वाचनम्
भागसूचना
- मूर्तिमान् अग्निदेवका सीताको लेकर चितासे प्रकट होना और श्रीरामको समर्पित करके उनकी पवित्रताको प्रमाणित करना तथा श्रीरामका सीताको सहर्ष स्वीकार करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं
पितामहसमीरितम् ।
अङ्केनादाय वैदेहीम्
उत्पपात विभावसुः ॥ १ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा शुभं वाक्यं पितामहसमीरितम् ।
अङ्केनादाय वैदेहीमुत्पपात विभावसुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीके कहे हुए इन शुभ वचनोंको सुनकर मूर्तिमान् अग्निदेव विदेहनन्दिनी सीताको (पिताकी भाँति) गोदमें लिये चितासे ऊपरको उठे ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विधूयाथ चितां तां तु वैदेहीं हव्यवाहनः ।
उत्तस्थौ मूर्तिमानाशु गृहीत्वा जनकात्मजाम् ॥ २ ॥
मूलम्
विधूयाथ चितां तां तु वैदेहीं हव्यवाहनः ।
उत्तस्थौ मूर्तिमानाशु गृहीत्वा जनकात्मजाम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस चिताको हिलाकर इधर-उधर बिखराते हुए दिव्य रूपधारी हव्यवाहन अग्निदेव वैदेही सीताको साथ लिये तुरंत ही उठकर खड़े हो गये ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरुणादित्यसङ्काशां तप्तकाञ्चनभूषणाम् ।
रक्ताम्बरधरां बालां नीलकुञ्चितमूर्धजाम् ॥ ३ ॥
अक्लिष्टमाल्याभरणां तथारूपामनिन्दिताम् ।
ददौ रामाय वैदेहीमङ्के कृत्वा विभावसुः ॥ ४ ॥
मूलम्
तरुणादित्यसङ्काशां तप्तकाञ्चनभूषणाम् ।
रक्ताम्बरधरां बालां नीलकुञ्चितमूर्धजाम् ॥ ३ ॥
अक्लिष्टमाल्याभरणां तथारूपामनिन्दिताम् ।
ददौ रामाय वैदेहीमङ्के कृत्वा विभावसुः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताजी प्रातःकालके सूर्यकी भाँति अरुण-पीत कान्तिसे प्रकाशित हो रही थीं । तपाये हुए सोनेके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे । उनके श्रीअङ्गोंपर लाल रंगकी रेशमी साड़ी लहरा रही थी । सिरपर काले-काले घुँघराले केश सुशोभित होते थे । उनकी अवस्था नयी थी और उनके द्वारा धारण किये गये फूलोंके हार कुम्हलायेतक नहीं थे । अनिन्द्य सुन्दरी सती-साध्वी सीताका अग्निमें प्रवेश करते समय जैसा रूप और वेष था, वैसे ही रूप-सौन्दर्यसे प्रकाशित होती हुई उन वैदेहीको गोदमें लेकर अग्निदेवने श्रीरामको समर्पित कर दिया ॥ ३-४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीत् तु तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः ।
एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
अब्रवीत् तु तदा रामं साक्षी लोकस्य पावकः ।
एषा ते राम वैदेही पापमस्यां न विद्यते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय लोकसाक्षी अग्निने श्रीरामसे कहा—‘श्रीराम! यह आपकी धर्मपत्नी विदेहराजकुमारी सीता है । इसमें कोई पाप या दोष नहीं है ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव वाचा न मनसा नैव बुद्ध्या न चक्षुषा ।
सुवृत्ता वृत्तशौटीर्यं न त्वामत्यचरच्छुभा ॥ ६ ॥
मूलम्
नैव वाचा न मनसा नैव बुद्ध्या न चक्षुषा ।
सुवृत्ता वृत्तशौटीर्यं न त्वामत्यचरच्छुभा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम आचारवाली इस शुभलक्षणा सतीने मन, वाणी, बुद्धि अथवा नेत्रोंद्वारा भी आपके सिवा किसी दूसरे पुरुषका आश्रय नहीं लिया । इसने सदा सदाचारपरायण आपका ही आराधन किया है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणेनापनीतैषा वीर्योत्सिक्तेन रक्षसा ।
त्वया विरहिता दीना विवशा निर्जने सती ॥ ७ ॥
मूलम्
रावणेनापनीतैषा वीर्योत्सिक्तेन रक्षसा ।
त्वया विरहिता दीना विवशा निर्जने सती ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने बल-पराक्रमका घमंड रखनेवाले राक्षसरावणने जब इसका अपहरण किया था, उस समय यह बेचारी सती सूने आश्रममें अकेली थी—आप इसके पास नहीं थे; अतः यह विवश थी (इसका कोई वश नहीं चला) ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुद्धा चान्तःपुरे गुप्ता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ।
रक्षिता राक्षसीभिश्च घोराभिर्घोरबुद्धिभिः ॥ ८ ॥
मूलम्
रुद्धा चान्तःपुरे गुप्ता त्वच्चित्ता त्वत्परायणा ।
रक्षिता राक्षसीभिश्च घोराभिर्घोरबुद्धिभिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावणने इसे लाकर अन्तःपुरमें कैद कर लिया । इसपर पहरा बिठा दिया । भयानक विचारोंवाली भीषण राक्षसियाँ इसकी रखवाली करने लगीं । तब भी इसका चित्त आपमें ही लगा रहा । यह आपहीको अपना परम आश्रय मानती रही ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलोभ्यमाना विविधं तर्ज्यमाना च मैथिली ।
नाचिन्तयत तद्रक्षस्त्वद्गतेनान्तरात्मना ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रलोभ्यमाना विविधं तर्ज्यमाना च मैथिली ।
नाचिन्तयत तद्रक्षस्त्वद्गतेनान्तरात्मना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तत्पश्चात् तरह-तरहके लोभ दिये गये । इस मिथिलेशकुमारीपर डाँट-फटकार भी पड़ी; परंतु इसकी अन्तरात्मा निरन्तर आपके ही चिन्तनमें लगी रही । इसने उस राक्षसके विषयमें कभी एक बार भी नहीं सोचा ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व मैथिलीम् ।
न किञ्चिदभिधातव्या अहमाज्ञापयामि ते ॥ १० ॥
मूलम्
विशुद्धभावां निष्पापां प्रतिगृह्णीष्व मैथिलीम् ।
न किञ्चिदभिधातव्या अहमाज्ञापयामि ते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः इसका भाव सर्वथा शुद्ध है । यह मिथिलेशनन्दिनी सर्वथा निष्पाप है । आप इसे सादर स्वीकार करें । मैं आपको आज्ञा देता हूँ, आप इससे कभी कोई कठोर बात न कहें’ ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रीतमना रामः
श्रुत्वैवं वदतां वरः ।
दध्यौ मुहूर्तं धर्मात्मा
हर्षव्याकुललोचनः ॥ ११ ॥
मूलम्
ततः प्रीतमना रामः श्रुत्वैवं वदतां वरः ।
दध्यौ मुहूर्तं धर्मात्मा हर्षव्याकुललोचनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेवकी यह बात सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ धर्मात्मा श्रीरामका मन प्रसन्न हो गया । उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू छलक आये । वे थोड़ी देरतक विचारमें डूबे रहे ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् उक्तो महातेजा
धृतिमान् उरुविक्रमः ।
उवाच त्रिदशश्रेष्ठं
रामो धर्मभृतां वरः ॥ १२ ॥
मूलम्
एवमुक्तो महातेजा धृतिमानुरुविक्रमः ।
उवाच त्रिदशश्रेष्ठं रामो धर्मभृतां वरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महातेजस्वी, धैर्यवान्, महान् पराक्रमी तथा धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ श्रीरामने देवशिरोमणि अग्निदेवसे उनकी पूर्वोक्त बातके उत्तरमें कहा— ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं चापि लोकेषु
सीता पावनम् अर्हति ।
दीर्घकालोषिता हीयं
रावणान्तःपुरे शुभा ॥ १३ ॥
मूलम्
अवश्यं चापि लोकेषु सीता पावनमर्हति ।
दीर्घकालोषिता हीयं रावणान्तःपुरे शुभा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भगवन्! लोगोंमें सीताजीकी पवित्रताका विश्वास दिलानेके लिये इनकी यह शुद्धिविषयक परीक्षा आवश्यक थी; क्योंकि शुभलक्षणा सीताको विवश होकर दीर्घकालतक रावणके अन्तःपुरमें रहना पड़ा है ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
“बालिशो बत कामात्मा
रामो दशरथात्मजः” ।
इति वक्ष्यति मां लोको
जानकीम् अविशोध्य हि +++(यद्य् अगृहीष्यम्)+++ ॥ १४ ॥
मूलम्
बालिशो बत कामात्मा रामो दशरथात्मजः ।
इति वक्ष्यति मां लोको जानकीमविशोध्य हि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैं जनकनन्दिनीकी शुद्धिके विषयमें परीक्षा न करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्य-हृदयां सीतां
मच्-चित्त-परिरक्षिणीम् ।
अहम् अप्य् अवगच्छामि
मैथिलीं जनकात्मजाम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अनन्यहृदयां सीतां मच्चित्तपरिरक्षिणीम् ।
अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह बात मैं भी जानता हूँ कि मिथिलेशनन्दिनी जनककुमारी सीताका हृदय सदा मुझमें ही लगा रहता है । मुझसे कभी अलग नहीं होता । ये सदा मेरा ही मन रखतीं—मेरी इच्छाके अनुसार चलती हैं ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमाम् अपि विशालाक्षीं
रक्षितां स्वेन तेजसा ।
रावणो नातिवर्तेत
वेलाम् इव महोदधिः ॥ १६ ॥
मूलम्
इमामपि विशालाक्षीं रक्षितां स्वेन तेजसा ।
रावणो नातिवर्तेत वेलामिव महोदधिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे यह भी विश्वास है कि जैसे महासागर अपनी तटभूमिको नहीं लाँघ सकता, उसी प्रकार रावण अपने ही तेजसे सुरक्षित इन विशाललोचना सीतापर अत्याचार नहीं कर सकता था ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्ययार्थं तु लोकानां
त्रयाणां सत्य-संश्रयः ।
उपेक्षे चापि वैदेहीं
प्रविशन्तीं हुताशनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
प्रत्ययार्थं तु लोकानां त्रयाणां सत्यसंश्रयः ।
उपेक्षे चापि वैदेहीं प्रविशन्तीं हुताशनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तथापि तीनों लोकोंके प्राणियोंके मनमें विश्वास दिलानेके लिये एकमात्र सत्यका सहारा लेकर मैंने अग्निमें प्रवेश करती हुई विदेहकुमारी सीताको रोकनेकी चेष्टा नहीं की ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि शक्तः सुदुष्टात्मा
मनसापि हि मैथिलीम् ।
प्रधर्षयितुम् अप्राप्यां
दीप्ताम् अग्निशिखाम् इव ॥ १८ ॥
मूलम्
न हि शक्तः सुदुष्टात्मा मनसापि हि मैथिलीम् ।
प्रधर्षयितुमप्राप्यां दीप्तामग्निशिखामिव ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मिथिलेशकुमारी सीता प्रज्वलित अग्निशिखाके समान दुर्धर्ष तथा दूसरेके लिये अलभ्य है । दुष्टात्मा रावण मनके द्वारा भी इनपर अत्याचार करनेमें समर्थ नहीं हो सकता था ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेयम् अर्हति वैक्लव्यं
रावणान्तःपुरे सती ।
अनन्या हि मया सीता
भास्करस्य प्रभा यथा ॥ १९ ॥
मूलम्
नेयमर्हति वैक्लव्यं रावणान्तःपुरे सती ।
अनन्या हि मया सीता भास्करस्य प्रभा यथा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सती-साध्वी देवी रावणके अन्तःपुरमें रहकर भी व्याकुलता या घबराहटमें नहीं पड़ सकती थीं; क्योंकि ये मुझसे उसी तरह अभिन्न हैं, जैसे सूर्यदेवसे उनकी प्रभा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु
मैथिली जनकात्मजा ।
न विहातुं मया शक्या
कीर्तिर् आत्मवता यथा ॥ २० ॥+++(5)+++
मूलम्
विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ।
न विहातुं मया शक्या कीर्तिरात्मवता यथा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मिथिलेशकुमारी जानकी तीनों लोकोंमें परम पवित्र हैं । जैसे मनस्वी पुरुष कीर्तिका त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी इन्हें नहीं छोड़ सकता ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं च मया कार्यं
सर्वेषां वो वचो हितम् ।
स्निग्धानां लोकनाथानाम्
एवं च वदतां हितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
अवश्यं च मया कार्यं सर्वेषां वो वचो हितम् ।
स्निग्धानां लोकनाथानामेवं च वदतां हितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप सभी लोकपाल मेरे हितकी ही बात कह रहे हैं और आपलोगोंका मुझपर बड़ा स्नेह है; अतः आप सभी देवताओंके हितकर वचनका मुझे अवश्य पालन करना चाहिये’ ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्य् एवम् उक्त्वा विजयी महाबलः
प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा ।
समेत्य रामः प्रियया महायशाः
सुखं सुखार्हो ऽनुबभूव राघवः ॥ २२ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा विजयी महाबलः
प्रशस्यमानः स्वकृतेन कर्मणा ।
समेत्य रामः प्रियया महायशाः
सुखं सुखार्होऽनुबभूव राघवः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर अपने किये हुए पराक्रमसे प्रशंसित होनेवाले महाबली, महायशस्वी, विजयी वीर रघुकुलनन्दन श्रीराम अपनी प्रिया सीतासे मिले और मिलकर बड़े सुखका अनुभव करने लगे; क्योंकि वे सुख भोगनेके ही योग्य हैं ॥ २२ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डेऽष्टादशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें एक सौ अठारहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ११८ ॥