०१४ अशोकवाटिकाप्रवेशः

वाचनम्
भागसूचना
  1. हनुमान् जी का अशोकवाटिकामें प्रवेश करके उसकी शोभा देखना तथा एक अशोकवृक्षपर छिपे रहकर वहींसे सीताका अनुसन्धान करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा मनसा चाधिगम्य ताम् ।
अवप्लुतो महातेजाः प्राकारं तस्य वेश्मनः ॥ १ ॥

मूलम्

स मुहूर्तमिव ध्यात्वा मनसा चाधिगम्य ताम् ।
अवप्लुतो महातेजाः प्राकारं तस्य वेश्मनः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी हनुमान् जी एक मुहूर्ततक इसी प्रकार विचार करते रहे । तत्पश्चात् मन-ही-मन सीताजीका ध्यान करके वे रावणके महलसे कूद पड़े और अशोकवाटिकाकी चहारदीवारीपर चढ़ गये ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु संहृष्टसर्वाङ्गः प्राकारस्थो महाकपिः ।
पुष्पिताग्रान् वसन्तादौ ददर्श विविधान् द्रुमान् ॥ २ ॥

मूलम्

स तु संहृष्टसर्वाङ्गः प्राकारस्थो महाकपिः ।
पुष्पिताग्रान् वसन्तादौ ददर्श विविधान् द्रुमान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस चहारदीवारीपर बैठे हुए महाकपि हनुमान् जी के सारे अंगोंमें हर्षजनित रोमाञ्च हो आया । उन्होंने वसन्तके आरम्भमें वहाँ नाना प्रकारके वृक्ष देखे, जिनकी डालियोंके अग्रभाग फूलोंके भारसे लदे थे ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सालान् अशोकान् भव्यांश्च
चम्पकांश्च सुपुष्पितान् ।
उद्दालकान् नागवृक्षांश्
चूतान् कपिमुखान् अपि ॥ ३ ॥
तथाऽऽम्रवणसम्पन्नाल्ँ
लताशतसमन्वितान् ।
ज्यामुक्त इव नाराचः
पुप्लुवे वृक्षवाटिकाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सालानशोकान् भव्यांश्च चम्पकांश्च सुपुष्पितान् ।
उद्दालकान् नागवृक्षांश्चूतान् कपिमुखानपि ॥ ३ ॥
तथाऽऽम्रवणसम्पन्नाल्ँ लताशतसमन्वितान् ।
ज्यामुक्त इव नाराचः पुप्लुवे वृक्षवाटिकाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ साल, अशोक, निम्ब और चम्पाके वृक्ष खूब खिले हुए थे । बहुवार, नागकेसर और बन्दरके मुँहकी भाँति लाल फल देनेवाले आम भी पुष्प एवं मञ्जरियोंसे सुशोभित हो रहे थे । अमराइयोंसे युक्त वे सभी वृक्ष शत-शत लताओंसे आवेष्टित थे । हनुमान् जी प्रत्यञ्चासे छूटे हुए बाणके समान उछले और उन वृक्षोंकी वाटिकामें जा पहुँचे ॥ ३-४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्रविश्य विचित्रां तां
विहगैर् अभिनादिताम् ।
राजतैः काञ्चनैश् चैव
पादपैः सर्वतो वृताम् ॥ ५ ॥
विहगैर् मृग-सङ्घैश् च
विचित्रां चित्रकाननाम् ।
उदितादित्य-सङ्काशां
ददर्श हनुमान् बली ॥ ६ ॥

मूलम्

स प्रविश्य विचित्रां तां विहगैरभिनादिताम् ।
राजतैः काञ्चनैश्चैव पादपैः सर्वतो वृताम् ॥ ५ ॥
विहगैर्मृगसङ्घैश्च विचित्रां चित्रकाननाम् ।
उदितादित्यसङ्काशां ददर्श हनुमान् बली ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विचित्र वाटिका सोने और चाँदीके समान वर्णवाले वृक्षोंद्वारा सब ओरसे घिरी हुई थी । उसमें नाना प्रकारके पक्षी कलरव कर रहे थे, जिससे वह सारी वाटिका गूँज रही थी ।
उसके भीतर प्रवेश करके बलवान् हनुमान् जी ने उसका निरीक्षण किया ।
भाँति-भाँतिके विहंगमों और मृगसमूहोंसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी ।
वह विचित्र काननोंसे अलंकृत थी और नवोदित सूर्यके समान अरुण रंगकी दिखायी देती थी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतां नानाविधैर्वृक्षैः
पुष्पोपगफलोपगैः ।
कोकिलैर् भृङ्गराजैश्च
मत्तैर्नित्यनिषेविताम् ॥ ७ ॥

मूलम्

वृतां नानाविधैर्वृक्षैः पुष्पोपगफलोपगैः ।
कोकिलैर्भृङ्गराजैश्च मत्तैर्नित्यनिषेविताम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फूलों और फलोंसे लदे हुए नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त हुई उस अशोकवाटिकाका मतवाले कोकिल और भ्रमर सेवन करते थे ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहृष्टमनुजां काले मृगपक्षिमदाकुलाम् ।
मत्तबर्हिणसङ्घुष्टां नानाद्विजगणायुताम् ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रहृष्टमनुजां काले मृगपक्षिमदाकुलाम् ।
मत्तबर्हिणसङ्घुष्टां नानाद्विजगणायुताम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह वाटिका ऐसी थी, जहाँ जानेसे हर समय लोगोंके मनमें प्रसन्नता होती थी । मृग और पक्षी मदमत्त हो उठते थे । मतवाले मोरोंका कलनाद वहाँ निरन्तर गूँजता रहता था और नाना प्रकारके पक्षी वहाँ निवास करते थे ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गमाणो वरारोहां
राजपुत्रीमनिन्दिताम् ।
सुखप्रसुप्तान् विहगान्
बोधयामास वानरः ॥ ९ ॥

मूलम्

मार्गमाणो वरारोहां राजपुत्रीमनिन्दिताम् ।
सुखप्रसुप्तान् विहगान् बोधयामास वानरः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वाटिकामें सती-साध्वी सुन्दरी राजकुमारी सीताकी खोज करते हुए वानरवीर हनुमान् ने घोंसलोंमें सुखपूर्वक सोये हुए पक्षियोंको जगा दिया ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पतद्भिर्द्विजगणैः पक्षैर्वातैः समाहताः ।
अनेकवर्णा विविधा मुमुचुः पुष्पवृष्टयः ॥ १० ॥

मूलम्

उत्पतद्भिर्द्विजगणैः पक्षैर्वातैः समाहताः ।
अनेकवर्णा विविधा मुमुचुः पुष्पवृष्टयः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उड़ते हुए विहंगमोंके पंखोंकी हवा लगनेसे वहाँके वृक्ष अनेक प्रकारके रंग-बिरंगे फूलोंकी वर्षा करनेलगे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पावकीर्णः शुशुभे
हनूमान् मारुतात्मजः ।
अशोकवनिकामध्ये
यथा पुष्पमयो गिरिः ॥ ११ ॥

मूलम्

पुष्पावकीर्णः शुशुभे हनूमान् मारुतात्मजः ।
अशोकवनिकामध्ये यथा पुष्पमयो गिरिः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय पवनकुमार हनुमान् जी उन फूलोंसे आच्छादित होकर ऐसी शोभा पाने लगे, मानो उस अशोकवनमें कोई फूलोंका बना हुआ पहाड़ शोभा पा रहा हो ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिशः सर्वाभिधावन्तं वृक्षखण्डगतं कपिम् ।
दृष्ट्वा सर्वाणि भूतानि वसन्त इति मेनिरे ॥ १२ ॥

मूलम्

दिशः सर्वाभिधावन्तं वृक्षखण्डगतं कपिम् ।
दृष्ट्वा सर्वाणि भूतानि वसन्त इति मेनिरे ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण दिशाओंमें दौड़ते और वृक्षसमूहोंमें घूमते हुए कपिवर हनुमान् जी को देखकर समस्त प्राणी एवं राक्षस ऐसा मानने लगे कि साक्षात् ऋतुराज वसन्त ही यहाँ वानरवेशमें विचर रहा है ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षेभ्यः पतितैः पुष्पैरवकीर्णाः पृथग्विधैः ।
रराज वसुधा तत्र प्रमदेव विभूषिता ॥ १३ ॥

मूलम्

वृक्षेभ्यः पतितैः पुष्पैरवकीर्णाः पृथग्विधैः ।
रराज वसुधा तत्र प्रमदेव विभूषिता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृक्षोंसे झड़कर गिरे हुए भाँति-भाँतिके फूलोंसे आच्छादित हुई वहाँकी भूमि फूलोंके शृंगारसे विभूषित हुई युवती स्त्रीके समान शोभा पाने लगी ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरस्विना ते तरवस्तरसा बहु कम्पिताः ।
कुसुमानि विचित्राणि ससृजुः कपिना तदा ॥ १४ ॥

मूलम्

तरस्विना ते तरवस्तरसा बहु कम्पिताः ।
कुसुमानि विचित्राणि ससृजुः कपिना तदा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उन वेगशाली वानरवीरके द्वारा वेगपूर्वक बारंबार हिलाये हुए वे वृक्ष विचित्र पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्धूतपत्रशिखराः शीर्णपुष्पफलद्रुमाः ।
निक्षिप्तवस्त्राभरणा धूर्ता इव पराजिताः ॥ १५ ॥

मूलम्

निर्धूतपत्रशिखराः शीर्णपुष्पफलद्रुमाः ।
निक्षिप्तवस्त्राभरणा धूर्ता इव पराजिताः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार डालियोंके पत्ते झड़ जाने तथा फल-फूल और पल्लवोंके टूटकर बिखर जानेसे नंग-धड़ंग दिखायी देनेवाले वे वृक्ष उन हारे हुए जुआरियोंके समान जान पड़ते थे, जिन्होंने अपने गहने और कपड़े भी दावँपर रख दिये हों ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमता वेगवता कम्पितास्ते नगोत्तमाः ।
पुष्पपत्रफलान्याशु मुमुचुः फलशालिनः ॥ १६ ॥

मूलम्

हनूमता वेगवता कम्पितास्ते नगोत्तमाः ।
पुष्पपत्रफलान्याशु मुमुचुः फलशालिनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेगशाली हनुमान् जी के हिलाये हुए वे फलशाली श्रेष्ठ वृक्ष तुरंत ही अपने फल-फूल और पत्तोंका परित्याग कर देते थे ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहङ्गसङ्घैर्हीनास्ते स्कन्धमात्राश्रया द्रुमाः ।
बभूवुरगमाः सर्वे मारुतेन विनिर्धुताः ॥ १७ ॥

मूलम्

विहङ्गसङ्घैर्हीनास्ते स्कन्धमात्राश्रया द्रुमाः ।
बभूवुरगमाः सर्वे मारुतेन विनिर्धुताः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनपुत्र हनुमान् द्वारा कम्पित किये गये वे वृक्ष फल-फूल आदिके न होनेसे केवल डालियोंके आश्रय बने हुए थे; पक्षियोंके समुदाय भी उन्हें छोड़कर चल दिये थे । उस अवस्थामें वे सब-के-सब प्राणिमात्रके लिये अगम्य (असेवनीय) हो गये थे ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधूतकेशी युवतिर्
यथा मृदितवर्णका ।
निपीतशुभ-दन्तोष्ठी
नखैर्दन्तैश्च विक्षता ॥ १८ ॥
तथा लाङ्गूल-हस्तैस्तु
चरणाभ्यां च मर्दिता ।
तथैवाशोकवनिका
प्रभग्न-वन-पादपा ॥ १९ ॥

मूलम्

विधूतकेशी युवतिर्यथा मृदितवर्णका ।
निपीतशुभदन्तोष्ठी नखैर्दन्तैश्च विक्षता ॥ १८ ॥
तथा लाङ्गूलहस्तैस्तु चरणाभ्यां च मर्दिता ।
तथैवाशोकवनिका प्रभग्नवनपादपा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके केश खुल गये हैं, अंगराग मिट गये हैं, सुन्दर दन्तावलीसे युक्त अधर-सुधाका पान कर लिया गया है तथा जिसके कतिपय अंग नखक्षत एवं दन्तक्षतसे उपलक्षित हो रहे हैं, प्रियतमके उपभोगमें आयी हुई उस युवतीके समान ही उस अशोकवाटिकाकी भी दशा हो रही थी । हनुमान् जी के हाथ-पैर और पूँछसे रौंदी जा चुकी थी तथा उसके अच्छे-अच्छे वृक्ष टूटकर गिर गये थे; इसलिये वह श्रीहीन हो गयी थी ॥ १८-१९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महालतानां दामानि व्यधमत् तरसा कपिः ।
यथा प्रावृषि वेगेन मेघजालानि मारुतः ॥ २० ॥

मूलम्

महालतानां दामानि व्यधमत् तरसा कपिः ।
यथा प्रावृषि वेगेन मेघजालानि मारुतः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वायु वर्षा-ऋतुमें अपने वेगसे मेघसमूहोंको छिन्न-भिन्न कर देती है, उसी प्रकार कपिवर हनुमान् ने वहाँ फैली हुई विशाल लता-वल्लरियोंके वितान वेगपूर्वक तोड़ डाले ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र मणिभूमीश्च राजतीश्च मनोरमाः ।
तथा काञ्चनभूमीश्च विचरन् ददृशे कपिः ॥ २१ ॥

मूलम्

स तत्र मणिभूमीश्च राजतीश्च मनोरमाः ।
तथा काञ्चनभूमीश्च विचरन् ददृशे कपिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ विचरते हुए उन वानरवीरने पृथक्-पृथक् ऐसी मनोरम भूमियोंका दर्शन किया, जिनमें मणि, चाँदी एवं सोने जड़े गये थे ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वापीश्च विविधाकाराः पूर्णाः परमवारिणा ।
महार्हैर्मणिसोपानैरुपपन्नास्ततस्ततः ॥ २२ ॥
मुक्ताप्रवालसिकताः स्फाटिकान्तरकुट्टिमाः ।
काञ्चनैस्तरुभिश्चित्रैस्तीरजैरुपशोभिताः ॥ २३ ॥

मूलम्

वापीश्च विविधाकाराः पूर्णाः परमवारिणा ।
महार्हैर्मणिसोपानैरुपपन्नास्ततस्ततः ॥ २२ ॥
मुक्ताप्रवालसिकताः स्फाटिकान्तरकुट्टिमाः ।
काञ्चनैस्तरुभिश्चित्रैस्तीरजैरुपशोभिताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वाटिकामें उन्होंने जहाँ-तहाँ विभिन्न आकारोंकी बावड़ियाँ देखीं, जो उत्तम जलसे भरी हुईं और मणिमय सोपानोंसे युक्त थीं । उनके भीतर मोती और मूँगोंकी बालुकाएँ थीं । जलके नीचेकी फर्श स्फटिक मणिकी बनी हुई थी और उन बावड़ियोंके तटोंपर तरह-तरहके विचित्र सुवर्णमय वृक्ष शोभा दे रहे थे ॥ २२-२३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धपद्मोत्पलवनाश्चक्रवाकोपशोभिताः ।
नत्यूहरुतसङ्घुष्टा हंससारसनादिताः ॥ २४ ॥

मूलम्

बुद्धपद्मोत्पलवनाश्चक्रवाकोपशोभिताः ।
नत्यूहरुतसङ्घुष्टा हंससारसनादिताः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमें खिले हुए कमलोंके वन और चक्रवाकोंके जोड़े शोभा बढ़ा रहे थे तथा पपीहा, हंस और सारसोंके कलनाद गूँज रहे थे ॥ २४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घाभिर्द्रुमयुक्ताभिः सरिद्भिश्च समन्ततः ।
अमृतोपमतोयाभिः शिवाभिरुपसंस्कृताः ॥ २५ ॥

मूलम्

दीर्घाभिर्द्रुमयुक्ताभिः सरिद्भिश्च समन्ततः ।
अमृतोपमतोयाभिः शिवाभिरुपसंस्कृताः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेकानेक विशाल, तटवर्ती वृक्षोंसे सुशोभित, अमृतके समान मधुर जलसे पूर्ण तथा सुखदायिनी सरिताएँ चारों ओरसे उन बावड़ियोंका सदा संस्कार करती थीं (उन्हें स्वच्छ जलसे परिपूर्ण बनाये रखती थीं) ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लताशतैरवतताः सन्तानकुसुमावृताः ।
नानागुल्मावृतवनाः करवीरकृतान्तराः ॥ २६ ॥

मूलम्

लताशतैरवतताः सन्तानकुसुमावृताः ।
नानागुल्मावृतवनाः करवीरकृतान्तराः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके तटोंपर सैकड़ों प्रकारकी लताएँ फैली हुई थीं । खिले हुए कल्पवृक्षोंने उन्हें चारों ओरसे घेर रखा था । उनके जल नाना प्रकारकी झाड़ियोंसे ढके हुए थे तथा बीच-बीचमें खिले हुए कनेरके वृक्ष गवाक्षकी-सी शोभा पाते थे ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽम्बुधरसङ्काशं प्रवृद्धशिखरं गिरिम् ।
विचित्रकूटं कूटैश्च सर्वतः परिवारितम् ॥ २७ ॥
शिलागृहैरवततं नानावृक्षसमावृतम् ।
ददर्श कपिशार्दूलो रम्यं जगति पर्वतम् ॥ २८ ॥

मूलम्

ततोऽम्बुधरसङ्काशं प्रवृद्धशिखरं गिरिम् ।
विचित्रकूटं कूटैश्च सर्वतः परिवारितम् ॥ २७ ॥
शिलागृहैरवततं नानावृक्षसमावृतम् ।
ददर्श कपिशार्दूलो रम्यं जगति पर्वतम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वहाँ कपिश्रेष्ठ हनुमान् ने एक मेघके समान काला और ऊँचे शिखरोंवाला पर्वत देखा, जिसकी चोटियाँ बड़ी विचित्र थीं । उसके चारों ओर दूसरे-दूसरे भी बहुत-से पर्वत-शिखर शोभा पाते थे । उसमें बहुत-सी पत्थरकी गुफाएँ थीं और उस पर्वतपर अनेकानेक वृक्ष उगे हुए थे । वह पर्वत संसारभरमें बड़ा रमणीय था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श च नगात् तस्मान्नदीं निपतितां कपिः ।
अङ्कादिव समुत्पत्य प्रियस्य पतितां प्रियाम् ॥ २९ ॥

मूलम्

ददर्श च नगात् तस्मान्नदीं निपतितां कपिः ।
अङ्कादिव समुत्पत्य प्रियस्य पतितां प्रियाम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कपिवर हनुमान् ने उस पर्वतसे गिरी हुई एक नदी देखी, जो प्रियतमके अंकसे उछलकर गिरी हुई प्रियतमाके समान जान पड़ती थी ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जले निपतिताग्रैश्च पादपैरुपशोभिताम् ।
वार्यमाणामिव क्रुद्धां प्रमदां प्रियबन्धुभिः ॥ ३० ॥

मूलम्

जले निपतिताग्रैश्च पादपैरुपशोभिताम् ।
वार्यमाणामिव क्रुद्धां प्रमदां प्रियबन्धुभिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी डालियाँ नीचे झुककर पानीसे लग गयी थीं, ऐसे तटवर्ती वृक्षोंसे उस नदीकी वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो प्रियतमसे रूठकर अन्यत्र जाती हुई युवतीको उसकी प्यारी सखियाँ उसे आगे बढ़नेसे रोक रही हों ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनरावृत्ततोयां च ददर्श स महाकपिः ।
प्रसन्नामिव कान्तस्य कान्तां पुनरुपस्थिताम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

पुनरावृत्ततोयां च ददर्श स महाकपिः ।
प्रसन्नामिव कान्तस्य कान्तां पुनरुपस्थिताम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन महाकपिने देखा कि वृक्षोंकी उन डालियोंसे टकराकर उस नदीके जलका प्रवाह पीछेकी ओर मुड़ गया है । मानो प्रसन्न हुई प्रेयसी पुनः प्रियतमकी सेवामें उपस्थित हो रही हो ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यादूरात् स पद्मिन्यो नानाद्विजगणायुताः ।
ददर्श कपिशार्दूलो हनूमान् मारुतात्मजः ॥ ३२ ॥

मूलम्

तस्यादूरात् स पद्मिन्यो नानाद्विजगणायुताः ।
ददर्श कपिशार्दूलो हनूमान् मारुतात्मजः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पर्वतसे थोड़ी ही दूरपर कपिश्रेष्ठ पवनपुत्र हनुमान् ने बहुत-से कमलमण्डित सरोवर देखे, जिनमें नाना प्रकारके पक्षी चहचहा रहे थे ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्रिमां दीर्घिकां चापि पूर्णां शीतेन वारिणा ।
मणिप्रवरसोपानां मुक्तासिकतशोभिताम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

कृत्रिमां दीर्घिकां चापि पूर्णां शीतेन वारिणा ।
मणिप्रवरसोपानां मुक्तासिकतशोभिताम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके सिवा उन्होंने एक कृत्रिम तालाब भी देखा, जो शीतल जलसे भरा हुआ था । उसमें श्रेष्ठ मणियोंकी सीढ़ियाँ बनी थीं और वह मोतियोंकी बालुकाराशिसे सुशोभित था ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधैर्मृगसङ्घैश्च
विचित्रां चित्रकाननाम् ।
प्रासादैः सुमहद्भिश्च
निर्मितैर् विश्वकर्मणा ॥ ३४ ॥
काननैः कृत्रिमैश्चापि
सर्वतः समलङ्कृताम् ।

मूलम्

विविधैर्मृगसङ्घैश्च विचित्रां चित्रकाननाम् ।
प्रासादैः सुमहद्भिश्च निर्मितैर्विश्वकर्मणा ॥ ३४ ॥
काननैः कृत्रिमैश्चापि सर्वतः समलङ्कृताम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

उस अशोकवाटिकामें विश्वकर्माके बनाये हुए बड़े-बड़े महल और कृत्रिम कानन सब ओरसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे । नाना प्रकारके मृगसमूहोंसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी । उस वाटिकामें विचित्र वन-उपवन शोभा दे रहे थे ॥ ३४ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये केचित् पादपास्तत्र पुष्पोपगफलोपगाः ॥ ३५ ॥
सच्छत्राः सवितर्दीकाः सर्वे सौवर्णवेदिकाः ।

मूलम्

ये केचित् पादपास्तत्र पुष्पोपगफलोपगाः ॥ ३५ ॥
सच्छत्राः सवितर्दीकाः सर्वे सौवर्णवेदिकाः ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जो कोई भी वृक्ष थे, वे सब फल-फूल देनेवाले थे, छत्रकी भाँति घनी छाया किये रहते थे । उन सबके नीचे चाँदीकी और उसके ऊपर सोनेकी वेदियाँ बनी हुई थीं ॥ ३५ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लता-प्रतानैर् बहुभिः
पर्णैश् च बहुभिर् वृताम् ॥ ३६ ॥
काञ्चनीं शिंशपाम् एकां
ददर्श स महाकपिः ।
वृतां हेम-मयीभिस् तु
वेदिकाभिः समन्ततः ॥ ३७ ॥

मूलम्

लताप्रतानैर्बहुभिः पर्णैश्च बहुभिर्वृताम् ॥ ३६ ॥
काञ्चनीं शिंशपामेकां ददर्श स महाकपिः ।
वृतां हेममयीभिस्तु वेदिकाभिः समन्ततः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर महाकपि हनुमान् ने एक सुवर्णमयी शिंशपा (अशोक)-का वृक्ष देखा,
जो बहुत-से लतावितानों और अगणित पत्तोंसे व्याप्त था ।
वह वृक्ष भी सब ओरसे सुवर्णमयी वेदिकाओंसे घिरा था ॥ ३६-३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपश्यद् भूमिभागांश् च
नग-प्रस्रवणानि च ।
सुवर्ण-वृक्षान् अपरान्
ददर्श शिखिसन्निभान् ॥ ३८ ॥

मूलम्

सोऽपश्यद् भूमिभागांश्च नगप्रस्रवणानि च ।
सुवर्णवृक्षानपरान् ददर्श शिखिसन्निभान् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा उन्होंने और भी बहुत-से खुले मैदान, पहाड़ी झरने और अग्निके समान दीप्तिमान् सुवर्णमय वृक्ष देखे ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां द्रुमाणां प्रभया
मेरोर् इव महाकपिः ।
अमन्यत तदा वीरः
काञ्चनो ऽस्मीति सर्वतः ॥ ३९ ॥+++(5)+++

मूलम्

तेषां द्रुमाणां प्रभया मेरोरिव महाकपिः ।
अमन्यत तदा वीरः काञ्चनोऽस्मीति सर्वतः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वीर महाकपि हनुमान् जी ने सुमेरुके समान उन वृक्षोंकी प्रभाके कारण अपनेको भी सब ओरसे सुवर्णमय ही समझा ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् काञ्चनान् वृक्ष-गणान्
मारुतेन प्रकम्पितान् ।
किङ्किणी-शत-निर्घोषान्
दृष्ट्वा विस्मयम् आगमत् ॥ ४० ॥
सुपुष्पिताग्रान् रुचिरांस्
तरुणाङ्कुर-पल्लवान् ।

मूलम्

तान् काञ्चनान् वृक्षगणान् मारुतेन प्रकम्पितान् ।
किङ्किणीशतनिर्घोषान् दृष्ट्वा विस्मयमागमत् ॥ ४० ॥
सुपुष्पिताग्रान् रुचिरांस्तरुणाङ्कुरपल्लवान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वे सुवर्णमय वृक्षसमूह जब वायुके झोंके खाकर हिलने लगते, तब उनसे सैकड़ों घुँघुरुओंके बजनेकी-सी मधुर ध्वनि होती थी । वह सब देखकर हनुमान् जी को बड़ा विस्मय हुआ । उन वृक्षोंकी डालियोंमें सुन्दर फूल खिले हुए थे और नये-नये अंकुर तथा पल्लव निकले हुए थे, जिससे वे बड़े सुन्दर दिखायी देते थे ॥ ४० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताम् आरुह्य महावेगः
शिंशपां पर्ण-संवृताम् ॥ ४१ ॥
इतो द्रक्ष्यामि वैदेहीं
राम-दर्शन-लालसाम् ।

इतश् चेतश् च दुःखार्तां
सम्पतन्तीं यद्-ऋच्छया ॥ ४२ ॥

मूलम्

तामारुह्य महावेगः शिंशपां पर्णसंवृताम् ॥ ४१ ॥
इतो द्रक्ष्यामि वैदेहीं रामदर्शनलालसाम् ।
इतश्चेतश्च दुःखार्तां सम्पतन्तीं यदृच्छया ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महान् वेगशाली हनुमान् जी पत्तोंसे हरी-भरी उस शिंशपापर यह सोचकर चढ़ गये कि ‘मैं यहींसे श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये उत्सुक हुई उन विदेहनन्दिनी सीताको देखूँगा, जो दुःखसे आतुर हो इच्छानुसार इधर-उधर जाती-आती होंगी ॥ ४१-४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोक-वनिका चेयं
दृढं रम्या दुरात्मनः ।
चन्दनैश् चम्पकैश् चापि
बकुलैश्च विभूषिता ॥ ४३ ॥
इयं च नलिनी रम्या
द्विजसङ्घ-निषेविता ।
इमां सा राज-महिषी
नूनम् एष्यति जानकी ॥ ४४ ॥

मूलम्

अशोकवनिका चेयं दृढं रम्या दुरात्मनः ।
चन्दनैश्चम्पकैश्चापि बकुलैश्च विभूषिता ॥ ४३ ॥
इयं च नलिनी रम्या द्विजसङ्घनिषेविता ।
इमां सा राजमहिषी नूनमेष्यति जानकी ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुरात्मा रावणकी यह अशोकवाटिका बड़ी ही रमणीय है । चन्दन, चम्पा और मौलसिरीके वृक्ष इसकी शोभा बढ़ा रहे हैं । इधर यह पक्षियोंसे सेवित कमलमण्डित सरोवर भी बड़ा सुन्दर है । राजरानी जानकी इसके तटपर निश्चय ही आती होंगी ॥ ४३-४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा रामा राज-महिषी
राघवस्य प्रिया सती ।
वन-सञ्चार-कुशला
ध्रुवम् एष्यति जानकी ॥ ४५ ॥

मूलम्

सा रामा राजमहिषी राघवस्य प्रिया सती ।
वनसञ्चारकुशला ध्रुवमेष्यति जानकी ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रघुनाथजीकी प्रियतमा राजरानी रामा सती-साध्वी जानकी वनमें घूमने-फिरनेमें बहुत कुशल हैं । वे अवश्य इधर आयेंगी ॥ ४५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा मृग-शावाक्षी वनस्यास्य विचक्षणा ।
वनम् एष्यति साद्येह
राम-चिन्ता-सुकर्शिता ॥ ४६ ॥

मूलम्

अथवा मृगशावाक्षी वनस्यास्य विचक्षणा ।
वनमेष्यति साद्येह रामचिन्तासुकर्शिता ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा इस वनकी विशेषताओंके ज्ञानमें निपुण मृग-शावकनयनी सीता आज यहाँ इस तालाबके तटवर्ती वनमें अवश्य पधारेंगी; क्योंकि वे श्रीरामचन्द्रजीके वियोगकी चिन्तासे अत्यन्त दुबली हो गयी होंगी (और इस सुन्दर स्थानमें आनेसे उनकी चिन्ता कुछ कम हो सकेगी) ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम-शोकाभिसन्तप्ता
सा देवी वामलोचना ।
वन-वास-रता नित्यम्
एष्यते वनचारिणी ॥ ४७ ॥

मूलम्

रामशोकाभिसन्तप्ता सा देवी वामलोचना ।
वनवासरता नित्यमेष्यते वनचारिणी ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुन्दर नेत्रवाली देवी सीता भगवान् श्रीरामके विरह-शोकसे बहुत ही संतप्त होंगी । वनवासमें उनका सदा ही प्रेम रहा है, अतः वे वनमें विचरती हुई इधर अवश्य आयेंगी ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वनेचराणां सततं
नूनं स्पृहयते पुरा ।
रामस्य दयिता चार्या
जनकस्य सुता सती ॥ ४८ ॥

मूलम्

वनेचराणां सततं नूनं स्पृहयते पुरा ।
रामस्य दयिता चार्या जनकस्य सुता सती ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रीरामकी प्यारी पत्नी सती-साध्वी जनकनन्दिनी सीता पहले निश्चय ही वनवासी जन्तुओंसे सदा प्रेम करती रही होंगी । (इसलिये उनके लिये वनमें भ्रमण करना स्वाभाविक है, अतः यहाँ उनके दर्शनकी सम्भावना है ही) ॥ ४८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ध्याकालमनाः श्यामा
ध्रुवम् एष्यति जानकी ।
नदीं चेमां शुभजलां
सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ॥ ४९ ॥+++(4)+++

मूलम्

सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी ।
नदीं चेमां शुभजलां सन्ध्यार्थे वरवर्णिनी ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह प्रातःकालकी संध्या (उपासना)-का समय है, इसमें मन लगानेवाली और सदा सोलह वर्षकी-सी अवस्थामें रहनेवाली अक्षययौवना जनककुमारी सुन्दरी सीता संध्याकालिक उपासनाके लिये इस पुण्यसलिला नदीके तटपर अवश्य पधारेंगी ॥ ४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश् चाप्य् अनुरूपेयम्
अशोकवनिका शुभा ।
शुभायाः पार्थिवेन्द्रस्य
पत्नी रामस्य सम्मता ॥ ५० ॥

मूलम्

तस्याश्चाप्यनुरूपेयमशोकवनिका शुभा ।
शुभायाः पार्थिवेन्द्रस्य पत्नी रामस्य सम्मता ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजाधिराज श्रीरामचन्द्रजीकी समादरणीया पत्नी हैं, उन शुभलक्षणा सीताके लिये यह सुन्दर अशोकवाटिका भी सब प्रकारसे अनुकूल ही है ॥ ५० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि जीवति सा देवी
ताराधिपनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यम्
इमां शीतजलां नदीम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

यदि जीवति सा देवी ताराधिपनिभानना ।
आगमिष्यति सावश्यमिमां शीतजलां नदीम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि चन्द्रमुखी सीता देवी जीवित हैं तो वे इस शीतल जलवाली सरिताके तटपर अवश्य पदार्पण करेंगी’ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तु मत्वा हनुमान् महात्मा
प्रतीक्षमाणो मनु-जेन्द्र-पत्नीम् ।
अवेक्षमाणश् च ददर्श सर्वं
सुपुष्पिते पर्णघने निलीनः ॥ ५२ ॥

मूलम्

एवं तु मत्वा हनुमान् महात्मा
प्रतीक्षमाणो मनुजेन्द्रपत्नीम् ।
अवेक्षमाणश्च ददर्श सर्वं
सुपुष्पिते पर्णघने निलीनः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा सोचते हुए महात्मा हनुमान् जी नरेन्द्रपत्नी सीताके शुभागमनकी प्रतीक्षामें तत्पर हो सुन्दर फूलोंसे सुशोभित तथा घने पत्तेवाले उस अशोकवृक्षपर छिपे रहकर उस सम्पूर्ण वनपर दृष्टिपात करते रहे ॥ ५२ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे चतुर्दशः सर्गः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १४ ॥