वाचनम्
भागसूचना
- राक्षसियोंकी बात माननेसे इनकार करके शोक-संतप्त सीताका विलाप करना
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तासां वदन्तीनां परुषं दारुणं बहु ।
राक्षसीनामसौम्यानां रुरोद जनकात्मजा ॥ १ ॥
मूलम्
अथ तासां वदन्तीनां परुषं दारुणं बहु ।
राक्षसीनामसौम्यानां रुरोद जनकात्मजा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे क्रूर राक्षसियाँ इस प्रकारकी बहुत-सी कठोर एवं क्रूरतापूर्ण बातें कह रही थीं, उस समय जनकनन्दिनी सीता अधीर हो-होकर रो रही थीं ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु वैदेही राक्षसीभिर्मनस्विनी ।
उवाच परमत्रस्ता बाष्पगद्गदया गिरा ॥ २ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु वैदेही राक्षसीभिर्मनस्विनी ।
उवाच परमत्रस्ता बाष्पगद्गदया गिरा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन राक्षसियोंके इस प्रकार कहनेपर अत्यन्त भयभीत हुई मनस्विनी विदेहराजकुमारी सीता नेत्रोंसे आँसू बहाती गद्गद वाणीमें बोलीं— ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति ।
कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः ॥ ३ ॥
मूलम्
न मानुषी राक्षसस्य भार्या भवितुमर्हति ।
कामं खादत मां सर्वा न करिष्यामि वो वचः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राक्षसियो! मनुष्यकी कन्या कभी राक्षसकी भार्या नहीं हो सकती । तुम्हारा जी चाहे तो तुम सब लोग मिलकर मुझे खा जाओ, परंतु मैं तुम्हारी बात नहीं मानूँगी’ ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा राक्षसीमध्यगता सीता सुरसुतोपमा ।
न शर्म लेभे शोकार्ता रावणेनेव भर्त्सिता ॥ ४ ॥
मूलम्
सा राक्षसीमध्यगता सीता सुरसुतोपमा ।
न शर्म लेभे शोकार्ता रावणेनेव भर्त्सिता ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसियोंके बीचमें बैठी हुई देवकन्याके समान सुन्दरी सीता रावणके द्वारा धमकायी जानेके कारण शोकसे आर्त-सी होकर चैन नहीं पा रही थीं ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेपते स्माधिकं सीता विशन्तीवाङ्गमात्मनः ।
वने यूथपरिभ्रष्टा मृगी कोकैरिवार्दिता ॥ ५ ॥
मूलम्
वेपते स्माधिकं सीता विशन्तीवाङ्गमात्मनः ।
वने यूथपरिभ्रष्टा मृगी कोकैरिवार्दिता ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वनमें अपने यूथसे बिछुड़ी हुई मृगी भेड़ियोंसे पीड़ित होकर भयके मारे काँप रही हो, उसी प्रकार सीता जोर-जोरसे काँप रही थीं और इस तरह सिकुड़ी जा रही थीं, मानो अपने अंगोंमें ही समा जायँगी ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा त्व् अशोकस्य विपुलां
शाखामालम्ब्य पुष्पिताम् ।
चिन्तयाम् आस शोकेन
भर्तारं भग्नमानसा ॥ ६ ॥
मूलम्
सा त्वशोकस्य विपुलां शाखामालम्ब्य पुष्पिताम् ।
चिन्तयामास शोकेन भर्तारं भग्नमानसा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका मनोरथ भंग हो गया था । वे हताश-सी होकर अशोकवृक्षकी खिली हुई एक विशाल शाखाका सहारा ले शोकसे पीड़ित हो अपने पतिदेवका चिन्तन करने लगीं ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा स्नापयन्ती विपुलौ स्तनौ नेत्रजलस्रवैः ।
चिन्तयन्ती न शोकस्य तदान्तमधिगच्छति ॥ ७ ॥
मूलम्
सा स्नापयन्ती विपुलौ स्तनौ नेत्रजलस्रवैः ।
चिन्तयन्ती न शोकस्य तदान्तमधिगच्छति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आँसुओंके प्रवाहसे अपने स्थूल उरोजोंका अभिषेक करती हुई वे चिन्तामें डूबी थीं और उस समय शोकका पार नहीं पा रही थीं ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा वेपमाना पतिता प्रवाते कदली यथा ।
राक्षसीनां भयत्रस्ता विवर्णवदनाभवत् ॥ ८ ॥
मूलम्
सा वेपमाना पतिता प्रवाते कदली यथा ।
राक्षसीनां भयत्रस्ता विवर्णवदनाभवत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रचण्ड वायुके चलनेपर कम्पित होकर गिरे हुए केलेके वृक्षकी भाँति वे राक्षसियोंके भयसे त्रस्त हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं । उस समय उनके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी ॥ ८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याः सा दीर्घबहुला वेपन्त्याः सीतया तदा ।
ददृशे कम्पिता वेणी व्यालीव परिसर्पती ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्याः सा दीर्घबहुला वेपन्त्याः सीतया तदा ।
ददृशे कम्पिता वेणी व्यालीव परिसर्पती ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बेलामें काँपती हुई सीताकी विशाल एवं घनीभूत वेणी भी कम्पित हो रही थी, इसलिये वह रेंगती हुई सर्पिणीके समान दिखायी देती थी ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा निःश्वसन्ती शोकार्ता कोपोपहतचेतना ।
आर्ता व्यसृजदश्रूणि मैथिली विललाप च ॥ १० ॥
मूलम्
सा निःश्वसन्ती शोकार्ता कोपोपहतचेतना ।
आर्ता व्यसृजदश्रूणि मैथिली विललाप च ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे शोकसे पीड़ित होकर लम्बी साँसें खींच रही थीं और क्रोधसे अचेत-सी होकर आर्तभावसे आँसू बहा रही थीं । उस समय मिथिलेशकुमारी इस प्रकार विलाप करने लगीं— ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा रामेति च दुःखार्ता हा पुनर्लक्ष्मणेति च ।
हा श्वश्रूर्मम कौसल्ये हा सुमित्रेति भामिनी ॥ ११ ॥
मूलम्
हा रामेति च दुःखार्ता हा पुनर्लक्ष्मणेति च ।
हा श्वश्रूर्मम कौसल्ये हा सुमित्रेति भामिनी ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हा राम! हा लक्ष्मण! हा मेरी सासु कौसल्ये! हा आर्ये सुमित्रे! बारम्बार ऐसा कहकर दुःखसे पीड़ित हुई भामिनी सीता रोने-बिलखने लगीं ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकप्रवादः सत्योऽयं पण्डितैः समुदाहृतः ।
अकाले दुर्लभो मृत्युः स्त्रिया वा पुरुषस्य वा ॥ १२ ॥
मूलम्
लोकप्रवादः सत्योऽयं पण्डितैः समुदाहृतः ।
अकाले दुर्लभो मृत्युः स्त्रिया वा पुरुषस्य वा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हाय! पण्डितोंने यह लोकोक्ति ठीक ही कही है कि ‘किसी भी स्त्री या पुरुषकी मृत्यु बिना समय आये नहीं होती’ ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्राहमाभिः क्रूराभी राक्षसीभिरिहार्दिता ।
जीवामि हीना रामेण मुहूर्तमपि दुःखिता ॥ १३ ॥
मूलम्
यत्राहमाभिः क्रूराभी राक्षसीभिरिहार्दिता ।
जीवामि हीना रामेण मुहूर्तमपि दुःखिता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तभी तो मैं श्रीरामके दर्शनसे वञ्चित तथा इन क्रूर राक्षसियोंद्वारा पीड़ित होनेपर भी यहाँ मुहूर्तभर भी जी रही हूँ ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषाल्पपुण्या कृपणा विनशिष्याम्यनाथवत् ।
समुद्रमध्ये नौः पूर्णा वायुवेगैरिवाहता ॥ १४ ॥
मूलम्
एषाल्पपुण्या कृपणा विनशिष्याम्यनाथवत् ।
समुद्रमध्ये नौः पूर्णा वायुवेगैरिवाहता ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने पूर्वजन्ममें बहुत थोड़े पुण्य किये थे, इसीलिये इस दीन दशामें पड़कर मैं अनाथकी भाँति मारी जाऊँगी । जैसे समुद्रके भीतर सामानसे भरी हुई नौका वायुके वेगसे आहत हो डूब जाती है, उसी प्रकार मैं भी नष्ट हो जाऊँगी ॥ १४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्तारं तमपश्यन्ती राक्षसीवशमागता ।
सीदामि खलु शोकेन कूलं तोयहतं यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
भर्तारं तमपश्यन्ती राक्षसीवशमागता ।
सीदामि खलु शोकेन कूलं तोयहतं यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे पतिदेवके दर्शन नहीं हो रहे हैं । मैं इन राक्षसियोंके चंगुलमें फँस गयी हूँ और पानीके थपेड़ोंसे आहत हो कटते हुए कगारोंके समान शोकसे क्षीण होती जा रही हूँ ॥ १५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं पद्मदलपत्राक्षं सिंहविक्रान्तगामिनम् ।
धन्याः पश्यन्ति मे नाथं कृतज्ञं प्रियवादिनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
तं पद्मदलपत्राक्षं सिंहविक्रान्तगामिनम् ।
धन्याः पश्यन्ति मे नाथं कृतज्ञं प्रियवादिनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज जिन लोगोंको सिंहके समान पराक्रमी और सिंहकी-सी चालवाले मेरे कमलदललोचन, कृतज्ञ और प्रियवादी प्राणनाथके दर्शन हो रहे हैं, वे धन्य हैं ॥ १६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा तेन हीनाया रामेण विदितात्मना ।
तीक्ष्णं विषमिवास्वाद्य दुर्लभं मम जीवनम् ॥ १७ ॥
मूलम्
सर्वथा तेन हीनाया रामेण विदितात्मना ।
तीक्ष्णं विषमिवास्वाद्य दुर्लभं मम जीवनम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उन आत्मज्ञानी भगवान् श्रीरामसे बिछुड़कर मेरा जीवित रहना उसी तरह सर्वथा दुर्लभ है, जैसे तेज विषका पान करके किसीका भी जीना अत्यन्त कठिन हो जाता है ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशं तु महापापं मया देहान्तरे कृतम् ।
तेनेदं प्राप्यते घोरं महादुःखं सुदारुणम् ॥ १८ ॥
मूलम्
कीदृशं तु महापापं मया देहान्तरे कृतम् ।
तेनेदं प्राप्यते घोरं महादुःखं सुदारुणम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पता नहीं, मैंने पूर्वजन्ममें दूसरे शरीरसे कैसा महान् पाप किया था, जिससे यह अत्यन्त कठोर, घोर और महान् दुःख मुझे प्राप्त हुआ है? ॥ १८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं त्यक्तुमिच्छामि शोकेन महता वृता ।
राक्षसीभिश्च रक्षन्त्या रामो नासाद्यते मया ॥ १९ ॥
मूलम्
जीवितं त्यक्तुमिच्छामि शोकेन महता वृता ।
राक्षसीभिश्च रक्षन्त्या रामो नासाद्यते मया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन राक्षसियोंके संरक्षणमें रहकर तो मैं अपने प्राणाराम श्रीरामको कदापि नहीं पा सकती, इसलिये महान् शोकसे घिर गयी हूँ और इससे तंग आकर अपने जीवनका अन्त कर देना चाहती हूँ ॥ १९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिगस्तु खलु मानुष्यं धिगस्तु परवश्यताम् ।
न शक्यं यत् परित्यक्तुमात्मच्छन्देन जीवितम् ॥ २० ॥
मूलम्
धिगस्तु खलु मानुष्यं धिगस्तु परवश्यताम् ।
न शक्यं यत् परित्यक्तुमात्मच्छन्देन जीवितम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस मानव-जीवन और परतन्त्रताको धिक्कार है, जहाँ अपनी इच्छाके अनुसार प्राणोंका परित्याग भी नहीं किया जा सकता’ ॥ २० ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चविंशः सर्गः ॥ २५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ २५ ॥