वाचनम्
भागसूचना
- इन्द्रजित् के ब्रह्मास्त्रसे वानरसेनासहित श्रीराम और लक्ष्मणका मूर्च्छित होना
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हतान् राक्षसपुङ्गवांस्तान्
देवान्तकादित्रिशिरोऽतिकायान् ।
रक्षोगणास्तत्र हतावशिष्टा-
स्ते रावणाय त्वरिताः शशंसुः ॥ १ ॥
मूलम्
ततो हतान् राक्षसपुङ्गवांस्तान्
देवान्तकादित्रिशिरोऽतिकायान् ।
रक्षोगणास्तत्र हतावशिष्टा-
स्ते रावणाय त्वरिताः शशंसुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संग्रामभूमिमें जो निशाचर मरनेसे बच गये थे, उन्होंने तुरंत रावणके पास जाकर उसे देवान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय आदि राक्षसपुङ्गवोंके मारे जानेका समाचार सुनाया ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हतांस्तान् सहसा निशम्य
राजा महाबाष्पपरिप्लुताक्षः ।
पुत्रक्षयं भ्रातृवधं च घोरं
विचिन्त्य राजा विपुलं प्रदध्यौ ॥ २ ॥
मूलम्
ततो हतांस्तान् सहसा निशम्य
राजा महाबाष्पपरिप्लुताक्षः ।
पुत्रक्षयं भ्रातृवधं च घोरं
विचिन्त्य राजा विपुलं प्रदध्यौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके वधकी बात सुनकर राजा रावणके नेत्रोंमें सहसा आँसुओंकी बाढ़ आ गयी । पुत्रों और भाइयोंके भयानक वधकी बात सोचकर उसको बड़ी चिन्ता हुई ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु राजानमुदीक्ष्य दीनं
शोकार्णवे सम्परिपुप्लुवानम् ।
रथर्षभो राक्षसराजसूनु-
स्तमिन्द्रजिद् वाक्यमिदं बभाषे ॥ ३ ॥
मूलम्
ततस्तु राजानमुदीक्ष्य दीनं
शोकार्णवे सम्परिपुप्लुवानम् ।
रथर्षभो राक्षसराजसूनु-
स्तमिन्द्रजिद् वाक्यमिदं बभाषे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा रावणको शोकके समुद्रमें निमग्न एवं दीन हुआ देख रथियोंमें श्रेष्ठ राक्षसराजकुमार इन्द्रजित् ने यह बात कही— ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तात मोहं परिगन्तुमर्हसे
यत्रेन्द्रजिज्जीवति नैर्ऋतेश ।
नेन्द्रारिबाणाभिहतो हि कश्चित्
प्राणान् समर्थः समरेऽभिपातुम् ॥ ४ ॥
मूलम्
न तात मोहं परिगन्तुमर्हसे
यत्रेन्द्रजिज्जीवति नैर्ऋतेश ।
नेन्द्रारिबाणाभिहतो हि कश्चित्
प्राणान् समर्थः समरेऽभिपातुम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! राक्षसराज! जबतक इन्द्रजित् जीवित है तबतक आप चिन्ता और मोहमें न पड़िये । इस इन्द्रशत्रुके बाणोंसे घायल होकर कोई भी समराङ्गणमें अपने प्राणोंकी रक्षा नहीं कर सकता ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्याद्य रामं सह लक्ष्मणेन
मद्बाणनिर्भिन्नविकीर्णदेहम् ।
गतायुषं भूमितले शयानं
शितैः शरैराचितसर्वगात्रम् ॥ ५ ॥
मूलम्
पश्याद्य रामं सह लक्ष्मणेन
मद्बाणनिर्भिन्नविकीर्णदेहम् ।
गतायुषं भूमितले शयानं
शितैः शरैराचितसर्वगात्रम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखिये, आज मैं राम और लक्ष्मणके शरीरको बाणोंसे छिन्न-भिन्न करके उनके सारे अङ्गोंको तीखे सायकोंसे भर देता हूँ, और वे दोनों भाई गतायु होकर सदाके लिये धरतीपर सो जाते हैं ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमां प्रतिज्ञां शृणु शक्रशत्रोः
सुनिश्चितां पौरुषदैवयुक्ताम् ।
अद्यैव रामं सह लक्ष्मणेन
सन्तर्पयिष्यामि शरैरमोघैः ॥ ६ ॥
मूलम्
इमां प्रतिज्ञां शृणु शक्रशत्रोः
सुनिश्चितां पौरुषदैवयुक्ताम् ।
अद्यैव रामं सह लक्ष्मणेन
सन्तर्पयिष्यामि शरैरमोघैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप मुझ इन्द्रशत्रुकी इस सुनिश्चित प्रतिज्ञाको, जो मेरे पुरुषार्थसे और दैवबल (ब्रह्माजीकी कृपा)-से भी सिद्ध होनेवाली है, सुन लीजिये—मैं आज ही लक्ष्मणसहित रामको अपने अमोघ बाणोंसे पूर्णतः तृप्त करूँगा—उनकी युद्धविषयक पिपासाको बुझा दूँगा ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्येन्द्रवैवस्वतविष्णुरुद्र-
साध्याश्च वैश्वानरचन्द्रसूर्याः ।
द्रक्ष्यन्ति मे विक्रममप्रमेयं
विष्णोरिवोग्रं बलियज्ञवाटे ॥ ७ ॥
मूलम्
अद्येन्द्रवैवस्वतविष्णुरुद्र-
साध्याश्च वैश्वानरचन्द्रसूर्याः ।
द्रक्ष्यन्ति मे विक्रममप्रमेयं
विष्णोरिवोग्रं बलियज्ञवाटे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज इन्द्र, यम, विष्णु, रुद्र, साध्य, अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा बलिके यज्ञमण्डपमें भगवान् विष्णुके भयंकर विक्रमकी भाँति मेरे अपार पराक्रमको देखेंगे’ ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त्वा त्रिदशेन्द्रशत्रु-
रापृच्छ्य राजानमदीनसत्त्वः ।
समारुरोहानिलतुल्यवेगं
रथं खरश्रेष्ठसमाधियुक्तम् ॥ ८ ॥
मूलम्
स एवमुक्त्वा त्रिदशेन्द्रशत्रु-
रापृच्छ्य राजानमदीनसत्त्वः ।
समारुरोहानिलतुल्यवेगं
रथं खरश्रेष्ठसमाधियुक्तम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर उदारचेता इन्द्रशत्रु इन्द्रजित् ने राजा रावणसे आज्ञा ली और अच्छे गदहोंसे जुते हुए, युद्धसामग्रीसे सम्पन्न एवं वायुके समान वेगशाली रथपर वह सवार हुआ ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समास्थाय महातेजा रथं हरिरथोपमम् ।
जगाम सहसा तत्र यत्र युद्धमरिन्दमः ॥ ९ ॥
मूलम्
समास्थाय महातेजा रथं हरिरथोपमम् ।
जगाम सहसा तत्र यत्र युद्धमरिन्दमः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका रथ इन्द्रके रथके समान जान पड़ता था । उसपर आरूढ़ हो शत्रुओंका दमन करनेवाला वह महातेजस्वी निशाचर सहसा उस स्थानपर जा पहुँचा, जहाँ युद्ध हो रहा था ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं प्रस्थितं महात्मानमनुजग्मुर्महाबलाः ।
संहर्षमाणा बहवो धनुःप्रवरपाणयः ॥ १० ॥
मूलम्
तं प्रस्थितं महात्मानमनुजग्मुर्महाबलाः ।
संहर्षमाणा बहवो धनुःप्रवरपाणयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महामनस्वी वीरको प्रस्थान करते देख बहुत-से महाबली राक्षस हाथोंमें श्रेष्ठ धनुष लिये हर्ष और उत्साहके साथ उसके पीछे-पीछे चले ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गजस्कन्धगताः केचित् केचित् परमवाजिभिः ।
व्याघ्रवृश्चिकमार्जारखरोष्ट्रैश्च भुजङ्गमैः ॥ ११ ॥
वराहैः श्वापदैः सिंहैर्जम्बुकैः पर्वतोपमैः ।
काकहंसमयूरैश्च राक्षसा भीमविक्रमाः ॥ १२ ॥
मूलम्
गजस्कन्धगताः केचित् केचित् परमवाजिभिः ।
व्याघ्रवृश्चिकमार्जारखरोष्ट्रैश्च भुजङ्गमैः ॥ ११ ॥
वराहैः श्वापदैः सिंहैर्जम्बुकैः पर्वतोपमैः ।
काकहंसमयूरैश्च राक्षसा भीमविक्रमाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई हाथीपर बैठकर चले तो कोई उत्तम घोड़ोंपर । इनके सिवा बाघ, बिच्छू, बिलाव, गदहे, ऊँट, सर्प, सूअर, अन्य हिंसक जन्तु, सिंह, पर्वताकार गीदड़, कौआ, हंस और मोर आदिकी सवारियोंपर चढ़े हुए भयानक पराक्रमी राक्षस वहाँ युद्धके लिये आये ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासपट्टिशनिस्त्रिंशपरश्वधगदाधराः ।
भुशुण्डिमुद्गरायष्टिशतघ्नीपरिघायुधाः ॥ १३ ॥
मूलम्
प्रासपट्टिशनिस्त्रिंशपरश्वधगदाधराः ।
भुशुण्डिमुद्गरायष्टिशतघ्नीपरिघायुधाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने प्रास, पट्टिश, खड्ग, फरसे, गदा, भुशुण्डि, मुद्गर, डंडे, शतघ्नी और परिघ आदि आयुध धारण कर रखे थे ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शङ्खनिनदैः पूर्णैर्भेरीणां चापि निःस्वनैः ।
जगाम त्रिदशेन्द्रारिराजिं वेगेन वीर्यवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
स शङ्खनिनदैः पूर्णैर्भेरीणां चापि निःस्वनैः ।
जगाम त्रिदशेन्द्रारिराजिं वेगेन वीर्यवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शङ्खोंकी ध्वनिके साथ मिली हुई भेरियोंकी भयानक आवाज सब ओर गूँज उठी । उस तुमुलनादके साथ इन्द्रद्रोही पराक्रमी इन्द्रजित् ने बड़े वेगसे रणभूमिकी ओर प्रस्थान किया ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शङ्खशशिवर्णेन छत्रेण रिपुसूदनः ।
रराज प्रतिपूर्णेन नभश्चन्द्रमसा यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
स शङ्खशशिवर्णेन छत्रेण रिपुसूदनः ।
रराज प्रतिपूर्णेन नभश्चन्द्रमसा यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पूर्ण चन्द्रमासे उपलक्षित आकाशकी शोभा होती है, उसी प्रकार ऊपर तने हुए शङ्ख और शशिके समान वर्णवाले श्वेत छत्रसे वह शत्रुसूदन इन्द्रजित् सुशोभित हो रहा था ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीज्यमानस्ततो वीरो हैमैर्हेमविभूषणः ।
चारुचामरमुख्यैश्च मुख्यः सर्वधनुष्मताम् ॥ १६ ॥
मूलम्
वीज्यमानस्ततो वीरो हैमैर्हेमविभूषणः ।
चारुचामरमुख्यैश्च मुख्यः सर्वधनुष्मताम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके आभूषणोंसे विभूषित और समस्त धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ उस वीर निशाचरको दोनों ओरसे सुवर्णनिर्मित उत्तम एवं मनोहर चँवर डुलाये जा रहे थे ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु दृष्ट्वा विनिर्यान्तं बलेन महता वृतम् ।
राक्षसाधिपतिः श्रीमान् रावणः पुत्रमब्रवीत् ॥ १७ ॥
मूलम्
स तु दृष्ट्वा विनिर्यान्तं बलेन महता वृतम् ।
राक्षसाधिपतिः श्रीमान् रावणः पुत्रमब्रवीत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशाल सेनासे घिरे हुए अपने पुत्र इन्द्रजित् को प्रस्थान करते देख राक्षसोंके राजा श्रीमान् रावणने उससे कहा— ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमप्रतिरथः पुत्र त्वया वै वासवो जितः ।
किं पुनर्मानुषं धृष्यं निहनिष्यसि राघवम् ॥ १८ ॥
मूलम्
त्वमप्रतिरथः पुत्र त्वया वै वासवो जितः ।
किं पुनर्मानुषं धृष्यं निहनिष्यसि राघवम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! कोई भी ऐसा प्रतिद्वन्द्वी रथी नहीं है, जो तुम्हारा सामना कर सके । तुमने देवराज इन्द्रको भी पराजित किया है । फिर आसानीसे जीत लेने योग्य एक मनुष्यको परास्त करना तुम्हारे लिये कौन बड़ी बात है? तुम अवश्य ही रघुवंशी रामका वध करोगे’ ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोक्तो राक्षसेन्द्रेण प्रत्यगृह्णान्महाशिषः ।
ततस्त्विन्द्रजिता लङ्का सूर्यप्रतिमतेजसा ॥ १९ ॥
रराजाप्रतिवीर्येण द्यौरिवार्केण भास्वता ।
मूलम्
तथोक्तो राक्षसेन्द्रेण प्रत्यगृह्णान्महाशिषः ।
ततस्त्विन्द्रजिता लङ्का सूर्यप्रतिमतेजसा ॥ १९ ॥
रराजाप्रतिवीर्येण द्यौरिवार्केण भास्वता ।
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराजके ऐसा कहनेपर इन्द्रजित् ने उसके उस महान् आशीर्वादको सिर झुकाकर ग्रहण किया । फिर तो जैसे अनुपम तेजस्वी सूर्यसे आकाशकी शोभा होती है, उसी प्रकार अप्रतिम शक्तिशाली और सूर्यतुल्य तेजस्वी इन्द्रजित् से लङ्कापुरी सुशोभित होने लगी ॥ १९ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सम्प्राप्य महातेजा युद्धभूमिमरिन्दमः ॥ २० ॥
स्थापयामास रक्षांसि रथं प्रति समन्ततः ।
मूलम्
स सम्प्राप्य महातेजा युद्धभूमिमरिन्दमः ॥ २० ॥
स्थापयामास रक्षांसि रथं प्रति समन्ततः ।
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी शत्रुदमन इन्द्रजित् ने रणभूमिमें पहुँचकर अपने रथके चारों ओर राक्षसोंको खड़ा कर दिया ॥ २० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु हुतभोक्तारं हुतभुक्सदृशप्रभः ॥ २१ ॥
जुहुवे राक्षसश्रेष्ठो विधिवन्मन्त्रसत्तमैः ।
स हविर्लाजसत्कारैर्माल्यगन्धपुरस्कृतैः ॥ २२ ॥
जुहुवे पावकं तत्र राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् ।
मूलम्
ततस्तु हुतभोक्तारं हुतभुक्सदृशप्रभः ॥ २१ ॥
जुहुवे राक्षसश्रेष्ठो विधिवन्मन्त्रसत्तमैः ।
स हविर्लाजसत्कारैर्माल्यगन्धपुरस्कृतैः ॥ २२ ॥
जुहुवे पावकं तत्र राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् ।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बीचमें रथसे उतरकर पृथ्वीपर अग्निकी स्थापना करके अग्नितुल्य तेजस्वी उस राक्षसशिरोमणि वीरने चन्दन, फूल तथा लावा आदिके द्वारा अग्निदेवका पूजन किया । उसके बाद उस प्रतापी राक्षसराजने विधिपूर्वक श्रेष्ठ मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए उस अग्निमें हविष्यकी आहुति दी ॥ २१-२२ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शस्त्राणि शरपत्राणि समिधोऽथ बिभीतकाः ॥ २३ ॥
लोहितानि च वासांसि स्रुवं कार्ष्णायसं तथा ।
मूलम्
शस्त्राणि शरपत्राणि समिधोऽथ बिभीतकाः ॥ २३ ॥
लोहितानि च वासांसि स्रुवं कार्ष्णायसं तथा ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शस्त्र ही अग्निवेदीके चारों ओर बिछानेके लिये कुश या कासके पत्ते थे । बहेड़ेकी लकड़ीसे ही समिधाका काम लिया गया था । लाल रंगके वस्त्र उपयोगमें लाये गये और उस आभिचारिक यज्ञमें जो स्रुवा था, वह लोहेका बना हुआ था ॥ २३ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तत्राग्निं समास्तीर्य शरपत्रैः सतोमरैः ॥ २४ ॥
छागस्य कृष्णवर्णस्य गलं जग्राह जीवतः ।
मूलम्
स तत्राग्निं समास्तीर्य शरपत्रैः सतोमरैः ॥ २४ ॥
छागस्य कृष्णवर्णस्य गलं जग्राह जीवतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उसने वहाँ तोमरसहित शस्त्ररूपी कासके पत्तोंको अग्निके चारों ओर फैलाकर होमके लिये काले रंगके जीवित बकरेका गला पकड़ा ॥ २४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृदेव समिद्धस्य विधूमस्य महार्चिषः ॥ २५ ॥
बभूवुस्तानि लिङ्गानि विजयं यान्यदर्शयन् ।
मूलम्
सकृदेव समिद्धस्य विधूमस्य महार्चिषः ॥ २५ ॥
बभूवुस्तानि लिङ्गानि विजयं यान्यदर्शयन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
एक ही बार दी हुई उस आहुतिसे अग्नि प्रज्वलित हो उठी । उसमें धूम नहीं दिखायी देता था और आगकी बड़ी-बड़ी लपटें उठ रही थीं । उस समय उस अग्निसे वे सभी चिह्न प्रकट हुए, जो पूर्वकालमें उसे अपनी विजय दिखा चुके थे—युद्धस्थलमें उसको विजयकी प्राप्ति करा चुके थे ॥ २५ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदक्षिणावर्तशिखस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ॥ २६ ॥
हविस्तत् प्रतिजग्राह पावकः स्वयमुत्थितः ।
मूलम्
प्रदक्षिणावर्तशिखस्तप्तकाञ्चनसन्निभः ॥ २६ ॥
हविस्तत् प्रतिजग्राह पावकः स्वयमुत्थितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निदेवकी शिखा दक्षिणावर्त दिखायी देने लगी । उनका वर्ण तपाये हुए सुवर्णके समान सुन्दर था । इस रूपमें वे स्वयं प्रकट होकर उसके दिये हुए हविष्यको ग्रहण कर रहे थे ॥ २६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽस्त्रमाहारयामास ब्राह्ममस्त्रविशारदः ॥ २७ ॥
धनुश्चात्मरथं चैव सर्वं तत्राभ्यमन्त्रयत् ।
मूलम्
सोऽस्त्रमाहारयामास ब्राह्ममस्त्रविशारदः ॥ २७ ॥
धनुश्चात्मरथं चैव सर्वं तत्राभ्यमन्त्रयत् ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अस्त्रविद्याविशारद इन्द्रजित् ने ब्रह्मास्त्रका आवाहन किया और अपने धनुष तथा रथ आदि सब वस्तुओंको वहाँ सिद्ध ब्रह्मास्त्रमन्त्रसे अभिमन्त्रित किया ॥ २७ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन्नाहूयमानेऽस्त्रे हूयमाने च पावके ।
सार्कग्रहेन्दुनक्षत्रं वितत्रास नभस्थलम् ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्मिन्नाहूयमानेऽस्त्रे हूयमाने च पावके ।
सार्कग्रहेन्दुनक्षत्रं वितत्रास नभस्थलम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अग्निमें आहुति देकर उसने ब्रह्मास्त्रका आवाहन किया, तब सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह तथा नक्षत्रोंके साथ अन्तरिक्षलोकके सभी प्राणी भयभीत हो गये ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पावकं पावकदीप्ततेजा
हुत्वा महेन्द्रप्रतिमप्रभावः ।
सचापबाणासिरथाश्वसूतः
खेऽन्तर्दधेऽऽत्मानमचिन्त्यवीर्यः ॥ २९ ॥
मूलम्
स पावकं पावकदीप्ततेजा
हुत्वा महेन्द्रप्रतिमप्रभावः ।
सचापबाणासिरथाश्वसूतः
खेऽन्तर्दधेऽऽत्मानमचिन्त्यवीर्यः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका तेज अग्निके समान उद्दीप्त हो रहा था तथा जो देवराज इन्द्रके समान अनुपम प्रभावसे युक्त था; उस अचिन्त्य पराक्रमी इन्द्रजित् ने अग्निमें आहुति देनेके पश्चात् धनुष, बाण, रथ, खड्ग, घोड़े और सारथिसहित अपने-आपको आकाशमें अदृश्य कर लिया ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हयरथाकीर्णं पताकाध्वजशोभितम् ।
निर्ययौ राक्षसबलं नर्दमानं युयुत्सया ॥ ३० ॥
मूलम्
ततो हयरथाकीर्णं पताकाध्वजशोभितम् ।
निर्ययौ राक्षसबलं नर्दमानं युयुत्सया ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद वह घोड़े और रथोंसे व्याप्त तथा ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित राक्षससेनामें गया, जो युद्धकी इच्छासे गर्जना कर रही थी ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शरैर्बहुभिश्चित्रैस्तीक्ष्णवेगैरलङ्कृतैः ।
तोमरैरङ्कुशैश्चापि वानराञ्जघ्नुराहवे ॥ ३१ ॥
मूलम्
ते शरैर्बहुभिश्चित्रैस्तीक्ष्णवेगैरलङ्कृतैः ।
तोमरैरङ्कुशैश्चापि वानराञ्जघ्नुराहवे ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे राक्षस दुःसह वेगवाले, सुवर्णभूषित, विचित्र एवं बहुसंख्यक बाणों, तोमरों और अंकुशोंद्वारा रणभूमिमें वानरोंपर प्रहार कर रहे थे ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणिस्तु सुसङ्क्रुद्धस्तान् निरीक्ष्य निशाचरान् ।
हृष्टा भवन्तो युध्यन्तु वानराणां जिघांसया ॥ ३२ ॥
मूलम्
रावणिस्तु सुसङ्क्रुद्धस्तान् निरीक्ष्य निशाचरान् ।
हृष्टा भवन्तो युध्यन्तु वानराणां जिघांसया ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणपुत्र इन्द्रजित् शत्रुओंके प्रति अत्यन्त क्रोधसे भरा हुआ था । उसने निशाचरोंकी ओर देखकर कहा—‘तुमलोग वानरोंको मार डालनेकी इच्छासे हर्ष और उत्साहपूर्वक युद्ध करो’ ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते राक्षसाः सर्वे गर्जन्तो जयकाङ्क्षिणः ।
अभ्यवर्षंस्ततो घोरं वानरान् शरवृष्टिभिः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततस्ते राक्षसाः सर्वे गर्जन्तो जयकाङ्क्षिणः ।
अभ्यवर्षंस्ततो घोरं वानरान् शरवृष्टिभिः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके इस प्रकार प्रेरणा देनेपर विजयकी अभिलाषा रखनेवाले वे समस्त राक्षस जोर-जोरसे गर्जना करते हुए वहाँ वानरोंपर बाणोंकी भयंकर वर्षा करने लगे ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु नालीकनाराचैर्गदाभिर्मुसलैरपि ।
रक्षोभिः संवृतः सङ्ख्ये वानरान् विचकर्ष ह ॥ ३४ ॥
मूलम्
स तु नालीकनाराचैर्गदाभिर्मुसलैरपि ।
रक्षोभिः संवृतः सङ्ख्ये वानरान् विचकर्ष ह ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस युद्धस्थलमें राक्षसोंसे घिरे रहकर इन्द्रजित् ने भी नालीक, नाराच, गदा और मुसल आदि अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा वानरोंका संहार आरम्भ किया ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वध्यमानाः समरे वानराः पादपायुधाः ।
अभ्यवर्षन्त सहसा रावणिं शैलपादपैः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ते वध्यमानाः समरे वानराः पादपायुधाः ।
अभ्यवर्षन्त सहसा रावणिं शैलपादपैः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समराङ्गणमें उसके अस्त्र-शस्त्रोंसे घायल होनेवाले वानर भी जो वृक्षोंसे ही हथियारका काम लेते थे, सहसा रावणकुमारपर शैल-शिखरों और वृक्षोंकी वर्षा करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रजित् तु तदा क्रुद्धो महातेजा महाबलः ।
वानराणां शरीराणि व्यधमद् रावणात्मजः ॥ ३६ ॥
मूलम्
इन्द्रजित् तु तदा क्रुद्धो महातेजा महाबलः ।
वानराणां शरीराणि व्यधमद् रावणात्मजः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुपित हुए महातेजस्वी महाबली रावणपुत्र इन्द्रजित् ने वानरोंके शरीरोंको छिन्न-भिन्न कर डाला ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरेणैकेन च हरीन् नव पञ्च च सप्त च ।
बिभेद समरे क्रुद्धो राक्षसान् सम्प्रहर्षयन् ॥ ३७ ॥
मूलम्
शरेणैकेन च हरीन् नव पञ्च च सप्त च ।
बिभेद समरे क्रुद्धो राक्षसान् सम्प्रहर्षयन् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमें राक्षसोंका हर्ष बढ़ाता हुआ इन्द्रजित् रोषसे भरकर एक-एक बाणसे पाँच-पाँच, सात-सात तथा नौ-नौ वानरोंको विदीर्ण कर डालता था ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शरैः सूर्यसङ्काशैः शातकुम्भविभूषणैः ।
वानरान् समरे वीरः प्रममाथ सुदुर्जयः ॥ ३८ ॥
मूलम्
स शरैः सूर्यसङ्काशैः शातकुम्भविभूषणैः ।
वानरान् समरे वीरः प्रममाथ सुदुर्जयः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अत्यन्त दुर्जय वीरने सुवर्णभूषित सूर्यतुल्य तेजस्वी सायकोंद्वारा समरभूमिमें वानरोंको मथ डाला ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते भिन्नगात्राः समरे वानराः शरपीडिताः ।
पेतुर्मथितसङ्कल्पाः सुरैरिव महासुराः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ते भिन्नगात्राः समरे वानराः शरपीडिताः ।
पेतुर्मथितसङ्कल्पाः सुरैरिव महासुराः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणक्षेत्रमें देवताओंद्वारा पीड़ित हुए बड़े-बड़े असुरोंकी भाँति इन्द्रजित् के बाणोंसे व्यथित हुए वानरोंके शरीर छिन्न-भिन्न हो गये । उनकी विजयकी आशापर तुषारपात हो गया और वे अचेत-से होकर पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तपन्तमिवादित्यं घोरैर्बाणगभस्तिभिः ।
अभ्यधावन्त सङ्क्रुद्धाः संयुगे वानरर्षभाः ॥ ४० ॥
मूलम्
ते तपन्तमिवादित्यं घोरैर्बाणगभस्तिभिः ।
अभ्यधावन्त सङ्क्रुद्धाः संयुगे वानरर्षभाः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय युद्धस्थलमें बाणरूपी भयंकर किरणोंद्वारा सूर्यके समान तपते हुए इन्द्रजित् पर प्रधान-प्रधान वानरोंने बड़े रोषके साथ धावा किया ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु वानराः सर्वे भिन्नदेहा विचेतसः ।
व्यथिता विद्रवन्ति स्म रुधिरेण समुक्षिताः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततस्तु वानराः सर्वे भिन्नदेहा विचेतसः ।
व्यथिता विद्रवन्ति स्म रुधिरेण समुक्षिताः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु उसके बाणोंसे शरीरके क्षत-विक्षत हो जानेसे वे सब वानर अचेत-से हो गये और खूनसे लथपथ हो व्यथित होकर इधर-उधर भागने लगे ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्यार्थे पराक्रम्य वानरास्त्यक्तजीविताः ।
नर्दन्तस्तेऽनिवृत्तास्तु समरे सशिलायुधाः ॥ ४२ ॥
मूलम्
रामस्यार्थे पराक्रम्य वानरास्त्यक्तजीविताः ।
नर्दन्तस्तेऽनिवृत्तास्तु समरे सशिलायुधाः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरोंने भगवान् श्रीरामके लिये अपने जीवनका मोह छोड़ दिया था । वे पराक्रमपूर्वक गर्जना करते हुए हाथमें शिलाएँ लिये समरभूमिमें डटे रहे—युद्धभूमिसे पीछे न हटे ॥ ४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते द्रुमैः पर्वताग्रैश्च शिलाभिश्च प्लवङ्गमाः ।
अभ्यवर्षन्त समरे रावणिं समवस्थिताः ॥ ४३ ॥
मूलम्
ते द्रुमैः पर्वताग्रैश्च शिलाभिश्च प्लवङ्गमाः ।
अभ्यवर्षन्त समरे रावणिं समवस्थिताः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समराङ्गणमें खड़े हुए वे वानर रावणकुमारपर वृक्षों, पर्वतशिखरों और शिलाओंकी वर्षा करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं द्रुमाणां शिलानां च वर्षं प्राणहरं महत् ।
व्यपोहत महातेजा रावणिः समितिञ्जयः ॥ ४४ ॥
मूलम्
तं द्रुमाणां शिलानां च वर्षं प्राणहरं महत् ।
व्यपोहत महातेजा रावणिः समितिञ्जयः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्षों और शिलाओंकी वह भारी वृष्टि राक्षसोंके प्राण हर लेनेवाली थी; परंतु समरविजयी महातेजस्वी रावणपुत्रने अपने बाणोंद्वारा उसे दूर हटा दिया ॥ ४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पावकसङ्काशैः शरैराशीविषोपमैः ।
वानराणामनीकानि बिभेद समरे प्रभुः ॥ ४५ ॥
मूलम्
ततः पावकसङ्काशैः शरैराशीविषोपमैः ।
वानराणामनीकानि बिभेद समरे प्रभुः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् विषधर सर्पोंके समान भयंकर और अग्नितुल्य तेजस्वी बाणोंद्वारा उस शक्तिशाली वीरने समराङ्गणमें वानर-सैनिकोंको विदीर्ण करना आरम्भ किया ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टादशशरैस्तीक्ष्णैः स विद्ध्वा गन्धमादनम् ।
विव्याध नवभिश्चैव नलं दूरादवस्थितम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अष्टादशशरैस्तीक्ष्णैः स विद्ध्वा गन्धमादनम् ।
विव्याध नवभिश्चैव नलं दूरादवस्थितम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अठारह तीखे बाणोंसे गन्धमादनको घायल करके दूर खड़े हुए नलपर भी नौ बाणोंका प्रहार किया ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सप्तभिस्तु महावीर्यो मैन्दं मर्मविदारणैः ।
पञ्चभिर्विशिखैश्चैव गजं विव्याध संयुगे ॥ ४७ ॥
मूलम्
सप्तभिस्तु महावीर्यो मैन्दं मर्मविदारणैः ।
पञ्चभिर्विशिखैश्चैव गजं विव्याध संयुगे ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद महापराक्रमी इन्द्रजित् ने सात मर्मभेदी सायकोंद्वारा मैन्दको और पाँच बाणोंसे गजको भी युद्धस्थलमें बींध डाला ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाम्बवन्तं तु दशभिर्नीलं त्रिंशद्भिरेव च ।
सुग्रीवमृषभं चैव सोऽङ्गदं द्विविदं तथा ॥ ४८ ॥
घोरैर्दत्तवरैस्तीक्ष्णैर्निष्प्राणानकरोत् तदा ।
मूलम्
जाम्बवन्तं तु दशभिर्नीलं त्रिंशद्भिरेव च ।
सुग्रीवमृषभं चैव सोऽङ्गदं द्विविदं तथा ॥ ४८ ॥
घोरैर्दत्तवरैस्तीक्ष्णैर्निष्प्राणानकरोत् तदा ।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर दस बाणोंसे जाम्बवान् को और तीस सायकोंसे नीलको घायल कर दिया । तदनन्तर वरदानमें प्राप्त हुए बहुसंख्यक तीखे और भयानक सायकोंका प्रहार करके उस समय उसने सुग्रीव, ऋषभ, अङ्गद और द्विविदको भी निष्प्राण-सा कर दिया ॥ ४८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यानपि तथा मुख्यान् वानरान् बहुभिः शरैः ॥ ४९ ॥
अर्दयामास सङ्क्रुद्धः कालाग्निरिव मूर्च्छितः ।
मूलम्
अन्यानपि तथा मुख्यान् वानरान् बहुभिः शरैः ॥ ४९ ॥
अर्दयामास सङ्क्रुद्धः कालाग्निरिव मूर्च्छितः ।
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओर फैली हुई प्रलयाग्निके समान अत्यन्त रोषसे भरे हुए इन्द्रजित् ने दूसरे-दूसरे श्रेष्ठ वानरोंको भी बहुसंख्यक बाणोंकी मारसे व्यथित कर दिया ॥ ४९ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शरैः सूर्यसङ्काशैः सुमुक्तैः शीघ्रगामिभिः ॥ ५० ॥
वानराणामनीकानि निर्ममन्थ महारणे ।
मूलम्
स शरैः सूर्यसङ्काशैः सुमुक्तैः शीघ्रगामिभिः ॥ ५० ॥
वानराणामनीकानि निर्ममन्थ महारणे ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस महासमरमें रावणकुमारने अच्छी तरह छोड़े हुए सूर्यतुल्य तेजस्वी शीघ्रगामी सायकोंद्वारा वानरोंकी सेनाओंको मथ डाला ॥ ५० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकुलां वानरीं सेनां शरजालेन पीडिताम् ॥ ५१ ॥
हृष्टः स परया प्रीत्या ददर्श क्षतजोक्षिताम् ।
मूलम्
आकुलां वानरीं सेनां शरजालेन पीडिताम् ॥ ५१ ॥
हृष्टः स परया प्रीत्या ददर्श क्षतजोक्षिताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाणजालसे पीड़ित हो वानरी-सेना व्याकुल हो उठी और रक्तसे नहा गयी । उसने बड़े हर्ष और प्रसन्नताके साथ शत्रुसेनाकी इस दुरवस्थाको देखा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरेव महातेजा राक्षसेन्द्रात्मजो बली ॥ ५२ ॥
संसृज्य बाणवर्षं च शस्त्रवर्षं च दारुणम् ।
ममर्द वानरानीकं परितस्त्विन्द्रजिद् बली ॥ ५३ ॥
मूलम्
पुनरेव महातेजा राक्षसेन्द्रात्मजो बली ॥ ५२ ॥
संसृज्य बाणवर्षं च शस्त्रवर्षं च दारुणम् ।
ममर्द वानरानीकं परितस्त्विन्द्रजिद् बली ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह राक्षसराजकुमार इन्द्रजित् बड़ा तेजस्वी, प्रभावशाली एवं बलवान् था । उसने सब ओरसे बाणों तथा अन्यान्य अस्त्र-शस्त्रोंकी भयंकर वर्षा करके पुनः वानर-सेनाको रौंद डाला ॥ ५२-५३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वसैन्यमुत्सृज्य समेत्य तूर्णं
महाहवे वानरवाहिनीषु ।
अदृश्यमानः शरजालमुग्रं
ववर्ष नीलाम्बुधरो यथाम्बु ॥ ५४ ॥
मूलम्
स्वसैन्यमुत्सृज्य समेत्य तूर्णं
महाहवे वानरवाहिनीषु ।
अदृश्यमानः शरजालमुग्रं
ववर्ष नीलाम्बुधरो यथाम्बु ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वह अपनी सेनाके ऊपरी भागको छोड़कर उस महासमरमें तुरंत वानर-सेनाके ऊपर जा पहुँचा और स्वयं आकाशमें अदृश्य रहकर भयानक बाणसमूहकी उसी तरह वर्षा करने लगा, जैसे काला मेघ जलकी वृष्टि करता है ॥ ५४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते शक्रजिद्बाणविशीर्णदेहा
मायाहता विस्वरमुन्नदन्तः ।
रणे निपेतुर्हरयोऽद्रिकल्पा
यथेन्द्रवज्राभिहता नगेन्द्राः ॥ ५५ ॥
मूलम्
ते शक्रजिद्बाणविशीर्णदेहा
मायाहता विस्वरमुन्नदन्तः ।
रणे निपेतुर्हरयोऽद्रिकल्पा
यथेन्द्रवज्राभिहता नगेन्द्राः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्रके वज्रसे आहत हो बड़े-बड़े पर्वत धराशायी हो जाते हैं, उसी प्रकार वे पर्वताकार वानर रणभूमिमें इन्द्रजित् के बाणोंद्वारा छलसे मारे जाकर शरीरके क्षत-विक्षत हो जानेसे विकृत स्वरमें चीखते-चिल्लाते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ५५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते केवलं सन्ददृशुः शिताग्रान्
बाणान् रणे वानरवाहिनीषु ।
मायाविगूढं च सुरेन्द्रशत्रुं
न चात्र तं राक्षसमप्यपश्यन् ॥ ५६ ॥
मूलम्
ते केवलं सन्ददृशुः शिताग्रान्
बाणान् रणे वानरवाहिनीषु ।
मायाविगूढं च सुरेन्द्रशत्रुं
न चात्र तं राक्षसमप्यपश्यन् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रणभूमिमे वानर-सेनाओंपर जो पैनी धारवाले बाण गिर रहे थे, केवल उन्हींको वे वानर देख रहे थे । मायासे छिपे हुए उस इन्द्रद्रोही राक्षसको कहीं नहीं देख पाते थे ॥ ५६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स रक्षोधिपतिर्महात्मा
सर्वा दिशो बाणगणैः शिताग्रैः ।
प्रच्छादयामास रविप्रकाशै-
र्विदारयामास च वानरेन्द्रान् ॥ ५७ ॥
मूलम्
ततः स रक्षोधिपतिर्महात्मा
सर्वा दिशो बाणगणैः शिताग्रैः ।
प्रच्छादयामास रविप्रकाशै-
र्विदारयामास च वानरेन्द्रान् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उस महाकाय राक्षसराजने तीखी धारवाले सूर्यतुल्य तेजस्वी बाण-समूहोंद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको ढक दिया और वानर-सेनापतियोंको घायल कर दिया ॥ ५७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शूलनिस्त्रिंशपरश्वधानि
व्याविद्धदीप्तानलसप्रभाणि ।
सविस्फुलिङ्गोज्ज्वलपावकानि
ववर्ष तीव्रं प्लवगेन्द्रसैन्ये ॥ ५८ ॥
मूलम्
स शूलनिस्त्रिंशपरश्वधानि
व्याविद्धदीप्तानलसप्रभाणि ।
सविस्फुलिङ्गोज्ज्वलपावकानि
ववर्ष तीव्रं प्लवगेन्द्रसैन्ये ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वानरराजकी सेनामें बढ़े हुए प्रज्वलित पावकके समान दीप्तिमान् तथा चिनगारियोंसहित उज्ज्वल आग प्रकट करनेवाले शूल, खड्ग और फरसोंकी दुःसह वृष्टि करने लगा ॥ ५८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो ज्वलनसङ्काशैर्बाणैर्वानरयूथपाः ।
ताडिताः शक्रजिद्बाणैः प्रफुल्ला इव किंशुकाः ॥ ५९ ॥
मूलम्
ततो ज्वलनसङ्काशैर्बाणैर्वानरयूथपाः ।
ताडिताः शक्रजिद्बाणैः प्रफुल्ला इव किंशुकाः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रजित् के चलाये हुए अग्नितुल्य तेजस्वी बाणोंसे घायल हो रक्तसे नहाकर सारे वानर-यूथपति खिले हुए पलाश वृक्षके समान जान पड़ते थे ॥ ५९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽन्योन्यमभिसर्पन्तो निनदन्तश्च विस्वरम् ।
राक्षसेन्द्रास्त्रनिर्भिन्ना निपेतुर्वानरर्षभाः ॥ ६० ॥
मूलम्
तेऽन्योन्यमभिसर्पन्तो निनदन्तश्च विस्वरम् ।
राक्षसेन्द्रास्त्रनिर्भिन्ना निपेतुर्वानरर्षभाः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराज इन्द्रजित् के बाणोंसे विदीर्ण हो वे श्रेष्ठ वानर एक-दूसरेके सामने जाकर विकृत स्वरमें चीत्कार करते हुए धराशायी हो जाते थे ॥ ६० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदीक्षमाणा गगनं केचिन्नेत्रेषु ताडिताः ।
शरैर्विविशुरन्योन्यं पेतुश्च जगतीतले ॥ ६१ ॥
मूलम्
उदीक्षमाणा गगनं केचिन्नेत्रेषु ताडिताः ।
शरैर्विविशुरन्योन्यं पेतुश्च जगतीतले ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही वानर आकाशकी ओर देख रहे थे । उसी समय उनके नेत्रोंमें बाणोंकी चोट लगी, अतः वे एक-दूसरेके शरीरसे सट गये और पृथ्वीपर गिर पड़े ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमन्तं च सुग्रीवमङ्गदं गन्धमादनम् ।
जाम्बवन्तं सुषेणं च वेगदर्शिनमेव च ॥ ६२ ॥
मैन्दं च द्विविदं नीलं गवाक्षं गवयं तथा ।
केसरिं हरिलोमानं विद्युद्दंष्ट्रं च वानरम् ॥ ६३ ॥
सूर्याननं ज्योतिर्मुखं तथा दधिमुखं हरिम् ।
पावकाक्षं नलं चैव कुमुदं चैव वानरम् ॥ ६४ ॥
प्रासैः शूलैः शितैर्बाणैरिन्द्रजिन्मन्त्रसंहितैः ।
विव्याध हरिशार्दूलान् सर्वांस्तान् राक्षसोत्तमः ॥ ६५ ॥
मूलम्
हनूमन्तं च सुग्रीवमङ्गदं गन्धमादनम् ।
जाम्बवन्तं सुषेणं च वेगदर्शिनमेव च ॥ ६२ ॥
मैन्दं च द्विविदं नीलं गवाक्षं गवयं तथा ।
केसरिं हरिलोमानं विद्युद्दंष्ट्रं च वानरम् ॥ ६३ ॥
सूर्याननं ज्योतिर्मुखं तथा दधिमुखं हरिम् ।
पावकाक्षं नलं चैव कुमुदं चैव वानरम् ॥ ६४ ॥
प्रासैः शूलैः शितैर्बाणैरिन्द्रजिन्मन्त्रसंहितैः ।
विव्याध हरिशार्दूलान् सर्वांस्तान् राक्षसोत्तमः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसप्रवर इन्द्रजित् ने दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित प्रासों, शूलों और पैने बाणोंद्वारा हनुमान्, सुग्रीव, अङ्गद, गन्धमादन, जाम्बवान्, सुषेण, वेगदर्शी, मैन्द, द्विविद, नील, गवाक्ष, गवय, केसरी, हरिलोमा, विद्युद्दंष्ट्र, सूर्यानन, ज्योतिर्मुख, दधिमुख, पावकाक्ष, नल और कुमुद आदि सभी श्रेष्ठ वानरोंको घायल कर दिया ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै गदाभिर्हरियूथमुख्यान्
निर्भिद्य बाणैस्तपनीयवर्णैः ।
ववर्ष रामं शरवृष्टिजालैः
सलक्ष्मणं भास्कररश्मिकल्पैः ॥ ६६ ॥
मूलम्
स वै गदाभिर्हरियूथमुख्यान्
निर्भिद्य बाणैस्तपनीयवर्णैः ।
ववर्ष रामं शरवृष्टिजालैः
सलक्ष्मणं भास्कररश्मिकल्पैः ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गदाओं और सुवर्णके समान कान्तिमान् बाणोंद्वारा वानर-यूथपतियोंको क्षत-विक्षत करके वह लक्ष्मणसहित श्रीरामपर सूर्यकी किरणोंके समान चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगा ॥ ६६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बाणवर्षैरभिवृष्यमाणो
धारानिपातानिव तानचिन्त्य ।
समीक्षमाणः परमाद्भुतश्री-
रामस्तदा लक्ष्मणमित्युवाच ॥ ६७ ॥
मूलम्
स बाणवर्षैरभिवृष्यमाणो
धारानिपातानिव तानचिन्त्य ।
समीक्षमाणः परमाद्भुतश्री-
रामस्तदा लक्ष्मणमित्युवाच ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणवर्षाके लक्ष्य बने हुए परम अद्भुत शोभासे सम्पन्न श्रीराम पानीकी धाराके समान गिरनेवाले उन बाणोंकी कोई परवा न करके लक्ष्मणकी ओर देखते हुए बोले— ॥ ६७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ पुनर्लक्ष्मण राक्षसेन्द्रो
ब्रह्मास्त्रमाश्रित्य सुरेन्द्रशत्रुः ।
निपातयित्वा हरिसैन्यमस्मान्-
शितैः शरैरर्दयति प्रसक्तम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
असौ पुनर्लक्ष्मण राक्षसेन्द्रो
ब्रह्मास्त्रमाश्रित्य सुरेन्द्रशत्रुः ।
निपातयित्वा हरिसैन्यमस्मान्-
शितैः शरैरर्दयति प्रसक्तम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लक्ष्मण! वह इन्द्रद्रोही राक्षसराज इन्द्रजित् प्राप्त हुए ब्रह्मास्त्रका सहारा लेकर वानर-सेनाको धराशायी करनेके पश्चात् अब तीखे बाणोंद्वारा हम दोनोंको भी पीड़ित कर रहा है ॥ ६८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयम्भुवा दत्तवरो महात्मा
समाहितोऽन्तर्हितभीमकायः ।
कथं नु शक्यो युधि नष्टदेहो
निहन्तुमद्येन्द्रजिदुद्यतास्त्रः ॥ ६९ ॥
मूलम्
स्वयम्भुवा दत्तवरो महात्मा
समाहितोऽन्तर्हितभीमकायः ।
कथं नु शक्यो युधि नष्टदेहो
निहन्तुमद्येन्द्रजिदुद्यतास्त्रः ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्माजीसे वरदान पाकर सदा सावधान रहनेवाले इस महामनस्वी वीरने अपने भीषण शरीरको अदृश्य कर लिया है । युद्धमें इस इन्द्रजित् का शरीर तो दिखायी ही नहीं देता, पर यह अस्त्रोंका प्रयोग करता जा रहा है । ऐसी दशामें इसे हमलोग किस तरह मार सकते हैं? ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्ये स्वयम्भूर्भगवानचिन्त्य-
स्तस्यैतदस्त्रं प्रभवश्च योऽस्य ।
बाणावपातं त्वमिहाद्य धीमन्
मया सहाव्यग्रमनाः सहस्व ॥ ७० ॥
मूलम्
मन्ये स्वयम्भूर्भगवानचिन्त्य-
स्तस्यैतदस्त्रं प्रभवश्च योऽस्य ।
बाणावपातं त्वमिहाद्य धीमन्
मया सहाव्यग्रमनाः सहस्व ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माका स्वरूप अचिन्त्य है । वे ही इस जगत् के आदि कारण हैं । मैं समझता हूँ, उन्हींका यह अस्त्र है, अतः बुद्धिमान् सुमित्राकुमार! तुम मनमें किसी प्रकारकी घबराहट न लाकर मेरे साथ यहाँ चुपचाप खड़े हो इन बाणोंकी मार सहो ॥ ७० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रच्छादयत्येष हि राक्षसेन्द्रः
सर्वा दिशः सायकवृष्टिजालैः ।
एतच्च सर्वं पतिताग्र्यशूरं
न भ्राजते वानरराजसैन्यम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
प्रच्छादयत्येष हि राक्षसेन्द्रः
सर्वा दिशः सायकवृष्टिजालैः ।
एतच्च सर्वं पतिताग्र्यशूरं
न भ्राजते वानरराजसैन्यम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह राक्षसराज इन्द्रजित् इस समय बाण-समूहोंकी वर्षा करके सम्पूर्ण दिशाओंको आच्छादित किये देता है । वानरराज सुग्रीवकी यह सारी सेना, जिसके प्रधान-प्रधान शूरवीर धराशायी हो गये हैं, अब शोभा नहीं पा रही है ॥ ७१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवां तु दृष्ट्वा पतितौ विसञ्ज्ञौ
निवृत्तयुद्धौ हतहर्षरोषौ ।
ध्रुवं प्रवेक्ष्यत्यमरारिवास-
मसौ समासाद्य रणाग्र्यलक्ष्मीम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
आवां तु दृष्ट्वा पतितौ विसञ्ज्ञौ
निवृत्तयुद्धौ हतहर्षरोषौ ।
ध्रुवं प्रवेक्ष्यत्यमरारिवास-
मसौ समासाद्य रणाग्र्यलक्ष्मीम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब हम दोनों हर्ष एवं रोषसे रहित तथा युद्धसे निवृत्त हो अचेत-से होकर गिर जायँगे, तब हमें उस अवस्थामें देख युद्धके मुहानेपर विजय-लक्ष्मीको पाकर अवश्य ही यह राक्षसपुरी लङ्कामें लौट जायगा’ ॥ ७२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु ताविन्द्रजितोऽस्त्रजालै-
र्बभूवतुस्तत्र तदा विशस्तौ ।
स चापि तौ तत्र विषादयित्वा
ननाद हर्षाद् युधि राक्षसेन्द्रः ॥ ७३ ॥
मूलम्
ततस्तु ताविन्द्रजितोऽस्त्रजालै-
र्बभूवतुस्तत्र तदा विशस्तौ ।
स चापि तौ तत्र विषादयित्वा
ननाद हर्षाद् युधि राक्षसेन्द्रः ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वे दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मण वहाँ इन्द्रजित् के बाण-समूहोंसे बहुत घायल हो गये । उस समय उन दोनोंको युद्धमें पीड़ित करके उस राक्षसराजने बड़े हर्षके साथ गर्जना की ॥ ७३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तदा वानरसैन्यमेवं
रामं च सङ्ख्ये सह लक्ष्मणेन ।
विषादयित्वा सहसा विवेश
पुरीं दशग्रीवभुजाभिगुप्ताम् ।
संस्तूयमानः स तु यातुधानैः
पित्रे च सर्वं हृषितोऽभ्युवाच ॥ ७४ ॥
मूलम्
ततस्तदा वानरसैन्यमेवं
रामं च सङ्ख्ये सह लक्ष्मणेन ।
विषादयित्वा सहसा विवेश
पुरीं दशग्रीवभुजाभिगुप्ताम् ।
संस्तूयमानः स तु यातुधानैः
पित्रे च सर्वं हृषितोऽभ्युवाच ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार संग्राममें वानरोंकी सेना तथा लक्ष्मणसहित श्रीरामको मूर्च्छित करके इन्द्रजित् सहसा दशमुख रावणकी भुजाओंद्वारा पालित लङ्कापुरीमें चला गया । उस समय समस्त निशाचर उसकी स्तुृति कर रहे थे । वहाँ जाकर उसने पितासे प्रसन्नतापूर्वक अपनी विजयका सारा समाचार बताया ॥ ७४ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रिसप्ततितमः सर्गः ॥ ७३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें तिहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७३ ॥