भागसूचना
- नारद-सनत्कुमार-संवाद, सुदास या सोमदत्त नामक ब्राह्मणको राक्षसत्वकी प्राप्ति तथा रामायण-कथा-श्रवणद्वारा उससे उद्धार
मूलम् (वचनम्)
ऋषय ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं सनत्कुमाराय देवर्षिर्नारदो मुनिः।
प्रोक्तवान् सकलान् धर्मान् कथं तौ मिलितावुभौ॥ १॥
कस्मिन् क्षेत्रे स्थितौ तात तावुभौ ब्रह्मवादिनौ।
यदुक्तं नारदेनास्मै तत् त्वं ब्रूहि महामुने॥ २॥
मूलम्
कथं सनत्कुमाराय देवर्षिर्नारदो मुनिः।
प्रोक्तवान् सकलान् धर्मान् कथं तौ मिलितावुभौ॥ १॥
कस्मिन् क्षेत्रे स्थितौ तात तावुभौ ब्रह्मवादिनौ।
यदुक्तं नारदेनास्मै तत् त्वं ब्रूहि महामुने॥ २॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियोंने पूछा—महामुने! देवर्षि नारदमुनिने सनत्कुमारजीसे रामायणसम्बन्धी सम्पूर्ण धर्मोंका किस प्रकार वर्णन किया था? उन दोनों ब्रह्मवादी महात्माओंका किस क्षेत्रमें मिलन हुआ था? तात! वे दोनों कहाँ ठहरे थे? नारदजीने उनसे जो कुछ कहा था, वह सब आप हमलोगोंको बताइये॥
मूलम् (वचनम्)
सूत उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सनकाद्या महात्मानो ब्रह्मणस्तनयाः स्मृताः।
निर्ममा निरहंकाराः सर्वे ते ह्यूर्ध्वरेतसः॥ ३॥
मूलम्
सनकाद्या महात्मानो ब्रह्मणस्तनयाः स्मृताः।
निर्ममा निरहंकाराः सर्वे ते ह्यूर्ध्वरेतसः॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूतजीने कहा—मुनिवरो! सनकादि महात्मा भगवान् ब्रह्माजीके पुत्र माने गये हैं। उनमें ममता और अहंकारका तो नाम भी नहीं है। वे सब-के-सब ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) हैं॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां नामानि वक्ष्यामि सनकश्च सनन्दनः।
सनत्कुमारश्च तथा सनातन इति स्मृतः॥ ४॥
मूलम्
तेषां नामानि वक्ष्यामि सनकश्च सनन्दनः।
सनत्कुमारश्च तथा सनातन इति स्मृतः॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं आपलोगोंसे उनके नाम बताता हूँ, सुनिये। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन—ये चारों सनकादि माने गये हैं॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विष्णुभक्ता महात्मानो ब्रह्मध्यानपरायणाः।
सहस्रसूर्यसंकाशाः सत्यवन्तो मुमुक्षवः॥ ५॥
मूलम्
विष्णुभक्ता महात्मानो ब्रह्मध्यानपरायणाः।
सहस्रसूर्यसंकाशाः सत्यवन्तो मुमुक्षवः॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे भगवान् विष्णुके भक्त और महात्मा हैं। सदा ब्रह्मके चिन्तनमें लगे रहते हैं। बड़े सत्यवादी हैं। सहस्रों सूर्योंके समान तेजस्वी एवं मोक्षके अभिलाषी हैं॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकदा ब्रह्मणः पुत्राः सनकाद्या महौजसः।
मेरुशृंगे समाजग्मुर्वीक्षितुं ब्रह्मणः सभाम्॥ ६॥
मूलम्
एकदा ब्रह्मणः पुत्राः सनकाद्या महौजसः।
मेरुशृंगे समाजग्मुर्वीक्षितुं ब्रह्मणः सभाम्॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन वे महातेजस्वी ब्रह्मपुत्र सनकादि ब्रह्माजीकी सभा देखनेके लिये मेरु पर्वतके शिखरपर गये॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गंगां महापुण्यां विष्णुपादोद्भवां नदीम्।
निरीक्ष्य स्नातुमुद्युक्ताः सीताख्यां प्रथितौजसः॥ ७॥
मूलम्
तत्र गंगां महापुण्यां विष्णुपादोद्भवां नदीम्।
निरीक्ष्य स्नातुमुद्युक्ताः सीताख्यां प्रथितौजसः॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई परम पुण्यमयी गंगानदी, जिन्हें सीता भी कहते हैं, बह रही थीं। उनका दर्शन करके वे तेजस्वी महात्मा उनके जलमें स्नान करनेको उद्यत हुए॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे विप्रा देवर्षिर्नारदो मुनिः।
आजगामोच्चरन् नाम हरेर्नारायणादिकम्॥ ८॥
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे विप्रा देवर्षिर्नारदो मुनिः।
आजगामोच्चरन् नाम हरेर्नारायणादिकम्॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणो! इतनेमें ही देवर्षि नारदमुनि भगवान् के नारायण आदि नामोंका उच्चारण करते हुए वहाँ आ पहुँचे॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारायणाच्युतानन्त वासुदेव जनार्दन।
यज्ञेश यज्ञपुरुष राम विष्णो नमोऽस्तु ते॥ ९॥
इत्युच्चरन् हरेर्नाम पावयन्नखिलं जगत्।
आजगाम स्तुवन् गंगां मुनिर्लोकैकपावनीम्॥ १०॥
मूलम्
नारायणाच्युतानन्त वासुदेव जनार्दन।
यज्ञेश यज्ञपुरुष राम विष्णो नमोऽस्तु ते॥ ९॥
इत्युच्चरन् हरेर्नाम पावयन्नखिलं जगत्।
आजगाम स्तुवन् गंगां मुनिर्लोकैकपावनीम्॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे ‘नारायण! अच्युत! अनन्त! वासुदेव! जनार्दन! यज्ञेश! यज्ञपुरुष! राम! विष्णो! आपको नमस्कार है।’ इस प्रकार भगवन्नामका उच्चारण करके सम्पूर्ण जगत् को पवित्र बनाते और एकमात्र लोकपावनी गंगाकी स्तुति करते हुए वहाँ आये॥ ९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथायान्तं समुद्वीक्ष्य सनकाद्या महौजसः।
यथार्हमर्हणं चक्रुर्ववन्दे सोऽपि तान् मुनीन्॥ ११॥
मूलम्
अथायान्तं समुद्वीक्ष्य सनकाद्या महौजसः।
यथार्हमर्हणं चक्रुर्ववन्दे सोऽपि तान् मुनीन्॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें आते देख महातेजस्वी सनकादि मुनियोंने उनकी यथोचित पूजा की तथा नारदजीने भी उन मुनियोंको मस्तक झुकाया॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तत्र सभामध्ये नारायणपरायणम्।
सनत्कुमारः प्रोवाच नारदं मुनिपुंगवम्॥ १२॥
मूलम्
अथ तत्र सभामध्ये नारायणपरायणम्।
सनत्कुमारः प्रोवाच नारदं मुनिपुंगवम्॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वहाँ मुनियोंकी सभामें सनत्कुमारजीने भगवान् नारायणके परम भक्त मुनिवर नारदसे इस प्रकार कहा॥ १२॥
मूलम् (वचनम्)
सनत्कुमार उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वज्ञोऽसि महाप्राज्ञ मुनीशानां च नारद।
हरिभक्तिपरो यस्मात्त्वत्तो नास्त्यपरोऽधिकः॥ १३॥
मूलम्
सर्वज्ञोऽसि महाप्राज्ञ मुनीशानां च नारद।
हरिभक्तिपरो यस्मात्त्वत्तो नास्त्यपरोऽधिकः॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमार बोले—महाप्राज्ञ नारदजी! आप समस्त मुनीश्वरोंमें सर्वज्ञ हैं। सदा श्रीहरिकी भक्तिमें तत्पर रहते हैं, अतः आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येनेदमखिलं जातं जगत् स्थावरजंगमम्।
गंगा पादोद्भवा यस्य कथं स ज्ञायते हरिः॥ १४॥
अनुग्राह्योऽस्मि यदि ते तत्त्वतो वक्तुमर्हसि।
मूलम्
येनेदमखिलं जातं जगत् स्थावरजंगमम्।
गंगा पादोद्भवा यस्य कथं स ज्ञायते हरिः॥ १४॥
अनुग्राह्योऽस्मि यदि ते तत्त्वतो वक्तुमर्हसि।
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैं पूछता हूँ, जिनसे समस्त चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई है तथा ये गंगाजी जिनके चरणोंसे प्रकट हुई हैं, उन श्रीहरिके स्वरूपका ज्ञान कैसे होता है? यदि आपकी हमलोगोंपर कृपा हो तो हमारे इस प्रश्नका यथार्थरूपसे विवेचन कीजिये॥ १४ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमः पराय देवाय परात्परतराय च॥ १५॥
परात्परनिवासाय सगुणायागुणाय च।
मूलम्
नमः पराय देवाय परात्परतराय च॥ १५॥
परात्परनिवासाय सगुणायागुणाय च।
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—जो परसे भी परतर हैं, उन परमदेव श्रीरामको नमस्कार है। जिनका निवास-स्थान (परमधाम) उत्कृष्टसे भी उत्कृष्ट है तथा जो सगुण और निर्गुणरूप हैं, उन श्रीरामको मेरा नमस्कार है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानाज्ञानस्वरूपाय धर्माधर्मस्वरूपिणे॥ १६॥
विद्याविद्यास्वरूपाय स्वस्वरूपाय ते नमः।
मूलम्
ज्ञानाज्ञानस्वरूपाय धर्माधर्मस्वरूपिणे॥ १६॥
विद्याविद्यास्वरूपाय स्वस्वरूपाय ते नमः।
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान-अज्ञान, धर्म-अधर्म तथा विद्या और अविद्या—ये सब जिनके अपने ही स्वरूप हैं तथा जो सबके आत्मरूप हैं, उन आप परमेश्वरको नमस्कार है॥ १६ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो दैत्यहन्ता नरकान्तकश्च
भुजाग्रमात्रेण च धर्मगोप्ता॥ १७॥
भूभारसंघातविनोदकामं
नमामि देवं रघुवंशदीपम्।
मूलम्
यो दैत्यहन्ता नरकान्तकश्च
भुजाग्रमात्रेण च धर्मगोप्ता॥ १७॥
भूभारसंघातविनोदकामं
नमामि देवं रघुवंशदीपम्।
अनुवाद (हिन्दी)
जो दैत्योंका विनाश और नरकका अन्त करनेवाले हैं, जो अपने हाथके संकेतमात्रसे अथवा अपनी भुजाओंके बलसे धर्मकी रक्षा करते हैं, पृथ्वीके भारका विनाश जिनका मनोरञ्जनमात्र है और जो उस मनोरञ्जनकी सदा अभिलाषा रखते हैं, उन रघुकुलदीप श्रीरामदेवको मैं नमस्कार करता हूँ॥ १७ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आविर्भूतश्चतुर्द्धा यः कपिभिः परिवारितः॥ १८॥
हतवान् राक्षसानीकं रामं दाशरथिं भजे।
मूलम्
आविर्भूतश्चतुर्द्धा यः कपिभिः परिवारितः॥ १८॥
हतवान् राक्षसानीकं रामं दाशरथिं भजे।
अनुवाद (हिन्दी)
जो एक होकर भी चार स्वरूपोंमें अवतीर्ण होते हैं, जिन्होंने वानरोंको साथ लेकर राक्षससेनाका संहार किया है, उन दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्रजीका मैं भजन करता हूँ॥ १८ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमादीन्यनेकानि चरितानि महात्मनः॥ १९॥
तेषां नामानि संख्यातुं शक्यन्ते नाब्दकोटिभिः।
मूलम्
एवमादीन्यनेकानि चरितानि महात्मनः॥ १९॥
तेषां नामानि संख्यातुं शक्यन्ते नाब्दकोटिभिः।
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीरामके ऐसे-ऐसे अनेक चरित्र हैं, जिनके नाम करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं गिनाये जा सकते हैं॥ १९ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिमानं तु यन्नाम्नः पारं गन्तुं न शक्यते॥ २०॥
मनुभिश्च मुनीन्द्रैश्च कथं तं क्षुल्लको भजेत्।
मूलम्
महिमानं तु यन्नाम्नः पारं गन्तुं न शक्यते॥ २०॥
मनुभिश्च मुनीन्द्रैश्च कथं तं क्षुल्लको भजेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके नामकी महिमाका मनु और मुनीश्वर भी पार नहीं पा सकते, वहाँ मेरे-जैसे क्षुद्र जीवकी पहुँच कैसे हो सकती है॥ २० १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नाम्नः स्मरणेनापि महापातकिनोऽपि ये॥ २१॥
पावनत्वं प्रपद्यन्ते कथं स्तोष्यामि क्षुल्लधीः।
मूलम्
यन्नाम्नः स्मरणेनापि महापातकिनोऽपि ये॥ २१॥
पावनत्वं प्रपद्यन्ते कथं स्तोष्यामि क्षुल्लधीः।
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके नामके स्मरणमात्रसे बड़े-बड़े पातकी भी पावन बन जाते हैं, उन परमात्माका स्तवन मेरे-जैसा तुच्छ बुद्धिवाला प्राणी कैसे कर सकता है॥ २१ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामायणपरा ये तु घोरे कलियुगे द्विजाः॥ २२॥
त एव कृतकृत्याश्च तेषां नित्यं नमोऽस्तु ते।
मूलम्
रामायणपरा ये तु घोरे कलियुगे द्विजाः॥ २२॥
त एव कृतकृत्याश्च तेषां नित्यं नमोऽस्तु ते।
अनुवाद (हिन्दी)
जो द्विज घोर कलियुगमें रामायण-कथाका आश्रय लेते हैं, वे ही कृतकृत्य हैं। उनके लिये तुम्हें सदा नमस्कार करना चाहिये॥ २२ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्जे मासि सिते पक्षे चैत्रे माघे तथैव च॥ २३॥
नवाह्ना किल श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
मूलम्
ऊर्जे मासि सिते पक्षे चैत्रे माघे तथैव च॥ २३॥
नवाह्ना किल श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमारजी! भगवान् की महिमाको जाननेके लिये कार्तिक, माघ और चैत्रके शुक्ल पक्षमें रामायणकी अमृतमयी कथाका नवाह श्रवण करना चाहिये॥ २३ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौतमशापतः प्राप्तः सुदासो राक्षसीं तनुम्॥ २४॥
रामायणप्रभावेण विमुक्तिं प्राप्तवानसौ।
मूलम्
गौतमशापतः प्राप्तः सुदासो राक्षसीं तनुम्॥ २४॥
रामायणप्रभावेण विमुक्तिं प्राप्तवानसौ।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण सुदास गौतमके शापसे राक्षस-शरीरको प्राप्त हो गये थे; परंतु रामायणके प्रभावसे ही उन्हें उस शापसे छुटकारा मिला था॥ २४ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
सनत्कुमार उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामायणं केन प्रोक्तं सर्वधर्मफलप्रदम्॥ २५॥
प्राप्तः कथं गौतमेन सौदासो मुनिसत्तम।
रामायणप्रभावेण कथं भूयो विमोक्षितः॥ २६॥
मूलम्
रामायणं केन प्रोक्तं सर्वधर्मफलप्रदम्॥ २५॥
प्राप्तः कथं गौतमेन सौदासो मुनिसत्तम।
रामायणप्रभावेण कथं भूयो विमोक्षितः॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
सनत्कुमारने पूछा—मुनिश्रेष्ठ! सम्पूर्ण धर्मोंका फल देनेवाली रामायणकथाका किसने वर्णन किया है? सौदासको गौतमद्वारा कैसे शाप प्राप्त हुआ? फिर वे रामायणके प्रभावसे किस प्रकार शापमुक्त हुए थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुग्राह्योऽस्मि यदि ते तत्त्वतो वक्तुमर्हसि।
सर्वमेतदशेषेण मुने नो वक्तुमर्हसि॥ २७॥
शृण्वतां वदतां चैव कथा पापविनाशिनी।
मूलम्
अनुग्राह्योऽस्मि यदि ते तत्त्वतो वक्तुमर्हसि।
सर्वमेतदशेषेण मुने नो वक्तुमर्हसि॥ २७॥
शृण्वतां वदतां चैव कथा पापविनाशिनी।
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! यदि आपका हमलोगोंपर अनुग्रह हो तो सब कुछ ठीक-ठीक बताइये। इन सारी बातोंसे हमें अवगत कराइये; क्योंकि भगवान् की कथा वक्ता और श्रोता दोनोंके पापोंका नाश करनेवाली है॥ २७ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु रामायणं विप्र यद् वाल्मीकिमुखोद्गतम्॥ २८॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
मूलम्
शृणु रामायणं विप्र यद् वाल्मीकिमुखोद्गतम्॥ २८॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा—ब्रह्मन्! रामायणका प्रादुर्भाव महर्षि वाल्मीकिके मुखसे हुआ है। तुम उसीको श्रवण करो। रामायणकी अमृतमयी कथाका श्रवण नौ दिनोंमें करना चाहिये॥ २८ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्ते कृतयुगे विप्रो धर्मकर्मविशारदः॥ २९॥
सोमदत्त इति ख्यातो नाम्ना धर्मपरायणः।
मूलम्
आस्ते कृतयुगे विप्रो धर्मकर्मविशारदः॥ २९॥
सोमदत्त इति ख्यातो नाम्ना धर्मपरायणः।
अनुवाद (हिन्दी)
सत्ययुगमें एक ब्राह्मण थे, जिन्हें धर्म-कर्मका विशेष ज्ञान था। उनका नाम था सोमदत्त। वे सदा धर्मके पालनमें ही तत्पर रहते थे॥ २९ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रस्तु गौतमाख्येन मुनिना ब्रह्मवादिना॥ ३०॥
श्रावितः सर्वधर्मांश्च गंगातीरे मनोरमे।
पुराणशास्त्रकथनैस्तेनासौ बोधितोऽपि च॥ ३१॥
श्रुतवान् सर्वधर्मान् वै तेनोक्तानखिलानपि।
मूलम्
विप्रस्तु गौतमाख्येन मुनिना ब्रह्मवादिना॥ ३०॥
श्रावितः सर्वधर्मांश्च गंगातीरे मनोरमे।
पुराणशास्त्रकथनैस्तेनासौ बोधितोऽपि च॥ ३१॥
श्रुतवान् सर्वधर्मान् वै तेनोक्तानखिलानपि।
अनुवाद (हिन्दी)
(वे ब्राह्मण सौदास नामसे भी विख्यात थे।) ब्राह्मणने ब्रह्मवादी गौतम मुनिसे गंगाजीके मनोरम तटपर सम्पूर्ण धर्मोंका उपदेश सुना था। गौतमने पुराणों और शास्त्रोंकी कथाओंद्वारा उन्हें तत्त्वका ज्ञान कराया था। सौदासने गौतमसे उनके बताये हुए सम्पूर्ण धर्मोंका श्रवण किया था॥ ३०-३१ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कदाचित् परमेशस्य परिचर्यापरोऽभवत्॥ ३२॥
उपस्थितायापि तस्मै प्रणामं न चकार सः।
मूलम्
कदाचित् परमेशस्य परिचर्यापरोऽभवत्॥ ३२॥
उपस्थितायापि तस्मै प्रणामं न चकार सः।
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिनकी बात है, सौदास परमेश्वर शिवकी आराधनामें लगे हुए थे। उसी समय वहाँ उनके गुरु गौतमजी आ पहुँचे; परंतु सौदासने अपने निकट आये हुए गुरुको भी उठकर प्रणाम नहीं किया॥ ३२ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु शान्तो महाबुद्धिर्गौतमस्तेजसां निधिः॥ ३३॥
शास्त्रोदितानि कर्माणि करोति स मुदं ययौ।
मूलम्
स तु शान्तो महाबुद्धिर्गौतमस्तेजसां निधिः॥ ३३॥
शास्त्रोदितानि कर्माणि करोति स मुदं ययौ।
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् गौतम तेजकी निधि थे, वे शिष्यके बर्तावसे रुष्ट न होकर शान्त ही बने रहे। उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरा शिष्य सौदास शास्त्रोक्त कर्मोंका अनुष्ठान करता है॥ ३३ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्त्वर्चितो महादेवः शिवः सर्वजगद्गुरुः॥ ३४॥
गुर्ववज्ञाकृतं पापं राक्षसत्वे नियुक्तवान्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेषु च कोविदः॥ ३५॥
मूलम्
यस्त्वर्चितो महादेवः शिवः सर्वजगद्गुरुः॥ ३४॥
गुर्ववज्ञाकृतं पापं राक्षसत्वे नियुक्तवान्।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा विनयेषु च कोविदः॥ ३५॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु सौदासने जिनकी आराधना की थी, वे सम्पूर्ण जगत् के गुरु महादेव शिव गुरुकी अवहेलनासे होनेवाले पापको न सह सके। उन्होंने सौदासको राक्षसकी योनिमें जानेका शाप दे दिया। तब विनयकलाकोविद ब्राह्मणने हाथ जोड़कर गौतमसे कहा॥ ३४-३५॥
मूलम् (वचनम्)
विप्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वदर्शिन् सुरेश्वर।
क्षमस्व भगवन् सर्वमपराधः कृतो मया॥ ३६॥
मूलम्
भगवन् सर्वधर्मज्ञ सर्वदर्शिन् सुरेश्वर।
क्षमस्व भगवन् सर्वमपराधः कृतो मया॥ ३६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण बोले—सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता! सर्वदर्शी! सुरेश्वर! भगवन्! मैंने जो अपराध किया है, वह सब आप क्षमा कीजिये॥ ३६॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्जे मासे सिते पक्षे रामायणकथामृतम्।
नवाह्ना चैव श्रोतव्यं भक्तिभावेन सादरम्॥ ३७॥
नात्यन्तिकं भवेदेतद् द्वादशाब्दं भविष्यति।
मूलम्
ऊर्जे मासे सिते पक्षे रामायणकथामृतम्।
नवाह्ना चैव श्रोतव्यं भक्तिभावेन सादरम्॥ ३७॥
नात्यन्तिकं भवेदेतद् द्वादशाब्दं भविष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमने कहा—वत्स! कार्तिक मासके शुक्लपक्षमें तुम रामायणकी अमृतमयी कथाको भक्तिभावसे आदरपूर्वक श्रवण करो। इस कथाको नौ दिनोंमें सुनना चाहिये। ऐसा करनेसे यह शाप अधिक दिनोंतक नहीं रहेगा। केवल बारह वर्षोंतक ही रह सकेगा॥ ३७ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
विप्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन रामायणं प्रोक्तं चरितानि तु कस्य वै॥ ३८॥
एतत् सर्वं महाप्राज्ञ संक्षेपाद् वक्तुमर्हसि।
मनसा प्रीतिमापन्नो ववन्दे चरणौ गुरोः॥ ३९॥
मूलम्
केन रामायणं प्रोक्तं चरितानि तु कस्य वै॥ ३८॥
एतत् सर्वं महाप्राज्ञ संक्षेपाद् वक्तुमर्हसि।
मनसा प्रीतिमापन्नो ववन्दे चरणौ गुरोः॥ ३९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने पूछा—रामायणकी कथा किसने कही है? तथा उसमें किसके चरित्रोंका वर्णन किया गया है? महामते! यह सब संक्षेपसे बतानेकी कृपा करें। यों कहकर मन-ही-मन प्रसन्न हो सौदासने गुरुके चरणोंमें प्रणाम किया॥ ३८-३९॥
मूलम् (वचनम्)
गौतम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु रामायणं विप्र वाल्मीकिमुनिना कृतम्।
येन रामावतारेण राक्षसा रावणादयः॥ ४०॥
हतास्तु देवकार्यं हि चरितं तस्य तच्छृणु।
कार्त्तिके च सिते पक्षे कथा रामायणस्य तु॥ ४१॥
नवमेऽहनि श्रोतव्या सर्वपापप्रणाशिनी।
मूलम्
शृणु रामायणं विप्र वाल्मीकिमुनिना कृतम्।
येन रामावतारेण राक्षसा रावणादयः॥ ४०॥
हतास्तु देवकार्यं हि चरितं तस्य तच्छृणु।
कार्त्तिके च सिते पक्षे कथा रामायणस्य तु॥ ४१॥
नवमेऽहनि श्रोतव्या सर्वपापप्रणाशिनी।
अनुवाद (हिन्दी)
गौतमने कहा—ब्रह्मन्! सुनो। रामायण-काव्यका निर्माण वाल्मीकि मुनिने किया है। जिन भगवान् श्रीरामने अवतार ग्रहण करके रावण आदि राक्षसोंका संहार किया और देवताओंका कार्य सँवारा था, उन्हींके चरित्रका रामायण-काव्यमें वर्णन है। तुम उसीका श्रवण करो। कार्तिकमासके शुक्लपक्षमें नवें दिन अर्थात् प्रतिपदासे नवमीतक रामायणकी कथा सुननी चाहिये। वह समस्त पापोंका नाश करनेवाली है॥ ४०-४१ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा चार्थसम्पन्नो गौतमः स्वाश्रमं ययौ॥ ४२॥
विप्रोऽपि दुःखमापन्नो राक्षसीं तनुमाश्रितः।
मूलम्
इत्युक्त्वा चार्थसम्पन्नो गौतमः स्वाश्रमं ययौ॥ ४२॥
विप्रोऽपि दुःखमापन्नो राक्षसीं तनुमाश्रितः।
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर पूर्णकाम गौतम ऋषि अपने आश्रमको चले गये। इधर सोमदत्त या सुदास नामक ब्राह्मणने दुःखमग्न होकर राक्षस-शरीरका आश्रय लिया॥ ४२ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्पीडितः पिपासार्त्तो नित्यं क्रोधपरायणः॥ ४३॥
कृष्णक्षपाद्युतिर्भीमो बभ्राम विजने वने।
मूलम्
क्षुत्पीडितः पिपासार्त्तो नित्यं क्रोधपरायणः॥ ४३॥
कृष्णक्षपाद्युतिर्भीमो बभ्राम विजने वने।
अनुवाद (हिन्दी)
वे सदा भूख-प्याससे पीड़ित तथा क्रोधके वशीभूत रहते थे। उनके शरीरका रंग कृष्ण पक्षकी रातके समान काला था। वे भयानक राक्षस होकर निर्जन वनमें भ्रमण करने लगे॥ ४३ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगांश्च विविधांस्तत्र मनुष्यांश्च सरीसृपान्॥ ४४॥
विहगान् प्लवगांश्चैव प्रसभात्तानभक्षयत्।
मूलम्
मृगांश्च विविधांस्तत्र मनुष्यांश्च सरीसृपान्॥ ४४॥
विहगान् प्लवगांश्चैव प्रसभात्तानभक्षयत्।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ वे नाना प्रकारके पशुओं, मनुष्यों, साँप-बिच्छू आदि जन्तुओं, पक्षियों और वानरोंको बलपूर्वक पकड़कर खा जाते थे॥ ४४ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थिभिर्बहुभिर्विप्राः पीतरक्तकलेवरैः॥ ४५॥
रक्तादप्रेतकैश्चैव तेनासीद् भूर्भयंकरी।
मूलम्
अस्थिभिर्बहुभिर्विप्राः पीतरक्तकलेवरैः॥ ४५॥
रक्तादप्रेतकैश्चैव तेनासीद् भूर्भयंकरी।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षियो! उस राक्षसके द्वारा यह पृथ्वी बहुत-सी हड्डियों तथा लाल-पीले शरीरवाले रक्तपायी प्रेतोंसे परिपूर्ण हो अत्यन्त भयंकर दिखायी देने लगी॥ ४५ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋतुत्रये स पृथिवीं शतयोजनविस्तराम्॥ ४६॥
कृत्वातिदुःखितां पश्चाद्वनान्तरमगात् पुनः।
मूलम्
ऋतुत्रये स पृथिवीं शतयोजनविस्तराम्॥ ४६॥
कृत्वातिदुःखितां पश्चाद्वनान्तरमगात् पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
छः महीनेमें ही सौ योजन विस्तृत भूभागको अत्यन्त दुःखित करके वह राक्षस पुनः दूसरे किसी वनमें चला गया॥ ४६ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रापि कृतवान् नित्यं नरमांसाशनं तदा॥ ४७॥
जगाम नर्मदातीरे सर्वलोकभयंकरः।
मूलम्
तत्रापि कृतवान् नित्यं नरमांसाशनं तदा॥ ४७॥
जगाम नर्मदातीरे सर्वलोकभयंकरः।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ भी वह प्रतिदिन नरमांसका भोजन करता रहा। सम्पूर्ण लोकोंके मनमें भय उत्पन्न करनेवाला वह राक्षस घूमता-घामता नर्मदाजीके तटपर जा पहुँचा॥ ४७ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः कश्चिद् विप्रोऽतिधार्मिकः॥ ४८॥
कलिंगदेशसम्भूतो नाम्ना गर्ग इति स्मृतः।
मूलम्
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः कश्चिद् विप्रोऽतिधार्मिकः॥ ४८॥
कलिंगदेशसम्भूतो नाम्ना गर्ग इति स्मृतः।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय कोई अत्यन्त धर्मात्मा ब्राह्मण उधर आ निकला। उसका जन्म कलिंगदेशमें हुआ था। लोगोंमें वह गर्ग नामसे विख्यात था॥ ४८ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन् गंगाजलं स्कन्धे स्तुवन् विश्वेश्वरं प्रभुम्॥ ४९॥
गायन् नामानि रामस्य समायातोऽतिहर्षितः।
मूलम्
वहन् गंगाजलं स्कन्धे स्तुवन् विश्वेश्वरं प्रभुम्॥ ४९॥
गायन् नामानि रामस्य समायातोऽतिहर्षितः।
अनुवाद (हिन्दी)
कंधेपर गंगाजल लिये भगवान् विश्वनाथकी स्तुति तथा श्रीरामके नामोंका गान करता हुआ वह ब्राह्मण बड़े हर्ष और उत्साहमें भरकर उस पुण्य प्रदेशमें आया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमायान्तं मुनिं दृष्ट्वा सुदासो नाम राक्षसः॥ ५०॥
प्राप्तो नः पारणेत्युक्त्वा भुजावुद्यम्य तं ययौ।
तेन कीर्तितनामानि श्रुत्वा दूरे व्यवस्थितः॥ ५१॥
अशक्तस्तं द्विजं हन्तुमिदमूचे स राक्षसः।
मूलम्
तमायान्तं मुनिं दृष्ट्वा सुदासो नाम राक्षसः॥ ५०॥
प्राप्तो नः पारणेत्युक्त्वा भुजावुद्यम्य तं ययौ।
तेन कीर्तितनामानि श्रुत्वा दूरे व्यवस्थितः॥ ५१॥
अशक्तस्तं द्विजं हन्तुमिदमूचे स राक्षसः।
अनुवाद (हिन्दी)
गर्ग मुनिको आते देख राक्षस सुदास बोल उठा, ‘हमें भोजन प्राप्त हो गया।’ ऐसा कहकर अपनी दोनों भुजाओंको ऊपर उठाये हुए वह मुनिकी ओर चला;परंतु उनके द्वारा उच्चारित होनेवाले भगवन्नामोंको सुनकर वह दूर ही खड़ा रहा। उन ब्रह्मर्षिको मारनेमें असमर्थ होकर राक्षस उनसे इस प्रकार बोला॥ ५०-५१ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
राक्षस उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो भद्र महाभाग नमस्तुभ्यं महात्मने॥ ५२॥
नामस्मरणमात्रेण राक्षसा अपि दूरगाः।
मया प्रभक्षिताः पूर्वं विप्राः कोटिसहस्रशः॥ ५३॥
मूलम्
अहो भद्र महाभाग नमस्तुभ्यं महात्मने॥ ५२॥
नामस्मरणमात्रेण राक्षसा अपि दूरगाः।
मया प्रभक्षिताः पूर्वं विप्राः कोटिसहस्रशः॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसने कहा—यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है! भद्र! महाभाग! आप महात्माको नमस्कार है। आप जो भगवन्नामोंका स्मरण कर रहे हैं, इतनेसे ही राक्षस भी दूर भाग जाते हैं। मैंने पहले कोटि सहस्र ब्राह्मणोंका भक्षण किया है॥ ५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामप्रावरणं विप्र रक्षति त्वां महाभयात्।
नामस्मरणमात्रेण राक्षसा अपि भो वयम्॥ ५४॥
परां शान्तिं समापन्ना महिमा कोऽच्युतस्य हि।
मूलम्
नामप्रावरणं विप्र रक्षति त्वां महाभयात्।
नामस्मरणमात्रेण राक्षसा अपि भो वयम्॥ ५४॥
परां शान्तिं समापन्ना महिमा कोऽच्युतस्य हि।
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! आपके पास जो नामरूपी कवच है, वही राक्षसोंके महान् भयसे आपकी रक्षा करता है। आपके द्वारा किये गये नामस्मरणमात्रसे हम राक्षसोंको भी परम शान्ति प्राप्त हो गयी। यह भगवान् अच्युतकी कैसी महिमा है॥ ५४ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा त्वं महाभाग रागादिरहितो द्विज॥ ५५॥
रामकथाप्रभावेण पाह्यस्मात् पातकाधमात्।
मूलम्
सर्वथा त्वं महाभाग रागादिरहितो द्विज॥ ५५॥
रामकथाप्रभावेण पाह्यस्मात् पातकाधमात्।
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग ब्राह्मण! आप श्रीरामकथाके प्रभावसे सर्वथा राग आदि दोषोंसे रहित हो गये हैं। अतः आप मुझे इस अधम पातकसे बचाइये॥ ५५ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर्ववज्ञा मया पूर्वं कृता च मुनिसत्तम॥ ५६॥
कृतश्चानुग्रहः पश्चाद् गुरुणोक्तमिदं वचः।
मूलम्
गुर्ववज्ञा मया पूर्वं कृता च मुनिसत्तम॥ ५६॥
कृतश्चानुग्रहः पश्चाद् गुरुणोक्तमिदं वचः।
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिश्रेष्ठ! मैंने पूर्वकालमें अपने गुरुकी अवहेलना की थी। फिर गुरुजीने मुझपर अनुग्रह किया और यह बात कही॥ ५६ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाल्मीकिमुनिना पूर्वं कथा रामायणस्य च॥ ५७॥
ऊर्जे मासे सिते पक्षे श्रोतव्या च प्रयत्नतः।
मूलम्
वाल्मीकिमुनिना पूर्वं कथा रामायणस्य च॥ ५७॥
ऊर्जे मासे सिते पक्षे श्रोतव्या च प्रयत्नतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालमें वाल्मीकि मुनिने जो रामायणकी कथा कही है, उसका कार्तिकमासके शुक्ल पक्षमें प्रयत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये’॥ ५७ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुणापि पुनः प्रोक्तं रम्यं तु शुभदं वचः॥ ५८॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
मूलम्
गुरुणापि पुनः प्रोक्तं रम्यं तु शुभदं वचः॥ ५८॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं रामायणकथामृतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहकर गुरुदेवने पुनः यह सुन्दर एवं शुभदायक वचन कहा—‘रामायणकी अमृतमयी कथा नौ दिनमें सुननी चाहिये’॥ ५८ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् ब्रह्मन् महाभाग सर्वशास्त्रार्थकोविद॥ ५९॥
कथाश्रवणमात्रेण पाह्यस्मात् पापकर्मणः।
मूलम्
तस्माद् ब्रह्मन् महाभाग सर्वशास्त्रार्थकोविद॥ ५९॥
कथाश्रवणमात्रेण पाह्यस्मात् पापकर्मणः।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वको जाननेवाले महाभाग ब्राह्मण! आप मुझे रामायणकथा सुनाकर इस पापकर्मसे मेरी रक्षा कीजिये॥ ५९ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामायणं ख्यातं राममाहात्म्यमुत्तमम्॥ ६०॥
निशम्य विस्मयाविष्टो बभूव द्विजसत्तमः।
ततो विप्रः कृपाविष्टो रामनामपरायणः॥ ६१॥
सुदासराक्षसं नाम चेदं वाक्यमथाब्रवीत्।
मूलम्
ततो रामायणं ख्यातं राममाहात्म्यमुत्तमम्॥ ६०॥
निशम्य विस्मयाविष्टो बभूव द्विजसत्तमः।
ततो विप्रः कृपाविष्टो रामनामपरायणः॥ ६१॥
सुदासराक्षसं नाम चेदं वाक्यमथाब्रवीत्।
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—उस समय वहाँ राक्षसके मुखसे रामायणका परिचय तथा श्रीरामके उत्तम माहात्म्यका वर्णन सुनकर द्विजश्रेष्ठ गर्ग आश्चर्यचकित हो उठे। श्रीरामका नाम ही उनके जीवनका अवलम्ब था। वे ब्राह्मणदेवता उस राक्षसके प्रति दयासे द्रवित हो गये और सुदाससे इस प्रकार बोले॥ ६०-६१ १/२॥
मूलम् (वचनम्)
विप्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसेन्द्र महाभाग मतिस्ते विमलाभवत्॥ ६२॥
अस्मिन्नूर्जे सिते पक्षे रामायणकथां शृणु।
शृणु त्वं राममाहात्म्यं रामभक्तिपरायण॥ ६३॥
मूलम्
राक्षसेन्द्र महाभाग मतिस्ते विमलाभवत्॥ ६२॥
अस्मिन्नूर्जे सिते पक्षे रामायणकथां शृणु।
शृणु त्वं राममाहात्म्यं रामभक्तिपरायण॥ ६३॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा—महाभाग! राक्षसराज! तुम्हारी बुद्धि निर्मल हो गयी है। इस समय कार्तिकमासका शुक्ल पक्ष चल रहा है। इसमें रामायणकी कथा सुनो। रामभक्तिपरायण राक्षस! तुम श्रीरामचन्द्रजीके माहात्म्यको श्रवण करो॥ ६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामध्यानपराणां च कः समर्थः प्रबाधितुम्।
रामभक्तिपरो यत्र तत्र ब्रह्मा हरिः शिवः॥ ६४॥
तत्र देवाश्च सिद्धाश्च रामायणपरा नराः।
मूलम्
रामध्यानपराणां च कः समर्थः प्रबाधितुम्।
रामभक्तिपरो यत्र तत्र ब्रह्मा हरिः शिवः॥ ६४॥
तत्र देवाश्च सिद्धाश्च रामायणपरा नराः।
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले मनुष्योंको बाधा पहुँचानेमें कौन समर्थ हो सकता है। जहाँ श्रीरामका भक्त है, वहाँ ब्रह्मा, विष्णु और शिव विराजमान हैं। वहीं देवता, सिद्ध तथा रामायणका आश्रय लेनेवाले मनुष्य हैं॥ ६४ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादूर्जे सिते पक्षे रामायणकथां शृणु॥ ६५॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं सावधानः सदा भव।
मूलम्
तस्मादूर्जे सिते पक्षे रामायणकथां शृणु॥ ६५॥
नवाह्ना खलु श्रोतव्यं सावधानः सदा भव।
अनुवाद (हिन्दी)
अतः इस कार्तिकमासके शुक्ल पक्षमें तुम रामायणकी कथा सुनो। नौ दिनोंतक इस कथाको सुननेका विधान है। अतः तुम सदा सावधान रहो॥ ६५ १/२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा कथयामास रामायणकथां मुनिः॥ ६६॥
कथाश्रवणमात्रेण राक्षसत्वमपाकृतम्।
विसृज्य राक्षसं भावमभवद् देवतोपमः॥ ६७॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशो नारायणसमप्रभः।
शङ्खचक्रगदापाणिर्हरेः सद्म जगाम सः॥ ६८॥
स्तुवन् तं ब्राह्मणं सम्यग् जगाम हरिमन्दिरम्॥ ६९॥
मूलम्
इत्युक्त्वा कथयामास रामायणकथां मुनिः॥ ६६॥
कथाश्रवणमात्रेण राक्षसत्वमपाकृतम्।
विसृज्य राक्षसं भावमभवद् देवतोपमः॥ ६७॥
कोटिसूर्यप्रतीकाशो नारायणसमप्रभः।
शङ्खचक्रगदापाणिर्हरेः सद्म जगाम सः॥ ६८॥
स्तुवन् तं ब्राह्मणं सम्यग् जगाम हरिमन्दिरम्॥ ६९॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर गर्ग मुनिने उसे रामायणकी कथा सुनायी। कथा सुनते ही उसका राक्षसत्व दूर हो गया। राक्षस-भावका परित्याग करके वह देवताओंके समान सुन्दर, करोड़ों सूर्योंके समान तेजस्वी और भगवान् नारायणके समान कान्तिमान् हो गया। अपनी चार भुजाओंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म लिये वह श्रीहरिके वैकुण्ठधाममें चला गया। ब्राह्मण गर्ग मुनिकी भूरि-भूरि प्रशंसा करता हुआ वह भगवान् के उत्तम धाममें जा पहुँचा॥ ६६—६९॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्रा रामायणकथामृतम्।
स तस्य महिमा तत्र ऊर्जे मासि च कीर्त्यते॥ ७०॥
मूलम्
तस्माच्छृणुध्वं विप्रेन्द्रा रामायणकथामृतम्।
स तस्य महिमा तत्र ऊर्जे मासि च कीर्त्यते॥ ७०॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं—विप्रवरो! अतः आपलोग भी रामायणकी अमृतमयी कथा सुनिये। इसके श्रवणकी सदा ही महिमा है, किंतु कार्तिकमासमें विशेष बतायी गयी है॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्नामस्मरणादेव महापातककोटिभिः।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो नरो याति परां गतिम्॥ ७१॥
मूलम्
यन्नामस्मरणादेव महापातककोटिभिः।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो नरो याति परां गतिम्॥ ७१॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामायणके नामका स्मरण करनेसे ही मनुष्य करोड़ों महापातकों तथा समस्त पापोंसे मुक्त हो परमगतिको प्राप्त होता है॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामायणेति यन्नाम सकृदप्युच्यते यदा।
तदैव पापनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति॥ ७२॥
मूलम्
रामायणेति यन्नाम सकृदप्युच्यते यदा।
तदैव पापनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति॥ ७२॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य ‘रामायण’ इस नामका जब एक बार भी उच्चारण करता है, तभी वह समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है और अन्तमें भगवान् विष्णुके लोकमें चला जाता है॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पठन्ति सदाऽऽख्यानं भक्त्या शृण्वन्ति ये नराः।
गंगास्नानाच्छतगुणं तेषां संजायते फलम्॥ ७३॥
मूलम्
ये पठन्ति सदाऽऽख्यानं भक्त्या शृण्वन्ति ये नराः।
गंगास्नानाच्छतगुणं तेषां संजायते फलम्॥ ७३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सदा भक्तिभावसे रामायण-कथाको पढ़ते और सुनते हैं, उन्हें गंगास्नानकी अपेक्षा सौगुना पुण्यफल प्राप्त होता है॥ ७३॥
अनुवाद (समाप्ति)
इति श्रीस्कन्दपुराणे उत्तरखण्डे नारदसनत्कुमारसंवादे रामायणमाहात्म्ये राक्षसमोक्षणं नाम द्वितीयोऽध्यायः॥ २॥
इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके उत्तरखण्डमें नारद-सनत्कुमारसंवादके अन्तर्गत वाल्मीकीय रामायणमाहात्म्यके प्रसंगमें राक्षसका उद्धार नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ॥ २॥