०१० हनुमता रावणान्तःपुरप्रवेशः

वाचनम्
भागसूचना
  1. हनुमान् जी का अन्तःपुरमें सोये हुए रावण तथा गाढ़ निद्रामें पड़ी हुई उसकी स्त्रियोंको देखना तथा मन्दोदरीको सीता समझकर प्रसन्न होना
विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र दिव्योपमं मुख्यं स्फाटिकं रत्नभूषितम् ।
अवेक्षमाणो हनुमान् ददर्श शयनासनम् ॥ १ ॥

मूलम्

तत्र दिव्योपमं मुख्यं स्फाटिकं रत्नभूषितम् ।
अवेक्षमाणो हनुमान् ददर्श शयनासनम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ इधर-उधर दृष्टिपात करते हुए हनुमान् जी ने एक दिव्य एवं श्रेष्ठ वेदी देखी, जिसपर पलंग बिछाया जाता था । वह वेदी स्फटिक मणिकी बनी हुई थी और उसमें अनेक प्रकारके रत्न जड़े गये थे ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दान्तकाञ्चनचित्राङ्गैर्वैदूर्यैश्च वरासनैः ।
महार्हास्तरणोपेतैरुपपन्नं महाधनैः ॥ २ ॥

मूलम्

दान्तकाञ्चनचित्राङ्गैर्वैदूर्यैश्च वरासनैः ।
महार्हास्तरणोपेतैरुपपन्नं महाधनैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वैदूर्यमणि (नीलम)-के बने हुए श्रेष्ठ आसन(पलंग) बिछे हुए थे, जिनकी पाटी-पाये आदि अंग हाथी-दाँत और सुवर्णसे जटित होनेके कारण चितकबरे दिखायी देते थे । उन महामूल्यवान् पलंगोंपर बहुमूल्य बिछौने बिछाये गये थे । उन सबके कारण उस वेदीकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चैकतमे देशे दिव्यमालोपशोभितम् ।
ददर्श पाण्डुरं छत्रं ताराधिपतिसन्निभम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्य चैकतमे देशे दिव्यमालोपशोभितम् ।
ददर्श पाण्डुरं छत्रं ताराधिपतिसन्निभम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पलंगके एक भागमें उन्होंने चन्द्रमाके समान एक श्वेत छत्र देखा, जो दिव्य मालाओंसे सुशोभित था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातरूपपरिक्षिप्तं चित्रभानोः समप्रभम् ।
अशोकमालाविततं ददर्श परमासनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

जातरूपपरिक्षिप्तं चित्रभानोः समप्रभम् ।
अशोकमालाविततं ददर्श परमासनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह उत्तम पलंग सुवर्णसे जटित होनेके कारण अग्निके समान देदीप्यमान हो रहा था । हनुमान् जी ने उसे अशोकपुष्पोंकी मालाओंसे अलंकृत देखा ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वालव्यजनहस्ताभिर्वीज्यमानं समन्ततः ।
गन्धैश्च विविधैर्जुष्टं वरधूपेन धूपितम् ॥ ५ ॥

मूलम्

वालव्यजनहस्ताभिर्वीज्यमानं समन्ततः ।
गन्धैश्च विविधैर्जुष्टं वरधूपेन धूपितम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके चारों ओर खड़ी हुई बहुत-सी स्त्रियाँ हाथोंमें चँवर लिये उसपर हवा कर रही थीं । वह पलंग अनेक प्रकारकी गन्धोंसे सेवित तथा उत्तम धूपसे सुवासित था ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमास्तरणास्तीर्णमाविकाजिनसंवृतम् ।
दामभिर्वरमाल्यानां समन्तादुपशोभितम् ॥ ६ ॥

मूलम्

परमास्तरणास्तीर्णमाविकाजिनसंवृतम् ।
दामभिर्वरमाल्यानां समन्तादुपशोभितम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसपर उत्तमोत्तम बिछौने बिछे हुए थे । उसमें भेड़की खाल मढ़ी हुई थी तथा वह सब ओरसे उत्तम फूलोंकी मालाओंसे सुशोभित था ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिञ्जीमूतसङ्काशं प्रदीप्तोज्ज्वलकुण्डलम् ।
लोहिताक्षं महाबाहुं महारजतवाससम् ॥ ७ ॥
लोहितेनानुलिप्ताङ्गं चन्दनेन सुगन्धिना ।
सन्ध्यारक्तमिवाकाशे तोयदं सतडिद्गुणम् ॥ ८ ॥
वृतमाभरणैर्दिव्यैः सुरूपं कामरूपिणम् ।
सवृक्षवनगुल्माढ्यं प्रसुप्तमिव मन्दरम् ॥ ९ ॥
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ वराभरणभूषितम् ।
प्रियं राक्षसकन्यानां राक्षसानां सुखावहम् ॥ १० ॥
पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः ।
भास्वरे शयने वीरं प्रसुप्तं राक्षसाधिपम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्मिञ्जीमूतसङ्काशं प्रदीप्तोज्ज्वलकुण्डलम् ।
लोहिताक्षं महाबाहुं महारजतवाससम् ॥ ७ ॥
लोहितेनानुलिप्ताङ्गं चन्दनेन सुगन्धिना ।
सन्ध्यारक्तमिवाकाशे तोयदं सतडिद्गुणम् ॥ ८ ॥
वृतमाभरणैर्दिव्यैः सुरूपं कामरूपिणम् ।
सवृक्षवनगुल्माढ्यं प्रसुप्तमिव मन्दरम् ॥ ९ ॥
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ वराभरणभूषितम् ।
प्रियं राक्षसकन्यानां राक्षसानां सुखावहम् ॥ १० ॥
पीत्वाप्युपरतं चापि ददर्श स महाकपिः ।
भास्वरे शयने वीरं प्रसुप्तं राक्षसाधिपम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस प्रकाशमान पलंगपर महाकपि हनुमान् जी ने वीर राक्षसराज रावणको सोते देखा, जो सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित, इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला, दिव्य आभरणोंसे अलंकृत और सुरूपवान् था । वह राक्षस-कन्याओंका प्रियतम तथा राक्षसोंको सुख पहुँचानेवाला था । उसके अंगोंमें सुगन्धित लाल चन्दनका अनुलेप लगा हुआ था, जिससे वह आकाशमें संध्याकालकी लाली तथा विद्युल्लेखासे युक्त मेघके समान शोभा पाता था । उसकी अंगकान्ति मेघके समान श्याम थी । उसके कानोंमें उज्ज्वल कुण्डल झिलमिला रहे थे । आँखें लाल थीं और भुजाएँ बड़ी-बड़ी । उसके वस्त्र सुनहरे रंगके थे । वह रातको स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा करके मदिरा पीकर आराम कर रहा था । उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वृक्ष, वन और लता-गुल्मोंसे सम्पन्न मन्दराचल सो रहा हो ॥ ७—११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निःश्वसन्तं यथा नागं रावणं वानरोत्तमः ।
आसाद्य परमोद्विग्नः सोपासर्पत् सुभीतवत् ॥ १२ ॥
अथारोहणमासाद्य वेदिकान्तरमाश्रितः ।
क्षीबं राक्षसशार्दूलं प्रेक्षते स्म महाकपिः ॥ १३ ॥

मूलम्

निःश्वसन्तं यथा नागं रावणं वानरोत्तमः ।
आसाद्य परमोद्विग्नः सोपासर्पत् सुभीतवत् ॥ १२ ॥
अथारोहणमासाद्य वेदिकान्तरमाश्रितः ।
क्षीबं राक्षसशार्दूलं प्रेक्षते स्म महाकपिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय साँस लेता हुआ रावण फुफकारते हुए सर्पके समान जान पड़ता था । उसके पास पहुँचकर वानरशिरोमणि हनुमान् अत्यन्त उद्विग्न हो भलीभाँति डरे हुएकी भाँति सहसा दूर हट गये और सीढ़ियोंपर चढ़कर एक-दूसरी वेदीपर जाकर खड़े हो गये । वहाँसे उन महाकपिने उस मतवाले राक्षससिंहको देखना आरम्भ किया ॥ १२-१३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुशुभे राक्षसेन्द्रस्य स्वपतः शयनं शुभम् ।
गन्धहस्तिनि संविष्टे यथा प्रस्रवणं महत् ॥ १४ ॥

मूलम्

शुशुभे राक्षसेन्द्रस्य स्वपतः शयनं शुभम् ।
गन्धहस्तिनि संविष्टे यथा प्रस्रवणं महत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षसराज रावणके सोते समय वह सुन्दर पलंग उसी प्रकार शोभा पा रहा था, जैसे गन्धहस्तीके शयन करनेपर विशाल प्रस्रवणगिरि सुशोभित हो रहा हो ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काञ्चनाङ्गदसन्नद्धौ ददर्श स महात्मनः ।
विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ ॥ १५ ॥

मूलम्

काञ्चनाङ्गदसन्नद्धौ ददर्श स महात्मनः ।
विक्षिप्तौ राक्षसेन्द्रस्य भुजाविन्द्रध्वजोपमौ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने महाकाय राक्षसराज रावणकी फैलायी हुई दो भुजाएँ देखीं, जो सोनेके बाजूबंदसे विभूषित हो इन्द्रध्वजके समान जान पड़ती थीं ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐरावतविषाणाग्रैरापीडनकृतव्रणौ ।
वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षतौ ॥ १६ ॥

मूलम्

ऐरावतविषाणाग्रैरापीडनकृतव्रणौ ।
वज्रोल्लिखितपीनांसौ विष्णुचक्रपरिक्षतौ ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धकालमें उन भुजाओंपर ऐरावत हाथीके दाँतोंके अग्रभागसे जो प्रहार किये गये थे, उनके आघातका चिह्न बन गया था । उन भुजाओंके मूलभाग या कंधे बहुत मोटे थे और उनपर वज्रद्वारा किये गये आघातके भी चिह्न दिखायी देते थे । भगवान् विष्णुके चक्रसे भी किसी समय वे भुजाएँ क्षत-विक्षत हो चुकी थीं ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पीनौ समसुजातांसौ सङ्गतौ बलसंयुतौ ।
सुलक्षणनखाङ्गुष्ठौ स्वङ्गुलीयकलक्षितौ ॥ १७ ॥

मूलम्

पीनौ समसुजातांसौ सङ्गतौ बलसंयुतौ ।
सुलक्षणनखाङ्गुष्ठौ स्वङ्गुलीयकलक्षितौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भुजाएँ सब ओरसे समान और सुन्दर कंधोंवाली तथा मोटी थीं । उनकी संधियाँ सुदृढ़ थीं । वे बलिष्ठ और उत्तम लक्षणवाले नखों एवं अंगुष्ठोंसे सुशोभित थीं । उनकी अंगुलियाँ और हथेलियाँ बड़ी सुन्दर दिखायी देती थीं ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ ।
विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ ॥ १८ ॥

मूलम्

संहतौ परिघाकारौ वृत्तौ करिकरोपमौ ।
विक्षिप्तौ शयने शुभ्रे पञ्चशीर्षाविवोरगौ ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सुगठित एवं पुष्ट थीं । परिघके समान गोलाकार तथा हाथीके शुण्डदण्डकी भाँति चढ़ाव-उतारवाली एवं लंबी थीं । उस उज्ज्वल पलंगपर फैली वे बाँहें पाँच-पाँच फनवाले दो सर्पोंके समान दृष्टिगोचर होती थीं ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशक्षतजकल्पेन सुशीतेन सुगन्धिना ।
चन्दनेन परार्घ्येन स्वनुलिप्तौ स्वलङ्कृतौ ॥ १९ ॥

मूलम्

शशक्षतजकल्पेन सुशीतेन सुगन्धिना ।
चन्दनेन परार्घ्येन स्वनुलिप्तौ स्वलङ्कृतौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खरगोशके खूनकी भाँति लाल रंगके उत्तम, सुशीतल एवं सुगन्धित चन्दनसे चर्चित हुई वे भुजाएँ अलंकारोंसे अलंकृत थीं ॥ १९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमस्त्रीविमृदितौ गन्धोत्तमनिषेवितौ ।
यक्षपन्नगगन्धर्वदेवदानवराविणौ ॥ २० ॥

मूलम्

उत्तमस्त्रीविमृदितौ गन्धोत्तमनिषेवितौ ।
यक्षपन्नगगन्धर्वदेवदानवराविणौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दरी युवतियाँ धीरे-धीरे उन बाँहोंको दबाती थीं । उनपर उत्तम गन्ध-द्रव्यका लेप हुआ था । वे यक्ष, नाग, गन्धर्व, देवता और दानव सभीको युद्धमें रुलानेवाली थीं ॥ २० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददर्श स कपिस्तस्य बाहू शयनसंस्थितौ ।
मन्दरस्यान्तरे सुप्तौ महाही रुषिताविव ॥ २१ ॥

मूलम्

ददर्श स कपिस्तस्य बाहू शयनसंस्थितौ ।
मन्दरस्यान्तरे सुप्तौ महाही रुषिताविव ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कपिवर हनुमान् ने पलंगपर पड़ी हुई उन दोनों भुजाओंको देखा । वे मन्दराचलकी गुफामें सोये हुए दो रोषभरे अजगरोंके समान जान पड़ती थीं ॥ २१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यामुभाभ्यां राक्षसेश्वरः ।
शुशुभेऽचलसङ्काशः शृङ्गाभ्यामिव मन्दरः ॥ २२ ॥

मूलम्

ताभ्यां स परिपूर्णाभ्यामुभाभ्यां राक्षसेश्वरः ।
शुशुभेऽचलसङ्काशः शृङ्गाभ्यामिव मन्दरः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बड़ी-बड़ी और गोलाकार दो भुजाओंसे युक्त पर्वताकार राक्षसराज रावण दो शिखरोंसे संयुक्त मन्दराचलके समान शोभा पा रहा था* ॥ २२ ॥

पादटिप्पनी
  • यहाँ शयनागारमें सोये हुए रावणके एक ही मुख और दो ही बाँहोंका वर्णन आया है । इससे जान पड़ता है कि वह साधारण स्थितिमें इसी तरह रहता था । युद्ध आदिके विशेष अवसरोंपर ही वह स्वेच्छापूर्वक दस मुख और बीस भुजाओंसे संयुक्त होता था ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

चूतपुन्नागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः ।
मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः ॥ २३ ॥
तस्य राक्षसराजस्य निश्चक्राम महामुखात् ।
शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद् गृहम् ॥ २४ ॥

मूलम्

चूतपुन्नागसुरभिर्बकुलोत्तमसंयुतः ।
मृष्टान्नरससंयुक्तः पानगन्धपुरःसरः ॥ २३ ॥
तस्य राक्षसराजस्य निश्चक्राम महामुखात् ।
शयानस्य विनिःश्वासः पूरयन्निव तद् गृहम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सोये हुए राक्षसराज रावणके विशाल मुखसे आम और नागकेसरकी सुगन्धसे मिश्रित, मौलसिरीके सुवाससे सुवासित और उत्तम अन्नरससे संयुक्त तथा मधुपानकी गन्धसे मिली हुई जो सौरभयुक्त साँस निकल रही थी, वह उस सारे घरको सुगन्धसे परिपूर्ण-सा कर देती थी ॥ २३-२४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजिता ।
मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम् ॥ २५ ॥

मूलम्

मुक्तामणिविचित्रेण काञ्चनेन विराजिता ।
मुकुटेनापवृत्तेन कुण्डलोज्ज्वलिताननम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका कुण्डलसे प्रकाशमान मुखारविन्द अपने स्थानसे हटे हुए तथा मुक्तामणिसे जटित होनेके कारण विचित्र आभावाले सुवर्णमय मुकुटसे और भी उद्भासित हो रहा था ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्तचन्दनदिग्धेन तथा हारेण शोभिना ।
पीनायतविशालेन वक्षसाभिविराजिता ॥ २६ ॥

मूलम्

रक्तचन्दनदिग्धेन तथा हारेण शोभिना ।
पीनायतविशालेन वक्षसाभिविराजिता ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी छाती लाल चन्दनसे चर्चित, हारसे सुशोभित, उभरी हुई तथा लंबी-चौड़ी थी । उसके द्वारा उस राक्षसराजके सम्पूर्ण शरीरकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरेणापविद्धेन क्षौमेण क्षतजेक्षणम् ।
महार्हेण सुसंवीतं पीतेनोत्तरवाससा ॥ २७ ॥

मूलम्

पाण्डुरेणापविद्धेन क्षौमेण क्षतजेक्षणम् ।
महार्हेण सुसंवीतं पीतेनोत्तरवाससा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी आँखें लाल थीं । उसकी कटिके नीचेका भाग ढीले-ढाले श्वेत रेशमी वस्त्रसे ढका हुआ था तथा वह पीले रंगकी बहुमूल्य रेशमी चादर ओढ़े हुए था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माषराशिप्रतीकाशं निःश्वसन्तं भुजङ्गवत् ।
गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुप्तमिव कुञ्जरम् ॥ २८ ॥

मूलम्

माषराशिप्रतीकाशं निःश्वसन्तं भुजङ्गवत् ।
गाङ्गे महति तोयान्ते प्रसुप्तमिव कुञ्जरम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह स्वच्छ स्थानमें रखे हुए उड़दके ढेरके समान जान पड़ता था और सर्पके समान साँसें ले रहा था । उस उज्ज्वल पलंगपर सोया हुआ रावण गंगाकी अगाध जलराशिमें सोये हुए गजराजके समान दिखायी देता था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिः काञ्चनैर्दीपैर्दीप्यमानं चतुर्दिशम् ।
प्रकाशीकृतसर्वाङ्गं मेघं विद्युद‍्गणैरिव ॥ २९ ॥

मूलम्

चतुर्भिः काञ्चनैर्दीपैर्दीप्यमानं चतुर्दिशम् ।
प्रकाशीकृतसर्वाङ्गं मेघं विद्युद‍्गणैरिव ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी चारों दिशाओंमें चार सुवर्णमय दीपक जल रहे थे; जिनकी प्रभासे वह देदीप्यमान हो रहा था और उसके सारे अंग प्रकाशित होकर स्पष्ट दिखायी दे रहे थे । ठीक उसी तरह, जैसे विद्युद‍्गणोंसे मेघ प्रकाशित एवं परिलक्षित होता है ॥ २९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादमूलगताश्चापि ददर्श सुमहात्मनः ।
पत्नीः स प्रियभार्यस्य तस्य रक्षःपतेर्गृहे ॥ ३० ॥

मूलम्

पादमूलगताश्चापि ददर्श सुमहात्मनः ।
पत्नीः स प्रियभार्यस्य तस्य रक्षःपतेर्गृहे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्नियोंके प्रेमी उस महाकाय राक्षसराजके घरमें हनुमान् जी ने उसकी पत्नियोंको भी देखा, जो उसके चरणोंके आस-पास ही सो रही थीं ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषणाः ।
अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः ॥ ३१ ॥

मूलम्

शशिप्रकाशवदना वरकुण्डलभूषणाः ।
अम्लानमाल्याभरणा ददर्श हरियूथपः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरयूथपति हनुमान् जी ने देखा, उन रावणपत्नियोंके मुख चन्द्रमाके समान प्रकाशमान थे । वे सुन्दर कुण्डलोंसे विभूषित थीं तथा ऐसे फूलोंके हार पहने हुए थीं, जो कभी मुरझाते नहीं थे ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृत्यवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः ।
वराभरणधारिण्यो निषण्णा ददृशे कपिः ॥ ३२ ॥

मूलम्

नृत्यवादित्रकुशला राक्षसेन्द्रभुजाङ्कगाः ।
वराभरणधारिण्यो निषण्णा ददृशे कपिः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नाचने और बाजे बजानेमें निपुण थीं, राक्षसराज रावणकी बाँहों और अंकमें स्थान पानेवाली थीं तथा सुन्दर आभूषण धारण किये हुए थीं । कपिवर हनुमान् ने उन सबको वहाँ सोती देखा ॥ ३२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रवैदूर्यगर्भाणि श्रवणान्तेषु योषिताम् ।
ददर्श तापनीयानि कुण्डलान्यङ्गदानि च ॥ ३३ ॥

मूलम्

वज्रवैदूर्यगर्भाणि श्रवणान्तेषु योषिताम् ।
ददर्श तापनीयानि कुण्डलान्यङ्गदानि च ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उन सुन्दरियोंके कानोंके समीप हीरे तथा नीलम जड़े हुए सोनेके कुण्डल और बाजूबंद देखे ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां चन्द्रोपमैर्वक्त्रैः शुभैर्ललितकुण्डलैः ।
विरराज विमानं तन्नभस्तारागणैरिव ॥ ३४ ॥

मूलम्

तासां चन्द्रोपमैर्वक्त्रैः शुभैर्ललितकुण्डलैः ।
विरराज विमानं तन्नभस्तारागणैरिव ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ललित कुण्डलोंसे अलंकृत तथा चन्द्रमाके समान मनोहर उनके सुन्दर मुखोंसे वह विमानाकार पर्यङ्क तारिकाओंसे मण्डित आकाशकी भाँति सुशोभित हो रहा था ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मदव्यायामखिन्नास्ता राक्षसेन्द्रस्य योषितः ।
तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

मदव्यायामखिन्नास्ता राक्षसेन्द्रस्य योषितः ।
तेषु तेष्ववकाशेषु प्रसुप्तास्तनुमध्यमाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षीण कटिप्रदेशवाली वे राक्षसराजकी स्त्रियाँ मद तथा रतिक्रीड़ाके परिश्रमसे थककर जहाँ-तहाँ जो जिस अवस्थामें थीं वैसे ही सो गयी थीं ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गहारैस्तथैवान्या कोमलैर्नृत्यशालिनी ।
विन्यस्तशुभसर्वाङ्गी प्रसुप्ता वरवर्णिनी ॥ ३६ ॥

मूलम्

अङ्गहारैस्तथैवान्या कोमलैर्नृत्यशालिनी ।
विन्यस्तशुभसर्वाङ्गी प्रसुप्ता वरवर्णिनी ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने जिसके सारे अंगोंको सुन्दर एवं विशेष शोभासे सम्पन्न बनाया था, वह कोमलभावसे अंगोंके संचालन (चटकाने-मटकाने आदि) द्वारा नाचनेवाली कोई अन्य नृत्यनिपुणा सुन्दरी स्त्री गाढ़ निद्रामें सोकर भी वासनावश जाग्रत्-अवस्थाकी ही भाँति नृत्यके अभिनयसे सुशोभित हो रही थी ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिद् वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशते ।
महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता ॥ ३७ ॥

मूलम्

काचिद् वीणां परिष्वज्य प्रसुप्ता सम्प्रकाशते ।
महानदीप्रकीर्णेव नलिनी पोतमाश्रिता ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई वीणाको छातीसे लगाकर सोयी हुई सुन्दरी ऐसी जान पड़ती थी, मानो महानदीमें पड़ी हुई कोई कमलिनी किसी नौकासे सट गयी हो ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्या कक्षगतेनैव मड्डुकेनासितेक्षणा ।
प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला ॥ ३८ ॥

मूलम्

अन्या कक्षगतेनैव मड्डुकेनासितेक्षणा ।
प्रसुप्ता भामिनी भाति बालपुत्रेव वत्सला ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी कजरारे नेत्रोंवाली भामिनी काँखमें दबे हुए मड्डुक (लघुवाद्य विशेष)-के साथ ही सो गयी थी । वह ऐसी प्रतीत होती थी, जैसे कोई पुत्रवत्सला जननी अपने छोटे-से शिशुको गोदमें लिये सो रही हो ॥ ३८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पटहं चारुसर्वाङ्गी न्यस्य शेते शुभस्तनी ।
चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी ॥ ३९ ॥

मूलम्

पटहं चारुसर्वाङ्गी न्यस्य शेते शुभस्तनी ।
चिरस्य रमणं लब्ध्वा परिष्वज्येव कामिनी ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई सर्वांगसुन्दरी एवं रुचिर कुचोंवाली कामिनी पटहको अपने नीचे रखकर सो रही थी, मानो चिरकालके पश्चात् प्रियतमको अपने निकट पाकर कोई प्रेयसी उसे हृदयसे लगाये सो रही हो ॥ ३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिद् वीणां परिष्वज्य सुप्ता कमललोचना ।
वरं प्रियतमं गृह्य सकामेव हि कामिनी ॥ ४० ॥

मूलम्

काचिद् वीणां परिष्वज्य सुप्ता कमललोचना ।
वरं प्रियतमं गृह्य सकामेव हि कामिनी ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कमललोचना युवती वीणाका आलिंगन करके सोयी हुई ऐसी जान पड़ती थी, मानो कामभावसे युक्त कामिनी अपने श्रेष्ठ प्रियतमको भुजाओंमें भरकर सो गयी हो ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपञ्चीं परिगृह्यान्या नियता नृत्यशालिनी ।
निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी ॥ ४१ ॥

मूलम्

विपञ्चीं परिगृह्यान्या नियता नृत्यशालिनी ।
निद्रावशमनुप्राप्ता सहकान्तेव भामिनी ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नियमपूर्वक नृत्यकलासे सुशोभित होनेवाली एक अन्य युवती विपञ्ची (विशेष प्रकारकी वीणा)-को अंकमें भरकर प्रियतमके साथ सोयी हुई प्रेयसीकी भाँति निद्राके अधीन हो गयी थी ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्या कनकसङ्काशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः ।
मृदङ्गं परिविद्‍‍ध्याङ्गैः प्रसुप्ता मत्तलोचना ॥ ४२ ॥

मूलम्

अन्या कनकसङ्काशैर्मृदुपीनैर्मनोरमैः ।
मृदङ्गं परिविद्‍‍ध्याङ्गैः प्रसुप्ता मत्तलोचना ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई मतवाले नयनोंवाली दूसरी सुन्दरी अपने सुवर्ण-सदृश गौर, कोमल, पुष्ट और मनोरम अंगोंसे मृदंगको दबाकर गाढ़ निद्रामें सो गयी थी ॥ ४२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुजपाशान्तरस्थेन कक्षगेन कृशोदरी ।
पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा ॥ ४३ ॥

मूलम्

भुजपाशान्तरस्थेन कक्षगेन कृशोदरी ।
पणवेन सहानिन्द्या सुप्ता मदकृतश्रमा ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नशेसे थकी हुई कोई कृशोदरी अनिन्द्य सुन्दरी रमणी अपने भुजपाशोंके बीचमें स्थित और काँखमें दबे हुए पणवके साथ ही सो गयी थी ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

डिण्डिमं परिगृह्यान्या तथैवासक्तडिण्डिमा ।
प्रसुप्ता तरुणं वत्समुपगुह्येव भामिनी ॥ ४४ ॥

मूलम्

डिण्डिमं परिगृह्यान्या तथैवासक्तडिण्डिमा ।
प्रसुप्ता तरुणं वत्समुपगुह्येव भामिनी ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी स्त्री डिण्डिमको लेकर उसी तरह उससे सटी हुई सो गयी थी, मानो कोई भामिनी अपने बालक पुत्रको हृदयसे लगाये हुए नींद ले रही हो ॥ ४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काचिदाडम्बरं नारी भुजसम्भोगपीडितम् ।
कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता ॥ ४५ ॥

मूलम्

काचिदाडम्बरं नारी भुजसम्भोगपीडितम् ।
कृत्वा कमलपत्राक्षी प्रसुप्ता मदमोहिता ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदिराके मदसे मोहित हुई कोई कमलनयनी नारी आडम्बर नामक वाद्यको अपनी भुजाओंके आलिंगनसे दबाकर प्रगाढ़ निद्रामें निमग्न हो गयी ॥ ४५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी ।
वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता ॥ ४६ ॥

मूलम्

कलशीमपविद्ध्यान्या प्रसुप्ता भाति भामिनी ।
वसन्ते पुष्पशबला मालेव परिमार्जिता ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई दूसरी युवती निद्रावश जलसे भरी हुई सुराहीको लुढ़काकर भीगी अवस्थामें ही बेसुध सो रही थी । उस अवस्थामें वह वसन्त-ऋतुमें विभिन्न वर्णके पुष्पोंकी बनी और जलके छींटेसे सींची हुई मालाके समान प्रतीत होती थी ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिभ्यां च कुचौ काचित् सुवर्णकलशोपमौ ।
उपगुह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता ॥ ४७ ॥

मूलम्

पाणिभ्यां च कुचौ काचित् सुवर्णकलशोपमौ ।
उपगुह्याबला सुप्ता निद्राबलपराजिता ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निद्राके बलसे पराजित हुई कोई अबला सुवर्णमय कलशके समान प्रतीत होनेवाले अपने कुचोंको दोनों हाथोंसे दबाकर सो रही थी ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना ।
अन्यामालिङ्ग्य सुश्रोणीं प्रसुप्ता मदविह्वला ॥ ४८ ॥

मूलम्

अन्या कमलपत्राक्षी पूर्णेन्दुसदृशानना ।
अन्यामालिङ्ग्य सुश्रोणीं प्रसुप्ता मदविह्वला ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुखवाली दूसरी कमललोचना कामिनी सुन्दर नितम्बवाली किसी अन्य सुन्दरीका आलिंगन करके मदसे विह्वल होकर सो गयी थी ॥ ४८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः ।
निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव ॥ ४९ ॥

मूलम्

आतोद्यानि विचित्राणि परिष्वज्य वरस्त्रियः ।
निपीड्य च कुचैः सुप्ताः कामिन्यः कामुकानिव ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कामिनियाँ अपने चाहनेवाले कामुकोंको छातीसे लगाकर सोती हैं, उसी प्रकार कितनी ही सुन्दरियाँ विचित्र-विचित्र वाद्योंका आलिंगन करके उन्हें कुचोंसे दबाये सो गयी थीं ॥ ४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे ।
ददर्श रूपसम्पन्नामथ तां स कपिः स्त्रियम् ॥ ५० ॥

मूलम्

तासामेकान्तविन्यस्ते शयानां शयने शुभे ।
ददर्श रूपसम्पन्नामथ तां स कपिः स्त्रियम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सबकी शय्याओंसे पृथक् एकान्तमें बिछी हुई सुन्दर शय्यापर सोयी हुई एक रूपवती युवतीको वहाँ हनुमान् जी ने देखा ॥ ५० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तामणिसमायुक्तैर्भूषणैः सुविभूषिताम् ।
विभूषयन्तीमिव च स्वश्रिया भवनोत्तमम् ॥ ५१ ॥

मूलम्

मुक्तामणिसमायुक्तैर्भूषणैः सुविभूषिताम् ।
विभूषयन्तीमिव च स्वश्रिया भवनोत्तमम् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मोती और मणियोंसे जड़े हुए आभूषणोंसे भलीभाँति विभूषित थी और अपनी शोभासे उस उत्तम भवनको विभूषित-सा कर रही थी ॥ ५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरीं कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम् ।
कपिर्मन्दोदरीं तत्र शयानां चारुरूपिणीम् ॥ ५२ ॥
स तां दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः ।
तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसम्पदा ।
हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः ॥ ५३ ॥

मूलम्

गौरीं कनकवर्णाभामिष्टामन्तःपुरेश्वरीम् ।
कपिर्मन्दोदरीं तत्र शयानां चारुरूपिणीम् ॥ ५२ ॥
स तां दृष्ट्वा महाबाहुर्भूषितां मारुतात्मजः ।
तर्कयामास सीतेति रूपयौवनसम्पदा ।
हर्षेण महता युक्तो ननन्द हरियूथपः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह गोरे रंगकी थी । उसकी अंगकान्ति सुवर्णके समान दमक रही थी । वह रावणकी प्रियतमा और उसके अन्तःपुरकी स्वामिनी थी । उसका नाम मन्दोदरी था । वह अपने मनोहर रूपसे सुशोभित हो रही थी । वही वहाँ सो रही थी । हनुमान् जी ने उसीको देखा । रूप और यौवनकी सम्पत्तिसे युक्त और वस्त्राभूषणोंसे विभूषित मन्दोदरीको देखकर महाबाहु पवनकुमारने अनुमान किया कि ये ही सीताजी हैं । फिर तो ये वानरयूथपति हनुमान् महान् हर्षसे युक्त हो आनन्दमग्न हो गये ॥ ५२-५३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं
ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम ।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ
निदर्शयन् स्वां प्रकृतिं कपीनाम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

आस्फोटयामास चुचुम्ब पुच्छं
ननन्द चिक्रीड जगौ जगाम ।
स्तम्भानरोहन्निपपात भूमौ
निदर्शयन् स्वां प्रकृतिं कपीनाम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनी पूँछको पटकने और चूमने लगे । अपनी वानरों-जैसी प्रकृतिका प्रदर्शन करते हुए आनन्दित होने, खेलने और गाने लगे, इधर-उधर आने-जाने लगे । वे कभी खंभोंपर चढ़ जाते और कभी पृथ्वीपर कूद पड़ते थे ॥ ५४ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे दशमः सर्गः ॥ १० ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें दसवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ १० ॥