वाचनम्
भागसूचना
- हनुमान् जी के द्वारा पुनः पुष्पक विमानका दर्शन
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थितो
महद्विमानं मणिरत्नचित्रितम् ।
प्रतप्तजाम्बूनदजालकृत्रिमं
ददर्श धीमान् पवनात्मजः कपिः ॥ १ ॥
मूलम्
स तस्य मध्ये भवनस्य संस्थितो
महद्विमानं मणिरत्नचित्रितम् ।
प्रतप्तजाम्बूनदजालकृत्रिमं
ददर्श धीमान् पवनात्मजः कपिः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके भवनके मध्यभागमें खड़े हुए बुद्धिमान् पवनकुमार कपिवर हनुमान् जी ने मणि तथा रत्नोंसे जटित एवं तपे हुए सुवर्णमय गवाक्षोंकी रचनासे युक्त उस विशाल विमानको पुनः देखा ॥ १ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदप्रमेयप्रतिकारकृत्रिमं
कृतं स्वयं साध्विति विश्वकर्मणा ।
दिवं गते वायुपथे प्रतिष्ठितं
व्यराजतादित्यपथस्य लक्ष्म तत् ॥ २ ॥
मूलम्
तदप्रमेयप्रतिकारकृत्रिमं
कृतं स्वयं साध्विति विश्वकर्मणा ।
दिवं गते वायुपथे प्रतिष्ठितं
व्यराजतादित्यपथस्य लक्ष्म तत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी रचनाको सौन्दर्य आदिकी दृष्टिसे मापा नहीं जा सकता था । उसका निर्माण अनुपम रीतिसे किया गया था । स्वयं विश्वकर्माने ही उसे बनाया था और बहुत उत्तम कहकर उसकी प्रशंसा की थी । जब वह आकाशमें उठकर वायुमार्गमें स्थित होता था, तब सौर मार्गके चिह्न-सा सुशोभित होता था ॥ २ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र किञ्चिन्न कृतं प्रयत्नतो
न तत्र किञ्चिन्न महार्घरत्नवत् ।
न ते विशेषा नियताः सुरेष्वपि
न तत्र किञ्चिन्न महाविशेषवत् ॥ ३ ॥
मूलम्
न तत्र किञ्चिन्न कृतं प्रयत्नतो
न तत्र किञ्चिन्न महार्घरत्नवत् ।
न ते विशेषा नियताः सुरेष्वपि
न तत्र किञ्चिन्न महाविशेषवत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो अत्यन्त प्रयत्नसे न बनायी गयी हो तथा वहाँ कोई भी ऐसा स्थान या विमानका अंग नहीं था, जो बहुमूल्य रत्नोंसे जटित न हो । उसमें जो विशेषताएँ थीं, वे देवताओंके विमानोंमें भी नहीं थीं । उसमें कोई ऐसी चीज नहीं थी, जो बड़ी भारी विशेषतासे युक्त न हो ॥ ३ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपः समाधानपराक्रमार्जितं
मनःसमाधानविचारचारिणम् ।
अनेकसंस्थानविशेषनिर्मितं
ततस्ततस्तुल्यविशेषनिर्मितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तपः समाधानपराक्रमार्जितं
मनःसमाधानविचारचारिणम् ।
अनेकसंस्थानविशेषनिर्मितं
ततस्ततस्तुल्यविशेषनिर्मितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणने जो निराहार रहकर तप किया था और भगवान् के चिन्तनमें चित्तको एकाग्र किया था, इससे मिले हुए पराक्रमके द्वारा उसने उस विमानपर अधिकार प्राप्त किया था । मनमें जहाँ भी जानेका संकल्प उठता, वहीं वह विमान पहुँच जाता था । अनेक प्रकारकी विशिष्ट निर्माण-कलाओंद्वारा उस विमानकी रचना हुई थी तथा जहाँ-तहाँसे प्राप्त की गयी दिव्य विमान-निर्माणोचित विशेषताओंसे उसका निर्माण हुआ था ॥ ४ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनः समाधाय तु शीघ्रगामिनं
दुरासदं मारुततुल्यगामिनम् ।
महात्मनां पुण्यकृतां महर्द्धिनां
यशस्विनामग्ऱ्यमुदामिवालयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
मनः समाधाय तु शीघ्रगामिनं
दुरासदं मारुततुल्यगामिनम् ।
महात्मनां पुण्यकृतां महर्द्धिनां
यशस्विनामग्ऱ्यमुदामिवालयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह स्वामीके मनका अनुसरण करते हुए बड़ी शीघ्रतासे चलनेवाला, दूसरोंके लिये दुर्लभ और वायुके समान वेगपूर्वक आगे बढ़नेवाला था तथा श्रेष्ठ आनन्द (महान् सुख)के भागी, बढ़े-चढ़े तपवाले, पुण्यकारी महात्माओंका ही वह आश्रय था ॥ ५ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विशेषमालम्ब्य विशेषसंस्थितं
विचित्रकूटं बहुकूटमण्डितम् ।
मनोऽभिरामं शरदिन्दुनिर्मलं
विचित्रकूटं शिखरं गिरेर्यथा ॥ ६ ॥
मूलम्
विशेषमालम्ब्य विशेषसंस्थितं
विचित्रकूटं बहुकूटमण्डितम् ।
मनोऽभिरामं शरदिन्दुनिर्मलं
विचित्रकूटं शिखरं गिरेर्यथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह विमान गतिविशेषका आश्रय ले व्योमरूप देश-विशेषमें स्थित था । आश्चर्यजनक विचित्र वस्तुओंका समुदाय उसमें एकत्र किया गया था । बहुत-सी शालाओंके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी । वह शरद्-ऋतुके चन्द्रमाके समान निर्मल और मनको आनन्द प्रदान करनेवाला था । विचित्र छोटे-छोटे शिखरोंसे युक्त किसी पर्वतके प्रधान शिखरकी जैसी शोभा होती है, उसी प्रकार अद्भुत शिखरवाले उस पुष्पक विमानकी भी शोभा हो रही थी ॥ ६ ॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वहन्ति यत्कुण्डलशोभितानना
महाशना व्योमचरानिशाचराः ।
विवृत्तविध्वस्तविशाललोचना
महाजवा भूतगणाः सहस्रशः ॥ ७ ॥
वसन्तपुष्पोत्करचारुदर्शनं
वसन्तमासादपि चारुदर्शनम् ।
स पुष्पकं तत्र विमानमुत्तमं
ददर्श तद् वानरवीरसत्तमः ॥ ८ ॥
मूलम्
वहन्ति यत्कुण्डलशोभितानना
महाशना व्योमचरानिशाचराः ।
विवृत्तविध्वस्तविशाललोचना
महाजवा भूतगणाः सहस्रशः ॥ ७ ॥
वसन्तपुष्पोत्करचारुदर्शनं
वसन्तमासादपि चारुदर्शनम् ।
स पुष्पकं तत्र विमानमुत्तमं
ददर्श तद् वानरवीरसत्तमः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके मुखमण्डल कुण्डलोंसे सुशोभित और नेत्र घूमते या घूरते रहनेवाले, निमेषरहित तथा बड़े-बड़े थे, वे अपरिमित भोजन करनेवाले, महान् वेगशाली, आकाशमें विचरनेवाले तथा रातमें भी दिनके समान ही चलनेवाले सहस्रों भूतगण जिसका भार वहन करते थे, जो वसन्त-कालिक पुष्प-पुञ्जके समान रमणीय दिखायी देता था और वसन्त माससे भी अधिक सुहावना दृष्टिगोचर होता था, उस उत्तम पुष्पक विमानको वानरशिरोमणि हनुमान् जी ने वहाँ देखा ॥ ७-८ ॥
समाप्तिः
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डेऽष्टमः सर्गः ॥ ८ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें आठवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ८ ॥