०१९ रावणेन सीतादर्शनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. रावणको देखकर दुःख, भय और चिन्तामें डूबी हुई सीताकी अवस्थाका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नेव ततः काले राजपुत्री त्वनिन्दिता ।
रूपयौवनसम्पन्नं भूषणोत्तमभूषितम् ॥ १ ॥
ततो दृष्ट्वैव वैदेही रावणं राक्षसाधिपम् ।
प्रावेपत वरारोहा प्रवाते कदली यथा ॥ २ ॥

मूलम्

तस्मिन्नेव ततः काले राजपुत्री त्वनिन्दिता ।
रूपयौवनसम्पन्नं भूषणोत्तमभूषितम् ॥ १ ॥
ततो दृष्ट्वैव वैदेही रावणं राक्षसाधिपम् ।
प्रावेपत वरारोहा प्रवाते कदली यथा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अनिन्दिता सुन्दरी राजकुमारी सीताने जब उत्तमोत्तम आभूषणोंसे विभूषित तथा रूप-यौवनसे सम्पन्न राक्षसराज रावणको आते देखा, तब वे प्रचण्ड हवामें हिलनेवाली कदलीके समान भयके मारे थर-थर काँपने लगीं ॥ १-२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊरुभ्यामुदरं छाद्य बाहुभ्यां च पयोधरौ ।
उपविष्टा विशालाक्षी रुदती वरवर्णिनी ॥ ३ ॥

मूलम्

ऊरुभ्यामुदरं छाद्य बाहुभ्यां च पयोधरौ ।
उपविष्टा विशालाक्षी रुदती वरवर्णिनी ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर कान्तिवाली विशाललोचना जानकीने अपनी जाँघोंसे पेट और दोनों भुजाओंसे स्तन छिपा लिये तथा वहाँ बैठी-बैठी वे रोने लगीं ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दशग्रीवस्तु वैदेहीं रक्षितां राक्षसीगणैः ।
ददर्श दीनां दुःखार्तां नावं सन्नामिवार्णवे ॥ ४ ॥
असंवृतायामासीनां धरण्यां संशितव्रताम् ।
छिन्नां प्रपतितां भूमौ शाखामिव वनस्पतेः ॥ ५ ॥

मूलम्

दशग्रीवस्तु वैदेहीं रक्षितां राक्षसीगणैः ।
ददर्श दीनां दुःखार्तां नावं सन्नामिवार्णवे ॥ ४ ॥
असंवृतायामासीनां धरण्यां संशितव्रताम् ।
छिन्नां प्रपतितां भूमौ शाखामिव वनस्पतेः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसियोंके पहरेमें रहती हुई विदेहराजकुमारी सीता अत्यन्त दीन और दुःखी हो रही थीं । वे समुद्रमें जीर्ण-शीर्ण होकर डूबी हुई नौकाके समान दुःखके सागरमें निमग्न थीं । उस अवस्थामें दशमुख रावणने उनकी ओर देखा । वे बिना बिछौनेके खुली जमीनपर बैठी थीं और कटकर पृथ्वीपर गिरी हुई वृक्षकी शाखाके समान जान पड़ती थीं । उनके द्वारा बड़े कठोर व्रतका पालन किया जा रहा था ॥ ४-५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मलमण्डनदिग्धाङ्गीं मण्डनार्हाममण्डनाम् ।
मृणाली पङ्कदिग्धेव विभाति न विभाति च ॥ ६ ॥

मूलम्

मलमण्डनदिग्धाङ्गीं मण्डनार्हाममण्डनाम् ।
मृणाली पङ्कदिग्धेव विभाति न विभाति च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके अंगोंमें अंगरागकी जगह मैल जमी हुई थी । वे आभूषण धारण तथा शृंगार करनेयोग्य होनेपर भी उन सबसे वञ्चित थीं और कीचड़में सनी हुई कमलनालकी भाँति शोभा पाती थीं तथा नहीं भी पाती थीं (कमलनाल जैसे सुकुमारताके कारण शोभा पाती है और कीचड़में सनी रहनेके कारण शोभा नहीं पाती, वैसे ही वे अपने सहज सौन्दर्यसे सुशोभित थीं, किंतु मलिनताके कारण शोभा नहीं देती थीं ।) ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीपं राजसिंहस्य रामस्य विदितात्मनः ।
सङ्कल्पहयसंयुक्तैर्यान्तीमिव मनोरथैः ॥ ७ ॥

मूलम्

समीपं राजसिंहस्य रामस्य विदितात्मनः ।
सङ्कल्पहयसंयुक्तैर्यान्तीमिव मनोरथैः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संकल्पोंके घोड़ोंसे जुते हुए मनोमय रथपर चढ़कर आत्मज्ञानी राजसिंह भगवान् श्रीरामके पास जाती हुई-सी प्रतीत होती थीं ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुष्यन्तीं रुदतीमेकां ध्यानशोकपरायणाम् ।
दुःखस्यान्तमपश्यन्तीं रामां राममनुव्रताम् ॥ ८ ॥

मूलम्

शुष्यन्तीं रुदतीमेकां ध्यानशोकपरायणाम् ।
दुःखस्यान्तमपश्यन्तीं रामां राममनुव्रताम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका शरीर सूखता जा रहा था । वे अकेली बैठकर रोती तथा श्रीरामचन्द्रजीके ध्यान एवं उनके वियोगके शोकमें डूबी रहती थीं । उन्हें अपने दुःखका अन्त नहीं दिखायी देता था । वे श्रीरामचन्द्रजीमें अनुराग रखनेवाली तथा उनकी रमणीय भार्या थीं ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चेष्टमानामथाविष्टां पन्नगेन्द्रवधूमिव ।
धूप्यमानां ग्रहेणेव रोहिणीं धूमकेतुना ॥ ९ ॥

मूलम्

चेष्टमानामथाविष्टां पन्नगेन्द्रवधूमिव ।
धूप्यमानां ग्रहेणेव रोहिणीं धूमकेतुना ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे नागराजकी वधू (नागिन) मणि-मन्त्रादिसे अभिभूत हो छटपटाने लगती है, उसी तरह सीता भी पतिके वियोगमें तड़प रही थीं तथा धूमके समान वर्णवाले केतुग्रहसे ग्रस्त हुई रोहिणीके समान संतप्त हो रही थीं ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तशीले कुले जातामाचारवति धार्मिके ।
पुनः संस्कारमापन्नां जातामिव च दुष्कुले ॥ १० ॥

मूलम्

वृत्तशीले कुले जातामाचारवति धार्मिके ।
पुनः संस्कारमापन्नां जातामिव च दुष्कुले ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि सदाचारी और सुशील कुलमें उनका जन्म हुआ था । फिर धार्मिक तथा उत्तम आचार-विचारवाले कुलमें वे ब्याही गयी थीं—विवाह-संस्कारसे सम्पन्न हुई थीं, तथापि दूषित कुलमें उत्पन्न हुई नारीके समान मलिन दिखायी देती थीं ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्नामिव महाकीर्तिं श्रद्धामिव विमानिताम् ।
प्रज्ञामिव परिक्षीणामाशां प्रतिहतामिव ॥ ११ ॥
आयतीमिव विध्वस्तामाज्ञां प्रतिहतामिव ।
दीप्तामिव दिशं काले पूजामपहतामिव ॥ १२ ॥
पौर्णमासीमिव निशां तमोग्रस्तेन्दुमण्डलाम् ।
पद्मिनीमिव विध्वस्तां हतशूरां चमूमिव ॥ १३ ॥
प्रभामिव तमोध्वस्तामुपक्षीणामिवापगाम् ।
वेदीमिव परामृष्टां शान्तामग्निशिखामिव ॥ १४ ॥

मूलम्

सन्नामिव महाकीर्तिं श्रद्धामिव विमानिताम् ।
प्रज्ञामिव परिक्षीणामाशां प्रतिहतामिव ॥ ११ ॥
आयतीमिव विध्वस्तामाज्ञां प्रतिहतामिव ।
दीप्तामिव दिशं काले पूजामपहतामिव ॥ १२ ॥
पौर्णमासीमिव निशां तमोग्रस्तेन्दुमण्डलाम् ।
पद्मिनीमिव विध्वस्तां हतशूरां चमूमिव ॥ १३ ॥
प्रभामिव तमोध्वस्तामुपक्षीणामिवापगाम् ।
वेदीमिव परामृष्टां शान्तामग्निशिखामिव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे क्षीण हुई विशाल कीर्ति, तिरस्कृत हुई श्रद्धा, सर्वथा ह्रासको प्राप्त हुई बुद्धि, टूटी हुई आशा, नष्ट हुए भविष्य, उल्लङ्घित हुई राजाज्ञा, उत्पातकालमें दहकती हुई दिशा, नष्ट हुई देवपूजा, चन्द्रग्रहणसे मलिन हुई पूर्णमासीकी रात, तुषारपातसे जीर्ण-शीर्ण हुई कमलिनी, जिसका शूरवीर सेनापति मारा गया हो—ऐसी सेना, अन्धकारसे नष्ट हुई प्रभा, सूखी हुई सरिता, अपवित्र प्राणियोंके स्पर्शसे अशुद्ध हुई वेदी और बुझी हुई अग्निशिखाके समान प्रतीत होती थीं ॥ ११—१४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्कृष्टपर्णकमलां वित्रासितविहङ्गमाम् ।
हस्तिहस्तपरामृष्टामाकुलामिव पद्मिनीम् ॥ १५ ॥

मूलम्

उत्कृष्टपर्णकमलां वित्रासितविहङ्गमाम् ।
हस्तिहस्तपरामृष्टामाकुलामिव पद्मिनीम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे हाथीने अपनी सूँड़से हुँड़ेर डाला हो; अतएव जिसके पत्ते और कमल उखड़ गये हों तथा जलपक्षी भयसे थर्रा उठे हों, उस मथित एवं मलिन हुई पुष्करिणीके समान सीता श्रीहीन दिखायी देती थीं ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिशोकातुरां शुष्कां नदीं विस्रावितामिव ।
परया मृजया हीनां कृष्णपक्षे निशामिव ॥ १६ ॥

मूलम्

पतिशोकातुरां शुष्कां नदीं विस्रावितामिव ।
परया मृजया हीनां कृष्णपक्षे निशामिव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिके विरह-शोकसे उनका हृदय बड़ा व्याकुल था । जिसका जल नहरोंके द्वारा इधर-उधर निकाल दिया गया हो, ऐसी नदीके समान वे सूख गयी थीं तथा उत्तम उबटन आदिके न लगनेसे कृष्णपक्षकी रात्रिके समान मलिन हो रही थीं ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम् ।
तप्यमानामिवोष्णेन मृणालीमचिरोद‍्धृताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सुकुमारीं सुजाताङ्गीं रत्नगर्भगृहोचिताम् ।
तप्यमानामिवोष्णेन मृणालीमचिरोद‍्धृताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके अंग बड़े सुकुमार और सुन्दर थे । वे रत्नजटित राजमहलमें रहनेके योग्य थीं; परंतु गर्मीसे तपी और तुरंत तोड़कर फेंकी हुई कमलिनीके समान दयनीय दशाको पहुँच गयी थीं ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहीतामालितां स्तम्भे यूथपेन विनाकृताम् ।
निःश्वसन्तीं सुदुःखार्तां गजराजवधूमिव ॥ १८ ॥

मूलम्

गृहीतामालितां स्तम्भे यूथपेन विनाकृताम् ।
निःश्वसन्तीं सुदुःखार्तां गजराजवधूमिव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे यूथपतिसे अलग करके पकड़कर खंभेमें बाँध दिया गया हो, उस हथिनीके समान वे अत्यन्त दुःखसे आतुर होकर लम्बी साँस खींच रही थीं ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकया दीर्घया वेण्या शोभमानामयत्नतः ।
नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव ॥ १९ ॥

मूलम्

एकया दीर्घया वेण्या शोभमानामयत्नतः ।
नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना प्रयत्नके ही बँधी हुई एक ही लम्बी वेणीसे सीताकी वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे वर्षा-ऋतु बीत जानेपर सुदूरतक फैली हुई हरी-भरी वनश्रेणीसे पृथ्वी सुशोभित होती है ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपवासेन शोकेन ध्यानेन च भयेन च ।
परिक्षीणां कृशां दीनामल्पाहारां तपोधनाम् ॥ २० ॥

मूलम्

उपवासेन शोकेन ध्यानेन च भयेन च ।
परिक्षीणां कृशां दीनामल्पाहारां तपोधनाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे उपवास, शोक, चिन्ता और भयसे अत्यन्त क्षीण, कृशकाय और दीन हो गयी थीं । उनका आहार बहुत कम हो गया था तथा एकमात्र तप ही उनका धन था ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयाचमानां दुःखार्तां प्राञ्जलिं देवतामिव ।
भावेन रघुमुख्यस्य दशग्रीवपराभवम् ॥ २१ ॥

मूलम्

आयाचमानां दुःखार्तां प्राञ्जलिं देवतामिव ।
भावेन रघुमुख्यस्य दशग्रीवपराभवम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दुःखसे आतुर हो अपने कुलदेवतासे हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह प्रार्थना-सी कर रही थीं कि श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे दशमुख रावणकी पराजय हो ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीक्षमाणां रुदतीमनिन्दितां
सुपक्ष्मताम्रायतशुक्ललोचनाम् ।
अनुव्रतां राममतीव मैथिलीं
प्रलोभयामास वधाय रावणः ॥ २२ ॥

मूलम्

समीक्षमाणां रुदतीमनिन्दितां
सुपक्ष्मताम्रायतशुक्ललोचनाम् ।
अनुव्रतां राममतीव मैथिलीं
प्रलोभयामास वधाय रावणः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर बरौनियोंसे युक्त, लाल, श्वेत एवं विशाल नेत्रोंवाली सती-साध्वी मिथिलेशकुमारी सीता श्रीरामचन्द्रजीमें अत्यन्त अनुरक्त थीं और इधर-उधर देखती हुई रो रही थीं । इस अवस्थामें उन्हें देखकर राक्षसराज रावण अपने ही वधके लिये उनको लुभानेकी चेष्टा करने लगा ॥ २२ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे एकोनविंशः सर्गः ॥ १९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें उन्नीसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १९ ॥