वाचनम्
भागसूचना
- अपनी पराजयसे दुःखी हुए रावणकी आज्ञासे सोये हुए कुम्भकर्णका जगाया जाना और उसे देखकर वानरोंका भयभीत होना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रविश्य पुरीं लङ्कां रामबाणभयार्दितः ।
भग्नदर्पस्तदा राजा बभूव व्यथितेन्द्रियः ॥ १ ॥
मूलम्
स प्रविश्य पुरीं लङ्कां रामबाणभयार्दितः ।
भग्नदर्पस्तदा राजा बभूव व्यथितेन्द्रियः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीरामके बाणों और भयसे पीड़ित हो राक्षसराज रावण जब लङ्कापुरीमें पहुँचा, तब उसका अभिमान चूर-चूर हो गया था । उसकी सारी इन्द्रियाँ व्यथासे व्याकुल थीं ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातङ्ग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः ।
अभिभूतोऽभवद् राजा राघवेण महात्मना ॥ २ ॥
मूलम्
मातङ्ग इव सिंहेन गरुडेनेव पन्नगः ।
अभिभूतोऽभवद् राजा राघवेण महात्मना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सिंह गजराजको और गरुड़ विशाल नागको पीड़ित एवं पराजित कर देता है, उसी प्रकार महात्मा रघुनाथजीने राजा रावणको अभिभूत कर दिया था ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मदण्डप्रतीकानां विद्युच्चलितवर्चसाम् ।
स्मरन् राघवबाणानां विव्यथे राक्षसेश्वरः ॥ ३ ॥
मूलम्
ब्रह्मदण्डप्रतीकानां विद्युच्चलितवर्चसाम् ।
स्मरन् राघवबाणानां विव्यथे राक्षसेश्वरः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीरामके बाण ब्रह्मदण्डके प्रतीक जान पड़ते थे । उनकी दीप्ति चपलाके समान चञ्चल थी । उन्हें याद करके राक्षसराज रावणके मनमें बड़ी व्यथा हुई ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स काञ्चनमयं दिव्यमाश्रित्य परमासनम् ।
विप्रेक्षमाणो रक्षांसि रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
स काञ्चनमयं दिव्यमाश्रित्य परमासनम् ।
विप्रेक्षमाणो रक्षांसि रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सोनेके बने हुए दिव्य एवं श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठकर राक्षसोंकी ओर देखता हुआ रावण उस समय इस प्रकार कहने लगा— ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वं तत् खलु मे मोघं यत् तप्तं परमं तपः ।
यत् समानो महेन्द्रेण मानुषेण विनिर्जितः ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वं तत् खलु मे मोघं यत् तप्तं परमं तपः ।
यत् समानो महेन्द्रेण मानुषेण विनिर्जितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने जो बहुत बड़ी तपस्या की थी, वह सब अवश्य ही व्यर्थ हो गयी; क्योंकि आज महेन्द्रतुल्य पराक्रमी मुझ रावणको एक मनुष्यने परास्त कर दिया ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं तद् ब्रह्मणो घोरं वाक्यं मामभ्युपस्थितम् ।
मानुषेभ्यो विजानीहि भयं त्वमिति तत्तथा ॥ ६ ॥
मूलम्
इदं तद् ब्रह्मणो घोरं वाक्यं मामभ्युपस्थितम् ।
मानुषेभ्यो विजानीहि भयं त्वमिति तत्तथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्माजीने मुझसे कहा था कि ‘तुम्हें मनुष्योंसे भय प्राप्त होगा । इस बातको अच्छी तरह जान लो’ । उनका कहा हुआ यह घोर वचन इस समय सफल होकर मेरे समक्ष उपस्थित हुआ है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवगन्धर्वैर्यक्षराक्षसपन्नगैः ।
अवध्यत्वं मया प्रोक्तं मानुषेभ्यो न याचितम् ॥ ७ ॥
मूलम्
देवदानवगन्धर्वैर्यक्षराक्षसपन्नगैः ।
अवध्यत्वं मया प्रोक्तं मानुषेभ्यो न याचितम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने तो देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और सर्पोंसे ही अवध्य होनेका वर माँगा था, मनुष्योंसे अभय होनेकी वर-याचना नहीं की थी ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमिमं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।
इक्ष्वाकुकुलजातेन अनरण्येन यत् पुरा ॥ ८ ॥
उत्पत्स्यति हि मद्वंशपुरुषो राक्षसाधम ।
यस्त्वां सपुत्रं सामात्यं सबलं साश्वसारथिम् ॥ ९ ॥
निहनिष्यति सङ्ग्रामे त्वां कुलाधम दुर्मते ।
मूलम्
तमिमं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।
इक्ष्वाकुकुलजातेन अनरण्येन यत् पुरा ॥ ८ ॥
उत्पत्स्यति हि मद्वंशपुरुषो राक्षसाधम ।
यस्त्वां सपुत्रं सामात्यं सबलं साश्वसारथिम् ॥ ९ ॥
निहनिष्यति सङ्ग्रामे त्वां कुलाधम दुर्मते ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालमें इक्ष्वाकुवंशी राजा अनरण्यने मुझे शाप देते हुए कहा था कि ‘राक्षसाधम! कुलाङ्गार! दुर्मते! मेरे ही वंशमें एक ऐसा श्रेष्ठ पुरुष उत्पन्न होगा, जो तुझे पुत्र, मन्त्री, सेना, अश्व और सारथिके सहित समराङ्गणमें मार डालेगा ।’ मालूम होता है कि अनरण्यने जिसकी ओर संकेत किया था, यह दशरथकुमार राम वही मनुष्य है ॥ ८-९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शप्तोऽहं वेदवत्या च यथा सा धर्षिता पुरा ॥ १० ॥
सेयं सीता महाभागा जाता जनकनन्दिनी ।
मूलम्
शप्तोऽहं वेदवत्या च यथा सा धर्षिता पुरा ॥ १० ॥
सेयं सीता महाभागा जाता जनकनन्दिनी ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसके सिवा पूर्वकालमें मुझे वेदवतीने भी शाप दिया था; क्योंकि मैंने उसके साथ बलात्कार किया था । जान पड़ता है वही यह महाभागा जनकनन्दिनी सीता होकर प्रकट हुई है ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा नन्दीश्वरश्चापि रम्भा वरुणकन्यका ॥ ११ ॥
यथोक्तास्तन्मया प्राप्तं न मिथ्या ऋषिभाषितम् ।
मूलम्
उमा नन्दीश्वरश्चापि रम्भा वरुणकन्यका ॥ ११ ॥
यथोक्तास्तन्मया प्राप्तं न मिथ्या ऋषिभाषितम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसी तरह उमा, नन्दीश्वर, रम्भा और वरुण-कन्याने भी जैसा-जैसा कहा था, वैसा ही परिणाम मुझे प्राप्त हुआ है ।* सच है ऋषियोंकी बात कभी झूठी नहीं होती ॥ ११ १/२ ॥
पादटिप्पनी
- उमाने कैलास उठानेके समय भयभीत होनेसे रावणको शाप दिया था कि ‘तेरी मृत्यु स्त्रीके कारण होगी ।’ नन्दीश्वरकी वानर-मूर्ति देखकर रावण हँसा था, इसलिये उन्होंने कहा था—‘मेरे समान रूप और पराक्रमवाले ही तेरे कुलका नाश करेंगे ।’ रम्भाके निमित्तसे नल-कूबरने और वरुण-कन्या पुञ्जिकस्थलाके निमित्तसे ब्रह्माजीने शाप दिया था कि ‘अनिच्छासे किसी स्त्रीके साथ सम्भोग करनेपर तेरी मृत्यु हो जायगी ।’
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेव समागम्य यत्नं कर्तुमिहार्हथ ॥ १२ ॥
राक्षसाश्चापि तिष्ठन्तु चर्यागोपुरमूर्धसु ।
मूलम्
एतदेव समागम्य यत्नं कर्तुमिहार्हथ ॥ १२ ॥
राक्षसाश्चापि तिष्ठन्तु चर्यागोपुरमूर्धसु ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये शाप ही मुझपर भय अथवा संकट लानेमें कारण हुए हैं । इस बातको जानकर अब तुमलोग आये हुए संकटको टालनेका प्रयत्न करो । राक्षसलोग राजमार्गों तथा गोपुरोंके शिखरोंपर उनकी रक्षाके लिये डटे रहें ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चाप्रतिमगाम्भीर्यो देवदानवदर्पहा ॥ १३ ॥
ब्रह्मशापाभिभूतस्तु कुम्भकर्णो विबोध्यताम् ।
मूलम्
स चाप्रतिमगाम्भीर्यो देवदानवदर्पहा ॥ १३ ॥
ब्रह्मशापाभिभूतस्तु कुम्भकर्णो विबोध्यताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘साथ ही जिसके गाम्भीर्यकी कहीं तुलना नहीं है, जो देवताओं और दानवोंका दर्प दलन करनेवाला है तथा ब्रह्माजीके शापसे प्राप्त हुई निद्रा जिसे सदा अभिभूत किये रहती है, उस कुम्भकर्णको भी जगाया जाय’ ॥ १३ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समरे जितमात्मानं प्रहस्तं च निषूदितम् ॥ १४ ॥
ज्ञात्वा रक्षोबलं भीममादिदेश महाबलः ।
द्वारेषु यत्नः क्रियतां प्राकारश्चाधिरुह्यताम् ॥ १५ ॥
निद्रावशसमाविष्टः कुम्भकर्णो विबोध्यताम् ।
मूलम्
समरे जितमात्मानं प्रहस्तं च निषूदितम् ॥ १४ ॥
ज्ञात्वा रक्षोबलं भीममादिदेश महाबलः ।
द्वारेषु यत्नः क्रियतां प्राकारश्चाधिरुह्यताम् ॥ १५ ॥
निद्रावशसमाविष्टः कुम्भकर्णो विबोध्यताम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रहस्त मारा गया और मैं भी समराङ्गणमें परास्त हो गया’ ऐसा जानकर महाबली रावणने राक्षसोंकी भयानक सेनाको आदेश दिया कि ‘तुमलोग नगरके दरवाजोंपर रहकर उनकी रक्षाके लिये यत्न करो । परकोटोंपर भी चढ़ जाओ और निद्राके अधीन हुए कुम्भकर्णको जगा दो ॥ १४-१५ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं स्वपिति निश्चिन्तः कामोपहतचेतनः ॥ १६ ॥
नव सप्त दशाष्टौ च मासान् स्वपिति राक्षसः ।
मन्त्रं कृत्वा प्रसुप्तोऽयमितस्तु नवमेऽहनि ॥ १७ ॥
मूलम्
सुखं स्वपिति निश्चिन्तः कामोपहतचेतनः ॥ १६ ॥
नव सप्त दशाष्टौ च मासान् स्वपिति राक्षसः ।
मन्त्रं कृत्वा प्रसुप्तोऽयमितस्तु नवमेऽहनि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(मैं तो दुःखी, चिन्तित और अपूर्णकाम होकर जाग रहा हूँ और) वह राक्षस कामभोगसे अचेत हो बड़ी निश्चिन्तताके साथ सुखपूर्वक सो रहा है । वह कभी नौ, कभी सात, कभी दस और कभी आठ मासतक सोता रहता है । यह आजसे नौ महीने पहले मुझसे सलाह करके सोया था ॥ १६-१७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तु बोधयत क्षिप्रं कुम्भकर्णं महाबलम् ।
स हि सङ्ख्ये महाबाहुः ककुदं सर्वरक्षसाम् ।
वानरान् राजपुत्रौ च क्षिप्रमेव हनिष्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
तं तु बोधयत क्षिप्रं कुम्भकर्णं महाबलम् ।
स हि सङ्ख्ये महाबाहुः ककुदं सर्वरक्षसाम् ।
वानरान् राजपुत्रौ च क्षिप्रमेव हनिष्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः तुमलोग महाबली कुम्भकर्णको शीघ्र जगा दो । महाबाहु कुम्भकर्ण सभी राक्षसोंमें श्रेष्ठ है । वह युद्धस्थलमें वानरों और उन राजकुमारोंको भी शीघ्र ही मार डालेगा ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष केतुः परं सङ्ख्ये मुख्यो वै सर्वरक्षसाम् ।
कुम्भकर्णः सदा शेते मूढो ग्राम्यसुखे रतः ॥ १९ ॥
मूलम्
एष केतुः परं सङ्ख्ये मुख्यो वै सर्वरक्षसाम् ।
कुम्भकर्णः सदा शेते मूढो ग्राम्यसुखे रतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समस्त राक्षसोंमें प्रधान यह कुम्भकर्ण समरभूमिमें हमारे लिये सर्वोत्तम विजय-वैजयन्तीके समान है; किंतु खेदकी बात है कि वह मूर्ख ग्राम्यसुखमें आसक्त होकर सदा सोता रहता है ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामेणाभिनिरस्तस्य सङ्ग्रामेऽस्मिन् सुदारुणे ।
भविष्यति न मे शोकः कुम्भकर्णे विबोधिते ॥ २० ॥
मूलम्
रामेणाभिनिरस्तस्य सङ्ग्रामेऽस्मिन् सुदारुणे ।
भविष्यति न मे शोकः कुम्भकर्णे विबोधिते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि कुम्भकर्णको जगा दिया जाय तो इस भयंकर संग्राममें मुझे रामसे पराजित होनेका शोक नहीं होगा ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं करिष्याम्यहं तेन शक्रतुल्यबलेन हि ।
ईदृशे व्यसने घोरे यो न साह्याय कल्पते ॥ २१ ॥
मूलम्
किं करिष्याम्यहं तेन शक्रतुल्यबलेन हि ।
ईदृशे व्यसने घोरे यो न साह्याय कल्पते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि इस घोर संकटके समय भी कुम्भकर्ण मेरी सहायता करनेमें समर्थ नहीं हो रहा है तो इन्द्रके तुल्य बलशाली होनेपर भी उससे मेरा प्रयोजन ही क्या है—मैं उसे लेकर क्या करूँगा?’ ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु तद् वचनं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य राक्षसाः ।
जग्मुः परमसम्भ्रान्ताः कुम्भकर्णनिवेशनम् ॥ २२ ॥
मूलम्
ते तु तद् वचनं श्रुत्वा राक्षसेन्द्रस्य राक्षसाः ।
जग्मुः परमसम्भ्रान्ताः कुम्भकर्णनिवेशनम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसराज रावणकी वह बात सुनकर समस्त राक्षस बड़ी घबराहटमें पड़कर कुम्भकर्णके घर गये ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते रावणसमादिष्टा मांसशोणितभोजनाः ।
गन्धं माल्यं महद्भक्ष्यमादाय सहसा ययुः ॥ २३ ॥
मूलम्
ते रावणसमादिष्टा मांसशोणितभोजनाः ।
गन्धं माल्यं महद्भक्ष्यमादाय सहसा ययुः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रक्त-मांसका भोजन करनेवाले वे राक्षस रावणकी आज्ञा पाकर गन्ध, माल्य तथा खाने-पीनेकी बहुत-सी सामग्री लिये सहसा कुम्भकर्णके पास गये ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रविश्य महाद्वारां सर्वतो योजनायताम् ।
कुम्भकर्णगुहां रम्यां पुष्पगन्धप्रवाहिनीम् ॥ २४ ॥
कुम्भकर्णस्य निःश्वासादवधूता महाबलाः ।
प्रतिष्ठमानाः कृच्छ्रेण यत्नात् प्रविविशुर्गुहाम् ॥ २५ ॥
मूलम्
तां प्रविश्य महाद्वारां सर्वतो योजनायताम् ।
कुम्भकर्णगुहां रम्यां पुष्पगन्धप्रवाहिनीम् ॥ २४ ॥
कुम्भकर्णस्य निःश्वासादवधूता महाबलाः ।
प्रतिष्ठमानाः कृच्छ्रेण यत्नात् प्रविविशुर्गुहाम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुम्भकर्ण एक गुफामें रहता था, जो बड़ी ही सुन्दर थी और वहाँके वातावरणमें फूलोंकी सुगन्ध छायी रहती थी । उसकी लंबाई-चौड़ाई सब ओरसे एक-एक योजनकी थी तथा उसका दरवाजा बहुत बड़ा था । उसमें प्रवेश करते ही वे महाबली राक्षस कुम्भकर्णकी साँसके वेगसे सहसा पीछेको ठेल दिये गये । फिर बड़ी कठिनाईसे पैर जमाते हुए वे पूरा प्रयत्न करके उस गुफाके भीतर घुसे ॥ २४-२५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रविश्य गुहां रम्यां रत्नकाञ्चनकुट्टिमाम् ।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्राः शयानं भीमविक्रमम् ॥ २६ ॥
मूलम्
तां प्रविश्य गुहां रम्यां रत्नकाञ्चनकुट्टिमाम् ।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्राः शयानं भीमविक्रमम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गुफाकी फर्शमें रत्न और सुवर्ण जड़े गये थे, जिससे उसकी रमणीयता बहुत बढ़ गयी थी । उसके भीतर प्रवेश करके उन श्रेष्ठ राक्षसोंने देखा, भयानक पराक्रमी कुम्भकर्ण सो रहा है ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तु तं विकृतं सुप्तं विकीर्णमिव पर्वतम् ।
कुम्भकर्णं महानिद्रं समेताः प्रत्यबोधयन् ॥ २७ ॥
मूलम्
ते तु तं विकृतं सुप्तं विकीर्णमिव पर्वतम् ।
कुम्भकर्णं महानिद्रं समेताः प्रत्यबोधयन् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महानिद्रामें निमग्न हुआ कुम्भकर्ण बिखरे हुए पर्वतके समान विकृतावस्थामें सोकर खर्राटे ले रहा था, अतः वे सब राक्षस एकत्र हो उसे जगानेकी चेष्टा करने लगे ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वलोमाञ्चिततनुं श्वसन्तमिव पन्नगम् ।
भ्रामयन्तं विनिःश्वासैः शयानं भीमविक्रमम् ॥ २८ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वलोमाञ्चिततनुं श्वसन्तमिव पन्नगम् ।
भ्रामयन्तं विनिःश्वासैः शयानं भीमविक्रमम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका सारा शरीर ऊपर उठी हुई रोमावलियोंसे भरा था । वह सर्पके समान साँस लेता और अपने निःश्वासोंसे लोगोंको चक्करमें डाल देता था । वहाँ सोया हुआ वह राक्षस भयानक बल-विक्रमसे सम्पन्न था ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमनासापुटं तं तु पातालविपुलाननम् ।
शयने न्यस्तसर्वाङ्गं मेदोरुधिरगन्धिनम् ॥ २९ ॥
मूलम्
भीमनासापुटं तं तु पातालविपुलाननम् ।
शयने न्यस्तसर्वाङ्गं मेदोरुधिरगन्धिनम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी नासिकाके दोनों छिद्र बड़े भयंकर थे । मुँह पातालके समान विशाल था । उसने अपना सारा शरीर शय्यापर डाल रखा था और उसकी देहसे रक्त और चर्बीकी-सी गन्ध प्रकट होती थी ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काञ्चनाङ्गदनद्धाङ्गं किरीटेनार्कवर्चसम् ।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्रं कुम्भकर्णमरिन्दमम् ॥ ३० ॥
मूलम्
काञ्चनाङ्गदनद्धाङ्गं किरीटेनार्कवर्चसम् ।
ददृशुर्नैर्ऋतव्याघ्रं कुम्भकर्णमरिन्दमम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी भुजाओंमें बाजूबन्द शोभा पाते थे । मस्तकपर तेजस्वी किरीट धारण करनेके कारण वह सूर्यदेवके समान प्रभापुञ्जसे प्रकाशित हो रहा था । इस रूपमें निशाचरश्रेष्ठ शत्रुदमन कुम्भकर्णको उन राक्षसोंने देखा ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चक्रुर्महात्मानः कुम्भकर्णस्य चाग्रतः ।
भूतानां मेरुसङ्काशं राशिं परमतर्पणम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
ततश्चक्रुर्महात्मानः कुम्भकर्णस्य चाग्रतः ।
भूतानां मेरुसङ्काशं राशिं परमतर्पणम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन महाकाय निशाचरोंने कुम्भकर्णके सामने प्राणियोंके मेरुपर्वत-जैसे ढेर लगा दिये, जो उसे अत्यन्त तृप्ति प्रदान करनेवाले थे ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च सञ्चयान् ।
चक्रुर्नैर्ऋतशार्दूला राशिमन्नस्य चाद्भुतम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
मृगाणां महिषाणां च वराहाणां च सञ्चयान् ।
चक्रुर्नैर्ऋतशार्दूला राशिमन्नस्य चाद्भुतम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन श्रेष्ठ राक्षसोंने वहाँ मृगों, भैंसों और सूअरोंके समूह खड़े कर दिये तथा अन्नकी भी अद्भुत राशि एकत्र कर दी ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शोणितकुम्भांश्च मांसानि विविधानि च ।
पुरस्तात् कुम्भकर्णस्य चक्रुस्त्रिदशशत्रवः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः शोणितकुम्भांश्च मांसानि विविधानि च ।
पुरस्तात् कुम्भकर्णस्य चक्रुस्त्रिदशशत्रवः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, उन देवद्रोहियोंने कुम्भकर्णके आगे रक्तसे भरे हुए बहुतेरे घड़े और नाना प्रकारके मांस भी रख दिये ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लिलिपुश्च परार्घ्येन चन्दनेन परन्तपम् ।
दिव्यैराश्वासयामासुर्माल्यैर्गन्धैश्च गन्धिभिः ॥ ३४ ॥
धूपगन्धांश्च ससृजुस्तुष्टुवुश्च परन्तपम् ।
जलदा इव चानेदुर्यातुधानास्ततस्ततः ॥ ३५ ॥
मूलम्
लिलिपुश्च परार्घ्येन चन्दनेन परन्तपम् ।
दिव्यैराश्वासयामासुर्माल्यैर्गन्धैश्च गन्धिभिः ॥ ३४ ॥
धूपगन्धांश्च ससृजुस्तुष्टुवुश्च परन्तपम् ।
जलदा इव चानेदुर्यातुधानास्ततस्ततः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन्होंने शत्रुसंतापी कुम्भकर्णके शरीरमें बहुमूल्य चन्दनका लेप किया । दिव्य सुगन्धित पुष्प और चन्दन सुघाँये । धूपोंकी सुगन्ध फैलायी । उस शत्रुदमन वीरकी स्तुति की तथा जहाँ-तहाँ खड़े हुए राक्षस मेघोंके समान गम्भीर ध्वनिसे गर्जना करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खांश्च पूरयामासुः शशाङ्कसदृशप्रभान् ।
तुमुलं युगपच्चापि विनेदुश्चाप्यमर्षिताः ॥ ३६ ॥
मूलम्
शङ्खांश्च पूरयामासुः शशाङ्कसदृशप्रभान् ।
तुमुलं युगपच्चापि विनेदुश्चाप्यमर्षिताः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इतनेपर भी जब कुम्भकर्ण नहीं उठा, तब) अमर्षसे भरे हुए राक्षस चन्द्रमाके समान श्वेत रंगके बहुत-से शङ्ख फूँकने तथा एक साथ तुमुल-ध्वनिसे गर्जना करने लगे ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदुरास्फोटयामासुश्चिक्षिपुस्ते निशाचराः ।
कुम्भकर्णविबोधार्थं चक्रुस्ते विपुलं स्वरम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
नेदुरास्फोटयामासुश्चिक्षिपुस्ते निशाचराः ।
कुम्भकर्णविबोधार्थं चक्रुस्ते विपुलं स्वरम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे निशाचर सिंहनाद करने, ताल ठोंकने और कुम्भकर्णके विभिन्न अङ्गोंको झकझोरने लगे । उन्होंने कुम्भकर्णको जगानेके लिये बड़े जोर-जोरसे गम्भीर ध्वनि की ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सशङ्खभेरीपणवप्रणादं
सास्फोटितक्ष्वेलितसिंहनादम् ।
दिशो द्रवन्तस्त्रिदिवं किरन्तः
श्रुत्वा विहङ्गाः सहसा निपेतुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
सशङ्खभेरीपणवप्रणादं
सास्फोटितक्ष्वेलितसिंहनादम् ।
दिशो द्रवन्तस्त्रिदिवं किरन्तः
श्रुत्वा विहङ्गाः सहसा निपेतुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शङ्ख, भेरी और पणव बजने लगे । ताल ठोंकने, गर्जने और सिंहनादका शब्द सब ओर गूँज उठा । वह तुमुल नाद सुनकर पक्षी समस्त दिशाओंकी ओर भागने और आकाशमें उड़ने लगे । उड़ते-उड़ते वे सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ते थे ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा भृशं तैर्निनदैर्महात्मा
न कुम्भकर्णो बुबुधे प्रसुप्तः ।
ततो भुशुण्डीर्मुसलानि सर्वे
रक्षोगणास्ते जगृहुर्गदाश्च ॥ ३९ ॥
मूलम्
यदा भृशं तैर्निनदैर्महात्मा
न कुम्भकर्णो बुबुधे प्रसुप्तः ।
ततो भुशुण्डीर्मुसलानि सर्वे
रक्षोगणास्ते जगृहुर्गदाश्च ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उस महान् कोलाहलसे भी सोया हुआ विशालकाय कुम्भकर्ण नहीं जग सका, तब उन समस्त राक्षसोंने अपने हाथोंमें भुशुण्डी, मूसल और गदाएँ ले लीं ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं शैलशृङ्गैर्मुसलैर्गदाभि-
र्वक्षःस्थले मुद्गरमुष्टिभिश्च ।
सुखप्रसुप्तं भुवि कुम्भकर्णं
रक्षांस्युदग्राणि तदा निजघ्नुः ॥ ४० ॥
मूलम्
तं शैलशृङ्गैर्मुसलैर्गदाभि-
र्वक्षःस्थले मुद्गरमुष्टिभिश्च ।
सुखप्रसुप्तं भुवि कुम्भकर्णं
रक्षांस्युदग्राणि तदा निजघ्नुः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुम्भकर्ण भूतलपर ही सुखसे सो रहा था । उसी अवस्थामें उन प्रचण्ड राक्षसोंने उस समय उसकी छातीपर पर्वतशिखरों, मूसलों, गदाओं, मुद्गरों और मुक्कोंसे मारना आरम्भ किया ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य निःश्वासवातेन कुम्भकर्णस्य रक्षसः ।
राक्षसाः कुम्भकर्णस्य स्थातुं शेकुर्न चाग्रतः ॥ ४१ ॥
मूलम्
तस्य निःश्वासवातेन कुम्भकर्णस्य रक्षसः ।
राक्षसाः कुम्भकर्णस्य स्थातुं शेकुर्न चाग्रतः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु राक्षस कुम्भकर्णकी निःश्वास-वायुसे प्रेरित हो वे सब निशाचर उसके आगे ठहर नहीं पाते थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परिहिता गाढं राक्षसा भीमविक्रमाः ।
मृदङ्गपणवान् भेरीः शङ्खकुम्भगणांस्तथा ॥ ४२ ॥
दश राक्षससाहस्रं युगपत्पर्यवारयत् ।
नीलाञ्जनचयाकारं ते तु तं प्रत्यबोधयन् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततः परिहिता गाढं राक्षसा भीमविक्रमाः ।
मृदङ्गपणवान् भेरीः शङ्खकुम्भगणांस्तथा ॥ ४२ ॥
दश राक्षससाहस्रं युगपत्पर्यवारयत् ।
नीलाञ्जनचयाकारं ते तु तं प्रत्यबोधयन् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अपने वस्त्रोंको खूब कसकर बाँध लेनेके पश्चात् वे भयानक पराक्रमी राक्षस जिनकी संख्या लगभग दस हजार थी, एक ही समय कुम्भकर्णको घेरकर खड़े हो गये और काले कोयलेके ढेरके समान पड़े हुए उस निशाचरको जगानेका प्रयत्न करने लगे । उन सबने एक साथ मृदंग, पणव, भेरी, शङ्ख और कुम्भ (धौंसे) बजाने आरम्भ किये ॥ ४२-४३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिघ्नन्तो नदन्तश्च न च सम्बुबुधे तदा ।
यदा चैनं न शेकुस्ते प्रतिबोधयितुं तदा ॥ ४४ ॥
ततो गुरुतरं यत्नं दारुणं समुपाक्रमन् ।
मूलम्
अभिघ्नन्तो नदन्तश्च न च सम्बुबुधे तदा ।
यदा चैनं न शेकुस्ते प्रतिबोधयितुं तदा ॥ ४४ ॥
ततो गुरुतरं यत्नं दारुणं समुपाक्रमन् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह वे राक्षस बाजे बजाते और गर्जते रहे तो भी कुम्भकर्णकी निद्रा नहीं टूटी । जब वे उसे किसी तरह जगान सके, तब उन्होंने पहलेसे भी भारी प्रयत्न आरम्भ किया ॥ ४४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वानुष्ट्रान् खरान् नागाञ्जघ्नुर्दण्डकशाङ्कुशैः ॥ ४५ ॥
भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च सर्वप्राणैरवादयन् ।
निजघ्नुश्चास्य गात्राणि महाकाष्ठकटङ्करैः ॥ ४६ ॥
मुद्गरैर्मुसलैश्चापि सर्वप्राणसमुद्यतैः ।
तेन नादेन महता लङ्का सर्वा प्रपूरिता ।
सपर्वतवना सर्वा सोऽपि नैव प्रबुध्यते ॥ ४७ ॥
मूलम्
अश्वानुष्ट्रान् खरान् नागाञ्जघ्नुर्दण्डकशाङ्कुशैः ॥ ४५ ॥
भेरीशङ्खमृदङ्गांश्च सर्वप्राणैरवादयन् ।
निजघ्नुश्चास्य गात्राणि महाकाष्ठकटङ्करैः ॥ ४६ ॥
मुद्गरैर्मुसलैश्चापि सर्वप्राणसमुद्यतैः ।
तेन नादेन महता लङ्का सर्वा प्रपूरिता ।
सपर्वतवना सर्वा सोऽपि नैव प्रबुध्यते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे घोड़ों, ऊँटों, गदहों और हाथियोंको डंडों, कोड़ों तथा अंकुशोंसे मार-मारकर उसके ऊपर ठेलने लगे । सारी शक्ति लगाकर भेरी, मृदङ्ग और शङ्ख बजाने लगे तथा पूरा बल लगाकर उठाये गये बड़े-बड़े काष्ठोंके समूहों, मुद्गरों और मूसलोंसे भी उसके अङ्गोंपर प्रहार करने लगे । उस महान् कोलाहलसे पर्वतों और वनोंसहित सारी लङ्का गूँज उठी, परंतु कुम्भकर्ण नहीं जागा, नहीं जागा ॥ ४५—४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भेरीसहस्रं तु युगपत् समहन्यत ।
मृष्टकाञ्चनकोणानामसक्तानां समन्ततः ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततो भेरीसहस्रं तु युगपत् समहन्यत ।
मृष्टकाञ्चनकोणानामसक्तानां समन्ततः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर सब ओर सहस्रों धौंसे एक साथ बजाये जाने लगे । वे सब-के-सब लगातार बजते रहे । उन्हें बजानेके लिये जो डंडे थे, वे सुन्दर सुवर्णके बने हुए थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमप्यतिनिद्रस्तु यदा नैव प्रबुध्यते ।
शापस्य वशमापन्नस्ततः क्रुद्धा निशाचराः ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवमप्यतिनिद्रस्तु यदा नैव प्रबुध्यते ।
शापस्य वशमापन्नस्ततः क्रुद्धा निशाचराः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेपर भी शापके अधीन हुआ वह अतिशय निद्रालु निशाचर नहीं जागा । इससे वहाँ आये हुए सब राक्षसोंको बड़ा क्रोध हुआ ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कोपसमाविष्टाः सर्वे भीमपराक्रमाः ।
तद् रक्षो बोधयिष्यन्तश्चक्रुरन्ये पराक्रमम् ॥ ५० ॥
मूलम्
ततः कोपसमाविष्टाः सर्वे भीमपराक्रमाः ।
तद् रक्षो बोधयिष्यन्तश्चक्रुरन्ये पराक्रमम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे रोषसे भरे हुए सभी भयानक पराक्रमी निशाचर उस राक्षसको जगानेके लिये पराक्रम करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये भेरीः समाजघ्नुरन्ये चक्रुर्महास्वनम् ।
केशानन्ये प्रलुलुपुः कर्णानन्ये दशन्ति च ॥ ५१ ॥
मूलम्
अन्ये भेरीः समाजघ्नुरन्ये चक्रुर्महास्वनम् ।
केशानन्ये प्रलुलुपुः कर्णानन्ये दशन्ति च ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई धौंसे बजाने लगे, कोई महान् कोलाहल करने लगे, कोई कुम्भकर्णके सिरके बाल नोचने लगे और कोई दाँतोंसे उसके कान काटने लगे ॥ ५१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदकुम्भशतानन्ये समसिञ्चन्त कर्णयोः ।
न कुम्भकर्णः पस्पन्दे महानिद्रावशं गतः ॥ ५२ ॥
मूलम्
उदकुम्भशतानन्ये समसिञ्चन्त कर्णयोः ।
न कुम्भकर्णः पस्पन्दे महानिद्रावशं गतः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे राक्षसोंने उसके दोनों कानोंमें सौ घड़े पानी डाल दिये तो भी महानिद्राके वशमें पड़ा हुआ कुम्भकर्ण टस-से-मस नहीं हुआ ॥ ५२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्ये च बलिनस्तस्य कूटमुद्गरपाणयः ।
मूर्ध्नि वक्षसि गात्रेषु पातयन् कूटमुद्गरान् ॥ ५३ ॥
मूलम्
अन्ये च बलिनस्तस्य कूटमुद्गरपाणयः ।
मूर्ध्नि वक्षसि गात्रेषु पातयन् कूटमुद्गरान् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरे बलवान् राक्षस काँटेदार मुद्गर हाथमें लेकर उन्हें उसके मस्तक, छाती तथा अन्य अङ्गोंपर गिराने लगे ॥ ५३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रज्जुबन्धनबद्धाभिः शतघ्नीभिश्च सर्वतः ।
वध्यमानो महाकायो न प्राबुध्यत राक्षसः ॥ ५४ ॥
मूलम्
रज्जुबन्धनबद्धाभिः शतघ्नीभिश्च सर्वतः ।
वध्यमानो महाकायो न प्राबुध्यत राक्षसः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् रस्सियोंसे बँधी हुई शतघ्नियोंद्वारा उसपर सब ओरसे चोटें पड़ने लगीं । फिर भी उस महाकाय राक्षसकी नींद नहीं टूटी ॥ ५४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारणानां सहस्रं च शरीरेऽस्य प्रधावितम् ।
कुम्भकर्णस्तदा बुद्ध्वा स्पर्शं परमबुध्यत ॥ ५५ ॥
मूलम्
वारणानां सहस्रं च शरीरेऽस्य प्रधावितम् ।
कुम्भकर्णस्तदा बुद्ध्वा स्पर्शं परमबुध्यत ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उसके शरीरपर हजारों हाथी दौड़ाये गये । तब उसे कुछ स्पर्श मालूम हुआ और वह जाग उठा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स पात्यमानैर्गिरिशृङ्गवृक्षै-
रचिन्तयंस्तान् विपुलान् प्रहारान् ।
निद्राक्षयात् क्षुद्भयपीडितश्च
विजृम्भमाणः सहसोत्पपात ॥ ५६ ॥
मूलम्
स पात्यमानैर्गिरिशृङ्गवृक्षै-
रचिन्तयंस्तान् विपुलान् प्रहारान् ।
निद्राक्षयात् क्षुद्भयपीडितश्च
विजृम्भमाणः सहसोत्पपात ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि उसके ऊपर पर्वतशिखर और वृक्ष गिराये जाते थे, तथापि उसने उन भारी प्रहारोंको कुछ भी नहीं गिना । हाथियोंके स्पर्शसे जब उसकी नींद टूटी, तब वह भूखके भयसे पीड़ित हो अँगड़ाई लेता हुआ सहसा उछलकर खड़ा हो गया ॥ ५६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नागभोगाचलशृङ्गकल्पौ
विक्षिप्य बाहू जितवज्रसारौ ।
विवृत्य वक्त्रं वडवामुखाभं
निशाचरोऽसौ विकृतं जजृम्भे ॥ ५७ ॥
मूलम्
स नागभोगाचलशृङ्गकल्पौ
विक्षिप्य बाहू जितवज्रसारौ ।
विवृत्य वक्त्रं वडवामुखाभं
निशाचरोऽसौ विकृतं जजृम्भे ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी दोनों भुजाएँ नागोंके शरीर और पर्वत-शिखरोंके समान जान पड़ती थीं । उन्होंने वज्रकी शक्तिको पराजित कर दिया था । उन दोनों बाँहों और मुँहको फैलाकर जब वह निशाचर जम्हाई लेने लगा, उस समय उसका मुख बड़वानलके समान विकराल जान पड़ता था ॥ ५७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य जाजृम्भमाणस्य वक्त्रं पातालसन्निभम् ।
ददृशे मेरुशृङ्गाग्रे दिवाकर इवोदितः ॥ ५८ ॥
मूलम्
तस्य जाजृम्भमाणस्य वक्त्रं पातालसन्निभम् ।
ददृशे मेरुशृङ्गाग्रे दिवाकर इवोदितः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जम्हाई लेते समय कुम्भकर्णका पाताल-जैसा मुख मेरुपर्वतके शिखरपर उगे हुए सूर्यके समान दिखायी देता था ॥ ५८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स जृम्भमाणोऽतिबलः प्रबुद्धस्तु निशाचरः ।
निःश्वासश्चास्य सञ्जज्ञे पर्वतादिव मारुतः ॥ ५९ ॥
मूलम्
स जृम्भमाणोऽतिबलः प्रबुद्धस्तु निशाचरः ।
निःश्वासश्चास्य सञ्जज्ञे पर्वतादिव मारुतः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह जम्हाई लेता हुआ वह अत्यन्त बलशाली निशाचर जब जगा, तब उसके मुखसे जो साँस निकलती थी, वह पर्वत-से चली हुई वायुके समान प्रतीत होती थी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपमुत्तिष्ठतस्तस्य कुम्भकर्णस्य तद् बभौ ।
युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव दिधक्षतः ॥ ६० ॥
मूलम्
रूपमुत्तिष्ठतस्तस्य कुम्भकर्णस्य तद् बभौ ।
युगान्ते सर्वभूतानि कालस्येव दिधक्षतः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नींदसे उठे हुए कुम्भकर्णका वह रूप प्रलयकालमें समस्त प्राणियोंके संहारकी इच्छा रखनेवाले कालके समान जान पड़ता था ॥ ६० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य दीप्ताग्निसदृशे विद्युत्सदृशवर्चसी ।
ददृशाते महानेत्रे दीप्ताविव महाग्रहौ ॥ ६१ ॥
मूलम्
तस्य दीप्ताग्निसदृशे विद्युत्सदृशवर्चसी ।
ददृशाते महानेत्रे दीप्ताविव महाग्रहौ ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी दोनों बड़ी-बड़ी आँखें प्रज्वलित अग्नि और विद्युत् के समान दीप्तिमती दिखायी देती थीं । वे ऐसी लगती थीं मानो दो महान् ग्रह प्रकाशित हो रहे हों ॥ ६१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्त्वदर्शयन् सर्वान् भक्ष्यांश्च विविधान् बहून् ।
वराहान् महिषांश्चैव बभक्ष स महाबलः ॥ ६२ ॥
मूलम्
ततस्त्वदर्शयन् सर्वान् भक्ष्यांश्च विविधान् बहून् ।
वराहान् महिषांश्चैव बभक्ष स महाबलः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर राक्षसोंने वहाँ जो अनेक प्रकारकी खाने-पीनेकी वस्तुएँ प्रचुर मात्रामें रखी गयी थीं, वे सब-की-सब कुम्भकर्णको दिखायीं । वह महाबली राक्षस बात-की-बातमें बहुतेरे भैंसों और सूअरोंको चट कर गया ॥ ६२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदद् बुभुक्षितो मांसं शोणितं तृषितोऽपिबत् ।
मेदःकुम्भांश्च मद्यांश्च पपौ शक्ररिपुस्तदा ॥ ६३ ॥
मूलम्
आदद् बुभुक्षितो मांसं शोणितं तृषितोऽपिबत् ।
मेदःकुम्भांश्च मद्यांश्च पपौ शक्ररिपुस्तदा ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे बड़ी भूख लगी थी, अतः उसने भरपेट मांस खाया और प्यास बुझानेके लिये रक्त पान किया । तदनन्तर उस इन्द्रद्रोही निशाचरने चर्बीसे भरे हुए कितने ही घड़े साफ कर दिये और वह कई घड़े मदिरा भी पी गया ॥ ६३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तृप्त इति ज्ञात्वा समुत्पेतुर्निशाचराः ।
शिरोभिश्च प्रणम्यैनं सर्वतः पर्यवारयन् ॥ ६४ ॥
मूलम्
ततस्तृप्त इति ज्ञात्वा समुत्पेतुर्निशाचराः ।
शिरोभिश्च प्रणम्यैनं सर्वतः पर्यवारयन् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उसे तृप्त जानकर राक्षस उछल-उछलकर उसके सामने आये और उसे सिर झुका प्रणाम करके उसके चारों ओर खड़े हो गये ॥ ६४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निद्राविशदनेत्रस्तु कलुषीकृतलोचनः ।
चारयन् सर्वतो दृष्टिं तान् ददर्श निशाचरान् ॥ ६५ ॥
मूलम्
निद्राविशदनेत्रस्तु कलुषीकृतलोचनः ।
चारयन् सर्वतो दृष्टिं तान् ददर्श निशाचरान् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उसके नेत्र निद्राके कारण अप्रसन्न—कुछ-कुछ खुले हुए थे और मलिन जान पड़ते थे । उसने सब ओर दृष्टि डालकर वहाँ खड़े हुए निशाचरोंको देखा ॥ ६५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सर्वान् सान्त्वयामास नैर्ऋतान् नैर्ऋतर्षभः ।
बोधनाद् विस्मितश्चापि राक्षसानिदमब्रवीत् ॥ ६६ ॥
मूलम्
स सर्वान् सान्त्वयामास नैर्ऋतान् नैर्ऋतर्षभः ।
बोधनाद् विस्मितश्चापि राक्षसानिदमब्रवीत् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निशाचरोंमें श्रेष्ठ कुम्भकर्णने उन सब राक्षसोंको सान्त्वना दी और अपने जगाये जानेके कारण विस्मित हो उनसे इस प्रकार पूछा— ॥ ६६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थमहमादृत्य भवद्भिः प्रतिबोधितः ।
कच्चित् सुकुशलं राज्ञो भयं वा नेह किञ्चन ॥ ६७ ॥
मूलम्
किमर्थमहमादृत्य भवद्भिः प्रतिबोधितः ।
कच्चित् सुकुशलं राज्ञो भयं वा नेह किञ्चन ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमलोगोंने इस प्रकार आदर करके मुझे किसलिये जगाया है? राक्षसराज रावण कुशलसे हैं न? यहाँ कोई भय तो नहीं उपस्थित हुआ है? ॥ ६७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा ध्रुवमन्येभ्यो भयं परमुपस्थितम् ।
यदर्थमेव त्वरितैर्भवद्भिः प्रतिबोधितः ॥ ६८ ॥
मूलम्
अथवा ध्रुवमन्येभ्यो भयं परमुपस्थितम् ।
यदर्थमेव त्वरितैर्भवद्भिः प्रतिबोधितः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा निश्चय ही यहाँ दूसरोंसे कोई महान् भय उपस्थित हुआ है, जिसके निवारणके लिये तुमलोगोंने इतनी उतावलीके साथ मुझे जगाया है ॥ ६८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य राक्षसराजस्य भयमुत्पाटयाम्यहम् ।
दारयिष्ये महेन्द्रं वा शीतयिष्ये तथानलम् ॥ ६९ ॥
मूलम्
अद्य राक्षसराजस्य भयमुत्पाटयाम्यहम् ।
दारयिष्ये महेन्द्रं वा शीतयिष्ये तथानलम् ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अच्छा तो आज मैं राक्षसराजके भयको उखाड़ फेंकूँगा । महेन्द्र (पर्वत या इन्द्र)-को भी चीर डालूँगा और अग्निको भी ठंडा कर दूँगा ॥ ६९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यल्पकारणे सुप्तं बोधयिष्यति मादृशम् ।
तदाख्यातार्थतत्त्वेन मत्प्रबोधनकारणम् ॥ ७० ॥
मूलम्
न ह्यल्पकारणे सुप्तं बोधयिष्यति मादृशम् ।
तदाख्यातार्थतत्त्वेन मत्प्रबोधनकारणम् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझ-जैसे पुरुषको किसी छोटे-मोटे कारणवश नींदसे नहीं जगाया जायगा । अतः तुमलोग ठीक-ठीक बताओ, मेरे जगाये जानेका क्या कारण है?’ ॥ ७० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवाणं संरब्धं कुम्भकर्णमरिन्दमम् ।
यूपाक्षः सचिवो राज्ञः कृताञ्जलिरभाषत ॥ ७१ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवाणं संरब्धं कुम्भकर्णमरिन्दमम् ।
यूपाक्षः सचिवो राज्ञः कृताञ्जलिरभाषत ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन कुम्भकर्ण जब रोषमें भरकर इस प्रकार पूछने लगा, तब राजा रावणके सचिव यूपाक्षने हाथ जोड़कर कहा— ॥ ७१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नो देवकृतं किञ्चिद् भयमस्ति कदाचन ।
मानुषान्नो भयं राजंस्तुमुलं सम्प्रबाधते ॥ ७२ ॥
मूलम्
न नो देवकृतं किञ्चिद् भयमस्ति कदाचन ।
मानुषान्नो भयं राजंस्तुमुलं सम्प्रबाधते ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराज! हमें देवताओंकी ओरसे तो कभी कोई भय हो ही नहीं सकता । इस समय केवल एक मनुष्यसे तुमुल भय प्राप्त हुआ है, जो हमें सता रहा है ॥ ७२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दैत्यदानवेभ्यो वा भयमस्ति न नः क्वचित् ।
यादृशं मानुषं राजन् भयमस्मानुपस्थितम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
न दैत्यदानवेभ्यो वा भयमस्ति न नः क्वचित् ।
यादृशं मानुषं राजन् भयमस्मानुपस्थितम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस समय एक मनुष्यसे हमारे लिये जैसा भय उपस्थित हो गया है, वैसा तो कभी दैत्यों और दानवोंसे भी नहीं हुआ था ॥ ७३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानरैः पर्वताकारैर्लङ्केयं परिवारिता ।
सीताहरणसन्तप्ताद् रामान्नस्तुमुलं भयम् ॥ ७४ ॥
मूलम्
वानरैः पर्वताकारैर्लङ्केयं परिवारिता ।
सीताहरणसन्तप्ताद् रामान्नस्तुमुलं भयम् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पर्वताकार वानरोंने आकर इस लङ्कापुरीको चारों ओरसे घेर लिया है । सीताहरणसे संतप्त हुए श्रीरामकी ओरसे हमें तुमुल भयकी प्राप्ति हुई है ॥ ७४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकेन वानरेणेयं पूर्वं दग्धा महापुरी ।
कुमारो निहतश्चाक्षः सानुयात्रः सकुञ्जरः ॥ ७५ ॥
मूलम्
एकेन वानरेणेयं पूर्वं दग्धा महापुरी ।
कुमारो निहतश्चाक्षः सानुयात्रः सकुञ्जरः ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले एक ही वानरने यहाँ आकर इस महापुरीको जला दिया था और हाथियों तथा साथियोंसहित राजकुमार अक्षको भी मार डाला था ॥ ७५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं रक्षोधिपश्चापि पौलस्त्यो देवकण्टकः ।
व्रजेति संयुगे मुक्तो रामेणादित्यवर्चसा ॥ ७६ ॥
मूलम्
स्वयं रक्षोधिपश्चापि पौलस्त्यो देवकण्टकः ।
व्रजेति संयुगे मुक्तो रामेणादित्यवर्चसा ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीराम सूर्यके समान तेजस्वी हैं । उन्होंने देवशत्रु पुलस्त्यकुलनन्दन साक्षात् राक्षसराज रावणको भी युद्धमें हराकर जीवित छोड़ दिया और कहा—‘लङ्काको लौट जाओ’ ॥ ७६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्न देवैः कृतो राजा नापि दैत्यैर्न दानवैः ।
कृतः स इह रामेण विमुक्तः प्राणसंशयात् ॥ ७७ ॥
मूलम्
यन्न देवैः कृतो राजा नापि दैत्यैर्न दानवैः ।
कृतः स इह रामेण विमुक्तः प्राणसंशयात् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाराजकी जो दशा देवता, दैत्य और दानव भी नहीं कर सके थे, वह रामने कर दी । उनके प्राण बड़े संकटसे बचे हैं’ ॥ ७७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स यूपाक्षवचः श्रुत्वा भ्रातुर्युधि पराभवम् ।
कुम्भकर्णो विवृत्ताक्षो यूपाक्षमिदमब्रवीत् ॥ ७८ ॥
मूलम्
स यूपाक्षवचः श्रुत्वा भ्रातुर्युधि पराभवम् ।
कुम्भकर्णो विवृत्ताक्षो यूपाक्षमिदमब्रवीत् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें भाईकी पराजयसे सम्बन्ध रखनेवाली यूपाक्षकी यह बात सुनकर कुम्भकर्ण आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगा और यूपाक्षसे इस प्रकार बोला— ॥ ७८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वमद्यैव यूपाक्ष हरिसैन्यं सलक्ष्मणम् ।
राघवं च रणे जित्वा ततो द्रक्ष्यामि रावणम् ॥ ७९ ॥
मूलम्
सर्वमद्यैव यूपाक्ष हरिसैन्यं सलक्ष्मणम् ।
राघवं च रणे जित्वा ततो द्रक्ष्यामि रावणम् ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यूपाक्ष! मैं अभी सारी वानरसेनाको तथा लक्ष्मणसहित रामको भी रणभूमिमें परास्त करके रावणका दर्शन करूँगा ॥ ७९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसांस्तर्पयिष्यामि हरीणां मांसशोणितैः ।
रामलक्ष्मणयोश्चापि स्वयं पास्यामि शोणितम् ॥ ८० ॥
मूलम्
राक्षसांस्तर्पयिष्यामि हरीणां मांसशोणितैः ।
रामलक्ष्मणयोश्चापि स्वयं पास्यामि शोणितम् ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज वानरोंके मांस और रक्तसे राक्षसोंको तृप्त करूँगा और स्वयं भी राम और लक्ष्मणके खून पीऊँगा’ ॥ ८० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य
सगर्वितं रोषविवृद्धदोषम् ।
महोदरो नैर्ऋतयोधमुख्यः
कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं बभाषे ॥ ८१ ॥
मूलम्
तत् तस्य वाक्यं ब्रुवतो निशम्य
सगर्वितं रोषविवृद्धदोषम् ।
महोदरो नैर्ऋतयोधमुख्यः
कृताञ्जलिर्वाक्यमिदं बभाषे ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुम्भकर्णके बढ़े हुए रोष-दोषसे युक्त अहङ्कारपूर्ण वचन सुनकर राक्षस-योद्धाओंमें प्रधान महोदरने हाथ जोड़कर यह बात कही— ॥ ८१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्य वचः श्रुत्वा गुणदोषौ विमृश्य च ।
पश्चादपि महाबाहो शत्रून् युधि विजेष्यसि ॥ ८२ ॥
मूलम्
रावणस्य वचः श्रुत्वा गुणदोषौ विमृश्य च ।
पश्चादपि महाबाहो शत्रून् युधि विजेष्यसि ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! पहले चलकर महाराज रावणकी बात सुन लीजिये । फिर गुण-दोषका विचार करनेके पश्चात् युद्धमें शत्रुओंको परास्त कीजियेगा’ ॥ ८२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महोदरवचः श्रुत्वा राक्षसैः परिवारितः ।
कुम्भकर्णो महातेजाः सम्प्रतस्थे महाबलः ॥ ८३ ॥
मूलम्
महोदरवचः श्रुत्वा राक्षसैः परिवारितः ।
कुम्भकर्णो महातेजाः सम्प्रतस्थे महाबलः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महोदरकी यह बात सुनकर राक्षसोंसे घिरा हुआ महातेजस्वी महाबली कुम्भकर्ण वहाँसे चलनेकी तैयारी करने लगा ॥ ८३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुप्तमुत्थाप्य भीमाक्षं भीमरूपपराक्रमम् ।
राक्षसास्त्वरिता जग्मुर्दशग्रीवनिवेशनम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
सुप्तमुत्थाप्य भीमाक्षं भीमरूपपराक्रमम् ।
राक्षसास्त्वरिता जग्मुर्दशग्रीवनिवेशनम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस तरह सोये हुए भयानक नेत्र, रूप और पराक्रमवाले कुम्भकर्णको उठाकर वे राक्षस शीघ्र ही दशमुख रावणके महलमें गये ॥ ८४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽभिगम्य दशग्रीवमासीनं परमासने ।
ऊचुर्बद्धाञ्जलिपुटाः सर्व एव निशाचराः ॥ ८५ ॥
मूलम्
तेऽभिगम्य दशग्रीवमासीनं परमासने ।
ऊचुर्बद्धाञ्जलिपुटाः सर्व एव निशाचराः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशग्रीव उत्तम सिंहासनपर बैठा हुआ था, उसके पास जा सभी निशाचर हाथ जोड़कर बोले— ॥ ८५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽसौ भ्राता ते राक्षसेश्वर ।
कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम् ॥ ८६ ॥
मूलम्
कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽसौ भ्राता ते राक्षसेश्वर ।
कथं तत्रैव निर्यातु द्रक्ष्यसे तमिहागतम् ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसेश्वर! आपके भाई कुम्भकर्ण जाग उठे हैं । कहिये, वे क्या करें? सीधे युद्धस्थलमें ही पधारें या आप उन्हें यहाँ उपस्थित देखना चाहते हैं? ॥ ८६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो राक्षसांस्तानुपस्थितान् ।
द्रष्टुमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूज्यताम् ॥ ८७ ॥
मूलम्
रावणस्त्वब्रवीद्धृष्टो राक्षसांस्तानुपस्थितान् ।
द्रष्टुमेनमिहेच्छामि यथान्यायं च पूज्यताम् ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणने बड़े हर्षके साथ उन उपस्थित हुए राक्षसोंसे कहा—‘मैं कुम्भकर्णको यहाँ देखना चाहता हूँ, उनका यथोचित सत्कार किया जाय’ ॥ ८७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः ।
कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः ॥ ८८ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा तु ते सर्वे पुनरागम्य राक्षसाः ।
कुम्भकर्णमिदं वाक्यमूचू रावणचोदिताः ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ‘जो आज्ञा’ कहकर रावणके भेजे हुए वे सब राक्षस पुनः कुम्भकर्णके पास आ इस प्रकार बोले—
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुङ्गवः ।
गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं सम्प्रहर्षय ॥ ८९ ॥
मूलम्
द्रष्टुं त्वां काङ्क्षते राजा सर्वराक्षसपुङ्गवः ।
गमने क्रियतां बुद्धिर्भ्रातरं सम्प्रहर्षय ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रभो! सर्वराक्षसशिरोमणि महाराज रावण आपको देखना चाहते हैं । अतः आप वहाँ चलनेका विचार करें और पधारकर अपने भाईका हर्ष बढ़ावें’ ॥ ८९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम् ।
तथेत्युक्त्वा महावीर्यः शयनादुत्पपात ह ॥ ९० ॥
मूलम्
कुम्भकर्णस्तु दुर्धर्षो भ्रातुराज्ञाय शासनम् ।
तथेत्युक्त्वा महावीर्यः शयनादुत्पपात ह ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाईका यह आदेश पाकर महापराक्रमी दुर्जय वीर कुम्भकर्ण ‘बहुत अच्छा’ कहकर शय्यासे उठकर खड़ा हो गया ॥ ९० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रक्षाल्य वदनं हृष्टः स्नातः परमहर्षितः ।
पिपासुस्त्वरयामास पानं बलसमीरणम् ॥ ९१ ॥
मूलम्
प्रक्षाल्य वदनं हृष्टः स्नातः परमहर्षितः ।
पिपासुस्त्वरयामास पानं बलसमीरणम् ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने बड़े हर्ष और प्रसन्नताके साथ मुँह धोकर स्नान किया और पीनेकी इच्छासे तुरंत बलवर्धक पेय ले आनेकी आज्ञा दी ॥ ९१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते त्वरितास्तत्र राक्षसा रावणाज्ञया ।
मद्यं भक्ष्यांश्च विविधान् क्षिप्रमेवोपहारयन् ॥ ९२ ॥
मूलम्
ततस्ते त्वरितास्तत्र राक्षसा रावणाज्ञया ।
मद्यं भक्ष्यांश्च विविधान् क्षिप्रमेवोपहारयन् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब रावणके आदेशसे वे सब राक्षस तुरंत मद्य तथा नाना प्रकारके भक्ष्य पदार्थ ले आये ॥ ९२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीत्वा घटसहस्रे द्वे गमनायोपचक्रमे ।
ईषत्समुत्कटो मत्तस्तेजोबलसमन्वितः ॥ ९३ ॥
मूलम्
पीत्वा घटसहस्रे द्वे गमनायोपचक्रमे ।
ईषत्समुत्कटो मत्तस्तेजोबलसमन्वितः ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुम्भकर्ण दो हजार घड़े मद्य गटककर चलनेको उद्यत हुआ । इससे उसमें कुछ ताजगी आ गयी तथा वह मतवाला, तेजस्वी और शक्तिसम्पन्न हो गया ॥ ९३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुम्भकर्णो बभौ रुष्टः कालान्तकयमोपमः ।
भ्रातुः स भवनं गच्छन् रक्षोबलसमन्वितः ।
कुम्भकर्णः पदन्यासैरकम्पयत मेदिनीम् ॥ ९४ ॥
मूलम्
कुम्भकर्णो बभौ रुष्टः कालान्तकयमोपमः ।
भ्रातुः स भवनं गच्छन् रक्षोबलसमन्वितः ।
कुम्भकर्णः पदन्यासैरकम्पयत मेदिनीम् ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर जब राक्षसोंकी सेनाके साथ कुम्भकर्ण भाईके महलकी ओर चला, उस समय वह रोषसे भरे हुए प्रलयकालके विनाशकारी यमराजके समान जान पड़ता था । कुम्भकर्ण अपने पैरोंकी धमकसे सारी पृथ्वीको कम्पित कर रहा था ॥ ९४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स राजमार्गं वपुषा प्रकाशयन्
सहस्ररश्मिर्धरणीमिवांशुभिः ।
जगाम तत्राञ्जलिमालया वृतः
शतक्रतुर्गेहमिव स्वयम्भुवः ॥ ९५ ॥
मूलम्
स राजमार्गं वपुषा प्रकाशयन्
सहस्ररश्मिर्धरणीमिवांशुभिः ।
जगाम तत्राञ्जलिमालया वृतः
शतक्रतुर्गेहमिव स्वयम्भुवः ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्यदेव अपनी किरणोंसे भूतलको प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार वह अपने तेजस्वी शरीरसे राजमार्गको उद्भासित करता हुआ हाथ जोड़े अपने भाईके महलमें गया । ठीक उसी तरह, जैसे देवराज इन्द्र ब्रह्माजीके धाममें जाते हैं ॥ ९५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं राजमार्गस्थममित्रघातिनं
वनौकसस्ते सहसा बहिःस्थिताः ।
दृष्ट्वाप्रमेयं गिरिशृङ्गकल्पं
वितत्रसुस्ते सह यूथपालैः ॥ ९६ ॥
मूलम्
तं राजमार्गस्थममित्रघातिनं
वनौकसस्ते सहसा बहिःस्थिताः ।
दृष्ट्वाप्रमेयं गिरिशृङ्गकल्पं
वितत्रसुस्ते सह यूथपालैः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजमार्गपर चलते समय शत्रुघाती कुम्भकर्ण पर्वतशिखरके समान जान पड़ता था । नगरके बाहर खड़े हुए वानर सहसा उस विशालकाय राक्षसको देखकर सेनापतियोंसहित सहम गये ॥ ९६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिच्छरण्यं शरणं स्म रामं
व्रजन्ति केचिद् व्यथिताः पतन्ति ।
केचिद् दशश्च व्यथिताः पतन्ति
केचिद् भयार्ता भुवि शेरते स्म ॥ ९७ ॥
मूलम्
केचिच्छरण्यं शरणं स्म रामं
व्रजन्ति केचिद् व्यथिताः पतन्ति ।
केचिद् दशश्च व्यथिताः पतन्ति
केचिद् भयार्ता भुवि शेरते स्म ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे कुछ वानरोंने शरणागतवत्सल भगवान् श्रीरामकी शरण ली । कुछ व्यथित होकर गिर पड़े । कोई पीड़ित हो सम्पूर्ण दिशाओंमें भाग गये और जहाँ-तहाँ धराशायी हो गये और कितने ही वानर भयसे पीड़ित हो धरतीपर लेट गये ॥ ९७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमद्रिशृङ्गप्रतिमं किरीटिनं
स्पृशन्तमादित्यमिवात्मतेजसा ।
वनौकसः प्रेक्ष्य विवृद्धमद्भुतं
भयार्दिता दुद्रुविरे यतस्ततः ॥ ९८ ॥
मूलम्
तमद्रिशृङ्गप्रतिमं किरीटिनं
स्पृशन्तमादित्यमिवात्मतेजसा ।
वनौकसः प्रेक्ष्य विवृद्धमद्भुतं
भयार्दिता दुद्रुविरे यतस्ततः ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह पर्वतशिखरके समान ऊँचा था । उसके मस्तकपर मुकुट शोभा देता था । वह अपने तेजसे सूर्यका स्पर्श करता-सा जान पड़ता था । उस बढ़े हुए विशालकाय एवं अद्भुत राक्षसको देखकर सभी वनवासी वानर भयसे पीड़ित हो इधर-उधर भागने लगे ॥ ९८ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे षष्टितमः सर्गः ॥ ६० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें साठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ६० ॥