वाचनम्
भागसूचना
- वनकी शोभा देखते हुए हनुमान् जी का एक चैत्यप्रासाद (मन्दिर)-के पास सीताको दयनीय अवस्थामें देखना, पहचानना और प्रसन्न होना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वीक्षमाणस् तत्रस्थो
मार्गमाणश् च मैथिलीम् ।
अवेक्षमाणश् च महीं
सर्वां ताम् अन्ववैक्षत ॥ १ ॥
मूलम्
स वीक्षमाणस्तत्रस्थो मार्गमाणश्च मैथिलीम् ।
अवेक्षमाणश्च महीं सर्वां तामन्ववैक्षत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अशोकवृक्षपर बैठे-बैठे हनुमान् जी सम्पूर्ण वनको देखते और सीताको ढूँढ़ते हुए वहाँकी सारी भूमिपर दृष्टिपात करने लगे ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तानक+++(=कल्पवृक्ष)+++-लताभिश् च
पादपैर् उपशोभिताम् ।
दिव्य-गन्ध-रसोपेतां
सर्वतः समलङ्कृताम् ॥ २ ॥
मूलम्
सन्तानकलताभिश्च पादपैरुपशोभिताम् ।
दिव्यगन्धरसोपेतां सर्वतः समलङ्कृताम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह भूमि कल्पवृक्षकी लताओं तथा वृक्षोंसे सुशोभित थी,
दिव्य गन्ध तथा दिव्य रससे परिपूर्ण थी
और सब ओरसे सजायी गयी थी ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां स नन्दन-सङ्काशां
मृगपक्षिभिर् आवृताम् ।
हर्म्य-प्रासाद-सम्बाधां
कोकिलाकुल-निःस्वनाम् ॥ ३ ॥
मूलम्
तां स नन्दनसङ्काशां मृगपक्षिभिरावृताम् ।
हर्म्यप्रासादसम्बाधां कोकिलाकुलनिःस्वनाम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मृगों और पक्षियोंसे व्याप्त होकर वह भूमि नन्दनवनके समान शोभा पा रही थी, अट्टालिकाओं तथा राजभवनोंसे युक्त थी तथा कोकिल-समूहोंकी काकलीसे कोलाहलपूर्ण जान पड़ती थी ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काञ्चनोत्पल-पद्माभिर्
वापीभिरुपशोभिताम् ।
बह्वासन-कुथ+++(=दर्भ)++++उपेतां
बहु-भूमि-गृहायुताम् ॥ ४ ॥
मूलम्
काञ्चनोत्पलपद्माभिर्वापीभिरुपशोभिताम् ।
बह्वासनकुथोपेतां बहुभूमिगृहायुताम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुवर्णमय उत्पल और कमलोंसे भरी हुई बावड़ियाँ उसकी शोभा बढ़ा रही थीं । बहुत-से आसन और कालीन वहाँ बिछे हुए थे । अनेकानेक भूमिगृह वहाँ शोभा पा रहे थे ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वर्तु-कुसुमै रम्यैः
फलवद्भिश्च पादपैः ।
पुष्पितानाम् अशोकानां
श्रिया सूर्योदय-प्रभाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सर्वर्तुकुसुमै रम्यैः फलवद्भिश्च पादपैः ।
पुष्पितानामशोकानां श्रिया सूर्योदयप्रभाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी ऋतुओंमें फूल देनेवाले और फलोंसे भरे हुए रमणीय वृक्ष उस भूमिको विभूषित कर रहे थे । खिले हुए अशोकोंकी शोभासे सूर्योदयकालकी छटा-सी छिटक रही थी ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदीप्तामिव तत्रस्थो
मारुतिः समुदैक्षत ।
निष्पत्र-शाखां विहगैः
क्रियमाणाम् इवासकृत् ॥ ६ ॥
मूलम्
प्रदीप्तामिव तत्रस्थो मारुतिः समुदैक्षत ।
निष्पत्रशाखां विहगैः क्रियमाणामिवासकृत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पवनकुमार हनुमान् ने उस अशोकपर बैठे-बैठे ही उस दमकती हुई-सी वाटिकाको देखा । वहाँके पक्षी उस वाटिकाको बारंबार पत्रों और शाखाओंसे हीन कर रहे थे ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिष्पतद्भिः शतशश्
चित्रैः पुष्पावतंसकैः ।
समूल-पुष्प-रचितैर्
अशोकैः शोक-नाशनैः ॥ ७ ॥
पुष्प-भारातिभारैश् च
स्पृशद्भिर् इव मेदिनीम् ।
कर्णिकारैः कुसुमितैः
किंशुकैश् च सुपुष्पितैः ॥ ८ ॥
स देशः प्रभया तेषां
प्रदीप्त इव सर्वतः ।
मूलम्
विनिष्पतद्भिः शतशश्चित्रैः पुष्पावतंसकैः ।
समूलपुष्परचितैरशोकैः शोकनाशनैः ॥ ७ ॥
पुष्पभारातिभारैश्च स्पृशद्भिरिव मेदिनीम् ।
कर्णिकारैः कुसुमितैः किंशुकैश्च सुपुष्पितैः ॥ ८ ॥
स देशः प्रभया तेषां प्रदीप्त इव सर्वतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वृक्षोंसे झड़ते हुए सैकड़ों विचित्र पुष्प-गुच्छोंसे नीचेसे ऊपरतक मानो फूलसे बने हुए शोकनाशक अशोकोंसे, फूलोंके भारी भारसे झुककर पृथ्वीका स्पर्श-सा करते हुए खिले हुए कनेरोंसे तथा सुन्दर फूलवाले पलाशोंसे उपलक्षित वह भूभाग उनकी प्रभाके कारण सब ओरसे उद्दीप्त-सा हो रहा था ॥ ७-८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुन्नागाः सप्तपर्णाश्च
चम्पकोद्दालकास् तथा ॥ ९ ॥
विवृद्ध-मूला बहवः
शोभन्ते स्म सुपुष्पिताः ।
मूलम्
पुन्नागाः सप्तपर्णाश्च चम्पकोद्दालकास्तथा ॥ ९ ॥
विवृद्धमूला बहवः शोभन्ते स्म सुपुष्पिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
पुंनाग (श्वेत कमल या नागकेसर), छितवन, चम्पा तथा बहुवार आदि बहुत-से सुन्दर पुष्पवाले वृक्ष, जिनकी जड़ें बहुत मोटी थीं, वहाँ शोभा पा रहे थे ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शातकुम्भ-निभाः केचित्
केचिद् अग्निशिख-प्रभाः ॥ १० ॥
नीलाञ्जन-निभाः केचित्
तत्राशोकाः+++(=Saraca Asoka)+++ सहस्रशः ।
मूलम्
शातकुम्भनिभाः केचित् केचिदग्निशिखप्रभाः ॥ १० ॥
नीलाञ्जननिभाः केचित् तत्राशोकाः सहस्रशः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ सहस्रों अशोकके वृक्ष थे, जिनमेंसे कुछ तो सुवर्णके समान कान्तिमान् थे, कुछ आगकी ज्वालाके समान प्रकाशित हो रहे थे और कोई-कोई काले काजलकी-सी कान्तिवाले थे ॥ १० १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नन्दनं विबुधोद्यानं
चित्रं चैत्ररथं यथा ॥ ११ ॥
अतिवृत्तम् इवाचिन्त्यं
दिव्यं रम्यश्रिया युतम् ।
मूलम्
नन्दनं विबुधोद्यानं चित्रं चैत्ररथं यथा ॥ ११ ॥
अतिवृत्तमिवाचिन्त्यं दिव्यं रम्यश्रियायुतम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह अशोकवन देवोद्यान नन्दनके समान आनन्ददायी, कुबेरके चैत्ररथ वनके समान विचित्र तथा उन दोनोंसे भी बढ़कर अचिन्त्य, दिव्य एवं रमणीय शोभासे सम्पन्न था ॥ ११ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वितीयम् इव चाकाशं
पुष्प-ज्योतिर्-गणायुतम् ॥ १२ ॥
पुष्परत्न-शतैश्चित्रं
पञ्चमं सागरं यथा ।
मूलम्
द्वितीयमिव चाकाशं पुष्पज्योतिर्गणायुतम् ॥ १२ ॥
पुष्परत्नशतैश्चित्रं पञ्चमं सागरं यथा ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह पुष्परूपी नक्षत्रोंसे युक्त दूसरे आकाशके समान सुशोभित होता था तथा पुष्पमय सैकड़ों रत्नोंसे विचित्र शोभा पानेवाले पाँचवें समुद्रके समान जान पड़ता था ॥ १२ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वर्तुपुष्पैर् निचितं
पादपैर् मधु-गन्धिभिः ॥ १३ ॥
नानानिनादैर् उद्यानं
रम्यं मृग-गण-द्विजैः ।
अनेक-गन्ध-प्रवहं
पुण्यगन्धं मनोहरम् ॥ १४ ॥
शैलेन्द्रम् इव गन्धाढ्यं
द्वितीयं गन्धमादनम् ।
मूलम्
सर्वर्तुपुष्पैर्निचितं पादपैर्मधुगन्धिभिः ॥ १३ ॥
नानानिनादैरुद्यानं रम्यं मृगगणद्विजैः ।
अनेकगन्धप्रवहं पुण्यगन्धं मनोहरम् ॥ १४ ॥
शैलेन्द्रमिव गन्धाढ्यं द्वितीयं गन्धमादनम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सब ऋतुओंमें फूल देनेवाले मनोरम गन्धयुक्त वृक्षोंसे भरा हुआ तथा भाँति-भाँतिके कलरव करनेवाले मृगों और पक्षियोंसे सुशोभित वह उद्यान बड़ा रमणीय प्रतीत होता था । वह अनेक प्रकारकी सुगन्धका भार वहन करनेके कारण पवित्र गन्धसे युक्त और मनोहर जान पड़ता था । दूसरे गिरिराज गन्धमादनके समान उत्तम सुगन्धसे व्याप्त था ॥ १३-१४ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशोकवनिकायां तु
तस्यां वानर-पुङ्गवः ॥ १५ ॥
स ददर्शाविदूर-स्थं
चैत्य-प्रासादम् ऊर्जितम् ।
मध्ये स्तम्भ-सहस्रेण
स्थितं कैलास-पाण्डुरम् ॥ १६ ॥
प्रवाल-कृत-सोपानं
तप्त-काञ्चन-वेदिकम् ।
मुष्णन्तम् इव चक्षूंषि
द्योतमानम् इव श्रिया ॥ १७ ॥
निर्मलं प्रांशुभावत्वाद्
उल्लिखन्तम् इवाम्बरम् ।
मूलम्
अशोकवनिकायां तु तस्यां वानरपुङ्गवः ॥ १५ ॥
स ददर्शाविदूरस्थं चैत्यप्रासादमूर्जितम् ।
मध्ये स्तम्भसहस्रेण स्थितं कैलासपाण्डुरम् ॥ १६ ॥
प्रवालकृतसोपानं तप्तकाञ्चनवेदिकम् ।
मुष्णन्तमिव चक्षूंषि द्योतमानमिव श्रिया ॥ १७ ॥
निर्मलं प्रांशुभावत्वादुल्लिखन्तमिवाम्बरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
उस अशोकवाटिकामें वानर-शिरोमणि हनुमान् ने थोड़ी ही दूरपर एक गोलाकार ऊँचा मन्दिर देखा, जिसके भीतर एक हजार खंभे लगे हुए थे । वह मन्दिर कैलास पर्वतके समान श्वेत वर्णका था । उसमें मूँगेकी सीढ़ियाँ बनी थीं तथा तपाये हुए सोनेकी वेदियाँ बनायी गयी थीं । वह निर्मल प्रासाद अपनी शोभासे देदीप्यमान-सा हो रहा था । दर्शकोंकी दृष्टिमें चकाचौंध-सा पैदा कर देता था और बहुत ऊँचा होनेके कारण आकाशमें रेखा खींचता-सा जान पड़ता था ॥ १५—१७ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मलिन-संवीतां
राक्षसीभिः समावृताम् ॥ १८ ॥
उपवास-कृशां दीनां
निःश्वसन्तीं पुनः पुनः ।
ददर्श शुक्ल-पक्षादौ
चन्द्र-रेखाम् इवामलाम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो मलिनसंवीतां राक्षसीभिः समावृताम् ॥ १८ ॥
उपवासकृशां दीनां निःश्वसन्तीं पुनः पुनः ।
ददर्श शुक्लपक्षादौ चन्द्ररेखामिवामलाम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह चैत्यप्रासाद (मन्दिर) देखनेके अनन्तर उनकी दृष्टि वहाँ एक सुन्दरी स्त्रीपर पड़ी, जो मलिन वस्त्र धारण किये राक्षसियोंसे घिरी हुई बैठी थी । वह उपवास करनेके कारण अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती थी तथा बारंबार सिसक रही थी । शुक्लपक्षके आरम्भमें चन्द्रमाकी कला जैसी निर्मल और कृश दिखायी देती है, वैसी ही वह भी दृष्टिगोचर होती थी ॥ १८-१९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्द-प्रख्यायमानेन
रूपेण रुचिर-प्रभाम् ।
पिनद्धां धूम-जालेन
शिखाम् इव विभावसोः ॥ २० ॥
मूलम्
मन्दप्रख्यायमानेन रूपेण रुचिरप्रभाम् ।
पिनद्धां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धुँधली-सी स्मृतिके आधारपर कुछ-कुछ पहचाने जानेवाले अपने रूपसे वह सुन्दर प्रभा बिखेर रही थी और धूएँसे ढकी हुई अग्निकी ज्वालाके समान जान पड़ती थी ॥ २० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीतेनैकेन संवीतां
क्लिष्टेनोत्तमवाससा ।
सपङ्काम् अनलं-कारां
विपद्माम् इव पद्मिनीम् ॥ २१ ॥
मूलम्
पीतेनैकेन संवीतां क्लिष्टेनोत्तमवाससा ।
सपङ्कामनलङ्कारां विपद्मामिव पद्मिनीम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक ही पीले रंगके पुराने रेशमी वस्त्रसे उसका शरीर ढका हुआ था । वह मलिन, अलंकारशून्य होनेके कारण कमलोंसे रहित पुष्करिणीके समान श्रीहीन दिखायी देती थी ॥ २१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीडितां दुःख-सन्तप्तां
परिक्षीणां तपस्विनीम् ।
ग्रहेणाङ्गारकेणेव
पीडितामिव रोहिणीम् ॥ २२ ॥
मूलम्
पीडितां दुःखसन्तप्तां परिक्षीणां तपस्विनीम् ।
ग्रहेणाङ्गारकेणेव पीडितामिव रोहिणीम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह तपस्विनी मंगलग्रहसे आक्रान्त रोहिणीके समान शोकसे पीड़ित, दुःखसे संतप्त और सर्वथा क्षीणकाय हो रही थी ॥ २२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां
कृशाम् अनशनेन च ।
शोक-ध्यानपरां दीनां
नित्यं दुःखपरायणाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
अश्रुपूर्णमुखीं दीनां कृशामनशनेन च ।
शोकध्यानपरां दीनां नित्यं दुःखपरायणाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपवाससे दुर्बल हुई उस दुःखिया नारीके मुँहपर आँसुओंकी धारा बह रही थी । वह शोक और चिन्तामें मग्न हो दीन दशामें पड़ी हुई थी एवं निरन्तर दुःखमें ही डूबी रहती थी ॥ २३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियं जनम् अपश्यन्तीं
पश्यन्तीं राक्षसीगणम् ।
स्वगणेन मृगीं हीनां
श्व-गणेनावृताम् इव ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रियं जनमपश्यन्तीं पश्यन्तीं राक्षसीगणम् ।
स्वगणेन मृगीं हीनां श्वगणेनावृतामिव ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने प्रियजनोंको तो देख नहीं पाती थी । उसकी दृष्टिके समक्ष सदा राक्षसियोंका समूह ही बैठा रहता था । जैसे कोई मृगी अपने यूथसे बिछुड़कर कुत्तोंके झुंडसे घिर गयी हो, वही दशा उसकी भी हो रही थी ॥ २४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नील-नागाभया वेण्या
जघनं गतयैकया ।
नीलया नीरदापाये
वनराज्या महीम् इव ॥ २५ ॥
मूलम्
नीलनागाभया वेण्या जघनं गतयैकया ।
नीलया नीरदापाये वनराज्या महीमिव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काली नागिनके समान कटिसे नीचेतक लटकी हुई एकमात्र काली वेणीके द्वारा
उपलक्षित होनेवाली वह नारी
बादलोंके हट जानेपर
नीली वनश्रेणीसे घिरी हुई पृथ्वीके समान
प्रतीत होती थी ॥ २५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखार्हां दुःख-सन्तप्तां
व्यसनानाम् अकोविदाम् ।
तां विलोक्य विशालाक्षीम्
अधिकं मलिनां कृशाम् ॥ २६ ॥
तर्कयामास सीतेति
कारणैर् उपपादिभिः ।
मूलम्
सुखार्हां दुःखसन्तप्तां व्यसनानामकोविदाम् ।
तां विलोक्य विशालाक्षीमधिकं मलिनां कृशाम् ॥ २६ ॥
तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादिभिः ।
अनुवाद (हिन्दी)
वह सुख भोगनेके योग्य थी, किंतु दुःखसे संतप्त हो रही थी । इसके पहले उसे संकटोंका कोई अनुभव नहीं था । उस विशाल नेत्रोंवाली, अत्यन्त मलिन और क्षीणकाय अबलाका अवलोकन करके युक्तियुक्त कारणोंद्वारा हनुमान् जी ने यह अनुमान किया कि हो-न-हो यही सीता है ॥ २६ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रियमाणा तदा तेन
रक्षसा कामरूपिणा ॥ २७ ॥
यथारूपा हि दृष्टा सा
तथारूपेयम् अङ्गना ।
मूलम्
ह्रियमाणा तदा तेन रक्षसा कामरूपिणा ॥ २७ ॥
यथारूपा हि दृष्टा सा तथारूपेयमङ्गना ।
अनुवाद (हिन्दी)
इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला वह राक्षस जब सीताजीको हरकर ले जा रहा था, उस दिन जिस रूपमें उनका दर्शन हुआ था, कल्याणी नारी भी वैसे ही रूपसे युक्त दिखायी देती है ॥ २७ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्णचन्द्राननां सुभ्रूं
चारुवृत्त-पयोधराम् ॥ २८ ॥
कुर्वतीं प्रभया देवीं
सर्वा वितिमिरा दिशः ।
मूलम्
पूर्णचन्द्राननां सुभ्रूं चारुवृत्तपयोधराम् ॥ २८ ॥
कुर्वतीं प्रभया देवीं सर्वा वितिमिरा दिशः ।
अनुवाद (हिन्दी)
देवी सीताका मुख पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर था । उनकी भौंहें बड़ी सुन्दर थीं । दोनों स्तन मनोहर और गोलाकार थे । वे अपनी अंगकान्तिसे सम्पूर्ण दिशाओंका अन्धकार दूर किये देती थीं ॥ २८ १/२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां नीलकण्ठीं बिम्बोष्ठीं
सुमध्यां सुप्रतिष्ठिताम् ॥ २९ ॥
मूलम्
तां नीलकण्ठीं बिम्बोष्ठीं सुमध्यां सुप्रतिष्ठिताम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके केश काले-काले और ओष्ठ बिम्बफलके समान लाल थे । कटिभाग बहुत ही सुन्दर था । सारे अंग सुडौल और सुगठित थे ॥ २९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतां पद्मपलाशाक्षीं
मन्मथस्य रतिं यथा ।
इष्टां सर्वस्य जगतः
पूर्णचन्द्र-प्रभामिव ॥ ३० ॥
भूमौ सुतनुम् आसीनां
नियताम् इव तापसीम् ।
निःश्वास-बहुलां भीरुं
भुजगेन्द्र-वधूम् इव ॥ ३१ ॥
मूलम्
सीतां पद्मपलाशाक्षीं मन्मथस्य रतिं यथा ।
इष्टां सर्वस्य जगतः पूर्णचन्द्रप्रभामिव ॥ ३० ॥
भूमौ सुतनुमासीनां नियतामिव तापसीम् ।
निःश्वासबहुलां भीरुं भुजगेन्द्रवधूमिव ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कमलनयनी सीता कामदेवकी प्रेयसी रतिके समान सुन्दरी थीं, पूर्ण चन्द्रमाकी प्रभाके समान समस्त जगत् के लिये प्रिय थीं । उनका शरीर बहुत ही सुन्दर था । वे नियमपरायणा तापसीके समान भूमिपर बैठी थीं । यद्यपि वे स्वभावसे ही भीरु और चिन्ताके कारण बारंबार लंबी साँस खींचती थीं तो भी दूसरोंके लिये नागिनके समान भयंकर थीं ॥ ३०-३१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोक-जालेन महता
विततेन न राजतीम् ।
संसक्तां धूम-जालेन
शिखाम् इव विभावसोः ॥ ३२ ॥
मूलम्
शोकजालेन महता विततेन न राजतीम् ।
संसक्तां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे विस्तृत महान् शोकजालसे आच्छादित होनेके कारण विशेष शोभा नहीं पा रही थीं । धूएँके समूहसे मिली हुई अग्निशिखाके समान दिखायी देती थीं ॥ ३२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां स्मृतीम्+++(=स्मृतिं)+++ इव सन्दिग्धाम्
ऋद्धिं निपतिताम् इव ।
विहताम् इव च श्रद्धाम्
आशां प्रतिहताम् इव ॥ ३३ ॥
सोपसर्गां+++(=सानिष्टां)+++ यथा सिद्धिं
बुद्धिं सकलुषाम् इव ।
अभूतेनापवादेन
कीर्तिं निपतिताम् इव ॥ ३४ ॥
मूलम्
तां स्मृतिमिव सन्दिग्धामृद्धिं निपतितामिव ।
विहतामिव च श्रद्धामाशां प्रतिहतामिव ॥ ३३ ॥
सोपसर्गां यथा सिद्धिं बुद्धिं सकलुषामिव ।
अभूतेनापवादेन कीर्तिं निपतितामिव ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे संदिग्ध अर्थवाली स्मृति, भूतलपर गिरी हुई ऋद्धि, टूटी हुई श्रद्धा, भग्न हुई आशा, विघ्नयुक्त सिद्धि, कलुषित बुद्धि और मिथ्या कलंकसे भ्रष्ट हुई कीर्तिके समान जान पड़ती थीं ॥ ३३-३४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामोपरोध-व्यथितां
रक्षोगण-निपीडिताम् ।
अबलां मृग-शावाक्षीं
वीक्षमाणां ततस् ततः ॥ ३५ ॥
मूलम्
रामोपरोधव्यथितां रक्षोगणनिपीडिताम् ।
अबलां मृगशावाक्षीं वीक्षमाणां ततस्ततः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें रुकावट पड़ जानेसे उनके मनमें बड़ी व्यथा हो रही थी । राक्षसोंसे पीड़ित हुई मृग-शावकनयनी अबला सीता असहायकी भाँति इधर-उधर देख रही थीं ॥ ३५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाष्पाम्बु-परिपूर्णेन
कृष्ण-वक्राक्षि-पक्ष्मणा ।
वदनेनाप्रसन्नेन
निःश्वसन्तीं पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
मूलम्
बाष्पाम्बु-परिपूर्णेन
कृष्ण-वक्राक्षि-पक्ष्मणा ।
वदनेनाप्रसन्नेन
निःश्वसन्तीं पुनः पुनः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका मुख प्रसन्न नहीं था । उसपर आँसुओंकी धारा बह रही थी और नेत्रोंकी पलकें काली एवं टेढ़ी दिखायी देती थीं । वे बारंबार लंबी साँस खींचती थीं ॥ ३६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मल-पङ्क-धरां दीनां
मण्डनार्हाम् अमण्डिताम् ।
प्रभां नक्षत्र-राजस्य
कालमेघैर् इवावृताम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
मलपङ्कधरां दीनां मण्डनार्हाममण्डिताम् ।
प्रभां नक्षत्रराजस्य कालमेघैरिवावृताम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके शरीरपर मैल जम गयी थी । वे दीनताकी मूर्ति बनी बैठी थीं तथा शृंगार और भूषण धारण करनेके योग्य होनेपर भी अलंकारशून्य थीं, अतः काले बादलोंसे ढकी हुई चन्द्रमाकी प्रभाके समान जान पड़ती थीं ॥ ३७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य सन्दिदिहे बुद्धिस्
तथा सीतां निरीक्ष्य च ।
आम्नायानाम् +++(अभ्यास-)+++अयोगेन
विद्यां प्रशिथिलाम् इव ॥ ३८ ॥+++(5)+++
मूलम्
तस्य सन्दिदिहे बुद्धिस्तथा सीतां निरीक्ष्य च ।
आम्नायानामयोगेन विद्यां प्रशिथिलामिव ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभ्यास न करनेसे शिथिल (विस्मृत) हुई विद्याके समान क्षीण हुई सीताको देखकर हनुमान् जी की बुद्धि संदेहमें पड़ गयी ॥ ३८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखेन बुबुधे सीतां
हनुमान् अनलङ्कृताम् ।
संस्कारेण यथा हीनां
वाचम् अर्थान्तरं गताम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
दुःखेन बुबुधे सीतां हनुमाननलङ्कृताम् ।
संस्कारेण यथा हीनां वाचमर्थान्तरं गताम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अलंकार तथा स्नान-अनुलेपन आदि अंगसंस्कारसे रहित हुई सीता व्याकरणादिजनित संस्कारसे शून्य होनेके कारण अर्थान्तरको प्राप्त हुई वाणीके समान पहचानी नहीं जा रही थीं । हनुमान् जी ने बड़े कष्टसे उन्हें पहचाना ॥ ३९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां समीक्ष्य विशालाक्षीं
राज-पुत्रीम् अनिन्दिताम् ।
तर्कयाम् आस सीतेति
कारणैर् उपपादयन् ॥ ४० ॥
मूलम्
तां समीक्ष्य विशालाक्षीं राजपुत्रीमनिन्दिताम् ।
तर्कयामास सीतेति कारणैरुपपादयन् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन विशाललोचना सती-साध्वी राजकुमारीको देखकर उन्होंने कारणों (युक्तियों)-द्वारा उपपादन करते हुए मनमें निश्चय किया कि यही सीता हैं ॥ ४० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैदेह्या यानि चाङ्गेषु
तदा रामो ऽन्वकीर्तयत् ।
तान्य् आभरण-जालानि
गात्रशोभीन्य् अलक्षयत् ॥ ४१ ॥
मूलम्
वैदेह्या यानि चाङ्गेषु तदा रामोऽन्वकीर्तयत् ।
तान्याभरणजालानि गात्रशोभीन्यलक्षयत् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों श्रीरामचन्द्रजीने विदेहकुमारीके अंगोंमें जिन-जिन आभूषणोंके होनेकी चर्चा की थी, वे ही आभूषण-समूह इस समय उनके अंगोंकी शोभा बढ़ा रहे थे । हनुमान् जी ने इस बातकी ओर लक्ष्य किया ॥ ४१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकृतौ कर्ण-वेष्टौ च
श्व-दंष्ट्रौ च सुसंस्थितौ ।
मणिविद्रुम-चित्राणि
हस्तेष्व् आभरणानि च ॥ ४२ ॥
मूलम्
सुकृतौ कर्णवेष्टौ च श्वदंष्ट्रौ च सुसंस्थितौ ।
मणिविद्रुमचित्राणि हस्तेष्वाभरणानि च ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर बने हुए कुण्डल और कुत्तेके दाँतोंकी-सी आकृतिवाले त्रिकर्ण नामधारी कर्णफूल कानोंमें सुन्दर ढंगसे सुप्रतिष्ठित एवं सुशोभित थे । हाथोंमें कंगन आदि आभूषण थे, जिनमें मणि और मूँगे जड़े हुए थे ॥ ४२ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्यामानि चिरयुक्तत्वात्
तथा संस्थानवन्ति च ।
तान्य् एवैतानि मन्येऽहं
यानि रामो ऽन्वकीर्तयत् ॥ ४३ ॥
तत्र यान्य् अवहीनानि
तान्य् अहं नोपलक्षये ।
यान्यस्या नावहीनानि
तानीमानि न संशयः ॥ ४४ ॥
मूलम्
श्यामानि चिरयुक्तत्वात् तथा संस्थानवन्ति च ।
तान्येवैतानि मन्येऽहं यानि रामोऽन्वकीर्तयत् ॥ ४३ ॥
तत्र यान्यवहीनानि तान्यहं नोपलक्षये ।
यान्यस्या नावहीनानि तानीमानि न संशयः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि बहुत दिनोंसे पहने गये होनेके कारण वे कुछ काले पड़ गये थे, तथापि उनके आकार-प्रकार वैसे ही थे । (हनुमान् जी ने सोचा—) ‘श्रीरामचन्द्रजीने जिनकी चर्चा की थी, मेरी समझमें ये वे ही आभूषण हैं । सीताजीने जो आभूषण वहाँ गिरा दिये थे, उनको मैं इनके अंगोंमें नहीं देख रहा हूँ । इनके जो आभूषण मार्गमें गिराये नहीं गये थे, वे ही ये दिखायी देते हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ४३-४४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीतं कनक-पट्टाभं
स्रस्तं तद्वसनं शुभम् ।
उत्तरीयं नगासक्तं
तदा दृष्टं प्लवङ्गमैः ॥ ४५ ॥
भूषणानि च मुख्यानि
दृष्टानि धरणीतले ।
अनयैवापविद्धानि
स्वनवन्ति महान्ति च ॥ ४६ ॥
मूलम्
पीतं कनकपट्टाभं स्रस्तं तद्वसनं शुभम् ।
उत्तरीयं नगासक्तं तदा दृष्टं प्लवङ्गमैः ॥ ४५ ॥
भूषणानि च मुख्यानि दृष्टानि धरणीतले ।
अनयैवापविद्धानि स्वनवन्ति महान्ति च ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय वानरोंने पर्वतपर गिराये हुए सुवर्णपत्रके समान जो सुन्दर पीला वस्त्र और पृथ्वीपर पड़े हुए उत्तमोत्तम बहुमूल्य एवं बजनेवाले आभूषण देखे थे, वे इन्हींके गिराये हुए थे ॥ ४५-४६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं चिर-गृहीतत्वाद्
वसनं क्लिष्टवत्तरम् ।
तथाप्य् अनूनं तद्वर्णं
तथा श्रीमद्-यथेतरत् ॥ ४७ ॥
मूलम्
इदं चिरगृहीतत्वाद् वसनं क्लिष्टवत्तरम् ।
तथाप्यनूनं तद्वर्णं तथा श्रीमद्यथेतरत् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह वस्त्र बहुत दिनोंसे पहने जानेके कारण यद्यपि बहुत पुराना हो गया है, तथापि इसका पीला रंग अभीतक उतरा नहीं है । यह भी वैसा ही कान्तिमान् है, जैसा वह दूसरा वस्त्र था ॥ ४७ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं कनक-वर्णाङ्गी
रामस्य महिषी प्रिया ।
प्रणष्टापि सती यस्य
मनसो न प्रणश्यति ॥ ४८ ॥
मूलम्
इयं कनकवर्णाङ्गी रामस्य महिषी प्रिया ।
प्रणष्टापि सती यस्य मनसो न प्रणश्यति ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सुवर्णके समान गौर अंगवाली श्रीरामचन्द्रजीकी प्यारी महारानी हैं, जो अदृश्य हो जानेपर भी उनके मनसे विलग नहीं हुई हैं ॥ ४८ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं सा यत्-कृते रामश्
चतुर्भिर् इह तप्यते ।
कारुण्येनानृशंस्येन
शोकेन मदनेन च ॥ ४९ ॥+++(5)+++
मूलम्
इयं सा यत्कृते रामश्चतुर्भिरिह तप्यते ।
कारुण्येनानृशंस्येन शोकेन मदनेन च ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये वे ही सीता हैं, जिनके लिये श्रीरामचन्द्रजी इस जगत् में करुणा, दया, शोक और प्रेम—इन चार कारणोंसे संतप्त होते रहते हैं ॥ ४९ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्री प्रणष्टेति कारुण्याद्
आश्रितेत्य् आनृशंस्यतः ।
पत्नी नष्टेति शोकेन
प्रियेति मदनेन च ॥ ५० ॥+++(4)+++
मूलम्
स्त्री प्रणष्टेति कारुण्यादाश्रितेत्यानृशंस्यतः ।
पत्नी नष्टेति शोकेन प्रियेति मदनेन च ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘एक स्त्री खो गयी, यह सोचकर उनके हृदयमें करुणा भर आती है । वह हमारे आश्रित थी, यह सोचकर वे दयासे द्रवित हो उठते हैं । मेरी पत्नी ही मुझसे बिछुड़ गयी, इसका विचार करके वे शोकसे व्याकुल हो उठते हैं तथा मेरी प्रियतमा मेरे पास नहीं रही, ऐसी भावना करके उनके हृदयमें प्रेमकी वेदना होने लगती है ॥ ५० ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या देव्या यथा-रूपम्
अङ्ग-प्रत्यङ्ग-सौष्ठवम् ।
रामस्य च यथारूपं
तस्येयम् असितेक्षणा ॥ ५१ ॥
मूलम्
अस्या देव्या यथारूपमङ्गप्रत्यङ्गसौष्ठवम् ।
रामस्य च यथारूपं तस्येयमसितेक्षणा ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसा अलौकिक रूप श्रीरामचन्द्रजीका है तथा जैसा मनोहर रूप एवं अंग-प्रत्यंगकी सुघड़ता इन देवी सीतामें है; इसे देखते हुए कजरारे नेत्रोंवाली सीता उन्हींके योग्य पत्नी हैं ॥ ५१ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या देव्या मनस् तस्मिंस्
तस्य चास्यां प्रतिष्ठितम् ।
तेनेयं स च धर्मात्मा
मुहूर्तम् अपि जीवति ॥ ५२ ॥
मूलम्
अस्या देव्या मनस्तस्मिंस्तस्य चास्यां प्रतिष्ठितम् ।
तेनेयं स च धर्मात्मा मुहूर्तमपि जीवति ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन देवीका मन श्रीरघुनाथजीमें और श्रीरघुनाथजीका मन इनमें लगा हुआ है, इसीलिये ये तथा धर्मात्मा श्रीराम जीवित हैं । इनके मुहूर्तमात्र जीवनमें भी यही कारण है ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्करं कृतवान् रामो
हीनो यदनया प्रभुः ।
धारयत्य् आत्मनो देहं
न शोकेनावसीदति ॥ ५३ ॥
मूलम्
दुष्करं कृतवान् रामो हीनो यदनया प्रभुः ।
धारयत्यात्मनो देहं न शोकेनावसीदति ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इनके बिछुड़ जानेपर भी भगवान् श्रीराम जो अपने शरीरको धारण करते हैं, शोकसे शिथिल नहीं हो जाते हैं, यह उन्होंने अत्यन्त दुष्कर कार्य किया है’ ॥ ५३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सीतां तथा दृष्ट्वा
हृष्टः पवनसम्भवः ।
जगाम मनसा रामं
प्रशशंस च तं प्रभुम् ॥ ५४ ॥+++(5)+++
मूलम्
एवं सीतां तथा दृष्ट्वा हृष्टः पवनसम्भवः ।
जगाम मनसा रामं प्रशशंस च तं प्रभुम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस अवस्थामें सीताका दर्शन पाकर पवनपुत्र हनुमान् जी बहुत प्रसन्न हुए । वे मन-ही-मन भगवान् श्रीरामके पास जा पहुँचे—उनका चिन्तन करने लगे तथा सीता-जैसी साध्वीको पत्नीरूपमें पानेसे उनके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे ॥ ५४ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे पञ्चदशः सर्ग ॥ १५ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १५ ॥