वाचनम्
भागसूचना
- सीताका श्रीरामको उपालम्भपूर्ण उत्तर देकर अपने सतीत्वकी परीक्षा देनेके लिये अग्निमें प्रवेश करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवम् उक्ता तु वैदेही
परुषं रोमहर्षणम् ।
राघवेण सरोषेण
श्रुत्वा प्रव्यथिताभवत् ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु वैदेही परुषं रोमहर्षणम् ।
राघवेण सरोषेण श्रुत्वा प्रव्यथिताभवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने रोषपूर्वक जब इस तरह रोंगटे खड़े कर देनेवाली कठोर बात कही, तब उसे सुनकर विदेहराजकुमारी सीताके मनमें बड़ी व्यथा हुई ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तदाश्रुतपूर्वं हि जने महति मैथिली ।
श्रुत्वा भर्तुर्वचो घोरं लज्जयावनताभवत् ॥ २ ॥
मूलम्
सा तदाश्रुतपूर्वं हि जने महति मैथिली ।
श्रुत्वा भर्तुर्वचो घोरं लज्जयावनताभवत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतने बड़े जनसमुदायमें अपने स्वामीके मुँहसे ऐसी भयंकर बात, जो पहले कभी कानोंमें नहीं पड़ी थी, सुनकर मिथिलेशकुमारी लाजसे गड़ गयीं ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रविशन्तीव गात्राणि स्वानि सा जनकात्मजा ।
वाक्शरैस्तैः सशल्येव भृशमश्रूण्यवर्तयत् ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रविशन्तीव गात्राणि स्वानि सा जनकात्मजा ।
वाक्शरैस्तैः सशल्येव भृशमश्रूण्यवर्तयत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन वाग्बाणोंसे पीड़ित होकर वे जनककिशोरी अपने ही अङ्गोंमें विलीन-सी होने लगीं । उनके नेत्रोंसे आँसुओंका अविरल प्रवाह जारी हो गया ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाष्पपरिक्लिन्नं प्रमार्जन्ती स्वमाननम् ।
शनैर्गद्गदया वाचा भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
ततो बाष्पपरिक्लिन्नं प्रमार्जन्ती स्वमाननम् ।
शनैर्गद्गदया वाचा भर्तारमिदमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नेत्रोंके जलसे भीगे हुए अपने मुखको अंचलसे पोंछती हुई वे धीरे-धीरे गद्गद वाणीमें पतिदेवसे इस प्रकार बोलीं— ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्रदारुणम् ।
रूक्षं श्रावयसे वीर प्राकृतः प्राकृतामिव ॥ ५ ॥
मूलम्
किं मामसदृशं वाक्यमीदृशं श्रोत्रदारुणम् ।
रूक्षं श्रावयसे वीर प्राकृतः प्राकृतामिव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर! आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं । जैसे कोई निम्न श्रेणीका पुरुष निम्नकोटिकी ही स्त्रीसे न कहने योग्य बातें भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तथास्मि महाबाहो यथा मामवगच्छसि ।
प्रत्ययं गच्छ मे स्वेन चारित्रेणैव ते शपे ॥ ६ ॥
मूलम्
न तथास्मि महाबाहो यथा मामवगच्छसि ।
प्रत्ययं गच्छ मे स्वेन चारित्रेणैव ते शपे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! आप मुझे अब जैसी समझते हैं, वैसी मैं नहीं हूँ । मुझपर विश्वास कीजिये । मैं अपने सदाचारकी ही शपथ खाकर कहती हूँ कि मैं संदेहके योग्य नहीं हूँ ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथक्स्त्रीणां प्रचारेण जातिं त्वं परिशङ्कसे ।
परित्यजैनां शङ्कां तु यदि तेऽहं परीक्षिता ॥ ७ ॥
मूलम्
पृथक्स्त्रीणां प्रचारेण जातिं त्वं परिशङ्कसे ।
परित्यजैनां शङ्कां तु यदि तेऽहं परीक्षिता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नीच श्रेणीकी स्त्रियोंका आचरण देखकर यदि आप समूची स्त्री-जातिपर ही संदेह करते हैं तो यह उचित नहीं है । यदि आपने मुझे अच्छी तरह परख लिया हो तो अपने इस संदेहको मनसे निकाल दीजिये ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदहं गात्रसंस्पर्शं गतास्मि विवशा प्रभो ।
कामकारो न मे तत्र दैवं तत्रापराध्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
यदहं गात्रसंस्पर्शं गतास्मि विवशा प्रभो ।
कामकारो न मे तत्र दैवं तत्रापराध्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! रावणके शरीरसे जो मेरे इस शरीरका स्पर्श हो गया है, उसमें मेरी विवशता ही कारण है । मैंने स्वेच्छासे ऐसा नहीं किया था । इसमें मेरे दुर्भाग्यका ही दोष है ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मदधीनं तु यत् तन्मे हृदयं त्वयि वर्तते ।
पराधीनेषु गात्रेषु किं करिष्याम्यनीश्वरी ॥ ९ ॥
मूलम्
मदधीनं तु यत् तन्मे हृदयं त्वयि वर्तते ।
पराधीनेषु गात्रेषु किं करिष्याम्यनीश्वरी ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो मेरे अधीन है, वह मेरा हृदय सदा आपमें ही लगा रहता है (उसपर दूसरा कोई अधिकार नहीं कर सकता); परंतु मेरे अङ्ग तो पराधीन थे । उनका यदि दूसरेसे स्पर्श हो गया तो मैं विवश अबला क्या कर सकती थी ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सह संवृद्धभावेन संसर्गेण च मानद ।
यदि तेऽहं न विज्ञाता हता तेनास्मि शाश्वतम् ॥ १० ॥
मूलम्
सह संवृद्धभावेन संसर्गेण च मानद ।
यदि तेऽहं न विज्ञाता हता तेनास्मि शाश्वतम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दूसरोंको मान देनेवाले प्राणनाथ! हम दोनोंका परस्पर अनुराग सदा साथ-साथ बढ़ा है । हम सदा एक साथ रहते आये हैं । इतनेपर भी यदि आपने मुझे अच्छी तरह नहीं समझा तो मैं सदाके लिये मारी गयी ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेषितस्ते महावीरो हनुमानवलोककः ।
लङ्कास्थाहं त्वया राजन् किं तदा न विसर्जिता ॥ ११ ॥
मूलम्
प्रेषितस्ते महावीरो हनुमानवलोककः ।
लङ्कास्थाहं त्वया राजन् किं तदा न विसर्जिता ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! लङ्कामें मुझे देखनेके लिये जब आपने महावीर हनुमान् को भेजा था, उसी समय मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं वानरस्यास्य तद्वाक्यसमनन्तरम् ।
त्वया सन्त्यक्तया वीर त्यक्तं स्याज्जीवितं मया ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं वानरस्यास्य तद्वाक्यसमनन्तरम् ।
त्वया सन्त्यक्तया वीर त्यक्तं स्याज्जीवितं मया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय वानरवीर हनुमान् के मुखसे आपके द्वारा अपने त्यागकी बात सुनकर तत्काल इनके सामने ही मैंने अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया होता ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वृथा ते श्रमोऽयं स्यात् संशये न्यस्य जीवितम् ।
सुहृज्जनपरिक्लेशो न चायं विफलस्तव ॥ १३ ॥
मूलम्
न वृथा ते श्रमोऽयं स्यात् संशये न्यस्य जीवितम् ।
सुहृज्जनपरिक्लेशो न चायं विफलस्तव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर इस प्रकार अपने जीवनको संकटमें डालकर आपको यह युद्ध आदिका व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता तथा आपके ये मित्रलोग भी अकारण कष्ट नहीं उठाते ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया तु नृपशार्दूल रोषमेवानुवर्तता ।
लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम् ॥ १४ ॥
मूलम्
त्वया तु नृपशार्दूल रोषमेवानुवर्तता ।
लघुनेव मनुष्येण स्त्रीत्वमेव पुरस्कृतम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नृपश्रेष्ठ! आपने ओछे मनुष्यकी भाँति केवल रोषका ही अनुसरण करके मेरे शील-स्वभावका विचार छोड़कर केवल निम्नकोटिकी स्त्रियोंके स्वभावको ही अपने सामने रखा है ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपदेशेन जनकान्नोत्पत्तिर्वसुधातलात् ।
मम वृत्तं च वृत्तज्ञ बहु ते न पुरस्कृतम् ॥ १५ ॥
मूलम्
अपदेशेन जनकान्नोत्पत्तिर्वसुधातलात् ।
मम वृत्तं च वृत्तज्ञ बहु ते न पुरस्कृतम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सदाचारके मर्मको जाननेवाले देवता! राजा जनककी यज्ञभूमिसे आविर्भूत होनेके कारण ही मुझे जानकी कहकर पुकारा जाता है । वास्तवमें मेरी उत्पत्ति जनकसे नहीं हुई है । मैं भूतलसे प्रकट हुई हूँ । (साधारण मानव-जातिसे विलक्षण हूँ—दिव्य हूँ । उसी तरह मेरा आचार-विचार भी अलौकिक एवं दिव्य है; मुझमें चारित्रिक बल विद्यमान है, परंतु) आपने मेरी इन विशेषताओंको अधिक महत्त्व नहीं दिया—इन सबको अपने सामने नहीं रखा ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न प्रमाणीकृतः पाणिर्बाल्ये मम निपीडितः ।
मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठतः कृतम् ॥ १६ ॥
मूलम्
न प्रमाणीकृतः पाणिर्बाल्ये मम निपीडितः ।
मम भक्तिश्च शीलं च सर्वं ते पृष्ठतः कृतम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बाल्यावस्थामें आपने मेरा पाणिग्रहण किया है, इसकी ओर भी ध्यान नहीं दिया । आपके प्रति मेरे हृदयमें जो भक्ति है और मुझमें जो शील है, वह सब आपने पीछे ढकेल दिया—एक साथ ही भुला दिया’ ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति ब्रुवन्ती रुदती बाष्पगद्गदभाषिणी ।
उवाच लक्ष्मणं सीता दीनं ध्यानपरायणम् ॥ १७ ॥
मूलम्
इति ब्रुवन्ती रुदती बाष्पगद्गदभाषिणी ।
उवाच लक्ष्मणं सीता दीनं ध्यानपरायणम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहते-कहते सीताका गला भर आया । वे रोती और आँसू बहाती हुई दुःखी एवं चिन्तामग्न होकर बैठे हुए लक्ष्मणसे गद्गद वाणीमें बोलीं— ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितां मे कुरु सौमित्रे व्यसनस्यास्य भेषजम् ।
मिथ्यापवादोपहता नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ १८ ॥
मूलम्
चितां मे कुरु सौमित्रे व्यसनस्यास्य भेषजम् ।
मिथ्यापवादोपहता नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमित्रानन्दन! मेरे लिये चिता तैयार कर दो । मेरे इस दुःखकी यही दवा है । मिथ्या कलङ्कसे कलङ्कित होकर मैं जीवित नहीं रह सकती ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रीतेन गुणैर्भर्त्रा त्यक्ताया जनसंसदि ।
या क्षमा मे गतिर्गन्तुं प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम् ॥ १९ ॥
मूलम्
अप्रीतेन गुणैर्भर्त्रा त्यक्ताया जनसंसदि ।
या क्षमा मे गतिर्गन्तुं प्रवेक्ष्ये हव्यवाहनम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे स्वामी मेरे गुणोंसे प्रसन्न नहीं हैं । इन्होंने भरी सभामें मेरा परित्याग कर दिया है । ऐसी दशामें मेरे लिये जो उचित मार्ग है, उसपर जानेके लिये मैं अग्निमें प्रवेश करूँगी’ ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु वैदेह्या लक्ष्मणः परवीरहा ।
अमर्षवशमापन्नो राघवं समुदैक्षत ॥ २० ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु वैदेह्या लक्ष्मणः परवीरहा ।
अमर्षवशमापन्नो राघवं समुदैक्षत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदेहनन्दिनीके ऐसा कहनेपर शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले लक्ष्मणने अमर्षके वशीभूत होकर श्रीरामचन्द्रजीकी ओर देखा (उनसे सीताजीका वह अपमान सहा नहीं जाता था) ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विज्ञाय मनश्छन्दं रामस्याकारसूचितम् ।
चितां चकार सौमित्रिर्मते रामस्य वीर्यवान् ॥ २१ ॥
मूलम्
स विज्ञाय मनश्छन्दं रामस्याकारसूचितम् ।
चितां चकार सौमित्रिर्मते रामस्य वीर्यवान् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु श्रीरामके इशारेसे सूचित होनेवाले उनके हार्दिक अभिप्रायको जानकर पराक्रमी लक्ष्मणने उनकी सम्मतिसे ही चिता तैयार की ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि रामं तदा कश्चित् कालान्तकयमोपमम् ।
अनुनेतुमथो वक्तुं द्रष्टुं वाप्यशकत् सुहृत् ॥ २२ ॥
मूलम्
नहि रामं तदा कश्चित् कालान्तकयमोपमम् ।
अनुनेतुमथो वक्तुं द्रष्टुं वाप्यशकत् सुहृत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय श्रीरघुनाथजी प्रलयकालीन संहारकारी यमराजके समान लोगोंके मनमें भय उत्पन्न कर रहे थे । उनका कोई भी मित्र उन्हें समझाने, उनसे कुछ कहने अथवा उनकी ओर देखनेका साहस न कर सका ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधोमुखं स्थितं रामं ततः कृत्वा प्रदक्षिणम् ।
उपावर्तत वैदेही दीप्यमानं हुताशनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अधोमुखं स्थितं रामं ततः कृत्वा प्रदक्षिणम् ।
उपावर्तत वैदेही दीप्यमानं हुताशनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीराम सिर झुकाये खड़े थे । उसी अवस्थामें सीताजीने उनकी परिक्रमा की । इसके बाद वे प्रज्वलित अग्निके पास गयीं ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणम्य दैवतेभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली ।
बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपतः ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रणम्य दैवतेभ्यश्च ब्राह्मणेभ्यश्च मैथिली ।
बद्धाञ्जलिपुटा चेदमुवाचाग्निसमीपतः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ देवताओं तथा ब्राह्मणोंको प्रणाम करके मिथिलेशकुमारीने दोनों हाथ जोड़कर अग्निदेवके समीप इस प्रकार कहा— ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् ।
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥ २५ ॥
मूलम्
यथा मे हृदयं नित्यं नापसर्पति राघवात् ।
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मेरा हृदय कभी एक क्षणके लिये भी श्रीरघुनाथजीसे दूर न हुआ हो तो सम्पूर्ण जगत् के साक्षी अग्निदेव मेरी सब ओरसे रक्षा करें ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा मां शुद्धचारित्रां दुष्टां जानाति राघवः ।
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥ २६ ॥
मूलम्
यथा मां शुद्धचारित्रां दुष्टां जानाति राघवः ।
तथा लोकस्य साक्षी मां सर्वतः पातु पावकः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरा चरित्र शुद्ध है फिर भी श्रीरघुनाथजी मुझे दूषित समझ रहे हैं । यदि मैं सर्वथा निष्कलङ्क होऊँ तो सम्पूर्ण जगत् के साक्षी अग्निदेव मेरी सब ओरसे रक्षा करें ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यहम् ।
राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा मां पातु पावकः ॥ २७ ॥
मूलम्
कर्मणा मनसा वाचा यथा नातिचराम्यहम् ।
राघवं सर्वधर्मज्ञं तथा मां पातु पावकः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि मैंने मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता श्रीरघुनाथजीका अतिक्रमण न किया हो तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें’ ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्यो भगवान् वायुर्दिशश्चन्द्रस्तथैव च ।
अहश्चापि तथा सन्ध्ये रात्रिश्च पृथिवी तथा ।
यथान्येऽपि विजानन्ति तथा चारित्रसंयुताम् ॥ २८ ॥
मूलम्
आदित्यो भगवान् वायुर्दिशश्चन्द्रस्तथैव च ।
अहश्चापि तथा सन्ध्ये रात्रिश्च पृथिवी तथा ।
यथान्येऽपि विजानन्ति तथा चारित्रसंयुताम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि भगवान् सूर्य, वायु, दिशाएँ, चन्द्रमा, दिन, रात, दोनों संध्याएँ, पृथ्वी देवी तथा अन्य देवता भी मुझे शुद्ध चरित्रसे युक्त जानते हों तो अग्निदेव मेरी सब ओरसे रक्षा करें’ ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् ।
विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशङ्केनान्तरात्मना ॥ २९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु वैदेही परिक्रम्य हुताशनम् ।
विवेश ज्वलनं दीप्तं निःशङ्केनान्तरात्मना ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर विदेहराजकुमारीने अग्निदेवकी परिक्रमा की और निःशङ्क चित्तसे वे उस प्रज्वलित अग्निमें समा गयीं ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनश्च सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुलः ।
ददर्श मैथिलीं दीप्तां प्रविशन्तीं हुताशनम् ॥ ३० ॥
मूलम्
जनश्च सुमहांस्तत्र बालवृद्धसमाकुलः ।
ददर्श मैथिलीं दीप्तां प्रविशन्तीं हुताशनम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालकों और वृद्धोंसे भरे हुए वहाँके महान् जनसमुदायने उन दीप्तिमती मिथिलेशकुमारीको जलती आगमें प्रवेश करते देखा ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तप्तनवहेमाभा तप्तकाञ्चनभूषणा ।
पपात ज्वलनं दीप्तं सर्वलोकस्य सन्निधौ ॥ ३१ ॥
मूलम्
सा तप्तनवहेमाभा तप्तकाञ्चनभूषणा ।
पपात ज्वलनं दीप्तं सर्वलोकस्य सन्निधौ ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपाये हुए नूतन सुवर्णकी-सी कान्तिवाली सीता आगमें तपाकर शुद्ध किये गये सुवर्णके आभूषणोंसे विभूषित थीं । वे सब लोगोंके निकट उनके देखते-देखते उस जलती आगमें कूद पड़ीं ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुस्तां विशालाक्षीं पतन्तीं हव्यवाहनम् ।
सीतां सर्वाणि रूपाणि रुक्मवेदिनिभां तदा ॥ ३२ ॥
मूलम्
ददृशुस्तां विशालाक्षीं पतन्तीं हव्यवाहनम् ।
सीतां सर्वाणि रूपाणि रुक्मवेदिनिभां तदा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेकी बनी हुई वेदीके समान कान्तिमती विशाल-लोचना सीतादेवीको उस समय सम्पूर्ण भूतोंने आगमें गिरते देखा ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुस्तां महाभागां प्रविशन्तीं हुताशनम् ।
ऋषयो देवगन्धर्वा यज्ञे पूर्णाहुतीमिव ॥ ३३ ॥
मूलम्
ददृशुस्तां महाभागां प्रविशन्तीं हुताशनम् ।
ऋषयो देवगन्धर्वा यज्ञे पूर्णाहुतीमिव ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऋषियों, देवताओं और गन्धर्वोंने देखा, जैसे यज्ञमें पूर्णाहुतिका होम होता है, उसी प्रकार महाभागा सीता जलती आगमें प्रवेश कर रही हैं ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रचुक्रुशुः स्त्रियः सर्वास्तां दृष्ट्वा हव्यवाहने ।
पतन्तीं संस्कृतां मन्त्रैर्वसोर्धारामिवाध्वरे ॥ ३४ ॥
मूलम्
प्रचुक्रुशुः स्त्रियः सर्वास्तां दृष्ट्वा हव्यवाहने ।
पतन्तीं संस्कृतां मन्त्रैर्वसोर्धारामिवाध्वरे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यज्ञमें मन्त्रोंद्वारा संस्कार की हुई वसुधाराकी* आहुति दी जाती है, उसी प्रकार दिव्य आभूषणोंसे विभूषित सीताको आगमें गिरते देख वहाँ आयी हुई सभी स्त्रियाँ चीख उठीं ॥ ३४ ॥
पादटिप्पनी
- घीकी अनवच्छिन्न धारा ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुस्तां त्रयो लोका देवगन्धर्वदानवाः ।
शप्तां पतन्तीं निरये त्रिदिवाद् देवतामिव ॥ ३५ ॥
मूलम्
ददृशुस्तां त्रयो लोका देवगन्धर्वदानवाः ।
शप्तां पतन्तीं निरये त्रिदिवाद् देवतामिव ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीनों लोकोंके दिव्य प्राणी, ऋषि, देवता, गन्धर्व तथा दानवोंने भी भगवती सीताको आगमें गिरते देखा, मानो स्वर्गसे कोई देवी शापग्रस्त होकर नरकमें गिरी हो ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यामग्निं विशन्त्यां तु हाहेति विपुलः स्वनः ।
रक्षसां वानराणां च सम्बभूवाद्भुतोपमः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तस्यामग्निं विशन्त्यां तु हाहेति विपुलः स्वनः ।
रक्षसां वानराणां च सम्बभूवाद्भुतोपमः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके अग्निमें प्रवेश करते समय राक्षस और वानर जोर-जोरसे हाहाकार करने लगे । उनका वह अद्भुत आर्तनाद चारों ओर गूँज उठा ॥ ३६ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षोडशाधिकशततमः सर्गः ॥ ११६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें एक सौ सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ११६ ॥