०४० सुग्रीवेण रावणोत्प्लवः

वाचनम्
भागसूचना
  1. सुग्रीव और रावणका मल्लयुद्ध
विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रामः सुवेलाग्रं योजनद्वयमण्डलम् ।
उपारोहत् ससुग्रीवो हरियूथैः समन्वितः ॥ १ ॥

मूलम्

ततो रामः सुवेलाग्रं योजनद्वयमण्डलम् ।
उपारोहत् ससुग्रीवो हरियूथैः समन्वितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वानरयूथोंसे युक्त सुग्रीवसहित श्रीराम सुवेल पर्वतके सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़े, जिसका विस्तार दो योजनका था ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थित्वा मुहूर्तं तत्रैव दिशो दश विलोकयन् ।
त्रिकूटशिखरे रम्ये निर्मितां विश्वकर्मणा ॥ २ ॥
ददर्श लङ्कां सुन्यस्तां रम्यकाननशोभिताम् ।

मूलम्

स्थित्वा मुहूर्तं तत्रैव दिशो दश विलोकयन् ।
त्रिकूटशिखरे रम्ये निर्मितां विश्वकर्मणा ॥ २ ॥
ददर्श लङ्कां सुन्यस्तां रम्यकाननशोभिताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ दो घड़ी ठहरकर दसों दिशाओंकी ओर दृष्टिपात करते हुए श्रीरामने त्रिकूट पर्वतके रमणीय शिखरपर सुन्दर ढंगसे बसी हुई विश्वकर्माद्वारा निर्मित लङ्कापुरीको देखा, जो मनोहर काननोंसे सुशोभित थी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य गोपुरशृङ्गस्थं राक्षसेन्द्रं दुरासदम् ॥ ३ ॥
श्वेतचामरपर्यन्तं विजयच्छत्रशोभितम् ।
रक्तचन्दनसंलिप्तं रत्नाभरणभूषितम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्य गोपुरशृङ्गस्थं राक्षसेन्द्रं दुरासदम् ॥ ३ ॥
श्वेतचामरपर्यन्तं विजयच्छत्रशोभितम् ।
रक्तचन्दनसंलिप्तं रत्नाभरणभूषितम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरके गोपुरकी छतपर उन्हें दुर्जय राक्षसराज रावण बैठा दिखायी दिया, जिसके दोनों ओर श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, सिरपर विजय-छत्र शोभा दे रहा था । रावणका सारा शरीर रक्तचन्दनसे चर्चित था । उसके अङ्ग लाल रंगके आभूषणोंसे विभूषित थे ॥ ३-४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीलजीमूतसङ्काशं हेमसञ्छादिताम्बरम् ।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम् ॥ ५ ॥

मूलम्

नीलजीमूतसङ्काशं हेमसञ्छादिताम्बरम् ।
ऐरावतविषाणाग्रैरुत्कृष्टकिणवक्षसम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह काले मेघके समान जान पड़ता था । उसके वस्त्रोंपर सोनेके काम किये गये थे । ऐरावत हाथीके दाँतोंके अग्रभागसे आहत होनेके कारण उसके वक्षःस्थलमें आघातचिह्न बन गया था ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशलोहितरागेण संवीतं रक्तवाससा ।
सन्ध्यातपेन सञ्छन्नं मेघराशिमिवाम्बरे ॥ ६ ॥

मूलम्

शशलोहितरागेण संवीतं रक्तवाससा ।
सन्ध्यातपेन सञ्छन्नं मेघराशिमिवाम्बरे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खरगोशके रक्तके समान लाल रंगसे रँगे हुए वस्त्रसे आच्छादित होकर वह आकाशमें संध्याकालकी धूपसे ढकी हुई मेघमालाके समान दिखायी देता था ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्यतां वानरेन्द्राणां राघवस्यापि पश्यतः ।
दर्शनाद् राक्षसेन्द्रस्य सुग्रीवः सहसोत्थितः ॥ ७ ॥

मूलम्

पश्यतां वानरेन्द्राणां राघवस्यापि पश्यतः ।
दर्शनाद् राक्षसेन्द्रस्य सुग्रीवः सहसोत्थितः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुख्य-मुख्य वानरों तथा श्रीरघुनाथजीके सामने ही राक्षसराज रावणपर दृष्टि पड़ते ही सुग्रीव सहसा खड़े हो गये ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधवेगेन संयुक्तः सत्त्वेन च बलेन च ।
अचलाग्रादथोत्थाय पुप्लुवे गोपुरस्थले ॥ ८ ॥

मूलम्

क्रोधवेगेन संयुक्तः सत्त्वेन च बलेन च ।
अचलाग्रादथोत्थाय पुप्लुवे गोपुरस्थले ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे क्रोधके वेगसे युक्त और शारीरिक एवं मानसिक बलसे प्रेरित हो सुवेलके शिखरसे उठकर उस गोपुरकी छतपर कूद पड़े ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थित्वा मुहूर्तं सम्प्रेक्ष्य निर्भयेनान्तरात्मना ।
तृणीकृत्य च तद् रक्षः सोऽब्रवीत् परुषं वचः ॥ ९ ॥

मूलम्

स्थित्वा मुहूर्तं सम्प्रेक्ष्य निर्भयेनान्तरात्मना ।
तृणीकृत्य च तद् रक्षः सोऽब्रवीत् परुषं वचः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ खड़े होकर वे कुछ देर तो रावणको देखते रहे । फिर निर्भय चित्तसे उस राक्षसको तिनकेके समान समझकर वे कठोर वाणीमें बोले— ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकनाथस्य रामस्य सखा दासोऽस्मि राक्षस ।
न मया मोक्ष्यसेऽद्य त्वं पार्थिवेन्द्रस्य तेजसा ॥ १० ॥

मूलम्

लोकनाथस्य रामस्य सखा दासोऽस्मि राक्षस ।
न मया मोक्ष्यसेऽद्य त्वं पार्थिवेन्द्रस्य तेजसा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राक्षस! मैं लोकनाथ भगवान् श्रीरामका सखा और दास हूँ । महाराज श्रीरामके तेजसे आज तू मेरे हाथसे छूट नहीं सकेगा’ ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा सहसोत्पत्य पुप्लुवे तस्य चोपरि ।
आकृष्य मुकुटं चित्रं पातयामास तद् भुवि ॥ ११ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा सहसोत्पत्य पुप्लुवे तस्य चोपरि ।
आकृष्य मुकुटं चित्रं पातयामास तद् भुवि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर वे अकस्मात् उछलकर रावणके ऊपर जा कूदे और उसके विचित्र मुकुटोंको खींचकर उन्होंने पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीक्ष्य तूर्णमायान्तं बभाषे तं निशाचरः ।
सुग्रीवस्त्वं परोक्षं मे हीनग्रीवो भविष्यसि ॥ १२ ॥

मूलम्

समीक्ष्य तूर्णमायान्तं बभाषे तं निशाचरः ।
सुग्रीवस्त्वं परोक्षं मे हीनग्रीवो भविष्यसि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें इस प्रकार तीव्र गतिसे अपने ऊपर आक्रमण करते देख रावणने कहा—‘अरे! जबतक तू मेरे सामने नहीं आया था, तभीतक सुग्रीव (सुन्दर कण्ठसे युक्त) था । अब तो तू अपनी इस ग्रीवासे रहित हो जायगा’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वोत्थाय तं क्षिप्रं बाहुभ्यामाक्षिपत् तले ।
कन्दुवत् स समुत्थाय बाहुभ्यामाक्षिपद्धरिः ॥ १३ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वोत्थाय तं क्षिप्रं बाहुभ्यामाक्षिपत् तले ।
कन्दुवत् स समुत्थाय बाहुभ्यामाक्षिपद्धरिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर रावणने अपनी दो भुजाओंद्वारा उन्हें शीघ्र ही उठाकर उस छतकी फर्शपर दे मारा । फिर वानरराज सुग्रीवने भी गेंदकी तरह उछलकर रावणको दोनों भुजाओंसे उठा लिया और उसी फर्शपर जोरसे पटक दिया ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परं स्वेदविदिग्धगात्रौ
परस्परं शोणितरक्तदेहौ ।
परस्परं श्लिष्टनिरुद्धचेष्टौ
परस्परं शाल्मलिकिंशुकाविव ॥ १४ ॥

मूलम्

परस्परं स्वेदविदिग्धगात्रौ
परस्परं शोणितरक्तदेहौ ।
परस्परं श्लिष्टनिरुद्धचेष्टौ
परस्परं शाल्मलिकिंशुकाविव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो वे दोनों आपसमें गुँथ गये । दोनोंके ही शरीर पसीनेसे तर और खूनसे लथपथ हो गये तथा दोनों ही एक-दूसरेकी पकड़में आनेके कारण निश्चेष्ट होकर खिले हुए सेमल और पलाश नामक वृक्षोंके समान दिखायी देने लगे ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुष्टिप्रहारैश्च तलप्रहारै-
ररत्निघातैश्च कराग्रघातैः ।
तौ चक्रतुर्युद्धमसह्यरूपं
महाबलौ राक्षसवानरेन्द्रौ ॥ १५ ॥

मूलम्

मुष्टिप्रहारैश्च तलप्रहारै-
ररत्निघातैश्च कराग्रघातैः ।
तौ चक्रतुर्युद्धमसह्यरूपं
महाबलौ राक्षसवानरेन्द्रौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज रावण और वानरराज सुग्रीव दोनों ही बड़े बलवान् थे, अतः दोनों घूँसे, थप्पड़, कोहनी और पंजोंकी मारके साथ बड़ा असह्य युद्ध करने लगे ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा नियुद्धं भृशमुग्रवेगौ
कालं चिरं गोपुरवेदिमध्ये ।
उत्क्षिप्य चोत्क्षिप्य विनम्य देहौ
पादक्रमाद् गोपुरवेदिलग्नौ ॥ १६ ॥

मूलम्

कृत्वा नियुद्धं भृशमुग्रवेगौ
कालं चिरं गोपुरवेदिमध्ये ।
उत्क्षिप्य चोत्क्षिप्य विनम्य देहौ
पादक्रमाद् गोपुरवेदिलग्नौ ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोपुरके चबूतरेपर बहुत देरतक भारी मल्लयुद्ध करके वे भयानक वेगवाले दोनों वीर बार-बार एक-दूसरेको उछालते और झुकाते हुए पैरोंको विशेष दाँव-पेंचके साथ चलाते-चलाते उस चबूतरेसे जा लगे ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यमापीड्य विलग्नदेहौ
तौ पेततुः सालनिखातमध्ये ।
उत्पेततुर्भूमितलं स्पृशन्तौ
स्थित्वा मुहूर्तं त्वभिनिःश्वसन्तौ ॥ १७ ॥

मूलम्

अन्योन्यमापीड्य विलग्नदेहौ
तौ पेततुः सालनिखातमध्ये ।
उत्पेततुर्भूमितलं स्पृशन्तौ
स्थित्वा मुहूर्तं त्वभिनिःश्वसन्तौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरेको दबाकर परस्पर सटे हुए शरीरवाले वे दोनों योद्धा किलेके परकोटे और खाईंके बीचमें गिर गये । वहाँ हाँफते हुए दो घड़ीतक पृथ्वीका आलिङ्गन किये पड़े रहे । तत्पश्चात् उछलकर खड़े हो गये ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आलिङ्‍ग्य चालिङ्‍ग्य च बाहुयोक्त्रैः
संयोजयामासतुराहवे तौ ।
संरम्भशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ
सुचेरतुः सम्प्रति युद्धमार्गैः ॥ १८ ॥

मूलम्

आलिङ्‍ग्य चालिङ्‍ग्य च बाहुयोक्त्रैः
संयोजयामासतुराहवे तौ ।
संरम्भशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ
सुचेरतुः सम्प्रति युद्धमार्गैः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वे एक-दूसरेका बार-बार आलिङ्गन करके उसे बाहुपाशमें जकड़ने लगे । दोनों ही क्रोध, शिक्षा (मल्लयुद्ध-विषयक अभ्यास) तथा शारीरिक बलसे सम्पन्न थे; अतः उस युद्धस्थलमें कुश्तीके अनेक दाँव-पेंच दिखाते हुए भ्रमण करने लगे ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शार्दूलसिंहाविव जातदंष्ट्रौ
गजेन्द्रपोताविव सम्प्रयुक्तौ ।
संहत्य संवेद्य च तौ कराभ्यां
तौ पेततुर्वै युगपद् धरायाम् ॥ १९ ॥

मूलम्

शार्दूलसिंहाविव जातदंष्ट्रौ
गजेन्द्रपोताविव सम्प्रयुक्तौ ।
संहत्य संवेद्य च तौ कराभ्यां
तौ पेततुर्वै युगपद् धरायाम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके नये-नये दाँत निकले हों, ऐसे बाघ और सिंहके बच्चों तथा परस्पर लड़ते हुए गजराजके छोटे छौनोंके समान वे दोनों वीर अपने वक्षःस्थलसे एक-दूसरेको दबाते और हाथोंसे परस्पर बल आजमाते हुए एक साथ ही पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यम्य चान्योन्यमधिक्षिपन्तौ
सञ्चक्रमाते बहु युद्धमार्गे ।
व्यायामशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ
क्लमं न तौ जग्मतुराशु वीरौ ॥ २० ॥

मूलम्

उद्यम्य चान्योन्यमधिक्षिपन्तौ
सञ्चक्रमाते बहु युद्धमार्गे ।
व्यायामशिक्षाबलसम्प्रयुक्तौ
क्लमं न तौ जग्मतुराशु वीरौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों ही कसरती जवान थे और युद्धकी शिक्षा तथा बलसे सम्पन्न थे । अतः युद्ध जीतनेके लिये उद्यमशील हो एक-दूसरेपर आक्षेप करते हुए युद्धमार्गपर अनेक प्रकारसे विचरण करते थे तथापि उन वीरोंको जल्दी थकावट नहीं होती थी ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहूत्तमैर्वारणवारणाभै-
र्निवारयन्तौ परवारणाभौ ।
चिरेण कालेन भृशं प्रयुद्धौ
सञ्चेरतुर्मण्डलमार्गमाशु ॥ २१ ॥

मूलम्

बाहूत्तमैर्वारणवारणाभै-
र्निवारयन्तौ परवारणाभौ ।
चिरेण कालेन भृशं प्रयुद्धौ
सञ्चेरतुर्मण्डलमार्गमाशु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मतवाले हाथियोंके समान सुग्रीव और रावण गजराजके शुण्ड-दण्डकी भाँति मोटे एवं बलिष्ठ बाहुदण्डोंद्वारा एक-दूसरेके दाँवको रोकते हुए बहुत देरतक बड़े आवेशके साथ युद्ध करते और शीघ्रतापूर्वक पैंतरे बदलते रहे ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ परस्परमासाद्य यत्तावन्योन्यसूदने ।
मार्जाराविव भक्षार्थेऽवतस्थाते मुहुर्मुहुः ॥ २२ ॥

मूलम्

तौ परस्परमासाद्य यत्तावन्योन्यसूदने ।
मार्जाराविव भक्षार्थेऽवतस्थाते मुहुर्मुहुः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे परस्पर भिड़कर एक-दूसरेको मार डालनेका प्रयत्न कर रहे थे । जैसे दो बिलाव किसी भक्ष्य वस्तुके लिये क्रोधपूर्वक स्थित हो परस्पर दृष्टिपात कर बारंबार गुर्राते रहते हैं, उसी तरह रावण और सुग्रीव भी लड़ रहे थे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मण्डलानि विचित्राणि स्थानानि विविधानि च ।
गोमूत्रकाणि चित्राणि गतप्रत्यागतानि च ॥ २३ ॥

मूलम्

मण्डलानि विचित्राणि स्थानानि विविधानि च ।
गोमूत्रकाणि चित्राणि गतप्रत्यागतानि च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विचित्र मण्डल१ और भाँति-भाँतिके स्थानका२ प्रदर्शन करते हुए गोमूत्रकी रेखाके समान कुटिल गतिसे चलते और विचित्र रीतिसे कभी आगे बढ़ते और कभी पीछे हटते थे ॥ २३ ॥

पादटिप्पनी

१. भरतने मल्लयुद्धमें चार प्रकारके मण्डल बताये हैं । इनके नाम हैं—चारिमण्डल, करणमण्डल, खण्डमण्डल और महामण्डल । इनके लक्षण इस प्रकार हैं—एक पैरसे आगे बढ़कर चक्कर काटते हुए शत्रुपर आक्रमण करना चारिमण्डल कहलाता है । दो पैरसे मण्डलाकार घूमते हुए आक्रमण करना करणमण्डल कहा गया है । अनेक करणमण्डलोंका संयोग होनेसे खण्डमण्डल होता है और तीन या चार खण्डमण्डलोंके संयोगसे महामण्डल कहा गया है ।
२. भरत मुनिने मल्लयुद्धमें छः स्थानोंका उल्लेख किया है—वैष्णव, समपाद, वैशाख, मण्डल, प्रत्यालीढ़ और अनालीढ़ । पैरोंको आगे-पीछे अगल-बगलमें चलाते हुए विशेष प्रकारसे उन्हें यथास्थान स्थापित करना ही स्थान कहलाता है । कोई-कोई बाघ, सिंह आदि जन्तुओंके समान खड़े होनेकी रीतिको ही स्थान कहते हैं ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तिरश्चीनगतान्येव तथा वक्रगतानि च ।
परिमोक्षं प्रहाराणां वर्जनं परिधावनम् ॥ २४ ॥
अभिद्रवणमाप्लावमवस्थानं सविग्रहम् ।
परावृत्तमपावृत्तमपद्रुतमवप्लुतम् ॥ २५ ॥
उपन्यस्तमपन्यस्तं युद्धमार्गविशारदौ ।
तौ विचेरतुरन्योन्यं वानरेन्द्रश्च रावणः ॥ २६ ॥

मूलम्

तिरश्चीनगतान्येव तथा वक्रगतानि च ।
परिमोक्षं प्रहाराणां वर्जनं परिधावनम् ॥ २४ ॥
अभिद्रवणमाप्लावमवस्थानं सविग्रहम् ।
परावृत्तमपावृत्तमपद्रुतमवप्लुतम् ॥ २५ ॥
उपन्यस्तमपन्यस्तं युद्धमार्गविशारदौ ।
तौ विचेरतुरन्योन्यं वानरेन्द्रश्च रावणः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कभी तिरछी चालसे चलते, कभी टेढ़ी चालसे दायें-बायें घूम जाते, कभी अपने स्थानसे हटकर शत्रुके प्रहारको व्यर्थ कर देते, कभी बदलेमें स्वयं भी दाँव-पेंचका प्रयोग करके शत्रुके आक्रमणसे अपनेको बचा लेते, कभी एक खड़ा रहता तो दूसरा उसके चारों ओर दौड़ लगाता, कभी दोनों एक-दूसरेके सम्मुख शीघ्रतापूर्वक दौड़कर आक्रमण करते, कभी झुककर या मेढककी भाँति धीरेसे उछलकर चलते, कभी लड़ते हुए एक ही जगहपर स्थिर रहते, कभी पीछेकी ओर लौट पड़ते, कभी सामने खड़े-खड़े ही पीछे हटते, कभी विपक्षीको पकड़नेकी इच्छासे अपने शरीरको सिकोड़कर या झुकाकर उसकी ओर दौड़ते, कभी प्रतिद्वन्द्वीपर पैरसे प्रहार करनेके लिये नीचे मुँह किये उसपर टूट पड़ते, कभी प्रतिपक्षी योद्धाकी बाँह पकड़नेके लिये अपनी बाँह फैला देते और कभी विरोधीकी पकड़से बचनेके लिये अपनी बाहोंको पीछे खींच लेते । इस प्रकार मल्लयुद्धकी कलामें परम प्रवीण वानरराज सुग्रीव तथा रावण एक दूसरेपर आघात करनेके लिये मण्डलाकार विचर रहे थे ॥ २४—२६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नन्तरे रक्षो मायाबलमथात्मनः ।
आरब्धुमुपसम्पेदे ज्ञात्वा तं वानराधिपः ॥ २७ ॥
उत्पपात तदाऽऽकाशं जितकाशी जितक्लमः ।
रावणः स्थित एवात्र हरिराजेन वञ्चितः ॥ २८ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नन्तरे रक्षो मायाबलमथात्मनः ।
आरब्धुमुपसम्पेदे ज्ञात्वा तं वानराधिपः ॥ २७ ॥
उत्पपात तदाऽऽकाशं जितकाशी जितक्लमः ।
रावणः स्थित एवात्र हरिराजेन वञ्चितः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें राक्षस रावणने अपनी मायाशक्तिसे काम लेनेका विचार किया । वानरराज सुग्रीव इस बातको ताड़ गये; इसलिये सहसा आकाशमें उछल पड़े । वे विजयोल्लाससे सुशोभित होते थे और थकावटको जीत चुके थे । वानरराज रावणको चकमा देकर निकल गये और वह खड़ा-खड़ा देखता ही रह गय ॥ २७-२८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ हरिवरनाथः प्राप्तसङ्ग्रामकीर्ति-
र्निशिचरपतिमाजौ योजयित्वा श्रमेण ।
गगनमतिविशालं लङ्घयित्वार्कसूनु-
र्हरिगणबलमध्ये रामपार्श्वं जगाम ॥ २९ ॥

मूलम्

अथ हरिवरनाथः प्राप्तसङ्ग्रामकीर्ति-
र्निशिचरपतिमाजौ योजयित्वा श्रमेण ।
गगनमतिविशालं लङ्घयित्वार्कसूनु-
र्हरिगणबलमध्ये रामपार्श्वं जगाम ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें संग्राममें कीर्ति प्राप्त हुई थी, वे वानरराज सूर्यपुत्र सुग्रीव निशाचरपति रावणको युद्धमें थकाकर अत्यन्त विशाल आकाशमार्गका लङ्घन करके वानरोंकी सेनाके बीच श्रीरामचन्द्रजीके पास आ पहुँचे ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति स सवितृसूनुस्तत्र तत् कर्म कृत्वा
पवनगतिरनीकं प्राविशत् सम्प्रहृष्टः ।
रघुवरनृपसूनोर्वर्धयन् युद्धहर्षं
तरुमृगगणमुख्यैः पूज्यमानो हरीन्द्रः ॥ ३० ॥

मूलम्

इति स सवितृसूनुस्तत्र तत् कर्म कृत्वा
पवनगतिरनीकं प्राविशत् सम्प्रहृष्टः ।
रघुवरनृपसूनोर्वर्धयन् युद्धहर्षं
तरुमृगगणमुख्यैः पूज्यमानो हरीन्द्रः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वहाँ अद्भुत कर्म करके वायुके समान शीघ्रगामी सूर्यपुत्र सुग्रीवने दशरथराजकुमार श्रीरामके युद्धविषयक उत्साहको बढ़ाते हुए बड़े हर्षके साथ वानरसेनामें प्रवेश किया । उस समय प्रधान-प्रधान वानरोंने वानरराजका अभिनन्दन किया ॥ ३० ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये युद्धकाण्डे चत्वारिंशः सर्गः ॥ ४० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके युद्धकाण्डमें चालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ४० ॥