वाचनम्
भागसूचना
- भयंकर राक्षसियोंसे घिरी हुई सीताके दर्शनसे हनुमान् जी का प्रसन्न होना
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कुमुदखण्डाभो
निर्मलं निर्मलोदयः ।
प्रजगाम नभश् चन्द्रो
हंसो नीलमिवोदकम् ॥ १ ॥+++(5)+++
मूलम्
ततः कुमुदखण्डाभो निर्मलं निर्मलोदयः ।
प्रजगाम नभश्चन्द्रो हंसो नीलमिवोदकम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर वह दिन बीतनेके पश्चात् कुमुदसमूहके समान श्वेत वर्णवाले तथा निर्मलरूपसे उदित हुए चन्द्रदेव स्वच्छ आकाशमें कुछ ऊपरको चढ़ आये । उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई हंस किसी नील जलराशिमें तैर रहा हो ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साचिव्यम् इव कुर्वन् स
प्रभया निर्मलप्रभः ।
चन्द्रमा रश्मिभिः शीतैः
सिषेवे पवनात्मजम् ॥ २ ॥+++(5)+++
मूलम्
साचिव्यमिव कुर्वन् स प्रभया निर्मलप्रभः ।
चन्द्रमा रश्मिभिः शीतैः सिषेवे पवनात्मजम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्मल कान्तिवाले चन्द्रमा अपनी प्रभासे सीताजीके दर्शन आदिमें पवनकुमार हनुमान् जी की सहायता-सी करते हुए अपनी शीतल किरणोंद्वारा उनकी सेवा करने लगे ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श ततः सीतां
पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
शोकभारैर् इव न्यस्तां
भारैर् नावम् इवाम्भसि ॥ ३ ॥+++(5)+++
मूलम्
स ददर्श ततः सीतां पूर्णचन्द्रनिभाननाम् ।
शोकभारैरिव न्यस्तां भारैर्नावमिवाम्भसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उन्होंने पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाली सीताको देखा, जो जलमें अधिक बोझके कारण दबी हुई नौकाकी भाँति शोकके भारी भारसे मानो झुक गयी थीं ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिदृक्षमाणो वैदेहीं
हनूमान् मारुतात्मजः ।
स ददर्शाविदूरस्था
राक्षसीर् घोरदर्शनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
दिदृक्षमाणो वैदेहीं हनूमान् मारुतात्मजः ।
स ददर्शाविदूरस्था राक्षसीर्घोरदर्शनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुपुत्र हनुमान् जी ने जब विदेहकुमारी सीताको देखनेके लिये अपनी दृष्टि दौड़ायी, तब उन्हें उनके पास ही बैठी हुई भयानक दृष्टिवाली बहुत-सी राक्षसियाँ दिखायी दीं ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकाक्षीम् एककर्णां च
कर्ण-प्रावरणां तथा ।
अकर्णां शङ्कुकर्णां च
मस्तकोच्छ्वास-नासिकाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
एकाक्षीमेककर्णां च कर्णप्रावरणां तथा ।
अकर्णां शङ्कुकर्णां च मस्तकोच्छ्वासनासिकाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे किसीके एक आँख थी तो दूसरीके एक कान । किसी-किसीके कान इतने बड़े थे कि वह उन्हें चादरकी भाँति ओढ़े हुए थीं । किसीके कान ही नहीं थे और किसीके कान ऐसे दिखायी देते थे मानो खूँटे गड़े हुए हों । किसी-किसीकी साँस लेनेवाली नाक उसके मस्तकपर थी ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिकायोत्तमाङ्गीं च
तनुदीर्घशिरोधराम् ।
ध्वस्तकेशीं तथाकेशीं
केशकम्बलधारिणीम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अतिकायोत्तमाङ्गीं च तनुदीर्घशिरोधराम् ।
ध्वस्तकेशीं तथाकेशीं केशकम्बलधारिणीम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीका शरीर बहुत बड़ा था और किसीका बहुत उत्तम । किसीकी गर्दन पतली और बड़ी थी । किसीके केश उड़ गये थे और किसी-किसीके माथेपर केश उगे ही नहीं थे । कोई-कोई राक्षसी अपने शरीरके केशोंका ही कम्बल धारण किये हुए थी ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लम्बकर्णललाटां च लम्बोदरपयोधराम् ।
लम्बोष्ठीं चिबुकोष्ठीं च लम्बास्यां लम्बजानुकाम् ॥ ७ ॥
मूलम्
लम्बकर्णललाटां च
लम्बोदरपयोधराम् ।
लम्बोष्ठीं चिबुकोष्ठीं च
लम्बास्यां लम्बजानुकाम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसीके कान और ललाट बड़े-बड़े थे तो किसीके पेट और स्तन लंबे थे । किसीके ओठ बड़े होनेके कारण लटक रहे थे तो किसीके ठोड़ीमें ही सटे हुए थे । किसीका मुँह बड़ा था और किसीके घुटने ॥ ७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रस्वां दीर्घां च कुब्जां च विकटां वामनां तथा ।
करालां भुग्नवक्त्रां च पिङ्गाक्षीं विकृताननाम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ह्रस्वां दीर्घां च कुब्जां च विकटां वामनां तथा ।
करालां भुग्नवक्त्रां च पिङ्गाक्षीं विकृताननाम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई नाटी, कोई लंबी, कोई कुबड़ी, कोई टेढ़ी-मेढ़ी, कोई बवनी, कोई विकराल, कोई टेढ़े मुँहवाली, कोई पीली आँखवाली और कोई विकट मुँहवाली थीं ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकृताः पिङ्गलाः कालीः
क्रोधनाः कलहप्रियाः ।
कालाय-समहाशूल-
कूट-मुद्गर-धारिणीः ॥ ९ ॥
मूलम्
विकृताः पिङ्गलाः कालीः क्रोधनाः कलहप्रियाः ।
कालायसमहाशूलकूटमुद्गरधारिणीः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितनी ही राक्षसियाँ बिगड़े शरीरवाली, काली, पीली, क्रोध करनेवाली और कलह पसंद करनेवाली थीं । उन सबने काले लोहेके बने हुए बड़े-बड़े शूल, कूट और मुद्गर धारण कर रखे थे ॥ ९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वराहमृगशार्दूलमहिषाजशिवामुखाः ।
गजोष्ट्रहयपादाश्च निखातशिरसोऽपराः ॥ १० ॥
मूलम्
वराहमृगशार्दूलमहिषाजशिवामुखाः ।
गजोष्ट्रहयपादाश्च निखातशिरसोऽपराः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितनी ही राक्षसियोंके मुख सूअर, मृग, सिंह, भैंस, बकरी और सियारिनोंके समान थे । किन्हींके पैर हाथियोंके समान, किन्हींके ऊँटोंके समान और किन्हींके घोड़ोंके समान थे । किन्हीं-किन्हींके सिर कबन्धकी भाँति छातीमें स्थित थे; अतः गड्ढेके समान दिखायी देते थे । (अथवा किन्हीं-किन्हींके सिरमें गड्ढे थे) ॥ १० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकहस्तैकपादाश्च खरकर्ण्यश्वकर्णिकाः ।
गोकर्णीर्हस्तिकर्णीश्च हरिकर्णीस्तथापराः ॥ ११ ॥
मूलम्
एकहस्तैकपादाश्च खरकर्ण्यश्वकर्णिकाः ।
गोकर्णीर्हस्तिकर्णीश्च हरिकर्णीस्तथापराः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके एक हाथ थे तो किन्हींके एक पैर । किन्हींके कान गदहोंके समान थे तो किन्हींके घोड़ोंके समान । किन्हीं-किन्हींके कान गौओं, हाथियों और सिंहोंके समान दृष्टिगोचर होते थे ॥ ११ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिनासाश्च काश्चिच्च तिर्यङ्नासा अनासिकाः ।
गजसन्निभनासाश्च ललाटोच्छ्वासनासिकाः ॥ १२ ॥
मूलम्
अतिनासाश्च काश्चिच्च तिर्यङ्नासा अनासिकाः ।
गजसन्निभनासाश्च ललाटोच्छ्वासनासिकाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींकी नासिकाएँ बहुत बड़ी थीं और किन्हींकी तिरछी । किन्हीं-किन्हींके नाक ही नहीं थी । कोई-कोई हाथीकी सूँड़के समान नाकवाली थीं और किन्हीं-किन्हींकी नासिकाएँ ललाटमें ही थीं, जिनसे वे साँस लिया करती थीं ॥ १२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हस्तिपादा महापादा गोपादाः पादचूलिकाः ।
अतिमात्रशिरोग्रीवा अतिमात्रकुचोदरीः ॥ १३ ॥
मूलम्
हस्तिपादा महापादा गोपादाः पादचूलिकाः ।
अतिमात्रशिरोग्रीवा अतिमात्रकुचोदरीः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके पैर हाथियोंके समान थे और किन्हींके गौओंके समान । कोई बड़े-बड़े पैर धारण करती थीं और कितनी ही ऐसी थीं जिनके पैरोंमें चोटीके समान केश उगे हुए थे । बहुत-सी राक्षसियाँ बेहद लंबे सिर और गर्दनवाली थीं और कितनोंके पेट तथा स्तन बहुत बड़े-बड़े थे ॥ १३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिमात्रास्यनेत्राश्च दीर्घजिह्वाननास्तथा ।
अजामुखीर्हस्तिमुखीर्गोमुखीः सूकरीमुखीः ॥ १४ ॥
हयोष्ट्रखरवक्त्राश्च राक्षसीर्घोरदर्शनाः ।
मूलम्
अतिमात्रास्यनेत्राश्च दीर्घजिह्वाननास्तथा ।
अजामुखीर्हस्तिमुखीर्गोमुखीः सूकरीमुखीः ॥ १४ ॥
हयोष्ट्रखरवक्त्राश्च राक्षसीर्घोरदर्शनाः ।
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके मुँह और नेत्र सीमासे अधिक बड़े थे, किन्हीं-किन्हींके मुखोंमें बड़ी-बड़ी जिह्वाएँ थीं और कितनी ही ऐसी राक्षसियाँ थीं, जो बकरी, हाथी, गाय, सूअर, घोड़े, ऊँट और गदहोंके समान मुँह धारण करती थीं । इसीलिये वे देखनेमें बड़ी भयंकर थीं ॥ १४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूलमुद्गरहस्ताश्च
क्रोधनाः कलहप्रियाः ॥ १५ ॥
कराला धूम्रकेशिन्यो
राक्षसीर्विकृताननाः ।
पिबन्ति सततं पानं
सुरा-मांस-सदा-प्रियाः ॥ १६ ॥
मूलम्
शूलमुद्गरहस्ताश्च क्रोधनाः कलहप्रियाः ॥ १५ ॥
कराला धूम्रकेशिन्यो राक्षसीर्विकृताननाः ।
पिबन्ति सततं पानं सुरामांससदाप्रियाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किन्हींके हाथमें शूल थे तो किन्हींके मुद्गर । कोई क्रोधी स्वभावकी थीं तो कोई कलहसे प्रेम रखती थीं । धुएँ-जैसे केश और विकृत मुखवाली कितनी ही विकराल राक्षसियाँ सदा मद्यपान किया करती थीं । मदिरा और मांस उन्हें सदा प्रिय थे ॥ १५-१६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मांसशोणित-दिग्धाङ्गीर्
मांसशोणितभोजनाः ।
ता ददर्श कपिश्रेष्ठो
रोम-हर्षण-दर्शनाः ॥ १७ ॥
मूलम्
मांसशोणितदिग्धाङ्गीर्मांसशोणितभोजनाः ।
ता ददर्श कपिश्रेष्ठो रोमहर्षणदर्शनाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितनी ही अपने अंगोंमें रक्त और मांसका लेप लगाये रहती थीं । रक्त और मांस ही उनके भोजन थे । उन्हें देखते ही रोंगटे खड़े हो जाते थे । कपिश्रेष्ठ हनुमान् जी ने उन सबको देखा ॥ १७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्कन्धवन्तम् उपासीनाः
परिवार्य वनस्पतिम् ।
तस्याधस् ताच्च तां देवीं
राजपुत्रीम् अनिन्दिताम् ॥ १८ ॥
लक्षयामास लक्ष्मीवान्
हनूमाञ् जनकात्मजाम् ।
निष्प्रभां शोकसन्तप्तां
मल-सङ्कुल-मूर्धजाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
स्कन्धवन्तमुपासीनाः परिवार्य वनस्पतिम् ।
तस्याधस्ताच्च तां देवीं राजपुत्रीमनिन्दिताम् ॥ १८ ॥
लक्षयामास लक्ष्मीवान् हनूमाञ्जनकात्मजाम् ।
निष्प्रभां शोकसन्तप्तां मलसङ्कुलमूर्धजाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उत्तम शाखावाले उस अशोकवृक्षको चारों ओरसे घेरकर उससे थोड़ी दूरपर बैठी थीं और सती साध्वी राजकुमारी सीता देवी उसी वृक्षके नीचे उसकी जड़से सटी हुई बैठी थीं । उस समय शोभाशाली हनुमान् जी ने जनककिशोरी जानकीजीकी ओर विशेषरूपसे लक्ष्य किया । उनकी कान्ति फीकी पड़ गयी थी । वे शोकसे संतप्त थीं और उनके केशोंमें मैल जम गयी थी ॥ १८-१९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणपुण्यां च्युतां भूमौ
तारां निपतितामिव ।
चारित्र-व्यपदेशाढ्यां
भर्तृ-दर्शन-दुर्गताम् ॥ २० ॥
मूलम्
क्षीणपुण्यां च्युतां भूमौ तारां निपतितामिव ।
चारित्रव्यपदेशाढ्यां भर्तृदर्शनदुर्गताम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पुण्य क्षीण हो जानेपर कोई तारा स्वर्गसे टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़ा हो, उसी तरह वे भी कान्तिहीन दिखायी देती थीं । वे आदर्श चरित्र (पातिव्रत्य)-से सम्पन्न तथा इसके लिये सुविख्यात थीं । उन्हें पतिके दर्शनके लिये लाले पड़े थे ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूषणैर् उत्तमैर् हीनां
भर्तृवात्सल्य-भूषिताम् ।
राक्षसाधिपसंरुद्धां
बन्धुभिश् च विनाकृताम् ॥ २१ ॥+++(5)+++
मूलम्
भूषणैरुत्तमैर्हीनां भर्तृवात्सल्यभूषिताम् ।
राक्षसाधिपसंरुद्धां बन्धुभिश्च विनाकृताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उत्तम भूषणोंसे रहित थीं तो भी पतिके वात्सल्यसे विभूषित थीं (पतिका स्नेह ही उनके लिये शृंगार था) । राक्षसराज रावणने उन्हें बंदिनी बना रखा था । वे स्वजनोंसे बिछुड़ गयी थीं ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वियूथां सिंह-संरुद्धां
बद्धां गज-वधूम् इव ।
चन्द्ररेखां पयोदान्ते
शारदाभ्रैर् इवावृताम् ॥ २२ ॥+++(5)+++
मूलम्
वियूथां सिंहसंरुद्धां बद्धां गजवधूमिव ।
चन्द्ररेखां पयोदान्ते शारदाभ्रैरिवावृताम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई हथिनी अपने यूथसे अलग हो गयी हो, यूथपतिके स्नेहसे बँधी हो और उसे किसी सिंहने रोक लिया हो । रावणकी कैदमें पड़ी हुई सीताकी भी वैसी ही दशा थी । वे वर्षाकाल बीत जानेपर शरद्-ऋतुके श्वेत बादलोंसे घिरी हुई चन्द्ररेखाके समान प्रतीत होती थीं ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्लिष्ट-रूपाम् असंस्पर्शाद्
अयुक्तामिव वल्लकीम् ।
स तां भर्तृहिते युक्ताम्
अयुक्तां रक्षसां वशे ॥ २३ ॥
अशोक-वनिका-मध्ये
शोक-सागरम् आप्लुताम् ।
ताभिः परिवृतां तत्र
सग्रहाम् इव रोहिणीम् ॥ २४ ॥
मूलम्
क्लिष्टरूपामसंस्पर्शादयुक्तामिव वल्लकीम् ।
स तां भर्तृहिते युक्तामयुक्तां रक्षसां वशे ॥ २३ ॥
अशोकवनिकामध्ये शोकसागरमाप्लुताम् ।
ताभिः परिवृतां तत्र सग्रहामिव रोहिणीम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वीणा अपने स्वामीकी अंगुलियोंके स्पर्शसे वञ्चित हो वादन आदिकी क्रियासे रहित अयोग्य अवस्थामें मूक पड़ी रहती है, उसी प्रकार सीता पतिके सम्पर्कसे दूर होनेके कारण महान् क्लेशमें पड़कर ऐसी अवस्थाको पहुँच गयी थीं, जो उनके योग्य नहीं थी । पतिके हितमें तत्पर रहनेवाली सीता राक्षसोंके अधीन रहनेके योग्य नहीं थीं; फिर भी वैसी दशामें पड़ी थीं । अशोकवाटिकामें रहकर भी वे शोकके सागरमें डूबी हुई थीं । क्रूर ग्रहसे आक्रान्त हुई रोहिणीकी भाँति वे वहाँ उन राक्षसियोंसे घिरी हुई थीं । हनुमान् जी ने उन्हें देखा । वे पुष्पहीन लताकी भाँति श्रीहीन हो रही थीं ॥ २३-२४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श हनुमांस् तत्र
लताम् अकुसुमाम् इव ।
सा मलेन च दिग्धाङ्गी
वपुषा चाप्यलङ्कृता ।
मृणाली पङ्क-दिग्धेव
विभाति च न भाति च ॥ २५ ॥+++(5)+++
मूलम्
ददर्श हनुमांस्तत्र लतामकुसुमामिव ।
सा मलेन च दिग्धाङ्गी वपुषा चाप्यलङ्कृता ।
मृणाली पङ्कदिग्धेव विभाति च न भाति च ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सारे अंगोंमें मैल जम गयी थी । केवल शरीर-सौन्दर्य ही उनका अलंकार था । वे कीचड़से लिपटी हुई कमलनालकी भाँति शोभा और अशोभा दोनोंसे युक्त हो रही थीं ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलिनेन तु वस्त्रेण
परिक्लिष्टेन भामिनीम् ।
संवृतां मृग-शावाक्षीं
ददर्श हनुमान् कपिः ॥ २६ ॥
मूलम्
मलिनेन तु वस्त्रेण परिक्लिष्टेन भामिनीम् ।
संवृतां मृगशावाक्षीं ददर्श हनुमान् कपिः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैले और पुराने वस्त्रसे ढकी हुई मृगशावकनयनी भामिनी सीताको कपिवर हनुमान् ने उस अवस्थामें देखा ॥ २६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां देवीं दीन-वदनाम्
अदीनां भर्तृ-तेजसा ।
रक्षितां स्वेन शीलेन
सीताम् असितलोचनाम् ॥ २७ ॥+++(5)+++
मूलम्
तां देवीं दीनवदनामदीनां भर्तृतेजसा ।
रक्षितां स्वेन शीलेन सीतामसितलोचनाम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि देवी सीताके मुखपर दीनता छा रही थी तथापि अपने पतिके तेजका स्मरण हो आनेसे उनके हृदयसे वह दैन्य दूर हो जाता था । कजरारे नेत्रोंवाली सीता अपने शीलसे ही सुरक्षित थीं ॥ २७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां दृष्ट्वा हनुमान् सीतां
मृगशावनिभेक्षणाम् ।
मृगकन्यामिव त्रस्तां
वीक्षमाणां समन्ततः ॥ २८ ॥
दहन्तीम् इव निःश्वासैर्
वृक्षान् पल्लव-धारिणः ।
सङ्घातम् इव शोकानां
दुःखस्योर्मिम् इवोत्थिताम् ॥ २९ ॥
तां क्षमां सुविभक्ताङ्गीं
विनाभरण-शोभिनीम् ।
प्रहर्षम् अतुलं लेभे
मारुतिः प्रेक्ष्य मैथिलीम् ॥ ३० ॥
मूलम्
तां दृष्ट्वा हनुमान् सीतां मृगशावनिभेक्षणाम् ।
मृगकन्यामिव त्रस्तां वीक्षमाणां समन्ततः ॥ २८ ॥
दहन्तीमिव निःश्वासैर्वृक्षान् पल्लवधारिणः ।
सङ्घातमिव शोकानां दुःखस्योर्मिमिवोत्थिताम् ॥ २९ ॥
तां क्षमां सुविभक्ताङ्गीं विनाभरणशोभिनीम् ।
प्रहर्षमतुलं लेभे मारुतिः प्रेक्ष्य मैथिलीम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नेत्र मृगछौनोंके समान चञ्चल थे । वे डरी हुई मृगकन्याकी भाँति सब ओर सशंक दृष्टिसे देख रही थीं । अपने उच्छ्वासोंसे पल्लवधारी वृक्षोंको दग्ध-सी करती जान पड़ती थीं । शोकोंकी मूर्तिमती प्रतिमा-सी दिखायी देती थीं और दुःखकी उठी हुई तरंग-सी प्रतीत होती थीं । उनके सभी अंगोंका विभाग सुन्दर था । यद्यपि वे विरह-शोकसे दुर्बल हो गयी थीं तथापि आभूषणोंके बिना ही शोभा पाती थीं । इस अवस्थामें मिथिलेशकुमारी सीताको देखकर पवनपुत्र हनुमान् को उनका पता लग जानेके कारण अनुपम हर्ष प्राप्त हुआ ॥ २८—३० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हर्ष-जानि च सोऽश्रूणि
तां दृष्ट्वा मदिरेक्षणाम् ।
मुमोच हनुमांस् तत्र
नमश् चक्रे च राघवम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
हर्षजानि च सोऽश्रूणि तां दृष्ट्वा मदिरेक्षणाम् ।
मुमोच हनुमांस्तत्र नमश्चक्रे च राघवम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनोहर नेत्रवाली सीताको वहाँ देखकर हनुमान् जी हर्षके आँसू बहाने लगे । उन्होंने मन-ही-मन श्रीरघुनाथजीको नमस्कार किया ॥ ३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्कृत्वाथ रामाय
लक्ष्मणाय च वीर्यवान् ।
सीता-दर्शन-संहृष्टो
हनुमान् संवृतो ऽभवत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
नमस्कृत्वाथ रामाय लक्ष्मणाय च वीर्यवान् ।
सीतादर्शनसंहृष्टो हनुमान् संवृतोऽभवत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीताके दर्शनसे उल्लसित हो श्रीराम और लक्ष्मणको नमस्कार करके पराक्रमी हनुमान् वहीं छिपे रहे ॥ ३२ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तदशः सर्गः ॥ १७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १७ ॥