०२९ सीतया शुभशकुनानुभवः

वाचनम्
भागसूचना
  1. सीताजीके शुभ शकुन
विश्वास-प्रस्तुतिः

तथागतां तां व्यथितामनिन्दितां
व्यतीतहर्षां परिदीनमानसाम् ।
शुभां निमित्तानि शुभानि भेजिरे
नरं श्रिया जुष्टमिवोपसेविनः ॥ १ ॥

मूलम्

तथागतां तां व्यथितामनिन्दितां
व्यतीतहर्षां परिदीनमानसाम् ।
शुभां निमित्तानि शुभानि भेजिरे
नरं श्रिया जुष्टमिवोपसेविनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अशोकवृक्षके नीचे आनेपर बहुत-से शुभ शकुन प्रकट हो उन व्यथितहृदया, सती-साध्वी, हर्षशून्य, दीनचित्त तथा शुभलक्षणा सीताका उसी तरह सेवन करने लगे, जैसे श्रीसम्पन्न पुरुषके पास सेवा करनेवाले लोग स्वयं पहुँच जाते हैं ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः शुभं वाममरालपक्ष्म-
राज्यावृतं कृष्णविशालशुक्लम् ।
प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या
मीनाहतं पद्ममिवाभिताम्रम् ॥ २ ॥

मूलम्

तस्याः शुभं वाममरालपक्ष्म-
राज्यावृतं कृष्णविशालशुक्लम् ।
प्रास्पन्दतैकं नयनं सुकेश्या
मीनाहतं पद्ममिवाभिताम्रम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सुन्दर केशोंवाली सीताका बाँकी बरौनियोंसे घिरा हुआ परम मनोहर काला, श्वेत और विशाल बायाँ नेत्र फड़कने लगा । जैसे मछलीके आघातसे लाल कमल हिलने लगा हो ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुजश्च चार्वञ्चितवृत्तपीनः
परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्हः ।
अनुत्तमेनाघ्युषितः प्रियेण
चिरेण वामः समवेपताशु ॥ ३ ॥

मूलम्

भुजश्च चार्वञ्चितवृत्तपीनः
परार्घ्यकालागुरुचन्दनार्हः ।
अनुत्तमेनाघ्युषितः प्रियेण
चिरेण वामः समवेपताशु ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही उनकी सुन्दर प्रशंसित गोलाकार मोटी, बहुमूल्य काले अगुरु और चन्दनसे चर्चित होनेयोग्य तथा परम उत्तम प्रियतमद्वारा चिरकालसे सेवित बायीं भुजा भी तत्काल फड़क उठी ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजेन्द्रहस्तप्रतिमश्च पीन-
स्तयोर्द्वयोः संहतयोस्तु जातः ।
प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्या
रामं पुरस्तात् स्थितमाचचक्षे ॥ ४ ॥

मूलम्

गजेन्द्रहस्तप्रतिमश्च पीन-
स्तयोर्द्वयोः संहतयोस्तु जातः ।
प्रस्पन्दमानः पुनरूरुरस्या
रामं पुरस्तात् स्थितमाचचक्षे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उनकी परस्पर जुड़ी हुई दोनों जाँघोंमेंसे एक बायीं जाँघ, जो गजराजकी सूँड़के समान पीन (मोटी) थी, बारम्बार फड़ककर मानो यह सूचना देने लगी कि भगवान् श्रीराम तुम्हारे सामने खड़े हैं ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं पुनर्हेमसमानवर्ण-
मीषद्रजोध्वस्तमिवातुलाक्ष्याः ।
वासः स्थितायाः शिखराग्रदन्त्याः
किञ्चित् परिस्रंसत चारुगात्र्याः ॥ ५ ॥

मूलम्

शुभं पुनर्हेमसमानवर्ण-
मीषद्रजोध्वस्तमिवातुलाक्ष्याः ।
वासः स्थितायाः शिखराग्रदन्त्याः
किञ्चित् परिस्रंसत चारुगात्र्याः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अनारके बीजकी भाँति सुन्दर दाँत, मनोहर गात्र और अनुपम नेत्रवाली सीताका, जो वहाँ वृक्षके नीचे खड़ी थीं, सोनेके समान रंगवाला किंचित् मलिन रेशमी पीताम्बर तनिक-सा खिसक गया और भावी शुभकी सूचना देने लगा ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैर्निमित्तैरपरैश्च सुभ्रूः
सञ्चोदिता प्रागपि साधुसिद्धैः ।
वातातपक्लान्तमिव प्रणष्टं
वर्षेण बीजं प्रतिसञ्जहर्ष ॥ ६ ॥

मूलम्

एतैर्निमित्तैरपरैश्च सुभ्रूः
सञ्चोदिता प्रागपि साधुसिद्धैः ।
वातातपक्लान्तमिव प्रणष्टं
वर्षेण बीजं प्रतिसञ्जहर्ष ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनसे तथा और भी अनेक शकुनोंसे, जिनके द्वारा पहले भी मनोरथसिद्धिका परिचय मिल चुका था, प्रेरित हुई सुन्दर भौंहोंवाली सीता उसी प्रकार हर्षसे खिल उठीं, जैसे हवा और धूपसे सूखकर नष्ट हुआ बीज वर्षाके जलसे सिंचकर हरा हो गया हो ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याः पुनर्बिम्बफलोपमोष्ठं
स्वक्षिभ्रुकेशान्तमरालपक्ष्म ।
वक्त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्रं
राहोर्मुखाच्चन्द्र इव प्रमुक्तः ॥ ७ ॥

मूलम्

तस्याः पुनर्बिम्बफलोपमोष्ठं
स्वक्षिभ्रुकेशान्तमरालपक्ष्म ।
वक्त्रं बभासे सितशुक्लदंष्ट्रं
राहोर्मुखाच्चन्द्र इव प्रमुक्तः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका बिम्बफलके समान लाल ओठों, सुन्दर नेत्रों, मनोहर भौंहों, रुचिर केशों, बाँकी बरौनियों तथा श्वेत, उज्ज्वल दाँतोंसे सुशोभित मुख राहुके ग्राससे मुक्त हुए चन्द्रमाकी भाँति प्रकाशित होने लगा ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वीतशोका व्यपनीततन्द्रा
शान्तज्वरा हर्षविबुद्धसत्त्वा ।
अशोभतार्या वदनेन शुक्ले
शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन ॥ ८ ॥

मूलम्

सा वीतशोका व्यपनीततन्द्रा
शान्तज्वरा हर्षविबुद्धसत्त्वा ।
अशोभतार्या वदनेन शुक्ले
शीतांशुना रात्रिरिवोदितेन ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका शोक जाता रहा, सारी थकावट दूर हो गयी, मनका ताप शान्त हो गया और हृदय हर्षसे खिल उठा । उस समय आर्या सीता शुक्लपक्षमें उदित हुए शीतरश्मि चन्द्रमासे सुशोभित रात्रिकी भाँति अपने मनोहर मुखसे अद्भुत शोभा पाने लगीं ॥ ८ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकोनत्रिंशः सर्गः ॥ २९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें उनतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २९ ॥