वाचनम्
भागसूचना
- महोदरका कुम्भकर्णके प्रति आक्षेप करके रावणको बिना युद्धके ही अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिका उपाय बताना
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुक्तमतिकायस्य बलिनो बाहुशालिनः ।
कुम्भकर्णस्य वचनं श्रुत्वोवाच महोदरः ॥ १ ॥
मूलम्
तदुक्तमतिकायस्य बलिनो बाहुशालिनः ।
कुम्भकर्णस्य वचनं श्रुत्वोवाच महोदरः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी भुजाओंसे सुशोभित होनेवाले विशालकाय एवं बलवान् राक्षस कुम्भकर्णका यह वचन सुनकर महोदरने कहा— ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्ण कुले जातो धृष्टः प्राकृतदर्शनः ।
अवलिप्तो न शक्नोषि कृत्यं सर्वत्र वेदितुम् ॥ २ ॥
मूलम्
कुम्भकर्ण कुले जातो धृष्टः प्राकृतदर्शनः ।
अवलिप्तो न शक्नोषि कृत्यं सर्वत्र वेदितुम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुम्भकर्ण! तुम उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए हो; परंतु तुम्हारी दृष्टि (बुद्धि) निम्नश्रेणीके लोगोंके समान है । तुम ढीठ और घमंडी हो, इसलिये सभी विषयोंमें क्या कर्तव्य है—इस बातको नहीं जान सकते ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि राजा न जानीते कुम्भकर्ण नयानयौ ।
त्वं तु कैशोरकाद् धृष्टः केवलं वक्तुमिच्छसि ॥ ३ ॥
मूलम्
नहि राजा न जानीते कुम्भकर्ण नयानयौ ।
त्वं तु कैशोरकाद् धृष्टः केवलं वक्तुमिच्छसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुम्भकर्ण! हमारे महाराज नीति और अनीतिको नहीं जानते हैं, ऐसी बात नहीं है । तुम केवल अपने बचपनके कारण धृष्टतापूर्वक इस तरहकी बातें कहना चाहते हो ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानं वृद्धिं च हानिं च देशकालविधानवित् ।
आत्मनश्च परेषां च बुध्यते राक्षसर्षभः ॥ ४ ॥
मूलम्
स्थानं वृद्धिं च हानिं च देशकालविधानवित् ।
आत्मनश्च परेषां च बुध्यते राक्षसर्षभः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसशिरोमणि रावण देश-कालके लिये उचित कर्तव्यको जानते हैं और अपने तथा शत्रुपक्षके स्थान, वृद्धि एवं क्षयको अच्छी तरह समझते हैं ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् त्वशक्यं बलवता वक्तुं प्राकृतबुद्धिना ।
अनुपासितवृद्धेन कः कुर्यात् तादृशं बुधः ॥ ५ ॥
मूलम्
यत् त्वशक्यं बलवता वक्तुं प्राकृतबुद्धिना ।
अनुपासितवृद्धेन कः कुर्यात् तादृशं बुधः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसने वृद्ध पुरुषोंकी उपासना या सत्संग नहीं किया है और जिसकी बुद्धि गँवारोंके समान है, ऐसा बलवान् पुरुष भी जिस कर्मको नहीं कर सकता—जिसे अनुचित समझता है, वैसे कर्मको कोई बुद्धिमान् पुरुष कैसे कर सकता है? ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यांस्तु धर्मार्थकामांस्त्वं ब्रवीषि पृथगाश्रयान् ।
अवबोद्धुं स्वभावेन नहि लक्षणमस्ति तान् ॥ ६ ॥
मूलम्
यांस्तु धर्मार्थकामांस्त्वं ब्रवीषि पृथगाश्रयान् ।
अवबोद्धुं स्वभावेन नहि लक्षणमस्ति तान् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन अर्थ, धर्म और कामको तुम पृथक्-पृथक् आश्रयवाले बता रहे हो, उन्हें ठीक-ठीक समझनेकी तुम्हारे भीतर शक्ति ही नहीं है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म चैव हि सर्वेषां कारणानां प्रयोजनम् ।
श्रेयः पापीयसां चात्र फलं भवति कर्मणाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
कर्म चैव हि सर्वेषां कारणानां प्रयोजनम् ।
श्रेयः पापीयसां चात्र फलं भवति कर्मणाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुखके साधनभूत जो त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) हैं, उन सबका एकमात्र कर्म ही प्रयोजक है (क्योंकि जो कर्मानुष्ठानसे रहित है, उसका धर्म, अर्थ अथवा काम—कोई भी पुरुषार्थ सफल नहीं होता) । इसी तरह एक पुरुषके प्रयत्नसे सिद्ध होनेवाले सभी शुभाशुभ व्यापारोंका फल यहाँ एक ही कर्ताको प्राप्त होता है (इस प्रकार जब परस्पर विरुद्ध होनेपर भी धर्म और कामका अनुष्ठान एक ही पुरुषके द्वारा होता देखा जाता है, तब तुम्हारा यह कहना कि केवल धर्मका ही अनुष्ठान करना चाहिये, धर्मविरोधी कामका नहीं, कैसे संगत हो सकता है?) ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निःश्रेयसफलावेव धर्मार्थावितरावपि ।
अधर्मानर्थयोः प्राप्तं फलं च प्रत्यवायिकम् ॥ ८ ॥
मूलम्
निःश्रेयसफलावेव धर्मार्थावितरावपि ।
अधर्मानर्थयोः प्राप्तं फलं च प्रत्यवायिकम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्कामभावसे किये गये धर्म (जप, ध्यान आदि) और अर्थ (धनसाध्य यज्ञ, दान आदि)—ये चित्तशुद्धिके द्वारा यद्यपि निःश्रेयस (मोक्ष)-रूप फलकी प्राप्ति करानेवाले हैं तथापि कामना-विशेषसे स्वर्ग एवं अभ्युदय आदि अन्य फलोंकी भी प्राप्ति कराते हैं । पूर्वोक्त जपादिरूप या क्रियामय नित्य-धर्मका लोप होनेपर अधर्म और अनर्थ प्राप्त होते हैं और उनके रहते हुए प्रत्यवायजनित फल भोगना पड़ता है (परंतु काम्य-कर्म न करनेसे प्रत्यवाय नहीं होता, यह धर्म और अर्थकी अपेक्षा कामकी विशेषता है) ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐहलौकिकपारक्यं कर्म पुम्भिर्निषेव्यते ।
कर्माण्यपि तु कल्याणि लभते काममास्थितः ॥ ९ ॥
मूलम्
ऐहलौकिकपारक्यं कर्म पुम्भिर्निषेव्यते ।
कर्माण्यपि तु कल्याणि लभते काममास्थितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जीवोंको धर्म और अधर्मके फल इस लोक और परलोकमें भी भोगने पड़ते हैं । परंतु जो कामना-विशेषके उद्देश्यसे यत्नपूर्वक कर्मोंका अनुष्ठान करता है, उसे यहाँ भी उसके सुख-मनोरथकी प्राप्ति हो जाती है । धर्म आदिके फलकी भाँति उसके लिये कालान्तर या लोकान्तरकी अपेक्षा नहीं होती है (इस तरह काम धर्म और अर्थसे विलक्षण सिद्ध होता है) ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र क्लृप्तमिदं राज्ञा हृदि कार्यं मतं च नः ।
शत्रौ हि साहसं यत् तत् किमिवात्रापनीयते ॥ १० ॥
मूलम्
तत्र क्लृप्तमिदं राज्ञा हृदि कार्यं मतं च नः ।
शत्रौ हि साहसं यत् तत् किमिवात्रापनीयते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यहाँ राजाके लिये कामरूपी पुरुषार्थका सेवन उचित है ही* । ऐसा ही राक्षसराजने अपने हृदयमें निश्चित किया है और यही हम मन्त्रियोंकी भी सम्मति है । शत्रुके प्रति साहसपूर्ण कार्य करना कौन-सी अनीति है (अतः इन्होंने जो कुछ किया है, उचित ही किया है) ॥ १० ॥
पादटिप्पनी
- यहाँ महोदरने रावणकी चापलूसी करनेके लिये ‘कामवाद’ की स्थापना या प्रशंसा की है । यह आदर्श मत नहीं है । वास्तवमें धर्म, अर्थ और काममें धर्म ही प्रधान है; अतः उसीके सेवनसे प्राणिमात्रका कल्याण हो सकता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्यैवाभियाने तु हेतुर्यः प्राहृतस्त्वया ।
तत्राप्यनुपपन्नं ते वक्ष्यामि यदसाधु च ॥ ११ ॥
मूलम्
एकस्यैवाभियाने तु हेतुर्यः प्राहृतस्त्वया ।
तत्राप्यनुपपन्नं ते वक्ष्यामि यदसाधु च ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने युद्धके लिये अकेले अपने ही प्रस्थान करनेके विषयमें जो हेतु दिया है (अपने महान् बलके द्वारा शत्रुको परास्त कर देनेकी जो घोषणा की है) उसमें भी जो असंगत एवं अनुचित बात कही गयी है, उसे मैं तुम्हारे सामने रखता हूँ ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन पूर्वं जनस्थाने बहवोऽतिबला हताः ।
राक्षसा राघवं तं त्वं कथमेको जयिष्यसि ॥ १२ ॥
मूलम्
येन पूर्वं जनस्थाने बहवोऽतिबला हताः ।
राक्षसा राघवं तं त्वं कथमेको जयिष्यसि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्होंने पहले जनस्थानमें बहुत-से अत्यन्त बलशाली राक्षसोंको मार डाला था, उन्हीं रघुवंशी वीर श्रीरामको तुम अकेले ही कैसे परास्त करोगे? ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये पूर्वं निर्जितास्तेन जनस्थाने महौजसः ।
राक्षसांस्तान् पुरे सर्वान् भीतानद्य न पश्यसि ॥ १३ ॥
मूलम्
ये पूर्वं निर्जितास्तेन जनस्थाने महौजसः ।
राक्षसांस्तान् पुरे सर्वान् भीतानद्य न पश्यसि ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनस्थानमें श्रीरामने पहले जिन महान् बलशाली निशाचरोंको मार भगाया था, वे आज भी इस लङ्कापुरीमें विद्यमान हैं और उनका वह भय अबतक दूर नहीं हुआ है । क्या तुम उन राक्षसोंको नहीं देखते हो? ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं सिंहमिव सङ्क्रुद्धं रामं दशरथात्मजम् ।
सर्पं सुप्तमहो बुद्ध्वा प्रबोधयितुमिच्छसि ॥ १४ ॥
मूलम्
तं सिंहमिव सङ्क्रुद्धं रामं दशरथात्मजम् ।
सर्पं सुप्तमहो बुद्ध्वा प्रबोधयितुमिच्छसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दशरथकुमार श्रीराम अत्यन्त कुपित हुए सिंहके समान पराक्रमी एवं भयंकर हैं, क्या तुम उनसे भिड़नेका साहस करते हो? क्या जान-बूझकर सोये हुए सर्पको जगाना चाहते हो? तुम्हारी मूर्खतापर आश्चर्य होता है! ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्वलन्तं तेजसा नित्यं क्रोधेन च दुरासदम् ।
कस्तं मृत्युमिवासह्यमासादयितुमर्हति ॥ १५ ॥
मूलम्
ज्वलन्तं तेजसा नित्यं क्रोधेन च दुरासदम् ।
कस्तं मृत्युमिवासह्यमासादयितुमर्हति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीराम सदा ही अपने तेजसे देदीप्यमान हैं । वे क्रोध करनेपर अत्यन्त दुर्जय और मृत्युके समान असह्य हो उठते हैं । भला कौन योद्धा उनका सामना कर सकता है? ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशयस्थमिदं सर्वं शत्रोः प्रतिसमासने ।
एकस्य गमनं तात नहि मे रोचते भृशम् ॥ १६ ॥
मूलम्
संशयस्थमिदं सर्वं शत्रोः प्रतिसमासने ।
एकस्य गमनं तात नहि मे रोचते भृशम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारी यह सारी सेना भी यदि उस अजेय शत्रुका सामना करनेके लिये खड़ी हो तो उसका जीवन भी संशयमें पड़ सकता है । अतः तात! युद्धके लिये तुम्हारा अकेले जाना मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता है ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीनार्थस्तु समृद्धार्थं को रिपुं प्राकृतं यथा ।
निश्चितं जीवितत्यागे वशमानेतुमिच्छति ॥ १७ ॥
मूलम्
हीनार्थस्तु समृद्धार्थं को रिपुं प्राकृतं यथा ।
निश्चितं जीवितत्यागे वशमानेतुमिच्छति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सहायकोंसे सम्पन्न और प्राणोंकी बाजी लगाकर शत्रुओंका संहार करनेके लिये निश्चित विचार रखनेवाला हो, ऐसे शत्रुको अत्यन्त साधारण मानकर कौन असहाय योद्धा वशमें लानेकी इच्छा कर सकता है? ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य नास्ति मनुष्येषु सदृशो राक्षसोत्तम ।
कथमाशंससे योद्धुं तुल्येनेन्द्रविवस्वतोः ॥ १८ ॥
मूलम्
यस्य नास्ति मनुष्येषु सदृशो राक्षसोत्तम ।
कथमाशंससे योद्धुं तुल्येनेन्द्रविवस्वतोः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसशिरोमणे! मनुष्योंमें जिनकी समता करनेवाला दूसरा कोई नहीं है तथा जो इन्द्र और सूर्यके समान तेजस्वी हैं, उन श्रीरामके साथ युद्ध करनेका हौसला तुम्हें कैसे हो रहा है?’ ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु संरब्धं कुम्भकर्णं महोदरः ।
उवाच रक्षसां मध्ये रावणं लोकरावणम् ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु संरब्धं कुम्भकर्णं महोदरः ।
उवाच रक्षसां मध्ये रावणं लोकरावणम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रोषके आवेशसे युक्त कुम्भकर्णसे ऐसा कहकर महोदरने समस्त राक्षसोंके बीचमें बैठे हुए लोकोंको रुलानेवाले रावणसे कहा— ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लब्ध्वा पुरस्ताद् वैदेहीं किमर्थं त्वं विलम्बसे ।
यदीच्छसि तदा सीता वशगा ते भविष्यति ॥ २० ॥
मूलम्
लब्ध्वा पुरस्ताद् वैदेहीं किमर्थं त्वं विलम्बसे ।
यदीच्छसि तदा सीता वशगा ते भविष्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! आप विदेहकुमारीको अपने सामने पाकर भी किसलिये विलम्ब कर रहे हैं? आप जब चाहें तभी सीता आपके वशमें हो जायगी ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टः कश्चिदुपायो मे सीतोपस्थानकारकः ।
रुचितश्चेत् स्वया बुद्ध्या राक्षसेन्द्र ततः शृणु ॥ २१ ॥
मूलम्
दृष्टः कश्चिदुपायो मे सीतोपस्थानकारकः ।
रुचितश्चेत् स्वया बुद्ध्या राक्षसेन्द्र ततः शृणु ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसराज! मुझे एक ऐसा उपाय सूझा है, जो सीताको आपकी सेवामें उपस्थित करके ही रहेगा । आप उसे सुनिये । सुनकर अपनी बुद्धिसे उसपर विचार कीजिये और ठीक जँचे तो उसे काममें लाइये ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं द्विजिह्वः संह्रादी कुम्भकर्णो वितर्दनः ।
पञ्च रामवधायैते निर्यान्तीत्यवघोषय ॥ २२ ॥
मूलम्
अहं द्विजिह्वः संह्रादी कुम्भकर्णो वितर्दनः ।
पञ्च रामवधायैते निर्यान्तीत्यवघोषय ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप नगरमें यह घोषित करा दें कि महोदर, द्विजिह्व, संह्रादी, कुम्भकर्ण और वितर्दन—ये पाँच राक्षस रामका वध करनेके लिये जा रहे हैं ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गत्वा वयं युद्धं दास्यामस्तस्य यत्नतः ।
जेष्यामो यदि ते शत्रून् नोपायैः कार्यमस्ति नः ॥ २३ ॥
मूलम्
ततो गत्वा वयं युद्धं दास्यामस्तस्य यत्नतः ।
जेष्यामो यदि ते शत्रून् नोपायैः कार्यमस्ति नः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग रणभूमिमें जाकर प्रयत्नपूर्वक श्रीरामके साथ युद्ध करेंगे । यदि आपके शत्रुओंपर हम विजय पा गये तो हमारे लिये सीताको वशमें करनेके निमित्त दूसरे किसी उपायकी आवश्यकता ही नहीं रह जायगी ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ जीवति नः शत्रुर्वयं च कृतसंयुगाः ।
ततः समभिपत्स्यामो मनसा यत् समीक्षितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अथ जीवति नः शत्रुर्वयं च कृतसंयुगाः ।
ततः समभिपत्स्यामो मनसा यत् समीक्षितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि हमारा शत्रु अजेय होनेके कारण जीवित ही रह गया और हम भी युद्ध करते-करते मारे नहीं गये तो हम उस उपायको काममें लायेंगे, जिसे हमने मनसे सोचकर निश्चित किया है ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं युद्धादिहैष्यामो रुधिरेण समुक्षिताः ।
विदार्य स्वतनुं बाणै रामनामाङ्कितैः शरैः ॥ २५ ॥
भक्षितो राघवोऽस्माभिर्लक्ष्मणश्चेति वादिनः ।
ततः पादौ ग्रहीष्यामस्त्वं नः कामं प्रपूरय ॥ २६ ॥
मूलम्
वयं युद्धादिहैष्यामो रुधिरेण समुक्षिताः ।
विदार्य स्वतनुं बाणै रामनामाङ्कितैः शरैः ॥ २५ ॥
भक्षितो राघवोऽस्माभिर्लक्ष्मणश्चेति वादिनः ।
ततः पादौ ग्रहीष्यामस्त्वं नः कामं प्रपूरय ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामनामसे अङ्कित बाणोंद्वारा अपने शरीरको घायल कराकर खूनसे लथपथ हो हम यह कहते हुए युद्धभूमिसे यहाँ लौटेंगे कि हमने राम और लक्ष्मणको खा लिया है । उस समय हम आपके पैर पकड़कर यह भी कहेंगे कि हमने शत्रुको मारा है । इसलिये आप हमारी इच्छा पूरी कीजिये ॥ २५-२६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽवघोषय पुरे गजस्कन्धेन पार्थिव ।
हतो रामः सह भ्रात्रा ससैन्य इति सर्वतः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततोऽवघोषय पुरे गजस्कन्धेन पार्थिव ।
हतो रामः सह भ्रात्रा ससैन्य इति सर्वतः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! तब आप हाथीकी पीठपर किसीको बिठाकर सारे नगरमें यह घोषणा करा दें कि भाई और सेनाके सहित राम मारा गया ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतो नाम ततो भूत्वा भृत्यानां त्वमरिन्दम ।
भोगांश्च परिवारांश्च कामान् वसु च दापय ॥ २८ ॥
ततो माल्यानि वासांसि वीराणामनुलेपनम् ।
पेयं च बहु योधेभ्यः स्वयं च मुदितः पिब ॥ २९ ॥
मूलम्
प्रीतो नाम ततो भूत्वा भृत्यानां त्वमरिन्दम ।
भोगांश्च परिवारांश्च कामान् वसु च दापय ॥ २८ ॥
ततो माल्यानि वासांसि वीराणामनुलेपनम् ।
पेयं च बहु योधेभ्यः स्वयं च मुदितः पिब ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुदमन! इतना ही नहीं, आप प्रसन्नता दिखाते हुए अपने वीर सेवकोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ, तरह-तरहकी भोग-सामग्रियाँ, दास-दासी आदि, धन-रत्न, आभूषण, वस्त्र और अनुलेपन दिलावें । अन्य योद्धाओंको भी बहुत-से उपहार दें तथा स्वयं भी खुशी मनाते हुए मद्यपान करें ॥ २८-२९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्मिन् बहुलीभूते कौलीने सर्वतो गते ।
भक्षितः ससुहृद् रामो राक्षसैरिति विश्रुते ॥ ३० ॥
प्रविश्याश्वास्य चापि त्वं सीतां रहसि सान्त्वयन् ।
धनधान्यैश्च कामैश्च रत्नैश्चैनां प्रलोभय ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततोऽस्मिन् बहुलीभूते कौलीने सर्वतो गते ।
भक्षितः ससुहृद् रामो राक्षसैरिति विश्रुते ॥ ३० ॥
प्रविश्याश्वास्य चापि त्वं सीतां रहसि सान्त्वयन् ।
धनधान्यैश्च कामैश्च रत्नैश्चैनां प्रलोभय ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर जब लोगोंमें सब ओर यह चर्चा फैल जाय कि राम अपने सुहृदोंसहित राक्षसोंके आहार बन गये और सीताके कानोंमें भी यह बात पड़ जाय, तब आप सीताको समझानेके लिये एकान्तमें उसके वासस्थानपर जायँ और तरह-तरहसे धीरज बँधाकर उसे धन-धान्य, भाँति-भाँतिके भोग और रत्न आदिका लोभ दिखावें ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनयोपधया राजन् भूयः शोकानुबन्धया ।
अकामा त्वद्वशं सीता नष्टनाथा गमिष्यति ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनयोपधया राजन् भूयः शोकानुबन्धया ।
अकामा त्वद्वशं सीता नष्टनाथा गमिष्यति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस प्रवञ्चनासे अपनेको अनाथ माननेवाली सीताका शोक और भी बढ़ जायगा और वह इच्छा न होनेपर भी आपके अधीन हो जायगी ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमणीयं हि भर्तारं विनष्टमधिगम्य सा ।
नैराश्यात् स्त्रीलघुत्वाच्च त्वद्वशं प्रतिपत्स्यते ॥ ३३ ॥
मूलम्
रमणीयं हि भर्तारं विनष्टमधिगम्य सा ।
नैराश्यात् स्त्रीलघुत्वाच्च त्वद्वशं प्रतिपत्स्यते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपने रमणीय पतिको विनष्ट हुआ जान वह निराशा तथा नारी-सुलभ चपलताके कारण आपके वशमें आ जायगी ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा पुरा सुखसंवृद्धा सुखार्हा दुःखकर्शिता ।
त्वय्यधीनं सुखं ज्ञात्वा सर्वथैव गमिष्यति ॥ ३४ ॥
मूलम्
सा पुरा सुखसंवृद्धा सुखार्हा दुःखकर्शिता ।
त्वय्यधीनं सुखं ज्ञात्वा सर्वथैव गमिष्यति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह पहले सुखमें पली हुई है और सुख भोगनेके योग्य है; परंतु इन दिनों दुःखसे दुर्बल हो गयी है । ऐसी दशामें अब आपके ही अधीन अपना सुख समझकर सर्वथा आपकी सेवामें आ जायगी ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सुनीतं मम दर्शनेन
रामं हि दृष्ट्वैव भवेदनर्थः ।
इहैव ते सेत्स्यति मोत्सुको भू-
र्महानयुद्धेन सुखस्य लाभः ॥ ३५ ॥
मूलम्
एतत् सुनीतं मम दर्शनेन
रामं हि दृष्ट्वैव भवेदनर्थः ।
इहैव ते सेत्स्यति मोत्सुको भू-
र्महानयुद्धेन सुखस्य लाभः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे देखनेमें यही सबसे सुन्दर नीति है । युद्धमें तो श्रीरामका दर्शन करते ही आपको अनर्थ (मृत्यु)-की प्राप्ति हो सकती है; अतः आप युद्धस्थलमें जानेके लिये उत्सुक न हों, यहीं आपके अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि हो जायगी । बिना युद्धके ही आपको सुखका महान् लाभ होगा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनष्टसैन्यो ह्यनवाप्तसंशयो
रिपुं त्वयुद्धेन जयञ्जनाधिपः ।
यशश्च पुण्यं च महान्महीपते
श्रियं च कीर्तिं च चिरं समश्नुते ॥ ३६ ॥
मूलम्
अनष्टसैन्यो ह्यनवाप्तसंशयो
रिपुं त्वयुद्धेन जयञ्जनाधिपः ।
यशश्च पुण्यं च महान्महीपते
श्रियं च कीर्तिं च चिरं समश्नुते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! जो राजा बिना युद्धके ही शत्रुपर विजय पाता है, उसकी सेना नष्ट नहीं होती । उसका जीवन भी संशयमें नहीं पड़ता, वह पवित्र एवं महान् यश पाता तथा दीर्घकालतक लक्ष्मी एवं उत्तम कीर्तिका उपभोग करता है’ ॥ ३६ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चतुःषष्टितमः सर्गः ॥ ६४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें चौंसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६४ ॥