००९ रावणान्तःपुरवर्णनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. हनुमान् जी का रावणके श्रेष्ठ भवन पुष्पक विमान तथा रावणके रहनेकी सुन्दर हवेलीको देखकर उसके भीतर सोयी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियोंका अवलोकन करना
विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यालयवरिष्ठस्य मध्ये विमलमायतम् ।
ददर्श भवनश्रेष्ठं हनुमान् मारुतात्मजः ॥ १ ॥
अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं महत् ।
भवनं राक्षसेन्द्रस्य बहुप्रासादसङ्कुलम् ॥ २ ॥

मूलम्

तस्यालयवरिष्ठस्य मध्ये विमलमायतम् ।
ददर्श भवनश्रेष्ठं हनुमान् मारुतात्मजः ॥ १ ॥
अर्धयोजनविस्तीर्णमायतं योजनं महत् ।
भवनं राक्षसेन्द्रस्य बहुप्रासादसङ्कुलम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंकावर्ती सर्वश्रेष्ठ महान् गृहके मध्यभागमें पवनपुत्र हनुमान् जी ने देखा—एक उत्तम भवन शोभा पा रहा है । वह बहुत ही निर्मल एवं विस्तृत था । उसकी लंबाई एक योजनकी और चौड़ाई आधे योजनकी थी । राक्षसराज रावणका वह विशाल भवन बहुत-सी अट्टालिकाओंसे व्याप्त था ॥ १-२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मार्गमाणस्तु वैदेहीं सीतामायतलोचनाम् ।
सर्वतः परिचक्राम हनूमानरिसूदनः ॥ ३ ॥

मूलम्

मार्गमाणस्तु वैदेहीं सीतामायतलोचनाम् ।
सर्वतः परिचक्राम हनूमानरिसूदनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाललोचना विदेहनन्दिनी सीताकी खोज करते हुए शत्रुसूदन हनुमान् जी उस भवनमें सब ओर चक्कर लगाते फिरे ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमं राक्षसावासं हनुमानवलोकयन् ।
आससादाथ लक्ष्मीवान् राक्षसेन्द्रनिवेशनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

उत्तमं राक्षसावासं हनुमानवलोकयन् ।
आससादाथ लक्ष्मीवान् राक्षसेन्द्रनिवेशनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बल-वैभवसे सम्पन्न हनुमान् राक्षसोंके उस उत्तम आवासका अवलोकन करते हुए एक ऐसे सुन्दर गृहमें जा पहुँचे, जो राक्षसराज रावणका निजी निवासस्थान था ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्विषाणैर्द्विरदैस्त्रिविषाणैस्तथैव च ।
परिक्षिप्तमसम्बाधं रक्ष्यमाणमुदायुधैः ॥ ५ ॥

मूलम्

चतुर्विषाणैर्द्विरदैस्त्रिविषाणैस्तथैव च ।
परिक्षिप्तमसम्बाधं रक्ष्यमाणमुदायुधैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चार दाँत तथा तीन दाँतोंवाले हाथी इस विस्तृत भवनको चारों ओरसे घेरकर खड़े थे और हाथोंमें हथियार लिये बहुत-से राक्षस उसकी रक्षा करते थे ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम् ।
आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

राक्षसीभिश्च पत्नीभी रावणस्य निवेशनम् ।
आहृताभिश्च विक्रम्य राजकन्याभिरावृतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणका वह महल उसकी राक्षसजातीय पत्नियों तथा पराक्रमपूर्वक हरकर लायी हुई राजकन्याओंसे भरा हुआ था ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्नक्रमकराकीर्णं तिमिङ्गिलझषाकुलम् ।
वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तन्नक्रमकराकीर्णं तिमिङ्गिलझषाकुलम् ।
वायुवेगसमाधूतं पन्नगैरिव सागरम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार नर-नारियोंसे भरा हुआ वह कोलाहलपूर्ण भवन नाक और मगरोंसे व्याप्त, तिमिंगलों और मत्स्योंसे पूर्ण, वायुवेगसे विक्षुब्ध तथा सर्पोंसे आवृत महासागरके समान प्रतीत होता था ॥ ७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या हि वैश्रवणे लक्ष्मीर्या चन्द्रे हरिवाहने ।
सा रावणगृहे रम्या नित्यमेवानपायिनी ॥ ८ ॥

मूलम्

या हि वैश्रवणे लक्ष्मीर्या चन्द्रे हरिवाहने ।
सा रावणगृहे रम्या नित्यमेवानपायिनी ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो लक्ष्मी कुबेर, चन्द्रमा और इन्द्रके यहाँ निवास करती हैं, वे ही और भी सुरम्य रूपसे रावणके घरमें नित्य ही निश्चल होकर रहती थीं ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या च राज्ञः कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च ।
तादृशी तद्विशिष्टा वा ऋद्धी रक्षोगृहेष्विह ॥ ९ ॥

मूलम्

या च राज्ञः कुबेरस्य यमस्य वरुणस्य च ।
तादृशी तद्विशिष्टा वा ऋद्धी रक्षोगृहेष्विह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समृद्धि महाराज कुबेर, यम और वरुणके यहाँ दृष्टिगोचर होती है, वही अथवा उससे भी बढ़कर राक्षसोंके घरोंमे देखी जाती थी ॥ ९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य हर्म्यस्य मध्यस्थवेश्म चान्यत् सुनिर्मितम् ।
बहुनिर्यूहसंयुक्तं ददर्श पवनात्मजः ॥ १० ॥

मूलम्

तस्य हर्म्यस्य मध्यस्थवेश्म चान्यत् सुनिर्मितम् ।
बहुनिर्यूहसंयुक्तं ददर्श पवनात्मजः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (एक योजन लंबे और आधे योजन चौड़े) महलके मध्यभागमें एक दूसरा भवन (पुष्पक विमान) था, जिसका निर्माण बड़े सुन्दर ढंगसे किया गया था । वह भवन बहुसंख्यक मतवाले हाथियोंसे युक्त था । पवनकुमार हनुमान् जी ने फिर उसे देखा ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद् विश्वकर्मणा ।
विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ब्रह्मणोऽर्थे कृतं दिव्यं दिवि यद् विश्वकर्मणा ।
विमानं पुष्पकं नाम सर्वरत्नविभूषितम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित पुष्पक नामक दिव्य विमान स्वर्गलोकमें विश्वकर्माने ब्रह्माजीके लिये बनाया था ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेण तपसा लेभे यत् कुबेरः पितामहात् ।
कुबेरमोजसा जित्वा लेभे तद् राक्षसेश्वरः ॥ १२ ॥

मूलम्

परेण तपसा लेभे यत् कुबेरः पितामहात् ।
कुबेरमोजसा जित्वा लेभे तद् राक्षसेश्वरः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुबेरने बड़ी भारी तपस्या करके उसे ब्रह्माजीसे प्राप्त किया और फिर कुबेरको बलपूर्वक परास्त करके राक्षसराज रावणने उसे अपने हाथमें कर लिया ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईहामृगसमायुक्तैः कार्तस्वरहिरण्मयैः ।
सुकृतैराचितं स्तम्भैः प्रदीप्तमिव च श्रिया ॥ १३ ॥

मूलम्

ईहामृगसमायुक्तैः कार्तस्वरहिरण्मयैः ।
सुकृतैराचितं स्तम्भैः प्रदीप्तमिव च श्रिया ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें भेड़ियोंकी मूर्तियोंसे युक्त सोने-चाँदीके सुन्दर खम्भे बनाये गये थे, जिनके कारण वह भवन अद्भुत कान्तिसे उद्दीप्त-सा हो रहा था ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरुमन्दरसङ्काशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम् ।
कूटागारैः शुभागारैः सर्वतः समलङ्कृतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

मेरुमन्दरसङ्काशैरुल्लिखद्भिरिवाम्बरम् ।
कूटागारैः शुभागारैः सर्वतः समलङ्कृतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें सुमेरु और मन्दराचलके समान ऊँचे अनेकानेक गुप्त गृह और मङ्गल भवन बने थे, जो अपनी ऊँचाईसे आकाशमें रेखा-सी खींचते हुए जान पड़ते थे । उनके द्वारा वह विमान सब ओरसे सुशोभित होता था ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वलनार्कप्रतीकाशैः सुकृतं विश्वकर्मणा ।
हेमसोपानयुक्तं च चारुप्रवरवेदिकम् ॥ १५ ॥

मूलम्

ज्वलनार्कप्रतीकाशैः सुकृतं विश्वकर्मणा ।
हेमसोपानयुक्तं च चारुप्रवरवेदिकम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका प्रकाश अग्नि और सूर्यके समान था । विश्वकर्माने बड़ी कारीगरीसे उसका निर्माण किया था । उसमें सोनेकी सीढ़ियाँ और अत्यन्त मनोहर उत्तम वेदियाँ बनायी गयी थीं ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्फाटिकैरपि ।
इन्द्रनीलमहानीलमणिप्रवरवेदिकम् ॥ १६ ॥

मूलम्

जालवातायनैर्युक्तं काञ्चनैः स्फाटिकैरपि ।
इन्द्रनीलमहानीलमणिप्रवरवेदिकम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोने और स्फटिकके झरोखे और खिड़कियाँ लगायी गयी थीं । इन्द्रनील और महानील मणियोंकी श्रेष्ठतम वेदियाँ रची गयी थीं ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्रुमेण विचित्रेण मणिभिश्च महाधनैः ।
निस्तुलाभिश्च मुक्ताभिस्तलेनाभिविराजितम् ॥ १७ ॥

मूलम्

विद्रुमेण विचित्रेण मणिभिश्च महाधनैः ।
निस्तुलाभिश्च मुक्ताभिस्तलेनाभिविराजितम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी फर्श विचित्र मूँगे, बहुमूल्य मणियों तथा अनुपम गोल-गोल मोतियोंसे जड़ी गयी थी, जिससे उस विमानकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ १७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्दनेन च रक्तेन तपनीयनिभेन च ।
सुपुण्यगन्धिना युक्तमादित्यतरुणोपमम् ॥ १८ ॥

मूलम्

चन्दनेन च रक्तेन तपनीयनिभेन च ।
सुपुण्यगन्धिना युक्तमादित्यतरुणोपमम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णके समान लाल रंगके सुगन्धयुक्त चन्दनसे संयुक्त होनेके कारण वह बालसूर्यके समान जान पड़ता था ॥ १८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूटागारैर्वराकारैर्विविधैः समलङ्कृतम् ।
विमानं पुष्पकं दिव्यमारुरोह महाकपिः ।
तत्रस्थः सर्वतो गन्धं पानभक्ष्यान्नसम्भवम् ॥ १९ ॥
दिव्यं सम्मूर्च्छितं जिघ्रन् रूपवन्तमिवानिलम् ।

मूलम्

कूटागारैर्वराकारैर्विविधैः समलङ्कृतम् ।
विमानं पुष्पकं दिव्यमारुरोह महाकपिः ।
तत्रस्थः सर्वतो गन्धं पानभक्ष्यान्नसम्भवम् ॥ १९ ॥
दिव्यं सम्मूर्च्छितं जिघ्रन् रूपवन्तमिवानिलम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाकपि हनुमान् जी उस दिव्य पुष्पक विमानपर चढ़ गये, जो नाना प्रकारके सुन्दर कूटागारों (अट्टालिकाओं) से अलंकृत था । वहाँ बैठकर वे सब ओर फैली हुई नाना प्रकारके पेय, भक्ष्य और अन्नकी दिव्य गन्ध सूँघने लगे । वह गन्ध मूर्तिमान् पवन-सी प्रतीत होती थी ॥ १९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम् ॥ २० ॥
इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः ।

मूलम्

स गन्धस्तं महासत्त्वं बन्धुर्बन्धुमिवोत्तमम् ॥ २० ॥
इत एहीत्युवाचेव तत्र यत्र स रावणः ।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई बन्धु-बान्धव अपने उत्तम बन्धुको अपने पास बुलाता है, उसी प्रकार वह सुगन्ध उन महाबली हनुमान् जी को मानो यह कहकर कि ‘इधर चले आओ’ जहाँ रावण था, वहाँ बुला रही थी ॥ २० १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तां प्रस्थितः शालां ददर्श महतीं शिवाम् ॥ २१ ॥
रावणस्य महाकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम् ।

मूलम्

ततस्तां प्रस्थितः शालां ददर्श महतीं शिवाम् ॥ २१ ॥
रावणस्य महाकान्तां कान्तामिव वरस्त्रियम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हनुमान् जी उस ओर प्रस्थित हुए । आगे बढ़नेपर उन्होंने एक बहुत बड़ी हवेली देखी, जो बहुत ही सुन्दर और सुखद थी । वह हवेली रावणको बहुत ही प्रिय थी, ठीक वैसे ही जैसे पतिको कान्तिमयी सुन्दरी पत्नी अधिक प्रिय होती है ॥ २१ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम् ॥ २२ ॥
स्फाटिकैरावृततलां दन्तान्तरितरूपिकाम् ।
मुक्तावज्रप्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि ॥ २३ ॥

मूलम्

मणिसोपानविकृतां हेमजालविराजिताम् ॥ २२ ॥
स्फाटिकैरावृततलां दन्तान्तरितरूपिकाम् ।
मुक्तावज्रप्रवालैश्च रूप्यचामीकरैरपि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें मणियोंकी सीढ़ियाँ बनी थीं और सोनेकी खिड़कियाँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं । उसकी फर्श स्फटिक मणिसे बनायी गयी थी, जहाँ बीच-बीचमें हाथीके दाँतके द्वारा विभिन्न प्रकारकी आकृतियाँ बनी हुई थीं । मोती, हीरे, मूँगे, चाँदी और सोनेके द्वारा भी उसमें अनेक प्रकारके आकार अङ्कित किये गये थे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभूषितां मणिस्तम्भैः सुबहुस्तम्भभूषिताम् ।
समैर्ऋजुभिरत्युच्चैः समन्तात् सुविभूषितैः ॥ २४ ॥

मूलम्

विभूषितां मणिस्तम्भैः सुबहुस्तम्भभूषिताम् ।
समैर्ऋजुभिरत्युच्चैः समन्तात् सुविभूषितैः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मणियोंके बने हुए बहुत-से खम्भे, जो समान, सीधे, बहुत ही ऊँचे और सब ओरसे विभूषित थे, आभूषणकी भाँति उस हवेलीकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तम्भैः पक्षैरिवात्युच्चैर्दिवं सम्प्रस्थितामिव ।
महत्या कुथयाऽऽस्तीर्णां पृथिवीलक्षणाङ्कया ॥ २५ ॥

मूलम्

स्तम्भैः पक्षैरिवात्युच्चैर्दिवं सम्प्रस्थितामिव ।
महत्या कुथयाऽऽस्तीर्णां पृथिवीलक्षणाङ्कया ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने अत्यन्त ऊँचे स्तम्भरूपी पंखोंसे मानो वह आकाशको उड़ती हुई-सी जान पड़ती थी । उसके भीतर पृथ्वीके वन-पर्वत आदि चिह्नोंसे अङ्कित एक बहुत बड़ा कालीन बिछा हुआ था ॥ २५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवीमिव विस्तीर्णां सराष्ट्रगृहशालिनीम् ।
नादितां मत्तविहगैर्दिव्यगन्धाधिवासिताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

पृथिवीमिव विस्तीर्णां सराष्ट्रगृहशालिनीम् ।
नादितां मत्तविहगैर्दिव्यगन्धाधिवासिताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राष्ट्र और गृह आदिके चित्रोंसे सुशोभित वह शाला पृथ्वीके समान विस्तीर्ण जान पड़ती थी । वहाँ मतवाले विहङ्गमोंके कलरव गूँजते रहते थे तथा वह दिव्य सुगन्धसे सुवासित थी ॥ २६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परर्घ्यास्तरणोपेतां रक्षोऽधिपनिषेविताम् ।
धूम्रामगुरुधूपेन विमलां हंसपाण्डुराम् ॥ २७ ॥

मूलम्

परर्घ्यास्तरणोपेतां रक्षोऽधिपनिषेविताम् ।
धूम्रामगुरुधूपेन विमलां हंसपाण्डुराम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस हवेलीमें बहुमूल्य बिछौने बिछे हुए थे तथा स्वयं राक्षसराज रावण उसमें निवास करता था । वह अगुरु नामक धूपके धूएँसे धूमिल दिखायी देती थी, किंतु वास्तवमें हंसके समान श्वेत एवं निर्मल थी ॥ २७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पत्रपुष्पोपहारेण कल्माषीमिव सुप्रभाम् ।
मनसो मोदजननीं वर्णस्यापि प्रसाधिनीम् ॥ २८ ॥

मूलम्

पत्रपुष्पोपहारेण कल्माषीमिव सुप्रभाम् ।
मनसो मोदजननीं वर्णस्यापि प्रसाधिनीम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पत्र-पुष्पके उपहारसे वह शाला चितकबरी-सी जान पड़ती थी । अथवा वसिष्ठ मुनिकी शबला गौकी भाँति सम्पूर्ण कामनाओंकी देनेवाली थी । उसकी कान्ति बड़ी ही सुन्दर थी । वह मनको आनन्द देनेवाली तथा शोभाको भी सुशोभित करनेवाली थी ॥ २८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां शोकनाशिनीं दिव्यां श्रियः सञ्जननीमिव ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः ॥ २९ ॥
तर्पयामास मातेव तदा रावणपालिता ।

मूलम्

तां शोकनाशिनीं दिव्यां श्रियः सञ्जननीमिव ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थैस्तु पञ्च पञ्चभिरुत्तमैः ॥ २९ ॥
तर्पयामास मातेव तदा रावणपालिता ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह दिव्य शाला शोकका नाश करनेवाली तथा सम्पत्तिकी जननी-सी जान पड़ती थी । हनुमान् जी ने उसे देखा । उस रावणपालित शालाने उस समय माताकी भाँति शब्द, स्पर्श आदि पाँच विषयोंसे हनुमान् जी की श्रोत्र आदि पाँचों इन्द्रियोंको तृप्त कर दिया ॥ २९ १/२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्यापि पुरी भवेत् ।
सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादित्यमन्यत मारुतिः ॥ ३० ॥

मूलम्

स्वर्गोऽयं देवलोकोऽयमिन्द्रस्यापि पुरी भवेत् ।
सिद्धिर्वेयं परा हि स्यादित्यमन्यत मारुतिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखकर हनुमान् जी यह तर्क-वितर्क करने लगे कि सम्भव है, यही स्वर्गलोक या देवलोक हो । यह इन्द्रकी पुरी भी हो सकती है अथवा यह परमसिद्धि (ब्रह्मलोककी प्राप्ति) है ॥ ३० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रध्यायत इवापश्यत् प्रदीपांस्तत्र काञ्चनान् ।
धूर्तानिव महाधूर्तैर्देवनेन पराजितान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

प्रध्यायत इवापश्यत् प्रदीपांस्तत्र काञ्चनान् ।
धूर्तानिव महाधूर्तैर्देवनेन पराजितान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी ने उस शालामें सुवर्णमय दीपकोंको एकतार जलते देखा, मानो वे ध्यानमग्न हो रहे हों; ठीक उसी तरह जैसे किसी बड़े जुआरीसे जुएमें हारे हुए छोटे जुआरी धननाशकी चिन्ताके कारण ध्यानमें डूबे हुए-से दिखायी देते हैं ॥ ३१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीपानां च प्रकाशेन तेजसा रावणस्य च ।
अर्चिर्भिर्भूषणानां च प्रदीप्तेत्यभ्यमन्यत ॥ ३२ ॥

मूलम्

दीपानां च प्रकाशेन तेजसा रावणस्य च ।
अर्चिर्भिर्भूषणानां च प्रदीप्तेत्यभ्यमन्यत ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दीपकोंके प्रकाश, रावणके तेज और आभूषणोंकी कान्तिसे वह सारी हवेली जलती हुई-सी जान पड़ती थी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपश्यत् कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम् ।
सहस्रं वरनारीणां नानावेषबिभूषितम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततोऽपश्यत् कुथासीनं नानावर्णाम्बरस्रजम् ।
सहस्रं वरनारीणां नानावेषबिभूषितम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर हनुमान् जी ने कालीनपर बैठी हुई सहस्रों सुन्दरी स्त्रियाँ देखीं, जो रंग-बिरंगे वस्त्र और पुष्पमाला धारण किये अनेक प्रकारकी वेश-भूषाओंसे विभूषित थीं ॥ ३३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावशङ्गतम् ।
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ प्रसुप्तं बलवत् तदा ॥ ३४ ॥

मूलम्

परिवृत्तेऽर्धरात्रे तु पाननिद्रावशङ्गतम् ।
क्रीडित्वोपरतं रात्रौ प्रसुप्तं बलवत् तदा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आधी रात बीत जानेपर वे क्रीड़ासे उपरत हो मधुपानके मद और निद्राके वशीभूत हो उस समय गाढ़ी नींदमें सो गयी थीं ॥ ३४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषितम् ।
निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

तत् प्रसुप्तं विरुरुचे निःशब्दान्तरभूषितम् ।
निःशब्दहंसभ्रमरं यथा पद्मवनं महत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सोयी हुई सहस्रों नारियोंके कटिभागमें अब करधनीकी खनखनाहटका शब्द नहीं हो रहा था । हंसोंके कलरव तथा भ्रमरोंके गुञ्जारवसे रहित विशाल कमल-वनके समान उन सुप्त सुन्दरियोंका समुदाय बड़ी शोभा पा रहा था ॥ ३५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासां संवृतदान्तानि मीलिताक्षीणि मारुतिः ।
अपश्यत् पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

तासां संवृतदान्तानि मीलिताक्षीणि मारुतिः ।
अपश्यत् पद्मगन्धीनि वदनानि सुयोषिताम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनकुमार हनुमान् जी ने उन सुन्दरी युवतियोंके मुख देखे, जिनसे कमलोंकी-सी सुगन्ध फैल रही थी । उनके दाँत ढँके हुए थे और आँखें मुँद गयी थीं ॥ ३६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये ।
पुनः संवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा ॥ ३७ ॥

मूलम्

प्रबुद्धानीव पद्मानि तासां भूत्वा क्षपाक्षये ।
पुनः संवृतपत्राणि रात्राविव बभुस्तदा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिके अन्तमें खिले हुए कमलोंके समान उन सुन्दरियोंके जो मुखारविन्द हर्षसे उत्फुल्ल दिखायी देते थे, वे ही फिर रात आनेपर सो जानेके कारण मुँदे हुए दलवाले कमलोंके समान शोभा पा रहे थे ॥ ३७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः ।
अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः ॥ ३८ ॥
इति वामन्यत श्रीमानुपपत्त्या महाकपिः ।
मेने हि गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः ॥ ३९ ॥

मूलम्

इमानि मुखपद्मानि नियतं मत्तषट्पदाः ।
अम्बुजानीव फुल्लानि प्रार्थयन्ति पुनः पुनः ॥ ३८ ॥
इति वामन्यत श्रीमानुपपत्त्या महाकपिः ।
मेने हि गुणतस्तानि समानि सलिलोद्भवैः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर श्रीमान् महाकपि हनुमान् यह सम्भावना करने लगे कि ‘मतवाले भ्रमर प्रफुल्ल कमलोंके समान इन मुखारविन्दोंकी प्राप्तिके लिये नित्य ही बारंबार प्रार्थना करते होंगे—उनपर सदा स्थान पानेके लिये तरसते होंगे’; क्योंकि वे गुणकी दृष्टिसे उन मुखारविन्दोंको पानीसे उत्पन्न होनेवाले कमलोंके समान ही समझते थे ॥ ३८-३९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता ।
शरदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता ॥ ४० ॥

मूलम्

सा तस्य शुशुभे शाला ताभिः स्त्रीभिर्विराजिता ।
शरदीव प्रसन्ना द्यौस्ताराभिरभिशोभिता ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणकी वह हवेली उन स्त्रियोंसे प्रकाशित होकर वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे शरत्कालमें निर्मल आकाश ताराओंसे प्रकाशित एवं सुशोभित होता है ॥ ४० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः ।
यथा ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरिव संवृतः ॥ ४१ ॥

मूलम्

स च ताभिः परिवृतः शुशुभे राक्षसाधिपः ।
यथा ह्युडुपतिः श्रीमांस्ताराभिरिव संवृतः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन स्त्रियोंसे घिरा हुआ राक्षसराज रावण ताराओंसे घिरे हुए कान्तिमान् नक्षत्रपति चन्द्रमाके समान शोभा पा रहा था ॥ ४१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याश्च्यवन्तेऽम्बरात् ताराः पुण्यशेषसमावृताः ।
इमास्ताः सङ्गताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा ॥ ४२ ॥

मूलम्

याश्च्यवन्तेऽम्बरात् ताराः पुण्यशेषसमावृताः ।
इमास्ताः सङ्गताः कृत्स्ना इति मेने हरिस्तदा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय हनुमान् जी को ऐसा मालूम हुआ कि आकाश (स्वर्ग)-से भोगावशिष्ट पुण्यके साथ जो ताराएँ नीचे गिरती हैं, वे सब-की-सब मानो यहाँ इन सुन्दरियोंके रूपमें एकत्र हो गयी हैं* ॥ ४२ ॥

पादटिप्पनी
  • इस श्लोकमें ‘अत्युक्ति’ अलंकार है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम् ।
प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

ताराणामिव सुव्यक्तं महतीनां शुभार्चिषाम् ।
प्रभावर्णप्रसादाश्च विरेजुस्तत्र योषिताम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि वहाँ उन युवतियोंके तेज, वर्ण और प्रसाद स्पष्टतः सुन्दर प्रभावाले महान् तारोंके समान ही सुशोभित होते थे ॥ ४३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यावृत्तकचपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः ।
पानव्यायामकालेषु निद्रोपहतचेतसः ॥ ४४ ॥

मूलम्

व्यावृत्तकचपीनस्रक्प्रकीर्णवरभूषणाः ।
पानव्यायामकालेषु निद्रोपहतचेतसः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मधुपानके अनन्तर व्यायाम (नृत्य, गान, क्रीड़ा आदि)-के समय जिनके केश खुलकर बिखर गये थे, पुष्पमालाएँ मर्दित होकर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं और सुन्दर आभूषण भी शिथिल होकर इधर-उधर खिसक गये थे, वे सभी सुन्दरियाँ वहाँ निद्रासे अचेत-सी होकर सो रही थीं ॥ ४४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यावृत्ततिलकाः काश्चित् काश्चिदुदभ्रान्तनूपुराः ।
पार्श्वे गलितहाराश्च काश्चित् परमयोषितः ॥ ४५ ॥

मूलम्

व्यावृत्ततिलकाः काश्चित् काश्चिदुदभ्रान्तनूपुराः ।
पार्श्वे गलितहाराश्च काश्चित् परमयोषितः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींके मस्तककी (सिंदूर-कस्तूरी आदिकी) वेदियाँ पुछ गयी थीं, किन्हींके नूपुर पैरोंसे निकलकर दूर जा पड़े थे तथा किन्हीं सुन्दरी युवतियोंके हार टूटकर उनके बगलमें ही पड़े थे ॥ ४५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्ताहारवृताश्चान्याः काश्चित् प्रस्रस्तवाससः ।
व्याविद्धरशनादामाः किशोर्य इव वाहिताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

मुक्ताहारवृताश्चान्याः काश्चित् प्रस्रस्तवाससः ।
व्याविद्धरशनादामाः किशोर्य इव वाहिताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई मोतियोंके हार टूट जानेसे उनके बिखरे दानोंसे आवृत थीं, किन्हींके वस्त्र खिसक गये थे और किन्हींकी करधनीकी लड़ें टूट गयी थीं । वे युवतियाँ बोझ ढोकर थकी हुई अश्वजातिकी नयी बछेड़ियोंके समान जान पड़ती थीं ॥ ४६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकुण्डलधराश्चान्या विच्छिन्नमृदितस्रजः ।
गजेन्द्रमृदिताः फुल्ला लता इव महावने ॥ ४७ ॥

मूलम्

अकुण्डलधराश्चान्या विच्छिन्नमृदितस्रजः ।
गजेन्द्रमृदिताः फुल्ला लता इव महावने ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींके कानोंके कुण्डल गिर गये थे, किन्हींकी पुष्पमालाएँ मसली जाकर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं । इससे वे महान् वनमें गजराजद्वारा दली-मली गयी फूली लताओंके समान प्रतीत होती थीं ॥ ४७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रांशुकिरणाभाश्च हाराः कासाञ्चिदुद‍्गताः ।
हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

चन्द्रांशुकिरणाभाश्च हाराः कासाञ्चिदुद‍्गताः ।
हंसा इव बभुः सुप्ताः स्तनमध्येषु योषिताम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींके चन्द्रमा और सूर्यकी किरणोंके समान प्रकाशमान हार उनके वक्षःस्थलपर पड़कर उभरे हुए प्रतीत होते थे । वे उन युवतियोंके स्तनमण्डलपर ऐसे जान पड़ते थे मानो वहाँ हंस सो रहे हों ॥ ४८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरासां च वैदूर्याः कादम्बा इव पक्षिणः ।
हेमसूत्राणि चान्यासां चक्रवाका इवाभवन् ॥ ४९ ॥

मूलम्

अपरासां च वैदूर्याः कादम्बा इव पक्षिणः ।
हेमसूत्राणि चान्यासां चक्रवाका इवाभवन् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरी स्त्रियोंके स्तनोंपर नीलमके हार पड़े थे, जो कादम्ब (जलकाक) नामक पक्षीके समान शोभा पाते थे तथा अन्य स्त्रियोंके उरोजोंपर जो सोनेके हार थे, वे चक्रवाक (पुरखाव) नामक पक्षियोंके समान जान पड़ते थे ॥ ४९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हंसकारण्डवोपेताश्चक्रवाकोपशोभिताः ।
आपगा इव ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव ॥ ५० ॥

मूलम्

हंसकारण्डवोपेताश्चक्रवाकोपशोभिताः ।
आपगा इव ता रेजुर्जघनैः पुलिनैरिव ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वे हंस, कारण्डव (जलकाक) तथा चक्रवाकोंसे सुशोभित नदियोंके समान शोभा पाती थीं । उनके जघनप्रदेश उन नदियोंके तटोंके समान जान पड़ते थे ॥ ५० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किङ्किणीजालसङ्काशास्ता हेमविपुलाम्बुजाः ।
भावग्राहा यशस्तीराः सुप्ता नद्य इवाबभुः ॥ ५१ ॥

मूलम्

किङ्किणीजालसङ्काशास्ता हेमविपुलाम्बुजाः ।
भावग्राहा यशस्तीराः सुप्ता नद्य इवाबभुः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सोयी हुई सुन्दरियाँ वहाँ सरिताओंके समान सुशोभित होती थीं । किङ्किणियों (घुँघुरुओं)-के समूह उनमें मुकुलके समान प्रतीत होते थे । सोनेके विभिन्न आभूषण ही वहाँ बहुसंख्यक स्वर्णकमलोंकी शोभा धारण करते थे । भाव (सुप्तावस्थामें भी वासनावश होनेवाली शृंगारचेष्टाएँ) ही मानो ग्राह थे तथा यश (कान्ति) ही तटके समान जान पड़ते थे ॥ ५१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुष्वङ्गेषु कासाञ्चित् कुचाग्रेषु च संस्थिताः ।
बभूवुर्भूषणानीव शुभा भूषणराजयः ॥ ५२ ॥

मूलम्

मृदुष्वङ्गेषु कासाञ्चित् कुचाग्रेषु च संस्थिताः ।
बभूवुर्भूषणानीव शुभा भूषणराजयः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हीं सुन्दरियोंके कोमल अंगोंमें तथा कुचोंके अग्रभागपर उभरी हुई आभूषणोंकी सुन्दर रेखाएँ नये गहनोंके समान ही शोभा पाती थीं ॥ ५२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंशुकान्ताश्च कासाञ्चिन्मुखमारुतकम्पिताः ।
उपर्युपरि वक्त्राणां व्याधूयन्ते पुनः पुनः ॥ ५३ ॥

मूलम्

अंशुकान्ताश्च कासाञ्चिन्मुखमारुतकम्पिताः ।
उपर्युपरि वक्त्राणां व्याधूयन्ते पुनः पुनः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्हींके मुखपर पड़े हुए उनकी झीनी साड़ीके अञ्चल उनकी नासिकासे निकली हुई साँससे कम्पित हो बारंबार हिल रहे थे ॥ ५३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताः पताका इवोद्‍धूताः पत्नीनां रुचिरप्रभाः ।
नानावर्णसुवर्णानां वक्त्रमूलेषु रेजिरे ॥ ५४ ॥

मूलम्

ताः पताका इवोद्‍धूताः पत्नीनां रुचिरप्रभाः ।
नानावर्णसुवर्णानां वक्त्रमूलेषु रेजिरे ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके सुन्दर रूप-रंगवाली उन रावणपत्नियोंके मुखोंपर हिलते हुए वे अञ्चल सुन्दर कान्तिवाली फहराती हुई पताकाओंके समान शोभा पा रहे थे ॥ ५४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववल्गुश्चात्र कासाञ्चित् कुण्डलानि शुभार्चिषाम् ।
मुखमारुतसङ्कम्पैर्मन्दं मन्दं च योषिताम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

ववल्गुश्चात्र कासाञ्चित् कुण्डलानि शुभार्चिषाम् ।
मुखमारुतसङ्कम्पैर्मन्दं मन्दं च योषिताम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ किन्हीं-किन्हीं सुन्दर कान्तिमती कामिनियोंके कानोंके कुण्डल उनके निःश्वासजनित कम्पनसे धीरे-धीरे हिल रहे थे ॥ ५५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः ।
तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा ॥ ५६ ॥

मूलम्

शर्करासवगन्धः स प्रकृत्या सुरभिः सुखः ।
तासां वदननिःश्वासः सिषेवे रावणं तदा ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सुन्दरियोंके मुखसे निकली हुई स्वभावसे ही सुगन्धित श्वासवायु शर्करा निर्मित आसवकी मनोहर गन्धसे युक्त हो और भी सुखद बनकर उस समय रावणकी सेवा करती थी ॥ ५६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणाननशङ्काश्च काश्चिद् रावणयोषितः ।
मुखानि च सपत्नीनामुपाजिघ्रन् पुनः पुनः ॥ ५७ ॥

मूलम्

रावणाननशङ्काश्च काश्चिद् रावणयोषितः ।
मुखानि च सपत्नीनामुपाजिघ्रन् पुनः पुनः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणकी कितनी ही तरुणी पत्नियाँ रावणका ही मुख समझकर बारंबार अपनी सौतोंके ही मुखोंको सूँघ रही थीं ॥ ५७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्यर्थं सक्तमनसो रावणे ता वरस्त्रियः ।
अस्वतन्त्राः सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा ॥ ५८ ॥

मूलम्

अत्यर्थं सक्तमनसो रावणे ता वरस्त्रियः ।
अस्वतन्त्राः सपत्नीनां प्रियमेवाचरंस्तदा ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सुन्दरियोंका मन रावणमें अत्यन्त आसक्त था, इसलिये वे आसक्ति तथा मदिराके मदसे परवश हो उस समय रावणके मुखके भ्रमसे अपनी सौतोंका मुख सूँघकर उनका प्रिय ही करती थीं (अर्थात् वे भी उस समय अपने मुख-संलग्न हुए उन सौतोंके मुखोंको रावणका ही मुख समझकर उसे सूँघनेका सुख उठाती थीं) ॥ ५८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहूनुपनिधायान्याः पारिहार्यविभूषितान् ।
अंशुकानि च रम्याणि प्रमदास्तत्र शिश्यिरे ॥ ५९ ॥

मूलम्

बाहूनुपनिधायान्याः पारिहार्यविभूषितान् ।
अंशुकानि च रम्याणि प्रमदास्तत्र शिश्यिरे ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य मदमत्त युवतियाँ अपनी वलयविभूषित भुजाओंका ही तकिया लगाकर तथा कोई-कोई सिरके नीचे अपने सुरम्य वस्त्रोंको ही रखकर वहाँ सो रही थीं ॥ ५९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित् पुनर्भुजम् ।
अपरा त्वङ्कमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा कुचौ ॥ ६० ॥

मूलम्

अन्या वक्षसि चान्यस्यास्तस्याः काचित् पुनर्भुजम् ।
अपरा त्वङ्कमन्यस्यास्तस्याश्चाप्यपरा कुचौ ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक स्त्री दूसरीकी छातीपर सिर रखकर सोयी थी तो कोई दूसरी स्त्री उसकी भी एक बाँहको ही तकिया बनाकर सो गयी थी । इसी तरह एक अन्य स्त्री दूसरीकी गोदमें सिर रखकर सोयी थी तो कोई दूसरी उसके भी कुचोंका ही तकिया लगाकर सो गयी थी ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊरुपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिताः ।
परस्परनिविष्टाङ्ग्यो मदस्नेहवशानुगाः ॥ ६१ ॥

मूलम्

ऊरुपार्श्वकटीपृष्ठमन्योन्यस्य समाश्रिताः ।
परस्परनिविष्टाङ्ग्यो मदस्नेहवशानुगाः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह रावणविषयक स्नेह और मदिराजनित मदके वशीभूत हुई वे सुन्दरियाँ एक-दूसरीके ऊरु, पार्श्वभाग, कटिप्रदेश तथा पृष्ठभागका सहारा ले आपसमें अंगों-से-अंग मिलाये वहाँ बेसुध पड़ी थीं ॥ ६१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यस्याङ्गसंस्पर्शात् प्रीयमाणाः सुमध्यमाः ।
एकीकृतभुजाः सर्वाः सुषुपुस्तत्र योषितः ॥ ६२ ॥

मूलम्

अन्योन्यस्याङ्गसंस्पर्शात् प्रीयमाणाः सुमध्यमाः ।
एकीकृतभुजाः सर्वाः सुषुपुस्तत्र योषितः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सुन्दर कटिप्रदेशवाली समस्त युवतियाँ एक-दूसरीके अंगस्पर्शको प्रियतमका स्पर्श मानकर उससे मन-ही-मन आनन्दका अनुभव करती हुई परस्पर बाँह-से-बाँह मिलाये सो रही थीं ॥ ६२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्रीमाला ग्रथिता हि सा ।
मालेव ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा ॥ ६३ ॥

मूलम्

अन्योन्यभुजसूत्रेण स्त्रीमाला ग्रथिता हि सा ।
मालेव ग्रथिता सूत्रे शुशुभे मत्तषट्पदा ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-दूसरीके बाहुरूपी सूत्रमें गुँथी हुई काले-काले केशोंवाली स्त्रियोंकी वह माला सूतमें पिरोयी हुई मतवाले भ्रमरोंसे युक्त पुष्पमालाकी भाँति शोभा पा रही थी ॥ ६३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लतानां माधवे मासि फुल्लानां वायुसेवनात् ।
अन्योन्यमालाग्रथितं संसक्तकुसुमोच्चयम् ॥ ६४ ॥
प्रतिवेष्टितसुस्कन्धमन्योन्यभ्रमराकुलम् ।
आसीद् वनमिवोद्‍धूतं स्त्रीवनं रावणस्य तत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

लतानां माधवे मासि फुल्लानां वायुसेवनात् ।
अन्योन्यमालाग्रथितं संसक्तकुसुमोच्चयम् ॥ ६४ ॥
प्रतिवेष्टितसुस्कन्धमन्योन्यभ्रमराकुलम् ।
आसीद् वनमिवोद्‍धूतं स्त्रीवनं रावणस्य तत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधवमास (वसन्त)-में मलयानिलके सेवनसे जैसे खिली हुई लताओंका वन कम्पित होता रहता है, उसी प्रकार रावणकी स्त्रियोंका वह समुदाय निःश्वासवायुके चलनेसे अञ्चलोंके हिलनेके कारण कम्पित होता-सा जान पड़ता था । जैसे लताएँ परस्पर मिलकर मालाकी भाँति आबद्ध हो जाती हैं, उनकी सुन्दर शाखाएँ परस्पर लिपट जाती हैं और इसीलिये उनके पुष्पसमूह भी आपसमें मिले हुए-से प्रतीत होते हैं तथा उनपर बैठे हुए भ्रमर भी परस्पर मिल जाते हैं, उसी प्रकार वे सुन्दरियाँ एक-दूसरीसे मिलकर मालाकी भाँति गुँथ गयी थीं । उनकी भुजाएँ और कंधे परस्पर सटे हुए थे । उनकी वेणीमें गुँथे हुए फूल भी आपसमें मिल गये थे तथा उन सबके केशकलाप भी एक-दूसरेसे जुड़ गये थे ॥ ६४-६५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उचितेष्वपि सुव्यक्तं न तासां योषितां तदा ।
विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम् ॥ ६६ ॥

मूलम्

उचितेष्वपि सुव्यक्तं न तासां योषितां तदा ।
विवेकः शक्य आधातुं भूषणाङ्गाम्बरस्रजाम् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि उन युवतियोंके वस्त्र, अंग, आभूषण और हार उचित स्थानोंपर ही प्रतिष्ठित थे, यह बात स्पष्ट दिखायी दे रही थी, तथापि उन सबके परस्पर गुँथ जानेके कारण यह विवेक होना असम्भव हो गया था कि कौन वस्त्र, आभूषण, अंग अथवा हार किसके हैं* ॥

पादटिप्पनी
  • इस श्लोकमें ‘भ्रान्तिमान्’ नामक अलंकार है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

रावणे सुखसंविष्टे ताः स्त्रियो विविधप्रभाः ।
ज्वलन्तः काञ्चना दीपाः प्रेक्षन्तो निमिषा इव ॥ ६७ ॥

मूलम्

रावणे सुखसंविष्टे ताः स्त्रियो विविधप्रभाः ।
ज्वलन्तः काञ्चना दीपाः प्रेक्षन्तो निमिषा इव ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणके सुखपूर्वक सो जानेपर वहाँ जलते हुए सुवर्णमय प्रदीप उन अनेक प्रकारकी कान्तिवाली कामिनियोंको मानो एकटक दृष्टिसे देख रहे थे ॥ ६७ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजर्षिविप्रदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः ।
रक्षसां चाभवन् कन्यास्तस्य कामवशङ्गताः ॥ ६८ ॥

मूलम्

राजर्षिविप्रदैत्यानां गन्धर्वाणां च योषितः ।
रक्षसां चाभवन् कन्यास्तस्य कामवशङ्गताः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षियों, ब्रह्मर्षियों, दैत्यों, गन्धर्वों तथा राक्षसोंकी कन्याएँ कामके वशीभूत होकर रावणकी पत्नियाँ बन गयी थीं ॥ ६८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धकामेन ताः सर्वा रावणेन हृताः स्त्रियः ।
समदा मदनेनैव मोहिताः काश्चिदागताः ॥ ६९ ॥

मूलम्

युद्धकामेन ताः सर्वा रावणेन हृताः स्त्रियः ।
समदा मदनेनैव मोहिताः काश्चिदागताः ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सब स्त्रियोंका रावणने युद्धकी इच्छासे अपहरण किया था और कुछ मदमत्त रमणियाँ कामदेवसे मोहित होकर स्वयं ही उसकी सेवामें उपस्थित हो गयी थीं ॥ ६९ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत्र काश्चित् प्रमदाः प्रसह्य
वीर्योपपन्नेन गुणेन लब्धाः ।
न चान्यकामापि न चान्यपूर्वा
विना वरार्हां जनकात्मजां तु ॥ ७० ॥

मूलम्

न तत्र काश्चित् प्रमदाः प्रसह्य
वीर्योपपन्नेन गुणेन लब्धाः ।
न चान्यकामापि न चान्यपूर्वा
विना वरार्हां जनकात्मजां तु ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ ऐसी कोई स्त्रियाँ नहीं थीं, जिन्हें बल-पराक्रमसे सम्पन्न होनेपर भी रावण उनकी इच्छाके विरुद्ध बलात् हर लाया हो । वे सब-की-सब उसे अपने अलौकिक गुणसे ही उपलब्ध हुई थीं । जो श्रेष्ठतम पुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीके ही योग्य थीं, उन जनककिशोरी सीताको छोड़कर दूसरी कोई ऐसी स्त्री वहाँ नहीं थी, जो रावणके सिवा किसी दूसरेकी इच्छा रखनेवाली हो अथवा जिसका पहले कोई दूसरा पति रहा हो ॥ ७० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाकुलीना न च हीनरूपा
नादक्षिणा नानुपचारयुक्ता ।
भार्याभवत् तस्य न हीनसत्त्वा
न चापि कान्तस्य न कामनीया ॥ ७१ ॥

मूलम्

न चाकुलीना न च हीनरूपा
नादक्षिणा नानुपचारयुक्ता ।
भार्याभवत् तस्य न हीनसत्त्वा
न चापि कान्तस्य न कामनीया ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणकी कोई भार्या ऐसी नहीं थी, जो उत्तम कुलमें उत्पन्न न हुई हो अथवा जो कुरूप, अनुदार या कौशलरहित, उत्तम वस्त्राभूषण एवं माला आदिसे वञ्चित, शक्तिहीन तथा प्रियतमको अप्रिय हो ॥ ७१ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभूव बुद्धिस्तु हरीश्वरस्य
यदीदृशी राघवधर्मपत्नी ।
इमा महाराक्षसराजभार्याः
सुजातमस्येति हि साधुबुद्धेः ॥ ७२ ॥

मूलम्

बभूव बुद्धिस्तु हरीश्वरस्य
यदीदृशी राघवधर्मपत्नी ।
इमा महाराक्षसराजभार्याः
सुजातमस्येति हि साधुबुद्धेः ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय श्रेष्ठ बुद्धिवाले वानरराज हनुमान् जी के मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ कि ये महान् राक्षसराज रावणकी भार्याएँ जिस तरह अपने पतिके साथ रहकर सुखी हैं, उसी प्रकार यदि रघुनाथजीकी धर्मपत्नी सीताजी भी इन्हींकी भाँति अपने पतिके साथ रहकर सुखका अनुभव करतीं अर्थात् यदि रावण शीघ्र ही उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें समर्पित कर देता तो यह इसके लिये परम मंगलकारी होता ॥ ७२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च सोऽचिन्तयदात्तरूपो
ध्रुवं विशिष्टा गुणतो हि सीता ।
अथायमस्यां कृतवान् महात्मा
लङ्केश्वरः कष्टमनार्यकर्म ॥ ७३ ॥

मूलम्

पुनश्च सोऽचिन्तयदात्तरूपो
ध्रुवं विशिष्टा गुणतो हि सीता ।
अथायमस्यां कृतवान् महात्मा
लङ्केश्वरः कष्टमनार्यकर्म ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने सोचा, निश्चय ही सीता गुणोंकी दृष्टिसे इन सबकी अपेक्षा बहुत ही बढ़-चढ़कर हैं । इस महाबली लंकापतिने मायामय रूप धारण करके सीताको धोखा देकर इनके प्रति यह अपहरणरूप महान् कष्टप्रद नीच कर्म किया है ॥ ७३ ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे नवमः सर्गः ॥ ९ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें नवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ९ ॥