००७ हनुमता पुष्पकविमानदर्शनम्

वाचनम्
भागसूचना
  1. रावणके भवन एवं पुष्पक विमानका वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः

स वेश्मजालं बलवान् ददर्श
व्यासक्तवैदूर्यसुवर्णजालम् ।
यथा महत्प्रावृषि मेघजालं
विद्युत्पिनद्धं सविहङ्गजालम् ॥ १ ॥

मूलम्

स वेश्मजालं बलवान् ददर्श
व्यासक्तवैदूर्यसुवर्णजालम् ।
यथा महत्प्रावृषि मेघजालं
विद्युत्पिनद्धं सविहङ्गजालम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् वीर हनुमान् जी ने नीलमसे जड़ी हुई सोनेकी खिड़कियोंसे सुशोभित तथा पक्षिसमूहोंसे युक्त भवनोंका समुदाय देखा, जो वर्षाकालमें बिजलीसे युक्त महती मेघमालाके समान मनोहर जान पड़ता था ॥ १ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवेशनानां विविधाश्च शालाः
प्रधानशङ्खायुधचापशालाः ।
मनोहराश्चापि पुनर्विशाला
ददर्श वेश्माद्रिषु चन्द्रशालाः ॥ २ ॥

मूलम्

निवेशनानां विविधाश्च शालाः
प्रधानशङ्खायुधचापशालाः ।
मनोहराश्चापि पुनर्विशाला
ददर्श वेश्माद्रिषु चन्द्रशालाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें नाना प्रकारकी बैठकें, शङ्ख, आयुध और धनुषोंकी मुख्य-मुख्य शालाएँ तथा पर्वतोंके समान ऊँचे महलोंके ऊपर मनोहर एवं विशाल चन्द्रशालाएँ (अट्टालिकाएँ) देखीं ॥ २ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाणि नानावसुराजितानि
देवासुरैश्चापि सुपूजितानि ।
सर्वैश्च दोषैः परिवर्जितानि
कपिर्ददर्श स्वबलार्जितानि ॥ ३ ॥

मूलम्

गृहाणि नानावसुराजितानि
देवासुरैश्चापि सुपूजितानि ।
सर्वैश्च दोषैः परिवर्जितानि
कपिर्ददर्श स्वबलार्जितानि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कपिवर हनुमान् ने वहाँ नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित ऐसे-ऐसे घर देखे, जिनकी देवता और असुर भी प्रशंसा करते थे । वे गृह सम्पूर्ण दोषोंसे रहित थे तथा रावणने उन्हें अपने पुरुषार्थसे प्राप्त किया था ॥ ३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानि प्रयत्नाभिसमाहितानि
मयेन साक्षादिव निर्मितानि ।
महीतले सर्वगुणोत्तराणि
ददर्श लङ्काधिपतेर्गृहाणि ॥ ४ ॥

मूलम्

तानि प्रयत्नाभिसमाहितानि
मयेन साक्षादिव निर्मितानि ।
महीतले सर्वगुणोत्तराणि
ददर्श लङ्काधिपतेर्गृहाणि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भवन बड़े प्रयत्नसे बनाये गये थे और ऐसे अद्भुत लगते थे, मानो साक्षात् मयदानवने ही उनका निर्माण किया हो । हनुमान् जी ने उन्हें देखा, लंकापति रावणके वे घर इस भूतलपर सभी गुणोंमें सबसे बढ़-चढ़कर थे ॥ ४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो ददर्शोच्छ्रितमेघरूपं
मनोहरं काञ्चनचारुरूपम् ।
रक्षोऽधिपस्यात्मबलानुरूपं
गृहोत्तमं ह्यप्रतिरूपरूपम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो ददर्शोच्छ्रितमेघरूपं
मनोहरं काञ्चनचारुरूपम् ।
रक्षोऽधिपस्यात्मबलानुरूपं
गृहोत्तमं ह्यप्रतिरूपरूपम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्होंने राक्षसराज रावणका उसकी शक्तिके अनुरूप अत्यन्त उत्तम और अनुपम भवन (पुष्पक विमान) देखा, जो मेघके समान ऊँचा, सुवर्णके समान सुन्दर कान्तिवाला तथा मनोहर था ॥ ५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महीतले स्वर्गमिव प्रकीर्णं
श्रिया ज्वलन्तं बहुरत्नकीर्णम् ।
नानातरूणां कुसुमावकीर्णं
गिरेरिवाग्रं रजसावकीर्णम् ॥ ६ ॥

मूलम्

महीतले स्वर्गमिव प्रकीर्णं
श्रिया ज्वलन्तं बहुरत्नकीर्णम् ।
नानातरूणां कुसुमावकीर्णं
गिरेरिवाग्रं रजसावकीर्णम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह इस भूतलपर बिखरे हुए स्वर्णके समान जान पड़ता था । अपनी कान्तिसे प्रज्वलित-सा हो रहा था । अनेकानेक रत्नोंसे व्याप्त, भाँति-भाँतिके वृक्षोंके फूलोंसे आच्छादित तथा पुष्पोंके परागसे भरे हुए पर्वत-शिखरके समान शोभा पाता था ॥ ६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारीप्रवेकैरिव दीप्यमानं
तडिद्भिरम्भोधरमर्च्यमानम् ।
हंसप्रवेकैरिव वाह्यमानं
श्रिया युतं खे सुकृतं विमानम् ॥ ७ ॥

मूलम्

नारीप्रवेकैरिव दीप्यमानं
तडिद्भिरम्भोधरमर्च्यमानम् ।
हंसप्रवेकैरिव वाह्यमानं
श्रिया युतं खे सुकृतं विमानम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह विमानरूप भवन विद्युन्मालाओंसे पूजित मेघके समान रमणी-रत्नोंसे देदीप्यमान हो रहा था और श्रेष्ठ हंसोंद्वारा आकाशमें ढोये जाते हुए विमानकी भाँति जान पड़ता था । उस दिव्य विमानको बहुत सुन्दर ढंगसे बनाया गया था । वह अद्भुत शोभासे सम्पन्न दिखायी देता था ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा नगाग्रं बहुधातुचित्रं
यथा नभश्च ग्रहचन्द्रचित्रम् ।
ददर्श युक्तीकृतचारुमेघ-
चित्रं विमानं बहुरत्नचित्रम् ॥ ८ ॥

मूलम्

यथा नगाग्रं बहुधातुचित्रं
यथा नभश्च ग्रहचन्द्रचित्रम् ।
ददर्श युक्तीकृतचारुमेघ-
चित्रं विमानं बहुरत्नचित्रम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अनेक धातुओंके कारण पर्वतशिखर, ग्रहों और चन्द्रमाके कारण आकाश तथा अनेक वर्णोंसे युक्त होनेके कारण मनोहर मेघ विचित्र शोभा धारण करते हैं, उसी तरह नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित होनेके कारण वह विमान भी विचित्र शोभासे सम्पन्न दिखायी देता था ॥ ८ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मही कृता पर्वतराजिपूर्णा
शैलाः कृता वृक्षवितानपूर्णाः ।
वृक्षाः कृताः पुष्पवितानपूर्णाः
पुष्पं कृतं केसरपत्रपूर्णम् ॥ ९ ॥

मूलम्

मही कृता पर्वतराजिपूर्णा
शैलाः कृता वृक्षवितानपूर्णाः ।
वृक्षाः कृताः पुष्पवितानपूर्णाः
पुष्पं कृतं केसरपत्रपूर्णम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विमानकी आधारभूमि (आरोहियोंके खड़े होनेका स्थान) सोने और मणियोंके द्वारा निर्मित कृत्रिम पर्वत-मालाओंसे पूर्ण बनायी गयी थी । वे पर्वत वृक्षोंकी विस्तृत पंक्तियोंसे हरे-भरे रचे गये थे । वे वृक्ष फूलोंके बाहुल्यसे व्याप्त बनाये गये थे तथा वे पुष्प भी केसर एवं पंखुड़ियोंसे पूर्ण निर्मित हुए थे* ॥ ९ ॥

पादटिप्पनी
  • जहाँ पूर्वकथित वस्तुओंके प्रति उत्तरोत्तर कथित वस्तुओंका विशेषण-भावसे स्थापन किया जाय, वहाँ ‘एकावली’ अलंकार माना गया है । इस लक्षणके अनुसार इस श्लोकमें एकावली अलंकार है । यहाँ ‘मही’ का विशेषण पर्वत, पर्वतका वृक्ष और वृक्षका विशेषण पुष्प आदि समझना चाहिये । गोविन्दराजने यहाँ ‘अधिक’ नामक अलंकार माना है, परंतु जहाँ आधारसे आधेयकी विशेषता बतायी गयी हो वही इसका विषय है; यहाँ ऐसी बात नहीं है ।
विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतानि वेश्मानि च पाण्डुराणि
तथा सुपुष्पाण्यपि पुष्कराणि ।
पुनश्च पद्मानि सकेसराणि
वनानि चित्राणि सरोवराणि ॥ १० ॥

मूलम्

कृतानि वेश्मानि च पाण्डुराणि
तथा सुपुष्पाण्यपि पुष्कराणि ।
पुनश्च पद्मानि सकेसराणि
वनानि चित्राणि सरोवराणि ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विमानमें श्वेतभवन बने हुए थे । सुन्दर फूलोंसे सुशोभित पोखरे बनाये गये थे । केसरयुक्त कमल, विचित्र वन और अद्भुत सरोवरोंका भी निर्माण किया गया था ॥ १० ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्पाह्वयं नाम विराजमानं
रत्नप्रभाभिश्च विघूर्णमानम् ।
वेश्मोत्तमानामपि चोच्चमानं
महाकपिस्तत्र महाविमानम् ॥ ११ ॥

मूलम्

पुष्पाह्वयं नाम विराजमानं
रत्नप्रभाभिश्च विघूर्णमानम् ।
वेश्मोत्तमानामपि चोच्चमानं
महाकपिस्तत्र महाविमानम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाकपि हनुमान् ने जिस सुन्दर विमानको वहाँ देखा, उसका नाम पुष्पक था । वह रत्नोंकी प्रभासे प्रकाशमान था और इधर-उधर भ्रमण करता था । देवताओंके गृहाकार उत्तम विमानोंमें सबसे अधिक आदर उस महाविमान पुष्पकका ही होता था ॥ ११ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृताश्च वैदूर्यमया विहङ्गा
रूप्यप्रवालैश्च तथा विहङ्गाः ।
चित्राश्च नानावसुभिर्भुजङ्गा
जात्यानुरूपास्तुरगाः शुभाङ्गाः ॥ १२ ॥

मूलम्

कृताश्च वैदूर्यमया विहङ्गा
रूप्यप्रवालैश्च तथा विहङ्गाः ।
चित्राश्च नानावसुभिर्भुजङ्गा
जात्यानुरूपास्तुरगाः शुभाङ्गाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें नीलम, चाँदी और मूँगोंके आकाशचारी पक्षी बनाये गये थे । नाना प्रकारके रत्नोंसे विचित्र वर्णके सर्पोंका निर्माण किया गया था और अच्छी जातिके घोड़ोंके समान ही सुन्दर अंगवाले अश्व भी बनाये गये थे ॥ १२ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रवालजाम्बूनदपुष्पपक्षाः
सलीलमावर्जितजिह्मपक्षाः ।
कामस्य साक्षादिव भान्ति पक्षाः
कृता विहङ्गाः सुमुखाः सुपक्षाः ॥ १३ ॥

मूलम्

प्रवालजाम्बूनदपुष्पपक्षाः
सलीलमावर्जितजिह्मपक्षाः ।
कामस्य साक्षादिव भान्ति पक्षाः
कृता विहङ्गाः सुमुखाः सुपक्षाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विमानपर सुन्दर मुख और मनोहर पंखवाले बहुत-से ऐसे विहङ्गम निर्मित हुए थे, जो साक्षात् कामदेवके सहायक जान पड़ते थे । उनकी पाँखें मूँगे और सुवर्णके बने हुए फूलोंसे युक्त थीं तथा उन्होंने लीलापूर्वक अपने बाँके पंखोंको समेट रखा था ॥ १३ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियुज्यमानाश्च गजाः सुहस्ताः
सकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ताः ।
बभूव देवी च कृतासुहस्ता
लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पद्महस्ता ॥ १४ ॥

मूलम्

नियुज्यमानाश्च गजाः सुहस्ताः
सकेसराश्चोत्पलपत्रहस्ताः ।
बभूव देवी च कृतासुहस्ता
लक्ष्मीस्तथा पद्मिनि पद्महस्ता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विमानके कमलमण्डित सरोवरमें ऐसे हाथी बनाये गये थे, जो लक्ष्मीके अभिषेक-कार्यमें नियुक्त थे । उनकी सूँड़ बड़ी सुन्दर थी । उनके अंगोंमें कमलोंके केसर लगे हुए थे तथा उन्होंने अपनी सूँड़ोंमें कमल-पुष्प धारण किये थे । उनके साथ ही वहाँ तेजस्विनी लक्ष्मी देवीकी प्रतिमा भी विराजमान थी, जिनका उन हाथियोंके द्वारा अभिषेक हो रहा था । उनके हाथ बड़े सुन्दर थे । उन्होंने अपने हाथमें कमल-पुष्प धारण कर रखा था ॥ १४ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीव तद‍्गृहमभिगम्य शोभनं
सविस्मयो नगमिव चारुकन्दरम् ।
पुनश्च तत्परमसुगन्धि सुन्दरं
हिमात्यये नगमिव चारुकन्दरम् ॥ १५ ॥

मूलम्

इतीव तद‍्गृहमभिगम्य शोभनं
सविस्मयो नगमिव चारुकन्दरम् ।
पुनश्च तत्परमसुगन्धि सुन्दरं
हिमात्यये नगमिव चारुकन्दरम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सुन्दर कन्दराओंवाले पर्वतके समान तथा वसन्त-ऋतुमें सुन्दर कोटरोंवाले परम सुगन्धयुक्त वृक्षके समान उस शोभायमान मनोहर भवन (विमान)-में पहुँचकर हनुमान् जी बड़े विस्मित हुए ॥ १५ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स तां कपिरभिपत्य पूजितां
चरन् पुरीं दशमुखबाहुपालिताम् ।
अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां
सुदुःखितां पतिगुणवेगनिर्जिताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः स तां कपिरभिपत्य पूजितां
चरन् पुरीं दशमुखबाहुपालिताम् ।
अदृश्य तां जनकसुतां सुपूजितां
सुदुःखितां पतिगुणवेगनिर्जिताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दशमुख रावणके बाहुबलसे पालित उस प्रशंसित पुरीमें जाकर चारों ओर घूमनेपर भी पतिके गुणोंके वेगसे पराजित (विमुग्ध) अत्यन्त दुःखिनी और परम पूजनीया जनककिशोरी सीताको न देखकर कपिवर हनुमान् बड़ी चिन्तामें पड़ गये ॥ १६ ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तदा बहुविधभावितात्मनः
कृतात्मनो जनकसुतां सुवर्त्मनः ।
अपश्यतोऽभवदतिदुःखितं मनः
सचक्षुषः प्रविचरतो महात्मनः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततस्तदा बहुविधभावितात्मनः
कृतात्मनो जनकसुतां सुवर्त्मनः ।
अपश्यतोऽभवदतिदुःखितं मनः
सचक्षुषः प्रविचरतो महात्मनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा हनुमान् जी अनेक प्रकारसे परमार्थ-चिन्तनमें तत्पर रहनेवाले कृतात्मा (पवित्र अन्तःकरणवाले) सन्मार्गगामी तथा उत्तम दृष्टि रखनेवाले थे । इधर-उधर बहुत घूमनेपर भी जब उन महात्माको जानकीजीका पता न लगा, तब उनका मन बहुत दुःखी हो गया ॥

समाप्तिः

इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये सुन्दरकाण्डे सप्तमः सर्गः ॥ ७ ॥
इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्यके सुन्दरकाण्डमें सातवाँ सर्ग पूरा हुआ ॥ ७ ॥