०४ चतुर्थोऽध्यायः

भागसूचना
  1. चैत्रमासमें रामायणके पठन और श्रवणका माहात्म्य, कलिक नामक व्याध और उत्तङ्क मुनिकी कथा
मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यमासं प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं सुसमाहिताः।
सर्वपापहरं पुण्यं सर्वदुःखनिबर्हणम्॥ १॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां चैव योषिताम्।
समस्तकामफलदं सर्वव्रतफलप्रदम्॥ २॥
दुःस्वप्ननाशनं धन्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्।
रामायणस्य माहात्म्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः॥ ३॥

मूलम्

अन्यमासं प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं सुसमाहिताः।
सर्वपापहरं पुण्यं सर्वदुःखनिबर्हणम्॥ १॥
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां चैव योषिताम्।
समस्तकामफलदं सर्वव्रतफलप्रदम्॥ २॥
दुःस्वप्ननाशनं धन्यं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्।
रामायणस्य माहात्म्यं श्रोतव्यं च प्रयत्नतः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं—महर्षियो! अब मैं रामायणके पाठ और श्रवणके लिये उपयोगी दूसरे मासका वर्णन करता हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो। रामायणका माहात्म्य समस्त पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यजनक तथा सम्पूर्ण दुःखोंका निवारण करनेवाला है। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा स्त्री—इन सबको समस्त मनोवाञ्छितफल प्रदान करनेवाला है। उससे सब प्रकारके व्रतोंका फल भी प्राप्त होता है। वह दुःस्वप्नका नाशक, धनकी प्राप्ति करानेवाला तथा भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है। अतः उसे प्रयत्नपूर्वक सुनना चाहिये॥ १—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
पठतां शृण्वतां चैव सर्वपापप्रणाशनम्॥ ४॥

मूलम्

अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
पठतां शृण्वतां चैव सर्वपापप्रणाशनम्॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी विषयमें विज्ञ पुरुष एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण देते हैं। वह इतिहास अपने पाठकों और श्रोताओंके समस्त पापोंका नाश करनेवाला है॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् पुरा कलियुगे कलिको नाम लुब्धकः।
परदारपरद्रव्यहरणे सततं रतः॥ ५॥

मूलम्

आसीत् पुरा कलियुगे कलिको नाम लुब्धकः।
परदारपरद्रव्यहरणे सततं रतः॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कलियुगमें एक कलिक नामवाला व्याध रहता था। वह सदा परायी स्त्री और पराये धनके अपहरणमें ही लगा रहता था॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परनिन्दापरो नित्यं जन्तुपीडाकरस्तथा।
हतवान् ब्राह्मणान् गावः शतशोऽथ सहस्रशः॥ ६॥

मूलम्

परनिन्दापरो नित्यं जन्तुपीडाकरस्तथा।
हतवान् ब्राह्मणान् गावः शतशोऽथ सहस्रशः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंकी निन्दा करना उसका नित्यका काम था। वह सदा सभी जन्तुओंको पीड़ा दिया करता था। उसने कितने ही ब्राह्मणों तथा सैकड़ों, हजारों गौओंकी हत्या कर डाली थी॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवस्वहरणे नित्यं परस्वहरणे तथा।
तेन पापान्यनेकानि कृतानि सुमहान्ति च॥ ७॥

मूलम्

देवस्वहरणे नित्यं परस्वहरणे तथा।
तेन पापान्यनेकानि कृतानि सुमहान्ति च॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

पराये धनका तो वह नित्य अपहरण करता ही था, देवताके धनको भी हड़प लेता था। उसने अपने जीवनमें अनेक बड़े-बड़े पाप किये थे॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तेषां शक्यते वक्तुं संख्या वत्सरकोटिभिः।
स कदाचिन्महापापो जन्तूनामन्तकोपमः॥ ८॥
सौवीरनगरं प्राप्तः सर्वैश्वर्यसमन्वितम्।
योषिद्भिर्भूषिताभिश्च सरोभिर्विमलोदकैः॥ ९॥
अलंकृतं विपणिभिर्ययौ देवपुरोपमम्।

मूलम्

न तेषां शक्यते वक्तुं संख्या वत्सरकोटिभिः।
स कदाचिन्महापापो जन्तूनामन्तकोपमः॥ ८॥
सौवीरनगरं प्राप्तः सर्वैश्वर्यसमन्वितम्।
योषिद्भिर्भूषिताभिश्च सरोभिर्विमलोदकैः॥ ९॥
अलंकृतं विपणिभिर्ययौ देवपुरोपमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उसके पापोंकी गणना करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं की जा सकती थी। एक समय वह महापापी व्याध, जो जीव-जन्तुओंके लिये यमराजके समान भयंकर था, सौवीरनगरमें गया। वह नगर सब प्रकारके वैभवसे सम्पन्न, वस्त्राभूषणोंसे विभूषित युवतियोंद्वारा सुशोभित, स्वच्छ जलवाले सरोवरोंसे अलंकृत तथा भाँति-भाँतिकी दूकानोंसे सुसज्जित था। देवनगरके समान उसकी शोभा हो रही थी। व्याध उस नगरमें गया॥ ८-९ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्योपवनमध्यस्थं रम्यं केशवमन्दिरम्॥ १०॥
छादितं हेमकलशैर्दृष्ट्वा व्याधो मुदं ययौ।
हराम्यत्र सुवर्णानि बहूनीति विनिश्चितः॥ ११॥

मूलम्

तस्योपवनमध्यस्थं रम्यं केशवमन्दिरम्॥ १०॥
छादितं हेमकलशैर्दृष्ट्वा व्याधो मुदं ययौ।
हराम्यत्र सुवर्णानि बहूनीति विनिश्चितः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौवीरनगरके उपवनमें भगवान् केशवका बड़ा सुन्दर मन्दिर था, जो सोनेके अनेकानेक कलशोंसे ढका हुआ था। उसे देखकर व्याधको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने यह निश्चय कर लिया कि मैं यहाँसे बहुत-सा सुवर्ण चुराकर ले चलूँगा॥ १०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जगाम रामभवनं कीनाशश्चौर्यलोलुपः।
तत्रापश्यद् द्विजवरं शान्तं तत्त्वार्थकोविदम्॥ १२॥
परिचर्यापरं विष्णोरुत्तङ्कं तपसां निधिम्।
एकाकिनं दयालुं च निःस्पृहं ध्यानलोलुपम्॥ १३॥

मूलम्

जगाम रामभवनं कीनाशश्चौर्यलोलुपः।
तत्रापश्यद् द्विजवरं शान्तं तत्त्वार्थकोविदम्॥ १२॥
परिचर्यापरं विष्णोरुत्तङ्कं तपसां निधिम्।
एकाकिनं दयालुं च निःस्पृहं ध्यानलोलुपम्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा निश्चय करके वह चोरीपर लट्टू रहनेवाला व्याध श्रीरामके मन्दिरमें गया। वहाँ उसने शान्त,तत्त्वार्थवेत्ता और भगवान् की आराधनामें तत्पर उत्तङ्क मुनिका दर्शन किया, जो तपस्याकी निधि थे। वे अकेले ही रहते थे। उनके हृदयमें सबके प्रति दया भरी थी। वे सब ओरसे निःस्पृह थे। उनके मनमें केवल भगवान् के ध्यानका ही लोभ बना रहता था॥ १२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वासौ लुब्धको मेने तं चौर्यस्यान्तरायिणम्।
देवस्य द्रव्यजातं तु समादाय महानिशि॥ १४॥

मूलम्

दृष्ट्वासौ लुब्धको मेने तं चौर्यस्यान्तरायिणम्।
देवस्य द्रव्यजातं तु समादाय महानिशि॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें वहाँ उपस्थित देख व्याधने उनको चोरीमें विघ्न डालनेवाला समझा। तदनन्तर जब आधी रात हुई, तब वह देवतासम्बन्धी द्रव्यसमूह लेकर चला॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तङ्कं हन्तुमारेभे उद्यतासिर्मदोद्धतः।
पादेनाक्रम्य तद्वक्षो गलं संगृह्य पाणिना॥ १५॥

मूलम्

उत्तङ्कं हन्तुमारेभे उद्यतासिर्मदोद्धतः।
पादेनाक्रम्य तद्वक्षो गलं संगृह्य पाणिना॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस मदोन्मत्त व्याधने उत्तङ्क मुनिकी छातीको अपने एक पैरसे दबाकर हाथसे उनका गला पकड़ लिया और तलवार उठाकर उन्हें मार डालनेका उपक्रम किया॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तुं कृतमतिं व्याधं उत्तङ्को प्रेक्ष्य चाब्रवीत्।

मूलम्

हन्तुं कृतमतिं व्याधं उत्तङ्को प्रेक्ष्य चाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तङ्कने देखा व्याध मुझे मार डालना चाहता है तो वे उससे इस प्रकार बोले॥ १५ १/२॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भो भोः साधो वृथा मां त्वं हनिष्यसि निरागसम्॥ १६॥

मूलम्

भो भोः साधो वृथा मां त्वं हनिष्यसि निरागसम्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तङ्कने कहा—ओ भले मानुष! तुम व्यर्थ ही मुझे मारना चाहते हो। मैं तो सर्वथा निरपराध हूँ॥ १६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया किमपराद्धं ते तद् वद त्वं च लुब्धक।
कृतापराधिनो लोके हिंसां कुर्वन्ति यत्नतः॥ १७॥
न हिंसन्ति वृथा सौम्य सज्जना अप्यपापिनम्।

मूलम्

मया किमपराद्धं ते तद् वद त्वं च लुब्धक।
कृतापराधिनो लोके हिंसां कुर्वन्ति यत्नतः॥ १७॥
न हिंसन्ति वृथा सौम्य सज्जना अप्यपापिनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

लुब्धक! बताओ तो सही, मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है? संसारमें लोग अपराधीकी ही प्रयत्नपूर्वक हिंसा करते हैं। सौम्य! सज्जन निरपराधकी व्यर्थ हिंसा नहीं करते हैं॥ १७ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरोधिष्वपि मूर्खेषु निरीक्ष्यावस्थितान् गुणान्॥ १८॥
विरोधं नाधिगच्छन्ति सज्जनाः शान्तचेतसः।

मूलम्

विरोधिष्वपि मूर्खेषु निरीक्ष्यावस्थितान् गुणान्॥ १८॥
विरोधं नाधिगच्छन्ति सज्जनाः शान्तचेतसः।

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तचित्त साधु पुरुष अपने विरोधी तथा मूर्ख मनुष्योंमें भी सद‍्गुणोंकी स्थिति देखकर उनके साथ विरोध नहीं रखते हैं॥ १८ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुधा वाच्यमानोऽपि यो नरः क्षमयान्वितः॥ १९॥
तमुत्तमं नरं प्राहुर्विष्णोः प्रियतरं तथा॥ २०॥

मूलम्

बहुधा वाच्यमानोऽपि यो नरः क्षमयान्वितः॥ १९॥
तमुत्तमं नरं प्राहुर्विष्णोः प्रियतरं तथा॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य बारम्बार दूसरोंकी गाली सुनकर भी क्षमाशील बना रहता है, वह उत्तम कहलाता है। उसे भगवान् विष्णुका अत्यन्त प्रियजन बताया गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुजनो न याति वैरं
परहितनिरतो विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरुः
सुरभीकरोति मुखं कुठारस्य॥ २१॥

मूलम्

सुजनो न याति वैरं
परहितनिरतो विनाशकालेऽपि।
छेदेऽपि चन्दनतरुः
सुरभीकरोति मुखं कुठारस्य॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंके हित-साधनमें लगे रहनेवाले साधुजन किसीके द्वारा अपने विनाशका समय उपस्थित होनेपर भी उसके साथ वैर नहीं करते। चन्दनका वृक्ष अपनेको काटनेपर भी कुठारकी धारको सुवासित ही करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो विधिर्वै बलवान् बाधते बहुधा जनान्।
सर्वसंगविहीनोऽपि बाध्यते तु दुरात्मना॥ २२॥

मूलम्

अहो विधिर्वै बलवान् बाधते बहुधा जनान्।
सर्वसंगविहीनोऽपि बाध्यते तु दुरात्मना॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! विधाता बड़ा बलवान् है। वह लोगोंको नाना प्रकारसे कष्ट देता रहता है। जो सब प्रकारके संगसे रहित है, उसे भी दुरात्मा मनुष्य सताया करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो निष्कारणं लोके बाधन्ते दुर्जना जनान्।
धीवराः पिशुना व्याधा लोकेऽकारणवैरिणः॥ २३॥

मूलम्

अहो निष्कारणं लोके बाधन्ते दुर्जना जनान्।
धीवराः पिशुना व्याधा लोकेऽकारणवैरिणः॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! दुष्टजन इस संसारमें बहुत-से जीवोंको बिना किसी अपराधके ही पीड़ा देते हैं। मल्लाह मछलियोंके, चुगलखोर सज्जनोंके और व्याध मृगोंके इस जगत् में अकारण वैरी होते हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो बलवती माया मोहयत्यखिलं जगत्।
पुत्रमित्रकलत्राद्यैः सर्वदुःखेन योज्यते॥ २४॥

मूलम्

अहो बलवती माया मोहयत्यखिलं जगत्।
पुत्रमित्रकलत्राद्यैः सर्वदुःखेन योज्यते॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! माया बड़ी प्रबल है। यह सम्पूर्ण जगत् को मोहमें डाल देती है तथा स्त्री, पुत्र और मित्र आदिके द्वारा सबको सब प्रकारके दुःखोंसे संयुक्त कर देती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परद्रव्यापहारेण कलत्रं पोषितं च यत्।
अन्ते तत् सर्वमुत्सृज्य एक एव प्रयाति वै॥ २५॥

मूलम्

परद्रव्यापहारेण कलत्रं पोषितं च यत्।
अन्ते तत् सर्वमुत्सृज्य एक एव प्रयाति वै॥ २५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य पराये धनका अपहरण करके जो अपनी स्त्री आदिका पोषण करता है, वह किस कामका; क्योंकि अन्तमें उन सबको छोड़कर वह अकेला ही परलोककी राह लेता है॥ २५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम माता मम पिता मम भार्या ममात्मजाः।
ममेदमिति जन्तूनां ममता बाधते वृथा॥ २६॥

मूलम्

मम माता मम पिता मम भार्या ममात्मजाः।
ममेदमिति जन्तूनां ममता बाधते वृथा॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी माता, मेरे पिता, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र तथा मेरा यह घरबार’—इस प्रकार ममता व्यर्थ ही प्राणियोंको कष्ट देती रहती है॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदर्पयति द्रव्यं तावद् भवति बान्धवः।
अर्जितं तु धनं सर्वे भुञ्जन्ते बान्धवाः सदा॥ २७॥
दुःखमेकतमो मूढस्तत्पापफलमश्नुते।

मूलम्

यावदर्पयति द्रव्यं तावद् भवति बान्धवः।
अर्जितं तु धनं सर्वे भुञ्जन्ते बान्धवाः सदा॥ २७॥
दुःखमेकतमो मूढस्तत्पापफलमश्नुते।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जबतक कमाकर धन देता है, तभीतक लोग उसके भाई-बन्धु बने रहते हैं और उसके कमाये हुए धनको सारे बन्धु-बान्धव सदा भोगते रहते हैं; किंतु मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पापके फलरूप दुःखको अकेला ही भोगता है॥ २७ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवाणं तमृषिं विमृश्य भयविह्वलः॥ २८॥
कलिकः प्राञ्जलिः प्राह क्षमस्वेति पुनः पुनः।

मूलम्

इति ब्रुवाणं तमृषिं विमृश्य भयविह्वलः॥ २८॥
कलिकः प्राञ्जलिः प्राह क्षमस्वेति पुनः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तङ्क मुनि जब इस प्रकार कह रहे थे, तब उनकी बातोंपर विचार करके कलिक नामक व्याध भयसे व्याकुल हो उठा और हाथ जोड़कर बारम्बार कहने लगा—‘प्रभो! मेरे अपराधको क्षमा कीजिये’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्संगस्य प्रभावेण हरिसंनिधिमात्रतः॥ २९॥
गतपापो लुब्धकश्च सानुतापोऽभवद् ध्रुवम्।

मूलम्

तत्संगस्य प्रभावेण हरिसंनिधिमात्रतः॥ २९॥
गतपापो लुब्धकश्च सानुतापोऽभवद् ध्रुवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

उन महात्माके संगके प्रभावसे तथा भगवान् का सांनिध्य मिल जानेसे उस लुब्धकके सारे पाप नष्ट हो गये तथा उसके मनमें निश्चय ही बड़ा पश्चात्ताप होने लगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया कृतानि पापानि महान्ति सुबहूनि च॥ ३०॥
तानि सर्वाणि नष्टानि विप्रेन्द्र तव दर्शनात्।

मूलम्

मया कृतानि पापानि महान्ति सुबहूनि च॥ ३०॥
तानि सर्वाणि नष्टानि विप्रेन्द्र तव दर्शनात्।

अनुवाद (हिन्दी)

वह बोला—‘विप्रवर! मैंने जीवनमें बहुत-से बड़े-बड़े पाप किये हैं; किंतु वे सब आपके दर्शनमात्रसे नष्ट हो गये॥ ३० १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं वै पापधीर्नित्यं महापापं समाचरम्॥ ३१॥
कथं मे निष्कृतिर्भूयात् कं यामि शरणं विभो।

मूलम्

अहं वै पापधीर्नित्यं महापापं समाचरम्॥ ३१॥
कथं मे निष्कृतिर्भूयात् कं यामि शरणं विभो।

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! मेरी बुद्धि सदा पापमें ही डूबी रहती थी। मैंने निरन्तर बड़े-बड़े पापोंका ही आचरण किया है। उनसे मेरा उद्धार किस प्रकार होगा? मैं किसकी शरणमें जाऊँ॥ ३१ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूर्वजन्मार्जितैः पापैर्लुब्धकत्वमवाप्तवान्॥ ३२॥
अत्रापि पापजालानि कृत्वा कां गतिमाप्नुयाम्।

मूलम्

पूर्वजन्मार्जितैः पापैर्लुब्धकत्वमवाप्तवान्॥ ३२॥
अत्रापि पापजालानि कृत्वा कां गतिमाप्नुयाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वजन्मके किये हुए पापोंके फलसे मुझे व्याध होना पड़ा है, यहाँ भी मैंने पापोंके ही जाल बटोरे हैं। ये पाप करके मैं किस गतिको प्राप्त होऊँगा?’॥ ३२ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति वाक्यं समाकर्ण्य कलिकस्य महात्मनः॥ ३३॥
उत्तङ्को नाम विप्रर्षिरिदं वाक्यमथाब्रवीत्।

मूलम्

इति वाक्यं समाकर्ण्य कलिकस्य महात्मनः॥ ३३॥
उत्तङ्को नाम विप्रर्षिरिदं वाक्यमथाब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

महामना कलिककी यह बात सुनकर ब्रह्मर्षि उत्तङ्क इस प्रकार बोले॥ ३३ १/२॥

मूलम् (वचनम्)

उत्तङ्क उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु साधु महाप्राज्ञ मतिस्ते विमलोज्ज्वला॥ ३४॥
यस्मात् संसारदुःखानां नाशोपायमभीप्ससि।

मूलम्

साधु साधु महाप्राज्ञ मतिस्ते विमलोज्ज्वला॥ ३४॥
यस्मात् संसारदुःखानां नाशोपायमभीप्ससि।

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तङ्कने कहा—महामते व्याध! तुम धन्य हो, धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि बड़ी निर्मल और उज्ज्वल है; क्योंकि तुम संसारसम्बन्धी दुःखोंके नाशका उपाय जानना चाहते हो॥ ३४ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चैत्रे मासि सिते पक्षे कथा रामायणस्य च॥ ३५॥
नवाह्ना किल श्रोतव्या भक्तिभावेन सादरम्।
यस्य श्रवणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ३६॥

मूलम्

चैत्रे मासि सिते पक्षे कथा रामायणस्य च॥ ३५॥
नवाह्ना किल श्रोतव्या भक्तिभावेन सादरम्।
यस्य श्रवणमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

चैत्रमासके शुक्लपक्षमें तुम्हें भक्तिभावसे आदरपूर्वक रामायणकी नवाह कथा सुननी चाहिये। उसके श्रवणमात्रसे मनुष्य समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाता है॥ ३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् क्षणेऽसौ कलिको लुब्धको वीतकल्मषः।
रामायणकथां श्रुत्वा सद्यः पञ्चत्वमागतः॥ ३७॥

मूलम्

तस्मिन् क्षणेऽसौ कलिको लुब्धको वीतकल्मषः।
रामायणकथां श्रुत्वा सद्यः पञ्चत्वमागतः॥ ३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय कलिक व्याधके सारे पाप नष्ट हो गये। वह रामायणकी कथा सुनकर तत्काल मृत्युको प्राप्त हो गया॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तङ्कः पतितं वीक्ष्य लुब्धकं तं दयापरः।
एतद् दृष्ट्वा विस्मितश्च अस्तौषीत् कमलापतिम्॥ ३८॥

मूलम्

उत्तङ्कः पतितं वीक्ष्य लुब्धकं तं दयापरः।
एतद् दृष्ट्वा विस्मितश्च अस्तौषीत् कमलापतिम्॥ ३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्याधको धरतीपर पड़ा हुआ देख दयालु उत्तङ्क मुनि बड़े विस्मित हुए। फिर उन्होंने भगवान् कमलापतिका स्तवन किया॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथां रामायणस्यापि श्रुत्वा च वीतकल्मषः।
दिव्यं विमानमारुह्य मुनिमेतदथाब्रवीत्॥ ३९॥

मूलम्

कथां रामायणस्यापि श्रुत्वा च वीतकल्मषः।
दिव्यं विमानमारुह्य मुनिमेतदथाब्रवीत्॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामायणकी कथा सुनकर निष्पाप हुआ व्याध दिव्य विमानपर आरूढ़ हो उत्तङ्क मुनिसे इस प्रकार बोला॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमुक्तस्त्वत्प्रसादेन महापातकसंकटात्।
तस्मान्नतोऽस्मि ते विद्वन् यत् कृतं तत् क्षमस्व मे॥ ४०॥

मूलम्

विमुक्तस्त्वत्प्रसादेन महापातकसंकटात्।
तस्मान्नतोऽस्मि ते विद्वन् यत् कृतं तत् क्षमस्व मे॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वन्! आपके प्रसादसे मैं महापातकोंके संकटसे मुक्त हो गया। अतः मैं आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। मैंने जो किया है, मेरे उस अपराधको आप क्षमा कीजिये’॥ ४०॥

मूलम् (वचनम्)

सूत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा देवकुसुमैर्मुनिश्रेष्ठमवाकिरत्।
प्रदक्षिणात्रयं कृत्वा नमस्कारं चकार ह॥ ४१॥

मूलम्

इत्युक्त्वा देवकुसुमैर्मुनिश्रेष्ठमवाकिरत्।
प्रदक्षिणात्रयं कृत्वा नमस्कारं चकार ह॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतजी कहते हैं—ऐसा कहकर कलिकने मुनिश्रेष्ठ उत्तङ्कपर देवकुसुमोंकी वर्षा की और तीन बार उनकी परिक्रमा करके उन्हें बारम्बार नमस्कार किया॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विमानमारुह्य सर्वकामसमन्वितम्।
अप्सरोगणसंकीर्णं प्रपेदे हरिमन्दिरम्॥ ४२॥

मूलम्

ततो विमानमारुह्य सर्वकामसमन्वितम्।
अप्सरोगणसंकीर्णं प्रपेदे हरिमन्दिरम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अप्सराओंसे भरे हुए सम्पूर्ण मनोवाञ्छित भोगोंसे सम्पन्न विमानपर आरूढ़ हो वह श्रीहरिके परम धाममें जा पहुँचा॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्राः कथां रामायणस्य च।
चैत्रे मासि सिते पक्षे श्रोतव्यं च प्रयत्नतः॥ ४३॥
नवाह्ना किल रामस्य रामायणकथामृतम्।

मूलम्

तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्राः कथां रामायणस्य च।
चैत्रे मासि सिते पक्षे श्रोतव्यं च प्रयत्नतः॥ ४३॥
नवाह्ना किल रामस्य रामायणकथामृतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः विप्रवरो! आप सब लोग रामायणकी कथा सुनें। चैत्रमासके शुक्लपक्षमें प्रयत्नपूर्वक रामायणकी अमृतमयी कथाका नवाह-पारायण अवश्य सुनना चाहिये॥ ४४ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादृतुषु सर्वेषु हितकृद्धरिपूजकः॥ ४४॥
ईप्सितं मनसा यद्यत् तदाप्नोति न संशयः।

मूलम्

तस्मादृतुषु सर्वेषु हितकृद्धरिपूजकः॥ ४४॥
ईप्सितं मनसा यद्यत् तदाप्नोति न संशयः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये रामायण सभी ऋतुओंमें हितकारक है। इसके द्वारा भगवान् की पूजा करनेवाला पुरुष मनसे जो-जो चाहता है, उसे निःसंदेह प्राप्त कर लेता है॥ ४४ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनत्कुमार यत् पृष्टं तत् सर्वं गदितं मया॥ ४५॥
रामायणस्य माहात्म्यं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि॥ ४६॥

मूलम्

सनत्कुमार यत् पृष्टं तत् सर्वं गदितं मया॥ ४५॥
रामायणस्य माहात्म्यं किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि॥ ४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनत्कुमार! तुमने जो रामायणका माहात्म्य पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥ ४५-४५॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीस्कन्दपुराणे उत्तरखण्डे नारदसनत्कुमारसंवादे रामायणमाहात्म्ये चैत्रमासफलानुकीर्तनं नाम चतुर्थोऽध्यायः॥ ४॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके उत्तरखण्डमें नारद-सनत्कुमारसंवादके अन्तर्गत रामायणमाहात्म्यके प्रसंगमें चैत्रमासमें रामायण सुननेके फलका वर्णन नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ॥ ४॥