वाचनम्
भागसूचना
- प्रहस्तके मारे जानेसे दुःखी हुए रावणका स्वयं ही युद्धके लिये पधारना, उसके साथ आये हुए मुख्य वीरोंका परिचय, रावणकी मारसे सुग्रीवका अचेत होना, लक्ष्मणका युद्धमें आना, हनुमान् और रावणमें थप्पड़ोंकी मार, रावणद्वारा नीलका मूर्च्छित होना, लक्ष्मणका शक्तिके आघातसे मूर्च्छित एवं सचेत होना तथा श्रीरामसे परास्त होकर रावणका लङ्कामें घुस जाना
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् हते राक्षससैन्यपाले
प्लवङ्गमानामृषभेण युद्धे ।
भीमायुधं सागरवेगतुल्यं
विदुद्रुवे राक्षसराजसैन्यम् ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मिन् हते राक्षससैन्यपाले
प्लवङ्गमानामृषभेण युद्धे ।
भीमायुधं सागरवेगतुल्यं
विदुद्रुवे राक्षसराजसैन्यम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरश्रेष्ठ नीलके द्वारा युद्धस्थलमें उस राक्षस-सेनापति प्रहस्तके मारे जानेपर समुद्रके समान वेगशालिनी और भयानक आयुधोंसे युक्त वह राक्षसराजकी सेना भाग चली ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गत्वा तु रक्षोधिपतेः शशंसुः
सेनापतिं पावकसूनुशस्तम् ।
तच्चापि तेषां वचनं निशम्य
रक्षोधिपः क्रोधवशं जगाम ॥ २ ॥
मूलम्
गत्वा तु रक्षोधिपतेः शशंसुः
सेनापतिं पावकसूनुशस्तम् ।
तच्चापि तेषां वचनं निशम्य
रक्षोधिपः क्रोधवशं जगाम ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंने निशाचरराज रावणके पास जाकर अग्निपुत्र नीलके हाथसे प्रहस्तके मारे जानेका समाचार सुनाया । उनकी वह बात सुनकर राक्षसराज रावणको बड़ा क्रोध हुआ ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्ख्ये प्रहस्तं निहतं निशम्य
क्रोधार्दितः शोकपरीतचेताः ।
उवाच तान् राक्षसयूथमुख्या-
निन्द्रो यथा निर्जरयूथमुख्यान् ॥ ३ ॥
मूलम्
सङ्ख्ये प्रहस्तं निहतं निशम्य
क्रोधार्दितः शोकपरीतचेताः ।
उवाच तान् राक्षसयूथमुख्या-
निन्द्रो यथा निर्जरयूथमुख्यान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धस्थलमें प्रहस्त मारा गया’ यह सुनते ही वह क्रोधसे तमतमा उठा; किंतु थोड़ी ही देरमें उसका चित्त उसके लिये शोकसे व्याकुल हो गया । अतः वह मुख्य-मुख्य देवताओंसे बातचीत करनेवाले इन्द्रकी भाँति राक्षससेनाके मुख्य अधिकारियोंसे बोला— ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावज्ञा रिपवे कार्या यैरिन्द्रबलसादनः ।
सूदितः सैन्यपालो मे सानुयात्रः सकुञ्जरः ॥ ४ ॥
मूलम्
नावज्ञा रिपवे कार्या यैरिन्द्रबलसादनः ।
सूदितः सैन्यपालो मे सानुयात्रः सकुञ्जरः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंको नगण्य समझकर उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये । मैं जिन्हें बहुत छोटा समझता था, उन्हीं शत्रुओंने मेरे उस सेनापतिको सेवकों और हाथियोंसहित मार गिराया, जो इन्द्रकी सेनाका भी संहार करनेमें समर्थ था ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं रिपुविनाशाय विजयायाविचारयन् ।
स्वयमेव गमिष्यामि रणशीर्षं तदद्भुतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सोऽहं रिपुविनाशाय विजयायाविचारयन् ।
स्वयमेव गमिष्यामि रणशीर्षं तदद्भुतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब मैं शत्रुओंके संहार और अपनी विजयके लिये बिना कोई विचार किये स्वयं ही उस अद्भुत युद्धके मुहानेपर जाऊँगा ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य तद् वानरानीकं रामं च सहलक्ष्मणम् ।
निर्दहिष्यामि बाणौघैर्वनं दीप्तैरिवाग्निभिः ।
अद्य सन्तर्पयिष्यामि पृथिवीं कपिशोणितैः ॥ ६ ॥
मूलम्
अद्य तद् वानरानीकं रामं च सहलक्ष्मणम् ।
निर्दहिष्यामि बाणौघैर्वनं दीप्तैरिवाग्निभिः ।
अद्य सन्तर्पयिष्यामि पृथिवीं कपिशोणितैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे प्रज्वलित आग वनको जला देती है, उसी तरह आज अपने बाणसमूहोंसे वानरोंकी सेना तथा लक्ष्मणसहित श्रीरामको मैं भस्म कर डालूँगा? आज वानरोंके रक्तसे मैं इस पृथ्वीको तृप्त करूँगा’ ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्त्वा ज्वलनप्रकाशं
रथं तुरङ्गोत्तमराजियुक्तम् ।
प्रकाशमानं वपुषा ज्वलन्तं
समारुरोहामरराजशत्रुः ॥ ७ ॥
मूलम्
स एवमुक्त्वा ज्वलनप्रकाशं
रथं तुरङ्गोत्तमराजियुक्तम् ।
प्रकाशमानं वपुषा ज्वलन्तं
समारुरोहामरराजशत्रुः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वह देवराजका शत्रु रावण अग्निके समान प्रकाशमान रथपर सवार हुआ । उसके रथमें उत्तम घोड़ोंके समूह जुते हुए थे । वह अपने शरीरसे भी प्रज्वलित अग्निके समान उद्भासित हो रहा था ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शङ्खभेरीपणवप्रणादै-
रास्फोटितक्ष्वेडितसिंहनादैः ।
पुण्यैः स्तवैश्चापि सुपूज्यमान-
स्तदा ययौ राक्षसराजमुख्यः ॥ ८ ॥
मूलम्
स शङ्खभेरीपणवप्रणादै-
रास्फोटितक्ष्वेडितसिंहनादैः ।
पुण्यैः स्तवैश्चापि सुपूज्यमान-
स्तदा ययौ राक्षसराजमुख्यः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके प्रस्थान करते समय शङ्ख, भेरी और पणव आदि बाजे बजने लगे । योद्धालोग ताल ठोकने, गर्जने और सिंहनाद करने लगे । वन्दीजन पवित्र स्तुतियोंद्वारा राक्षसराज शिरोमणि रावणकी भलीभाँति समाराधना करने लगे । इस प्रकार उसने यात्रा की ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शैलजीमूतनिकाशरूपै-
र्मांसाशनैः पावकदीप्तनेत्रैः ।
बभौ वृतो राक्षसराजमुख्यो
भूतैर्वृतो रुद्र इवामरेशः ॥ ९ ॥
मूलम्
स शैलजीमूतनिकाशरूपै-
र्मांसाशनैः पावकदीप्तनेत्रैः ।
बभौ वृतो राक्षसराजमुख्यो
भूतैर्वृतो रुद्र इवामरेशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वत और मेघोंके समान काले एवं विशालरूपवाले मांसाहारी राक्षसोंसे, जिनके नेत्र प्रज्वलित अग्निके समान उद्दीप्त हो रहे थे, घिरा हुआ राक्षस-राजाधिराज रावण भूतगणोंसे घिरे हुए देवेश्वर रुद्रके समान शोभा पाता था ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नगर्याः सहसा महौजा
निष्क्रम्य तद् वानरसैन्यमुग्रम् ।
महार्णवाभ्रस्तनितं ददर्श
समुद्यतं पादपशैलहस्तम् ॥ १० ॥
मूलम्
ततो नगर्याः सहसा महौजा
निष्क्रम्य तद् वानरसैन्यमुग्रम् ।
महार्णवाभ्रस्तनितं ददर्श
समुद्यतं पादपशैलहस्तम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी रावणने लङ्कापुरीसे सहसा निकलकर महासागर और मेघोंके समान गर्जना करनेवाली उस भयंकर वानर-सेनाको देखा, जो हाथोंमें पर्वत-शिखर एवं वृक्ष लिये युद्धके लिये तैयार थी ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् राक्षसानीकमतिप्रचण्ड-
मालोक्य रामो भुजगेन्द्रबाहुः ।
विभीषणं शस्त्रभृतां वरिष्ठ-
मुवाच सेनानुगतः पृथुश्रीः ॥ ११ ॥
मूलम्
तद् राक्षसानीकमतिप्रचण्ड-
मालोक्य रामो भुजगेन्द्रबाहुः ।
विभीषणं शस्त्रभृतां वरिष्ठ-
मुवाच सेनानुगतः पृथुश्रीः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अत्यन्त प्रचण्ड राक्षससेनाको देखकर नागराज शेषके समान भुजावाले, वानर-सेनासे घिरे हुए तथा पुष्ट शोभा-सम्पत्तिसे युक्त श्रीरामचन्द्रजीने शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ विभीषणसे पूछा— ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानापताकाध्वजछत्रजुष्टं
प्रासासिशूलायुधशस्त्रजुष्टम् ।
कस्येदमक्षोभ्यमभीरुजुष्टं
सैन्यं महेन्द्रोपमनागजुष्टम् ॥ १२ ॥
मूलम्
नानापताकाध्वजछत्रजुष्टं
प्रासासिशूलायुधशस्त्रजुष्टम् ।
कस्येदमक्षोभ्यमभीरुजुष्टं
सैन्यं महेन्द्रोपमनागजुष्टम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो नाना प्रकारकी ध्वजा-पताकाओं और छत्रोंसे सुशोभित, प्रास, खड्ग और शूल आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न, अजेय, निडर योद्धाओंसे सेवित और महेन्द्रपर्वत-जैसे विशालकाय हाथियोंसे भरी हुई है, ऐसी यह सेना किसकी है?’ ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु रामस्य निशम्य वाक्यं
विभीषणः शक्रसमानवीर्यः ।
शशंस रामस्य बलप्रवेकं
महात्मनां राक्षसपुङ्गवानाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततस्तु रामस्य निशम्य वाक्यं
विभीषणः शक्रसमानवीर्यः ।
शशंस रामस्य बलप्रवेकं
महात्मनां राक्षसपुङ्गवानाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके समान बलशाली विभीषण श्रीरामकी उपर्युक्त बात सुनकर महामना राक्षसशिरोमणियोंके बल एवं सैनिकशक्तिका परिचय देते हुए उनसे बोले— ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ गजस्कन्धगतो महात्मा
नवोदितार्कोपमताम्रवक्त्रः ।
सङ्कम्पयन्नागशिरोऽभ्युपैति
ह्यकम्पनं त्वेनमवेहि राजन् ॥ १४ ॥
मूलम्
योऽसौ गजस्कन्धगतो महात्मा
नवोदितार्कोपमताम्रवक्त्रः ।
सङ्कम्पयन्नागशिरोऽभ्युपैति
ह्यकम्पनं त्वेनमवेहि राजन् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यह जो महामनस्वी वीर हाथीकी पीठपर बैठा है, जिसका मुख नवोदित सूर्यके समान लाल रंगका है तथा जो अपने भारसे हाथीके मस्तकमें कम्पन उत्पन्न करता हुआ इधर आ रहा है, इसे आप अकम्पन* समझें ॥ १४ ॥
पादटिप्पनी
- यह अकम्पन हनुमान् जी के द्वारा मारे गये अकम्पनसे भिन्न है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ रथस्थो मृगराजकेतु-
र्धुन्वन् धनुः शक्रधनुःप्रकाशम् ।
करीव भात्युग्रविवृत्तदंष्ट्रः
स इन्द्रजिन्नाम वरप्रधानः ॥ १५ ॥
मूलम्
योऽसौ रथस्थो मृगराजकेतु-
र्धुन्वन् धनुः शक्रधनुःप्रकाशम् ।
करीव भात्युग्रविवृत्तदंष्ट्रः
स इन्द्रजिन्नाम वरप्रधानः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह जो रथपर चढ़ा हुआ है, जिसकी ध्वजापर सिंहका चिह्न है, जिसके दाँत हाथीके समान उग्र और बाहर निकले हुए हैं तथा जो इन्द्रधनुषके समान कान्तिमान् धनुष हिलाता हुआ आ रहा है, उसका नाम इन्द्रजित् है । वह वरदानके प्रभावसे बड़ा प्रबल हो गया है ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष विन्ध्यास्तमहेन्द्रकल्पो
धन्वी रथस्थोऽतिरथोऽतिवीरः ।
विस्फारयंश्चापमतुल्यमानं
नाम्नातिकायोऽतिविवृद्धकायः ॥ १६ ॥
मूलम्
यश्चैष विन्ध्यास्तमहेन्द्रकल्पो
धन्वी रथस्थोऽतिरथोऽतिवीरः ।
विस्फारयंश्चापमतुल्यमानं
नाम्नातिकायोऽतिविवृद्धकायः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जो विन्ध्याचल, अस्ताचल और महेन्द्रगिरिके समान विशालकाय, अतिरथी एवं अतिशय वीर धनुष लिये रथपर बैठा है तथा अपने अनुपम धनुषको बारंबार खींच रहा है, इसका नाम अतिकाय है । इसकी काया बहुत बड़ी है ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ नवार्कोदितताम्रचक्षु-
रारुह्य घण्टानिनदप्रणादम् ।
गजं खरं गर्जति वै महात्मा
महोदरो नाम स एष वीरः ॥ १७ ॥
मूलम्
योऽसौ नवार्कोदितताम्रचक्षु-
रारुह्य घण्टानिनदप्रणादम् ।
गजं खरं गर्जति वै महात्मा
महोदरो नाम स एष वीरः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसके नेत्र प्रातःकाल उदित हुए सूर्यके समान लाल हैं तथा जिसकी आवाज घण्टाकी ध्वनिसे भी उत्कृष्ट है, ऐसे क्रूर स्वभाववाले गजराजपर आरूढ़ होकर जो जोर-जोरसे गर्जना कर रहा है, वह महामनस्वी वीर महोदर नामसे प्रसिद्ध है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽसौ हयं काञ्चनचित्रभाण्ड-
मारुह्य सन्ध्याभ्रगिरिप्रकाशम् ।
प्रासं समुद्यम्य मरीचिनद्धं
पिशाच एषोऽशनितुल्यवेगः ॥ १८ ॥
मूलम्
योऽसौ हयं काञ्चनचित्रभाण्ड-
मारुह्य सन्ध्याभ्रगिरिप्रकाशम् ।
प्रासं समुद्यम्य मरीचिनद्धं
पिशाच एषोऽशनितुल्यवेगः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सायंकालीन मेघसे युक्त पर्वतकी-सी आभावाले और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित घोड़ेपर चढ़कर चमकीले प्रास (भाले)-को हाथमें लिये इधर आ रहा है, इसका नाम पिशाच है । यह वज्रके समान वेगशाली योद्धा है ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष शूलं निशितं प्रगृह्य
विद्युत्प्रभं किङ्करवज्रवेगम् ।
वृषेन्द्रमास्थाय शशिप्रकाश-
मायाति योऽसौ त्रिशिरा यशस्वी ॥ १९ ॥
मूलम्
यश्चैष शूलं निशितं प्रगृह्य
विद्युत्प्रभं किङ्करवज्रवेगम् ।
वृषेन्द्रमास्थाय शशिप्रकाश-
मायाति योऽसौ त्रिशिरा यशस्वी ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसने वज्रके वेगको भी अपना दास बना लिया है और जिससे बिजलीकी-सी प्रभा छिटकती रहती है, ऐसे तीखे त्रिशूलको हाथमें लिये जो यह चन्द्रमाके समान श्वेत कान्तिवाले साँड़पर चढ़कर युद्धभूमिमें आ रहा है, यह यशस्वी वीर त्रिशिरा* है ॥ १९ ॥
पादटिप्पनी
- यह त्रिशिरा जनस्थानमें मारे गये त्रिशिरासे भिन्न है । यह रावणका पुत्र है और वह भाई था ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ च जीमूतनिकाशरूपः
कुम्भः पृथुव्यूढसुजातवक्षाः ।
समाहितः पन्नगराजकेतु-
र्विस्फारयन् याति धनुर्विधुन्वन् ॥ २० ॥
मूलम्
असौ च जीमूतनिकाशरूपः
कुम्भः पृथुव्यूढसुजातवक्षाः ।
समाहितः पन्नगराजकेतु-
र्विस्फारयन् याति धनुर्विधुन्वन् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसका रूप मेघके समान काला है, जिसकी छाती उभरी हुई, चौड़ी और सुन्दर है, जिसकी ध्वजापर नागराज वासुकिका चिह्न बना हुआ है तथा जो एकाग्रचित्त हो अपने धनुषको हिलाता और खींचता आ रहा है, वह कुम्भ नामक योद्धा है ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष जाम्बूनदवज्रजुष्टं
दीप्तं सधूमं परिघं प्रगृह्य ।
आयाति रक्षोबलकेतुभूतो
योऽसौ निकुम्भोऽद्भुतघोरकर्मा ॥ २१ ॥
मूलम्
यश्चैष जाम्बूनदवज्रजुष्टं
दीप्तं सधूमं परिघं प्रगृह्य ।
आयाति रक्षोबलकेतुभूतो
योऽसौ निकुम्भोऽद्भुतघोरकर्मा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो सुवर्ण और वज्रसे जटित होनेके कारण दीप्तिमान् तथा इन्द्रनीलमणिसे मण्डित होनेके कारण धूमयुक्त अग्नि-सा प्रकाशित होता है, ऐसे परिघको हाथमें लेकर जो राक्षससेनाकी ध्वजाके समान आ रहा है, उसका नाम निकुम्भ है । उसका पराक्रम घोर एवं अद्भुत है ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष चापासिशरौघजुष्टं
पताकिनं पावकदीप्तरूपम् ।
रथं समास्थाय विभात्युदग्रो
नरान्तकोऽसौ नगशृङ्गयोधी ॥ २२ ॥
मूलम्
यश्चैष चापासिशरौघजुष्टं
पताकिनं पावकदीप्तरूपम् ।
रथं समास्थाय विभात्युदग्रो
नरान्तकोऽसौ नगशृङ्गयोधी ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जो धनुष, खड्ग और बाणसमूहसे भरे हुए, ध्वजा-पताकासे अलंकृत तथा प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान रथपर आरूढ़ हो अतिशय शोभा पा रहा है, वह ऊँचे कदका योद्धा नरान्तक* है । वह पहाड़ोंकी चोटियोंसे युद्ध करता है ॥ २२ ॥
पादटिप्पनी
- यह नरान्तक रावणका पुत्र है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष नानाविधघोररूपै-
र्व्याघ्रोष्ट्रनागेन्द्रमृगाश्ववक्त्रैः ।
भूतैर्वृतो भाति विवृत्तनेत्रै-
र्योऽसौ सुराणामपि दर्पहन्ता ॥ २३ ॥
यत्रैतदिन्दुप्रतिमं विभाति
छत्रं सितं सूक्ष्मशलाकमग्र्यम् ।
अत्रैष रक्षोधिपतिर्महात्मा
भूतैर्वृतो रुद्र इवावभाति ॥ २४ ॥
मूलम्
यश्चैष नानाविधघोररूपै-
र्व्याघ्रोष्ट्रनागेन्द्रमृगाश्ववक्त्रैः ।
भूतैर्वृतो भाति विवृत्तनेत्रै-
र्योऽसौ सुराणामपि दर्पहन्ता ॥ २३ ॥
यत्रैतदिन्दुप्रतिमं विभाति
छत्रं सितं सूक्ष्मशलाकमग्र्यम् ।
अत्रैष रक्षोधिपतिर्महात्मा
भूतैर्वृतो रुद्र इवावभाति ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह जो व्याघ्र, ऊँट, हाथी, हिरन और घोड़ेके-से मुँहवाले, चढ़ी हुई आँखवाले तथा अनेक प्रकारके भयंकर रूपवाले भूतोंसे घिरा हुआ है, जो देवताओंका भी दर्प दलन करनेवाला है तथा जिसके ऊपर पूर्ण चन्द्रमाके समान श्वेत एवं पतली कमानीवाला सुन्दर छत्र शोभा पाता है, वही यह राक्षसराज महामना रावण है, जो भूतोंसे घिरे हुए रुद्रदेवके समान सुशोभित होता है ॥ २३-२४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असौ किरीटी चलकुण्डलास्यो
नगेन्द्रविन्ध्योपमभीमकायः ।
महेन्द्रवैवस्वतदर्पहन्ता
रक्षोधिपः सूर्य इवावभाति ॥ २५ ॥
मूलम्
असौ किरीटी चलकुण्डलास्यो
नगेन्द्रविन्ध्योपमभीमकायः ।
महेन्द्रवैवस्वतदर्पहन्ता
रक्षोधिपः सूर्य इवावभाति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सिरपर मुकुट धारण किये है । इसका मुख कानोंमें हिलते हुए कुण्डलोंसे अलंकृत है । इसका शरीर गिरिराज हिमालय और विन्ध्याचलके समान विशाल एवं भयंकर है तथा यह इन्द्र और यमराजके भी घमंडको चूर करनेवाला है । देखिये, यह राक्षसराज साक्षात् सूर्यके समान प्रकाशित हो रहा है’ ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्युवाच ततो रामो विभीषणमरिन्दमः ।
अहो दीप्तमहातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ॥ २६ ॥
मूलम्
प्रत्युवाच ततो रामो विभीषणमरिन्दमः ।
अहो दीप्तमहातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शत्रुदमन श्रीरामने विभीषणको इस प्रकार उत्तर दिया—‘अहो! राक्षसराज रावणका तेज तो बहुत ही बढ़ा-चढ़ा और देदीप्यमान है ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यो रश्मिभिर्भाति रावणः ।
न व्यक्तं लक्षये ह्यस्य रूपं तेजःसमावृतम् ॥ २७ ॥
मूलम्
आदित्य इव दुष्प्रेक्ष्यो रश्मिभिर्भाति रावणः ।
न व्यक्तं लक्षये ह्यस्य रूपं तेजःसमावृतम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावण अपनी प्रभासे सूर्यकी ही भाँति ऐसी शोभा पा रहा है कि इसकी ओर देखना कठिन हो रहा है । तेजोमण्डलसे व्याप्त होनेके कारण इसका रूप मुझे स्पष्ट नहीं दिखायी देता ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानववीराणां वपुर्नैवंविधं भवेत् ।
यादृशं राक्षसेन्द्रस्य वपुरेतद् विराजते ॥ २८ ॥
मूलम्
देवदानववीराणां वपुर्नैवंविधं भवेत् ।
यादृशं राक्षसेन्द्रस्य वपुरेतद् विराजते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस राक्षसराजका शरीर जैसा सुशोभित हो रहा है, ऐसा तो देवता और दानव वीरोंका भी नहीं होगा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे पर्वतसङ्काशाः सर्वे पर्वतयोधिनः ।
सर्वे दीप्तायुधधरा योधास्तस्य महात्मनः ॥ २९ ॥
मूलम्
सर्वे पर्वतसङ्काशाः सर्वे पर्वतयोधिनः ।
सर्वे दीप्तायुधधरा योधास्तस्य महात्मनः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस महाकाय राक्षसके सभी योद्धा पर्वतोंके समान विशाल हैं । सभी पर्वतोंसे युद्ध करनेवाले हैं और सब-के-सब चमकीले अस्त्र-शस्त्र लिये हुए हैं ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभाति रक्षोराजोऽसौ प्रदीप्तैर्भीमदर्शनैः ।
भूतैः परिवृतस्तीक्ष्णैर्देहवद्भिरिवान्तकः ॥ ३० ॥
मूलम्
विभाति रक्षोराजोऽसौ प्रदीप्तैर्भीमदर्शनैः ।
भूतैः परिवृतस्तीक्ष्णैर्देहवद्भिरिवान्तकः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो दीप्तिमान्, भयंकर दिखायी देनेवाले और तीखे स्वभाववाले हैं, उन राक्षसोंसे घिरा हुआ यह राक्षसराज रावण देहधारी भूतोंसे घिरे हुए यमराजके समान जान पड़ता है ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्यायमद्य पापात्मा मम दृष्टिपथं गतः ।
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि सीताहरणसम्भवम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
दिष्ट्यायमद्य पापात्मा मम दृष्टिपथं गतः ।
अद्य क्रोधं विमोक्ष्यामि सीताहरणसम्भवम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सौभाग्यकी बात है कि यह पापात्मा मेरी आँखोंके सामने आ गया । सीताहरणके कारण मेरे मनमें जो क्रोध संचित हुआ है, उसे आज इसके ऊपर छोड़ूँगा’ ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततो रामो धनुरादाय वीर्यवान् ।
लक्ष्मणानुचरस्तस्थौ समुद्धृत्य शरोत्तमम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततो रामो धनुरादाय वीर्यवान् ।
लक्ष्मणानुचरस्तस्थौ समुद्धृत्य शरोत्तमम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर बल-विक्रमशाली श्रीराम धनुष लेकर उत्तम बाण निकालकर युद्धके लिये डट गये । इस कार्यमें लक्ष्मणने भी उनका साथ दिया ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स रक्षोधिपतिर्महात्मा
रक्षांसि तान्याह महाबलानि ।
द्वारेषु चर्यागृहगोपुरेषु
सुनिर्वृतास्तिष्ठत निर्विशङ्काः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः स रक्षोधिपतिर्महात्मा
रक्षांसि तान्याह महाबलानि ।
द्वारेषु चर्यागृहगोपुरेषु
सुनिर्वृतास्तिष्ठत निर्विशङ्काः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महामना राक्षसराज रावणने अपने साथ आये हुए उन महाबली राक्षसोंसे कहा—‘तुमलोग निर्भय और सुप्रसन्न होकर नगरके द्वारों तथा राजमार्गके मकानोंकी ड्योढ़ियोंपर खड़े हो जाओ ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहागतं मां सहितं भवद्भि-
र्वनौकसश्छिद्रमिदं विदित्वा ।
शून्यां पुरीं दुष्प्रसहां प्रमथ्य
प्रधर्षयेयुः सहसा समेताः ॥ ३४ ॥
मूलम्
इहागतं मां सहितं भवद्भि-
र्वनौकसश्छिद्रमिदं विदित्वा ।
शून्यां पुरीं दुष्प्रसहां प्रमथ्य
प्रधर्षयेयुः सहसा समेताः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि वानरलोग मेरे साथ तुम सबको यहाँ आया देख इसे अपने लिये अच्छा मौका समझकर सहसा एकत्र हो मेरी सूनी नगरीमें, जिसके भीतर प्रवेश होना दूसरोंके लिये बहुत कठिन है, घुस जायँगे और इसे मथकर चौपट कर डालेंगे’ ॥ ३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसर्जयित्वा सचिवांस्ततस्तान्
गतेषु रक्षःसु यथानियोगम् ।
व्यदारयद् वानरसागरौघं
महाझषः पूर्णमिवार्णवौघम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
विसर्जयित्वा सचिवांस्ततस्तान्
गतेषु रक्षःसु यथानियोगम् ।
व्यदारयद् वानरसागरौघं
महाझषः पूर्णमिवार्णवौघम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जब अपने मन्त्रियोंको विदा कर दिया और वे राक्षस उसकी आज्ञाके अनुसार उन-उन स्थानोंपर चले गये, तब रावण जैसे महामत्स्य (तिमिङ्गिल) पूरे महासागरको विक्षुब्ध कर देता है, उसी प्रकार समुद्र-जैसी वानरसेनाको विदीर्ण करने लगा ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य
दीप्तेषुचापं युधि राक्षसेन्द्रम् ।
महत् समुत्पाट्य महीधराग्रं
दुद्राव रक्षोधिपतिं हरीशः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य
दीप्तेषुचापं युधि राक्षसेन्द्रम् ।
महत् समुत्पाट्य महीधराग्रं
दुद्राव रक्षोधिपतिं हरीशः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चमकीले धनुष-बाण लिये राक्षसराज रावणको युद्धस्थलमें सहसा आया देख वानरराज सुग्रीवने एक बड़ा भारी पर्वत-शिखर उखाड़ लिया और उसे लेकर उस निशाचरराजपर आक्रमण किया ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छैलशृङ्गं बहुवृक्षसानुं
प्रगृह्य चिक्षेप निशाचराय ।
तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य
चिच्छेद बाणैस्तपनीयपुङ्खैः ॥ ३७ ॥
मूलम्
तच्छैलशृङ्गं बहुवृक्षसानुं
प्रगृह्य चिक्षेप निशाचराय ।
तमापतन्तं सहसा समीक्ष्य
चिच्छेद बाणैस्तपनीयपुङ्खैः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनेक वृक्षों और शिखरोंसे युक्त उस महान् शैल-शिखरको सुग्रीवने रावणपर दे मारा । उस शिखरको अपने ऊपर आता देख रावणने सहसा सुवर्णमय पंखवाले बहुत-से बाण मारकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रवृद्धोत्तमसानुवृक्षे
शृङ्गे विदीर्णे पतिते पृथिव्याम् ।
महाहिकल्पं शरमन्तकाभं
समादधे राक्षसलोकनाथः ॥ ३८ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रवृद्धोत्तमसानुवृक्षे
शृङ्गे विदीर्णे पतिते पृथिव्याम् ।
महाहिकल्पं शरमन्तकाभं
समादधे राक्षसलोकनाथः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उत्तम वृक्ष और शिखरवाला वह महान् शैलशृङ्ग जब विदीर्ण होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा, तब राक्षसलोकके स्वामी रावणने महान् सर्प और यमराजके समान एक भयंकर बाणका संधान किया ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तं गृहीत्वानिलतुल्यवेगं
सविस्फुलिङ्गज्वलनप्रकाशम् ।
बाणं महेन्द्राशनितुल्यवेगं
चिक्षेप सुग्रीववधाय रुष्टः ॥ ३९ ॥
मूलम्
स तं गृहीत्वानिलतुल्यवेगं
सविस्फुलिङ्गज्वलनप्रकाशम् ।
बाणं महेन्द्राशनितुल्यवेगं
चिक्षेप सुग्रीववधाय रुष्टः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणका वेग वायुके समान था । उससे चिनगारियाँ छूटती थीं और प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाश फैलता था । इन्द्रके वज्रकी भाँति भयंकर वेगवाले उस बाणको रावणने रुष्ट होकर सुग्रीवके वधके लिये चलाया ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सायको रावणबाहुमुक्तः
शक्राशनिप्रख्यवपुःप्रकाशम् ।
सुग्रीवमासाद्य बिभेद वेगाद्
गुहेरिता क्रौञ्चमिवोग्रशक्तिः ॥ ४० ॥
मूलम्
स सायको रावणबाहुमुक्तः
शक्राशनिप्रख्यवपुःप्रकाशम् ।
सुग्रीवमासाद्य बिभेद वेगाद्
गुहेरिता क्रौञ्चमिवोग्रशक्तिः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके हाथोंसे छूटे हुए उस सायकने इन्द्रके वज्रकी भाँति कान्तिमान् शरीरवाले सुग्रीवके पास पहुँचकर उसी तरह वेगपूर्वक उन्हें घायल कर दिया, जैसे स्वामी कार्तिकेयकी चलायी हुई भयानक शक्तिने क्रौञ्चपर्वतको विदीर्ण कर डाला था ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सायकार्तो विपरीतचेताः
कूजन् पृथिव्यां निपपात वीरः ।
तं वीक्ष्य भूमौ पतितं विसञ्ज्ञं
नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः ॥ ४१ ॥
मूलम्
स सायकार्तो विपरीतचेताः
कूजन् पृथिव्यां निपपात वीरः ।
तं वीक्ष्य भूमौ पतितं विसञ्ज्ञं
नेदुः प्रहृष्टा युधि यातुधानाः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणकी चोटसे वीर सुग्रीव अचेत हो गये और आर्तनाद करते हुए पृथ्वीपर गिर पड़े । सुग्रीवको बेहोश हो घूमकर गिरा देख उस युद्धस्थलमें आये हुए सब राक्षस बड़े हर्षके साथ सिंहनाद करने लगे ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गवाक्षो गवयः सुषेण-
स्त्वथर्षभो ज्योतिमुखो नलश्च ।
शैलान् समुत्पाट्य विवृद्धकायाः
प्रदुद्रुवुस्तं प्रति राक्षसेन्द्रम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो गवाक्षो गवयः सुषेण-
स्त्वथर्षभो ज्योतिमुखो नलश्च ।
शैलान् समुत्पाट्य विवृद्धकायाः
प्रदुद्रुवुस्तं प्रति राक्षसेन्द्रम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गवाक्ष, गवय, सुषेण, ऋषभ, ज्योतिर्मुख और नल—ये विशालकाय वानर पर्वतशिखरोंको उखाड़कर राक्षसराज रावणपर टूट पड़े ॥ ४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां प्रहारान् स चकार मोघान्
रक्षोधिपो बाणशतैः शिताग्रैः ।
तान् वानरेन्द्रानपि बाणजालै-
र्बिभेद जाम्बूनदचित्रपुङ्खैः ॥ ४३ ॥
ते वानरेन्द्रास्त्रिदशारिबाणै-
र्भिन्ना निपेतुर्भुवि भीमकायाः ।
मूलम्
तेषां प्रहारान् स चकार मोघान्
रक्षोधिपो बाणशतैः शिताग्रैः ।
तान् वानरेन्द्रानपि बाणजालै-
र्बिभेद जाम्बूनदचित्रपुङ्खैः ॥ ४३ ॥
ते वानरेन्द्रास्त्रिदशारिबाणै-
र्भिन्ना निपेतुर्भुवि भीमकायाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु निशाचरोंके राजा रावणने सैकड़ों तीखे बाण छोड़कर उन सबके प्रहारोंको व्यर्थ कर दिया और उन वानरेश्वरोंको भी सोनेके विचित्र पंखवाले बाण-समूहोंद्वारा क्षत-विक्षत कर दिया । देवद्रोही रावणके बाणोंसे घायल हो वे भीमकाय वानरेन्द्रगण धरतीपर गिर पड़े ॥ ४३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु तद् वानरसैन्यमुग्रं
प्रच्छादयामास स बाणजालैः ॥ ४४ ॥
ते वध्यमानाः पतिताश्च वीरा
नानद्यमाना भयशल्यविद्धाः ।
मूलम्
ततस्तु तद् वानरसैन्यमुग्रं
प्रच्छादयामास स बाणजालैः ॥ ४४ ॥
ते वध्यमानाः पतिताश्च वीरा
नानद्यमाना भयशल्यविद्धाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो रावणने अपने बाण-समूहोंद्वारा उस भयंकर वानरसेनाको आच्छादित कर दिया । रावणके बाणोंसे पीड़ित और डरे हुए वीर वानर उसकी मार खा-खाकर जोर-जोरसे चीत्कार करते हुए धराशायी होने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाखामृगा रावणसायकार्ता
जग्मुः शरण्यं शरणं स्म रामम् ॥ ४५ ॥
ततो महात्मा स धनुर्धनुष्मा-
नादाय रामः सहसा जगाम ।
तं लक्ष्मणः प्राञ्जलिरभ्युपेत्य
उवाच रामं परमार्थयुक्तम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
शाखामृगा रावणसायकार्ता
जग्मुः शरण्यं शरणं स्म रामम् ॥ ४५ ॥
ततो महात्मा स धनुर्धनुष्मा-
नादाय रामः सहसा जगाम ।
तं लक्ष्मणः प्राञ्जलिरभ्युपेत्य
उवाच रामं परमार्थयुक्तम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके सायकोंसे पीड़ित हो बहुत-से वानर शरणागतवत्सल भगवान् श्रीरामकी शरणमें गये । तब धनुर्धर महात्मा श्रीराम सहसा धनुष लेकर आगे बढ़े । उसी समय लक्ष्मणजीने उनके सामने आकर हाथ जोड़ उनसे ये यथार्थ वचन कहे— ॥ ४५-४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काममार्य सुपर्याप्तो वधायास्य दुरात्मनः ।
विधमिष्याम्यहं चैतमनुजानीहि मां विभो ॥ ४७ ॥
मूलम्
काममार्य सुपर्याप्तो वधायास्य दुरात्मनः ।
विधमिष्याम्यहं चैतमनुजानीहि मां विभो ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्य! इस दुरात्माका वध करनेके लिये तो मैं ही पर्याप्त हूँ । प्रभो! आप मुझे आज्ञा दीजिये । मैं इसका नाश करूँगा’ ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः ।
गच्छ यत्नपरश्चापि भव लक्ष्मण संयुगे ॥ ४८ ॥
मूलम्
तमब्रवीन्महातेजा रामः सत्यपराक्रमः ।
गच्छ यत्नपरश्चापि भव लक्ष्मण संयुगे ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी बात सुनकर महातेजस्वी सत्यपराक्रमी श्रीरामने कहा—‘अच्छा लक्ष्मण! जाओ । किंतु संग्राममें विजय पानेके लिये पूर्ण प्रयत्नशील रहना’ ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणो हि महावीर्यो रणेऽद्भुतपराक्रमः ।
त्रैलोक्येनापि सङ्क्रुद्धो दुष्प्रसह्यो न संशयः ॥ ४९ ॥
मूलम्
रावणो हि महावीर्यो रणेऽद्भुतपराक्रमः ।
त्रैलोक्येनापि सङ्क्रुद्धो दुष्प्रसह्यो न संशयः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि रावण महान् बल-विक्रमसे सम्पन्न है । यह युद्धमें अद्भुत पराक्रम दिखाता है । रावण यदि अधिक कुपित होकर युद्ध करने लगे तो तीनों लोकोंके लिये इसके वेगको सहन करना कठिन हो जायगा ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यच्छिद्राणि मार्गस्व स्वच्छिद्राणि च लक्षय ।
चक्षुषा धनुषाऽऽत्मानं गोपायस्व समाहितः ॥ ५० ॥
मूलम्
तस्यच्छिद्राणि मार्गस्व स्वच्छिद्राणि च लक्षय ।
चक्षुषा धनुषाऽऽत्मानं गोपायस्व समाहितः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम युद्धमें रावणके छिद्र देखना । उसकी कमजोरियोंसे लाभ उठाना और अपने छिद्रोंपर भी दृष्टि रखना (कहीं शत्रु उनसे लाभ न उठाने पाये) । एकाग्रचित्त हो पूरी सावधानीके साथ अपनी दृष्टि और धनुषसे भी आत्मरक्षा करना’ ॥ ५० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवस्य वचः श्रुत्वा सम्परिष्वज्य पूज्य च ।
अभिवाद्य च रामाय ययौ सौमित्रिराहवे ॥ ५१ ॥
मूलम्
राघवस्य वचः श्रुत्वा सम्परिष्वज्य पूज्य च ।
अभिवाद्य च रामाय ययौ सौमित्रिराहवे ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीकी यह बात सुनकर सुमित्राकुमार लक्ष्मण उनके हृदयसे लग गये और श्रीरामका पूजन एवं अभिवादन करके वे युद्धके लिये चल दिये ॥ ५१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स रावणं वारणहस्तबाहुं
ददर्श भीमोद्यतदीप्तचापम् ।
प्रच्छादयन्तं शरवृष्टिजालै-
स्तान् वानरान् भिन्नविकीर्णदेहान् ॥ ५२ ॥
मूलम्
स रावणं वारणहस्तबाहुं
ददर्श भीमोद्यतदीप्तचापम् ।
प्रच्छादयन्तं शरवृष्टिजालै-
स्तान् वानरान् भिन्नविकीर्णदेहान् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने देखा, रावणकी भुजाएँ हाथीके शुण्ड-दण्डके समान हैं । उसने बड़ा भयंकर एवं दीप्तिमान् धनुष उठा रखा है और बाण-समूहोंकी वर्षा करके वानरोंको ढकता तथा उनके शरीरोंको छिन्न-भिन्न किये डालता है ॥ ५२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमालोक्य महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः ।
निवार्य शरजालानि विदुद्राव स रावणम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
तमालोक्य महातेजा हनूमान् मारुतात्मजः ।
निवार्य शरजालानि विदुद्राव स रावणम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणको इस प्रकार पराक्रम करते देख महातेजस्वी पवनपुत्र हनुमान् जी उसके बाण-समूहोंका निवारण करते हुए उसकी ओर दौड़े ॥ ५३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथं तस्य समासाद्य बाहुमुद्यम्य दक्षिणम् ।
त्रासयन् रावणं धीमान् हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
मूलम्
रथं तस्य समासाद्य बाहुमुद्यम्य दक्षिणम् ।
त्रासयन् रावणं धीमान् हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके रथके पास पहुँचकर अपना दायाँ हाथ उठा बुद्धिमान् हनुमान् ने रावणको भयभीत करते हुए कहा— ॥ ५४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवदानवगन्धर्वैर्यक्षैश्च सह राक्षसैः ।
अवध्यत्वं त्वया प्राप्तं वानरेभ्यस्तु ते भयम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
देवदानवगन्धर्वैर्यक्षैश्च सह राक्षसैः ।
अवध्यत्वं त्वया प्राप्तं वानरेभ्यस्तु ते भयम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निशाचर! तुमने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष और राक्षसोंसे न मारे जानेका वर प्राप्त कर लिया है; परंतु वानरोंसे तो तुम्हें भय है ही ॥ ५५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष मे दक्षिणो बाहुः पञ्चशाखः समुद्यतः ।
विधमिष्यति ते देहे भूतात्मानं चिरोषितम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
एष मे दक्षिणो बाहुः पञ्चशाखः समुद्यतः ।
विधमिष्यति ते देहे भूतात्मानं चिरोषितम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, पाँच अँगुलियोंसे युक्त यह मेरा दाहिना हाथ उठा हुआ है । तुम्हारे शरीरमें चिरकालसे जो जीवात्मा निवास करता है, उसे आज यह इस देहसे अलग कर देगा’ ॥ ५६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रावणो भीमविक्रमः ।
संरक्तनयनः क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५७ ॥
मूलम्
श्रुत्वा हनूमतो वाक्यं रावणो भीमविक्रमः ।
संरक्तनयनः क्रोधादिदं वचनमब्रवीत् ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी का यह वचन सुनकर भयानक पराक्रमी रावणके नेत्र क्रोधसे लाल हो उठे और उसने रोषपूर्वक कहा— ॥ ५७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रं प्रहर निःशङ्कं स्थिरां कीर्तिमवाप्नुहि ।
ततस्त्वां ज्ञातविक्रान्तं नाशयिष्यामि वानर ॥ ५८ ॥
मूलम्
क्षिप्रं प्रहर निःशङ्कं स्थिरां कीर्तिमवाप्नुहि ।
ततस्त्वां ज्ञातविक्रान्तं नाशयिष्यामि वानर ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानर! तुम निःशङ्क होकर शीघ्र मेरे ऊपर प्रहार करो और सुस्थिर यश प्राप्त कर लो । तुममें कितना पराक्रम है, यह जान लेनेपर ही मैं तुम्हारा नाश करूँगा’ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणस्य वचः श्रुत्वा वायुसूनुर्वचोऽब्रवीत् ।
प्रहतं हि मया पूर्वमक्षं तव सुतं स्मर ॥ ५९ ॥
मूलम्
रावणस्य वचः श्रुत्वा वायुसूनुर्वचोऽब्रवीत् ।
प्रहतं हि मया पूर्वमक्षं तव सुतं स्मर ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणकी बात सुनकर पवनपुत्र हनुमान् जी बोले—‘मैंने तो पहले ही तुम्हारे पुत्र अक्षको मार डाला है । इस बातको याद तो करो’ ॥ ५९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ।
आजघानानिलसुतं तलेनोरसि वीर्यवान् ॥ ६० ॥
मूलम्
एवमुक्तो महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ।
आजघानानिलसुतं तलेनोरसि वीर्यवान् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके इतना कहते ही बल-विक्रमसम्पन्न महातेजस्वी राक्षसराज रावणने उन पवनकुमारकी छातीमें एक तमाचा जड़ दिया ॥ ६० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तलाभिहतस्तेन चचाल च मुहुर्मुहुः ।
स्थितो मुहूर्तं तेजस्वी स्थैर्यं कृत्वा महामतिः ॥ ६१ ॥
आजघान च सङ्क्रुद्धस्तलेनैवामरद्विषम् ।
मूलम्
स तलाभिहतस्तेन चचाल च मुहुर्मुहुः ।
स्थितो मुहूर्तं तेजस्वी स्थैर्यं कृत्वा महामतिः ॥ ६१ ॥
आजघान च सङ्क्रुद्धस्तलेनैवामरद्विषम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस थप्पड़की चोटसे हनुमान् जी बारंबार इधर-उधर चक्कर काटने लगे; परंतु वे बड़े बुद्धिमान् और तेजस्वी थे, अतः दो ही घड़ीमें अपनेको सुस्थिर करके खड़े हो गये । फिर उन्होंने भी अत्यन्त कुपित होकर उस देवद्रोहीको थप्पड़से ही मारा ॥ ६१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स तेनाभिहतो वानरेण महात्मना ॥ ६२ ॥
दशग्रीवः समाधूतो यथा भूमितलेऽचलः ।
मूलम्
ततः स तेनाभिहतो वानरेण महात्मना ॥ ६२ ॥
दशग्रीवः समाधूतो यथा भूमितलेऽचलः ।
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्मा वानरके थप्पड़की मार खाकर दशमुख रावण उसी तरह काँप उठा, जैसे भूकम्प आनेपर पर्वत हिलने लगता है ॥ ६२ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्ग्रामे तं तथा दृष्ट्वा रावणं तलताडितम् ॥ ६३ ॥
ऋषयो वानराः सिद्धा नेदुर्देवाः सहासुरैः ।
मूलम्
सङ्ग्रामे तं तथा दृष्ट्वा रावणं तलताडितम् ॥ ६३ ॥
ऋषयो वानराः सिद्धा नेदुर्देवाः सहासुरैः ।
अनुवाद (हिन्दी)
संग्रामभूमिमें रावणको थप्पड़ खाते देख ऋषि, वानर, सिद्ध, देवता और असुर सभी हर्षध्वनि करने लगे ॥ ६३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाश्वस्य महातेजा रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६४ ॥
साधु वानर वीर्येण श्लाघनीयोऽसि मे रिपुः ।
मूलम्
अथाश्वस्य महातेजा रावणो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६४ ॥
साधु वानर वीर्येण श्लाघनीयोऽसि मे रिपुः ।
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महातेजस्वी रावणने सँभलकर कहा—‘शाबाश वानर! शाबाश, तुम पराक्रमकी दृष्टिसे मेरे प्रशंसनीय प्रतिद्वन्द्वी हो’ ॥ ६४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणेनैवमुक्तस्तु मारुतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ६५ ॥
धिगस्तु मम वीर्यस्य यत् त्वं जीवसि रावण ।
मूलम्
रावणेनैवमुक्तस्तु मारुतिर्वाक्यमब्रवीत् ॥ ६५ ॥
धिगस्तु मम वीर्यस्य यत् त्वं जीवसि रावण ।
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके ऐसा कहनेपर पवनकुमार हनुमान् ने कहा—‘रावण! तू अब भी जीवित है, इसलिये मेरे पराक्रमको धिक्कार है! ॥ ६५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृत् तु प्रहरेदानीं दुर्बुद्धे किं विकत्थसे ॥ ६६ ॥
ततस्त्वां मामको मुष्टिर्नयिष्यति यमक्षयम् ।
मूलम्
सकृत् तु प्रहरेदानीं दुर्बुद्धे किं विकत्थसे ॥ ६६ ॥
ततस्त्वां मामको मुष्टिर्नयिष्यति यमक्षयम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘दुर्बुद्धे! अब तुम एक बार और मुझपर प्रहार करो । बढ़-बढ़कर बातें क्यों बना रहे हो । तुम्हारे प्रहारके पश्चात् जब मेरा मुक्का पड़ेगा, तब वह तुम्हें तत्काल यमलोक पहुँचा देगा’ ॥ ६६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मारुतिवाक्येन कोपस्तस्य प्रजज्वले ॥ ६७ ॥
संरक्तनयनो यत्नान्मुष्टिमावृत्य दक्षिणम् ।
पातयामास वेगेन वानरोरसि वीर्यवान् ॥ ६८ ॥
मूलम्
ततो मारुतिवाक्येन कोपस्तस्य प्रजज्वले ॥ ६७ ॥
संरक्तनयनो यत्नान्मुष्टिमावृत्य दक्षिणम् ।
पातयामास वेगेन वानरोरसि वीर्यवान् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी की इस बातसे रावणका क्रोध प्रज्वलित हो उठा । उसकी आँखें लाल हो गयीं । उस पराक्रमी राक्षसने बड़े यत्नसे दाहिना मुक्का तानकर हनुमान् जी की छातीमें वेगपूर्वक प्रहार किया ॥ ६७-६८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमान् वक्षसि व्यूढे सञ्चचाल पुनः पुनः ।
विह्वलं तु तदा दृष्ट्वा हनूमन्तं महाबलम् ॥ ६९ ॥
रथेनातिरथः शीघ्रं नीलं प्रति समभ्यगात् ।
मूलम्
हनूमान् वक्षसि व्यूढे सञ्चचाल पुनः पुनः ।
विह्वलं तु तदा दृष्ट्वा हनूमन्तं महाबलम् ॥ ६९ ॥
रथेनातिरथः शीघ्रं नीलं प्रति समभ्यगात् ।
अनुवाद (हिन्दी)
छातीमें चोट लगनेपर हनुमान् जी पुनः विचलित हो उठे । महाबली हनुमान् जी को उस समय विह्वल देख अतिरथी रावण रथके द्वारा शीघ्र ही नीलपर जा चढ़ा ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसानामधिपतिर्दशग्रीवः प्रतापवान् ॥ ७० ॥
पन्नगप्रतिमैर्भीमैः परमर्माभिभेदनैः ।
शरैरादीपयामास नीलं हरिचमूपतिम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
राक्षसानामधिपतिर्दशग्रीवः प्रतापवान् ॥ ७० ॥
पन्नगप्रतिमैर्भीमैः परमर्माभिभेदनैः ।
शरैरादीपयामास नीलं हरिचमूपतिम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसोंके राजा प्रतापी दशग्रीवने शत्रुओंके मर्मको विदीर्ण करनेवाले सर्पतुल्य भयंकर बाणोंद्वारा वानर-सेनापति नीलको संताप देना आरम्भ किया ॥ ७०-७१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शरौघसमायस्तो नीलो हरिचमूपतिः ।
करेणैकेन शैलाग्रं रक्षोधिपतयेऽसृजत् ॥ ७२ ॥
मूलम्
स शरौघसमायस्तो नीलो हरिचमूपतिः ।
करेणैकेन शैलाग्रं रक्षोधिपतयेऽसृजत् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाण-समूहोंसे पीड़ित हुए वानर-सेनापति नीलने उस राक्षसराजपर एक ही हाथसे पर्वतका एक शिखर उठाकर चलाया ॥ ७२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानपि तेजस्वी समाश्वस्तो महामनाः ।
विप्रेक्षमाणो युद्धेप्सुः सरोषमिदमब्रवीत् ॥ ७३ ॥
नीलेन सह संयुक्तं रावणं राक्षसेश्वरम् ।
अन्येन युध्यमानस्य न युक्तमभिधावनम् ॥ ७४ ॥
मूलम्
हनूमानपि तेजस्वी समाश्वस्तो महामनाः ।
विप्रेक्षमाणो युद्धेप्सुः सरोषमिदमब्रवीत् ॥ ७३ ॥
नीलेन सह संयुक्तं रावणं राक्षसेश्वरम् ।
अन्येन युध्यमानस्य न युक्तमभिधावनम् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें तेजस्वी महामना हनुमान् जी भी सँभल गये और पुनः युद्धकी इच्छासे रावणकी ओर देखने लगे । उस समय राक्षसराज रावण नीलके साथ उलझा हुआ था । हनुमान् जी ने उससे रोषपूर्वक कहा—‘ओ निशाचर! इस समय तुम दूसरेके साथ युद्ध कर रहे हो, अतः अब तुमपर धावा करना मेरे लिये उचित न होगा’ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणोऽथ महातेजास्तं शृङ्गं सप्तभिः शरैः ।
आजघान सुतीक्ष्णाग्रैस्तद् विकीर्णं पपात ह ॥ ७५ ॥
मूलम्
रावणोऽथ महातेजास्तं शृङ्गं सप्तभिः शरैः ।
आजघान सुतीक्ष्णाग्रैस्तद् विकीर्णं पपात ह ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर महातेजस्वी रावणने नीलके चलाये हुए पर्वत-शिखरपर तीखे अग्रभागवाले सात बाण मारे, जिससे वह टूट-फूटकर पृथ्वीपर बिखर गया ॥ ७५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् विकीर्णं गिरेः शृङ्गं दृष्ट्वा हरिचमूपतिः ।
कालाग्निरिव जज्वाल कोपेन परवीरहा ॥ ७६ ॥
मूलम्
तद् विकीर्णं गिरेः शृङ्गं दृष्ट्वा हरिचमूपतिः ।
कालाग्निरिव जज्वाल कोपेन परवीरहा ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पर्वतशिखरको बिखरा हुआ देख शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले वानर-सेनापति नील प्रलयकालकी अग्निके समान क्रोधसे प्रज्वलित हो उठे ॥ ७६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽश्वकर्णद्रुमान् शालांश्चूतांश्चापि सुपुष्पितान् ।
अन्यांश्च विविधान् वृक्षान् नीलश्चिक्षेप संयुगे ॥ ७७ ॥
मूलम्
सोऽश्वकर्णद्रुमान् शालांश्चूतांश्चापि सुपुष्पितान् ।
अन्यांश्च विविधान् वृक्षान् नीलश्चिक्षेप संयुगे ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने युद्धस्थलमें अश्वकर्ण, साल, खिले हुए आम्र तथा अन्य नाना प्रकारके वृक्षोंको उखाड़-उखाड़कर रावणपर चलाना आरम्भ किया ॥ ७७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तान् वृक्षान् समासाद्य प्रतिचिच्छेद रावणः ।
अभ्यवर्षच्च घोरेण शरवर्षेण पावकिम् ॥ ७८ ॥
मूलम्
स तान् वृक्षान् समासाद्य प्रतिचिच्छेद रावणः ।
अभ्यवर्षच्च घोरेण शरवर्षेण पावकिम् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने उन सब वृक्षोंको सामने आनेपर काट गिराया और अग्निपुत्र नीलपर बाणोंकी भयानक वर्षाकी ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवृष्टः शरौघेण मेघेनेव महाचलः ।
ह्रस्वं कृत्वा ततो रूपं ध्वजाग्रे निपपात ह ॥ ७९ ॥
मूलम्
अभिवृष्टः शरौघेण मेघेनेव महाचलः ।
ह्रस्वं कृत्वा ततो रूपं ध्वजाग्रे निपपात ह ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मेघ किसी महान् पर्वतपर जलकी वर्षा करता है, उसी तरह रावणने जब नीलपर बाणसमूहोंकी वर्षा की, तब वे छोटा-सा रूप बनाकर रावणकी ध्वजाके शिखरपर चढ़ गये ॥ ७९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पावकात्मजमालोक्य ध्वजाग्रे समवस्थितम् ।
जज्वाल रावणः क्रोधात् ततो नीलो ननाद च ॥ ८० ॥
मूलम्
पावकात्मजमालोक्य ध्वजाग्रे समवस्थितम् ।
जज्वाल रावणः क्रोधात् ततो नीलो ननाद च ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी ध्वजाके ऊपर बैठे हुए अग्निपुत्र नीलको देखकर रावण क्रोधसे जल उठा और उधर नील जोर-जोरसे गर्जना करने लगे ॥ ८० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च तं हरिम् ।
लक्ष्मणोऽथ हनूमांश्च रामश्चापि सुविस्मिताः ॥ ८१ ॥
मूलम्
ध्वजाग्रे धनुषश्चाग्रे किरीटाग्रे च तं हरिम् ।
लक्ष्मणोऽथ हनूमांश्च रामश्चापि सुविस्मिताः ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीलको कभी रावणकी ध्वजापर, कभी धनुषपर और कभी मुकुटपर बैठा देख श्रीराम, लक्ष्मण और हनुमान् जी को भी बड़ा विस्मय हुआ ॥ ८१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणोऽपि महातेजाः कपिलाघवविस्मितः ।
अस्त्रमाहारयामास दीप्तमाग्नेयमद्भुतम् ॥ ८२ ॥
मूलम्
रावणोऽपि महातेजाः कपिलाघवविस्मितः ।
अस्त्रमाहारयामास दीप्तमाग्नेयमद्भुतम् ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानर नीलकी वह फुर्ती देखकर महातेजस्वी रावणको भी बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अद्भुत तेजस्वी आग्नेयास्त्र हाथमें लिया ॥ ८२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते चुक्रुशुर्हृष्टा लब्धलक्षाः प्लवङ्गमाः ।
नीललाघवसम्भ्रान्तं दृष्ट्वा रावणमाहवे ॥ ८३ ॥
मूलम्
ततस्ते चुक्रुशुर्हृष्टा लब्धलक्षाः प्लवङ्गमाः ।
नीललाघवसम्भ्रान्तं दृष्ट्वा रावणमाहवे ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीलकी फुर्तीसे रावणको घबराया हुआ देख हर्षका अवसर पाकर सब वानर बड़ी प्रसन्नताके साथ किलकारियाँ भरने लगे ॥ ८३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वानराणां च नादेन संरब्धो रावणस्तदा ।
सम्भ्रमाविष्टहृदयो न किञ्चित् प्रत्यपद्यत ॥ ८४ ॥
मूलम्
वानराणां च नादेन संरब्धो रावणस्तदा ।
सम्भ्रमाविष्टहृदयो न किञ्चित् प्रत्यपद्यत ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वानरोंके हर्षनादसे रावणको बड़ा क्रोध हुआ । साथ ही हृदयमें घबराहट छा गयी थी, इसलिये वह कर्तव्यका कुछ निश्चय नहीं कर सका ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आग्नेयेनापि संयुक्तं गृहीत्वा रावणः शरम् ।
ध्वजशीर्षस्थितं नीलमुदैक्षत निशाचरः ॥ ८५ ॥
मूलम्
आग्नेयेनापि संयुक्तं गृहीत्वा रावणः शरम् ।
ध्वजशीर्षस्थितं नीलमुदैक्षत निशाचरः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर निशाचर रावणने आग्नेयास्त्रसे अभिमन्त्रित बाण हाथमें लेकर ध्वजके अग्रभागपर बैठे हुए नीलको देखा ॥ ८५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीन्महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ।
कपे लाघवयुक्तोऽसि मायया परया सह ॥ ८६ ॥
मूलम्
ततोऽब्रवीन्महातेजा रावणो राक्षसेश्वरः ।
कपे लाघवयुक्तोऽसि मायया परया सह ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखकर महातेजस्वी राक्षसराज रावणने उनसे कहा—‘वानर! तुम उच्चकोटिकी मायाके साथ ही अपने भीतर बड़ी फुर्ती भी रखते हो ॥ ८६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं खलु रक्षस्व यदि शक्तोऽसि वानर ।
तानि तान्यात्मरूपाणि सृजसि त्वमनेकशः ॥ ८७ ॥
तथापि त्वां मया मुक्तः सायकोऽस्त्रप्रयोजितः ।
जीवितं परिरक्षन्तं जीविताद् भ्रंशयिष्यति ॥ ८८ ॥
मूलम्
जीवितं खलु रक्षस्व यदि शक्तोऽसि वानर ।
तानि तान्यात्मरूपाणि सृजसि त्वमनेकशः ॥ ८७ ॥
तथापि त्वां मया मुक्तः सायकोऽस्त्रप्रयोजितः ।
जीवितं परिरक्षन्तं जीविताद् भ्रंशयिष्यति ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वानर! यदि शक्तिशाली हो तो मेरे बाणसे अपने जीवनकी रक्षा करो । यद्यपि तुम अपने पराक्रमके योग्य ही भिन्न-भिन्न प्रकारके कर्म कर रहे हो तथापि मेरा छोड़ा हुआ दिव्यास्त्र-प्रेरित बाण जीवन-रक्षाकी चेष्टा करनेपर भी तुम्हें प्राणहीन कर देगा’ ॥ ८७-८८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा महाबाहू रावणो राक्षसेश्वरः ।
सन्धाय बाणमस्त्रेण चमूपतिमताडयत् ॥ ८९ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा महाबाहू रावणो राक्षसेश्वरः ।
सन्धाय बाणमस्त्रेण चमूपतिमताडयत् ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर महाबाहु राक्षसराज रावणने आग्नेयास्त्र-युक्त बाणका संधान करके उसके द्वारा सेनापति नीलको मारा ॥ ८९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽस्त्रमुक्तेन बाणेन नीलो वक्षसि ताडितः ।
निर्दह्यमानः सहसा स पपात महीतले ॥ ९० ॥
मूलम्
सोऽस्त्रमुक्तेन बाणेन नीलो वक्षसि ताडितः ।
निर्दह्यमानः सहसा स पपात महीतले ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके धनुषसे छूटे हुए उस बाणने नीलकी छातीपर गहरी चोट की । वे उसकी आँचसे जलते हुए सहसा पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ९० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृमाहात्म्यसंयोगादात्मनश्चापि तेजसा ।
जानुभ्यामपतद् भूमौ न तु प्राणैर्वियुज्यत ॥ ९१ ॥
मूलम्
पितृमाहात्म्यसंयोगादात्मनश्चापि तेजसा ।
जानुभ्यामपतद् भूमौ न तु प्राणैर्वियुज्यत ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि नीलने पृथ्वीपर घुटने टेक दिये, तथापि पिता अग्निदेवके माहात्म्यसे और अपने तेजके प्रभावसे उनके प्राण नहीं निकले ॥ ९१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसञ्ज्ञं वानरं दृष्ट्वा दशग्रीवो रणोत्सुकः ।
रथेनाम्बुदनादेन सौमित्रिमभिदुद्रुवे ॥ ९२ ॥
मूलम्
विसञ्ज्ञं वानरं दृष्ट्वा दशग्रीवो रणोत्सुकः ।
रथेनाम्बुदनादेन सौमित्रिमभिदुद्रुवे ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानर नीलको अचेत हुआ देख रणोत्सुक रावणने मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले रथके द्वारा सुमित्राकुमार लक्ष्मणपर धावा किया ॥ ९२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य रणमध्ये तं वारयित्वा स्थितो ज्वलन् ।
धनुर्विस्फारयामास राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् ॥ ९३ ॥
मूलम्
आसाद्य रणमध्ये तं वारयित्वा स्थितो ज्वलन् ।
धनुर्विस्फारयामास राक्षसेन्द्रः प्रतापवान् ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धभूमिमें सारी वानरसेनाको आगे बढ़नेसे रोककर वह लक्ष्मणके पास पहुँच गया और प्रज्वलित अग्निके समान सामने खड़ा हो प्रतापी राक्षसराज रावण अपने धनुषकी टंकार करने लगा ॥ ९३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह सौमित्रिरदीनसत्त्वो
विस्फारयन्तं धनुरप्रमेयम् ।
अवेहि मामद्य निशाचरेन्द्र
न वानरांस्त्वं प्रतियोद्धुमर्हसि ॥ ९४ ॥
मूलम्
तमाह सौमित्रिरदीनसत्त्वो
विस्फारयन्तं धनुरप्रमेयम् ।
अवेहि मामद्य निशाचरेन्द्र
न वानरांस्त्वं प्रतियोद्धुमर्हसि ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय अपने अनुपम धनुषको खींचते हुए रावणसे उदार शक्तिशाली लक्ष्मणने कहा—‘निशाचरराज! समझ लो, मैं आ गया । अतः अब तुम्हें वानरोंके साथ युद्ध नहीं करना चाहिये’ ॥ ९४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य वाक्यं प्रतिपूर्णघोषं
ज्याशब्दमुग्रं च निशम्य राजा ।
आसाद्य सौमित्रिमुपस्थितं तं
रोषान्वितं वाचमुवाच रक्षः ॥ ९५ ॥
मूलम्
स तस्य वाक्यं प्रतिपूर्णघोषं
ज्याशब्दमुग्रं च निशम्य राजा ।
आसाद्य सौमित्रिमुपस्थितं तं
रोषान्वितं वाचमुवाच रक्षः ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणकी यह बात गम्भीर ध्वनिसे युक्त थी और उनकी प्रत्यञ्चासे भी भयानक टंकार-ध्वनि हो रही थी । उसे सुनकर युद्धके लिये उपस्थित हुए सुमित्राकुमारके निकट जा राक्षसोंके राजा रावणने रोषपूर्वक कहा— ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्यासि मे राघव दृष्टिमार्गं
प्राप्तोऽन्तगामी विपरीतबुद्धिः ।
अस्मिन् क्षणे यास्यसि मृत्युलोकं
संसाद्यमानो मम बाणजालैः ॥ ९६ ॥
मूलम्
दिष्ट्यासि मे राघव दृष्टिमार्गं
प्राप्तोऽन्तगामी विपरीतबुद्धिः ।
अस्मिन् क्षणे यास्यसि मृत्युलोकं
संसाद्यमानो मम बाणजालैः ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रघुवंशी राजकुमार! सौभाग्यकी बात है कि तुम मेरी आँखोंके सामने आ गये । तुम्हारा शीघ्र ही अन्त होनेवाला है, इसीलिये तुम्हारी बुद्धि विपरीत हो गयी है । अब तुम मेरे बाणसमूहोंसे पीड़ित हो इसी क्षण यमलोककी यात्रा करोगे’ ॥ ९६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह सौमित्रिरविस्मयानो
गर्जन्तमुद्वृत्तशिताग्रदंष्ट्रम् ।
राजन् न गर्जन्ति महाप्रभावा
विकत्थसे पापकृतां वरिष्ठ ॥ ९७ ॥
मूलम्
तमाह सौमित्रिरविस्मयानो
गर्जन्तमुद्वृत्तशिताग्रदंष्ट्रम् ।
राजन् न गर्जन्ति महाप्रभावा
विकत्थसे पापकृतां वरिष्ठ ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुमित्राकुमार लक्ष्मणको उसकी बात सुनकर कोई विस्मय नहीं हुआ । उसके दाँत बड़े ही तीखे और उत्कट थे और वह जोर-जोरसे गर्जना कर रहा था । उस समय सुमित्राकुमारने उससे कहा—‘राजन्! महान् प्रभावशाली पुरुष तुम्हारी तरह केवल गर्जना नहीं करते हैं (कुछ पराक्रम करके दिखाते हैं) । पापाचारियोंमें अग्रगण्य रावण! तुम तो झूठे ही डींग हाँकते हो ॥ ९७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि वीर्यं तव राक्षसेन्द्र
बलं प्रतापं च पराक्रमं च ।
अवस्थितोऽहं शरचापपाणि-
रागच्छ किं मोघविकत्थनेन ॥ ९८ ॥
मूलम्
जानामि वीर्यं तव राक्षसेन्द्र
बलं प्रतापं च पराक्रमं च ।
अवस्थितोऽहं शरचापपाणि-
रागच्छ किं मोघविकत्थनेन ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसराज! (तुमने सूने घरसे जो चोरी-चोरी एक असहाय नारीका अपहरण किया, इसीसे) मैं तुम्हारे बल, वीर्य, प्रताप और पराक्रमको अच्छी तरह जानता हूँ; इसीलिये हाथमें धनुष-बाण लेकर सामने खड़ा हूँ । आओ युद्ध करो । व्यर्थ बातें बनानेसे क्या होगा?’ ॥ ९८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तः कुपितः ससर्ज
रक्षोधिपः सप्त शरान् सुपुङ्खान् ।
ताल्ँ लक्ष्मणः काञ्चनचित्रपुङ्खै-
श्चिच्छेद बाणैर्निशिताग्रधारैः ॥ ९९ ॥
मूलम्
स एवमुक्तः कुपितः ससर्ज
रक्षोधिपः सप्त शरान् सुपुङ्खान् ।
ताल्ँ लक्ष्मणः काञ्चनचित्रपुङ्खै-
श्चिच्छेद बाणैर्निशिताग्रधारैः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके ऐसा कहनेपर कुपित हुए राक्षसराजने उनपर सुन्दर पंखवाले सात बाण छोड़े; परंतु लक्ष्मणने सोनेके बने हुए विचित्र पंखोंसे सुशोभित और तेज धारवाले बाणोंसे उन सबको काट डाला ॥ ९९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् प्रेक्षमाणः सहसा निकृत्तान्
निकृत्तभोगानिव पन्नगेन्द्रान् ।
लङ्केश्वरः क्रोधवशं जगाम
ससर्ज चान्यान् निशितान् पृषत्कान् ॥ १०० ॥
मूलम्
तान् प्रेक्षमाणः सहसा निकृत्तान्
निकृत्तभोगानिव पन्नगेन्द्रान् ।
लङ्केश्वरः क्रोधवशं जगाम
ससर्ज चान्यान् निशितान् पृषत्कान् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे बड़े-बड़े सर्पोंके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दिये जायँ, उसी प्रकार अपने समस्त बाणोंको सहसा खण्डित हुआ देख लङ्कापति रावण क्रोधके वशीभूत हो गया और उसने दूसरे तीखे बाण छोड़े ॥ १०० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बाणवर्षं तु ववर्ष तीव्रं
रामानुजः कार्मुकसम्प्रयुक्तम् ।
क्षुरार्धचन्द्रोत्तमकर्णिभल्लैः
शरांश्च चिच्छेद न चुक्षुभे च ॥ १०१ ॥
मूलम्
स बाणवर्षं तु ववर्ष तीव्रं
रामानुजः कार्मुकसम्प्रयुक्तम् ।
क्षुरार्धचन्द्रोत्तमकर्णिभल्लैः
शरांश्च चिच्छेद न चुक्षुभे च ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु श्रीरामके छोटे भाई लक्ष्मण इससे विचलित नहीं हुए । उन्होंने अपने धनुषसे बाणोंकी भयंकर वर्षा की और क्षुर, अर्धचन्द्र, उत्तम कर्णी तथा भल्ल जातिके बाणोंद्वारा रावणके छोड़े हुए उन सब बाणोंको काट डाला ॥ १०१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स बाणजालान्यपि तानि तानि
मोघानि पश्यंस्त्रिदशारिराजः ।
विसिस्मिये लक्ष्मणलाघवेन
पुनश्च बाणान् निशितान् मुमोच ॥ १०२ ॥
मूलम्
स बाणजालान्यपि तानि तानि
मोघानि पश्यंस्त्रिदशारिराजः ।
विसिस्मिये लक्ष्मणलाघवेन
पुनश्च बाणान् निशितान् मुमोच ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सभी बाणसमूहोंको निष्फल हुआ देख राक्षसराज रावण लक्ष्मणकी फुर्तीसे आश्चर्यचकित रह गया और उनपर पुनः तीखे बाण छोड़ने लगा ॥ १०२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लक्ष्मणश्चापि शिताञ् शिताग्रान्
महेन्द्रतुल्योऽशनिभीमवेगान् ।
सन्धाय चापे ज्वलनप्रकाशान्
ससर्ज रक्षोधिपतेर्वधाय ॥ १०३ ॥
मूलम्
स लक्ष्मणश्चापि शिताञ्शिताग्रान्
महेन्द्रतुल्योऽशनिभीमवेगान् ।
सन्धाय चापे ज्वलनप्रकाशान्
ससर्ज रक्षोधिपतेर्वधाय ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रके समान पराक्रमी लक्ष्मणने भी रावणके वधके लिये वज्रके समान भयानक वेग और तीखी धारवाले पैने बाणोंको, जो अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे, धनुषपर रखा ॥ १०३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तान् प्रचिच्छेद हि राक्षसेन्द्रः
शिताञ् शराल्ँ लक्ष्मणमाजघान ।
शरेण कालाग्निसमप्रभेण
स्वयम्भुदत्तेन ललाटदेशे ॥ १०४ ॥
मूलम्
स तान् प्रचिच्छेद हि राक्षसेन्द्रः
शिताञ्शरांल्लक्ष्मणमाजघान ।
शरेण कालाग्निसमप्रभेण
स्वयम्भुदत्तेन ललाटदेशे ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु राक्षसराजने उन सभी तीखे बाणोंको काट डाला और ब्रह्माजीके दिये हुए कालाग्निके समान तेजस्वी बाणसे लक्ष्मणजीके ललाटपर चोट की ॥ १०४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स लक्ष्मणो रावणसायकार्त-
श्चचाल चापं शिथिलं प्रगृह्य ।
पुनश्च सञ्ज्ञां प्रतिलभ्य कृच्छ्रा-
च्चिच्छेद चापं त्रिदशेन्द्रशत्रोः ॥ १०५ ॥
मूलम्
स लक्ष्मणो रावणसायकार्त-
श्चचाल चापं शिथिलं प्रगृह्य ।
पुनश्च सञ्ज्ञां प्रतिलभ्य कृच्छ्रा-
च्चिच्छेद चापं त्रिदशेन्द्रशत्रोः ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके उस बाणसे पीड़ित हो लक्ष्मणजी विचलित हो उठे । उन्होंने हाथमें जो धनुष ले रखा था, उसकी मुट्ठी ढीली पड़ गयी । फिर उन्होंने बड़े कष्टसे होश सँभाला और देवद्रोही रावणके धनुषको काट दिया ॥ १०५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकृत्तचापं त्रिभिराजघान
बाणैस्तदा दाशरथिः शिताग्रैः ।
स सायकार्तो विचचाल राजा
कृच्छ्राच्च सञ्ज्ञां पुनराससाद ॥ १०६ ॥
मूलम्
निकृत्तचापं त्रिभिराजघान
बाणैस्तदा दाशरथिः शिताग्रैः ।
स सायकार्तो विचचाल राजा
कृच्छ्राच्च सञ्ज्ञां पुनराससाद ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनुष कट जानेपर रावणको लक्ष्मणने तीन बाण मारे, जो बहुत ही तीखे थे । उन बाणोंसे पीड़ित हो राजा रावण व्याकुल हो गया और बड़ी कठिनाईसे वह फिर सचेत हो सका ॥ १०६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कृत्तचापः शरताडितश्च
मेदार्द्रगात्रो रुधिरावसिक्तः ।
जग्राह शक्तिं स्वयमुग्रशक्तिः
स्वयम्भुदत्तां युधि देवशत्रुः ॥ १०७ ॥
मूलम्
स कृत्तचापः शरताडितश्च
मेदार्द्रगात्रो रुधिरावसिक्तः ।
जग्राह शक्तिं स्वयमुग्रशक्तिः
स्वयम्भुदत्तां युधि देवशत्रुः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब धनुष कट गया और बाणोंकी गहरी चोट खानी पड़ी, तब रावणका सारा शरीर मेदे और रक्तसे भीग गया । उस अवस्थामें उस भयंकर शक्तिशाली देवद्रोही राक्षसने युद्धस्थलमें ब्रह्माजीकी दी हुई शक्ति उठा ली ॥ १०७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तां सधूमानलसन्निकाशां
वित्रासनां संयति वानराणाम् ।
चिक्षेप शक्तिं तरसा ज्वलन्तीं
सौमित्रये राक्षसराष्ट्रनाथः ॥ १०८ ॥
मूलम्
स तां सधूमानलसन्निकाशां
वित्रासनां संयति वानराणाम् ।
चिक्षेप शक्तिं तरसा ज्वलन्तीं
सौमित्रये राक्षसराष्ट्रनाथः ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शक्ति धूमयुक्त अग्निके समान दिखायी देती थी और युद्धमें वानरोंको भयभीत करनेवाली थी । राक्षसराजके स्वामी रावणने वह जलती हुई शक्ति बड़े वेगसे सुमित्राकुमारपर चलायी ॥ १०८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामापतन्तीं भरतानुजोऽस्त्रै-
र्जघान बाणैश्च हुताग्निकल्पैः ।
तथापि सा तस्य विवेश शक्ति-
र्भुजान्तरं दाशरथेर्विशालम् ॥ १०९ ॥
मूलम्
तामापतन्तीं भरतानुजोऽस्त्रै-
र्जघान बाणैश्च हुताग्निकल्पैः ।
तथापि सा तस्य विवेश शक्ति-
र्भुजान्तरं दाशरथेर्विशालम् ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनी ओर आती हुई उस शक्तिपर लक्ष्मणने अग्नितुल्य तेजस्वी बहुत-से बाणों तथा अस्त्रोंका प्रहार किया; तथापि वह शक्ति दशरथकुमार लक्ष्मणके विशाल वक्षःस्थलमें घुस गयी ॥ १०९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शक्तिमाञ् शक्तिसमाहतः सन्
जज्वाल भूमौ स रघुप्रवीरः ।
तं विह्वलन्तं सहसाभ्युपेत्य
जग्राह राजा तरसा भुजाभ्याम् ॥ ११० ॥
मूलम्
स शक्तिमाञ्शक्तिसमाहतः सन्
जज्वाल भूमौ स रघुप्रवीरः ।
तं विह्वलन्तं सहसाभ्युपेत्य
जग्राह राजा तरसा भुजाभ्याम् ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रघुकुलके प्रधान वीर लक्ष्मण यद्यपि बड़े शक्तिशाली थे, तथापि उस शक्तिसे आहत हो पृथ्वीपर गिर पड़े और जलने-से लगे । उन्हें विह्वल हुआ देख राजा रावण सहसा उनके पास जा पहुँचा और उनको वेगपूर्वक अपनी दोनों भुजाओंसे उठाने लगा ॥ ११० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमवान् मन्दरो मेरुस्त्रैलोक्यं वा सहामरैः ।
शक्यं भुजाभ्यामुद्धर्तुं न शक्यो भरतानुजः ॥ १११ ॥
मूलम्
हिमवान् मन्दरो मेरुस्त्रैलोक्यं वा सहामरैः ।
शक्यं भुजाभ्यामुद्धर्तुं न शक्यो भरतानुजः ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस रावणमें देवताओंसहित हिमालय, मन्दराचल, मेरुगिरि अथवा तीनों लोकोंको भुजाओंद्वारा उठा लेनेकी शक्ति थी, वही भरतके छोटे भाई लक्ष्मणको उठानेमें समर्थ न हो सका ॥ १११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शक्त्या ब्राह्म्या तु सौमित्रिस्ताडितोऽपि स्तनान्तरे ।
विष्णोरमीमांस्यभागमात्मानं प्रत्यनुस्मरत् ॥ ११२ ॥
मूलम्
शक्त्या ब्राह्म्या तु सौमित्रिस्ताडितोऽपि स्तनान्तरे ।
विष्णोरमीमांस्यभागमात्मानं प्रत्यनुस्मरत् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माकी शक्तिसे छातीमें चोट खानेपर भी लक्ष्मणजीने भगवान् विष्णुके अचिन्त्य अंशरूपसे अपना चिन्तन किया ॥ ११२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो दानवदर्पघ्नं सौमित्रिं देवकण्टकः ।
तं पीडयित्वा बाहुभ्यां न प्रभुर्लङ्घनेऽभवत् ॥ ११३ ॥
मूलम्
ततो दानवदर्पघ्नं सौमित्रिं देवकण्टकः ।
तं पीडयित्वा बाहुभ्यां न प्रभुर्लङ्घनेऽभवत् ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः देवशत्रु रावण दानवोंका दर्प चूर्ण करनेवाले लक्ष्मणको अपनी दोनों भुजाओंमें दबाकर हिलानेमें भी समर्थ न हो सका ॥ ११३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धो वायुसुतो रावणं समभिद्रवत् ।
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना ॥ ११४ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धो वायुसुतो रावणं समभिद्रवत् ।
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना ॥ ११४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय क्रोधसे भरे हुए वायुपुत्र हनुमान् जी रावणकी ओर दौड़े और अपने वज्र-सरीखे मुक्केसे रावणकी छातीमें मारा ॥ ११४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन मुष्टिप्रहारेण रावणो राक्षसेश्वरः ।
जानुभ्यामगमद् भूमौ चचाल च पपात च ॥ ११५ ॥
मूलम्
तेन मुष्टिप्रहारेण रावणो राक्षसेश्वरः ।
जानुभ्यामगमद् भूमौ चचाल च पपात च ॥ ११५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मुक्केकी मारसे राक्षसराज रावणने धरतीपर घुटने टेक दिये । वह काँपने लगा और अन्ततोगत्वा गिर पड़ा ॥ ११५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आस्यैश्च नेत्रैः श्रवणैः पपात रुधिरं बहु ।
विघूर्णमानो निश्चेष्टो रथोपस्थ उपाविशत् ॥ ११६ ॥
मूलम्
आस्यैश्च नेत्रैः श्रवणैः पपात रुधिरं बहु ।
विघूर्णमानो निश्चेष्टो रथोपस्थ उपाविशत् ॥ ११६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके मुख, नेत्र और कानोंसे बहुत-सा रक्त गिरने लगा और वह चक्कर काटता हुआ रथके पिछले भागमें निश्चेष्ट होकर जा बैठा ॥ ११६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसञ्ज्ञो मूर्च्छितश्चासीन्न च स्थानं समालभत् ।
विसञ्ज्ञं रावणं दृष्ट्वा समरे भीमविक्रमम् ॥ ११७ ॥
ऋषयो वानराश्चैव नेदुर्देवाश्च सासुराः ।
मूलम्
विसञ्ज्ञो मूर्च्छितश्चासीन्न च स्थानं समालभत् ।
विसञ्ज्ञं रावणं दृष्ट्वा समरे भीमविक्रमम् ॥ ११७ ॥
ऋषयो वानराश्चैव नेदुर्देवाश्च सासुराः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह मूर्च्छित होकर अपनी सुध-बुध खो बैठा । वहाँ भी वह स्थिर न रह सका—तड़पता और छटपटाता रहा । समराङ्गणमें भयंकर पराक्रमी रावणको अचेत हुआ देख ऋषि, देवता, असुर और वानर हर्षनाद करने लगे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमानथ तेजस्वी लक्ष्मणं रावणार्दितम् ॥ ११८ ॥
आनयद् राघवाभ्याशं बाहुभ्यां परिगृह्य तम् ।
मूलम्
हनूमानथ तेजस्वी लक्ष्मणं रावणार्दितम् ॥ ११८ ॥
आनयद् राघवाभ्याशं बाहुभ्यां परिगृह्य तम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके पश्चात् तेजस्वी हनुमान् रावणपीड़ित लक्ष्मणको दोनों हाथोंसे उठाकर श्रीरघुनाथजीके निकट ले आये ॥ ११८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वायुसूनोः सुहृत्त्वेन भक्त्या परमया च सः ।
शत्रूणामप्यकम्प्योऽपि लघुत्वमगमत् कपेः ॥ ११९ ॥
मूलम्
वायुसूनोः सुहृत्त्वेन भक्त्या परमया च सः ।
शत्रूणामप्यकम्प्योऽपि लघुत्वमगमत् कपेः ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हनुमान् जी के सौहार्द और उत्कट भक्तिभावके कारण लक्ष्मणजी उनके लिये हलके हो गये । शत्रुओंके लिये तो वे अब भी अकम्पनीय थे—वे उन्हें हिला नहीं सकते थे ॥ ११९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समुत्सृज्य सा शक्तिः सौमित्रिं युधि निर्जितम् ।
रावणस्य रथे तस्मिन् स्थानं पुनरुपागमत् ॥ १२० ॥
मूलम्
तं समुत्सृज्य सा शक्तिः सौमित्रिं युधि निर्जितम् ।
रावणस्य रथे तस्मिन् स्थानं पुनरुपागमत् ॥ १२० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें पराजित हुए लक्ष्मणको छोड़कर वह शक्ति पुनः रावणके रथपर लौट आयी ॥ १२० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावणोऽपि महातेजाः प्राप्य सञ्ज्ञां महाहवे ।
आददे निशितान् बाणाञ्जग्राह च महद्धनुः ॥ १२१ ॥
मूलम्
रावणोऽपि महातेजाः प्राप्य सञ्ज्ञां महाहवे ।
आददे निशितान् बाणाञ्जग्राह च महद्धनुः ॥ १२१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
थोड़ी देरमें होशमें आनेपर महातेजस्वी रावणने फिर विशाल धनुष उठाया और पैंने बाण हाथमें लिये ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्वस्तश्च विशल्यश्च लक्ष्मणः शत्रुसूदनः ।
विष्णोर्भागममीमांस्यमात्मानं प्रत्यनुस्मरन् ॥ १२२ ॥
मूलम्
आश्वस्तश्च विशल्यश्च लक्ष्मणः शत्रुसूदनः ।
विष्णोर्भागममीमांस्यमात्मानं प्रत्यनुस्मरन् ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन लक्ष्मणजी भी भगवान् विष्णुके अचिन्तनीय अंशरूपसे अपना चिन्तन करके स्वस्थ और नीरोग हो गये ॥ १२२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपातितमहावीरां वानराणां महाचमूम् ।
राघवस्तु रणे दृष्ट्वा रावणं समभिद्रवत् ॥ १२३ ॥
मूलम्
निपातितमहावीरां वानराणां महाचमूम् ।
राघवस्तु रणे दृष्ट्वा रावणं समभिद्रवत् ॥ १२३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरोंकी विशाल वाहिनीके बड़े-बड़े वीर मार गिराये गये, यह देखकर रणभूमिमें रघुनाथजीने रावणपर धावा किया ॥ १२३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथैनमनुसङ्क्रम्य हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ।
मम पृष्ठं समारुह्य राक्षसं शास्तुमर्हसि ॥ १२४ ॥
विष्णुर्यथा गरुत्मन्तमारुह्यामरवैरिणम् ।
मूलम्
अथैनमनुसङ्क्रम्य हनूमान् वाक्यमब्रवीत् ।
मम पृष्ठं समारुह्य राक्षसं शास्तुमर्हसि ॥ १२४ ॥
विष्णुर्यथा गरुत्मन्तमारुह्यामरवैरिणम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय हनूमान् जी ने उनके पास आकर कहा—‘प्रभो! जैसे भगवान् विष्णु गरुड़पर चढ़कर दैत्योंका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप मेरी पीठपर चढ़कर इस राक्षसको दण्ड दें’ ॥ १२४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा राघवो वाक्यं वायुपुत्रेण भाषितम् ॥ १२५ ॥
अथारुरोह सहसा हनूमन्तं महाकपिम् ।
मूलम्
तच्छ्रुत्वा राघवो वाक्यं वायुपुत्रेण भाषितम् ॥ १२५ ॥
अथारुरोह सहसा हनूमन्तं महाकपिम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
पवनकुमारकी कही हुई यह बात सुनकर श्रीरघुनाथजी सहसा उन महाकपि हनुमान् की पीठपर चढ़ गये ॥ १२५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रथस्थं रावणं सङ्ख्ये ददर्श मनुजाधिपः ॥ १२६ ॥
तमालोक्य महातेजाः प्रदुद्राव स रावणम् ।
वैरोचनमिव क्रुद्धो विष्णुरभ्युद्यतायुधः ॥ १२७ ॥
मूलम्
रथस्थं रावणं सङ्ख्ये ददर्श मनुजाधिपः ॥ १२६ ॥
तमालोक्य महातेजाः प्रदुद्राव स रावणम् ।
वैरोचनमिव क्रुद्धो विष्णुरभ्युद्यतायुधः ॥ १२७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज श्रीरामने समराङ्गणमें रावणको रथपर बैठा देखा । उसे देखते ही महातेजस्वी श्रीराम रावणकी ओर उसी प्रकार दौड़े, जैसे कुपित हुए भगवान् विष्णु अपना चक्र उठाये विरोचनकुमार बलिपर टूट पड़े थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्याशब्दमकरोत् तीव्रं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ।
गिरा गम्भीरया रामो राक्षसेन्द्रमुवाच ह ॥ १२८ ॥
मूलम्
ज्याशब्दमकरोत् तीव्रं वज्रनिष्पेषनिष्ठुरम् ।
गिरा गम्भीरया रामो राक्षसेन्द्रमुवाच ह ॥ १२८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपने धनुषकी तीव्र टंकार प्रकट की, जो वज्रकी गड़गड़ाहटसे भी अधिक कठोर थी । इसके बाद श्रीरामचन्द्रजी राक्षसराज रावणसे गम्भीर वाणीमें बोले— ॥ १२८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिष्ठ तिष्ठ मम त्वं हि कृत्वा विप्रियमीदृशम् ।
क्व नु राक्षसशार्दूल गत्वा मोक्षमवाप्स्यसि ॥ १२९ ॥
मूलम्
तिष्ठ तिष्ठ मम त्वं हि कृत्वा विप्रियमीदृशम् ।
क्व नु राक्षसशार्दूल गत्वा मोक्षमवाप्स्यसि ॥ १२९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसोंमें बाघ बने हुए रावण! खड़ा रह, खड़ा रह । मेरा ऐसा अपराध करके तू कहाँ जाकर प्राणसंकटसे छुटकारा पा सकेगा ॥ १२९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीन्द्रवैवस्वतभास्करान् वा
स्वयम्भुवैश्वानरशङ्करान् वा ।
गमिष्यसि त्वं दशधा दिशो वा
तथापि मे नाद्य गतो विमोक्ष्यसे ॥ १३० ॥
मूलम्
यदीन्द्रवैवस्वतभास्करान् वा
स्वयम्भुवैश्वानरशङ्करान् वा ।
गमिष्यसि त्वं दशधा दिशो वा
तथापि मे नाद्य गतो विमोक्ष्यसे ॥ १३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि तू इन्द्र, यम अथवा सूर्यके पास, ब्रह्मा,अग्नि या शंकरके समीप अथवा दसों दिशाओंमें भागकर जायगा तो भी अब मेरे हाथसे बच नहीं सकेगा ॥ १३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यश्चैष शक्त्या निहतस्त्वयाद्य
गच्छन् विषादं सहसाभ्युपेत्य ।
स एष रक्षोगणराज मृत्युः
सपुत्रपौत्रस्य तवाद्य युद्धे ॥ १३१ ॥
मूलम्
यश्चैष शक्त्या निहतस्त्वयाद्य
गच्छन् विषादं सहसाभ्युपेत्य ।
स एष रक्षोगणराज मृत्युः
सपुत्रपौत्रस्य तवाद्य युद्धे ॥ १३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तूने आज अपनी शक्तिके द्वारा युद्धमें जाते हुए जिन लक्ष्मणको आहत किया और जो उस शक्तिकी चोटसे सहसा मूर्च्छित हो गये थे, उन्हींके उस तिरस्कारका बदला लेनेके लिये आज मैं युद्धभूमिमें उपस्थित हुआ हूँ । राक्षसराज! मैं पुत्र-पौत्रोंसहित तेरी मौत बनकर आया हूँ ॥ १३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेन चात्यद्भुतदर्शनानि
शरैर्जनस्थानकृतालयानि ।
चतुर्दशान्यात्तवरायुधानि
रक्षःसहस्राणि निषूदितानि ॥ १३२ ॥
मूलम्
एतेन चात्यद्भुतदर्शनानि
शरैर्जनस्थानकृतालयानि ।
चतुर्दशान्यात्तवरायुधानि
रक्षःसहस्राणि निषूदितानि ॥ १३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावण! तेरे सामने खड़े हुए इस रघुवंशी राजकुमारने ही अपने बाणोंद्वारा जनस्थाननिवासी उन चौदह हजार राक्षसोंका संहार कर डाला था, जो अद्भुत एवं दर्शनीय योद्धा थे और उत्तमोत्तम अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे’ ॥ १३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवस्य वचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो महाबलः ।
वायुपुत्रं महावेगं वहन्तं राघवं रणे ॥ १३३ ॥
रोषेण महताऽऽविष्टः पूर्ववैरमनुस्मरन् ।
आजघान शरैर्दीप्तैः कालानलशिखोपमैः ॥ १३४ ॥
मूलम्
राघवस्य वचः श्रुत्वा राक्षसेन्द्रो महाबलः ।
वायुपुत्रं महावेगं वहन्तं राघवं रणे ॥ १३३ ॥
रोषेण महताऽऽविष्टः पूर्ववैरमनुस्मरन् ।
आजघान शरैर्दीप्तैः कालानलशिखोपमैः ॥ १३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीकी यह बात सुनकर महाबली राक्षसराज रावण महान् रोषसे भर गया । उसे पहलेके वैरका स्मरण हो आया और उसने कालाग्निकी शिखाके समान दीप्तिशाली बाणोंद्वारा रणभूमिमें श्रीरघुनाथजीका वाहन बने हुए महान् वेगशाली वायुपुत्र हनुमान् को अत्यन्त घायल कर दिया ॥ १३३-१३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसेनाहवे तस्य ताडितस्यापि सायकैः ।
स्वभावतेजोयुक्तस्य भूयस्तेजोऽभ्यवर्धत ॥ १३५ ॥
मूलम्
राक्षसेनाहवे तस्य ताडितस्यापि सायकैः ।
स्वभावतेजोयुक्तस्य भूयस्तेजोऽभ्यवर्धत ॥ १३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धस्थलमें उस राक्षसके सायकोंसे आहत होनेपर भी स्वाभाविक तेजसे सम्पन्न हनुमान् जी का शौर्य और भी बढ़ गया ॥ १३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामो महातेजा रावणेन कृतव्रणम् ।
दृष्ट्वा प्लवगशार्दूलं क्रोधस्य वशमेयिवान् ॥ १३६ ॥
मूलम्
ततो रामो महातेजा रावणेन कृतव्रणम् ।
दृष्ट्वा प्लवगशार्दूलं क्रोधस्य वशमेयिवान् ॥ १३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वानरशिरोमणि हनुमान् को रावणने घायल कर दिया, यह देखकर महातेजस्वी श्रीराम क्रोधके वशीभूत हो गये ॥ १३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याभिसङ्क्रम्य रथं सचक्रं
साश्वध्वजच्छत्रमहापताकम् ।
ससारथिं साशनिशूलखड्गं
रामः प्रचिच्छेद शितैः शराग्रैः ॥ १३७ ॥
मूलम्
तस्याभिसङ्क्रम्य रथं सचक्रं
साश्वध्वजच्छत्रमहापताकम् ।
ससारथिं साशनिशूलखड्गं
रामः प्रचिच्छेद शितैः शराग्रैः ॥ १३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो उन भगवान् श्रीरामने आक्रमण करके पहिये, घोड़े, ध्वजा, छत्र, पताका, सारथि, अशनि, शूल और खड्गसहित उसके रथको अपने पैने बाणोंसे तिल-तिल करके काट डाला ॥ १३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथेन्द्रशत्रुं तरसा जघान
बाणेन वज्राशनिसन्निभेन ।
भुजान्तरे व्यूढसुजातरूपे
वज्रेण मेरुं भगवानिवेन्द्रः ॥ १३८ ॥
मूलम्
अथेन्द्रशत्रुं तरसा जघान
बाणेन वज्राशनिसन्निभेन ।
भुजान्तरे व्यूढसुजातरूपे
वज्रेण मेरुं भगवानिवेन्द्रः ॥ १३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भगवान् इन्द्रने वज्रके द्वारा मेरु पर्वतपर आघात किया हो, उसी प्रकार प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने वज्र और अशनिके समान तेजस्वी बाणसे इन्द्रशत्रु रावणकी विशाल एवं सुन्दर छातीमें वेगपूर्वक आघात किया ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो वज्रपाताशनिसन्निपाता-
न्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा ।
स रामबाणाभिहतो भृशार्त-
श्चचाल चापं च मुमोच वीरः ॥ १३९ ॥
मूलम्
यो वज्रपाताशनिसन्निपाता-
न्न चुक्षुभे नापि चचाल राजा ।
स रामबाणाभिहतो भृशार्त-
श्चचाल चापं च मुमोच वीरः ॥ १३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा रावण वज्र और अशनिके आघातसे भी कभी क्षुब्ध एवं विचलित नहीं हुआ था, वही वीर उस समय श्रीरामचन्द्रजीके बाणोंसे घायल हो अत्यन्त आर्त एवं कम्पित हो उठा और उसके हाथसे धनुष छूटकर गिर पड़ा ॥ १३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं विह्वलन्तं प्रसमीक्ष्य रामः
समाददे दीप्तमथार्धचन्द्रम् ।
तेनार्कवर्णं सहसा किरीटं
चिच्छेद रक्षोधिपतेर्महात्मा ॥ १४० ॥
मूलम्
तं विह्वलन्तं प्रसमीक्ष्य रामः
समाददे दीप्तमथार्धचन्द्रम् ।
तेनार्कवर्णं सहसा किरीटं
चिच्छेद रक्षोधिपतेर्महात्मा ॥ १४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणको व्याकुल हुआ देख महात्मा श्रीरामचन्द्रजीने एक चमचमाता हुआ अर्धचन्द्राकार बाण हाथमें लिया और उसके द्वारा राक्षसराजका सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट सहसा काट डाला ॥ १४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं निर्विषाशीविषसन्निकाशं
शान्तार्चिषं सूर्यमिवाप्रकाशम् ।
गतश्रियं कृत्तकिरीटकूट-
मुवाच रामो युधि राक्षसेन्द्रम् ॥ १४१ ॥
मूलम्
तं निर्विषाशीविषसन्निकाशं
शान्तार्चिषं सूर्यमिवाप्रकाशम् ।
गतश्रियं कृत्तकिरीटकूट-
मुवाच रामो युधि राक्षसेन्द्रम् ॥ १४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय धनुष न होनेसे रावण विषहीन सर्पके समान अपना प्रभाव खो बैठा था । सायंकालमें जिसकी प्रभा शान्त हो गयी हो, उस सूर्यदेवके समान निस्तेज हो गया था तथा मुकुटोंका समूह कट जानेसे श्रीहीन दिखायी देता था । उस अवस्थामें श्रीरामने युद्धभूमिमें राक्षसराजसे कहा— ॥ १४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं त्वया कर्म महत् सुभीमं
हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम् ।
तस्मात् परिश्रान्त इति व्यवस्य
न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि ॥ १४२ ॥
मूलम्
कृतं त्वया कर्म महत् सुभीमं
हतप्रवीरश्च कृतस्त्वयाहम् ।
तस्मात् परिश्रान्त इति व्यवस्य
न त्वां शरैर्मृत्युवशं नयामि ॥ १४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रावण! तुमने आज बड़ा भयंकर कर्म किया है, मेरी सेनाके प्रधान-प्रधान वीरोंको मार डाला है । इतनेपर भी थका हुआ समझकर मैं बाणोंद्वारा तुझे मौतके अधीन नहीं कर रहा हूँ ॥ १४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयाहि जानामि रणार्दितस्त्वं
प्रविश्य रात्रिञ्चरराज लङ्काम् ।
आश्वस्य निर्याहि रथी च धन्वी
तदा बलं प्रेक्ष्यसि मे रथस्थः ॥ १४३ ॥
मूलम्
प्रयाहि जानामि रणार्दितस्त्वं
प्रविश्य रात्रिञ्चरराज लङ्काम् ।
आश्वस्य निर्याहि रथी च धन्वी
तदा बलं प्रेक्ष्यसि मे रथस्थः ॥ १४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निशाचरराज! मैं जानता हूँ तू युद्धसे पीड़ित है । इसलिये आज्ञा देता हूँ, जा, लङ्कामें प्रवेश करके कुछ देर विश्राम कर ले । फिर रथ और धनुषके साथ निकलना । उस समय रथारूढ़ रहकर तू फिर मेरा बल देखना’ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तो हतदर्पहर्षो
निकृत्तचापः स हताश्वसूतः ।
शरार्दितो भग्नमहाकिरीटो
विवेश लङ्कां सहसा स्म राजा ॥ १४४ ॥
मूलम्
स एवमुक्तो हतदर्पहर्षो
निकृत्तचापः स हताश्वसूतः ।
शरार्दितो भग्नमहाकिरीटो
विवेश लङ्कां सहसा स्म राजा ॥ १४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीरामके ऐसा कहनेपर राजा रावण सहसा लङ्कामें घुस गया । उसका हर्ष और अभिमान मिट्टीमें मिल चुका था, धनुष काट दिया गया था, घोड़े तथा सारथि मार डाले गये थे, महान् किरीट खण्डित हो चुका था और वह स्वयं भी बाणोंसे बहुत पीड़ित था ॥ १४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रविष्टे रजनीचरेन्द्रे
महाबले दानवदेवशत्रौ ।
हरीन् विशल्यान् सह लक्ष्मणेन
चकार रामः परमाहवाग्रे ॥ १४५ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रविष्टे रजनीचरेन्द्रे
महाबले दानवदेवशत्रौ ।
हरीन् विशल्यान् सह लक्ष्मणेन
चकार रामः परमाहवाग्रे ॥ १४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओं और दानवोंके शत्रु महाबली निशाचरराज रावणके लङ्कामें चले जानेपर लक्ष्मणसहित श्रीरामने उस महायुद्धके मुहानेपर वानरोंके शरीरसे बाण निकाले ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रभग्ने त्रिदशेन्द्रशत्रौ
सुरासुरा भूतगणा दिशश्च ।
ससागराः सर्षिमहोरगाश्च
तथैव भूम्यम्बुचराः प्रहृष्टाः ॥ १४६ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रभग्ने त्रिदशेन्द्रशत्रौ
सुरासुरा भूतगणा दिशश्च ।
ससागराः सर्षिमहोरगाश्च
तथैव भूम्यम्बुचराः प्रहृष्टाः ॥ १४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवराज इन्द्रका शत्रु रावण जब युद्धस्थलसे भाग गया, तब उसके पराभवका विचार करके देवता, असुर, भूत, दिशाएँ, समुद्र, ऋषिगण, बड़े-बड़े नाग तथा भूचर और जलचर प्राणी भी बहुत प्रसन्न हुए ॥ १४६ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे एकोनषष्टितमः सर्गः ॥ ५९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें उनसठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ५९ ॥