वाचनम्
भागसूचना
- सीताका करुण-विलाप तथा अपने प्राणोंको त्याग देनेका निश्चय करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसक्ताश्रुमुखी त्वेवं ब्रुवती जनकात्मजा ।
अधोगतमुखी बाला विलप्तुमुपचक्रमे ॥ १ ॥
उन्मत्तेव प्रमत्तेव भ्रान्तचित्तेव शोचती ।
उपावृत्ता किशोरीव विचेष्टन्ती महीतले ॥ २ ॥
मूलम्
प्रसक्ताश्रुमुखी त्वेवं ब्रुवती जनकात्मजा ।
अधोगतमुखी बाला विलप्तुमुपचक्रमे ॥ १ ॥
उन्मत्तेव प्रमत्तेव भ्रान्तचित्तेव शोचती ।
उपावृत्ता किशोरीव विचेष्टन्ती महीतले ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनकनन्दिनी सीताके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी । उन्होंने अपना मुख नीचेकी ओर झुका लिया था । वे उपर्युक्त बातें कहती हुई ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन्मत्त हो गयी हों—उनपर भूत सवार हो गया हो अथवा पित्त बढ़ जानेसे पागलोंका-सा प्रलाप कर रही हों अथवा दिग्भ्रम आदिके कारण, उनका चित्त भ्रान्त हो गया हो । वे शोकमग्न हो धरतीपर लोटती हुई बछेड़ीके समान पड़ी-पड़ी छटपटा रही थीं । उसी अवस्थामें सरलहृदया सीताने इस प्रकार विलाप करना आरम्भ किया— ॥ १-२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राघवस्य प्रमत्तस्य रक्षसा कामरूपिणा ।
रावणेन प्रमथ्याहमानीता क्रोशती बलात् ॥ ३ ॥
मूलम्
राघवस्य प्रमत्तस्य रक्षसा कामरूपिणा ।
रावणेन प्रमथ्याहमानीता क्रोशती बलात् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले राक्षस मारीचके द्वारा जब रघुनाथजी दूर हटा दिये गये और मेरी ओरसे असावधान हो गये, उस अवस्थामें रावण मुझ रोती, चिल्लाती हुई अबलाको बलपूर्वक उठाकर यहाँ ले आया ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसीवशमापन्ना भर्त्स्यमाना च दारुणम् ।
चिन्तयन्ती सुदुःखार्ता नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ४ ॥
मूलम्
राक्षसीवशमापन्ना भर्त्स्यमाना च दारुणम् ।
चिन्तयन्ती सुदुःखार्ता नाहं जीवितुमुत्सहे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब मैं राक्षसियोंके वशमें पड़ी हूँ और इनकी कठोर धमकियाँ सुनती एवं सहती हूँ । ऐसी दशामें अत्यन्त दुःखसे आर्त एवं चिन्तित होकर मैं जीवित नहीं रह सकती ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहि मे जीवितेनार्थो नैवार्थैर्न च भूषणैः ।
वसन्त्या राक्षसीमध्ये विना रामं महारथम् ॥ ५ ॥
मूलम्
नहि मे जीवितेनार्थो नैवार्थैर्न च भूषणैः ।
वसन्त्या राक्षसीमध्ये विना रामं महारथम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महारथी श्रीरामके बिना राक्षसियोंके बीचमें रहकर मुझे न तो जीवनसे कोई प्रयोजन है, न धनकी आवश्यकता है और न आभूषणोंसे ही कोई काम है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्मसारमिदं नूनमथवाप्यजरामरम् ।
हृदयं मम येनेदं न दुःखेन विशीर्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
अश्मसारमिदं नूनमथवाप्यजरामरम् ।
हृदयं मम येनेदं न दुःखेन विशीर्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अवश्य ही मेरा यह हृदय लोहेका बना हुआ है अथवा अजर-अमर है, जिससे इस महान् दुःखमें पड़कर भी यह फटता नहीं है ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिङ्मामनार्यामसतीं याहं तेन विना कृता ।
मुहूर्तमपि जीवामि जीवितं पापजीविका ॥ ७ ॥
मूलम्
धिङ्मामनार्यामसतीं याहं तेन विना कृता ।
मुहूर्तमपि जीवामि जीवितं पापजीविका ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं बड़ी ही अनार्य और असती हूँ, मुझे धिक्कार है, जो उनसे अलग होकर मैं एक मुहूर्त भी इस पापी जीवनको धारण किये हूँ । अब तो यह जीवन केवल दुःख देनेके लिये ही है ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम् ।
रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम् ॥ ८ ॥
मूलम्
चरणेनापि सव्येन न स्पृशेयं निशाचरम् ।
रावणं किं पुनरहं कामयेयं विगर्हितम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस लोकनिन्दित निशाचर रावणको तो मैं बायें पैरसे भी नहीं छू सकती, फिर उसे चाहनेकी तो बात ही क्या है? ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्याख्यानं न जानाति नात्मानं नात्मनः कुलम् ।
यो नृशंसस्वभावेन मां प्रार्थयितुमिच्छति ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रत्याख्यानं न जानाति नात्मानं नात्मनः कुलम् ।
यो नृशंसस्वभावेन मां प्रार्थयितुमिच्छति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह राक्षस अपने क्रूर स्वभावके कारण न तो मेरे इनकारपर ध्यान देता है, न अपने महत्त्वको समझता है और न अपने कुलकी प्रतिष्ठाका ही विचार करता है । बारम्बार मुझे प्राप्त करनेकी ही इच्छा करता है ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिन्ना भिन्ना प्रभिन्ना वा दीप्ता वाग्नौ प्रदीपिता ।
रावणं नोपतिष्ठेयं किं प्रलापेन वश्चिरम् ॥ १० ॥
मूलम्
छिन्ना भिन्ना प्रभिन्ना वा दीप्ता वाग्नौ प्रदीपिता ।
रावणं नोपतिष्ठेयं किं प्रलापेन वश्चिरम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसियो! तुम्हारे देरतक बकवाद करनेसे क्या लाभ? तुम मुझे छेदो, चीरो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो, आगमें सेंक दो अथवा सर्वथा जलाकर भस्म कर डालो तो भी मैं रावणके पास नहीं फटक सकती ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ख्यातः प्राज्ञः कृतज्ञश्च सानुक्रोशश्च राघवः ।
सद्वृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसङ्क्षयात् ॥ ११ ॥
मूलम्
ख्यातः प्राज्ञः कृतज्ञश्च सानुक्रोशश्च राघवः ।
सद्वृत्तो निरनुक्रोशः शङ्के मद्भाग्यसङ्क्षयात् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरघुनाथजी विश्वविख्यात ज्ञानी, कृतज्ञ, सदाचारी और परम दयालु हैं तथापि मुझे संदेह हो रहा है कि कहीं वे मेरे भाग्यके नष्ट हो जानेसे मेरे प्रति निर्दय तो नहीं हो गये? ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राक्षसानां जनस्थाने सहस्राणि चतुर्दश ।
एकेनैव निरस्तानि स मां किं नाभिपद्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
राक्षसानां जनस्थाने सहस्राणि चतुर्दश ।
एकेनैव निरस्तानि स मां किं नाभिपद्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अन्यथा जिन्होंने जनस्थानमें अकेले ही चौदह हजार राक्षसोंको कालके गालमें डाल दिया, वे मेरे पास क्यों नहीं आ रहे हैं? ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निरुद्धा रावणेनाहमल्पवीर्येण रक्षसा ।
समर्थः खलु मे भर्ता रावणं हन्तुमाहवे ॥ १३ ॥
मूलम्
निरुद्धा रावणेनाहमल्पवीर्येण रक्षसा ।
समर्थः खलु मे भर्ता रावणं हन्तुमाहवे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस अल्प बलवाले राक्षस रावणने मुझे कैद कर रखा है । निश्चय ही मेरे पतिदेव समरांगणमें इस रावणका वध करनेमें समर्थ हैं ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विराधो दण्डकारण्ये येन राक्षसपुङ्गवः ।
रणे रामेण निहतः स मां किं नाभिपद्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
विराधो दण्डकारण्ये येन राक्षसपुङ्गवः ।
रणे रामेण निहतः स मां किं नाभिपद्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन श्रीरामने दण्डकारण्यके भीतर राक्षसशिरोमणि विराधको युद्धमें मार डाला था, वे मेरी रक्षा करनेके लिये यहाँ क्यों नहीं आ रहे हैं? ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं मध्ये समुद्रस्य लङ्केयं दुष्प्रधर्षणा ।
न तु राघवबाणानां गतिरोधो भविष्यति ॥ १५ ॥
मूलम्
कामं मध्ये समुद्रस्य लङ्केयं दुष्प्रधर्षणा ।
न तु राघवबाणानां गतिरोधो भविष्यति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह लङ्का समुद्रके बीचमें बसी है, अतः किसी दूसरेके लिये यहाँ आक्रमण करना भले ही कठिन हो; किंतु श्रीरघुनाथजीके बाणोंकी गति यहाँ भी कुण्ठित नहीं हो सकती ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु तत् कारणं येन रामो दृढपराक्रमः ।
रक्षसापहृतां भार्यामिष्टां यो नाभिपद्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
किं नु तत् कारणं येन रामो दृढपराक्रमः ।
रक्षसापहृतां भार्यामिष्टां यो नाभिपद्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह कौन-सा कारण है, जिससे बाधित होकर सुदृढ़ पराक्रमी श्रीराम राक्षसद्वारा अपहृत हुई अपनी प्राणपत्नी सीताको छुड़ानेके लिये नहीं आ रहे हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहस्थां मां न जानीते शङ्के लक्ष्मणपूर्वजः ।
जानन्नपि स तेजस्वी धर्षणां मर्षयिष्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
इहस्थां मां न जानीते शङ्के लक्ष्मणपूर्वजः ।
जानन्नपि स तेजस्वी धर्षणां मर्षयिष्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे तो संदेह होता है कि लक्ष्मणजीके ज्येष्ठ भ्राता श्रीरामचन्द्रजीको मेरे इस लङ्कामें होनेका पता ही नहीं है । मेरे यहाँ होनेकी बात यदि वे जानते होते तो उनके-जैसा तेजस्वी पुरुष अपनी पत्नीका यह तिरस्कार कैसे सह सकता था? ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृतेति मां योऽधिगत्य राघवाय निवेदयेत् ।
गृध्रराजोऽपि स रणे रावणेन निपातितः ॥ १८ ॥
मूलम्
हृतेति मां योऽधिगत्य राघवाय निवेदयेत् ।
गृध्रराजोऽपि स रणे रावणेन निपातितः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो श्रीरघुनाथजीको मेरे हरे जानेकी सूचना दे सकते थे, उन गृध्रराज जटायुको भी रावणने युद्धमें मार गिराया था ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं कर्म महत् तेन मां तथाभ्यवपद्यता ।
तिष्ठता रावणवधे वृद्धेनापि जटायुषा ॥ १९ ॥
मूलम्
कृतं कर्म महत् तेन मां तथाभ्यवपद्यता ।
तिष्ठता रावणवधे वृद्धेनापि जटायुषा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जटायु यद्यपि बूढ़े थे तो भी मुझपर अनुग्रह करके रावणका वध करनेके लिये उद्यत हो उन्होंने बहुत बड़ा पुरुषार्थ किया था ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि मामिह जानीयाद् वर्तमानां हि राघवः ।
अद्य बाणैरभिक्रुद्धः कुर्याल्लोकमराक्षसम् ॥ २० ॥
मूलम्
यदि मामिह जानीयाद् वर्तमानां हि राघवः ।
अद्य बाणैरभिक्रुद्धः कुर्याल्लोकमराक्षसम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि श्रीरघुनाथजीको मेरे यहाँ रहनेका पता लग जाता तो वे आज ही कुपित होकर सारे संसारको राक्षसोंसे शून्य कर डालते ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्दहेच्च पुरीं लङ्कां निर्दहेच्च महोदधिम् ।
रावणस्य च नीचस्य कीर्तिं नाम च नाशयेत् ॥ २१ ॥
मूलम्
निर्दहेच्च पुरीं लङ्कां निर्दहेच्च महोदधिम् ।
रावणस्य च नीचस्य कीर्तिं नाम च नाशयेत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लङ्कापुरीको भी जला देते, महासागरको भी भस्म कर डालते तथा इस नीच निशाचर रावणके नाम और यशका भी नाश कर देते ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निहतनाथानां राक्षसीनां गृहे गृहे ।
यथाहमेवं रुदती तथा भूयो न संशयः ॥ २२ ॥
मूलम्
ततो निहतनाथानां राक्षसीनां गृहे गृहे ।
यथाहमेवं रुदती तथा भूयो न संशयः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर तो निःसंदेह अपने पतियोंका संहार हो जानेसे घर-घरमें राक्षसियोंका इसी प्रकार क्रन्दन होता, जैसे आज मैं रो रही हूँ ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्विष्य रक्षसां लङ्कां कुर्याद् रामः सलक्ष्मणः ।
नहि ताभ्यां रिपुर्दृष्टो मुहूर्तमपि जीवति ॥ २३ ॥
मूलम्
अन्विष्य रक्षसां लङ्कां कुर्याद् रामः सलक्ष्मणः ।
नहि ताभ्यां रिपुर्दृष्टो मुहूर्तमपि जीवति ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीराम और लक्ष्मण लङ्काका पता लगाकर निश्चय ही राक्षसोंका संहार करेंगे । जिस शत्रुको उन दोनों भाइयोंने एक बार देख लिया, वह दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकता ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिताधूमाकुलपथा गृध्रमण्डलमण्डिता ।
अचिरेणैव कालेन श्मशानसदृशी भवेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
चिताधूमाकुलपथा गृध्रमण्डलमण्डिता ।
अचिरेणैव कालेन श्मशानसदृशी भवेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब थोड़े ही समयमें यह लङ्कापुरी श्मशान-भूमिके समान हो जायगी । यहाँकी सड़कोंपर चिताका धुआँ फैल रहा होगा और गीधोंकी जमातें इस भूमिकी शोभा बढ़ाती होंगी ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिरेणैव कालेन प्राप्स्याम्येनं मनोरथम् ।
दुष्प्रस्थानोऽयमाभाति सर्वेषां वो विपर्ययः ॥ २५ ॥
मूलम्
अचिरेणैव कालेन प्राप्स्याम्येनं मनोरथम् ।
दुष्प्रस्थानोऽयमाभाति सर्वेषां वो विपर्ययः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह समय शीघ्र आनेवाला है जब कि मेरा यह मनोरथ पूर्ण होगा । तुम सब लोगोंका यह दुराचार तुम्हारे लिये शीघ्र ही विपरीत परिणाम उपस्थित करेगा, ऐसा स्पष्ट जान पड़ता है ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यादृशानि तु दृश्यन्ते लङ्कायामशुभानि तु ।
अचिरेणैव कालेन भविष्यति हतप्रभा ॥ २६ ॥
मूलम्
यादृशानि तु दृश्यन्ते लङ्कायामशुभानि तु ।
अचिरेणैव कालेन भविष्यति हतप्रभा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘लङ्कामें जैसे-जैसे अशुभ लक्षण दिखायी दे रहे हैं, उनसे जान पड़ता है कि अब शीघ्र ही इसकी चमक-दमक नष्ट हो जायगी ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं लङ्का हते पापे रावणे राक्षसाधिपे ।
शोषमेष्यति दुर्धर्षा प्रमदा विधवा यथा ॥ २७ ॥
मूलम्
नूनं लङ्का हते पापे रावणे राक्षसाधिपे ।
शोषमेष्यति दुर्धर्षा प्रमदा विधवा यथा ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पापाचारी राक्षसराज रावणके मारे जानेपर यह दुर्धर्ष लङ्कापुरी भी निश्चय ही विधवा युवतीकी भाँति सूख जायगी, नष्ट हो जायगी ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्योत्सवसमृद्धा च नष्टभर्त्री सराक्षसा ।
भविष्यति पुरी लङ्का नष्टभर्त्री यथाङ्गना ॥ २८ ॥
मूलम्
पुण्योत्सवसमृद्धा च नष्टभर्त्री सराक्षसा ।
भविष्यति पुरी लङ्का नष्टभर्त्री यथाङ्गना ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज जिस लङ्कामें पुण्यमय उत्सव होते हैं, वह राक्षसोंके सहित अपने स्वामीके नष्ट हो जानेपर विधवा स्त्रीके समान श्रीहीन हो जायगी ॥ २८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं राक्षसकन्यानां रुदतीनां गृहे गृहे ।
श्रोष्यामि नचिरादेव दुःखार्तानामिह ध्वनिम् ॥ २९ ॥
मूलम्
नूनं राक्षसकन्यानां रुदतीनां गृहे गृहे ।
श्रोष्यामि नचिरादेव दुःखार्तानामिह ध्वनिम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निश्चय ही मैं बहुत शीघ्र लङ्काके घर-घरमें दुःखसे आतुर होकर रोती हुई राक्षस कन्याओंकी क्रन्दन-ध्वनि सुनूँगी ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्धकारा हतद्योता हतराक्षसपुङ्गवा ।
भविष्यति पुरी लङ्का निर्दग्धा रामसायकैः ॥ ३० ॥
मूलम्
सान्धकारा हतद्योता हतराक्षसपुङ्गवा ।
भविष्यति पुरी लङ्का निर्दग्धा रामसायकैः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘श्रीरामचन्द्रजीके सायकोंसे दग्ध हो जानेके कारण लङ्कापुरीकी प्रभा नष्ट हो जायगी । इसमें अन्धकार छा जायगा और यहाँके सभी प्रमुख राक्षस कालके गालमें चले जायँगे ॥ ३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नाम स शूरो मां रामो रक्तान्तलोचनः ।
जानीयाद् वर्तमानां यां राक्षसस्य निवेशने ॥ ३१ ॥
मूलम्
यदि नाम स शूरो मां रामो रक्तान्तलोचनः ।
जानीयाद् वर्तमानां यां राक्षसस्य निवेशने ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सब तभी सम्भव होगा, जब कि लाल नेत्रप्रान्तवाले शूरवीर भगवान् श्रीरामको यह पता लग जाय कि मैं राक्षसके अन्तःपुरमें बंदी बनाकर रखी गयी हूँ ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेन तु नृशंसेन रावणेनाधमेन मे ।
समयो यस्तु निर्दिष्टस्तस्य कालोऽयमागतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनेन तु नृशंसेन रावणेनाधमेन मे ।
समयो यस्तु निर्दिष्टस्तस्य कालोऽयमागतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस नीच और नृशंस रावणने मेरे लिये जो समय नियत किया है, उसकी पूर्ति भी निकट भविष्यमें ही हो जायगी ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुष्टेन वर्तते ।
अकार्यं ये न जानन्ति नैर्ऋताः पापकारिणः ॥ ३३ ॥
मूलम्
स च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुष्टेन वर्तते ।
अकार्यं ये न जानन्ति नैर्ऋताः पापकारिणः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसी समय दुष्ट रावणने मेरे वधका निश्चय किया है । ये पापाचारी राक्षस इतना भी नहीं जानते हैं कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं ॥ ३३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मात् तु महोत्पातो भविष्यति हि साम्प्रतम् ।
नैते धर्मं विजानन्ति राक्षसाः पिशिताशनाः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अधर्मात् तु महोत्पातो भविष्यति हि साम्प्रतम् ।
नैते धर्मं विजानन्ति राक्षसाः पिशिताशनाः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय अधर्मसे ही महान् उत्पात होनेवाला है । ये मांसभक्षी राक्षस धर्मको बिलकुल नहीं जानते हैं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रुवं मां प्रातराशार्थं राक्षसः कल्पयिष्यति ।
साहं कथं करिष्यामि तं विना प्रियदर्शनम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
ध्रुवं मां प्रातराशार्थं राक्षसः कल्पयिष्यति ।
साहं कथं करिष्यामि तं विना प्रियदर्शनम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह राक्षस अवश्य ही अपने कलेवेके लिये मेरे शरीरके टुकड़े-टुकड़े करा डालेगा । उस समय अपने प्रियदर्शन पतिके बिना मैं असहाय अबला क्या करूँगी? ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामं रक्तान्तनयनमपश्यन्ती सुदुःखिता ।
क्षिप्रं वैवस्वतं देवं पश्येयं पतिना विना ॥ ३६ ॥
मूलम्
रामं रक्तान्तनयनमपश्यन्ती सुदुःखिता ।
क्षिप्रं वैवस्वतं देवं पश्येयं पतिना विना ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनके नेत्रप्रान्त अरुण वर्णके हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन न पाकर अत्यन्त दुःखमें पड़ी हुई मुझ असहाय अबलाको पतिका चरणस्पर्श किये बिना ही शीघ्र यमदेवताका दर्शन करना पड़ेगा ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाजानाज्जीवतीं रामः स मां भरतपूर्वजः ।
जानन्तौ तु न कुर्यातां नोर्व्यां हि परिमार्गणम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
नाजानाज्जीवतीं रामः स मां भरतपूर्वजः ।
जानन्तौ तु न कुर्यातां नोर्व्यां हि परिमार्गणम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतके बड़े भाई भगवान् श्रीराम यह नहीं जानते हैं कि मैं जीवित हूँ । यदि उन्हें इस बातका पता होता तो ऐसा सम्भव नहीं था कि वे पृथ्वीपर मेरी खोज नहीं करते ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं ममैव शोकेन स वीरो लक्ष्मणाग्रजः ।
देवलोकमितो यातस्त्यक्त्वा देहं महीतले ॥ ३८ ॥
मूलम्
नूनं ममैव शोकेन स वीरो लक्ष्मणाग्रजः ।
देवलोकमितो यातस्त्यक्त्वा देहं महीतले ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे तो यह निश्चित जान पड़ता है कि मेरे ही शोकसे लक्ष्मणके बड़े भाई वीरवर श्रीराम भूतलपर अपने शरीरका त्याग करके यहाँसे देवलोकको चले गये हैं ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
धन्या देवाः सगन्धर्वाः सिद्धाश्च परमर्षयः ।
मम पश्यन्ति ये वीरं रामं राजीवलोचनम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे देवता, गन्धर्व, सिद्ध और महर्षिगण धन्य हैं, जो मेरे पतिदेव वीर-शिरोमणि कमलनयन श्रीरामका दर्शन पा रहे हैं ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा नहि तस्यार्थो धर्मकामस्य धीमतः ।
मया रामस्य राजर्षेर्भार्यया परमात्मनः ॥ ४० ॥
मूलम्
अथवा नहि तस्यार्थो धर्मकामस्य धीमतः ।
मया रामस्य राजर्षेर्भार्यया परमात्मनः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा केवल धर्मकी कामना रखनेवाले परमात्मस्वरूप बुद्धिमान् राजर्षि श्रीरामको भार्यासे कोई प्रयोजन नहीं है (इसलिये वे मेरी सुध नहीं ले रहे हैं) ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृश्यमाने भवेत् प्रीतिः सौहृदं नास्त्यदृश्यतः ।
नाशयन्ति कृतघ्नास्तु न रामो नाशयिष्यति ॥ ४१ ॥
मूलम्
दृश्यमाने भवेत् प्रीतिः सौहृदं नास्त्यदृश्यतः ।
नाशयन्ति कृतघ्नास्तु न रामो नाशयिष्यति ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो स्वजन अपनी दृष्टिके सामने होते हैं, उन्हींपर प्रीति बनी रहती है । जो आँखसे ओझल होते हैं, उनपर लोगोंका स्नेह नहीं रहता है (शायद इसीलिये श्रीरघुनाथजी मुझे भूल गये हैं, परंतु यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि) कृतघ्न मनुष्य ही पीठ-पीछे प्रेमको ठुकरा देते हैं । भगवान् श्रीराम ऐसा नहीं करेंगे ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं वा मय्यगुणाः केचित् किं वा भाग्यक्षयो हि मे ।
या हि सीता वरार्हेण हीना रामेण भामिनी ॥ ४२ ॥
मूलम्
किं वा मय्यगुणाः केचित् किं वा भाग्यक्षयो हि मे ।
या हि सीता वरार्हेण हीना रामेण भामिनी ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा मुझमें कोई दुर्गुण हैं या मेरा भाग्य ही फूट गया है, जिससे इस समय मैं मानिनी सीता अपने परम पूजनीय पति श्रीरामसे बिछुड़ गयी हूँ ॥ ४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रेयो मे जीवितान्मर्तुं विहीनाया महात्मना ।
रामादक्लिष्टचारित्राच्छूराच्छत्रुनिबर्हणात् ॥ ४३ ॥
मूलम्
श्रेयो मे जीवितान्मर्तुं विहीनाया महात्मना ।
रामादक्लिष्टचारित्राच्छूराच्छत्रुनिबर्हणात् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे पति भगवान् श्रीरामका सदाचार अक्षुण्ण है । वे शूरवीर होनेके साथ ही शत्रुओंका संहार करनेमें समर्थ हैं । मैं उनसे संरक्षण पानेके योग्य हूँ, परंतु उन महात्मासे बिछुड़ गयी । ऐसी दशामें जीवित रहनेकी अपेक्षा मर जाना ही मेरे लिये श्रेयस्कर है ॥ ४३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा न्यस्तशस्त्रौ तौ वने मूलफलाशनौ ।
भ्रातरौ हि नरश्रेष्ठौ चरन्तौ वनगोचरौ ॥ ४४ ॥
मूलम्
अथवा न्यस्तशस्त्रौ तौ वने मूलफलाशनौ ।
भ्रातरौ हि नरश्रेष्ठौ चरन्तौ वनगोचरौ ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा वनमें फल-मूल खाकर विचरनेवाले वे दोनों वनवासी बन्धु नरश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण अब अहिंसाका व्रत लेकर अपने अस्त्र-शस्त्रोंका परित्याग कर चुके हैं ॥ ४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना ।
छद्मना घातितौ शूरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४५ ॥
मूलम्
अथवा राक्षसेन्द्रेण रावणेन दुरात्मना ।
छद्मना घातितौ शूरौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा दुरात्मा राक्षसराज रावणने उन दोनों शूरवीर बन्धु श्रीराम और लक्ष्मणको छलसे मरवा डाला है ॥ ४५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहमेवंविधे काले मर्तुमिच्छामि सर्वतः ।
न च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुःखेऽतिवर्तति ॥ ४६ ॥
मूलम्
साहमेवंविधे काले मर्तुमिच्छामि सर्वतः ।
न च मे विहितो मृत्युरस्मिन् दुःखेऽतिवर्तति ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः ऐसे समयमें मैं सब प्रकारसे अपने जीवनका अन्त कर देनेकी इच्छा रखती हूँ; परंतु मालूम होता है इस महान् दुःखमें होते हुए भी अभी मेरी मृत्यु नहीं लिखी है ॥ ४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः ।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये ॥ ४७ ॥
मूलम्
धन्याः खलु महात्मानो मुनयः सत्यसम्मताः ।
जितात्मानो महाभागा येषां न स्तः प्रियाप्रिये ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यस्वरूप परमात्माको ही अपना आत्मा माननेवाले और अपने अन्तःकरणको वशमें रखनेवाले वे महाभाग महात्मा महर्षिगण धन्य हैं, जिनके कोई प्रिय और अप्रिय नहीं हैं ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियान्न सम्भवेद् दुःखमप्रियादधिकं भवेत् ।
ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
प्रियान्न सम्भवेद् दुःखमप्रियादधिकं भवेत् ।
ताभ्यां हि ते वियुज्यन्ते नमस्तेषां महात्मनाम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिन्हें प्रियके वियोगसे दुःख नहीं होता और अप्रियका संयोग प्राप्त होनेपर उससे भी अधिक कष्टका अनुभव नहीं होता—इस प्रकार जो प्रिय और अप्रिय दोनोंसे परे हैं, उन महात्माओंको मेरा नमस्कार है ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहं त्यक्ता प्रियेणैव रामेण विदितात्मना ।
प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
साहं त्यक्ता प्रियेणैव रामेण विदितात्मना ।
प्राणांस्त्यक्ष्यामि पापस्य रावणस्य गता वशम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अपने प्रियतम आत्मज्ञानी भगवान् श्रीरामसे बिछुड़ गयी हूँ और पापी रावणके चंगुलमें आ फँसी हूँ; अतः अब इन प्राणोंका परित्याग कर दूँगी’ ॥ ४९ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे षड्विंशः सर्गः ॥ २६ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें छब्बीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २६ ॥