।
ग्रामगर्दभा अल्पाकृतयो गतौ बुद्धौ च मन्दाः। सहनतया निसर्गतो दान्ततया च ते न गण्यन्ते, न च रक्ष्यन्ते। तान् भारतीया मार्गपरिसरेषु, ग्रामबाह्यदेशेषु चाभ्यवहारगवेषणायै विसर्जयन्ति; तेषां पृष्ठेषु महान्तं भारमारोपयन्ति; तद्वशाच्च तान् स्खलतो दण्डप्रहारैर्विद्रावयन्ति। पुनररण्ये देशविशेषे च समु-
न्नता दृढदेहबन्धा बलवन्तो गर्दभाः सन्ति। पुरा प्रभवस्तान् वाहनीकरणेन रथ्यीकरणेन चोपायुञ्जत। अद्यत्वेऽपि ईजिप्त, स्पेयिन, अमेरिकादिदेशेषु जना गर्दभानत्यर्त्थमाद्रियन्ते। तत्र गर्दभानां पादा न स्खलन्ति।अश्वापेक्षया तेषां तीक्ष्णतरा बुद्धि; आयुश्च दीर्घतरम्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734611130PRATHAMA_PATAVALI_2-removebg-preview.png"/>
९. मूर्खा भृत्याः.
पुरा दक्षिणापथे बहुवित्तपरिजनः कश्चित् धनिकः आसीत् । स कदाचित् स्वशिबिकावाहिनो गवार्त्थे तृणानयनायादिदेश। तेऽवदन्—‘वयं शिबिकावहनं विना नान्यत् कर्म कुर्याम’ इति। स पुनरपि क्वचिद्दिने नष्टस्य गोवत्सस्यान्वेषणाय तानादिक्षत्। तदापि ते ‘वयं शिबिकावाहिनो न गोपालकाः’ इति वदन्तः स्वाम्याज्ञामत्यवर्तन्त। ततस्तेषां सद्बुद्धिमुत्पादयितुमिच्छुर्धनिकः शिबिकानयनाय तानाज्ञापयत्; उपस्थापितां शिबिकामधिरुह्य मध्याह्ने तैरुह्यमानः गो-वत्सान्वेषणाय प्रस्थितः कण्टकाकीर्णासु ग्रामबाह्यस्थ-
लीषु शिबिकावाहांस्ततइतोगमयन् खेदयामास। ते चिरमुग्रातपे भारवहनाच्चङ्क्रमणाच्चोपहतजानुपादा ‘इतः परं चलितुं न शक्नुमः’ इत्यवसन्नगात्रा आचक्रन्दुः। स्वामी तान् निर्भर्त्स्य ‘शिबिकावहनं युष्माकं नियोगः। अतो मा स्म तिष्ठत। गच्छत शीघ्रम्’ इति चोदयन्नतीव श्रमयाञ्चकार। तदा प्रभृति लब्धविवेकास्ते न जातुचित् स्वाम्याज्ञामुदलङ्घयन्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734611860PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
१०. अपत्यविवादः.
गृह एकस्मिन्नेकापत्ये द्वे स्त्रियाववसताम्। क्वचन रात्रौ तयोरेकस्या अपत्यं मृतमभूत्। तदादाय तन्मातान्यस्याः स्वपत्याः पार्श्वे निभृतं निधाय तदीयमपत्यं स्वयमपाहरत्। प्रभाते च ते ‘जीवदपत्यं मदीयं मदीयम्’ इति विवदमाने राजानमासेदतुः। स च साक्ष्यभावाद् निर्णयोपायं मनसिकृत्य वधाधिकृतमाहूय ‘जीवतः शिशोश्छिन्नस्यैकमर्धमेकस्या अपरमर्धमन्यस्यै च दीयताम्’ इत्यादिष्टवान्। तच्छ्रुत्वा तयोरेका
‘न्याय्योऽयं निर्णयः, छिद्यतां शिशुः’ इत्याह स्म।अन्या तु वेपमानावयवा ‘राजन्! शिशुरेष तस्या एव दीयताम्; सर्वथा मैनं मारयत’ इति प्रार्त्थितवती। ततश्चेयमेवापत्यवत्सला शिशोर्मातेति निश्चिन्वंस्तस्यै स शिशुं समर्पयितुमादिशत्; प्रत्यर्त्थिनीं च ताडयित्वा कारागृहे निवेशयामास।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734613125PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
११. ( क ) उपकारो न निष्फलः.
कदाचित् प्रातः कश्चन बालो गृहीतपाथेयो दिनान्तात् प्रागेव प्रतिनिवर्तितुं कृतनिश्चयो ग्रामान्तरं प्रस्थितः। मार्गे कोऽपि श्वा गच्छन्तं तमुत्पुच्छयमानः प्रत्यासदत्। श्वा क्षुत्पीडित इत्याकारेण विदित्वासौ बालः कृपार्द्रमना आत्मनोऽन्नहानिमगणयन् पाथेयात् कबलमेकं तस्मायार्पयत्। ततः किञ्चिद् दूरमतिक्रान्तोऽयं जरढंकञ्चिदश्वं मार्गपतितमालोक्य तस्य बुभुक्षातुरतया स्पन्दितुमपि शक्त्यभावं विज्ञायेत्थमचिन्तयम् — ‘यद्यहमस्य तृणाहरणार्त्थेकांश्चित् क्षणानुपयुञ्जीय, तदा स्वग्रामाय प्रतिनिवर्तनात् प्राक् सूर्यो
ऽस्तं गच्छेत्। चौरप्रचुरश्चायं पन्थाः। तथापि मृगरक्षणमेव परमो धर्मः’ इति। ततइतस्तृणान्याहृत्य चासौ तस्याग्रे व्यकिरत्। तेषां चर्वणादश्व उपशान्तक्लमः शनैरुत्थाय चलितुं प्रवृत्तः। ततः किञ्चिद् दूरं गतः सरसि तिष्ठन्तमितिकर्तव्यतामूढमिव लक्ष्यमाणं कञ्चित्पुरुषमवलोक्य ‘भोः ! किं तत्र करोषि?’ इत्यपृच्छत्। ‘भद्र ! अहमन्धः; प्रमादात सरसि पतित इतश्चलितुं बिभेमि’ इति स प्रत्युवाच।
बालको ‘हन्तैवं मम समयो हीयते। अन्धश्चायं नोपेक्षणीयः’ इति विचिन्त्य अवनतपूर्वकायः करं प्रसारयामास। तमवलम्ब्यान्धः पन्थानं प्रतिपन्नः ‘कारुणिक! मत्प्राणत्राणकारिन्! न ते दुःखं भविष्यति’ इत्याशिषा बालमभिननन्द;अकथयच्च — ‘भद्र ! इतो मदर्थे कालं मा हार्षीः। अहं कथंकथमपि स्खलित्वा स्खलित्वा गृहमासादयेयम्’ इति। ततस्तदादिनान्तस्य प्रत्यासन्नत्वाद् विघ्नापहृतस्य समयस्य प्रत्यापत्तये महान्तं वेगमाश्रित्य धावति बालेऽन्यः
प्रत्यूह आपतितः। पङ्गुर्हि कश्चित् पर्वण चरन् ‘प्रभो! ईशस्त्वामभिरक्षतु। युद्धे नलिकभिन्नपादः पङ्गूभूतो दीनोऽहम्। क्षुन्मामतीव पीडयति। यत्किञ्चिदभ्यवहाराय देहि’ इति बालमयाचत। बालः पाथेयभाण्डस्थं भुक्तशिष्टं सर्वं तस्मै समर्प्य द्विगुणवेगं धावन् दिनावसाने ग्रामान्तरं प्रापत्;तत्र च कार्यं निर्वर्त्य स्वगृहं प्रत्यागच्छन् कतिपयैः क्षणैः परितः प्रसृत्वरे तमसि भ्रष्टवर्त्मा किमपि वनं प्रविश्य बभ्राम।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734619597PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
१२. ( ख ) उपकारोन निष्फलः.
वने तस्मिन् स बालो यत्नेनान्विष्यन्नपि मार्गमनुपलभमानः क्वचन शिलातले शयितः ‘अहो वत ममेदृशी भवितव्यता’ इति साक्रन्दमरोदीत्। तदा प्रातर्वितीर्णाहारः स श्वा कमप्यल्पकं भक्ष्यपूलं ग्रन्थौ सन्दश्य यदृच्छयाऽऽपतंस्तद्ध्वन्यनुसारेण तदन्तिकमुपससार;तदग्रे च तं भारं चिक्षेप।बालस्तं श्लथी-कृत्य तत्स्थं भक्ष्यजातमभ्यवजहार; ‘अहो शुनेऽपि कृत उपकारो न व्यर्थोजात’ इत्यभिधाय तदङ्गं च
प्रीत्या पराममर्श। ततः किञ्चिदिव शान्ते श्रमे सरणिगवेषणायै पुनरुद्यतस्य ततइतश्चरतस्तस्य पादौ तीक्ष्णकण्टकक्षतावभूताम्। तद्व्यथया गन्तुमशक्तस्तत्क्षणप्रसृते चन्द्रिकाप्रकाशे दिवासम्भावितमश्वंतत्र तृणानि भक्षयन्तं दृष्ट्वातत्समीपमगमत्। ततः करतलपरामर्शैस्तमुपलाल्य यावदयमारुरुक्षामदर्शयत्, तावदश्वः स्वपृष्ठे तमारोप्य समीचीनं पन्थानमवहितः प्रापयांचकार।बालो ‘यद्यहं प्रागिममश्वंनारक्षिष्यं, ध्रुवं तत्र कान्तारे महाक्लेशमन्वभविष्यम्। दिष्ट्या सुकृतमकरवम्। न हि तत् फलमनुत्पाद्य विरमति’ इति तुतोष।
ततो गच्छतस्तस्य द्वौ चौरावागत्य वस्त्राणि चोरयितुमारभेताम्। किन्तु पूर्वोपकृते शुनि तत्क्षण एव प्रधाविताभिगते स्वपादौ दन्दश्यमाने, ‘इतस्ते पापास्तिष्ठन्ति, शीघ्रमागच्छत, तान् निहन्मः’ इत्युच्चस्वरायां च वाचि श्रूयमाणायां तौ चौरौ पलायिषाताम्। किमिदमिति च पश्चाद्दत्तदृष्टिः स बालो दिवाभुक्तस्वान्नशेषं तं पङ्गुमात्मनैव तटाकादुत्तारितस्य
तस्यान्धस्य स्कन्धेऽधिरुह्यागच्छन्तमपश्यत्। तञ्च स पङ्गुर्जगाद—‘तात! क्वचन मार्गद्रुममूले शयानावावां"कश्चिदेकाकी जनो गच्छति, तं प्रहृत्य मुष्णीवः, आयाहि" इति कामपि वाचमशृणुव। ततस्त्वामेवैकाकिनं प्रत्यागच्छन्तं सम्भावयन्तौ मदुपदिश्यमानमार्गे मां स्कन्धेन वहत्यन्धे द्वावपीहागत्य चौरत्रासनामुद्घोषणामकार्ष्व। सेयं दैवात् तवोपकारायाभूदिति महानावयोः प्रमोदः’ इति। श्रुत्वा चैतद् बालो भृशमतुषत्; तदाप्रभृति च मनुष्ये मृगेऽन्यस्मिन् वा प्राणिन्यार्ते दृष्टे नियमेनोपकारपरो बभूव।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734621192PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
१३. सत्पुत्राः.
शिशिलिद्वीपे एतनाभिधानः कश्चिदग्निपर्वतोऽस्ति। स स्वभावात् शिखरेभ्योऽग्निंद्रुतशिलाद्रवांश्च कदाचिदुद्वमेत्।शिलाद्रवाश्च प्रच्युत्य पर्वतप्रान्तदेशेषु स्यन्देरन्। पुरा कदाचित् तान् बहुलमुद्गिरति तस्मिन् गिरौ तत्परिसरग्रामेभ्यो जनाः स्वस्वधनेषु प्रशस्तान्यादाय प्राणपरित्राणार्थमन्यत्राधावन्। तैः सह
स्वकीयधनानि गृहीत्वा गच्छन्तौद्वौभ्रातरौ जराजर्जरतया सहसा सहचरितुमक्षमं पितरं मातरञ्चावेक्ष्य ‘आवां प्रसूय पुष्टवद्भ्यां मातापितृभ्यां श्रेष्टं न किञ्चिद्धनं लोकेऽस्ति’ इति मिथः कृतविमर्शौसर्वस्वपरित्यागेनापि मातापितृरक्षणमेव परमं धर्मं निरचिनुताम्।
ततश्च शिरःस्थं सर्वं प्रशस्तधनभाण्डजातंदूरे निरस्य ज्येष्ठः पितरमन्यो मातरं च पृष्ठे समारोप्य वहन्तौभयशून्यं स्थलं प्रापयाञ्चक्रतुः। ताभ्यां च मातरपितरौ वहद्भ्यांयया वीथ्याप्रचलितं, तस्यास्तदा प्रभृति ‘सत्पुत्रमार्ग’ इति नाम प्रसिद्धमभूत्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734621809PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
१४. जम्बुको, दाक्षाच.
कदाचित् कश्चिज्जम्बुक आहारार्त्थमटाट्यमानः क्वचिद् द्राक्षालतायां लम्बमानं पविरफलजालं मनोरमं वृन्तमेकमपश्यत्; उन्नम्योन्नम्य च तद् वृन्तमुच्चेतुं यावच्छक्ति प्रयत्नमकरोत्; तथाप्युन्नतदेशस्थ-
तया तद् ग्रहीतुं न शशाक। एवमात्मोद्यमं विफलमवधार्य ‘धिक्धिगम्लमेवेदं द्राक्षाफलम्; यदीच्छेयं, किमहमिदमनायासेन नोच्चिनुयाम्?’ इति उपांशु जल्पन् सावज्ञ इव स जगाम। एतेन लिप्सिते पदार्त्थेतदलाभनिश्चयानन्तरमनिच्छाया अभिनयनमुपहसनीयमिति फलति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734622527PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
१५. शुनको बकश्च.
कञ्चिदजपोतंहत्वासगर्धं भक्षयतः कस्यचित् शुनकस्य कण्ठनाले अस्थिशकलमेकमलगत्। स तत् स्वयमुद्धर्तुं कथञ्चिदप्यशक्नुवत्बकंकञ्चिदुपगम्य ‘यदि त्वं मद्गलधिवरलग्नमस्थिखण्डं दयया समुद्धरेः, तर्ह्यवश्यमनुरूपं ते पारितोषिकं दद्याम् ’ इति प्रह्वः प्रार्थयत। बकश्च’तथा’ इत्यभिधाय, दीर्घां स्वग्रीवां व्यात्ते तदास्ये प्रसार्य तञ्च्वग्रेणशनैस्तदस्थिखण्डं बहिर्निस्सारयामास।ततः ‘क्व तत् त्वया प्रतिश्रुतं पारितोषिकम्’ इति पृच्छन्तं तं बकं’अरे मूढ ! मद्दन्तान्तरालोपनतंतव शिरो झगित्यदशता मया यदु-
पेक्षितं, तत् किमनुरूपं ते न पारितोषिकम्?’ इति स उक्तवान्। एतेन क्षुद्रेषु प्रत्युपकारप्रत्याशा न कार्येति सिध्यति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734622878PRATHAMA_PATAVALI_3-removebg-preview.png"/>
१६. उदरं अवयवान्तराणि च.
कदाचिदवयवाः सर्वे सम्भूय ‘कुक्षिं पूरयितुमस्मासु श्रद्धयानुवेलं प्रयस्यत्सु फलमेव केवलमस्मत्प्रयासस्यानुभवन् स्वयमयं तूष्णीमास्त’ इत्युपजातासूयाः कुक्षिणा सहाकलहायन्त। ततः ‘अद्यारभ्य कुक्षिं न वहेव ’ इति पादयोः, ‘आस्ये नान्नमर्पयेव’ इति करयोः, ‘अन्नमादाय न गिरेयम्’ इत्यास्ये च वदत्सु, दन्ता ‘नान्नादिकं मृदूकुर्याम’ इत्यब्रुवन्। ‘अन्नं नान्तरवतारयेयम्’ इति कण्ठनालमकथयत्। एवं मिथः कृतसंविदःसर्वेऽवयवा दिनद्वयं निर्व्यापाराः स्थिताः। तृतीये दिवसे कुक्षावाहारानर्पणात् प्राप्तकार्श्ययातनाः सानुतापाः सद्यः स्वस्वकर्मसु यथापूर्वं व्यापरितुमारेभिरे। इत्थञ्च सर्वासु जातिषु कञ्चित् प्रधानं कृत्वा
कैश्चित् तदुपासना कर्तव्यैवात्महितायेति फलति।
१७. नासा चास्यंच.
मुखस्यैकदेशभूतया नासया गन्धं गृह्णीमः। सास्मत्सुखविरोधिनो वस्तुनः सत्तां आरादागमनं च निवेदयति; अचारोरभ्यवहारस्य कबलनं नानुमन्यते। एतदर्त्थमेवास्यस्य ऋृजुरेखोर्ध्वभागे सा भगवता संश्लेषिता। तद्द्वारा श्वसिमो वयम्; प्राणाश्चश्वसितेन ध्रियन्ते। मृदुलमेकमस्थि नासानालदण्डो भूत्वा नासारन्ध्रेबिभजते। तत्र विद्यमानानि लोमानि परागादेरन्तःप्रवेशं वारयन्ति।पन्थाः कश्चिन्नेत्राभ्यां नासामुपतिष्ठते; तेन नयनयोरश्रु मुञ्चतोर्नासिका निष्यन्दिनी भवति। एवं नासाया आस्यान्तस्य च द्वारमस्ति।
अस्माकं व्याहरणे भोजने च करणमास्यम्। ओष्ठौ दन्तान् पालयतः। अत एतौ दन्तवासश्शब्देनोच्येते। आहारं च तौ तेषु लघूकुर्वत्सु बहिरवपाताद्रक्षतः।उच्चारणे च केषाञ्चिद्वर्णानां तावनुकूलौ भवतः। दन्ता ऊर्ध्वपङ्क्तावधरपङ्क्तौ च षोडशशःद्वात्रिंशत्
सन्ति।राजदन्तौ विशालौ सतलौ चारु च। ताभ्यां वयं दशामः। तदनन्तरं स्थिताःश्वरदसदृशा निशिताग्रारदना अभ्यवहार्यखण्डने, पार्यन्तिका दन्ताः सतलत्वात् सुखजीर्ण्यानुगुण्येनाभ्यवहारमृदूकरणे चोपयुज्यन्ते।
आस्वाद्यस्य रसमास्योर्ध्वभागेन संयुक्ता जिह्वा वेदयते। वर्णविशेषान् प्रति तयोरुत्पत्तिस्थानतापि वर्तते।
मनुष्यभिन्नाः प्राणिनः स्वाभिप्रायमुच्चावचैर्ध्वनिभिराविष्कुर्वन्ति; भाषणं तु तेषामशक्यम्। मनुष्यः खल्वेकः स्वाशयं वाचा प्रकाशयितुं शक्तः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734624353PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
१८. जडसहवासःपरमानर्त्थः.
नानारूपाणि दर्शनीयानि नगरे सन्तीति श्रुतपूर्वी कश्चिज्जडस्तानि द्रष्टुकामो दूरात् स्वग्रामात् किञ्चित् स्वस्यालाध्युषितं नगरं जगाम; तत्र स्यालगृहे रात्रौ सर्वेषु भुञ्जानेषु प्रदीप्रमजिरे कमपि दीपविशेषं
ददर्श; विस्मितश्च स्यालं पप्रच्छ ‘किमिदम्’ इति। नागरिकोऽस्य जडिमानं मनसोपहसन्नुवाद ‘स एष दुष्प्रापः सूर्यशाबको नाम सांयात्रिकैर्दवीयसः समुद्रद्वीपादिहानीत’ इति। स भ्रान्तो यथाजातः ‘इदृशं वस्त्वस्मद्ग्रामस्था वीक्षमाणा विस्मयरेन्’ इति मत्वा दीपलुण्ठनायावसरप्रतीक्षी स्थितः। भुक्त्यनन्तरं च सर्वेषु स्वस्वकर्मणि व्यासजत्सु स ग्राम्यः ‘स्वग्रामं प्रति प्रस्थानसमये नेष्यामी’ति कृतनिश्चयस्तं दीपमन्याविदितं गृहीत्वा तस्य गृहस्य पटलान्तराले निलीनयामास। क्षणेन तत्र सन्दीप्तोऽग्निः पटलं गृहं तद्गतं धनं च निर्ददाह। तत्र शान्तप्राये ज्वलने गृहस्वामिन्यौपवेशिकेषु च दग्धावशिष्टं विचिन्वानेषु ग्राम्योऽपि अन्वेषणव्यग्रस्तत इतो भस्मकूटं परिवर्तयन्नुल्लोयंश्च चचार।अन्यैर्धिचये समापितेऽपि त्यक्त्वात्यक्त्वा लभ्यमानमन्वेषणानुवर्तनेन श्राम्यन्तं तमपरे जगदुः — ‘भद्र ! किं नाम भवानतिचिरमन्विष्यन्नेवं क्लिश्यते !’ इति। स बभाण—‘गृहेऽग्निसंदीपनात् पूर्वं सूर्यशा-
बको मया गृहपटले निहितः। सोऽयमिदानीं गवेष्यमाणो न क्वापि लभ्यते’ इति। तच्छ्रुत्वा जनास्तं सन्ताड्य सद्यएव नगरान्निष्कासयामासुः किन्त्वेतावतापि स मूर्ख आत्मसन्ताडनकारणं न विदितवान्; न वा नागरिको नष्टं द्रव्यं प्रतिलब्धवान्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734625296PRATHAMA_PATAVALI_5-removebg-preview.png"/>
१९. निष्कुटः केदारं नारिकेलःतालश्च.
वृतिभिर्भित्तिभिर्वा कृतपरिरक्षं, प्ररोपितौषधि गृहपरिसरस्थलं निष्कुट इत्युच्यते; वृतिभित्तिशून्यं सीमासेतुपरिवेष्टितं नियतजलोपक्लृप्तिकं स्थलं केदारमिति। तत्र निष्कुटे शाकोपयोगिन्य ओषधिलताः फलदायिनो वृक्षाः पुष्पप्रदा वल्लयश्चसंवर्ध्यन्ते। केदारे गोधूमादीनि शुकधान्यानि शालयश्च फलन्ति।अनियतजलोपपत्तिके बहिःस्थले माषमुख्यानि शमीधान्यानि नीलीकार्पासादिकं च प्ररोहन्ति। कूपात् सरसश्च निष्कुटे जलमानीयते। अवृष्टौ जलाशयान्नाद्याश्चनीरं
कुल्याद्वारा केदारं गमयन्ति कृषिकाः।अविच्छेदेन कृषिकरणात् केदारस्य सारो
वीप्साइति कुत्वा तत्सम्पत्त्यर्त्थंतत्र गोमयादि
दोहद विषदायन्ति।
एतद्देशप्ररोहिषु स्थावरेषु मुख्यो
ना । तस्याङ्गमङ्गं सप्रयोजनं दृश्यते। तस्य मूलभागेनावपनं पत्रैर्गृहपटलमावरणवृतिः पेटी च क्रियते; अपरिणतफलान्तर्गतं जलमुष्णसमयेषु पीतं स्वादुहितं भवति; परिणतं फलं खाद्यते। तैलयन्त्रनिष्पीडिताच्च तस्मात् स्नेहोऽवतार्यते। नारिकेलतैलं यूरोपखण्डे दीपवर्त्तिनिर्मितौ बहुलमुपयुज्यते। फलत्वक्तृणैर्दाम महारज्जुश्च निर्मीयेते। आस्तरणमपि तयाऊयते; फलकपालं; पात्रस्थाने प्रतिनिधीयते; तेन चार्धितेने दर्वी निष्पाद्यते; प्रलवकाण्डाद्रसश्च्योतति; तञ्च सन्ताप्य मद्यमापादयन्ति; भूक्लेदञ्च केरद्रुमो नित्यमपेक्षते।
तालद्रुमस्य तु जलावसेचनं नावश्यकम्। स-
स्यान्तरप्ररोहणायोग्ये सिकतिले स्थले सोऽतिशयेन वर्धते। अस्योपयोगः केरवद् वेद्यः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734627760PRATHAMA_PATAVALI_6-removebg-preview.png"/>
२०. उद्यमः.
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं प्रसीदति॥१॥
उद्यमेनैव सिद्ध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
हस्ते सुप्तप्रबुद्धस्य न ह्यायाति धनं स्वयम्॥२॥
यत् पूर्वजन्मविहितं कर्म तद्दैवमुच्यते।
न तत् पुरुषकारेण विना सिध्यति जातुचित्॥३॥
उद्योगिनः करालम्बं करोति कमलालया।
तद्भिन्नस्य करालम्बं करोति कमलाग्रजा॥४॥
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति॥५॥
सम्पदा सुस्थिरम्मन्यो भवति स्वल्पयापि यः।
कृतकृत्यो विधिर्मन्ये न वर्धयति तस्य ताम्॥६॥
उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी-
र्दैवं प्रमाणमिति कापुरुषा वदन्ति।
दैवं विहाय कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः॥७॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734628163PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
२१. सत्यम्.
अमेरिकाखण्डे संसृष्टदेशाभिधानस्य देशविशेषस्याधिपत्यमिदम्प्रथमं प्रतिष्ठापितवन्तं सुगृहीतनामानं (जार्ज) वासिन्तननामानं महाशयं प्रति काचित्कथास्ति। स किल बाल्ये कदाचित् स्वलब्धेन स्वल्पेन पारितोषिकधनेन खड्गमेकं चिक्राय। तेन खड्गेन गर्वायमाणः पितुरुद्याने ततइत ओषधिवृक्षशाखानां लवनचापलं सलीलमाचरन् पित्रातिस्नेहात् संवर्ध्यमानामजानन् बालबदरीमेकां छित्वापातयत्। तत्पिता समयान्तरे तत्र सञ्चरन् बालबदर्यास्तां दशां ददर्श; क्रुद्धश्च कर्मकरानाहूय ‘मत्प्रियतमेऽस्मिन् वृक्षे केनेदं साहसमाचरितम्’ इति विभावनां कुर्वन् स्थितः।
तदा बालो वासिन्तन आत्मकृतं दौष्ट्यमबुध्यमानः खड्गपाणिस्तत्रागतः। दृष्ट्वा तं पितान्वयुङ्क्त—‘अपि जानासि पुत्र ! मम द्रव्यकोटेरभ्यधिकमिमं वृक्षं क एवमवस्थमकरोत्’ इति। स बालस्तु निश्शङ्कमूचिवान् — ‘तात ! न जाने तस्मिन् वृक्षे तादृशं तव प्रेमाणम्। अहमेव तं वृक्षमच्छिनदम्’ इति। ततः कीदृशमयमपराधिनि दण्डं प्रणेष्यतीति चिन्ताव्याकुलेषु परिजनेषु सद्यः प्रशान्तकोपः पिता ‘वरमेवंविधान् शतं वृक्षान्नाशयन्मम पुत्रोऽस्तु, नतु मिथ्यावादी’ इति जल्पन् पुत्रमुपसृत्य पृष्ठे परामृशन्नभिननन्द।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734628672PRATHAMA_PATAVALI_5-removebg-preview.png"/>
२२. पृथिवी जलञ्च.
भूमौ महदपां धाम महार्णव इति कीर्त्त्यते, अल्पस्तु जलस्य राशिर्जलाशय इति। महार्णवस्य न सर्वत्रैकरूपं गाम्भीर्यम्। यथा स्थलं शैलैराजिभिर्गर्तैश्च व्यतिकरितं बहुरूपं भवति, तथैव महार्णवः। अयं हि क्वचिदुत्तानः क्वचिन्निम्नःक्वचिच्चागाधः।
अस्य जलमेकान्तलवणम्। यदि तत् तादृशं न भवेत्, शुकं पूतिर्गन्धि दुष्टं भूत्वाल्पेनानेहसाजीवराशिं निबर्हयेत्। यद्यपि महार्णवे जलं मनुष्या न पिबन्ति, तथाप्यात्मनीनं लवणंतत उत्पादयन्ति। लवणं खल्वाहारस्य रसनीयतां देहसौख्यं च जनयति। पानार्हपयसो नद्या जलाधारस्य कुल्यायाः सरसश्चाभावे जना भूमेरन्तर्यावदुत्सदर्शनं खननेन कूपं निष्पाद्य ततो जलमुद्धृत्योपयुञ्जते। पेयेन जलेन प्रत्यग्रनिर्मलेन भाव्यम्। पेयजलशुद्धिविषये परिगृहीतश्रद्धाश्चेद्वयम्, अद्धाबहूनां हिंस्ररोगाणां विषया न भवेम।
महासमुद्रेषु प्रवालकीटा नाम यादोविशेषाः स्वदेहात् प्रादुर्भवतो विलक्षणान् पदार्त्थानल्पशः संगृह्याधस्तलात्प्रभृति चयनं कुर्वाणा नवान् गिरिसन्तानसन्निवेशानुत्पादयन्ति। आ च जलोपरितलादुत्थितेष्वेतेषु पर्वतेषु वीचीमालाभिघातात् ततः प्रच्युता मृदस्तरङ्गोपनीतास्तृणपर्णादिव्यतिकीर्णा मृदश्चस्थलतां प्रतिपद्यन्ते। एषुस्थलेषु पक्षिविष्ठाभिः सह बीजा-
नि पतन्ति। ततस्तृणेष्वोषधिषु वनस्पतिषु च प्ररुह्य प्रवृद्धेषु तानि स्थलानि मनुष्यावासार्हा द्वीपा भवन्ति। एषु कतिपये तत्काले मनुष्यैरध्युष्यन्ते। मानुषानधिष्ठिताश्चद्वीपाः सन्ति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708101PRATHAMA_PATAVALI_8-removebg-preview.png"/>
२६. श्वा मार्जारश्च ( क )
श्वा रक्षिवत् स्वामिनो गृहं चौराणां दुर्जनानां वा प्रवेशाद्रक्षति। शुनो ज्ञानं विमर्शनशक्तिः स्वामिनि भक्तिः कृतज्ञता चेत्येते गुणाः सन्ति।स प्रियमित्रतुल्यो गणयितुं शक्यते। स पोषकस्य ध्वनिं दर्शनादिकाश्चचेष्टा वेत्ति। आघ्राणवेदने तस्यासाधारणः पटिमा। तमाघ्राणान्मृगानुपलभमानं दृष्ट्वा मनुष्यान्वेषणेऽपि तस्य चोदना पुरातनैराचरिता बभूव। सर्वंकर्म तेन शिक्षयितुं शक्यते। यूरोपखण्डे क्वचिदुत्तुङ्गायां गिरिश्रेण्यां पथिषु सान्द्रपतितं हिमं शिलावद् घनीभवेत्। तत्र पान्थेषु कदाचिन्निमग्नेषु तानाघ्राणादुपलभ्य तदुपरि संहतं हिमं नखैरुत्खाय निरस्य तदत्याहितं भ-
षणेनावेदयितुं समर्थां काञ्चित् कुक्कुरजातिं तत्रत्या जनाः संवर्धयन्ति।अजान् मार्गभ्रंशादपायाच्च त्रातुं कौलेयकानां नियोजनं जाबालानां साम्प्रदायिकम्। काश्चिदेव भषकजातय ईदृशेषु कर्मसु कुशला भवन्ति।
स्काटलण्डदेशाभिजनः कश्चित् स्वीयं शुनकं प्रत्येवं वर्णयामास—यथा ‘मदीयः; सारमेयो मम बहूनुपकारान् कृतवान्। स मया दीयमानं नियोगं दुस्साधमपि नानोपायैः साधितवान्। गाढान्धकारे क्वचिन्निशीथे सप्तशतान्यजडिम्भानामकाण्ड उपजातक्षोभाणि प्रदुत्य प्रत्यासन्नस्याद्रेःसानौ ततइतो व्यशीर्यन्त। अहं मत्सहचरश्चयावच्छक्ति कृतप्रयत्नावपि नैवतानि क्वचिन्नियन्तुमशकाव। “हन्त गतगताः सर्वेऽजपोता” इति मम प्रलपितं श्रुत्वा मद्भषको मन्ये सद्य एव ततः प्रस्थित इति; अन्धतमसे तस्मिंस्तमन्तिके स्थितमस्थितं वा नावामज्ञासिष्व। ततोऽन्वेषणवशादानिशावसानमतिदूरमटित्वा कञ्चिदप्यजपोतमनुपल-
भ्य निर्विद्यमानावुदिते सूर्ये गिरिप्रस्थात् प्रतिनिवृत्तावभूव " यथावृत्तं स्वामिने निवेदयावः " इति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708141PRATHAMA_PATAVALI_8-removebg-preview.png"/>
२४. श्वा मार्जारश्च( ख )
प्रत्यायान्तौ च कुत्राप्यद्रिद्रोण्यां सङ्घीभूतानजपोतांस्तस्या मुखे तिष्ठन्तं समन्ताद् दीयमानदृष्टिं प्रतीक्षमाणमिवनौ दृश्यमानं तं श्वानञ्चाद्राक्ष्व। “भ्रष्टेषु डिम्भेषु नूनमेते कतिपये सम्भूयधाविनः शुनावरुद्धास्तिष्ठन्ति"इति मत्वा तानुपसृत्य गणितवद्भ्यामावाभ्यामविकला सा सप्तशती दृष्टा। “कथं पुनरयं श्वा कार्त्स्न्येन विशीर्णान् मेषार्भकानस्मिन्नर्धरात्रे समूहितवान्, कथंवा प्रभातं यावद्रक्षितवान्” इति चिन्तयतोर्यत्सत्यमावयोर्विस्मयो जातः। अनेनैकेन शुना साधितं कर्म न खलु शक्यमस्मत्पल्लीभवैरजाजीवैर्मिलितैरपि सर्वैः कथञ्चिन्निर्वर्तयितुम्’ इति।
मार्जारोऽस्माकं क्षुद्रोपद्रवावहान् मूषिकादीन्
जन्तून् हिनस्ति। अयमावासस्थले परिचिते रज्यति नतु जने।अपिचैष च्छद्मवान् क्रूरशीलश्च। अयमतिचिरं कारितसंस्तवोऽपि प्रियैराहारैराराध्यमानोऽपि गृहे सहसंवर्धिनो मनोरमान् शकुनीन् रन्ध्रेषु प्रहृत्य भक्षयेत्। न तावज्जाहकेन जलभिष्यते। क्रुध्येच्चेदयं, शूत्कृत्य तीक्ष्णैर्नखरैर्गाढं विदारयेत्; यदि त्वेष तुष्येत्, नखान् संकोच्यान्तराकर्षेत्; तदानीं च तस्य पदानि राजपट्टवन्मृदुलानि दृश्येरन्। अस्य शुनश्च शाश्वतो विरोधो लोके प्रसिद्धः।
<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1734708179PRATHAMA_PATAVALI_8-removebg-preview.png"/>
२५. गौः महिषी अजा च.
ग्राम्येषु पशुषु मानुषोपयोगी कश्चिज्जन्तुर्गौर्नाम। गोः क्षीराद्दधि तक्रंनवनीतंदुग्धघनश्च जायन्ते; गोचर्म मृदूकृतं तुरङ्गोपकरणायोपानदादये च कल्पते;विषाणेन च तक्षणसंस्कृतेन निर्मीयते पात्रं सम्पुटकः कङ्कतं त्सरुरन्यानि च नानोपकरणानि; खुरोऽग्निपक्वोवज्रलेपो भवति;अस्थीनि चेङ्गालितानि
क्षेत्राणामुत्कृष्टो दोहदः।गौः स्वभावादहिंस्रामनुष्यवश्या च। इयं हरिणादिवद्रोमन्थं वर्तयति। एषा हि यावदपेक्षं गृहीतं पलालादिकमभ्यवहारं प्रथममखण्डितमेव निगिरति। स च चतुर्षु तदीयेष्वाहाराशयेषु प्रथमाशयद्वारेण द्वितीयाशयं प्राप्य स्थितः कैश्चित् क्षणैः सरसतामुपयाति। पश्चादनया सुखासीनया तथाभूत अभ्यवहार आस्ये प्रत्यानीय यथावदवखण्ड्य निगीर्णः क्रमात् तृतीयं चतुर्त्थञ्चाहाराशयं गत्वा जीर्यति।गवा च समानप्रयोजना माहिषी; तथापि गौरिव न चारुरूपा नच शान्तस्वभावा। महिषाहलं शकटं च कर्षन्ति। प्रायो लुलाया न दर्शनेन, न श्रवेणन, किन्त्वाघ्राणेनैवार्त्थंविदित्वा गच्छन्ति।अत एव ते धावनसमये नियमेन ऋजून्नमितनासिका दृश्यन्ते। विषाणं च माहिषंसारवत्तमम्। तत्र श्लक्ष्णीकरणं सम्यक् फलति।
एडकः शान्तात्मा भीरुश्च। छगलस्त्वतिधीरः; खरखिलेषु गण्डशैलेषु भीषणेषु च गिरिशृङ्गेष्वपर्यस्तोऽस्खलितश्च प्लुतानि कुरुते। मेषलोमभिरुच्चावचाः क-
म्बलाः सन्तन्यन्ते।मेषलोममयाः कश्मीरकम्बलाः गुणतोऽर्घतश्चोन्नता लोके गण्यन्ते। तुभीक्षीरं गोक्षीरान्मेदस्वितरं दर्शनीयतरं च। पुष्टिदत्वाद् भेषजत्वाच्च तन्मन्दाग्नीनां पथ्यमभ्यवहार्यं भवति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708218PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
२६. ऋतवः.
उत्तराहि भारते यूरोपे उदगमेरिकायां दक्षिणद्वीपेषु च प्रत्यब्दमृतवश्चत्वारः। ते च वसन्तो ग्रीष्मो हेमन्तः प्रावृडिति चोच्यन्ते। दक्षिणभारतस्य प्राग्भागेषु ऋतवः प्रावृट् शरद् हेमन्तः शिशिरो वसन्तो ग्रीष्म इति षट्। तत्राद्यः सिंहकन्ययोर्मासयोर्युगलमुच्यते, द्वितीयस्तुलावृश्चिकयोः, तृतीयो धनुर्मकरयोः, चतुर्त्थःकुम्भमीनयोः, पञ्चमोमेषवृषभयोः, षष्ठो मिथुनकुलीरयोः। एषु वसन्तो द्रामिलनां हृद्यः कालः।अत्र पक्षिणः सामोदं खेलन्तः कुलायनिर्माणमारभेरन्। वनस्पतयश्च किसलयिताः प्ररूढदलवितानाःकोरकिता भूत्वा प्रफुल्लैः पुष्पैर्विराजेरन्। क्रमेण पत्रेषु प्रसू-
नदलेषु च म्लायंम्लायं च्यवमानेषु फलकलिकाः प्रादुर्भूय शलाटूभूता ऊष्माभिघातात् क्रमेण परिणमन्तः फलतामृच्छन्ति। नखलु तपर्त्तौ पक्षिणो न गायन्ति; किन्तु वृक्षशाखादिषु निलीना एव तदा ध्वनिं कुर्वन्ति। अत्रैव कालेऽण्डानि विहगाः प्रसूय तेभ्यः शाबकान् प्रादुर्भाव्यपुष्णन्ति। आङ्गलेयानां सुखावहः समयो हेमन्तः। तदानीं पुष्पलताः समृद्धपुष्पा भवन्ति। शालिकणिशानि च पचेलिमैः सुवर्णसवर्णैः फलैराचितानि लवित्वा धान्यं सञ्चिन्वन्ति कृषिकाः।
वर्षासु तरुषु कुसुमानि न वर्तेरन्; तद्वदेव शकुन्ताः। मृगाः खल्वपि भूतलक्लेशात् क्लिश्येरन्। भूमेर्दक्षिणोत्तरदेशेषु सरस्सु शीतवशाज्जलं शिलावद् घनीभवेत्। तत्र च बाला लोहमयं पादुकाविशेषं धृत्वा स्खलितप्रधावितं कुर्वन्तः क्रीडेयुः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708266PRATHAMA_PATAVALI_10-removebg-preview.png"/>
२७. कदली आम्रः तिन्त्रिणी वटः कार्पासः.
कदली चाम्रश्चफलदेषु तरुषु प्रशस्तौ। कद-
ली एष्याखण्डे आफिरिकाखण्डे अमेरिकाखण्डे च प्रमेहति। उत्तमे कदलीप्रसव एकस्मिन् शतद्वयाधिकानि फलानि स्युः। अमेरिकाखण्डे केषुचिज्जनपदेषु जना मोचाशलाटुभ्यः शोषितेभ्यः सक्तून् सम्पाद्य तैरपूपं श्राणां च राधयित्वोपयुञ्जते। मोचासमानः क्षिप्रफलो वृक्षो न विद्यते।
दक्षिणभारते चूतः स्तोकार्घतया कट्फलखदिरस्थाने प्रतिनिधीयते। चूतेन हि वलीकानि गोपानस्यः कवाटानि पेटिका अन्यानि चोपकरणानि निर्मीयन्ते।
चिञ्चातरुरत्यन्तं सारवान्; यन्त्रनिर्माणे बहुलमुपयुज्यते।तत्फलेन व्यञ्जनं रसश्च निष्पाद्यते। ईतिसमये दरिद्रा जनास्तत्फलानि बहुधा पक्त्वा भक्षयन्ति।
वटद्रुमः प्ररूढवितताभिः शाखाभिः, स्थूणोपमाभिः शाखाधारिणीभिः शिफाभिश्च द्रुमान्तराण्यतिशेते। केचिन्न्यग्रोधा अतिदूरप्रसृतेन शाखापरिणाहेन
बहुपरिवारस्य राज्ञो विश्रमणक्षमां विपुलां छायां वितरन्ति। अदृढावयवत्वाद्वटो गृहाङ्गदारुस्थाने नोपयुज्यते। तस्य क्षीरेण दन्तवेदना निवर्त्त्यते, कुररीग्रहणार्त्थो लेपश्च सम्पाद्यते। तस्य पत्राणि सन्धाय भोजनामत्रतां नीयन्ते।
कार्पासतूलतन्तुभिर्नानाप्रकाराणि वस्त्राणि क्रियन्ते। सिकतिले कृष्णमृत्तिके च स्थले कार्पासस्य ऋषिः सम्यक् फलति। स च बल्लारि, कडप्पा, गोदावरि, मधुरा, तिरुनेल्वेलि, कोयम्पुत्तूर, सेलं, इत्येतेषु मण्डलेषु भावितो बहुश इङ्गलाण्डदेशं प्रति प्रेष्यते। अमेरिकाफिरिकाखण्डयोरप्ययं प्ररूढो भवति। कार्पासस्तम्बात् फलोच्चयनसमय एवतूलस्तदावरणान्निष्कृष्योच्चेतव्यः। अन्यथा आवरणं खण्डशस्त्रुटित्वातूले संलग्नं ततो विभक्तुं न पार्येत,अल्पेऽवकाशे पिचूनां मानं यथा सम्पद्येत, तथा तान् यन्त्रेऽर्पयित्वा घनीकृत्य साधितंतनुं तद्भारं महानावि समारोपयन्ति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708300PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
२८. देवदर्शिनौ.
द्वौ वैधेयौ देवं दिदृक्षमाणौ कञ्चिद् देवालयं गतौ। तत्रैको देवप्रतिकृतिमवलोक्य सहचरमाचचक्षे—‘भ्रातः ! शिला खल्वेषादृश्यते। किमेनामीश्वर इति सर्वे व्यपदिशन्ति’ इति। तद्वचनमालयपरिचारकाः श्रुत्वा देवोऽनेन ‘शिले’ ति निन्दित इति तं ताडयामासुः। ततो गते बहुतिथे काले स जातु तेन सहचरेण साकं कस्यचिद् मित्रस्य गृहे भुञ्जान आसाञ्चक्रे। तदा सहचरो जगाद — ‘धिगिदं भोजनम्;अन्ने शिला ह्युपलभ्यत’ इति। प्रागनुभूतप्रहारः स तथावादिनं सहचरं मुखे चपेटया सद्यो दृढं प्रहृत्य ‘अरे मूढ ! किं त्वमीश्वरं शिलेत्यधिक्षिपसि ? एवमुक्तवता मया पुरानुभूतो दण्डः किं त्वया विस्मृतः? अन्न ईश्वरशाबकोऽस्तीति ब्रूहि’ इत्युवाच।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708350PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
२९. विद्यायामुद्योगः.
विद्यायाः सिद्धिमिच्छता निरन्तरमभ्यासः क-
र्तव्यः। तत्र कदाचिद् व्यग्रतामवलम्ब्य कदाचिदालस्यपरिग्रहेण कञ्चित्कालं विषयमेकमभ्यस्य तं विहाय कञ्चित्कालं विषयान्तरस्य परिशीलनेन च न किञ्चित् प्रयोजनं स्यात्। अतिमन्दोऽपि कश्चित् ‘पिपीलिकासर्पणाच्छिलापि निम्नीभवेद्’ इति लोकवादानुसारेण यदि प्रसन्नचित्तः प्रत्यहमल्पशोऽपि वा श्रद्धयाधीयीत, कथमपि स पण्डितो भवेदेव। यस्त्वात्मानं बुद्धिशालिनं मन्यमानः कदाचिदेवाधीते, नासौ सिद्धिं प्राप्नोति। अत्रोदाहरणं शशकूर्मीया काचन कथास्ति। कश्चित् कूर्मः केनापि शशेन साकं ‘पश्यावस्तावत् सखे ! इतः प्रदेशात् समं प्रचलितयोरावयोः कतरः प्रथमममुकं स्थानं प्राप्य पुनरिमं प्रदेशं प्राप्नोति’ इति ग्लहं परिपणितवान्। प्रस्थितयोस्तयोः पूर्वं शशकः सवेगं प्रधावितः पृष्ठतोऽतिदूरे शनैरागच्छन्तं कमठं वीक्ष्य ‘क्षणमत्र विश्रमिष्यामि; कमठेऽभ्यर्णमागते पुनर्विद्रोष्यामि’ इति विचिन्त्य मार्गतरुच्छायायां क्षणं विश्रान्तः। तथैव पथि धावनविश्रमौ पुनःपुनराचरन् क्वचन वि-
श्रमपर्याये गाढं स सुप्तोऽभवत्। कच्छपस्त्वविच्छिन्नं चलन्नुद्दिष्टं स्थलं प्राप्य शशस्य प्रबोधात् प्राक् प्रस्थानदेशं प्रत्यागतो ग्लहं निर्जिगाय। तस्माज्जयः सर्वदा वेगवतामेवेति वा बलवतामेवेति वा न मन्तव्यम्।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734696731PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
३०. अन्धानां गजदर्शनम्.
अन्धाः कतिपये समेताः क्वचिदागत्योपविष्टाः। तत्र केषाञ्चिन्निषादिना सह सम्भाषणं श्रुत्वा ‘गजः कीदृग्’ इति जिज्ञासमाना गजस्य स्वान्तिकानयनायाधोरणं प्रार्थयन्त। यथाप्रार्थनं च कृतवति हस्तिपक उत्थितेषु च प्रज्ञाचक्षुःष्वेकः कुम्भिनः पादमन्यः करमपरः कर्णं परः पुच्छं च गृहीत्वा सम्यगभिममृशुः। अथ ते गजो ज्ञात इति परितुष्टाः स्वीयं स्थानं पुनरागताः स्वं स्वं गजदर्शनं वर्णयितुमारेभिरे। तत्र पादाभिमर्शी गजमुलूखलाकारमवदत्, करस्पर्शी मुसलाकृतिं, कर्णग्राही शूर्पसन्निवेशं, पुच्छलग्नश्च मार्जनीसरूपम्। एवं ते स्वस्वविज्ञानमेव भङ्गिभेदैः स्थापयन्त
आप्तवाक्यान्यप्रमाणयन्तो विप्रलापेनैव कृत्स्नमायुरतिवाहयामासुः एतेन —
मूर्खो विमृश्यवाच्येऽर्त्थेक्वापि पक्षे दुरास्थया।
स्वपक्षवादनिर्बन्धं विजहाति न जातुचित्॥
इतीयं नीतिः स्फुटा भवति।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734697213PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
३१. सर्वानुरोधोद्यमः.
एकःस्थविरः सपुत्रो ग्राम्यं कञ्चिदश्वकिशोरं विक्रेतुं पण्यवीथीं गमयन् प्रचलितः। तं वीक्ष्य पथिकः कोऽप्यभाषत—‘बुद्धिरिक्तः खल्वयं वृद्धः, योऽश्वं निर्भारं गमयन् बालं पुत्रं पादचारेण क्लेशयति’ इति। श्रुततद्वाक्यः पिता तनयं वाजिपृष्ठे समारोप्य स्वयं तत्पार्श्वलग्नश्चचाल। ततः स यावत् स्तोकमन्तरं न लङ्घितवान्, तावदपरस्य मार्गगामिनो ‘रे बालक ! दुर्बुद्धे ! इयज्जराक्रान्ते वृद्धे पद्भ्यां सञ्चरमाणे कथं त्वमश्वारूढो यासि’ इति पुत्रं प्रत्याक्रोशं श्रुत्वा पुत्रमवरोप्य स्वयमश्वमारुह्य किञ्चिद्दूरमतीयाय। ततोऽन्यः
समागम्य ‘अहो साधु साधु, पश्यत, निष्करुण एष दशमी स्वयं हयस्य पृष्ठे सुखासीनो बालकं पद्भ्यां चारयति’ इत्युच्चैर्जुघोष। वाचानया व्यथितमनाः पिता पुत्रमप्यश्वपृष्ठे समारोप्य चचार। ततः कतिपयपदगमनात् प्राक् चतुर्त्थःकश्चिदभिगम्य कथितवान् — ‘नराणामनुचितमेतन्नृशंसं कर्म, यदेकस्य बालस्याश्वस्य पृष्ठे बलिनौ द्वौ पुरुषावासाते। अनयोर्भरेण ह्यश्वस्य पृष्ठास्थि भज्येत। वरमाभ्यामश्वो यद्युह्येत। न त्वश्वेनानयोर्वहनं युक्तम्’ इति। तत उपजातलज्जौ पितापुत्रावश्वादवतेरतुः; तस्य च पादान् रज्ज्वा संश्लिष्टबद्धान् कृत्वा तदन्तराले मुसलमेकं प्रवेश्य पुरः पश्चाच्च तदग्रे स्कन्धेनोहतुः। यावच्च तथा तौ कस्यापि संक्रमस्योपरि गच्छतः, तावत् सहस्ततालकलकलं तदीयं वामकर्मावहसन्तः पुरोभागिनः केचित् संभूय तावनुजग्मुः। क्षुभितश्च तेनाश्वो मुहुरारब्धेन पादविधूननेन च्छिन्नचरणरज्जुर्मुसलात् प्रच्युत्य लोठंलोठं नद्यां भ्रष्टो निममज्ज। ‘अहोबत लोकस्य भिन्नरुचितां विस्मृ-
त्य सर्वजनप्रीणनाय कृतैर्यत्नैर्मया नैकोऽपि जनः प्रीणितः, अश्वश्चैवं मदीयो नष्ट’ इति प्रलपन् गृहं स स्थविरः प्रतिजगाम।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734703942PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
३२. सामान्यनीतिः.
शुभं वा यदिवा पापं द्वेष्यं वा यदिवा प्रियम्।
अपृष्टस्तस्य तद् ब्रूयाद्यस्य नेच्छेत् पराभवम्॥१॥
मिथ्योपेतानि कर्माणि सिद्धिमन्त्यपि वर्जयेत्।
सदुपायानि कर्माणि कुर्वीतासिद्धिमन्त्यपि॥२॥
यत्तावद् ग्रसितुं शक्यं ग्रस्तं परिणमेच्च यत्।
हितं च परिणामे यत् तदाद्यं भूतिमिच्छता॥३॥
किन्नु मे स्यादिदं कृत्वा किन्नु मे स्यादकुर्वतः।
इति कर्माणि सञ्चिन्त्य कुर्याद्वापुरुषो नवा॥४॥
ऋजुः पश्यति यः सर्वं चक्षुषा प्रपिबन्निव।
आसीनमपि तूष्णीकमनुरज्यन्ति तं जनाः॥५॥
न वृद्धिर्बहुमन्तव्या या वृद्धिः क्षयमावहेत्।
क्षयोऽपि बहुमन्तव्यो यः क्षयो वृद्धिमावहेत्॥६॥
गाढं गुणवती विद्या न मुदे विनयं विना।
महत्सु विनयोपेता मूर्खतापि मुदे भवेत्॥७॥
यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यञ्चोऽपि सहायताम्।
अपन्थानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति॥८॥
समाहृतगुणस्यापि साधुर्नाप्नोति तुल्यताम्।
सच्छिद्रस्य मृणालस्य चापस्य कुटिलस्य च॥९॥
ऐकगुण्यमनीहायामभावः कर्मणां फलम्।
अथ द्वैगुण्यमीहायां फलं भवति वा न वा॥१०॥
रोगी चिरप्रवासी परान्नभोजी परावसथशायी।
यज्जीवति तन्मरणं यन्मरणं सोऽस्य विश्रामः॥११॥
नियतैः पदैर्निषेव्यं स्खलितेऽनर्त्थावहं समाश्रयति।
सम्भवदन्यगतिः कः सङ्क्रमकाष्ठं दुरीशं च॥१२॥
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमुपैति पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥१३॥
विना गोरसं को रसो भोजनानां
विना गोरसं को रसो भूपतीनाम्।
विना गोरसं को रसः कामिनीनां
विना गोरसं को रसः पण्डितानाम्॥१४॥
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734704535PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
३३. चक्षुः.
अस्माकं नयनं गवाक्षसममिति, तद्द्वारेणात्मा बाह्यं दृश्यजातं पश्यतीति चोक्तमधस्तात्। आकृतावल्पमपि चक्षुरतिमहान्ति द्रव्याणि गृह्णाति। यथा पटे मूर्तिराक्रियते, तथा पुरः स्थितः पदार्त्थोदृश्याख्ये सर्वान्तरे धवलसिराजाल आक्रियमाणः साक्षात्कृतो भवति। चक्षुराधारस्यास्थिगोलस्य रक्षायै धनुराकृतिर्भ्रूरुपरि सन्निवेशिता। भ्रूलोमानि क्रमप्रवणतया ललाटस्वेदजलं यथा दृष्टिं न प्रविशेत्, तथा नेत्रान्तोपान्ततस्तद् दूरीकुर्वन्ति। पक्ष्मणी च नयनस्य कवचतां प्रतिपद्योद्वेगजनकस्य प्रकाशस्यात्याक्रमणं परिहरती सुषुप्तौ रक्षितुमस्मास्वशक्तेषु जातेषु दृशं
रक्षतः। अपिच ते दृशं प्रविष्टानि रजांस्येकत्रोपसमाधातुमान्तरजलेन चक्षुरुपर्यावरणं निस्संशोषमार्द्रयितुं च पुनःपुनर्निमिषतः।यूरोपेऽमेरिकायां च स्पर्शवेदनविधयान्धैर्वाचयितुं यथा शक्येरन्, तथाक्षराण्युत्थास्नूनि पत्रे सन्निवेश्य पुस्तकं सज्जीक्रियते।
परमकारुणिको भगवान् एकस्येन्द्रियस्योपघात इन्द्रियान्तरे पाटवातिशयमादधाति; अन्धानां हि श्रोत्रेन्द्रियं त्वगिन्द्रियं चातिसूक्ष्मे; बधिरस्य तु चक्षुरिन्द्रियं तथा। एवं जनस्य तत्तद्गुणवैकल्येऽन्यान्यगुणपौष्कल्यं दृश्यते।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734704938PRATHAMA_PATAVALI_8-removebg-preview.png"/>
३४. निमित्तम्.
पाटलिपुत्राभिधाने क्वचिन्नगरे राजा कश्चिदासीत्। स जातु प्रातः प्रबुध्य जालमार्गेण मुखं प्रसार्यबहिर्दत्तदृष्टिः कञ्चिदापणावपतितानां भक्ष्यशकलानामुच्चयने व्यग्रं शूद्रकुमारकमपश्यत्। पुनर्जालाद् मुखं प्रतिसंहरतस्तस्य जालद्वारोपरिदारुणः संघट्टनेन
व्रणिताद् मूर्ध्नोरक्तं बहु जगाल। ततः क्रुद्धो राजा ‘अद्य प्रातरस्य दुर्भगस्य मुखे प्रथमदृष्टिपातादेव रक्तदर्शनरूपमिदममङ्गलं मे जातम्। एवमन्येषामप्यनर्त्थोजायेत। अतः शूद्रकुमारकस्यास्य शिरश्छिद्यताम्’ इत्यादिदेश। ततो वधाधिकृताः ‘त्वन्मुखदर्शनाद्राज्ञः शिरसि क्षतं जातमिति त्वच्छीर्षच्छेदादेशस्तेन विहितः। तस्मादेहि वध्यस्थानम्’ इति तं कुमारमाचकृषुः। स तान् प्रार्त्थयत—‘प्रसीदन्तु भवन्तो वधात् प्राङ् मां राजान्तिकं प्रापयितुम्; वाक्यमेकं तस्याग्रे वक्तव्यमस्ति’ इति। तथेति तैर्नृपाग्रे नीतश्च स तमन्वयुङ्क्त—‘महाराज ! प्रातर्मन्मुखदर्शनेन देवस्य देहात् किञ्चिद्रक्तमात्रमपेतम्। मम तु देवमुखदर्शनेन शीर्षच्छेदान्ता खलु विपदुपनता। तत्र न्याय्यं कतमं देवो निर्णयमुत्पश्यति’ इति। तच्छ्रुत्वा व्रीडितो राजा तं विसर्जयितुमाज्ञप्तवान्।
सुप्तोत्थितस्य प्रथमं काकयुग्मावलोकनं तस्मिन् दिने शुभावहमिति केनापि निमित्तवेदिना
कश्चिदुपदिष्टः स्वस्य किङ्करं ‘प्रातर्द्वौ वायसौ सहावस्थितावुपलभ्य सद्यो मां प्रबोधय’ इत्यादिश्य रात्रौ सुष्वाप। ततः प्रभाते किङ्करस्तथाभूतौ बलिभुजौ पश्यंस्त्वरिततरं स्वामिनं प्रबोधयामास। किन्त्वागतस्य स्वामिनो दृष्टिपातात् प्रागेव तयोरन्यतर उड्डीय गतः। स्वामिना तु ‘रे मूढ ! अन्यतरोड्डयनात् पूर्वमेव मां किमिति नाहूतवानसि’ इति साधिक्षेपं ताड्यमानो भृत्योऽब्रवीत्—‘मिलितं काकद्वयं दृष्टवता मया तावदिदमिदानीं फलमनुभूतम्। नखलु जाने स्वामी चेत् तदद्रक्ष्यत्, कीदृशं फलमन्वभविष्यत्’ इति। अथ भर्ता प्रत्युत्तरमप्रतिपद्यमानस्तूष्णीं गृहाभ्यन्तरं विवेश।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734705885PRATHAMA_PATAVALI_9-removebg-preview.png"/>
३५. क्षमा। ( क )
राधिका नाम कापि योषिदतिशैशवे मातापितृवियोगं प्राप्ता पितृष्वसुर्मालावत्या गृहे समवर्धत। अतिबालिकायास्तस्याः पोषणमुपक्रमे मालावत्याः कृच्छ्र-
साध्यमासीत्। किन्तु राधिका विसोढसर्वकृच्छ्रा पितृष्वसारमनतिवर्तमाना तत्प्रियाण्याचचार। सा निसर्गाद् बालिकासाधारणं चापलं विहायोपजातविद्याभ्यासतर्षा बालानामधीतविषयकस्य संभाषणस्य श्रवण आत्मनोऽध्ययनप्रतिबन्धिकां नियतिं ध्यायंध्यायं दूयेत। तथापि वृथाकालक्षेपमसहमाना औपवेशिकस्य कृषीवलस्य गृहपरिसरप्रदेशे शिलाशकलोच्चयने तदीयानामजानां कालनायामन्येषां तन्निदेशानामनुष्ठाने च सा यथाकालं व्याप्रियेत। निर्वृत्ते च व्यापारे गृहमासाद्य गृहसम्मार्जन-पात्रशोधन-अन्नपाकादिकेषु गृहकर्मसु मालावत्याः सहकृत्वरी स्यात्।
एवं गच्छति काले दिवाकृतकर्मणां बालानां दिनान्तेऽध्ययनानुकूलः कश्चित् धर्मपाठालयस्तद्ग्रामे भाग्यवशादुपकल्पितो जातः। तत्रात्मनः प्रवेशनं राधिका पितृष्वसारमयाचत। स्वसंवर्धितायास्तस्याः कृतकपुत्र्या यत्किमपि श्रेयो विधातुं चिरेणावसरं प्रतीक्षमाणा च सा तामभिनन्द्य प्रीतिपूर्वं पाठालये प्रवे-
शयामास। प्रविष्टायाश्च तस्याः श्रद्धोपस्कृतबुद्धेरुत्तारे नातिदीर्घः कालोऽपेक्षितोऽभवत्। सा हि पुस्तकक्रयणाशक्ता याचितकं पुस्तकमुपाध्यायाल्लब्ध्वा क्षणेक्षणे पठन्ती कञ्चित् कालमवर्तत। ततः क्रमेण लिपिलेखनपाटवे जञ्जन्यमाने स्वहस्तेन पाठान् विलिख्याधीयाना स्वल्पेनानेहसा पुस्तकानां धारावाचनायां हस्ताक्षराणां सम्यङ् न्यसने च प्रवीणा बभूव।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734707105PRATHAMA_PATAVALI_10-removebg-preview.png"/>
३६. क्षमा. ( ख )
एवं वर्तमानाया राधिकायाः प्राप्ते द्वादशे वयसि काचिद्विपत्तिरुपननाम। सा हि क्वचिद्दिने नद्या जलमादायागच्छन्ती पथि पश्चात् शकटस्य सरभसोपसरणध्वनिं श्रुत्वा विवृत्य दत्तदृष्टिः शकटे युक्तौ वित्रासजनितक्षोभतया जवेन मार्गाद् बहिः स्वपन्तं कञ्चित् बालकमभिद्रवन्तौ महोक्षौ पश्यन्ती झटिति जलकुम्भमवतार्य बालं ग्रहीतुं वेगाद्ययौ। अत्र चान्तरे गोभ्यांशृङ्गेणाभिहत्य पातितायास्तस्याः पादौ
शकटमाक्रम्य व्यारुरोज। दृष्ट्वा च तं व्यतिकरं सम्भ्रान्ता मार्गचारिणः सहसोपसृत्य तामुद्दध्रुः; परन्त्वितिकर्तव्यतां ते नावेदिषुः। ततः कोऽपि भिषगागत्य तस्याः पादौ परीक्ष्य पादमेकं भग्नमवदत्, अन्यं तु बलवत् क्षतम्। तेन व्याधिना चिरं पीडिता राधिका क्रमेणोपशान्तायां वेदनायां विरोपिते च व्रण आत्मनोऽपरिहार्यया पङ्गुतयोपनतां पितृष्वसुरन्यस्य वा जनस्य शुश्रूषेण शक्तिहानिं भृशमनुशुशोच। तथापि सा पङ्गुताव्याजेन शुश्रूषाकर्म न सर्वथा त्यक्तवती।
उपचिकीर्षवो हि स्वभावादावृते द्वार एकस्मिन्नुपकारस्य द्वारान्तरमवश्यमुपलभन्ते। सा खलु सीवनशिल्पं, बाललालनां, रोगिवृद्धादिभिः सहावस्थानं, हृद्यपुस्तकवाचनया तेषां विनोदनं, अन्यञ्चैवम्प्रायं व्यापारं प्रतिदिनमनुतिष्ठन्ती देहयात्रापेक्षितं धनमपि किञ्चित् तेन लभमाना स्थिता। ततोऽल्पेन कालेन तस्या अवदाते चरिते ततइतो जनैरभिनन्द्यमानेऽभ्यर्णग्रामाभिजनः कृषीवलः स्वपुत्रेण तामुद्वाहयांबभूव।
भर्त्रा च साकं गृहसौख्यानि सा निर्विशन्ती जरढां पितृष्वसारमविस्मृततत्कृतोपकारा यावज्जीवमन्नवस्त्रादिदानेन ररक्ष।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734708008PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
३७. मातृभक्तिः.
पुरा यूरोपखण्डे प्रकृत्या व्यतिक्रमासहनः कश्चिद्राजा बभूव। स आत्महूतिप्रतीक्षणार्थं कञ्चिद् भृत्यं स्ववासगृहसंश्लिष्टे कोष्ठे ‘सततमप्रमत्तः सन्निधेहि’ इति नियुक्तवान्। क्वचिद् दिने स तं बहुकृत्व आह्वयन्नपि तस्य प्रतिहूतिमशृण्वंस्तत्र कारणं जिज्ञासुर्बहिर्निर्गत्य परिश्रान्तसुप्तं च तमुपलभ्य प्रबोधयितुं तदन्तिकमुपससार। तदानीं तत्कञ्चुककोशे अग्रमात्रदृश्यं कमपि लेखं पश्यन् कौतुकात् तल्लेखार्थमवगन्तुमिच्छुस्तंकोशादाकृष्यावाचयत्। लेखस्तु तस्य जनन्या प्रहितः। तत्र च, स्ववेतनात् कृच्छ्रेण शेषितस्य द्रव्यांशस्यात्मने प्रेषणं, अपाटवदशायां प्रीतिपूर्वमात्मनो रक्षणं च पुत्रेण क्रियमाणं प्रत्यभिनन्दनवाक्यमुपन्यस्य मात्रा प्रयुक्तं ‘पुत्रक ! ईशस्त्वामनु-
गृह्णातु’ इत्याशीर्वचनं लिखितमासीत्। ततो राजा निभृतं स्ववासगृहं प्रत्यागत्य रूप्यप्रतिनिधिपत्राणि कानिचिदादाय पुनरुपसृत्य तेन लेखेन साकं भृत्यस्य कञ्चुकपेश्यां निवेश्य स्वं स्थानं पुनः प्रतिपन्नस्तमुच्चैःकारमाजुहाव। भृत्यश्च झटिति प्रबुध्य सम्भ्रमात् प्रभोरन्तिकं प्रधावित उपासरत्। ‘न खलु त्वं गाढं सुप्तोऽभवः’ इति सतर्जनं राज्ञोवचनं श्रुत्वा भीतस्य ततइतः स्खलतस्तस्य पाणिर्यदृच्छया कञ्चुकपेशीं विवेश। अपूर्वमिव पत्रजातं तदन्तर्वर्तमानं स्पर्शेन शङ्कमानस्तदाकृष्य विलोकयन्ननात्मीयं रूप्यप्रतिनिधिपत्रजातं विज्ञाय सन्त्रस्तः सगद्गदं रोदितुमारेभे। तं राजा ‘अरे किं त्वमुन्मत्तोऽसि ? किमित्यकाण्डे रोदिषि’ इत्यपृच्छत्। किङ्करस्तस्य पादयोः पतित्वा ‘देव ! नूनं यः कोऽपि मामनर्थेन योजयितुं समीहते। न खल्वहमवगच्छामि रूप्यप्रतिनिधिपत्रबृन्दमेतत् केन मत्कञ्चुकपेश्यां निवेशितम्’ इति परिदेवितवान्। राजा तु तं स्मित्वोवाच —‘भद्र ! मा तावद् भैषीः;
निद्रासमयेष्वीश्वरेणास्माकमनुग्रहः क्रियमाणो लोके दृश्यते; सोऽयमनेन प्रकारेण त्वयि मन्ये सम्पन्नः; तदेतद् द्रव्यं मात्रैत्वमुपहर; “तां त्वां च नाहं जातुचिदुपेक्षेय"इति मत्प्रतिश्रवं च त्वज्जननीं ग्राहय’ इति.
<MISSING_FIG href=”../books_images/U-IMG-1734709492PRATHAMA_PATAVALI_4-removebg-preview.png"/>
३८. हिंसारसः.
कतिपये माणवकाः क्रीडाकौतुकिनः सरस्तीरे संभूय शिलाशकलानि जलोपरि मण्डूकवत् सारयन्तः स्थिताः। तत्रस्था भेकाः शिलाशकलेभ्यस्त्राणमिच्छवस्ततइतो निमज्ज्य निलेतुमारभन्त। किन्तु शिलाखण्डेष्वसकृत् सन्तत्या पतत्सु दर्दुराः केचिद् मृताः केचिच्च क्षताङ्गा जाताः। तेषु धीरः कश्चिज्जलोपरि प्रसारितशिराः ‘प्रियाः ! बालकाः ! किमिति यूयमियति बाल्ये नृशंसं कर्म परिशीलयथ। एषा हि शिलाशकलस्य प्रेरणक्रीडा यद्यपि युष्माकमानन्दहेतुः,
तथापि नोऽत्याहितं खलूत्पादयति। अन्याय्यः खल्वयं व आचार’ इत्युवाच। तस्मात् क्रीडापि पराहिंसयैव कार्या।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734712361PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
३९. अकृतज्ञोऽधमर्णः.
कोऽपि धनी द्वित्रवर्षेभ्यः पूर्वं गृहीतस्य ऋणस्य प्रत्यर्पणमधमर्णमयाचत। ऋणग्रहणमपलपत्यधमर्णे मिथस्तौ कलहायमानौ सनीडग्रामस्थायां न्यायसभायामभियोगं कर्त्तुं प्रस्थितौ। मध्येमार्गमधमर्णः प्रियवचनैरपरमुपप्रलोभ्य सप्रश्रयं ‘भोः स्वामिन् ! क्व तदृणप्रमाणलेख्यं ? प्रसीद मे ऋणग्रहणकालं जिज्ञासमानाय तद्दर्शयितुम्’ इति प्रार्थितवान्। उत्तमर्णेन साधुना ‘तदिदमस्ती’ति परिधानान्तरालादुद्धृत्य प्रतिपादितं तल्लेख्यं वाचनमिषेण निध्यायन् लवशश्छित्वाभ्यर्णकूपे चिक्षेप। सद्यस्तमुत्तमर्णः परिधाने गृहीत्वाकर्षन् प्राड्विवाकमुपगम्य वृत्तमशेषं निवेदयामास। किं त्वं लेख्यमच्छिदः’ इति प्राड्विवाकेन पृष्टः
सोऽभाषत—‘नाहमस्मादृणमग्रहीषं, न वा प्रमाणलेख्यमच्छैत्सम्’ इति। न्यायाधिपतिर्धनिकं ‘गच्छ, आनय लेख्यस्य शकलानि, यदि तस्यान्धोरुपकण्ठे कीर्णान्युपलभ्येरन्’ इत्युक्त्वा विससर्ज; प्रकृतस्मृतिविच्छेदनाय चाधमर्णेन साकं हृदयग्राहीणि तानितानि लोकवृत्तानि कांश्चिन्मुहूर्त्तान् प्रस्तुवानस्तमाकारैर्विस्मृतात्मानमवधार्य पप्रच्छ—‘अपि नामेयता समयेन स धनिकस्तं प्रदेशमुपगतो भवेद् ? इति ‘स्वामिन् ! नखलूपगतो भवेत्; अतिदूरो ह्यसौ प्रदेशः’ इति झगित्युत्तरमृणी ववाम। व्यवहारनिर्णेता तु ‘एवं खलु मूर्ख ! सत्यमुद्गीर्णवानसि’ इत्युक्त्वातं दण्डयित्वा च ऋणमखिलमुत्तमर्णाय प्रत्यर्पयामास।
ऋणस्य ग्रहणमेव तावदनुचितम्। यदाहुः —
‘लोकद्वयप्रतिभयैकनिदानमेतद्
धिक् प्राणिनामृणमहो परिणामघोरम्।
एकःस एव हि पुमान् परमस्ति लोके
क्रुद्धस्य येन धनिकस्य मुखं न दृष्टम्’॥ इति।
गृहीते तस्मिन्नुत्तमर्णातिसन्धाने प्रयतनमनार्यमस्वर्ग्यंच। पूर्वं वङ्गदेशभर्तृपदे स्थितः मार्क्किस-वेल्लसलिनामा ऋणनिर्यातनविषये प्रख्यात उत्तमः पुमानासीत्। स हि स्वपितुः ऋणार्णवमग्नस्य प्रमीतस्य ऋणं तदपाकरणे धर्मशास्त्रेणाप्रतिबद्धोऽपि कृच्छ्रेण निरवशेषं विशोधयामास।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734713398PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
४०. कुडुम्बैकपत्यम्.
कस्यचित् स्थविरस्य चत्वारस्तनया आसन्। ते पितुर्हितोपदेशान् प्रत्यादिश्य नित्यं मिथः कलहायमाना अवर्तन्त। क्वचन दिने तानानाय्य प्रतनुकाष्ठानां पूलमेकं संहतबद्धमग्रे निवेश्य ‘इदं भङ्ग्धि’ इति ज्येष्ठमादिदेश। स तु तद् भङ्क्तुंकथमपि नाशक्नोत्। एवमन्यैरपि प्रत्येकमादिष्टैस्तद् भङ्क्तुंनापारि ततः पित्रा ‘संभूयापि वा तद्भञ्जनं कुरुध्वम्’ इति चोदितास्ते समस्ता अपि कर्तुंन शेकुः। ततस्तेन बन्धं विस्रंस्य ‘एकैकेनैकशः काष्ठानि भज्यन्ताम्’
इत्युक्ता हेलयैव ते तानि सर्वाण्यभाङ्क्षुः। तदा पिता तानवदत् — ‘पुत्रकाः ! इदं तावद्युष्माभिवधातव्यं—यत् कृशान्येतानि काष्ठानि सङ्घातदशायां भङ्क्तुमशक्यानि दृष्टानि, विश्लिष्टमात्राणि तु सुखतरभञ्जनीयानि जातानि। एवमेव मिथः संभिन्नानां युष्माकं महद् बलं भवेत्, येन परेषामधृष्या भवेत। अमर्षवशा मिथो भिन्नास्तु यूयं सद्यः शत्रोरामिषीभूता नश्येत’ इति। अनया पितृप्रदर्शितया निदर्शनया परमां मतिमुपगताः पररपरविरोधपरिहारेण ते सौभ्रात्रमविन्दन्त।एकोदरजातानामन्योन्यविरोधो मानहानये केवलं कल्पते।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734750268PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
४१. मातापितृवाक्यलङ्घनम्.
गृहे निक्षिप्तभक्ष्यस्य कुड्यगह्वरस्य सविधे क्वचिल्लतावलये सार्भका कापि मूषिकोवास। तस्या डिम्भः प्रतिनिशं ततइतः सोल्लासं विहरणसुखमनुभवन् क्वचिद्दिने बहिर्विहृत्य प्रहृष्टमना मातृसविधं प्रत्यायातः
‘मातः ! मिथ्या ह्येतत्, यत् केचिदाहुः—मानुषा अस्मभ्यं द्रुह्यन्तीति। न खलु श्रुतमात्रे सर्वस्मिन्नर्थे विश्वासः कार्यः। एतद्गृहवासिनो हि नरा महता प्रयासेनास्मदर्थे किमपि गृहं निर्मितवन्तः। तत् समन्ताद् भित्तिभिरावृतं विपुलं दृश्यते। तत् प्रविष्टानस्मान् सपरिवारा बहवोऽपि पृषदंशकाः सन्नह्यन्तो ग्रहीतुं न शक्नुयुः। अपिच तत्रास्माकं प्रवेशनिर्गमयोरनुगुणं द्वारमस्ति। खरस्पर्शेषु लतावलयेषु प्रविशतां नः सुलभः पार्श्वसंघर्षः; इह तु न तादृशं दुःखं भवेत्। किञ्च नवामोदमेदुराणि हृदयग्राहीणि भक्ष्याणि चान्तर्वर्त्तन्ते’ इत्युक्त्वा ‘अम्ब ! यद्यनुमन्यसे तस्माद् भक्ष्यात् कम
प्यंशंतवाहरिष्यामि’ इत्युवाच।
माता तत्तत्वाभिज्ञा पुत्रमाह स्म—‘वत्स ! श्रद्धेहि मद्वचनं; तद् भित्तिगर्भगृहमस्मद्ग्रहणाय कल्पितं किमपि साधनमवेहि; अस्मान् प्रलोभ्य मारयितुं तत्र भक्ष्यं निवेशितम्; सति सौकर्येऽस्मज्जातिमशेषां नरा नाशयेयुः। न खलु जाने, तथाविधं गृहं
प्रविष्ट एकोऽप्युन्दुरुर्जीवन् प्रत्यायात इति; तज्जागृहि प्रिय ! पुत्रक ! मास्म तदन्तिकं गमः’ इति। तत् श्रुत्वा स शाबको ‘नयनपाटवाभावाद् गृहे तत्राश्वासं न करोति जरती मे माता।तत्र लेशतोऽपि विप्रलम्भशङ्काया नावकाश इत्युपजातनिश्चयः ‘अहं तद्गृहं प्रविश्य भक्ष्यस्य कबलमेकं संदश्य जनन्या उपहरिष्याम्येव; सा च भक्षयिष्यत्येव’ इति विचिन्त्य सुप्तप्रशान्ते वेश्मनि निभृतं तद्गृहं प्रविश्य लालसया भक्ष्यं दंष्टुमारेभे। ततस्तदुत्पन्नं किलकिलारवंश्रुत्वा भीतो झगिति स प्रवेशमार्गेण निर्गन्तुमधावत्; छादिते च तस्मिन् मार्गेऽन्तर्बम्भ्रम्यमाणोऽपि निर्गमद्वारं नोपलब्धवान्। प्रातस्तद्गृहकपाट उद्घाट्यमाने बहिर्धावने प्रवृत्तमात्रं तं गृहपालकाः श्वानो गृहीत्वा सन्दश्य लवशः खण्डयामासुः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734750908PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
४२. व्यायामः.
भारतखण्डे दरिद्रा जना अतिमात्रमायासं कुर्वन्ति। धनिनस्त्वावश्यकमप्यायासं न कुर्वन्ति।आ-
न्तरीपकाः प्रतिदिनमारोग्यार्थं पद्भ्यां वा अश्वमारुह्य वा ततइतो नियमेन परिक्रामन्ति। भारताभिजनो धनिकः पुनर्नियमेन गृह एव तिष्ठति, न च गृहान्निरसरति कार्यान्तरनिर्बन्धाभावे। तदेतदयुक्तमहितं च। पुंसा नामोचितव्यायामशालिना भाव्यम्। महत् खलु प्रयोजनं व्यायामेन सिध्यति। अस्मद्देहे हि चलनहेतुभूता मांसप्रचुरा भागा वस्नसा नाम मांसपेश्यः सन्ति। ता यथोचितमुपयुज्यमानाः प्रवृद्धा बलवत्यश्च स्युः, अन्यथा कृशा दुर्बलाश्च।
अस्माकं निर्व्यापारस्थितावनुकुलं प्रायः षोडशकृत्वो निश्वसिमः। धावनसमये तु ततस्त्वरिततरं निश्वसिमः, अधिकतरं च नवं वायुमन्तरङ्गीकुर्मः। तद्वशाच्च रक्तं सम्यग्विशुद्धं भवति। हृदयस्यापि तदानीं त्वरिततरव्यापारितया सर्वेषु देहभागेषु रक्तमधिकतरं प्रसरति।
अयमपरो गुणो व्यायामे, यद्वयं शीघ्रसञ्चारे बलवत्कर्मानुष्ठाने वा स्विद्यद्देहाभवामः। स्वेदसलिलं
ह्येतद्देहान्तर्भागाद् त्वग्द्वारेण दुष्टांशान् निस्सारयत् तमारोग्यसम्पन्नं करोति। किञ्च व्यायामवानधिकमभ्यवहारं ग्रहीतुं शक्नोति। गृहीतश्च स सुखं जीर्यति।
उचितव्यायामशालिनो जना बलसमृद्धसर्वावयवा भवन्ति। व्यायामहीनास्तु अलसभावमापन्ना निरुद्योगा भूत्वात्मनः परेषां वा नोपकारमाधातुं प्रभवन्ति।
बालाः स्वभावात् क्रीडाकौतुकिनो भवन्ति। सा तेषामनुकूला। धावनकन्दुकप्रेरणादिरूपा हि क्रीडा तेषां पादयोर्बाह्वोश्चबलमावहति। किं बहुना; कलकलेनापि हसितेनापि तेषामारोग्यं वर्धते, यतस्ताभ्यां तत्तदवयवा व्यापारिता भवन्ति।
किन्तु व्यायामो हित इत्येतावता न बालैः पाठमुपेक्ष्य क्रीडैकतानैर्भवितव्यम्, न वा पाठपरिपन्थिनी क्रीडेति कृत्वा व्यायामोऽत्यन्तमूनयितव्यः। यत् पुनः प्रायः केषुचित् पाठालयेषु बाला आनस-
भेदपरिग्रहं विनैकत्र चिरमवरुध्यन्ते, तदसाम्प्रतम्।
सकलकलाशालासंबन्धिन्याः परीक्षायाः कृते बलवत् परिश्राम्यन्तो व्यायामाभावात् पीडामनुभवन्ति बालाः। तेषु केचिदध्ययन एव केवले कृत्स्नः कालः पर्युपयोक्तव्य इति मन्यन्ते। तथाकरणे महाननर्थो जायेत। अवसरेषु कारुणा स्वोपकरणमिवजनेन बुद्धिरुत्तेजनीया। सा हि मस्तिष्कद्वारेण व्याप्रियते। मस्तिष्कं च व्यायामेन संविहितप्राज्यरक्तसम्भारमूर्जस्वलं च भवति। ये पुनरध्ययनातिगर्धेन व्यायाममुपेक्षन्ते, ते तथा रोगवन्तो भवन्ति, यथाभीप्सितपरीक्षाप्रवेशे शक्तिहीनाः स्युः। एवं तावत् केचित् स्वयं रोगमुत्पाद्य यावज्जीवं तेन पीड्यन्ते।
दिनान्ते गुलिकया कन्दुकेन वा क्रीडनं हितहेतुर्भवति। बालिकानां नर्तनप्लुत्यादिकं प्रशस्तम्।
स चायं सर्वजनीनोऽपि क्षुत्समये पूर्णाभ्यवहारग्रहणोत्तरकाले वा न कार्यः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734752051PRATHAMA_PATAVALI_7-removebg-preview.png"/>
४३. विकत्थनः कुमारः.
कश्चिद् महावणिक् वाणिज्ये विनष्टसर्वद्रव्यः कुग्रामं कञ्चित् प्राप्य भार्याधनेन स्वल्पेन कृच्छ्रात् कालयापनं कुर्वन्नासाञ्चक्रे। तदा तस्मै सुहृत् कश्चिद् वणिक्’तव प्रशान्ते ऋृणापकरणव्यतिकरे, त्वां मदीये वाणिज्येंऽशिनं कल्पयिष्यामि’ इति प्रतिश्रुतवानासीत्। तस्य कुमारेण नगरे भूरिवित्तव्ययोपास्ये प्रशस्ते पाठालये पठता तत्रत्यैः सबहुमानमुपलाल्यमानेन पितृदुर्गतिवशादध्ययनमपहाय पितृपार्श्वं गन्तव्यमभवत्। गच्छंश्च स मार्गसङ्गतानां केषाञ्चिदग्रे स्वपितुर्भाग्यभ्रंशस्य प्रकाशने लज्जितः ‘पितुरन्तिके नानाभोगाननुभवितुं गच्छामि’ इति विकत्थते स्म। तत्पितुरुत्तमर्णसम्बन्धिनस्ते तस्य तथाविधां वाचं निशम्य ’ तत्पिता नूनमस्मान् वञ्चितवान्’ इति मन्यमानास्तत्कदर्त्थनायां मतिं चक्रुः; वाणिज्यांशदानप्रतिज्ञात्रे तत्सुहृदे च पुत्रविकत्थनां निवेदयामासुः। तदिदं सर्वं वृत्तं दैवाद्विज्ञाय तत्पिता भूतार्त्थंसुहृदे निवेदयितुं
शकटं भाटकेन ग्रहीतुमपारयन् दूरं तद्भवनं पादचारेण प्रस्थितः पथि च श्रमवशादुपजातरोगः कान्यप्यहानि विलम्ब्य चिकित्सितैः किञ्चिदिव शान्तेरोगे धनिकमुपगम्य स्वपुत्रचापलं निवेदयामास। किन्तु ‘त्वदर्थे कल्पितोंऽशः प्रागेवान्यस्मै दत्त’ इति धनिकेन कथितो गत्यन्तराभावात् कामपि हीनामेव वृत्तिं स अश्रितवान्। पश्यत पुत्रस्य दम्भदोषेण पितुः कीदृगयमनर्त्थआपतितः।
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734757380PRATHAMA_PATAVALI_9-removebg-preview.png"/>
४४. तस्करसत्यशीलौ.
शङ्कर इति शम्बर इति च द्वौ बालावास्ताम्। तत्र शङ्करोऽनात्मीयं वस्तु कदाचिदपि नैव हरेत्; अतः स सत्यशीलः संवृत्तः। अपरः पुनरसकृदस्वीयमर्त्थंहरेत्; अतः स चौरो जातः। शङ्करः किलातिबाल्ये चापलात् परकीयस्यपदार्त्थस्य ग्रहणे प्रवर्तमान एव मातापितृभ्यां दण्डयित्वा प्रतिषिद्धः’सत्यशीलोवर्तस्व’ इति वारंवारमुपदिष्टश्च। शम्बरस्तु
परस्वं गृह्णन्नपि पितृभ्यां न निवारितः; तस्मादेष स्तेनाग्रणीः समपद्यत।
क्वचिद् दिने प्रातः शङ्करः पाठालयं गच्छन् पथि पृथुं मञ्जूषां पृष्ठे वहन्तं कमपि नयता केनापि पथिकेन समागच्छत्। पथिको मार्गपार्श्ववर्तिनः पान्थविश्रामगृहस्य द्वारि स्थितस्तत्रागतं तद्भूस्वामिनमुक्तवान्—‘आर्य ! प्रसीदतु भवान् मां तावच्चिन्तयितुम्, यावदहमत्रायतने पाथेयमभ्यवहृत्यागच्छामि।देहि कमपि मे सहायम्, योऽनवरोपितभारमश्वमिमं वल्गायां गृह्णन् मत्प्रत्यागमनावधि घासदानेनानुग्रहीष्यति’ इति। भूस्वामी च समीपे परिजनासन्निधानादन्तिके गच्छन्तं शङ्करमाहूयाश्वावलम्बनाय प्रार्त्थितवान्। पान्थः ‘अपि भवान् प्रतिभूर्भवेदस्य बालस्य सत्यशीलतायाम् ? मदीयेषु किमयं मञ्जूषान्तर्गतेषु नारङ्गफलेषु चापलं नाचरेत् ? प्रकृत्या चपलाः खलु बालकाः’ इति तमन्वयुङ्क्त। क्षेत्रस्सामिना ‘जानामि शैशवात् प्रभृत्येनम्। नखल्वसत्यं
चौर्यं वास्य क्वचिदपि कर्मणि दृष्टपूर्वम्। अपिचैनमादेक्ष्यामि त्वदीयानि फलानि त्वन्निर्विशेषं पालयितुम्’ इति भणिते, जातप्रत्ययः पान्थः ‘तात ! यद्यप्रमत्तः फलानि रक्षेः, तर्हि श्रेष्ठं फलमेकं ते पारितोषिकं दद्याम्’ इति वदन् ‘तथा’ इत्युक्तवतो बालस्य हस्तेऽश्ववल्गामर्पयित्वा भोक्तुं गतः। क्षेत्रस्वामी च यथागतं चलितः।
ततोऽश्वं फलानि च रक्षतः शङ्करस्य पञ्चषेषु निमेषेष्वतीतेषु शम्बरः पाठालयं गच्छन्नग्रे सन्निधाय ‘सखे! शङ्कर ! किमर्थमिह तिष्ठसि ? कस्यायमश्वः ? आसु किन्तावन्निवेशितं मञ्जूषासु ? इति पप्रच्छ। शङ्कर उवाच—‘अस्मिन् पथिकविश्रामालये सम्प्रति भोक्तुं गतस्य कस्यापि पान्थस्यायमश्वः नारङ्गफलान्यासु मञ्जूषासु वर्तन्ते। तदागमनं यावत्तद्रक्षणाय तेनाहमर्थितस्तथा करोमि।अपि च स प्रत्यागत्य फलमेकं मे पारितोषिकं दास्यति’ इति। शम्बरः ‘किमेकं नारङ्गफलं स दास्यति ? ननु सर्वाणि त्वद्वशे वर्तन्ते?
ममैकस्मिन् फले लिप्सास्ति। पश्यानि तावत् प्रथमं तेषां कियत् पीनत्वम्’ इति वदन्नेव मञ्जूषां प्रति प्रसारितकरस्तदावरणमपसारयामास; दृष्ट्वा च तानि ‘अहो मनोहराणि फलानि; जानानि परिपाकमेषां स्पर्शेन’ इत्युक्तवान्।
शङ्करः ‘मा तावत् शम्बर ! फलानि स्प्राक्षीः, यद्यात्मनो हितमिच्छसि। किं ते कार्यमेतैः पक्वैरपि वा? यानि परकीयतयोपयोक्तुं न शक्यन्त’ इत्यब्रवीत्।
शम्बरः ‘सत्यमेव किं भणसि ? “मा स्पृश” इति।न हि स्पर्शे दोषोऽस्ति। मा खलु मन्यस्व, तान्यपहर्तुमिच्छामीति’ एवं कथयन् मञ्जूषान्तः करं प्रवेशयामास; गृहीत्वा च फलमेकं कराभ्यां सम्यक् परामृश्य पुनःपुनराघ्रायावदत्—‘सौरभात् फलमिदमवधारयामि मधुरं परिपक्वंच। इच्छामि चैतदास्वादयितुम्; केवलं बिन्दुमेकं फलाग्रभाजो रसस्य सद्यः पिबेयम्’ इति जल्पन्नेव फलमास्ये निदधौ।
बालैर्नाम सत्यशीलतामभिलषद्भिरुपस्थितेषु प्रलोभनहेतुषु सावधानैर्भाव्यम्। अल्पाल्पेनापि विषयेण जन आकृष्यमाण उत्तरोत्तरमकार्ये प्रवर्तते। पश्यत बालाः ! शम्बरस्य किल फलानां दर्शनेन स्पर्शे, स्पर्शेनाघ्राणे, आघ्राणेनास्वादने च लोभो जातः।
ततः प्रतिश्रुतपालने श्रद्धालुना शङ्करेण ‘फलं मा दूषय’ इति सामवचनैरनुनाथितोऽपि स फलं न त्यक्तवान्; प्रत्युत ‘अन्यदीये फले तव नाधिकारोऽस्ति; त्वदपेक्षया बलवन्तं मां निग्रहीतुं च न शक्नोषि; तत् तूष्णीं तिष्ठ’ इत्युक्तवान्। तदा कुपितः शङ्करस्तस्य हस्तात् फलं बलाद् ग्रहीतुमयतिष्ट। क्षणेन च तयोः कलहव्यतिकरे प्रवृत्ते क्षुभितोऽश्वः फलमञ्जूषाकर्षणव्यग्रंतं दस्युं पश्चादङ्घ्रिणा तीव्रमताडयत्। तद्वशाच्च स व्यथितः साक्रन्दं भूमौ पपात। फलं च तदा तस्य हस्ताच्छङ्करो जग्राह।ततस्तदाक्रन्दं श्रुत्वा ततइतो जनास्तत्र यावदागच्छन्, तावच्चौरः शान्तव्यथ उत्थाय प्रकृतिस्थ इव तूष्णीं
स्थितः। तथापि शङ्करो यथावृत्तं जनेभ्यः प्रत्यागतायाश्वस्वामिने च वर्णयामास। ‘ज्ञातपूर्वे तस्मिन् दस्यौ सर्वमेतत् सम्भाव्यत’ इति सम्भूय वदत्सु, प्रशंसत्सु चापरस्य सत्यशीलतांजनेषु फलस्वामी भृशं परितुष्टः ‘तात ! सर्वाण्येतानि फलानि ते पारितोषिकतया ददामि; प्रतिगृहाण’ इति शङ्करमुक्तवान्। ‘प्राक् प्रतिश्रुतं फलमेकमेव गृह्णीयाम्, न तु ततोऽधिकम्’ इति वदन्तं तं भूयोभूयः सर्वफलग्रहणाय स प्रार्थयामास। ततस्तानि फलानि स्वीकुर्वन् सत्यशीलस्त-त्कालोपस्थितेभ्यः पाठालयगामिभ्यो बालेभ्यः संविभज्य स्वयमेकमेव तदुपयुक्तवान्। चौरस्तु विलक्षः सर्वैः सहस्ततालमुपहस्यमानः स्थितः। ततः प्रशस्तगुणदर्शनेन भृशं विस्मिताः प्रीताश्च सर्वे जना अश्वस्वामी च शङ्करं विविधाभिराशीर्भिरभिननन्दुः।
स च तान् यथान्यायं प्रणम्यापूर्वफलास्वादेन द्विगुणितप्रणयैर्बालैः सबहुमानमनुगम्यमानः पाठालयं ययौ।
अये बालाः ! अस्याः कथायास्तात्पर्यं सम्यगालोच्य सदाचारपरिचयं सर्वदा कुरुध्वम्.
विश्वश्वरे कुरुत भक्तिमपेतदम्भां
पित्रोर्मतान्यनुविधत्त निरस्तशङ्कम्।
विद्यावतामपिच पालयतोपदेशान्
विद्यां श्रियं च यदि वाञ्छथ हे ! कुमाराः !॥
समाप्तेयं तृतीया पाठावली.
शुभ भूयात्.
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734759094PRATHAMA_PATAVALI_11-removebg-preview.png"/>
NOTES.
[TABLE]
I. | |
5 | व्यब्रूताम्—विरुद्धमवदताम्.वि + ब्रू लङ्. |
11 | संविभागः—distribution. |
10 | प्रयाणकम्—march. |
11 | लुण्ठितुम्—to steal. |
1 | संवासः—acquaintance. |
4 | निर्भर्त्स्य—to threaten, abuse or reproach. |
10 | उत्पुच्छ्यमानः—raising the tail. |
5 | इतिकर्तव्यतामूढः—wholly at a loss as to what to do |
17 | प्रत्यापत्तिः—to make up for. |
1 | पर्षः—a wooden legfor the lame, a vehicle used by the lame नलिकम्—( cartridge ) gun. |
7 | प्रसृत्वरम्—pervading, ( spreading ). |
12 | भवितव्यता—fate. |
13 | पूलः—a bundle.ग्रन्थिः—a knot. |
12 | शिशिलिद्वीपः—Sicily. एतनाभिधानः—named Etna |
2 | अम्लम्—sour. |
8 | सगर्धम्—greedily. |
14 | व्यात्तम्—wide opened. |
13 | संविद्—agreement, resolution. |
14 | यातना—acute pain. |
4 | आराद्—( अव्ययम् ) distance. |
17 | षोडशशः—at sixteen. |
1 | राजदन्तौ = दन्तानां राजानौ. |
3 | पार्यन्तिकाः—endmost. |
4 | जीर्णिः—digestion. |
13 | श्रुतपूर्वी—one who has heard before. |
16 | अजिरम्—a court-yard. |
3 | सांयात्रिकाः—merchants trading by sea. (seatraders) |
4 | यथाजातः—fool. |
I. | |
9 | पटलम्—roof. |
12 | औपवेशिकः—neighbour. |
13 | परिवर्तयन्—one who is transposing.. उल्लोलयन्=one who is stirring up. |
7 | प्ररोपितौषधि = प्ररोपिता ओषधयो यस्मिंस्तत्. |
9 | नियतजलोपक्लृप्तिकम् = नियता जलस्योपक्लृप्तिर्यस्य तत्. |
12 | शूकधान्यम्—any awned grain. |
13 | शमीधान्यम्—any pulse or grain growing in pods. |
14 | नीली—an indigo plant. |
3 | दोहदम्—n. manure. |
5 | आवपनम्—a vessel. |
9 | दीपवर्तिः—candle. |
11 | ऊयते—v. being woven. |
12 | दर्वी—spoon. |
1 | सिकलितम्—sandy. |
6 | संसृष्टदेशः—United States. |
8 | वासिन्तनः—George Washington. |
11 | गर्वायमाणः—haughty. |
2 | शुक्तम्—sour. |
7 | उत्सः—spring, fountain. |
10 | अद्धा—undoubtedly. |
11 | प्रवालकीटः—coral, zoophyte . |
1 | कुक्कुरः—dog. |
3 | कौलेयकः—dog. जाबालः—shepherd. |
12 | अशकावः शक्—to be able. लुङ् गतगताः—gonefor ever. |
1 | निर्विद्यमानः—disgusting. |
4 | अद्रिद्रोणी—valley. |
I. | |
12 | यत्सत्यम्—forsooth. |
13 | पल्ली—a small village. |
2 | छद्म—deceit. |
5 | जाहकः—cat. |
3 | राजपट्टः—velvet, ( a fine silk cloth.) |
12 | दुग्धघनः—cheese. |
13 | उपानत्—shoe, sappath. |
15 | कङ्कतम्—comb. |
15 | एडकः—ram. छागलः—goat. |
16 | खिलम्—untrampled waste. |
16 | अपर्यस्तः—without being struck or upset. |
2 | तुभी—she-goat. |
2 | शलाटुः—unripe fruit. |
8 | कणिश्म्—an ear or spike of corn. |
14 | स्खलितप्रधावितं—स्खलितेन सहितं प्रधावितम् .( मध्यमपदलोपीसमासः.) |
4 | सक्तुः—flour. |
5 | श्वाणा—( kanji ) rice gruel.राधयित्वा—havingmade. |
7 | कट्फलः—teak. खदिरः—name of a tree ( karunkali.) |
11 | चिञ्चा—tamarind tree. |
12 | व्यञ्जनम्—sauce. ईतिः—scarcity, dearth. |
16 | शिफा—a fibrous root from the branch of a tree ( like that of a banyan.) |
4 | लेपः—gum ( gummy fluid from a banyan tree.) |
14 | पिचुः—cotton ( without seeds). |
2 | वैधेयः—fool. |
11 | चपेटा—palm of the hand with fingers extended. |
12 | ग्लहः—stake, bet, wager. |
7 | निषादी—an elephant-driver. |
[TABLE]
[TABLE]
I. | |
4 | विप्रलम्भः—deceit. |
8 | लालसा—longing. |
14 | त्वरिततरव्यापारिता = त्वरिततरं व्यापरितुं शीलमस्येति तथा. तस्य भावस्तता |
8 | ऊर्जस्वलम्—strong. |
5 | ऋणापाकरणव्यतिकरः—clearing one’s debt. |
7 | दम्भः—vanity. |
2 | स्तेनः—thief. |
10 | वल्गा—a bridle. |
4 | पारितोषिकम्—a reward. |
13 | फलमञ्जूषाकर्षणव्यग्रः = फलपूर्णाया मञ्जूषाया आकर्षणे व्यग्रः |
11 | विलक्षः—ashamed. |
<MISSING_FIG href="../books_images/U-IMG-1734871133PRATHAMA_PATAVALI_14-removebg-preview.png"/>
]