वाचनम्
भागसूचना
- इन्द्रजित् के बाणोंसे श्रीराम और लक्ष्मणका अचेत होना और वानरोंका शोक करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य गतिमन्विच्छन् राजपुत्रः प्रतापवान् ।
दिदेशातिबलो रामो दश वानरयूथपान् ॥ १ ॥
मूलम्
स तस्य गतिमन्विच्छन् राजपुत्रः प्रतापवान् ।
दिदेशातिबलो रामो दश वानरयूथपान् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अत्यन्त बलशाली प्रतापी राजकुमार श्रीरामने इन्द्रजित् का पता लगानेके लिये दस वानर-यूथपतियोंको आज्ञा दी ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वौ सुषेणस्य दायादौ नीलं च प्लवगाधिपम् ।
अङ्गदं वालिपुत्रं च शरभं च तरस्विनम् ॥ २ ॥
द्विविदं च हनूमन्तं सानुप्रस्थं महाबलम् ।
ऋषभं चर्षभस्कन्धमादिदेश परन्तपः ॥ ३ ॥
मूलम्
द्वौ सुषेणस्य दायादौ नीलं च प्लवगाधिपम् ।
अङ्गदं वालिपुत्रं च शरभं च तरस्विनम् ॥ २ ॥
द्विविदं च हनूमन्तं सानुप्रस्थं महाबलम् ।
ऋषभं चर्षभस्कन्धमादिदेश परन्तपः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें दो तो सुषेणके पुत्र थे और शेष आठ वानरराज नील, वालिपुत्र अङ्गद, वेगशाली वानर शरभ, द्विविद, हनुमान्, महाबली सानुप्रस्थ, ऋषभ तथा ऋषभस्कन्ध थे । शत्रुओंको संताप देनेवाले इन दसोंको उसका अनुसंधान करनेके लिये आज्ञा दी ॥ २-३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते सम्प्रहृष्टा हरयो भीमानुद्यम्य पादपान् ।
आकाशं विविशुः सर्वे मार्गमाणा दिशो दश ॥ ४ ॥
मूलम्
ते सम्प्रहृष्टा हरयो भीमानुद्यम्य पादपान् ।
आकाशं विविशुः सर्वे मार्गमाणा दिशो दश ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे सभी वानर भयंकर वृक्ष उठाकर दसों दिशाओंमें खोजते हुए बड़े हर्षके साथ आकाशमार्गसे चले ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां वेगवतां वेगमिषुभिर्वेगवत्तरैः ।
अस्त्रवित् परमास्त्रस्तु वारयामास रावणिः ॥ ५ ॥
मूलम्
तेषां वेगवतां वेगमिषुभिर्वेगवत्तरैः ।
अस्त्रवित् परमास्त्रस्तु वारयामास रावणिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु अस्त्रोंके ज्ञाता रावणकुमार इन्द्रजित् ने अत्यन्त वेगशाली बाणोंकी वर्षा करके अपने उत्तम अस्त्रोंद्वारा उन वेगवान् वानरोंके वेगको रोक दिया ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं भीमवेगा हरयो नाराचैः क्षतविक्षताः ।
अन्धकारे न ददृशुर्मेघैः सूर्यमिवावृतम् ॥ ६ ॥
मूलम्
तं भीमवेगा हरयो नाराचैः क्षतविक्षताः ।
अन्धकारे न ददृशुर्मेघैः सूर्यमिवावृतम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणोंसे क्षत-विक्षत हो जानेपर भी वे भयानक वेगशाली वानर अन्धकारमें मेघोंसे ढके हुए सूर्यकी भाँति इन्द्रजित् को न देख सके ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामलक्ष्मणयोरेव सर्वदेहभिदः शरान् ।
भृशमावेशयामास रावणिः समितिञ्जयः ॥ ७ ॥
मूलम्
रामलक्ष्मणयोरेव सर्वदेहभिदः शरान् ।
भृशमावेशयामास रावणिः समितिञ्जयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् युद्धविजयी रावणपुत्र इन्द्रजित् फिर श्रीराम और लक्ष्मणपर ही उनके सम्पूर्ण अङ्गोंको विदीर्ण करनेवाले बाणोंकी बारम्बार वर्षा करने लगा ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरन्तरशरीरौ तु तावुभौ रामलक्ष्मणौ ।
क्रुद्धेनेन्द्रजिता वीरौ पन्नगैः शरतां गतैः ॥ ८ ॥
मूलम्
निरन्तरशरीरौ तु तावुभौ रामलक्ष्मणौ ।
क्रुद्धेनेन्द्रजिता वीरौ पन्नगैः शरतां गतैः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुपित हुए इन्द्रजित् ने उन दोनों वीर श्रीराम और लक्ष्मणको बाणरूपधारी सर्पोंद्वारा इस तरह बींधा कि उनके शरीरमें थोड़ा-सा भी ऐसा स्थान नहीं रह गया, जहाँ बाण न लगे हों ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः क्षतजमार्गेण सुस्राव रुधिरं बहु ।
तावुभौ च प्रकाशेते पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ९ ॥
मूलम्
तयोः क्षतजमार्गेण सुस्राव रुधिरं बहु ।
तावुभौ च प्रकाशेते पुष्पिताविव किंशुकौ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंके अङ्गोंमें जो घाव हो गये थे, उनके मार्गसे बहुत रक्त बहने लगा । उस समय वे दोनों भाई खिले हुए दो पलाश-वृक्षोंके समान प्रकाशित हो रहे थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पर्यन्तरक्ताक्षो भिन्नाञ्जनचयोपमः ।
रावणिर्भ्रातरौ वाक्यमन्तर्धानगतोऽब्रवीत् ॥ १० ॥
मूलम्
ततः पर्यन्तरक्ताक्षो भिन्नाञ्जनचयोपमः ।
रावणिर्भ्रातरौ वाक्यमन्तर्धानगतोऽब्रवीत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय जिसके नेत्रप्रान्त कुछ लाल थे और शरीर खानसे काटकर निकाले गये कोयलोंके ढेरकी भाँति काला था, वह रावणकुमार इन्द्रजित् अन्तर्धान-अवस्थामें ही उन दोनों भाइयोंसे इस प्रकार बोला— ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युध्यमानमनालक्ष्यं शक्रोऽपि त्रिदशेश्वरः ।
द्रष्टुमासादितुं वापि न शक्तः किं पुनर्युवाम् ॥ ११ ॥
मूलम्
युध्यमानमनालक्ष्यं शक्रोऽपि त्रिदशेश्वरः ।
द्रष्टुमासादितुं वापि न शक्तः किं पुनर्युवाम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धके समय अलक्ष्य हो जानेपर तो मुझे देवराज इन्द्र भी नहीं देख या पा सकता; फिर तुम दोनोंकी क्या बिसात है? ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रापिताविषुजालेन राघवौ कङ्कपत्रिणा ।
एष रोषपरीतात्मा नयामि यमसादनम् ॥ १२ ॥
मूलम्
प्रापिताविषुजालेन राघवौ कङ्कपत्रिणा ।
एष रोषपरीतात्मा नयामि यमसादनम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने तुम दोनों रघुवंशियोंको कंकपत्रयुक्त बाणके जालमें फँसा लिया है । अब रोषसे भरकर मैं अभी तुम दोनोंको यमलोक भेज देता हूँ’ ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु धर्मज्ञौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।
निर्बिभेद शितैर्बाणैः प्रजहर्ष ननाद च ॥ १३ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु धर्मज्ञौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ।
निर्बिभेद शितैर्बाणैः प्रजहर्ष ननाद च ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वह धर्मके ज्ञाता दोनों भाई श्रीराम और लक्ष्मणको पैने बाणोंसे बींधने लगा और हर्षका अनुभव करते हुए जोर-जोरसे गर्जना करने लगा ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिन्नाञ्जनचयश्यामो विस्फार्य विपुलं धनुः ।
भूय एव शरान् घोरान् विससर्ज महामृधे ॥ १४ ॥
मूलम्
भिन्नाञ्जनचयश्यामो विस्फार्य विपुलं धनुः ।
भूय एव शरान् घोरान् विससर्ज महामृधे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कटे-छटे कोयलेकी राशिके समान काला इन्द्रजित् फिर अपने विशाल धनुषको फैलाकर उस महासमरमें घोर बाणोंकी वर्षा करने लगा ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मर्मसु मर्मज्ञो मज्जयन् निशितान् शरान् ।
रामलक्ष्मणयोर्वीरो ननाद च मुहुर्मुहुः ॥ १५ ॥
मूलम्
ततो मर्मसु मर्मज्ञो मज्जयन् निशितान् शरान् ।
रामलक्ष्मणयोर्वीरो ननाद च मुहुर्मुहुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मर्मस्थलको जाननेवाला वह वीर श्रीराम और लक्ष्मणके मर्मस्थानोंमें अपने पैने बाणोंको डुबोता हुआ बारम्बार गर्जना करने लगा ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्धौ तु शरबन्धेन तावुभौ रणमूर्धनि ।
निमेषान्तरमात्रेण न शेकतुरवेक्षितुम् ॥ १६ ॥
मूलम्
बद्धौ तु शरबन्धेन तावुभौ रणमूर्धनि ।
निमेषान्तरमात्रेण न शेकतुरवेक्षितुम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके मुहानेपर बाणके बन्धनसे बँधे हुए वे दोनों बन्धु पलक मारते-मारते ऐसी दशाको पहुँच गये कि उनमें आँख उठाकर देखनेकी भी शक्ति नहीं रह गयी (वास्तवमें यह उनकी मनुष्यताका नाट्य करनेवाली लीलामात्र थी । वे तो कालके भी काल हैं । उन्हें कौन बाँध सकता था?) ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विभिन्नसर्वाङ्गौ शरशल्याचितौ कृतौ ।
ध्वजाविव महेन्द्रस्य रज्जुमुक्तौ प्रकम्पितौ ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो विभिन्नसर्वाङ्गौ शरशल्याचितौ कृतौ ।
ध्वजाविव महेन्द्रस्य रज्जुमुक्तौ प्रकम्पितौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उनके सारे अङ्ग बिंध गये थे । बाणोंसे व्याप्त हो गये थे । वे रस्सीसे मुक्त हुए देवराज इन्द्रके दो ध्वजोंके समान कम्पित होने लगे ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ सम्प्रचलितौ वीरौ मर्मभेदेन कर्शितौ ।
निपेततुर्महेष्वासौ जगत्यां जगतीपती ॥ १८ ॥
मूलम्
तौ सम्प्रचलितौ वीरौ मर्मभेदेन कर्शितौ ।
निपेततुर्महेष्वासौ जगत्यां जगतीपती ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे महान् धनुर्धर वीर भूपाल मर्मस्थलके भेदनसे विचलित एवं कृशकाय हो पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ वीरशयने वीरौ शयानौ रुधिरोक्षितौ ।
शरवेष्टितसर्वाङ्गावार्तौ परमपीडितौ ॥ १९ ॥
मूलम्
तौ वीरशयने वीरौ शयानौ रुधिरोक्षितौ ।
शरवेष्टितसर्वाङ्गावार्तौ परमपीडितौ ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धभूमिमें वीरशय्यापर सोये हुए वे दोनों वीर रक्तसे नहा उठे थे । उनके सारे अङ्गोंमें बाणरूपधारी नाग लिपटे हुए थे तथा वे अत्यन्त पीड़ित एवं व्यथित हो रहे थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नह्यविद्धं तयोर्गात्रे बभूवाङ्गुलमन्तरम् ।
नानिर्विण्णं न चाध्वस्तमाकराग्रादजिह्मगैः ॥ २० ॥
मूलम्
नह्यविद्धं तयोर्गात्रे बभूवाङ्गुलमन्तरम् ।
नानिर्विण्णं न चाध्वस्तमाकराग्रादजिह्मगैः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके शरीरमें एक अङ्गुल भी जगह ऐसी नहीं थी, जो बाणोंसे बिंधी न हो तथा हाथोंके अग्रभागतक कोई भी अङ्ग ऐसा नहीं था, जो बाणोंसे विदीर्ण अथवा क्षुब्ध न हुआ हो ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु क्रूरेण निहतौ रक्षसा कामरूपिणा ।
असृक् सुस्रुवतुस्तीव्रं जलं प्रस्रवणाविव ॥ २१ ॥
मूलम्
तौ तु क्रूरेण निहतौ रक्षसा कामरूपिणा ।
असृक् सुस्रुवतुस्तीव्रं जलं प्रस्रवणाविव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे झरने जल गिराते रहते हैं, उसी प्रकार वे दोनों भाई इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले उस क्रूर राक्षसके बाणोंसे घायल हो तीव्र वेगसे रक्तकी धारा बहा रहे थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पपात प्रथमं रामो विद्धो मर्मसु मार्गणैः ।
क्रोधादिन्द्रजिता येन पुरा शक्रो विनिर्जितः ॥ २२ ॥
मूलम्
पपात प्रथमं रामो विद्धो मर्मसु मार्गणैः ।
क्रोधादिन्द्रजिता येन पुरा शक्रो विनिर्जितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने पूर्वकालमें इन्द्रको परास्त किया था, उस इन्द्रजित् के क्रोधपूर्वक चलाये हुए बाणोंद्वारा मर्मस्थलमें आहत होनेके कारण पहले श्रीराम ही धराशायी हुए ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुक्मपुङ्खैः प्रसन्नाग्रै रजोगतिभिराशुगैः ।
नाराचैरर्धनाराचैर्भल्लैरञ्जलिकैरपि ।
विव्याध वत्सदन्तैश्च सिंहदंष्ट्रैः क्षुरैस्तथा ॥ २३ ॥
मूलम्
रुक्मपुङ्खैः प्रसन्नाग्रै रजोगतिभिराशुगैः ।
नाराचैरर्धनाराचैर्भल्लैरञ्जलिकैरपि ।
विव्याध वत्सदन्तैश्च सिंहदंष्ट्रैः क्षुरैस्तथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रजित् ने उन्हें सोनेके पंख, स्वच्छ अग्रभाग और धूलके समान गतिवाले (अर्थात् धूलकी भाँति छिद्ररहित स्थानमें भी प्रवेश करनेवाले) शीघ्रगामी नाराच१, अर्धनाराच२, भल्ल३, अञ्जलिक४, वत्सदन्त५, सिंहदंष्ट्र६ और क्षुर७ जातिके बाणोंद्वारा घायल कर दिया था ॥ २३ ॥
पादटिप्पनी
१. जिसका अग्रभाग सीधा और गोल हो, उस बाणको ‘नाराच’ कहते हैं । २. अर्ध भागमें नाराचकी समानता रखनेवाले बाण ‘अर्धनाराच’ कहलाते हैं । ३. जिनका अग्रभाग फरसेके समान हो, उस बाणकी ‘भल्ल’ संज्ञा है । आधुनिक भालेको भी भल्ल कहते हैं । ४. जिसका मुखभाग दोनों हाथोंकी अञ्जलिके समान हो, वह बाण ‘अञ्जलिक’ कहा गया है । ५. जिसका अग्रभाग बछड़ेके दाँतोंके समान दिखायी देता हो, उस बाणकी ‘वत्सदन्त’ संज्ञा होती है । ६. सिंहकी दाढ़के समान अग्रभागवाला बाण । ७. जिसका अग्रभाग क्षुरेकी धारके समान हो, उस बाणको ‘क्षुर’ कहते हैं ।
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वीरशयने शिश्येऽविज्यमाविध्य कार्मुकम् ।
भिन्नमुष्टिपरीणाहं त्रिनतं रुक्मभूषितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
स वीरशयने शिश्येऽविज्यमाविध्य कार्मुकम् ।
भिन्नमुष्टिपरीणाहं त्रिनतं रुक्मभूषितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी प्रत्यञ्चा चढ़ी हुई थी, किंतु मुट्ठीका बन्धन ढीला पड़ गया था, जो दोनों पार्श्वभाग और मध्यभाग तीनों स्थानोंमें झुका हुआ तथा सुवर्णसे भूषित था, उस धनुषको त्यागकर भगवान् श्रीराम वीरशय्यापर सोये हुए थे ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाणपातान्तरे रामं पतितं पुरुषर्षभम् ।
स तत्र लक्ष्मणो दृष्ट्वा निराशो जीवितेऽभवत् ॥ २५ ॥
मूलम्
बाणपातान्तरे रामं पतितं पुरुषर्षभम् ।
स तत्र लक्ष्मणो दृष्ट्वा निराशो जीवितेऽभवत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फेंका हुआ बाण जितनी दूरीपर गिरता है, अपनेसे उतनी ही दूरीपर धरतीपर पड़े हुए पुरुषप्रवर श्रीरामको देखकर लक्ष्मण वहाँ अपने जीवनसे निराश हो गये ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं कमलपत्राक्षं शरण्यं रणतोषिणम् ।
शुशोच भ्रातरं दृष्ट्वा पतितं धरणीतले ॥ २६ ॥
मूलम्
रामं कमलपत्राक्षं शरण्यं रणतोषिणम् ।
शुशोच भ्रातरं दृष्ट्वा पतितं धरणीतले ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबको शरण देनेवाले और युद्धसे संतुष्ट होनेवाले अपने भाई कमलनयन श्रीरामको पृथ्वीपर पड़ा देख लक्ष्मणको बड़ा शोक हुआ ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरयश्चापि तं दृष्ट्वा सन्तापं परमं गताः ।
शोकार्ताश्चुक्रुशुर्घोरमश्रुपूरितलोचनाः ॥ २७ ॥
मूलम्
हरयश्चापि तं दृष्ट्वा सन्तापं परमं गताः ।
शोकार्ताश्चुक्रुशुर्घोरमश्रुपूरितलोचनाः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें उस अवस्थामें देखकर वानरोंको भी बड़ा संताप हुआ । वे शोकसे आतुर हो नेत्रोंमें आँसू भरकर घोर आर्तनाद करने लगे ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बद्धौ तु तौ वीरशये शयानौ
ते वानराः सम्परिवार्य तस्थुः ।
समागता वायुसुतप्रमुख्या
विषादमार्ताः परमं च जग्मुः ॥ २८ ॥
मूलम्
बद्धौ तु तौ वीरशये शयानौ
ते वानराः सम्परिवार्य तस्थुः ।
समागता वायुसुतप्रमुख्या
विषादमार्ताः परमं च जग्मुः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नागपाशमें बँधकर वीरशय्यापर सोये हुए उन दोनों भाइयोंको चारों ओरसे घेरकर सब वानर खड़े हो गये । वहाँ आये हुए हनुमान् आदि मुख्य-मुख्य वानर व्यथित हो बड़े विषादमें पड़ गये ॥ २८ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे पञ्चचत्वारिंशः सर्गः ॥ ४५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें पैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४५ ॥