०६३ कुम्भकर्णेन रावणाश्वासनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. कुम्भकर्णका रावणको उसके कुकृत्योंके लिये उपालम्भ देना और उसे धैर्य बँधाते हुए युद्धविषयक उत्साह प्रकट करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य राक्षसराजस्य निशम्य परिदेवितम् ।
कुम्भकर्णो बभाषेदं वचनं प्रजहास च ॥ १ ॥

मूलम्

तस्य राक्षसराजस्य निशम्य परिदेवितम् ।
कुम्भकर्णो बभाषेदं वचनं प्रजहास च ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज रावणका यह विलाप सुनकर कुम्भकर्ण ठहाका मारकर हँसने लगा और इस प्रकार बोला— ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टो दोषो हि योऽस्माभिः पुरा मन्त्रविनिर्णये ।
हितेष्वनभियुक्तेन सोऽयमासादितस्त्वया ॥ २ ॥

मूलम्

दृष्टो दोषो हि योऽस्माभिः पुरा मन्त्रविनिर्णये ।
हितेष्वनभियुक्तेन सोऽयमासादितस्त्वया ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाईसाहब! पहले (विभीषण आदिके साथ) विचार करते समय हमलोगोंने जो दोष देखा था, वही तुम्हें इस समय प्राप्त हुआ है; क्योंकि तुमने हितैषी पुरुषों और उनकी बातोंपर विश्वास नहीं किया था ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीघ्रं खल्वभ्युपेतं त्वां फलं पापस्य कर्मणः ।
निरयेष्वेव पतनं यथा दुष्कृतकर्मणः ॥ ३ ॥

मूलम्

शीघ्रं खल्वभ्युपेतं त्वां फलं पापस्य कर्मणः ।
निरयेष्वेव पतनं यथा दुष्कृतकर्मणः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें शीघ्र ही अपने पापकर्मका फल मिल गया । जैसे कुकर्मी पुरुषोंका नरकोंमें पड़ना निश्चित है, उसी प्रकार तुम्हें भी अपने दुष्कर्मका फल मिलना अवश्यम्भावी था ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथमं वै महाराज कृत्यमेतदचिन्तितम् ।
केवलं वीर्यदर्पेण नानुबन्धो विचारितः ॥ ४ ॥

मूलम्

प्रथमं वै महाराज कृत्यमेतदचिन्तितम् ।
केवलं वीर्यदर्पेण नानुबन्धो विचारितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! केवल बलके घमंडसे तुमने पहले इस पापकर्मकी कोई परवा नहीं की । इसके परिणामका कुछ भी विचार नहीं किया था ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पश्चात्पूर्वकार्याणि कुर्यादैश्वर्यमास्थितः ।
पूर्वं चोत्तरकार्याणि न स वेद नयानयौ ॥ ५ ॥

मूलम्

यः पश्चात्पूर्वकार्याणि कुर्यादैश्वर्यमास्थितः ।
पूर्वं चोत्तरकार्याणि न स वेद नयानयौ ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो ऐश्वर्यके अभिमानमें आकर पहले करनेयोग्य कार्योंको पीछे करता है और पीछे करनेयोग्य कार्योंको पहले कर डालता है, वह नीति तथा अनीतिको नहीं जानता है ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशकालविहीनानि कर्माणि विपरीतवत् ।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींष्यप्रयतेष्विव ॥ ६ ॥

मूलम्

देशकालविहीनानि कर्माणि विपरीतवत् ।
क्रियमाणानि दुष्यन्ति हवींष्यप्रयतेष्विव ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो कार्य उचित देश-काल न होनेपर विपरीत स्थितिमें किये जाते हैं, वे संस्कारहीन अग्नियोंमें होमे गये हविष्यकी भाँति केवल दुःखके ही कारण होते हैं ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयाणां पञ्चधा योगं कर्मणां यः प्रपद्यते ।
सचिवैः समयं कृत्वा स सम्यग् वर्तते पथि ॥ ७ ॥

मूलम्

त्रयाणां पञ्चधा योगं कर्मणां यः प्रपद्यते ।
सचिवैः समयं कृत्वा स सम्यग् वर्तते पथि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा सचिवोंके साथ विचार करके क्षय, वृद्धि और स्थानरूपसे उपलक्षित साम, दान और दण्ड—इन तीनों कर्मोंके पाँच* प्रकारके प्रयोगको काममें लाता है, वही उत्तम नीति-मार्गपर विद्यमान है, ऐसा समझना चाहिये ॥ ७ ॥

पादटिप्पनी
  • कार्यको आरम्भ करनेका उपाय, पुरुष और द्रव्यरूप सम्पत्ति, देश-कालका विभाग, विपत्तिको टालनेका उपाय और कार्यकी सिद्धि—ये पाँच प्रकारके योग हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

यथागमं च यो राजा समयं च चिकीर्षति ।
बुध्यते सचिवैर्बुद्ध्या सुहृदश्चानुपश्यति ॥ ८ ॥

मूलम्

यथागमं च यो राजा समयं च चिकीर्षति ।
बुध्यते सचिवैर्बुद्ध्या सुहृदश्चानुपश्यति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो नरेश नीतिशास्त्रके अनुसार मन्त्रियोंके साथ क्षय* आदिके लिये उपयुक्त समयका विचार करके तदनुरूप कार्य करता है और अपनी बुद्धिसे सुहृदोंकी भी पहचान कर लेता है, वही कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक कर पाता है ॥ ८ ॥

पादटिप्पनी
  • जब अपनी वृद्धि और शत्रुकी हानिका समय हो तब दण्डोपयोगी यान (युद्धयात्रा) उचित है । अपनी और शत्रुकी समान स्थिति हो तो सामपूर्वक संधि कर लेना उचित है । तथा जब अपनी हानि और शत्रुकी वृद्धिका समय हो, तब उसे कुछ देकर उसका आश्रय ग्रहण करना उचित होता है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्ममर्थं हि कामं वा सर्वान् वा रक्षसां पते ।
भजेत पुरुषः काले त्रीणि द्वन्द्वानि वा पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

धर्ममर्थं हि कामं वा सर्वान् वा रक्षसां पते ।
भजेत पुरुषः काले त्रीणि द्वन्द्वानि वा पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षसराज! नीतिज्ञ पुरुषको चाहिये कि धर्म,अर्थ या कामका अथवा सबका अपने समयपर सेवन करे अथवा तीनों द्वन्द्वोंका—धर्म-अर्थ, अर्थ-धर्म और काम-अर्थ इन सबका भी उपयुक्त समयमें ही सेवन करे* ॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ यह बात कही गयी है कि शास्त्रके अनुसार प्रातःकाल धर्मका, मध्याह्नकालमें अर्थका और रात्रिमें कामसेवनका विधान है; अतः उन-उन समयोंमें धर्म आदिका सेवन करना चाहिये अथवा प्रातःकालमें धर्म और अर्थरूप द्वन्द्वका, मध्याह्नकालमें अर्थ और धर्मका और रात्रिमें काम और अर्थका सेवन करे । जो हर समय केवल कामका ही सेवन करता है, वह पुरुषोंमें अधम कोटिका है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिषु चैतेषु यच्छ्रेष्ठं श्रुत्वा तन्नावबुध्यते ।
राजा वा राजमात्रो वा व्यर्थं तस्य बहुश्रुतम् ॥ १० ॥

मूलम्

त्रिषु चैतेषु यच्छ्रेष्ठं श्रुत्वा तन्नावबुध्यते ।
राजा वा राजमात्रो वा व्यर्थं तस्य बहुश्रुतम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘धर्म, अर्थ और काम—इन तीनोंमें धर्म ही श्रेष्ठ है; अतः विशेष अवसरोंपर अर्थ और कामकी उपेक्षा करके भी धर्मका ही सेवन करना चाहिये—इस बातको विश्वसनीय पुरुषोंसे सुनकर भी जो राजा या राजपुरुष नहीं समझता अथवा समझकर भी स्वीकार नहीं करता, उसका अनेक शास्त्रोंका अध्ययन व्यर्थ ही है ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपप्रदानं सान्त्वं च भेदं काले च विक्रमम् ।
योगं च रक्षसां श्रेष्ठ तावुभौ च नयानयौ ॥ ११ ॥
काले धर्मार्थकामान् यः सम्मन्त्र्य सचिवैः सह ।
निषेवेतात्मवाल्ँ लोके न स व्यसनमाप्नुयात् ॥ १२ ॥

मूलम्

उपप्रदानं सान्त्वं च भेदं काले च विक्रमम् ।
योगं च रक्षसां श्रेष्ठ तावुभौ च नयानयौ ॥ ११ ॥
काले धर्मार्थकामान् यः सम्मन्त्र्य सचिवैः सह ।
निषेवेतात्मवाल्ँ लोके न स व्यसनमाप्नुयात् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षसशिरोमणे! जो मनस्वी राजा मन्त्रियोंसे अच्छी तरह सलाह करके समयके अनुसार दान, भेद और पराक्रमका, इनके पूर्वोक्त पाँच प्रकारके योगका, नय और अनयका तथा ठीक समयपर धर्म, अर्थ और कामका सेवन करता है, वह इस लोकमें कभी दुःख या विपत्तिका भागी नहीं होता ॥ ११-१२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितानुबन्धमालोक्य कुर्यात् कार्यमिहात्मनः ।
राजा सहार्थतत्त्वज्ञैः सचिवैर्बुद्धिजीविभिः ॥ १३ ॥

मूलम्

हितानुबन्धमालोक्य कुर्यात् कार्यमिहात्मनः ।
राजा सहार्थतत्त्वज्ञैः सचिवैर्बुद्धिजीविभिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाको चाहिये कि वह अर्थतत्त्वज्ञ एवं बुद्धिजीवी मन्त्रियोंकी सलाह लेकर जो अपने लिये परिणाममें हितकर दिखायी देता हो, वही कार्य करे ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनभिज्ञाय शास्त्रार्थान् पुरुषाः पशुबुद्धयः ।
प्रागल्भ्याद् वक्तुमिच्छन्ति मन्त्रिष्वभ्यन्तरीकृताः ॥ १४ ॥

मूलम्

अनभिज्ञाय शास्त्रार्थान् पुरुषाः पशुबुद्धयः ।
प्रागल्भ्याद् वक्तुमिच्छन्ति मन्त्रिष्वभ्यन्तरीकृताः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पशुके समान बुद्धिवाले किसी तरह मन्त्रियोंके भीतर सम्मिलित कर लिये गये हैं, वे शास्त्रके अर्थको तो जानते नहीं, केवल धृष्टतावश बातें बनाना चाहते हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशास्त्रविदुषां तेषां कार्यं नाभिहितं वचः ।
अर्थशास्त्रानभिज्ञानां विपुलां श्रियमिच्छताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

अशास्त्रविदुषां तेषां कार्यं नाभिहितं वचः ।
अर्थशास्त्रानभिज्ञानां विपुलां श्रियमिच्छताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शास्त्रके ज्ञानसे शून्य और अर्थशास्त्रसे अनभिज्ञ होते हुए भी प्रचुर सम्पत्ति चाहनेवाले उन अयोग्य मन्त्रियोंकी कही हुई बात कभी नहीं माननी चाहिये ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहितं च हिताकारं धार्ष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः ।
अवश्यं मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः ॥ १६ ॥

मूलम्

अहितं च हिताकारं धार्ष्ट्याज्जल्पन्ति ये नराः ।
अवश्यं मन्त्रबाह्यास्ते कर्तव्याः कृत्यदूषकाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो लोग धृष्टताके कारण अहितकर बातको हितका रूप देकर कहते हैं, वे निश्चय ही सलाह लेनेयोग्य नहीं हैं । अतः उन्हें इस कार्यसे अलग कर देना चाहिये । वे तो काम बिगाड़नेवाले ही होते हैं ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनाशयन्तो भर्तारं सहिताः शत्रुभिर्बुधैः ।
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः ॥ १७ ॥

मूलम्

विनाशयन्तो भर्तारं सहिताः शत्रुभिर्बुधैः ।
विपरीतानि कृत्यानि कारयन्तीह मन्त्रिणः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुछ बुरे मन्त्री साम आदि उपायोंके ज्ञाता शत्रुओंके साथ मिल जाते हैं और अपने स्वामीका विनाश करनेके लिये ही उससे विपरीत कर्म करवाते हैं ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् भर्ता मित्रसङ्काशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये ।
व्यवहारेण जानीयात् सचिवानुपसंहितान् ॥ १८ ॥

मूलम्

तान् भर्ता मित्रसङ्काशानमित्रान् मन्त्रनिर्णये ।
व्यवहारेण जानीयात् सचिवानुपसंहितान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब किसी वस्तु या कार्यके निश्चयके लिये मन्त्रियोंकी सलाह ली जा रही हो, उस समय राजा व्यवहारके द्वारा ही उन मन्त्रियोंको पहचाननेका प्रयत्न करे, जो घूस आदि लेकर शत्रुओंसे मिल गये हैं और अपने मित्र-से बने रहकर वास्तवमें शत्रुका काम करते हैं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः ।
छिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः ॥ १९ ॥

मूलम्

चपलस्येह कृत्यानि सहसानुप्रधावतः ।
छिद्रमन्ये प्रपद्यन्ते क्रौञ्चस्य खमिव द्विजाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा चंचल है—आपातरमणीय वचनोंको सुनकर ही संतुष्ट हो जाता है और सहसा बिना सोचे-विचारे ही किसी भी कार्यकी ओर दौड़ पड़ता है, उसके इस छिद्र (दुर्बलता)-को शत्रुलोग उसी तरह ताड़ जाते हैं, जैसे क्रौंच पर्वतके छेदको पक्षी । (क्रौंचपर्वतके छेदसे होकर पक्षी जैसे पर्वतके उस पार आते-जाते हैं, उसी तरह शत्रु भी राजाके उस छिद्र या कमजोरीसे लाभ उठाते हैं) ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि शत्रुमवज्ञाय आत्मानं नाभिरक्षति ।
अवाप्नोति हि सोऽनर्थान् स्थानाच्च व्यवरोप्यते ॥ २० ॥

मूलम्

यो हि शत्रुमवज्ञाय आत्मानं नाभिरक्षति ।
अवाप्नोति हि सोऽनर्थान् स्थानाच्च व्यवरोप्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा शत्रुकी अवहेलना करके अपनी रक्षाका प्रबन्ध नहीं करता है, वह अनेक अनर्थोंका भागी होता और अपने स्थान (राज्य)-से नीचे उतार दिया जाता है ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदुक्तमिह ते पूर्वं प्रियया मेऽनुजेन च ।
तदेव नो हितं वाक्यं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २१ ॥

मूलम्

यदुक्तमिह ते पूर्वं प्रियया मेऽनुजेन च ।
तदेव नो हितं वाक्यं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारी प्रिय पत्नी मन्दोदरी और मेरे छोटे भाई विभीषणने पहले तुमसे जो कुछ कहा था, वही हमारे लिये हितकर था । यों तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तु श्रुत्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णस्य भाषितम् ।
भ्रुकुटिं चैव सञ्चक्रे क्रुद्धश्चैनमभाषत ॥ २२ ॥

मूलम्

तत् तु श्रुत्वा दशग्रीवः कुम्भकर्णस्य भाषितम् ।
भ्रुकुटिं चैव सञ्चक्रे क्रुद्धश्चैनमभाषत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुम्भकर्णकी यह बात सुनकर दशमुख रावणने भौंहें टेढ़ी कर लीं और कुपित होकर उससे कहा— ॥ २२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मान्यो गुरुरिवाचार्यः किं मां त्वमनुशाससे ।
किमेवं वाक्श्रमं कृत्वा यद् युक्तं तद् विधीयताम् ॥ २३ ॥

मूलम्

मान्यो गुरुरिवाचार्यः किं मां त्वमनुशाससे ।
किमेवं वाक्श्रमं कृत्वा यद् युक्तं तद् विधीयताम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम माननीय गुरु और आचार्यकी भाँति मुझे उपदेश क्यों दे रहे हो? इस तरह भाषण देनेका परिश्रम करनेसे क्या लाभ होगा? इस समय जो उचित और आवश्यक हो, वह काम करो ॥ २३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभ्रमाच्चित्तमोहाद् वा बलवीर्याश्रयेण वा ।
नाभिपन्नमिदानीं यद् व्यर्था तस्य पुनः कथा ॥ २४ ॥

मूलम्

विभ्रमाच्चित्तमोहाद् वा बलवीर्याश्रयेण वा ।
नाभिपन्नमिदानीं यद् व्यर्था तस्य पुनः कथा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने भ्रमसे, चितके मोहसे अथवा अपने बल-पराक्रमके भरोसे पहले जो तुमलोगोंकी बात नहीं मानी थी, उसकी इस समय पुनः चर्चा करना व्यर्थ है ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् काले तु यद् युक्तं तदिदानीं विचिन्त्यताम् ।
गतं तु नानुशोचन्ति गतं तु गतमेव हि ॥ २५ ॥
ममापनयजं दोषं विक्रमेण समीकुरु ।

मूलम्

अस्मिन् काले तु यद् युक्तं तदिदानीं विचिन्त्यताम् ।
गतं तु नानुशोचन्ति गतं तु गतमेव हि ॥ २५ ॥
ममापनयजं दोषं विक्रमेण समीकुरु ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बात बीत गयी, सो तो बीत ही गयी । बुद्धिमान् लोग बीती बातके लिये बारंबार शोक नहीं करते हैं । अब इस समय हमें क्या करना चाहिये, इसका विचार करो । अपने पराक्रमसे मेरे अनीतिजनित दुःखको शान्त कर दो ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि खल्वस्ति मे स्नेहो विक्रमं वाधिगच्छसि ॥ २६ ॥
यदि कार्यं ममैतत्ते हृदि कार्यतमं मतम् ।

मूलम्

यदि खल्वस्ति मे स्नेहो विक्रमं वाधिगच्छसि ॥ २६ ॥
यदि कार्यं ममैतत्ते हृदि कार्यतमं मतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मुझपर तुम्हारा स्नेह है, यदि अपने भीतर यथेष्ट पराक्रम समझते हो और यदि मेरे इस कार्यको परम कर्तव्य समझकर हृदयमें स्थान देते हो तो युद्ध करो ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते ॥ २७ ॥
स बन्धुर्योऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते ।

मूलम्

स सुहृद् यो विपन्नार्थं दीनमभ्युपपद्यते ॥ २७ ॥
स बन्धुर्योऽपनीतेषु साहाय्यायोपकल्पते ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘वही सुहृद् है, जो सारा कार्य नष्ट हो जानेसे दुःखी हुए स्वजनपर अकारण अनुग्रह करता है तथा वही बन्धु है, जो अनीतिके मार्गपर चलनेसे संकटमें पड़े हुए पुरुषोंकी सहायता करता है’ ॥ २७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमथैवं ब्रुवाणं स वचनं धीरदारुणम् ॥ २८ ॥
रुष्टोऽयमिति विज्ञाय शनैः श्लक्ष्णमुवाच ह ।

मूलम्

तमथैवं ब्रुवाणं स वचनं धीरदारुणम् ॥ २८ ॥
रुष्टोऽयमिति विज्ञाय शनैः श्लक्ष्णमुवाच ह ।

अनुवाद (हिन्दी)

रावणको इस प्रकार धीर एवं दारुण वचन बोलते देख उसे रुष्ट समझकर कुम्भकर्ण धीरे-धीरे मधुर वाणीमें कुछ कहनेको उद्यत हुआ ॥ २८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव हि समालक्ष्य भ्रातरं क्षुभितेन्द्रियम् ॥ २९ ॥
कुम्भकर्णः शनैर्वाक्यं बभाषे परिसान्त्वयन् ।

मूलम्

अतीव हि समालक्ष्य भ्रातरं क्षुभितेन्द्रियम् ॥ २९ ॥
कुम्भकर्णः शनैर्वाक्यं बभाषे परिसान्त्वयन् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने देखा मेरे भाईकी सारी इन्द्रियाँ अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठी हैं; अतः कुम्भकर्णने धीरे-धीरे उसे सान्त्वना देते हुए कहा— ॥ २९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्नवहितो मम वाक्यमरिन्दम ॥ ३० ॥
अलं राक्षसराजेन्द्र सन्तापमुपपद्य ते ।
रोषं च सम्परित्यज्य स्वस्थो भवितुमर्हसि ॥ ३१ ॥

मूलम्

शृणु राजन्नवहितो मम वाक्यमरिन्दम ॥ ३० ॥
अलं राक्षसराजेन्द्र सन्तापमुपपद्य ते ।
रोषं च सम्परित्यज्य स्वस्थो भवितुमर्हसि ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन महाराज! सावधान होकर मेरी बात सुनो । राक्षसराज! संताप करना व्यर्थ है । अब तुम्हें रोष त्यागकर स्वस्थ हो जाना चाहिये ॥ ३०-३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतन्मनसि कर्तव्यं मयि जीवति पार्थिव ।
तमहं नाशयिष्यामि यत् कृते परितप्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

नैतन्मनसि कर्तव्यं मयि जीवति पार्थिव ।
तमहं नाशयिष्यामि यत् कृते परितप्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीनाथ! मेरे जीते-जी तुम्हें मनमें ऐसा भाव नहीं लाना चाहिये । तुम्हें जिसके कारण संतप्त होना पड़ रहा है, उसे मैं नष्ट कर दूँगा ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं तु हितं वाच्यं सर्वावस्थं मया तव ।
बन्धुभावादभिहितं भ्रातृस्नेहाच्च पार्थिव ॥ ३३ ॥

मूलम्

अवश्यं तु हितं वाच्यं सर्वावस्थं मया तव ।
बन्धुभावादभिहितं भ्रातृस्नेहाच्च पार्थिव ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! अवश्य ही सब अवस्थाओंमें मुझे तुम्हारे हितकी बात कहनी चाहिये । अतः मैंने बन्धुभाव और भ्रातृ-स्नेहके कारण ही ये बातें कही हैं ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदृशं यच्च कालेऽस्मिन् कर्तुं स्नेहेन बन्धुना ।
शत्रूणां कदनं पश्य क्रियमाणं मया रणे ॥ ३४ ॥

मूलम्

सदृशं यच्च कालेऽस्मिन् कर्तुं स्नेहेन बन्धुना ।
शत्रूणां कदनं पश्य क्रियमाणं मया रणे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय एक भाईको स्नेहवश जो कुछ करना उचित है, वही करूँगा । अब रणभूमिमें मेरे द्वारा किया जानेवाला शत्रुओंका संहार देखो ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पश्य महाबाहो मया समरमूर्धनि ।
हते रामे सह भ्रात्रा द्रवन्तीं हरिवाहिनीम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अद्य पश्य महाबाहो मया समरमूर्धनि ।
हते रामे सह भ्रात्रा द्रवन्तीं हरिवाहिनीम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! आज युद्धके मुहानेपर मेरे द्वारा भाईसहित रामके मारे जानेके पश्चात् तुम देखोगे कि वानरोंकी सेना किस तरह भागी जा रही है ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य रामस्य तद् दृष्ट्वा मयाऽऽनीतं रणाच्छिरः ।
सुखी भव महाबाहो सीता भवतु दुःखिता ॥ ३६ ॥

मूलम्

अद्य रामस्य तद् दृष्ट्वा मयाऽऽनीतं रणाच्छिरः ।
सुखी भव महाबाहो सीता भवतु दुःखिता ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! आज मैं संग्रामभूमिमें रामका सिर काट लाऊँगा । उसे देखकर तुम सुखी होना और सीता दुःखमें डूब जायगी ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य रामस्य पश्यन्तु निधनं सुमहत् प्रियम् ।
लङ्कायां राक्षसाः सर्वे ये ते निहतबान्धवाः ॥ ३७ ॥

मूलम्

अद्य रामस्य पश्यन्तु निधनं सुमहत् प्रियम् ।
लङ्कायां राक्षसाः सर्वे ये ते निहतबान्धवाः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लङ्कामें जिन राक्षसोंके सगे-सम्बन्धी मारे गये हैं, वे भी आज रामकी मृत्यु देख लें । यह उनके लिये बहुत ही प्रिय बात होगी ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य शोकपरीतानां स्वबन्धुवधशोचिनाम् ।
शत्रोर्युधि विनाशेन करोम्यश्रुप्रमार्जनम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

अद्य शोकपरीतानां स्वबन्धुवधशोचिनाम् ।
शत्रोर्युधि विनाशेन करोम्यश्रुप्रमार्जनम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेसे जो लोग अत्यन्त शोकमें डूबे हुए हैं, आज युद्धमें शत्रुका नाश करके मैं उनके आँसू पोंछूँगा ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पर्वतसङ्काशं ससूर्यमिव तोयदम् ।
विकीर्णं पश्य समरे सुग्रीवं प्लवगेश्वरम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

अद्य पर्वतसङ्काशं ससूर्यमिव तोयदम् ।
विकीर्णं पश्य समरे सुग्रीवं प्लवगेश्वरम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज पर्वतके समान विशालकाय वानरराज सुग्रीवको समराङ्गणमें खूनसे लथपथ होकर गिरे हुए देखोगे, जो सूर्यसहित मेघके समान दृष्टिगोचर होंगे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च राक्षसैरेभिर्मया च परिसान्त्वितः ।
जिघांसुभिर्दाशरथिं व्यथसे त्वं सदानघ ॥ ४० ॥

मूलम्

कथं च राक्षसैरेभिर्मया च परिसान्त्वितः ।
जिघांसुभिर्दाशरथिं व्यथसे त्वं सदानघ ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप निशाचरराज! ये राक्षस तथा मैं—सब लोग दशरथपुत्र रामको मार डालनेकी इच्छा रखते हैं और तुम्हें इस बातके लिये आश्वासन देते हैं तो भी तुम सदा व्यथित क्यों रहते हो? ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां निहत्य किल त्वां हि निहनिष्यति राघवः ।
नाहमात्मनि सन्तापं गच्छेयं राक्षसाधिप ॥ ४१ ॥

मूलम्

मां निहत्य किल त्वां हि निहनिष्यति राघवः ।
नाहमात्मनि सन्तापं गच्छेयं राक्षसाधिप ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षसराज! पहले मेरा वध करके ही राम तुम्हें मार सकेंगे; किंतु मैं अपने विषयमें रामसे संताप या भय नहीं मानता ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं त्विदानीमपि मां व्यादिश त्वं परन्तप ।
न परः प्रेक्षणीयस्ते युद्धायातुलविक्रम ॥ ४२ ॥

मूलम्

कामं त्विदानीमपि मां व्यादिश त्वं परन्तप ।
न परः प्रेक्षणीयस्ते युद्धायातुलविक्रम ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंको संताप देनेवाले अनुपम पराक्रमी वीर! इस समय तुम इच्छानुसार मुझे युद्धके लिये आदेश दो । शत्रुओंसे जूझनेके लिये तुम्हें दूसरे किसीकी ओर देखनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमुत्सादयिष्यामि शत्रूंस्तव महाबलान् ।
यदि शक्रो यदि यमो यदि पावकमारुतौ ॥ ४३ ॥
तानहं योधयिष्यामि कुबेरवरुणावपि ।

मूलम्

अहमुत्सादयिष्यामि शत्रूंस्तव महाबलान् ।
यदि शक्रो यदि यमो यदि पावकमारुतौ ॥ ४३ ॥
तानहं योधयिष्यामि कुबेरवरुणावपि ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे महाबली शत्रु यदि इन्द्र, यम, अग्नि, वायु, कुबेर और वरुण भी हों तो मैं उनसे भी युद्ध करूँगा तथा उन सबको उखाड़ फेंकूँगा ॥ ४३ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिमात्रशरीरस्य शितशूलधरस्य मे ॥ ४४ ॥
नर्दतस्तीक्ष्णदंष्ट्रस्य बिभीयाद् वै पुरन्दरः ।

मूलम्

गिरिमात्रशरीरस्य शितशूलधरस्य मे ॥ ४४ ॥
नर्दतस्तीक्ष्णदंष्ट्रस्य बिभीयाद् वै पुरन्दरः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा पर्वतके समान विशाल शरीर है । मैं हाथमें तीखा त्रिशूल धारण करता हूँ और मेरी दाढ़ें भी बहुत तीखी हैं । मेरे सिंहनाद करनेपर इन्द्र भी भयसे थर्रा उठेंगे ॥ ४४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वा त्यक्तशस्त्रस्य मृद्नतस्तरसा रिपून् ॥ ४५ ॥
न मे प्रतिमुखः कश्चित् स्थातुं शक्तो जिजीविषुः ।

मूलम्

अथ वा त्यक्तशस्त्रस्य मृद्नतस्तरसा रिपून् ॥ ४५ ॥
न मे प्रतिमुखः कश्चित् स्थातुं शक्तो जिजीविषुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा यदि मैं शस्त्र त्याग करके भी वेगपूर्वक शत्रुओंको रौंदता हुआ रणभूमिमें विचरने लगूँ तो कोई भी जीवित रहनेकी इच्छावाला पुरुष मेरे सामने नहीं ठहर सकता ॥ ४५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव शक्त्या न गदया नासिना निशितैः शरैः ॥ ४६ ॥
हस्ताभ्यामेव संरभ्य हनिष्यामि सवज्रिणम् ।

मूलम्

नैव शक्त्या न गदया नासिना निशितैः शरैः ॥ ४६ ॥
हस्ताभ्यामेव संरभ्य हनिष्यामि सवज्रिणम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं न तो शक्तिसे, न गदासे, न तलवारसे और न पैने बाणोंसे ही काम लूँगा । रोषसे भरकर केवल दोनों हाथोंसे ही वज्रधारी इन्द्र-जैसे शत्रुको भी मौतके घाट उतार दूँगा ॥ ४६ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि मे मुष्टिवेगं स राघवोऽद्य सहिष्यति ॥ ४७ ॥
ततः पास्यन्ति बाणौघा रुधिरं राघवस्य मे ।

मूलम्

यदि मे मुष्टिवेगं स राघवोऽद्य सहिष्यति ॥ ४७ ॥
ततः पास्यन्ति बाणौघा रुधिरं राघवस्य मे ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि राम आज मेरी मुट्ठीका वेग सह लेंगे तो मेरे बाणसमूह अवश्य ही उनका रक्त पान करेंगे ॥ ४७ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तया तप्यसे राजन् किमर्थं मयि तिष्ठति ॥ ४८ ॥
सोऽहं शत्रुविनाशाय तव निर्यातुमुद्यतः ।

मूलम्

चिन्तया तप्यसे राजन् किमर्थं मयि तिष्ठति ॥ ४८ ॥
सोऽहं शत्रुविनाशाय तव निर्यातुमुद्यतः ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मेरे रहते हुए तुम किसलिये चिन्ताकी आगसे झुलस रहे हो? मैं तुम्हारे शत्रुओंका विनाश करनेके लिये अभी रणभूमिमें जानेको उद्यत हूँ ॥ ४८ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्च रामाद् भयं घोरं निहनिष्यामि संयुगे ॥ ४९ ॥
राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं च महाबलम् ।

मूलम्

मुञ्च रामाद् भयं घोरं निहनिष्यामि संयुगे ॥ ४९ ॥
राघवं लक्ष्मणं चैव सुग्रीवं च महाबलम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें रामसे जो घोर भय हो रहा है, उसे त्याग दो । मैं रणभूमिमें राम, लक्ष्मण और महाबली सुग्रीवको अवश्य मार डालूँगा ॥ ४९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमन्तं च रक्षोघ्नं येन लङ्का प्रदीपिता ॥ ५० ॥
हरींश्च भक्षयिष्यामि संयुगे समुपस्थिते ।
असाधारणमिच्छामि तव दातुं महद् यशः ॥ ५१ ॥

मूलम्

हनूमन्तं च रक्षोघ्नं येन लङ्का प्रदीपिता ॥ ५० ॥
हरींश्च भक्षयिष्यामि संयुगे समुपस्थिते ।
असाधारणमिच्छामि तव दातुं महद् यशः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्ध उपस्थित होनेपर मैं राक्षसोंका संहार करनेवाले उस हनुमान् को भी जीवित नहीं छोड़ूँगा, जिसने लङ्का जलायी थी । साथ ही अन्य वानरोंको भी खा जाऊँगा । आज मैं तुम्हें अलौकिक एवं महान् यश प्रदान करना चाहता हूँ ॥ ५०-५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि चेन्द्राद् भयं राजन् यदि चापि स्वयम्भुवः ।
ततोऽहं नाशयिष्यामि नैशं तम इवांशुमान् ॥ ५२ ॥

मूलम्

यदि चेन्द्राद् भयं राजन् यदि चापि स्वयम्भुवः ।
ततोऽहं नाशयिष्यामि नैशं तम इवांशुमान् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! यदि तुम्हें इन्द्र अथवा स्वयम्भू ब्रह्मासे भी भय है तो मैं उस भयको भी उसी तरह नष्ट कर दूँगा, जैसे सूर्य रात्रिके अन्धकारको ॥ ५२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि देवाः शयिष्यन्ते मयि क्रुद्धे महीतले ।
यमं च शमयिष्यामि भक्षयिष्यामि पावकम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

अपि देवाः शयिष्यन्ते मयि क्रुद्धे महीतले ।
यमं च शमयिष्यामि भक्षयिष्यामि पावकम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे कुपित होनेपर देवता भी धराशायी हो जायँगे । (फिर मनुष्यों और वानरोंकी तो बात ही क्या है?) मैं यमराजको भी शान्त कर दूँगा । सर्वभक्षी अग्निका भी भक्षण कर जाऊँगा ॥ ५३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्यं पातयिष्यामि सनक्षत्रं महीतले ।
शतक्रतुं वधिष्यामि पास्यामि वरुणालयम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

आदित्यं पातयिष्यामि सनक्षत्रं महीतले ।
शतक्रतुं वधिष्यामि पास्यामि वरुणालयम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नक्षत्रोंसहित सूर्यको भी पृथ्वीपर मार गिराऊँगा, इन्द्रका भी वध कर डालूँगा और समुद्रको भी पी जाऊँगा ॥ ५४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर्वतांश्चूर्णयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम् ।
दीर्घकालं प्रसुप्तस्य कुम्भकर्णस्य विक्रमम् ॥ ५५ ॥
अद्य पश्यन्तु भूतानि भक्ष्यमाणानि सर्वशः ।
न त्विदं त्रिदिवं सर्वमाहारो मम पूर्यते ॥ ५६ ॥

मूलम्

पर्वतांश्चूर्णयिष्यामि दारयिष्यामि मेदिनीम् ।
दीर्घकालं प्रसुप्तस्य कुम्भकर्णस्य विक्रमम् ॥ ५५ ॥
अद्य पश्यन्तु भूतानि भक्ष्यमाणानि सर्वशः ।
न त्विदं त्रिदिवं सर्वमाहारो मम पूर्यते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पर्वतोंको चूर-चूर कर दूँगा । भूमण्डलको विदीर्ण कर डालूँगा । आज मेरे द्वारा खाये जानेवाले सब प्राणी दीर्घकालतक सोकर उठे हुए मुझ कुम्भकर्णका पराक्रम देखें । यह सारी त्रिलोकी आहार बन जाय तो भी मेरा पेट नहीं भर सकता ॥ ५५-५६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधेन ते दाशरथेः सुखावहं
सुखं समाहर्तुमहं व्रजामि ।
निहत्य रामं सह लक्ष्मणेन
खादामि सर्वान् हरियूथमुख्यान् ॥ ५७ ॥

मूलम्

वधेन ते दाशरथेः सुखावहं
सुखं समाहर्तुमहं व्रजामि ।
निहत्य रामं सह लक्ष्मणेन
खादामि सर्वान् हरियूथमुख्यान् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दशरथकुमार श्रीरामका वध करके मैं तुम्हें उत्तरोत्तर सुखकी प्राप्ति करानेवाले सुख-सौभाग्यको देना चाहता हूँ । लक्ष्मणसहित रामका वध करके सभी प्रधान-प्रधान वानरयूथपतियोंको खा जाऊँगा ॥ ५७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमस्व राजन् पिब चाद्य वारुणीं
कुरुष्व कृत्यानि विनीय दुःखम् ।
मयाद्य रामे गमिते यमक्षयं
चिराय सीता वशगा भविष्यति ॥ ५८ ॥

मूलम्

रमस्व राजन् पिब चाद्य वारुणीं
कुरुष्व कृत्यानि विनीय दुःखम् ।
मयाद्य रामे गमिते यमक्षयं
चिराय सीता वशगा भविष्यति ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! अब मौज करो, मदिरा पीओ और मानसिक दुःखको दूर करके सब कार्य करो । आज मेरे द्वारा राम यमलोक पहुँचा दिये जायँगे; फिर तो सीता चिरकाल (सदा)-के लिये तुम्हारे अधीन हो जायगी’ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ ६३ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें तिरसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६३ ॥