०३ तृतीयोऽध्यायः

भागसूचना
  1. माघमासमें रामायण-श्रवणका फल—राजा सुमति और सत्यवतीके पूर्व-जन्मका इतिहास
मूलम् (वचनम्)

सनत्कुमार उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो विप्र इदं प्रोक्तमितिहासं च नारद।
रामायणस्य माहात्म्यं त्वं पुनर्वद विस्तरात्॥ १॥

मूलम्

अहो विप्र इदं प्रोक्तमितिहासं च नारद।
रामायणस्य माहात्म्यं त्वं पुनर्वद विस्तरात्॥ १॥

अनुवाद (हिन्दी)

सनत्कुमारने कहा—ब्रह्मर्षि नारदजी! आपने यह अद्भुत इतिहास सुनाया है। अब रामायणके माहात्म्यका पुनः विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये॥ १॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यमासस्य माहात्म्यं कथयस्व प्रसादतः।
कस्य नो जायते तुष्टिर्मुने त्वद्वचनामृतात्॥ २॥

मूलम्

अन्यमासस्य माहात्म्यं कथयस्व प्रसादतः।
कस्य नो जायते तुष्टिर्मुने त्वद्वचनामृतात्॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आपने कार्तिक मासमें रामायणके श्रवणकी महिमा बतायी।) अब कृपापूर्वक दूसरे मासका माहात्म्य बताइये। मुने! आपके वचनामृतसे किसको संतोष नहीं होगा!॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे यूयं महाभागाः कृतार्था नात्र संशयः।
यतः प्रभावं रामस्य भक्तितः श्रोतुमुद्यताः॥ ३॥

मूलम्

सर्वे यूयं महाभागाः कृतार्था नात्र संशयः।
यतः प्रभावं रामस्य भक्तितः श्रोतुमुद्यताः॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने कहा—महात्माओ! आप सब लोग निश्चय ही बड़े भाग्यशाली और कृतकृत्य हैं, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि आप भक्तिभावसे भगवान् श्रीरामकी महिमा सुननेके लिये उद्यत हुए हैं॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माहात्म्यश्रवणं यस्य राघवस्य कृतात्मनाम्।
दुर्लभं प्राहुरत्यन्तं मुनयो ब्रह्मवादिनः॥ ४॥

मूलम्

माहात्म्यश्रवणं यस्य राघवस्य कृतात्मनाम्।
दुर्लभं प्राहुरत्यन्तं मुनयो ब्रह्मवादिनः॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मवादी मुनियोंने भगवान् श्रीरामके माहात्म्यका श्रवण पुण्यात्मा पुरुषोंके लिये परम दुर्लभ बताया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुध्वमृषयश्चित्रमितिहासं पुरातनम्।
सर्वपापप्रशमनं सर्वरोगविनाशनम्॥ ५॥

मूलम्

शृणुध्वमृषयश्चित्रमितिहासं पुरातनम्।
सर्वपापप्रशमनं सर्वरोगविनाशनम्॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षियो! अब आपलोग एक विचित्र पुरातन इतिहास सुनिये, जो समस्त पापोंका निवारण और सम्पूर्ण रोगोंका विनाश करनेवाला है॥ ५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् पुरा द्वापरे च सुमतिर्नाम भूपतिः।
सोमवंशोद्भवः श्रीमान् सप्तद्वीपैकनायकः॥ ६॥

मूलम्

आसीत् पुरा द्वापरे च सुमतिर्नाम भूपतिः।
सोमवंशोद्भवः श्रीमान् सप्तद्वीपैकनायकः॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालकी बात है, द्वापरमें सुमति नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं। उनका जन्म चन्द्रवंशमें हुआ था। वे श्रीसम्पन्न और सातों द्वीपोंके एकमात्र सम्राट् थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मात्मा सत्यसम्पन्नः सर्वसम्पद्विभूषितः।
सदा रामकथासेवी रामपूजापरायणः॥ ७॥

मूलम्

धर्मात्मा सत्यसम्पन्नः सर्वसम्पद्विभूषितः।
सदा रामकथासेवी रामपूजापरायणः॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका मन सदा धर्ममें ही लगा रहता था। वे सत्यवादी तथा सब प्रकारकी सम्पत्तियोंसे सुशोभित थे। सदा श्रीरामकथाके सेवन और श्रीरामकी ही समाराधनामें संलग्न रहते थे॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामपूजापराणां च शुश्रूषुरनहंकृतिः।
पूज्येषु पूजानिरतः समदर्शी गुणान्वितः॥ ८॥

मूलम्

रामपूजापराणां च शुश्रूषुरनहंकृतिः।
पूज्येषु पूजानिरतः समदर्शी गुणान्वितः॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामकी पूजा-अर्चामें लगे रहनेवाले भक्तोंकी वे सदा सेवा करते थे। उनमें अहंकारका नाम भी नहीं था। वे पूज्य पुरुषोंके पूजनमें तत्पर रहनेवाले, समदर्शी तथा सद‍्गुणसम्पन्न थे॥ ८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वभूतहितः शान्तः कृतज्ञः कीर्त्तिमान् नृपः।
तस्य भार्या महाभागा सर्वलक्षणसंयुता॥ ९॥

मूलम्

सर्वभूतहितः शान्तः कृतज्ञः कीर्त्तिमान् नृपः।
तस्य भार्या महाभागा सर्वलक्षणसंयुता॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा सुमति समस्त प्राणियोंके हितैषी, शान्त, कृतज्ञ और यशस्वी थे। उनकी परम सौभाग्यशालिनी पत्नी भी समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित थी॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिव्रता पतिप्राणा नाम्ना सत्यवती श्रुता।
तावुभौ दम्पती नित्यं रामायणपरायणौ॥ १०॥

मूलम्

पतिव्रता पतिप्राणा नाम्ना सत्यवती श्रुता।
तावुभौ दम्पती नित्यं रामायणपरायणौ॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका नाम सत्यवती था। वह पतिव्रता थी। पतिमें ही उसके प्राण बसते थे। वे दोनों पति-पत्नी सदा रामायणके ही पढ़ने और सुननेमें संलग्न रहते थे॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नदानरतौ नित्यं जलदानपरायणौ।
तडागारामवाप्यादीनसंख्यातान् वितेनतुः॥ ११॥

मूलम्

अन्नदानरतौ नित्यं जलदानपरायणौ।
तडागारामवाप्यादीनसंख्यातान् वितेनतुः॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा अन्नका दान करते और प्रतिदिन जलदानमें प्रवृत्त रहते थे। उन्होंने असंख्य पोखरों, बगीचों और बावड़ियोंका निर्माण कराया था॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपि राजा महाभागो रामायणपरायणः।
वाचयेच्छृणुयाद् वापि भक्तिभावेन भावितः॥ १२॥

मूलम्

सोऽपि राजा महाभागो रामायणपरायणः।
वाचयेच्छृणुयाद् वापि भक्तिभावेन भावितः॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाभाग राजा सुमति भी सदा रामायणके ही अनुशीलनमें लगे रहते थे। वे भक्तिभावसे भावित हो रामायणको ही बाँचते अथवा सुनते थे॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं रामपरं नित्यं राजानं धर्मकोविदम्।
तस्य प्रियां सत्यवतीं देवा अपि सदास्तुवन्॥ १३॥

मूलम्

एवं रामपरं नित्यं राजानं धर्मकोविदम्।
तस्य प्रियां सत्यवतीं देवा अपि सदास्तुवन्॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वे धर्मज्ञ नरेश सदा श्रीरामकी आराधनामें ही तत्पर रहते थे। उनकी प्यारी पत्नी सत्यवती भी ऐसी ही थी। देवता भी उन दोनों दम्पतिकी सदा भूरि-भूरि प्रशंसा करते थे॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्रुतौ त्रिषु लोकेषु दम्पती तौ हि धार्मिकौ।
आययौ बहुभिः शिष्यैर्द्रष्टुकामो विभाण्डकः॥ १४॥

मूलम्

विश्रुतौ त्रिषु लोकेषु दम्पती तौ हि धार्मिकौ।
आययौ बहुभिः शिष्यैर्द्रष्टुकामो विभाण्डकः॥ १४॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन उन त्रिभुवनविख्यात धर्मात्मा राजा-रानीको देखनेके लिये विभाण्डक मुनि अपने बहुत-से शिष्योंके साथ वहाँ आये॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभाण्डकं मुनिं दृष्ट्वा सुखमाप्तो जनेश्वरः।
प्रत्युद्ययौ सपत्नीकः पूजाभिर्बहुविस्तरम्॥ १५॥

मूलम्

विभाण्डकं मुनिं दृष्ट्वा सुखमाप्तो जनेश्वरः।
प्रत्युद्ययौ सपत्नीकः पूजाभिर्बहुविस्तरम्॥ १५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिवर विभाण्डकको आया देख राजा सुमतिको बड़ा सुख मिला। वे पूजाकी विस्तृत सामग्री साथ ले पत्नीसहित उनकी अगवानीके लिये गये॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतातिथ्यक्रियं शान्तं कृतासनपरिग्रहम्।
निजासनगतो भूपः प्राञ्जलिर्मुनिमब्रवीत्॥ १६॥

मूलम्

कृतातिथ्यक्रियं शान्तं कृतासनपरिग्रहम्।
निजासनगतो भूपः प्राञ्जलिर्मुनिमब्रवीत्॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मुनिका अतिथि-सत्कार सम्पन्न हो गया और वे शान्तभावसे आसनपर विराजमान हो गये, उस समय अपने आसनपर बैठे हुए भूपालने मुनिसे हाथ जोड़कर कहा॥ १६॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् कृतकृत्योऽद्य त्वदभ्यागमनेन भोः।
सतामागमनं सन्तः प्रशंसन्ति सुखावहम्॥ १७॥

मूलम्

भगवन् कृतकृत्योऽद्य त्वदभ्यागमनेन भोः।
सतामागमनं सन्तः प्रशंसन्ति सुखावहम्॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले—भगवन्! आज आपके शुभागमनसे मैं कृतार्थ हो गया; क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष संतोंके आगमनको सुखदायक बताकर उसकी प्रशंसा करते हैं॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र स्यान्महतां प्रेम तत्र स्युः सर्वसम्पदः।
तेजः कीर्तिर्धनं पुत्र इति प्राहुर्विपश्चितः॥ १८॥

मूलम्

यत्र स्यान्महतां प्रेम तत्र स्युः सर्वसम्पदः।
तेजः कीर्तिर्धनं पुत्र इति प्राहुर्विपश्चितः॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ महापुरुषोंका प्रेम होता है, वहाँ सारी सम्पत्तियाँ अपने-आप उपस्थित हो जाती हैं। वहाँ तेज, कीर्ति, धन और पुत्र—सभी वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं—ऐसा विद्वान् पुरुषोंका कथन है॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वृद्धिं गमिष्यन्ति श्रेयांस्यनुदिनं मुने।
यत्र सन्तः प्रकुर्वन्ति महतीं करुणां प्रभो॥ १९॥

मूलम्

तत्र वृद्धिं गमिष्यन्ति श्रेयांस्यनुदिनं मुने।
यत्र सन्तः प्रकुर्वन्ति महतीं करुणां प्रभो॥ १९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! प्रभो! जहाँ संत-महात्मा बड़ी भारी कृपा करते हैं, वहाँ प्रतिदिन कल्याणमय साधनोंकी वृद्धि होती है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो मूर्ध्नि धारयेद् ब्रह्मन् विप्रपादतलोदकम्।
स स्नातो सर्वतीर्थेषु पुण्यवान् नात्र संशयः॥ २०॥

मूलम्

यो मूर्ध्नि धारयेद् ब्रह्मन् विप्रपादतलोदकम्।
स स्नातो सर्वतीर्थेषु पुण्यवान् नात्र संशयः॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! जो अपने मस्तकपर ब्राह्मणोंका चरणोदक धारण करता है, उस पुण्यात्मा पुरुषने सब तीर्थोंमें स्नान कर लिया—इसमें संशय नहीं है॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम पुत्राश्च दाराश्च सम्पदश्च समर्पिताः।
समाज्ञापय शान्तात्मन् वयं किं करवाणि ते॥ २१॥

मूलम्

मम पुत्राश्च दाराश्च सम्पदश्च समर्पिताः।
समाज्ञापय शान्तात्मन् वयं किं करवाणि ते॥ २१॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तस्वरूप महर्षे! मेरे पुत्र, पत्नी तथा सारी सम्पत्ति आपके चरणोंमें समर्पित है। आज्ञा दीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्थं वदन्तं भूपं तं स निरीक्ष्य मुनीश्वरः।
स्पृशन् करेण राजानं प्रत्युवाचातिहर्षितः॥ २२॥

मूलम्

इत्थं वदन्तं भूपं तं स निरीक्ष्य मुनीश्वरः।
स्पृशन् करेण राजानं प्रत्युवाचातिहर्षितः॥ २२॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी बातें कहते हुए राजा सुमतिकी ओर देखकर मुनीश्वर विभाण्डक बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अपने हाथसे राजाका स्पर्श करते हुए कहा॥ २२॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् यदुक्तं भवता तत्सर्वं त्वत्कुलोचितम्।
विनयावनताः सर्वे परं श्रेयो भजन्ति हि॥ २३॥

मूलम्

राजन् यदुक्तं भवता तत्सर्वं त्वत्कुलोचितम्।
विनयावनताः सर्वे परं श्रेयो भजन्ति हि॥ २३॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले—राजन्! तुमने जो कुछ कहा है, वह सब तुम्हारे कुलके अनुरूप है। जो इस प्रकार विनयसे झुक जाते हैं, वे सब लोग परम कल्याणके भागी होते हैं॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतोऽस्मि तव भूपाल सन्मार्गपरिवर्तिनः।
स्वस्ति तेऽस्तु महाभाग यत्पृच्छामि तदुच्यताम्॥ २४॥

मूलम्

प्रीतोऽस्मि तव भूपाल सन्मार्गपरिवर्तिनः।
स्वस्ति तेऽस्तु महाभाग यत्पृच्छामि तदुच्यताम्॥ २४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! तुम सन्मार्गपर चलनेवाले हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। महाभाग! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमसे जो कुछ पूछता हूँ, उसे बताओ॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिसंतोषकान्यासन् पुराणानि बहून्यपि।
माघे मासि चोद्यतोऽसि रामायणपरायणः॥ २५॥
तव भार्यापि साध्वीयं नित्यं रामपरायणा।
किमर्थमेतद् वृत्तान्तं यथावद् वक्तुमर्हसि॥ २६॥

मूलम्

हरिसंतोषकान्यासन् पुराणानि बहून्यपि।
माघे मासि चोद्यतोऽसि रामायणपरायणः॥ २५॥
तव भार्यापि साध्वीयं नित्यं रामपरायणा।
किमर्थमेतद् वृत्तान्तं यथावद् वक्तुमर्हसि॥ २६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भगवान् श्रीहरिको संतुष्ट करनेवाले बहुत-से पुराण भी थे, जिनका तुम पाठ कर सकते थे, तथापि इस माघमासमें सब प्रकारसे प्रयत्नशील होकर तुम जो रामायणके ही पारायणमें लगे हुए हो तथा तुम्हारी यह साध्वी पत्नी भी सदा जो श्रीरामकी ही आराधनामें रत रहती है, इसका क्या कारण है? यह वृत्तान्त यथावत् -रूपसे मुझे बताओ॥ २५-२६॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुष्व भगवन् सर्वं यत्पृच्छसि वदामि तत्।
आश्चर्यं यद्धि लोकानामावयोश्चरितं मुने॥ २७॥

मूलम्

शृणुष्व भगवन् सर्वं यत्पृच्छसि वदामि तत्।
आश्चर्यं यद्धि लोकानामावयोश्चरितं मुने॥ २७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा—भगवन्! सुनिये, आप जो कुछ पूछते हैं, वह सब मैं बता रहा हूँ। मुने! हम दोनोंका चरित्र सम्पूर्ण जगत् के लिये आश्चर्यजनक है॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमासं पुरा शूद्रो मालतिर्नाम सत्तम।
कुमार्गनिरतो नित्यं सर्वलोकाहिते रतः॥ २८॥

मूलम्

अहमासं पुरा शूद्रो मालतिर्नाम सत्तम।
कुमार्गनिरतो नित्यं सर्वलोकाहिते रतः॥ २८॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधुशिरोमणे! पूर्वजन्ममें मैं मालति नामक शूद्र था। सदा कुमार्गपर ही चलता और सब लोगोंके अहित-साधनमें ही संलग्न रहता था॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिशुनो धर्मविद्वेषी देवद्रव्यापहारकः।
महापातकिसंसर्गी देवद्रव्योपजीवकः॥ २९॥

मूलम्

पिशुनो धर्मविद्वेषी देवद्रव्यापहारकः।
महापातकिसंसर्गी देवद्रव्योपजीवकः॥ २९॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरोंकी चुगली खानेवाला, धर्मद्रोही, देवतासम्बन्धी द्रव्यका अपहरण करनेवाला तथा महापातकियोंके संसर्गमें रहनेवाला था। मैं देव-सम्पत्तिसे ही जीविका चलाता था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोघ्नश्च ब्रह्महा चौरो नित्यं प्राणिवधे रतः।
नित्यं निष्ठुरवक्ता च पापी वेश्यापरायणः॥ ३०॥

मूलम्

गोघ्नश्च ब्रह्महा चौरो नित्यं प्राणिवधे रतः।
नित्यं निष्ठुरवक्ता च पापी वेश्यापरायणः॥ ३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोहत्या, ब्राह्मणहत्या और चोरी करना—यही अपना धंधा था। मैं सदा दूसरे प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता था। प्रतिदिन दूसरोंसे कठोर बातें बोलता, पाप करता और वेश्याओंमें आसक्त रहता था॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किञ्चित् काले स्थितो ह्येवमनादृत्य महद्वचः।
सर्वबन्धुपरित्यक्तो दुःखी वनमुपागमम्॥ ३१॥

मूलम्

किञ्चित् काले स्थितो ह्येवमनादृत्य महद्वचः।
सर्वबन्धुपरित्यक्तो दुःखी वनमुपागमम्॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कुछ कालतक घरमें रहा, फिर बड़े लोगोंकी आज्ञाका उल्लङ्घन करनेके कारण मेरे सभी भाई-बन्धुओंने मुझे त्याग दिया और मैं दुःखी होकर वनमें चला आया॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगमांसाशनं नित्यं तथा मार्गविरोधकृत्।
एकाकी दुःखबहुलो न्यवसं निर्जने वने॥ ३२॥

मूलम्

मृगमांसाशनं नित्यं तथा मार्गविरोधकृत्।
एकाकी दुःखबहुलो न्यवसं निर्जने वने॥ ३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ प्रतिदिन मृगोंका मांस खाकर रहता था और काँटे आदि बिछाकर लोगोंके आने-जानेका मार्ग अवरुद्ध कर देता था। इस तरह अकेला बहुत दुःख भोगता हुआ मैं उस निर्जन वनमें रहने लगा॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकदा क्षुत्परिश्रान्तो निद्राघूर्णः पिपासितः।
वसिष्ठस्याश्रमं दैवादपश्यं निर्जने वने॥ ३३॥

मूलम्

एकदा क्षुत्परिश्रान्तो निद्राघूर्णः पिपासितः।
वसिष्ठस्याश्रमं दैवादपश्यं निर्जने वने॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, मैं भूखा-प्यासा, थका-माँदा, निद्रासे झूमता हुआ एक निर्जन वनमें आया। वहाँ दैवयोगसे वसिष्ठजीके आश्रमपर मेरी दृष्टि पड़ी॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसकारण्डवाकीर्णं तत्समीपे महत्सरः।
पर्यन्ते वनपुष्पौघैश्छादितं तन्मुनीश्वर॥ ३४॥

मूलम्

हंसकारण्डवाकीर्णं तत्समीपे महत्सरः।
पर्यन्ते वनपुष्पौघैश्छादितं तन्मुनीश्वर॥ ३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस आश्रमके निकट एक विशाल सरोवर था, जिसमें हंस और कारण्डव आदि जलपक्षी छा रहे थे। मुनीश्वर! वह सरोवर चारों ओरसे वन्य पुष्प-समूहोंद्वारा आच्छादित था॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपिबं तत्र पानीयं तत्तटे विगतश्रमः।
उन्मूल्य वृक्षमूलानि मया क्षुच्च निवारिता॥ ३५॥

मूलम्

अपिबं तत्र पानीयं तत्तटे विगतश्रमः।
उन्मूल्य वृक्षमूलानि मया क्षुच्च निवारिता॥ ३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जाकर मैंने पानी पिया और उसके तटपर बैठकर अपनी थकावट दूर की। फिर कुछ वृक्षोंकी जड़ें उखाड़कर उनके द्वारा अपनी भूख बुझायी॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठस्याश्रमे तत्र निवासं कृतवानहम्।
शीर्णस्फटिकसंधानं तत्र चाहमकारिषम्॥ ३६॥

मूलम्

वसिष्ठस्याश्रमे तत्र निवासं कृतवानहम्।
शीर्णस्फटिकसंधानं तत्र चाहमकारिषम्॥ ३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठके उस आश्रमके पास ही मैं निवास करने लगा। टूटी-फूटी स्फटिक-शिलाओंको जोड़कर मैंने वहाँ दीवार खड़ी की॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्णैस्तृणैश्च काष्ठैश्च गृहं सम्यक् प्रकल्पितम्।
तत्राहं व्याधसत्त्वस्थो हत्वा बहुविधान् मृगान्॥ ३७॥
आजीविकां च कुर्वाणो वत्सराणां च विंशतिम्।

मूलम्

पर्णैस्तृणैश्च काष्ठैश्च गृहं सम्यक् प्रकल्पितम्।
तत्राहं व्याधसत्त्वस्थो हत्वा बहुविधान् मृगान्॥ ३७॥
आजीविकां च कुर्वाणो वत्सराणां च विंशतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

फिर पत्तों, तिनकों और काष्ठोंद्वारा एक सुन्दर घर बना लिया। उसी घरमें रहकर मैं व्याधोंकी वृत्तिका आश्रय ले नाना प्रकारके मृगोंको मारकर उन्हींके द्वारा बीस वर्षोंतक अपनी जीविका चलाता रहा॥ ३७ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथेयमागता साध्वी विन्ध्यदेशसमुद्भवा॥ ३८॥
निषादकुलसम्भूता नाम्ना कालीति विश्रुता।
बन्धुवर्गैः परित्यक्ता दुःखिता जीर्णविग्रहा॥ ३९॥

मूलम्

अथेयमागता साध्वी विन्ध्यदेशसमुद्भवा॥ ३८॥
निषादकुलसम्भूता नाम्ना कालीति विश्रुता।
बन्धुवर्गैः परित्यक्ता दुःखिता जीर्णविग्रहा॥ ३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मेरी ये साध्वी पत्नी वहाँ मेरे पास आयीं। पूर्वजन्ममें इनका नाम काली था। काली निषादकुलकी कन्या थी और विन्ध्यप्रदेशमें उत्पन्न हुई थी। उसके भाई-बन्धुओंने उसे त्याग दिया था। वह दुःखसे पीड़ित थी। उसका शरीर वृद्ध हो चला था॥ ३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मन् क्षुत्तृट्परिश्रान्ता शोचन्ती भौक्तिकीं क्रियाम्।
दैवयोगात् समायाता भ्रमन्ती विजने वने॥ ४०॥

मूलम्

ब्रह्मन् क्षुत्तृट्परिश्रान्ता शोचन्ती भौक्तिकीं क्रियाम्।
दैवयोगात् समायाता भ्रमन्ती विजने वने॥ ४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! वह भूख-प्याससे शिथिल हो गयी थी और इस सोचमें पड़ी थी कि भोजनका कार्य कैसे चलेगा? दैवयोगसे घूमती-घामती वह उसी निर्जन वनमें आ पहुँची, जिसमें मैं रहता था॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मासे ग्रीष्मे च तापार्त्ता ह्यन्तस्तापप्रपीडिता।
इमां दुःखवतीं दृष्ट्वा जाता मे विपुला घृणा॥ ४१॥

मूलम्

मासे ग्रीष्मे च तापार्त्ता ह्यन्तस्तापप्रपीडिता।
इमां दुःखवतीं दृष्ट्वा जाता मे विपुला घृणा॥ ४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

गर्मीका महीना था। बाहर इसे धूप सता रही थी और भीतर मानसिक संताप अत्यन्त पीड़ा दे रहा था। इस दुःखिनी नारीको देखकर मेरे मनमें बड़ी दया आयी॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मया दत्तं जलं चास्यै मांसं वनफलं तथा।
गतश्रमा तु सा पृष्टा मया ब्रह्मन् यथातथम्॥ ४२॥

मूलम्

मया दत्तं जलं चास्यै मांसं वनफलं तथा।
गतश्रमा तु सा पृष्टा मया ब्रह्मन् यथातथम्॥ ४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने इसे पीनेके लिये जल तथा खानेके लिये मांस और जंगली फल दिये। ब्रह्मन्! काली जब विश्राम कर चुकी, तब मैंने उससे उसका यथावत् वृत्तान्त पूछा॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यवेदयत् स्वकर्माणि तानि शृणु महामुने।
इयं काली तु नाम्ना वै निषादकुलसम्भवा॥ ४३॥

मूलम्

न्यवेदयत् स्वकर्माणि तानि शृणु महामुने।
इयं काली तु नाम्ना वै निषादकुलसम्भवा॥ ४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

महामुने! मेरे पूछनेपर उसने जो अपने जन्म-कर्म निवेदन किये थे, उन्हें बताता हूँ। सुनिये—उसका नाम काली था और वह निषादकुलकी कन्या थी॥ ४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दाम्भिकस्य सुता विद्वन् न्यवसद् विन्ध्यपर्वते।
परस्वहारिणी नित्यं सदा पैशुन्यवादिनी॥ ४४॥

मूलम्

दाम्भिकस्य सुता विद्वन् न्यवसद् विन्ध्यपर्वते।
परस्वहारिणी नित्यं सदा पैशुन्यवादिनी॥ ४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वन्! उसके पिताका नाम दाम्भिक (या दाविक) था। वह उसीकी पुत्री थी और विन्ध्यपर्वतपर निवास करती थी। सदा दूसरोंका धन चुराना और चुगली खाना ही उसका काम था॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्धुवर्गैः परित्यक्ता यतो हतवती पतिम्।
कान्तारे विजने ब्रह्मन् मत्समीपमुपागता॥ ४५॥

मूलम्

बन्धुवर्गैः परित्यक्ता यतो हतवती पतिम्।
कान्तारे विजने ब्रह्मन् मत्समीपमुपागता॥ ४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन उसने अपने पतिकी हत्या कर डाली, इसीलिये भाई-बन्धुओंने उसे घरसे निकाल दिया। ब्रह्मन्! इस तरह परित्यक्ता काली उस दुर्गम एवं निर्जन वनमें मेरे पास आयी थी॥ ४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं स्वकृतं कर्म सर्वं मह्यं न्यवेदयत्।
वसिष्ठस्याश्रमे पुण्ये अहं चेयं च वै मुने॥ ४६॥
दम्पतीभावमाश्रित्य स्थितौ मांसाशिनौ तदा।

मूलम्

इत्येवं स्वकृतं कर्म सर्वं मह्यं न्यवेदयत्।
वसिष्ठस्याश्रमे पुण्ये अहं चेयं च वै मुने॥ ४६॥
दम्पतीभावमाश्रित्य स्थितौ मांसाशिनौ तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने अपनी सारी करतूतें मुझे इसी रूपमें बतायी थीं। मुने! तब वसिष्ठजीके उस पवित्र आश्रमके निकट मैं और काली—दोनों पति-पत्नीका सम्बन्ध स्वीकार करके रहने और मांसाहारसे ही जीवन-निर्वाह करने लगे॥ ४६ १/२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यमार्थे गतौ चैव वसिष्ठस्याश्रमं तदा॥ ४७॥
दृष्ट्वा चैव समाजं च देवर्षीणां च सत्तम।
रामायणपरा विप्रा माघे दृष्टा दिने दिने॥ ४८॥

मूलम्

उद्यमार्थे गतौ चैव वसिष्ठस्याश्रमं तदा॥ ४७॥
दृष्ट्वा चैव समाजं च देवर्षीणां च सत्तम।
रामायणपरा विप्रा माघे दृष्टा दिने दिने॥ ४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन हम दोनों जीविकाके निमित्त कुछ उद्यम करनेके लिये वहाँ वसिष्ठजीके आश्रमपर गये। महात्मन्! वहाँ देवर्षियोंका समाज जुटा हुआ था। वही देखकर हमलोग उधर गये थे। वहाँ माघमासमें प्रतिदिन ब्राह्मणलोग रामायणका पाठ करते दिखायी देते थे॥ ४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराहारौ च विक्रान्तौ क्षुत्पिपासाप्रपीडितौ।
अनिच्छया गतौ तत्र वसिष्ठस्याश्रमं प्रति॥ ४९॥
रामायणकथां श्रोतुं नवाह्ना चैव भक्तितः।
तत्काल एव पञ्चत्वमावयोरभवन्मुने॥ ५०॥

मूलम्

निराहारौ च विक्रान्तौ क्षुत्पिपासाप्रपीडितौ।
अनिच्छया गतौ तत्र वसिष्ठस्याश्रमं प्रति॥ ४९॥
रामायणकथां श्रोतुं नवाह्ना चैव भक्तितः।
तत्काल एव पञ्चत्वमावयोरभवन्मुने॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय हमलोग निराहार थे और पुरुषार्थ करनेमें समर्थ होकर भी भूख-प्याससे कष्ट पा रहे थे। अतः बिना इच्छाके ही वसिष्ठजीके आश्रमपर चले गये थे। फिर लगातार नौ दिनोंतक भक्ति-पूर्वक रामायणकी कथा सुननेके लिये हम दोनों वहाँ जाते रहे। मुने! उसी समय हम दोनोंकी मृत्यु हो गयी॥ ४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा तेन तुष्टात्मा भगवान् मधुसूदनः।
स्वदूतान् प्रेषयामास मदाहरणकारणात्॥ ५१॥

मूलम्

कर्मणा तेन तुष्टात्मा भगवान् मधुसूदनः।
स्वदूतान् प्रेषयामास मदाहरणकारणात्॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमारे उस कर्मसे भगवान् मधुसूदनका मन प्रसन्न हो गया था, अतः उन्होंने हमें ले आनेके लिये दूत भेजे॥ ५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरोप्य मां विमाने तु जग्मुस्ते च परं पदम्।
आवां समीपमापन्नौ देवदेवस्य चक्रिणः॥ ५२॥

मूलम्

आरोप्य मां विमाने तु जग्मुस्ते च परं पदम्।
आवां समीपमापन्नौ देवदेवस्य चक्रिणः॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दूत हम दोनोंको विमानमें बिठाकर भगवान् के परम पद (उत्तम धाम) में ले गये। हम दोनों देवाधिदेव चक्रपाणिके निकट जा पहुँचे*॥ ५२॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ जिस परम पदसे लौटनेका वर्णन है, वह ब्रह्मलोकसे भिन्न कोई उत्तम लोक था, जहाँ भगवान् मधुसूदनके सांनिध्य तथा श्रीरामके दर्शन-सुखका अनुभव होता था, इसे साक्षात् वैकुण्ठ या साकेत नहीं मानना चाहिये; क्योंकि वहाँसे पुनरावृत्ति नहीं होती। अनिच्छासे कथा-श्रवण करनेके कारण उन्हें अपुनरावर्ती लोक नहीं मिला था।
विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्तवन्तौ महाभोगान् यावत्कालं शृणुष्व मे।
युगकोटिसहस्राणि युगकोटिशतानि च॥ ५३॥
उषित्वा रामभवने ब्रह्मलोकमुपागतौ।
तावत्कालं च तत्रापि स्थित्वैन्द्रपदमागतौ॥ ५४॥

मूलम्

भुक्तवन्तौ महाभोगान् यावत्कालं शृणुष्व मे।
युगकोटिसहस्राणि युगकोटिशतानि च॥ ५३॥
उषित्वा रामभवने ब्रह्मलोकमुपागतौ।
तावत्कालं च तत्रापि स्थित्वैन्द्रपदमागतौ॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ हमने जितने समयतक बड़े-बड़े भोग भोगे थे, वह बता रहे हैं। सुनिये—कोटि सहस्र और कोटि शत युगोंतक श्रीरामधाममें निवास करके हमलोग ब्रह्मलोकमें आये। वहाँ भी उतने ही समयतक रहकर हम इन्द्रलोकमें आ गये॥ ५३-५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रापि तावत्कालं च भुक्त्वा भोगाननुत्तमान्।
ततः पृथ्वीं वयं प्राप्ताः क्रमेण मुनिसत्तम॥ ५५॥

मूलम्

तत्रापि तावत्कालं च भुक्त्वा भोगाननुत्तमान्।
ततः पृथ्वीं वयं प्राप्ताः क्रमेण मुनिसत्तम॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ! इन्द्रलोकमें भी उतने ही कालतक परम उत्तम भोग भोगनेके पश्चात् हम क्रमशः इस पृथ्वीपर आये हैं॥ ५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रापि सम्पदतुला रामायणप्रसादतः।
अनिच्छया कृतेनापि प्राप्तमेवंविधं मुने॥ ५६॥

मूलम्

अत्रापि सम्पदतुला रामायणप्रसादतः।
अनिच्छया कृतेनापि प्राप्तमेवंविधं मुने॥ ५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ भी रामायणके प्रसादसे हमें अतुल सम्पत्ति प्राप्त हुई है। मुने! अनिच्छासे रामायणका श्रवण करनेपर भी हमें ऐसा फल प्राप्त हुआ है॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवाह्ना किल श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
भक्तिभावेन धर्मात्मन् जन्ममृत्युजरापहम्॥ ५७॥

मूलम्

नवाह्ना किल श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
भक्तिभावेन धर्मात्मन् जन्ममृत्युजरापहम्॥ ५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्मन्! यदि नौ दिनोंतक भक्ति-भावसे रामायणकी अमृतमयी कथा सुनी जाय तो वह जन्म, जरा और मृत्युका नाश करनेवाली होती है॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवशेनापि यत्कर्म कृतं तु सुमहत्फलम्।
ददाति शृणु विप्रेन्द्र रामायणप्रसादतः॥ ५८॥

मूलम्

अवशेनापि यत्कर्म कृतं तु सुमहत्फलम्।
ददाति शृणु विप्रेन्द्र रामायणप्रसादतः॥ ५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! सुनिये, विवश होकर भी जो कर्म किया जाता है, वह रामायणके प्रसादसे परम महान् फल प्रदान करता है॥ ५८॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत्सर्वं निशम्यासौ विभाण्डको मुनीश्वरः।
अभिनन्द्य महीपालं प्रययौ स्वतपोवनम्॥ ५९॥

मूलम्

एतत्सर्वं निशम्यासौ विभाण्डको मुनीश्वरः।
अभिनन्द्य महीपालं प्रययौ स्वतपोवनम्॥ ५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं—यह सब सुनकर मुनीश्वर विभाण्डक राजा सुमतिका अभिनन्दन करके अपने तपोवनको चले गये॥ ५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्रा देवदेवस्य चक्रिणः।
रामायणकथा चैव कामधेनूपमा स्मृता॥ ६०॥

मूलम्

तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्रा देवदेवस्य चक्रिणः।
रामायणकथा चैव कामधेनूपमा स्मृता॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवरो! अतः आपलोग देवाधिदेव चक्रपाणि भगवान् श्रीहरिकी कथा सुनिये। रामायणकथा कामधेनुके समान अभीष्ट फल देनेवाली बतायी गयी है॥ ६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माघे मासे सिते पक्षे रामायणं प्रयत्नतः।
नवाह्ना किल श्रोतव्यं सर्वधर्मफलप्रदम्॥ ६१॥

मूलम्

माघे मासे सिते पक्षे रामायणं प्रयत्नतः।
नवाह्ना किल श्रोतव्यं सर्वधर्मफलप्रदम्॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

माघमासके शुक्ल पक्षमें प्रयत्नपूर्वक रामायणकी नवाह्नकथा सुननी चाहिये। वह सम्पूर्ण धर्मोंका फल प्रदान करनेवाली है॥ ६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

य इदं पुण्यमाख्यानं सर्वपापप्रणाशनम्।
वाचयेच्छृणुयाद् वापि रामभक्तश्च जायते॥ ६२॥

मूलम्

य इदं पुण्यमाख्यानं सर्वपापप्रणाशनम्।
वाचयेच्छृणुयाद् वापि रामभक्तश्च जायते॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह पवित्र आख्यान समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो इसे बाँचता अथवा सुनता है, वह भगवान् श्रीरामका भक्त होता है॥ ६२॥

अनुवाद (समाप्ति)

इति श्रीस्कन्दपुराणे उत्तरखण्डे नारदसनत्कुमारसंवादे रामायणमाहात्म्ये माघफलानुकीर्तनं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ ३॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके उत्तरखण्डमें नारदसनत्कुमारसंवादके अन्तर्गत रामायणमाहात्म्यके प्रसंगमें माघमासमें रामायणकथाश्रवणके फलका वर्णन नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥ ३॥